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सर्वदर््नसंयरहः
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भवष्यक्ार्:ः-
प्रो° उमारांकरशरामो “षिः
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लातकोत्तरसंरकतविभाग, पटना-विश्वविधालय
चौरव म्बा विद्याभवन.बाराणसी-१
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ऋषि
भरी उमा्चैकर चमा
सम॑रा
पूज्य पितामह
स्वगि पण्डित स्वैदेवग्रत्ादशमां
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जिनके श्रीचरणों मे मेरा शेथव-काल
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कशास्थान्नायपीठाधीश्चर जगद्ुरु्रीशंकराचायं श्री हद स्वामी `
महेश्वरानन्द् सरस्वती ( कवितािकिचकरव्तीं १० महादेवा )
जीके
श्राशो्वचन
सवंदर्शनसंग्रह का प्रस्तुत हिन्दी-रूपान्तर मैने ध्यानपूरवंक प्रायः आय्योपान्त
देखा है । आज जब किं हिन्दी राष्टूमाषा के पद पर समासीन है, तब यह बात
आवश्यक ओर सामयिक है कि हिन्दी का साहित्य भी समृद्ध किया जाय।
इसकी समृद्धि के लिए कतिपय विद्रान् मौलिक कृतियाँ प्रस्तुत कर रहे है ओर
कतिपय उच्चतर भाषाओं मे वागबद्ध, परिष्कृत एवम् उच्च साहित्य का रूपान्तर
प्रस्तुत कर रहे हैँ । प्रस्तुत ग्रन्थ दुसरे ढंग का एक सामयिक प्रयास है ।
मौलिक कतियो मे कृतिकार अपनी प्रतिभा ओर मेधा का मुक्त उज्ञास
प्रदरित करता है, पर रूपान्तरात्मक तियो मे विद्रान् केखक दूसरों कौ प्रतिभा
ओर मेधा का साक्षात्कार करने की क्षमता रखकर ही अपना उत्तरदायित्व निभा
। सकता है । निष्कर्षं यह् हुआ कि मौलिक कृतिकार की भांति वह उतना मुक्त
= नहीं श्ता । प्रस्तुत रूपान्तरणं एकं दाशेनिक कृति का रूपान्तरण है, जिसमें
>+ विदान् खूपान्तरकार ने यह् शैली अपनाई है कि पहले मूल-पाठ का तटस्थ ढंग
से रूपान्तर प्रस्तुत कर दिया जाय बौर उस संद में यदि कतिपय शब्द
` अतिरिक्त रला जाना आवश्यक है, तो उसे कोष्ठकान्तगंत रख दिया जाय । आज
८ ही क्या, सदा से यह ढंग समुचित ओर सर्वोत्तम समज्ञा जाता है । यही उचित
| है कि पहले मूल-पाठ का तटस्थ रूपान्तर रख दिया जाय जिससे हिन्दी के
माध्यम से मूल को समन्नने वाका बुद्धिमान् पाठक सीषे मुलरूप को जानल)
इस स्तर पर पल्लवन करने मे यह भय रहता है कि कहीं रूपान्तरकार मूल का
अनुवाद अपनी दृष्टि से अन्यथा न प्रस्तुत कर दे--ओौर यदि एेसा हृभा तौ बह
लेखक ओर पाठक के बीच के माध्यस्थ्यं का उत्तरदायित्व ठीक से निबाहन
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सकेगा । मने हषं है कि रूपान्तरकार ने प्रथम स्तर पर इस वजञानिक अथवा
तटस्थ पद्धति का ग्रहण करके इस उत्तरदायित्व का पूरा निर्वाह करना
चाहा है ।
सवंद्शंनसंग्रह एक दाशंनिक कृति है, इसङ्िए रूपान्तरकार-जैसे मध्यस्थ-
जो मूल-लेखक ओर पाठक के वीच है का कायं केवल तटस्थतापूरवैक रूपान्तर
प्रस्तुत कर देनाही पर्याप्त नहींहै। भारतीय दार्शनिक अपने विचारों को
सहल्रान्द से चली आती हुई व्यवस्थित एवं पारिभाषिक पदावल्यों मे एक
विरोष शेली से प्रस्तुत करते है, अतः उनके समस्त विचारों को आधुनिक पाठक
के सामने हिन्दी-भाषा में रखते समय अनेकं प्रकार की सजगता आवश्यक है ।
पहली तो यह् किं भाषा हिन्दी की प्रकृति की हो, दूखरी पुराने आचार्या कौ
बातों को जहां तक हो सके आधुनिक पाठक के अनुभव मे उतार देने का प्रयासं
हो, तीसरी उखकी पारिभाषिकता का दुगं तोड़कर, उसमें प्रयुक्त संद्भ-शब्दो की
व्याख्या करते हुए, शासनीय संकेतो का विस्तार देकर बात को सुलज्ञा रूप दिये
जाने का प्रयत्न हो । छेखकं ने रूपान्तरण मे यह प्रयत्न किया है कि रूपान्तर
कीभाषाकी प्रकृति अधिक से अधिक हिन्दीकोहो। शेष आवश्यकताओं की
पूति के किए ही तटस्थ रूपान्तर के अनन्तर 'विशेष'-शीषंक से शाल्ञीय ग्रन्थियों
को भी स्पष्ट करने का प्रयास हुआ है । यही नहीं, रूपान्तर के मध्यमेभीकही- ण
कहीं लम्बे कोष्ठकं के अन्तगंत आवश्यक स्पष्टीकरणं हआ है । एसे प्रयासो में + - 2
कही-कहीं रूपान्त रकार कौ अनवधानता अवश्य दृष्टिगोचर होती है । उदाहरणार्थं _ ~
पृष्ठ सं° ११ पर मूल का रूपान्तर प्रस्तुत करते हुए यह कहा गया है--““ब्याि
का अथं है दोनों भ्रकार की ( शंकित ओर नििचत } उपाधियों से रहित [ पक्ष
गौर लिङ्गं का | सम्बन्ध ।'' यहां व्याप्ति को कोष्ठकान्तगंत पक्ष ओर लिङ्ख का
सम्बन्ध कहना स्वंथा विचारणीय है । स्वयं ही रूपान्तरकार ने अनेक स्थलों
पर व्याप्य एवं ग्यापक के सम्बन्ध को ही परम्परानुसार शाख्रीय ढंग से व्याप्ति
बतलाया है ।
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कायं बहूत ही व्यापक है । विभिन्न प्रकार कौ दार्ल॑निक धारायं दँ । सों
का अधिकारपूवक रूपान्तरण ओर स्पष्टीकरण साधारण श्रम का कायं नहीं
ठेसे बीहड क्षेत्र में संचरण करता हेज बौद्धिक यात्री कभी भटक जाय तो यह
सहज संभव है । लेकिन इस प्रकार कौ भी स्थितियां क्राचित्कं ही है ।
आधुनिक ठंग के पाठकों को ध्यान मे अधिक रखा गया है जो सामयिक
ओर समुचित भी हं । इसीलिए संस्कृत को पारिभाषिक पदावलियों के समानान्तर
अगरेज में प्रचलित प्रयोग भी रख दिये गये है । उनकी प्र माणिकता कै किए
ह्पान्तरकार स्वयम् उत्तरदायी हे । आधुनिक पाठकों की रुचि ओर आधुनिक
चैकी पर भी ध्यान होने के कारण बीच-वीच मे किंसी-किसी दशंन की संक्षिप्त
रेतिहासिक रूपरेखा भी प्रस्तुत कर दी गई है । परन्तु एसे प्रसंगो मँ भी कही
कहीं अनवधानता है । उदाहरणाथं प° सं° ३२१ पर रोवागमों के बीच
अहिवष्नय-संहिता को लिया गया दै--यह कहाँ तक ठीक है ? अहिवुश्न्य-संहिता
पाञ्चरात्रागम के अन्तरगत हे ।
अन्तिम बात जो पुस्तक की उपादेयता के संबन्ध में कही जने कीटहै वह्
यह किं ग्रन्थ के अन्त मे दाशंनिक पुस्तकों की एक वृहत् सुची संलग्न की गर् है ।
आधुनिक शोध-छातरों की दृष्टि से ठेसी सुचिथों का ब डा महत्व हीता है! सूची
४: _ एक सामान्य स्पे प्रस्तुत कर दी गई हो, एसी वात नहीं है । उसमे पुस्तक
`“ ओर उसके रचयिता का नामतो हे ही, महत््वपूणं ओर उल्लेखनीय बात यह है
करि उसमे जो पुस्तक जिख दर्शन की है, उस दरंन का भो सामने उल्लेख हे ।
इससे भी अधिक महच्वपूणं बात है कि आज का शोध-छात्र मल ग्रन्थकार का
माणिक काल-ज्ञान चाहता है । रूपान्तरकार ने प्रत्येक कृति के सामने उस कृति
का र्वना-काल भी दिया है । भारतीय मनीषियों की अन्तञ्॑खौ प्रवृत्ति तथा
अपना परिचय देने की ओर से निरन्तर तटस्थता दिखाने का भाव उनके इतिवृत्त
करे ज्ञान मे सदा बाधक रहा है । आधुनिक गवेषकों ने नये सिरे से इस पक्ष पर
प्रकादा डाला ह । परन्तु उन सवो मे सभी ग्रन्थकारो को लेकर सर्वत्र मतेक्य नहीं
> । रूपान्तरकार ने यदि यह बात ध्यान मे रखकर किसी प्रामाणिक इतिहास-
कार की सहायता कालनिर्धारणमें ली ह तो तदर्थं वे प्रशंसा के पात्र है।
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ट्स कृति में मेरे समक्ष रूपान्तरकार का अपना कोई निजी विचार या
मौलिक स्थापना किवी के पक्ष-विपक्षमे नहींहै कि उसके विषयमे भीमे
अपनी सम्मति प्रस्तुत करं । अतः रूपान्तरण के विषय मं जितने पल्लो से उसका
मूल्याङ्कन किया जा सकता है, उतना संक्षेप मे ऊपर उपस्थापितं किया गया
है । निश्चय ही इस महानु ओर सामयिक प्रयास के लिए श्रौ उमाशंकरश्मा
“ऋषि” मेरे साधुवाद के पात्र है ।
धममंसंघ, कारी,
ज्ये° शु० ४, २०२१
( १३-६-१९६४ } ।
--महेश्वरानन्द सरस्वती
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प्रतपोटिक्छा
[ सर्वदर्शनसंग्रह का महत्व--दशंन की उत्पत्ति-भारतीय दक्षन
ओर पाश्चाच्य दशंन-तच्वसात्तात्कार के साधन--प्रमाण- संख्या पर
विचार--दार्शनिके के मेद्-श्रौत ओर तार्किक~- प्रमेय ईश्वर पर दर्शानो
की मान्यता--जीव का निरूपण-संसार की व्याख्याये--विभिन्न दशनो
म तखविचार- नास्तिक-दर्शन- रामानुज ओर मध्व--अनुमान के
अवयव--अद्भेतवेदान्त--मोक्त का विचार-माधवाचायं का समय--
उपसंहार । |
माधवाचायं का सवदशंनसं ग्रह बहत दिनों से विद्वानों की दृष्टि में अत्यन्त
महस्वपणं स्थान रखता आया है । यद्यपि इसके अनेकानेक संस्करण प्रकारित
हो चुके है किन्तु अपनी राष्टृभाषा हिन्दी में कोई उत्तम अनुवाद तथा व्याख्या
न देखकर प्रस्तुत संस्करण का प्रयास किया गया है । भारतीय ओर पाञ्चात्य
विद्वानों के द्वारा किख गये आधुनिक ग्रन्थ यद्यपि दरंन के अध्ययन के लिए
प्रचुर सामग्री प्रस्तुत करते है, किन्तु प्राचीन भारतीय परम्परा का निर्वाह करते
हए माधवाचायं के द्वारा लिखे गये इस ग्रन्थ का अवमूल्यन किसी भी मूल्य पर
नहीं किया जा खकता । जेसी पाण्डित्यपूणं ली मे माधवाचायं ने अपने काल मं
प्रसिद्ध दर्शनों का संकलन करने का प्रयास किया ओर उनकी सर्वाङ्गपूणं
विवेचना करने मेँ कुछ उठा नहीं रखा, उस तरह का संग्रह् अन्यत्र मिलना
दुष्कर है । दशनो की विवेचना म उद्धरणों की पुष्कलता लेखक के अद्वितीय
पाण्डित्य की विजय-पताका पक्ति-पंक्ति में प्रसारित कर रही टै। चाहे गम्भीर
विवेचन हो, पूर्वपक्ष ओर सिद्धान्त में भीषण संग्राम चछिडा हुभा हो अथवा
किसी दर्शन के पदार्थो की गणना ही करनी हो, माधवाचायं की शली एकरूपता
का अद्वितीय दृष्टान्त उपस्थित करती है ।
यह प्रायः देखने मे आता दहै कि किसी विशिष्ठ सम्प्रदाय का ठेखकं दूसरे
सम्प्रदायो की विवेचना करते समय अपने विचारों का आरोपण करने लगता
हैयाकमसे कम उस विवेच्य सम्प्रदाय की आलोचनाभी करता जाता दहै ।
किसी भी केक से निष्पक्ष या वस्तुनिष्ठ ( (0}९५५१९९ ) होने की आजा करना
सरासर भल है परन्तु माधवाचायं मानो इस नियम के सबसे बडे अपवाद है ।
किसी भी सम्प्रदाय की विवेचना मे, चाहे वह चार्वाक ही क्योन हो, आचायं
की निष्यक्षता इलाघनीय है । प्रत्येक दर्शन के सिद्धान्तो जोर पदार्थो की व्याख्या
( २६ )
अधिकसे अधिक स्पष्ठरूपमें निर्विकार भाव से उन्होने की है । यही कारण
है कि भारतीय दशनो के अध्ययन में उनके सवंदशनसंग्रह का महत्व इतना
अधिक अंकित हुआ है ।
अब हम कुछ देर के किए अपने विवेच्य विषय से हटकर दर्शन-दास्त्र के
विषय मं सामान्य रूपसे कुछ विचार करे ओर उसी परिगरय म शरस्तत ग्रन्थ का
मूल्यांकन करं । र
दशंन-शब्द का व्युत्पत्ति-जन्य अथं है देखना, विचारना, श्रद्धा करना ।
आदि-कालसे ही मानवं ने अपने जीवनमें दशनं को प्रम स्थान दिया था।
वस्तुतः जीवन के प्रति मनुष्य का टष्टिकोण ही दशन है जो व्यक्ति-व्यक्तिके
लिए भिन्न-भिन्न हआ करता है । मनुष्य में अपने आस-पास के पदार्थो को
समने के लिए जिज्ञासा की लहरं सदा दौड़ा करती हैँ । यही नहीं, उसके
साथ इन वस्तृओं का क्या सम्बन्ध है, उस सम्बन्ध का निरूपण कौन करता
ठै, उसके ज्ञान के क्या साधन ट, इत्यादि ` कितनी एसी शंकाये है जिनसे मनुष्यं
को चिन्तन की प्रेरणा मिकती रहती है । सामान्य रूप से दर्शन के आविभाव का
यही इतिहास है ।
इस विषय मे भी भारतवषं की अपनी वि्ेषता है। रेखा कहा जाता है
किं भारतीय दशन दुःख की आधार-शिलका पर प्रतिष्ठितदहै। प्रायः सभी दर्शन
दुःख-नि्रृत्ति के लिए ही उपायों के अन्वेषणमें च्गे हुए हैँ। यह् एक निर्चित
तथ्य दहै किगप्राणी संसारम त्रिविधात्मक दुःखों से ग्रस्त है। उसकी स्वाभाविक
्रवरृत्ति होती टै किं सुख की प्राप्ति करे) यह तो एक दूसरी विशेषता है किं
एक ही उपायसे दुःख का निवारण तथा सुख का आसादन भी हो जाय 1 लेकिन
ह सुख टै क्या चीज ? क्या रूपये पा लेना, परीक्षा मँ प्रथम होना, या नौकरी
पालेना ही सुख है ? उत्तर होगा किंये सभी सुखन केवलं क्षणिक हैँ अपितुये
अतिशय से भरे हुए हैँ अर्थात् इन सवो मे एक से बढ़ कर एक सुख हैँ । इनकी
कोई सीमा नहीं । एकं सुखद वस्तु मिलने पर दूसरी की कामना होती है । यही
नही, कभी-कभी तो सुख की एक निदिचत परिभाषा देना भी असम्भव हो जाता
है। जो वस्तु राम के लिए सुखद है, मोहन के लिए नहीं । दर्शनों का लक्ष्य है
कि किसी भी उपाय से सर्वोच्च सुख की प्राप्ति का उपाय बतकायं जो साथ ही
साथ इस जगतु के दुःखो का आत्यन्तिक निवारण करने मे समथं हो । सांसारिक
दुःखों को बन्धन ओर उनकी निवृत्तिको दाशंनिक भाषामें मोक्षके नामसे
पुकारते हैँ । यही बन्धन ओौर मोक्ष भारतीय दशंनों का मुख्य प्रदन रहा है ।
यह दूसरी बात है किं उनके स्वरूप पर विभिन्न मत हैँ अथवा दुःख-निवृत्ति के
उपायों के विश्लेषण में मत-भेद है । कोई दाशंनिक कह सकता है कि महेश्वर
न्क्व ४ + ` ~ जक. बर
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॥ १४.)
की सेवा से मोक्ष मिलता है तो दूसरा कह सकता है कि आत्मस्वरूप के साक्षा-
त्कार से मोक्ष मिलता है। कोई दादँनिक जीते-जी मोक्ष प्राप्त होने की बात
करता दै तो कोट मृद्युके बाद ही मोक्ष की सत्ता निर्धारित करता टै! इस
तरह दशनो में भेद होता है। |
आत्यन्तिक दुःख-नाश॒ ओर आत्यन्तिक सुख दोनों का सम्मिलित नाम
मोक्ष ( मुक्ति, निर्वाण, महोदय ) है । मोक्ष पाने के ल्थि श्रुतियां तो उपाय
बतलाती ही है ताक्रिक दृष्टिसेभी करई दशनो मे इसपर विचार किया गया
है। नैते बौदढध-द्ंन चार आयं-सत्यों के ज्ञानको ही मोक्षसाधन समन्षता
है तो न्थाय-दर्शन अपने दशन मे कटै गये पदार्थो के साक्षात्कार कोदही मोक्ष
का खाधन मानता है) दूसरी ओर शंकराचायं आत्माके ज्ञान को मोक्ष का
साधन स्वीकार करते ै। यह देखनेमें आतादटै कि मोक्षके विचार को
लेकर प्रत्येक दन मे कुछ-न-कंछ विचार किया गया है । यहाँ तक कि चार्वाक
नेभीकहादै किदेह कानष्ट हो जाना मोक्षटहै। कुछ लोग मोक्ष कै प्रदन
पर बहुत दूर तक विचार करते हए पुनजंन्म का सिद्धान्त भी मानते है।
उनका कहना है कि इस संसार मे आवागमन का क्रम जब तक चलता
रहेगा तब तक तो प्राणी बन्धनमेंही पड़ाटै। मोक्ष होने पर नतो उसे
जन्म लेना पड़ता ओर न उसकी मृत्यु होती दे । व
पाश्चात्य दर्शन मे मोक्षके प्रन परलोग मौनदहै। यदहीकारणटै किं
भारतीय दर्शन सेवे एक नयी दिशाका निदेश पाते है। यद्यपि पाश्चाच्य
दशन मे भी भौतिकवाद के तुच्छ धरातल से बहुत. ऊपर उठकर हीगेल
( ९2९ ) के पूणं प्रत्ययवाद मेँ प्रवेश करने की चषा हुद दै किन्तु भारतीय
दशनो के तारतम्य तथा गंभीरता का ले भी उन दशनो मे नही है। कारण
यह है कि भारत में दर्शन को जीवन से पृथक् कभी तहं समज्ञा गया, चाहे
चार्वाक हो अथवा शंकर--सव के सब जीवन् के धरातलं पर ही अपने दशनो
की प्रतिष्टा करते है । यही कारण है कि भारतीय दर्शन पाड्चात्य दशनो कौ
भाति न केवर तत्त्वो की मीमांसा करता है, अपितु आचारशाखर, प्रमाणशाख,
क्रियादाख, मोक्षदाख्र आदि सभी विषयों को अपने में खमेट कर चरता हैँ ।
कहना न होगा कि पार्चाच्य दशन् उक्त पक्षों मे सों पर समान रूप से विचार
नहीं करता । तत्त्वो की मीमांसा ( 216४९10 ‰51०8 ) में वह इतना संनढ
है करि अन्य प्रदनों पर विचार करनेका उसे अवकाशही नहीं है । जिन
वाक्यो ओर शब्दों पर हमारे यहाँ के वैयाकरणो, नैयायिको, ओर मीमांसकों
ने बहुत प्राचीन काल मे ही विस्तृत विचार किया था उन पर पाइचातत्य जगतु
2 | २८ )
मं अभी-अभी अनुसंधान हृए हैँ तथा वे भी किसी निरिचत तथ्य पर नहीं परटुच
सके है । इसका निष्कं यह निकला कि भारतीय दर्शन एक सर्वागीण ओर
परिपूर्णं गार है । इसमे अब कुछ भी परिवर्तन, परिवर्धन, संशोधन की आवश्यकता
नहीं दै, उसका संकलन हम भले कर से, पाश्चात्य दशनो से उसकी तुलना
भटेहीकी जाय अथवा उसमे विद्यमान किसी महत्वपूणं प्रश्न को केकर
अनुसंधान भले ही किया जाय, परन्तु ओर किसी दूसरे कायं की आवश्यकता
उसमे नहीं है । दूसरी ओर पाइचात्य दक्शंन अभी भी अपूणं है-- जीवन, जगत् ,
या ईदवर की व्याख्या में पूर्णतः सफल नहीं है ।
तो, मोक्ष का प्रन भी रेसा ही प्रश्न है जिसके विषय में भारतीय दर्शन
ही परिपूणं समाधान दे सकता दै। दशंनोंके तारतम्यसे चार्वाकिके द्वारा
प्रतिपादित मोक्ष को विचारधारा से आरम्भ करके हम बढ़ जते है ओर
शंकराचायं के अद्ैत-वेदान्त में जिज्ञासा कौ पूतः शान्ति पाते हँ । माधवाचायं
की यही मान्यता है । अपने-अपने सम्प्रदाय के अनुसार दूसरे लोग मध्यवर्ती
दशनों मे प्रतिपादित मोक्ष का भी आश्रय छते है। विभिन्न दशनो में अन्य
विषयों पर भक्ते ही मतभेद हो किन्तु इस प्रश्न पर सब एकमत हैँ किं मूल
तत्त्व के साक्षात्कार से ही मोक्ष की उपलब्धि हो सकती है ।
किन्तु यह साक्षात्कार हो कैसे ? इसके लिय प्रमाणो के रूप मे साधन दिये
गये है । यह प्रशन सावंजनिक है कि हम किसी वस्तु का ज्ञान कैसे प्राप्त
करते है? शुद्धज्ञान के कौन-कौन से साधन है? प्रत्येक दर्शन मेँ इस प्र
विचार किया गय है ओौर अपनी रुचि के अनुरूप दार्शनिकों ने प्रमाणो की
संख्या निर्धारित की है । चा्वाकि केवल प्रत्यक्ष को ही प्रमाण मानता है । उसके
अनुसार कोई भी ज्ञान इन्द्रि की अपेक्षा रखता है। इन्दियों से उत्पन्न ज्ञान
ही यथाथं अनुभव है । चावकि-दशंन में यह् विचार किया गया है किं अनुमान
के लिय व्याप्ति-ज्ञान की आवद्यकता पड़ती है ओर व्याप्ति कौ स्थापना किसी
भी साधनसे नहीं हो सकती है । यह हम कह सक्ते हँ किं धूम ओौर अग्नि
का सम्बन्ध हम अपनी आंखों के सामने वतमान कालम भलेही जाने
किन्तु इसके लिये कोई प्रमाण नहीं है कि वतमान कालमेही हमारी ओँल
से दूर किंसीस्थान मेभी धूम ओर अगि का सम्बन्ध होगा। अतीत काल
ओर अनागत कालके विषय मतो कहना ही कठिन है। स्पष्टतः चार्वाकं
की यह विचारधारा विड ह्यूम के संशयवाद ( 306]धंभे ) से बहुत कु
मिलती-जुलती है ।
दूसरी ओर, बौद्धो ओौर जनों के अनुसार प्रत्यक्ष ओर अनुमान दो प्रमाणं
हँ । इनका कहना है कि व्याप्ति का ज्ञान प्राप्त करना कोई कठिन नहीं ।
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बौद्ध लोग तो व्याप्ति की स्थापना के ल्यि कार्य-कारण-सम्बन्ध तथा तादात्म्य-
सम्बन्ध को उपायके रूप मँ उपस्थित करते है किन्तु जैन लोग॒ अन्वय ओर
व्यतिरेक की विधिसेदी संतुष्टहै। हाँ, इतना वे दोनों मानते है किं व्यभिचार
कीशंकान रहे। शब्द ओर उपमान आदि प्रमाणों को अनुमान के अन्तगंत
ही रखा जाता है। वेशेषिक लोग भी इसी विधिसे केवल दो प्रमाण ही मानते
है । उनका कहना है कि शाब्द-प्रमाण सभी स्थानों पर प्रमाण ही नहीं होता ।
माध्व-सम्प्रदाय वेदो ही प्रमाण मानते हैँ किन्तु अनुमान नहीं, प्रत्यक्ष
ओर शब्द को । शब्दके द्वारा प्रतिपादित अथंका बोधकं होने पर ही अनुमान
प्रमाण माना जा सकता है । रामानुज-सम्प्रदाय वले स्पष्ठरूपसे अनुमान को
पृथक् गिनकर तीन प्रमाणो कौ बात करते हैँ। इन तीन प्रमाणोंको माननेकी
प्रथा सांख्य-योगमेभीदहै।
प्रमाणो के विशेषन्ञ के रूप में मान्य नैयायिको ने प्रत्यक्ष, अनुमान, उपमान
ओर राब्द इन चारों कोप्रमाणके रूप में स्वीकार किया है। माहेश्वर-
सम्प्रदाय वाके भी घुमा-फिराकर इन्हीं प्रमाणो को स्वीकार करते हँ । मीमांसकों
के अनुसार अर्थापत्ति ओर अनुपलब्धि को भी प्रमाण माना गया है। यह् दूसरी
बातदहैकिप्रभाकर-मत के मीमांसक अभाव नहीं मानते। अर्थापत्ति का अथं
है किं जब किसी दसरे प्रकार से वस्तुस्थिति की असिद्धिहो तो किसी एक स्थिति
का आपादन कर, जैसे दिन में भोजन न करने पर भी देवदत्त मोटा हुए चले जा
रहे है, तो अर्थापत्ति से हम जान सक्ते हैँ किवे रातमेंही उट कर भोजनं करते
होगे क्योकि किसी दूसरे प्रकार से उनकी मोटाई सम्भव नहीं है । अनुपकन्धि
का अर्थंदहै किसी वस्तुका अभाव जानना) सभामे परहुचतेहीहमे मालमहो
गया कि वहाँ हमारा मित्र नहीं है। यह् बात अनुपलन्धि-प्रमाणसे ही माङ्म
हुई है । शंकराचार्य भी उपयुक्त छह प्रमाणो को ही मान्यता देते हैँ । पौराणिको
काभीएक सम्प्रदायदहै जो सम्भावना ओौर एेतिह्यको भी प्रमाण मानता दहै ।
न्वा प्रमाण चेष्ठा है जिसे तान्त्रिक ओर साहित्थिक लोगं मानते हैँ । यद्यपि इन
प्रमाणो मे प्रत्यक्ष को शिरोमणि कहा गया है किन्तु करई एेसे विषय हैँ जिनकी
सिद्धिके ल्यि हमे अनुमान ओर शब्द पर अवलम्बित होना पडता है जसे ब्रह्म
की सिद्धिके चयि श्रुति को ही शंकराचार्य ने प्रमाण-शिरोमणि मानाहै।
इस प्रकार प्रमाणो की विवेचना करने के परचातु इनके आधार पर
दाशनिकों हम दो कोटियो मँ रख सक्ते ह*--ताकिक, ओौर श्रौत । श्रौत
दाशंनिक वे हैँ जो मूरतत्त्व के अन्वेषण मे श्रृति को ही मुख्य साधन मानते है ।
# अभ्यंकर-उपोद्घात पृ० ४२।
( ३० )
उन्दर हम वेदवादी भी कह सकते है । इनमें शंकराचायं, जेमिनि, पाणिनि आदि
आते हं । ` ताक्किक दारेनिकसे हमारा अभिप्राय मह है कि मूलत्व के अनु-
संधान से ये लोग एकमात्र तकं का सहारा लेते है । तकं ओर कुछ नहीं, अनुमान
काही दूसरा नामहै।ये लोग श्रुति में प्रतिपादित विषयों को भी तकं-निकष पर
कंसनेःपर ही प्रमाण मानते है । ताक्तिकोंकेभीदोभेदरहँ- एकतो वे दादनिक
जो अपने को स्पष्टतः ताकिक क्ते हैँ ओर दूसरे वे जो अपने को श्रौत कहने पर
भी भीतर-भीतर तकंका ही सहाराच्ते है बादरायण के ब्रह्मसूत्र की व्याख्या
करने वाके रामानुज ओर माध्व सम्प्रदाय वाले दानिक कहते है किं हम लोग
उपनिषदों को प्रमाण मानते है किन्तु श्रुति-वाक्यों का जो अथं उन्होने पूर्वाग्रह्
के कारणं किया है उससे तो यह् स्पष्ट मादरम होता है कि ये प्रच्छन्न ताकिक ह ।
उदाहरण के च्िस्पष्टरूपसे जीव ओर ब्रह्मकी एकता का निर्देश करने
वाले ( तत्वमसि ) इस वाक्य का उन दोनों ने कैसे निर्वाह किया है यह देखने
ही योग्यै) रामानुजकी दातो ओर भी दयनीयदहै। वे अपने श्रीभाष्य
मे शंकराचायं की लिल्ली उड़ाते ह कि शंकर श्रौतमत के बहाने से छिपकरर बौद्ध
धमं का प्रचार कर रहे ह । ओर रामानुज ? वेद-मत का प्रचार करते हुए क्या
चि हुए ताकिक वे नहीं टै ?
वांख्य-योग, न्याय-वैशेषिक आदि भी ताक्रिक ही है क्योकि इन्होंने भी
अपनी प्रतिष्ठा अनुमान के बल परहीकीटै। यहाँ स्मरणीय है किश्वौत ओर
ताक्रिक दाशंनिकों मे भेदकाकारण यहटहै किश्चौतपक्षमे बेदोंको स्वतः
प्रमाण माना गया है जब कि ताक्रिक पक्षम उन्हं परतः प्रमाण मानते हैँ ।
स्वतःप्रमाण का अर्थं हैकि वेदों की प्रामाणिकता अपने आप में सिद्ध ( 96]
९११९४ ) है, किसी दूसरे प्रमाण को उसे सिद्ध नहीं करना पडता । तदनुसार
वेदों को अपौरुषेय मानते ह । वेदो की शक्ति अकुण्ठित या अप्रतिहत हे । द्री
ओर, जो लोग वेदों को परतः प्रमाण मानते उनका यह कहना है कि वेद
पौरुषेय है, अनित्य है, उनकी सिद्धि के लिए हमें दूसरे साधनों पर निर्भर करना
पड़ता है । इस दशा में वेदों को पुरुष अर्थात ईव र की रचना मानते ह ।
पौरुषेय ओर अपौरुषेय का विचार मीमांसा-दशेन मे अच्छी तरह हुआ
है। अन्तमें वेदोंको अपौरुषेय ही माना गया है। इनका कथन है किं वेद
ईश्वर से केवल प्रकारित हुए हैँ । जसे मनुष्य अनायास ही निःख्वास छोडता
है, उसे नतो बुद्धिकी आवदयकता पडतीटहै यान किसी परिश्रम की।
उसी प्रकार वेदभी ईदवरसे प्रादुभूत हुए है। अपोरुषेय मानने परी
१. देखिये, पृ २४७ ।
५/१
(३१ )
श्रौत दाानिकों ने श्रुति की प्रामाणिकतां सबसे ऊपर स्वीकार की है। यहाँ यह
स्मरणीय है कि सत्ताओं के भेद से श्रुति ओर प्रत्यक्ष इन दोनों प्रमाणो मे कोई
विरोध नहीं है । जहाँ तक व्यवहा र-जगत् का सम्बन्ध है, हरे प्रत्यक्ष को प्रश्रय
देना ही पडेगा । लौकिक दषटिसे देतभी सत्य हीदहै। किन्तु पारमार्थिक
दृष्टिकोण से विचार करने पर श्रुतियों को प्रधानता देनी पडेगी । उस दशा में
अद्रेतवाद ही सत्य सिद्ध होता है ।
प्रमाणो के इस विवेचन में हम दो बातें स्पष्टरूपसे देखते हँ --एकं तो
प्रमाणो की संल्या ओर दूसरी प्रमाणो की प्रामाणिकता या पूर्वापरता । यह्
स्वंमान्य है कि प्रमेय पदार्थोका विचार करनेसे पूवं प्रमाणोंका संग्रह कर
लेना आवश्यक है ।
प्रमाण से जिसकी सिद्धि की जाती है उसे प्रमेय कहते हैँ । इसमें मुख्य रूप
से तीन पदार्थं मिरते हैँ । जीव, जगत् ओर ईख्वर । कोई दाशंनिक तो इन तीनों
की पदार्थता मानते है, कुछ केवल दो की ओर कुछ केवर एक की । वस्तुस्थिति
चाहेजोभीदहो इन तीनों की व्याख्या उन सों को करनी पड़ती है- चाहे वे
तीनोंकोएक हीमे क्यों न समेट लं । तो इनका क्रमः निरीक्षण करं--
( १) ईेश्वरः--ईदवर के विषयमे चार्वाक कातो कहना है कि इसकी
सत्ता अलौकिक नहीं । पृथ्वी का राजादही परमेइवरदहै। यदि चावकिंसे
पुछा जाय कि ईङ्वर के न मानने पर लौकिक ओर अलौकिक कर्मो का फल
कौन देगा ? तोये बतकायेगे कि लौकिक कमं तो राजाके अधीन ही-वही
तो निग्रह ओर अनुग्रह करने में समथंदहै। याचकोंको दान देकर ओौर चोरों
को दण्ड देकर वह॒ खभी कर्मो का फल यथाविधिदेताही टै) अब रही बात
अलौकिक कर्मो की। ये अलौकिक कमं वास्तवमे धूर्तो के उपाख्यानहैजो
जनसामान्य को ठगने के ल्ि वैदिकं वंचकों के बकवाद हैं ।
बौद्ध ओरं जेन अपने-अपने धर्मं प्रवतंकों को ही ईदवर मानते हँ । वस्तुतः
ये लोग भी ईइवर की सत्ता मानते ही नहीं । सांख्य में भी ईदवर नहीं माना
जाता । मीमांसक लोग भी ईरवर नहीं मानते किन्तु मनुष्य के कर्मो का शुभ-
अशुभ फल देने के व्यि अदृष्ट नाम की एक शक्ति स्वीकार करते हैँ । वैयाकरण
लोगो से पृचछने पर सम्भवतः वे यह करगे कि शब्दं की परा अवस्था जिसे स्फोट
भी कहते है, वही ईखवर है । रामानुज ईदवर पर कुछ विशेषणो का आरोपण
करते हैँ । उनके अनुसार ईइवर जीवों का नियामक, अन्तर्यामी ओर उनसे
पृथक् पदार्थं है । जीव ओर जड उसके गरीर है जीवों को वह उनके कर्मो के
अनुसार फल देता हैँ । मध्वाचायं के अनुसार भरी ईङ्वर इन्हीं विशेषणो से युक्त
( ३२ )
है किन्तु यह अन्य पदार्थो से सर्वथा भिन्न दै। बह संसार का उपादान-कारण
नहीं, केवल निमित्त-कारण है । महेस्वर सम्प्रदाय, नैयायिक ओर वेशेषिक-
दर्शनों कौ भी यही मान्यता है । केकिन इस दशंन-समूह मे दो मत दहो जाते
हे । पाशुपत ओर प्रत्यभिज्ञा दशंनों मे यह माना गया हे कि ईश्वर कमेका
कल देने के समय जीवों के द्वारा किये कर्मा की अपेक्षा नहीं रखता क्योकि एेसा
मानने पर ईदवर की स्वतंत्रता नहीं रह सकेगी 1 दूसरे महेश्वर, वेेषिक ओर
माध्वमत वाले कहते है कि ईखवर कर्मो की अपेक्षा रखते हृए ही संसार का
निर्माण करता है ।
योग-दश्चन मे यद्यपि ईदवर जीव से भिन्न है किन्तु वहनतौ संसार का
निमित्त-कारण है जौरन उपादान ही। वह सवथा निप ओर निगुण है ।
शंकराचायं के अनुखार भी ईश्वर वैसा ही दै किन्तु वह पारमार्थिक टे । यह
स्मरणीय है कि जगत् ओर ईरवर की सत्ताओं में ` अन्तर है । अतः दोनोंमे
कार्य-कारण-भाव होना असम्भव है। माया के आधार पर ईत्वर संसारका
उपादान-कारण बनता है किन्तु विवतं रूप से ।
, इई्वर क विषय मेँ दिये गये बहुत से प्रमाण हैँ । किन्तु खभी अनुमान ओर
श्रुति पर आधारित हैँ । यदि श्रोत-दर्शन हो तो ईवर श्रुति-चिद्ध है ओर यदि
तारक दशन हो तो ईवर की सिद्धि अनुमानसे करते ह । फिरभी श्रति की
प्रधानता अन्ततः स्वीकार करनी ही पडती है ।
( २ ) जीव-ई््वर के समान ही जीव को लेकर भो दारंनिकों मे बड़ा
विवाद है। सरवंप्रथम चार्वाकों की ओर इष्टिपात करने पर हम देखते
हैकिवे शरीर कोही आत्मा कहते ह यदि उसमे चैतन्य हो । कर्ता ओर
भोक्ता भी वहीदै। चार महाभूतो ( (31088 €]€0€08 ) के मिलने से
विशेष त्रिय द्वारा चैतन्य उत्पन्न होता है । उसमें चैतन्या के दारा ज्ञान होता
है, देहांश तो जडकेसूपमेहीहै। यहं दूसरी बात है कि कुछ चार्वाक इन्द्रियो
को ही आत्मा मानते है । कु प्राण को ओर कुछ मन को भी आत्मा मानते हँ ।
चार्वाको का मत विभिन्न दर्शनों मे पूवंपक्ष के रूप म उपस्थित किया गया है,
स्वतन्त्र रूप से तो कहीं उनके विचार मिरे ही नहीं ।
बौद्धो के अनुसार जीवात्मा विज्ञान के रूपम है) चकि विज्ञान क्षणशक्षणः
बदलने वाले प्रवाह के समकक्ष है इसलियि आत्मा भी क्षण-क्षण बदलने के कारण
अनित्य है । पूर्वक्षण में उत्पन्न विज्ञान अपने उत्तरक्षणमें संस्कारके रूपमे
चला आता है इसलिये स्मृति आदि की सिद्धि की जाती है। शून्यवादी बौद्ध तो
आत्मा के मूल रूप को शुन्य ही मानते है किन्तु व्यवहार कीदलामे आत्माकी
( ३३ ,
प्रतीति भी उन माननी पडती है। जनों के अनुसार जीवात्मा देहसे भिन्नही
है किन्तु देह के परिमाणमें ही रहती है । देह के बढ़ने ओर घटने से जीवात्मा
भी बढती-घटती रहती दै । उनके अनुसार जीवात्मा नित्य तो है किन्तु उसमे
विकार होते रहते है । खरे शब्दो में वह अपमा कूटस्य ( एक समन रूपमे }
नित्य नहीं है।
आस्तिक दर्शनों मे, नैयायिकं ओर वैशेषिकं का यह कहना है किं जीवात्मा
के गुण बुद्धि, सुख, दुःख आदि जब अनित्य है तो जोवात्मा भी विकारी है
क्योकि धर्मी मे आने ओर जाने वाले धमं धर्मी को विकारशील बना देते है।
कहने का अभिप्राय है किं जीवात्मा कूटस्थ नित्य नहीं है ओर आत्मा का स्वल्प
जड कै समान हो जाता है । यही कारण है किमृक्तिकीदशामें ज्ञान का नाड
हौ जाने से आत्माय पाषाणवत् हो जाती है । प्रभाकर-मीमांखकों के मत से
यह सिद्धान्त बहुत कु मिकता-जुलता है । मीमांसकं का दूसरा सम्प्रदाय
भाद्र-खम्प्रदाय मानता है कि आत्मा अंशा के भेद से ज्ञान ओर जड़ दोनोंकेरूप
न है । शैव, सांख्य ओौर योग के सम्प्रदायो मे तथा वेदान्तियो के मत से आत्मा
केवल ज्ञान के स्वरूपम दै । यह दूसरी बात है कि अद्रैत-वेदान्ती, सांख्य ओर
योग वाले आत्मा को निगंण मानते हैँ जब कि दवैत-वेदान्ती, विरिष्टद्वैत-वेदान्ती,
नैयायिक ओर वैशेषिकं आत्मा को सगुण मानते है ।
जहौ तक जीवात्मा के परिमाण ( 148६१४१९ ) का सम्बन्ध है, बौद्ध
लोग कहते है किं आत्मा विज्ञानो का प्रवाह है अतः उसका कोई परिमाण नही
हो सकता । वास्तव मे आत्मा का आश्रय कोई है ही नहीं जिससे आत्मा उसके
अनुरूप कोई परिमाण धारणं कर ठे । रामानुज, मध्व ओर वल्लभ-सम्प्रदाय
वाले कहते हँ कि जीव का परिमाण अणु के समान ( ^ ४०10) है । नैयायिक,
बैगोषिक, सांख्य, पातञ्जल तथा अद्ैत-वेदान्त वाले जीवात्मा को विश्रु ( 4 ॥-
06९881९8 ) कहते है । प , शून्यवादी ओौर जेन रोग आत्मा को अणु
ओर विभु के बीच में रखते है अर्थात् जीवात्मा मध्यम परिमाण की है।
जीव कत्ता या भोक्ता है, इस विषय पर भी मत-भेद है । नैयायिक ओर `
वैशेषिक तो जीवात्मा का कंतुत्व सत्य मानते हैँ किन्तु रामानुज ओर मध्व-
सम्प्रदाय वाले उसके सत्य होने पर भी उसे नैमित्तिक मानते है स्वाभाविक
नहीं । अदरत-वेदान्ती कहते है कि जीवात्मा कुछ उपाधियों के कारण ही कर्ता
बनती है । सांख्य-योग में प्रकृति को कर्ता माना गया ह । इसीलिये प्रकृति के
# दे° पंचदरी ( ६।८८ } ।
र
( ३४ )
सम्बन्ध से जीवात्मामें भी कर्ताहोनेकी प्रतीति हो जातीहँ। जिस रूपमें
जीवातमा कर्तादहै उसी रूपमे भोक्ताभी रहै)
( ३ ) संसार-संसार अर्थात् जड़-वगं कौ सत्ता के विषय में किसी का
मतभेद नहीं हो खकता, भले ही वह सत्ता भिन्न-भिन्न दृष्टिकोणो से मानी जाय ।
चावकिंका कहना है किं जड़ पदां ही संसार का मरक कारण है। पृथ्वी,
जल, अग्नि ओर वायुके परमाणुहीसंसारका निर्माण करते है। बौद्ध रोग
यद्यपि चार्वाक की तरह ही आकाश-तच्व नहीं मानते किन्तु वे चार्वाकके द्वारा
सम्मत परमाणुओों मे अवयव मानते हँ ओर उन अवयवो का प्रवाह संसार का
निर्माण करता है । जैन लोग एक प्रकार के परमाणुओं को ही संसारके मूल
कारण के रूपमे स्वीकार करते दँ! आकाश भी इहं मान्य है । न्याय- |
वैलेषिक दर्शनों मे सूयं की किरणों मे उडने वा धरल-कर्णो के अवयवों को
परमाणु कहते ह 1 दो परमाणुं के संयोग ॒से एकं इयणुक बनता है ।. तीन
द्रचणुकों के मिलने से एक व्यणुकं बनता टै । यही सूयं की किरणों में धूल के
रूपमे दिखलाई पडता है) इसीक्रम से संघार का निर्माण होता है। ये
परमाणु नित्य है । दूसरी ओर, मीर्मासक ओर वैयाकरण परमाणुओं कोभी
अनित्य मानते हए केवल शब्द की नित्यता स्वीकार करते हैँ । यह शब्द ही
संसार का मूक कारण है) सांख्य-योग के मतसे यह शब्द भी कायं है, नित्य
नहीं क्योकि शब्द का कारण अहंकार है । अहंकार का कारण महत् ओर महत्
का कारण त्रिगुणात्मक प्रकृति है । रामानुज-सम्प्रदाय वाछे इसे ही मान्यता
देते ई । अद्वैत-बेदान्तियों के अनुसार यह प्रकृति भी मुक कारण नहीं हो
सकती । यह ब्रह्य का विवतं है जिससे प्रकृति सद्वस्तु के रूपमे प्रतीत होती
हे! आत्माही संघारका मूलकारणटहै। ये सारे दृश्यमान षदाथं उसी के
विवत है ।
अब हम यह विचार करं क्रि यह पृष्ट मूल कारण से किस खूप मे सम्बद्ध
है। इस पर न्याय-वैशेषिकों का कहना है कि कारण तीन प्रकार के है--समवायी,
असमवायी जर निमित्त । ये तीनों मिलकर अपने से भिन्न कायं को उत्पत
करते ह । अर्थात् कारणों से भिन्नरूप मे कायं की उत्पत्ति होती टे । इसे ही
आरम्भवाद भी कहते है । खभी लोग इस मतको नहीं मानते । बौद्धो का
कहना है कि समवायी अर्थात उपादान कारण ( जेस मिदर या सूत ) अपनेसे
भिन्न कायं उत्पन्न नहीं करते हँ । तदनुसार समवायी कारण का संघात ((00-
४०800) होने से ही कायं होता टै । इसे केवल सौत्रान्तिक ओौर वेभाषिक
बौद्ध ही मानते ह। चकि संघात भो क्षण.क्षण मे बदर रहा दहै अतः कारण
( २५ )
के नष्ट होवे ही कायं उत्पन्न हो जाता है। शून्यवादी तो कगे कि का्यंका
कारण कभी सद्रूप होता ही नही, असत् होते हए भी क्षण-क्षण मे प्रतीत होता
रहता है । इस मत को लोग असत्ख्यातिवाद् कहते हैँ । विज्ञानवादियों के
अनुसार विज्ञानरूपी आत्मा क्षण-क्षण मे नये-नये बाह्य पदार्थो के रूप में प्रतीत
होती है । उपादान-कारण जब वास्तवमें कायंके रूपमे बदल जायतोउसे `
परिणामवाद कहते है जिसे सांख्य-योग ओर रामानुज-वेदान्त मे माना गया
है। जब कारण की परिणति कायंके रूपमे सचमुच नहींहो, केवर वसी
श्रतीति हो तो उसे विव्तवाद् कहते हँ जो शंकराचायं की मान्यता है ।
शंकराचायं के विवतंवाद का एक रूप दष्टि-खृष्टिवाद् के रूपमें
देवने मेँ आता है। इसका अथं है किं जिस समय हमने देखा उसी समय
उसकी यृष्टिहो गई । वस्तुस्थिति यहदटै कि देखने के समय द्रष्ठाकी अविद्या
के कारण उक्तं वस्तु उसरूप में सृष्ट ( €&४९१ ) दिखलाई् पडती है ।
पहङे से उसकी सत्ता नहीं रहती । राम ने सीपी मे रजत देखा तो उस समयं
उस स्थान पर रजत राम की अविद्या से ही उत्पन्न हुआ है, उसके पूवंया
परचात् रजत की प्रतीति नहीं होती । सांसारिक प्रपच भी व्यक्ति की अविधा
के कारण तात्तालिकि ओर तद्रूप ही मृष्ट होता है। जीवों.को नानात्मक मानने
पर प्रपंचकाभेद भीहोगा। वास्तव में जीव होना' ही अवियाके कारण
होता है, वह वस्तुतः तो है नहीं । अभिनवगुप्त के सम्प्रदाय ( प्रत्यभिज्ञा ) में
भी यही बात कही गयी है परन्तु वे लोग ॒प्रतितिम्बवाद् नाम का सिद्धान्त
मानते है । यह ठीक है कि जगत ब्रह्मकेकारणहै किन्तुनतो ब्रह्मने संसार
काञारम्भहीक्याहै, नतो वह ब्रह्म कापरिणामदहैभौर नही बिवतं।
जेसे दपंण मे बहिभरुत पदार्थो का प्रतिबिम्ब दिखलाई पडता है वैसे ही ब्रह्म
मे अन्तभूत जगत् का प्रतिबिम्ब दिखलाई पडता है । विम्ब के स्थान पर स्वीकृत
माया ब्रह्म मे अपना सम्बन्ध दिखाकर बिम्ब के अभाव मं भी प्रतिबिम्ब उत्पन्न
करती है। अतःनतो विम्ब को अलग मानकर द्वैत-पक्ष मे जाना पडता ओर
न बिम्ब पृथक् नहीं है" कट् कर मूकच्छेद ही करने की आवश्यकता है ।
तत्व-विचार- सभी दार्शनिकों ने, चाहे वे कहीं के हों, किसी-न-किसी
रूप में संसार के मूल पदार्थो ( ८107816 हदशा प्त ) पर विचार किया
है। इन्हे ही भारतीय दशन मे पदाथं या ^तच्व'के नाम से पुकारते ह।
चार्वाक ोगों का कहना है कि पृथ्वी, जल, अन्ति ओर वायु, ये चार तत्त्व
है । बौद्ध लोग भिन्न-भिन्न प्रकार के तत्व मानते हं । शून्यवादी केवल शून्य
को, योगाचार वाे केवल विज्ञानस्कन्ध को तथां अन्य बौद्ध पाच आन्तरिक-
( ३६ )
स्कन्धो को ओर चार बाह्य परमाणुओं को तच्व मानते है । भगवान् बुद्ध के
विचार से दुःख, दुःखसमुदय, दुःखनिरोध ओर निरोधमागं ये चार आयं-सत्य
अर्थात तत्त्व है । जैनं के विचारसे दो तत्तव है जीव ओर अजीव । इन्हीं
का विस्तार पांच तच्वोंके रूपमे किया गया है जीव, आकाश, धर्म, अधमं
ओौर पुद्गल । उसी प्रकार सात त्वो का वणन भी कृ लोग करते है--
जीव, अजीव, आखव, संवर, निजेर, बन्ध ओर मोक्ष । ये नास्तिक दाशेनिकों
के विचार रै,
रामानुज-सम्प्रदाय के अनुसार सभी पदाथं प्रमाण ओौर प्रमेयके सूपे
बटे हृए हैँ । प्रत्यक्ष, अनुमान ओर शब्द प्रमाण है ओर द्रव्य, गण तथां सामान्य
प्रमेय है । द्रव्यो के भीछः भेद है -- ईश्वर, जीव, नित्यविभूति, ज्ञान, प्रकृति
ओौर काल । गुणों के दख भेद है-- सत्व, रजस् , तम॑स् › शब्द, सपद, खूप, रस,
गन्ध, संयोग ओ र शक्ति । सामान्य द्रव्य-गुण दोनों के खूप में होता है। ईर्वर
पौच (रकार का है--पर, व्यूह्, विभव, अन्तर्यामी ओर अर्चावतार । वैकुण्ठ में
निवा करने वाले तथा मुक्त जीवों के द्वारा प्राप्य नारायण ही पर ईदवर है ।
व्यूह् चार तरह का होता है-- वासुदेव, संकर्षण, प्रदयप्न ओर अनिरुद्ध ।
यद्यपि भगवान् एक ही है परन्तु प्रयोजनव श उनके चार रूप हो गये हैँ । उनमें
ज्ञान, बल, रेश्वर्थ, वीयं, शक्ति ओर तेज, इन छः गुणों से युक्त वासुदेव हैँ ।
संक्षण-व्यूह मे ज्ञान ओर वल की प्रधानता रहती है । प्रद्युम्न मे देडवयं
तथां वीयं कौ प्रधानता र्टती है । अनिरुढमे शक्ति ओर तेज की प्रधानता
रहती है । भगवान् के अवतारो को विभव कहते है । अन्तर्यामी ईइवर वह
है जो जीवोंके हृदय में रहता है । योगौ लोग इसे पा सक्ते हैँ तथा जीवों
का नियन्त्रण भी यही करता है। देव-मन्दिर में प्रतिष्ठित ईर्वर अर्वावतार
हे । इस प्रकार ईदव र-दरव्य का निरूपण किया गया 1
जीव ईदवर के अधीन होते है, प्रत्येक शरीर में भिन्न हैँ तथा नित्य दहै।
मे तीन तरह क है--बद्ध, मुक्त ओौर नित्य । संसारी जीव बद्ध है, नारायण कौ
उपासना से वैकुण्ठ मे पटे हुए जीव मुक्त दै ओर संखारको कभीन दूने
वाले अनन्त, गरुड आदि जीव नित्य हैँ । नित्य-विभूति से वैकुण्ठ-लोक खमञ्ञा
जाता है! ज्ञान का अथं दहै अपने अपमें प्रकाशित होने वाला जिसे चेतन्य
ओौर बुद्धि भी कहते द । प्रकृति त्रिगुणात्मक तथा चौबीस तत्वों से बनी हुई
हे । ये चौबीस तस्व है- प्रकृति, महत , अहंकार, मन, पांच ज्ञनेन्द्रया, पाच
कर्मेन्द्रिय, पाच तन्मात्र ओर पाँच महाभूत । काकं जड पदार्थं है ओर विभु है।
इन सों का स्पष्ट विवेचन यतीन्द्रमत-दीपिका में हज है ।
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पम सीः च:
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( ३७ )
माध्व-सम्प्रदाय के अनुसार तत्त्वो की संख्या दस है-दरव्य, गुण कम,
सामान्य, विशेष, विशिष्ठ, अंशी, शक्ति, सादृस्य ओर अभाव । द्रव्यो की संख्या
बीस है--परमात्मा, लक्ष्मी, जीव, अव्याकृत, आकाशप्रकृति, तीन गुण, महत्तत्व,
अंहकारतत्व, बुद्धि, मन, इन्द्रिय, तन्मा, महाभूत, ब्रह्माण्ड, अविद्या, वरण,
अन्धकार, वासना, का ओर प्रतिबिम्ब । गुणो की संख्या अनेकं है । रूप, रस
आदि चौबीस गुणों के अकावे आलोक, दम, कपा, बल, भय, लज्जा, गम्भीरता,
सुन्दरता, धीरता, वीरता, शूरता, उदारता आदि भीगुणमेही चले मतिर्है।
कमं के तीन भद है विहित, निषिद्ध ओर उदासीन ! नित्य ओर अनित्य के
मेद से सामान्य भीदो तरह केहै। मेदनहोनेपरभी भेदके व्यवहारका
निर्वाह करने वाले अनन्त विशेष हँ । माध्व लोग समवाय नहीं मानते ।
विशेषण् के सम्बन्ध से विशेष्यमे होने वाला आकार ही विशिष्ट नाम का पदार्थं
है । अंशी का मतलब है--हाथ, डेग इत्यादि के द्वारा नापा जाने वाला पदाथं।
शक्तियां चार है, अचिन्त्य-शक्ति, आवेय-शक्ति, सदज-राक्ति ओर पद-शक्ति ।
सादृश्य तो छोक में प्रसिद्ध ही दै किन्तु यह दोनों पदार्थो मे स्थित नहीं रहता ।
दूसरे के आधार पर एक वस्तुं ही स्थित रहता है । वशेषिकों के खमान ही
यहाँ चार प्रकार के अभाव माने जते है प्रागभाव, प्रध्वंसाभाकं, अन्योन्याभाव
ओर अत्यन्ताभाव । अविद्या पांच खण्डो की होती है-- मोह, महामोह, तामि,
अन्व-तामिच्र ओर तम वर्णोकी संख्या इकावन (५१) मानी गईहै इस
प्रकार द्ैव-मत में तत्वों का विवेचन बहुत अधिक विश्लेषण के साथ हुआ है ।
अब महेदवर-सम्प्रदाय के अनुसार त्वं पर विचार करं । - पाशुपत-दशन
के अनुसार पाच तत्त्व है--कायं, कारण, योग, विधि जौर दुःखान्त । कायं का
अथं है अस्वतंत्र पदार्थं जिसके तीन भेद है विया, कला ओर पशु । जीव के
गुणों को विद्या कहते है, अचेतन पदार्थं को कला कहते हँ ओर पशु तो जीव
हीह) कारणकेदो भेद है स्वतन्त्र ओर परतन्त्र । पांच ज्ञानेन्द्र्या, पाच
कर्मेन्द्रियं ओर तीन अन्तःकरण मिलकर परतन्व्र-कारण बनाते है । स्वतन्त्र
कारण परमेदवर है । आत्मा ओर ईदवर के सम्बन्ध को योग कहते है, धमं-
कायं की सिद्धि करने वाली विधि टै ओर मोक्ष दुःखान्त ।
शव-दर्शन मे पति, पशु ओर पाश, ये तीन पदार्थं कहे गये दै । पतिका
अर्थ है शिव, पयु जीव है ओर पाशकेचार भेदर्है-मक, कम, माया ओर
रोध-दाक्ति । इन सों का विचार प्रस्तुत ग्रन्थमें किया है। प्रत्यभिज्ञा-दशेन में
जीव ओर परमात्मा दोनों को एकाकार कहा गया है । किन्तु जड पदाथं आत्मा
से भिन्नभीदहै ओर अभिन्न भी। ओर बाते तो पाुपत-दर्शन से मिलती-जुलती
ही ई) रसेव र-दशंन भी तच्व-विचार में कोई नयी चीज नहीं देता ।
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( ३८
न्याय-वैशेषिक दर्शनों के तत्त्व इतने प्रसिद्ध हैँ जितने किसी दर्शन के नहीं ।
वस्तुतः उनका दशंन ही ततत्व-विचार-शाख्र है । वैशेषिको के यहां सात पदां
स्वीकार किये गये हैँ जिनमें द्रव्य, गुण, कमं, सामान्य, विशेष, समवाय, ये
छह भावात्मक ( 2081४*6 ) है ओर अभावं नामका सप्तम पदाथंभी
स्वीकृत है । नैयायिकं ने प्रमाण-प्रमेय आदि सोलह पदार्थो का निरूपण किया
है 1 यहाँ पर यह ध्येय हैकि नैयायिकों ने अनुमान के छियि पाँच अवथवोंकी
आवश्यकता मानी है । वे है--प्रतिज्ञा, हेतु, उदाहरण, उपनय ओर निगमन ।
ये अवयव प्रायः सभी दा्निकों को स्वीकृतदहैँं। फिर भी कुछ दाञ्निको ने
अपने-अपने दृष्टिकोण से इनका चयन किया है । बौद्ध लोग उदाहरण ओर
उपनय से ही संतुष्ट है । मीमांसक रोग तीन अवयवो को मानते है--प्रतिज्ञा,
हेतु ओर उदाहरण 1 अद्रेत-वेदान्ती केवल तीन अवयवो को ठेते हैँ चाहे प्रथम
तीन या अन्तिम तीन। रामानुज ओर मध्व-सम्प्रदायका कोई नियम नहीं
हे 1 कभी पचो से, कभी केवल तीन से ओर कभी उदाहरण ओर उपनय,
इन दो अवयवोंसेहीकामल्ेते है । तात्पयं यह हुआ किं उदाहरण तो कोई
भी छोडता ही नहीं ।
मीमांसा-शाल्रमे चरंकि वाक्याथे-विचार की प्रधानता है इसद्ियि तत्व का
विचार हमें दिखलाई नहीं पडता किन्तु समवाय आदि कु पदार्थो का उनके
दवारा खण्डन किया जाना देखकर हमारा अनुमान है किं वैशेषिकं की तरह
कुछ पदार्थो को वे अवश्य मानते दँ । वेयाकरण लोगों को शब्दां के विचार से
अवकाश ही कहाँ है किं तच्व पर विचार करं ? किन्तु वास्तव में उन्होने विचार
करिया दहै। तत्व-विचार की दृष्टि से वे प्रत्यभिज्ञा, मीमांसा, वैशेषिक ओर अदरैत-
वेदान्त के विन्दुओंसे बने हृए वगं के बीच अवस्थित हैँ। द्रव्य, गुण, कमं
( क्रिया ) ओर सामान्य ( जाति ) इन चार पदार्थो को मानते हुए वे शब्द-ब्रह्म
को ही एकमात्र तत्त्व स्वीकार करते है ।
सांख्य-दशन मे चार प्रकार के तत्व है प्रकृत्यात्मक, विकृत्यात्मक,
उभयात्मक ओौर अनुभयात्मक । इनका विचार इय ग्रन्थे विस्तृत रूपमे
किया गया है 1 योग-शाख्र इससे पृथक् नहीं जाता । अद्ैत-वेदान्त मे पदार्थं
एकात्मक है। वह॒ आत्मा या ब्रह्म-स्वलह्प है ! द्वैत की प्रतीति तो अनादि अविद्या
के कारणं कत्पितहै। तो, दक् ओौरद्श्यके भेदसरे दो पदार्थं हुए इक्-
पदाथं के तीन भेद है--ईद्वर, जीव ओर साक्षी अज्ञान की उपाधि से युक्त
ईदवर है जिसके ब्रह्म, विष्णु ओर महेश ये तीन भेद दहै। अन्तःकरण ओर
उसके संस्कार से युक्त अज्ञान वाला पदाथ जीव है। ईखवर या जीवही
(+ )
उपाधियो से युक्त होकर साक्षी कहलाता है । जो कुछ दिखाई पड रहाटहै वह्
हश्य पदार्थं है । उसके तीन भेद हैँ--अव्याकृत, मूतं ओर अमूतं । अव्याकृत
का अथं है--अविद्या, अविद्या के साथ चितु का सम्बन्ध, उसमे चित् की प्रतीति
ओर जीवेश्वर का भेद । “अमूतं' शब्द से शब्द, स्पशं आदि सूक्ष्म भूत ओर
अन्धकार लिये जाते हैँ क्योकि ये अविया से उत्पन्न हैँ। ये अमूतं अवस्था में
ही साच्िक अंश से ज्ञानेन्द्रियों की उत्पत्ति करते हैँ ओर राजस अंश से कर्मेन्दियों
की उत्पत्ति करते है । सवो के सात्त्विकांश मिककर मन कौ ओर राजसांश
मिखकर प्राण की उत्पत्ति करते है । तब इन भूतो ( 1616113 ) का आपस
मँ मिश्रण अर्थात् पंचीकरण होता है जिससे यह् भौतिक संघार प्रतीत होता है ।
इस प्रकार इन तत्वों का निरूपण किया जाता है ।
मुख तत्त्वो को जानने से मोक्ष की प्राप्ति होती है ओर मूक त्वो के विक्त
खूपों को जानकर उनमें किपटे रहने से प्राणी बन्धन में पड़ा रहता है । बन्धन के
विषय मे जानना चाहिए कि संसार म सवो को सुख-दुःख ओर मोह का अनुभव
होता है । यही बन्धन है । साख्य ओर योग वाले कहते हैँ कि यह् अनुभव वस्तु-
निष्ठ है जव किं वेदान्ती इसे आत्मनिष्ठ मानते हैँ क्योकि सुख आदि मनकी
वृत्तिर्या है जो पहले के संस्कार के कारण विभिन्न पदार्थो के ज्ञान से जैसे-तैसे
उत्पन्न होती है तथा नष होती हैँ ।
मोक्ष के विषयमे भी दारशंनिकोंकामतभेदहीदहै। चार्वाक स्वतंत्रताया
देह-नाश कोही मोक्ष कहते हैँ । शून्यवादी आत्मा का उच्छेद होना मोक्ष
मानते हैँ । दूसरे बौद्धो का कथन है कि निर्मल ज्ञान की उत्पत्तिही मोक्षदहै।
जेन-सम्प्रदाय वाले कहते हैँ करि कमं से उत्पन्न देह मे जब आवरणन होतो
जीव का निरन्तर ऊपर उठते जाना ही मोक्ष दै। रामानुज-सम्प्रदाय में ईदइवर
के गणो की प्राप्ति ओौर उनके स्वरूप का अनुभव करना मोक्ष है । दैत-वेदान्त
में दुःख से भिन्न पूर्णं सुख की प्राप्ति ही मोक्षहै। इस अवस्था मे भगवान् के
केवल तीन गुण नहीं मिलते, संसार का कर्ता होना, लक्ष्मी का पति होना ओर
श्रीवत्स की प्राप्ति- नहीं तो मोक्षावस्था में जीव को सब कुछ मिल जाता है।
पाशुपत-दर्शन मे परमेश्वर बन जाना, शेव-दशंन मे शिव हो जाना तथा प्रत्य-
भिन्ना मे पूणं आत्मा की प्राप्ति को मोक्ष माना गया है। रसेदवर-दरन कहता
हैकिरससेसेवनके देह का स्थिर टो जाना, जीते जी मुक्त हो जाना मुक्ति
है । न्याय-वेरेषिक मोक्ष को प्रायः अभावात्मक शब्दोमेंलेते हँ । वेशेषिक कहते
है कि सारे विशेष गृणों का नाश दहो जाना मोक्ष है जब किं नैयायिक आत्यन्तिक
दुःख-निवृकत्ति को मोक्ष मानते दहैँ। यह दूसरी बात दहै कि कुछ नैयायिक न केवल
टुःख-निवृत्ति को, प्रत्युत सुख को भी मोक्षमें ही च्तेहैँ। मीमांसकं के
( ९ )
यहाँ विविध वेदिकं कर्मो के द्वारा स्वगं आदि की प्राप्ति ही मोक्ष दै । वैयाकरणो
॥॥ कोधारणाहै करि मूरचक्रमें स्थित परा नामक ब्रह्मरूपिगी वाणी का दत
॥॥ करलेनाही मोक्ष है । सांख्य-दशंन में प्रकृति के उपरत हो जाने पर पुरुष का
अपने रूप में स्थित दहो जानादही मोक्ष माना गया है । उधर अपना काम पूरा
करके सत्त्व, रजस् ओौर तमस्, ये तीनों गुण भी मूयग्रकृति मे आत्यन्तिक रूप से
| विलीन हो जाते दहै ओर प्रकृति को भी मोक्ष मिर्तादहै। योगदश्चन मानतादै
(| कि चितु-शक्ति निरुपाधिक रूप से अपने आप में स्थित हो जाती है तो मोक्ष होता
। है। अन्त मे अद्रतवेदान्तमे शंकराचायंका कहनाहै कि मूर अज्ञान के नष्ट
हो जाने पर अपने स्वरूप की प्राप्ति अर्थात् आत्मसाक्षात्कार ही मोक्षटै। इस
। प्रकार दर्शनों मे अन्तिम तत्त्व ( पुरुषाथं ) मोक्ष का सम्यक् निरूपण किया गया
| है। यहा केवर दिशा-निदेश अथवा पाठकों की रुचि उत्पन्न करनेके किए
1 | । सारांश दिया गया है।
| || अपनी अग्रेजी-भूमिकामे दशनां के तारतम्य का संक्षिप्त विवरण मेने
| | दिया है। अतः यहाँ पर पूनरक्तिसे बचने के लिए केवल यही प्रतिपादित
|| करना लक्ष्य है कि माधवाचायं का उक्त द रन-संग्रह लिखने का क्याखक्ष्यदटै?
| ||| यह सव॑मान्य सत्य है किं माधवाचायं का अपना दर्शन अद्वैत-वेदान्त ही थां ।
||| इसी की स्थापना के लिए उन्होने अन्य दशनो को भी यथा्थंल्पमे रख कर
॥|| उनकी अपेक्षा शांकर-दशंन को प्रधानता दीदहै। यह हम प्रत्येक दशन के
| आसम्भमें देखते ह कि विगत दशन का शण्डन करके किसी दशन की नींव
| रखते हैँ । इस तरह क्रमशः दशनो की मान्यता वे बढ़ाते चलते हँ ।
||| दुसरे दशंन-प्रन्थों मे सवंदशंनसंग्रह की तय्ह क्रम नहीं रखा गयादहै।
(4 । प्रायः लोग नास्तिक दशनो के बाद क्रमशः आस्तिक दशनोंका विचार करते
| ॥ है। कारण यही होतादै कि उन्हं किसी दर्शन से कुछ लेना-देना नहीं है पर
।॥| | माधवाचाये को तो अपने लक्ष्य को सिद्धि करनी थी अतः उन्होने एक विशेष
||| क्रम का निर्वाह किया है।
॥| | अद्ैत-वेदान्त भारतवषं का सवसे अधिक मान्य दशन है। माधवाचार्य
| | इसीलिए इसे सब दर्शनों का शिरोमणि मानते हँ ओौर उस पर उन्होने बहुत अधिक
॥| , विचार क्यादै। इस पर उठाई गई सारी आपत्तियों का पाण्डित्यपुणं खमाधान
| | । लोका ह है, ल पदो क विवेचन को तिकौजलि देकर भौ उवे चान्तो
| |॥ कौ स्थापना कीटहै। अतः सरवंदर्शनसंग्रहको न केवल दर्शनों का संकलन समञ्च
। | | ्रत्युत एक प्रबन्ध ग्रन्थ ( 1106818 ) के रूपमे ले सकते हँ जिसमे अद्वैत-मत
| । | की प्रतिष्ठा की गरईदहै। यह बहुत आवद्यकथा कि अद्वैत की स्थापना उख
।
( ४१ )
समयमे विद्यमान सारे दाशंनिक सम्प्रदायोंके पूरे परिप्क्ष्यमे कीजाय।
अतः “आ ग्रार्चः सिक्ताः पितरख्च प्रीणिताः" के अनुसार एक ही साथ दो-दो
काम हो गये--दशंनों का संग्रहभी हो गया ओर उनके बीच अद्रैत-वेदान्त की
क्या महत्ता है, यह भी जान गये ।
अन्त में हम प्रस्तुत ग्रन्थ के केखक माधवाचार्य के विषयमे भी विचार
करले। दक्षिणभारतमें तुंगभद्रा नदी के किनारे पम्पा-सरोवर के समीप
विजयनगर मे एकं सुप्रसिद्ध साश्राज्य था जिसमें प्रायः १३५५ ई० के आसपास
मे महाराज वृक्क सम्राट् हृएथे। उक्त साघ्राज्य की स्थापना महाराज हरिहर
प्रथम ने माधवाचार्य की ही प्रेरणा से कीथी। माधवाचायं इन दोनों राजाओं
के यहां मुख्य मन्त्री के पद पर सुशोभित थे । इनका परिवार बहुत प्रसिद्ध था
क्योकि विद्याके कषेत्रम वह बहुत आगे बढा-चढा था । वेदों के प्रसिद्ध भाष्य-
कर्ता सायणाचायं इसी वंश में हुएथे। इस वंशका नाम ही सायण-वंशथा।
सायण ओर माधव कौ रचनाओंकी तुलना करनेसे हमे माद्महोतादैकि
माधवाचायं सायणके बडेभारईथे। इनकेपिताका नाम मायण ओौरमाता
कानाम श्रीमती था। ये बौधायन-सूत्र के मानने वाले यजुर्वेदी ब्राह्मण ये।
ये सूचनाय माधवाचायं ने पराशर-स्मृति की अपनी व्याख्या में प्रस्तुत की है ।
माधवाचायं को एक दूसरे माधव से भी अभिन्न समञ्लने की भल लोगों ने
कीदटहै। माधव नाम के एकं मन्त्री होने की सुचना १३४७ ई० के शिखालेख
मे मिलती है जिनकी मृत्यु १३९१ ई०्के बाद हुई थी। इसप्रकार प्रायः ४५
वर्षो की अवधि तक इन्होने मन्त्री का कायं उत्तरदायित्वपूर्वक संभालाथा।ये
अद्वितीय योद्धा ये क्योकि इनके लिये लेव मे “भुवनेकवीरः' का विरुद मिलता
है। परदिचमी समुद्र तट पर स्थित कोकण-प्रदेश में तुरुष्को ( तुर्क ) का उपद्रव
जोर-शोर से चल रहा था । उन्होने उसकी राजधानी गोमन्तक ( आधुनिक
गोआ ) के धार्मिक स्थानोंको नष्-श्ष्ट करना प्रारम्भे करदियाथा। माधव
ने उनसे लोहा लिया ओर उन्हे परास्त करके उस स्थान पर फिरसे धमकी
प्रतिष्ठा की। महाराज वक्त माधवसे इस कायं से इतना प्रसन्न हुए कि उन्हे
वनवासी अर्थात् जयन्तीपुर का शासक बना दिया । अपने प्रासन से माधव
ने प्रजा का हृदय जीत ल्यिा। गोजाके शासकके रूपमे १३१२ शक संवत्
( १३९० ६० ) मे उन्होने कुचर नाम गाव अग्रहार (जागीर) में ब्राह्यणो को
-- व्यङक्काष्यकयककस्यकचककस्क्छसमम मि श प
‡ दे° बलदेव उपाध्याय, आचायं सायण ओौर माधव, प° १३३ तथा
आगे
( ॐ.
दे दिया । किन्तु ये विजेता माधव माधवाचायं से भित ह। माधवाचायं ओर
माधव मन्त्री दोनों के व्यक्तित्वो मे बड़ा अन्तरभीहै। दोनों के माता-पिता
तो भिन्न ये ही, उनके गोत्र भी पृथक् थे 1 यदी नही, उनकी मृत्यु के समय
ने भी अन्तर है। माधवाचायंने बुक्र के शासन की समाप्ति ( १३७९ ) के
कुछ पूवं ही संन्यास प्रहण कर ल्ियाथा ओर श्युगेरी मठ मेँ प्रतिष्ठित हो
चुके थे ।. उधर यहं दान-पत्र १३९५० का है अतः दोनों मे कोई तारतम्य
दिखलाई नहीं पडता । फिर भी माधवाचार्य महाराज बुक्घ के यहाँ मख्य
मन्त्री ये तथा दूसरे माधव मन््रीसे भिन्नये। श्छुगेरी मढम माधवाचायं
वाद मे विद्यारण्यकेनामसे शंकराचायं बन गये थे। विद्यारण्य के विधय में
अहोबल पण्डित ने अपने तेटुगु-व्याकरण में ठिखा टै-
वेदानां भाष्यक्त विन्रृतमुनिवचा धातुचरत्तेविधाता,
परोचद्धिययानगर्या हरिहर रपतेः सावेभोमत्वदायी ।
वाणी नीलादिबेणी सरसिजनिलया किंकरीति प्रसिद्धा,
विद्यारण्योऽश्रगण्योऽभवदखिलगुरूः हाकरो वीतङाङ्ः ॥
इससे माधवाचायं ( विद्यारण्य ) के विषय में सूचना प्राप्त होतीदहैकिये
ही माधवीयधातुवृत्ति के भी रचयिता थे । विद्यारण्यके रूपमे भी इन्टोने बहुत
से ग्रन्थ लिवे थे जैसे- पंचदजी, वैयासिक-न्यायमाला आदि ।
यह किंवदन्ती है क्रि माधवाचायंने ही वृक्क के बड़े भाई हरिहर प्रथम को
विजयनगर-साम्राज्य की स्थापनाका पराम दियाथा। उस समय उस स्थान
का नाम विद्यानगर रखा गया थां बाद मे धीरे-धीरे वह विजयनगर हो गया \.
यह किसी घटना से या भाषाविज्ञान से अनुप्राणित हुआ होगा । हरिहर कौ
तयु के परचात् माधवाचायं बुक के गुरु बने ओर उस समय शिष्य के आदेश से
उन्होने बहुत से न्थ क्वे । संन्यास की अवस्था मे ये प्रायः १३७९ ई० से १३०८५
ई० तक रहे 1 मृत्यु के समय इनकी अवस्था प्रायः ९० वर्ष॑कीथी( १३८५ ) ।
अतः माधवाचायं का जीवन-काल १२९५ ई० से १३८५ ई० तक मानना
ठीक है
माधवाचायं ओर सायणाचायं ने अपने गुरुभं का उल्लेख बहुत श्वद्धा से
करिया है । इनके तीन गुर ये--विद्यातीर्थ, भारतीतीथं ओर श्रीकण्ठ । भारतीतीथं
माधव के दीक्षागुरु ये जिनकी मृत्यु के पश्चात् (१३८० ई०) माधव (विद्यारण्य)
दंकराचा्यं के पद पर आये। विद्याती्थं ओर श्रीकण्ठ इनके विद्यागुर थे 1
सायण ने वेदभाष्यों के आरंभ मे विद्यातीथं का नाम देते हुए उल्लेख किया है कि
( ४३ )
बृक्रराय ने माधवाचायं को वेदभाष्य करने का आदेश दिया तो उन्होने यह्
| काम अपने छोटे भाई सायण को सौँप दिया ।#
परम्परा से चले आते हुए माधवा चायंकृत सवंद शंनसंग्रह॒ को सायण् के बडे
भाई की रचना माननेमे कुछ लोगों ने विवाद खड़ा कर दिया है। उनका
कहना है कि माधवाचायं के किंसी गुर का उल्लेव सवंदशंन मे नहीं मिलता,
मंगलाचरण मे केक ने शाद्धपाणिके पुत्र किसो सवंज्ञविष्णु नामक गुका
उल्लेख किया है । दूसरे, केक अपने को “सायणदुग्धान्िकोस्तुभः कहता है
जिससे वह सायण का पुत्र प्रतीत होतादै। सयणके तीन पत्रों मे कम्पण,
मायण ओर शिद्धणथे। कुछ लोगो का कहना है कि द्वितीय पत्र मायणदही
माधव के नाम से प्रसिद्ध थे । अतः यह ग्रन्थ सायणके पुत्र की कृतिदै।
ध्यान से विचार करने पर यह मत समीचीन प्रतीत नहीं होता क्योकि सायण
उक्त वंश काभी नाम था जिसमे माधव हुएथे। वंशके नाम पर उन्होने अपने
को सायणमाधव कहा है तथा सायण-वंश रूपी क्षीरसागर मे उत्पन्न कौस्तुभ
से अपनी तुलना की है । एसा साहस माधवाचार्य के अलावे ओर किसीमें
संभव नहीं था । किसी एक व्यक्ति से उत्पन्न होने के लिए (दुग्धान्धिकौस्तुभ'
का विशेषण कगाना भी ठक नहीं है । अब रही बात गुखकी। किसी व्यक्तिके
कईं नाम होने मे कोई आश्चयं की बातत नहीं है । कहते हँ कि पुण्यदलोकमंजरी
मे विद्यातीथं के इस दुसरे नाम स्व्॑ञविष्णु का उल्केव भी है। अतः किसी भी
दशा में यह सिद्ध है कि वेयासिकन्यायमाला, विवरणप्रमेय, जैमिनीयन्यायमाला
तथा पंचदशी- जसे सफल ग्रन्थों के ठेखक माधवाचायं ही इसके रचयिता है ।
माधवाचायं के पाण्डित्य के विषय में तो कुछ कहना ही नहीं । परिशिषठ-३ में
दी गई सूची ही उसका निर्णय करती है कि परोक्षया अपरोक् मे कितने म्रन्थों
ओर ग्रन्थकारो से उनका परिचय था। केवल यही कटु देना उनकी जिज्ञासु
परवृत्तिका बोधकहो सकेगा कि अपने काकमें ही उत्पन्न वेदान्तदेशिक ओर
जयतीथं आदि ग्रन्थकारो का भी उन्होने उल्लेव किया है । भारतीय दर्शन-शाख्र
के इतिहास मे सवंदर्शंनसंग्रह अद्टितीय ग्रन्थ है क्योकि इसमे दर्शनों के रहस्यों
का उदुघाटन किया गया है ।
#* यस्य निःश्वसितं वेदा यो वेदेभ्योऽखिरं जगत् ।
निम॑मे तमहं वन्दे विद्यातीथंमहेदवरम् ॥
यत्कटाक्षेण तदरपं दधदुबुक्कमहीपतिः ।
आदिशन्माधवाचायं वेदा्थंस्य प्रकारने ॥
स प्राह नृपति राजनु सायणार्यो समानुजः।
सवं वेत्येष वेदानां व्याख्यातृत्वे नियुज्यताम् ॥
~
जानिः भक
+ 29 9;
ड = ---
न्य 9 0
~ +
स 9 = ह -- कक
८ )
सर्वदर्शनसंग्रह का उद्धार करने मे महामहोपाध्याय १० वासुदेवा
अभ्यंकर का नाम सबसे आगे की पंक्ति में रखा जाता है। अपनी संस्कृत-टीका
से युक्त संस्करण मे उन्होने जैसे अध्यवचाथ का प्रदर्शन किया टै वह अन्यत्र
दुलभ है । पाण्डित्यपूणं उपोद्धात में दशनो का मन्यन करके उन्होने नवनीतः
रूप सार-संकलन का भी प्रयास किया दै । सच पूछेतोआगेकी पीढी के लिए
उन्होने बहुत-सा काम सरल कर दियादहै। उक्त महामनीषी के ग्रन्थ को
उपजीव्य मानकर ही यह संस्करण प्रस्तुत किया गया है अतः उनके सम्मुख
म नतमस्तक हं 1 इसक्ते अतिरिक्त कवि ओर गफ के अनुवाद एवं डं खवपज्ञी
राधाङ्ृष्णन् तथा ं ° धीरेन््रमोहनदत्त की पृस्तकों से जो अंगरेजी शब्दावलियां
ली गई हँ इसलिए में उनका कृतज्ञ हूं ।
प्रस्तुत व्याख्या मेरे चार वर्षो के अध्यवसाय का परिणाम है । इस अवधि
मे विभिन्न स्थानों के सहयोगियो, शुभाभिलाषियो एवं शिष्यो से इस कायम जो
प्रेरणा मिलती रही है वही मेरा सबसे बड़ा बल रहादहै। यद्यपि इसे सुन्दर,
सरल ओर आधुनिक बनने की पूरी चेष्ट कीग्ईटहै फिरभी दोष रह जाना
स्वाभाविकदहै। प्रंथके विषय तथा आकार के अनुरूप विशद भूमिका नहींदे
सका, पाठक क्षमा करंगे। इस परतो पृथक् रूप से भूमिका लिली जानी
चाहिए जो भारतीय दशंन-साहित्य के अध्ययन मे अनिवायं भी मानी जाय।
प्रस्तुत भूमिका तो परम्परा का निर्वाह मत्र हे।
काशी हिन्दूविरवविद्याख्य के संस्कृत-विभाग के अध्यक्ष आदरणीय
डा० सिद्धेदवर भदराचायं जी ने इस कृति का निरीक्षण करके जो प्राक्कथन लिखने
कीकरपाकी दहै, उसके लिए मँ आपका हृदय से आभारी हं । सवेतन्त्रस्वतन्तर
पूज्यपाद स्वामी श्रीमहेश्व रानन्द सरस्वती ( पूर्वाश्रम-- कविताकिकचक्रवर्ती
पं० महादेवशाखरी ) जी ने जो प्रस्तुत ग्रन्थ को अपने आशीवंचनों से अलंकृत
किया है इसे मै अपना भागधेयोत्कषं अथवा आपकी अहैतुकी दया ही मानता हूं ।
वाराणसीस्थ बृहत्तर प्रकाशन-संस्थान चौखम्बा संस्कृत सीरीज के अध्यक्ष
बन्धुओं ने इतने बडे ग्रन्थ का प्रकारन-भार लेकर मेरे सदुदुदेश्य कौ सफलता
मे जो तत्पर सहयोग दिया है उसके लि मेँ उन्ह हृदय से धन्यवाद देता हूं ।
यदि यह् कृति पाठकों के तनिक भी काम आई तो मेँ अपना परिश्चम सफल
समर्ुगा र
काशौ | 4
छ --उमाशंकरश्चमों “ऋषिं
विषय-सूची
१ एवगटण्छात ; 7. 9. 8141186019798 १-२
२ आशीवंचन : स्वामी महेरव रानन्द सरस्वती ३-६
३ 1717000107 १-२३
४ पू्ंपीठिका २५-४४
५ सवंदशनसंग्रह १-८९१
(१) चार्वाक-दरोन ३२-२५
१ चार्वाक ओर लोकायतिक- नामकरण ३
1 २ ततत्व-मीमांसा 1
ध ३ सुख की प्राप्ति- दुःख ओौर सुख का मिश्रण ५
$. | ४ यज्ञो ओर वेदों की निस्वारता ७
4 ५ ईश्व र-मोक्ष-आत्मा ९
¢ | ६ मत-संग्रह १०
र: ७. अनुमान-प्रमाण का खण्डन १०
^ = प्रत्यक्ष द्वारा व्याप्तिज्ञान नहीं हौ सकता १३
0. ९ अनुमान ओर शब्द से व्याप्तिज्ञान नहीं हो सक्ता १४
8 १० उपमानादि से भी व्याप्ति संभव नहीं १६
4 क. व्याप्तिज्ञान का दूसरा उपाय भी नहीं टै १७
¢ . ११ व्याप्तिज्ञान ओर उपाधिज्ञान में अन्योन्याध्रशदोष २१
ई १२ लौकिक-व्यवहार ओर वस्तुं २१
चार्वाक-मत-सार २२
( २) बोद्ध-दशेन २६-१०३
१ चार्वाक-मत का खण्डन-~व्याप्ति कौ सुगमता २६
२ अन्वय-व्यतिरेक से व्याप्िज्ञान संभव नहीं २७
३ तदुत्पत्ति से अविनाभाव का ज्ञान-पंचकारणी ३०
४ तादात्म्य से अविनाभाव का ज्ञान ३१
५ अनुमान का खण्डन करने वालों को उत्तर ३२
् ६ बौदढदशंन के चार भेद-भावनाचतुष्टय ३५
७ क्षणिकत्वं की भावना-अ्थंक्रियाकारित्व ३८
ठ अक्षणिक पदार्थं का क्रम" से अथेक्रिय।कारी नहीं होना ४१
९ सहकारियों की सहायता पाकर भी अक्षणिक अर्थक्रियाकारी नहीं
हो सकता ४३
= ४६ )
| || | १० अतिशय का दूसरा अतिशय उत्पन्न करने में दोष ४६
। 4 ११ दूसरा अतिशय उत्पन्न करने मे अनवस्था सं° १ ४७
| क. अनवस्था सं° २ त
4 ॥ | ख. अनवस्था सं० ३ ४९
। ॥ १२ स्थायी भाव से अतिशय के अभिन्न होने पर आपत्ति ^
9 । १३ अक्षणिक पदाथं का "अक्रम" से अथंक्रियाकारी नहीं होना ५०
| ॥ क. असामर््य-साधक प्रसंग ओर उसका विपयंय ५१
॥ ख. साम्यं-साधकं प्रसंग ओर तद्विपयंय ५३
| १४ निष्कर्ष क्षणिकवाद की स्थापना ५४
| || १५ सामान्य का खण्डन ५६
। | १६ दुःख ओर स्वलक्षण कीभावनाये ` ६१
| १७ शून्य की भावना-माध्यमिक-सम्प्रदाय ६१
| | १८ योगाचार-मत-- विज्ञानवाद ६७ ,
| १९ बाह्य पदां का खण्डन क ६८
1 २० बुद्धि का स्वयं प्रकारित होना ७०
| | २१ सौत्रान्तिकि-मत- बाह्यार्थानुमेयवाद ७४
। ॥|। | २२ बाह्याथं की सत्ता- निष्कषं ७९
| ॥॥ २३ बाह्यां प्रत्यक्ष नही, अनुमेय दै ७९
{|| २४ आल्य-विज्ञान ओर प्रवृत्ति-विज्ञान ८9
| २५ विज्ञानवादियों के मत पर दोषारोपण ८३
१. २६ ज्ञान के चार कारण | ८५
|॥ ॥| २७ चित्त ओर उसके विकार पाँच स्कन्धं ८७
|| २८ चार आयं सत्य--दुःख, समुदाय, निरोध, मार्ग तण
|| क. हेतुपनिबन्धन समुदाय का स्वरूप ॑ ९०
| ६. २९ सौतान्तिक-मत का उपसंहार ९३
।॥॥ ३० वेभाषिक-मत-- बाह्याथंप्रत्यक्षत्वाद ९४
| ।॥ ३१ निविकल्पक प्रत्यक्ष ही एकमत्र प्रमाण है ९८
। | ३२ तत्व की अभिन्नता-- मागो मे भेद १००
| । | ३३ द्वादश आयतनो कौ पूजा १०१
॥ ३४ वौद्ध-मत का संग्रह १०१
| (२ ) आरेन-द्दौन ( जेन-दरन ) १०७-१७९.
1 ॥ । १ क्षणिक-भावना का खण्डन १०४
। । २ क्षणिक-पक्ष में बौद्धो की युक्ति १०५
आ @ 49 +< ० ५
९
१०
११
१२
१३
१४
१५
१६
१७
१८
१९
२०
२६१
२९
२३
३1
र्
२६
(७ )
जनों के द्वारा उपयुंक्त-मत का खंडन
क्षणिकवाद के खंडन की दूसरी विधि
क्षणिकत्व-पक्ष में ्राह्य-ग्राहक-भाव न होना
ज्ञान का साकार होना ओर दोष
अर्हंत्-मत की सुगमता, अहत् का स्वरूप
अर्हत् के विषय में विरोधियो की शंका
अर्हत् पर मीमांसकों की शंका का समाधान
नैयायिको की शंका ओर उसका उत्तर
सावयवत्वं के पाँच विकल्प ओर उनका खण्डन
ईइवर कै कर्ता बनने पर आपत्ति
सर्वज्ञ की सिद्धि
त्रिरत्नों का वणंन- सम्यक् दशन
सम्यक् ज्ञान ओर उखके पाच रूप
सम्यक् चारित्र ओौर पांच महाव्रत
प्रत्येक ब्रत की पाच-्पांच भावनायं
जेन तच्व-मीमांसा-- दो तत्व
पाच तच्व-- दुसरा मत
कालभीषएकद्रन्यहै
सात तत्व- तीसरा मत
क. बन्ध का निरूपण
बन्धन के कारण
क. बन्धन के भेद
संवर ओर निर्जरा नामक तच््व
कं निजेरा ।
मोक्ष का विचार
जेन न्यायशाखर- सप्तभंगीनय
जनमत-संग्रह
(४ ) रामादज-दर्खन ( विशिषाद्रेत-वेदान्त )
१
"< ० ५ <)
अनेकान्तवाद का खण्डन
सप्तभंगीनय की निस्सारता
जीव के परिमाण का खण्डन
रामानुज-दशंन के तीन पदां
च सं क
अदटत-वेदान्त का इस विषय में पूर्वपक्ष
१०७
१०९
११४
११५
११९
१२०
१२४
१२७
१२९
१३३
१३५
१३६
१३७
१४०
१४२
१४३
१४९
१५४
१५५
१५८
१५९
१६०
१६४
१६६
१६७
१६९
१७७
१८०-२४५
१८०
१८३
१८४
१८६
१८७
|
| # . ( ४८ )
॥॥| ६ रामानुज द्वारा इसका खण्डन १९३
| ॥ | ७ अज्ञान को भावरूप मानने मे अनुमान ओरं उसका खण्डन १९५
॥ क. उप्यक्त अनुमानं का प्रत्यनुमान १९७
| ॥॥ | ~ भावरूप अज्ञान मानने मे भरति प्रमाण नही है १९९
|॥ | ९ अज्ञान की सिद्धि अर्थापत्ति से भी नही-- त्वमसि" का अथ २५०१
| || १० (तत्वमसि' मे लक्षणा--अदत-पक्ष २०२
| 4 | || ११ रामानुज का उत्तरपक्ष २०४
| || १२ सभी शब्द परमात्मा के वाचक है २०६
| 1 | | || : १३ निविशेष ब्रह्म की अप्रामाणिकंता । २११
| | | | १४ प्रपंच की सत्यता २१२
( ||| १५ निगंणवाद ओर नानात्वनिषेध की सिद्धि २१५
| ॥ || १६ रामानुज-मत की तत्त्वमीमांसा २१६
। (|| क. चित्, अचित् ओर ईव र के स्वभावं २१७
| ||| ख. जीव का वणन २२०
| (||| ग. अचितु का निरूपण | २२२
| (||| ` १७ ईङवर का निरूपण--उनकी पाँच सूतिं २२३
॥ | | १८ उपासना के पाँच प्रकार ओर मुक्ति २२६
|| | | १९ ब्रह्मसूत्र की व्याख्या-- प्रथम सूत्र २२८
|| क. कमं के साथ ब्रह्म का ज्ञान मोक्ष का साधन दहै २२९
| | || २० ब्रहम-जिज्ञासा का अथं २३३
|| २१ भक्ति का निरूपण २३७
|| || २२ द्वितीय सूत्र- ब्रह्म का लक्षण २४१
।॥|| २३ तृतीय सूत्र-त्रह्मके विषयमे प्रमाण २४२
॥|| | चतुथं सूत्र-- शाखं का समन्वय २४३
| | | | (५ ) पृणेप्ज्ञ-दशोन ( देत-वेदान्त ) २४६-२९द
|| | ॥ | ्रेतवाद की रामानुजमत से समतां ओर विषमता २४६
||| २ द्ेतवाद के तत्त्व भेद की सिद्धि २४७
||| ३ प्रत्यक्ष से भेद-सिद्धि- शंका २४९
| ॥| क. प्रत्यक्ष से मेद-सिद्धि-समाधान २५१
|| ४ धममंभेदवादी का समर्थन--भेद की सिद्धि २५७
॥। ५ अनुमान-प्रमाण से भेद की सिद्धि २६१
| | | | ६ ईश्वर की सेवा के नियम २६३
॥ | ¦ क. नामकरण ओर भजन २६५
१२
१३
१४
१५
१६
१७
१८
( ४९ )
श्रुति-प्रमाण से भेद की सिद्धि
माया का अथैत का प्रतिपादन
ईरवर की सव च्कष्टता के अन्य प्रमाण
मोक्ष ईइवर के प्रसादसे ही मिखताहै
तत्वमसि" का अथं ॑
क. तत्त्वमपि का दसरा अथं
ख. उक्त नव हण्नान्तों से भेद-सिद्धि
एक के ज्ञान से सभी वस्तुओं का ज्ञन--इसका अर्थं
मिथ्या का खण्डन
ब्रह्मसूत्र के प्रथम् सूत्र का अथं
ब्रह्म का लक्षण
ब्रह्म के विषयमे प्रमाण
रास्नोका समन्वय
पृणंप्रज्ञ-दशंन का उपसंहार
( ६ ) नकुलीरा-पादपत-दर्न
१
२
@ + +< ज ५
ठ
९
वेष्णव-दर्शनों मे दोष
पायुपत-सूत्र की व्याख्या-- गुरु का स्वरूप
क. सूत्र के अन्य शब्द--अतः, पति आदि
दुःखान्त का निरूपण
कायं का निरूपण
कारण् ओर योग का निरूपण
विधि का निरूपण
समासादि पदाथं ओर अन्य शातनं से तुलना
निरपेक्ष ईहवर की कारणता
ईदवरके ज्ञान से मोक्ष-प्राप्ति
( ७ ) रोव-दरान
नि
२
५६
रोवागम-सिद्धान्त के तीन पदार्थं
पति" का निरूपण
क. ईदवर को कर्ता मानने मे आपत्ति ओर समाधान
ईरवर का शरीर-धारण
जीव के तीन भेद
क, विज्ञानाकल जीव के दो भेद
२९६६
२६७
२७०
२७१
२७३
२७५
२७७
२७९
२८३
4-1~
२९०
२९१
२९३
२९४
२९७२३१९
२९७
२९९
३०३
३०५
३०७
२३०९
३१०
२३१४
३१५
३१९
२३२०-३४६
३२०
३२३
२३२४
२३२८
२३२
३३१५
३२३
य क
न्क
। |
| ||| ( ५० )
| | | { ख. प्रल्याकल जीव केदो भेद ३३८
॥ | | ग. “सकल' जीव के भेद ३४१
||| ६ पार" पदार्थं का निरूपण ३४३
| | | | `. ७ उपसंहार ३४६
॥॥ | ( ८) ्रव्यभिज्ञा-द्न ( काश्मीरी ओव-द्रेन ) २५७-३७४
| | १ प्रत्यभिज्ञा-द्शंन का स्वरूप ३४७
। ॥ ॑ २ प्रत्यभिज्ञा-दशन का साहित्य | ३४९
। 1 || ३ प्रथम सूत्र को व्याख्या ३५२
| ॥॥ | क. 'अपि' ओर "उप शब्दों के अथं | ३५५
। 1} ॐ प्रत्यभिज्ञा के प्रदर्शन की आवश्यकता ३५८
| ( | ५ ज्ञानशक्ति ओर क्रियाशक्ति : ३६१
| (||| ६ वस्तुओं का प्रकाशन--आभासवाद् ३६२
| ॥ ७ ईदवर की इच्छा से संसा रोत्पत्ति ` ३६५
| ॥॥ | ८ उपादान कारण ओर पदार्थो की उत्पत्ति "9
| || ` ९ विभिन्न प्रहन--जीव ओौर संसार का संब॑ध ३६९
| || क. प्रमेय को लेकर वद्ध ओौर मुक्त मे भेद ३७०
| ||| ~ ` १० प्रत्यभिज्ञा की आवद्यकता-- अथंक्रिया मे भेद ३७०
१ | | | ११ उपसंहार ३७३
॥|| (९ ) रखेश्वर-दरोन ( आयुवेद्-द्शेन ) ३७५-३९०
| ॥ | १ रख से जीवन्मुक्ति-पारद ओर उसका स्वरूप ३७१५
||| २ जीवन्मुक्ति की आवश्यकता ३७६
|| | ३ हर-गौरी की बृष्टि पारद, अश्क ३७८
| | ॥ ¦ + रस की सामथ्यं से दिव्य-देह् की प्राप्ति ३७९
| | | ५. दो प्रकार के कमे-योग | ` ३८०
| || ६ पारद के तीन स्वरूप- मूत, मृत ओर बद्ध ३८१
॥| ७ रके अष्टादश,संस्कार ३८१
||| | ८ देहवेध ओर उसकी आवश्यकता ३८३
||| ९ जीवितावस्था में मुक्ति देहवेध के विषय में शंका ३८४
॥|1 | १० जीवितावस्था में मुक्ति एक वाद | ३८५
| || ११ शरीर की नित्यता - इसके प्रमाण | ३८६
॥ || १२ पारद-रख के सेवन से जरामरण से मुक्ति ; ३८
| १३ पारद-किगि की महिमा ् ३८८
ॐ
{ क
् च क -द
11: ~
7 ^ ~ (५ (
= 4... ( ष्य्पू )
1 6 मौ ॥ भ ५
१४ पुरुषां ओर ब्रह्म-पद ३८९
१५ रस ओर परब्रह्म में समता-रसस्तुति | ३९०
( १० ) ओटक्य-द्शन ( वेरोषिक-दर्सन ) २९१-७४८
१ दुःखान्त के लियि परमेडवर का साक्षात्कार ३९१
२ वशेषिक-सूत्र की विषय-वस्तु २९६
३ शास्र की प्रवृत्ति--उदहेश, लक्षण, परीक्षा ३९८
॥ ४ पदार्थोकी संख्या- छह या सात ४०१
५ छह पदार्थो के लक्षण-- द्रव्यत्व ओर गुणत्व ४०३
क. क्म॑टव, सामान्य, विशेव ओर समवाय ४०७
६ द्रव्य के भेद ओर उनके लक्षण ४१०
४ ७ गण के भेद ओर उनके लक्षण ४१६
वु ८ कृं आदिकेभेद ४१७
ड ९ द्वित्व आदि की उत्पत्ति का विवेचन ४१९
॥ कृ. द्वित्व की उत्पत्ति का क्रम ४२०
ख. द्वित्व की निवृत्ति का क्रम ४२२
ग. अपेक्षाबुद्धि का लक्षण ४२७
१० पाकजं पदार्थं की उत्पत्ति ४२८
११ विभागज विभागका विवेचन ४३१
क. विभागज विभागका दूखरा भेद ४३७
१२ अन्धकार का विवेचन ४३८
१३ अन्धकार के विषय में वेशेषिक-मत ४४२
१४ अभाव का विवेचन ४४४
( ११ ) अक्षपाद-दशेन ( न्याय-दद्यन ) ४४९-५१२
१ न्याया की रूपरेखा ४४९
२ प्रमाण का विचार ४५४
३ प्रमेय-पदाथंका विचार ४५९
४ संशय, प्रयोजन ओर दृष्टान्त । ४६३
क. सिद्धान्त ओर अवयव ४६५
५ तकंका स्वरूप ओर भेद ४६७
क. निर्णय, वाद, जल्प, वितण्डा ४६९
ख. हैत्वाभाख ओर छल ४७०
६ जाति ओर उसके चौबीस भेद ४७५
क. निग्रहुस्थान ओर उसके वाईस भेद | ४८३
( ५२ )
| || ७ न्याया का नामकरण ४८७
॥ | ८ अपवर्गं के साधन- न्याय का द्वितीय सूत्र तत
॥ | ९ मोक्ष का स्वरूप-- माध्यमिक मत ४९२
| | क. मोक्ष के विषय में विज्ञानवादियों का मत ४९४
| | १० जेनोंके मतसे मोक्ष का विचार ४९१५
॥ | ११ चार्वाक ओौर सांख्य-मत मे मोक्ष ४९७
। | ॥ क. मीमांसा-मत से मृक्ति-विचार + ~
1॥ १२ नेयायिक-मतसे मुक्ति-विचार ४९९
| | ॑ १३ ईश्वर की सत्ता के लिए प्रमाण पूवंपक्ष ५०१
| | क. नैयायिकं का उत्तर-ईङ्वरसिद्धि ५०३
| | ख. कर्ता का लक्षण तथा ईदवर का कतृत्व ५०६
॥। १४ ईद्वर के द्वारा संसा र-निर्माण-- पूर्वपक्ष ५०८
॥ | | १५ ईइवर के द्वारा संसार-निर्माण-सिद्धान्त ५१०
| | ( १२ ) जेमिनि-द्शेन ( मीमांसा-द्र्श॑न ) ५१३-५५द्
|| १ मीमांसा-सूत्र की विषय-वस्तु ५१३
॥ | | २ प्रथम सूत्र तथा अधिकरण का निरूपण ५२१
| | ३ भाटरमतसे अधिकरण का नि्पण ५२२
| | | क. पूवंपक्ष- शास्रारम्भ ठीक नहीं ५२३
। ४ सिद्धान्तपक्ष-शाख्रारम्भ करना सर्वथा उचित है ५२९
॥ ॥ क. अध्ययन-विधि का लक्ष्य अर्थबोधदहीदहै ५३०
॥ | ५ सिद्धान्तपन्न का उपसंहार ओौर संगति का निरूपण ५३३
। | ६ प्रभाकर के मत से उक्तं अधिकरण का निरूपण ४३४
| | क. प्रभाकर के मतसे पूर्वपक्ष ५३८
|| ख. प्रभाकर-मत से सिद्धान्तपन्ष ५३९
|| | ` ७ वेदोंको पोर्षेय मानने वि पूर्वपक्ष का निरूपण ५४१
||| | क. पौरुषेयसिद्धि का दूसरा रूप ५४५५
||| ८ वेद अपौरुषेय है सिद्धान्त-पक्ष ५४६
॥| | | क. पौरुषेयत्व का दूसरे प्रकार से खण्डन ५४८
। | ९ शब्दानित्यत्व का खण्डन < "1 ^
|| | १० वेद की प्रामाणिकता--निष्कषं ५५५
॥|| ११ प्रामाण्यवाद का निरूपण | ५५७
॥| क. स्वतःप्रामाण्य का अथं-लम्बी आश्चंका ५५९
१२ स्वतःप्रामाण्य की सिद्धि--शंका-समाधान ५६५
क. ज्ञप्ति-विषयक स्वतःप्रामाण्य कौ सिद्धि ५६७
( ५दे )
१३ प्रामाण्य का उपयोग प्रवृत्ति मे नहीं होता--उदयनं ५६८ |
कं. इसका खण्डन १६९८
१४ मीमांसा-दशंन का उपसंहार ५६९
( १३ ) पाणिनि-दरौन ( व्याकरण-दरोन ) ५७२-६१६
१ प्रकृति-प्रत्यय का विभाजन ५७२
२ अथ शब्दानुशासनम्" का अथं ५७३
क. “शब्दानुरासन' पर विचार-विमशं ५७४
३ शब्दानुशासन से प्रयोजन कौ सिद्धि ५८०
४ व्याकरणशास्न की विधि-- प्रतिपदपाठ नहीं ५८२
५ व्याकरण के अन्य प्रयोजन ५८५
कृ. व्याकरण से अभ्युदय की प्राप्ति ५५८७
६ शब्द ही ब्रह्मटै ५९१
क. पद-भेद की संख्या ५९१
७ स्फोट- नैयायिकों की शंका ओर उसका समाधान ५९३
क. स्फोट पर अन्य शंका-- मीमांसक ५९६
= मीमांसकं की शंका का उत्तर स्फोट-सिद्धि + |
कृ. स्फोट पर अन्य आपत्तियां ओर समाधान ६०१ ॑
९ सत्ता ही शब्दों का अथं टै- पूर्वपक्ष ओर सिद्धान्त-पक्ष ६०३ ू
१० द्रव्य को पदार्थं माननेवाों का विचार ६०८ ॑
११ जाति ओर व्यक्ति को पदाथं मानने वालो का विचार ६१० |
१२ पाणिनि के मत से पदा्थ--जाति-व्यक्ति दोनों रै ६१२
१३ अद्रैत ब्रह्मतत्त्व की सिद्धि ६१४ |
१४ व्याकरण से मोक्षप्राप्ति ६१५ |
( १४ ) सांख्य-द्शन ६१७-६७८ |
१ साख्य-दशंन के तत्तव ६१७ |
२ प्रकृति का अथं ६१० |
३ प्रकृति ओर विकृति से युक्त तच्व ६२१ |
४ केवल विकृति के रूप मे वतमान तत्त्व ६२७ |
५ प्रकृति-विकृति से रहित पुरुष-तत्व ६२८
६ सांख्य-प्रमाण-मीमांसा ६२९
७ कार्य-कारण-सम्बन्ध पर विभिन्न मत ६३१
क. कायं-कारण-भाव के मतो का खंडन ६३३
८ सत्कायंवाद की सिद्धि ६३५
कृ. विवतंवाद का खंडन ६२३९
वर 2
< र् "न 2. - ~
स व
=-=
~~
कजाः # [व न छा = ट ष् कद. ` न > = = ~~
--- ~ न्क चः
==
१) ‡ ज द द) ~ --
1 ह 3
नः
3
१०
११
१२
( ५४ )
प्रधान या प्रकृति की सिद्धि
प्रधान की निरपेक्षता
क. परमेश्वर प्रवतेक नहीं है
परकृति-पुरुष का संबन्ध
प्रकृति की निवृत्ति- प्रख्य
( १५ ) पातञ्जल-दशन ( योग-द शेन )
९
र्
४
< 4 +< ०
१०
११
१२
१३
१४
१५
१६
१७
१८
१९
योगसूत्र की विषय-वस्तु
मोक्ष के विषय मे शंका ओर उसका समाधान
प्रथम सूत्र की व्याख्या--अथ' शब्द का अथं
क. अथ' शब्द मंग का ग्योतक भी नहीं
'अथ' का अथं आरम्भे या अधिकार
योग के चार् अनुबन्ध
योग ओर शास्र में सम्बन्ध
योग का रक्षण ओर समाधि
क. योग का अथं समाधि--आपत्ति
ख. योग का व्यावहारिक अर्थ-- चित्तवृत्तिनिरोध
चित्त ओर विषयों का संबन्ध
क. परिणाम के तीन भेद
योग का अथं वृत्तिनिरोध छने पर आपत्ति
क, समाधान
समाधि का निरूपण- इसके भेद
पांच प्रकार के वटेग--अविद्या पर अपत्ति
क. आपत्ति का समाधान
अस्मिता, राग ओर देष
अनुशयी" शब्द की सिद्धि मे व्याकरण का योग
अभिनिवेश का निरूपण
कमं, विपाकं ओर आश्य
वृत्तिनि रोध के उपाय--अभ्यास ओर वैराग्य
समाधि-प्राप्ति के चयि क्रियायोग
मत्र ओर उनका विवेचन
क. मंत्रोके दश्च संस्कार
ईर्वर प्रणिधान ओर क्रियायोग का उपसंहार
क्रिया ही योग है- शुद्धा सारोपा लक्षणा
क. प्रयोजनमूलक लक्षणा
६४०
६४३
६४४
` ६४१५
६४७
द५८-७३९
६४८
६५४
६५७
६६३
६६७
९६६९
६५७२
६७३
६७५
६७७
६८१
६८३
६८५
६८८
६८८
९९१
६९५
६९९
७०9
७०२
७०३
७०५४
७०५
७०७
७०९
७१२
७१३
७१७
|
|
।
॥
।
|
।
२५
( ५“ )
२१ योग के आठ अंग-यम ओर नियम
क. आसन ओर प्राणायाम
२२ वायुतत्व का निरूपण
२३ प्रत्याहार का निरूपण
कृ, धारणा ओर ध्यान
२४ योग से प्राप्त होने वाली सिद्धियां
क. मधुमती-सिद्धि
ख, अन्य सिद्धिरया-- मधुप्रतीका, विशोका, संस्कारशेषा
कैवल्य की प्राप्ति--प्रकृति ओर पुरष को
क. योगश्चाख्र के चार पक्ष
( १६ ) शांकर-द्रशान ( अदरेतवेद्(न्त )
१ परिणामवाद-खण्डन- प्रकृति की सिद्धि अनुमान से असंभव ७४०
६4)
क. प्रकृति के लिये श्रुति-प्रमाण भी नहीं दै
ख. सांख्य-दर्शंन के दृष्टान्त का खण्डन
वेदान्तसूतव्र की विषय-वस्तु
ब्रह्म की जिज्ञासा-प्रथम अधिकरण
# आत्मा की जिज्ञासा-- सन्देह की असंभावना
क. आत्मा की जिज्ञासा असंभव ~ प्रयोजन का अभाव
ब्रह्मजिज्ञासा का आरंभ संभव --उत्तरपक्ष
कृ. उपक्रम आदि लिगों के उदाहरण--आत्मा की सिद्धि
वैशेषिक [8
आत्मा का अध्यास- -मत की परीक्षा
क. आत्मा के अध्यास की पुनः सिद्धि- भेद का खण्डन
3 घ
ख. जेनमत में स्वीकृत जीव पर विचार
७ विज्ञानवादी बौद्धो का खण्डन-- विज्ञान आत्मा
८ आत्मा के विषय में संदेह
९ ह्य की सिद्धि के व्यि आगम प्रमाण
१०
११
क. सिद्ध अथं का बोधक होने से वेद अप्रमाण-पूरवंपक्ष
ख. सिद्ध अथं में शब्दों की व्युत्पत्ति--उत्तरपक्ष
अध्यास का निरूपण- प्रपंच का विवतंरूप होना
क. अध्यास के भेद-दो प्रकार से
अध्यास का मीमांसकों के द्वारा खंडन--लम्बा पूर्वपक्ष
क. मिथ्याज्ञान के लिये कारण-सामग्री का अभाव
ख. असत् अर्थं का ज्ञान नहीं होता
७१९
७२०
७२३
७२९
७३१
७३२
७३३
७२३४
७३६
७३९
७४०८९९१
७४२
७४४
७५२
७५७
७१८
७६२
७७०
७७१
७७३
७७८
७८१
७८३
७८९
७८८
७९१
७९५
८99
८०१
८०३
८०१
८०७
॥ ( ५६ )
॥॥
| 1 ग. ग्रहण ओर स्मरण का विद्टेषण ८०९
॥| घ. ग्रहण ओर स्मरण में अभेद या सारूप्य ८११
॥ ड. "पीतः शङ्खः" के व्यवहार का समर्थन ८१६
|| | १२ नेदं रजतम्" की सिद्धि-- मीमांसक मत ८१८
1 । १३ मिथ्याज्ञान कौ सत्ता है--शंकर का उत्तरपक्ष ८२४
। ॥ ॥ क्. रजत का सीपी पर आरोप तरद
| ॥ । | १४ आरोप के विषय मे शंका-समाधान | ८३२
। | |: क. मीमांसकं के तको का उत्तर ८३३
। ॥ | १५ माध्यमिक बौद्धो का खण्डन--भ्रमविचार ठत
(| क. विज्ञानवादिया का खण्डन--भ्रमविचार ८४३
॥ | ख. नेयायिकों की अन्यथाख्याति का खण्डन ८४४
॥। १६ इदं रजतम् मे ज्ञान की एकता-शङ्खा-समाधान ८४६
४ । ॥ १७ त्रिविधसत्ता तथा अनिवंचनीय-ख्याति ८५०
| ॥॥ १८ माया ओर अविद्या की समानता ८४५३
|| | । | क. अविद्या की सत्ता के किए प्रमाणं ६ ८५६
|| त. अहमज्ञः" का प्रत्यक्ष अनुभव ओौर नैयायिक-खण्डन ८५९
॥ | १९ दूसरी विधि से अहमज्ञः" के दारा अविद्या की सिद्धि ८६४
| | २० अनुमान से अविद्या की सिद्धि ८६६
| ॥ २१ शब्द-प्रमाण से अविद्या की सिद्धि ८७१
| || २२ शाक्त-सम्प्रदाय मे माया--शक्ति ८७२
| ॥| २३ संसार अविद्याकल्पित है--शंका-समाधान ८७४
| | | | ॑ २४ प्रपंच की सत्यता का खण्डन-- सत्य की निवृत्ति नहीं ८८२
| ॥ २५ आत्मज्ञान से अविद्या-नाश--राजपृत्र का हृष्टान्त ८८५
|| २६ प्रथम सूत्र का उपसंहार ओर अनुबन्ध मतथ
{ | | क. चतुस्सूत्री के अन्य सूत्र- स्वरूप ओर तटस्थ लक्षण ८८९,
।॥॥| परि शिषट--र प्रमुख दशंन-ग्रन्थो की सूची ८९३
॥ | परिशिष्ट--२ प्रमुख दानिक ओर उनकी कृतियाँ ९२८
॥ | | परिरिष्ट--३ मूलग्रन्थ में निदिष् ्रन्थ ओौर ठेखक ९४८
। | | || परिशिषठ--४ मूलग्रन्थ के उद्धरण ९५२
| ॥ | परिशिष्ट--५ शब्दानुक्रमणी ९७१
| | =
सर्वद्नसंयह;
प्रकाराः व्याख्योपेतः
---- =-= भन
बन्दे वाणीं वराभीष्टां स्वगुरं बनमालिनय्।
कुवे व्याख्यां प्रकाशाख्यां सर्वदशनसं ग्रे ॥ १॥
टीकां यद्यपि बेदुषीविसलितामम्यङ्करो निर्ममे
नेवं सायणमाधवस्य सरला जातां गभीरा गिरा ।
सर्वेषामुपकारमेव सुचिरं ध्यात्वा स्वभाषामयीं-
व्युत्पत्तिप्रहितामिमां वितनुते व्याख्यां मगोऽयं कविः ॥ २॥
नाधीतं पदशाखमप्यवगतः कोशो न सम्यड्या
साहित्येऽपि न साधना किल कृता तकं सदा धर्षितः |
वेदान्तादिविचक्षणेगेरुवरैर्बिचोपलव्धि हृदा
ध्यायं ध्यायमहं मुदं किल लये ज्ञानं दिशत्वीश्वरः ॥ ३ ॥
र्थ कौ निविघ्न समाततिके लिए भारतीय-परंपरा का पालन करते हृए
सायण-माधव इसके आरंभ में मंगलाचरण के शोक लिखते है--
नित्यज्ञानाश्रयं बन्दे निःश्रेयसनिधिं चिवम्।
9 (9 तेनेवेदं ^ ¢
येनेव जातं मद्यादि तेनेवेदं सकलेकम् ॥ १ ॥
जिसमें नित्यज्ञान स्थिर होकर रहता है, निःश्रेयस ( चरम सुख, मुक्ति )
काजो भारडार है रेस शिव कोम नमस्कार करता हु; उसमे ही पृथ्वी आदि
[ द्रव्य | उत्पन्न हृए ह ओर उस ( शिव ) के कारण ही यह (सारा संसार)
कतंयुक्त [ कहा जाता है ] । [ इस आरमिक श्ोकके द्वारा ही माधवाचायं
निर्देश करते हैकि ईश्वरकर्ताहै गौर संसार उसका कार्यं। न्याय-शाखरमें
ईश्वर की सत्ता सिद्ध करनेमें यह भीएक तकंहै। पृथ्वी आदि द्रव्य तथा
निःश्रेयस ओर नित्यज्ञान का विम भी न्याय -वेशेषिकों के अनुक्रूल है । दद्चन-
शाख की मुख्य समस्यायं है--ईश्वर, मोक्ष, मूलतच्व । इनका निदेश आदि
मे हुमा है। ]॥ १॥
र सवेदशंनसंग्रहे-
पारं गतं सकलद्ीनसागराणा-
मात्मोचितार्थचरिता भितसर्वलोक
मात्मोचिताथचरिताथितसवेरोकम् ।
्रीशषाङ्गपाणितनयं ५ निखिलागमन्ं
श्रीश्षाङ्गपाणितनयं निखिलागमज्ञ
सरवज्ञविष्णुगुरुमन्वहमाश्रयेऽहम् ॥ २ ॥
सभी द्न-रूपौ समुद्रो के पार पहुचे हृए्, अपने अनुकूल तस्व के उपदेश
सते सभी लोगो को कृतां करने वले, सभी आगमो ( शालो ) को ज[नने वाले,
श्री श्ाङ्खपाणि के पुत्र, सवंज्ञ-विष्णु नामक गुर का नै प्रतिदिन आश्रय लेता
( या अनुसरण करता हं ) 1 | आटमोचितार्थ॑० = कोविल के अनुसार इसका अथं
है- “जिसने आत्मा शब्द के उचित अर्थं के दवारा समस्त मानव को सन्तुष्ट
कियादहै' |।॥ २॥ |
्रीमत्सायणदुग्धान्धिकोस्तुमेन ` मोजसा ।
क्रियते माधवार्येण सवेदशेनसंगरहः ॥ २ ॥
श्री युक्त सायण-वंशरूपी क्षीर-सागर मे कौस्तुभ-मणि के समान तथा
महाप्रतापी माधवाचायं के द्वारा | सभी द्नशाल्नो का संक्षेप ] यह 'सरव॑द्न-
संग्रह" बनाया जा रहा है ॥ ३॥
पू्वेपामतिदुस्तराणि सुतरामारो्य शाख्ञाण्यसो
भ्रीमत्सायणमाधवः प्रथुरुपन्यास्यत्सतां प्रीतये ।
दूरोत्सारितमत्सरेण मनसा शृण्वन्तु तत्सजना
मास्यं कस्य विचिन्रपष्परचितं प्रीत्य न संजायते! ॥ ४ ॥
पहले के आचार्यो के अत्यन्त कठिन शाखो का अच्छी तरह मन्थन करके,
सायण के वंश मे उत्पन्न, सामथ्यंवान् माधव ने सजनो की प्रसन्नता के लिए
[उन शाश्नों को] इस जगह जमा किया; उसे सजन लोग मन से मत्सरता
( ईर्ष्या ) दूर हटाकर सुन, क्योकि रंग-विरगे पूलों से बनाई गई माला किसे
प्रसन्न नहीं करती ? ॥ ४॥
----अन=--
८ १) चार्वाक-दशनम्
प्रत्यक्षमेव किल यस्य कृते प्रमाणं
भूताथवादमथ यो नितरां निविष्टः
वेदादिनिन्दनपरः सुखमेव धन्त
सोऽयं ब्रहस्पतिमुनिमम रश्चकोऽस्तु ।-ऋषिः
( १. चार्वाक ओर लोकायतिक- नामकरण )
अथ कथं परमेश्वरस्य निःश्रेयसम्रदत्वमभिधीयते ? बृहस्प-
तिमतानुसारिणा नास्तिकिरोमणिना चावोकेण तस्य दृरोत्सा-
दुरुच्छेदं [च
रितत्वात् । दुरुच्छेदं हि चावोकस्य चेष्टितम् । प्रायेण सवप्राणि-
नस्तावत्--
१. यावजीवं सुखं जीवेननास्ति मृत्योरगोचरः ।
भस्मीभूतस्य देहस्य पुनरागमनं कतः ! मी
इति लोकगाथाम् अनुरुन्धाना नीतिकामश्ाखानुसारेण अथंकामो
एव पुरुषार्थो मन्यमानाः, पारलोकिकमर्थम् अपहृवानाः, चाव
कमतमनुवतंमाना एवानुभूयन्ते । अत एव तस्य चावोकमतस्य
(लोकायतम्' इत्यन्वथेम् अपरं नामधेयम् ॥
मंगलाचरण के पहले श्छोक मे परमेश्वर को “निःश्रेयसनिषि' ( मुक्तिका
भार्डार ) कहा गया है । आप परमेश्वर को मुक्ति प्रदान करने वाला कैसे
कहते है ? ब्रहस्पति के मत को मानने वाले, नास्तिको के शिरोमणि ( प्रधान )
चार्वाकने तो इस तरह की धारणा दही उखाड फकीदहै। चार्वाकके मतक
खर्डन करना भी कठिन है । प्रायः संसारमें सभी प्राणी तो इसी लोकोक्ति
पर चलते ह--जबतक जीवन रहे सुख से जीना चाहिए, एेसा कोई नहीं
जिसके पास मृत्यु न जा सके; जब शरीर एक बार जल जाता है तब इसका
पुनः आगमन केसे हो सक्ता है ? सभी लोग नीतिशाख्र ओर कामलाख्र के
अनुसार अथं ( घन-संग्रह ) ओर काम ( भोग-विलास ) को ही पुरुषां समन्ते
है, परलोक की बात कौ स्वीकार नहीं करते है तथा चार्वाक-मत का अनुसरण
करते है इस तरह मालूम होताहै [ बिना उपदेश के ही लोग स्वभावतः
४ सबेदशनसंग्रहे-
चार्वाक की ओर चल पडते है | इसलिए चार्वाक-मत का दूसरा नाम अंके
अनुकूल ही है-लोकायत ( लोक = संसार मे, आयत = व्याप्त, फेला हुमा ) ।
विरोष-शङ्कर, भास्कर तथा अन्य टीकाकार लोकायतिक नाम देते है ।
लोकायतिक-मत चार्वाकों का कोई सम्प्रदाय है। चार्वाक = चार ( सुन्दर ),
वाक ( वचन )। मनुष्यों कौ स्वापराविक-परवृत्ति चार्वाक-मत कौ ओर ही दहै।
बाद मे उपदेशादि द्वारा वे दूसरे दर्शनों को मान्यता प्रदान करते ह । दुसरे
जीव भी ( परपक्षो आदि ) चार्वाक (= स्वाभाविक-घमं एवं देन ) कै
पृष्ठपोषक ह । ग्रीक-दर्चन के एरिस्टिपस एवं एपिक्युरस इस सम्प्रदाय के समान
अपने दशनं की अभिव्यक्ति करते है । "लोकायत शब्द पाणिनि के उक्थगण
( क्रतुवथादिसूव्ान्ताद्क् ४।२।६० ) मेँ मिलता है जिसमे "लोकायतिक" शब्द
बनाने का विधान है । षडदर्शन-समुच्चय के टीकाकार गणरत्न का कर्टना
कि जो पुरय-पापादि परोक्षवस्तुओं का चर्व॑श ( नाश ) कर दे वही चार्वाक है ।
कारिका-वृत्ति मे ( १।३।३६ ) चार्वां नामक लोकायतिक-आचायं का भी
उल्लेख है ।
( २. तच्व-मीमांसा )
तत्र पृथिव्यादीनि भूतानि चत्वारि तत्वानि । तेभ्य एव
देशकारपरिणतेभ्यः किण्वादिभ्यः मदशक्तिवत् चेतन्युष-
ज्ञायते । विनष्टेषु सत्स स्वयं विनश्यति । तदाहुः--विज्ञान-
घन एवैतेभ्यो भूतेभ्यः समुत्थाय तान्येवाुषिनश्यति, स॒ न
रत्य संज्ञास्तीति, ८ बृह ० उप० २।४।१२ ) । तच्ेतन्यविशिषट-
देह एवात्मा । देदहातिरिक्ते आत्मनि प्रमाणाभावात् । प्रतयकषक-
प्रमाणवादितया अनुमानादेः अनङ्गीकारेण प्रामाण्याभावात् ॥
उनके मत से परथिवी आदि चार महाभूत ही तत्वह ( पृथ्वी, जल,
अभि, वायु ) [ ब्रत्यक्षको ही प्रमाण मानने के कारण आकाशतत्त्वं कौ °
। जिस
है, उसी
प्रकार करव आदि ( मादक-्रव्यों ) से मादक-शक्ति उत्पन्न होती
प्रकार शरीर के खूप मे बदल जाने पर इन्दी ( चार ) तत्वों से वेतन्य उत्पन्न
होता है । इनके नष्ट हो जाने पर स्वयं चैतन्य का भी विनाश हो जाता है ।
हेला कहा भी है ( भरुति-प्रमाण से भी यही बात सिद्ध होती है }--{( आत्मा )
विज्ञान ( = शुद्ध चैतन्य ) के रूप में इन भूतो से निकल कर उन्हीं म विलीन
हो जाता है, मृसयु के बाद चैतन्य ( ज्ञान } की सत्ता नहीं रहती" ( ¶ृ० उप
क नि
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चाबौकदशनम् ५
२।४।१२ ) । अतएव उप्यक्त चैतन्य से युक्त शरीर को ही आत्मा कहते हैँ ।
देह के अलावे आत्मा नामका कोई दूसरा भी पदाथं है कोई प्रमाण इसके
लिये नहीं । ये केवल प्रत्यक्षज्ञान को ही प्रमाण मानते है; अनुमानादिकीो
अस्वीकार करने से उनको प्रमाण नहीं माना जाता ॥
विरोष-किरव = एक प्रकार की ओषधि या बीज जिससे शराब बनाई
जाती थी । (सुरायाः प्रकृतिभूतो वृक्षविरेषनिर्यासः' ( अभ्य० ) । जैसे प्रकृति
अवस्था ( किंणव, मधु, शकरादि ) मे मादक शक्ति नहीं किन्तु उनकी विकृति
अवस्था ( शराब ) में मादकता आ जाती है, उसी प्रकार पृथ्वी, वायु आदि
पदार्थो मे चैतन्य न होने पर भी इनके विकार-रूप (शरीर) में चैतन्यहो
जाता है । तुलना कर-
जडभूतविकारेषु चैतन्यं यत्त॒ टृद्यते ।
ताम्बूलपूगचर्णानां योगाद्राग इवोत्थितम् ॥ ( स° सि° सं° २।७ )
अर्थात् जड्-पदार्थो के विकार से चैतन्य उसी प्रकार उत्पन्न होता है जेस
पान, सुपारी ओौर च्ूनेके योगसे पान की लाली निकलती है । अआत्मा=
शरीर + चैतन्य । चार्वाक केवल प्रत्यक्ष-प्रमाण मानते है । इनके द्वारा अनुमान
के खरडन के लिए आगे देखं । ब्रहदाररयकोपनिषद् के वाक्य का उद्धरण चार्वाक
अपने अथं की सिद्धिके लिए देते है, भले ही उसका दूसरा अथं है । शङ्कुराचायं
इसमें ब्रह्मज्ञान के अनन्तर की अवस्था का वर्णन मानते है । देखिये, शबर-
भाष्य जे० सुऽ १।१।५; कहा भी है-^. 8९0प141€] वृप्०#९ह €
116 णः 118 0 [पाः]2086. अर्थात् स्वार्थ-सिद्धि के लिए दृष्ट भी
बाईइबिल से उद्धरण देते है ।
(३. खुख की भरा्ि- दुःख ओर सुख का मिश्रण)
अङ्गनाद्यालिङ्गनादिजन्यं सुखमेव पुरूषाथः । न च “अस्य
;खसंभिन्नतया पुरुषाथेत्वमेव नास्ति" इति मन्तव्यम् । अवज
नीयतया प्राप्तस्य दुःखस्य परिहारेण सुखमात्रस्यैव भोक्तव्य
स्वात् । तद्यथा- मत्स्याथीं सश्चस्कान् सकण्टकान् मत्स्या-
नुपादतते। स यावदादेयं तावदादाय निवतेते । यथा वा धान्याथीं
सपरारानि धान्यानि आहरति, स॒ यावदादेयं तावदादाय
निवतंते । तस्माद् दुःखभयात् नालुकूलवेदनीयं सुखं त्यक्त्-
मुचितम् ॥
ल्ी-आदि के आलिङ्गनादि से उत्पन्न सुख ही पुरुषार्थं है ( दूसरा कुछ
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ह सवेदशनसंग्रहे-
पुरुषार्थं नहीं ) । ठेसा नहीं समज्ञना चाहिए कि दुःख से मिला-जुला होने
( संभिन्न ) के कारण [ सुख ] पुरुषाथं नहीं है, क्योकि हमलोग [ सुख के साथ |
अनिवा्य॑-रूप से मिले-जुले दुःख को हटाकर केवल सुख का ही उपभोग कर
सकते है 1 [ एेसा कोई सुख संसार में नहीं जो केवल सुख ही हो, दुःख नहीं ।
वस्तुतः संसार के सभी सुख दुःखों से युक्त होते ह । एेसा देखकर भी सुल को
पुरुषां समक्लना चाहिए क्योकि सुख-दुःख से भरो वस्तु से दुःख को हटाकर
केवल सुख का ही आनन्द लिया जा सकता है । इसके लिए दृष्टान्त भी लं-- |
लैते- मछली चाहनेवाला व्यक्ति छिलके ( 3५९1९ ) भौर काटो के साथही
मरुलियो को पकडता है, उसे जितने की आवश्यकता है उतना ( अंश ) लेकर
हट जाता है; गौर जिस प्रकार धान को चाहनेवाला व्यक्ति पुल के साथ
ही धान नले आता है, जितना उसे लेना चाहिए उतना लेकर हट जाता है ।
इसलिए दुःख के भय से [ मन के ] अनुकूल लगनेवाले सुख को छोडना
ठीक नहीं है ॥
: न दहि श्रृगाः सन्ति इति शालयो नोप्यन्ते । न हि
(भिक्ुकाः सन्ति इति स्थाल्यो नाधिश्रीयन्ते । यदि कश्चिद्
भीरुः चट सुखं त्यजेत्; तिं स॒ पञ्चवत् मूर्खो भवेत् ।
तदुक्तम्--
२, त्याज्यं सुखं विषयसङ्गमजन्म पुंसां
दुःखोपसुषटमिति मृखेविचारणेषा ।
ब्रीहीञ्जिहासति सितोत्तमतण्डकाद्यान्
| को नाम मोस्तुषकणोपहितान्दिताथीं ॥ इति ।
9 रेखा नहीं देला जाता कि हरिण ह(वे खा जारयेगे ) इसलिए धान ही
न रोपे, था भिखमंगे है (मांगने के लिए आवेगे ) इसलिए ॒हांडियों को
[ शरू्दे पर ] ही न चाये । ( लोग यही समक्षते दै किं विघ्न अपने स्थान पर
ह, हमारा कामक्योंरुका रहै?) यदि कोई उरपोक [ उपयुक्त प्रकार के
विघ्नो के भयसे] ष्ट ( साक्षात्, वतमान, दिखलाई पड़नेवाले ) सुख को
चोड देता है तो वह पयु के समान मूख ही है । कहा भी है यह मूर्खो का
विचार है कि मनुष्यों को सुख का त्याग कर देना चाहिए क्योकि उनकी
उत्पत्ति [ सांसारिक | विषयों के साथहोतीहैतथावे दुःख से भरेहै। मला
क्ेहिये तो, [ अपनी ] भलाई चाहनेवाला कौन एेसा आदमी होगा जो उजले ओर
१ व # +# 0 ग 4
चावौकदशंनम् ७
` सबसे अच्छे दानैवाली धान की बालियों को केवल इसीलिए छोडना चाहता दहै
करि इनमे भरंसा ओर कुरडा भी है ?' [ कण = कुण्डा, कोडा, कुंड; चावल के
छिलके की धूल, जो पशुओं के खाने के काम में आत्तीहै।]
(४. यज्ञो ओर बेदौ की निस्सारता )
नयु पारलोकिकसुखाभावे बहुवित्तव्ययश्षरीरायाससाध्ये-
ऽशरिहोत्रादौ विचाब्रद्धाः कथं प्रवरतिष्यन्ते ! इति चेत् , तदपि
न प्रमाणकोरि प्रवेष्टमीष्टे । अनृत-व्याघात-पुनरुक्तदोषैः दूषित
तया वेदिकम्मन्येरेव धृतेवकेः परस्परं--कमकाण्डभ्रामाण्य-
वादिभिः ज्ञानकाण्डस्य, ज्ञनकाण्डव्रामणण्यवादिभिः कमेकाण्डस्य
च~ प्रतिधिप्तत्वेन, त्रय्या धृतप्रलापमात्रत्वेन, अग्निहोत्रादे
जीविकामात्रग्रयोजनत्वात् । तथा च आभाणकः--
३. अभ्रिहोत्रं त्रयो बेदाखिदण्डं भस्मगुण्ठनम् ।
बुद्धिपौरूषहीनानां जीविकेति बृहस्पतिः ॥ इति ।
यदि [ कोई पूछे कि ]--पारलौकिक-सुख [ का अस्तित्व ] न हो तो विद्वान्
लोग असनिहोत्रादि ( यज्ञो ) में व्यो प्रवृत्त होते है जब कि उन यज्ञोमे अपार
धन का व्यय तथा शारीरिक श्रम भी लगता है?-तो, यह ( तकं) भी
प्रामाणिक नहीं माना जा सकता क्योकि असिहोत्रादि कर्मो का प्रयोजन केवल
जीविका-प्रात्तिही हैः तीनों (वेद) केवल धूर्तो ( ठगनेवालों ) के प्रलाप रहै,
क्योकि अपने को वेदज्ञ सम्चनेवाले धृतं “बगुला-भगतों ने' आपसमेंही
[ वेदको ] अनृत ( श्लूढा), व्याघात (आपस मे विरोध) ओौर पुनरुक्त
( दुहराना ) दोषों से दूषित किया है, [ उदाहरण के लिए ]--कमैकार्ड को
प्रमाण माननेवालों ( पुवं मीमांसकों ) ने ज्ञानकारड को, ओर ज्ञानकारड को
प्रमाण माननेवालों ( उत्तरमीमांसकों, वेदान्तियों ) ने कर्म॑कारड को आपस में
दोषयुक्त बतलाया है) एेसी लोकोक्ति भी है-- वृहस्पति का कहना है कि
अध्धिहोत्र, तीनों वेद, तीन दर्ड धारणा करना ( संन्यास लेना }) ओर भस्म
लगाना उन लोगों की जीविका [ के साधन ] है जिनमें न बुद्धिहै, न पुरुषार्थं
( शारीरिक-शक्ति ) ।'
विरोष--चार्वाक के विरोधी लोग शङ्का करते है कि विद्वान् लोग कितना
अधिक व्यय ओौर श्वम से अग्निहोत्रादि का सम्पादन करते है । पर यह सब
किसलिए ? लौकिक-सुख तो इनसे है नहीं । तब तो केवल पारलौक्रिक-सुख ही
त सवेदशनसंग्रहे-
इनसे भिलता है अर्थात् परलोक है । अनरत-दोष-पुतरेषटि-यज्ञ करने पर भी
पत्र न होना वेद-वाक्यों को श्चृठा सिद्ध करता है । कर्मकाण्ड में, जसे “भोषधे
त्रायस्वैनम्" ( त° सं° १।२।१ ) हे ओषधि ! रक्षा करो, (स्वधिते मेनं हिसीः"
( त° सं° १।२।१ ) णे दुरे इसे मत काटो-इन अचेतन वस्तुओं को चेतन
के समान सम्बोधित करना असम्भव है। इसी प्रकार ब्रह्मकारड मे, "अन्नं
ब्रहोति व्यजानात्" ( तै० उ० ३।२ ), श्राणो ब्रह्मेति व्यजानात्" ( ते० ३।३ )
इनमें अन्न ओर प्राण को ब्रह्म माना गया है वह क्षा है। व्याघात-दोष-
कभी कहते है उदिते जुहोति" ओर कभी अनुदिते जुहोतिः ( तुल० एे° ब्रा
५।५।५ श्रौर ते ब्रा० २।१।२।३-१२ ) । कभी "एक एव रुद्रो न द्वितीथोऽवतस्थे'
( तै० सं० १।८।६ ) कहते तो कभी हजारों श्रो को मानते हृए भी नहीं
हिचकते- "सहस्राणि सहस्रशो ये रुद्रा अधि भूभ्याम्" ( ते° सं° ४।५।११ ) ।
कमी तो "एकमेवाद्वितीयम्" ( छा० ६।२।१ ) कहते हैँ कभी द्रा सुपर्णा सयुजा"
( मु०° ३।१।१ ) गौर “ऋतं पिबन्तौ" ( का० ३।१ ) कहते ह इस प्रकार
परस्पर विरोधी वाक्यों की सत्ता वेदों मेही है। पुनरूक्त-द्ोष--उसी बात
को कहना जिसे लोग पहले से ही जानते है जंसे (आपः उन्दन्तु" ( ते° सं °
१।२।१ ) क्षौरकाल में सिर को जल सेभिगादे। थिवी से पौषे होतेह
पौधों से अन्न" ( तै° २।१।१ )--इन सोमे उसी का वर्णन है निसे हम
जानते है । इन दोषों के लिए देविए-सायण कौ ऋग्वेद भाष्य भूमिकामें
मन्त्रो ओर ब्राह्मणों का प्रामारय-विचार ओर व्यायन्घुत्र २।१।५७- (तद्रा
मीमांसक लोग ज्ञानकाण्ड को अप्रामाणिक मानते है तथा वेदान्ती लोग
कमकारड को । दो कै लड़ने पर तीसरे का लाभ होता ही है-इस तरह
चार्वाक पूरेवेदकोही अप्रामाणिक मान लेते ह। उनके अनुसार धूर्तोने
यज्ञादि का विधान करनेवाले वेदों का निर्माण करके, श्रद्धा से अन्धी
जनता मे विश्वास दिलाकर, लोगों से यज्ञ कराकर धन चूसने का एक साधन
बना लिया है, उनकी यह जीविका ही हो गई है । अधिहोत्र=अभि मे होनेवाले
सभी श्रौत, स्मातं कमं । तीन वेदऋग् , यजुः, साम। ये पूर्त के बनाये
है किन्तु अपौरूषेय कहकर इनका प्रचार किया गया ह । त्रिदर्ड--तीनों प्रकार
के कर्मोका त्याग करके संन्यास लेना ओर उन कर्माको दर्ड देने के लिए
दरड धारण करना । भस्म लगाकर सन्ध्यावन्दन, देवपूजा, जपादि करना ।
जिनके पास बुद्धि है वे तरह-तरह के उपाय करके ( साम, दानादि उपायों से
देश, काल के अनुसार परामश देकर } जीविका पाते है । पुरुषार्थं वाले पराक्रम
दिखाकर वृत्ति पाते ह । किन्तु जिनके पास ये दोनों चीजं नहीं हवे जीविका
चावौकदशनम ६
का कोई दसरा साधन न देखकर सभी जीवों को कमं के बन्धन में पड़ा हुजा
बताकर उनसे मनमाना धन एठते रहते ह ।
( ५. ईश्वर-मोक्ष-आत्मा )
अत एव कण्टकादिजन्यं दुःखमेव नरकः । लोकसिद्ध राजा
परमेश्वरः । देदच्छेदो मोक्षः । देहात्मवादे च ्थुलोऽह,
कृशोऽहं, कृष्णोऽहम्' इत्यादि सामानाधिकरण्योपपत्तिः । मम
शरीरम्! इति व्यवहारो राहोः शिरः” इत्यादिवदोपचारिकः ॥
इसलिए करटकादि [ भौतिक कारणों से ] उत्पन्न [ भौतिक | दुःख ही
नरक है ( पुराणों में वशित कुम्भीपाकादि नरक नाम की कोई वस्तु नहीं ) ।
संसार मं स्वीकृत राजा ही परमेश्वर है ( संसार का नियन्ता, उत्पत्ति, पालन
ओर संहारकर्ता, पुनजन्म का प्रदाता ईश्वर नहीं क्योकि उत्पत्ति भादि तो
स्वाभाविक है, पुनजन्म ह ही नहीं)। [ देह ही आत्मा है अतः | देहया
आत्मा का विनाश ही मोक्षद) देह को आत्मा मानने परही भें मोटाहै,
मै बला है, मै काला ह" इत्यादि वाक्यों को सिद्ध करना सरलदहो सकता है
क्योकि [ उदेदय ओर विधेय दोनों का | आधार एक ही हो जाता है। [म
आत्मा, मोटा = देह का गुण । अहं स्थूलः' कहने पर दोनों शब्दों का आधार
समान हो जाता है, आत्मा पर शरीर के गणो का आरोपण हभा है इसलिए
ठेसे वाक्यों की सिद्धि के लिए हमें अत्मा ( अहं ) ओर देह (स्थूलः ) को
समान समन्षना होगा । यदि आत्मा-देह एक नहीं ह तो अहं स्थूलः" वाक्य
केसे बन सकता है ? उपर्युक्तं देहात्मवाद को स्वीकार कर लेने पर समस्या
सुलक्ञ जाती है । अस्तु, यदि शरीर आत्मा दै तो हमे "अहं शरीरम्" कहना
चाहिए, “ममं शरीरभू' कैसे करगे ? | भेरा शरीर" यह प्रयोग "राह का सिरः
के समान आलंकारिकं या गौण-प्रयोग है । [ भम शरीरम्" तभी कह सकते त
जब आत्मा ( अहं ) ओर शरीरमें भेद हो किन्तु यह मृख्याथं नहीं है,
आलंकारिक-दषटि से प्रणुक्त है । राहु ओर उसका सिर दो पृथक् चीजं नहीं
एक ही चीज है । “राम का सिर' कहने पर तो पाथक्य स्पष्ट मादरम पड़ता है
क्योकि एक ओर राम तो समस्त अ ङ्ग-संस्थान को कहते है ओर दूसरी ओर
सिर एक अंग विशेष है । इसी के साह्य से 'राहु का सिर" भी कहते है किन्तु
वस्तुतः सिर काही नाम राहु है फिर भी ^राहोः शिरः" कहते है । उसी प्रकार
जामा ओर शरीर के एक रहने पर भी "मम शरीरम्! कहते है। |]
१० सवेदशेनसंग्रहे-
( ६. मत-संग्रह )
तदेतत्सवं समग्राहि-
४. अङ्गनालिङ्गनाजन्यसुखमेष पुमथता ।
कण्टकादिग्यथाजन्यं दुःखं निरय उच्यते ॥
५, लोकसिद्धो भवेद्राजा परेशो नापरः स्प्रतः
¦ देहस्य नाशो य॒क्तिस्त॒ न ज्ञानान्मुक्तिरिष्यते ॥
६, अत्र॒ चत्वारि भूतानि भूमिवायनलानिलाः
चतुभ्यः खलु भूतेभ्यश्चेतन्युपजायते ॥
किण्वादिभ्यः समेतेभ्यो द्रव्येभ्यो मदशक्तिवत् ।
अहं स्थूलः कृशोऽस्मीति सामानाधिकरण्यतः ॥
८, देहः स्थौल्यादियोगाच स॒ एवात्मा न चापरः ।
` मम देहोऽयमित्युक्तिः संभवेदोपचारिकी ॥ इति ।
` इन सों का संग्रह कर दिया गया है खरी के आलिगन से उत्पन्न सुख
ही पुरुषाथं का लक्षण है । कटि इत्यादि [ गढ़ने कौ | पीड़ा से उत्पन्न दुःखं
ही नरक कहलाता है ॥ ४॥ संसारके द्वारा माना गया रजाही परमेश्वर
है, कोई दसरा नहीं, देह का नाश ही मुक्ति है, ज्ञान से मक्ति नहीं होती ॥ ५ ॥
इस मत मे चार तस्व है- भूमि, जल, अमि ओर वायु इन्हीं चारो भूतोंसे
चैतन्य ( ज्ञान ) उत्पन्न होता है, जिस प्रकार किंरवादि द्रव्यो के भिलनेसे
मदाक्ति ( निकलती है ) । ¡भै मोदा ह, “मे पतला ह! -इस प्रकार [ दोनों के |
एक आधार होने के.कारण तथा मोटाई आदि से संयोग होने के कारण देह ही
आतमा है, कोई दूसरा नहीं । भेरा शरीर' यह उक्ति आलंकारिक है ॥ ६-= ॥
( ७. अनुमान-परमाण का खण्डन )
स्यादेतत् । स्यादेष मनोरथो यद्यनुमानादेः प्रामाण्यं न
स्यात् । अस्ति च प्रामाण्यम् । कथमन्यथा धूमोपलम्भानन्तरं
धृमध्वजे प्रेक्षावतां प्रवृत्तिरुपपेत ! "नचयास्तीरे एलानि सन्ति"
इति वचनश्रवणसमनन्तरं फलाथिनां नदीतीरे प्रवृत्तिरिति १.
` तदेन्मनोराज्यविजुम्भणम् । व्याप्िपक्षमेताश्चालि हि
लिङ्ग गमकम् अभ्युपगतमनुमानप्रामाण्यवादिभिः । व्यात्िश्च
~ "न+
न "णण
चावोकदशेनम् ११
उभयव्रिधोपाधितिधुरः सम्बन्धः । स च सत्तया चक्चुरादिवननाङ्ग-
भावं भजते, फ तु ज्ञाततया । कः खट् ज्ञानोपायो भवेत् ?
खेर यही सही, किन्तु आपकी यह इच्छा तो तब पूरी होती जब अनुमानादि
को प्रामाणिक नहीं मानते ( यह चार्वाक के विरोधियों की शंका है) । लेकिन
अनुमानादि तो प्रमाण हही, नहीं तो धुआं देवकर अम्मि ( धूमघ्वज } के प्रतिं
बुद्धिमान् लोगों की प्रवृत्ति कैसे सिद्ध होती ( = अनुमान-प्रमाण से ही यहं सम्भवं
है) ? अथवा, नदी के किनारे फल है" इस बात को सुनकर फल चाहनेवाले
नेदी के किनारे क्यों चल पड़ते है ? ( = शब्द या आगम-प्रमाण से यह सम्भव
हैजवब किं आप्तया यथार्थवक्ता की बात सुनकर उस पर विश्वास करं )। [ इस
प्रकार इन उदाहरणं से सिद्ध होता है कि अनुमान ओौर शब्द प्रमाण दहै
यह पूवंपक्षी अर्थात् चार्वाक के विरोधियों का वचन है |
यह सब केवल मन के राज्य की कल्पना है। अनुमान को प्रमाण
माननेवाले लोग, सम्बन्ध बतलानेवाला लिङ्गं ( हेतु 2110016 (€) ) `
मानते है जो व्याप्ति ( 1901 [ष्शा86 ) गौर पक्षधम॑ता ( प्राणः
0160136 ) से युक्त रहता है । ध्याति का अथं है दोनों प्रकार की ( शकितं
ओौर निधित ) उपाधियों से रहित [ पक्ष ओौरलिङ्ख का | सम्बन्ध । आंख की
तरह यह सम्बन्ध केवल अपनी सत्तासे ही [ अनुमनका | अङ्क नहीं बन
सकता, प्रत्युत इसके ज्ञान से [ अनुमान संभव है] ( कहने का अभिप्राय
यह है करि जिस प्रकार आंख दशेन-क्रिया का एक सहायक अङ्ख है उसी प्रकार
व्याति भी अनुमान काअङ्खटहै। किन्तु इन दोनों की सहायताकी विधियोंमें ।
बड़ा अन्तर है । देखने मे, स्वयं आंखों के ज्ञान की आवद्यकता नहीं, केवल
सत्ता की आवश्यकता है किन्तु अनुमान मे. सहायता देनेवाली व्याति की सत्ता
की आवश्यकता नही, उसका ज्ञान होना चहिए )। अब व्यातनिके ज्ञान का |
कौन-सा उपाय है ? [ इसके बाद प्रत्यक्षादि साधनोंके दारा ग्यात्तिका ज्ञान
असम्भव है--यह दिखलाया जायगा ! ] । |
विरोष-किसी अनुमान (यदि परार्थानुमानन हो) में तीन वाक्य
होते ह-- व्याति ( 18}0" [शा))86 ), पक्षघम॑ता ( 2417001 [पशा186. )
तथा निगमन ( (गभृप्रञ०ा) ) । |
( व्याप्ति ) यत्र यत्र धूमः तत्र तत्र वद्धिः, रु
( पक्षधमंता ) पवते धूमः, र
( निगमन ) .“. पर्वते बह्लिः ।
या, ‰11 81001 ए ०४९०8 816 9 ( 118०7 ),
न क र् कु दयार ~ नः
१२ सबद शनसंम्रहे-
(€ 1111 18 शाणृ्ङ़ ( 21101 ),
,*, ¶76€ [आ] 18 लङ ( (00५, ).
इनमे "पव॑त' पश्च ( 2111101 ५७) जिसमे साध्य की सत्ता सन्दिग्ध हो )
है, "वह्नि" साध्य ( 11907 ५९ सिद्ध करने योग्य ) ओौर धूम" हेतु
या लिङ्ग ( 11104416 धश" ) । हेतु वह॒ पद है जो 109०7 ओर 1111101:
0७018९6 मे विद्यमान हो किन्तु निगमन ( (गानप्ञणा ) मेन रहे।
व्यात्निवाक्य ( 1190 608९ ) में हेतु ओर साध्य का सम्बन्ध होता है,
पक्षधरम॑ता-वाक्य ( 11110 ]"€0)86 ) में हेतु ओौर पक्ष का सम्बन्ध होता
है तथा निगमन ( (0701८50 ) में पक्ष ओर साध्य का। मूल-ग्रन्थ की
पक्तिमे कहा है कि अनुमानमें लिङ्खया हेतुको व्याप्ति गौर पक्षधर्म॑ताके
वाक्यो में स्थित रहना चाहिए । प्रत्येक अवस्था मे अनुमान को सफलता व्याति
पर ही अवलम्बित है अतः व्याप्ति ज्ञान के लिए न्यायेन मे अनेक उपाय
बतलाये गये है । पाश्वात्य तकंशाल्र में तो इसके लिए पूरा आगमन तकशा
ही पड़ा हुमा है ( 10१५४९७ 1.08)6 ) । चार्वाक सिद्ध करते है कि व्याति
कोन तो प्रत्यक्ष से जान सकते, न अनुमान से; उपमान ओर शब्द भौ इसमें
असफल हैँ ।
व्यातिके ज्ञान में दो उपाधियाँं ( 011त;1008 ) होती है निश्चित
ओौर शंकित । यह तो स्पष्ट किव्याप्ति मे उपाधि रहने पर निगमन भी
सोपाधिकं होगा अर्थात् अशुद्ध होगा । निन्नलिखित अनुमान सोपाधिक है--
सभी हिसायं अधमं का साधन है,
यह हिसा भी हिसा ही है,
.*. यह् हिसा अधमं का साधन है ।
यहाँ पर व्याप्निवाक्य में निषिद्ध" उपाधि है अर्थात् व्याप्ति को इक प्रकार
होना चाहिए-सभी निषिद्ध हिसायं अधमं का साधन है! । यदि एेसा नहीं
किया जाय तो वेदविहित-हिसा भी अधमंका साधनदहो जाय! इसी उपाधि
के चलते निगमन भी सोपाधिक ( (014४0181 ) हो गया किं यदि यह
निषिद्ध हिसा है तो अधमं का साधन है" । अस्तु, ऊपर कहा जा चुकाटैकि
व्यापि की सत्तासे ही अनुमान लाभान्वित नहीं होता, जब तक किं उसका
निशित ज्ञान न हो । इसी प्रकार व्याप्तिमे यदि उपाधि निश्चितदहो तब तो
अनमान हो नहीं सकता । उपाधि के दांक्रित होने पर भी कहीं व्याप्ति होगी,
कहीं नहीं । एसी अवस्था में व्याति होने पर भी उसके निश्चित ज्ञान के अभाव
म अनुमान नहीं हो सकता, व्याप्ति न रहने पर तो अनुमान का प्रश्नही नहीं
चावोकदशनम १३
उठतः ¦ इसीलिए व्याप्ति को उभयविधर-उपाधि से विधुर ( रहित) होनः
कहु" गया है ।
( <. प्रत्यक्ष द्वार! व्यासिज्ञान नदीं हो सकता )
न तावस्त्यक्षम् । तच्च बाद्यमान्तरं बाऽभिमतम् । न
प्रथमः। तस्य संप्रयुक्तज्ञानजनकत्वेन भवति प्रसरसंभवेऽपि
भूतभविष्यतोस्तदसंभवेन सर्वोपसंहारवत्याः व्याप्ते दुज्ञानतवात् ।
न च व्यािज्ञानं सामान्यगोचरमिति मन्तव्यम् । व्यक्त्योर-
विनाभावाभावप्रसङ्गात् । नाऽपि चरमः । अन्तःकरणस्य बहि
रिन्द्रियतन्त्रत्वेन बाद्येऽ्थं स्वातन्त्येण प्रबृ्यनुपपत्तेः। तदुक्तम्-
चक्षुराद्यक्तविषयं परतन्त्रं बहिमेनः ( त० बि० २० )\ इति ॥
परत्यक्ष-प्रमाणसे तो [ व्याति का ज्ञान |] नहींहो सकता । प्रत्यक्षयातो
बाह्य ( 61718] ) होता है या आन्तर ( 1०{ल78] ) । इनमें पहले
( बाह्य ) प्रत्यक्ष से [ व्यािज्ञान होना असम्भव है; बाह्य-पत्यक्ष केवल बाहरी
इन्द्रियों से उत्पन्न होता है ] । बाह्य्रत्यक्ष [ बाह्यन्द्ियों से | सम्बद्ध ( बाहरी )
विषयों का ही ज्ञान उत्पन्न कर सक्ता है । [ बाह्येन्दरियों का सम्बन्ध तो केवल
वतंमानकाल की वस्तुओं के साथही हो सकता है, अतएव | इष तरह का ज्ञान
भले ही वतंमानकाल ( भवतु ) कौ वस्तुओं के विषय मे सफल हो, परन्तु
भूतकाल ओर भविष्यत्काले की वस्तुओं का ज्ञान देनेमे तो असफलहो
जायगा । ग्यात्नि तो सभी अवस्थाओं ( कालों) का संग्रह करनेवाली है अतः
[ बाह्य-प्रत्यक्ष से ] इसका ज्ञान होना दुष्कर है । एेसा मीन समभ कि व्यापत्ति
का ज्ञान सामान्य ( जाति 0611९181 01888 ) के विषय मे होता है ( अर्थातु
यद्यपि तीनों काल में धूम, अभि आदिक वेयक्तिक उदाहरण हम नहींषा
तकते किन्तु इनकी जाति - धूमत्व, अम्नित्व आदि-का तो त्रैकालिक-जञान
एक बार ही हो सकता है । तीनों कालों के धूमो मे धमत्व तो वही है इसलिए
सामान्य द्वारा व्यापिज्ञान हो सकता है । एेसा नहीं समश्चना चाहिए ) क्योकि
तब दो व्यक्तिगत उदाहरणों मे अविनाभाव ( व्याति) का सम्बन्ध स्थापित
नहीं किया जा सकता [ वयोकिं यहं निश्चित नहीं कि जाति में प्राप्त सभी गुण
उसके प्रत्येक व्यक्तिमे होगे ही । धरूमत्व (जाति) कीन व्याप्ति हमने जान
ली, किसी विशेष धूम की तो नहीं न ? वेयक्तिक-धूम की व्याप्निन जाननेसे
` व्यक्ति के विषय में अनुमान भी नहीं हो सकता | ।
~ ` सवेदशेनसंम्रहे-
„प्रत्यक्ष का दूसरा भेद ( आन्तर प्रत्यक्ष ) भी [ व्यातिज्ञान | नहीं करा
सकता, [ आन्तर प्रत्यक्ष मन-रूपौ अन्तरिन्दरिय द्वारा ज्ञान देता है किन्तु]
अन्तःकरण बाह्येन्दरियों के अधीन टै (जो ज्ञान बाहरी इन्द्रियां पाती स
मन उसी की छाप ग्रहण कर लेता है ) इसलिए बाह्य-वस्तुओं ( धूम-अनि आदि )
मेँ स्वतंत्रतापूवंक उसकी प्रवृत्ति नहीं हो सक्रती ( = बाह्यवस्तुओं के ज्ञान के
लिए निश्चय ही अन्तःकरण बाह्येन्द्ियों की सहायता लेगा ) 1 कहा भी गया
है- (आंख आदि बाहरी इन्द्रियो के द्वारा प्रदशित ( उक्तं ) विष्यो को ग्रहण
करने वाला मन बाद्येन्द्रिों ( बहिः ) के अधीन है" ( तच्व-विवेक, २० ) ॥
( ९. अनुमान ओर शाब्द से व्या्िज्ञान नहीं हो सकता )
ध ध नाप्यनुमानं व्याशषिज्ञानोपायः तत्रतत्रापि एवमित्यनवस्था-
दौःस्थ्यम्रसङ्कात् । नापि श्ब्दस्तदुपायः काणादमतानुसारेण
अनुमाने एवान्तमावात् । अनन्तभोवे वा ब्रद्व्यवहाररूपलिङ्गा-
वेगतिसोपेक्षतया प्रागुक्तदृषणलङद्खनाजङ्गाटतवात् । पूमधूमध्व-
जयोरबिनाभावबोऽस्तीति वचनमात्रे मन्वादिवद्िधासाभावाच् ।
अलुपदिष्टाविनामावस्य पूुरुपस्यान्तरदश्नेन अथोन्तरादुमित्य-
भवि स्वाथौलुमानकथायाः कथाशेषतवग्रसङ्गाचच केव कथा परानु-
मानस्य ए
अनुमान भी व्याप्षज्ञान नहीं दे सकता; यदि अनुमान से व्यात्निबनेतो
व्याति को सिद्ध करने वाले अनुमान की सिद्धिके लिए एक दूसरा अनुमान
चाहिए, पुनः उस अनुमान के लिए तीसरा अनुमान चाहिए । इस प्रकार
अनवस्था-दोष ( जिसकी समाति कमी न हो ) उत्पन्न होगा । [ अभ्य०-- अनि
की धरममें सिद्ध करनेवाली व्यापि जिस दूसरे अनुमानसे ज्ञात होती है उस
अनुमान को सिद्ध करने वाली व्यापि किसी तीसरे अनुमान से ज्ञात होगी--इस
प्रकार अनवस्था-दोष हुंआा । ]
शब्द-प्रमाण भी व्याप्ति ज्ञान नरींदे सकता वयोकिं कणाद ( वंशेषिक-
दश्ैनकार } के मत के अनुसार शब्द अनुमान के ही अन्तरगत है", [ इसलिए
अनुमान के खण्डन के साथ शब्द का भौ खण्डन हो गया ]। यदि शब्द को
क देखिये--भाषा-परिच्छेद, १४०-
। ` शब्दोपमानयोनं व पृथक््रा मार्यमिष्यते ।
अनुमानगताथंत्वादिति वैशेषिकं मतमु ॥
।
ॐ
॥
1
।
कक +. वैत. कि
स~ ॥
५ ५
चावोकदशनम् १५
अनुमान के अन्तगंतन भी मानेतोभी वृद्धपुरूष के व्यवहार-रूपी लिङ्ख
( चिह्न 11010016 ४९100 ) की तो आवदयकता पड़ेगी ही, इसलिए फिर ऊपर
कहा हुआ दोष ( अनवस्था ) आ जायगा जिसे लांघना टेढ़ी खीर है ( = शब्द
प्रमाणा मे शक्तिग्रह द्वारा वस्तुओं का बोध होता है। शक्तिग्रह के भिन्न-भिन्न
उपाय है जैसे- व्याकरण, उपमान, कोश, आप्त-वाक्य, वृद्धव्यवहार इत्यादि \
शक्तिग्रह का अभिप्राय है किसी शब्द के हारा निधित अथं के साथ उसका
सम्बन्ध स्थापित करना जेसे गौ कहने से एक चतुष्पद, सींगवाले, घुरसहित
प्राणी को सम्च लेना । यही वैयाकरणो का शक्तिवाद या अर्थविज्ञान है जिसका
वर्णन भर्तृहरि ने वाक्यपदीय में विस्तृत-ल्पसे कियादहै। हा, तो शक्तिग्रह के
साधनों मे वृद्ध पुरुष का व्यवहार भी एक है। किन्तु यह ( वृदधपुरूष वाला )
शक्तिग्रह या शक्तिज्ञान अनुमान-प्रमाण से होता है। जेसे-कोई बालक उत्तम
वृद्ध के भामानय' कहने पर मध्यम वृद्ध को गौ लाते हए--इस लिङ्ग को-
देवकर गामानय शब्दों का अथं "गौ लाओ समक्षलेता दै, वेसे ही धरूभ-अ्नि
म व्याति हि" इस प्रकार किसी के कटे हुए वाक्य से शब्दप्रमाण द्वारा उत्पन्न
व्यातनिज्ञान--जो अनुमान का साधन है, "धूम, अभि" ओौर व्याति" शदो के
शक्तिग्रह ( अर्थज्ञान ) होने के बाद हौ, हो सकता है, उसके पहले नहीं । फिर,
शक्तिग्रह के लिए दूसरे व्यवहार'रूपी लिङ्ग कौ आवश्यकता होगी अर्थात् ` दसरा
अनुमान चाहिए ओर उस अनुमान मे भी शक्तिग्रह चाहिए-इस प्रकार पुनः
अनवस्था आ जाती है )।
यदि यह करे कि धूम ओौर अधि ( धूमध्वज) मे अविनाभाव-सम्बन्ध
पटले से हीदटैतो इस बातपर वेसेही विश्वास नहीं होगा जसे मनु-आदि
क्षियो की बातों पर । इस तरह अविनाभाव-सम्बन्ध को न जाननेवाला व्यक्ति
दूसरी चीज ( धूमादि ) देखकर, दूसरी चीज ( अञ्नि-आदि } का अनुमान नहीं
कर सकता इसलिए स्वार्थानुमान की वात केवल नाममात्र को रह जाती दहै,
परार्थानुमान की तो बात ही क्या? (= यदि व्यापिज्ञान का साधन केवल
शब्द को मानते है तब तो जिस व्यक्ति को धूम-अभ्चि के अविनाभाव-सम्बन्ध
का ज्ञान नहीं दिया गया वह तो धूमसे अध्निका अनुमान करेगा ही कैसे?
इस तरह आपके अपने तकं से ही स्वार्थानुमान- जिसमे प्रमाणान्तर से व्याति
जानकर अनुमान होता है--का दुगं ध्वस्त हो जाता है। पञ्चावयव-वाक्यो
का प्रयोग सम्भव न होने से परार्थानुमान का प्रयोक्ता भी नहीं मिल सकता ।
दोनों अनुमानों के लिये तकंसंग्रह देखं ।
विरोष--अनवस्था दोष- नैयायिकं के यहां कई दोष है जिनमे ये
साधारण है। जब किसी वस्तुको उसीके आधार पर सिद्ध करते है तब
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१६ सवेदशनसंग्रहे-
आत्माश्चय-दोष होता है। दो वस्तुओं मे एक को दूसरे के आधार पर सिद्ध
किया जाय तो अन्योन्याश्रय-दोष होता है । तीन या उससे अधिक वस्तुओं
के बीच वृत्तके रूपमे धरमन वाले तकं को चक्रक-दोष कहते है । यदि तकं
को अनन्त काल तक चलने दिया जाय तो अनवस्था-दोष होता है।
( इरिडियन रिसचं इस्टिच्यूट की सायण-ऋम्वेद-भाष्य-मूमिका, ° सातकडि
मुखोपाध्याय अनूदित, प° ७, पाद-टिप्पणी } । शक्तिग्रह के ये साधन है-
शक्तिग्रहं व्याकरणोपमानात्कोशाप्रवाक्याद् व्यवहारतश्व ।
वावयस्य शेषाद्िवृतेर्वदन्ति सांन्निष्यतः सिद्धपदस्य वृद्धाः ॥ ( वा० प९ )
( १०. उपमानादि से भी व्यासिज्ञान संभव नहीं )
उपमानादिकं तु दूरापास्तम् । तेषां संज्ञासंज्ञेसंबन्धादिबो-
धकत्वेन अनोपाधिकसंबन्धवोधक्रत्वासंभवात् ॥
[ व्यात्ति-ज्ञान कराने में ] उपमानादि तो दर से ही खिसक गये ( = उपमान
से व्यापनिज्ञान नहीं होता ) । इसका कारण यह है करि उपमान में संज्ञा ( गवय )
ओर संज्ञी (गो सटृश पिरुड ) का सम्बन्ध होता है, उसी सम्बन्ध का बोध
कराना उपमान का काम है; उपाधि से रहित सम्बन्ध {= व्यापत्ति) का बोध
कराना उसके लियं साघ्य नहीं ।
वि्ोष--उपमान का लक्षण तकंसंग्रह मे इस प्रकार किया गया है-
(उपमितिकरणमुपमानम् । संज्ञासंज्ञिसम्बन्धज्ञानमुपमितिः ।' ( प° १६ ) अर्थात्
किसी वस्तु ( संज्ञी ) से उसके नाम ( संज्ञा ) का सम्बन्ध जानना उपमितिः कह-
लाता है। इस उपमिति का करण ( = असाधारण कारण, साधन ) (उपमान
कहलाता है । यहाँ करण का अभिभ्राय है सादृश्य-सम्बन्ध को जानना । कोई
व्यक्ति गवय को नहीं जानता किन्तु किसी जंगली आदमीसे सूुनताहै कि
“गवय! गौ के समान' होता है- वह वन में जाकर देवता है किं गौ के समान
ही कोई जीव चर रहाहै, वह् पहली बातको याद करके तुरत समन्न लेता
है कि वत्तंमान जीव गवय है । उपमान यही है-- यहां "गवय" संज्ञाया नाम
है, गौ के समान पिरड' संज्ञी है अर्थात् उस परा्थं का बोध कराता है।
उपमान संज्ञा ओर संज्ञोका सम्बन्ध मात्र बतलाता है, किसी इसरे सम्बन्ध
को बतलने की शक्ति इसमे नहीं अतः व्याप्तिका ज्ञान कराना उसके लिए
साघ्य नदीं क्योकि व्याति मे उपाधि-रहित सम्बन्ध का बोध होता है। इसी
प्रकार अभावादि प्रमाण भी इस काममे सफल नहीं हो सकते क्योकि अभाव
मतो केवल अभावकाज्ञान होगा उससे भिन्न ( व्यानि आदि) का ज्ञान वह्
नहीं करा सकता ।
चावोकदशनम् १७
( १०. व्याचिज्ञान का दूसरा उपाय भी नहीं है )
फ च-उपाध्यभावोऽपि दुरवगमः । उपाधीनां प्रत्यक्ष-
त्वनियमासम्भवेन प्रत्यक्षाणामभावस्य प्रत्यक्षत्वेऽपि, अप्रत्यक्षा-
णाममावस्य अग्रत्यक्षतयाऽलुमानादयपेक्षायायुक्तदृषणानति वृत्ते; ।
अपि च, साधनाव्यापकतवे सति साध्यसमव्याप्रिः" इति तद्क्षणं
कक्षीकनतेन्यम् । तदुक्तम्-
इसके अलावे, यदि उपाधि के अभावं को[ व्याप्ति समच्नते है, तो उसे
भी जानना कठिन ही है) इसका कारणा यह है कि सभौ उपाधिर्यां प्रत्यक्षं ही
होगी" यह नियम रखना असंभव दहै; यद्यपि प्रव्यक्त वस्तुओं का अभावभी
प्रत्यक्ष रूप से देवा जां सकता है, किन्तु अप्रत्यक्ष ( न दिखलाई पड्ने वाली )
वस्तुओं का अभवि मी अप्रत्यक्षही रहेगा (= क्िंसी वस्तु के अभावकाः
ज्ञान तभी होता है जव उस वस्तु को जानते है--अभावज्ञानं प्रतियोगिज्ञान-
सपिक्षम्--अर्थात् अभाव का ज्ञान अपने विरोधी = भावेकै ज्ञाने की अपेक्षाः
रखता है ) । इसलिए [ अप्रत्यक्ष वस्तुओं के अभाव को जानने के लिए ] दूसरे
प्रमारा--अनुमानादि-- की आवद्यकता होगी ओर तब फिर वही उपर्युक्तं
(अनवस्था ) दोष आ जायगा जिसे हम हटा नहीं सकते । ( कहने का अभिप्रायं
यह है--यदि व्याप्तिका लक्षण “उपाधिहीनता' हौ तो इसे सभी प्रकारकीः
उपाधियों से रहित होना चाहिए । उपाधि का अभाव तभी जाना जा सकता
है जब उपाधि का ज्ञान हो। उपाधियां सभी प्रत्यक्ष ही नहों रहतीं-- कुच
द्रव्यरूप-धर्मी, कुछ ॒गुणादिरूप-धममं, कुछ मूतं, अमूतं, प्रत्यक्ष, अप्रत्यक्ष--इस
प्रकार करई तरहकीहो सकटठी है। जेसा कि ऊपर कहं चुका हं कुच शङ्ज्ति
ओौर निधितत भी होती है।. प्रत्यक्ष उपाधियों कां अभाव तो प्रत्यक्ष होगा,
किन्तु अप्रत्यक्ष उपाधियों का अभाव अप्रत्यक्षही होगा। अप्रत्यक्ष कां ज्ञान
अनुमानसे ही होगा ओर अनुमान मे उवाधि-हीन सम्बन्वं ( व्याति) की पुनः
अपेक्षा होगी । फिर उस व्याप्ति के लिए तीसरा अनुमान भौर उस अनुमानके
लिए पुनः व्याक्नि-इस प्रकार यह तकंन्पंखला अनन्तकाल तक चलती रहेगी ) ।
उपाधिका दूसरा लक्षण--इस्के अलावे [ दूसरा दोष भीहै--]
उपाधि का यह लक्षण स्वीकार करना चाहिए-जो साधनं ( हेतु 2114616
पला) ) को सदा व्याप्त न करने पर भी साच्यं ( 18}०४ ९100 ) के साथ
सम-व्याति रवे [ व्याप्तिदो प्रकार की होती है-सम ओौर विषम । दीनां
वस्तुओं की व्यापि बराबर-बरावर रहने पर समब्याति होती है जैसे ( 1187 )
२ स सं
=== द. =
|
1
। ।
| ॥ |
|
५:
|
।
१८ सवदशनसंग्रदे-
जौर ( 8008] ^. ४08] ) में । विषम व्याप्ति जैसे धूम ओर अत्रि मे--
यहाँ धूम के साथ अग्नि की व्यापि होने पर भो अनि के साथ धूम कौ व्याति नहीं
है क्योकि धूम नहीं रहने पर भी अमि हो सकती है ] । एेसा कहा भी है--
विरोष-उपाधि का उपयुक्त लक्षण ही सभी न्याय-ग्रन्धों मे स्वीकृत
किया गया है । भाषापरिच्छेद ( १३८ ) में कहा गया है--
साध्यस्य व्यापको यस्तु हेतोरव्यापकस्तथा ।
स॒ उपाधिभवेत्तस्य निष्कर्षोऽयं प्रद्यंते ॥
अर्थात् साष्यके रूप मे स्वीकृत वस्तुका जो व्यापक हो तथा साधन के
रूप सें स्वीकृत वस्तु का व्यापक न हो वही उपाधि है ( मृक्तावली° ) । तकंसंग्रह
मतो मानो माधवके शब्दही है ( प° १५ )}- साध्यव्यापकत्वे सति साध-
नाव्यापकत्वमुपाधिः । साघ्यसमानाधिकरणात्यन्तामावप्रतियोगित्वं साध्यव्यापक
त्वम् । साधनव्िष्ठात्यन्ताभावप्रतियोगित्वं साधनाव्यापकत्वम् । यथा "पवतो धूम-
वान्, व्लिमच्वात्' इत्यत्र आर्द्रेन्धनसंयोग उपाधिः । तथाहि, "यत्र धूमस्तत्राद्र-
न्धनसंयोगः' इति साध्यव्यापकत्वम् । यत्र॒ वह्िस्तत्रारेन्धनसंयोगो नास्ति,
अयोगोलके आद्रन्धनसंयोगाभावात्' इति साधनाग्यापकत्वम् । एवं साष्यन्याप-
कत्वे सति साधनाग्यापकत्वात् आप्रेन्वनसंयोग उपाधिः ।' साध्य का व्यापक
कोई तभी बन सकता है जब किं साध्य के समान आधार वाली वस्तु के अत्य-
न्ताभाव का विरोषी हो, जेसे--
सभी वह्धिमान् पदां धूमवान् है,
पव॑त वद्भिमान् है,
.". पर्वेत धूमवान् है,
इस अनुमान मे भीगी लकंड़ीसे संयोग" उपाधि है जो निष्कषंकोभी
सोपाधिक ( (1000;0181 ) बना देती है । यह उपाधि श्रुमवान्" ( साघ्य
00830 पथ ) का व्यापक है कि जरा धूम होगा अभ्नि मे भीगी लकंडी का
संयोग भौ अवर्य होगा । इस तरह उपाधि साघ्य का व्यापक होती है । साधन
का अव्यापक कोई तब हो सकता है जब साधन ( हेतु 00016 एला) ) से
युक्त वस्तु म रहने वाले के अत्यन्ताभाव का प्रतियोगी हो जेसे उपयुक्त
अनुमान में--जहा अनि है वहां भीगी लकड़ी नहीं होती, लोहे के गोले
( या बिजली ) मे भीगी लकड़ी नहीं रहती है'--इस प्रकार साधन ( वह्लिमान् )
म उपायि की अव्याप्ति रहती है। इसी लक्षण को आचार्यो ने कहाभीहै।
स्मरणीय है कि उपाधियुक्त अनुमान मे व्याप्यत्वासिद्ध नामक हेत्वाभास होता है ।
चाबकदशेनम् १६
अव्याप्रसाधनो यः साध्यसमन्याध्रिरुच्यते स उपाधिः ।
शब्देऽनित्ये साध्ये सकतैकत्वं घटत्वमश्रवतां च ॥ ९ ॥
व्यावततेयितुपरुपात्तान्यत्र॒ क्रमतो विशेषणानि त्रीणि ।
तस्मादिदमनवद्यं समासमेत्यादिनोक्तमाचार्य्यश्च ॥१०॥ इति ।
जो(१) साधन को व्याप्तन करे, (२) साध्य को व्याप्त करे भौर
(३) सष्यके समान व्याति रखे-उसे उपाधि कहते है। [ उपाधि के
उपर्यक्त लक्षण में] तीन विशोषण इसलिए रखे गये है कि [ इनमें से
प्रत्येकं के द्वारा ] शब्द को अनित्य सिद्ध करने के समय क्रमशः निन्नोक्तं तीन
उपाधियां हटाई जायं --( १) कर्ता से युक्त होना, (२) षट होना,
( ३ ) श्रवणीय न होना । इसलिए यह निर्दोष ( लक्षण ) है ओौर आचार्यो ने
भी 'समासमा' इत्यादि श्टोक के द्वारा कहा है ।
विरदोष-उपाधि के लक्षणा में तीन खरड है ओर इन खरडो में किसी एक
के भी अभाव में दोष उत्पन्न होगा। तमो तो लक्षण की पूशंता समन्नी
जायगी । हम यहाँ देखें कि केसे, किसके अमाव मे, कौन-सा दोष उत्पन्न होता
है । एक अनुमान है--
सभी उत्पन्न वस्तुं अनित्य है, |
शब्द उत्पन्न होता है, | ( शब्दोऽनित्यः उत्पन्नत्वात् )
.`. शब्द अनित्य है, |
इस अनुमान मे अनित्यत्व' साध्य है, उत्पन्नत्व' साधन । हमे उपाधि के
उपयुक्त लक्षण की परीक्षा इस अनुमान के आधार पर करनी है ।
सबसे पहले उपाधि के लक्षण से प्रथम विरोषण-साधन'व्यापकत्व--को
हटा दे; बचा, “साघ्यव्याप्तिः उपाधिः" । अब ऊपर वाले शुद्ध अनुमान
{ अनौपाधिक ) मे इस लक्षण को लगने पर उपाधि निकल अवेगी-
सकतृकत्व ( किन्तु पहले से वह अनुमान उपाधि-हीन है )। इसका कारण यह
हैकि सकत्तकत्व के साथ अनित्यत्व (साघ्य) की व्यापकता है- सभी
सकत्तक वस्तुं अनित्य है (इस प्रकार साध्यको व्याप्त करनेके कारण
यह उपाधि हो गई )। किन्तु उपयुक्त अनुमान उपाधिहीन है, सकतृंकत्व'
उपाधि उसमें आ न जाय, इसलिए “साधनाव्यापक '- यह विशेषण रखा गया ।
उसे रखने से सकतृंक' उपाधि नहीं आ सकती क्योकि सकर्तृंक' ( उपाधि } के
साथ "उत्पन्नत्व' ( साधन ) की अब्यापकता नहीं, व्यापकता हीदहै; अतः उस
अवस्था मे एेसौ किसी उपाधि को आने का अवसर नहीं मिलेगा ।
० सबेदशेनसं्रहे-
अब दूसरे विशेषण-साध्यव्यापकत्व-- पर आपत्ति आयी, इसे हटा द;
वचा, अव्यापतसाधनः उपाधिः' । इस लक्षण को उक्त अनुमान मे लगने
पर एक उपाधि निकल आती है--घटत्व । घटत्व ( उपाधि ) उत्पन्चत्व (साधन)
का अव्यापक है वयोकरि जो घटत्व होगा वह तो उत्पन्न नहीं होगा ( इस प्रकार
ताधन को अव्याप्त करने के कारण यह उपाधिं हौ गई )। “वटत्व' उपाधि का
वारण करने के लिंए खाघ्यव्यापक"--यह् विशेषण दिया गया । उसे रखने
से. टत्व' उपाधि नहीं आ सकती क्योकि शटत्व" (उपाधि) मे स्टय्र (अनित्यत्व)
कोः व्यापतःकरने की शक्ति नहीं, चटत्व (जाति ) नित्य हे ।
इतने परर भी. 'अश्रावणत्व' उपाधि के आने का. अवकाश है यदि हम
'साघ्य-समर-व्यापतिः- यह विशेषण नहीं रखे । अश्रावणत्व ( उपाचि ) उपर्युक्त
अनुमान के सावन ( उत्यन्नत्व ) को व्यापन नहीं करता ( साधनाग्यापकत्व सति ),
्योक्रि शब्द जैसी उत्पन्न होनेवाली वस्तुओं मे अध्रावणत्व का अभाव है
( अर्थात् श्रवणीयता ) । पुन, अश्रावणत्व ( उपाधि ) अपने साध्य ( अनित्यत्वं )
को व्याप्त कर लेता है । यहां अनित्यत्व का अभिप्राय समन्च- द्रव्यत्व-मात्र से
व्याप्र ( अवच्छिन्न ) अनित्यत्व अर्थात् अनित्य कहलाने वाले सारे द्रव्य ।
किन्तु कुछ द्रव्य ( आत्मा, आकाश आदि }) नित्य है जिनमें भी अश्रावणत्व है
इषलिए अश्वावरत्व' ( उपाधि ) [ द्रव्यत्व-मात्र से व्याप्त | अनित्यत्व के साथ
समनव्याप्नि नहीं रखता ओर उपाधि के सपमे दिखलाई पडता है। यदि
समव्याति होती तो उपाधि नहीं दिखलाई पडती । अतः उपायि के लक्षण मे
तीसरे विशेषण साघ्यसमव्यात्ति- की भी आवडयकता है तभी अश्चवत्व-नामक
उपाधि से बचे सक्ते हैँ ।
'समासमा' से पूरा यहं शयोक समञ्ष-
समासमाविना भावावेकत्र स्तो यदा तदा ।
समेने यदि नो व्याप्तस्तयोर्हीनोऽप्रयोजकंः ।)
यहे श्नोक श्रीहष-रचित 'खण्डन-लण्ड-लाद्य' की आनन्दपूरणीय-टोका मं
अनुमान-खर्डन ( प° ७०७ ) के प्रकरण मे उद्धृत किया गया दहै! ऊपर
कहा जा चुका हैकि व्यापिके दो भेद दहै-सम बौर असम । निरन्तर एक
साथ रहने वाले दो पदार्थो की व्यापि समं कहलाती है जेसे--पृथिवी जौर
गन्ध की । निरन्तरं एकं साथ नं रहनेवाले ( असमनियतयोः ) दो पदार्थो की
व्याप्ति असम कहलाती है जेसे--अभ्नि ओर धूम कौ । आप्रैन्घनसंयोग ( उपाधि )
योग ओर अभि में असमन्याति
असि मं अन्नि' असमयारहन
तो, ेककां अथंहै किं जब
था @=च
, अ ` श, ॥ ्
9 >.
ऋ । +. 9 ` = = क. ॥
चावबोकदशनम् प.
सम ओर असम दोनों व्यातं ( अविनाभाव ) एक स्थान पर हौ भिद्यमान
हों ओर सम ( धूम) केद्वारा अम्नि (असम) व्याप्नन कियानजा सकेतो
वह हीन व्याति वाला (अश्न) प्रयोजक नहीं होता अर्थात् धुमः रूपी साष्य का
साधक (हेतु) नहीं बन सकता। किसी भी तरह, समनब्याप्ति की अनि-
वायंता स्पष्ट है ।
( ११. भ्यातिज्ञान ओर उपाधिज्ञान मे अन्योन्याश्चय दोष )
तत्र विध्यध्यवसायपूवंकत्वान्निपेधाध्यवसायस्य उपाधि्गानें
जाते तदमावविचशिष्टसम्बन्धरूपव्यापिज्ञानं, व्याधिज्ञानाधीनं चोपा-
धिज्ञानमिति परस्पराश्रयवजग्रहारदोषो बज्रलेपायते ¦ तस्माद-
विनाभावस्य दुर्बोधततया नानुमानाचयवकाश्चः ॥
विधि ( ^ #ीषणा्ष*€ ) का निश्वयहो जानेके बाद ही उसके निषेव
( ‰ 6९०४५४९ ) का निश्वय होता है, इसलिए उपाधिज्ञान ( विधि ) हो जने
पर ही इसके निषेध (अभाव ) से युक्त सम्बन्ध वाली व्यापि का ज्ञान होता है
( = व्याति मे उपाधि का अभाव होना चाहिए इसलिए उपाधि का ज्ञान हो जाने
केवादही व्याति का ज्ञान संभव है)। दूसरी ओर उपाधि का ज्ञान भी व्यातिज्ञानं
पर निर्भर करता है (क्योंकि उपाचि के लक्षण में ही व्याति की बात आती है--
साघनाब्यापकत्वे सति साघ्यसमव्यापकः उपाधिः ) । इस प्रकार अन्योन्याश्रय
दोष-रूपी वज्न-ब्रहार [ विरोधियों के मूख पर | वज्रलेप ( सिमट के पलस्तर } के
समान द्डहो जातादहै। इस प्रकार अविनाभाव (ष्याति {10;56इ४्
?20]00अं ४० ) दुर्बेषि है ओर अनुमानादि प्रमाणो का कोई स्थान नहीं ।
( १२. लोकिक-व्यवहार ओर वस्तर्पं )
धृमादिज्ञानानन्तरमग्न्यादिज्ञने प्रवृत्तिः प्रतयक्षमूरतया
भ्रान्त्या वा युज्यते । कचित्फरग्रतिलम्भस्तु मणिमन्त्रोषधादिवद्
यादृच्छिकः । अतस्तत्साध्यमरष्टादिकमपि नास्ति । नन्वद््टा-
नष्टो जगढचिव्यमाकस्मिकं स्यादिति चेत्-न तद्धदरम् । स्व-
भावादेव तदुपपत्तेः ! तदुक्तम्--
११. अग्नरुष्णो जलं शीतं समस्पशचस्तथानिलः ।
केनेदं चित्रितं तस्मात्स्वभावात्तद्व्यवस्थितिः ॥ इति ।
धूमादि जानने के बाद अग्न्यादि जाननेकी जो प्रवृत्तिं [ लोगों मेंदेखी
=
र भन न =
0) शी जोति क ॥ + =
व्यः
स=
दि का न जना जि ^ जानि कुट ---- ~~
` ल थ 9
नर कलन
।
२२ सवैदशनसंग्रदे-
जाती ] है वह यातो पूर्वकाल के प्रत्यक्ष पर अधारित है (= पहले अन्निको
त्यक्ष रूप से देखा था, कु देर के बाद धुँ को देखने से संस्कार जग गया ओर
मनुष्य अन्निको याद करते हृए प्रवृत्त होता है), या यहं बिल्कुल भ्रम है
( = धूम-अभ्नि के साहचयं से धूम को देखकर अभिका चम होता है) । कभी-कभी
इससे फल की प्राप्ति हो जाती दै, वह तो मणि, मन्त्र, ओषध-आदि के समान
स्वाभाविक है ( अर्थात् मणिस्परथं, मन्त्रप्रयोग ओौर ओषध-सेवन से कभी कायं
होता है, कभी नहीं । कभी-कभी तो इनके बिना भौ कायं कौ सिद्धिदो जाती है।
इसलिए अन्वय-व्यतिरेक की विधियो मे ठहर न सकने (ग्य भिचरित होने) के कारण
इनमे काय॑-कारण-भाव ( (8 88] 16181070 ) नहीं है । रेश्वर्यादि की प्राति
मशिस्प्चं से नही, स्वभावतः ही होती है । रोगादि निवृत्ति भौ कभी स्वभावतः,
कभी किसी विशेष अन्नके खाने से होती है--इसमे ओौषधसेवन का क्या
प्रयोजन है । फिर भी काकतालीयन्याय ( 00१९०४४] 0011161 १6१९९ ) से
होने वाले कायं को देखकर लोग इनमें कायंकारणभाव मान लेते है । उसी तरह
धूम ओर अभ्निमें भी कायंकारणभाव नहीं है, लोग मान लेते है ]।
इसलिए उसका साध्य अदृष्ट-आादि कुछ नहीं । ( कुछ लोगों के अनुसार
अच्छे गौर वुरे कर्मो से उत्पन्न, पूरय ओौर पापके रूप मे अदृष्ट रहता हि वही
एवय देता है या रोग॒उत्पन्न करता है । इसे कमफल भी कहते है। रेश्वयदि
कार्यौ को देखकर अदृष्ट-कारणा की सिद्धि होती है जेसे धूम से अभि । किन्तु जब
अनुमान मानते ही नही, रेशर्यादि स्वाभाविक ही दै तब अदृष्-ह्पौ कारण
रहेगा क्या खाकर ? )
अब, यदि प्रन करे कि अदृष्ट यदि नहींहै तो संसार की विचित्रतातो
आकस्मिक हो जायगी ! नहीं, यह ठीक नहीं है--वह तो स्वभाव से ही सिदध है
(8९-6ग १८४४) । कहा भी है--*अभ्नि उष्णा है, जल शीतल, वायु समशीतोष्णः;
यह सब विचित्रता किसने की ? अपनी-अपनी प्रकृति से ही इनकी व्यवस्थायं
हुई है
( १३. चावोक-मत-खार )
तदेतत्सवं बरहस्पतिनाप्युक्तम्-
१२. न स्वरो नापवर्गो वा नैवात्मा पाररोकिकः ।
नैव वणाश्रमादीनां क्रियाश्च फलदायिकाः ॥
१३. अग्रिहोत्रं त्रयो बेदाखिदण्डं भस्मगुण्ठनम् ।
ुद्धिपोरुपहीनानां जीविका धातृनिर्मिता ॥
न
लि 49० -
~ + रा
चावोकदशेनम् २३
१४. पञ्चुश्वेनिहतः स्वगं ज्योतिष्टोमे गमिष्यति।
स्वपिता यजमानेन तत्र कस्मान्न हिंस्यते ?॥
१५. भ्रृतानामपि जन्तूनां श्राद्धं चेनि कारणम् ।
निवोणस्य प्रदीपस्य स्नेहः संवधेयेच्छिखाम् ॥
बृहस्पति ने भी यह सब कहाहै-न तो स्वगं है, न॒ अपवग ( मोक्ष)
ओर न परलोक में रहने वाली आत्मा; वरणं, आश्वम आदि की क्रियाय भी फल
देने वाली नहीं है ।॥ १२ ॥ अथिहोत्र, तीनों वेद, तीन दर्ड धारण करना ओर
भस्म लगाना-ये बुद्धि ओौर पुरुषार्थं से रहित लोगों को जीविका के साधन
जिन्हे ब्रह्मा ने बनाया ॥ १३॥ यदि ज्योतिष्टोम-यज्ञमे मारा गया पशु स्वगं
जायगा, तो उस्र जगह पर यजमान अपने पिताको ही क्यों नहीं मार
डालता ?॥ १४॥ मरे हृए प्रणियों को श्राद्धसे यदि तृत्ति भिलेतोबुञे हृए
दीपक की शिखा को तो तेल अवदय ही बढ़ा देगा ।॥ १५ ॥१
~ ---~ ~~~ -- - ~~~ -~- ~~
१. तुलना कर -विष्णुपुराणा में चार्वाक-वरंन (३।१६।२५-२८), प° २७०
नेतयुक्तिसहं वाक्यं हिसा धर्माय चेष्यते ।
हवीष्यनलदग्धानि फलायेत्य भकोदितम् ॥।
यज्ञै रनेकैर्देवत्वमवप्ये्रेण भुज्यते ।
शम्यादि यदि चेत्काष्ठं तद्र पत्रमुक्षशुः ॥।
निहतस्य पशोयंज्ञे स्वगंप्राप्तियं दीप्यते ।
स्वपिता यजमानेन किन्नु तस्मान्न हन्यते ? ।।
तृप्ये जायते पुंसो भुक्तमन्येन चेत्ततः ।
कुर्याच्छ्राद्धं श्चरमायान्नं न वहेयुः भ्रवासिनः ॥
हिसा से भी धमं होता दै-यह बात किसी प्रकार युक्तिसंगत नहीं है।
अभ्निमें हवि जलाने से फल होगा-- यह भौ बचोकीसी बात है । अनेक-यजञो
के द्वारा देवत्व लाभ करके यदि इन्द्र को शमी आदि काष्ठका ही भोजन करना
पड़ता है तो इससे तो पत्ते खाने वाला पशु ही अच्छाहै। यदि यज्ञमें बलि किये
गये पशु को स्वगं की प्राति होती है तो यजमान अपने पिताकोही क्यों नहीं
मार डालता ? यदि किसी अन्य पुरुष के भोजन करनेसे भौ किसी परुष की
तृनि हो सकती है तो विदेश-यात्रा के समय खाद्य-पदाथे ले जाने का परिश्रम
करने कौ क्या आवद्यकता है; पुत्रगंण घर षर ही श्राद्ध कर दिया करं ?""
२४ सवेदशेनसंग्रदे-
१६. गच्छतामिह जन्तूनां व्यथं : पाथेयकरपनम् ।
` गेहस्थक्रतश्रादधेन पथि ` ठमिरबारिता ॥
१७. स्व्मस्थिता यदा त्वि गच्छेयुस्तत्र दानतः ।
प्रासादस्योपरिस्थानामत्र कस्मान्न दीयते १॥
१८. यावज्ीषेत्सुखं जीवेदणं त्वा धतं पिबेत् ।
भस्मीभूतस्य देहस्य पुनरागमनं इतः १॥
१९. यदि गच्छेत्परं रोकं देहादेष वषिनिगेतः
कस्माद् भूयो न चायाति बन्धुस्नेहसमाङुलः १ ॥
[ विदेश ] जाने वले लोगों के लिए पाथेय ( मां का भोजन ) देना व्यथं
है, घर में किये गये धाद्धसे ही रस्तेमें तृप्ति भिल जायगी १६॥ स्वं में
स्थित ( पित्रगण ) यदि यहाँ दान करदेनेसेतृप्तहो जतिर्ह तो महल के ऊपर
(कोठे पर) बेटे हए लोगों को यहीं पर क्यों नहीं दे देते है ? ॥१७।। जब तक जीना
है सुल से जीना चाहिए, ऋण लेकर भी घी पीना चाहिए (विलास कर) क्योकि
[ मरने पर ] भस्मकेरूपमें परिणत शरीर फिर [संसारमें ऋणशोध के लिए |
कैसे आ सकता है ?॥ १८॥ [ यदि आत्मा शरीर से पृथक् है ओौर ] शरीर से
निकल कर दूसरे लोक मे चला जाता है तब बन्धुं के प्रेम से व्याकुल होकर
लौट क्यों नहीं जाता ?॥ १९॥
२०, ततश्च जीवनोपायो ब्राहमणेविंहितस्त्विह ।
मृतानां प्रेतकायणि न स्वन्यद्वि्ते कचित् ॥
8 कत्ता उधृतेनिशा
२१. त्रयो बेदस्य कत्तारो भण्डधृतेनिशाचराः
जर्भरीतुफंरीत्यादि पण्डितानां वचः स्पृतम् ॥
२२. अधस्यात्र हि शिश्चं तु पलीग्ाह्यप्रकीतितम् ।
भण्डेस्तद्रत्परं चेव ग्राद्यजातं प्रकीतितम् ॥
मांसानां खादनं तद्रननिश्चाचरसमीरितम् ॥ इति ॥
तस्मा्रहूनां प्राणिनामलुग्रहाथं चाबोकमतमाश्रयणीयमिति
रमणोयम् ॥
इति श्रीमत्सायणमाधवीये सर्वदशच॑नसडग्रहे चाबाकदशेनम् ॥
--च्नक्ैल>--
चाबौकदशेनम् २५
इसलिए ब्राह्मणों के द्वारा बनाया हज यह जीविकोपाय है--मृत व्यक्तियों
क सारे मरणोत्तर कायं; इसके अतिरिक्त ये सब कु नहीं ह ।॥ २० ॥ वेद
के रचयिता तीन है-भांड, शृत्तं (ल्ग ) ओौर. राक्षस । “जभभेरी, तुफरी'
आदि परिडतों की वाणी सम्॑षी जाती है॥ २१॥ इस ( अश्वमेध ) में घोडे
के लिङ्धको पतनी द्वारा ग्रहण कराने का विधान है--यह सव ्रहणं करने
का विधान भंडों का कहा हृजा है॥ २२॥ [यज्ञे] मांस खानाभी
राक्षसो ( मास के प्रेमियों } का कटा हंजा है। इसलिए बहुत से प्रारियो के
कल्याण के लिए चार्वाक-मत का आश्रय लेना चादिपए, यही अच्छा है।
हस प्रकार सायण-माघव के बनाये हुए सवदन संग्रह मे चार्वाक-दर्यन
समाप दुभा ॥
विरोष जर्भरी" से चार्वाकों का संकेत षेद के इस मन्त्र पर है-
सुण्यव ज॒भरी तुफरीत् नेतोदोवं त्फ) परीका । `
उदन्यजेव जेम॑ना मदेरू ता मे जराय्वजरं मरायु ॥ ( १०।१०६।६ )
हे दोनों अश्िनीकरमार ! आप ( सृरयौ इव ) अंश के योग्य मत्त हाथी
के समान ई, ( जभंरी ) शरीर को मुकानेवाले. है, ( तुफरीत् ) मारनेवाले है,
( नैतो्लौ इव ) अत्यन्त सन्तोषदाता पुरुष के पुत्रों के समान ( तुफंरी ) शत्रुओं
के विनाशक ह ओर ( पफरीका ) धन से अरनेवाले है । ( उदन्यजोौ इव ) जल
से उत्पन्न वस्तुओं से निर्मल है, ( जेमना ) विजय करनेवाले है, ( मदेरू ) मत्त
यौ स्तवनीय ह ( ता=तौ) वे दोनों अधिनीकृमार (मे) मेरे (जरायु)
वृढापे से युक्तं ( मरायु ) भरणंशीलं शरीर को (अजरं) जरामरण रहित करं दे ।
इति बालकविनोमाशङ्रेण रचितायां सबंददंनसङ प्रहस्य |
प्रकाराख्यायां व्याख्यायां चार्वाकदश्ंनमवसितम् ॥
अश्र
८२ › बौदध-दशेनम्
शल्यं जगत् क्षणिकमात्रेमथाप्तदुःखं
स्वस्येव लक्षणमयं तनुते स्वभावम् ।
दुःखादितत््वमखिलं च दिदेश देशे
बुद्धाय शिष्यसदहिताय नमोऽस्तु तस्मे ।- ऋषिः
( १. चार्बाक-मत का खण्डन-व्यासि की खुगमता )
अत्र बौद्धैरमिधीयते-यदम्यधायि, अबिनाभावो दुर्बोध
इति' तदसाधीयः । तादात्म्यतदुत्पत्तिभ्यामबिनाभावस्य सुज्ञान-
त्वात् । तदुक्तम्-
१ १. कार्यकारणभावाद्वा स्वभावाद्वा नियामकात् ।
॥॥ अतिनाभावनियमोऽदशेनानन न दशनात् ॥
( प्र° बा० १।३३ ) । इति ।
॥. इस ( व्याति ) के विषय में बौद्ध लोग कहते है-[ चार्वाकों ने ] जो यहं
॥. कहा है कि अविनाभाव अर्थात् व्याति का ज्ञान नहीं हो सकता, वह ठीक
ह ॥ ( सिद्ध, तकँसम्मत ) नहीं । व्याति का ज्ञान तो तादात्म्य ( दो वस्तुओं कौ
| ॥ एकरूपता ) तथा तदुत्पत्ति ( कायं-कारण का सम्बन्ध ) से आसानी से हो सकता
| ति है । यही कहा भी है--कायं-कारण के सम्बन्ध से अथवा नियम रखनेवले
| । @ ( = साध्य-साधन का अव्यभिचार--साक्षात्सम्बन्व--सिद्ध करनेवाले ) स्वभाव
।॥ के द्वारा अविनाभाव ( व्याति) का निय होता है, अदर्थ॑न ( व्यत्रिरेक--एक
|| केन होने पर दूसरे कान होना) या दुन (अन्वय--एक के होने प्र दूसरे
| का होना ) से नहीं ।' ( प्रमाण-वातिक में व्याप्िचिन्ता-परिच्छेद ( १।३३ ) में
प या न्यायनबिन्दु मे भी यह् श्लोक मिलता है । दोनों ग्रन्थ वमंकोति के है) ।
विरोष-अविनाभाव व्याति का ही दूसरा नाम दहै। इसकी व्याख्या
प्रमाणवातिक की स्ववृत्ति मे इस प्रकार है-- "कायस्य स्वभावस्य च लिङ्खस्या-
॥ विनाभावः = साध्यधमं विना न भवतीत्यथंः' ( पृ ८७ ) अर्थात् अविनाभाव =
॥ कार्यं ( तदुत्पत्ति ) ओौर स्वभाव ( तादात्म्य ) रूपी लिङ्ग का साध्यके बिना
|, न देखा जाना । उपयुक्त इलोक मे धर्मकीति ने बौद्धो के अविनाभाव का निय
बोद्ध-दशेनम् २७
` करनेवाली दो विधियो ( तादास्म्य ओौर तदुरपत्ति ) का तो प्रतिपादन किया
ही है, साथ-साथ नैयायिको की व्याति का निश्चय करनेवाली अन्वय ओर
व्यतिरेक-विधियों का खरडन भी कर दियादहै। जो वस्तु क्रिसी दूसरी वस्तु
की आत्मा ( आत्महूप ) ही है वह उसके निना केसे हो सकतो है ? इसलिए
तादारम्य अर्थात् नियामक स्वभाव को अविनाभाव का कारणं बतलाया गया
है, जेसे-शिशषा ओौर वृक्ष मे तादात्म्य है, शिंशपा वृक्षत्व से प्रथक् नहींजा
सकता । कायं तो कारण के अधीन रहता है, कारण के बिना वहं सम्भव
नही--अतः इससे भी ( दोनों विधियो से ) अविनाभाव का निश्चय होता है।
इसे अगे स्पष्ट किया गया है,
( २. अन्वय-व्यतिरेक से व्या्िज्ञान सम्भव नहीं )
(अन्वयव्यतिरे्ो अविनाभावनिश्वायको' इति पक्षे साध्य-
साधनयोरव्यभिचारो दुरबधारणो भवेत् । भूते भविष्यति वत
माने चालुपलभ्यमानेऽ्े व्यभिचारशङ्काया अनिवारणात् ।
नु तथाविधस्थले तावकेऽपि मते व्यभिचारशङ्का दुष्परिहरा--
इति चेत् ; मैवं वोचः । विनापि कारणं कायगत्पद्यतामित्यवं
विधायाः शङ्काया व्याघातावधिकतया निवृत्तत्वात् । तदेव
दयाशङ्क्येत यस्मिननाशङक्यमाने व्याघातादयो नावतरेयुः ।
तदुक्तम्--व्याघातावधिराशङ्क' ( कुसु ° २।७ ) इति ॥
“अन्वय ओर ग्यतिरेक-विधियां अविनाभाव ( व्यापि) का निश्चय करती
है" यदि [ तयायिकोंके ] इस पक्ष को स्वीकार करं तो साध्य ( }18}01
४९० ) ओौर साधन ( हेतु, लिङ्ग 1110016 ० ) में कभी भी व्यभिचार
( पाथंक्य ) नहीं होगा, यह जानना बडा कठिन हो जायगा । इसका कारण
यह है कि [ यद्यपि सन्निहित वतंमानकाल मे हम साष्य-सषन का सम्बन्ध
स्थिर कर सकते है किन्तु ] भूतकाल, भविष्यत्काल या अनुपस्थित अथं ( वस्तु )
वाले वतंमानकाल में व्यभिचार कौ शङ्खा हटाई नहीं जा सकती ( सामने अये
हुए वतं मानकाल में व्यभिचार नहीं हो सकता क्रिन्तु दूरके काल में सघ्य-
साधन का सम्बध नहीं मी रह सकता है ) 1
[ नैयायिक लोग पूच सकते ह कि | ठेसी स्थिति मे ( भूत, भविष्य ओर
दूरवर्ती वर्तमानकाल के विषय में प्रश्न उठाने पर ) आप [ बद्धो ] के मत मं
मी तो व्यभिचार ( साध्य-साधन के नित्य सम्बन्ध में व्यवधान ) होने की
र सबेदशेनसंम्रहे-
शङ्का रहती ही है, उसे बचाना बड़ा कठिन है। एेसा प्रश्न होने पर [ हमार
उत्तर होगाकरि | एेसे मत कटो, क्योकि कारण के बिना भी कायं उत्पन्न
हो जायगा" इस प्रकार कौ शङ्का होने से उसकी निवृत्ति व्याघात ( विपरीत
उदाहरण, रुकावट; (07118 11318006 ) मिल जाने पर हो ही जायगी
( व्याघात हो जाने से शङ्काका अवकाश नहीं रहता )। कारण यहदहैकि
शङ्का ठेसी ही करं जिससे व्याघात इत्यादि न मिलं। [ उदयनाचायं ने]
कहा भी है- व्याघात के प्राप्त होने के समय तक ही आश्षङ्का बनी रहती है"
( न्या० करु०° ३।७ } )
विरोष- किसी अनुमानमे व्याति की आवद्यकता होती है, जबतक
साध्य ओर साधनम स्थायी सम्बन्ध न दिखलाया जाय, अनुमान हो नहीं
सक्ता । पक्ष ( पवंत ) मे साध्य (अचि) को सिद्ध करने के लिए साध्य
( अच्नि ) ओौर साधनया हेतु ( धूम) मे व्याति दिखलानी पड़ती है। व्याप्ति
को जानने के लिए नैयायिकों के यहाँ दो विधियां है-(१) अन्वय
| & | ( 21610०4 ° ^+ ए!ल्लणल४ ) भौर (२) व्यतिरेक ( 1611004 भ
| # 104्प्ल८९ ) उदाहरणतः, ( १ ) अन्वय-विधि-जहां-जहां ( जैसे--रसोई
। ॥ घर, कारखाना, चूल्हा आदिमे ) धरम है, वहां अभिटै। इस तरह विशिष्ट
उदाहरण में धूम देखकर असनि की सत्ता जानकर दोनों के व्याप्ति-सम्बन्ध को
अन्वय-विधि से जानते है । (२) व्यतिरेक विधि--जहां-जहाँं अभि नहींहै
( जेसे श्लील, मेदान, नदी, बगीचा आदिमे) वर्हा-वहाँ धूम नहीं है। अतः,
एकैके अभाव वाले उदाहरणोमे दूसरेका भी अभाव देखकर दोनोका
॥ कायं-कारण सम्बन्ध जान लेना व्यतिरेक-विधि है। पाश्वाच्य तकँःशास्र
॥| | (आगमन ) मे का्यं-कारण सम्बन्य स्थापित करने के पाच नियम् है-
॥ 8 (१) 216० ग ^हष्टलफलप, ( साहचयं की विधि) (२)
॥१ 21९1164 ० ` {21161६८6 ( मेद-विधि ) ( ३ ) 4०१४४ 216५1५4 ग
ति & 16611611 871५ 1){8६16९6, ( साहृचयं ओर भेद की संयुक्त-विधि )
ह ( ४) {€ -ज (-छप्टनापाप्क्प + 8119४00 ( सहचारी विकार-
| विधि ) ( ५ ) 21९०१ ग {छ त९ ( अवशेष-विधि }--इनकी जानकारी
॥ | | के लिए किसी तकशा ( आगमन } की पुस्तक को देका जाय ।
|
|
।
बौद लोग उपयुक्त दोनों विधियों को इसलिए नहीं मानते किं इनसे
| समीपवर्ती वतमान कालमें देखे गये उदाहरणों का पता भले लग सके किन्तु
॥ ` कालान्तर ओर देशान्तर मे विद्यमान पदार्थोकी व्यापत्तितो नहींहो सकती ।
॥ कमी न कभी धूम ओर अच्िमे व्यभिचार ( पाथैक्य) हो ही जायगा- सी
' संभावना है ( सहचार = साघ्य-साधन का नियत संबंध, व्यभिचार = दोनों का
शि ऋ भ क
(ने ५८१ क अ. क म
व । |
जके
बौद्ध-दशेनम् २६
अलग हो जाना) ] इस प्रकार डविडह्युम के संशयवाद ( 3080८) )
न परवेद किया जां सकता ह। इससे बौद्ध लोगों ने तादात्म्य ओौर तदृतपत्ति
कोही व्यापिका साधन माना है। इससे भी निस्तार नहीं है। जो आक्षेप
बौद्ध लोग तैयायिकों पर लगाते ह वही आक्षेप बौद्धो पर भौ लग सकता ह।
तदृत्पत्ति ओौरं तादात्म्य के द्वारा व्याति जाननेमे भौ साध्यसाधन के संबन्ध-
विच्छेद की संभावना है ।
, ; -क्नतु बौद्ध लोग इस संश्यवादी भ्रम को जड़ हाथों तेते ह । तकं ओर
व्याघात का आश्रय लेकर शंकाओंको दूर कियाजा सक्तादहै। तकंका
अभिप्राय है विरोधी वाक्य को असिद्ध सिद्ध करना जेसे--सभी धूमवान् पदार्थं
अ्रियक्त है" यदि वाक्यं ठीक नहीं तो इसका विरोधो ( (*01 18416005 )
वाक्य ककुद ` धूमवान् पदाथं अशियुक्त है" अवदय सत्य टै । इसका अथं है किं
अभ्निकेबिना भी धूमो सकता है (विनापि कारणं कायंमृत्पद्यताम् )।
लेकिन सामान्य काय॑-कारण-सिद्धान्त ( {101१९३५॥ (६ 8101.) से
उपर्युक्तं तथ्य खंडित हो जायगा । अथं यह होगा कि िनाकारणके भी कायं
होने लग जायगा ( स्मरणीय है कि ध्रुमका एक मात्र कारण अभ्िदहीदरै),
यदि कोई हपू्वंक यह कहना शुरू कर दे कि कारण के विना कयं होता हैतो
यह् व्यावहारिक असंगति ( व्याघात {५९४८8 । कछऽपोता षष ) हो जायगी ।
यदि कार्यं कारण के बिनाहोताही रै तो रसोई बनानेके लिए आग की क्या
आवदयकता ? इस प्रकार व्याघात होने तकं ही शंका रहती है । अपनी क्रिया के
व्याघात से व्यभिचार कौ शंका नहीं उठती । इस विधि को पाश्चात्य तर्कशाल्रमे
{२९१०९६१० ४१ अएश्प्वप्ा) ( व्यावहारिक अंसगति दिखाना } कहते है
जिसमे विरोधी वाक्य को मिथ्या सिद्ध कर देते है ।
उदयनाचायं की कुसुमांजलि में निश्नलिखित शयोक है--
शङ्का चेदनुमास्त्येव न चेच्छा ततस्तराम् ।
व्याघातावधिराशङ्का तकं: शङ्कावधिमंतः ॥ ( व्या० कु° ३।७ )
( अनुमा = अनुमान )। यह अनुमान को सिद्ध करने वाली कारका है
‰# जिसमे अनुमान से व्यभिचार की चका का सम्बन्ध बतलाया गया है। शंका
हौ या नही, अनुमान दोनों स्थितियों भें है। यदि शंका ( = देशान्तर या
कालान्तर मे साघ्य-साधन के बीच उपाधि या व्यभिचार होने की आशंका )
रहेतोभी अनुमान सिद्ध होता है वयोकि अनुमान-प्रमाणसे ही उपाविया
व्यभिचार का ज्ञान होता है ( भवे ही इसके लिए दूसरे अनुमान को आकवद्यकता
ह, पर वह हैतो अनुमानही न?) अगर शंका नहींहो तवतो ओरभी
र 3 ॥ ॥ 9
व ४
हक = जका
क क कका ह यो 2 द
|
|
|
य ०४ क २८ क क ययिः कका जि ण त्म
++ > ~ + ॥ न प्क = ० कक = त क ५ च) प
२. 2 आ र जि अ = ------~-----
= इ~~ ---->--- ~
---- न
३० स्वदशेनसंमदे-
आनंद, क्योकि अबतो शंकादूर करने की भी जरूरतनहींहै। शंकाकी
अवधितकंकोहीमाना गयादहै। पकंशंकाका निवतंकदटै। इसे हम ऊपर
देष चुके हैँ । लेकिन तकंमें भी व्याति की आवद्यकता पड़ेगी ओर फिर दसरा
तकं खोजना पडेगा जिससे अनवस्था-ोष ( ‰ ४६ पपनाध्प्ा) 84 10001.
प ) उत्पन्न हो जायगा । इसलिए ष्याघात ( व्यावहारिक असंगति ) का
आश्रय लेना पडेगा । तकंमूल व्यातिमें ज अपनी क्रिया का व्याघात या
असंगति अवेगी तब व्यभिचार-्ंका समाप्त हो जायगी-पूनः दूसरे तकं कौ
आवद्यकता नहीं । इसलिए शंका कौ अवधि व्याघातदहै। शंका तभी तकदहै
जब तक व्याघात नहीं मिलता ।
( ३. तदुत्पत्ति से अविनाभाव का ज्ञान-पंचकारणी )
तस्मात्तदुत्पत्तिनिश्वयेनाविनाभावो निश्चीयते । तदुत्पत्ति-
निश्चयश्च कायेहेत्वोः प्रतयक्षोपलम्भानुपलम्भपश्चकनिबन्धनः ।
कारयस्योत्पत्तेः प्रागलुपलम्भः, कारणोपलम्भे सति उपलम्भः,
उपरब्धस्य पश्चात्कारणानुपलम्भादनुपलम्भः इति पश्चकारण्या
धूमधृमध्वजयोः कायेकारणभावो निश्चीयते ॥
इसलिए तदुत्पत्ति ( कायं-कारण-संबंध ) के निश्वयके द्वारा अविनाभाव
( व्याति ) का निश्वय होता है । तदत्पत्ति का निश्चय कायं ओौर हेतु ( कारण )
के प्रत्यक्ष उपलम्म ( प्राति ) ओर अनुपलम्भ ( अप्राप्ति ) रूपी पाच [ अवयवो |
पर निभैर करताहै। (दो बार उपलम्भ ओर तीन बार अनुपलम्भ )।
धूम ओर धरमध्वज ( अच्नि) में कायं-कारण-सम्बन्ध इन पांच कारणों की
समन्विति से निधित किया जाता है-( १) उत्पत्ति होने के पहले कायं का
नहीं प्राप्त होना, (२) कारण की प्रापि होने पर,(३) [कायंका] प्राप्त
होना । ( ४) [ कायं ] प्राप्त होने के बादकारणका प्राप्त नहीं होना ओौर
जिसके फलस्वरूप ( ५) [ कायं का | प्राप्त नहीं होना ।
विरोष-बौद्धों ने अन्वय-व्यतिरेक की विधियो को ही तोड़-मोड़कर
पंचकारणी-विधि का निर्माण कियादहै। वसी कोई इसमे नवीनक्षा नहीं
मिलती । कायं ओरकारण की अप्राप्ति ओर प्राप्ति--दोनों से पांच अवयव
( (णण ४५४०08 ) निकाले गये है । अप्राप्ति से तीन अवयव ओर प्रात्तिसे
दो। इन पाचों को भिलानेके बाद दही कायं-कारण का निणेय होता है, पृथक्-
पृथक् नहीं । इहं इस प्रकार समभ--
` 4 - =
` चावौकदशेनम् ३१
अनुपलम्भ उपलम्भ
( १ ) उत्पत्ति के पूवं कार्यानुपलम्भ
( ४ ) कारणानुपलम्भ होने पर- (२) कारणोपलम्भ होनेपर-
( ५ ) कार्यानूपलम्भ । ( ३ ) कार्यपिलम्भ,
हम देखते ह कि ८१) [ धूम की ] उत्पत्ति होने के पहले धूम का ज्ञान
नहीं होता, भव (२) असिदेख रहेैतो (३) धूमकामी ज्ञान होताहै।
धूभकाज्ञान हो जाने पर जब (४) अम्मि की सत्ता नहीं रहे तो वेस अवस्था में
( ५) धूम की भी सत्ता मिट जाती है । इन पांच अवस्थाओं से पार करने के
बाद धृम-धूमध्वज ( अमन ) में कायकारण का निर्धारण हो जाता है।
( ४. तादात्म्य से अविनाभाव का ज्ञान )
तथा तादात्म्यनिश्चयेनाप्यविनाभावो निश्चीयते । यदि
चक्चपा बृक्षत्वमतिपतेत्, स्वात्मानमेव जघ्यादिति विपक्षे वाधक
प्रवृत्तेः । अप्रवृत्ते तु बाधके भूयः सह भावोपलम्भेऽपि व्यभिचार
शङ्कायाः को निवारयिता १ शिश्चपाबृक्षयोश्च तादात्म्यनिश्वयो
शृक्षोऽयं शिपेति, सामानाधिकरण्यबरादु पपद्यते । न द्यत्यन्ता-
भेदे तत्संभवति । पयायत्वेन युगपत्प्रयोगायोगात् । नाप्यत्य-
न्ताभेदे, गवाश्चयोरनुपलम्भात् । तस्मात्कायौत्मानो कारणा-
त्मानौ अनुमापयत इति सिद्धम् ॥
इसी प्रकार तादात्म्य का निश्चय करने के बाद भी अविनाभाव का निश्चय
होता है । [ उदाहरण स्वरूप, “शिंशपा वृक्ष है" इस उदाहरण मे शशपा ओौर
वक्ष में तादात्म्य-सम्बन्ध है, दोनों की आत्मा, आधार या धमं एक ही-वृक्षत्व-
है । शिंशपा में मी वृक्षत्व ( ब्रृक्ष का सामान्य धमं ) है ओौरवृक्षमें भी। दोनों
के सामान्य धमंएक हीह]! यदि इस प्रकार विरोधी वाक्य ( विपक्ष-वाक्य )
कहा जाय क्रि यदि शिशपा वृक्षत्व का अतिक्रमण कर दिया जाय ( =उससे
पृथक् हो )' तो बाधक -वाक्य ( असंगति ) कौ प्रवृत्ति हो जायगी कि तत्र तो
यह ( शि्यपा ) अपनी आत्माया सामन्यधमंकोही छोड़ देगा । अभिप्राय
यह है कि तादात्म्य सम्बन्ध दिखाने वाले वाक्य “शिशपा के धमं वृक्षके धमै
का विपक्षी-वाक्य "शिंशपा वृक्ष नहीं है" रखने पर असंगति हो जायगी तब तो
शिहपा का अपना धमं मी साथ नहीं देगा-अतः तादात्म्य द्वारा अविनाभाव
स्वीकार करना ही पडेगा । ] यदि देवात् असंगति ( बाधक ) न भी अवि ओर
३२ स्बदशनसं्रहे- `
॥॥ | पुनः सहचार ( सदा साथ रहना } का उपलम्म (प्राति) भौ हो तो व्यभिचार
| कीशंका को कौन बचा सकताहै?
। शिशपा ओौर व्क मे तादात्म्य-संवंध का निश्चय समानाधिकरणता के बल
| से सिद्ध होता है । ( समानाधिकरण -एक ही आधार होना, जसे शिशपा ओर
। वृक्ष दोनों का अधिकरण वृक्षत्व है ) कि, "यह वृक्ष शिशपा है" । तादारम्य-संबंघ
च | दो पदार्थो के अत्यन्तं अभेद ( एक ही पदार्थं का बोधकं ) होने पर संभव नहीं
| | है । [ जैसे-"यह वट-चट है" इस उदाहरण मेँ दोनों पृथक् नही है ओर इसलिए]
पर्यायवाची होने के कारण दोनो का एक साथ प्रयोग नहींहोौ सकता ( यह्
| घट-बट है" का प्रयोग नहीं हो सकता }। ओौर न दोनों के अत्यन्त-भेद ( एक
दूसरे से प्रथक् होना ( }1घ१०९। €०।पऽंए ) होने पर ही यह संभव है
कोक वसी दशाम "गौ.अध्वदहै' [ इसका प्रयोग होने लगेगा | जो प्राप्त
( संगत ) नहीं । | |
इसलिए यह सिद्ध हआ कि कायं ( कायकारण संबंधवसे ) तथा मात्मा
( तादात्म्य संबंध से ) क्रमशः कारण ओर आत्मा का अनुमान करते हँ ( कायं
से कारण का अनुमान. तदुत्पत्ति द्वारा ओर आत्माका अनुमान तादात्म्य
दवारा होता है)
|
विक्लेष--तादास्म्य का अथं दहै उसके स्वल्पमें रहना, दो वस्तुओं का
अभेद संबंध । जव दो वस्तुओं में घमं समान रहता है जेसे-नर ओर प्राणी
| म श्राित्व' तो दोनों के बीच तादात्म्य संबंध समञ्चा जाता है) इसका दूसरा
8 द्योतक शब्द है सामानाधिकररय-एकं ही आधार परं टिका रहना, एक विभक्ति
| म ही रहना जैसे-- वृक्षोऽयं शिशपा । शाब्दिक दृष्टि से यहाँ वृक्ष ओर शिंशपा में
समानाधिकरणता { समविभक्तितव ) है किन्तु अर्थंदृष्टि से दोनों मे वृक्षत्व"
नामक सामान्य धमं होने से तादात्म्य-संबंध है 1 तादात्म्य-संबंध न तो दी पदार्थो
बे अत्यन्त भेद होने पर ही हो सकता है ( जैसे -'अश्वोभ्यं महिषः नहीं कहं
सकते यद्यपि दोनों मे “पदुत्व' सामान्य-धमं है ) ओौर न अत्यन्त अभेद ही रहने
पर ( जेसे-- अश्वोऽयं घोटकः" नहीं कह सकते क्योकि दोनों पर्याय ही है] ।
| स्मरणीय है कि केवल बौद्ध लोग दी तादारम्य हारा अविनाभाव स्थापित
करने की चेष्ठा करते है ।
|
| ( ५. अनुमान का खण्डन करने बालौ को उत्तर )
। यदि कधितप्रामाण्यमनुमानस्य नाङ्गीकयात्त प्रति ब्रूयात्--
|
अनुमानं प्रमाणं न भवतीत्येतावन्मात्रसुच्यते, तत्र न किंचन
बौद्ध-दशेनम् ३३
साधनयुपन्यस्यते, उपन्यस्यते वा १ न प्रथमः। अशिरस्क-
वचनस्योपन्यासे साध्यासिद्धेः ।
एकाकिनी प्रतिज्ञा हि प्रतिज्ञातं न साधयेत् ।
इति न्यायात् । नापि चरमः। अनुमानं प्रमाणं न भव्रतीति
ब्रुवाणेन वचनप्रमाणमनभ्युपगच्छता त्वया स्वपरकीयशाे
प्रामाण्येनोप्हीतस्य वचनस्योपन्यासे मम माता बन्ध्येतिवद्
ज्याघातापातात् ॥
यदि [ इतना होने पर भी ] कोई ध्यक्ति अनुमान-प्रमारा की प्रामाणिकतां
स्वीकार नहीं करता है तो उससे इस प्रकार [ द्विविधाटमक [17070810 ]
प्रन पूं -- “माप केवल "अनुमान प्रमाण नहीं है इतना भर कहते है, इसमें
कोई हेतु ( साधन, प्रमाणा ) उपस्थित नहीं करते ह या करते ह ?" (१) यदि
पहली बात [ पर अइते हैँ तो ] ठीक नहीं । [ किस सिद्धान्त को बिना कारण के
रखने मे | बिना सिरया हेतु के वाक्य उपस्थापित करने में साष्य ( 11907
1601 ) कौ सिद्धि होगी ही नहीं। ( अनुमान में किसी वाक्य को निगमन में
रखने के लिए उचित भौर उपाधिहीन हतु कौ भावश्यकता है, उसके नहीं
रहने से अनुमान नहीं होगा । पव॑त मे अग्नि ( साध्य ) सिद्ध करने के लिए उसमें
धुमवत्व ( हेतु, साधन ) रना ही पडेगा । अशिरस्क-वचन = बिना साधन का
वाक्य, अप्रामाणिक बात )। न्याय (उक्ति) भी है-- अकेली प्रतिज्ञा ( स्वीकृति )
स्वीकृत वस्तु को सिद्ध नहीं करती" ( = केवल सिद्धान्त रख देने से कि अनुमान
रमाणा नहीं है यह सिद्ध नहीं हो जायगा प्रत्युत इसके लिए साधन देना पडेगा +
यदि साधन नहीं देते तो आपकी यह बात गलत हो जायगी कि अनुमान प्रमाण
नहीं है अर्थात अनुमान को आप भी प्रमाण स्वीकृत करेगे । )
(२) दूसरा पक्ष [किं अनुमान को प्रमाणं न मानने के लिए साधन
देना चादिए- यह ] मौ ठोक नहीं। कारणं यह है किं जब आपलोग कहते
है 'अनुमान प्रमाण नहीं होता .है' तब तो वचन (= शब्द-प्रमाणा ) को
मी स्वीकार नहीं ही करते है ( वयोकि अनुमान-प्रमारा मानने के बाद ही
आप्त-पुरुषो को बात--शब्द-प्रमाण को स्वीकृत कर सकते हँ ) । दूसरी ओर
आपकी स्थिति है किं अपने से भिन्न दसरो के शाख्नो में प्रमारा-रूप से स्वीकृत
वचन" या शब्दप्रमाण का उपयोग कर रहे हँ (यदि आप अनुमान को
प्रमाण नहीं मानकर कख साधन देते हतो दुसरोंकी लीक पर चलने का
दोषारोपण आप पर होगा । कम से कम न्याया की विधि को प्रामाणिक
३ स सं
३४ सब्रेदशनसंम्रहे-
मान्ता होगा ओौर उसकरी, बातों को यथावबु ` स्वीकार. करना ` शब्द-प्रमाण को
मानना है ) । एेसा करने पर व्यावहारिक धृंगति होगी जसौ भरी माता
वन्या है" इस वाक्य में होती है। (अभिप्राय यह् है करि यदि माता हैतो
वन्या नही, यदि वचया | है तौ मता नहीं । दोनों कौ स्थिति, एकं दशा में
असम्भवे है । उसी: त्रकार अनुमानं को प्रमाणं नहीं मानते तो शब्द को भी
नहीं मानना होगा-लेकित्ः ये पूवंपक्षी-चार्वाक आदि--अनुमान की प्रामाणिकता
काटने केलिए ओौर भी बड़ प्रमाण--्रव्यक्ष.से दुर भरमाण--रब्द का जान
लेते है, यह व्यावहारिक असंगति है )। . स
फं च प्रमाणतदामासव्यवस्थापनं तत्समानजातीयत्वा-
दिति वदता भवतेव स्वीकृतं स्वमाबादुसानम् । परगता
विप्रतिपतिस्त॒ वचनलिङ्नेति वुबता कायलिङ्गकमनुमानम् ।
अनुपरग्ध्या कञ्चिदथं प्रतिपेधयताडुपलन्धिरिङ्गकमडमानम् ।
तथा चोक्तं तथागतेः-- ` | कः
२. प्रमाणान्तरसामान्यस्थितेरन्यधियो गतेः ।
. प्रमाणान्तरसद्धाबः. प्रतिपेधाच्च कस्यचित् ॥ इति ।
< पराक्रान्तं चात्र घरिभिरिति ग्रन्थभूयस्त्वभयादु रम्यते |
-यही नही, [ तीन तरह के अनुमान तो आपं स्वयं स्वीकार करते हं । |
रमाणं ओर प्रमालाभास कौ व्यवस्था उसके समानजातीय होने के कारण
होती है--यह कंते हृए आप ही स्वभावानुमान को स्वीकार करते है ।
( प्रमाण गौर प्रमाणाभास कौ व्यवस्था--राह म जाते हए जब जल
दिखलाई पडता है तब यह जलज्ञान प्रमाण है कि प्रमाणाभास, एेसा सन्देह
होता है! अगर ठीक निकला त्तो प्रमाण मानेंगे क्योकि यथार्थानुभवः भ्रमा,
ओर प्रमायाः करणं प्रमाणम्" 1 यदि जल नहीं मिला तो प्रमाणाभास मानेगे ।
यह निर्णय कैसे करेगे ? विधि स्वभावानुमान की होगी ओौर साधन रहेगा
समानजातीयत्व । ( १ ) प्रमाण-जवब एक बार एसा ज्ञात हुजा था तब
उसमे जल निकला था, इस बार भी उसी तरह का या समानजातीय ज्ञान ह,
यह जलज्ञान भी परमाण दै। यह निश्चय स्वभावानुमान से आप करते (2
दूसरी ओर, ( २) भरमाणाभास~-जव एक बार एेसा ज्ञान हृभा था तो जल
नहीं मिला था, इस बार भी सजातीय होने से जल नहीं मिलेगा--अतः यह
मी प्रमाणाभास है। यहां भी. स्वभावानुमान की आवश्यकता पड़ ।
स्व्ावानुमान में पक्ष, साघ्य ओर लिग तथा तीन अवयव-वाक्य रहते है । )
-चौद्ध-दशेनम् ३४
. -दूसरे, चिरोधियों की विपरीत. सम्मतिः ( विरूढ सिद्धान्तं या ज्ञान ) का
ज्ञान उनके वचन-रूपी लिंग या साधन से होता हैः यह् कहकर [ जाप | कायं
करो देवकर कारण को जाननेवाला “कायंलिगक' अनुमान भी स्वीकार करते
ह । [ अभिप्राय यह है कि कोई भी व्यक्ति अपने ज्ञान के अनुसार ही बोलता
ह । ज्ञान कारण ह ओर उसके वचन कायं ।. चार्वाक लोग परपक्षियों के शब्दों
को सुनकर उनकी मान्यताओं का अनुमान कर लेते है। यह भी अनुमान ही
हुआ, भले ही इसमे कायं ( वचन ) लिग या हेतुंका काम कर रहा है 1
विपशक्षियों की विप्रतिपत्ति ( विरुद सिद्धान्त ) साध्य है } ]
तीसरे, जब आप किषी वस्तु की अनुपलब्धि या असाव देखते ह तथा
उघके आधार पर किसी पदार्थं की सत्ता का निषेध करते है ( जेसे--आकाश-
तस्व, आत्मा, मोक्ष, परलोक आदि का), तो यहाँ मो जाप अनुमान का सहार
ले रहे ह जिसका लिङ्ख है अभाव। (अभाव के आधार पर ही अप इन
वस्तुओं का निषेध करते है । फिर अनुमान को खरिडत करनेमेंतुक ही क्या
रहा ? जब तीन-तीन प्रकार के अनुमान अपप धड़ाघड़ दे रहे है.फिर कंसे कहते
है कि अनुमान दहैही नहीं?) ।
इसलिए तथागत ( बुद्ध ) के अनुयायियों ने कहा है-( १ } इसरे प्रमाण
( अनुमान ) मे सामान्य ( समान जातीयता ) की स्थिति होने के कारण,
(२) द्सरे की सम्मतिमें गति या उसका अनुमान करने के कारण तथा
( ३ ) किसी के प्रतिषेध के कारण-- दुसरे अनुमान प्रमाण की सत्ता [ स्वीकार
करनी पड़ती ] है । ऊपर कहे तीनों प्रकार के अनुमानों का संग्रह इस लोक में
हआ है । ) इस विषय षर विद्टानों ने बहुत विचार-विमश्ं किया है इसलिए यहाँ
ग्रन्थ बडाहोजानेकेभयसे रुका जाय ।
( ६. बौद्धदरीन के चार भेद्-भावना-चतुष्टय )
ते च बौद्धाश्वतुर्विधया भावनया परमयपुरुषाथं कथयन्ति ।
ते च साध्यमिक-योगाचार-सोत्रान्तिक-बेभाषिकसंज्ञाभिः प्रसिद्धा
बौद्धा यथाक्रमं सर्वशून्यत्व-बाह्याथ्न्यत्व-बाह्याथोयुमेयत्व-
बाद्या्थप्रतयक्षत्ववादानातिष्ठन्ते । यद्यपि भगवान्बुद्ध एक एव
बोधयिता तथापि बोद्धव्यानां बुद्विभेदाचचातुर्विध्यम् । यथा
'गतोऽस्तमकंः इत्युक्ते जारचोरानूचानादयः स्वेष्टादुसारेणा-
भिसरणपरस्वहरणसदाचरणादिसमयं बुध्यन्ते . ।. सवं क्षणिकं
३६ सवेदशनसंभरदे-
क्षणिकं, दुःखं दुःखं, स्वलक्षणं स्वरक्षणं, शन्यं शून्यमिति भावना-
चतुष्टययुपदिष्टं द्रष्टव्यम् ।
ये बोद्धलोग चार प्रकारकी भावना ( दृष्टिकोण )से परम पुरुषाथं का
वणन करते है । ये बौद माध्यमिक, योगाचार, सौत्रान्तिक ओर वेभाषिक के
नाम से प्रसिद्ध ह तथा क्रमशः इन वादों या सामान्य-सिद्धान्तों पर अड़े हए है-
सब कु शन्य होना ( माष्यमिक } बाह्य-पदार्थो का शून्य होना ( योगाचार ),
बाह्य-पदार्थो का अनुमान से ज्ञान होना ( सौत्रान्तिक ) ओौर बाह्य-पदार्थो का
प्रत्यक्ष से ज्ञान होना ( बैभाषिक )। यद्यपि समज्ञाने वाले भगवान् बुद्ध एक
ही ये फिर भी समञ्लने वाले पात्रों के बृद्धि-भेदसेये चार प्रकार वन गये । जिस
प्रकार यं इब गया एेसा कहने पर जार ( उपपति, प्रमी ), चोर ओर अनूचान
( वेदपाठी ) आदि अपनी-अपनी इच्छा के अनुसार अभिसरण ( प्रेयसी से भिलने
के लिए संकेतस्यल पर जाना ), परषन का हरण ओौर सदाचरण आदि के समय
समज्ञ लेते है 1
देखना चाहिए कि चारो भावनाय ( या दृष्टिकोण ) इस प्रकार उपदिष्ट हुई
है- (१) सव कु क्षणिक है क्षणिक, (२) सव कु दुःख है दुःख, (३) सवो का
लक्षणा अपने आप में है तथा (४) सब कुछ शन्य है शृन्य ।
विरोष- बौद-द्ेन के सुप्रसिद्ध चार सम्प्रदायो का वणंन यहाँ हज है ।
यद्यपि भागे हमे इनका विस्तृत वणंन मिलेगा किन्तु यहां संक्षेपमे कु जान
लेना आवदयकं है ।
( १ ) माध्यमिक ( शुन्यवाद् 41111115 }-यह मत नागार्जुन
( २ री शती ई० ) से सम्बद्ध है जिनके माध्यमिक-शाखर ( कारिका ) के अनुसार
संसार असतु या शून्य है-दष्टा, हदय, दशन सभी स्वप्न के समान म है।
फिर भी शून्य का अभिप्राय एसा सत् है जो चतुष्कोटि ( सत् , असत् , सदसत् ,
असन्नासत् ) से विलक्षण, अनिवंचनीय है । व्यावहारिक वस्तुयं सभी शून्य या
असत् ह किन्तु उनकी पृष्ठभूमि मे एेसी सत्ता है जो अनौपाधिक ओर अविकृत
हे । माघ्यमिक-कारिका ( १।७ ) मे कहा गया है--
न सन्नासन्न सदसन्न श्राप्यनुभयात्मकम् ।
चतुष्कोटिविनिर्मुक्तं तच्वं माध्यमिका विदुः ॥
स्मरणीय ह कि शंकराचायं ने अनुभयात्मक के अलावे सभी को स्वीकार
कर ब्रह्म की शक्ति माया को कोटित्रयशन्य कहा है जिसके फलस्वरूप कटर हिन्दुओं
ने उन श्रच्छन्न ( छिपा हुमा ) बौद्धः की संज्ञादे रली थी । उनके अनुसार
माया 'सन्नाप्यसन्नाप्युभयात्मिका नो' ( विवे° च्ूडा० ) है ।
बौद्ध-दशेनम् | ३७
( २ ) योगाचरं ( 9४९५४५४९ 10€शड }--दिङ्नाग, धर्म॑कीति,
असंग आदि आचार्यो की छत्रच्छाया मे यह सम्प्रदाय फलता-फलता रहा है ।
इसके अनुसार बाह्य अथं तो शून्य है, किन्तु चित्त जो सभ वस्तुभो का ज्ञाता
है, कभी भी असत् नहीं हो सकता अन्यथा हमारे ज्ञान भी असत् हो जा्येगे ।
मनके द्वारा गृहीत सभी पदां धारणामात्र (10688 ) है । मानसिक
धारणा हौ बाह्य वस्तुओं के सूप मँ श्नमवत् हृष्टिगोचर होती है । विषयी
( 8} ) ही बाह्य-वस्तुओं पर अपनी तत्सम्बन्धी धारणाओं का आरोपण
करतां है ( 8०४०}९५४१७ {4681180 ) । इस विचार में अंग्रेज दाशनिक
बके से यह मत मिलता है। इसका दूसरा नाम विज्ञानवाद भी है जिसे
विज्ञान या शुद्ध चैतन्य ही एकमात्र सत् है । इस मत में चित्त के आठ प्रकार
है चश्चुविज्ञान आदि वैभाषिको के सम्मत ६ विज्ञान, मनोविज्ञान भौर आलय
विज्ञान । इस मत का प्रसिद्ध ग्रन्थ है--लंकावतारसूत्र ।
(2) सौज्नान्तिकः ८ 7\6]0768611#810113770 ) - उपयुक्त दोनों
सम्प्रदाय जहां महायान के ह, सौत्रान्तिक गौर वैभाषिकं हीनयान के भेद है।
सौत्रान्तिक का विशेष संबंध सूत्र-पिटक से है। इसके अनुसार मानसिक भौर
बाह्य दोनों पदार्थं सत् है यद्यपि बाह्य-पदार्थौ का ज्ञान अनुमान से होता है ।
उनके प्रत्यक्च के लिए विषय, चित्त, इन्द्रिया, तथा सहायक तत्वों ( जेस
प्रकाश, आकार )--इन चार वस्तुओं की अपेक्षा है । इनके परस्पर मिलने से
मन मे उत्पन्न होनेवाले विषय का विचार ८ 1१०४ ) या अनुकृतिं ( ५०] )
प्रपत होती है। इस प्रकार बाह्य वस्तुएं मन मे रहनेवाले विषय के विचारों
( 1068 ) के प्रतिनिधिमात्र है । मानसिक धारणाओं से ही मन बाह्य-पदथों
का अनुमान कर लेता है । केवल वतंमान काल कौ सत्ताये लोग मानते है ।
नमाषिक लोग सभी कालों कौ सत्ता मानने के कारण 'सर्वास्तिवादी' कहलति
है । विज्ञानवादियों के खर्डन मे ये उसी प्रकार दत्तचित्त है जिस प्रकार बर्कले
( एल्लोल़् ) के खण्डन में मुर ( 10016 ) । मूर का सिद्धान्त वस्तुवादी
( 1681;3४6 ) है जब कि बकंले आत्मनिष्ठ॒विचारवादी ( अप 0}९00\€
10८915४ ) ह । सौत्रान्तिक मत बहुत क लौक ( 100९ ) की विचारो
की अनुकृति' ( (0]ए़ ४९०१ 9 10688 ) से मिलता है ।
( ४ ) वेभाषिक ( 109४ ९8) )-- बाहरी वस्तुजों को
अनुमेय न मानकर वे पूतया प्रतयक्षणम्य मानते ह क्योकिं जब तक उनका
्रस्यक्ष न हो, उनकी सत्ता किसी दूसरे साधन से सिद्ध नहों हो सकती । पहले से
अञ्चि का प्रत्यक्ष जिस व्यक्तिने नहीं कियाहै कभीमीशुमके आधार पर उ
का अनुमान नहीं कर सकता । बाह्य-पदार्थो से सम्पकं नहीं रहने पर भनोजगत्
३८ सबेदशेनसंग्रहे-
| सँ कभी भी बाहरी चीज कीः धारणा नहीं बन सकती । इसलिए या तो
| विज्ञानवाद मानें या बाह्य-वस्तुओं का साक्षात्रत्यक्ष मानें । अभिधमं-दयेन से
ही वैभाषिक-सम्प्रदाम का आविर्भाव हुजा है 1 |
| ` ` भाभ्यमिक = पूं असत् या पूरौ सत् को अस्वीकार कर दोनों कौ सोपा-
| धिक सत्ता मानने वाला; मध्यमम का अवलम्बनं करने वाला ( दोनों के
॥ | बीच के मागं पर चलनेवाला -) । योगाचार = योग ( चित्तवृत्ति की प्रवीणता )
:| मौर भचार का समन्वयं करनेवाला । योग के द्वारा मानसिक सत्ता ( आलयः
विज्ञान ) को हीं स्वीकार करके बाह्य पदार्थो मे विधास हटा देना । सोता-
| न्तिक--सुत्त.पिटक से सम्बढध इसके बहत से ग्रन्थ सुत्तान्त नामसे ही
| । विद्यात है। वेभाषिक--विमाषा ` ( अभिधर्म-महाविभाषा ) नामकं ग्रन्थ मे
॥ इनके सिद्धान्त प्रतिपादित ह इसलिए यह नाम इनका पड़ा । | |
॑ इसके वाद चारों भावनाओों पर पृथक् विचार करिया गया है तथा क्षणिकत्व
| । भावना के अनुपम होने के कारण उस पर कु अधिक विस्त रभूरवक विचार है।
(७. श्चणिकत्व की भावना--अथेक्रियाकारित्व ) ``
तत्रं क्षणिकत्वं नीलादिक्षणानां सखेनाचुमातव्य-- यत्स
त्तःक्षणिकं, यथा जरध्रपटलं, सन्तश्नामी भावा इति । न
चायमसिद्धो हेतुः, अर्भक्रियाकारितवक्षणस्य सखस्य नीलादि
क्षणानां ग्रत्यक्षसिद्त्वात् । व्यापकव्वाब््या व्याप्यव्याडृत्ति-
रिति न्यायेन व्यापककमाकरमव्यावृत्तौ अक्षणिकात्सचव्याञततेः
सिद्रत्वा्च । तच्ाथेक्ियाकारितवं करमक्रमाभ्यां व्याम । न च
क्रमाक्रमाम्यामन्यः प्रकारः संभवति । ।
` इ; परस्परविरोधे हि न प्रकारान्तरस्थितिः। `
|
|
न ~ श [न {~ अ.
~ नेकतापि विर्दवानुक्तिमात्रविरोधतः ॥ ( इ8०२।८ )
इति न्यायेन व्याधातस्वोद्धर्त्वात् ॥ |
इन भावनां मे क्षशिकल्व-मावना का अनुमन्: नील आदि क्षणो
(= क्षणिक पदार्थो } की सत्ता देखकर करना चाहिए 1 [ चकि नील आदि पदाथ
क्षणिक ह , इसलिए एक साधारण क्षशिकत्व की भावना मान लेनी चाहिए ।
॥ हस "भावना का -साधकर अनुमान इस प्रकार होगा [जिसको सतता, है वह
|| | | क्षिक है जैसे; ( उदाहरण ) -मेचमंडलं. । । अव ` चकि सामने दिखलाई
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बौद्ध-दशेनम् ३६
पड़ने वाले | -इनं भावो की सत्ता है, [ इसलिए ये भाव भौ क्षणिक होगे ] 1
यह नहीं कह सकते क्रि उपयुक्त अनमान मे हेतु ( सत्ताः ) असिद्ध हैः।
( असिद्ध हेतु उसे कहते है जो व्यवहारतः असंगत कारण हो, साध्य की तरह
हीहेतु को भी सिद्ध करने की आवश्यकता पडे । न्यायद्न मे इस हैत्वाभासः
को साव्यसम कहा गया है, नव्य नैयायिको नेः असिद्ध मानकर इसके. तीन भेद
विये है । यहाँ परं कुच लोग सन्देहं करते हँ कि "यत् सत् तत् क्षणिकम्" में
वस्तुओं का सत् होना ही असिद्ध है क्योकि सभो दार्थनिक पदार्थौ को ` सत्तावान्
नहीं मानते । लेकिन इस 'सत्' रूपी हेतु को असिद्ध मानना ठीक नहीं है-~.
ग्रन्थकार एेसा कते है । असिद्ध इसलिए नहीं मानते करि सत्व ॒( सत्ता ) भें
प्रयोजनमूलक कायं करने की क्षमता रहती है ( अथंक्रियाकारित्व = कोई भी
काम किसी उटेदय या अ्थंसे क्रिया जातादहै, उक्त प्रकारके कायं करनेकी
शक्ति जब रहे तभी सत् होता है ); यह सत्व नील आदि क्षणिक पदार्थौ के प्रत्यक्षं
सेही सिद्ध होता है [ सत्व का लक्षण "अर्थक्रियाक्रारौ होना प्रत्यक्ष प्रमाणं
से सिद्ध होता है जबकि हम नील आदि पदार्थो को क्षणिक पाते है-नीलं
आदि पदार्थं क्षण भर में अपनी अर्थसाधक क्रिया करके नष्ट हो जते है इसलिए
ऊपर के अनुमान में भावो क। सत् होना असिद्धदहेतु नहीं]
दूसरा कारणः-एक नियम है कि व्यापक ( व्याप्त करनेवाला) काः
निष्कासन.( व्यावतंन } करने से व्याप्यका भी निष्कासन ( दणड )
होता है ( व्यापकं में नहीं रहने वाली वस्तु व्याप्यं भी नहीं रहती ), इस
नियम के द्वारा व्यापक पदार्थं से क्रम ( अगे-पीले होना ) ओौर अक्रम ( साथ
साथ होना ) का निष्कासन ( व्यावृत्ति ) करने पर, क्षरिक होनेवाली वस्तुओं
से सत्ता का निष्कासन भी सिद्धदहोतादहै। [ अभिप्राय यहटहै कि व्यापक सेः
किसी को अलग करना व्याप्यसे भी उपे अलग करदेनाहै, अब व्यापक से
क्रम-अक्रम (जो अथंक्रियाकारित्व या सत्ताको व्याप्त करताहै) को पृथक्
कर देते है जिससे स्वभावतः अक्षणिक ( व्याप्य ) वस्तुओं से सत्ता पृथक
हो जाती है ... क्षरिकं सत् है क्योकि सक्षणिक से सत् व्यावृत्त होता है! इससे
'यत्सत्ततक्षणिकं' सिद्ध होता है ओर उपयुक्त अनुमान हेतु के ठीक रहने से
उचित प्रतीत होता है।]
यह सार्थक कायं करने की. र्ति ( जिसे यहां पर सत्ता कहा ना रहा है).
क्रम ( पूर्वाप्रता ) तथा अक्रम (एक साथ होना) सेव्याप्तहै ओर क्रम तथा
अक्रम के बीच तीसरा विकल्प भी सम्भव नहीं है, वेसा करने पर निम्नलिखित.
नियम के अनुसार व्यावहारिक दृष्टि से विकट असंगति हो जायगी-“जापस मेँ
विरोधी [ षदोर्थौ ] कै बीच किंसी तीसरे प्रकार ( विकल्पं ) की. सत्ता नैहींहो
४० सबवेदशनसंरहे-
सकती । वचन में ही विरोध होने के कारण विरोधियों ( विख्द्ध पदार्थो ) में
कमी भी एकता नहीं होती ) { आशय यह हैकि क्रम ओौर अक्रम परस्पर
विरोधी है, दोनों के बीच मं तीसरे विकल्प की भर्चका नहीं है जो अ्थक्रिया-
कारित्व को व्याप्त कर सके । किसी वस्तु की सत्ता या तो क्रमिक होगी = आगे
पीले करके, या अक्रमिक अर्थात् एक साथ ही होगी । बाद में यह दिखलाया
ज्ञायगा कि ये दोनों क्रम भौर अक्रम स्थायौ वस्तु से पृथक् ह ओर अर्थक्रिया को
ओ व्यावृत्त करते हृए क्षणिकटव-मावना को सिद्ध करते है । अथमूलक क्रिया की
शक्ति केवल क्षणिकमें ही है । |
विद्नोष--अथंक्रियाकारित्वलक्षणं सत् = प्रयोजनमूता या क्रिया तत्का-
रित्वमेव सत्वम् ( अम्य० ) अर्थात् प्रयोजन के रूपमे जो कायंदहैरउसे करने की
क्षमता होना ही सत्ता का लक्षण है । दूसरे शब्दों मे, सत्ता वह है जो कु कायं
उत्पन्न करने की क्षमता रते । शश.विषाणके सहश असत् वस्तु कमी भी कोई कायं
उत्पन्न नहीं कर सकती । सत्ता का यह् लक्षण स्वीकार करने पर षमी पदार्थो को
क्षणिक मानने में सुविधा होती है । मान लं कि बौज क्षणिक नही ह, स्थायी है
तो इसकी सत्ता होने के कारण क्षण-क्षण में यह नए-नए कायं उत्पन्न करता
रहेगा । यदि बीज सभी क्षणो मे समान ही रहे, अपरिवतित हो, तो सदा वहं
उसी प्रकार का कायं उत्पन्न करेगा किन्तु वस्तुस्थिति इसके विपरीत है। घरमें
रखा बीज वही नहीं जो खेत में डाला गया है। दोनों के कायं भिन्न-भिन्न है ।
यदि यह तकं किया जाय कि वस्तुतः बीज वही कायं उत्पन्न नहीं करता किन्तु
उसमे क्षमता है जो उचित उपादानों ( जेसे-पृथ्वी, जल आदि ) के संसर्ग से
अभिव्यक्त हो जाती है । अतः बीजं सदा वही है । यह् तकं असहाय है क्योकि
रेसी दला में यह स्वीकार करते ही है करि पहले क्षण का बीज अंकुरण का
कारण नहीं प्रत्युत विभिन्न उपादानों के संगं से परिष्कृत बीज ही उसका
कारण है । मतः बीज तो परिवतित हो गया । इसी प्रकार कोई भी वस्तुदो
क्षण नहीं ठहरती । सभी वस्तुयं क्षणिक ह । इसकी सिद्धि के लिए सत्ताका
एक विशिष्ट लक्षण ( अथंक्रियाकारिष्व ) करना पड़ता है ।
नीलादिश्चषण--नील एक उदाहरण है, वस्तुतः इसे रंग से कोई सम्पकं
नहीं । प्राचीन नैयायिक ( बौद्ध ओौर गौतमीय दोनो ) लोग उदाहरण देने मे नील
का प्रयोग करते ये । जिस प्रकार नव्य-न्याय में वट" को उदाहरण के खूप मे रखते
ह । इसलिए नील वस्तुवाचक ह । क्षण = क्षणिक-पदार्थं या पदार्थं ।
ततौ च कमाकमौ स्थायिनः सकाशाद् व्यावतंमानौ अथं-
बौद्ध-दशेनम् ४१
क्रियामपि व्यावर्तयन्तौ क्षणिकत्वपक्च एव स्वं व्यवस्थापयतः
इति सिद्धम् ।
ओर ये दोनों क्रम.अक्रम स्थायी पदार्थं से पृथक् होकर, असभ्क्रिया को भी
( स्थायी-पदा्थं से ) एथक कर देते है तथा क्षणिकत्व के पक्ष में ही सत्ता होने
की व्यवस्था करते है यही सिद्ध करना था ।
विदोष--यदि सत्ता स्थायी होती तो क्रम ओौर अक्रम नहीं होता । स्थायी
होने पर भगे-पीचे होने का प्रश्न तो उठता ही नहीं, पदार्थो की एककालिकता
भी नहीं होगी क्योकि सत्ता के खरड नहीं होगे । इसलिए क्रम भौर अक्रम दोनों
स्थितियों से स्यायो पृथक् है, अस्थायी पदां मे हीये हो सकते है । सत्ता का
लक्षणा अर्थक्रिया के रूप में द्विया गया है, स्थायी पदार्थं मे अर्थक्रिया नहीं हो
सकती क्योकि स्थायी यदि कारण बनकर अपनी सत्ता के नाद्के बाद कायं
उत्वन्न करे तभी यह संभव है । सो हो नहीं सकता, यदि स्थायौ है तो फिर
ना कैसे ? ध्ंक्रिया ( कायेत्पादन ) जब होगी तब क्षणिक-पक्ष मे । इसलिए
अर्थक्रिया को स्थायी पदां से पृथक् करके, स्वयं भी करम-मक्रम स्थायीसे
पृथक् रहते है ( 6४०।४०९५ ) जिससे केवल क्षणिक वस्तुओं की सत्ता सिदध
होती है । इस प्रकार क्षणिकत्व-भावना की सिद्धि हई ।
( <. अक्षणिक पदाथे का “क्रम' से मथेक्रियाकारो नहीं होना )
नन्वक्षणिकस्य अरथक्रियाकारित्वं कि न स्यादिति चेत्-
तदयुक्तम् । बिकरपासहत्वात् । तथा दि--वतंमानाथंक्रियाकरण-
काेऽतीतानागतयोः किम् अर्थक्रिययोः स्थायिनः सामथ्येमस्ि
नो का । आये तयोरनिराकरणप्रसङ्गः, समथेस्य क्षेपायोगात् ।
यद्यदा यत्करणसम्थं तत्तदा तत्करोत्येव यथा सामग्री स्वकाय॑ °
समर्थदचायं भाव इति प्रसङ्गानुमानाच ।
द्वितीये कदापि न इयात् । सामर््यमात्रानुबन्धित्वादथे-
क्रियाकारित्वस्य । यद्यदा यन्न करोति तत्तदा तत्रासमथं यथा
हि श्िलाशचकलमङ्करे । न चैष वतेमानाथंक्रियाकरणकाले वृत्त
बतिष्यमाणे अर्भक्रिये करोतीति तद्विपयेयाच ॥
[ ऊपर यह सिद्ध कर धके है किं अथंक्रियाकारित्व (कार्योसपादन कौ क्षमता)
केवल क्षिक पदां मानने से होता है इसपर विरोधी लोग पृछ सकते हैकि]
य का
र ~= [कि रा
सकः जेः > --ेः
र | स्वदशेनसंग्रहे-
अक्षणिक पदार्थो { जैसे दूसरे दशनो मे ईर; . षट, प्ट -आदि जो स्थायीया
नित्य माने गये ह उनमें ) मे कार्योत्पादन कौ क्षमता क्यो नहीं होगी । { इसपर
हमारा पक्ष है कि ] एेसाप्रदन करना युक्तिसंगत नहीं क्योकि [ निम्नलिखित |
दोनों विकल्पों से यह असिद्ध हो जायगा ( शब्दशचः--दोनो विकल्पो को सहन
नहीं कर सकेगा ) । वह इस प्रकार है--वतंमान कायत्पादन के ( सम्पादन
के ) समप स्थायी, पदाथं ( अक्षणिक ) म भूतकालिक ओौर भविष्यत्कालिक
कार्योत्पादन की सामथ्यं है कि नहीं? (अभिप्राय यह है कि जब कुम्भकार एक
घडे का निर्माण करता है तव भृतकालिक चट ओर भविष्यत् घट रूपी अथं को
उत्पन्न करने वाली क्रिया करने की शक्ति उसमें है कि नहीं?)।
यदि पहला पक्ष लेते है [ कि सामथ्यं है] तब भूत . ओर , भविष्यत् दोनों
काल के कार्योत्पादनों ( = अथंक्रियाओं.). को आप छोड नही सकते--एेसी
स्थिति आ जायगी. (८ = एक समय में ही तीनों कालों के घटो - के उत्पादन का
प्रसंग हो जायगा, जो होतः ही नहीं ).। जो वस्तु किसी. काम् के करने मे समर्थं
होती है, वह॒ तो कभी. कालक्षेप ( समय काटना ) नहीं सदेगी [ तुरत कायं-
संपादन कर देगी, क्षेप का योग उसमें कहां 2] इस प्रसंग या स्थिति का अनु-
मान हम यों कर सकते है-- जो पदां जिस कामको करने में जब भी समथ
होता है, वह उसे उसी समय कर देता है जेसे- सामग्री (कारण के विभिन्न
सहायक -तत्व ( (00110708 ) अपने कायं कौ उत्पतन कर देती है । ओर
यह भाव ( अ-क्षशिक ) चकि समथं है [ इसलिए एकं सथ ही भूत, वतमान
ओर भविष्यत् तीनों कालों का का्येत्पादन होने लगेगा--इसः- दोष से बचने के
लिषएु पहले विकल्प को छोड देना दी. अच्छा है । |
यदि दसरा विकल्प ( स्थायी. में भूत ओर वृततंमान ` अक्रिया बतलाने कौ
शक्ति नहीं है ) लेते है तब तो [ ओर भी आनन्द है कि | कभी. भो यह् कु नहा
कर सकता । कारण यह है किं कायेत्पादन केवल सामथ्यं पर ही अवलम्बित
है । ( स्थायी पदार्थं यदि एक समय मेँ असमं हो गया तो दूसरे समथ मे भो
असमर्थ ही रहेगा 1 दुसरे, असमथ वस्तु की अपक्षं समथ वस्तु के स्वल्पं म
भेद करना आवश्यक हो जाता है. इसमे वस्तुः स्थायी नहीं रह सकती ओर भरल
पर ही कुठाराघात हो जायगा । ) जो पदां किसी भी समय किसी कामको
नहीं करता, वह् उसके लिए असमथ . समन्चा जाता है जेसे-- अंकुर को उगाने
मे चदान । ओर यह ( भाव = स्थां पदाथ } वतमानं क्रिया उक्वक्ं करने के
समय ` विगत ओरं अनागत अर्थक्रियाओं को उत्पन्च नहीं करता--इस प्रकार का
विवर्थ॑वे या विरोध. होता है. `: | क कः = श
क. , कव
# ¬ > +)
+ क ` ॥ ङ
क
-बौद्ध-दशनम् ४३
` विरोष--१. यदि स्थायी पदाथं वतंमान अर्थक्रिया के समय भूत जौर
भविष्य की अथक्रियाओं को उत्पन्न करने की शक्ति रखता हतो दोष होगा कि
एक साथ ही सभी काल की. अर्थक्रियां उत्पन्न हो जायगी । समं परुष तो
उत्पादन करता है । बया वह विचार करता है. कि हमः कव उत्पादन करं ?
जव काम, तव समाप्ति । २. यदि. वह् वैसी शक्ति नहो रता तव कभी कोई
करिया उलन्न नहीं कर सकता; अगर् असमधं हो तो क्रिया उत्पन्न करेगा कंसे ?
जो समथं होगा वही न कु उत्पन्न कर सकता है? इस प्रकार दोनों विकल्पों
के खरिडत. हो जाने से स्थायी में अर्थक्रियाकारित्व स्वीकार नहीं करना होगा ।
(९. सहकारियौ की सदायता पाकर भी अक्षणिक अथक्रियाकारी
नहीं हो सकता । ) . ` |
नलु कमवत्सहकारिलामात् स्थापिनोऽतीतानागतयो; करमेण
करणमुपपद्यत इति चेत्--तत्रेदं भवान्यृष्टो व्वाच्टाम् । सह-
कारिणः फ भावस्योप्वन्ति न वा १ नं चेन्नपेक्षणीयास्ते ।
अर्किचित्कर्वतां तेषां तादथ्यायोगात् । अथ भावस्तेः सदका-
रिभिः सहैव कोयं करोति इति स्वभाव इति नेत्--अङ्ग ! तरि
सहश्षारिणो न॒ जद्यात् ।. प्रत्युत पठायमानानपि. गे पाशेन
बद्धवा कृत्यं कुयात् + स्वभावस्यानपायात् । |
फिर भी कोई कहं सकता है- क्रम ( पूर्वापरता, अ जे-पीे होना ) से युक्त
सहकारी क्रियं को स्वीकोर करने पर, भूत ओौर भविष्यत्काल भे, स्थायी या
अ-क्षशिक पदार्थं का क्रमं कै द्वारां अर्थक्रियाकारी होना ( करण, काययत्पिादन )
सिद्धतोहो ही जाता है । [ अथं यह है कि अक्षणिक या स्थायौ पदाथ वही है
जो तीनौकौलों कौ क्रियाओं के उत्पादन मे समर्थं हो तथा सदाणएकही तरह
काः हो । दूसरी ओर क्षणिक सत्ता एक क्षण में क्रिया उत्पन्न करके नष्ट हौ जाती
है, तीनों कालों मे इसके रूप-विभिन्न प्रकार के होते ह! अस्तु, ` स्थायी एकल्प
होने पर भी, जव जैसी सहकारी क्रियाय मिलती ह तव् वेसी ही कायेत्पत्ति कर
सकता है । इससे पदार्थो मे होने वाले परिवतंनो कौ व्याख्यां करके, उनके होने
पर भी सत्ता को स्थायी मोन लेते है । देस मान लेने पर उपयुक्तं दोनो दोष-
१. सव समय सभी वस्तुओं का उत्पादन ओर २. कभी भी किसी क्रिच्ाःका
उत्पादन नहीं करना-- मिट. जागे .। -इस श्रकार कायु क्] करम् सहकारी
नियाओों के कक्सं पर निर्भर करतां है, नं कि. वस्तुओं कौ सामथ्यं ओौर
असामध्यं पर: -निष्कर्ष यह निकला कि ¦ चत्ता - अक्षिक = स्थयी है जिसमें
ट सबेदशेनसंम्रहे-
परिवतंन सहकारी क्रियाओं के अनेसे होते है, विशेषतया उनके क्रमके
कारण । अतः सत्ता क्षणिक नहीं, अक्षणिक है- यहं तकं पूवं पक्षियों का दै,
अब इसका उत्तर क्षरिकवादी क्या देते है, देखा जाय । ]
अगर एसी बात है तो जो आपसे पृद्धा जाता है, उसे बतावं-- सहकारी
क्रियाय (या पदाथ ) क्या भाव ( स्थायी ) को उपकार ( सहायता }) करती
ह किं नहीं? [ आशय यहटहैकि पूर्वंपक्षियों के मतमें जो घट, पट आदि
स्थायी पदार्थं है उनके सहकारी जल, मिरी, वायु आदि पदार्थं घटादि
के निर्माणा मे सहायता करते ह किं नहीं-आप लोग क्या कहते है? ] यदि
सहायता नहीं करते तो उनकी आवदयकता ही नहीं है । वे ( सहकारी ) तो
कु करते नही, इसलिए वे तदथं ( भाव कौ सहायता के लिए ) होगे-ेसा
प्रसंग नहीं होगा ( अर्थात् क्रियाहीन सहकारी पदाथं भाव की सहायता नहीं
करते तो उनके रहने की जरूरत ही नहीं - सहकारी के बिना ही भाव को सत्ता
होने का प्रबन्ध करना पड़ेगा ) ।
इसी पक्ष मे यदि एक भौर विकल्प दिया जाय किं स्थायी-माव ( घट,
पट आदि ) उन परिवतंनशील सहकारियों ( जल, मिट, हवा, सूयं कौ किरणं )
के साथ-साथ कायं करता है इसलिए स्वभाव के रूपमे सहकारियो को लिया
जाय, [ तोक्याहनिदहै?] [ यदि उपयुक्तं विकल्प के आधार कर स्थायी के
स्वभाव के रूप में सहकारियों को ग्रहण करं तब समस्या यह उलेगी किं स्थायी
पदां ] तब तो सहकारियों को छोड़ ही नहीं सकता, बल्कि भागने वाले
( सहकारियों ) के गले में फन्दा डालकर कृत्य (करने योग्य ) कायं स्वयं करेगा ।
कारण यहहै कि स्वभाव को हटा नहीं सकते। [ सहकारी यदि स्थायीके
स्वभावर्है, अपनेहीरूपरहै तब तो उन्हें पृथक् क्याही नहींजा सकता;
सभी सहकारी खोज-खोज कर कायं कौ उत्पत्ति के लिए लाये जावेगे , इस
प्रकार, सत्ता = अक्षिक + सहकारी ( एक ही स्वभाव के रूपमे ) | ।
उपकारकत्वपक्षे सोऽयञ्ुपकारः फ भावाद्धियते न वा ।
भेदपक्ष आगन्तुकस्येव तस्य कारणत्वं स्यात् । न भावस्याक्षणि-
कस्य । आगन्तुकातिशयान्वयव्यतिरेकानुविधायित्वात्कायंस्य ।
तट्क्तम्--
४. वषोतपाभ्यां कि व्योघ्नश्वमेण्यस्ति तयोः फलम् ।
चर्मोपमश्वेत्सोऽनित्यः खतुस्यशवेदसत्फलः ॥ इति । `
बौद्ध-दशेनम् ४५
यदि सहकारियो को भःव { स्थायी ) का उपकार करनेवाला मानतेहै तो
इसमे भी प्रश्च होगा किं यह उपकार क्या वे भावसे अलग होकरकरतेहै या
नहीं ( = विना अलग हए ही ) ? [ सहकारी षदाथं जैसे मिदर आदि, स्थायी
पदाथं जसे षटादि की उत्पत्ति मे सहायता करते हए उससे पृथक् रहते है या नहीं ?
दूसरे शब्दों भे, सहकारियों से उत्पन्न, स्थायी मे रहने वाला विशेष ( उपकार ),
अपने आश्रय स्थायी भाव से भिन्नहैया नहीं? इसके बाद भेदपक्ष के विकल्प
को लेकर बहुत बड़ा विवेचन किया गया है । यह् दिखाया ज.यगा किं भेदपक्ष को
स्वीकार करने पर अनवस्था -दोष ( छपा शाप) &त [फिधप) )
होगा । इसलिए अन्तिम नणय होगा कि क्षणिक के रूप में हौ सत्ता है । ]
यदि यह कष्टं करि सहकारी स्थायीसे भिन्नहै तो जो सहकारी पदां
आगन्तुक ( जेसे पानी, हवा, भिद ) हवेही कारण कहलायंगे (जो कायंके
उत्पादन में प्रधान होतादहै वही कारण दहै, जिसका निणंय अन्वय ग्यतिरेक
सेह्ोतादहै) । अक्षणिक-भाव कारण नहीं होमा [ क्योकि कार्योत्पत्तिमें
उसका कोई हाथ नही, असलम कायं तो सहकारी पदाथं अक्षरिक से पृथक्
होकर कर रहे हँ ]। कायं तो आगन्तुक सर्वाधिक ( सहायक ) के अन्वय ओौर
व्यतिरेक से सिद्ध होता है ( आगन्तुक के साथ कायं का अन्वय ओौर व्यतिरेक
ठीक-ठीक बेठ जाता है, अक्षणिक के साथ नहीं--इसलिए आगन्तुक कारण
है ओर बादमे अनेवाला पदार्थं कायं है । ) अतिशय = बहृन्गुणाशिन्तयित्वा
सामान्यजनसंभवान् । विशेषः कौच्यंते यस्तु ज्ञेयः सोऽतिशयो बुधैः । [ उक्त
स्थिति को यो स्पष्ट करं-बीज स्थायी पदाथं (भाव) है, उसमे आने वाले
सहकारी अतिशय ( सबेसे बड़े उपयोगी ) के होने पर अंकुर को उत्पत्ति होती
है, यह अन्वय हुआ । इस प्रकार के अतिशय के अभाव में अंकुर का उत्पन्न
न होना, यह् व्यतिरेक है । अब इस प्रकार अंकुर ( कायं ) की उत्पत्ति अतिशय
( सहकारी ) के अन्वय-व्यतिरेक से सिद्ध होती है जिसका फल है कि अतिशय ही
अंकुरोत्पत्ति का कारण दहन किं बीज। जो जिसके रहने पर रहे, नहीं रहने
पर नहीं रहे- वही तो उस पदाथं का कारण होता है! यह बात हम सहकारी
अतिशय के साथ देखते है स्थायो बीज के साथ नहीं । इसलिए स्थायी ( पदाथ,
बीज ) कारण नहींहोगा। उसे कारण मान लेने पर अन्वय-व्यतिरेक की
सिद्धि नहीं होती । बीजामाव मे अंकूराभाव ठीक है ( व्यतिरेक ), परन्तु बीज
होने पर अंकुर होना ( अन्वय ) ठीक नहीं है । इसलिए स्थायी पदाथं कारण
नहीं होगा, उसका सहकारी { सहकारियों मे भी सर्वाधिक उपयोगी अतिशय )
ही कारण हो सकता है । ]'
‰€ सवेदशनसंम्रहे-
कहा भी है--वर्षा गौर धूप से आकाश को ` क्या ? दोनों का फल चमडे
पर् हो संकता है । यदि [ वह् स्थायी माव | चमड़े के समान हो तब.तो वह्
अनित्य हो जाता है, यदि वेह अक्राश के समान हो. तो फलहीनं ( निष्फलं )
हो जाता हः; [आदय यह है कि जाकाश अविकारी है, उस पर वर्षा ओर
धूप का कोई भ्रभाव नहीं पड़ता--व्षा हो या धूप, आकाश ज्यो-का-त्यों रहता
ह) हा, प्रभाव पडता है तो चमडे पर, वर्षासे चमड़ा ठंडा हो जायगा, धूप
से गमं । इस प्रकार मनुष्यों के शरीर पर उसका प्रमाव है क्योकि चमं विकारी
है। अब पूछा जाय कि स्थायी भाव विकारी (-चमंवत् ) ` है कि अविकारी
( जाकाञ्चवत् ) ? दोनों दओं में -दोष है। स्थायीके रूपमे मानागया
बीज यदि विकार के योग्य ( विकारी ) है तथा सहकारियों से . उत्पन्न होने वाले
अतिशय के ' द्वारा विकृत होता है तथ तौ वह भाव अनित्य है क्योकि नित्य
वदार्थं सं तो विकार होता ही नहीं । दूसरी ओर्, यदि वह आकाश के समान
अविकारी माना जाय तवं तो निष्प्रयोजन ही हो जायथगो 1 सहकाियों से
उत्पन्न विक्ञेष फल ( अतिशय ) की आवद्यकता ही नहीं क्योकि अतिशय के
होने .परं भौ तो स्थायी पदार्थं बदल सकेगा ही नहीं । जल, वायु आदि सहकारियों
क्ती नी आवश्यकता नहीं रहेगी । फल यह हुजा करं स्थायी पदार्थं को सत्ता के
हप ने मानने से दोषं ही दोष उत्पन्न होगे । ] ` न
( १ ०. अतिद्वाय का दृखरा अतिहाय उत्पन्न करने मे दोष)
कवि च, सहकारिजन्योऽतिशयः किंमतिशयान्तरमारभतेः
न वा १ उभयथाऽपि प्रागुक्तदुषणपाषाणवषेणप्रसङ्गः । अतिक्ष-
यान्तरारम्भप्े बहु घुखानवस्थादौस्थ्यमपि स्यात् । अतिश्चये
जनयितव्ये सहकार्यन्तरापेक्षायां तस्परम्परापात ` इत्येकानव-
स्थाऽऽस्थेया । | | |
तथा सहकारिभिः सलिरपवनादिभिः पदाथेसारथैराधीयमाने
ब्ीजस्याति्चये बीजघुत्पादकमभ्युपेयम् । अपरथा तदमावेऽप्य-
[द प्रादुभेवेत्
तिश्चयः प्रादुभेवेत् ।
इसके अतिरिक्त [ हम यह भी पूते है किं | सहकारियों से उत्पन्न अति-
शय ( सर्वाधिक सहयोगी वस्तु ) क्या दूसरे अतिशय को | कार्योत्पत्ति के लिए |
उत्पन्न करता है कि नहीं ? दोनों स्थितियों मे पूर्वोक्त दोषों के पाषाण की वर्षा
होगी । [ सलिल, पवनादि से उत्पन्न, बीजमें रहने पर भी बीजसे बिल्कुल.
बौद्ध-दशनम् ४७
भिन्न.अतिशयं बीज्- ये. दसरे अतिश्चय्र को -यदि उत्पन्न .नहीं करता तो सहूकासियों
से उत्पन्न अतिशय होने का फल ही क्या है? यही नहीं, सहकारिजन्य अतिशय
करी उत्पत्ति के पूवं बीजसे अंकुर की उत्पत्ति भीहो जा सकेगी । दुसरी ओर
यदि सहकारिजन्य प्रथम अतिशय बीज में ही द्वितीयं अतिरथ `` उत्पन्न कर देता
है, तो फिर वह् द्वितीय अतिशय भो जो बीज से अत्यन्त भिन्न है बीज में तृतीय
अतिशयं उत्पतन करेगा कि नहीं --इस प्रन के ` साथ-साथ अनवस्था ` बढती ही `
जायगी ( अभ्यंकर ) । अतिशय को बीज ( स्थायो } से: अभिन्न करके भी दोष
दिखाया गया है-“जथ मावादभिन्नोऽतिशयः*० । भेदपक्ष में ही ओर भी दोष
होगे, यह आगे दिलाति है--) यदि हम इस पक्ष को लं किः एक अतिशय दूसरे
अतिशय को उत्पन्न करता है तो बहुत प्रकार की अनवस्था होने का .दोष संभव
है । ( द्रे अतिशय को इसलिए आरंभ करते है कि एक अतिशय से - काम
नहीं चलतः । यह उत्पत्ति सहकारियों मे दषरे -सहकारियों से होती दै या
स्थायौ बीज में दूसरे सहकारियों से या अतिश्योमे बीजादि स्थायी षदार्थोसे
यरा ब्रीजादि में ही. अतिशयो से होती है । जहां जसी आवश्यकता पडती है वहां
वैखा ही विशेषं उत्पन्न करना चाहिए । ` इसके बाद -अनवस्थाभओं का. तांता लग
जाता है।-)
जो अतिशय उत्पन्न करता है उसमें दसरे सहकारी की आवश्यकता होगी
तथा उनकी अनन्त परंपराओं के आ जाने से एक अनवस्था तो तुरत मान
लेनी पड़ेगी । ( अतिशय के उत्पादन में यदि दूसरे सहकारी को आवश्यकता नहीं
रहे तो यह उत्पत्ति स्वाभाविक मानी जायगी जौर सलिलादि सहकारी गणं
बीजादिसे ही अतिशय का उत्पादनं करने लगगे । अब दूसरे प्रकारसे तीन
अनवस्थायें दिखाते है-) वेसा होने पर सलिल, पवन-आदि सहकारी पदार्थो की
सहायता से रवे गये बीज केः अतिशय में बीज को . ही उत्पादक समञ्च लं; नहीं
तो, उन ( सहकारियो ) के अभावमें. भी अतिशय उत्पन्न हो सकतादहै।
( ऊपर के वाक्य में यदि बीज के अतिशयमें ही बीज को उत्पादक समञ्च लेते
हतो बीज में स्थित अतिशय ही नैमित्तिक कारण सिद्ध हो जाता है । अपरथा
बीज मे स्थित अतिशय यदि दूसरे अतिशय को उत्पन्न करे तब; अतिशय के
स्वाभाविक होने पर )
( १९. दूसरा अतिशय उत्पन्न करने मे अनवस्था सं० १ )
बीजं चातिश्चयमादधानं, सहकारिसपेश्चमेवाधत्ते । अन्यथा
स्बेदोपकारापत्तो अङ्करस्यापि सदोद् यः प्रसज्येत । तस्मादति
ॐ क व
छत सबंदशनसंग्रहे-
शायार्भमपेक्ष्यमाणैः सहकारिभिः अतिशयान्तरमाधेयं बीजे ।
तस्मिननप्युपकारे पूर्वन्यायेन सहकारिसापिश्षस्य बीजस्य जनकत्वे
सहकारिसंपा्यीजगतातिशयानवस्था प्रथमा व्यवस्थिता ।
बीज एक अतिशय का ग्रहण करते हुए, दूसरे सहकारी भाव को आवरयकता
होने के कारण ही एषा करता है। नहीं तो ( = अर्थातु यदि अतिशय का
ग्रहण करना दूसरे सहकारी की आवश्यकता के कारण न हो बल्कि उसे
स्वभावतः माना जाय ), यदि [ जल आदि सहकारियों को पकड़कर | सदेव बीज
से अतिशय ग्रहण किया जाय तब एसा प्रसंग हो जायगा किं बीज से सदा अंकुर
निकलता रहेगा । ( फलित यह है कि बीज यदि सहकारी भाव की आवश्यकता
न रवे ओौर अतिशयसे हौ काम चलाले तो सदा अंकुर की उत्पत्ति होती
रहेगी क्योकि कारणस्बरूप बीज से अतिशय ग्रहण करने पर कायंस्वरूप अंकुर
भौ उसी प्रकार उत्पन्न होता रहेगा ) ।
इसलिए प्रथम अतिशय को धारण के के लिए अपेक्षित दूसरे सहकारी
भावों को चाहिए कि वे बीज में दूसरे अतिशय को भी धारण करे । इस प्रकार
से उपकार हो जाने पर (= अतिशशयान्तर के मिल जाने पर ) तथा पहले को
तरह सहकारियों कौ अपेक्षा रखनेवाले बीज के [ आधारशूप मे | उत्पादक
बन जाने पर (= जब बीज सहकारियों कौ सहायता से उत्पादक बन जाय
तब ), पहली अनवस्था उत्पन्न हो जाती है जो सहकारियों की सहायतासे
संपन्न होने वाले बीज के अतिशय से सम्बद़ रहती है। ( बीज के सहकारियों
ओर अतिशय कौ एक अनन्त परम्परा चल पडती है जब कभी भी एक अतिशय
दूसरे को उत्पन्न करने लगता है) ।
( ११. अनवस्था सं० २)
अथोपकारः कायार्थमपेक्ष्यमाणोऽपि बीजादिनिरपकषं कायं
जनयति तत्सापेशं बा । प्रथमे बीजादेरदेतुत्वमापतेत् । दवितीयेऽ
पेष्यमाणेन बीजादिनोपकारेऽतिशय आधेयः । एवं तत्र तत्रापीति
बीजादिजन्यातिश्यनिष्ठातिशयपरम्परापात इति द्वितीयानवस्था
स्थिरा भवेत् ।
[ अब हम पृते है कि | इस प्रकार का उपकार ( अतिशय का धारण }
कार्योतपत्ति के लिए बपेश्षित होने पर भी बोज-आादि से पृथक् होकर काये को
उत्पन्न करता है या उनकी अपेक्षा भौ रखता है ? यदि पहला विकल्प लेते है
3 बौद्ध-दशेनम् ४६
तो बीज-आदि कमी भी कारण नहीं हो सकते ( क्योकि कारण वहीहैजो
„ कार्योत्पत्ति में सहायक हो लेकिन हाँ बीज वैसा नहीं है )। दूसरे विकल्प को
लेने पर, अपेक्षित बीज-आदि को उपकार होने पर अतिशय लेना चाहिए । इस
तरह उन-उन अवस्याओं मं भी, बीजादि से उत्पन्न अतिशय मे अतिशयो की
एक अनन्त परम्परा चल पड़ेगौ जिससे दूसरी अनवस्था भौ दृढ हो जाती हि ।
1 ( १९. अनवस्था सं० ३) |
एवमपे्ष्यमाणेनोपकारेण बीजादौ ध्मिष्युपकारान्तर्-
मधेयम्-इत्युपकाराधेयबीजाश्रयातिक्चयपरम्परापात इति
तरतीयानवस्था दुरवस्था स्यात् ।
हसं प्रकार अपेक्षित उपकार को चाहिए किं वह [ अतिशय के ] धर्मौ
४ ( विषयी ) बीजादि में दूसरे उपकार का ग्रहण करे- इस तरह उपकार से
| उलयन्न बीज के आश्रय ( अतिशय ) मे रहनेवाले अतिशयो कौ अनन्त परम्परा
फिर शुरू हो जायगी गौर यह तीसरी अनवस्या भी हटाना कठिन है
विरोष--ऊपर एक अतिशय से दूसरे अतिशय को उत्पन्न किये जाने पर
अनवस्था होती है--यह दिखाया गया । कुल तौन अनवस्थाये दिखलाई गई
ं ह । यह पूरा अवतरण उस विकल्प कौ व्याख्या है जिसमें कहा गया है कि
उपकार भाव सेभिन्न है । यह विकल्प यहाँ से शुरू क्रिया गया है-सोऽयमुपकारः
(क भवाद्धियते न वा ? ( देखिये-श्वे परिच्छेद का दूसरा खंड ) । इसके बाद,
उपकार स्थायी भाव से अभिन्न है, इस विकल्प कौ परीक्षा होनेवाली है ।
( २२. स्थायी भाव से अतिशय द्धे अभिन्न होने पर आपत्ति )
अथ भावादभिनोऽतिद्चयः सहकारिभिराधीयत इत्यभ्बु-
पगम्येत, ४ प्राचीनो भावोऽनतिक्चयात्मा निवृत्तोऽन्यश्ातिशष-
यात्मा कु्दरपादिपदवेदनीयो जायत इति फलितं ममापि मनो-
अर्थक्रिया च
रथद्रमेण । तस्मात्रमेण अक्षणिकस्य दुषेटा ।
| दूसरी ओर अगर यहं स्वीकार करते है कि अतिशय भाव ( स्थायी पदाथं }
। से भिन्न नहीं है भौर सहकारि्ोके द्वारा गृहीत होता है ( अर्थात् भाव ओर
अतिशय दोनों समान हो, अतिशय स्थायी भावका ही अवस्था-विशेष हो ),
तब तो प्राचौन भाव जो अतिशय नहीं है अवद्य ही निवृत्त ( समाप्त ) हो
जायगा ओर एक दूसरा भाव अतिशय के रूप मे उत्पन्न हो जायगा जिसे
“कुवेद् रूपः ( कार्योत्पादक वस्तु, ) आदि शब्दों से जानते ह । मेरे मनोरथ के
% सन सं
सवेदशेनसंमरहे-
वक्षकाभीतो यही फल है ( अर्थात् मेरी ही बात सिद्ध हो गई )। इस प्रकार
(क्रमः के द्वारा अक्षणिक { स्थायी) की अथंक्रिया ( कार्योत्पादिका ) सिद्ध
करना कठिन है ।
विरोष-- उपर्युक्त लम्बे विवेचन में यह सिद्ध क्रिया जा रहाथा किक्रम-
नियमं (एक के बाद दूसरे का होना) से स्थायी अथंक्रियाकारी नहीं हो
सकता- क्षणिक-पदार्थं ही अथंक्रियाकारी होगा; क्षणिक ही सत् है। इस
परिच्छेद में कहने का अभिप्राय यह है कि जलादि सहकारियों के द्वारा अतिशय
के उत्पन्न होने पर भी यदि स्थायी बीजादि दूसरी अवस्था (कायंरूप)में
नहीं पह जाते किन्तु अपनी पूर्वावस्था मेही अवस्थित रहते है, तब तो
अतिशय काटोनाही व्यथं है इसलिए सहकारी जलादि का मिलना भी व्यथं
है । यदि दूसरी अवस्था में पहुंच जाते है तब तो क्षणिक! की ही सिद्धि हो जाती
है--एक अवस्थासे दूसरी अवस्थामें आनाही सिद्ध करता है कि षहली
अवस्था क्षणिक है.“. पूरी सत्ताही क्षणिक है।
( १२. अश्चणिक पदाथ का “अक्रमः से अथेक्रियाकारी नदीं होना )
नाप्यक्रमेण घटते । बिकस्पासहत्वात् । तथाहि--युग-
पत्सकलकार्यकरणसमथेः स्वभावस्तदुत्तरकालमनुवतते न वा ?
प्रथमे तत्कालवत्कालान्तरेपि तावत्कायेकरणमापतेत् । द्वितीये
स्थायित्ववृस्याशा मूषिकमक्ितवीजादौ अङकरादिजननप्राथेनाम-
जुदरेत् ।
अक्रम ( एक साथ उत्पन्न होना ) के नियम से भी [ अक्षणिक-पदाथं का
अथंक्रियाकारी होना ] सिद्ध नहीं होता । कारण यह है कि विकल्पों को यह
सह नहीं सक्ता ( = दो विकल्पों के खरडन से इस वाक्य काभी खरडन हो
जाता है) । वह इस प्रकार होता है-एक ही साथ सभी काम करने में समथं
स्वभाव? कायं की उत्पत्ति के बाद भी रहत है या नहीं (या नहीं=या एक
साथ कायं उत्पन्न करके रह जाताहै)? यदि पहले विकल्पकोलेते हतो
स्वभाव एक काल मेँ जितना काम करता है उतनाही दूसरे कालमें भौ करने
लगेगा [ क्योकि कायं की उत्पत्ति के बाद भी स्वभाव तो बदलेगा ही नही, दूसरे
काल मे उसकी सत्ता रटेगी ही ओौर वह उसी परिमाण में निरन्तर- कालान्तर
१. स० द०सं° की कुछ प्रतियोंमे स्वभावः केस्थनमें स भावः
पाठ है लेकिन वह ठीक नहीं) भाव नहीं रहने से ही विरुद्ध धमं पर आरोपित
आश्रय की विभिन्नता रूपी साधन अनुपयोगी हो सकता है ।
बौद्ध-दशेनम् ५१
रं भी- कायं उत्पन्न करते रहेगा । लेकिन वस्तुस्थिति यह है कि कार्योत्पत्ति
केवल एकं वार होती है, उसी स्वभाव से पुनः पनः कार्योत्पत्ति, एक दी
परिमाणा मे, नहीं होती । यही तो सत्ता को स्थायी मानने का परिणाम है ।
इसलिए अक्रम-नियम ( 216४104 ग अ0पण18ण९ फ़ ) के प्रथम विकल्प
ते अक्षणिक-त्ता का खण्डन हो जाता है क्योकि इसमें कटिनाई (४०७०५१५ )
उत्पन्न हो जाती है ] ।
यदि दुरे विकल्प ( स्वभाव एक साथ कार्येत्पत्ति करके निवृत्त हो जाता
हि) कोलेतेै तो स्वभावके स्थायीहोने की आशा उतनी ही सफल होगी
जितनी चे के खाये हुए बीजादि मँ अंकुरादि उत्पन्न होने की प्रार्थना ! ( अर्थात्
जिस प्रकार चूरे के खाये हृए वीज नहीं उग सकते उसी प्रकार यह मानकर कि
ल्वभाव कार्योल्पत्ति करके निवृत्त हो जाता है, स्वभाव का स्थायित्व स्वीकार
नहीं कर सकते । जब कोई भाव अपना कार्यं करके समाप्त हौ जाय तो इसका
अभिप्राय है कि वह क्षणिक है) इस टष्टिकोणसे भी बौद्धो के मत--क्षणिक-
वाद--की पृष्ट होती है) इसके लि् अभी प्रयोग दयि जार्यँगे करि बीजादि
भाव क्षण-क्षण मे भिन्न होति ह क्योकि उनसे क्षण-क्षण में विरुद धमं अते-
जते है इत्यादि `" * "` ) |
( १३ क. असामर्थ्य-साघक प्रसंग ओर उसका विपयेय )
यद्विरुद्रधमाध्यस्तं तन्नाना, यथा शीतोष्णे । विरुद्रधमी-
ध्यस्तश्वायमिति जलधरे प्रतिबन्धसिद्धिः । न चायमसिद्धो देत; ।
(8. ५ [क ¢ (~
स्थायिनि कारमेदेन सामथ्यीसामधथ्येयोः प्रसङ्गतदिपययसिद्र-
त्वात् । तत्रासामर्यसाधकौ प्रसङ्गतद्विपयंयौ प्रागुक्तो ।
जिन वस्तुओं पर विरुद्ध ध्म आरोपित होति टै वे नानाप्रकार कौ ( एक
प्रकार की नहीं ) ह उनमें परस्पर भेद है, जसे शीत ओर उष्ण । यहां स्वभाव
पर विरुढ-धर्मो का आरोप हृ है--इसी तरह मेम भी व्याप्ति की सिद्धि
होती ह । ( प्रतिबन्ध = व्यापि । मेध को भी सिदध करते है कि इसकी सत्ता
स्थायी नही, क्षणिक ही है । वह केसे ? मेष प्रतिक्षण में नये-नये स्वरूप का
प्रदर्शन करता है इषलिए उसमे क्षण.क्षणए विड धमं तो अतिहीरं ओर
इसीलिए वह नाना प्रकारकादहै। न्यायकी भाषामें करगे कि विरुद्ध धमं के
आरोपण ओर नानात्व में व्याप्ति है। यही व्यापनि जलधर के नानात्व की सिद्धि
करती है ) । वहाँ यह हेतु ( विरुदढधमं का आरोपित होना ) असिद्ध नही है ।
कारण यह है करि स्थायी ( बीजादि ) पदाथंमें कालके भेदसे सामथ्यं ओर
किक = ० क ===
क ~ = क
वि । बः
१ ¬) + रते
द्रत
५२ स्ेदशेनसंम्रदे-
असामर्थ्यं दोनों का प्रसंग ( असत् से सत् की सिद्धि) ओर प्रसंगविपय॑य ( सत्
से सत् की सिद्धि )-ये सिद्ध होते है । इनम असामथ्यं के साधक प्रसंग ओर
उसका विपर्यय पहले ही कटे जा चुके हँ ( देखिये -परि° ८ }) ।
विरोष-असिद्ध दहेतु उसे कहते है जब दहेतु या अनुमान का साधन
( }114त16 (6७ ) साध्य के समान ही सिद्धि की अवेक्षा करे; उसकी सत्ता
सन्दिग्ध हो जेसे-
गगनारविन्द सुगन्धित है ( निष्कषं )
क्योकि वह ( गगनारविन्द ) अरविन्द ( कमल ) है हेतु,
जो कमल है वे सुगन्धित है जैसे तालाब का कमल ।
यहाँ अरविन्दत्व हेतु है जिसका आश्रय है गगनारविन्द । वह होता ही नहीं
इसलिए यहाँ हेतु आश्रय के विषय मे असिद्ध अर्थात् आश्रयासिद्ध है। असिद्ध
हेत्वाभास को प्राचीन नैयायिक साध्यसम कहते दै! असिद्ध के तीन भेद है--
( १ ) आश्रयासिद्ध ( उपयुक्त उदाहरण ) ( २ ) स्वहूपासिद्ध ( हतु का स्वरूपतः
पक्ष में न रहना ) ओौर ( ३ ) व्याप्यत्वासिद्ध ( सोपाधिक हतु )। इनके विस्तृत
विवेचन के लिये न्यायद्ंन देखें ।
यहाँ पर प्रतिपक्षी लोग शंका उठाते है कि "यद्विरुढवर्माऽ' वाले अनुमान
मे भी स्वल्पासिद्ध नामक दोष है । पहले स्वरूपासिद्ध समन्च लं । उदाहरण है-
सभी चाघ्चुष ( ५१७०९] ) पदाथ गुण है ( बृहत् वाक्य ),
शब्द चाघ्चुष पदाथं है ( लघु वाक्य ),
. शब्द गुण. है ( निष्कषं ) ।
यहां लघुवाक्य में जो चाक्चुषत्व ( हेतु 2110५16 {6770 ) का सम्बन्ध शब्द से
दिखाया गया है वह् स्वरूपतः असिद्ध है क्योकि शब्द चा्चुष नही, उसका अपना
गुण दै श्रावण होना, अर्थात् श्रवण ( कानों) से सम्बद्धहै। उसी प्रकार इस
अनुमान मे-- |
जो विरुद्धधर्मो से परिपूणं है वह नानाप्रकारक है ( 218}0" ८५. )
बीजादि विरुद्ध धर्मो से परिपुणं है ( 21107 £. )
.. बीजादि नानाप्रकारक ({ ५1१6186 ) है । ( 60791. )
शंका यहहैक्रि बीजादि (पक्ष) में कालका भेदहोने पर भी तो विरु
घर्मो से परिपूर्णता नहीं देखते । इसीलिए वे लोग असिद्ध हेतु मानते ह जिसका
खण्डन "न चायमसिद्धो हेतुः" कहकर किया जा रहा है ।
प्रसंग ओर उसका विपयंय--व्यतिरेक व्यासनिके द्वारा जिस अनुमान का
परदर्यंन होता है उसे प्रसंगानुमान कहते हैँ । दूसरी ओर, अन्वय-ग्यात्ति के दवारा
ण, +>. क ११०
= क,
> ` , "ककि "^
बौद्ध-दशेनम् ४३
प्रदश्शित अनुमान को प्रसंगविधयंयानुमान कहते है । यो असत् से सत् को सिद्ध
करना प्रसंग कहलाता है । उदाहरण ल- पव॑त अग्निमान् दै, क्योकि वहा
धूम ( हेतु ) है । इसमे जहा अनिका अभावदहै वहांधूम कामो अभवि है
जसे तालाब मे--यही व्यतिरेकःव्याति है। इस प्रकार पवत भें धूमाभाव
असत् है उसे सत् सिद्ध कर रहे है--यदि तालाब के समन पर्वतम भी अचि
नहीं है तवतो धूम भी नहीं हो सकता । इस धरमाभाव की सिद्धि के साय
पर्व॑त मेँ धूम देखकर अशनि का अनुमान किया जाता है। यही हुआ प्रसगानुमान ।
इस स्थान पर स्थायी पदां ( बीजादि ) मे बतंमान अर्थक्रिया -करणं
( का्येत्पत्ति ) के समय अतोत ओर भविष्यत् मेँ अथंक्रियाकरण कौ असमर्थता
सिद्धं करनी है ( साघ्य है)। हम इसे इस प्रकार सिद्ध करते है कि एक
समय ( वतमान ) मे तो यह अतीत ओौर भविष्य के कार्यो को उत्पन्न न हीं
कररता (करण को अकरण के द्वारा सिद्ध करते दै)। तब हम व्यतिरेक
व्याति की सहायता लेते ईहै--जो समथं है वह तो कामतो करता ही है।
इसे वतमान अ्थक्रियाकरण के समय अतीत ओर भविष्य की अर्थक्रिया का
करण सिद्ध होता है। इस तरह की सिद्धि के साथ-साथ वतंमानकाल मे अतीत
ओर भविष्य की अर्थक्रिया के अकरण को देखकर उसकी असमर्थता सिद्ध हो
गई । आठवें परिच्छेद मे इसका विचार ` आगे तयोरनिराकरणप्रस ङ्गः" आदि
कह कर किया गया है । यहाँ उसकी अआवदयकता देखकर पनः विस्तृत
व्याख्या की गई \'
दूसरी ओर प्रसंगविपयंय उसे कहते है जहां सत् से सतु का ज्ञान दिखाया
जाय । उदाहरणतः, "जहां धूम है वहाँ अग्नि है यह अन्वय-व्याति दिखाकर
पर्व॑त मे सत् ( €! 8४6४ ) धुम को दिखाया जाय । इससे अग्नि का अनुमान
होता है । असामथ्यं-साघक परसंगविप्यंय भी उसी क्रममें वित हो चुक्रा
है-- “यद् यदा यन्न करोति°' इत्यादि । उसमे भी सिद्ध हआ है किं वतंमान
अर्थक्रिया के काल मे अतीत ओौर भविष्य की कार्योत्पत्ति नहीं होती । इस प्रकार
असामथ्यं के द्वारा स्थायी पदार्थं सिद्ध नहीं होता । अब सामथ्यं का
सामथ्यं भो देखं ।
( १३ ख. सामथ्ये-साधक परसग ओर तद्धिपथेय )
सामर्थ्यसाधकावभिधीयेते । यद्यदा यज्ञननासमर्थं तत्तदा
[श्प ¢ 9 ©
तन्न करोति यथा शिलाशकलमङ्रम् । असमथ्वा वतमान थ
वाक अक 9 मक ॥ ा
१--(१) यद्यदा यत्करणएसमथं तत्तदा तत्करोत्येव--प्रसद्धानुमानम् ।
२) यद्यदा यन्न करोति तत्तदा तत्रासमर्थ॑म्-प्रस ङ्गानुमानविपयंयः ।
५५ सवेदशेनसंम्रदे-
क्रियाकरणकाठेऽतीतानागतयोरथेक्रिययोरिति प्रसङ्गः । यद्यद्।
यत्करोति तत्तदा तत्र समथ यथा सामग्री स्वकार्ये । करोति
चायमतीतानागतकाठे तत्काङवतिन्यावथंक्रिये भाव इति
प्रसङ्गव्यत्ययो बिषययः ।
अब हम सामथ्यं के साधक [ प्रसंग ओर उसके विपयंय ] का वर्णन करते
है। एक समय मे जो पदां जिस किसी दूसरे पदाथ को उत्पन्न करने मे असमं
है, उस समय वह् उसे उत्पन्न नदीं करता जैसे पत्थर का टुकड़ा अंकुर को
[ उत्पन्न नहीं करता क्योकि पत्थर के टुकंडे में असमथ॑ता है ]। यह् ( बीजादि
भाव ). अर्थक्रिया करने के समय अतीत ओौर अनागत ( मविष्य ) की अर्थ
क्रियाओं के करने मे असमथ है--इस प्रकार प्रसंग हुआ ( = प्रसंगानुमान ) ।
एक समय में जो जिसे उत्पन्न करता है वह उस समय मे उसके लिए समथं
है जैसे कारणों की पूरी सामग्री अपने कायं को उत्पन्न करने के लिए । यह भाव
अतीत ओर अनागत काल मे उस समय मे चलनेवाली अथं क्रियाओं को उत्पन्न
करता ह ( .“. वहं उनके लिए समथं है ) ।-- इस प्रकार प्रसंग का उह्लंवन
करनेवाला उसका विपर्यय है ।
विरोघ-सामथ्यंसाधक ओर असामर्य-साघक के निश्नोक्त प्रकार से
अनुमान होते ह जिनमें ये व्याप्तां है । क्रिया-करण ओर सामथ्यं के समनियत
होने के कारण दोनों ( क्रियाकरण तथा सामथ्यं ) में व्याप्त ओौर व्यापक का
परस्पर भाव रहता है इसलिए दो व्याप्तियां होती ह--({ १ ) यत्करोति तत्स-
मथंम् ( क्रियाकरण-- व्याप्य, सामथ्यं व्यापक ), (२) यत्समथं तत्करोति
( सामथ्यं व्याप्य, क्रियाकरण-- व्यापक ) । इसी प्रकार क्रिया के अकरण
गौर असामथ्यं मे भी व्याप्य-व्यापक का भाव है जिससे दो व्याक्षियां हो सकती
है (३) यन्न करोति तदसमर्थम् ( क्रिया-अकरण--ग्याप्य, असामथ्य--
व्यापक ), ( ४ ) यदसम्थं तन्न करोति ( असामथ्यं-- व्याप्य, क्रिया-अकरण--
व्यापकं })। इन चारों व्यात्िियों पर विचार करने पर पहली सामथ्यंसाधिका
अन्वयव्याप्ति निकलती है, दूसरी असामथ्यंसाधिका व्यतिरेकव्याप्ति, तीसरी
असामथ्यंसाधिका अन्वयव्याप्ति भौर चौथी सामथ्यंसाधिका व्यतिरेकव्याति है।
इन्हीं का संकलन ऊपर के अनुमानों में किया गया है ।
( १४. निष्कषे--क्षणिकवादं की स्थापना )
तस्मादिपक्षे कमयोगपद्यव्याव्ृ्या, व्यापकानुपलम्भेन
व्यतिरेक ~ $ 3 ~ 8
अधिगतव्यतिरेकव्यापिकं, ्रसङ्गतद्विपययबलाद् गृहीतान्वय-
प
+
प
ॐ.
१
4
ति
बौद्ध-दशेनम् ५
व्याप्तिकं च सं क्षणिकत्वपक्ष एव व्यवस्थास्यतीति सिद्धम् ।
तदुक्तं ज्ञानश्रिया--
८, यत्सत्तसक्षणिकं यथा जलधरः सन्तश्च भावा अमी
सत्ता शक्तिरिदार्थकर्मणि मितेः सिद्धेषु सिद्धान सा।
नाप्यद्व विधान्यथा परङ्ृतेनापि क्रियादिभेवेद्
दरेधापि श्षणभङ्गसंगतिरतः साध्ये च विभ्राम्यति ॥
इसलिए [ अथ सारे तर्का का निष्कषं निकालते हए कहते है कर | सत्ता
क्षशिकत्व के पक्ष में ही व्यवस्थित होती है--यहौ सिद्ध हज । इसकेये कारण
है-( १) विपक्ष ( अक्षणिक, स्थायी ) मे क्रम ओर यौगपद्य ( अक्रम, एक
साथ होना )--दोनों की असिद्धि हो जातो है! [ विपक्ष वह हैजो निशित
साध्य का अभाव धारण करे _ निथितसाघ्याभाववान्विपक्षः । जब बोद्ध लोग
क्षणिकत्व की स्थापना करते है तो उनके लिए क्षणिकत्व साध्य है ओर उसके
विरुद्ध अक्षणिक माने गये ईश्वर, घट, पटादि विपक्ष है । .. विपक्ष = स्यायौ
( यहाँ पर ) । ऊपर दिखला चुके है कि स्थायो भाव क्रम या अक्रमसेभी
अर्थक्रियाकारी नहीं हो सकता । | इसके फलस्वरूप व्यापक के अनुपलम्भ से
सरव मे व्यतिरेक-व्याति प्राप्त होती है। [ आशय यह है--अथंक्रियाकारित्व
व्याप्य है ओौर क्रम या अक्रममें से कोई एक व्यापक बन जाति ह । जब
ईश्वरादि स्थायी पदार्थं मेंक्रमया अक्रम का अभाव सिद्ध करतेदहतो व्याप्य
अ्थक्रियाकारित्व का भी अभावहो जाता है। व्यापक के अभाव में व्याप्य
का अभाव होना व्यतिरेक व्याति है, इसलिए यहा मी ध्यतिरेक व्याप्ति से सिद्ध
होता दै कि अक्षणिकं पदाथं का अथंक्रियाकारित्व नहीं होगा ओर च्ुकि सत्ता
के लिए अर्थक्रियाकारी होना आवरयक है, सत्ता को क्षिक होना चाहिए । |
(२) प्रसंग जौर उसके विपयंय के बल से सच्व मे अन्वयव्याति का ग्रहण
होता है। [ व्याप्य के सतु होने से व्यापक का सतु होना, यहौ अन्वयव्याति
हे । उदाहरणार्थं -जो सत् हे वह क्षणिक है । सत्ता अथंक्रियाकारी होती है ।
यदि उसे क्षणिक न मानकर ( विपक्ष मे ) नित्य स्वीकार करते है तो उसमें
सामथ्यं होने से भाव ( सत्ता) सदा सभी कार्यो को उत्पन्न करने लगेगा--
यह प्रसंग हे । सामथ्यं न होने से कभी नहीं. करेगा--यह विपयंय है; इसलिए
अथंक्रियाकारी को ( साथ-साथ, सत्ता को } क्षणिक होना परम जावच्यक है-
यह अन्वयव्याप्ति है । इस प्रकार दोनों से क्षशिक-सत्ता की सिद्धि होती है । ]
्ञानश्री ने भी कहा है--'जिसकी सत्ता है, वह् क्षणिक है जेसे- जलधर
५६ स्वदशनसं्रहे-
ओौर ये सत्ता सम्पन्न भाव ( वस्तुे-- घट, पटादि ) । अर्थं-कमं की जो शक्ति
| | ( = कुछ चीज उत्पन्न करने.का सामथ्यं) है वही सत्ताटै, इसमे प्रमाण
' || | ( भिति ) है [ जिससे न तो कोई वस्तु ही उत्पन्न होती ओरन ज्ञानी, वसी
| वस्तु की सत्ता नहीं है । उसके अस्तित्व का प्रमाण कौन देगा ? अर्थकर्मकी
शक्ति रखने वाले पदाथं की सत्ता का प्रमाण तो है ]। यह सत्ता सिद्ध ( स्थिर )
पदार्थौ मे स्थिर नहीं है ( किन्तु क्षणिक पदार्थोमें ही सिद्धहै ओर स्वयंभी
यह सत्ता क्षणिक ही टै) । [ अक्षणिक से कार्यत्पित्ति का | एक ही प्रकार
| नहीं है [ किन्तु स्वाभाविक होने पर क्रमसे या अक्रमसे ( एक साथ)
| होता है । ] नहीं तो दूसरे के द्वारा भी दूसरे की क्रिया उत्पन्न हौ सकती है ।
| ( = कार्योत्पादन अगर नैमित्तिक नहीं हो तो सहकारी उपकार के द्वारा भी
| । कार्यत्पत्ति होगी, कारण की आवश्यकता ही नहीं है-इससे भी कारण
| अक्षणिक नहीं होता, वह क्षणिक ही रहता है) इस प्रकार दोनों रीतिरयो
( क्रम भौर अक्रम) सेक्षण में पदार्थोके भंग ( विनाश) को संगति ( सिद्धि)
| होती है ओर अंत में हमारे साध्य ( क्षणिकं क्षिकमु ) को ही सिद्धं करती है ।'
| विरोष-ऊपर बौद्धो की एक भावना सवं क्षरिकं क्षणिकम् की
| | | व्याख्या विधिवत् की गई है । इसमें सत्ता-विषयक विरोधी वाद ( स्थायिवाद)
| ॥॥ का युक्तियुक्त वशडन करके अपने पक्ष की सम्यक् प्रतिष्ठा हुई है । तदनुसार
॥ | संसार में जितनी भी वस्तुं है, परिवतंनशील हैँ । उनकी परिवृत्ति क्षर-क्षण
म होतीजारहीटहै। एकही चीज को हमदो बार नहीं देख सकते, एक ही
नदीमेंदोवबारस्नान नहींकर सकते ओौरन एक ही मनुष्यको दो बार
| प्रणाम कर सकते है । किसी की भी सत्ता क्षणमात्र के लिए है--कार्योत्पत्ति
| ही वस्तुओं का उदेश्य है। एक क्षण मे रहना, दूसरे क्षणा मे अथंक्रिया ओौर
{ विनाश-- यही है बौद्धो का सत्ताविषयक सिद्धान्त । वैभाषिक ओौर सौवान्तिक
| लोगतो इस पर ओौर भी जोर देते ह। पाश्वाच्य-दार्थनिक वस्तुभओंकी
|॥ क्षणिकता में देश ओौर काल को बड़ा महच्व देते है । उनके अनुसार क्षण-क्षण
। | ॥। मे वस्तुभो का देश ( 89466, [1४९९ ) ओर काल ( 1006 ) बदलता जा
| ||| रहा है । इन दोनों गुणों से विशिष्ट होने पर एक सकंडमे भी उसी व्स्तुके दो
|| रूप देखे जा सकते है ।
हि| ( १५. सामान्य का खण्डन )
|| >
| न च कणसक्षाक्षचरणादिपक्षकक्षीकारेण सत्तासामान्ययो-
॥ गित्वमेव सच्वमिति मन्तव्यम् । सामान्यविशेषसमवायानामस-
॥॥ त्वप्रसङ्गात् ।
1 ४
[~ । "ङ्ख.
¢
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रे न इ. [क
बौद्ध-दशेनम् ५७
न च तत्र स्वरूपसत्तानिबन्धनः सद्व्यवहारः । प्रयोजक
गौरवापत्तेः! अुगतत्वाननुगतत्वविकरपपराहतेश्च । सषपमहीध-
रादिषु विलक्षणेषु क्षणेष्वनुगतस्याकारस्य मणिषु श्रवद्, भूत
गणेषु गुणवचाप्रतिभासना्च ।
कणाद ( कणो को एकत्र करके खानेवाले कणाद - वेरोषिक-सूत्रकार )
ओर अक्षपाद ( गौतम-स्याय-सूत्रकार, किवदन्ती के अनुसार जिनके चरणों
रे आवें थीं) आदिके पक्षको स्वीकार करने वालों को यह नहीं स मन्नना
चाहिए कि सत्ता की सामन्य-दशामे भाग लेना ( योगदान करना ) ही सत्ता
है( =वस्तुके सामान्य जैसे गोत्व, पदुत्व आदि को सत्ता नहीं कहते जेसा
किं कणाद, गौतमादि मानते है), नहींतो सामान्य, विशेष ओर समवाय-
इन वैशेषिक-सम्मत पदार्थो की भी सत्ता न होने का भय उत्पन्न हो जायगा
( क्योकि ये पदाथं सामन्यमे भाग नहीं लेते = सामान्य का, विशेष का ओर
समवाय का सामान्य नहीं होता । इन पदार्थो कौ सत्ता न रहने से वैशेषिक-
दन का मूलहौ नष्ट हो जायगा )। ॑
तेसा भी नहीं कह सकते किं वहां ( = सामान्य, विशेष ओर समवाय पर )
सत्ता का आरोप करना अपने रूप की सत्ता पर निभैर करता टै ( = चूंकि
इन पदार्थो की अपनी सत्ता तो निःसन्दिग्ध है इसलिए इन पर सत्ता का आरोप
ओ कर सकते । जैसी अपनी सत्ता, वेसी सामान्य सत्ता ) । एेसा करने से बहुत
स प्रयो नकं ( स्वरूप-सत्ताओं ) कौ आवश्यकता होगी ( ओर वह बहुत
श्रमसाघ्य होगा ) ।
यही नहीं, सामान्य की सत्ता को (अनेकमे एक की ) उपस्थिति ओर
अनुपस्थिति-विषयक विकल्पों की द्विविधा मे डालकर असिद्ध कर सकते है ।
( अनेक में एक सामान्य होता हे, यदि उसकी उपस्थिति है तो भी दोष, नहीं
है तो भी दोष--इसलिए सामान्य की सत्ता नहीं है )। इसके अलवे क्षणो
( पदार्थो ) मे सामान्यरूपसे, मरियों [की माला ] में सूत्रकी तरहया
भूत-गणों मे ( पृथ्वी, जल आदि में ) गुणो ( खूप, रसादि ) की तरह, वततमान
कोई भी आकार दिखलाई नहीं पडता [ जिसे हम सामान्य कहकर पुकार सक] ।
कि च सामान्यं सर्वगतं स्वा्रयसर्वगतं वा ९ प्रथमे सवे-
वस्तुसंकरभ्रसङ्गः । अपसिद्वान्तापत्तिश्च । यतः प्रोक्तं प्रशस्त
पादेन--“स्वविषयसवेगतमिति' ।
~ क्कु
भत सवेदशेनसं्रदे-
फं च विच्माने घटे वतेमानं सामान्यमन्यत्र जायमानेन
संबध्यमानं तस्मादागच्छत्संबध्यते अनागच्छदा १ अघे द्रव्य-
त्वापत्तिः । दहितीये सम्बन्धानुपपत्तिः ।
इसके अतिरिक्त [ यह बतावे कि] सामान्य सभीमें है अथवा अपने
आश्रय मे सर्वत्र स्थित टै? यदि पहले विकल्प को लेते हँ ( सामान्य सर्वंगत
है) तो सभी वस्तुएं आपस में मिल जायगी ( कोई भेद नहीं रहेगा, विश्युखलता
हो जायगी )। दूसरे, आपका विरोधी सिद्धान्त आ धमकेगा क्योकि प्रशस्तपाद
( वेशेषिक-मूत्रभाष्य के लेखक ) का कथन है--अपने विषयों या आश्रयो मे
सर्वत्र विद्यमान है" ।
अवे [ यदि सामान्य केवल अपने आश्रयो मे सवंतोभावेन विद्यमान हतो
बतावे कि ] पहले से विद्यमान घट मे उपस्थित सामान्य, दूसरे स्थान पर
उत्पन्न होने वाले ( घट ) से संबद्ध कर दिये जाने पर, पहले घट से निकलकर
[ दूसरे से ] संबद्ध होता है या ्रिना निक्लेही हुए ? अगर निकलकर दूसरे
से संबद्ध होता है तो [ सामान्य को] द्रव्य कठं ( क्योकि द्रव्यमें ही गण ओर
क्रिया--गमनादि--होती है )। यदि बिना माये ही संबद्ध होता है तब सम्बन्ध
ही नहीं हो सकता ( सम्बन्ध के लिए संनिकषं आवदयक है ) ।
किं च विनष्टे घटे सामान्यमवतिष्ते, षिनश्यति, स्थाना-
न्तरं गच्छति वा ? प्रथमे निराधारत्वापत्तिः । दितीये नित्यत्व-
वाचोयुक्त्ययुक्तिः । तृतीये द्रव्यत्वग्रसक्तिः। इत्यादि दृषण-
ग्रहग्रस्तत्वात्सामान्यमप्रामाणिकम् । तद्क्तम्-
§
६. अन्यत्र वतेमानस्य ततोऽन्यस्थानजन्मनि ।
तस्मादचरतः स्थानाद् वृत्तिरित्यतियुक्तता ॥
[अव फिर बतावेंकरि] घटके नष्टहो जाने पर, यह सामान्य वहीं
अवस्थित रहता है या नष्ठहो जाताहैया दूसरी जगह चला जाता है? अगर
वहीं रहता है तो बिनाआधारकेही रहेगा केसे? अगरनष्टहोजातादहैतो
उसे नित्य कहने कौ लात अयुक्त हो जाती है ( नित्यकाकभी विनाश नहीं
होता, सामान्य को न्याय-वेेविक मे नित्य माना गयादहै)। यदि तीसरा
विकल्प ( स्थानान्तरण } लेते है तो यह द्रव्य हो जायगा (गुण ओर क्रियाके
चलते )। इस तरह के दोषो के ग्रह॒ से ग्रस्त होने के कारण सामान्य को अप्रा
माणिक कहते हैँ । यह कहा भी है--"[ सामान्य | दूसरी जगह वतमान है
।
।
प्र द्ङ-्- र
बौद्ध-दशेनम् ५६
( एक घट मे घर्त्व है ) ओर उषसे भिन्न स्थान में [ घट के | उत्पन्न होने पर,
प्रथम स्थान से अचल [ सामान्य का दूसरे घट में | जाना ( वृत्ति )--ईइससे
बढ़कर ओर युक्ति क्या हो सकती है ॥'
७, यत्रासौ वतेते भावस्तेन संबध्यते न तु।
तदेशिनं च व्या्नोति किमप्येतन्महाद्भतम् ॥
८. न याति न च तत्रासीदस्ति पश्चान्न चांशवत् ।
जहाति पूर्वं नाधारमहो व्यसनसंततिः ॥ इति ।
अनुवत्तप्रत्ययः किमालम्बन इति चेत्--अङ्ग, अन्यापो-
हालम्बन एवेति संतोष्टव्यमायुष्मता, इत्यलमतिग्रसङ्गेन ।
“जहाँ पर वह भाव है उस स्थान से तो उसका सम्बन्ध नहीं है लेकिन
उस स्थान मे रहने वाले पदार्थं को व्याप्त करता है-क्यादही वह विचित्र हरय
है? ( उदाहरणार्थ, धटशूपी भाव जिस भूतल मे है उस भतल से घटत्व का
सम्बन्ध नहीं है । भृतल-देश मेँ वतमान घट को लेकिन घटत्व व्यातत करः लेता
है। जब घट को घटत्व व्याप्त करता है तो उसके आधार भूतल से तो उसका
संबन्ध ॒होनः ही चाहिए लेक्रिन एेसा क्यो नहीं है?) [ सामान्य] नतो
जाता है, न वह वहाँथाही, न वह वादमे द्ुक्डे होकर ही रहता है, न यह
अपने पहले आधार को ही छोडता--कठिनाइयों की परम्परा विचित्र है 1"
यदि आप पूष्धं कि "एक की सत्ता अनेक मे टै यह विश्वास किंस पर अव-
लम्बित दहै तो इसका उत्तर होगा-हे मित्र, आप चिरायु हो, संतोष
करं करि अन्य पदां के अपोह ( तद्-भिन्न-भिन्न ) पर ही अवलम्बित है ( यहं
घट है यह वाक्य आप कंसे मानते ह जब क्रि घटत्व सामान्य को नहीं मानते ?
यही शंका है । अपोहवाद को स्वीकार करके ही यह विश्वास होता है- यह्
घट घटेतर से भिन्न है। घटसे भिन्न जिन पदार्थोका बोध होता दहै, यह घट
उन सवो से भिन्न है । उत्तर यही है )। अव इसे अधिक बढ़ाना व्यथं है।
विरोष-आठ्वें शोक मे जाति या सामान्य के विरुद्ध आपत्तियां उठाई
गई है । सामान्य एक जगह से दूसरी जगह जाता नहीं है क्योकि क्रिया केवल
द्रव्य मे ही रहती है, सामान्य में नहीं । एेखा होने पर घटोत्पत्ति के समय उसमे
चटत्व नहीं रहेगा--यह दोष सम्भव दहै । यदि यह कर्कि मृत्पिरडमें ही
घटत्व था ओर उत्पन्न होते ही घटमें आ गया, तो यह भी ठीक नहीं
बर्योकरि घटोत्पत्ति के पूवं मृत्पिंड मे घटत्व था ही नही; वटोत्पत्ति के बादही
घट मे घटत्व सामान्य रहता है । यह भी अयुक्त है । यदि फिर भी यह् कर्हैकि
६० सबवेदशेनसंग्रहे-
| द्सरे घट में विद्यमान घटत्व बढ़कर दूसरे से संबदहो जाता है, तो उत्तर
होगा कि बादमें घटत्व दकडे होकर भी नहीं रहता । अवयव-सहित पदाथं
| कोही वृद्धिहोतीहै, घटत्व मे तो अवयव नही- तो यह बढ़ेगा केसे ? यदि
| वद्धि नहीं हो ओरफिरभी संबन्धको स्वीकार करं तो सामान्य की सत्ता
पहले नहीं रह सकती । लेकिन सी बात है नहीं, प्रत्युत बह तो पूवं आधार
को छोडता ही नहीं । यह जाति को स्वीकार करनेवालों की दोष-परम्परा है ।
|| | ( १६. दुःख आर स्वलक्षण की भावनाय )
| सर्वस्य संसारस्य टःखात्मकत्वं सर्वतीथकरसम्मतम् ।
अन्यथा तननिविव्रत्छनां तेषां तनिष्रद्युपाये प्रबृच्यनुपपत्तेः ।
॥ | तस्मात्सवं दुःखं दुःखमिति भावनीयम् ।
|| ननु वदिति पृष्टे दृष्टान्तः कथनीय इति चेत्- मेवम् ।
| स्वलक्षणानां क्षणानां क्षणिकतया सालक्षण्यामावादेतेन सदशम-
| परमिति वक्तुमशक्यत्वात् । ततः स्वलक्षणं स्वलक्षणमिति
|
|| भावनीयम् ।
। ॥ समूचे संसार को दुःखात्मक समन्षना सभौ शाख्रकारों ( आस्तिक, नास्तिक
॥| दोनों ) से सम्मतदहै। [ यदिसंसार दुःखमय] न होतो उस (दुःख) से
| ॥ बचने की इच्छा करने वाले व्यक्तियों की प्रवृत्ति दुःखों से निवृत्त होने के
। || उपायों के प्रति कंसे होगी ? यही कारणदहै कि [ बौढ लोग | यह भावना
||
||| ( विचार ) रखते है-- "सब कुछ दुःख है, दुःख है।'
|| ¦ यदि कोई पूय कि--' किसकी तरह ( यह होता है)? कोई उदाहरण तो
कहिये ।' [ तब हम उत्तर दगे कि ] रेसी बात नही, सभी पदार्थो का अपना-
।॥ |, अपना लक्षण है ( ^ 1] ५८९ ४ [€8 1 धाल8€]१९8 ) मौर वे क्षणिक
| | भी रहै । किसी साधारणा लक्षण (या समान लक्षण) के अभाव मे यह कहना
। ॥# संमव नहीं है कि इसके समान यह दूसरा है। इसलिए यह भावना रखनी
॥ | | चाहिए कि सभी पदार्थो का अपना लक्षण है, अपना लक्षण है ।
। || विरोष-बोदधों की भावना है-सवंदुःखं दुःखम् । संसार मे सब कुद ।
॥ || दुःख है । दुःख की सत्ता माननेमें सभी द्चनकार सहमत है। वस्तुतः भारतीय
। | ॥ दशन का प्रमुख अंश बंधन ओर मोक्ष काही विवेचन करता है। बन्धन का
| | अथंहै संसारके दुःखोंमे पड़ा रहना; जरा-मरण, आवागमन आदि दुःखं
ही तो है । इनसे वचना ही मृक्ति है । क्या चार्वाक ओर क्य। शंकराचायं-- सभी
बौद्ध-दशेनम् ६१
दुःख की अनिवायं ( कम-से-कम व्यावहारिक-ूप से ) सत्ता मानते है।
सांख्यकारिका की पहली कारिका मे ही कहा गया टै- |
दुःखत्रयाभिघाताजिज्ञासा तदपघातके हेतौ `
टे सापार्था चेन्नेकान्तात्यन्तोऽभावात् ॥
चारश्च यह कि दनो का मतभेद दुःख कौ प्रकृति ओर उससे बचने के उपायों
को लेकर है । दुःख की व्याख्या भगवान् बद्ध यों करते है-
“हृदं चो पन भिक्लवे, दुक्खं अरिय सच्चं । जाति पि दक्वा, जरापि दुका,
मरणम्पि दुक्खं, सोक-परिदेव -दोमनस्सुपायासापि दृक्ला, अप्पियेहि सम्पयोगो
दुक्लो, पियेहि विप्पयोगो दुवखो, यम्पिच्छं न लमति तम्पि दुक्वं, संद्यत्तेन
पठचूपादानक्लन्धापि दुक्ला ॥' अर्थात् हे भिष्षुगण, यह दुःख प्रथम आयं.
त्य है । जन्म लेना सी दुःख है, वृद्धावस्था भीदुःखदै, मरणमभी दुःख है ।
शोक, परिदेवना ( पश्वात्ताप ), उदासीनता तथा परिश्रम भो दुःख है। अप्रिय
वस्तु के साथ समागम होना दुःख है, प्रिय का वियोग भो दुःख है\ जो
इष्सित वस्तु को नहीं पाता तो वहभी दुःखदहै। संक्ेपमे ये रागद्वारा
उत्पन्न पौचों स्कन्ध ( खूप, वेदना, संज्ञा, संस्कार् तथा विज्ञान ) भी दुःख दै,
बुद्ध का करना है कि हंसौ ओर आनन्द कैसे हो जव यह भव-रूपौ भवन
नित्य जल रहा है? (को नु हासो किमानन्दो निच्चं पजलिते सति ।
धम्मपद, १४६ ) ।
बौद्धो की द्सरी भावना है--सवं स्वलक्षणं स्वलक्षण । क्षणिक होने के
कारणा सभी पदार्थो का अपना-अपना लक्षण य] असाधारण लक्षण है ।
सामान्य कोये मानते नहीं जिससे उन क्षणिक पदार्थो को भी किसी समान-
घर्म द्वारा लक्षण का विषय ( लक्ष्य ) बनाकर साधारण लक्षण दे सकं ।
वस्तुओं के स्वलक्षण होने के कारणा दो पदार्थो मे सादृश्य नहीं दिखलाया जा
सकता । इस पर अंगुलियों का दृष्टान्त दिया गया है जो कमी समान नहीं होती--
एतासु पञ्चस्ववमासिनीषु प्रत्यक्षवोधे स्फ़टमङ्गुलीषु ।
साधारणं रूपमवेक्षते यः श्यं शिरस्यात्मन ईक्षते सः ॥
यही नहीं, समी पदार्थो के क्षिक होने के कारणज्ञाताभी तोदो क्षण नहीं
ठहर सकता । कोई भी ज्ञाता वाधारण-धमं को जानकर यह घट है" इस प्रकार
का घट-रूप पदार्थं नहीं जान सकता ।
( १७. शुन्य कौ भावना--माध्यमिक-सम्प्रदाय )
एवं शल्यं श्ल्यमित्यपि भावनीयम् । स्वप्ने जागरणे च
= अवा दषटमिदं रजतादीति विशिष्टनिषेधस्योपलम्भात् । यदि
६२ सवदशेनसंग्रहे-
। ~ इष्टं सत्तदा तद्विशिष्टस्य दशेनस्येदंताया अधिष्ठानस्य च तस्मि-
न्नध्यस्तस्य रजतत्वादेस्तत्संबन्धस्य च समवायदेः सं स्यात् ।
न चैतदिष्टं कस्यचिद्वादिनः । न चाधेजरतीयञ्ुचितम् । न हि
। | कुक्ट्या एको भागः पाकायापरो भागः प्रसवाय करप्य-
| तामिति कर्ष्यते ।
॥ | उसी प्रकार यह भावना भी करनी चाहिए कि सब कुद शून्य है। स्वप्न
॥ ^ मेयाजागरणकी दक्ामें भी मने यह् रजतादि ( चाँदी आदि ) नहीं देवा-
| | इस तरह एक विशेष प्रकार के निषेध की प्राप्ति होती है। जो कुछ दिखलाई
|| | पड़े वह यदि सत् हो तो उससे संबद्ध दशन की इसरूपमें उसके ( इदता के )
: आधारकी (जैसे शुक्तिकी), उस पर आरोपित रजतत्व आदि की तथा
; | | । उन दोनों ( रजत ओर शुक्ति) के समवाय ( नित्य सम्बन्ध जेसे गन्ध ओर
| पृथिवी में ) आदि सम्बन्ध की भी सत्ताहो जायगी । लेकिन यह किसी भी
॥ वादी ( विपक्षी, शालखार्थी ) को अभीष्ट नहीं है। लेकिन अर्धंजरतीय-सत्ता
(आधामें एक, आधा में दूसरी ) ठीक नहीं । पूरणी काएक भाग पचाने
के लिए, दूसरा भाग अण्डे देने के लिए छोड द" देषी कल्पना भी नहीं
की जा सकती ।
। विरोष-शून्य की भावना नागाजुंन ने उठाई है जिन्होने शूम्यवाद या
। ¢ |` माध्यमिक सम्प्रदाय की स्थापनाको दहै। यद्यपि प्रज्ञापारमिता, रन्नकरणड
| ॥। आदि प्राचीन सूत्रोमे भी शृन्यका विचार है किन्तु उसे सिद्धान्तका रूप
। || देकर सप्रमाणा विवेचन करने का सारा श्रेय नागाजुंनको हीदै। इन्होने
| । ॥ | अपनी माघ्यमिक-कारिका मे शुन्यवाद का पारिडत्यपूरवंक विश्लेषण किया है
।@ | ( समय २०० ई० )। इसके अन्य आचायं है आयंदेव ( नागाजैनिष्य
२०० ई०, कृतियाँ - चतुःशतक, चित्तविशुद्धिप्रकरण आदि ), बुद्धपालित
(मा० का० की व्याख्या, भ्वी शताब्दी ), भावविवेक (संस्कृत मेँ इनके
ग्रन्थ अप्राप्य, मा० काऽ व्याख्या, मघ्यमाथंसंग्रह, करमणि ), चन्द्रकीति
( षष्शती, माघ्यमिकावक्तार, प्रसन्नपदा = मा० का० व्याख्या, चतुःशतक टीका),
तान्तिदेव ( नालन्दा के जयदेव के शिष्य, बोधिचर्यावतार, ७वीं शती ),
हा(न्तरक्चित ( नालन्दा के प्रवान्, तिब्बतयात्रा करके वहां सम्मे विहार कौ
७४९ ई० में स्थापना, तस्पसंग्रह ) ।
इसकी स्थापना-सीपी (युक्ति) में ्चादीके भ्रमसे कोई उसके पास
गयां किन्तु चाँदी नहीं देख सका । अव एक निषेध कौ प्राप्ति हो गई -मेने
बौद्ध-दशेनम् ६३
स्वप्न या जागरण में चाँदी नहीं देखी । यहाँ पर "नही" ( नन् ) का सम्बन्ध
कारक आदिसे मिली हई क्रियाके साथ है । इसलिए यहाँ पर त्रिविधाटमक
निषेध प्रात हृजआ--दर्थेन क्रिया का, उसके कर्ता देखनेवाले का, उसके कमं
हृदय वस्तु का । यही नहीं, दूषरे ख्पमे धर्मी, धमं ओर उनके संबन्ध का भी
निवेध हो जाता है। धर्मी सीपी दै, उसका धमं ( इदं रजतम् मे इदंताका
आधार ) रजतत्व है,--दोनों के निषेध से रजतत्व के समान ही शुक्ति-आदि
( दोनों के संम्बन्ध आदि) कामी निषेध हो जाता है जिससे शुन्यवाद में
सहायता मिलती है
दरे दार्शनिक जैसे नयायिक-आदि पूरे का निषेध नहीं करते, कहीं
विशेषणा का निषेध होता है, कहीं क्रिया का । अन्धकार मे मैने घड़ा नहीं
देला"_ इसमे केवल दर्चनक्रिया का निषेध दहै,न कि द्ष्टाया अंधकार या
घडे का । “वैरो से जाता है, रथ से नहीं जाता"-- इसमें प्रधानभूत गमनक्रिया
का भी निवेध नहीं है। विधि ओौर प्रतिषेव विशेषण पर ही लगते ह यदि
विरेष्य कौ बाधा हो- इसलिए केवल रथ का ही निषेष है । यून्यवादिो को
यह ठीक नहीं जंचता । आघा निषेध जओौर आधा विधि-यह् क्या तमाशा है?
विधान हो तो सबं का, निषेध हो तो सवो का, लेकिन विरोषी लोग तो मानेगे
ही नहीं । अर्धंजरतीय-च्याय ( आधा बढा, आधा जवन ) हो नहीं सकता ।
शून्यवाद में सो का निषेव होता है ।
तस्मादध्यस्ताधिष्ठान-तत्संबन्ध-दशेन रष्टृणां मध्य एकस्या-
नेकस्य वा असे निषेधविषयत्वेन सवेस्यासचं बलादापतेदिति
भगवतोपदिषे “माध्यमिकाः तावदुत्तमप्रज्ञा इत्थमचीकथन्--
मिक्षपादप्रसारणन्यायेन, क्षणभङ्गाद्यमिधानगुखेन, स्थायितवा-
©
नकूलेदनीयत्वाुगतत्व-सर्वसत्यत्व-म्रमव्यावतेनेन स्ेशून्यता-
यामेव पर्यवसानम् । अतस्तत्वं सदसद् मयानुभयात्मकचतुष्को-
टिविनिभुक्तं शुन्यमेव । ं
इसलिए, ( १ ) आरोपित वस्तु ( रजतत्व ) के अधिष्ठान ( आधार, जसे
सीषी ), ( २) उनके सम्बन्ध, (३) दर्शंन-क्रिया ओौर (४) द्रष्टा इनके
बीच एक के या अनेक के असत् होने से, निषेध का विषय होकर सबोंकी
अ-सत्ता बलात् ( जबरदस्ती ) आ जाती है। इस प्रकार भगवान् बुद्ध के उपदेश
देते पर उत्तम बुद्धिवाले माध्यमिको ने एेसा कहा--भि्युभों के पर फलाने की
तरह ८ मन्थर-गति से ), क्षणभंग इत्यादि शब्दो के कह्ने से तथा स्थायित्व
= >> ५4 = + क्ण "= ॐ
= न = ~
==, ° = च्यु अ
५
ऋ नग ण 3 ~ - गहः र वं
६४ सर्वदशनसंमरदे-
( स्थिर होना ), अनुक्रूल वेदना होना, उपस्थित होना ( सामान्य ), सब सत्य
होना--इन भ्रमं को हटाने से [ बुद्धके वचनोंका | यही असिप्रायहै कि
सब कुच शून्य । इसलिए तरव ( दशंन का मूल पदाथं ) चृन्य ही हैजो इन
चार कोटियो से नितान्त मुक्त है--( १) सत्, ( २ ) असत्, ( ३ ) उभयात्मक
( ४ ) अनुभयातमक । [ अभिप्राय यहं है कि श्य उसे कहते है जोसत् भी
नहीं हो, न असत् हो, न सदसत् हो, न सदसतु से भिन्न ही हो । यन्य एक
अनिवंचनीय तस्व है जिसका केवल ज्ञान ही है]
विरोष - माग्यमिकों का अनिर्वचनीय शृन्य-तच्व अद्रैतवेदाम्तियों के अदैत-
तस्व से मिलता है । विवेकचूडामणि मे माया के विषय में लिखा गया ह-
सत्राप्यसन्नाप्युमयात्मिका नो भिन्नाप्यभिन्नाप्युमयात्मिका नो ।
साङ्खाप्यनङ्गाप्युभयात्मिका नो महाद्भुताऽनिवंचनीयरूपा ॥।
मायावादमे ेसे ही शब्दों का प्रयोग करने के कारण शंकराचायं को
उनके विरोधियों ने श्रच्छन्ननोद्ध' तक कह दिया है । इसके अलावे बुद्धको भो
लोगों ने अद्रयवादी, बअद्रैती आदि विशेषण दिये ह । वस्तुतः, शुन्यवाद ओर
अद्रितवाद म मौलिक अन्तर होते हृए भी इतना साम्य हैकरि विद्वानोंकोभी
चकित रह जाना पडत। है ।
तथा हि- यदि घटादेः सखं स्वभावस्तदहिं कारकव्यापारः
वैयर्थ्यम् । असच स्वभाव इति पके प्राचीन एव दोषः प्रादुः-
ष्यात् । यथोक्तम्-
९, न सतः कारणापेक्षा व्योमादेरिव युज्यते ।
कायस्यासंभवी हेतुः खपुष्पादेरिवासतः ॥ इति ।
जैसे ( इसका विश्लेषण करने पर )- यदि घटादि का स्वभाव सतु होना
है तब तो इसके बनाने वाले की वेषाय व्यथं ही होंगी । ( घट सत् ही है तो
इसे बनाना क्या ? ) यदि "स्वभाव असत् होना है" यहं पक्ष लेते है तो वही
पुराना दोष इसे धेर लेगा । ( यदि घट असत् है तो क्या कुम्भकार इसे कभी
बना सकता? किसीभी दशामें कारकया निर्माता की आवश्यकता नही)
उसकी स्थिति सन्दिग्ध हो जाती है- नासतो विद्यते भावो नाभावो विद्यते
सतः। गीता २।१६ ) । जेसा कि कहा गया है--'आकाश आदि की तरह
सत् वस्तु के कारण की आवश्यकता ठीक नहीं लगती ओौर दूसरी ओर, जाकाश-
कुसुम की तरह असत् कायं का हतु ( कारणा ) भी असम्भव है ।
बौद्ध-दशेनम् | ६५
विरोष शून्यवाद चकि चार कोटियो से विनिर्मुक्त है इसलिए प्रस्तुत
संदभं में प्रथम दो कोटियो का खरएडन किया गया है । तदनुसार घट न सत् है
जौर न असत् । पिछली दो कोटियो ( उभयात्मक ओर अनुभयात्मक ) का
खरडन अब किया जायगा ।
विरोधादितरो पक्षावनुपपन्नो । तदुक्तं भगवता लङ्ावतारे-
१०, बुद्धया विविच्यमानानां स्वभावो नावधायंते ।
अतो निरभिरप्यास्ते निःस्वभावाश्च दरिताः ॥ इति ।
११. इदं वस्तु बलायातं यद्रदन्ति बिपधितः।
विक्नीयन्ते
यथा यथाथािन्त्यन्ते वियन्ते तथा तथा ॥ इति च।
न चिदपि पक्षे व्यवतिष्ठत इत्यथः ।
बाद के दोनों पक्ष ( सतु असत् दोनों होना, सत् असत् दोनोंमे एक मभी
न होना ) स्वयं ही विरोषी है इसलिए [ बिना प्रयास केही ] असिद्ध हो जाते
है । भगवान् ने जसा कि लंकावतार सूत्र! में कहा है--जिन पदार्थो का विवेचन
वद्धि से होता है, उनके स्वभाव का निरंय नहीं होता । इसलिए वे ( पदा )
अनिवचनीय तथा स्वभावहोन दिखलाये गये हँ ।' ओर भी--“यह वस्तु बलात्
उत्पन्न हई है, यह विद्वान् लोग बोलते हँ । जैसे -जेसे पदार्थो का चिन्तन होता
है वेसे-वेसेहीवेनष्टहो जाते ह!" अभिप्राय यहहैकि पदाथंको किसी भी
पक्ष ( कोटि ) में रहने की व्यवस्था नहीं दी जा सकती ।
दृष्टाथेव्यवहारश्च स्वस्रव्यवहारवत्संवृत्या संगच्छते । अत
एवोक्तम्-
१२. परिवराट्-काणुक-शुनामेकस्यां प्रमदातनौ ।
कुणपः कामिनी भक्ष्य इति तिस्रो विकर्पनाः ॥ इति ।
तदेवं भावनाचतुष्टयवशाननिखिलवासनानिवृत्तौ परनि्बाणं
शून्यरूपं सेत्स्यतीति वयं ताथः, नास्माकुपदेश्यं
किंचिदस्तीति ।
=-= = =-= ¬ र ~^
च = ऋ 11 =
~~~ ~ ---- - ~~~ -
१-लंकावतारःसूत्र विज्ञानवादके सिद्धान्तो का प्रतिपादन करनेवाला
संस्कृत ग्रन्थ है । कुल १० परिच्छेद है । प्रथम परिच्छेद में ग्रंथ की रचनाके
कारणों का वंन है जिसमें कहा है करि बुद्धने लंकामें जाकर रावण कोये
चिक्षाय दी थीं । इसीलिए प्रथ का नाम लंकावतार-सूत्र है ।
सण स
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$ १5 । द क =
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६& सवेदशेनसंग्रदे-
, :: देखी जानेवाली वस्तुओं का व्यवहार स्वप्नच्यवहार के समान अविय्ा
( यां कल्पना } से चलता है। ( सबो को शून्य मानने के बाद दह्यमान जगत्
स्वप्रव्यवहारवत् कल्पना दै । ठीक इसी प्रकार शंकर को अनिवंचनीय ब्रह्य मान
लेने पर संसार की व्याख्या के लिए माया-शक्ति ओर व्यावहारिक-सत्ता माननी
पडती है ) । इसलिए कहा टै "एक खरी-शरीर मे संन्यासी, कामी ओर कुत्ते की
तीन विभिन्न कल्पनायें होती दै कि यह अस्थिपंजर है, कामिनीदहियाखानेकी
चीज है ।' ( इसी तरह संसार मे लोगो के विकल्प ह) । |
तो इसी प्रकार चारों भावनाओं ( क्षणिक, दुःख, स्वलक्षण, शून्य ) के
वश, सारी वासनाभों के निवृत्त हो जाने पर, शून्य के रूप में परम ( अंतिम )
निर्वाणा ( मोक्ष ) मिल जायगा---इस तरह हमारा काम समाति हो गया, अब
हमे किसी उपदे की आवश्यकता नहीं । | उप्यक्त उक्तियां आचार्यो कीदहैजो
स्वयं निर्वाणा पाकर ८( हीनयानी होकर ) निवृत्त हो गये । अब शिष्यो के मुक्त
होने की भी विधि बतलाई जायगी । | | |
चिष्यैस्तावद्योगश्चाचारश्रेति दयं करणीयम् तत्राप्रापतस्या-
८ 3 &ः ह
थस्य प्राप्ये पयेनुयोगो योगः । गुरुक्तस्याथस्याङ्गकरणमा-
चारः । गुरुक्तस्याङ्गीकरणादुत्तमाः, पयडुयोगस्याकरणादध-
माश्च । अतस्तेषां माध्यमिका इति प्रसिद्धिः ॥
अब शिष्योंकोदो काम करना है--योग ओर आचार । उनमें अप्राप्त ज्ञान
की प्रात्तिके लिए प्रश्न करना योग कहलाता है। गुरुकी कही हई बातो को
स्वीकार करना आचार कहलाता है । गुर की कही बातों को अंगीकृत करने-
वले ये ( बौद्ध ) उत्तम) दूसरी ओर, ये प्रक्र नहीं करने के कारण अधम
भी है, इसलिए इनकी भाभ्यमिक के रूप मे विशेष स्याति दै । ।
विद्तोष-माधवाचायं माध्यमिक नाम पडने का एक विचित्र कारण देते
ह) चकि ये उत्तम ओर अधम दोनों ह इसलिए माध्यमिक ( बीचवाला एक
तीसरा संप्रदाय ) कहनाते है । किन्तु वस्तुस्थिति दूसरो है । एतिहासिक दृष्ट
से बुद्ध के मध्यम-मागं ( मोगं ओर तपस्याके बीचका मार्गं) का प्रतिपादन
करने से ये माध्यमिक हुए । तत्पश्चात्, तच्व-विवेचन की दृष्ट से शश्वतवाद
ओर उच्ेदवाद की ेकान्तिकं विचारधारां को छोड़कर इन्दोने मध्य पथ का
आलम्बन लिया । दाश्वतवाद वह सिद्धान्त है जिसके अनुसार आत्मा ओर
चरलोक भी नित्य है। दीघनिकाय में ६२ मतवादों में इसका उद्ञेख टै। दूसरी
ओर, उच्छैदवाद अजितकेशकम्बल का मत था जिसमे मृत्यु के अनन्तर जास्मा
कौ सत्ता में विश्वास नटीं किया जाता ।. पृथिवी आदि चार तच्वोंसे बना हुआ
बौद्ध-दशनम् ६७
शरीर मरने के बाद इन्हीं त्वो में विलीन हो जाता है, ` कुछ भी नहीं बचता ।
इसके अलवे शृन्यवाद की स्थापना सत् भौर असत् के मध्य-बिन्दु पर ही हुई
है इसलिए भी इस सम्प्रदाय को माध्यमिक कहते हँ ।
( १८. योगाचार-मत--विज्ञानवाद् )
(1 ॥ ¢ ॐ |
गुरूक्तं भावनाचतुष्टयं बाद्याथेस्य शून्यत्वं चाङ्गीकृत्या-
। । कै ¢
न्तरस्य शुन्यत्वं चाङ्खीकृतं कथमिति पयेनुयोगस्य करणात्
केषाचिद्योगाचारप्रथा । एषा हि तेषां परिभाषा--स्वयंवेदनं
तावदङ्गीका्य॑म् । अन्यथा जगदान्ध्यं प्रसज्येत । तकीतितं
धमेकीर्तिना-
अप्रत्यक्षोपलम्भस्य नाथेदृष्टिः प्रसिध्यति । इति ।
दूसरे कुश्च ( बौद्धो ) को योगाचार के नाम से पुकारते है क्योकि आध्या-
त्मिक गुरुभं की बताई हुई चारों भावनाओं ओर बाह्य-पदार्थो कौ शून्यता का
अंगीकरण ( आचार ) करके पुनः यह प्रश्न (योग) भी करते है करि आन्तरिक-
पदार्थो ( जैसे- चित्तादि ) की शन्यता क्यों स्वीकार करते है? चरंकि उनकी
यह परिभाषा ( सिद्धान्त ) है--कम-से-कम अपना ज्ञान ( स्वयंवेदन 96]
3083611४ {६7016406 ) तो स्वीकार करं, नहीं तो एेसा प्रसंग हो
जायगा कि समूचे संसार को अन्धा मानना पडेगा ( यदि अपना ज्ञान या ज्ञाता
काज्ञान भी शृन्यहीहो तो जाननेवाला कौन रहेगा? ज्ञाताके अभावमें
पूरा संसारही अन्धादहै, किसीको कृच भी नहीं सुक्षता--अन्तर-बाह्य समी
तो शून्य है । इसीलिए योगाचार-मत में बाह्य-पदाथं शुन्य है, आन्तर सत्य ) ।
एेषाही धर्म॑कीति ने कहा भीहै--नजो प्रत्यक्ष को भी नहीं मानता,
पदार्थो की दृष्टि भी उसकी ठीक नहीं है । ( धर्म॑कीति के कथन का
अमिप्रायदहै करि जिस वृद्धिसे हम पदार्थोका ज्ञान पतिरहं उसे तो मानना
होगा, उसे शून्य मानने पर पदार्थो के विचार की शक्ति करट से आवेगो ? यहां
पर प्रत्यक्ष का अभिप्राय है बुद्धि की क्षमता, ज्ञाता का ज्ञान, स्वसंवेदन इत्यादि ।
प्रसिदडचति=सामथ्यं है ) ।
विशेष-योगाचार का दसरा नाम विज्ञानवाद है । इसका जन्म शृन्यवाद
की प्रतिक्रिया के फलस्वलूप हआ था। माध्यमिको के अनुसार समस्त संसार
असत्य प्रतीत होता है किन्तु इनका कहना है कि जिस बृद्धिसे यह प्रतीत
सर्वंदशंनसंम्रहे- च
- शनसंम्रहे-
होता है उसे तो सत्य माने । अतएव बुद्धि, चित्त, मन मा विज्ञान ही एकमात्र
सत्य पदार्थं है । विज्ञान को मानने से ही इसका नाम विज्ञानवाद है। अपेक्षाकृत
इस मत का प्रचार देश-विदेश मे अधिक हा तथा इसी सम्प्रदाय ते तेयायिकों
से लड्कर बौद्ध न्याय का जन्म दिया। बौदन्यायका अ थं है योगाचार-
सम्प्रदाय के ग्रन्थ । लंकावतार-सूत्र इस सम्प्रदाय का बहत प्रामाणिक प्रय है
जो मूल संसृत में दस परिच्छेदो मे है ।
इस सम्प्रदाय के प्रमुख आच्ायं है- मेजेयनाथ (मूल संस्छेत में कई
र्थ अप्राप्य, केवल 'अभिसमयालंकारिका' = परिच्छेदं में प्राप}, आये असंग
( ैत्रेयलिष्य, ४थी शती, तिर्या- महायानसंपरिग्रह, योगाचारभूमिशाख,
महायान-सूत्रालंकार ), वसुबन्धु ( असंग के छोटे भाई, पहले वैभाषिक बाद
मे भाईके संपकंसे विज्ञानवादी, क०- सद्धम॑पुंडरीकटीका, महापरिनिर्वाण-
सूत्रटीका, वजच्छेदिकाभ्रज्ञापारमिता टीका, विज्ञप्तिमात्रतासिद्धि--विशिका ओौर
त्रिशिका दो संस्करण ), स्थिरमति ( वसुबन्धु के शिष्य, उनके सभी ग्रंथों पर
टीका ओौर भाष्य ), दिङ्नाग ( कांची के ब्राह्मण, वसुबन्धु के शिष्य, भ५वीं
शती, तान्त्रिक, शाख्रार्थो, कृतिर्यां--प्रमाण-समुचय तचा उसकी वृत्ति, आलंबन-
परीक्षा, हेतुचक्रनि॑य, त्रिकालपरीक्षा, त्यायप्रदेश- केवल यही प्रथ संस्कृत
म पूरा प्राप्त । धरोर नैयानिक, गौतम ओौर वात्स्यायन का खंडन, उद्योतकर
दवारा न्यायवातिक मे स्वयं खंडित, बौद्ध न्याय के प्रतिष्टठापक ), हाकरस्वामी
( दिडनाग के शिष्य ), घर्मपाल ( नालन्दा बिहार के कुलपति, दीलभद्र के
गुर, बौध ग्रन्थों कौ टकायं }, धमेकीतिं ( कुमारिल के समकालिक, इत्सिग
दवारा उज्ञेख, ध्म॑पल के शिष्य ६२५ ई०, प्रचंड ताकिक, कृतिर्यां-प्रमाण-
वातिक, प्रमाणविनिश्वय, न्यायबिन्दु, सम्बन्वपरीक्षा, हितुबिन्दु, वादन्याय,
सन्तानान्तरसिद्धि ) ।
( १९. बाह्य पदाथे का खण्डन )
बाह्यं ग्रा्यं नोपपद्यत एव । विकस्पानुपपत्तेः । अर्था
जञानग्रा्यो भवसर्पननो भवति अनुत्पन्नो वा १ न पूवैः, उत्पन्नस्य
स्थित्यभावात् । नापरः, अनुत्पन्नस्यासच्वात् । अथ मन्येथाः--
अतीत एवार्थो ज्ञानग्राह्यस्तजननकत्वादिति' तदपि बारुभाषितम् ।
वर्त॑मानतावभारुविरोधात् । इन्द्रियादेरपि ज्ञानजनकत्वेन ग्राह्य
त्वभ्रसङ्गाच । |
#
`
बौद्ध-दशेनप्ं ६६
[ माघ्यमिकों की तरहं यह तौ हम मनतेही दै क्रि] बोद्यम्राद्य
( प्रत्यक्षोकरणीय, सत्य ) केलूप में सिद्धनहींही होतां ( -बाह्यं पदोर्थं कौं
असत् तो हम भी मानतेर्है)। कारणा यहदहैकि इसके विषयमे दिये गये
दोनों विकल्प असिंदधहो जतेर्है। वेह घटादि] षदा ज्ञेनंके दारं
ग्राह्यहै, [ तो हम पृक्ते है किं | वह उत्पन्न होने के वाद ज्ञानं ग्राह्य हीत है
या बिना उल्यन्न हुए ही ? उत्पन्न होने के वाद वह ज्ञानग्राह्य हो नहीं सकतीं
( शन्द॑शः--पहेलो विकल्प ठीक नहीं ) क्योकि उत्पन्न पदाथं की स्थितिं नही
हो सकती ( कईं भौ वस्तु उत्पन्न हने पर एक क्षण ही ठहर सकती है दूसरे
कषणा मे उसका विनाश हौ जाता है । उत्पत्ति वाले क्षण में तो ज्ञानं द्वारा वहं
ग्राह्य नहीं है क्योकि पदार्थं की सत्ताका कारणज्ञानदहीहै। कार्ण कां के पूर्व
होता है इसलिए ज्ञान अथं के पहले रहना चाहिए । ज्ञानं से ग्रहणं कंरते-
करते तो अथंनष्टहो जातादटै तो केसे बाह्यां ज्ञानग्राह्य होगे?) दसरा
विकल्प भी संभव नहीं ( बिना उत्पन्न हुए कोई पदाथं ज्ञनग्राह्महोही नहीं
सकता ) क्योकि बिना उत्पन्न हुए किसी वस्तु की सत्ताही नहींहोगी (ओर
इस दशा में हमारा सिदधान्त--बाह्या्थशुन्यत्ववाद--खरा ही उतरता है ) ।
फिर भी यदि यह मानतेहौीकि भूतक्रालिक पदार्थंहीज्ञाने कै द्वारो भ्राह्य
है क्योकि उसे ( ज्ञानं कौ ) उत्पन्न करते है तो यह भी मू्वों की-सीवातहौो
जायगी । ( अभिप्राय यहदहैकिं ज्ञानेकालमें अथं भलेही विद्यमानन दहो
किन्तु जञानोत्पादन के सम्बन्ध से तो ज्ञानग्राह्य ही सकता है।) कारण यहद
कि ठेसा मानने पर वस्तुओं के वतंमान कालमें प्रतीति का विरोध हौ जायगा ।
( यदि भूतकःलमें ही पदाथं ज्ञानग्राह्य. होते है तो वतंमान में उनकी प्रतीति
केसे संभव है?) दूसरी आपत्ति यहटहै कि इन्द्रियां भी [चकि ज्ञनका
साधन है इसलिए वे ] ज्ञान उत्पन्न करके ग्राह्य बन जायेगी (अथं यहटैकि
जब ज्ञान के उत्पादन-सम्बन्धसेही कोई वस्तु ग्राह्यहोती है तब तो इन्द्रिय
आदि जो अप्रत्यक्ष ह इनकाभी ग्रहण होने लगेगा । इससे वि्युंलता
आ जायगी) ।
किं च, ग्राह्यः किं परमाणुरूपोऽर्थोऽवयविरूपो वा। न
चरमः, दस्त्नेकदेशविकरपादिना तन्निराकरणात् । नं प्रथमः अती-
न्द्रियत्वात् । षट्केन युगपद्योगस्य बाधकत्वाच । यथोक्तम्-
१३. षट्केन युगपद्योगात्परमाणोः षडंशता ।
तेषामंप्येकदेशत्वे पिण्डः स्यादणुमात्रकः । इति ।
७० सबदर्शनसंग्रहे-
[ हम फिर पृते ह कि ] यह ग्राह्य अथं परमाणु (800) ) के रूप में है
या अंग-प्रत्यंग से युक्त कोई शरीरी है ? दूसरा ( शरीरधारी का ) विकल्प नहीं
सकता क्योकि पूरेमे ग्राह्य है याएक भागे इसप्रकार के विकल्पादि
लगाकर उसका निराकरण कर सकते है । ( अवयवी के रूप में घटादि कत्ल
था पूर्णरूप मे ज्ञानग्राह्य है किं उसका एक भाग ज्ञानग्राह्य होता है ? पहल
विकल्प संभव नहीं क्योकि पूर्णरूप का इन्द्रिय से संबन्ध हो नहीं सकता । दूसरा
विकल्प भी असंभव है . क्योकि एक भाग को हम घट नहीं कह सकते तो फिर
अवयवी चटादि ज्ञानग्राह्य कैसे होगा ? ) पहला विकल्प (परमाणु के रूपमे
ग्राह्य होना }) भी कठिन है क्योकि परमाणु का ग्रहण इन्द्रियों से होता ही
नहीं । दूसरे, छह ( दिशाओं ) के साथ उसके एक साथ योगहोनेमें बाधा
प्ुचती है । ( छह दिशाय ह पूवं, दक्षिण, पश्चिम, उत्तर, ऊपर ओौर नीचे ।
परमाणु हक निरवयव है इसलिए इन चहो के साय परमाणु का एक साथ
( युगपत् ) संबन्ध नहीं हौ सकता । यदि होता है तो परमाणु अवयव-हीन कंसे
होगा ? यही षट्क परमार के अवयवहीन होने में बाघक है । )
जैसा कि कहा भी गया है--'छह ( दिशाओं ) के साथ युगपत् ( सम-
कालिक ) योग होने से परमाणु के छह तल ( अंश, भाग ) सिद्ध होते ह ( जेसे
परमाणु का ऊपरी भाग, पश्चिमी भाग, दक्षिणी भाग आदि )। गोर इन्हे
एक-एक भाग करके लिया जाय तो अणु के आकार का कोई भी पिरड ( ठेस
पदार्थं ) बन सकता है!" ( इस प्रकार ग्राह्यता के अभाव मे परमाणु असत् है,
यह अवयवहीन नहीं ) ।
( २०. बुद्धि का स्वयं प्रकारित होना )
तस्मार्स्वव्यतिरिक्तग्ादयविरहात्तदात्मिका बुद्धिः स्वयमेव
स्वात्मरूपप्रकाशिका प्रकाशवदिति सिद्धम् । तदुक्तम्--
१४. नान्योऽनुमाव्यो बुद्ध यास्ति तस्या नानुभवोऽपरः ।
्राहय्ाहकवैधु्यात्स्वयं सेव प्रकाशते ॥ इति ।
आहग्राहकयोरभेदश्ालुमातव्यः । यद्वे्यते येन वेदनेन,
तत्ततो न भिद्यते यथा ज्ञानेनात्मा । वे्यन्ते तेश्च नीलादयः ।
इसलिए, दूकि बुद्धि को अपने अतिरिक्त कोई दूसरा ब्राह्य नहीं अतः उन
विषयों के स्वरूप में रहने वाली वह वृद्धि स्वयं हौ, प्रकाश की तरह अपने रूप
को प्रकाशित करनेवाली है- यह सिद्ध हा । सा कहा भी है--बुद्धिके
वौद्ध-दशेनम् ७९१.
दारा ग्राह्य ( अनुभव करने योग्य ) दूरा कोई पदार्थं नहीं (बुद्धिके द्वारा
स्वयं वुद्धि ही ग्राह्य, दूसरी चीजें नहीं; बुद्धि किभी दूषरे पदाथं को विषय नहीं
बनाती ) 1 न तो उससे बहकर कोई अनुभव ही है! [ इसलिए वुद्धि के अलावे
बाहर ] किसी मी ग्राह्य ओर ग्राहक के अभावके कारणा वह अपने-आपही
प्रकादित होती है” ( प्रकाश तो अपने-आप को प्रकाशित करके संसार के
अन्य पदार्थो को भी प्रकाशित करता है किन्तु वृद्धि केवल अपने को प्रकाशित
करती है, बाह्य अर्थो को नहीं । )
ग्राह्य ओर प्राहकमे भेद नहीं हे- यह अनुमान कर लं । जिस वेदन
( ज्ञान ) से जिसको जना जाता ह, वह उससे भिन्न नहीं है ( ज्ञान ओर
्ञातवस्तु मे अन्तर नहीं है ) जसे ज्ञान से आत्मा [ पृथक् नही है] (ज्ञानसे
आत्मा को जानते है इसलिए वहां अत्मा ओौर ज्ञान एक ही है -अटेत-
वेदान्तियों का अनुसरण करके यह् टष्टान्त लिया गयादहै)) उनज्ञानोंसे
ही नीलादि पदार्थो को जाना जाता ह। ( क्षणिक पदार्थोका ज्ञान भी उसी
से होता है) ।
मेदे हि सति अधुना अनेनाथेस्य संम्बन्धित्वं न स्यात् ।
तादात्म्यस्य नियमहेतोरभावात् । तदतपत्तरनियामकत्वात् ।
यश्चायं ्रद्यभ्राहकसंवित्तीनां परथगवभसः स एकस्मिशवन्द्रमसि
द्वितवावभास इव भ्रमः । अत्राप्यनादिरविच्छिननप्रवाहा भेदवास-
नेव निमित्तम् । यथोक्तम्--
१८५. सहोपलम्भनियमादमेद नीरतद्वियोः ।
भेदश्च आ्रान्तिविन्नानैरैश्येतेन्दाविवादये ॥ इति ।
१६. अविभागोऽपि बुद्धयारमा विपर्यीसितदशषेनेः ।
्राद्यग्राहकसंवित्तिमेदवानिव लक्ष्यते ॥ इति च ।
( स सि० सं° पृ० १२ )
[ इस प्रकार विषय ओौर विज्ञान ने अभेद दिवलाकर, भेद होने पर आपत्ति
दिललाति ह कि यदि विषय ओौर विज्ञान में | भेद माना जाय तो इस समय
ज्ञान के साथ वस्तु का कोई सम्बन्ध नहीं रहेगा क्योकि ( सम्बन्ध ] का नियम
बतलाने वाला कोई तादात्म्य ही नहीं रहेगा । [ आशय यह है कि जबज्ञान
हैतो विषय के साथ है" इस प्रकार ज्ञान के साथ अ थका नियत सम्बन्ध है।
७२् सवंदशनसं्रहे-
किन्तुं उसका मूलं है तादात्म्य वयोकिं ज्ञान ओौर सविषय-ये दोनों समानार्थंक
है । यहं तादात्म्यसम्बन्ध नहीं रह सकता यदि ज्ञान ओर विषय को पृथक्
सोन । शसं प्रकारं सम्बन्ध का नियमं असिद्ध हो जायगा । | ( इतना ह ने
वर भौ यदि मेदपक्षमे अथं कां निमित्त ज्ञान को स्वीकार करं तंब्र तो विषय
सै उत्पन्नं होनेवांली ज्ञानोत्पत्ति ही सम्बन्ध बतला सकेगी । इसलिए फिर उत्तर
देते है-- ) दूसरे, तदुत्पत्तिं ( कायकारण भाव ) भौ सम्बन्ध का नियमन
नहीं कर सकती ( एेसी बात नहीं कि घटरूपी कायंके साथ कुम्भकार, चक्र;
दश्डादि कारणों का सम्बन्ध नित्य है । निष्कषं यह् है किं तादाट्म्य या तदुत्पत्ति
किसी से भी विषय ओौर विज्ञान में भेद सिद्ध करना कठिन है ) ।
यह जो ग्राह्य ओौर ग्राहक की धारणाओं ( संवित्ति = चेतना (-01861-
0४0९७ ) कै प्रथक् होने की प्रतीति होती है वह एक चन्द्रमा मे दो (चंद्र)
होने की प्रतीति को तरह भ्रम हे। यहाँ मी श्रम का निमित्त कारण भेदकौ
वासना ( जन्मजात संस्कार ) है जिसका आदि नहीं ओौर न जिसका प्रवाह ही
कभी टटताहै। जैसाक्ि कहा गयाहै--“एक साथ प्रात्होने का [ इन
दोनों मे ] नियम है इसलिए नील ( क्षणिक पदाथं ) ओर उसके ज्ञान मे कोई
जद नहीं । भेद तो भ्रान्त ज्ञान के कारणं, एक चन्द्रम | दो चन्द्रके ] भ्रम
की तरह रष्टिगोचर होता है ।१ { नील ओर उसका ज्ञान क्रमः विषय ओौर
विज्ञान है, ये दोनों साथ देवे जतिर्है। एकके न रहने पर दूसरा रहेगा--
रेखा हो नहीं सकता । जो जिसके साथ नियमतः उपलब्च होता है वह उससे
अभिन्न है । जैसे घट मिरी से अभिन्न है उसी तरह यहां भी सममे ) 1"
ओर भी--“"यद्यपि बुद्धि की आत्मा ( = स्वरूप }) अविभक्त है, एक ही है
तथापि श्रम ( विपर्यास ) से भरी आंखों के कारण एेसा प्रतीत होता है कि
ग्राह्य ओर ग्राहक की चेतना ( ज्ञान ) से इसमे भेद बना हआ है 1" ( बुद्धिं एक
है पर अनादि भेदवासना से इस तीन मेद-ज्ञेय, ज्ञाता ओर ज्ञान-तो स्पष्
अवभासित होते है) । /
न॒ च रसवीर्॑त्रिपाकादि समानमाक्चामोदकोपाजितमोद-
कानां स्यादिति बेदिवव्यम् । वस्तुतो वेद्-बेदकाकारविधुराया
व
१ तुलनीय--सहोपलम्भनियमादभेदो नीलतद्धियोः ।
अन्यच्चेत्संविदो नीलं न तद्धासेत संविदि ॥
भासते चेत्कृतः सर्वं न भासेतेकसंविदि ।
नियामकं न सम्बन्धं परयामो नीलतद्धियोः ॥
( विवरणाप्रमेयसंग्रह, प° ७५ ) ।
# १, 1 न
च
' "न
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८" ५ (रकि -
भ -
7 | ^ नः
य, ॥ न्द
व 2 -22
बौद्ध-दशनम् ७३
अपि बुद्धेः व्यवहर्त॑परिज्ञानानुरोधेन विभिननग्ाद्यग्राहकाकार-
रूपवत्तया तिमिरादयपहताष्णां केशोण्डकनाडीज्ञानभेदवत् अनी-
दयुपप्टववासनासामथ्योत् व्यवस्थोपपत्तेः पय॑नुयोगायोगात् ।
यथोक्तम्--
१७. अवेवेदकाकारा यथां अरान्तेर्निरीक्ष्यते ।
विभक्तलक्षणमग्राह्यग्राहकाकारविष्टवा ॥
[ कुचं लोग शायद सम्षते होगे किं जब विज्ञानवादी समस्त बह्या्थं को
असत् कै रूपमे एक समान मानते है तब तो काल्पनिक वास्तविक पदाथं में
भी कच्छ अन्तर नहीं मानते होगे । विरोधियों को इस छंका को आशा विज्ञान्-
वादियों ने पहले से कीथी ओौर इसलिएवे कहते है] एसा न समञ्ष किं
काल्पनिक मिठाई ( आश्ञामोदक ) ओर वास्तविक मिठाई ( उपाजित मोदक )
दोनो के खने पर रसं, वीयं, विपाक ( पचना ) आदि एकहीतरहके होगे
( आशामोदकं की तरह ही उपांजित मोदकं भी कंल्पनामय है ओर दोनों के
खनि का समान फलं होगा-ठेसी बात नहीं है)।
आप इस तरह का प्रश्च ( पयनयोग ) नहीं कर सकते है । वास्तविकता यहं
है कि बुद्धि भले ही ज्ञेय (वेद्य) ओौर ज्ञाना ( वेदक ) के रूपों से बिल्कुल पृथक्
( विधुर } हो तथापि प्रयोग करनेवालो ( व्यवहर्ता) के ज्ञाने का अनुरोध यही
है (किबुद्धिके ज्ञाताजेय रूपसे मेदर्है भै घटं जानता ह इसमें भ"
ज्ञाता भौर वट" ज्ञेय है)। यहीकारणारहैकि [ यद्यपि वृद्धिनतोज्ञात्राकार
है, न ज्ञानाकार ओौर न ज्ञेयाकार फिरभी] ग्राह्य-प्राहक के आकार में विभिन्न
खूप धारण कर लेती है । यह् व्यवस्था ( मेद-दश्ा ) एक अनादि मिथ्या ज्ञान-
विषयक वासना ( चित्तम जमी हई भावना) की शक्ति के कारण है
( = मिथ्याज्ञान एक अनादि वासना दहै इसीसे ग्राह्य-प्राहक के रूपमे बुद्धि
के मेद प्रतीत होतेहै। ( उदाहरणार्थं-- ) जिनकी आंखें तिमिर ( एक नेत्र
रोग ) आदि ( पित्त-आदि ) दोषों से दूषित है उन्हें [ आकाशम] कमी केश
की तरह, कभी उरक ( मकड़जाल ) की तरहं ओर कभी नाडीकी तरह
[ रेवा दिखलाई पड़ती है ]-- इसी ज्ञान के भेद की तरह ( उपयुक्त व्यवस्था
भोदहै)। [ सारांश यह हआ कि वासनाके कारण ही उपाजित मोदक खाकर
तृप्रहोने का ज्ञान होतादहै, अशामोदकसे ेसा नहीं होता। ज्ञान का भेद
वासनाकेमेदसे ही सिद्ध हीतादहै। |
जैसा कि कहा गया है--"[ वस्तुतः ] वेद्य ओर वेदक के अकारमें बुद्धि
------ ---- ट --------
कः ~ = ६२ :ॐ 1
1 यः
=> = ~ ~ ~ - ---- --- -=----:- ~
कः र न~ ण न्मम क ङ्कर्ङ षं
र क 7 कः दिनि नक ऊह ^ # तनः आकारे न्क का 3 = ककत र कः 2 नरक अर ७; कः ज रकि दुकान हः ठ
| ७४ सब्रेदशनसंप्रहे-
नहीं है, किन्तु भ्रम में पड़े हुए लोग इसके लक्षण ( स्वरूप ) को विभक्त ग्राह्य |
( घटादि ) ओर ग्राहक ( अ।त्म-व्यवसाय } के आकारोसे सम्पन्न-देखते ह ।'
| ( इसका कारण अगे के ्छोकमे है) ।
| ८ । +
॑ १८. तथा कृतव्यवस्थेयं केशादिज्ञानभेद वत् ।
यदा तदा न संचोचया प्राह्ग्राहकलक्षणा ॥ इति ।
तस्माद् वुद्विरेवानादिवासनावश्चात् अनेकाकारावभासत--
इति सिद्धम् । ततश्च प्रागुक्त-भावना-प्रचय-बलात् निखिल-
वासनोच्छेद-विगलित-विविध-विषयाकारोपष्लव-विच्दध् -विज्ञानो-
दयो महोदय इति ॥
००*~+ ~~ -------~- ~~ भ्न
सें न 3 "यि कः
[ रूपों
[| ठीक उसी प्रकार इस ( बुद्धि) मे ग्राह्य ओौर ग्राहक के दो स्वरूपो की ।
| । व्यवस्था ( मेद ) जब केशादि-ज्ञान के भेदकी तरह की जाती है तब संदेह
(1 | { तहीं रहना चाहिए [कि बुद्धि के दो भेद वस्तुतः ही है ]।' इसलिए हमारी
। 8 || यह बुद्धि ही अनादि वासना के वश अनेक आकारो में प्रतीत होती
॥ | है--यह सिद्ध हुमा । [ पाश्चाच्य-द्च॑न का प्रत्ययवाद -- 1068119) इस ।
|| ॑ | विज्ञानवाद से बिल्कुल भिलता-जुलता है । उसके अनुसार प्रत्यय या 1५683 |
। | | ॥ ही संसार की मूलसत्ता अर्थात् 1111१8९ 1२.९81; 0 है । संसार मे जो कुछ |
(¶ देखते है वे प्रत्ययो के ही प्रक्षेप है, बाह्यां कुछ नहीं है । इसके विवेचन के
|! | | ॥ लिए भूमिका-भाग देखे ] ।
॥ ॑ इसके बाद पहले कही गयी चार भावनाओं ( क्षणिक, दुःख, स्वलक्षण
॥ ओर शन्य ) की वृद्धिके बलसे, सभी वासनाओं का उच्छेद ( विनाश) हो
| | जाता है जिससे विविध प्रकारके विषयों के आकार में जो मिथ्याज्ञान
| | | ( उपञ्चव ) होते है वे गल जाते ह तथा विशुद्ध विज्ञान ( (५ 08010 प688 )
||| का जन्म होता है- यही मोक्ष ( महोदय ) है ।
| | ( ( २९. सौत्रान्तिक-मत--बाह्याथायुमेयवाद् )
| | । | ॥ २ क # स्तीति
॥ || अन्ये तु मन्यन्ते--पथोक्तं बाह्यं ॒वस्तुजातं नास्तीति"
¦ ॥॥ तदयुक्तम् । प्रमाणाभावात् । न च सहोपलम्भनियमः प्रमाण-
। ||| मिति वक्तव्यम् । वेचवेदकयोरभेदसाधकलेनाभिमतस्व तस्याः =
|
| प्रयोजकत्वेन सन्दिग्धविपश्षव्यावृत्तिकत्वात् । | ॥
।
बौद्ध-दशेनम् ७४
ननु भेदे सहोपलम्भनियमात्मकं साधनं न स्यादितिचेन्न |
वहिभंखतया भेदे
्ञानस्यान्तमुखतया, ज्ञेयस्य वहिमुंखतया च भेदेन प्रतिभास-
मानत्वात् । एकदेश्त्वेककालल-लक्चणसहत्व-नियमासंभवाच ।
लेकिन दूसरे ( सौत्रान्तिक-सम्प्रदाय वाले बौद ) मानते ह--यह जो आप
कहते है करि बाहरी वस्तुओं की सत्ता ही नहीं, यह युक्तियुक्त नहीं है । इसके लिए
कोई प्रमाणा नहीं दिया जा सकता | आप यह् नहीं कहु सकते किं साथ-साथ पाये
जानेकाजो नियम है वही प्रमाण दहै (नील ओर उसके ज्ञान मे सहोपलम्भ-
नियम है जिससे दोनों अभिन्न है; बृद्धि की सत्ता इससे सिद्ध होती दहै) ।
इसका कारण यह टहैकि वेद्य ओौर ओर वेदकमें अभेद सिद्ध करने के लिए
[ जिस सहोपलम्भ-नियम का | प्रयोग आप करते वह् अभेदको सिद्धकरने
मे कारण ( प्रयोजक ) नहीं बन सकता क्योकि शविपक्त में वह नहीं रहैगाः
( = विपक्ष-व्यावृत्ति )-- यह सदेहपणं है। [ आशय टै कि जेसे धूम भौर
अग्नि में सम्बन्ध दिखलाने के समय अग्निका अभाव धारण करनेवाले पदार्थं
विपक्ष है, उनमें देशान्तर या कालान्तर मे कमी धूमहो सकता दहै। विपक्षमें
कभी नहीं होगा, यह नियम कहाँहै? एेसी आशंका धूम ओर अग्नि के
का्यं-कारण-भावनष्टहो जानेके भयसे नहींकी जाती ( आ्चंका का खंडन
हो जाताहे)। यह् तकं ठीक दहै, प्रयोजक है! किन्तु उसी प्रकार यहां भिद
होने पर भी सहोपलम्भ-नियम रह सक्ता है- इस आशंका का निरसन नहीं
होता । इसलिए विपक्ष मे हेतु को व्यावृत्ति होगी, अतएव यह संदिग्ध है ओर
अनुमान नहीं हो सकता । |
[ यदि विज्ञानकारी शंका करं कि] मेद को भी सिद्ध करने के लिए
सहोपलम्भ का नियम साधन नहीं बन सकता, तो ( हम करगे किं ) एेसी बात
नहीं है, क्योकि [ प्रत्यक्ष प्रमारासेही विरोषहो जायगा ] ज्ञान तो आन्तर-
वस्तुहै, ओर (घटादि) ज्ञेय पदाथं बाह्य है-इस प्रकार भेद तो स्पष्
( प्रत्यक्ष रूप ) प्रतीत होता है। [ इस प्रकार उपयुक्त अनुमान प्रत्यक्ष
विरोधी है।]
दूसरी युक्ति यह है कि सहोपलम्भ का नियम होना ही असंभव है क्योकि
[ आत्मनिष्ठ ज्ञान है ओर बाह्य-वस्तुनिष्ठ विषय है, दोनोंके दोस्थान रहै;
विषय पूर्वक्षण में रहता है, ज्ञान उत्तरक्षण मे, इसलिए ] विषय ओौर ज्ञान
काएकदेशमे याएककालमे होना संभव नहींहै, इसलिए दोनों के स्वरूप
( लक्षण ) भिलेगे ही कब [ कि सहोपलम्भ आपको दिखलाई पड़ेगा ] ?
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७६ सर्वदशेनसंबरे-
कि च नीरादर्थस्य ज्ञानाकारतवेऽहमिति प्रतिभासः स्यात् ।
न तु श्दमिति! प्रतिपत्तिः । प्रत्यंयादव्यतिरेकात् । अथो-
च्यते--ज्ञानस्वरूपोऽपि नीलाकारो भ्रान्त्या बहिवेत् भेदेन
प्रतिभासत इति, न च तत्राहुल्लेख इति । तथोक्तम्-
१९. परिच्छेदान्तराद्योऽयं भागो बहिरिव स्थितः ।
ज्ञानस्याभेदिनो भेवग्रतिभांसोऽप्युपप्टवः ॥ इति ।
२०. यदन्तर्खयतच्वं तद्भहिवेदव भासते । इति च ।
इसके अतिरिक्त. नीलादि अथं यदि ज्ञान ( बुद्धि) के हीस्वल्पहो | तो
जिस प्रकार ज्ञाता आत्मा को "अहम्" कहते है उसी प्रकार उन | बाहरी पदार्थो
मे भी अहम्" एेसी प्रतीति होगी, "इदम्" ( यह ) एेसा ज्ञान नहीं होगा । कारण
यह है कि [ बाह्य पदाथं ] प्रत्यय ( ज्ञान }0688 } से भिन्न नही है ( प्रत्युत
अप लोग ज्ञान ओर विषयों को अभिन्न समन्षते ह )।
यदि आप लोग उत्तर मे कँ कि-- नीलादि आकार, ज्ञान के अपने ल्प मे
होने पर भो ्रान्तिके कारण, भेदसे बाह्य पदार्थ-जैसा प्रतीत होता है ओर
यही कारण है कि उसमे अहम्” द्वारा अभिव्यक्ति नहीं होती, जेसा करि कहा
भी है “क्ञान के आन्तर ( भीतरी ) परिच्छेद ( विषयों काप्रका्च करनेवाले
भाग) से प्रथक् जो बाह्यवतु ( विषयोंके रूपमे) दिखलाई पडनेवाला भाग
ह, भेद-रहित ज्ञान में जो भेद की प्रतीति होती है-- वह मिथ्याज्ञान ( उपप्लव )
ही हे ।'” ओर भी- “जो आन्तरिक-रूप से जानने योग्य तत्व टै वह बाह्य-जेसा
प्रतीत होता है ।'
विरोष-सौत्रान्तिकों ने एक गम्भीर आशंका योगाचारो के समक्ष रली
किं बुद्धि का बोध "अहम्" से होता है बाह्य-पदार्थो का इदम्" से । यदि सभी
पदाथ बुद्धिकेरूपही हतो उन सों का बोध "अहम्" दारा क्यों नहीं होता-
अहं घटः, अहंभूमिः, अहं नीलः, क्यों नहीं कहते ? उत्तर में विज्ञानवादौ फिर
पुराना राग अलापने लगते है मिथ्याज्ञान ओर मध्यास । उसी अनादि वासनां
से "विज्ञान" ज्रं द्वारा वाह्य 'दिषय-सा प्रतीतं होता है, वस्तुतः दै नहीं ।
दाचैनिके-माषा मे यों कहं करि अभेद पर भेद का अध्यास ( एष्णुश्ट्नणमाो )
मिथ्योज्ञानं ( 11105701 ) दारां होता है । इसीलिए भ्रमवश ही बाह्य वस्तुओं
वर "अहम्" कां जारोपरा नहीं करते । जैसे छख पर पीलापन का आरोपण होता
हे। यथपि शंखं पीला नहीं पर्त पित्तादि के दौष से ( विकञेषतया पारुडधरोग
बौोद्ध-दशनम् ७9
होने परर ) शंख के उजलापन को छिपाकर ( आवर्ण ) पीलापन की प्रतीति
होती है । उसी तरह (अहम् का अर्थ॑वाली ज्ञानस्वल्प आत्मा (या बुद्धि)
क्रे आन्तरस्व को छिपाकर बाह्यत्व अवभासित होता है, पीलापन के
अध्यास होने पर भी शंख का स्वल्प भासित होता है, तथेव ज्ञेयाकार के
अध्यास के बाद भी ज्ञान प्रतीत होता ही है। कारण यह है भ घट को जानता
है" एेसौ प्रतीति जो होती है ¦
सौत्रान्तिक लोग बाहरी पदार्थो को शून्य नहीं मानते, उन्हे अनुमेय मानते
ह । नील, पीतादि विचित्र पदाथं बृद्धि के आकार के है मौर आन्तर ज्ञानसे
उनका अनुमान होता हे । सवंसिद्धान्त संग्रह मे कहा गया है-
नौलपोताभि्ित्र ढयाकारेरिहान्तरः ।
सौत्राम्तिकमते नित्यं बाह्याथंस्त्वनुमोयते ॥!
ज्ञान ओर विषय को लोक का व्यवहार भी मानता है। ज्ञान का विषय
दूसरा ही है, फल दूसरा ( ज्ञानस्य विषयो ह्यन्यत्फल मन्यदुदाहूतम् । काव्यप्रकाश,
२)। विज्ञानवादियों के ऊपर दिये गये उत्तर का खंडन अब ये सौत्रान्तिक
लोग करेगे ।
तदयुक्तम् । बराह्माथमावे तदूव्युत्यत्तिरहिततया वदिवेदि-
त्युपमानोक्तेरयुक्तेः । न हि वसुमित्रो बन्ध्यापुत्रवदवभासत
इति वेक्षावानाचक्षीत । भेदप्रतिभासस्य भ्रान्तत्वेऽभेदग्रतिभा-
सस्य प्रामाण्यं, तत्प्रामाण्ये च भेदयप्रतिभासस्य भ्रान्तत्वमिति
परस्पराश्रयग्रसङ्धाच । अविसंवादानीरतादिकमेव संविदाना
वोपाददते पेक्ष ¢
बाह्यमेवोपाददते, जगल्युपेकषन्ते चान्तरमिति व्यवस्थादश्नाच ।
आपका यह कहना ठीक नहीं कंयोकि जव बाहरी वस्तुओं को सत्ता ही नहीं
( = विज्ञानवादियों के मतम) तो उसकी व्युत्पत्ति ( "बहिः" शब्द का अ्थं-
ज्ञान ) भी तो नहीं होगा? ओर तेस दशा में "बाह्य पदा्थं के समान
( प्रतीत होता ह )' यह उपमान कौ उक्तिभी व्यर्थो जायगी । ( उपमान
बही हो सकता है जिसकी सत्ता हो, जिससे कृ अथं निकले किन्तु आप लोग
ब्रह्माथ को मानते नहीं ओर ऊपर से कहते ह कि आन्तर बुद्धि "बाह्यां के
समान" प्रतीत होती है । यह कंसे ? ) कोई भी चेतनामील व्यक्ति नहीं कहता
करि वसुमित्र वन््यापृत्र की तरह लगता ह। दूसरी आपत्ति यह भीटै कि
[ विषय ओर विज्ञान के बीच ] भेदकौ प्रतीति को श्रान्त मानकर अभेद
(रेक्य ) की प्रतीति को प्राम शिक मानना, तथा एेक्य कौ प्रतीति को
षणि
ऽये सर्वदशेनसं्रहे-
प्रामाणिक मानकर भेद को प्रतीति को भ्रान्त मानना-- इससे अन्योन्याधय-
दोष का प्रसंग हो जायगा । [ आज्य यह है कि विज्ञानवादी ज्ञाता ओौर ज्ञेय
नभेदकी प्रतीति को मानते है श्रान्त, ओौर इसे ही साधन बनाकर सिद्ध
करतेहैकि ज्ञाता ओौर ज्ञेयमें कोड् मेद नहींदहै। अव जो यहाँ सध्यथा
वही साधन बन जाता हि । वह भी किसका? उसेही सिदध करने का जिसके
द्वारा वह स्वयं सिद्ध हज है । इसे पाश्वाच्य तकशाख मे {2९४५० णजा
कहते ह । अभेद की प्रतीति को साधन मानकर भेद की प्रतीति को भ्रान्त सिदध
करेगे । इस प्रकार ताक्रिक वृत्त में फंसं । )
[हम देखते हँ कि] कु लोग किसी के साथ विना कु भी विरोध (विसंवाद)
कियिही नीलादि पदार्थोको ज्ञान का विषय मानकर, बाह्य -पदाथं को ही
केवल ग्रहण करते है, संसार मे आन्तर कीतो उपेक्षादही कर देते है-एेसी
व्यवस्थां देखी जाती है । `[ बाह्यां को सिद्ध करते हए सौत्रान्तिकों का कहना
हे कि नैयायिकादि विद्धान् तो लोकिक-टष्टिकोण से आन्तर पदार्थ को स्वीकार
नहीं करते किन्तु बाह्याथं करी सत्ता तो मानते ही है--हम भी उने यहां पर
सहमत ह । बाह्यां के विषय में तो किसी का कोई विरोध ही नहीं है । केवल
ये लोग ही विरोध खड़ा करते दै । स्मरणीय ह कि सौत्रान्तिक ओौर वेमाषिक
आन्तर बाह्य दोनों को मानते है, माध्यमिक दोनों मे किसी को नहीं मानते,
चज्ञानवादो केवल आन्तर को मानते है, नैयायिकादि बाह्य को ही केवल
मानते है । ||
( २२. बाह्याथे की सत्ता- निष्कषं )
एवं चायममेदसाधको हेतुर्गोपयपायसौयन्यायवत् आभा-
सतां भजेत् । अतो बदिवदिति वदता बाह्यं ्ामेवेति भावनी-
यमिति भवदीय एव वाणो भवन्तं प्रहरेत् ।
इस प्रकार [ विज्ञान ओौर विषय के बीच | अमेद सिद्ध करनेके लिए जो
हेतु आप देते है वह गोमयय-पायसी-न्याय से केवल आभासमात्र ( हित्वाभास )
है। [ जिस प्रकार यह अनुमान देकर-- "गोमय ( गोबर ) पायस है क्योकि
गव्य है", हम गोमय को पायस सिद्ध नहीं कर सकते क्योकि गव्यत्व हेतु यहाँ
अप्रयोजक है, इसलिए हेत्वाभास होगा, उसी प्रकार भापकरा मी अनुमान
हेत्वाभास से युक्त है वरयोक्रि हेतु शुद्ध-हेतु न होकर हेत्वाभास है । गोमय-पायसीय
न्याय का उल्वेव व्या ने पातंजल-योगसूत्र ( १।३२, तत्परतिषेधाथमेकतच्वा-
भ्यासः ) के अपने माष्यमें किया है। इसकी विशद व्याख्या वा चस्पतिमिध्र
की तच्ववैशारदी टीकामेंहै।)
बौद्ध-दशेनम् ७६
इसलिए जबर आप बाह्य के समान' यह कहते है तब बाह्याथंको तो
ग्राह्य ही समते है ओौर इसकी भावना ( विचार }) करनी चाहिए--अतः
अपक्रा हौ चलाया वाण आपही पर प्रहार करेगा । ( अपने तकं से आप स्वयं
खरिडत हो गये ) ।
( २३. बाह्यार्थं प्रत्यश्च नहीं, अचुमेय दै )
ननु ज्ञानाद्धि्कालस्याथेस्य ग्राहमत्वमनुपपन्नमिति चेत्--
तदनुपपन्नम् । इन्द्रियसंनिक्रष्टस्य परिषयस्योत्पा्े ज्ञाने स्वाका-
रसमर्पकतथा समपितेन चाकारेण तस्याथेस्यानुमेयतोपपत्तः ।
अतएव पर्यनुयोगपरिहारो समग्राहिषाताम्-
२१. भिन्नकालं कथं ग्राह्यमिति चेद् ग्राह्यतां षिदुः ।
(र # ज्ञानाकाराप
हेतत्वमेव च व्यक्तेज्ञोनाकारापणक्षमम् ॥ इति ।
कोई यह आका कर सकता है कि ज्ञानसे अथ॑ का काल भिन्न है अतएव
जानक द्वारा विषय का ग्रहण असंभव दहै। (सभी पदाथं क्षणिक है अतः
ज्ञान भी क्षणिक, विषय भी क्षणिक । ज्ञान के समय के अथंका ग्रहण नहीं
हो सकता क्योकि विषय कायं है, ज्ञान कारण । कायंकारणा एक साथ उत्पन्न
नहीं होते । यदि पूर्वापर के क्रमसे होते है तब जिस क्षण मज्ञान दहै उस क्षण
मे विषय नहीं, जब विषय टै तो उस क्षणमें ज्ञान नहीं। इसलिए दोनो में
सम्बन्ध ही नहीं होगा । यह समस्या विज्ञानवादियों के समक्त भी थी, उसका
हल दृसरे प्रकार से उन्होने किथाथा। ) यह आका युक्त नहीं है--विषय
का [ प्रथम क्षण मे ] इद्दिय से संत्निकषं ( सम्बन्व ) हौता है, इससे ज्ञान की
उत्पत्ति होती है । उसी ज्ञान म वह [ पहला विषय | अपने आकार का
समपंशा कर देता है ( द्वितीय क्षण में), इसी समपित किये हए आकार से
उस ( पहले ) अथं का अनुमान कर लेते है। अबतो सिद्ध हा ? | इसे यों
समर -चटादिविषय एक क्षण मे नष्ट होकर अपने अथंक्रियाकारित्व के बल
से दूसरे क्षणा मे अपने आकार के सटश दूसरे घट को उत्पन्न करता है।
पवक्षणवाला वह घट ही इन्दियके साथ मिलकर अपने दूसरे क्षण मे अपने
आकार के. सदश स्वरूप वाले ज्ञान को भौ उत्पन्न करता है। अब इस ज्ञान-
स्वल्प के द्वारा अपने कारण पूर्ंक्षणवलि घट-- का अनुमान किया जाता है ।
इव प्रकार विषय ज्ञानग्राह्य बनता है किन्तु वह अनुमेय हो जाता है ।]
८ सबेदशनसंग्रहे-
इसलिए [ इस विषय मे ] प्रश्न ओर उत्तर का संग्रह किया गया है'--
यदि प्रश्चहो कि भिन्न कालवाली वस्तुकरा ग्रहण कैसे होगा, [ तो उत्तर है
कि चटादि1 पदा्थ॑के ज्ञानाक्रारको अपित करनेमें सम्थ॑दहेतुको हीलोग
ग्राह्य समञ्ते ह ।* (घटके ज्ञान में अपने आकार के समान आकरार उत्पन्न
करने की जो शक्ति है वहीहेतु है जिसे हम ग्रहण करते ह ।)
तथा च यथा पृष्टया भोजनमनुमीयते, यथा च भाषया
देशः, यथा बा संभ्रमेण स्नेहः, तथा ज्ञानाकारेण ज्ञेयमनुमेयम् ।
तदुक्तम्--
२२. अर्थेन घटयत्येनां न हि भुक्तवाथेरूपताम् ।
तस्मासमेयाधिगतेः प्रमाणं मेयरूपता ॥ इति ।
तब, जिस तरह पोषण ( भरा हृजा शरीर ) देखक्रर भोजन का अनुमान
होता है, भाषासे देश का, अथवा आदर से प्रेम का--उसी तरह ज्ञानाकार
से जेय पदाथं का अनुमान करना चाहिए । यह कहा भौ है--इस ज्ञान को
[ ज्ञाता ] जो अथं के साथ मिलाता है वह उस ज्ञान से अर्थाकार (अपने
आकार के समान आकार ) को हटाकर नहीं [ मिलाता, बल्कि संयुक्त करके
ही ]। इसलिए ज्ञान ( संविद् ) का मेयरूप ( या विषय के रूपमे) होनादही
विषय के ज्ञान (प्रमेय = विषय, अधिगति = ज्ञान ) काभ्रमाण है ( विषयों
क्रा ज्ञान इसलिए होता है कि बृद्धि विषयोंके आकारके समान हौ अकार
ग्रहण करती है ) ।*
( २४. आलय-विज्ञान ओर परदृत्ति-विज्ञान )
[क वित्तिसत्तेव द ऋ
न हि रि तद्वेदना युक्ता । तस्याः सवेत्राविशेषात् ।
तां तु सारूप्यमाविश्चत् सरूपयितुं षटयेदिति च । तथा बा्या-
सद्भावे प्रयोगः--ये यस्मिन्सत्यपि कादाचित्कास्ते सवे
तदतिरिकरिसपिक्षाः । यथा--अविवक्षति अजिगमिषति मयि
वचनगमनप्रतिभासा विवक्षु-जिगमिषु-पुरुषान्तर-सन्तानसापक्षाः ।
१-- पर्यनुयोग = प्रश्च, परिहार = उत्तर ।
२-स० द० सं°की कुछ प्रतियों मे यहां पर पाठ है- अर्धेन घटयत्येनां
न हि मुक्तवाघंरूपताम् । "अथ" के स्थान में अध" का कं ल्िप्यन्तर सम्भव है ।
गफ ने इसीका अनुवाद किया है किन्तु संगति नहीं बेठती । ॑
| ४ बौद्ध-दशेनम् ८१
तथा च विवादाध्यासिताः ्रवृ्ति्रत्ययाः सत्यप्यालयिजञान
कदाचिदेव नीला्युर्लेखिन इति ।
यह नहीं कह सकते कि ज्ञान की सत्ता ही उन ( विषयों) का ज्ञान है
क्योकि [ एसा करने पर | ज्ञान ( वित्ति ) स्वंत्र एक-सा हो जायगा [ तरूंकि
जान की सर्वत्र सत्ता है इसलिए घटज्ञान ( तद्रेदना ) ओर पटज्ञान में अन्तर
नहीं होगा । अतः वित्ति करी सत्ता ओर विषय-वेदना दोनो भिन्न ह ]। लेकिन
सारूप्य ( विषयों कौ समानाकारता ) ही उस ( वित्ति या ज्ञान ) में प्रविष्ट
होकर [उस ज्ञान को ] सरूप ( विषय के आकार के समान आकारयुक्तं )
करने के लिए [ विषय के साथ ] संयुक्त करता है। ( यदि दोनों एक होति तो
स्प बनाने की अपेक्षा ही नहीं होती । ||
बाह्यार्थं की सत्ता के लिए एक प्रयोग ( ए०ध8। भटुपणला) ४ ) यह
है--जो ( कायं, जैसे अंकुर ) जिस ( कारण, ससे बीज) के रहने षर भी
कभी-कभी उत्पन्न होते ह ( कभी होति है, कमी नहीं लैसे--कोठी मे रखे बीजं
अंकुर नहीं उस्पन्न करते), वे सभी(का य॑) उस ( विशिष्ट कारण ) के अति-
रिक्त अन्य कारणों ( जेसे--मिद्री, जल, वायु ) के साथ सम्बद्ध है । उदाहरणा
करे लिए, जब मै बोलना या जाना नहीं चाहता ( कभी बोलता हं, कभी नही,
कभी जाता हं कभी नहीं ) तब वचन य गसन की जो भी प्रतीतियां (प्रतिभास)
होगी वे दूसरे पुरषो कै समू के विषय में ( सपिक्ष ) है जो ( पुरुष ) बोलने
ओर जाने के अभिलाषी रहते होगे ।
उसी प्रकार, प्रस्तुत प्रसंग के अन्त ग॑त॒ आये हृएु प्रवृत्ति के प्रत्यय
( क्रियाशीलता की प्रतीतिं = प्रवृत्तिविज्ञान ), आलयविज्ञान ( आत्मा,
ज्ञाता ) के रहने पर भी, कभी-कभी. ही नीलादि-पदार्थो के रूप मे व्यक्त होते
ह । [ आशय यह हैकरि नीलादिके सपमे च्यक्त होनेवाले ( बाह्य-पदाथं )
घट, षट आदि के विषय मे ` अयं घटः” “अयं पटः” आदि प्रवृत्तियों ( विष्यो )
की प्रतीत्तिहोतीदहै।ये ही प्रवृत्ति प्रत्यय या प्रवृत्तिविज्ञान कहलाते है । इनका
ज्ञाता "अहम्" के रूप मे व्यक्त मालय विज्ञान है आलयविज्ञान के साथये
कभी-कभी रहते दहै ( कादाचित्क है, बीजांकुर के समान } । इसलिए आलय विज्ञान
के अतिरिक्त बाह्य घटादि विषयों के साथ ये सम्बद्ध है। इस अनुमानसे भी
बाह्य पदार्थो की सिद्धि होती है । |
विरोष--आलयविज्ञान ओर ्रवृत्तिविज्ञान वस्तुतः विज्ञानवादियों कै
सिद्धान्त ह । इनका प्रयोग सौत्रान्तिक लोग उन्हीं के सिद्धान्त का खण्डन करने के
लिए करते है । योगाचारं लोग अद्वेतवादी दै, गुध विज्ञान (10056688), |
६ स० सं ।
|
त
॥
णि
८२ सबेदशनसंग्रहे-
्रत्यय ( 10९8. ), चैतन्य या चित्त ( 0€ा+४] ए00नकणलफला०ण ) को ही
एक मात्र सत्ता मानते हैँ । यद्यपि बुद्धि एकरूपा ही है परन्तु अनादि वासना के
कारा प्रतीत होने वाले इसके विभिन्न स्वरूपो को कौन रोक सकता ह ?
श्राह्य-ग्राहक-प्रहण, वेद्य-वेदक-वेदन की त्रितयौ अविच्छिन्न है । विज्ञानवादी बौद्ध
अवस्था कै भेद से चित्त ( विज्ञान ) केदो भेदकरते है आलयविज्ञान ओौर
भ्वृत्तिविज्ञान । आलय विज्ञान, धर्मो के ब्रीजोंका स्थानदहै।ये धमं बीज के
रूप में यहां समवेत रहते हैँ ओौर विज्ञान के रूप मे बाहर निकल कर जगत् के
व्यवहार का निर्वाह करते है आधुनिक मनोविज्ञान का “उपचेतनमन' ( 3४.
€0ा8लोठपऽ 1177 ) प्रायः वैसा ही है । लंकावतार सूत्र ( २।९९-१०० )
मे आलय-विज्ञान को समुद्र के समान कहा है । जिस प्रकार समुद्र में वायु-प्रेरित
तरंगं उठती रहती है, कभी विराम नहीं लेतीं--उसी प्रकार आलय-विज्ञान
मेँ भी बाह्य-विषयों के ्लकोरों की चिव्र-विचित्र विज्ञानरूपी तरंगे उठती है । ये
कभी भी नष्ट नहीं होतीं । आलयविज्ञान समुद्र है, विषय पवन है तथा विज्ञान
( सात प्रकार के प्रवृत्तिविज्ञान ) तरंगे है--
तरङ्खा उदधेयंद्रत्पवनप्रत्ययेरिताः।
नृत्य मानाः प्रवतंन्ते व्युच्छेदश् न वतंते ॥
आलयौघस्तथा नित्यं विषयपवनेरितः ।
चित्रैस्तरङ्धविज्ञानैः नृत्यमान: प्रवतंते ॥
इससे स्पष्ट है किं प्रवृत्ति विज्ञान भी इसमे डबते-उतराते हैँ ।
दूसरी गोर, प्रश्त्ति-विज्ञान क्रियाशील चित्त है जिससे विषयों की प्रतीति
होती है, यह आत्मा के समान नहीं है किन्तु आलय विज्ञान से ही उत्पन्न होता
है ओौर उसीमे विलीन हो जाता है। इसके सात भेद है (१) च्षुविज्ञान,
( २) श्रोत्रविज्ञान, (३) घ्राणविज्ञान, ( ४) जिह्वाविज्ञान, (५) कायविज्ञान,
{ £ ) मनोविज्ञान ओर ( ७ ) ज्गि्ट मनोविज्ञान । इन सबों का विवेचनं इतने
सृक्ष्मढंगसे बौद्धो नेक्रियाटहै कि आधुनिक मनोविज्ञान को भी इनके समक्ष
नतमस्तक हो जाना पडेगा । इन पर प्रकाश डालने के लिए पर्याप्त अनुसंधान
ओर अध्यवसाय की अपेक्षा है । विद्धानों के सत्प्रयास से यह संभव है! विज्ञप्ति
मात्रतासिद्धि मे इनका सम्यक् विवेचन है ।
तत्रालयविज्ञानं नामाहमास्पदं विज्ञानम् । नीलाचयुल्टेखि च
विज्ञानं प्रदृत्तिविज्ञानम् । यथोक्तम्--
२३. तत्स्यादालयविज्ञानं यद्धवेदहमास्पदम् ।
तत्स्यात्प्वृत्तिविज्ञानं यन्नीलादिकगुष्टिखेत् ॥ इति ।
बौद्ध-दशेनम् पदे
तस्मादालयविज्ञानसंतानातिरिक्तः कादाचित्कश्रवृ्तिषिज्ञानहेतुवी -
द्ोऽथो राय एव, न वासनापरिपाकम्रत्ययकादाचित्कत्वात्
कदाचिदुत्पाद इति वेदितव्यम् ।
उनमें आलयविज्ञान वह चैतन्य ( बुद्धि ) रै जो अहम्' ( मँ = आत्मा ) का
स्थान है ( अह् के आकारमेंहै)। नीलादि पदार्थो को व्यक्त करने वाला `
[ इदम् से सबद ] विज्ञान प्रवृत्तिविज्ञान है 1 जैसा कि कहा गया है-- वह
आलयविज्ञान है जो आत्मा ( 220 ) का स्थान है, ओौर वह प्रवृत्तिविज्ञान है
जो नीलादि पदार्थो को अभिव्यक्त करता हे ।
इसलिए आलयविज्ञान के संतान ( प्रवाह, क्योकि सब कु क्षिक है अतः
उनका प्रवाह ही संभव है) के अतिरिक्त, कभी-कभी होनेवाले प्रवृत्तिविज्ञानं
कां कारण [ घटादि ] बाह्य पदार्थं है, अतः उसे तो ग्रहण करना ही होगा ।
ठेखा न समनं कि वासना के परिणाम की प्रतीति कभी-कभी होती है इसलिए
बाह्यां भी कभी-कभी ही उत्पन्न होगा । (विज्ञानवादियो के मत से ही वासना के
परिणाम कौ प्रतीति सदा ही होती हे-- उसे "कभी-कभी होना" चिद्ध करने के
लिए कोई साधन या हेतु नदीं ह। इसे ही अब स्पष्ट किया जायगा-- } ।
( २५. विज्ञानवादियौ के मत पर दोषारोपण )
विज्ञानवादिनये हि वासना नाम॒ एकसंतानवर्तिनामारय-
विज्ञानानां तत्ततपरृ्तिविज्ञानजननक्तिः । तस्या स्वका्यत्पादं
प्रत्याभिशख्यं परिपाकः । तस्य च प्रत्ययः कारणं स्वसंतानवति-
पूर्वक्षण कक्षीक्रियते । संतानान्तरनिवन्धन्वनङ्गी कारात् ।
बिज्ञानवादियों के मत से “एक प्रवाह (संतान, परंपरा ) मे विद्यमान
रहुनेवाले जो आलयविज्ञान है वे जब अपने से संबद्ध प्रवृत्तिविज्ञानों को उत्पन्न
करते ह तब उनकी उसी शक्ति का नाम वासना है ।' ( अहम्" इस आकार मे
रहनेवाले क्षणिक आलयविज्ञानों की परंपरा प्रत्येक जीव के जिए भिन्न है।
उससे प्रवृत्तिविज्ञान की उत्पत्ति होती है । राम के आलयविज्ञानों की परपरा
पर आधारित आलयविज्ञान राम से ही सम्बद्ध प्रवृत्तिविज्ञान को उत्पन्न करता
है। इस तरह आलयविज्ञान मे प्रवृत्तिविज्ञान उत्पन्न करने की जो शक्ति है
उसी को वासना कहते ह ) । उस ( वासना ) का अपने कायत्पादन ( प्रवृत्ति-
विज्ञान की उत्पत्ति ) के प्रति उन्मुख या प्रवृत्त होना ही परिपाक ( बासनाका
परिणाम ) कहलाता है ।
भाक
कः कूः "तकि यह सर क = जिका को = सक = 5 कोक कक
-- ~ “~ - र थ
|
॑
|
(> सवेदशेनसंग्रहे-
[ वासनाये क्षरिक है; क्षण-क्षण बदलती हुई वासनाओं के बीच किसी-
किसीकाही परिपाको पाता है, सबोंका नहीं। कारण यह है कि परिपाक से
उत्पन्न प्रवत्तिविज्ञान की उत्पत्ति सदा नहीं देखी जाती । इस कादाचित्क परिपाक
का कोई कादाचित्क कारण अवदय देना चाहिए । सौत्रान्तिक लोग तो करगे कि
इसका कारण घटादि बाह्याथं है । विज्ञानवादी तो इसे कारण नहीं मानेंगे
` केयोकि वे तो बाह्याथं को मानते ही नहीं। वे लोग कहँगे करि | उस परिषाक
की जो प्रतीति होती है उसका कारण अपने प्रवाह में स्थित पूर्वक्षण को हम
स्वीकार करते है । [ पूर्वक्षण की वासना उत्तरक्षण की वासना के परिपाक का
कारण है उसी तरह सभी वासनार्ये आलयविज्ञान की परंपरा होने कै कारण
तुल्य होगी ओर सभी अपने-अपने उत्तरक्षण की वासनाओं के परिपाक का
कारण बन जायगी । प्रवृत्तिविज्ञान मी सदा उत्पन्न होने लगेगा । ] कारण यह्
है कि वासनाके परिपाकको हम किसी दूसरे संतान ( ज्ञानसंतान से भिन्न
घटादि ज्ञेयसंतान ) के अधीन नहीं मानते । (हम ज्ञान को ही मानते ह इसीके
अधीन वासना का परिपाक है ।)
ततश्च प्रवृत्तिविज्ञानजनकालयविज्ञानवतिवासनापरिपाक
प्रति सरवेऽप्यालयविज्ञानवतिनः क्षणाः समथा एवेति वक्तव्यम् ।
न चेदेकोऽपि न समथः स्यात् । आल्यविज्ञानसंतानवतित्वावि-
शेषात् । स्वे समथां इति पक्षे कालक्षेपानुपपत्तिः । ततश कादा-
चित्कत्वनिवादाय श्चब्दस्पशेरूपरसगन्धविषयाः सुखादिविषयाः
षडपि प्रत्ययाश्वतुरः प्रत्ययान् प्रतीत्योत्पाद्यन्त इति चतुरेणा-
निच्छताप्यच्छमतिना स्वानुभवमनाच्छाच परिच्छित्तव्यम् ॥
इसलिये, प्रवृत्ति-विज्ञान को उत्पन्न करने वाले आलय-विज्ञान मेँ रहने वालो
वासना का परिपाक ( उत्पन्न ) करने भें, आलयविज्ञान में स्थित सारी क्षशिक-
वासनायें समथ है- एेसा कर । ( आलयविज्ञान समुद्रवत् है, इससे ही प्रवृत्ति
विज्ञान की उत्पत्ति होती है । आलयविज्ञान मे क्षिक वासनायं है जो वासना
का परिपाक कर सकती ह अर्थात् वासना को कार्योत्पादन मे लगा सकती हैँ । )
[ यदि सभी क्षरिक वासंनाओं मे पह सामथ्यं ] नहीं होती तो एकं भी क्षणिक
वासना समर्थं नहीं होती क्योकि आलय विज्ञान की परम्परा में रहने पर कोई
भेद-भाव नहीं होता ( कुछ" का प्रश्न नहीं है, सभी समर्थं हँ ) ।
यदि यह करै किं सभी क्षणिक वासनायं समथंहतो कालेक्षेप (समय
बिताना ) नहीं होगा ( सभी वासनायं तुरत ही कार्योत्पादन' करेगी क्योकि जो
न स न ष्क क
॥ 4 न 1 ^ द) नि, ~ ध क #- =-= ` ~> =
भ = न द न
षे ॐ 1)
स +:
कभ अनै ~+
+
बौद्ध-दशेनम् ८४
` अपने कायं के उत्पादन मे समथं है वह कालक्षेप नहीं सह सकता- तुरत कायं
दत्पन्न करेगा । फिर कायं भी एक समान होगि ) । भव इसलिए वासनाओं का
"कभी-कभी होना" सिद्ध करने के लिए ( क्योकि यह् जरूरी है अन्यथा विश्वके
रज्घम्च पर कभी-कभी होने वाले कार्यो कौ उत्पत्ति विज्ञानवादी कंसी वासना
से सिद्ध करे ?), चतुर व्यक्ति को, षच्छान होते हृए भी, स्वच्छ बुद्धि से,
अपनी अनुभूति को विना ठेके हए, विचार करन चाहिए कि शब्द, स्पञ्चं, रूप,
रस ओर गन्ध के विषय तथा सुखादि के विषय (00]9608)-- ये छह भ्रकार की
प्रतीतिं चार प्रत्ययो (कारणों) को पाकर ही उत्पन्न की जाती है 1 [शब्दादिर्पाच
विषय बाह्य दहै, सुखादि विषय मन के है अतः आन्तरिक है--इन छह प्रतीतिथों
का कृ बाह्य कारण खोज लें (वेदहवारकारण) नहींतो (कादाचित्क का
निर्वाह नहीं होगा क्योकि समर्थं वासनायें परिपाक उत्पन्न करती रर्हैगी-सभी
उत्पन्न होगे, कभी-कभी" नहीं हो सकेगा । |
(२६. ज्ञान के चरार कारण )
ते चत्वारः प्रत्ययाः प्रसिद्धा आलम्बन-समनन्तर-सहकाये-
धिपतिरूपाः । तत्र ज्ञानपदवेदनीयस्य नीलाद्यवभासस्य चित्तस्य
नीलादालम्बनप्रत्ययान्नीराकारता मवति । समनन्तरप्रत्ययात्
्राचीनज्ञानोद्धोधशूपता । सहकारपरत्ययात् आलोकात् स्पष्टता ।
चक्षुषोऽधिपतित्रस्ययाष्विषयग्रहणप्रतिनियमः ॥
रे चारं कारणा प्रसिद्ध ह--( १) मालम्बन ( ऽपणणषढण्णा) ), ( २)
समनन्तर ( 9९९९8४01) ), (३ ) सहकारी ‹ ‰{द्दः पा ) ओौर ( ४)
अधिपति ( [07080 078) ) । उनमें ्ञान' ( = साकार चित्त ) शब्द
त समे जाने वाले नीलादि की प्रतीति का, जिषे चित्त मी कहते है, नील
( पदां ) से, आलम्बन के कारण ही नील-रूप बनता है । समनन्तर के
कारण ही पूव॑क्षण के ज्ञान से आकार-ग्रहण कौ शक्ति जाती है। सहकारी के
कारण ही प्रकाश से स्पष्टता होती है ( किसी एक का स्पष्टीकरण होता है )।
अधिपति के कारण आंख द्वारा विषय कै ग्रहण का नियन्वरण होता है ।
विरोष- साकार चित्तको ही ज्ञान कहते ह गौर बोधरूपता का अथं है
उसके स्वरूप ( आकार ) को ग्रहण करने की राक्ति । जिस प्रकार पूर्वक्षण के
चट से उसी के आकार में उत्तरक्षणा मे घट उलपन्न होता है उसी तरह पूर्वक्षण
ते वतमान, आकार को ग्रहण करनेमें समथंज्ञानसे उत्तरक्षणा मेँ तदाकार
ज्ञान उत्पन्न होता है । ज्ञान की यह परम्परा (सन्तान) बराबर चलती रहती है ।
क य कः प ---ि -ि ः -
|
।
|
८६ | सबेदशेनसंग्रहे- `
| आकार भी दो तरह का है--अहम् का आकार, इदम् का आकार । अहमा-
1 ॥ कार पूर्वक्षण के ज्ञान से उत्पन्न होता है, दूसरे कारण की अपेक्षा इसमे नहीं है ।
| यह अनादि है, सब समय रहता है ओर एक रूप वाला है । यही आलयविज्ञान
| है । "यह घंट है' इस प्रकार के प्रवृत्तिविज्ञान में मी अहमाकार है ही क्योक्रि
॥' आलयविज्ञानं से ही प्रवृत्तिविज्ञान जन्म लेता है। दूसरा इदमाकार कभी-कभी
| | होता है ( कादाचित्क ), इसलिए दूसरे कारणो ( आलम्बनादि ) की अपेक्षा रहती
1 है, इसका आदि भी होता है ओर इसके विविध रूप है । ज्ञान में अपने जाकार
। | के सदश आकार डालने वाले शब्दादि अनेक प्रकार के विषय अपने-अपने
४. आकार के ्रवृत्तिविज्ञान को उत्पन्न करते दै। यहीं चार कारणो कौ अपेक्षा
होती है ।
॥ विषय के आधार को आलम्बन कहते हैँ जिस पर आधित होकर प्रवृत्ति-
8. विज्ञान उत्पन्न होता है । उत्तरक्चषण के ज्ञान को आकारग्रहण की शक्ति देते हृए
४ । पूर्वक्षण का ज्ञान समनन्तर कहलाता है। ज्ञान कोस्पष्ट करने वाला प्रकाश
| ॥. ( 1121४ ) सहकारी है ¦ मन से वस्तुका संयोग होना भी सहकारी ही है ।
। ॥ । इद्दिय को अधिपति कहते है । यही सवो पर नियन्त्रण रखता है । इसलिए ज्ञान
॥ म यह अपने अधिकारे के अन्तगंत हौ आकार प्रदान करता है। चश्ु
् इन्द्रिय ज्ञान कै उत्पादनमे रूपका आकारहीदे सकतीदहै। रसना रस के
अकार को तथां मन जो अन्तःकरण कौ इन्द्रिय है उसका अवदान सुखादि
¦ आन्तरिक विषयों तक ही सीमित है। इस प्रकारये चारों कारण मिलकर प्रवृत्ति-
| विज्ञान में, दम्" के आकार वाले, कमो-कभी होने वाले ज्ञान को जन्म देते है ।
। || उदितस्य ज्ञानस्य रसादिसाधारण्ये प्राप्ने नियामकं चक्षर-
॥॥. पतिभेषितमरं © ^
॥ धिपतिमेवितुमहेति। रोके नियामकस्याधिपतित्वोपरम्भात् ।
8 ` * ^ भ्ञ + सखादीनां ~ रणानि >
॥ ॥॥॥ एवं चित्तचत्तात्मकानां सुखादीनां चत्वारि का द्रष्टव्यानि॥
1 | ॥| र आदि विषयों को भी समान रूपसे ग्रहण करने के कारण उत्पन्न
ध ज्ञान का नियंत्रण करने वाली चक्चु-इन्दरिय अधिपति होने के योग्य है ( क्योकि एक
। | । | | विशिष्ठ प्रकारकेज्ञानसे तो वह संबदहै) । संसारमें पाते किजो नियंत्रण
8 | | करता है, वही अधिपति होता है । इसी प्रकार चित्त ओर उसके विभिन्न विकारो
¢ ॥ के रूप में सूख आदि ( आन्तरिक विषयों ; के भी चार कारण देख लं [ क्योकि
। |} वह भी प्रवृत्तिविज्ञान ही है ] ।
॥ | ( २७. चित्त ओर उस के विकार पाँच स्कन्ध )
|
सोऽयं चित्तचेत्तात्मकः स्कन्धः पञ्चविधो रूप-बिज्ञान-
वेदना-संज्ञा-संस्कारसंज्ञकः । तत्र॒ रूप्यन्त एभिर्विषया इति
बोद्ध-दशेनम् ८७
रूप्यन्तं इति च व्युत्पत्या सविषयाणीन्द्रियाणि रूपस्कन्धः ।
आखयविज्ञान-्रवृत्तिविज्ञानप्रवाह विज्ञानस्कन्धः । प्रागुक्तस्न्ध-
दयसंबन्धजन्यः सुखदुःखादिपरत्ययप्रवाहो वेदनास्कन्धः ।
गौरित्यादिक्ब्दोषटेषिसंवितप्रवादः संज्ञास्कन्धः । बेदनास्कन्धः-
निधन्धना रागदरेषादयः केशाः उयङ्केशाश्च मदमानादयो धमो-
धर्मो च संस्कारस्कन्धः ॥ २.५
तो चित्त ओर चित्त के विकारो के रूप मेँ यह स्कन्ध ( अमूत्तं तच्व ) पाच
प्रकार का है-( १) खूपस्कन्ध ( 36१84.010108} ), ( २ ) विज्ञानस्कन्ध
( ९९९१५०१ ४। ), ( ३ ) वेदनास्कन्ध ( ^ {९6५५708 | ), ( ४ ) संज्ञा-
स्कन्ध ( ४९170५1 ), ओर ( ५ ) संस्कारस्कन्ध ( ण€8७6१8॥ ) । उनमें
विषयों के साथ इन्द्रियो का नाम रूपस्कन्ध है जिसकी व्युत्पत्तियां है-- जिनसे
विषयो का निरूपण होता है ( = इन्द्रियां) ओर जो निरूपित होते है
= विषय ) । आलयविज्ञान ओौर प्रवृत्तिविज्ञान का प्रवाह विन्ञानस्कन्ध है
( केवल यही स्कन्ध चित्त टै, अन्य चत्त या चित्त के विकार ह )। पहले कटे
गये इन दोनों स्कन्धो के संबन्ध से उत्पन्न सुख-दुःख आदि प्रतीतियों का प्रवाह
( परंपरा ) वेदनास्कन्ध है । शौ" इत्यादि शब्दों को व्यक्त करने वाले ज्ञानो
का प्रवाह संज्ञास्कन्ध है । वेदनास्कन्व पर आ। धारित रागद्वेषादि क्लेश ( कष्ट ),
मद-मानादि उषक्छेश ( अल्प कष्ट ) तथा ध्म-अधमं को सस्कारस्कन्ध कहते है \.
विरोष-- स्कन्धो का यह क्रम वस्तुत के ज्ञान के लिए अच्छा है किन्तु
बौद्ध ग्रन्थो में विज्ञानस्कन्ध को दूसरा स्थान न देकर पाँचवाँ स्थान दिया गया
ह । वसुबन्धु ने अभिधमैकोश मे इसके लिए कारणों कौ मी्मांसाकी है) उनके
विचारसे क्रमस्थूलसे सूृक्ष्मकी ओर गया है। संस्कार की अपेक्षा विज्ञान
सक्षम है ओर सुगम नहीं हे। ये स्कन्ध चित्त ओर उसके विकारो से संबद्ध है ।
इनमे विज्ञानस्कन्ध चित्त है तथा अन्य स्कन्ध उसके विकार स्वरूप ह। चेत्तके
बाद चित्त का वणन संभव भी है।
विज्ञान दो प्रकार के है--आलयविज्ञान ओर प्रवृत्तिविज्ञान । अह् के
आकार वाले आलयविज्ञान का प्रवाह ही आमा ह। "इदम्" के अकार मे
्रवत्तिविज्ञान है । विषयों के आकार मं आने पर यह् रूपस्कन्ध कहलाता है ।
इसमे इन्द्रिय भी है जो भौतिक नही, चैत्त ( 1161181 ) ही दहै
जव विज्ञानस्कन्ध ( चित्त ) रूपस्कन्ध ( विषय ~+ इन्द्रिय } के साथ मिलताहै
तव सुख-दुःख की अनुशरूति होती है- यही वेदनास्कन्ध है । सुख-दुःख चकि चिस
का भ कव
साता का क
2 ॐ म य ककोााककुिकि क
|
|
|
|
| ।
|
तप सबेदशनसंग्रदे-
कै परिणाम है इसलिए भौतिक नहीं । घट, ` पट आदि नाम संजञास्कन्धं
( अ ००।८९] णणप]त ) है । ये केवल संकेत ह जो अवयवोंके आधार
पर दिये जाते हैँ । इस विषय में सुवि्याक्त मिलिन्दप्रश्च का नागसेन-मिलिन्द-
संवाद देखने योग्य है । घटादि में नाम-रूप ( }१०९€ 8० . ए ) दो भाग
है। रूप भौतिक है किन्तु नाम चित्त की एक विशेष विकृति कै कारण अमृतं
है। राग, द्वेषादि ङ्गे है, मान-मद-मोहादि उपङ्ेश, घरम-अधमं-ये संस्कार
स्कन्धहै।येभीचत्तहै। स्मरणीयदहै कि इन स्कन्धो के पूं विनाश के बाद
निर्वाणा की प्राप्ति होती है।
( २८. चार आयं सत्य--दुःख, समुदाय,१ निरोध, मागं )
तदिदं सवं दुःखं दुःखायतनं दुःखसाधनं चेति भावयित्वा `
तन्निरोधोपायं तचचन्ञानं संपादयेत् । अत एवोक्तम्ू-दुःखसथ-
दायनिरोधमागौशत्वार आयवुद्धस्याभितानि त्वानि! तत्र
दुःखं प्रसिद्धम् ॥
` तो यह समूचासंसारदुःखदहै, दुःखकाषरदटै ओौरदुःख का साधन है
{ यहीं से दुःख मिलता है )-- यह ध्यान करके, उससे वचने के उपाय--तच्व-
ज्ञान--को प्राप्त करना चाहिए । इसीलिए कहा है-( १) दुःख ( ऽपर्णिटा-
57082 ), ( २ ) समुदाय ( (9पऽ€ ° र्ण ), (३) निरोध ( (6888
ना) ० 8० ) तथा मागं ( #४ कष 0 (€88कणणा) )-- ये चार
तत्व आयं-वद्ध के द्वारा सम्मत दहै। इनमें दुःख तो प्रसिद्धै (संसारमेंदुःख
को सत्ता अनिवार्य॑रूप से है- देविये इसी दश्चंन का विगत अंश ) ।
विरोष-आश्वयं है कि दुःख, समुदाय, निरो भौर मागं-ये चार तत्व
श्रसिद्ध होने पर भी गफ ने अपने अंग्रेजी-जनुवाद में इन्हे दन्ध-समासमें न लेकर
षष्टी तत्पुरुष में लिया है गौर लिखा है-दुःखके समूहको रोकनेके चार
जी ( 8१6 0 {116 88178 #0€ णपि ०९०५8 म ऽप
1688110 116 १९6९९५९ ° 18770. [. 30. )। माना क्रि अथं वही
हैपरये निरोध के चार मामं कौन-कौन ह? गिना तो दं सही । भगवान् बुद्धके
मूल उपदेशये ही बार आयं सत्य ह । वस्तुतः द्धन शास्र मात्रकेहीये चार
व्यूह् या पहलू ( ^ 8])९५†8 ) है । जिस प्रकार चिकित्सालाख्र मे चार व्यूह्
१--बोढ लोग “समुदय ( दुःखकारण ) कहते है किन्तु सवंदशेनसंगरह
मे इसे समुदाय कहा गया है । सम्भवदहैदुःखके कारणों को श्युंला- दाद
निदानो--को देखकर समूहवाचक समूदाय नाम दिया णया हो ।
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बौद्ध-दशेनम् | ८
&-- रोग, रोग का कारण, आरोग्य ओर सैषज्य,. उसी प्रकार यहाँ भौ संसारः
संसार का कारण मोक्ष, ओर मोक्ष का उपाय--ये चार पद ह (द्रष्टव्य,
व्यास आष्य २।१५.) । वैद्यक-शा कौ इसी समत) के कारणं बुद्ध को महा-
भिषक् कहा गया है)
बुद्ध ने दानिक ्रशनो का विवेचन न करके सीधे आयंसत्यो का ही उपदेश
दिया । सारनाथ में दिया गया उनका प्रथम उपदेश द्रष्टव्य है ( धम्मचक्षप्प-
वत्ता-सुत्त ) । उनका कथ्य धा करि संसारम लोग दारुण व्यथा से -संतपे है।
उन्द बचाने का उपाय न करके दार्शनिक गत्थियों जेसे--धात्मा, इश्वर, कार्यं,
कारण आदि को सुलज्ञाना मूता है) किसी को बाण लग जाय तो निकाल कर
मरहम-पटरी करनी चाहिए, न कि यह पता लगति पिर कि किसने बाण फेंका ?
त्रिय ने, ब्राह्मण ने"? वह किधर के था? वह किस रगका था?
आदि-आदि । अन्य प्रश्चों पर बुद्ध मौन ही हो जाति थे । किन्तु उनके शिष्यो ने
मोन का पूरा लाभ उठाया ञौर वे दशन के दुरूहं दलदल म धस गये । फल
स्पष्ट था किं अपनी-अपनी बुद्धि लोगों ने दौडाई तथा वरैमाषिक-सौत्रान्तिक
आदि सम्प्रदाय बन गये । बु ते वास्तव मे दर्शन ( 1101108गुफ ) नही
दिया, उनका बस नोतिशाख्न ( 10103 ) है । आर्य॑सत्यो मे सिद्धान्त ओर
व्यवहार का अनुपम समन्वय हे ।
सघरदायो दुःखकारणम् । तर् द्विविधं प्रत्ययोपनिबन्धनो
क
हेतृपनिबन्धनश्च । तत्र ्रत्ययोपनिबन्धनस्य संग्राहकं घत्म्--
(इदं प्रत्ययफलम्'! इति । इदं कायं ये अन्ये हेतवः प्रत्ययन्ति-
गच्छन्ति, तेषपामवमानानां देवनां भावः प्रत्ययस्वं कारणसम-
५ दिति ॥भे
वायः, तन्मात्रस्य एक) न चेतनस्य कस्यचिदिति सत्राथः ।
समुदाय का अर्थ है दुःख का कारण । वह् ( कारण ) दो प्रकार का ट--
( १ ) प्रत्यय पर आधारित ओौर (२) कारण ( हेतु ) पर आधारित । हनम
प्रत्यय पर आधारित ( दुःखक्ारण ) को समन्लाने वाला चूत ह--"यह
{ का्यंसमूहं } प्रत्यप्र ( कारणसमवाय } का ही परिणाम है ।' इस कायं [के
उत्पादन ] की मोर जो दूसरे हेतु जाते है ( कायं उत्पन्न करते है कार्य प्रति
अयन्ति ), उन जाने वाले ( दूषरे कारणो के साथ मिलने वाले ) कारणो का
भव ही प्रत्यय है जिसे कारण-समवाय भो कह सकते ह । [ कायं | उन प्रत्ययो
काही फल ह किसी चेतन का नहीं यही सूत्र काथं है। [ आशय यह है
किं कारणों के समूह के स्वभाव से ही कायं कौ उत्पत्ति होना ~ प्रत्ययोपनिबन्धन
सवदशनसंग्रहे- ~
६० सवेदशनसंग्रह-
समुदाय है । अंकुर को उत्पन्न करने मेँ मिट, जल, बीज आदि कारणा है कोई
चेतन सत्ता { "अहम् करोमि" के रूप में ) इन पदार्थौ में नहीं है । नतोमिद्री
ही चेतन है न अंकुर ही । चेतन सत्ता के अभाव में केवल कारणों से कायं होता
है 1 हेतुपनिबन्धन में क्रमिक कायं होता है-अंकुर से कार्ड, काण्ड से नाल,
नाल से ग्भः" `“ आदि । यहाँ भी चेतन-सत्ता नहीं रहती । न तो अंकुर ही
समञ्चता है कि मेँ उत्पन्न कर रहा हं ओर न काण्ड हौ अपने को उत्पादित समन्ता ।
यथा बीजटेतुरङ्रो धातूनां षण्णां समवायाज्ञायते । तत्र
पृथिवीधातुरङ्करस्य काठिन्यं गन्धं च जनयति । अन्धातुः खे
रसं च जनयति । तेजोधातू रूपमोष्ण्यं च । वायुधातु; स्पशन
चलनं च । आकाञ्चधातुरवकां शब्दं च । ऋतुधातुय॑थायोगं
पृथिव्यादिकम् ।
उदाहरण के लिए बीज-ठेतु वाला अंकुर छह धातुओं ( मूल कारणों )
समवाय ( मेल ) से उत्पन्न होता है (न तो कायं ही चेतन दै ओर न कारण
यह भी नहीं कि कोई दूसरी चेतनशक्ति इनकी सहायता कर रही दै । इसलिए
फल निकलता है कि अंकु रादि कायं केवल कारणों के मेल से ही बनते है)
इनमें पृथिवी-धातु ( "१6 ©]6060४ ग श्श्प्णा ) अंङ्गर मे कठोरता
ओौर गन्ध उत्पन्न करता है । जल-धातु चिकनाहट ओर रस ॒( स्वाद ) उत्पन्न
करता है । तेज ( अच्नि )-घातु रूप ओौर उष्णता, वायुधातु स्पशं ओर गति देता
हे, आकाश-धातु शब्द ओर स्थान की. पूति करता है । ऋतु-षातु योग्यता ( या
आवद्यकता ) के अनुसार पृथिवी-आदि तक्वो को प्रदान करता है। (जिस
ऋतु में पदाथं होता है उसकी विशेषतायं दिए हृए रहता है । उसक्रे अनुसार
पृथिवी.आदि तत्वों मे न्युनाधिकता पर प्रभाव पडता है } ।
( २८ क. देतूपनिवन्धन समुदाय का स्वरूप )
हेतपनिबन्धनस्य च संग्राहकं सत्रमू--“उत्पादाद्वा तथागता-
नामनुत्पादाद्ा स्थितेवेषां धमाणां धमता धमेस्थितिता धमनियाम-
कता च प्रतीत्यसथुत्पादाचुरोमता ॥ तथागतानां बुद्धाना
मते धर्माणां कायंकारणरूपणां या ध्मत। कायकारणभावरूपा, एवा
उत्पादादयुत्पादादा स्थिता । यस्मिन्सति यदुत्पद्यते, यस्मिन्सति
यन्नोत्पद्यते तत्तस्य कारणस्य कायेम्--इति । धमेता! इत्यस्य
€
बौद्ध-दशेनम् ६१
विवरणं चर्मस्थितितेत्यादि । घमस्य कार्यस्य कारणानतिक्रमेण
स्थितिः । स्वाथिकः तट् प्रत्ययः । धर्मस्य कारणस्य कायं प्रति
नियामकता ।
हेतूषनिबन्धन समुदाय का वर्श॑न करने वाला सूत्र यह ह--“तथागतों के
तसे इन धर्मो ( काययंकारण ) की धर्मता कारयं-कारणा होना ) उत्पत्ति
( अन्वय ) तथा अनुत्पत्ति ( व्यतिरेक ) से सिद्ध हीहो जाती है; इसमे घर्मं
( कायं ) की स्थिति, धमं ( कारण ) की नियन्त्रणशक्ति, तथा प्रतीत्य-समृ्पा
( कारण पाकर कायं होना ) की अनुकूलता भीदै॥'
[ इसका यह अथं है -- | तथागतो अर्थात् बुद्धो ( निर्वाणश्रात् लोगों ) के
मत से का्यकार्णाके रूपमे जो धर्मं है उनकी धमता प्रकृति ‹ 11846 )
कराय-कारण के भावके रूपमे है। यह उत्पाद ( अन्वय-विधि ) ओर अनुत्पाद
{ व्यतिरेक-विधि ) से सिद्ध हो गई है। जिकर रहने पर जिसकी उत्पत्ति होती
ह ( उत्पाद ) ओर जिसके न रहने पर जो उत्पन्न नही होता ( अनुत्पाद ) वहं
उस कारणा का कायं है। धमता" शब्द करौ "धर्मस्थितिता इत्यादि शब्दो के
दारा व्याख्या की गई है । ( घर्मस्थितिता = ) धमं अर्थात् कायं का कारण क
उह्द्खन न करके स्थित रहना । "स्थितिता मेँ तल् ( ता } प्रत्यय उसी अर्थंका
बोधक है ( .“. निरर्थक है )। ( धम॑नियामकता = ) धमं अर्थात् कार्ण क
कार्यं के प्रति नियामक होना । ( इसलिए धमता का अथं है काययंका कारण के
बिना न रहना" ओर कारण का कार्यं पर नियन्त्रण रखना" । )
नन्वयं कार्यकारणभावश्रतनमन्तरेण न संभवतीत्यत
उक्तम्- प्रतीत्येति । कारणे सति ततप्रतीत्य प्राप्य सत्वाः `
देऽ्दलोमता = अनुसारिता या, सव धर्मतोत्पादादलुत्पादाहा `
धमौणां स्थिता । न चात्र कधिन्वेतनोऽधिष्ठातोषलम्यत-- `
इति सूतराथेः ॥ [
यहाँ पर कोई १ सक्ता हैकि कायं कारण का सम्बन्ब किसी चेतन |
घत्ता के [ हस्तक्षेप कयि | बिना संभव नहीं है, इसीलिए । उनकी का के
निराकरण के लिए ] कहा है प्रतीत्यसमृत्पाद की अनुकूलता । कारण के
रहने पर उसे पाकर ( प्रतीत्य ) उत्पत्ति { समुत्पाद ) होने पर अनुलोम होना
अर्थात् अनुसरण ( वी-पीचे रहना }- यही धमता (कार्यकारण भाव )
उत्पत्तिनियम ओर अनूत्पत्ति नियम से घर्मो के विषयमे सिद्ध होती है ( कायं
णि
| ६२ सवेदशंनसंगरहे-
| कारणा का सम्बन्ध सिद्ध होता है )। इसमे कोई भी चेतन अधिष्ठाता ( संबन्ध
जोड़नेवाला ) नहीं मिलता--यही सूर का अथंहै। ।
विशोष-चेतन के खंडन में बौद्धो का विशेष लक्ष्य नेयायिकों पर है क्योकि
वे ही ईश्वर की सत्ता सिद्धकरनेके लिए ठेसे अनुमान का अध्य तेते है
पृथ्वी अंकुरादि सकतंक है, क्योकि ये कायं है घटवत् । बौद्ध का ` राद्धान्त हैक
नतो बीज को अपने कारणत्व काज्ञान है ओौर न अंकुर को ही अपने का्यैत्व
का। कारणा तो अपने कायं के आगे सदा रहता है। चेतन कहां है ? जिनमें
कायकारण भाव है उनमें चैतन्य नहीं पाते ओौर जिन दरादिमें चैतन्यहिवे
कायं करते नहीं दिखालाई पडते ।
रतीत्यसघत्पादस्य हैतृपनिवन्धनो यथा--बीजादङकरः,
अङ्करात्काण्ड, काण्डान्ालः, नालादवर्भः, ततः शुकं, ततः पुष्यं,
पतः फलम् । न चात्र बाह्यं सदाये कारणं बीजादि कार्यमङ
। ॥ [ # ^~ © ¢ ॥
| रादि वा चेतयते -अहमङ्करं निवतेयामि, अं बीजेन निरव.
। तितः, इति । एवमाध्यात्मिकेष्वपि कारणद्वयमवगन्तव्यम् ।
| पुरःस्थिते प्रमेयान्धौ गरन्थविस्तरभीरुभिः' इति न्यायेनोपरम्यते ।
प्रतीत्यसमुत्पाद? का हैतुपनिबन्धन कारण इस प्रकार होता है- बीज से
| अंकुर, अंकुर से ग्रन्थि, प्रन्थि से डंठल, डंठल से कली, कली से ड, उससे फूल
ओर तव फल ( इस प्रकार एकं कारणाका दूसरे कारण को उत्पन्न करते
जाना ) । यहाँ बाह्य समूदायों ( कारणों के समूहो ) के होने पर, बीजादि कारण
या अंकुरादि कायं यह नहीं समन्ते कि मेँ अंकुर बना रहाहूंयार्मे बीजसे
। बना हूं । इसी तरह आष्यात्मिक पदार्थो में भी दो कारणों ( प्रत्यय, हतु ) को
| समञ्च लं । यहाँ पर उस लोकोक्ति के अनुसार छोड़ देते हैँ कि-- जानने योग्य
| वस्तुओं का समुद्र ही सामने मं है,गरन्थके वड़ाहो जाने के भयत [ विस्तार
॥| को छोड़कर केवल दिामात्र दिखला दँ ] ।२ ॑
| विशोष--अध्यात्मिक वस्तुओं का प्रत्ययोपनिबन्धन जेसे- काय की उत्पत्ति
|
| १--माध्यमिकःवृत्ति ( प° ९ )- अस्मिन् सति इदं भवति, अस्योत्पादांद-
||| यमत्पद्चत इति इद्रत्यया्थः प्रतीत्यसमूत्पादार्थः । |
| ( हेतुप्रत्ययसावेक्षो मावानामूत्पादः प्रतीत्यसमुत्पादा्थैः । )
| २-- पुरःस्थिते प्रमेयान्धौ ग्रन्थविस्तरभीरुभिः।
। | विस्तारं संपरित्यज्य दिड्मा्रमूपदर्यंताम् ॥
| च =
बौद्ध-दशेनम् ६३
क
^ प्रथिवी, जल, अन्न, वायु, आकाश ओर विज्ञान, इन छह धातुं के समवाय से
4 होती है । पृथिवी-घातु से काय मे कठोरता, जल-वातु से च्िग्धता, अन्निधातु से
वणं ओर परिपाक, वायु-धातु से ्रासादि, आकाशधातु से विस्तार तथा विज्ञान-
धातु से नाम-रप प्राप्त होता है ।
आध्यात्मिक वस्तुओं का हेतूपनिबन्वन कारण ही भवचक्र कहलाता है ।
हसे ही विशेषतया प्रतीत्यसमूत्पाद समञ्ते है । इसमे १२ कारणो को ्रंखला
परद्चित की गईहै। बौद्ध लोग इन्दैही इःखकाकार्णए स मक्षते ह -- क्षणिक
वस्तुओं को स्थिर समञ्लना या तच्वों को न जानना अविद्या है । इसी के कारण
प्वजन्म मे भला-वुरा कमं करने का संस्कार होतादहेि। ये दोनों कारण
पूर्वजन्म से संबद्ध है । संस्कार के कारण ही इस जन्ममें प्राणी गरभमें जाता है
तथा विज्ञान या चैतन्य पाता है। इसके फलस्वल्प शारोरिक ओर मानसिक
अवस्थाय ( नामरूप ) उसे मिलती ह 1 नाम-ख्प के कारण ही षड़।यतन
( छह इन्द्रियो का समूह } मिलता है जिसके कारण बालक बाह्य पद। धोका
स्पदौ करता है । स्पशं करने पर उसे सुख, दुःल तथा उदासीनता की त्रिविध
वेदना ( 9९381807 ) होती है जिससे पदार्थो को तृष्णा उत्पन्न हो जाती
है । तृष्णा से विषयों को आसक्ति या उपादान होतादहै गौर उसी से भव
अर्थात् नया जन्म होता है जो पूवंजन्म के संस्कार के समानदही है। यहां तक
आठ कारण वतमान जीवन से संबद्ध है । अब भव के कारण भविष्य में जाति
( जन्म ) लेना अनिवायं है। फिर जरामरण को कौन रोकेगा ? यही दुःख के
कारणों कौ श्ंलला है जिस पर समूचा वौ द्धदरंन अवलंबित ६ ।
( २९. सौत्रान्तिक-मत का उपसंहार )
तदुमयनिरोधः । तदनन्तरं विमलन्ञानोदयो वा खृक्तिः।
तननिरोधोषायो मामः । स च तच्ज्ञानम् । तच प्राचीनमावना-
बलाद्धवतीति परमं रहस्यम् । घत्रस्यान्तं पृच्छतां कथितं--
(भवन्तश चृत्रस्यान्तं पृष्टवन्तः, सौतरान्तिका वन्तु इति ।
भगवताऽभिहिततया सौत्रान्तिकसंज्ञा संजातेति ॥
^+ तो, इन दोनों का ( दुःखके दोनों कारणो का, अथवा इख ओर दुःख
कारण का) निरोध होता हि । उसके बाद विमलज्ञान का उदय होने से मुक्ति
होती है) दुःख को रोकने का उपायही मार्गं है। वह ( मामं) है तत्वों को
जानना । वह् तच्वज्ञान प्राचीन भावनाभंकेही कारण होता है-यही सबसे
बड़ा रहस्य है । सूत्र के अंतिम सिद्धान्त पृद्धने वालों को [ बुद्ध ने ] कहा--""'
६४ सवेदशेनसंग्रहे-
ओौर आप्र लोग सत्र के अंत ( गढ़ रहस्य ) को पष्ठते ह, इसलिए सौत्रान्तिक
हों ।' भगवान् ( बुद्ध ) के कहने से इनका नाम सौत्रान्तिक पड़ गया 1
विशोष-दुःखनिरोध के आठ क्रमिक मागं बुद्धने बतलये है। वे है--
सम्यक् दृष्टि ( ज्ञान ), सम्यक् संकल्प, सम्यक् वचन, कर्मान्त ८ पंचशील, दश
रील ), सम्यक् आजीव, सम्यक् व्यायाम, सम्यक् स्मृति, तथा सम्यक् समाधि ।
इन्द अष्ांग मागं कहते है । सम्यक् का अथं है मघ्यम-मागं, दोनों अतियो
( 0शा068 )} का परित्याग । न अधिक भोग न अधिक तपस्या। इसके
काव्यमय वर्णन के लिए बुद्धको निर्वाण प्राति पर हिन्दी में लिखे गये मेरे
नि रंजना-खंडकाव्य को देखें ।
सौत्रान्तिक नाम पड़ने का कारण है, सूत्रान्तो को मानना । ये अभिधम्म-
पिटक को नहीं मानते क्योकि बुद्धवचन न होने से भ्रान्त है । बुद्ध के आध्यात्मिक
उपदेश सृत्त-पिटकमें ही संनिविष्ट है । हसलिएये उसे ही प्रामाशिकं मानते है।
यशोमित्र अपनी स्फुटार्था में कहते हैँ कः सौत्रान्तिकाः ? ये सूत्रप्रामारिका, न
तु शाखप्रामाणिकास्ते सौत्रान्तिकाः ।' शार = अभिधरमं । इस सम्प्रदाय के प्रमुख
आचायं ये है--कुमारलात ( २०० ई०, तक्षकशिलावासी प्रन्थ-कल्पनामंडतिका
श्रीलाभ (कुमार के शिष्य, सौत्रान्तिक विभाषा की रचना), धर्मात
|| ओर बुद्धदेव ( वसुबन्ध द्वारा उक्लिखित ), यरोभिच्न ( अभिधर्मकोष की
| टीका स्फुटार्था ) ।
=
व म सवज ६.0
०
न ॥4
(३०. वेभाषिक-मत- बाह्या्थप्रत्यक्षत्ववाद् )
केचन बीद्धाः- बाह्येषु गन्धादिष्वान्तरेषु रूपादिस्कन्धेषु
सत्स्वपि, तत्रानास्थागुत्पादयितं सबं शून्यमिति प्राथमिकानि-
नेयान् अचकथद्धगवान्, द्वितीयस्तु विज्ञानमात्रग्रदाविष्टन्वि-
मेवेकं ष [+ च ^ इ वरती # सत्यमित्यास्थितानिज्ञेयमनु
ज्ञानमेकं सदिति, व्रतीयानुभयं सस्यमित्यास्थिताचिज्ञेयमन-
मेयमिति, सेयं॑षिरुद्धा भापेति वणेयन्तः- पैभाषिकाख्यया
ख्याता; ।
कुछ बौद्ध वेभाषिक के नामसे प्रसिद्ध है क्योकि ये इन ( तीनों सम्प्रदायो )
कीबात को विरुद्ध भाषा ( विभाषा ) कहकर मानते है यद्यपि गन्धादि बाह्य
पदार्थो ओर रूपादि स्कन्ध के आन्तरिक पदार्थो कौ सत्ता है फिर भी भगवान् बुद्ध
ने ( १) पहले शिष्यो मे अविश्वास उत्पन्न करने के लिये सब कुछ शून्य है" एसा
------ ~ -
` १--सूतरन्तं पृच्छति इति सौत्रान्तिकः । पृच्छतौ सुखातादिभ्यः' इति ठक् ।
` बौद्ध-दशेनम् ६५
कहा । ( २) दुसरे शिष्यो को जो विज्ञान रूपी ग्रहोंसे भ्रस्त यथे, यह कटा कि.
विज्ञान ही एकमात्र सत् ह । ( ३ ) तीसरे जिष्यो को जो दोनों ( बाह्य आन्तर )
कौ सन्ता मे आस्था रवे हृषु थे, यहं कटः कि विज्ञेय ( बाह्य) पदाथं अनुमान
का विषय है ।
विस्तेष-वेभाषिकों का पुराना नाम तर्वास्तिवादी है क्योकि ये स्वो की
सत्ता स्वोकार करते है । बाद मे ज कनिष्क के समय बौद्धो की चतुथं सं गीति
हई तो उसमे इस सम्प्रदाय के मूलग्रन्थ आयं कात्यायनीपुत्र के द्वारा रचित
ज्ञानप्रस्थानशखर' पर एक विराट् टीका बनीजो विभाषा कलाई । इसी
न्थ को सबसे अधिक मान्य मानने के कारणा सम्प्रदाय का नाम् वै भाषिक पड़
गया । य्चोमित्र ने स्पुटाथा से लिखा है--विमाषया दिव्यन्ति चरन्ति वा वेभा-
विका; । विभाषां वा वदन्त भाविकाः । उस्थादिपरषेपात् ठक् ( पु० १२)।
अश्चोकं के समय जब द्वितीय संगीति हुई थी उसी समय सर्वास्तिवाद अपने
प्रिय सिद्धान्तो की रक्षा के लिए स्थविरवाद ( येरवाद ) से पृथक् हो गया धा ।
कनिष्क के समय तक सर्वास्तिवादी फिर विभक्त हो गये--एक गन्धार के सर्वा-
स्तिवादी, दूसरे कदमीर के । लेकिन चतुथं संगीति मे ये एक कर दिये गये जिसका
नाम "कादमीर देमाषिक' पड़ा । तर्वास्तिवादियो का मूल साहित्य संस्कृत में
ा परन्तु आज वे ग्रन्थ लुत ह, केवल चीनी ओर तिब्बती अनुवादो पर ही
सन्तोष करना पड़ता है । डा° तकाकृ ने इनका विस्तृत परिचय दिया है ।
सर्वास्तिवाद ओौर स्थविरवाद मे सूत्र ( सुकत्तपिटक ) ओर विनय ( विनय-
पिटक ) मेँ विशेष अन्तर नहीं । उनका अन्तर अभिधमं को लेकर है । सूत्र मे
क्ैमाषिको के ग्न्य ह -- दीर्घागम ( तुल° स्थविरवादी-दी्घंनिकाय ), मघ्यमागन
( मज्ज्िमनिकाय ), संयुक्तागम ( संजुत्त निकाय ), अङ्खोत्तरागम ( अंगत्तरनि-
काय ) ओर श्ुद्रकागमे ( खुद्कनिकाय )। इस प्रकार नामः क्रम मे तो समता
हही विषयवस्तु मी दोनों के समान ही है । इनके विनय पौच ह जो स्थविरवा-
हयो के विनयपिटक से तुलनीय ट--
सर्वास्तिवादी ( तिब्बती )--स्थविरवादी ( पालि )
१. विनय-वस्तु महावस्ग ( विनयपिटक )
२. प्राततिमोक्षसूत पातिमोक्छ ने
३. विनय विभाग सुत्त विभङ्ग ७
४. विनय स्षुद्रक वस्तु चुल्ञवगग च
५. विनय उत्तर ग्रन्थ परिवार
इन ग्रन्थो का मूल संस्कृत से तिन्बती अनुवाद करई शताब्दियों मे हुभा है \
यही दला अन्य ग्रन्थों के तिन्बती ओर चीनी अनुवादो की है\
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६ सवेदशनसंम्रहे-
इनका अभिधमं बीन मे माज भी अपना मस्तक उठये हुए है। ये ग्रन्थ
सात है--( १) आयं कात्यायनीपुत्र रचित ज्ञान-प्रस्थान ( १८३ ई° पू* ),
( २ ) महाकौषठल ( यंशोमित्र के अनुसार ) या शारिपुत्र ( चीनी अनुवादो के
अनुसार ) रचित संगीति पर्याय, (३) वसुमित्र का प्रकरणवाद ( १८३ ई
प० ), ( ४ ) देवशर्मा का विज्ञानकाय, (५) पूणं या वसुमित्र लिखित धातु- `
काय, ( ६ ) शारिपुत्र या मौदरल्यायन रचित धम॑स्कन्ध तथा ( ७ } मौदरल्यायन
रचित प्रज्ञतिशाखर । ऊपर कहा जा चुका है कि ज्ञानप्रस्थान पर चतुथं संगीति
मे विभाषा टीका लिखी गई । इसमें वसुमित्र ओर अश्वघोष का वडा हाथ था।
इसकी भी तीन टीकाये हृई जिनमे "महाविभाषा? सवसे बड़ी है । हृएनसांग ने `
इसका अनुवाद चार वर्षो में (६५६-५९ ई० ) पूरा क्िया। अनुवाद चार
हजार पृष्ठो मे है)
दस सम्प्रदाय के अन्य आचायं है-- वसुबन्धु ( ४थी शताब्दी ), कृतियां-
परमा्थसपतति, तकशा, वादविधि ओर अभिधमेकोश्, अभिधमंकोश कौ टीका-
सम्पत्ति विपुल है, वसुबन्धु के कायं सौत्रान्तिक-सम्प्रदाय मे भी हुए ह), संघमद्र
( विशुद्ध वैमाषिक, वसुबन्धु के विरोधी, कृतिया--अभिधमं न्यायानुसार या
कोशकरका, अभिधमम॑समयदीपिका, हृएनसांग द्वारा दोनों का अनुवाद, पर
१७५१ ओौर ७४९ ) । इसके अलावे अन्य आचायं भौ है जिनके चीनी अनुवादो
मे नाम बचे दहै।
एषा हि तेषां परिभाषा समरुन्मिषति । विज्ञेयालुमेयत्वादे
परात्यक्षिकस्य कस्यचिदप्यथस्याभावेन, व्याश्चिसबेदनस्थानाः
भवेन अनुमानप्रबरर्यनुषपत्तिः, सकलरोकानुभवविरोधध । `
ततश्वार्थो हिषिधः- ग्राह्योऽध्यवसेयश्च । तत्र ग्रहणं निर्वि
कटपकरूपं प्रमाणम् । करपनापोटत्वात् । अध्यवसायः सविकल्पः
करूपोऽग्रमाणम् । कस्पनाज्ञानत्वात् ।
उनकी पारिभाषिकं शब्दावली इस प्रकार निकलती है--'विज्ञेय ( बाह्य
पदार्थो ) को अनुमान का विषय जो लोग मानते हँ ( = सौत्रान्तिक ) वे प्रत्यक्षतः
किसी भी अथं की सत्ता को स्वीकार नहीं करते । फल यह होता है किं व्याति
के ज्ञान के स्थान की भी सत्ता नहीं रहेगी, फिर [ व्यातिज्ञान के अमावमें|
अनुमान की ही प्रवृत्ति नहीं होगी । ( आशय यह है-- जहाँ धरम है वहां अभनि
है" इस व्याति का ज्ञान कैसे होता है ? हम रसोर्ईधर का उदाहरण दगे, जहां
धूम ओर अभि की व्याति प्रत्यक्षज्ञान सेप्राप्त होती है। इसलिये रसोई्धर को
ए ६७
व्याति के संवेदन का स्थान करगे । जब लौत्रान्तिकं लोग ` किस भी पदार्थं का
प्रत्यक्षज्ञान नहीं मानते तो रसौर भी नहीं बच सकेगा । इसलिए उनके यर्हा
रत्यक्त के अभावमें व्याततिज्ञान का कोई उपाय नहीं । जिस अनुमानषिवे
विषयों का ज्ञान करतेर्है, क्या व्यातिज्ञान के अभावे वह ठहर सकेगा ?
इसलिए बाह्याथं को प्रत्यक्षगम्य मानना वरम आवदयक है । ) दूसरे, समूचे
संसार के अनुभव के मी [ वह सिद्धान्त ] विरोधमें है ( सभी लोग वस्तुओं को
देखकर जानते ह न कि अनुमान करके ) ।
इसके बाद अर्थं दो प्रकारके होति है ग्राह्य ( ९057016 ) तथा अघ्यव-
सेय ( जेय {६1058816 ) । [ इन्द्रियों के साथ वस्तुओं का संयोग होति ही जब
निविकल्पक ( ५ >) -4;8 ०0017) 8४९९ ) ज्ञान होता है कि यह कोई चीज है,
तो श्य ज्ञान का विषय देवदत्तादि पदार्थं ग्राह्य कहलाते ह । ग्राह्य = निविकट्पक
ज्ञानं जिसका हो वसौ वस्तु । बाद मे जब जाति, गृण आदि विजेषो का
्रत्यक्षीकरण होता है तब "यह् ब्राह्मण है, श्याम दै" इत्यादि सविकल्पकं ज्ञान कै
विषय को अच्यवसेय कहते है । अल्यवसेय = सविकल्पक ज्ञान का विषय । |
तब उनमें निविकल्पक के रूपमे जो ग्रहण (्राह्यका ज्ञान=निविकल्पक ज्ञान)
होता है वही प्रमाण है क्योकि उसमें कल्पना बिल्कुल नहीं रहती (अपोढ -रहित) ।
सविकल्पक के स्प म जो अध्यवसाय होता है वह अप्रमाण है क्योकि उसमें
[ वस्तु का ज्ञान नही, ] कल्पना का जान होता दै । [ हम जानते है किज्ञान के
विेष है--जाति (71888), गण((०९१ ), क्रिया (९109) ओर द्रव्य
(2९ 8106) । वस्तुतः सीपी रहनेपर भी "यह चाँदी हैः इस प्रकार का ज्ञान चूंकि
कल्पित-रजतत्व से युक्त है अतः प्रमाण नही है। उसी प्रकार ज्ञान के ये चारों
विरोष कल्पित अर्थात् कल्पनाप्रसूत है इसलिए प्रमाणा नहीं होति । बोडढ लोग
मानते है कि कल्पनासे ही कोई वस्तु असत) सिद्ध होती है। जति तो
वस्तुनिष्ठ है नहीं, उसे तो अपोह से जानते जैसे--चट जाति-घट भिन्न-भिन्न या
चटेतर भिन्न । यह भी काल्पनिक ही है । संज्ञाय जो वस्तुओं को दी जाती
क" र ण व
१ निविकल्पक ओर सविकल्पक ज्ञान का बड़ा सुन्दर निदर्शन शिशुपाल-
वध कौ इन पक्तियो ( १।२-३ ) मे हुजा है जहाँ नारद को अकाश से
उतरते देखकर जनता में प्रतिक्रियाये होती है--
नि्िकल्थक--गतं तिरथीनमनुरुसारयेः प्रसिदधमूष्वंजलनं हवि भजः ।
| पतत्यघो धाम विसारि स्वतः किमेत दित्याकुल मीक्षितं जनेः।। २ ॥
सविकर्पक--चयस्त्विषामिव्यवधारितं पुरा ततः शरीरीति विभाविताकृतिम् ।
विभरुविभक्तावयवं पुमानिति क्रमादमुं नारद इत्यबोधि सः ॥२।)
« सख० स०
छ नि ते
॥
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। | ॥
॥
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4 ह
त 11४
| # | ॥
# । ३ ३.
१.
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१)
॥
छ
६८ सवेदशनसंग्रदे-
पुरुष ही देते है अतः वे भी कल्पना पर ही आधारित है। गुण ओर क्रिया को
अपने आश्रय से बराबर संबंध है ही नहीं-ये भी वस्तुनिष्ठ न होकर कल्पित
है । सविकल्पक ज्ञान में मानसिक-दशा का प्रक्षेप वस्तु पर होता है अतः
अध्यवसेय ज्ञान प्रमाण नहीं हो सकता । जमन -दार्निक काट ( 180४ )
ने भी दृदयजगत् ( 21160060 ) भौर सत्य-जगत् ( \ ००९१६ )
का अन्तर दिखलाते हए कहा था कि मूल सत्यको हम नहीं जान सकते
क्योकि जब ज्ञान करने जाते ह तब वस्तु पर वृद्धिका आरोपण हो जात) है
( 11594 (००प8 €रन फ़ धा1ण &पत 88 80९}1 € 81170 ४६70
{17€ 0प्0ला8 0८ 2.68]. ५1४४ ९ 876 ९8[)811€ ५०
[छन्न 15 0 4 [0688006 88 10161]016060 10 पला ४8 ण
{116 पला४8] (गण्पप्तणछ ग ॥0€ 1९8] पड्ण्पा€ ण पट्
० 16 8०-५811९4 #"18-1-#1610561568. ) इस प्रकार भ्रत्यक्ष
भो कमी कभी अप्रमाण माना जाता है।
( ३१. निर्विकस्पक प्रत्यक्ष दी पकमाच्न प्रमाण दे )
तदुक्तम्-
२४. कट्पनापोटमभ्रान्तं प्रत्यक्षं निविंकस्पकम् ।
विकरपो वस्तनिभीसादसंबादादुपषुवबः ।॥ इति
२५. ग्राह्यं वस्तु प्रमाणं दि ग्रहणं यदतोऽन्यथा ।
न तदस्तु न तन्मानं शब्दरिङ्कन्द्रियादिजम्।। इति च ।
जसा कि कहा गया है--'निविकल्पकं प्रत्यक्ष वह है जो कल्पना से रहित है
तथा श्रान्त ( मिथ्या ज्ञान ) भी नहीं है ( श्रान्त नहीं होने से यह 3 सत्य ज्ञान है
ओौर प्रमाणा है )। विकल्प-प्रत्यक्ष ( = सविकल्पक प्रत्यक्ष ) में वस्तुओं कौ
भ्रतीति (निर्भास, 8] {0९881006} होती हे, एकमति से ज्ञान न होने के कारण.
यह भ्रम ( उपप्लव ) है ( सविकल्पक ज्ञान मिन्न-भिन्न पुरुषों का विभिन्न
प्रकार से होता दै, सभी लोग एक ही ष्टि से वस्तुओं को नहीं जानते इसलिए
सनो की एकमति नहीं । लेकिन प्रमाणा वही है जो एकात्मक-ज्ञान हो )।'
मौर भो--श्राह्य ( निविकल्पक प्रत्यक्ष का विषय ) वस्तु ही ( सत्य है]
क्योकि प्रमाणा केवल ग्रहण ( निविकल्पक प्रत्यक्ष द्वारा ज्ञान ) ही है । इसके
अतिरिक्त जो कु है वह वस्तु नहीं है, शब्द, लिग॒ ओर इन्दरियादि से उत्पन्न
होने के कारण वह प्रमाण भी नहीं
विरोष- ज्ञान की उत्पत्ति के साधन ये ह-शब्द ( शब्द-प्रमाण ),
बौद्ध-दशेनम् ६६
लिंग ( अनुमान प्रमाण), इन्द्रिय ( सविकल्पक प्रत्यक्ष मात्र )। आदि =
उपमानादि । ये सभी ज्ञान काल्पनिक है, वस्तुनिष्ठ नहीं । शाब्द्--यदि कोई
कहे कि कलकत्ते मे कल रात दुब पानौ बरसा, तो श्रोता अपने पहले देवे
हृए नगर के समान कलकत्ते को कल्पना करता है, फिर बीती हुई रात की
कल्पना करता है, फिर कभी देखी हई वर्षा कौ कल्पना करता है--इस
प्रकार क्रम से ज्ञान करता ` हुआ शब्द ज्ञान से परिस्थिति को कल्पना का विषय
बनाता है इसलिए यह प्रमाण नहीं । लिग--जो अज्ञात वस्तु का ज्ञान करावे
( लीनमर्थं गमयति ) वही लिग है नैसे-धूमादि । पहाड पर . धूम देखकर
रक्ोई धर-आदि जगहों मे पडले देवे गये अमिके सहश अभि की कल्पना
अनुमाता करता है । यहां भी पहले की तरह कल्पना है अतः लिग से उत्पन्न
ज्ञान ( अनुमान ) भी प्रमाण नहीं । इन्द्रिय --इससे उत्पन्न प्रत्यक्ष ज्ञान दो
प्रकार का है- निविकल्पक जो प्रमाण है तथा सविकल्पक जो प्रमाण नहीं ।
उपमानादि में भीगोके सदृश गवय कहने पर पवहष्ट गो को कल्पना कौ
जाती हे अतः वह भी प्रमाण नहीं है । इत प्रकार वस्तुओं का ज्ञान निविकल्पक
प्रत्यक्ष द्वारा ही संभव दै ।
नु सविकरपकस्याप्रामाण्ये कथं ततः ्वत्तस्याथेप्राधिः
संबादश्रोपपयेयातामिति चेत्-न तद् भद्रम् । मणिप्रभाव्रिषय-
मणिविकसपन्यायेन पारपर्येणार्थप्रतिलम्भसंभवेन तदुपपत्तेः ।
अविष्टं सोत्रान्तिकप्रस्तावे प्रपञ्चितमिति नेह प्रतन्यते ।
यदि कोई यह शंका करे कि जब आप विकल्पक को अप्रमाण मानते है
तब इसी ज्ञान को पाकर, जो व्यक्ति प्रस्तुत होकर, वस्तु की प्राप्ति करता,
जिससे सभी सहमत है ( कोई विवाद नहीं }--ईइसकी सिद्धि कैसे होगी ?
८ माना कि सीपी को चांदी समन इदं रजतम्” कहना चान्त है क्योकि वहां
अर्थं या वस्तु की प्राति नहीं होती लेकिन सत्य रजत की स्थिति में तो अथं प्राति
होती है । इसे आप कँसे अप्रमाण कह सकते है ? दमे किसी का विवादभी
नहीं कि यह चांदी नहीं है। सच्ची चीज को कौन नहीं मानेगा ? इसलिये
आपको सविकल्पक की प्रामाणिकता स्वीकार करनी पडेगी ) ।
उत्तर है कि शंका ठीक नहीं । मणि कौ प्रमा रूपी विषय से जिस प्रकार
मणि की कल्पना की जाती है उसी तरह परपरा (क्रम) से इस प्रकार कौ
वस्तुओं का ज्ञान संभव ह, यह सिद्ध होतादहै। (मणिकी प्रभा को देख कर
कोई श्रम से "यह मणि है" यह सोचकर जाय तोखसे प्रभाकेद्राराही
मणि कौ प्रापि होती है। वैसे ही सत्यरजत के स्थान पर 'यहं रजत है इस
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१०० सर्बदशनसंग्रहे-
प्रकारं सविकल्पक श्रम ज्ञान से कोई जाय तो उसे उसी रजत की प्राप्ति होती
है । अभिप्राय है किभ्रमज्ञानसे ही क्रमः सत्यज्ञान होता है 1 ) शेष बातें
सौघ्राम्तिकों की प्रस्तावना करते समय ही कह दी गई है, यहाँ पर नहीं
बद़ाईजारहीहै)
( ३२. ततव की अभिन्नता- मार्गा मे भद )
ने च विनेयाशयानुरोधेनोपदेशभेदः सांप्रदायिको न भवतीति
भणितव्यम् । यतो भणितं बोधिचित्तविवरणे-
२६. देश्चना रोकनाथानां स्खाश्चयवशाचुगाः ।
भिद्यन्ते बहुधा लोक उपायैवेहभिः पुनः ॥
२७, गम्भीरोत्तानमभेदेन कचिचोभयलक्षणा ।
भिन्ना हि देश्षनाभिना श्ून्यतादयलक्षणा ॥ इति ।
ओर एेसा भी नहीं कहना चाहिए कि शिष्यो ( विनेय ) के अभिप्रायो के
कारण उपदेशों मे भेद होना साम्प्रदायिक नहीं है । {( शिष्यो की विभिन्न बुद्धि
के कार्ण गुरु का उपदेश एक होने पर भी सम्प्रदाय--010€९प+ 8९10018---
के चलते उपदेशो मे भेद होता है। बुद्ध का उपदेश एकात्मकहीथा।) एसा
बोधिचित्त के विवरण (टिप्पणीके रूपमे छोटी टीका) मे कहा गया है-
'सन्मार्ग-प्रद्यैकों ( लोक के स्वामियों, आचार्यो ) के उपदेश, समक्षे वाले लोगों
के अभिप्रायो के चपेटे मे पड़कर, संसार मे विभिन्न मागो ( उपायों ) के कारण,
प्रायः भिन्न-भिन्न प्रतीत होते है। उनके उपदेश कहीं गम्भीर है, कीं स्पष्ठ
( उत्तान ) कहीं पर दोनो प्रकार के लक्षणों ( गम्भीरता ओर स्पष्टता ) से युक्त
है- इसलिए भेद के कारण उपदेश भिन्न लगते ह, किन्तु तत्व एक मात्र शून्य
हे जो अद्य ({ 7100-8 }) ओौर अभिन्न है । ( उपदेश के भेद से ` तत्व में
भेद नहीं पडता, भेद होता है तो मागं या सम्प्रदाय में । शृन्यतत््व का वर्णन
सभी करते है परन्तु अपनी बुद्धि के अनुसार ही । हीनबुद्धिवाले शिष्य एक शब्द
मे शून्यता को समञ्च न सके तो सर्वास्तित्ववाद के माच्यम से समञ्च । मध्यम-
बद्धिवाले ज्ञान मात्र का अस्तित्व मान कर समज्ञ सके, तो परकृष्टबुद्धिवाले शिष्य
साक्षात् रूप से शून्यता को समञ्ञ गये । )
१--तुलना करे वाक्यपदीय--उपायाः शिक्ष्यमाणानां बालानामुपलालनाः ।
असस्ये वत्म॑नि स्थित्वा ततः सत्यं समीहते ॥
बोद्ध-दशनम् १०१
( २३२. इाद्श आयतनो की पूजा )
द्ादश्षायतनप्जा भरेयस्करीति बरोदनये प्रसिद्धम्-
२८. अथालुपाञ्यं बहशो द्वादशायतनानि वै ।
परितः पूजनीयानि किमन्येरिहि पूजितः ॥
२९, ज्ञनेन्दरियाणि पञ्चैव तथा कर्मेन्द्रियाणि च ।
मनोबुद्धिरिति प्रोक्त दाद्चायतनं बुधैः ॥ इति ।
बौद्धो के सिद्धान्त मे प्रसिद्ध हैकि बारह आयतनं ( अन्तःस्थानो ) कौ
पूजा मोक्ष देने वाली है-- "बहुत सा धन उपाजित करके द्वादश आयतनो कौ
पूजा करनी चाहिए । यहं दूसरी पूजाओों से क्या लाम है? विद्वानों ने कहा है
कि पाँच ज्ञानेन्दरियां ( चमं, नेत्र, करं , रसना ओर नासिका ), पच कर्मेद्दिरयां
{ हाथ, वैर, मुह, जननेन्दरिय तथा गुदा ), मन ओर बुद्धि-ये ही हादश आयतन
ह ।' ( = इनसे सम्यक् कमं करना चार्हिए । )
( ३४. वौद्ध-मत का संग्रह )
विवेकविलासे बौद्मतमित्थमभ्यधाथि--
३०. बौद्धानां सुगतो देवो विश्वं च क्षणभङ्गुरम् ।
आर्मसत्याख्यया तच्वचतुष्टयमिदं कमात् ॥
३१. दुःखमायतनं यैव ततः समुदयो मतः।
मार्भतरेत्यस्य च व्याख्या क्रमेण श्रयतामतः ॥
विवेक-विलास में बोदढ-मत का इस प्रकार वन किया गया है--बोदो
क देवता सुगत ( बुद्ध ) ई, संसार क्षण में नष्ट हो जाताहे। आय॑सत्य
नाम कै चार तस्वौ को क्रमशः | जानना चाहिए ]। दुःख, दुःख का स्थान,
तव समुदयं तथा मागे (ये प्रसिद्ध आयंसत्य नही है बयोकि वे है-दुःख,
समुदय, निरो ओर मागं )--अब इनको व्याख्या क्रमशः सुन ।
३२. दुःखं संसारिणः स्कन्धास्ते च प्च प्रकीतिताः ।
विज्ञानं वेदना सज्ञा संस्कारो रूपमेव च ॥
३२, पञ्चेन्द्रियाणि शब्दाद्या विषयाः पव मानसम् ।
[ऋ
द्ादज्ञायतान तु ॥
१०२ सवेदशेनसंमरहे-
३४. रागादीनां गणो यस्मात्समुदेति वृणां हदि ।
आत्मात्मीयस्वभावाख्यः स स्यात्सण्रुदयः पुनः ॥
दुख का अथं है संसार में रहने वाले प्राणी के स्कन्ध, जो पाच कटे गये
है विज्ञान, वेदना, संज्ञा, संस्कार ओर रूप ।
दादश आयतन ये है- पाच इन्दर्यां ( ज्ञान की), शब्दादि पाच विषय
( दूसरे मत मे पाच कमं की इन्द्रियां ), मन तथा घमं का जायतन ( = निवास
स्थान अर्थात् बुद्धि ) ।
जिससे रागादि का समूह मनुष्यों के : हृदय मे उत्पन्न होता हे, आत्मा के
अपने स्वभावके नाम से जो विद्यमान है- वही समुदय है । |
३५. क्षणिकाः सर्वसंस्कारा इति या वासना स्थिरा ।
स॒ मार्मं इति विज्ञेयः स॒ च मोक्षोऽभिधीयते ॥
३६. प्रत्यक्षमनुमानं च प्रमाणद्वितयं तथा।
चतुष्प्रस्थानिका बोद्धा; ख्याता बेभाषिकादयः ॥
समी संस्कार क्षणिक है" यह जो स्थिर वासना ( विचार ) है, इसे ही
मागं जानें । इसे मोक्ष भी कहते है ।
रतयक्ष ओर अनुमान--ये केवल दो प्रमाण दहै । वेभाषिक-भादि बौद्धो
के चार प्रस्थान ( 80110018 ) प्रसिद्ध है ।
३७. अर्थो ज्ञानाचितो वैभाषिकेण बहु मन्यते ।
सौत्रान्तिकेन प्रतयक्षग्राहमोऽ्थो न बहिमेतः ॥
३८. आकारसहिता वुद्विर्योगाचारस्य संमता ।
केवलां संविदं स्वस्थां मन्यन्ते मध्यमाः पुनः ॥
वैभाषिक लोग अथं को ज्ञान से युक्त ( प्रतयक्षगम्य ) मानते है,
सौ चान्तिक बाह्य अर्थं को प्रत्यक्ष द्वारा ग्रहणीय नहीं लेते ( अनुमेय मानते
है) 1 योगाचारके मतसे बुद्धिदही आकार के साथ है (बुद्धिमेंही बाह्यां
१--अन्यत्रापयक्तमु-मुख्यो माध्यमिको विवतं मखिलं शून्यस्य मेने जगत्,
योगाचारमते तु सन्ति मतयस्तासां विवर्तोऽखिलः ।
अर्थोऽस्ति क्षशिकस्त्वसावनुमितो बुद्धयेति सौत्रान्तिकः, `
रत्य क्षणभङ्गुरं च सकलं वैभाषिको भाषते ॥
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ए बौद्ध-दशेनम् १०३
+ चले मति है-मेद-माव नहीं ) । माध्यमिक केवल ज्ञानको ही अपनेमें
& स्थितं मानते है ।
३९. रा गादिज्ञानसंतानवासनोच्छेदसंभवा ।
चतुणामपि बौद्धानां युक्तिरेषा प्रकीर्तिता ॥
> ०, कृत्तिः कमण्डलर्मोण्डयं चीरं पूवीह्णमोजनम् ।
सनो रक्ताम्बरत्वं च रिभिये बरोद्धभिश्चभिः॥
( वि० वि० ८।२६१-७५ ) इति ।
शा 1
+, -> ^+. +! क~ रषर
॥
(क [क्क € € ॐ १. (+
इति श्रीमत्सायणमाधत्राय सर्वदशेनसंग्रदे बोददश्नम् ॥
~=
रागादि-ज्ञान कौ परम्परा रूपौ वासना के नष्ट हो जाने से उत्पन्न मुक्ति
चारों प्रकारके बोदढोंके लिए कटी गई है । चमं, कमरडलु, मुरडन, चीर
( वलन ), पूर्वाह्न मे | एक बार ] भोजन, संव मे रहना जौर लाल ( कषाय )
वलन धारण करना बौद भिश्चुर्दही स्वीकार करते दहै ।' ( विवेक-विलास,
८।२६५-७५ ) ।
इसप्रकार श्रोमान् सायण माघव के सवंदश्नसं ग्रह में बौदधदर्चन [समाप हुआ।।
| इति बालकविनोमाशङ्कुरेण रचितायां सवं द्ंनसंग्रहस्य प्रकाशाख्यायां
व्याख्यायां बौडद्चनमवसितम् ॥\
---- =
त - व ॐ - ४४ प क ९५१, १ कद् +५,. + < ॥
५, ~ 4 भि ^ ४4 वा 5 व स ० 4 9 अ ५
शा 9. € ज 9 क 3.46 + + = दे
५. ४७ आहेत £
( ३ ) आहत-दशनम्
जीबादितच्वनि चयं समुपादिशब्यो
ज्ञानभ्रपव्वमखिलं सरलं तथेब ।
संदिश्य दशैनमथापि चरित्रमेवं
जेनो भवेत्पथिनिदश्चैक एष वीरः ॥- ऋषिः
( १. क्षणिक-भावना का खण्डन )
तदित्थं युक्तकच्छानां मतमसहमाना विवसनाः कथंचि-
त्स्थायित्वमास्थाय क्षणिकत्वपक्षं प्रतिश्चिषन्ति । यद्याटमा कथि-
न्नास्थीयेत स्थायी, तदेहरोकिकपारलोकिकफरसाधनसंपादनं
विफलं भवेत् ।
कां ( पिद्धुभा, धोती के अगले भाग की छोर, कच्छ ) को खुला रखने वाले
{ = बौद) लोगों के इस क्षणिकत्व-मत को वल्र-हीन (जेन) लोग सहन
नहीं कर पाते तथा किसी प्रकार [ सत्ताका] स्थायित्व स्वोकार करके
क्षशिकत्व-मत का खरडन करते हँ । यदि कोई स्थायी आस्मा नहीं मानी जाय
तो इहलोक ( संसार ) ओर परलोक--दोनो की फलप्रात्ति के साधनों ( त्रत,
उपवास, दान, पुण्य आदि ) का संपादन व्ययं हो जायगा ।
विरोष-माधवाचायं बौद्धा ओर जेनोंके साथ व्यंम्य करतेरहै। बौद्ध
लोग का नहीं बधते तोजेन लोग उनके भी चाचार्हैकि वही नहीं
पहनते । स्पष्टतः यह संकेत दिगम्बर जेनियों पर है। आश्वयंहैकि कांडन
जाँधनेवले के मत को वस्रहीन लोग दोषपूणं मानं, पर यहीत्तो संसारका
नियम है। जेनियों की आपत्ति है कि यदि सभी पदार्थं क्षण-क्षण बदलते जा
रहे है तब सभी कमं बदल जायंँगे । काम करने वाले फल पाने के समय नहीं
रहैगे । काम करे दूसरा, फल मिले दूसरे को । कोई काम करने की जरूरत ही
फिरक्याहै?इसेही बाद में स्पष्ट करगे ।
न ततसंमवत्यन्यः करोत्यन्यो यङ्क इति । तस्माद्योऽदहं
प्राक् कमे अकरवं सोऽहं संप्रति तत्फलं युञ्ज इति पूवोपरकाला-
नुयायिनः स्थायिनस्तस्य स्पषटप्रमाणावसिततया पूवौपरभागवि-
करकालकलावस्थितिलक्षणक्षणिकता परीक्षकैरहद्धिनं परिग्रहाहौ॥
आर्हत-दशेनम् १०५
यह कभी संभव नहींहैकि एक व्यक्ति काम करे ओौर दूसरा उसका फल
ले ले) इसलिए, “जिस व्यक्ति ने ( नने ) पहले काम किया था, वही व्यक्ति
(मै) इस समय उसका कल-मोग कर रहा है"- इस प्रकार स्पष्ट ( प्रत्यक्ष )
प्रमाणासे मालूम होता है कि पूवं ( पहले ) ओर अपर (बादमें ) काल मे
होनेवाला कायं या भाव स्थायी ( अ-क्षणिक ) है । यही कारण है कि सत्य
का अनुसंधान करनेवाले जैन लोग ( अहत् ) उस क्षणिकता को ग्रहण करने
चं असमथ ह जिसमे पूर्वापर के करम से रहित, काल के एक छोटे अंश ( कला )
तक ही [ किसी पदां की | स्थिति स्वीकार की जाती है। [ स्थायी पदार्थ
मँ पूवं ओौर अपर का क्रम रहता ह। दिन स्थायी है, उसका ूर्व-भाग ओर
अपर-माग हो सकता है, लेकिन एकक्षण का न तो पू्वंभाग होता न अपरभाग ।
चकि उदाहरणों से स्पष्ट किया जाता है कि किसी भी सत्ता के पूवं ओौर
जअपर--दो खंड होते ह इसलिए सत्ता स्थायी ही होगी क्योकि क्षणिक मे पूर्वापर
नहीं होता । |
( २. क्षणिक-पक्ष मे वोद्धौ की युक्ति )
अथ मन्येथाः-
पमाणवचवादायातः प्रवाहः केन वायते १
इति न्यायेन “यत्सत्ततक्षणिकम्' इत्यादिना प्रमाणेन
क्षणिकतायाः प्रमिततया, तदनुसारेण समानसंतानवतिनामेव
प्राचीनः प्रत्ययः कर्मकत्तो, तदुत्तर प्रत्ययः एलमोक्ता ।
आप लोग यह कह सकते ह--्रमाणो से सिद्ध होकर निकला हुआ
[ क्षणिक-सत्ता का ] यह प्रवाह कौन रोक सकता है? इस नियमसे, ` जो
कुछ सत् ( स्थित ९४१३४९४ } है, क्षणिक है" इस प्रकार कै रमाण से
क्षणिकता मादरम होती है । इसके अनुसार, एक ही संतान अर्थात् परम्परा मे
रहनेवाले [ ज्ञानो मे | पहले का प्रत्यय ( ज्ञान ) काम करनेवाला है, उसके
बाद का ज्ञान फल भोगनेवाला होगा । | आराय यं है कि आपाततः अनुचित
लगने बाली बात भी यदि प्रमाणो से सिद्ध हो जाय तो उसे मान लेना चाहिए ।
इसलिए “यत् सत्, तत् क्षणिकम्" इस अनुमान सते सिद्ध क्षिकत्व को हमे मान
लेना ही पडेगा, भले ही अनुभव ठेसा करने को नहीं कह रहा हो । हर व्यक्ति
करो अपनी ज्ञान-परम्परा ( या प्रत्यय-संतान ) होतो है । उस परम्परा में पूर्वक्षण
ओर अपरक्षण तो रगे ही ! मान लिया कि राम के प्रत्यय-संतान मेँ पूर्वक्षण
मे वतमान किसी आत्मा या प्रत्ययने काम किया तो फलका भोग भी उसी
१०६ सर्वदशंनसंग्रहे-
संतान में विमान उसके बाद के क्षण की आत्मा करेगी । इसमे कोई असंगति
कीबात् नहींहै।]
न चातिप्रसङ्गः । कायंकारणमभावस्य नियामकत्वात् । यथां
मधुररसभावितानामाग्रबीजानां परिकिषितायां भूमावबुप्नानामङ्क
रकाण्डस्कन्ध्षावापट्वादिषु तदद्वारा परंपरया फले माधुय-
नियमः। यथा वा लाक्षारसावसिक्तानां कापोसबीजादीनामङ्-
रादिषारेपर्येण कापासादो रक्तिमनियमः।
इसमें अतिप्रसंग ( प्रस्तुत विषय के अलावे दूसरे को भीस्मेटलेना) कौ
शंका नहीं हो सकती, क्योक्रि इसके पीले कायकारण का नियम ( 116 1.8
0 (097७8४00 ) भी नियत्रर करने कै लिए लगा हुआ है । [ आशय यह
है- समान संतान में पूर्वक्षण ओर अपरक्षणा का कोई नियंत्रण नहीं है। एक के
किये हए कमं का फल दूसरे संतान मे विद्यमान व्यक्ति को भी मिल सकता है।
रामके किण हृए कामका फल द्याम को भी मिल सकता है। इसे ही अतिग्रसंग
कहते है । लेकिन ठेसा होना संभव नहीं है, क्योकि क्षणो मे क यकारण का
नियम तो रहता है ? एक हौ संतान मे विमान पूर्वक्षण कारण है उत्तर क्षण
कायं । अतः रेसा कभी नहीं हो सकता है कि असमथं कारण किसी काको
उत्पन्न करे । एक ही संतान कै क्षणो मे पूर्वापरता के अनुसार कायकारण -माव
हो सकता है; एक संतान काक्षण न तो दूसरे संतान क्षण का कार्ण हो सकता
है ओर न अपने ही संतान मे कर्ईक्षणोंके बादके क्षण का कारण बन सक्ता
हे। अतः यह सोचना निरथंक है कि एक व्यक्तिके कयि काम काफल दूसरा
व्यक्ति ले लेगा । |
जैसे मधघुर-रस मे इवाये गये ( संसृत किये गये ) आम के बीज को जती
हुई भूमिम डालदेनेसे क्रमशः उसके द्वारा अक्र, काण्ड ( ग्रथि -संधियां )
स्कन्ध ( तना ), शाखा, पत्ते आादि से होती हुई मधुरता फल मे चली आती है 1
अथवा, लाह कै रस से सीचे गये कपास के बीजों से लाली क्रमशः अंकुरादिमें
होती हई कपास मे चली आती है [ उसी प्रकार कमं का फल भी परम्परासे
उसी संतान में स्थित व्यक्ति को भिलता है, दूसरे को नहीं | ।
यथोक्तम्--
यस्मिन्न संताने #~ च
0. ब हि संताने आहिता कमेवास्ना ।
~न क
फट तत्रैव वध्नाति कापसे रक्तता यथा ॥
आहंत-दशनम् १०७
२. ङुसुमे बीजपूरादर्य्क्षा्यवसिच्यते ।
शक्तिराधीयते तत्र काचित्तां किन पयसि १ ॥ इति !
जिस संतान या परंपरा मे कमं की वासना ( छाप 1प९्७शण) ) लगा
दी जाती है, फल भी उसो परपरा ने मिलता है जैसे कपास मे लाली होती ह
[ यदि लाली बीज मे दी गई है तो वह उसी के फल--रई--मं पहुचेगी, भाम
संया लीचीमे नहीं] बीजपुर ( बिजौरा ) नीबू के पल मे जव लाक्षा
( लाह ) आदि चिड़की जाती है तब एक विशेष शक्ति ( लाली ) भा जाती है,
उसे क्या तुम नहीं देखते हो [ कि सी अनल बात करते हो |?
विरोष- यहां बौद की युक्ति का पवंपक्ष समाप्त हुआ । अब जैन इसका
लंडन करगे । उपर्युक्त उदाहरण मे कपा आदि की विचित्र बातं अभी तक्
नालिकं असत्य है । संभव दहै, भविष्य मं फलों, पलो पर प्रयोग एसे हौं कि
उन्हं मनोनुक्ूल बना लं ।
( २. जनौ द्वारा उपयुक्तमत का खंडन )
तदपि काशङकशावलम्बनकसपम् । विकरपासहत्वात् । जल-
धरादौ दान्ते क्षणिकत्वमनेन प्रमाणेन प्रमितं, प्रमाणान्तरेण
बा । नाद्यः । भवदभिमतस्य क्षणिकत्वस्य क्चिदप्यदृ्टचरत्वेन्
दृष्टान्तासिद्वावस्यालमानप्यानुत्थानात् । न हितीयः । तेनेव
न्यायेन सरवत्रधणिकत्वसिद्धौ स्वालुमानवेफल्यापत्त; । अथं-
क्रियाकारित्वं स्वमित्यङ्खीकारे मिथ्यासर्दंशादेरप्यथक्रिया-
कारित्वेन सखापादनाच । अत एवोक्तम्--उत्पादव्ययधरोव्य-
युक्तं सदिति ।
बद्धौ को यह युक्ति काश ( एक उजले एूलवाली धास जो मीठी होती दै
तथा शरद् मे एलती दै ) ओर कुश का सहारा लेना भर है, ( इसमें कोई तथ्य
नहीं ) । [ इबता हुजा व्यक्ति यदि तिनक। पकडले तो बचाव नहीं हो सक्ता,
उसो प्रकार दोष-नदी मे ये बौद इब रहे ह, उपर्युक्त युक्ति एक तिनके के समान
ह, इससे रक्षा क्या होगी ? हां, थोड़ी देर के लिए मानसिक शान्ति मिल पाती
है कि मैने उत्तरदे दिया। अभिप्राय है कि क्षणिकवाद चल नहीं सकता ।
इसमे कारण है । |
[ उपर्युक्त युक्ति में दो विकल्प हो सकते ह गौर ] दोनो का खण्डन हो जाता
ह) वे दोनों है- जलधर इत्यादि का दृष्टान्त जो ऊपर दिया गया है (यत् सत्
षक
कन ,
न्नी
१०८ सवेदशंनसंम्रहे-
तत् क्षरिकं यथा जलधरः सन्तश्च भावा अमी ) उसमें क्षरिकत्व की सिद्धि इसी
प्रमाण ( = अनुमान ) से होती हैया किसी दूसरे प्रमाण की आवश्यकता पड़ती
है ? ( दूस प्रमाणा = प्रत्यक्ष, शब्द आदि }। ॑
पहला विकल्प ठीक नही, वयोकि आपके मत के अनुसार जो क्षणिकरत्व है
वह कहीं भी दिखलाई नहीं पड़ता, इसलिए दृष्टान्त ही ठीक नहीं ( जलधर को
सभी व्यक्ति स्थायीरूपसे देखते है, न कि क्षण-क्षण मे परिवतित), तो
उपर्युक्त अनुमान नहीं किया जा सकता है । [ आशय यह् है-यों तो सभी
लोग संसार को क्षणभंगुर मानते ह किन्तु बौद्धो का क्षण कछ दूसरा
ही है। सामान्य दष्टिसेक्षण का अथं है थोड़ी देर, इसलिए क्षण-भगुर =
थोडी देर तक ठहरने वाला । न्यायज्ाल्रमे क्षण का अथं है तीन क्षणा तक
ठदरना क्योकि पहले क्षण में उत्पत्ति, दूसरे में स्थिति ओर तीसरे में विनाश्च ।
लेकिन सभी वस्तुं वहाँ भी क्षणिक नहीं है। बौदधोकाक्षणतो एक क्षण का
ही है। लेकिन एेसी कोई चीज नहीं है जो एक क्षण भर ठहरे । क्षण = एेसा
कालांशा जिससे सृक्ष्मतर ओर कोई काल न हो, सृक्ष्मतम कालांश । निमेष तक
तो हम अनुभव कर सकते है किन्तु क्षण का नहीं । निमेष को दही लीजिए-
इसमे चार क्षण हे, पलक चलाना, इसके पूवंस्थान का वि माजन, पूरवंसंयोगनाश,
उत्तरसंयोग की उत्पत्ति! क्षण का अनुभव नहीं कर पाने से हीहम चारोंको |
एक साथ समक्षलेतेै। क्षणकेरूपमें कालका विभाजन करना कठिन ४ - =
जलधर यद्यपि क्षण-क्षण बदलता है पर यहाँ क्षण का अर्थं है निमेष ( पलक
गिरने का समय), न कि बौद्धो का क्षण । क्षण निमेषसे भी छोटा है अतः कोर |
उसे आक नहीं सकता । जब दृष्टान्त ही ठीक नहीं तो अनुभव कंसे होगा ?
इसलिए अनुमान से उक्त अनुमान सिद्ध नहीं हो सकता | ।
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1 । ऋ हका .. 9
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क -
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दूसरा विकल्प ( दूसरे प्रमारा से इसे सिद्ध करना ) भी ठीक नहींही है ~
क्योकि उसी प्रकार से क्षणिकत्व की सिद्धि स्वंत्र हो जायगी तो फिर सत्ताको `
[ क्षणिक मानने के लिए | कोई भी अनुमान करना व्यथं हो जायगा । [ यदि
प्रत्यक्ष से हौ यह सिद्ध है कि सत्ता क्षणिक है तो घट, पट इत्यादि को क्षणिक
सिद्ध करने के लिए अनुमान की क्या आवश्यकता है ? यदि बुध के उपदेश या
शब्द-प्रमाणसे ही यह सिद्धदहै तो भी घट, पट आदि सिद्धहो जायंगे । फिर
क्षशिकत्व की सत्ता सिद्ध करने के लिए अनुमान क्यों ? |
फिर भी यदि आप कटे कि कुचं कायं उत्पन्न करने वाले ( अर्थक्रियाकारी )
को सत् कहते है तो कूठ-मूठ के साँप काटने को भी सत् मानना पड़ा क्योकि
इससे भी तो कुछ कायं ( लेसे भय, शंकाजनित भृस्यु आदि ) उत्पन्न होते ह ।
। 3 .
॥
^“
नि.
आहेत-दशनम् १०६
अतः यह कहा गया है कि सत्ता वह है जिसमें उत्पत्ति, विनाश ( व्यय }) ओर
स्थिति ( ध्रौव्य ) हो 1 [ यह जनो का मत है ]।
विरोष--ऊपर के पहले विवेचन मे आम के बीज, कपास आदि दृष्टान्त
देकर सत्ता को क्षणिक जर संतानयुक्त सिद्ध करने की चेष्टा कीगर्ईथी। वहां
बीजादि कारण ह ओर फल-कूल कायं, जिनमें परंपरा से मधुस्ता या लाली
का संक्रमण एक दूसरे तक होता है। लेकिन वास्तव मे यह बात नहींदहै।
मधुरता या लालीनहीं चली जाती है । जाते है तो मधुर या लाल बीज के अंश)
उन्हींका संक्रमण होता है\ कारण वहै जो कायंसे सीधा लगाव रखे
( का्यत्वियि कारणम् ) । जसा कायं, वेसा कारण । अंकुरादि कार्यो से संबद्ध
बीज का अंश ही कारणा स्वरूप है, पूरा बीज कारण नहीं \ यह तो लाक्षणिक
प्रयोग है कि बीज अंकुर का कारण है। तो जो बीजांश मधुर रस मे संस्कृत है,
लाक्षारस से ीचिहृएहै वेही कायं से संबद्ध होने पर मधुरया नाः
दिला गे । अतः अन्यत्र उत्पन्न संस्कार का फल अन्यत्र होगा--इस विषयमे
कोई इष्टान्त नहीं मिलता है ।
( ४. श्चणिकवाद् के खंडन की दुखरी विधि)
अथोच्यते - साम्यीसामर््यैक्षणविरुदधमध्यासात्तत्सि-
द्विरिति, तदसाधु \ स्याद्वादिनामनेकान्तताबादस्येष्टतया
विरोधासिद्धेः । यदुक्तं कापासादिदृष्टान्त इति, तदुक्तिमात्रम् ।
यक्तेरलुक्तेः । तत्रापि निरन्वयनाश्चस्यानज्गीकाराच ।
इसके उत्तर मे बौद्ध लोग यह कहं सकते है कि क्षणिकवाद कौ सिद्धि इस
तथ्यसेहो सकती है कि [एसा न मानकर सत्ता को स्थायी माननेसे] एक
ही पदाथ मे दो विश धर्मा- सामथ्यं ओर असामथ्यं--कौ स्थिति एक साथ
होने लगेगी । [ उदाहरण के लिए _ कोटी मे रखा ओर जमीन मे बोया बीज
यदि एक ही है तो उसमें अंकुर उत्पन्न करने कौ सामथ्यं है कि नहीं? यदि दहै
तो कोठी का बीज अंकुरोत्पादन कर सकता है । सहकारी भावों को बौदढ-द्शन
कौ विवेचना मे काटा जा चुका ह ( दे० पृ ४३ गौर भागे )। यदि वीजो मे
अकु रोत्पादन की सामथ्यं नहीं है तोभूमिमे बोये बीजोंसे भो अंकुर नहीं
निकलने । रेसा भी नहीं कह सकते कि सामथ्यं भौ है असामथ्यं मौ । दोनो
परस्पर विरोधी ह । अतः अन्त मे आप क्षणिकवाद को हौ स्वीकार क रगे । ]
बौद्धो का यह तकं भी ठीक नहीं है। स्यादुवादके सिद्धान्त को धारण
करनेवाले { जैन ) लोग अनेकान्तता ( अनिश्वय ) के सिद्धान्त को मानते है
११० सवेदशनसंम्रहे-
` इसलिए कोई भी विरोध उनके लिए असिद्ध है । [ जेन-दर्शन के अनुसारं प्रत्येक
परामश के पहले उसे सीमित ओर सपेक्ष बनने के लिए स्यात्" = 'शलायद--
अब्यय का जोड़ना आवहयक है। अभी हम घट को सत्ता का अनुभव करते
है, किन्तु हमारी यह अनुभूति काल ओौर देशा पर अवलंबित है, त्रैकालिक
सत्य यह सत्ता नहीं है ओौरन ही सावैदेशिकं। यह सपक्ष सत्ता है, जिसके
विषय में निशचितरूपसे हमारा ज्ञान नहींहो सकता-अधिक-से-अधिक हम
“स्यादस्ति ( शायद या किसी तरह है ) कह सकते है । इसलिए जैनदशन में
प्रत्येक परामर्चं के पूवं "स्यात्" लगाते हैँ । इसी सिद्धान्त को स्याद्वाद् कहते है ।
इसका दसरा नाम अनेकान्तवाद है क्योकि किसी ज्ञान का निश्चय या एकान्त
इसमे नहीं हो सकता । इसके अनुसार दो विरुद्ध ॒पदा्थो- जैसे सामथ्यं +
असामथ्यं, अस्ति + नास्ति-मेकभीमी विरोध नहींहो सकता, क्योकि घट
का अस्तित्व ओर नास्तित्व दोनों ही इसके आधार पर सिद्धहो सकता है।
बोदधों का यह कहना कि असामथ्यं ओर सामथ्यं एक ही स्थान मे नहीं रह
सकती, जेन-दशंन के लिए आसान है, दोनों साथ-साथ भी हो सकती है।
क्षणिकलत्व सिद्ध करने की यह युक्ति भी खंडित हो गई । अब दूसरी युक्ति लं । ]
बौद्ध लोग यह जो कहते हँ कि इसकी सिद्धि के लिए कपास इत्यादि दृष्रान्त
देते है, वह केवल कहने भर कोट, कोई युक्तिं तो उसमे नहीं देते । [ केवल
दष्ठान्त देने से अनुमान कौ सिद्धि नहीं होती । रसोईघर में धूम ओर अभि देखने
पर भी शंकाहो सकती है कि धूमवान् पदार्थं मे अभिका होना क्या जूरी हि?
हस अवस्था में हमे दोनो के बीच कायंकारण-भाव के रूप में युक्ति देनी पड़ेगी ।
तभी शंका हट सकती है, तभी पर्व॑त में धूम देखकर अथि का अनुमानं कर सकते
है,योँही नहीं। कपासमें भी व्या कोई युक्तिटै? इस हष्ठान्तमेंभीवे लोग
निरन्वय = संबधहीन नाश ही चाहते रहै, ] वर्ह भीनाश्च को निरन्वय ङ्पसे
हम लोग अंगीकार नहीं कर सकते ¦
विरोष- बोद्ध किसी वस्तु के नाश को संबंधहीन मानते है क्योकि क्षण
भे वस्तु नष्ट होती जाती है, किसीसे किसीका कोई संबंध नहीं है। लेकिन
वस्तुस्थिति इसके विपरीत है, नार जब होता है तो सान्वय ही । घडा नष्ट होने
पर टुकड़े रहँगे, कपड़ा नष्ट होने पर राल वचेगी ओर यहाँ तक की गमं लोहि पर
पड़ा हुजा जल भी नष्ट होने पर समृद्रमे चला जातादहै। पदाथंनित्यटहै, नष
होने पर भी किसी-न-किसी रूप में रहेगा ही । |
ठीक इसी प्रकार कपास के बीजावयवों मे भी, जो कायं से संबद्ध होने
योग्य है, लाह के रसका सेचन होता है । उन्हीं के अवयवो मे फल निकलने
। ५
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व कााकोग्यानो रि त? शि क
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¢ आदहेत-दशेनम् १११
तक संबंध होते-होते लाली आ जाती है। परम्परासे तो कुद होगा ही नहीं ।
लकरजक
^ संस्कार ( लाक्षारसावसेक ) कहीं ओौर जगह हौ तथा उसका फल ( लाली )
"कहीं गौर जगह--यह नसे हो सकता है? कारण वाली आत्मामें (एकी
हः संतान ओर परम्परा मे) कमं हो ओौर कायत्मि मे उसके फल का उपमोग--
(3 | बौद्धो का यह सिद्धान्त सिद्ध नहीं हो सकता ।
(^. संतानिन्यतिरे ~ ॥ © ^~
¢ नच केण संतानः प्रमाणपदवीगरपारोट् महेति।
तदुक्तम् - ८
३, सजातीयाः करमात्पन्नाः प्रत्यासन्नाः परस्परम् ।
व्यक्तयस्तासु संतानः स चैक इति गीयते ॥ इति ।
न च कार्यकारणमावनियमोऽतिप्रसङगं मङक्तुमहेति । तथा
दपाध्यायवुदधयनुभूतस्य सिष्यबुद्धिः स्मरततदुपचितकमेफल-
मनुभवेद्रा ॥
दूसरे, संतान या परंपरा तबतक प्रामाणिक नहीं मानी जा सकती जवतक
इसे परस्पर भिलाने वाली वस्तु ( संतानी = सं तानो को संयुक्त करनेवाला ) न
हो। [ बौद्धोका कहनादैकि एकही परपरा मे उत्पन्न पूर्वक्षण कौ वस्तु
कर्मकर्ता है ओर उत्तरक्षण की वस्तु .फलभोक्ता, अर्थात् एक ही परपरा या
संतान ( 8९168 ) काम करनेवाली बौर फल भोगनेवाली, दोनो ही ै--
लेकिन उन क्षणो मे परस्पर संबंध कंसे होता है ? उनका संतानी या संयोजक
काहि ? ये कोई पएूल की माला तो नहीं कि तागे से परस्पर मिले हो ! इसलिए
तंतानी के बिना संतान को सिद्ध करनाद्ढ़ी खीर दै।|
ेसा ही कहा भी है--च्यक्ति ( पृथक्-पृथक् वस्तुं [086
(07708 ) यदि एक ही जाति या प्रकारके हों, करमशः ( एक के बाद द्रा )
उत्पन्न हृए हों ओौर आपस में यदि मिले हृए हों तो उन वस्तुओं को एक ही संतान
( परंपरा 86९8 ) मानी जाती ह ।
आप लोग अतिप्रसंग को रोकने के लिए कारयं-कारण-भाव को नियामक के
| हप मे उपस्थित करते है ( दे परि० २ ) लेकिन इससे अतिप्रसंग रक नहीं
९ सकता । एेखा होने पर अध्यापक की बुद्धि में अनुभूत वस्तु का स्मरण शिष्य की
क बद्धिके द्वारा हो सकता दै अथवा उनके दारा उपाजित कर्मो के फल का अनुभव
४४ भी शिष्य की बुद्धि कर लेगी । | आशय यह् है कि उपाघ्याय की बुद्धि-संतान
मे बहृत सी क्षणिक बुद्धियां ह । शिष्य को समज्ञाते समय जो उपाध्याय कौ
क्षणिक वुद्धि है उसके साथ दो वुद्धियं उत्पतन होंगी, एक उपाघ्याय मे द्सरी
११२ सवेदशंनसंग्रहे-
क्चिष्य में । यह तो मानना होगा कि अपने अनुभूत विषय को अध्यापक इसलिए
याद करताहिकि वह उसी संतानमेदहै, उसी तरह उसी संतानमें होनेके
कारण उपदेश के पूर्वकाल मे जो उपाध्याय कौ बुद्धि थो, उसका स्मरणा शिष्य कर
ही लेगा। इस तरह उपदेश के पहले की अध्य।पक-बद्धि दो संतानं उत्पन्न करती
है-उपदेश के बाद की उपाष्याय-बुद्धि तथा उपदेश के बाद की शिष्य-बुद्धि ।
अतः अध्यापक का अनुभव शिष्य स्मरण करेगा! दोनोमे कायकारण का
संबंधहिही। फिर अतिप्रसंग रकाकं? एक के कयि अनुमवया कायंका
स्मरणा अथवा फलतो दूसरेने लेहीलिया। यही तो अतिप्रसंग है। कार्य
कारण-भाव मानने पर भी अतिप्रसंग का कुच नहीं बिगडेगा । क्षशिकवाद
सिद्धान्त ही एसा है जिसमें अतिप्रसंग होता हौ है। ]
तथा च कृतप्रणा्ञाकृताभ्यागमग्रसङ्गः । तदुक्तं सिद्रसेन-
वाक्यकारेण-
४, कृतप्रणाश्चाृतङमेभोग--
मवग्रमोक्षस्मरतिभङ्गदोषान् ।
उपेक्ष्य साक्षातक्षणभङ्गमिच्छ--
न्रहो महासाहसिकः परोऽसो ॥ (वी ° स्तु० १८) इति।
इसी प्रकार क्रिये गये कर्म का नाश्च तथा नहीं किये गये कमं कौ फल-प्राति
का प्रसंग हो जायगा । [ उपर्युक्त उदाहरणा मे उपाध्याय के क्रिये गये कमंका
फल उपाध्याय को नहीं मिलता यह कर्म-प्रणाश्च हभ 1 इसरी ओर, शिष्य को,
जिने कमे भी नहीं किया केवल उपाध्याय से क्षणिक सम्पकं मत्र किया,
फल भोगना पड़ता है । ] इसे सिद्धसेन के [ सिद्धान्तो के ] वातिककार ने यों
लिखा है-( १) कयि गये कमंका नाश, (२) नहीं क्रिये हुए कमंका फल
भोगना. (३ ) संसार का विनाश, (४) मोक्ष का विनाञ्च तथा (५) स्मरण-
शक्ति का भंग हो जाना--इन दोषों की साक्षात् उपेक्षा करके जो क्षणिकवाद
को मानने की इच्छाकरताहै, वह विपक्षी वास्तव मे बड़ा साहसी दै!
[ हेमचन्द्र लिखित वौीतरागस्तुति नामके प्रन्थमें यह रलोक है। इस ग्रन्थ
कीटीकाका दही नाम स्याद्वादमजरी है।।
विश्चेष- बोधं के क्षणिकवाद का खंडन कूमारिल ने इलोकवातिक्र
( प° २१७-२३ )} मे, शंकराचायं ने ब्रह्यसूत्र २।२।१८ के भाष्य मे, जयन्तभदू
ने न्यायमंजरी (भाग २, प° १६-३९ ) में तथा मल्लिषेण ने स्थाद्रादमंजरी
आहेत-दंशेनम् १९३
( पृ १२२-२६ ) मर किया है। ये सभौ उपर्युक्त पाचों तको का आश्रय लेते
कः र (२) ृतपरणादा -वस्तुजों के क्षणिक होने के कारण कोई भी वस्तु
जिना फल का उत्पादन कयि ही भूतकाल के गभे विल्लीन हो जातीदहै। जो
काम करने वाला व्यक्ति है उसे फल तहं मिलता वर्योकि फल मिलने के समय
तक तो कायं रहादही नहीं ओर न वह व्यक्ति ही रहा जिससे काम किया गया +.
कषणा-्चणा में चीजें बदलती जा रही है। इसे ही @कृतप्रणाश' या कयि गये कमं
करा नाश' कहते दै । (२) अङ्कतकर्ममोग-दूसरौ ओर, फल का भोग उसे
करना पडेगा जिसने काम नहीं किया; दूसरे के द्वारा काम कियागयाथा
किर भी क्षशिक्वाद ने उसे कलमोग करने को बाष्य ही कर दिया । देवदत्तं कृत
कमं का फल भोगता है यज्ञदत्त ? इस प्रकार दूसरा दोष भी इस वाद में है\
( ३ ) भवभंग--इसका अथं है संसारका विनाज्ञ। संसारमें प्राणियों का
जन्म इसलिए होता हैकिवे अपने पूवंजन्म मेँ किये हृए कमं का फल मोग लें ।
इसीसे संसार चलता हे! किन्तु जब सत्ता क्षणिक है तब प्राणियों मे अपने
कर्मफल को भोगने के परति उत्तरदायित्व रहेगा ही नही, फिर वे क्यों जन्म
लगे । दूसरे के कमं का फल तो दूसरा भोग ही लेगा। जो प्राणी गया, सो
गयां ) इसं प्रकार संसार कौ उत्पत्ति असंभव है । (४) मोश्चभंग--मोक्ष
उसे कहते है जिसमे प्राणी कमफल के बन्धन से मुक्त होकर फिर जन्मन ले ।
बद्ध लोग आत्मा को क्षणिक मानते है तोमृत्थु के बाद सुखी होने के लिए
प्रयल्ञवान् कौन होगा ? मात्मा कौ कोई संतान या परंपरा भी वास्तव मे नहीं
चलती । यदि बास्तवमें हो भी तो क्षणिकवाद सिद्धान्त को बाधा पहुंचेगी ।
अष्टंगमागं आदि जो मोक्ष के साधन बौद्धो के सम्मत है वे कर्मफल के क्षणिक
होने के कारण स्वयं क्षिक है--उनसे मोक्ष पाना बिल्कुल असंभव ह+ अतएव
मोक्ष के सिद्धान्त की हानि होती है। (५) स्मृतिभंग--अनुमव करनेवाले
व्यक्ति का तुरत विनाश हौ जाता है इसलिए स्मृति ( 71600 ) नाम की
कोई चीज तीं रहती । सभी लोग भानते है कि अनुभव करनेवाला मौर स्मरण
करते वाला व्यक्ति एक. ही दै लेकिन क्षसिकवाद के अनुसारये दो व्यक्ति है +
भले ही ये उसी संतान में हो, पर है दो व्यक्ति--इसमें संदेह नहीं । इसी तरह
प्रत्यभिज्ञा ८ 1२९008०; ४09 ) भो भसिद्ध हो जातीदहै। कोई किंसीको
ूर्वानुभव के आधार पर पहचान नहीं सकता । इसीलिए बौद्धो को ये महा-
साहसिक कहते ह । साहसिक = सहसा बिना विचारे हृए काम करनेवाला ।
जयन्तभदट ने क्षणिकादि वासनां मं बौद्धो का दम्म माना है--
= न्क ४ नि त
नास्त्यात्मा फलभोगमात्रमथ च स्वर्गाय चैत्यार्चनं,
संस्काराः क्षणिका युगस्थितिभरतदचेते विहा राः कृता; ,
स० संर
१९४ सर्वदशेनसंग्रदे-
` 7: सरव शून्यमिदं वसूनि गुरवे देहीति चादिदधते
ˆ . बौद्धानां चरितं किमन्यदियंतो दम्भस्य भूमिः पराः ॥
| ( न्यायमन्नरी, पृ० ३९ )
एक गौर बौद्ध लोग मानतेषँकि आत्मा की सत्ता नहीं केवल फल का
भगं मात्र होता है, दूसरी ओर स्वशंकी प्रात्तिके लिए चैत्य ( पवित्र मन्दिर
ओौर मूति ) कौ अचंना भी करते हैँ । सभी संस्कार क्षरिक रहै, ओर दूसरी ओर
युगो तकं स्थित रहने वाले विहारो का (मठो का) निर्माण हो रहा है । एक ओर
सब कुच शून्य है" का उद्बोष चल रहा दै, दूसरी भर गुरु को धन देने का
अदेशा भी मिल रहा है । इससे अधिक बौद्धो का चरित्र ओौर क्या होगा? वह
तोढोंगकी पराकाष्ठा है। व्यवहार क्या है ओौर सिद्धान्त क्या ?
(५. क्षणिकत्व-पञ्च मे ब्राह्य-प्राहक-भाव न दोना )
किं च क्षणिकत्वपक्षे ज्ञानकाले ज्ञेयस्यासवेन, ज्ञेयकाले
ज्ञानस्यासचेन च ग्राद्यग्राहकमावानुपपत्तो सकललोकयात्रा-
स्तमियात् । न च समसमयवतिता शङ्कनीया । सव्येतरविषाण-
बत्कायेकारणभावासंभवेनाग्राह्यस्यालम्बनप्रत्ययत्वाुपपत्तेः ।
इसके अलावे, यदि क्षिकवाद को मानते है तो ज्ञान के समर्यं ज्ञेय पदार्थं
की सत्ता नहीं रहेगी, उसी प्रकारं ज्ञेय-पदाथं के समय ज्ञान की सत्ता नहीं
रहेगी । ( ज्ञेय पदाथ कारण टै ओर ज्ञान कायं है। पहले ज्ञेय होगा तब ज्ञानं
दोनों एक साथ रर्हैगे ही नहीं क्योकि वे पूर्वापर के क्रमसे होतेह । ) इसलिए
आहय ओौर ग्राहक के सम्बन्ध की सिद्धि नहीं होगी ओौर संसारके सारे काम
अस्तहो जायेंगे [नतो कोई ग्राहक रहेगा गौरन कोई ग्राह्य-- क्योकि
सभी पदार्थं क्षश-क्षण में बदलते जा रहै है । ]
आप यह भी नहीं सोच सकते कि दोनों ( ग्राह्य-गप्राहक ) एक ही समय में
र्हैगे । एसा होने से ( = ग्राह्य गौर ग्राहक को समसामयिक मान लेने पर)
बायीं ओर दायीं सींग की तरह, उनमें कायं-कारणं भाव ( (8881 ८6४
00 ) नहीं हो सकता ओौर इसीलिए जो वस्तु ग्राह्य नहीं है ( = अग्राह्य है)
उसे आलं बन-प्रत्यय ( विषय 0016४ ) के रूप में नहीं लिया जा सकता ।
विदोष-- अभिप्राय यह है कि जिस प्रकार दोनों सीगे एक दूसरे का कारण
कायं नहीं, उसी प्रकार समकालिक हो जाने पर प्राह्य-ग्राहुक मे भी कार्य-कारण
नहीं हो सकेगा । “आलंबन"' एक प्रकार का प्रत्यय (कारण) है जिसे
सौत्रान्तिक-मत की प्रस्तावना में हम स्पष्ट कर चुके है ( प° ७५ )। आलंबन
आहत-दशेनम् ११५
वास्तव में "नीलः, "वट, "ट आदि विषयों को कहते है --तत्र ज्ञानपदकेदनी-
यस्य नीलाद्यवमासस्य चित्तस्य नीलादालम्बनप्रत्ययान्नौलाकारता भवति ।
आलम्बन-प्रतयय केवल म्राह्य का हो सकता है। जिम कायं-कारण-भाव हौ
सके वही ग्राह्य है। यहौँ पर यदि ग्राह्य-ग्राहकं या ज्ञेय-ज्ञान को समसामयिक
मान संगे तो कायं-कारण भाव रहेगा हौ नहीं ओौर उस अवस्था में ये अग्राह्य
हो जारयेगे । फलतः आलम्बन-प्रत्यप ये नहीं होगे । इस प्रकार अपने ही अख
से अपना सिद्धान्त चरिडत होगा ।
कविल प्रस्तावित करते है कि 'अग्राह्यस्य' के स्थान मे ग्राह्यस्य! रखा
जाय ओर वे अनुवादभी वसः ही करते ै। यह भमौ ठीक है ग्राह्य ही विषय
है, उसका आलम्बन नहीं होगा ।
(६. ज्ञान का साकार होना ओर दोष )
अथ भिन्नकालस्यापि तस्याकारापेकल्वेन ग्राह्यत्वम्--
तदप्यपेश्लम् । क्षणिकस्य ज्ञानस्याकारापेकताश्रयताया हुवंच-
त्वेन साकारज्ञानवाद प्रत्यादेशात् ।
निशकारज्ञानवादेऽपि योग्यतावशेन प्रतिकमव्यवस्थायाः
स्थितत्वात् । तथा हि प्रत्यक्षेण विषयाकाररहितमेव ज्ञानं
्रतिपुरुषमहमहमिकया षटादिगराहकमुभूयतेः न तु दपेणा-
दिवत्प्रतिविम्बाक्रान्तम् । .
अब यदि कहा जाय किं [ वस्तु ज्ञान से] भिन्नकालमें भी हो तोभी
अपने आकारकी छाप उस परदेदेनेके कारण प्राह्य ( 26४06ुएण€ ) ही
रहेगी, यह कहना मी ठीक नही है। (आशय यह दै कि धट, पट आदि विषय
यद्यपि क्षणिक है तथापि नष्टहोने के पूर्वं अपने आकार कै सदश आकार
छोड जाते है । इसलिए ज्ञान के क्षण मे वस्तु की सत्तान होने पर भी वस्तु
्ञानम्राह्य कहलाती है । आकार की छाप चछोड़्ना ही ग्राह्य हीना है। इस
प्रकार क्षशिकवाद के पक्षम तकं देकर उसे सिद्ध कृरने का प्रयास किया गया
ह \ अव जैन इसका खंडन करते हुए कहते है कि यह् तकं ठीक नहीं । )
इसका कारण यह है- क्षणिक पदाथं ( ससे घट, पटादि ), ज्ञान परं
अपने आकार की छाप छोडेगा, इसका आश्य लेना ( = यह कहना } ही
असंभव है गौर इसलिए श्ञान साकार है" इस सिद्धान्त ( वाद) काही खर्डन
हो जायगा । [ घटादि वषय क्षणिकः है। ये ज्ञान पर अपनी छाप छोडते है ।
११६ सबेदशेनरसं्रहे-
जब पूरंक्षण मे विद्यमान, आकार कौ छाप छोड़ने वाला विषय स्थित है तो
आकार की छाप ग्रहण करने वाला, उत्तरक्षणिक ज्ञान ही नहीं है । [जब आकार
प्राहक उत्तर क्षण वाला ज्ञान है, तब पूर्वक्षणिक आकार समप॑क ज्ञेय ( विषय }
ही नहीं रहता । इस प्रकार यह कहना कठिन है कि कोई किसी को अपना
आकारदेतादहै या कोई आकार ग्रहण करता है। इसलिए साकार ज्ञान का
सिद्धान्त बौद्धोके मतसे खरिडत हो जाता दहै। बौदधोंके अनुसार ज्ञान की
साकारता सिद्ध ही नहीं हो सकती । |
ज्ञान को निराकार मानने का सिद्धान्त रखने पर भी [ अन्यवस्था हटाने
के लिए ] योग्यता के अनुकूल सभी विषयों की व्यवस्था माननी ही पड़ेगी ।
[ निराकार ज्ञान मानने में एक बड़ा दोष यह होता है सभी प्रकार के ज्ञान--
चा्चुष, स्पा्॑न, रासन, श्रावण आदि--एक समान हो जते हँ गौर चा्चुष
काविषयरूपदहै, स्पा्च॑न का स्पक्ं, रासन कां रख, श्रावया का शब्द इत्यादि
नियत विषयों की व्यवस्था नहीं हो सकती है । इसलिए विश्ंखलता दुर करने
के लिंए नियामक ( (00४70116 ) के कूप में "योग्यता" कौ शर्ण लेनी
पडती है । योग्यताके ही कारणा रसनेन्दरिय से उत्पन्न ज्ञान रसका ग्राहक
होता है-एेसी व्यवस्था संभव है । ज्ञान को साकार मानने पर भी चष्ुरिन्द्रिय
से उत्पन्न ज्ञान रूप का आकार ग्रहण करता है एेसी व्यवस्था होतो है । |
[ अब निराकार ज्ञान के सिद्धान्त मे प्रत्यक्ष अनुभव देते ह-- ] जेस,
प्रत्यक्षके द्वारा दिषय ओर आकार से रहित [ भावात्मक ^.08४१७6१ |
ज्ञान, जो घटादि का ग्राहक है, प्रत्येक व्यक्ति को व्यक्तिगत खूप से ( अहमह-
भिकासे) अनुभूत होताहै; दपंणादिके समान यह ज्ञान केवल प्रतिबिम्ब
( परछाईं ) ग्रहण नहीं करता । ( समस्या यह है कि ऊपर कहे गये त्यों के
अनुसार, वस्तु ज्ञान को अपने आकार कां यदि समपंणा कर देता है तो दपण
की तरह ही वस्तु का प्रतिबिम्बज्ञान लेलेता होगा तथा उसके द्वारा आन्तर
प्रत्यक्ष से अनुभूत होता होगा। किन्तु आन्तर प्रत्यक्ष केवल सुख, दुःख,
इच्छादि आन्तर भावोके ही लिए सुरक्षित है न किं बाह्य-विषयों--घट, पटादि--
कै प्रत्यक्षीकरण के लिए । इनका ज्ञान तो बाह्यप्रत्यक्ष से होता है। घटादि
का ग्राहक ज्ञान ( भँ घट देखता हँ" ) प्रत्येक व्यक्ति को विषय ओौर आकार
से पृथक् रूप में ही होता है- इसलिए ज्ञान की निराकारता ही सिद्ध होती है । }
विषयाकारधारित्वे च ज्ञानस्याथ दूरनिकटादिव्यवहाराय
जलाज्ञलिर्वितीर्येत । न चेदमिष्टापादानमेष्टव्यम् । दवीयान्मही-
धरो नेदीयान्दीरघो बाहुरिति व्यवहारस्य निराबाधं जागरूकत्वात्।
आर्हत-दशनम् ११७
न चाकाराधायकस्य तस्य दबीयस्त्वादिशाछितया तथा
दपणादौ
उ्यवहार इति कथनीयम् । दपेणादौ तथालुपलम्भात् ।
[ साकारज्ञानवाद मे दसरा दोष-- , यदि ज्ञान का प्रयोजन विषय के
आक्षारको धारण कर लेनाभरटहै तो इसमें दूर, निकट आदि व्यवहार के
शब्द को तिलांजलि दे दी जायगी ( छोड देना पडेगा } । | दर, निकट आदि
हाब्दों का सम्बन्ध ज्ञाता के साथ है, नकिंज्ञान के साथ) अभ्यंकर जी के
शब्दों मे-- छायाचित्र लेने वाले द्प॑णा में बड़े-बड़े पहाड़, छोटे दपण मे अने
योग्य अपने ही सदश छोटे आकार के द्वारा प्रवेश करते है, उसी प्रकार साकार
जानवादी बौद्धोके मतसे पवंतादिके प्रत्यक्ष न् करे समय बड़ा होने पर
आ ये पहाड, ज्ञानमय चित्त ते आनेके योग्य आकारोको धारण करके उसमें
अवेदा करते है। तो, ज्ञानमय चित्त मे प्रविष्ठ छोटे परवंतादि ही विषयीभूत
अर्थं, न कि उस प्रकारके अकार को समपित करने बलि, बाह्य-जगत् मे
विद्यमान बड-बडे पहाड़ । इसलिए, विषय बने हुए पदार्थं दूरमे, नजदीक में
या बडे है--ईइस तरह के व्यवहारो की असिद्धि हो जायगी । ] इस इष्ट वस्तु
क प्रतिपादन को खोजने की जरूरत भी नहीं है । "यह पहाड़ कुच अधिक दुर
( एशप्ालाः ) है", "ह बडी बहि नजदीक ( } ०४9" ) है" --एेसा व्यवहार
बिना रोक-टोक के सदा चलता रहता है। [ जब दूर ओौर निकट के व्यवहार
चलते है ओर उन्हे ज्ञानमय चित्तमें (ज्ञानको साकार मान कर ) सिद्ध
करना किन है तब तो यह "विषम उपन्यास" हो जायगा ओौर दोनोंमे से
किसी एक को हटाना पड़ेगा । व्यवहार को रोक नहीं सकते, सकेगा तो साकार
ज्ञानवाद ही । अतएव बह दोषदं है । 1
उत्तर मे आप यह नदीं कह सकते किं आकार को सम्पण करने वाले
उस ( पवंतादि ) मेही दूरत्वादि गुण है भौर इसोलिये एेसा व्यवहार होता है
( अर्थात् चरुकि पर्व॑त दूरत्व से विशिष्ट है इसलिये ज्ञान के द्वारा उस आकार में
ग्रहण होने पर दूरत्व अनुमान से ही उस व्यवहार का संचालन होता है । यह
बोद्धा का उत्तर है, जो ठीक नहीं ) करथोकि दला आदि म ेसी बातं नहीं पायी
जातीं। ( दषंणमेंदूरकी वस्तुओं का आकार दूर पर ्रह्प नहीं होता, समी
वस्तुओं का बकार अत्प ही होता है जितना दपण मने आ सके । इसलिये
साकार ज्ञानवाद सें किसी प्रकार दूरत्वादि का अनुमान नहीं हो सकता । )
करि चाथीदुपजायमानं ज्ञानं यथा तस्य नीङाकारतमनु-
करोति तथा यदि जडतामपि, तहिं अर्थवत्तदपि जडं स्यात् ।
तथा च वृद्धिमिष्टवतो मूलमपि ते नष्टं स्यादिति महत्कश्मजन् ।
११८ सबेदशेनसंम्रहे-
अथैतदोषपरिजिदहीषया ज्ञानं जडतां नालुकरोति--इति
नषे; हन्त तदं तस्या ग्रहणं न स्यादिस्येकमयुसंधित्सतोऽपरं
परच्यवत इति न्यायापातः ।
इसके अलावे भी [ दोष होगा कि | वस्तुओं से उत्पन्न ज्ञान जिस प्रकार
उस वस्तु ( उदाहरण के लिये नील या घट कोले) के आकार को ग्रहण करता
है, उसी प्रकार यदि [ पदाथंके | जडत्वको भी ग्रहण कर ले तब तो अथं
( वस्तु )कीदही तरह वह (ज्ञान ) भी जडहीहो जायगा (मौर एेसी दशा
मेज्ञानकेस्वरूपकीही हानि हो जायगी। जड का अ्थंहै प्रकाशरूपन
होना । ज्ञान का अथं है स्वप्रकाशकं भौर परप्रकाशक होना । ्रदि ज्ञान जड हो
जाय तबतो घटका आकार प्रकाशित करनातो दुर रहा, अपने स्वल्पका
भी प्रकाशन उससे न हो सकेगा | । इस प्रकार, जहां आप वृद्धि को चाहु कर
रहे ये, आपका मूल भो नष्टहो गया--इस तरह बड़ा भारी क्ष्टआ गया॥
( कोई ग्याज की इच्छा से दूसरे को द्रव्यदे, किन्तु व्याजतो दर, मूल भी नष्ट
हो जायगा । चौबे गये छन्वे होने, दूबे बनकर आये । )
अब यदि इस दोष से बचने की कामनासे कहँ कि ज्ञान जडता का ग्रहण
नहीं करता, तब ओौर मजा है ! उस ( जडता ) का ग्रहण नहीं होगा ओर वसी
दशा हो जायगी कि एक वस्तु का अनुसंधान करते-करते दुसरी वस्तु भी भूल
जाय । ( घटादि का ज्ञान क्या होगा, घट जड है--यही ज्ञान नहीं होगा । ) ।
नसु मा भूजडताया ग्रहणम् । # नच्छिन्नम् १ तदग्रह-
णेऽपि नीलाकारग्रहणे तयोर्भेदोऽनेकान्तो वा भवेत् । नीलाक।र-
गरणे चाग्रदीता जडता कथं तस्य स्वरूपं स्यात् १ अपरथा
शरहीतस्य स्तम्भस्या्दीतं प्रैलोक्यमपि रूपं भवेत् । तदेतत्
श्रमेयजातं प्रभाचन्द्रपभृतिभिरहन्मतानुसारिभिः प्रमेयकमलमा-
तेण्डादौं प्रबन्धे प्रपञ्चितमिति म्रन्थभूयस्त्वभयान्नोपन्यस्तम् ॥
अच्छी बात है, जडता काही ग्रहण नहीं होगा, हमारी क्या हानिदहै?
[ उत्तर यह है कि ] जडता का ग्रहण न होने पर भी, जब नील ( या घट ) के
आकार का ग्रहण होता है उस समय दोनों मे ( जडता ओर पदाथं मे) भेद
होता है ( जैसा किं घट ओौर पटमें है) या अनेकान्त होता है ( जिसके चलते
वे धूम ओौर अभ्निकी तरह कभी-कभी ही--व्यभिचरित होकर--मिलते है) ।
[ आश्य यह है कि घटाकार गौर जडतामें यातो भेदहोयांया व्यभिचार
[= = वि
आदहैतन-दशेनम् ११६
सम्बन्ध होगा । "वड जड दहै" एेसा कहने षर भी. जड ओर ` घट भिन्न है, इसमे
कोई विश्वास नहीं करेगा । अतः जडता चट कः स्वूप ही है । फिर भी यदि घट
ग्रहण होने पर भी जडतां का ग्रहण नहीं हो, तो वे दोनों भिन्न है, एसा सन्देह
हो जायगा ओर अभेदं का निश्चय मी नहीं होगा । ] नीलक्रार का ग्रहण हो
जाने पर भी जिस जडता का ग्रहण होता है, वह उसका स । कंसे होगा ?
अन्यथा ( यदि अगृहीत गुण भी गृहीत वस्तुका स्वप हो, तब-- ) गृहीत
स्तम्भ का प अगृहीत त्रैलोक्य हौ हो जायगा । [ यंदि आप कहते है कि
अवयव न भौ देवां जाय ओर अवथवो देव जाय, कोई हानि नहं, तो में कहता
ह कि बँलोक्य अवयव है ओौर खम्भा अवयवी । | |
इन सभो विषयों का प्रतिपादन प्रभाचन्द्र इत्यादि अहत् ( जेन ) मत को
मानने वाले विद्धानों के द्वारा भेयकमलमातेण्ड इत्यादि भ्रन्धो म हभ है
इसलिये ग्रंथ बड़ा हो जाने के भयसे यहौँ नहीं दे रहे है ।
विरोष--माधवाचायं कौ यहं स्वभावोक्ति है- ग्रन्थ बढ़ जानेके भयस
अब विराम करं । कट् जगह तेसा प्रयोगं है । जैन ग्रन्थकारो मे प्रभाचन्द्र बहुत
से हृए् ह । प्रमेयकमल मातं रड के रचयिता प्रभाचन्द्र ८२५ ई° में विद्यमान
ये । विद्यानन्दो ( ८०० ई० } ने अ।{प्परीश्चा नामक ग्रन्थ लिवा जिसकी टीका
माणिव्यनन्दी (८०० ई० } ने परीश्चामुख नाम से की! प्रमेयक्मलः
प्ा्ण्ड दसी परीक्षामुख की टका दै । ॑ |
ॐ:
। +
= + कीः
"१ ^ ऋद्धि सः ॥
त १, 7,
क कते # व
4 च ५ 8,
न क क -
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भी
क
रन
[ ॥ भ क
४ ऋ
, (७. अदेत्-मत कौ खगमता' अदत् का स्वरूप ) . |
तस्मात्पुरुषाथभिकापुकेः पुरुषः सौगती गतिनोसुगन्तव्या;
¢
अपि तु आती एवादेणीया । अदेस्वरूपं च देमचन्द्रशरिभिरा्त
निश्वयारंकारे निरय्ड्कि-- भः
जितरागादिदोषेरोक्यपूजित = न,
।
५. सज्ञो ¦ ।
यथास्थितार्थवादी च देबोऽैन्परमेश्वरः ॥ इति । `
इसलिये पुरुषार्थं ( मोक्षं ) की इच्छा करने वाले लोगों को बुद्ध कौ पदति
1 अनुगमन नहीं करना चाहिये, बल्कि अहत् ( जिन ) की सरणि का. पूजन
करना चाहिये । अदत् ( जनों के ईर ) का स्वल्प हेमचन्द्र सूरिने अपने
आत्तनिश्चयालंकार नामक प्रथ में इस प्रकार दिया है---“जो सब कु जानता
हो, राग ( भासक्ति ) आदि दोषों को जीत चुका हो, तीन लोकों में पूजित हो,
वस्तुं जैसी ह उनदँ वैस ही कहता हो, वही परमेश्वर अहत् देव दै ।
१२० सबेदशेनसंमहे-
¦ विरोष--हेमचन््र ( १०८८-११७२ ई० ) अपने समय के सवते बड़े
विद्धान् थे जिन्होने काव्य, व्याकरण, दर्चन आदि. अनेक शास्र मे प्रन्थ-रचना
की । प्रमाणमीमांसा तथा शब्दानुशासन इनके सृप्रसिदध ग्रन्थ रहै। सर्वगण
भ्रतिभा के कारण ही इन्द कलिकालसवंज्ञ' को उपाधि मिली थो ।
` (८. अहत् के विषय मे बिरोधियो की राकां )
ननु न कथित्पुरुषविदोषः सवज्ञपदवेदनीयः प्रमाणपद्रति-
मध्यास्ते । तत्सद्धावग्राहकस्य प्रमाणपञ्चकस्य तत्रायुपलम्भात् ।
तथा चोक्तं तोतातितेः
६. सर्वज्ञो दश्यते तावननेदानीमस्मदादिभिः।
दृष्टो न चेकदेश्ोऽस्ति लिङ्गं वा योऽ्लुमापयेत् ॥
चागमविधि [3 , "द्व ~: |
७, न॒ २ ; कथिनित्यसवज्ञगोधकः ।
न च तत्राथवादानां तात्पयमपि करप्यते ॥
कोई शंकां कर सकता है- कोई विशेष पुरुष, सवंज्ञ' शब्दके दारां
जोधनीय नहीं है जो प्रमाण की पदवो पा सकता है। उस ( अरहंत्, सवंज्ञ )
की सत्ता को सिद्ध करनेवले पाचों प्रमाणो कौ प्रातनि वहाँ नहींदहै। ( षच
भ्रमाणा = प्रत्यक्ष, अनुमान, उपमान, शब्द ओर अर्थापत्ति । इनमे किसी से अर्हत्
की सिद्धि नहीं होती । ) जसा कि तौतातित ( कृमारिलभद )° ने कहा है--
(६ ) क. प्रत्यक्ष-प्रमाण से असिद्धि-"इस समय सर्व॑ज्ञ ( ईश्वर )
इमलोगो को दिखलाई नहीं पडता ॥' |
ख. अनुमान-परमाण से असिद्धि--जौर न उस ( सर्वज्ञ) का कोई
भाग ही दिखलाई पड़ता किं लिग ( हेतु 1104416 670 ) बनकर वह् सनज्ञ
के अनुमान में सहायता करे ।'
( ७ ) शाब्द्-प्रमाण से असिंद्धि- "न तो आगम ( वेद-शब्द ) ` करी कोई
विधि (आज्ञा) ही एेसी है जिससे नित्य ओर सर्वज्ञ ( अर्हत् }) का बोध हो।
अर्थवाद्-वाक्यों का भी तात्पयं ( अथं ) यहाँ पर नहीं लगता ।'
१. तौतातित = अभ्यंकर ने इसका अथं बौद्ध दिया है जब कि कविल
कृमारिल भटका इसे पर्याय समन्नतेहै। आगे दिये गये शोक वास्तवमें
कमारिल के है जो जेनोंके विरोधमें कहे गये है ।. इसके अलावे प्रमारापञ्चक
की स्वीकृति (प्रभाकर मत के अनुसार) तथा विधि अर्थवाद का उज्ञेव
बतलाता है कि शंका मीमांसकोंकीओरसे दहै, बौदयोंसेनहीं।\
-आहेतन्दशेनम् १२१
विरोष- मीमांसक लोग शब्द-प्रमाणा के अन्तग॑त वेदों का ग्रहण करते
हजो नित्य ओर अपौरुषेय रहै । वेद के व्रिषयों के इनके अनुसार पांच भेद
(हे :- ( १ ) बिधि--अज्ञात ज्ञापक वाक्य जो प्रेरणा प्रदान करे जसे ‹स्वग-
कामो यजेत" । इसके भी चार भेद है--कमं के स्वरूपमात्र को बतलाने' वाली
उत्पत्ति-विधि, अंग शौर प्रधान अनुष्ठान का सम्बन्न् बतानेवाली विनियोग-विधि,
कमं से उत्पन्न फल का स्वामित्व बतलानेवाली अधिकार-विधि तथा प्रयोग की
लीघ्रता का बोधक, प्रयोग~वधि । विधि पर मीमांसा-दर्शन बहत जोर देता
है ओर विध्यथं कै निय के लिए श्रुति, लिग, वाक्य, प्रकरण, स्थान तथा
समाख्या नामक छह प्रमाण भी स्वीकृत है । ( २ ) मन्त्र--अनुष्टान के अर्थो
कां स्मरणा दिलानेवाले वाक्य । (३) नामघेय- यज्ञो के नाम। (४)
निवेध-- अनुचित कायो से हटानेवाले वाक्य । ( ५) अर्थवाद्-- लक्षणा
के द्वारा स्तुति या निन्दापरक वाक्यो का कथन, जैसे--'अस्िहिमस्य भेषजम्!
यहाँ अम्नि को हिमनाशक कहा गया हे, अन्नि ओषधि नहीं है । इसके भी तीन
भेद है-- गुणवाद, अनुवाद, भूताथंवाद । कटा गया है--
विरोचे गुणवादः स्यादनुवादोऽवधारिते ।
। भूतार्थवादस्त द्वानाव्थंवादल्िवा मतः ॥
इसके विशेष विवेचन कै लिए अर्थसंग्रह, मीमांसान्यायप्रकाश या मीमांसा-
परिभाषा देखें । सायण ने अपने ऋग्वेदभाष्य की भूमिका में भी विधि ओर
अर्थवाद का सुन्दर विवेचन किया है । वहाँ ब्राह्यणा-भाग केदो भेद है विधि
ओर अर्थवाद । दोनों एक दुसरे के पूरक है । अथ॑वाद वाक्यो से किसी विधिं
की ओर प्रवृत्ति होती है ।
मीमांसको के दो भेद है--भाद्र-मतं ( कुमारिलभट का सम्प्रदाय ) तथा
गुरुमत ( प्रभाकर गुरु का सम्प्रदाय )।. दोनों विद्वानों ने मीमांसासूत्र पर
लिखे गये शबर-भाष्य कौ टीकाये कीं । अन्य भेदों के अलावे दोनों मे एक यह
मभेद है किकुमारिल छह प्रमाणा मानते हि-- प्रत्यक्ष, अनुमान, उपमान,
शब्द, अर्थापत्ति ओौर अनुपलब्धि ( अभाव ) जव कि प्रमाकर अभाव को प्रमाण
नहीं मानते । ज्ञात होता है किं कुमारिल केही अनुसार प्रमाणो को लेकर
अभाव" को विवादग्रस्त जानकर इसे छोड दिया ग्या है ओर पांच प्रमाणो
से भी काम चला लिया गया है।
स्याद्रादरन्नाकर ओर प्रमेयकमलमातंरुड मे अन्तिम शछछोक का पाठ यों है-
न च मन्त्राथंवादानां तात्पयंमवकल्पते ।
दसके बाद मीमांसकों के अनुसार शब्दादि प्रमाणो से अर्हत् की असिद्धि
दिखलाई जायगी । ,.
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८, न चान्याथेप्रधानेस्तेस्तदस्तित्वं बिधीयते। `. `
न चानुवदितं शक्यः पूवेमन्येरबोधितः॥ `
६. अनादेरागमस्यार्थो न च सवज्ञ आदिमान् । `
कूत्िमेण त्वसत्येन स कथं प्रतिपाद्यते १ ॥
१०. अथ तद्वचनेनैव सवेज्ोऽजञेः प्रतीयते ।
प्रकर्प्येत कथं सिद्धिरन्योन्याश्रययोस्तयोः ॥
( = ) सरे तात्पयं वाले अथंवाद वाक्यों से भौ उसकी सत्ता नहीं सिद्ध
होती । दकि पहले किसी ने नहीं कहा इसलिए इसका अनुवाद ( पुनः कथन )
भो नहीं हो सकता ।' ( अनुवाद किसी निश्चित उक्ति को कहते है जो पुनः कही
गयी हो । अनुवादोऽवधारिते' । )
( ९ ) "सर्वज्ञ ( जैनियों का ईश्वर ) सादि--आदि से युक्त - है, वहं अनादि
आगम का विषय नहीं हो सकता । ,[ वेद अनादिदहै, उसमे सादि स्वेज्ञ का
वर्णन मिलना असम्भव है; दूसरी ओर यदि आगम (वेद) को सादिमाननल
तो वह कृत्रिम ( &1{10678], } पाक्ा-7१806€ } हो जायगा ओर असत्य
विषयों का प्रतिपादन करने लगेगा । ] तो, कृत्रिम तथा असत्य विषयों के द्वारा
उस ( सवंज्ञ ) का प्रतिपादन कंसे हो सकता है?
( १० ) अब यदि उस ( सर्वज्ञ मनि ) के वचन सेही सवंज्ञ काज्ञान
( प्रतीति ) लोग ( मूखं लोग ) कर तो उन दोनों की ही सिद्धि केसे हो सकती
है क्योकि वे एक दूसरे पर आधित ह ? ( इसलिए अन्योन्याश्रय -दोष उत्पन्न हो
जायगा । इसकी व्याख्या अगे की जां रहौ है । )
११. स्ेज्ञोक्ततया वाक्यं सत्यं तेन तदस्तिता ।
कथं तदुमयं सिष्येत्सिद्वमूलान्तराते ॥ `
१२. असवेजञप्रणीतात्त वचनान्मूरुवजितात् ।
सरवज्ञमवगच्छन्तः स्ववाक्यार्कि न जानते १॥
१३. सवेज्ञसदश्चं कश्िद्यदि पश्येम सम्प्रति ।
उपमानेन सर्वज्ञं जानीयाम ततो वयम् ॥
१४. उपदेश्नोऽपि बुद्धस्य धमोधमोदिगोचरः
अन्यथा नोपपद्येत साव्यं यदि नाभवत् ॥
आरहत-दशेनम् १२३
१५. एवमथापत्तिरपि प्रमाणं नात्र युज्यते ।
{< उपदेशस्य सत्यत्वं यतो नाध्यक्षमीक्ष्यते ॥ इत्यादि ।
( ११) {अप कहते है किं | सवज्ञ के दवारा कटे जाने के कारण वाक्य
सस्य ह ओौर $्सी से उनका अस्तित्व सिद्ध होता है, { तो उत्तर है किं | दोनों
( सवज ओर उनके वाक्य ) की सिद्धिही केसे होगी जब कि सिद्ध किया हुभा
मूल ही नहीं है । ( = सर्वज्ञ कौ ही जव सत्ता नहींतो उनके वाक्य कहाँ से
सिद्ध होगे ) ?
( १२) "सर्वज्ञ से भिन्न किसी व्यक्ति के दवारा के गये, मूलहीनं वचन से,
यदि स्व॑ काज्ञान लोग करते है तो अपने ही वाक्य से क्यो नहीं जान लेते ?
(सामान्य जेनलेखकों कौ बात पर विश्वास करके सर्वज्ञ को जानने से अच्छा है
अपने ही मन से कपोलकल्पना करके उन्हँ जानना । )
( १३ ) उपमानः-प्रमाण से असिद्धि--'सर्वज्ञ के समान य दि किसी
व्यक्ति को हम इस समय देखे तभी तो उपमान-प्रमाण कै द्वारा उन
जानं सक्ते है ?
( १४ ) अ्थौपत्ति-पमाण से असिद्धि- "वृढ ८ या जिन ) का उपदेश,
जो घर्म-अधर्मादि का बोधक दहै, दूसरी तरह से सिद्ध नहीं हो सकता यदि उन
सर्वज्ञ नहीं मानते \
( १५ ) इस प्रकार को अर्थापत्ति भी प्रमाण केखरूप में यहाँ ठीक नहीं
ती कयोकि उपदेशा की सत्यता ही अध्यक्ष ( ००११०} ) केषूपमें
नहीं देखी जाती ॥ ` | |
विदोष--कुमारिलभदटर यहाँ पर सिद्ध करना चाहते है कि अर्थापत्ति के
द्वारा भी सर्वज्ञ कौ सिद्धि नहीं हो सकती । जैन कहते है कि यदि अहत् सवं
नहीं होते तो उनके वचन सत्य जौर आप्त नहीं होते । किन्तु वचन चूंकि सत्य
ओर आप्त है, इसलिए वे अहत् सर्वज्ञ ह । यह तकं.बुद्ध के विषय मे दिया गया
हे किन्तु जैन लोग उन्हीं की ओट मे अपना . मतलब साधते ह । लेकिन जिस
हेतु को लेकर यह अर्थापत्ति होती है ( अर्थात् "वचन सत्य है" ), वही गलत है ।
अतएव अर्थापत्ति के द्वारा भी सर्वज्ञ की सत्ता सिद्ध नहीं होती ।
= पाज मः न म 3
स
११ व + "च 4 + {5 3
ऋ क
1॥ # मं
च ^
"< नन्व चअ
ष + ढे 4, । ९ = 9.
= +2
~~
१, तुलना कर--
बृद्धादयो ह्यवेदज्ञास्तेषां वेदादसं भवः ।
उपदेशः कृतोऽतस्तेर्व्यामोहादेव केवलात् ५
अभाव-प्रमाण न देने का कारण यहहै किं यह रमाण अभावाटमक
{ "९8४7९ ) है जिसकी आवश्यकता ही नहीं । इस प्रकार भाद -मीमांसा के
छहो प्रमारो से स्वंज्ञ की सिद्धि नहीं होती ।
(९. अहत् पर मीमांसक की शङ्का का समाधान )
अत्र प्रतिषिधीयते। यदभ्यधायि तत्सद्धावग्राहकस्य
प्रमाणपञ्चकस्य तत्रानुपलम्भात्' इति तदयुक्तम् । तत्सद्धावा-
बेदकस्यानुमानादेः सद्भावात् । तथा हि कश्िदात्मा सकलपदाथे-
साक्षात्कारी, तद्रहणस्वभावत्वे सति प्रक्षीणप्रतिबन्धग्रत्यय-
त्वात् । यद्यद्ग्रहणस्वभावस्वे सति प्रक्षीणग्रतिबन्धप्रत्ययं,
तत्तत्साक्षात्कारि; यथा--अपगततिमिरादिग्रतिषबन्धं लोचनविज्ञानं
रूपसाक्षात्कारि।
अब इसक्रा उत्तर दिया जाता है-आपने जो यह कहा किं “उसको सत्ता
को सिद्ध करनेवाले पाचों प्रमाणो मे कोई वहां प्राप्त नहीं है'-- यह ठीक नहीं
कारण यह है कि उस ( सर्वज्ञ ) की सत्ता सिद्ध करनेवाले अनुमान आदि की
सत्ता वास्तव में है ।
स्पष्ठीकरण- कोई आत्मा ( = अहत्, सवंज्ञ मुनि) सभी पदार्थो का
साक्षात्कार कर सकती है यदि, सभी पदार्थो को ग्रहण करने का इसका स्वभाव
होने पर, इस प्रकार के ज्ञान को रोकनेवाले तत्वं नष्ट हो जाये । किसी (व्यक्ति)
मे जिस (वस्तु) को ग्रहण करने का स्वभाव (योग्यता) है, ज्ञान के
प्रतिबन्धक प्रत्ययो के नष्ट हो जाने पर, वह ( व्यक्ति) उस ( वस्तु) का
साक्षात्कार करेगा ही । उदाहरणा के लिए, तिमिर ( अन्धकार ) आदि रकाब
केनष्टहो जाने पर्, ृष्टिविन्ञान ( इन्द्रिय ) रूप का साक्षात्कार करता है ।
तदग्रहणस्वभावतवे सति प्रक्षीणप्रतिबन्धग्रस्ययश्च किदारमा ।
तस्मात्सकलपदा्भसाक्षात्कारीति । न ताबदेषाथेग्रहणस्वमाव-
त्वमा्मनोऽसिद्धम् ।
सभी पदार्थो को ग्रहणा करने का स्वभाव उसमें है तथा उसका प्रतिबन्ध
डालनेवाले प्रत्यय नष्ट हो चुके है, इसलिए एकं आत्मा एसी ( सव॑ज्ञ के रूप मं )
है । इसलिए सभी पदार्थो का साक्षात्कार करने वाली [ वह आत्मा | है ।
इसमे आत्मा का सभी वस्तुओं को ग्रहण करनेवाला स्वभाव असिद्ध नहीं होता ।
आर्हत-दशेनम् १२५
विद्ोष- सर्वज्ञ को सिद्ध करने के लिए अनुमान यों दिया गया--
( १ ) कश्चिदात्मा सकलपदाथंसाक्षात्कारी-- प्रतिज्ञा ।
( २) तदग्रहणस्वमावत्वे सति प्रक्षीराप्रतिबन्धप्रत्ययत्वात्--हेतु ।
( ३ ) यद्यद्" ' "^ "` ङूपसाक्नात्कारि- उदाहरण ।
( ४ ) तदग्रहस्व भावत्वे सति प्रक्षीराप्रतिबन्ध्रत्ययश्च कश्िदात्मा
उपनय ।
(५) तस्मात्सकलपदा्थंसाक्षात्कारी ( आत्मा अहन् )- निगमन ।
इस प्रकार ्पौच अवयवो का यह परार्थानुमान है जिससे सरव॑ज्ञटव की सिद्धि
अली भति हो जाती है।
अब उपर्युक्त हेतु--अशेषाथं को ग्रहण करते की प्रकृति में स्वषूपासिद्ध
हेत्वाभास देखने की चेष्टा की जा ती है । चश्ु आदि इन्द्ियां रूप, रस आदि विषयो
कौ ग्रहण करती है । यह उनका स्वभाव है। मन ओर आत्मा का कोई एेसा
स्वभाव नहीं किं वे अमुकं विषय को ही ग्रहण करेगे । प्रत्यक्ष ज्ञान मे उनका
विषय इन्द्रियो से सम्बद्ध रहता ह, अनुमान में तो उससे भी पुनः सम्बद्ध
( = इन्द्रिय सम्बद्ध सम्बद्ध) विषय होता है । इस प्रकार सभी वस्तुओं को ग्रहण
करने का आत्मा करा स्वभाव तो असिद्ध है, इसे स्वरूपासिद्ध करगे । इसी के उत्तर
ने कहा गया है कि आत्मा का स्वभाव असिद्ध नहीं । इसके लिये कारण अब
ठग ओर मीमांसकों को आड हाथो लिया जायगा ।
चोदनाबलानिषिलाथेज्ञानोत्पस्यन्यथानुपपच्या, सवे मनेका-
न्तात्मकं सादिति व्याशषिज्ञानोत्पत्तेच । (चोदना हि भूतं
भवन्तं भविष्यन्तं खष्ष्मं व्यवहितं विग्रढृष्टमित्येवंजातीयकमथे-
मवगमयति! ८ मी० ० १।१।२ शवरभा-। ) इत्येवंजातीय-
्करध्वरमीमांसागुरुमिरविथिप्रतिपेधविचारणानिवन्धनं सकलाथे-
©
विषयज्ञानं प्रतिपद्यमानः सकलारभग्रहणस्वभावकत्वमात्मनोऽ-
भ्युपगतम् ॥
यदि [ सव्॑ञत्व सिद्ध करने का हेतु “अशेषाथं ग्रहण करने की भ्रकृति' |
नहीं रखे तो चोदना या विधि ( {}पण७४०0 ) के बल से सभी विषयों के
ज्ञान कौ उत्पत्ति नहीं हो सकेगी ( अन्यथा अनुपपत्य। ) 1 दुसरे, निभ्नोक्त व्याति
ज्ञान की उत्पत्ति भी [नहीं हो सकेगी ]-- सभी वस्तुं अनेकान्ताट्मक
( अनिश्ित ( 1706७ )08{6 ) है वयोक्रि उनकी सत्ताहै (हेतु) .
[ इस प्रकार अर्थापत्ति से उप्यक्त स्वरूपासिद्ध दोष का खंडन हो जाता है ।
॥ सवेदशंनसंम्रहे~
एक तो विधि वाक्यों की सर्वाथंगामिनी प्रापि हमे बाध्य करती है कि विधि के
विधायकों ( जसे अहेन्मूनि ) का स्वभाव सभी विषयों का ज्ञान करने वाला
मानना होगा । दूसरी ओर, सभी विषयों को अनेकान्त मानने वाली व्यापि भी
बाध्य करती है कि हम उपर्युक्तं स्वभाव को स्वीकार करं। फिर कहाँ रहा
स्वरूपासिद्ध दोष ? प्रत्युत उस हतु के विना काम ही नहीं चलता । अब चोदना
या विधि की सवं व्यापकता सूनं । |
चोदना ( विधि ) बीते हुए विषयों को ( जेसे अर्थवाद म ) वत॑मान विषयों
को ( जसे यागादि को }, भविष्य में होने वाले विषयों को ( जैसे स्व सुख प्राति
जादि ) सूक्ष्म वस्तुओं को (जंसे शरीर धारण के पूर्वं जीव), व्यवहित
( 0008९६६५ जंसे शरीरादि के द्वारा व्यवधान पाने पर जीव ) था दुर की
वस्तुओं को ( जसे स्वर्गादि ) बतलाती है ( = इन सभी प्रकार के विषयों का
निर्देश विधियो मे है जिससे वे विधियां मीमांसकं के ही अनुसार निखिला्थं
बोधक है । इसी प्रकार की चोदना अहन्मूनि के बनाये हुये आगम में भी देखी
जातीदहै। तोक्या वह आगम सर्वार्थप्रकाशक नहीं होगा?) ( मीमांसा सूत्र
१।१।२ पर शबर स्वामी का भाष्य }--इस प्रकार के अघ्वरमीमांसा ( यज्ञमी-
मांसा, कंम॑मीमांसा )` के गुरुगण विधि ( [ण]प००५४ 8 ) भौर प्रतिषेष
( ए"०9१0५०08 ) के विचार पर आश्रित समी वस्तुओं के ज्ञान का प्रति-
पादन करते हुए, आत्मा ( अहन्मूति ) के सकलाथ ग्रहण-रूपी स्वभाव को
मानते ह ।
विरोष-चोदना के प्रोता अहुनमुनि म निखिल वस्तुओं का ज्ञान होना
आवद्यक है । यदि उनका स्वभाव निखिल विषयों का ग्रहण करना नहीं होता,
तो यह सम्भव् नहीं था । इसलिये अर्थापत्ति के द्वारा इसकी सिद्धि होती है ।
इसके अलावे अर्हनमूनि ने यह अनुमान मी कहा है "सव कुच अनेकान्त
( अनिश्वयात्मक ) है क्योकि उसकी सत्ता है“ यह अनुमान बिना व्यातिके
ज्ञान के सम्भव नहीं है । अतः अहंनमूनि को यह होना ही चाहिये- सभी वस्तुओं
के विषय में व्याप्ति होनी परमावश्यकं है । इसके लिये 'निखिलाथंग्रहणस्वभाव
होना ही पड़ेगा 1
१. वेद के अघ्वर-भाग या कमेकाण्ड पर जोर देने के कारण जैमिनीय
दशन का नाम कर्ममीमांसा या पू्वंमीमांसाभी है जब किं वेदान्त को जिसमें
, ज्ञानकारड का वंन है उत्तरमीमांसा या ज्ञानमीमांसा भी कहते है! बादमें
वेदान्त नाम पड़ जाने पर पहले को केवल मीमांसा भी कहने लगे
^ आरहतनदशनम् १ २७
न चाखिलारथपरतिबन्धकावरणर्षयालुपपततिः । सम्यग्द्ी-
नादित्रयलश्षणस्यावरणप्क्यहेतुभृतस्य सामग्रीविशेषस्य प्रतीत-
त्वात् । अनया भुद्रयापि शषद्रोपद्रबा बिद्राव्याः ।
[ हेतु मे जो विशेष्य = ्रक्षीणप्रतिबन्धप्रस्ययत्व-लगा है, उसमे दोष प्रात
होने कौ शंका करते है-- ] एेसा न समञ्च कि अखिल वस्तुओं के | प्रकाशन
यां ज्ञान में ] रुकावट डालने वाले भावरा ( ढक्षन (0रश्पण्टु ) के विनाश
की सिद्धि नहीं होगी । ( अर्थात् अहरमूनि अखिल वस्तुओ का ज्ञान रखते है
उसमे कहीं भी कोई रुकावट नहीं डाल सकता । ) इसका कारण यह है कि
सम्यग्दर्शन आदि तीन ( रन्न ) से युक्तं तथा आवरण का विनाश करने बाले
कुछ एसे विशिष्ट साधन ( सामग्री विशेष ) है जिनकी प्रतीति होती दै।
[ अभिप्राय यह है किं खभी वस्तुओंके ज्ञान मे जो रुकावट या आवरण हँ
उनके न हो जाने पर अहन्मूनि का यह स्वभाव ही हो जायगा कि वे सभी
वस्तु्ओो का ज्ञान प्राप करं ओर फिर सवजञत्व उनमें वयो नहीं रहेगा ?. लेकिन
प्रन है किं इन आवरण को नष्ट करने के उपाय मी है क्या? हा, है सम्यक्
दैन, सम्यक् ज्ञान तथा सम्यक् चारित्र, इन तीन रलो के धारण से आवरण
क्षीरा हो जति है, मोक्ष का मागं खुल जाता है। त्रिरन्नका स्वरूप आगे
चल कर बतलार्येगे । अमी तो शत्रुओं से युद्ध मँ फते ह।]
इस रीति से भी दृष्टो ( जेनमत के आक्षेपक } के उपद्रव ( आक्षेप ) दवा
दिये जायें ।
( १०. नेयायिकौ की शंका ओर उसका उत्तर )
नन्वावरणग्रक्यवशादलेषविषयं विज्ञानं विशदं भुख्यप्रस्यक्ष
ग्रभवतीत्युक्तं, तदयुक्तम् । तस्य सर्वजञस्यानादिमुक्तस्वेनावरण-
स्यैवासंमवादिति चेत्-तन्न । अनादिगुक्तत्वस्येवासिद्ेः ।
न सर्वजञोऽनादिघ्क्तः । शक्तत्वादितरभुक्तवत् । बद्धपक्षया हि
्ुक्तव्यपदेशः । तद्रहिते चास्याप्यमावः स्यादाकाशवतर ॥
[ नैयायिको की शंका है-- ] भाप ( जैन ) लोग जो यह कहते है कि
आवरण के अच्छी तरह ( प्रकषण ) नष्ट हो जाने पर, सभी पदार्थो के विषय
मे, विचुदध विज्ञान ( 1९ {70911} 666 ) उत्पन्न होता है जिसमे सबसे
अधिक प्रत्यक्ष-शक्ति रहती है, तो. भाप की यह बात ठीक नहींहै। कारण
यह है कि सवं्ञ तो अनादि काल से भक्त है, उसमे आवस्ा ( ज्ञान को ठेकने
ष्ठ सबेदशेनसंगरहे-
वाले तरव ) कौ संभावना ही कहाँ से होगी ? [ हम उत्तर में कहते है कि | यह
दंका भी युक्तियुक्त नहीं है । आप "अनादि काल से मुक्त ( सव॑न )'.की ही सिद्धि
नहीं कर सकते । सवंज्ञ अनादि काल से मृक्त नहीं है, क्योकि वह भी अन्य मुक्त
पुरुषों की तरह 'मुक्त' होता है । 'मुक्त' शब्द बद्ध' को अपेक्षा रखता है। (जो
मुक्त होगा तो क्रिसौ बन्धन से ही; इसलिए मृक्त को पहले बद्धं होना आवश्यक
है चाहे वह सर्वज्ञ वयो न हो । ) यदि वह ( बद } नहीं रहेगा तो इस ( मुक्त } :
का भौ अभाव हो जायगा, जेसे-आकाश [न तो बद्ध रहता है ओौर न मुक्त ।
इसलिए या तो बद्ध ओर मुक्त दोनों रखना पड़ेगा या दोनों मे कोई नहीं 1 |
नन्वनादेः श्षित्यादिकायेपरंपरायाः कठेतवेन तत्सिद्धिः ।
तथा हि-षित्यादिकं सकतेकं कायेत्वाद् घटवत् । तदप्यसमी-
चीनम् । कायत्वस्येवासिद्धेः । न च सावयवत्वेन तत्साधन-
मित्यभिधातव्यम् । यस्मादिदं षिकरपजारमवतरति ।
[ मैयायिक लोग उत्तर दे सकते है कि ] पृथ्वी आदि अनादि काल से चली
आने वाली कायं-परंपराको देखकर [ उन कार्यौके ] कर्ताके रूपमे उस
( सर्वज्ञ ईश्वर ) की सिद्धि हो जाती है। समञ्लने के लिए यह अनुमान लं--
“थ्वी आदि इसलिए कतयुक्त ( 8710 & 001, 1. 6. ७०१ ) है कि ये
( पदार्थं) कायं के रूपमे, जसे किघट।' (जिस प्रकार घटका कर्ता
| | कुम्भकार है उसी प्रकार अनादि काल से चलने वलि पृथ्वी आदि षदार्थोके
|| लिए भी एक अनादि कर्ता की आवद्यकता है । वही कर्ता ईशर है। यह
| नैयायिको की तरकक॑प्रणाली ईश्वरको सिद्धकरेमे कामजातीदहै।) [अब
हमारा ( जैनियो का ) प्रत्युत्तर है-- ] यहं कहना भी 'टीक नहीं है क्योकि
इन वस्तुओं को हम कायं के ल्प मेँ ही स्वीकार नहीं कर सक्ते । `
आप यह् नहीं कह सकते है कि [ पृथ्वी आदि पदार्थो कै ] अवयव युक्त
होने के कारण उस ( कायंस्व ) की सिद्धि हो जायगी क्योकि यहं विकल्प का
समूह वहाँ पर आ जायगा । [ इसके बाद पाच विकल्प देकर उनका खरडन
किया जायमा । |
विोष- जैनों के प्रहार से बचने के लिए वीर नेयायिक बहुत-सी युक्तियां
देते है। जनों का कहना है कि पृथ्वी कायं नहीं है तब नेयायिकों ने कहा कि
जिन-जिन पदार्थो की रचना में टुकडे या अवयव होते है वे पदार्थं कायं है ।
अब जेन लोग विकल्प का जाल फलाकर यह सिद्धकरनेकौ चेष्ठा करगे कि
सावयव होने से ही कोई पदाथं कायं नहीं हो जायमा ।
-~ ~ *+~---~-- ~
आहेत-दशेनम् १२६
( ११. सावयवत्व के पोच विकटप ओर उनका खण्डन )
सावयवत्वं किमवयवसंयोगित्वम् , अवयवसमवायित्वम् ›
अवयवजन्यत्वम् , समवेतदरव्यत्वम् , सावयवबुद्धिविषयत्वं वा !
न्स
न प्रथमः । आकाशादौ अनेकान्त्यात् । न हितीयः ।
सामान्यादौ व्यभिचारात् । न ठृतीयः । साध्याविशिष्टतवात् ।
अवयवो के साथ होना इसका अथं क्या है-{ १) अवयवो के साथ
संयोग होना, या ( २ ) अवयवो के साथ नित्यरूप से सम्बद्ध रहना, या (३ )
अवयवो से उत्पन्न होना, या ( द) नित्य रूप से सम्बद्ध ( समवेत ) द्रव्य होना
अथवा ( ५) अवयवो [ के विचार | से युक्त बुद्धि का हौ विषय होना ? ( पंचम
विकल्प का अथं हे कि जिस वुद्धि से सावयव पदाथं का ज्ञान होता है उस बुद्धि
न हौ अवयवो से संयुक्त होने" का प्रत्यय ( (201006४ ) छिपा हा हो 1 )
( १) पहला विकल्प [किं अवयवोके साथ संयोग होता है,] ठीक नहीं क्योकि
आकाडा आदि पदार्थोमें व्यभिचार हो जायगा । इसलिए अतिव्याप्ति हो जायगी ।
आदाय यह है कि आकाशके जो अवयव या भाग है उनका संयोग आकाश में
ह । इस प्रकार प्रथम विकल्प के अनुसार ही, अवयवो के साथ संयुक्तं सावय
वत्व यहौ पर हेतु है जो कायं अथात् जाकाश की सिद्धि मे उपयुक्त हो सकता
है) यदि सावयव होने का अथं है “अवयवो के साथ संयुक्त होना' तब तो
आका भी अवयवो से संयुक्त है फिर आकाश को नैयायिक लोग कायं क्यो नही
मानते ? नैयायिक लोग इस युक्ति मं--
सभो सावयव ( अवयवसंयोगौ ) पदां कायं है,
चकि आकाश सावयव ( अवयव संयोगी ) है,
इसलिये आकाश कायं है,
साघ्य ( कार्यः ) को पक्ष (आकाश) से भिन्न मानते है, आकाश को
कायं नहीं मानते । इसके चलते "सावयवः हेतु व्यभिचारग्रस्त माना जायगा
ओौर वह व्यभिचार ( 0४106 8ष)1;68४10प ) है कि यह देतु साघ्यके
अभाव से युक्त ( साध्याभाववत् ) स्थानों में मी अपनी वृत्ति रखता है ( साघ्या-
भाववद्वृत्तित्वरूपव्यभिचारग्रस्तः सावयवत्वहेतुः ) । निष्कषं यह निकला कि
“अवयव संयोगी" वाले सावयवत्व को हतु केखूपम प्रहण करने से आकाश को
जी समेट लेना. पड़गा जो कायं नहीं होते हृए भी कायं के सूपमें सिद्ध हो
जायगा । इसलिये सावयव का अथं “अवयवो के साथ संयुक्तं रहना नहीं होना
चाहिये । आकाश मे अवयव नहीं है, एेसी शंका नहीं करनी चाहिये क्योकि
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१३० सवेदशनसंम्रदे-
अवयव नहीं रहने से वह व्यापक नहीं हो सकता । जिघके भाग है वही
व्यापक होगा । | ।
(२ ) दसरा विकल्प [ किं अवयवो के साथ नित्य रूप से सम्बद्ध रहना ही `
सायवय होना है ] भी ठीक नहीं, वयोकि इससे सामान्य आदि में व्यभिचार
यां अतिव्याति हो जायगी । [ ठीक ऊपर जैसी दशा यहाँ भी है । सामान्य या
जाति ८ लैसे- द्रव्यत्व, घटत्व, गोत्व आदि ) अपने व्याप्य विषयो ( जेसे-
चट, पठ, गो ) मतो है ही, उनके . अवयवो मे भी है। सामान्य का इनके साय |
समवायसम्बन्ध ( 1011७श४ ४6] ) है कि कभी न आरम्म देखा
गयां ओौर न अन्त ही । नित्य, निरन्तर का दोनों मे सम्बन्ध है । तब तो यह
निध्ित है किं सामान्य अवयवो के साथ समवेत है। अब वही अनुमान
दुहरा द--
सभी सावयव ( अवयव समवायी ) पदाथं कायं है,
दकि सामान्य भी सावयव ( अवयव समवायी ) है,
इसलिये सामान्य कायं है ।
किर तैयायिकों के कान खडे हो गये । सामान्य को वे कायं मानते नहीं फिर
यह सिद्ध कैसे हुभा ? जरूर कहीं दाल में काला है । इसलिये सावयव का अथं
"अवयवो से समवाय सम्बन्ध होना' लेंगे तो सामान्यको मौ कायं मानना
पडेगा, अतिव्यात्ति हो जायगी । अतः 'सावयव' का यहं अथं ठीक नहीं है ।
द्रव्यत्व का सम्बन्ध घट के अवयवोंके साथ केसे? दो उपाय रहै--एक तो घट
क्रे अवयव भी उसी प्रकार द्रव्य ह जिस प्रकार घट, अतः उनसे मौ द्रव्यत्व
जाति नित्यरूप से सम्बद्ध है । दूसरे, द्रव्यत्व का सम्बन्ध घटत्व से हे ओर
चरत्व चट के प्रत्येक अवयवमें है नहीं, तो वह घट (पूणं) को व्याप केसे
करेगा ? हम एेखा कह भौ नहीं सक्ते किं अमुक खर्ड मे घटत्व है, अमुक
मे नही।।
(३) तीसरा विकल्प [ कि सावयवत्व का अर्थं अवयवो से उत्पन्न होना
ह ] भो दोषरहित नहीं कयोकि यह हमारे साष्य ( कार्यत्व' ) से अभिन्नो
जायगा । [ अभी हम लोग काय॑स्व को सिद्ध करना चाहते हँ वरयोकि वह संदिग्
ह । उसी प्रकार जन्यत्व" भी संदिग् है। इसे स्वयं ही सिद्ध करने की आवश्यकता
ह फिर यह कायंत्व को क्या सिद्ध करेगा ? बात यहं है कि कायं ओर जन्य एक
ही है। "पट" कायंको सिद्ध करने के लिए यह कहना अप्रामाणिक होगा कि
एकत्र किय गये सूते ही षट दै । अतः सावयवत्व का यह अथं भी व्यथं है। |
न चतः । विकल्पयुगरागेरग्रहगलत्वात् । समवाय
ग र सेन
- ---==- -- “८३ १ [3 तः ॥
ग्म स्क [व (र + ९ 1 9 2५ 4 ।
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आहंत-दशनम् १३१
सम्बन्धमात्रवद् द्रव्यत्वं समवेतद्रव्यत्वमन्यत्र समवेतद्रव्यत्वं
वा विवक्ितं हेतूक्रियते !
आद्ये गगनादौ व्यभिचारः । तस्यापि गुणादिसमवायवत्व-
द्रव्यत्वयोः सम्भवात् । द्वितीये साध्याविशिष्टता । अन्यश्ब्दा-
थेषु समवायकारणभूतेष्ववयवेषु समवायस्य साधनीयत्वात् ।
अभ्युपगम्येतदभाणि । वस्तुतस्तु समवाय एव॒ न समस्ति ।
ग्रमाणाभावात् ।
( ४ ) चौथा विकल्प [ क्रि सावयव नित्यरूप से सम्बद्ध त्रव्यदहै,] भी
ठीक नहीं क्योकि इसको गदंन दो विकल्पों कौ अगला ( किवाड बन्द करने की
लकड़ी, बेडा ) से पक्ड़ली जाती है। [ विकल्प इस प्रकार है ] आप समवेत
द्रव्य होना" से क्या समञ्षते है-(क) क्या अपने-आपमें नित्य कूपसे
{ = समवाय }) सम्बन्ध रखने वाला द्रव्य समक्षते है, या (ख) अपने अभीष्ट
कथन ( विवक्षित ) काहेतुदेनेके लिये ( = अपनीबात को सिद्ध करने के
लिये ) किसी दुसरे पदां से समवाय सम्बन्ध रखने वाले द्रव्य को "समवेत
द्रव्य समजते है ? [ प्रथम विकल्पका अर्थंहैकरि द्रव्य अपने-अपने रूपमेंही
समवाय सम्बन्ध रखते है, दूसरा विकल्प कहता है किं द्रव्य अपने से भिन्न किसी
पदार्थं से समवाय सम्बन्ध रखते हैँ । दोनों अवस्थायं दूषित की जायेगी । पथम
का उदाहरण है ( कल्पित )- पृथिवी का समवाय सम्बन्ध गन्ध से हि ओर द्रव्य
भो है । लेकिन इसे दूषित करगे । दूसरे का उदाहरण है- पट अपने से भिन्न
तन्तुओं से समवाय सम्बन््र रखता है तथा द्रव्य भी है । ]
( क ) पहले विकल्प को रखने से आकाशादि (द्रव्यो) में भी इसकी
्रसक्ति ( 176७0) ) हो जायगी, क्योकि वह (आकाश) भी गुण
{ = शब्द ) आदि में समवाय रूप में सम्बद्ध है तथा द्रव्य भी है। [ आकाश में
शब्दगुण तथा द्रव्यत्व-जाति, जो उसीके खूपर्है, समवाय रूप से सम्बद्ध ह
इसलिये आकाश को भौ तो पहली प्रतिज्ञा के अनुसार अवयवयुक्त मानना
पड़ेगा । स्मरणीय है किये सारे विकल्प 'सावयवत्व' कै हीह । आकाश
वास्तव मे सावयव क्रिसोके मतसे नहींहै। तकंसंग्रहकार कहते ह-शब्द
गुणकमाकाशम् । तच्चेकं विभ नित्यं च ।' इसलिये पहला विकल्प नैयायिको के
अपने सिद्धान्त का ही खंडन करेगा । ]
( ख ) दूसरा विकल्प लेने पर ( कि द्रव्य अपने से भिन्न किसी से समवायं
सम्बन्ध रखता है ) साघ्य ( +16 [700४० ४० 6 [०१७ ) से
२० लोिकिकेक- ~
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१३२ स्वदशनसं्रहे-
कोई अन्तर ही नहीं रहेगा ( यहं भी उतना ही ङ्क हो जायगा जितना साच्य
हे ) क्योकि आपने "अन्य' ( अपने से भिन्न) शब्द का प्रयोग किया हि, उसके
अर्थ मे आनि वालि जो समवाय कारण के रूप मं अवयव है ( जैसे पट के अतिः
रिक्तं इसका समवायिकारण तन्तु हैजो षट के अवयव भी ह), उन्हीं मे समवाय
सम्बन्ध की सिद्धि करनी होगी | पट के अवयव ओौर समवायिकारण तन्तु तो
है, पर इहै "पट से भिन्न' मानना केसे होगा ? इसलिये दूसरे स्थान मे (अन्यत्र)
समवेत द्रव्य के रूप मे सावयवत्व मानना हमारे साघ्य-- सावयवत्वं कायंम्--
की तरह ही सिद्धि कौ अपेक्षा रखता हे। इस प्रकार चतुर्थं विकल्प--समवेत-
द्रव्यत्वं सावयवत्वम्--भी खरिडत हो गया, वह् चाहे “स्वस्मिन् समवेतद्रन्यत्वम्'
या "अन्यत्र" ' *“' ' हो \ ]
हमने यह सब कुलं आपकी | शब्दावली का प्रयोग करके | ही कहा हे,
नहीं तो वास्तवमें [ हम जैनं के यहाँ ] समवाय ( 1706767४ 1618107 )
हे ही नहीं क्योकि इसमें कोई प्रमाण नहीं है [ जो समवाय" को सिद्ध करे ] +
( वेदान्तियो की ही तरह जैन लोग भी समवाय को स्वीकार नहीं करते । )
नापि पश्चमः। आत्मादिनानेकान्त्यात् । तस्य सावयव
ुद्धिविषयत्वेऽपि कायेत्वामावात् । न च निरवयवत्वेऽप्यस्य
सावयवार्थसम्बन्धेन सावयवयुद्धिविषयत्वमोपचारिकमित्यव्यम्।
निरवयवत्वे व्यापित्वषिरोधात्परमाणुवत् ।
( ५ ) पाँचवाँ विकल्प [कि अवयवो के विचार से युक्तं बुद्धि का विषय होना
ही सावयव" है | मी ठीक नहीं क्योकि यह (लक्षण) आत्मा*आदि पदार्थो को भी
व्याप्त कर लेगा । आमा भी अवयवो के विचार से युक्त बुद्धि कां विषय है फिर
भी इसे कायं के रूपमे स्वीकार नहीं करते 1 [ इससे बचने के लिये | अप यह
नहीं कह सकते कि आत्मा के अवयभहीन होने पर भी, अवयवयुक्त वस्तुगों
( सावयव-अथं, जैसे शरीर आदि ) के साथ सम्बन्ध होने के कारण जो इसे
( = आत्मा को ) अवयवो के विचार से युक्त बुद्धि का विषय' कहते है, बह
लाक्षणिक ( ओपचारिक 70618{:11011681 ) साषा मे कहा जाता है ( इसलिये
आतमा आदि का व्यभिचार इस लक्षण के द्वारा नहीं होता--लेकिन यह् रक्षक
तकं ठक नहीं ) । कारण यद है किं अवयवहीन पदार्थं ओर व्यापक-पदाथं मे,
परमाणु की तरह ( परमाणु अवयवहीन है पर व्यापक नहीं ) ही, विरोघ है। ४
विरोष--आ्मा अवयवहीन है, किन्तु शरीरादि अवयवयुक्त वस क
साथ ( जैसे, मेँ शरीरधारी हं) इसका सम्बन्व देखा जाता है इसलिये ओपचारिकि
अयोग से इसे सावयव वुद्धि का विषय कहते है । ओौपचारिकं प्रयोग मानने का
आहेत-दशेनम् १३३
कारण यह है कि आत्मा मे कायंत्व (जो यहां साष्य है) का अत्यन्त अभाव
३, उसमे "सावयव बुद्धि का विषयत्व इस हेतु का भी अभाव है । लेकिन यह
तकं भी ठीक नहीं है क्योकि अवयवहीन पदार्थं व्यापक नहीं हो सकते, दोनो में
परस्पर विरोध है । भओौपचारिक प्रयोग कुच कर नहीं सकता ।
इस प्रकार यह सिद्ध हो गया कि पृथ्वी आदि कायं नहीं ह इसलिये इनके
कत्ताके स्पे ईश्वरकी सिद्धि नहींहो सकती! अब कर्तापर ही दकाय
उढायी जाती है कि कत्त एक है या अनेक । फिर ईर को कर्ता मानने वालो ,
को ( नैयायिकादि को ) अच्छी फटकार दी जायगी ।
( १२. ईश्वर के कर्ता बनने पर आपत्ति )
विः च, किमेकः कत्तौ साध्यते, कि वाऽनेके ? प्रथमे
ग्रासादादौ व्यभिचारः । स्थपत्यादीनां बहूनां पुरुषाणां तत्र
करैत्वोपलम्भात् । द्वितीये बहूनां विश्वनिमोतत्वे तेषु मिथो
त्रेमत्यसम्भावनाया अनिवायेत्वादेकेकस्य वस्तुनोऽन्यान्यरूपतया
सर्वमसम्समापयेत । सर्वेषां सामथ्यंसाम्येनेकेनेव सकलजग-
दुत्पत्तिसिद्धौ इतरबेयथ्यं च ।
इसके अलावे, क्या आप एक कर्ता सिद्ध करते ह या अनेक ? यदि प्रथम
विकल्थ ( एक कत्ता होना ) लेते ह तो प्रासाद ( महल ) आदि [ के कतुंत्व |
में विरोध हो जायमा । उसके निर्माण म कर्ताके रूप में स्थपति ( बद
(18९४९ ) आदि बहुत से पुखष पाये जाते है [ यदि एक ही कर्ता मानेगे
तो प्रासादादि का निर्माण कैसे होगा ?] यदि दूसरा विकल्प लेते ह ( कि
बहृत-ते कर्ता होति है ) तब तो बहुत से कर्ता मिलकर विध्व का निर्माण करे,
उनमें परस्पर मतभेद की भी सम्भावना अनिवार्यं है। फल यह होगा किं
एक-एक चीज के भित्न-भिन्न रूप हो जारयेगे ओर सव कुच असमंजस ( गडबड,
17600 लः€ा४ ) हो जायगा । दूसरी ओर, यदि सों मे समान शक्ति मानकर
क्रिस एक के द्वारा समस्त संसार की उत्पत्ति सिद्ध करते है तो दरसरे कर्ता `
व्यथं हो जायेंगे ।
तदुक्तं वीतरागस्तुतो--
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१६. कत्तासिति कशचिज्जगतः स चकः
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स सवेगः स स्ववशः स नित्यः ।
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१२५ सवेदशेनसंग्रदे-
इमाः इहेवाकविडम्बनाः स्यु- |
स्तेषां न येषामनुशासकस्त्वम् ॥ (बी ° स्तु° ६) इति ।
अन्यत्रापि-
१७. कती न तावदिह कोऽपि यथेच्छया वा
दृष्टोऽन्यथा कटकृतावपि तत्प्रसङ्गः ।
कायं किमत्रमवतापि च तक्षकाे-
राहत्य च त्रिभुवनं पुरुषः करोति ॥ इति ।
जैसा कि वीतरागस्तुति मे कहा गया है--"इस जगव् ( प्रत्यक्षादि प्रमाणो
से ज्ञात चराचर ) का कोई कर्ता है, वह एक है, वहं सवब्यापी है, वह् स्वतन्त्र
है, वह् नित्य है- जिन ( नैयायिको ) की इस प्रकार कौ दुराग्रह--( $=
असत् , हेवाक = हठ ) रूपी विडम्बनाएं ( मायाजाल } है, [ हे जिनेन्द्र! ] तुम
उनके शिक्षक ( उपदेशक ) नहीं हो ।'
दूसरे स्थान मे भी (कहा दै )- दस संसार मे अपनी इच्छा सेकाम
करनेवाला कोई देवा नहीं जाता, नहीं तो चटाई ( कट 48४ ) बनाने मेभी
उसकी प्रसक्ति ( {10105107 ) हो जायगी । फिर आप श्रीमान् तथा बद्रई `
आदि के लिए काय॑ ही क्या रह् जायगा, जब क्रि वह पुरुष ( ईश्वर ) ही तीनों
भुवनो का संग्रह करके ( आ + ^./ हन् = संकलन ) निर्माण करता है?
विरोष--वीतरागस्तुति के इस श्लोक में नेयायिकों के दवारा ईश्वर के लिए
प्रदत्त चार विशेषणो का प्रयोग हुआ है-एक, सवग, स्ववश ओर नित्य ।
ईश्वर के एकत्व के विषय मे तो ऊपर विचार हो चुका है करि एकत्व उसमें नहीं
है । अब अगते विशेषणो का विचार करर । संवेग ( सवंब्यापी }--यदि ईशर
सवंव्यापीहैतो उसीके शरीरसे संसार अवच्छिन्न है, दूसरे किसी के द्वारा
बनाई गई वस्तुओं के लिए फिर कोई आश्वय नहीं रहेगा । यही नही, नरक
आदि स्थानों मे भी ईश्वर की प्रसक्ति माननी पड़ेगी । इस प्रकार उसे सवंग सिद्ध
नहीं कर सकते । स्ववदा ( स्वतन्त्र )--यदि ईश्वर को स्वतन्त्र मानते हैतो
अपने कारणिक.स्वभाव से प्राणियों को वड सुखी ही बनाता, दुःखी नहीं । यदि
रतयक प्राणी के द्वारा कयि गये शुभाशुभ कमं से प्रेरित होकर ही उसे दुःखी
या सुखी बनाता है, तव स्वतन्त्रता कहाँ रही ? दूसरे यदि वह कमं कौ अपेक्षा
रखता है, तब सर्वेश्वरत्व भी उससे छिन गया क्योकि ईश्वर अब कर्मो को तो
नियन्ित नहीं कर सकता । वास्तव में कमं ईश्वर का नियमन नहीं कर सक्ते ।
नित्य- संसारके कर्ता ईश्वर को नित्य भी नहीं कह सकते । अगर उसका
आहंत-दशेनम् १३५
स्वभाव संसार कानिर्माण करना है तब तो प्रलय तहं हो सकेगी । यदि
` संहार करना ही स्वभाव मानें तो संसार की उत्पत्ति मौर स्थिति असम्भव
हो जायेगी । अगर दोनों को ही स्वमाव मानं तो विरोध पड़ेगा तथा
असंगति होगी । काल के भेद से स्वभावमें भेद मानं तो अनित्यत्व ही होगा ।
( अभ्यङ्कुर )। |
( १३. स्ेज्ञ की सिद्धि ) त
तस्मात्परागुक्तकारणत्रितयबलादावरणप्रक्षये साबेहयं युक्तम् ।
न ॒चास्योपदेधन्तराभावात् सम्यग्दशचनादित्रितयाुपपत्तिरिति
पूव॑सवज्ञप्रणीताग ¢ ©
भणनीयम् । मप्रभवस्वादयुष्य अशचेगथे-
©
ज्ञानस्य । न चान्योन्याश्रयादिदोषः । आगमसवेज्ञपरम्पराया
बीजाङ्करवदनादित्वाङ्गीकारादित्यलम् ।
इसलिए पूर्वोक्तं तीनों कारणो ( सम्यक् दशन, ज्ञान ओर चारित्र ) के बल
ते आवरण के क्षीण हो जाने पर सवंज्ञ कहना ( किसी को भी) युक्तियुक्त
ह । एेसा नहीं कहना चाहिए कि इस वाक्य के उपदेशक कोई दुसरे नहीं ( स्वयं
सर्वज्ञ ही है ), अतः सम्यक् ददन आदि तीनों कारणों कौ असिद्धि हो जायगी ।
( चकि सम्यक् दर्थंनादि को सर्वंज्ञ बनने का कारण बतलानेवाला वक्रय स्वयं
सर्वज्ञ का ही कहा हृभा है, इसलिए सवंज्ञ ही सवंज्ञ का कारण बतलवे, इसमें
आत्माश्रय-दोष हआ । किन्तु ठेखा कहना ठीक नहीं ) क्योकि पटे के सर्वज्ञो
के द्वारा बनाये गये आगमो से अशेष वस्तुओं का यह् ज्ञान उत्पन्न होता है ।
उसके बाद, अन्योन्याश्रय आदि दोषों की भी कल्पना यहां नहीं करं क्योकि
आगम ओर सरवंज्ञ की परम्परा बीज ओर अंकुर की परम्परा के समानही
अनादि है । बस, इतना पर्याप्त है ।
विरोष--आगम में सवंज्ञ कोबात कही गईहै ओर सर्वज्ञ का बनाया
हभ आगम है, इससे दोनों मँ अन्योन्याश्नय-दोष तो हुजा ही । इसका उत्तर
है कि इन दोनों-- आगम ओौर सर्वज्ञ मेँ बीज ओौर अंकुर का सम्बन्ध है। जिस
बीज से कोई अंकुर निकला, वह् अंकुर उसी बीज का कारण नहीं होता, किन्तु
किसी दूसरे बीज को उत्पन्न करता है । इस प्रकार अन्योन्याध्य का तो प्रसंग
आता ही नहीं । फिर भी पहले बीज हुआ किं अंकुर, यह जानना कठिन है
इसीलिए दोनों का संबंध अनादि मानते ह । भागम भौ जिस सर्वज्ञ की
बात कहता है उस सरव॑ज्ञ केद्वारा प्रणीत न्दी, बल्कि उसके पहले के किसी
सवज्ञ के द्वारा बनाया गया है ।
१३६ सर्वदशेनसंग्रहे-
( १४. चिरल्लौ का बणेन-सम्यक् देन ) `
रलत्रयपदवेदनीयतया प्रसिद्धं सम्यण्दर्शनादितरितयमहेस-
वचनसंग्रहपरे परमागमसारे ्रूपितम्--“सम्यग्द्नज्ञानचारि-
त्राणि मोक्षमागे' इति ( त° घ० १।१ ) ।
विवृतं च योगदेवेन-- थेन रूपेण जीवादर्था व्यवस्थि-
तस्तेन सूपेण अता प्रतिपादिते तच्तार्थे विपरीताभिनिवेशरदित-
ल्वाद्यपरपर्यायं शरद्धान् सम्यग्द्चनम् तथा च तचाथेघत्रं -
तच्छा) श्रद्धानं सम्यग्दशेनमिति ।
"तीन रन्न" शब्द से समन्षे जानेवाले सूप्रसिद्ध सम्यक् द्धन आदि तीनोंका
निरूपण "परमागमसार' ( नामक ग्रन्थ ) मे हुआ है जो ( ग्रन्थ ) अहंतों के
प्रवचनों ( 68018 ) के संग्रह? के रूप में है-- सम्यक् दर्न ( 1+£0४
{9४0 ), सम्यक् ज्ञान ( &िध10 100५1९0९९ ) ओौर सम्यक् चारित्र
( 26 ०० पठ ) मोक्ष के मागं है ( तच्वार्थाधिगमसूत्र का प्रथम सुतर;
रचयिता-उमास्वाति, काल-५० ई० ) 1 `
योगदेव ते इसका विवरण भी दिया है--"जिस खूप में जीव आदि पदार्थो
कौ व्यवस्था [ संसारम] है अहत् ने उसी रूप में उनके ताच्विक अथंका
प्रतिपादन कियाहि, उन ( उक्तियों) में श्वद्धा रखना, जिसका दूसरा नाम
“विरुद सिद्धान्तो मे आस्था ( अभिनिवेश ) नही रखना" है, ही सम्यक् दर्न
कहलाता है ।" उसी तरह तत्वार्थसूत्र मे भी कहा गया है--"तच्वार्थं में श्रद्धा
रखना ही सम्यक् द्॑न कहलाता है' ।
विरोष- जैन -द्न का सम्पूणं आचारशाखर ( 1 ४1;०8 ) इन तीन ररत
पर ही अवलम्बित है । ये तीनों एकं साथ मिलकर मोक्ष क मागं का निर्माण
करते है । इसके लिए दशडचक्रादिन्याय है । नसे दण्ड, चक्र, सुतर, मृत्तिका आदि
सब मिलकर घट का निर्माण करते है न कि पृथक्-पृथक् , उसी प्रकार ये सब
मिलकर ही मोक्ष मागं बनति है । तृणारणिमणिन्याय सेये काम नहीं करते।
तृणा अभ्नि का कारण है, उसी प्रकार अरणि, उसी प्रकार मणि । तीनों भिन्न
है। तीनों रलो का मिलना ही कार्ण नहीं है ( कारणतावच्छेदकं तुन
~
१. विस्तरेणोपदिष्टानाम्थनिां तत्त्वसिद्धये ।
समासेनाभिधानं यत्संग्रहं तं विदुबधाः ॥
वड ~
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रः चं
१६ # ` क्
क्क त =
आहेत-दशेनम् १३७
` मिलितत्वम् ), किन्तु तीनों में प्रत्येक की वृत्ति ( 4५101 ) कारण का
निर्माण करती है ।
` उपर परमागमसार ओर उसके टीकाकार योगदेव का नाम दिया गयादै।
आज दोनों ही अज्ञात है। हाँ, उद्धरणों कौ प्राप्ति उमास्वाति के तच्वार्थाधिगम-
सूत्र ग्रन्थ में होती है ।
अन्यदपि-
१८, रुचिर्जिनोक्ततचेषु सम्यकशरद्ानञुच्यते ।
जायते तन्निसर्गेण गुरोरधिगमेन वा ॥ इति ।
परोपदेश्चनिरपेश्वमात्मस्वरूपं निसगेः । व्याख्यानादि-
रूपपरोपदेश्जनितं ज्ञानमधिगमः
दूसरे स्थान मे भी ( कहा है }--जिन-देव के द्वारा कहे गये तत्वों में
रुचि होना सम्यक् श्चद्धान ( = द्येन ) कर्हलाता है। वह या तो निसगं
( स्वभाव ) से ही उत्पन्न होता है या गुर के अधिगम (शिक्षा) से।' दूसरों
के उपदेश की अवेक्षा न॒ रखने वाले आत्म-स्वरूप ( स्वभाव ) का नाम निसगं
( पक णः€ ) है । व्याख्यान आदिके ल्पमें दूसरों के उपदेश से उत्पन्न ज्ञान
अधिगम ( {7081०४10 ) कहलाता है ।
( १५. सम्यक् ज्ञान ओर उसके पांच रूप )
येन स्वभावेन जीवादयः पदाथा व्यवस्थितास्तेन स्वभावेन
मोहसंशयरदहितत्वेनावगमः सम्यग्ज्ञानम् । यथोक्तम्-
१६. यथावस्थिततच्वानां संक्षेपािस्तरेण वा ।
योऽवबोधस्तमत्राहः सम्यगञानं मनीपिणः ॥ इति ।
जिस स्वभाव से ( रूप में ) जीव आदि पदार्थं व्यवस्थित है उसी रूप मे
मोह ( भ्रम 19186 1701९0० ) तथा संशय से रहित होकर , उन्हें |
जानना सम्यक् ज्ञान है ।' नसा कि कटा है--तच्वों का, उनको अवस्था
के अनुरूप, संक्षेपया विस्तारसे, जो बोध होता है, उसे हौ विद्वान् लोग
सम्यक् ज्ञान कहते है ।' |
तञ्ज्ञानं पञ्चविधं मतिशुतावधिमनःपयौयकेवलमेदेन ।
तदुक्तम्- मति-धुतावधि-मनःप्याय-केवसानि ज्ञानमिति ।
अस्यार्थः- ज्ञानावरणक्षयोपमे सति इन्द्रियमनसी पुरस्कृत्य
विक त । भिति क ` > "सन 4").
~ ॥
~ ~ -------- ~ य 1
४ ष
१३८ स्वदशेनसंग्रहे-
व्याप्तः सन्यथार्थं मनुते सा मतिः । ज्ञानावरणक्षयोपश्षमे सति
मतिजनितं स्पष्टं ज्ञानं श्रुतम् । सम्यग्दश्यनादिगुणजनितक्षयो-
पश्चमनिमित्तमवच्छिन्विषयं ज्ञानमवधिः । शष्यान्तरायज्ञानावरण-
क्षयोपश्चमे सति परमनोगतस्याथेस्य स्फुटं परिच्छेदकं ज्ञानं
मनःपर्यायः । तपःक्रियाविशचेषान्यदथं सेवन्ते तपस्विनः तज्ज्ञान-
मन्यज्ञानासंसुष्टं केवलम् । |
वह ज्ञान-{( १ ) सति, (२) श्रुत ( ३) अवधि (४) मनःपर्याय भौर
(५) केवल--इन भेदो के कारणा पाच प्रकार का है। यह कहा भ है--मति,
शरुत, अवधि, मनःपर्याय तथा केवल ये ज्ञान ह । इसका अथं [ निश्रलिलित है |-
( १) मति ( §शाऽप्र०पऽ (0६णपजा )- ज्ञान के आवरण
( प्रतिबन्धक ) का क्षय ( बिल्कुल विनष्ट) या उपशम (थोड़ी देर के लिए
नष ) हो जाने पर इन्द्रिय ओौर मन को आगे रखकर [ उनको सहायता से ) युक्त
होकर पदाथं का यथार्थं ज्ञान प्राप्त करना भति" है । [ घटादि के प्रत्यक्ष होने '
के पूवं जो मननात्मक ज्ञान प्राप्त होता है, वही मति है। चक्रु जादि इन्द्रियो
की सहायता के बिनास्मरणके रूपमे जो वस्तु का चितन करते है, उससे
यह ज्ञान भिन्न है । उदाहरण से समभे --जिस तरह नाटक देखने के समय पदा
हटने के थोड़ी देर पहले-- "कौन पात्र अवेगा' इस तरह कौ मानसिक वृत्ति के
साथ दशकं लोग पदे पर दृष्टि डाले रहते है । ठीक उसी तरह का यह ज्ञान है ।
विना सोचे हौ अकस्मात् किसी वस्तु के देखने मे भी मतिज्ञान ही है। वच
छह महीने तक अपनी दृष्टि स्थिर नहीं कर पाते इसलिए उन्हं मतिज्ञान नही
होता । हृष्टि की स्थिरता ही मतिज्ञान का अनुमापक है । |
( २ ) श्रुत ( 80108] 0 २९108] 00१]९तद्७ )- ज्ञान के
आवरण का क्षय या उपशम हो जाने पर, मतिज्ञान से उत्पन्न, स्पष्ट ज्ञान को श्रुतः
कहते है । इसे ही नैयायिक लोग निविकल्पक' कहते है । इन्दियों से उत्पन्न होने
१. ज्ञान के जावरण तीन प्रकार के है मनोगत ( 16708] ), इन्द्रिगत
( ६€8०प३ ) तथा विषयगतत ( 0)0}6५४९७ ) । हठ, मत्सरता, अभिमान
आदिके कारण ज्ञान का आवृत होना मनोगत आवरणदहै। नेत्र रोगोया
इन्द्रियो मे किसी दोषके कारण ज्ञान का आवरण इन्दरियगत है। सूक्ष्म होने
या अन्धकारमें च्विहोनेके कारण वस्तुको नहीं देख सकना विषयगत
आवरण है।
` आदेत-दशेनम् १३६
के कारण स्वयं प्रत्यक्ष होने पर भी यह अतीन्द्रिय है = इन्द्रियजन्य ज्ञान का
विषय नहीं है । ]
( ३ ) अवधि [थीं पा ४९ 0०) ९086 )--जो ज्ञान सम्यक् द्थंन
आदि गुणों से उत्पन्न क्षय या उपशम का कारण हो तथा विषयो . (00९68 )
को व्याप्त करने वाला हो वह अववि' है। [ जिससे विषयों को मर्यादित कर
दिया जाय कि यह वस्तु ेसी है, वह एेसी--यही अवधिज्ञान है। निवंचन
ठेसा होगा--अव समन्तात् द्रव्यादिभिः परिमितत्वेन घीयते = ध्रियते विषयोऽ
तेन \ अथवा, अवधोयते = ्रव्यकषेत्रकालभावेः परिच्छिद्यते विषयोऽनेन ।
अवधिज्ञान से विषयों का द्रव्य, स्थान, काल आदि जानते है । यही सविकल्पक
ज्ञान है। देवता लोग इसी ज्ञान के कारण नौचे सातवें नरक तकं देख पाते
ह छेकिन ऊपर अपने विमान के दणड तक ही देख सकते है इसलिए एक ओर
अथं इसका है--अधस्तात् बहुतरविषय ग्रहणात् अवधिः ( अभ्यंकर ) । |
( ४ ) मनःपर्याय ( ए0०पापभ १6८८९४० }- ज्ञान के
आवरणा के खूप में जो ईर्ष्या आदि विन्न ( अन्तराय ) है उनका क्षय या उपशम
हो जाने पर दूसरे व्यक्तियों के मन की बात को स्पष्टरूप से व्याप्त करने वाले
ज्ञान को मन-पर्याय' कहते ह । [ दूसरे व्यक्तियों के मन की बात को जानने
के लिए ईर्प्यादि मनोगत आवरण हटना आवश्यक टै । वह सम्यक् देन
से हटता है। इस प्रकार, मनः = मनोगत अथं का, पर्यय = पर्यया = दूसरे
के मन मे सर्वतः ( परि) गमन होता है। इसे अलौकिक प्रत्यक्ष से दषरे
लोग जानते है । ]
( ५) केवल ( ? ९ 100 1९42 € )- जिसके लिए तपस्वी लोग
विशेष प्रकार की तपस्याय करते है तथा जो अन्य किसी प्रकार के भोज्ञान से
पृथक् ( असंसृष्ट 11811ग€प१ ) है वही कवल ज्ञान है। ( सम्यक् चारित्र
क्के द्वारा ज्ञान के सभी आवरणों का सर्वथा विनाश हो जाने पर ही मोक्ष देने
वाला यह ज्ञान उतपन्न होता है । इसे तच्वज्ञान भौ कहते ह । अन्य किसी भी
ज्ञान से पथक् होने के कारण इसे केवलः कहते है । )
विरोष--इस पाचों भदो म प्रथम को परोक्ष ओौर दूसरों को यहाँ प्रत्यक्ष
कहते है पर जैन लेखकों ने एक स्वर से मति ओ‹ श्रुत--दोनो को ही परोक्ष
माना है ।* जव प्रत्यक्ष का वर्गकरणं इन्दियप्रत्य्ष ओर अनिनद्ियप्रत्यक्ष के
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1. प)१€, अाप्वाट्ड 71 तको 2100500). ए. 30. -- 1}0€ ¶ ४४४
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( 86५] 0०1९0६९ ),
१४० सवेदशनसंग्रदे-
सूपमें होता है तब अवधि, मनःपर्याय ओर केवल को अनिद्धियप्रत्यक्षं में
रखते है तथा किसी भी इन्द्रिय से समुत्पन्न ज्ञान इन्दिय प्रत्यक्ष मं आता है।
तत्राद्यं परोक्षं, प्रत्यक्षमन्यत् । तदुक्तम्-
२०, विज्ञानं स्वपरामासि प्रमाणं बाधवजितम् ।
प्रत्यक्षं च परोक्षं च द्विधा ज्ञेयविनिश्वयात् ॥ इति ।
अन्तर्मणिकमेदस्त् सविस्तरः तत्रैवागमेऽवगन्तव्यः ।
उन [पाचों भेदो] मे पहला परोक्ष दै, दूसरा प्रत्यक्ष है । यही कहा भी है-
“विज्ञान अपना तथा दूसरों का प्रकाशकं [ दीप के समान | है, किसी भी बाधा
से मुक्त होने पर यह प्रमाण माना जाता है । ज्ञेय (1009 ) वस्तुओं का
विनिश्चय [ ह्कि दो प्रकार से होता है इसलिए विज्ञान भी] दोतरहकादै-
प्रत्यक्ष मौर परोक्ष 1" किन्तु इन सों का विस्तारपूवंक भवान्तर ( अन्तगंखिक )
मेद वहीं आगमो से ही खमज्ना चाहिए ।
विङोष- मतिज्ञान के चार मेद है--अवग्रह ( 2610९00 ) ईहा
( अएश्भ्पाकणण ), अवाय ( एलाव्लप्णम् ]प्षटफल४ ) तथा साधारण
( िशल्ं07 ) । वास्तव भे ये व्यावहारिक भ्रयक्ष की चार अवस्थायं है ।
“यह् पुरुष है' यह ज्ञान अवग्रह है। उसके बाद "यह दक्षिण का है किं उत्तर
का" इस संशय के होने पर "यह दक्षिण का ही है' यह ज्ञान इहा है । यह केवल
संभव है, निश्चय नहीं । फिर भाषा जादि के आधार पर "दक्षिण का है" यह्
ज्ञान अवाय हे! उसी विषय का संस्कार से उत्पन्न फिर से ज्ञान होना धारणा है
जिससे उख विषय का स्मरण होता है । डा० नथमल रटदिया ने अपने प्रबन्ध
( 1106818 ) 20168 ¬ 8108 21108 के द्वितीय-अषध्याय
( एएऽ्ला००६प़ग ० ४06 9 & ०९, 1. 27-80 ) मे इन भेदों-उपभेदों
का बहृत ही प्रामाणिक वण॑न किया है । विशेष ज्ञान के लिए वह् स्थल द्रष्टव्य हे।
( १६. सम्यक्चारित्र ओर पांच महाव्रत )
संसरणकर्मोच्छित्तावुद्यतस्य श्रदधानस्य ज्ञानवतः पप-
गमनकारणक्रियानिधृत्तिः सम्यक्चारित्रम् । तदेतत्सग्रपश्चयुक्त-
महेता-
२१. सवेथावद्ययोगानां त्यागधाररुच्यते ।
कीतितं तदर्दिसादिव्रतभेदेन पश्चधा ॥
अर्हिसाघ्रलतास्तेयत्रह्चयोपरिग्रहाः ॥
आहेत-दशेनम् १४१
संसार के ( प्रवत॑न के कारण स्वरूप ] कर्मो के नष्ट ( उच्छित्ति = उत् +
„./ चिद् + क्तिन् ) हो जाने पर, उद्यत ( =पापनाशके लिये), श्रद्धावान्
( = प्रथम रन्न से युक्त ) तथा ज्ञानवान् ( = द्वितीय रन्न से युक्तं ) पुरुष का
चापमें ले जने वाली क्रियाओं से निवृत्त ( पृथक् ) हो जानाही सम्यक् चारित्र
( {819# ०००0प०४ ) है । अहत् ने इसका वंन विस्तारपूर्वक किया है-
"पाप के साथ संबन्ध का सब प्रकारसे त्याग करना चारित्र है। अदहिसा आदि
बरतो के भेद से वह पाँच प्रकारका है। वे है--अ्हिसा, सूनृत ( सत्य ), अस्तेष
बरह्मचयं ओर अपरि प्रह ।'
२२. न यतप्रमादयोगेन जीवितव्यपरोपणम् ।
चराणां स्थावराणां च तदर्हिसात्रतं मतम् ॥
२३. प्रियं पथ्यं वचस्तथ्यं घनृतं ब्रतञुच्यते ।
तत्तथ्यमपि नो तथ्यमप्रियं चाहितं च यत् ॥
२४. अनादानमदन्तस्यास्तेयत्रतमुदीरितम् ।
बाह्याः प्राणाः नृणामर्थो हरता तं हता हि ते ॥
२५. दिव्योदरिककामानां कृतालुमतकारितेः ।
मनोवाकायतस्त्यागो ब्रह्माष्टादश्चधा मतम् ॥
व.
२६. स्वेभवेषु मृच्छोयास्त्यागः स्यादपरिग्रहः ।
यदसत्स्वपि जायेत मृच्छेया चित्तविप्टवः ॥
अदिसावत-श्रमाद ( असावधानी या पागलपन ) से भी जब चरो
( मनुष्य, पशु, पक्षी आदि ) शौर स्थावरो ( लता, वृक्ष आदि ) के प्राणो का
विनाश ८ व्यपरोपण = पृथक् करना ) नहीं किया जाता है --वही अहिसा-त्रत
ह ॥ २२॥ सत्यव्रत-- प्रिय ( सुनने में सुखद }, पथ्य ( अंत में सुद ) तथा
तथ्य ( यथाथ, सत्य ) वाणी को सूनृत ब्रत कहते हैँ । वह वाणी सच्ची होकर
भी सची नहीं है जो प्रिय नहीं (सुनने में सुखद नहीं) या हितकर नहीं ( परिणाम
| मे सुखद नहीं ) है ॥ २३ ॥ अस्तेयव्रत--विना दिये हृए किसी वस्तु को
न ठेना अस्तेय ब्रत है । धन मनुष्यों के बाहरी प्राण है, उनके हरण से तो
प्राणो का हरण होता है । २४॥ ब्रह्मचयंबत-दिग्य ( आगामी जीवन में
भोग्य ) ओौर ओौदरिक ( इसी शरीर में भोग्य ) कामनाओं का कृत ( स्वयं कयि
गये ), अनुमत (अनुमोदित) तथा कारित ( दूसरों से कराये गये ) तीनों विधियो
से ( मन, बचन तथा क्म॑से ), त्याग देना श्रह्म' ( ब्रह्मचयं ) है जो अठारह
१४२ सबेदशनसं्रहे-
तरह का है ॥ २५॥ अपरिग्रहवबत-समी वस्तुभों मे इच्छा कात्याग कर देना
अपरिग्रह है क्योकि इच्छा ( मूर्छा ) के द्वारा असत् ( बुरी या त्ताहीन 0-
४180९0४ ) वस्तुओं में चित्त की विकृति हो जाती है ॥ २६ ॥
विददोष - पतञ्जलि ने योग सूत्रम (२।३० ) यमके रूपमे इन्हीं पांच
बरतो का उल्ञेव किया है जो योग-शालर के अष्टाङ्ग-मागं में प्रथम-मागंके रूप
मे आते है। ब्रह्य के अनुसार आचरण करना ब्रह्मचर्यं है । यह अठारह प्रकार
काहै।कामदोर्ह-दिव्य ओौर ओौदरिक। इन दोनों के भौ तीन-तीन भेद
होगि क्योकि ये कृत, अनुमत ओौर कारित हो सक्ते है । इस प्रकार छह भेद
इए । अब मन, वचन या कमस प्राप्त होने के कारण इसके भी तीन-तीन भेद
हए । इस प्रकार कुल अठारह भेद हुए-अठारह कामनाओं के त्याग से अठारह
बरह्माचयं हृए-( १ ) मनःकृतदिव्यकामत्याग, ( २ ) मनःकृतौदरिककामत्याग,
( ३ ) मनोऽनुमतदिन्यकामत्याग आदि । मूर्च्छा = इच्छा । "मूर्च्छा परिग्रहः"
( तच्व० सु० ७।१२ ) के भाष्य में लिखा है--इच्छा प्राथ॑ना कामोऽभिलाषः
काङ्क्षा गायं मूच्छेत्यनर्थान्तरम् । अनर्थान्तर = पर्याय ( ७0057110 ) ।
( १७. प्रत्येक धत की पांच-पांच भावनाय )
२७. भावनाभिभौवितानि पञ्चभिः पञ्चधा कमात् ।
महाव्रतानि रोकस्य साधयन्त्यव्ययं पदम् ॥ इति।
भावनापश्चकम्रपश्चनं च निरूपितम्--
२८, हास्यलोभभयक्रोधप्रत्याख्यानेनिरन्तरम् ।
आलोच्य भाषणेनापि भावयेत्यूनृतं रतम् ॥
सम्यग्दशेनज्ञानचासिणि
इत्यादिना । एतानि सम्यग्दशेनज्ञानचाखि्राणि मिलितानि
मोक्षकारणं न प्रत्येकम् । यथा रसायनम्, तथा चात्र ज्ञान-
्द्धानाचरणानि संभूय एलं साधयन्ति, न प्रत्येकम् ।
पांच भावनाओं ( 9४९68 0 10106 ) के द्वारा पाँच प्रकार से क्रमशः
भावित ( व्यवहृत ) ये महात्रत संसार के अक्षय ( स्थायी ) पद की सिद्धि करते .
ह ।॥ २७ ॥ पाच भावनाओं के विस्तारका निरूपण इस प्रकार हुभा है-
हास्य ( विनोद ), लोभ, भय एवे क्रोध का तिरस्कार ( प्रत्याख्यान ) सदेव
करके ( = ४ भावनाओं से ) तथा सोच-समञ्चकर ( आलोचना करके } भाषणं
के द्वारा सूनृत-व्रत का व्यवहार करना चाहिये ॥ २८॥ [ केवल सत्य ब्रत के
लिये पाचों भावनाय बतलाई गई दह । अन्य के लिये नीचे "विशेष" देखं । ] -
आहेत-दशेनम् १४३
ये सम्यक् द्येन, सम्यक् ज्ञान ओौर सम्थक् चारित्र मिलकर मोक्ष का कारण
बनते दै, प्रत्येक पृथक्-पृथक् नहीं । जेस रसायन-सेवन मे उसका ज्ञान, उस पर
विश्वास तथा उसका प्रयोग तीनों मिलकर फल देते है, पृथक्-पृथक् नहीं ।
चिरोष- सभी ब्रतों की भावनाय भिन्न-मिन्न है । केवल सूनृत की
भावनाओं का निर्देशक इलोक हो उद्ृत किया गया है । अन्य भावनाय योँ है--
अदहिखा की भावनाये-( १ ) वाग्गु्ति = विषयों म जाने कौ इन्द्रियो
की जो प्रवृत्ति ह वचन द्वारा उस प्रवृत्तिसे अत्मा की रक्षा करना
{ २) मनोगति = मनके द्वारा उक्ष प्रवृत्ति से अपनी रक्षा । ( ३ ) ईर्यासमिति =
जन्तुओं की रक्षा के लिये देखकर पर रखते हुए चलना। ( ४ ) आदानसमिति =
आसनादि को देखकर यल्नपूवंक लांघना, उसे ग्रहण करना या उठाना। ( इनका
बण॑न अगे देखें ) । ( ५ ) आलोकितपानभोजन- देखकर पानी पीना या खाना ।
सजत की भावनाय -( १ ) हास्य का परित्याग करके बोलना कयोकि
इससे असत्य भाषण में प्रवृत्ति देखी जाती है। (२) लोम का परित्याग करके
बोलना । (३) भयत्याग कर बोलना। (४) क्रोध त्याग कर बोलना
क्योकि इन सर्वो से क्षृठ बोलने की ओर प्रवृत्ति होती है । (५) सोच समज्ञ
कर बोलना ।
अस्तेय की भावनाये-( १) शुन्य स्थानों, पहा की गुफाओं में
निवास । (२) दूसरों के द्वारा त्यक्त स्थानो में रहना । (३) दूसरों के किसी
काम में रुकावट नहीं डालना । (४) अचार राख्रके नियमोंसे भिक्षामें
मिली हई वस्तु की शुद्धि । (५) दूसरों के साथ भभेरा-तेरा' न करना ।
ब्रह्मच की भावनाये-( १ ) खीप्रेमकी बातंन सुनना। स्री के
सुन्दर शरीर कोन देखना। (३) पहले को रतिका स्मरण न करना।
(४ ) शक्तिवधंक रस-रसायनों का सेवन नहीं करना । ( ५) अपने शरीर के
संस्कारों का त्याग करना ( आभूषणों का प्रयोग नहीं करना } ।
अपरिग्रह की भावनायं-( १) श्रोतेन्द्रिय का शब्दके प्रति रागद्वेष
न होना । ( २ ) जितेन्द्रिय का रसके प्रति रागद्वेष न होना। (३) चक्षु
इन्द्रिय का रूप के प्रति रागदेषन होना। (४) स्पर्शेन्दिय का स्प्ंके प्रति
रागद्वेष न होना । ( ५) घ्रारोन्द्रिय का न्ध के प्रति रागद्वेष न होना।
( १८. जेन तच्व-मीमांसा-दो त्व )
अत्र संक्षेपतस्तावज्ञीवाजीवाख्ये दे तच्छे स्तः। तत्र बोधा-
त्मको जीवः । अबोधात्मकस्त्वजीवः । तदुक्त पद्मनन्दिना।
~~ व
१४४ सबेदशेनसंग्रदे-
२९. चिदचिद् दवे परे तचे विवेकस्तदिबेचनम् ।
उपादेयप्पादेयं देयं हेयं च इुबेतः ॥
३०. हेयं हि कतेरागादि तत्कार्यमविेकिता।
उपादेयं परं ज्योतिरुपयोगेकरक्षणम् ॥ इति ।
यहाँ संक्षिप्त रूप.से जीव ओर अजीव नामकेदो तच्व हैँ । उनम ज्ञान के
ल्प मे जीव है ओर अज्ञानकेरूपमें अजीव है। पद्मनन्दिने इते कहा है-
“चित् ( ०] ) ओर अचित् ( 70-80प] }-ये दो परम तच्च ( {1 10-
186 16874 ) है । कर्ताके द्वारा उपादेय का ग्रहण करना तथादहेयका
त्याग करना-एेसा विवेचन ( अलग-अलग ) होने का नाम विवेक है ।॥ २९ ॥
कर्ता मे रहने वाले राग आदि दोष हिय ह क्योकि इनका कायं है अविवेक ।
( रागादि के कारण हम चित्-अचित् में मेद नहीं कर पति । ) उपदिय ( ग्राह्य ) `
हैतो [ज्ञान की] वह परम ज्योति जिसका एक मात्र लक्षण ( या चिह ) है
'उपयोग' ॥ ३० ॥
विरोष--उपादेयमुपा० = कुर्वंतः ( कुवंता ) उपादेयम् ( = वस्तु )
उपादेयम् ( = ग्राह्यम् ) अर्थात् कर्ता को उपादेय वस्तु का ग्रहण करना चाहिये,
उसी प्रकार हेय वस्तुओं का त्याग करना चाहिये । परम ज्योति ( जीव, चितु )
का एक विशेष चिह्व है उपयोग ( (08010 प्श) 688 ) । इसके भी दो भेद
है--उपयोग ओर लब्धि । जीव मे अवस्थित चेतना का नाम लब्धि
( [200871४ 60086 ०प5९88 ) है किन्तु जब यही चेतनता कायं रूपें
आती है तब उपयोग ( ^.0#1ए९ 0011890 प्७1688 ) कहलाती है । एक
अवस्थित योग्यता बतलाती दहै, दूसरी कार्यान्विति । उपयोग साकारभोदहो
सकता है निराकार भी । साकार उपयोग को ज्ञान ओर निराकार उपयोग को
दन कहते हैँ । इसके बाद उपयोग का निरूपणा होगा ।
सहजचिद्रपपरिणतिं स्वीडुवाणे ज्ञानदशेने उपयोगः । स
परस्परप्रदेशानां प्रदेशवन्धात्कमणेकीभूतस्यात्मनोऽन्योन्यत्वम्रति-
पत्तिकारणं भवति । सकरजीवसाधारणं चेतन्यम् उपशमक्षय-
क्षयोपश्चमवशात् ओपशमिकक्षयात्मक-क्षायोपश्चमिकभावेन कर्मो-
दयवश्ात्कल्षान्याकारेण च परिणतजीवपयोयविवक्षायां जीव-
स्वरूपं भवति । यदबोचदाचकाचायः--ओपशषमिकक्षायिको
)
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आहत-दशेनम् १४५
भावौ मिश्रश्च जीवस्य स्वतस्वमौदयिकपारिणामिको च' ( त°
छू २।१ ) इति ।
[ जीवात्मा का ] स्वाभाविक चैतन्य के रूप मे जो परिणाम ( (0082९ )
है उसीको स्वीकार करने वाले ( पहचानने वलि ) ज्ञान ओौर दर्शन को उपयोग
( जीवात्मा की क्रियाओं का वास्तविक प्रयोग ) कहते ह । [ बृहद्द्रव्य-संग्रह
के आरम्भे ही कहा है कि विवक्षित पदां को व्याप करने वाला, पदार्थं
का ग्रहणा करने वाला व्यापार हौ उपयोग है। सच मं उपयोग वही है जिससे
किसी वस्तु का रहस्यः हम जानं, चित् का स्वाभाविक रूप जाने, उसका परिणाम
जानें, जीवात्मा को जानें आदि। तो इसके दो रूप ह - ज्ञान ओर दर्शन ।
दोनों ज्यापासे मे जीवातमा का सहज-परिणाम ( = चेतन्य रूप में ) एक तरह
काही होता है क्योकि इस परिणाम के बाद ही ज्ञान ओौर दन दोनोंकी
उत्पत्ति होती है-- प्रत्यक्ष ओर साकार होने षर ज्ञान कहलाता ह, परोक्ष ओौर
निराकार होने पर दश्ंन (श्वद्धा ) कहलाता है। अव आगे यह बतला रहे ह
कि "उपयोग" जीवात्मा का लक्षण है । |
[ जीव ओर कमं के ] पारस्परिक प्रदेशों ( अवयवो ) के मिश्रण ( प्रदेश-
बन्ध ) के कारण कमंके साथ मिली-जुली ( एकीभूत ) आत्मा के पार्थक्य
( = कमं ओौर आत्माके भेद) को जान ने का साधन वद् ( उपयोग ) ही है!
[ प्रदेश = अवयव; जीव के प्रदेशो मे जो मिथःसंयोग है वह कभी दढ रहता
हे कभी शिथिल । कभी-कभौ फल देने के लिए प्रवृत्त होने वाले कमं के
अवयव जीव के अवयवो के संयोग को शिथिल कर अन्दर चख आतेरहै। इस
प्रकार कमं ओर जीव के प्रदेशों का मिश्रण होता द, इसे हौ प्रदेशवन्ध कहते
ह क्योकि रेखा करने से जीव अपने अवयवो के कारणा ही बन्धन (30110९8९)
ने पड़ता ह । वह तब तक मुक्ति ( 11067:8110" ) नहीं पा सकता जब तक
कमं के अवयव पृथक् न हो जायें । किसी सामान्य उपायसे उन्हँं पृथक् रू
से जानना कठिन है । उपाय है तो उपयोग" । उसीसे जीवात्मा अपने मेमि"
हुए कमं के परमाणुओं ( पुदरलो ) से धरयक् जात होता है क्योकि जीवात्मा
चैतन्यरूप मे परिणत हो जायगा, जिसे उपयोग से जान लगे । दूसरी ओर,
कमं के पुद्रल चैतन्यलूप मेँ परिणत नहीं होगे । उपयोग इस प्रकार मोक्ष का
मार्गं तैयार करता है। ]
चैतन्य सभी जीवों मे सामान्यहूप से पाया जाता है; एक ओर उपशम
(थोड़ी देर के लिए कारणवश शान्त हो जाना ) ओौर क्षय ( अत्यन्ता-
भव ) तथा क्षय भौर उपशम के वश मे होकर, ओौपशमिकक्षय के रूप मे
१० स सं
१४६ सवेदशेनसंम्रहे-
क्लायौपशमिक भाव के द्वारा, दूसरी ओर, कर्मोके उदयहो जानेके कारण
कलुष (पाप) या दुसरे आकारके द्वारा [ वही चैतन्य प्रतीत होता है];
परिणाम ( आरमस्वरूप जानने के लिए परिवतंन } से युक्त जीव की अवस्थाओं
की जब बात उती टै तब [ वही चैतन्य ] जीव का अपना रूप ( {€8]
7800४76 ) बन जाता है। एेसा ही वाचकाचार्यंने कहा है--ओौपशशषमिक,
क्षायिक ओौर दोनों का मिश्रण, ओौदयिक ओर पारिणामिक-ये ( पाँच ) भाव
जीव के अपने रूप है" ( तच्व° सू० २।१)।
विरोष- भाव (अवस्थाय) पांच ह-उपशम से सम्बद्ध, क्षय से सम्बद्ध, दोनों
के मिश्रण ( क्षयोपशम, उपशमक्षय ) से सम्बद्ध, उदय से सम्बद्ध, तथा परिणाम
से सम्बद्ध । ( १) उपशम का अथं है थोड़ी देर के लिए नहीं उत्पन्न होना । जिस
प्रकार फिटकरी के प्रयोग से पानी मे कीचड़ बेठ जाती है (8९01;९0४६४०)
यह् पंक काउपशमदहै, वेसेही आत्मामं कमंका अपनी शक्तिके कारणवश
दब जाना उपशम ( ऽप098{67८6 ) है । जिस भाव का लक्ष्य केवल उपशम
करना है उसे ओौपशभिक कहते है, जो जीव की एक विशिष्ठ अवस्था है। (२)
क्षय ( 18800180 ) किसी पदार्थं के आत्यन्तिक अभाव को कहते है
{ प्रष्वंसाभाव, क्योकि वतंमान पदार्थं काही क्षय करना अभीष्ट है, भ्रमसे
अत्यन्ताभाव न समभरं जिसमें अन्त आदि किसी का पता नहीं रहता) । जैसे काच
के ब्तनमें रवे या मेषमें स्थित जल में पंक का बिल्कुल विनाश हो जाता है।
जिस भाव का लक्ष्य क्मका क्षय करनादहि उसे क्षायिक कहते रहै। (३)
क्षय ओौर उपशम--दोनों के मिश्रण को क्षयोपशम कहते है जेसे कुं के जल
मे कहीं तो पंक का क्षय है, कहीं उपशम । दोनों लक्ष्य रहने पर भाव क्षायौप-
रामिक कहलाता है । यह भी जीव की एक विशिष्ट अवस्था है ! (४) द्रव्यादि
निमित्तो से जब कर्मफल की प्राप्ति शुरूहो जातीहै उसे उदय ( 186 )
कहते है । जेसे.जल में पंक का ऊपर उठना । इसी से सम्बद्ध भाव ओौदयिक है )
यह भी जीव की एक विशिष्ट अवस्था है जिसमें कमं मिले रहते है । ( ५) एक
ओौर स्थिति है परिणाम ( }1801088{810 ) जिसमे किसी द्रव्य को अपने
स्वरूप में मिल जाना पड़ता है । इसमें कर्मोपश्ञम आदि रहते ही नहीं, अपना
स्वाभाविक रूप ( जे आत्मा के लिए चैतन्य ) मिल जाता है । इससे सम्बद्ध
भाव पारिणामिक है।
स्मरणीय है कि इन भावों मे पारिणामिक भाव जीव के लिए स्वाभाविक
है क्योकि इसमें कर्मोदय, उपशम आदि बिल्कुल नहीं रहते । ओौपशमिक आदि
चार भाव जीव के लिए नेमित्तिक है वयोकिं विशिष्ठ अवस्थाओं मे ही ये उपपन्न
होते है गौर कर्मोपदाम आदि की अपेक्षा रहती है। येर्पाचों भावहौ जीव
आहेत-दशेनम् १४७
कौ अवस्थाओं ( पर्यायो ) कौ बात चलने ( विवक्षा ) पर जीव का स्वरूप
कहलाते ह । जब केवल जोव" ( पदार्थं) की बात चले ( उसको अवस्थाओं
की नहीं ), तब तो उसका स्वल्प ही भाव कहलाता है। इसे अभी स्पष्ट करगे --
अनुदयभ्रधिरूपे कमेण उपशमे सति जीवस्योत्पद्यमानो
आव ओपदामिकः । यथा पङ्के कटुपतां कुवंति कतकादिद्रव्य-
भ
संबन्धादधःपतिते जलस्य स्च्छता । ( आहेततचाजुसंधान-
वश्चाद् रागादिषङ्क्षारनेन निमेतापादकः क्षायिको भावः । )
कुर्मणः शये सति जायमानो भावः क्षायिकः । यथा पङ्कात्रथग्च्
तस्य निर्मलस्य स्फाटिकादिमाजनान्तगेतस्य जलस्य स्वच्छता ।
यथा मोक्षः ।
उभयात्मा भवो मिश्रः। यथा जरस्याधेस्वच्छता ।
कर्मोदये सति भवन्माव ओदयिकः । कर्मोपशमाद्यनपेश्च सहजो
भावग्रेतनत्वादिः पारिणामिकः। तदेतद्यथासम्भवं भव्यस्याभ-
६ ¢
व्यस्य वा जीवस्य स्वरूपमिति सत्राथेः ॥
( १) जब कमं का उपशम हो जाय ओर [ भविष्यत् को प्रभावित करने
कै लिए नये कमं का ) उदय न भिले, तब जीव मे उत्पन्न होनेवाले भाव को
आपश्ामिक कहते ह । उदाहरणाथं--गन्दा करने वाले पंक के कतक ( पानी
साफ करनेवाला एक द्रव्य ) आदि द्रव्यो के संयोग से नीचे बैठ जाने पर जल
मे स्वच्छता आती है ।
(२) अहंतोंके दारा उपदिष्ट तच्वों के अनुसंधान से राग ( आसक्ति,
लाली ) आदि पको को घोकर निमंलता देते वाला भाव क्षायिक है ( यह वाक्य
प्रक्षिप्त जान पड़ता ह क्योकि इसके बाद पुनः क्षायिक माव का वर्णान है। इसे
ओपशमिक मे भी नहीं रख सकते क्योकि स्पष्ट गन्द मे क्षायिक का प्रयोग
है) । कमं काक्षय ( सदा के लिये नाञ्च ) हो जाने पर उत्पन्न होने वाला भाव
( दशा ) का नाम क्षायिक है । उदाहरणा क मे से बित्कुल पृथक्, नि मल,
तथां स्फटिक आदि के पात्र में रवे हुए जल को स्वच्छता । उसी तरह मोक्ष भी
है [ जिसमें जीव कर्मो का पूणं विना करके प्रवेश करता है ] ।
( ३-५ ) दोनों मिला-जुला होने से भाव मिश्च ( क्षायौपशमिक ) है ।
उदाहरणा्थ-[ कुँ आदि के | जल मेँ आधी स्वच्छता । कर्मं का उदय होने
पर जो भाव उत्पन्न होता है वह ओद्यिक है। कमं के उपशम आदिचे
१४८ सबेदशेनसंग्रदे-
अलग स्वाभाविक भाव जो चेतनत्व ( (00800 ४9०९88 ) आदि है, वह
पारिणामिक है।
यही भाव यथासम्भव भव्य या अमव्य जीव का स्वरूप है-- यही वाचका-
चायं के सूत्रकाअथंहै,
विरोष-जैन-दशंन मे जीवों की भव्यता पर बड़ा विचार किया गया है +.
जीव अन्धकार मे भटकते रहते है । जब तकं उनमें आध्यात्मिक विकास के लिये
स्वयं-चेतन प्रयास नहीं चलता तब तक वे सम्यग् दर्शन नहीं पाते । इसके लिये
उनमें सत्य-प्राति के लिये प्रेम उत्पन्न होता है । सभी जीवों में यह लक्षण नहीं
पाया जाता। जो इस सम्यक् दशन से युक्त होकर मोक्षके इच्छक वे भव्य जीव
( ४१४ {7 11061९0० ) ह । जिनमे यह लक्षण नहीं वे अभव्यर्है, ये कमी
मोक्ष नहीं पा सकते । जैन लोग इस अनन्त बन्धन का कोई निचित कारण
नहीं देते । बौद धमं म भी एसे अभव्यो का वणन है । देखे, अभि-
समयालंकार ८।१०-
वषंत्यपि हि पर्जन्ये नैवाबीजं प्ररोहति ।
समुत्पादेऽपि बुद्धानां नाभव्यो भद्रमदनूते ॥
अस्तु, भव्यत्व ओर अभव्यत्व जीवके ये दो भाव चैतन्यके समानदही
पारिणामिक ह । अब प्रश्च उठ्ताहैकरि चेतन्यतो ज्ञान है, वह जीवत्मा में
रहने वाला उसका गुण है, स्वरूप नहीं । फिर चैतन्य जीव का भाव कंसे होगा ?
इसका समाधान नीचे दगे--
तदुक्तं स्वरूपसम्बोधने--
३१. ज्ञानाद् भिन्नो न नाभिन्नो भिन्नामिनः कथंचन ।
ज्ञानं पूर्वापरीभूतं सोऽयमात्मेति की्ितः ॥ इति ।
नलु मेदाभेदयोः परस्परपरिदहारंण अवस्थानादन्यतरस्येव `
बास्तवत्वादुभयात्मकत्वमयुक्तमिति वेत्--तदयुक्तम् । बाधे
प्रमाणाभावात् । अनुपलम्भो हि बाधकं प्रमाणम् । न सोऽस्ति ।
समस्तेषु वस्तुष्वनेकान्तात्मकत्वस्य स्याद्वादिनो मते सुप्रसिद्ध-
त्वादित्यलम् । |
स्वरूप-सम्बोधन नामक ग्रन्थ मे यह कहा गया है--जो ज्ञान से भिन्न
नहीं, गौर न अभिन्न ( समानं 10०1४०81 ) ही है, किसी प्रकार वह भिन्न
ओर अभिन्न दोनों है, उसके पूवं मे ओौर अन्तम ज्ञान ही है-इसे ही भत्त्मा
#
न
नद 2 चद
आर्हत-दशेनम् १४६
कहा गया है ।' [ यह स्पष्ट है कि चैतन्य जोव का स्वाभाविक भाव हि, जीव को
एकं विष अवस्था ज्ञान है--इस अवस्था-विशेष ( ज्ञान ) से जोव अत्यन्त भिन्न
नहीं है । अत्यन्त अभिन्न मो वह नहीं किं जोव को ज्ञान ही कह दें। तब ? दोनो
ही सीमां ( ५९४९०९8 ) अभिन्न ओौर भिन्न साथ-साथ उसमें ह। जीवमें
अपने दृष्टिकोण से ज्ञानवत्ता है इसलिए वह ज्ञान से अभिन्न है, दसरों के दृष्टिकोण
से अज्ञानवत्ता है इसलिए ज्ञान से वह भिन्न मी है । पूर्वापरोभूत ज्ञान का रथ
है ज्ञान का प्रवाह, यही आत्मा है। "कथंचन" का प्रयोग बतलाता है कि सत्ता
अनेकान्त ( बहुत सी संभावनाओं से युक्त ) हे। |
अब कोई शंका कर सकता है--'भेद ओौर अभेद एक दूसरे का परिहार
{ विरोध ) करते हए अवस्थित है इसलिए वास्तव में दोनों मे से कोई एकदहीहो
सकता है, दोनों होना असंगत है ।' [ हमारा उत्तर है कि ेसी शका निराधार
हे वथोकि इसके बाधक ( (1000187 ) मं प्रमाण नहीं मिलता । किसी वस्तु
की अप्रातिको ही बाधक प्रमाण कहते है, यहाँ पर अप्रप्तिदहै ही नहीं। कारण
यह है कि स्याद्वाद का सिद्धान्त माननेवाले ( जनों ) के मत से सभी वस्तुओं मे
अनिकान्तात्मकता है- यही कहना पर्याप्त है ।
विोष- जैना का एक विशिष्ट सिद्धान्त है - अनेकान्तवाद, जिखका अथं
है कि किसी वस्तु का कोई रूप निध्ित नही, सभी वस्तुं अनिधित है--सत्ता
असत्ता दोनों है, इसे सप्तभद्धी नय के द्वारा वे व्यक्तकरतेहै। इसमे स्यात्
{ क्थचित् ) शब्द का प्रयोग होने के कारण जनों को स्याद्रादी भी कहते है ।
अनेकान्तवाद को अपनाने के कारण जेन मे सभौ तरह के सिद्धान्तो को अपनाने
की परम्परादहै। वे सभी विचारोंका आदर करते ह । इसकी विवेचना इसी
दक्श॑न मे आगे होगी । इसी सिद्धान्त के कारण यहाँ पर जीव में ज्ञान से भिन्नता
ज्लौर अभिन्नता दोनों मानते है । यदि भेद ओौर अभेद दोनों की एक साथ उप-
लन्धि नहीं होती तभी उपयुक्त शंका हो सकती थी । अनेकान्तवाद मानने के
चाद यह सब विचार मिट जाता है ।
( १९. पाँच तच्व-दूसरा मत )
अपरे पुनजींवाजीवयोरपरं प्रपञ्चमाचक्षते जीवाकाशधमो-
धर्मपद्रसास्तिकायभेदात् । एतेषु पञ्चपु तचेषु कारत्रयसम्बन्धि-
= क स्थितिव्यपदेश्चः । अनेकप्रदेशतवेन करीरवत्काय-
व्यपदेञः ।
दूसरे ( जैन-दा निक ) लोग अब जीव भौर अजीव (= उपर्य भेदीकरण )
का एक दूसरा ही प्रपञ्च ( विस्तार, वर्गीकरण ) करते ह -- जिनके अनुसार
१५० स्बंदशनसंग्रहे-
[ ये पाच ] अस्तिकाय ( पदाथं ) है-जीव, आकाश, घमं, अधर्मं ओर पृद्रल ।
इन पाचों तत्वों का सम्बन्ध चकि तीनों कालों ( भूत, वर्तमान, भविष्यत् ) से
है ( ~ तीनों कालों मे ये स्थित है ) इसलिये “अस्ति शब्द के द्वारा इनको
स्थिति ( 513160९ सत्ता ) का बोघ कराया जाता है । उसी तरह्, अनेक
स्थानों में रहने के कारण, शरीर की भाति, इनका बोध "कायः शब्द से होता
ह । [ ध्नके अस्तिकाय नाम पड़ने का कारण बतलाया जा रहा दै कि अस्ति
ते काल का बोध होता है काय से देश का। कोई भी वस्तु किसी न किसी
देश या काल ( 1706 ०" 9]8०€ ) मे रहती है। “अस्तिकाय शब्द दशन
कके अन्तस्तल का स्पशं करने वाला है जिसमे वस्तुभो के दो व्यापक-तत्वों का
बोध कराने की सामथ्यं है। |
तत्र जीवा द्विविधाः, संसारिणो युक्ताश्च । भवाद्भवान्तरः
्रािमन्तः संसारिणः । ते च दिविधाः-- समनस्का) अमन
स्काश्च। तत्र संज्ञिनः समनस्काः। शिक्षाक्रियारपग्रहणसूपः
संज्ञा । तद्विधुरास्त्वमनस्काः । ते चामनस्का द्विविधाः, त्रसस्था-
वरभेदात् । तत्र दरीन्द्रियाद्यः शह्वगण्डोलकग्रभृतयः चतुर्विधा-
हसाः । पथिव्यततेजोवायुवनस्पतयः स्थावराः ।
जीव दो रकार के है संसारी ओर मुक्त । एक जन्म ( भव ) से दूसरे
जन्म को प्राति करने वाले जीव संसारी कहलति है । वे भो दो भ्रकार के है--
तमनस्क ओर अमनस्क । उनमे सं्ञा-युक्त जोव खमनस्क टै । [ संज्ञा से लोग
लाने-पीने आदि की चेतनता समक्षते है जो पशुओं मे भो है, लेकिन जेन लोग इसे
सोमित्त अथं में लेते दह।] शिक्षा ( दृखरों का उपदेश ), क्रिपा, आलाप ( बात-
चीत ) का ग्रहण करना ही संज्ञाहै। [संज्ञासे गन्धर्वं, मनुष्य आदिका ही
रहण होता है वरयोक्रि ये ही दूषरो के गुण-दोष के विचार में निपुण है । पशु
पक्षियों मे कु ही एेसे दै जेसे- हाथी, घोड़ा, बन्दर, सुगा आदि । ]
अमनस्क जीव संज्ञासे रहित दहै, जिनकेदो भेद है त्रस ओर स्थावर
( उनम दो इन्दि्यां आदि से युक्त रख, गरडोलक ( गंडको का एक पत्थर )
आदि चारं प्रकार के जीव चसह । पृथिवी, जल, तेज (असि), वायु ओर
वनस्पति स्थावर है ।
विरोष- त्रस का अथं सामान्यतः लोग॒गतिशौल ( 1+06०0७४९९ )
ओर स्थावर का अथं अगतिश्ील ( 1100९६७९ ) लेते ह । लेकिन आपाततः
्रतीत होने पर भी उनका यह अथं नहींहै। तरसओौर स्थावर दोनोंही विशेष
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५ कह
आहेत-दशेनम् १५१
प्रकार के कर्मो के वोधक्रदहै। इनकर्मोसे हौ कोई जोव जन्म लेकर स्थावर
होता है, कोई त्रस । शुम मौर अशुभ दोनों तरह के कर्मोँकानाम त्रस है,
प्रायः अशुभ कमं का नाम स्थावर है। त्रस क्म के उदय होने से जो जोव जन्म
लेति है वे त्रस है. स्थावर कमं के उदय से स्थावर जोव जन्म लेते है।
त्रस जीवो के चार प्रकार है-( १) द्वीन्द्रिय ( स्प ओरं रसन की
इन्द्िथों से युक्त ) जैसे--शंल, गं गोलक, युक्ति ( सीप ) कृमि ( कीट ) आदि ।
( २) आीन्द्रिय ( स्पशं, रसन ओौर घ्राण }-- पिपीलिका ( चींटी), यूक
( जोक ) आदि । (३) चतुरिन्द्रिय (ऊपर के तीन तथा चश्च )--दंश,
मशक ( मच्छर ), भ्रमर आदि । (४) पञ्चेन्द्रिय ( कणं भी )-मनूष्य, पशु,
वक्षी आदि । स्थावर जीवों के भेद अव बतलावगे । ₹ मरणौय है किं समनस्कं
केवल त्रस हो होते दह उन भौ पाँच इन्द्रियो वाले ही ।
तत्र मार्मगतधूलिः प्रथिवी । इष्टकादिः पृथिवौकायः ।
परथिवी कायत्वेन येन ग्रहीता स पर यिवीकायिकः । परथिवीं
कायस्वेन यो ग्रहीष्यति स पएथिवीजीवः। एवमवादिष्वपि भेद्-
चतुष्टयं योज्यम् । तत्र पृथिव्यादि कायत्वेन शएृदीतवन्तो
ग्ररीप्यन्तश्च स्थावरा गृ्न्ते न पृथिव्यादिप्रथिवीकायादयः ।
©
तेषामजीवत्वात् । ते च स्थावराः स्पशनेकेन्द्रियाः । भवान्तर
प्रा्िविधुरा मुक्ताः ।
[ यहाँ पर एक विभाजन करं-- ] मागं की धूलि प्रथिवी दै, ईट आदि
( पाषाण भी ) पृथिवीकाय ह ( ब्योकि ये मरेहृए आदमी के कायकी तरह
स्थित है) । पृथिवी कोकायकेरूपमे जिसने ग्रहण कर लिया वह परथिवी
कायिक है, पृथिवी को कायके रूप मे जो ग्रहण करेगा वह पृथिवीजीव है ।
इसी प्रकार जल ( अप् = आपः) आदिमे मी चारचार भेद कर लं । पृथिवी
आदिकोकायके रूपमे जिन्होनि प्रहण कर लियादहै या जो ग्रहण करेगे वे
जोव ही स्थावर जोव ह ( अथात् पृथिवी कायिक, अप्कायिक, तेजःकायिक आदि
ओर पृथिवीजीव, अब्जीव, तेजोजोव आदि ही जीव-स्थावर जीव-- दै) ।
पृथिवी ( अप्, तेज ) भादि तथा पृथिवीकाय ( अप्काय, तेजःकाय ) अदि
स्थावर-जीव नहीं है क्योकि इनमें जीव टी नहीं है । [ अभिप्राय यह् है कि पहले
दोनों वं स्थावर जीव में नहीं अते। स्थावर जीव कहने से पिले दोनों वर्गा
( --*कायिकः- "जीव ) का ही ग्रहण होता दै । |
१५२ सबेदशेनसंग्रहे-
इन सभी स्थावर जीवों की एक ही इन्दरिय-केवल स्प्च॑न-- होती है ।
मुक्त जीव वे है जो दूसरा जन्म नहं षति । [ इस प्रकार संसारी भौर मृक्त का
वणन करके जीव तद्व क। वणन समाप्त हुआ 1 |
धमाधमाकाश्चास्तिकायाः ते एकत्वश्ालिनो निष्कियाश्च
द्रव्यस्य देशान्तरप्राप्तिदेतवः । तत्र धमाँधर्मो प्रसिद्धो । आलो-
ङेनावच्छिने नभसि लोकाकाशपदवेदनीये तयोः सवेत्रावस्थितः।
गतिस्थित्युपग्रहो धर्माधर्मयोरुपकारः । अतएव धमोस्तिकायः
्रबृत्यनुमेयः । अधमौस्तिकायः स्थित्यनुमेयः । अन्यवस्तुपरदे्-
मध्येऽन्यस्य वस्तुनः प्रवेशोऽव गाहः । तदाकाशकरत्यम् ।
धमं, अथं ओौर आकाश के अस्तिकाय एकत्व ॒से युक्त ( एक भेदवाले )
ह, क्रियाहीन है, द्रव्य को दूसरे स्थान मेँ ले जानेवाले है । धमं ओौर अधमंतो
प्रसिद्ध ही है । आलोक ( प्रकाश ) से व्याप्त आका में, जिसे 'लोकाकाश' शब्द
से समक्षते हं, वहां उन दोनों को अवस्थिति सवत्र है । क्रमशः गति ओर स्थिति
के ग्रहण से धमं ओर अधमं का उपकार होता है (= ग्रहण होता है) ।
इसलिए धर्म-अस्तिकाय ( पदाथं ) का अनुमान प्रवृत्ति ( गति 10101 }
देखकर करते ह, अधर्भ-अस्तिकाय स्थिति ( 1६९७४ ) से अनुमेय है ।
एक वस्तु के स्थान में दूरी वस्तु का प्रवेश होना ` अवगाह है, यही आकाश्च
काकम् है ।
विरोष-जिस प्रकार जीव ओर पृद्रल के करई भेदर्है, उस तरह धर्म,
अधर्म, ओर आकाशमें भेद नहीं होते-ये अकेले ही. ह (आ जाकाशादेक-
द्रव्याणि, त° सू° ५।६ ) । बाहरी या भीतरी किसी भी कारणसे षदार्थमें
कोई विशेष अवस्था उत्पन्न हो जाये जिससे पदाथं (याद्रभ्य ) दूसरे स्थान
मे पटच जये--इसी का नाम क्रिया" है । उपयुक्त तनो अस्तिकाय क्रिया
से भी रहित है, ज्यो-के-त्यों रहते ह । हा, ये जोवों ओौर पुद्रलों में क्रिया
( देशान्तर-्रापि ) उत्पन्न करते के कारण होति है ।
आक्ाशकेदोरूप है लोकाकाश ओौर अलोकाकाश । लोक से सम्ब
आकाश लोकाकाश है । इ मे धमं ओर अधमं रहते है, इनके भी पुद्रल होते
ह । धर्माधमं से आकाश वैसा ही व्याप्त है जैसा तेल से तिल रहता है । तात्पयं
यह हैकिये आकाश में सर्वर, कोई स्थान इनसे लाली नहीं है ( धर्माधर्मयोः
ृत्ले, त° सू० ५।१३) । उपग्रह गौर उपकार दोनों ग्रहण (^]]0९1167191 0)
के अथंमं लिये गये है। जीवके द्वारा गृहीत गति का नाम धमं है, स्थिति
आहैत-दशेनम् १४३
का नाम अधमं) यों दोनों की स्थिति सर्वत्र होती है। इस पर अभ्यंकरनजीने
हष्ान्त दिणा है-जैसे मछली की गति होने पर जल साधारण अवस्था में
रहता है उसी तरह जीवों कौ गति होने पर धमं । फिर, जैसे घोडे की स्थिति
होने पर पृथिवी साधारण अवस्था मं रहती है उसी तरह जीवों की स्थिति मे
अधमं मी रहता है । गति ओौर स्थिति जीव के विशेष परिव्तंनो के नामरहै।
घ्म ओर अधर्मको हम देख नहीं सकते, केवल जीव की गति ओर स्थिति
देखकर उनका अनुमान मर हो सकता है ।
सपदलरसगन्धवर्णवन्तः पूद्रलाः ( त० घू० ५।२४ ) । ते
च द्िविधाः--अणवः स्कन्धाश्च । भोक्तुमश्क्या अणवः ।
दरयणकादयः स्कन्धाः । तत्र दयणुकादिस्कन्धभेदात् अण्वादि-
रत्यद्यते । अण्वादिसङ्काताद् द्रयणुकादिरुत्पद्यते । कचिद् भेद-
सद्काताभ्यां स्कन्धोत्पत्तिः ( तण घू० ५।२६ ) । अतएव
पूरयन्ति गलन्तीति पुद्गलाः ।
स्कं, रस, गन्व ओौर वणं ( रूप ) से युक्त पुद्धल होते है। वे दो प्रकार
के है--अणु ( ४010010 ) भौर स्कन्ध ( (गणगपापै ) । [ अत्यन्त सूक्ष्म
होने के कारण, ग्रहण, धारण, निक्षिप्य आदिकेन होनेसे ] अणुओं का
उपभोग नहीं किया जा सकता । द्रचणुक { दो अणुओं से बना हुआ } से आरम्म
करके स्कन्ध होति हं । द्वथणुक आदि स्कन्धो का विश्लेषण ८ 0815318 )
करने पर अणु आदि उत्पन्न होते है । अणु आदि के समूह ( 81658 )
से द्रचणुक आदि होते है । कभी-कभी स्कन्ध कौ उत्पत्ति विश्लेषण ओर संघात
दोनों क प्रयोग से होती है। इसलिए भरने ( भिलने,./पु + णिच् ) या पृथक्
पृथक् होने ( </गल् ) के कारण इन्दे पुद्रल कहते है ।
विरोष-ुद्रल के लक्षण मे प्राचीन पुस्तकों मे गन्ध" नहीं दिया गया
है- जिसका अनुवाद कविल ने मी किया है पर सूत्रम गन्ध का प्रयोग है।
स्पन्चं के आठ भेद ह--कठोर, मृद, लघु, गुर, शीत, उष्ण, ल्लिग्ध, रक्ष । रस
पाँच प्रकारका है- तिक्त, कटु, कषाय, अम्ल, मधुर । गन्त दो प्रकार की
है- सुरभि, असुरभि । वणं के पांच भेद है - कष्ण, नील, लोहित, पीत, शुङ्ग ।
अणु = ./ अण् से, अथं है-- स्पर्शादि अवच्थाओं के उत्पादन में समथंदै,
रेसा -जिसे कहते ह । स्कन्ध = ^/स्कन्ध् से, अर्थ ग्रहण, निक्षेपणा आदि
व्यापा का उपयोगी । ये दोनों ही पुद्रलों की विशेष अवस्थाओो के नाम है ।
प्रकृति मँ अणु, फिर स्कन्ध । द्रचणुकादि स्कन्धो का विश्लेषण करने पर अन्त
१५४ सबेदशेनसंग्रदे-
म पुरो कौ अणु-अवस्था ( परिणाम ) मे पहचते है । अणुओं को मिलने पर
ुद्रलों की स्कन्वावस्था मे पहंचते है। कभी-कभी भेद ओौर संघात दोनो करने
यर स्कन्ध-परिणाम की प्राति होती है जेसे- |
दरचणुक = व्यणुक का विश्लेष
या, इचणुक = अणुओं का संघात ।
( २०. काल भी पक द्व्य है)
काटस्यावेकम्देशषत्वा माबेन अस्तिकायत्वाभावेऽपि द्रन्य-
त्वमस्ति । तद्छक्षणयोगात् । तदुक्त --गुणपयो यवद् द्रव्यम्
(८ त° घछू० ५।३८ ) इति । द्रव्याश्रया निगणा गुणाः ( त°
सर° ५।३९ ) । यथा जीवस्य ज्ञानत्वादिधमरूपाः; पृद्धलस्य
हूपत्वादिसामान्यस्वमावाः । धमोधमोकाशचकालानां यथासम्भवं
गतिस्थित्यवगाहवतेनाहेतुत्वादिसामान्यानि गुणाः ।
तस्य द्रव्यस्योक्तरूपेण भवनं पयोः । उत्पादस्तद्धावः
परिणामः पर्याय इति पर्यायाः । यथा जीवस्य षटादिज्ञानसुख-
शादयः । पृद्रलस्य मृतिपण्डवटादयः । धमीदीनां गत्यादि-
विशेषाः । अतएव षड द्रव्याणीति प्रसिद्धिः ।
द्यपि काल ( 106 ) अनेक स्थानों में अवस्थितन होनेके कारण
अस्तिकाय नहीं है फिर भी यह द्रव्य ( 9प०७४४66 तत्तव ) है। कारणा यह
हे कि द्रव्य के लक्षण इसमें लगते है। कहा है कि गुण ओौर पर्याय (= कमं--
हेमचन्द्र ) से युक्त द्रव्य होता है ( तच्व सूु° ५।३०८ ) ।१ द्र्य मे रहनेवाले किन्तु
स्वयं गुण धारण न करनेवलि को गुण ( (2०९1; ४९8 ) -कहते दहै ।
उदाहरणाथं जीव के गुण, ज्ञानत्व आदि घमौके रूपमे, पुद्रलके [ गुण ।
रूपत्व ( वणा ) आदि सामान्य स्वभाव है। ध्म, अधर्म, अकाश ओर कालके
[ गृण ] यथासम्मव गति ( धमं-गुणा ) स्थिति ५ अधमं-गुण ), अवगाह
( आकाश्-गुण ) गौर वतंनाहेतुत्व ( = किसी विशेष अवस्था में रहना, काल-
गुण ) आदि के सामान्य रूप है ।
उस द्रव्य का उप्यक्त रूप से ( = भिन्न-मिन्न अवस्थाओं मे जाकर ) होना
प्याय ( ^+५01 ) कहलाता है । [ द्रव्य के] पर्याय ये है--उत्पाद
( उत्पत्ति ०१००४१०० ), तद्भाव ( सत्ता ६18१६०९९ }), परिणाम
दि , देखिए वैशेषिक सूत्र-( १ ।१।१५ )
[क = = |
आहेत-दशनम् १५५
( {कथेगफलण४ ) मौर पर्याय ( ५४00 ) । जेसे जीव के | पर्याय |
चट आदि का ज्ञान, सुख, क्गेश आदिरहै; पुद्रल के [ पर्याय ] मिदर का पिण्ड,
चट आदि दै; धर्मादि के [ पयाय ] गति आदि के विशेष ( सामान्य नहीं, क्योकि
वह॒ गुण में रहता है) है। इसीलिए प्रसिद्धि है कि द्रव्य छह है ( पाच
अस्तिकाय + काल ) ।
विर्तोष--द्रव्य का यही लक्षण नैयायिको ने भी स्वीकार किया है । अन्तर
यही है कि जैन पर्याय" का प्रयोग करते है नैयायिक "कमं" का। हेमचन्द्र ने
पर्याय को कमं कहा भी है । एक स्थान पर ( अभिधानरलमाला १५०३ ) मे
उसे यो कहा है--पर्यायोऽनुक्रमः क्रमः । अव द्रभ्यलक्षए की व्याख्या कर--जिस
धर्म के चलते एक द्रव्य दूसरे द्रव्य से भिन्न किया जाता है ( 0ऽ४ण्ड्प
814 ) द्रव्य तँ निवास करनेवाला वह घमं गुण है। जसे ज्ञानत्व, इसी से
जोव-्रव्य का भेद पुद्रलादि द्रव्यो से किया जाता है। पुद्रल-द्रव्य को रूपत्व
के चलते दूसरे द्रव्यो से पृथक् करते है। तो, यहां ज्ञान, रूप आदि गण है ।
दव्य की विहोष अवस्था का नाम पयाय है जो करमशः उत्पत होती है । जसे
जीव मे घटज्ञान, पटज्ञान, क्रोध, मान इत्यादि ओर पुद्रल में श्वेत, कष्ण आदि ।
ये देखने मे गुण -- जैसा लगतेहै। श्रममे न पडं । पर्याय द्रव्य के अवस्था-
विशेष का नाम है अतः गुण भी उसमें रहते ह ।
ृहद्रभ्यसंग्रह नामक ग्रन्थ मे दोनो को परिभाषा रेसी दी गई है-( १)
सहमावी धर्मो गणः (२) क्रमभावौ प्यायः । द्रव्य के साथ होने वलि धमं
को गुण कहते द जेसे जीव का गुण--उपयोग, पुद्रल का गुणए-- ग्रहण करना,
धर्मास्तिकाय का गण--गति उत्पन्न करना, अधमास्तिकाय का-- स्थिति उत्पन्न
करना, काल का गुण - सत्ता उत्पन्न करन आदि! द्रव्य के साथ-साथ गख
उत्पन्न होति दै । क्रम (8५९९8810) नही होता । दूसरी ओर क्रम से उत्पन्न
होनेवाले, द्रव्य के बाद अनेवाले पर्याय दै । जीव के पर्याय नरक आदि;
पुदरल के रूप, रस, स्पर्शादि; धमं, अधमं ओौर आकाश का पर्थाय अभिव्यक्ति है ।
काल का गुण है--वतंनाहेतुत्व । वतन का अथं ह द्रव्य का भिन्न-मिन्न
ह्पो तथा अवस्थाओं मे रहना । चावल, भात के रूपमे, दूध-दहीके रूपमे,
बीज अंकुर, कार्ड, पत्ता, एल, फल के रूपमे, नवीन वस्त जीर्णं-क्ीण वस्तु के
रूप मे-- यह सब कालके कारण ही होता हि ।
(२९१. सात तच्व-तीसरा मत )
¢ ^~
केचन सप्र तानीति बणेयन्त । तदाह - जीवाजीवा-
वबन्धसम्बरनिजेरमो | [ऋ #
सवबन्धसम्बरनिजेरमोक्षास्त्वानि ८ त° घ १।७ ) इति ।
१५६ सबेदशेनसंग्रहे-
तत्र जीवाजीवौ निरूपितो । आस्रबो निरूप्यते--ओदारिकादि-
कायादिचलनद्रारेण आत्मनश्चलनं योगपदबेदनीयमास्रवः ।
यथा सलिलावगाहि दारं जलाद्यास्चवणकारणत्वादास्चव इति
निगद्यते, तथा योगग्रणःडिकया कमास्रवतीति स योग आसवः,
कुछ लोग ( जेन दार्शनिक ) सात तत्वों का वरशान करते है। यह बात
[ सूत्रकार भी ] कहते है जीव, अजीव, आस्रव, बन्ध, संवर, निजंरा ओर
मोक्ष ये तच्व हँ ( त° सुऽ १।४ ) 1१ उनमें जीव ओौर अजीव का निरूपण
तो हो चुका है ( देखिये-- अनुच्छेद १८ )। अब आल्लव का निरूपणा क्रिया
जाता है-ओौदारिक आदि कायो तथा दूसरे साधनों ( = मन ओौर वचन } के
चलने से अत्मा का चलना, जिसे योग॒ भी कहते है, आस्रवहै। जिच प्रकार
पानी में डूबा हुआ [ किसी नलीका ] छेद आस्रव कहलाता है क्योकि जलादि
काइसी से होकर आल्रवण ( गिरना, बहुना ) होता है, उसी प्रकार योग
( = आत्मा की चञ्चलता }-रूपी नली के दवारा [ आत्मा याजीवमें] कमंका
आस्रव ( 10, प्रवाह, बहना ) होता है, यह योग (जीव का कमं से
धना ) ही आस्रव है।
विरोष-आसरव के लक्षण में कुछ शास्रोय-पदों का प्रयोग हुआ है, उन
देखा जाय । काय (शरीर ) के पांच भेद है--ओौदारिक, वेक्रियिक, आहारक,
तेजस भौर काम॑णा । दे तच्वार्थाधिगमसूत्र ( २।३६ } । ये काय एककी अपेक्षा
दूसरे सूक्ष्म से सूक्ष्मतर है । उदार = स्थूल, उसमें उत्पन्न = ओौदार = स्थूल शरीर
से साध्य कमं आदि । ओौदार जिसका प्रयोजन है वह ओदारिक = यह दद्यमान
स्थूल शरीर । वेक्रियिक इसकी अपेक्षा सूक्ष्म है । विक्रिथा = सामथ्यं के कारण
अनणुकोअणु बना देना तथा लघुको महान् बना देना। विक्रिया जिश्का
भ्रयोजन है वह वेक्रियिक = जो दृश्य नहीं है ठेसा शरीर । आहारक इससे
भी सूक्ष्महै। आहारक वह है जिसे आहत अर्थात् स्वीकृत किया जाय ।
सृक्ष्मवस्तुओं के परिज्ञान के लिये इसे स्वीकृत किया गया है। तेज (अभ्नि)में
उत्पन्न तेजस है जो आहारक को अथेक्षा सूचम है। सवसे सूक्ष्म कामेण है
जिसमे शब्दादि भी प्राप्त नहीं होते । यद्यपि पाचों प्रकारके दारीरों का निमित्त
~ - -- ~~~] ~] ब~] ~~] ~~~
१. चेतनालक्षणो जीवः । तद्विपयंयलक्षणोऽजीवः । शुमाञुमकर्मागमदार-
मालवः । आत्मकममंणोरन्योन्यावयवानुप्रवेशो बन्धः । आख्रवनिरोषः संवरः ।
कर्मेकदेशसक्षयो नजरा! कृत्क्ञकर्मवियोगो मोक्षः--इत्येषां सामान्यलक्षणानि
( अभ्यङ्कुरः)। ¦
आहंत-दशेनम् १५७
कमह है फिर भी रूढि वश्च ( (00९07811 ) इसे क मंशा" शब्द से
समक्चते ह । लोहि के पिशड मे अमि के परमाणु प्रवेश करते है उसी तरह तैजस
ओर कामण व्र आदिमं भी प्रवेशकर जति है। इन शरीरो ( पवो ) म
ृक््मता एक से अधिक है लेकरिन व्यापकता भौ वैसी ही अधिक दहै)
कायादि = काय, मन, वचन । अत्माके स्थान का चलना ( देशान्तर
गमन ) "योग" कहलाता है । यह तीन प्रकार का है क्योकि कमं ( जिससे यह्
उत्पन्न होता है) तीन प्रकारका ही है-- मानसिक, वाचिक ओौर कायिक,
तो, योग के ये मेद है--मनोयोग, वाग्योग ओर काययोग । मन के परिणाम कौ
ओर अभिमुल आत्मा के प्रदेश ( स्थान }) का चलना मनोयोग है। वचन के
परिणाम की ओर अभिमुख आत्मा के प्रदेश का चलना बाग्योगदहै। शरीरके
चलने से आत्मा के प्रदेश का चलना काययोग है ।येयोगही मालव है।
आत्म-्रदेश का संचालन एक प्रकारसे नलीकाषठेद टै जिससे ठोकर
बाहर से कमं के पुद्रल आत्मा के प्रदेश के वीच चले अति हँ ।
यथा वस्त्रं समन्दाद्वातानीतं रेणुजातष्ुपादत्ते, तथा
कपायजखाद्रं आत्मा योगानीतं कमे स्ेपरेरेगहवाति । यथा वा
निषटप्नायःपिण्डो जले कषिप्तोऽम्भः समन्ताद् गह्णाति; तथा
कषायोष्णो जीवो योगानीतं कमे समन्तादादत्ते । कषति =
हिनस्ति आत्मानं इगतिप्रापणादिति कषायः, कोधो मानो
माया लोभश्च ।
[ आल्नव के ओर भी ृष्टान्त देते है-- ] जिष प्रकार भींगा कपड़ा चारो
ओर से हवा द्वारा लाई गई धृलि के समूह को पकड़ लेता ह उसी प्रकार कषाय-
रूपी जल से भीगी हृई आत्मा योग के द्वारा लाये गये कमंको समी स्थानोसे
ग्रहण करती है । अथवा जिस प्रकार खूब गमं क्रिया गया लोहे का दरकडा पानी
नं डाले जाने पर चारों ओरसे पानी खीचतादहै, उसी प्रकार कषाय से उष्ण
जीव योग के द्वारा लाये कमं को चारों ओरसे खींच लेता है ।
[ कष्राय का निवंचन-- | जो कषण करे = आत्मा को बुरी अवस्थामें
ले जाकर उसका हनन करे, वह् कषाय टै ( ~/ कष् ) जेसे-- क्रोध, मन
(अहंकार ), माया, ( 1261090 ) ओर लोभ ।
सः; दिविधः श्माञ्यभभेदात् । अत्रार्हिसादिः छभः काय-
योग; । सत्यमितहितमाषणादिः श्युभो वाग्योगः । अहेत्िद्रा-
१५८ स्वदशनसंग्रहे-
चार्योपाध्यावसाधुनामधेयपञ्चपरमेष्िभक्तितपोरुचिश्वुतविनयादिः
चभो मनोयोगः । एतद्विपरीतस्त्वश्चमः त्रिविधो योगः ।
तदेतदास्रवभेदग्रमेदजातं, (कायवाञ्नःकमेयोगः । स
आसवः । शुभः पुण्यस्य । अशुभः पापस्य! (त° घ्° &।१-४)
इत्यादिना घ्रसंदर्भेण ससंरम्भमभाणि ।
अपरे त्वेवं मेनिरे--आस्रवयति पुरुषं विषयेष्विन्द्ियश्रवृत्ति-
रावः । इन्दरियद्वारा हि पौरुषं ज्योतिः विषयान्स्परश्द् रूपादि.
ज्ञानरूपेण परिणमत इति ।
उस (योग) के दो भेद है-ञुभ भौर अशुम। हिसा आदि शुम
काययोग हैँ । सत्य बोलना, मित ( आवदयकतानुसार } बोलना, हित करनेवाली
बातं बोलना आदि शुभ वाग्योग है । अर्हत् , सिद्ध, आचाय, उपाध्याय जौर
साधु नामक इन पांच परमेष्ठियों मे भक्ति रखना, तपस्या मे सचि होना, राख
( श्रुत ) का शिक्षण ( वनय ) इत्यादि शुभ॒मनोयोग ह । इसके विपरीत तीन
तरह के अशुभ योगर्है। [प्राण लेना, चोरी करना, मेथुन आदि अशुभ
काययोग है । शठा, कठोर, असभ्य आदि भाषण करना अशुम वाग्योगं है।
वध का चिन्तन, ईर्ष्या, असूया आदि अशुभ मनोयोग है । ]
आस्रव के इन भेद-प्रभेदो का वर्णन इन सूत्रों में प्रयन्नपूवेकं किया गया
है-- काय, वाक् ओौर मन-येकमं के द्वारा योग ( आत्मप्रदेश सञ्चलन )
है ।' "यही आल्लव है ।' श्ुणय के लिए शुभ [योग है ]।' पापके लिए अशुभ
[ योग है ]।' ( त° सू० ६1 १-४) ।
लेकिन दूसरे लोग एसा मानते ह--'जो पुरुष को विषयों की ओर बहाकर
ले जाय अर्थात् इन्द्रियों की प्रवृत्ति ; उसे ही आस्रव कहते है ।' इन्द्रियों के हारा
ही पुरुषों की ज्योति विषयों का स्पशं करती है तथा कूपादिके ज्ञानक रूपमे
परिणत हो जाती है।
(५२९१९ क. बन्ध का निरूपण )
मिथ्यादश्नाविरतिप्रमादकषायवश्चा्योगवश्ाच्ात्मा द्नैक-
्षत्राबगादहिनामनन्तप्रदेशानां पुद्रलानां कमेबन्धयोग्यानामादान-
युपश्वेषणं यत्करोति, स बन्धः । तदुक्तं सकपायत्बाज्ञीवः
कमेभावयोग्यान्पुद्रलानादत्ते स बन्धः ८ त° चू ८।२ ) इति ।
आहंत-दर्शनम् १५६
जब मिथ्या-दक्ञेन, अविरति ( आसक्ति ), प्रमाद (असावधानी ) ओौर
कषाय ( पाप) के कारण, तथा योग के भी कारण आत्माउन पृद्रलो का
आदान अर्थात् आरलिगन करती है जो पुद्रल ( शरीर, ५४४९ ) अपने सूक्ष्म
कित्र ( रूप ) में प्रवेश करते है, अनन्त ( समी ) स्थानों मे निवास करते है तथा
। [ अपने पूर्वकृत ] कर्मो के बन्धन स पड़ने लायक होते है --इसी क्रिया का नाम
बन्ध ( 80786 ) है। यह कहा मी है--सकषाय रहने के कारण जोव
[ अपने पहले के क्ये हृए ] कर्मों के भाव परिणाम ) के अनुकूल पुद्रलों
(शरीरो) को ग्रहण करता है, वहो बन्व है ( त° सूु° ८।२ )
( २२. बन्धन के कारण )
क © ©
तत्र कषायग्रहणं सवेबन्धह्ेत्पलक्षणाथम् । बन्धहेतृन्पपाट
^ क वि क
वाचक्ाचार्यः मिथ्याद्चीनाविरतिग्रमाद्कपाययोगा बन्धहेतवः
८ त° घू० ८।१ ) इति ।
यहाँ ( उपयुक्त उद्धरण मे ) कषाय शब्द ब्त के सरे कारणांका
उपलक्षण ८ बोधक ) है । वाचकाचायं ( उमास्वाति ) ने बन्धके हेतुं को
हसं प्रकार निरूपित किथा दै-मिध्या दलन ( १8186 [णप्ण्त०प
कडा विश्वास ), अविरति ८ }१०07-17001{916066 ), प्रमाद ( लापरवाही
(9.6) 68871688 ) कषाय ( पाप अ ) तथा योग ( [पीप )-बन्व के
हेतु है ( त सु° ८।१ )
मिथ्यादश्ेनं द्विविधं मिथ्याकर्मोदयात्परोपदेश्चानपेश्च
तच्वाश्रद्ानं सैसमिकमेकम् । अपरं परोपदेशजम् । प्रथिव्यादि-
यट्कोपादानं षडिन्द्रियासंयमनं चाविरतिः । पञ्चसमितित्रिगु-
प्रिष्वनुत्साहः प्रमादः । कषायः क्रोधादिः । तत्र कषायान्ताः
स्थित्यनुभवबन्धदेतवः प्रकृतिग्रदेशचवन्धदेतुर्योग इति विभागः ।
[ क ] मिथ्यादृशेन दो प्रकार का है- मिथ्या कर्मों का उदय होने पर,
दूसरों के उपदेश के बिना ही प्राकृतिक ल्प से | जैन दार्शनिकों के ] तत्वों पर
-- ~~~
१ उपलक्षण = एक पदां का अपने सदृश अन्य पदार्थो का बोध कराना ।
उदाहर्णाथं “काकेभ्यो दधि रक्ष्यताम् ' मे "काकः रदाब्द दधि के विनाशक अन्य
जीवो का भी उपलक्षण है । दही को कौए से बचाना = बिल्ली, वानर आदि
समी जीवों से बचाना ।
१६० सवेदशेनसंगरहे-
श्रद्धा न रखना एक प्रकार का [ मिथ्याद्॑न ] है, दूसरा प्रकार वह् है जिसमे
दूसरों ( अन्य सम्प्रदायो ) के उपदेश से [ जैनद्॑न मे अश्रद्धा | उत्पन्न
होती है \
[ ख ] पृश्वी आदि (= पृथिवी, जल, अन्नि, वायु, स्थावर, जंगम-पुद्रल
अस्तिकाय ) छह पदार्थो का उपादान ( ग्रहण ) तथा छ् इन्द्रियों का संयमन
न करना अविरति दै । [ विरति = इन्दं त्याग देना, अविरति = नहीं त्यागना-
इससे बन्धन होता है । |
[ ग ] पाँच समितियो मौर तीन गुतियोँ [ के प्रयोग ] का प्रयासिन करना
प्रमाद दै । [ पाच समितियों ओर तीन गृुतियों का वर्णन अभी तुरत किया
जायगा । कमंपदरलों के प्रवेश से अपनी रका करना गुप्ति" है । कायगुप्ति, वाग्गुति
ओर मनोगु्ति-ये तीन भेद ह । प्राणिर्यो को पीडा न देते हए अच्छा व्यवहार
रखना 'समिति' है जिसके ईरय, भाषा, एष, आदान, उत्सर्गं भेद दै । देवं --
अनु २३ |)
[ घ ] क्रोधादि कषाय है [ आदि = मान, माया, लोभ ]। यहाँ एक
विभाजन ( 118४000 ) करना पडता हैकिकषाय तकके चारो हेतु
( = मिथ्यादशेन जादि ) स्थिति ओर अनुभव के बन्धनों के कारण है जबकि
योग ( या आखव ) प्रकृति मौर प्रदेश के बन्धनों का कारण है।
( २२ क. बन्धन के मेद )
बन्धश्चतु्विध इत्युक्त ्रक़ृतिस्थित्यनुभवग्रदेशास्तद्विधयः
( त० घ० ८।३ ) इति । यथा निम्बगुडदेस्तिक्तत्वमधुरत्वा-
©
दिस्वमावर एवमावरणीयस्य ज्ञानदशोनावरणत्वम् आदित्यग्रभा-
च्छादकाम्मोधरवत्मदीपग्रमातिरोधायकड्म्भवच । सदसद्रेदनीयस्य
सुखदुः खोत्पादकत्वमसिधारामधुलेहनवत् ।
ऊपर जो चार प्रकार का कहा गवा है [ उ सूत्र मे कहा है-- । ` प्रकृति
बन्ध, स्थिति-बन्ध, अनुमव-बन्ध तथ) प्रदेश-बन्ध--ये उस ( बन्ध ) के प्रकार
ह ।' ( त° सूर ८।३ ) [अब इन चारों बन्धो का क्रमः निरूपण करते हए
पहले प्रतिबन्ध के जाठ मेदो का वर्णन होगा। ये भेद ह-( १) ज्ञानावरण,
( २ ) दशनावरण, ( ३ ) वेदनीय, ( ४ ) मोहनीय, (५) आयुः, ( ६ ) नाम,
( ७ ) गोत्र, ( ८ ) अन्तराय । चे आठ प्रकार के कमं है। इनसे ही व्यक्ति
बन्धन मे पड़ता है । |
आर्हत-दशंनम् १६१
जिस प्रकार नीम, गुड, आदि मँ तिताई ( {1४611168 ), मिठास आदि
स्वभावके रूपमे है, उसी प्रकार (आवरणीय कमं मेंज्ञान ओौर दर्चन का
आवरण करना स्वमावहै। दृष्टान्त के लिए सूयं के प्रकशि को दंकनेवाले मेव
ओौर दीपक के प्रकाश को छिपानेवलि धड़ेकाल। [ सूर्यं के प्रकाश का मेष
दवारा आवृत होना ज्ञानाबरण का दृष्टान्त है जिषमें वस्तु का स्वरूप ज्ञात नहीं
होता, जञतृत्व-शक्ति ठंक जाती है । दशनावरण के दृष्टान्त म दीपक के प्रकाश
का छिपना हे जिसमें वस्तु को देखने की शक्ति छिप जाती दै । | सत् गौर असत्
के रूपमे जेय पदार्थका (एकसाथ ही) सुखदुःख को उत्पन्न करना
[ वेदनीय कमं है ] जिसके दृष्टान्त मं ` तलवार की धार पर वतमान मधुका
चाटनः ह । ( एक ही साय सुख ओौर दुःख दोनो है; क्योकिं तलवार कीधार
सै जीभ कट जाना दुःख है, मधु का चाटना सुल । यही वेदनीय कमं
है = सुख-दुःख का संवेदन । )
प ~ _ # ©
दने मोहनीयस्य तच्वाथाशरद्धानकारित्वं दुजेनसङ्गवत् \
चास्तरि मोहनीयस्यासंयमहेतुतवं मद्यमदवत् । आयुषो देहवन्धन-
कलक जलवत् । नाश्नो विचित्रनामकारितवं चितरिकबत् ।
मोत्रस्योचनीचकारित्वं कम्भकारवत् । दानादीनां विन्ननिदानतल-
मन्तरायस्य स्वभावः कोज्चाध्यक्षवत् ।
सोऽयं प्रकृतिबन्धोऽ्टविधो द्रव्यकमोवान्तरभेदमूलग्रकृति-
वेदनीयः । तथाबोचदुमास्वातिवाचकाचायेः--आच्यो
्ञानदद्मनावरणवेदनीयमोहनीयायुनोमगोत्रान्तरायाः ( त° घ
८} ) इति ।
तद्भेदं च समग्रहात्पश्च-नव -दयष्टाविंशति-चतुचत्वारि
शाद्-दि-पञ्चमेदा यथाक्रमम् ( त° घू° ८।५ ) इति । एतच
स्वं विद्यानन्दादिभिर्विवृतमिति विस्तरभयान्न प्रस्तूयते ।
[ मोहनीय कमं दन भौर चरित्र दोनों में मोह उत्पन्न करता है । ]
दैन में मोहनीय कमं का स्वभाव है तच्वाथं म अश्वद्धा उत्पन्न कर देना जेसे
दृष्टो के संगसे होता है। चारित्र में मोहनीय का स्वभाव है असंयम उत्पन्न
करना जैसा मदिरा का नशा ( मद ) से होता है। आयु कमं शारीरिक बन्धन
मे डालता है, जैसे जल [ तैरलेमे शरीरको धारण करता है उसौ प्रकार
आयु कमं भी देह धारण करता है । ] नाम कर्मं से विभिन्न नाम उत्पन्न
११ स० सं
१६२ स्बेदशेनसं्रदे-
होति है जैसे चित्रकार [ विभिन्न चित्र बनाता है) गोन्न कमं से ऊंचा ( वंश )
ओर नीचा की भावना आती है, जिस तरह कुम्मकार [ घडे मे ऊँचा जौर
नीचा स्थान बनाता है। ] अन्तराय कमं का स्वभाव है दानादि के कामोंमें
विन्न लना, जिस प्रकार कोाष्यक्ष | राजा को मितव्ययिता का पाठ षढा
कर दानादि से रोकता है । | .
इस प्रकार यहं प्रकृति-बन्ध आठ तरह का दै, इसे मूल-प्रकृति भी कहते
ह तथा द्रव्यो के [ धमं मौर अधमं नामक ] कर्मो के अनुसार इसमे अन्तर
भेद ( 800)४810108 ) होते है। रेखा ही उमास्वाति वाचकाचायं ने
कहा भी है--पहले बन्ध ( प्रकृति बन्ध ) मे ज्ञानावरण, दद्य॑नावरण, वेदनीय
मोहनीय, आयु, नाम, गोत्र तथा भन्तराय -- ये मेद ह। ( तण सू°० ८।४)।
इनके मेदां की भी संख्या उन्होने दी है कि क्रमशः इनके भी पाच
( ज्ञानावरण ), नव ( दर्ध॑नावरणा ), दो ( वेदनीय ), अङाईस ( मोहनीय ),
चार ( आयु ), बयालीस ( नाम ), दो ( गोत्र), तथा पाच ( अन्तराय ) भेद
होते है । ( त० सु० ८।५)। इसका. पूरा विवरण विद्यानन्दिन् आदि ने
[ तच्वार्थाधिगमसूत्र को टीकाओं मे ] दिया है इसलिए विस्तारके डर से यहाँ
नहीं दिया जा रहा है ।
यथाजागोमहिष्यादिकषीराणामेतावन्तमनेहसं माधुयंस्वमा-
वादप्रच्युतिस्तथा ज्ञानावरणादीनां भूरग्रक़ृतीनामादितस्तिसृणा-
भन्तरायस्य च त्रिशषत्सागरोपमकोटिकोच्यः परा स्थिति; ( त°
च्च ८।१४ ) इत्याचुक्तकाला दुदौन्तवत्सीयस्वमावादग्रचयुतिः
स्थितिः।
यथाजागोमदिष्यादिकषीराणा तीव्रमन्दादिभावेन स्वकाये-
करणे सामथ्यविशेषोऽलुभावः तथा करमपद्लानां स्वकायेकरणे
सामथ्येविशेषोऽलुभावः। कमेभावपरिणतपुद्वरस्कन्धानामनन्ता-
नन्तप्रदेश्चानामात्मप्रदेजानुप्रवेशः प्रदेशबन्धः ।
स्थितिबन्ध- जैसे बकरी, गाय, नैष आदि के दूष अपने माधुर्यं के
स्वभाव से किसी निधित काल ( अनेहस् = समय ) तक च्युत नहीं होति ( उनमें
किसी निशित समय तक मिठास रहती है ), उसी प्रकार मूल प्रकृतियों ( प्रकृति
बन्धो ) मे प्रथम तीन ज्ञानावरणादि तथा अन्तराय ( कुल मिलाकर चार
कर्मो ) का इष सूत्र के अनुषार-“उक्कृष्ट स्थिति ( = बन्ध ) का परिमाण
४ शि
४ कान न पी स 9 (धि ~ ४
| [===
|
(|
आर्हत-दशेनम् १६३
करोडों-करोड़ों तीस सागरोपम जैसे काल टै"--इतने समय तक मतवाले
( हाथी ) की तरह अपने स्वमावको न. छोडना “स्थितिबन्ध' है । [ स्थिति दो
प्रकार कौ है--परा ओर अपरा परा स्थिति उष होती है तथा आलें
कर्मो मे प्रत्येक की भिन्न-भिन्न होती है! ज्ञानावरण, दर्चनावरण, वेदनीय
तथा अन्तराय कर्मो को परा स्थिति तीस सागरोपम--जैसे करोडो-करोडों समय
~ तक होती है = उतने समय तक इनका अपना स्वमान ( प्रकृति ) नहीं दढता ।
् लागरोषमः एक समय की अवधि है जो बहुत बड़ी है। अन्य कर्मो की परा
स्थिति अलग-अलग होती है जेसे--मोहनीय कमं कौ स्थिति सत्तर सागरोपम
जैसे करोडो-करोडो काल ( त० सु° ८।१५), नाम मौर गोत्र कर्म की बीस
चागरोषम--जैसे करोड करोड़ों काल (०।१६ ), भायु कर्मं की तंतीसष°
(८१७ ) अपरा स्थिति का वणन भी सूत्रकारने ८।१८से आरंभ कियाद
्ैसे- वेदनीय कमं की अपरा स्थिति बारह महत्त तक है इत्यादि । संक्षेप में
स्थिति का अथं है ठहरना, अपने स्वभाव को न छोडना । वह काल जनों के
अनुसार चाहे जितना सागरोपम भी हो। जैसे दुर्दान्त ( मतवाला ) हाथी कुछ
समय तक {अपनो प्रकृति नहीं छयोडता उसी प्रकार कमं भी अपनी प्रकृति में
स्थिर रहते ह । |
अञुभवबन्ध--जेसे बकरी, गाय, ख आदि के दूध मे तीश्र, मन्द आदि
स्वभाव के अनुसार अपने-अपने कायं करने की विशेष सामथ्यं कौ उत्पत्ति
( अनुभाव ) होती है उसी प्रकार क म के पुदलों मे अपने कायं करने की विशेष
सामथ्यं उत्पन्न होती है । [ यही अनुमवबन्ध है) 1
परदेशावन्ध-कमं के रूप में परिणत १ लो ( 21५४५68 ) के जो
[ द्रचणुकादि ] स्कन्ध है, जिनके अनन्त स्थान हभा करते है, उनका ( अनन्त
अवयवो वाले स्कन्धों का ) अपने अवयवो मे प्रवेश कर जाना ही प्रदेशबन्ध है ।
विरोष-कु दा्॑निकों के अनुसार जो सात तच होति है उनम बन्ध
(0086) चौथा तच्व है । इसके बाद पाँचरवां तर्व संवर है जिसका वर्णन
अब किया जायगा । बन्ध चार प्रकार के है--( १ ) भ्रकृतिबन्ध ( 1.11 ५ 1।
20004828 ) जिसमे आठ प्रकार क कमं है। क्मौसे ही मनुष्य को जन्म
लेना पडता है । जैनं की कमंमीमांसा इतनी सुन्दर है किकर्मोसेहीये गोत्र,
नाम, आयु आदि भी मानते है । किसी विशेष प्रकार के कमं सेही मनुष्य की
आयु निशित होती ह, दूसरे कमं उसके गोत्र के निर्धारकं होति है । कु कमं
ज्ञान को दिप लेते दै तो दूसरे कमं मोह उत्पन्न करते है । (२) स्थितिबन्ध
(08९6 77 ए513४6ा166 ) जिसमे कोई भी स्थिर रहता है इसके दो भेद
है--परा भौर अपरा । (३) अनुमवबन्व (0689 1" (19.128) जिसमे
१६४ | सवेदशेनसंम्रहे-
किसी कायं के करने की सामथ्यं होती है, कमं के पुदरलों की अपनी शक्ति, जिससे
बन्धन रहे । (४) प्रदेशबन्ध (3011026 2 10181166) पुद्रल के इचणुकादि
अनेक अवयव वाले स्कन्धों का अपने अवयव में प्रवेश्च करने से प्रदेशबन्ध होता
है । इस प्रकार बन्ध की विचित्र मीमांसा इन लोगोंनेकीदटै। कर्मके पृद्रलों
का आस्रव ( {70२ ) जब रुक जायतो उसे संवर कहतेदहैँ। इसे ही भब
व्यक्त किया जाता है ।
( २३. संवर ओर निजेरा नामक तत्व )
ध येनात्मनि ©
आस्वनिरोधः संवरः । येनातमनि प्रविशचतकमं प्रतिषिध्यते
स॒गु्षिसमित्यादिः संबरः। संचारकारणयोगादात्मनो गोपनं
गुशिः। सा त्रिबिधा-कायवाञ्नोनिग्रदभेदात् । प्राणिषीडा-
परिहारेण सम्यगयनं समितिः । सेयामाषादिभिः पञ्चधा । प्रप-
चितं च देमचन्द्राचर्येः-
३२. लोकातिवाहिते मार्म॒चुभ्बिते भास्वदश्भिः ।
९
जन्तरक्ष्थमालोक्य गतिरीयां मता सताम् ॥
३३. अनवद्यभृतं सवंजनीनं मितभाषणम् ।
प्रिया वाच॑यमानां सा भाषासमितिरूच्यते ॥
आखव ( आत्मा का चलना, योग, 101 प्र) का निरोधो जाना
( कर्मपुद्रलो का आत्मा में प्रविष्टन होना ) संवर है । जिससे आत्मा मे घुसने-
वाला कमं रुक जाय वह गुप्ति, समिति आदि से युक्त संवर नाम का तत्व है ।
[ आत्मा में कमपुद्रलो के ] संचार अर्थात् प्रवेश का कारण जो योग
( आस्रव ) है उससे आत्मा की रक्षा करना "( गोपन ) गु्ति (0९०४०)
है ! इसके तीन भेद ह--काय-गुपति, वाक्-गुप्ति तथा मनो-गृ्ति ( निग्रह = बचना,
गुप्ति )। प्राणियों को पीडासे अपने को बचाते हए अच्छी तरह व्यवहार करना
समिति ( 11210 ००९८५०४ ) है । ईर्या, भाषां आदि इसके पांच भेद है ।
न ~
१ अनवद्यमृतं" के स्थान पर "अपद्यतां गतम् पाठ है । पद्य = पादवेधक >>
वेधक । इसलिए अपद्तां गतम्" का अथं है (अवेधकम्, वेधाजनकपू", जो किसी
को कष्टन दे! अथवा, "अपद्य' का अर्थं है गद्य 1 शद्यतां गतम्! अर्थात् गद्य के
खूप मे, पद्य के रूप में नहीं बयोकि गद्य के बोलने ओर समञ्चने मे शीघ्रता होतो
है। पद्य में वह सुकरता नहीं है । कोविल ने दूसरा ही पाठ ` आपद्येत" लिया है
जिससे विषिलिड का अथं लिया है \
आदहंत-दशेनम् १६५
आचाय हेमचन्द्र ने इसकी व्याख्या की है-- जिस मागं पर लोग खुब चलते
हों ( जिसमे बहुत कम जीव जंतु उस पर हों), सू्यंकी किरणो से चुम्बित हो,
उख पर जन्वृओंकौ रक्षाके लिए देख-माल कर चलना, सजनों के लिए
'र्यासमिति' है ( ३२ ) । अनिन्य, सत्य, सभी जनों के लिए हितकर तथा
मित भाषणा करना, जो वचन के संयमी व्यक्तियों को प्रिय लगे, वहं 'भाषा-
समितिः कहूलाती है ( ३३ ) ।'
३४. द्विचत्वारिश्ता भिक्षादोष्ित्यमद्षितम् ।
मरनियेदनमादत्ते सैपणासमितिमेता ॥
३५. आसनादीनि संवीक्ष्य प्रतिलड्ध्य च यज्ञतः ।
गरहणीया्निधिपेद्ध्यायेत्सादानसमितिः स्मृता ॥
३६. कफमूत्रमल पराये निजेन्तुजगतीतङे |
यताच्यदुत्सृजेत्साधुः सोत्सगेसमितिभेवेत् ॥
अत एव--
आखवः स्रोतसो दारं संवृणोतीति संवरः ।
इति निराहुः ।
विक्षा के बयालीस दोषों से नित्य रूप से अदूषित ( मुक्त ) अन्न को मुनि
लेता ह, वही पषणासमिति कहलाती है ( ३४ )। आसन आदि को अच्छी
तरह देवकर यन्नपूवंक उस पर बैठकर ग्रहण करना, रखना तथा ष्यान करना-
यह आदान समिति कही जाती है (३५) । जन्तु से रहित पृथ्वी पर यज्नपूरवंक
{ सावधानी से ) कफ, मल, मूत्र, प्राय ( नासिकामल ) को जो साघु छोडता
है वही उत्सं समिति है ( ३६ )। इसलिए--आल्लव सोत ( ८17९ ) का
दरधाजा है, उसे जोक देताहै (सम् वृ) वही संवर है।' इस प्रकार
निव॑चन ( 51010 ) दिया गया है ।
तदुक्तमभियुक्तः--
३७. आसवो भवहेतुः स्यात्संवरो मोक्षकारणम् ।
इतीयमारैती सृष्िरन्यदस्याः प्रपञ्चनम् ॥
जैसा कि विद्वानों ने कहा है-संसारमें आने का कारण आखव है ओौर
मोक्ष काकारण है संवर; यही जनों के सिद्धान्त का संक्षेप ( सृष्टि = सार ) है,
्ेष वातं इस का विस्तार ( प्रपंच ) मात्र है।
सबेदशेनसंम्रहे-
( २३ क. निजेरा )
अजितस्य कर्मणस्तपःप्रमृतिभिनिजेरणं निजेराख्यं त्म् ।
चिरकालग्रवृत्तकषायकलापं पुण्य सुखदुःखे च देहेन जरयति
नाद्ययति । केयोर्लश्चनादिक तप उच्यते। सा निजेरा दिविध
यथाकालोपकरमिकमेदात् । तत्र प्रथमा यस्मिन्काले यत्कमं
फलग्रदतेनाभिमतं तस्मिन्नेव काले फलदानाद् भवन्ती निजेरा
कामादिपाकजेति च जेगीयते । यत्कमं तपोबलात्स्वकामनयो-
द्यावसिं प्रवेश्य प्रपद्यते सौपक्रमिकनिजेरा । यदाह--
३८. संसारबीजभूतानां कमणां जरणादिह ।
निजरा संमता दधा सकामाकामनिजरा ॥
३९. स्म्रता सकामा यमिनामकामा त्वन्यदेदिनाम् ॥ इति ।
जो कमं अजित किया गया हो उसे अपनो तपस्या इत्यादि ( = व्यान,
जप) से नष्ट कर देना 'निजंरा' नामक त्त्व है। बहुत दिनों से प्राप्तक्िये हए
कषाय ( कमं ) समूह से उत्पन्न पुएय ( }161) ) तथा सुख ओर दुःख को
ओ यह ( तच्व ) देहसे ही {नष्ट करता है ( जरयति = ८ज्)। केशो को
उखाडना आदि तप कहलाता है ।
यह निर्जरा दो प्रकार की है--यथाकाल भौर ओपक्रमिक । पहली
( यथाकाल नजरा ) वह् है जब किसी काल में कोई कमं फलदायक समक्ष
जाता है (या अभीष्ट होता है) तब उसी काल में फल देने के बाद उत्पन्न होने
वाली निरा, कामनाओं की पूर्ति के बादभी होती है। [ अभिप्राय यहं है
किं कमं का किसी कालविशेष मे फलोत्पादन के पश्वात् नष्ट हो जाना यथाकाल
( गण्गा ) निजरा है । ] लेकिन जब तपोबल द्वारा अपनी इच्छा से
उदयावस्था मे क्म को लाकर [ नष्ट किया जाय] वह् ओौपक्रमिक ( प्रल्वणप्णष
९01४8) निजैरा है । जैसा कि कहा है--संसार ( आवागमन ) के कारण-
स्वरूप जो कमं है उनके विनाश से निजरा होती है जिसके दो भेद है--सकाम
निरा ओर अकाम निजरा। सकाम ( ओपक्रमिक ) निर्जरा यम धारण
करनेवाले ( तपस्वियो ) की होती है, दूसरे प्राणियों की अकाम ( यथाकाल,
अपने आप होनेवाली ) निर्जरा होती है 1"
४ &
आहेत-दरानम् १६७
( २४. मोक्ष का विचार )
[क ¢ क ॐ निरोषेऽ क
मिथ्यादशेनादीनां ` बन्धदेतुनां भेनवकमोभावा-
नि्रादेतसंननिधानेनाजितस्य कमेणो निरसनादात्यन्तिककमे-
् ० ¢ $ कत्छकमेविप्र
मोक्षणं मोक्षः । तदाह--बन्धहेत्वभावनिजराभ्यां इत्छकमाबन्र
मोक्षणं मोक्षः ( त° सू° १०।२ ) इति । तदनन्तरमूष्वं गच्छ-
त्यालोकान्तात् ( त° घ १०।५ , ।
मिथ्याद्च॑न ( 4138 1110 १160९8 ) आदि बन्ध के कारणा है, उनका
निरो ( संवर ) कर लेने पर नये क्म का अभाव होकर, निजंरा-रूपी कारण के
संपकं से पूरवोषःजित कर्मा का विनाश हो जाता है, तब सब प्रकारके कर्मोसे
लदा के लिए ( आत्यन्तिक = पूं ) मुक्ति मिल जाती है, यही मोक्ष है। कहा
है--बन्ध के कारणो का अभाव ( संवर ) तथा नि्ज॑रासे सभो कर्मोसे बच
जाना मोक्ष है ( त° सू० १०।२ ) उसके बाद प्राणी ऊपर ही चला जाताहै
जब तकं लोक का अन्त न मिल जाय ( त° सू० १०।५ )।
विर्नोष-जेन लोग मोक्षके दो कारण मानते ह - संवर ओौर निर्जरा,
संवर से आस्रव ( कर्मोदय ) सकता है, नये कमं उत्पन्न नहीं होते । निजंरासे
अजित कर्मो का भरडार भस्म॒ कर दिया जता है। इस प्रकार कर्मो के बन्धन
से बिल्कुल निकल जाना मोक्ष है । इसके विपरीत कम॑संपृक्त होना बन्व है
मोक्ष होने पर प्राणी ऊपर की ओर उठता-उठता लोकों को पार करके सबसे
ऊपर पटच जाता है ।
यथा हस्तदण्डादिभ्रमिग्रेरितं इलालचक्रमुपरतेऽपि तर्सिमि-
सतद्ललादेवासंस्कारषय भ्रमति, तथा भवस्थेनात्मनापवगप्राष्षये
बहो यत्तं प्रणिधानं शक्तस्य तदमाविऽपि पूवेसंस्कारादा-
लोकान्तं गमनघुपपद्यते । यथा वा मृ्तिकालेषकृतगोरवमला-
दर्यं जलेऽधः पतति, पुनरपेतमृत्तिकावन्धमूध्वं गच्छति, तथा
कर्मरहित आत्मा असङ्गत्वाद्ष्वं गच्छति । बन्धच्छेदादेरण्ड-
बरीजवचचोध्वं गतिस्वभावाचाभ्रिशिखावत् ।
जैसे हाथ ओर डरडे से गोलाकार चुमाया गया कुम्भकार कां चाक ( चक्र)
[ शरमाने वाले हाथ ओौर णड की क्रिया ] बंदहो जनि पर भी, उसके बल स
ही, संस्कार ( 11006पध्पा ) क्षीण न होने के कारण, घूमता ही जाता है,
१६८ ` सबेदशंनसंग्रहे-
उसी प्रकार संसारम स्थित ( बद्ध अवस्थामे) आत्माने अपवगं ( मोक्ष
1.106.800 ) की प्राप्ति के लिए करई बार जो योग ( प्रणिधान ) किया था,
अब मुक्तहो जाने पर उस ( प्रणिधान ) के अभावमें भी पहले संस्कारसे
लोक के ऊपर तक चली जाती है--यह सिद होता है। अथवा जेते मिदरीका
कालेप करके भारी बनाया गया लौकी का तुम्बा ( सूखी खोखली लौकी
[07 0० ज &०पात को्रनो ५€ ६8९९४९8 ८७९ ) पानी में नीचे गिरता
जाता है, लेकिन जब [ पानी में मींगनेसे ] मिरी का बन्धन च्ूट जाता है तव
ऊपर चला आता है-उसी प्रकार कमंसे रहित होकर आत्मा बिना किसी संग
के कारणा ऊपर जाती है। बन्धन का नाश होने से रंडके बीज क्री तरह, [ जैसे
रंडके बीज का कोरा द्रूट जाने पर वह ऊपर छिटक जाता है ? ] या अ्चििखा
की तरह अपनी ऊष्वंगाभिनी प्रकृति के कारण [ आत्मा ऊपर जातौ है ]।
अन्योन्यं प्रदेश्ानुप्रवेशे सत्यविभागेनावस्थानं बन्धः।
परस्परप्रा्िमात्रं सङ्गः । तदुक्तं, पूवप्रयोगादसङ्गत्वाद्वन्धच्छे-
दात्तथा गतिपरिणामाच्च ( त० घछू° १०।६ )। आविद्धकुलाल-
चक्रवद्व्यपगतलेपालावुवदेरण्डबीजवदभिशिखावच ८ त० परू
१०।७ ) इति । अत एव पटन्ति-
४०, गत्वा गत्वा निवतन्ते चन्द्रसूयोदयो ग्रहाः ।
अद्यापि न निवतन्ते तवलोकाकारमागताः ॥ (प, न.) इति।
परस्पर एक दूसरे के प्रदेश मे ( = आत्मा भौर शरीर द्वारा ) प्रवेश करने
पर अविभक्त ( {10418108} €त ) कूप से रहना बन्ध है । एक दूसरे
का केवल संपकं होना संग है। यह कहा है- पूवं ( संस्कार) के प्रयोग से,
संगन होने से, बन्धका नाड हो जाने से तथा अपनी गतिकेप्रस्फुटन से [ अत्मा
की गति ऊपर कीओरहोतीहै]; श्मणका संस्कार पाये हए ( आबिद्ध)
कुम्हार के चक्षे की तरह, लेप द्ूट जाने से लौकी की तरह, रंड के बीज की तरह
तथा अभि की शिखा कौ तरह [ यह गति होती है ]--( त° सू० १०।६-७ ) ।
इसलिए { आचायं पद्मनन्दी ] पृते है-- चन्द्र, सूयं आदि ग्रह तो जा-जाकर
लौट अतिहै, लेकिन लोकसे परे जो आकाश है उसमें गये हए लोग आज
तक नहीं लौटे ।*
अन्ये तु गतसमस्तद्धेशतद्रासनस्यानावरणज्ञानस्य सुखेक-
तानस्यात्मन उपर्िश्चावस्थानं भुक्तिरित्यास्थिषत । एवमुक्तानि
[=
आर्हत-दशेनम् १६६
खखदुःखसाधनाभ्यां पुण्यपापाभ्यां सहितानि नव॒ पदाथो-
केचनाद्गीचक्रः । तदुक्तं सिद्धान्ते जीवाजीवौ पुण्यपापयुता-
बावः संबरो निर्जरणं बन्धो मोक्षश्च नव तच्वानीति । संग्रहे
मरवृत्ता वयञुपरताः स्मः ।
दूसरे लोग कहते ह कि सभी ङगेशो ओर उनकी वासनाओं के नष्ट हो जाने
पर, ज्ञान के आवृत ( हकना) न होने पर ( प्रकट ज्ञान रहने पर ), एकमात्र
सुख से भरी हुई भरमा का ऊपर क देश म अवस्थित होना ही मुक्ति है ।
कितने लोग ऊपर कहे गये | सात तच्वों मे ] सुख भौर दुःख के कारणः
स्वरूप परय ओौर पाप । दो ओर पदार्थो को ) जोड कर कुल नव पदार्थं मानते
ह । सिद्धान्त [ नामकं ग्रन्थ | मेँ कहा गया है कि पुण्य ओौर पाप से संयुक्त
जीव ओर अजीव ( १-४ ), आसव (५), संवर (६) निर्जरण ( ७ ), बन्ध
( ८ ) जोर मोक्ष ( ९ ) ये नव तत्व है । चूंकि हमारा लक्ष्य सारका संग्रह
( प्रप फ़ ) करना है, इसलिए अब [ विस्तार ] छोड दं ।
वि्तेष--माधवाचायं सर्वदर्लनसंग्रह का लक्ष्य ( ००९५४ ) यहाँ बतलाते
ह करि इस ग्रंथ में विस्तृत प्रमेयो का संकञेप मे वर्णन किया गया है । व्याख्या
तैली नहीं अपन।कर माधव ने समास-दौली अपनाई है । संग्रह का लक्षण है-
विस्तरेणोपदिष्टानामर्थानां तस्वसिद्धये ।
वमासेनाभिधानं यत्संग्रहं तं विबुधा; ॥
अब जनों का न्यायञ्चाख्र आरम्भ होता हे जिसमे सुप्रसिद्ध सप्तभङ्खी-नय
(3९१०-० ९०४०९९१ 8110) या अनेकान्तवाद की प्रतिष्ठा होती है ।
( २९५. ज्ञेन न्यायश्ाख्र-सक्तमङ्गीनय )
अत्र सर्वत्र सप्तमङ्गिनयाख्यं न्यायमवतारयन्ति जनाः ।
स्यादस्ति, स्यास्ति, स्यादस्ति च नास्ति च, स्यादवक्तव्यः,
स्यादस्ति चावक्तव्यः; स्यान्नास्ति चावक्तव्यः, स्यादस्ति च
नास्ति चावक्तव्यः इति ।
जेन लोग सरव॑त्र सप्तभङ्गी -नय नामकान्याव् ( 1 0! ) उपस्थित करते
ह । [ इसके सात निभ्नाकित रूप है--] ( १) व्यादस्ति--किसो प्रकार टै, (२)
स्याज्ञास्ति-- किसी प्रकार नहीं है, (२) स्यादस्ति च नास्ति च-किंसी प्रकार
है मौर नहीं है, ( ४ ) स्यादवक्तव्य „किसी प्रकार अवर्णनीय दै, ( ५) स्यादस्ति
क्षै
चावक्तव्यः--किसी प्रकार है ओर मवणनीय है ( ६ ) स्यान्नास्ति चावक्तव्यः
१७० सबंदशनसंग्रहे-
किसी प्रकार नहीं है ओौर अवर्णनीय है, (७) स्यादस्ति च नास्ति चावक्तव्य -
किसी प्रकार है, नहीं है ओर अवर्णनीय है। |
विरोष- जेन न्यायश्चाख्र मे परामश सात वाक्यो केरूपमें होता है इसे
सप्तभङ्खी न्याय (या नय) कहते हैँ । भङ्ग का मधं समुच्चय ((0फणं8४0प)
है इसलिए जिसमें अस्तित्व ( 2081४176 शार ) नास्तित्व ( 1५९९81१९
शाप्त) आदि का एक साथ ही समुच्चय होता है वह सत्तमङ्कि (न् )--
नय” कहलाता है । सात प्रकार से कहने की रीति ( भंगी, भंगिमा)से भी
इसे यह् नाम पड़ सकता है । सांख्य आदि सात दाश॑निकों के द्वारा प्रतिपादित
एकान्तवाद का भंग ( मेल ) करके अपने अनेकान्तवाद की जड़ मजबूत करने
के कारणा भी इसे सप्तभद्किनय कहा जाना संभव है। इसकी तीन तरह
की लेखनशेली है-सपतमङ्खनय, सप्तभङ्किनिय तथा सप्तमङ्गीनय ( समाहार
द्विगु )।
जेन लोगों के अनुसार किसी वस्तुका ज्ञान पूरानहीं है। किसी वस्तुके
कई पटल ह, उनमें सबोंका एक साथज्ञान प्राप्त करना केवल ज्ञानसेही
संभव है, सामान्य ज्ञान से नहीं। हमारा ज्ञान एकांगीही हो सकता है क्योकि
हम अपणं जीव ह । सभो दाशंनिकों मे विवादका यहीकारण है। परमार्थं
के केवल एक पक्ष का अवलोकन कर सकनेके कारणावे केवल एक विशिष्ठ
पक्ष को ही जान सकते हँ । इसे जेन लोग "नयः कहते ह--एकदेशविशिष्टोर्थो
नयस्य विषयो मतः ( न्यायावतार २९)। इसलिए सभी ज्ञान ज्ञाता के
हृष्ठिकोणा तथा ज्ञान के पहलू से प्रभावित रहते है । वहीं तकं उसकी सत्यता
सिद्धहै--कोई ज्ञान सर्वतोभावेन सत्य नहीं है ( ० १०५1९१९९ 18
१ प्€ 10 81] 108 8806018 ) । ज्ञान कौ इस सीमा पर ध्यान नहीं रखकर
लोग अपने विचार प्रस्तुत करते हैँ) यहाँतकतो बात ठीक है. पर जब हम
अपने ज्ञान को ही एकमात्र सत्य मानते हतो परमार्थं की हत्या-ीदहो जाती
है । हाथी को देखकर कई अंधो के विभिन्न विचारोके व्यक्त होने की कंहानी
हम जानते हैँ । यही दश्च विभिन्न दाशचंनिकों की है। जेन-दार्चंनिक इस तथ्य
से पूर्णतः अवगत हँ ओर सभी निर्णयो को सपक्ष माननेके पक्षमेंदह।
तदनुसार कोई ज्ञान स्वतंत्र नहीं है, अपने दृष्टिकोण, पहलू आदि के अधीनं
है । अतएव अपने सभी निर्णयो के पूवं सापेक्षता का सूचक कोई शब्द लगाना
परम आवद्यक है । इसका फल यह होता है कि इस निणंय को सीमित तथा
अन्य निणंयों को संभावित कियाजा सकताहै। वह् प्रसिद्ध शब्द है--स्यातु
अर्थात् किसी प्रकार \ स्यात् अस्ति घटः' कहने से यह् पता लगता है कि एक
पक्ष से देर, काल, पात्र, गुण आदि का विचार करके हम घट कौ सत्ता मानते
आहंत-दशेनम् १५१
है, घट के दूसरे पक्षो - जैसे नास्तित्व आदि कौ भी संभावना (20880111 )
रह जाती है । यही प्रसिद्ध सिद्धान्त है-- स्याद्वाद ।
“स्यात्" शान्द सापेक्षता ओर अनेकान्तता का द्योतक है । प्रत्येक निर्णय के
पूवै इसे लगाना आवद्यक है। यदि किसी वस्तु को अस्ति" कहते दहै, तो
देश, काल, भाव, वेण जादि से उसका विरोध होता है। अतः दोनों प्रकार
( विधि-निषेध ) के पराम इसमे लगेगे 1 पटने मे वसन्त ऋतु मे विद्यमान्
लाल रेशमी साडी का उदाहरण सं । द्रव्यतः वह रेशमी रूपमे है, सुती मे
नहीं । देशतः, पटने मे है, गया आदि में नहीं । कालतः वसंत ऋतु में है, शीत
मे नहीं । व्ण॑तः लाल रंगमे है, पीले आदि मे नहीं । अपने द्रव्यादि रूपमे षै,
परकीय में नहीं- इसलिए एक हौ साथ विभि ओर निषेध दोनों होते जो
अनिश्वयावस्था ( अनेकान्तवाद ) को सूचना देते है। एकान्तवाद का अथं है
निश्वय । अनेकान्तवाद में किसी वस्तु की सत्ता या असत्ता का निश्चय
नहीं रहता ।
जनों के अलावे सभी एकान्तवादी ह जो अपने मत को निश्वयात्मक मानते
है।वे सात प्रकार के टै, इसका भग करने से भी जेनन्याय स्भङ्खन्याय
कहलाता है । ( १) सत्कायंवादी सांख्य लोग पदाथौ की सदा ही सत्ता मानते
ह । (२) शन्यवादी बौद्ध ( माघ्यमिक ) पदार्थो को असत्ता ही स्वीकार
करते ह । ( ३ ) असत्कार्यवादी नैयायिकं लोग उत्पत्ति के पूवं पदाथं का
अभाव, उत्पत्ति होन पर भाव तथा नाय होने पर पुनः अभाव मानते हये
कालभेद से सत्ता ओर असत्ता स्वीकार करते है, ैनोंकी तरहएकही
साथ नहीं । (४) संसार क्रो माया का उपादान मानने वाले शांकरवेदान्ती
पदार्थो कौ अनिवंचनीयता ( 17668010891]} प ) मानते है । मामा से
उत्पन्न वस्तुं प्रतीतिकाल में भी नहीं हैः इस खूप में बाद में बाधित
हो जाही ह । सत्व क्रो अवस्थामें ही पदाथं असत् है। नतो अस्तित्वहैन
नाभ्तिस्व--अतः दो विरोषि्यो का वणंन कटिन होने से अवाच्यता सिदध है ।
(५) कुछ मायाको मानने बाले ही वेदान्ती सांख्योक्त पदार्थो को सत्ता
स्वीकार करके भी मायासे संसार की अनिर्वाच्यता मानते है । (६ ) कछ
मायविदान्तौ शन्यवादोक्तं पदार्थो का नास्तित्व मानकर भी माया इत
अनिर्वाच्यता स्वीकार कर ते है। (७) अंतमे कु वेदान्ती नैयायिक
आदि कै प्रतिपादित खच्वासतव के साथ मायिक अनिर्वाच्यता मानते ई ।
चे सातो एकान्तवादी वस्तु का एकपक्षीय विचार ग्रहण करते है, जेन
इनमे "स्यात्" शब्द लगाते है । सांख्यो का कहना कि “घट है ठीक है, पर
यह निश्चित सत्य नहीं है--इसमे स्यात् (किसी प्रकार ) लगाने पर ठीक
१७२ सवेदशनसंम्रहे- `
विचार संमव हे। जेनोंकी इष्टि बहत उदार है जिससे वे प्रत्येक मत का
'स्यात्' लगाकर स्वागत करते हँ ।
तत्स्वमनन्तवीर्यः प्रत्यपीपदत्-
ॐ गतिभं
४९१. तदिधानविवक्षायां स्यादस्तीति वेत् ।
स्यान्नास्तीति प्रयोगः स्यात्तन्निपेधे विवक्षिते ॥
४२. क्रमेणोभयवाज्छायां प्रयोगः समुदायभाक् ।
युगपत्तद्विवक्षायां स्यादवाच्यमशक्तितः ॥
४२. आद्यावाच्यविवक्षायां पञ्चमो भङ्ग इष्यते ।
अन्त्यावाच्यषिवक्षायां पष्ठ भङ्गसयुद्धवः ॥
४४. समुचयेन युक्तश्च सप्रमो भङ्ग उच्यते । इति।
इस पूरे ( नय ) का प्रतिपादन अनन्तवीयंने किया है--करिसी वस्तुका
विधान ( ^ पिषा९०) ) करने कौ इच्छा होने पर “किसी प्रकार है" इस
तरह कौ गति ( नय ) होती है । यदि उसका निषेध ( }५९@४101) ) कहना
अभीष्टहो तो किसी प्रकार नहींहै' एेसा प्रयोग होता है। क्रमशः अब यदि
दोनो कहने की इच्छाहो तो दोनोंका समुदाय ( (01108४०) ) लें
| स्यादस्ति च नास्ति च । | जब दोनों को एक साथ कहना हो ओर [ विरोध
होनेके भयस एसा कहना ] संभव नहीं हो तो “किसी प्रकार अवाच्य है"
एसा कं । प्रथम (भंग ) के साथ अवाच्य कहने की इच्छा हो तो वह पंचम
भंग होता है| स्यादस्ति चावक्तव्यम् ]। दूसरे भंग को अवाच्य से मिलान
पर षष्ठ भग उत्पन्न होता है--[ स्यान्नास्ति चावक्तव्यम् ]। सों के समुचय
ते बना हा भंग सातवां है-[ किसी प्रकार है, नहीं है ओौर अवक्तव्य है | ।
स्याच्छन्द्ः खल्वयं निपातस्तिडन्तप्रतिरूपकोऽनेकान्तचयो-
तकः । यथोक्तम्--
४५. वाक्येष्वनेकन्तद्योती गम्यं प्रति विशेषणम् ।
स्यानिपातोऽथंयोगित्वात्तिडन्तप्रतिरूषकः ॥ इति ।
यदि पुनरेकान्तद्योतकः स्यच्छब्दोऽयं स्यात्तदा स्याद-
स्तीति वाक्ये स्यात्पदमन्थकं स्यात्। अनेकान्त्योतके तु
स्यादस्ति _ कथंचिद्स्तीति स्यात्पदात्कथंचिदित्ययमर्थो रभ्यत
इति नानथेक्यम्। तदाद-
त का ति - दधद ४१ ~
व =
"ज्वर
~~ क =
~ ` द्ध न -
{१ + छ
आहेत-दशेनम् १७३
४६, स्याद्वादः सर्वथैकान्तत्यागाक्किवृत्तचिद्विधेः ।
सप्रभङ्धिनयपेक्षो हेयादेयविशञेषढ़ृत् ॥ इति ।
“स्यात् ( किसी प्रकार 9०00९70 ) यहं शन्द एक निपात ( अब्यय
1281646 ) है जो तिडन्त (क्रिया ) के रूपमे है ( ./अस् + विधिलिङ् )
तथा अनिश्चय का द्योतक है। जेसा किं कहा गया है-- "वाक्यो मे अनेकान्त
( अनिश्चय ) को व्यक्त करनेवाला, गम्य (चिचेय {२९५।५९४९, जेसे--अस्ति)
के प्रति विक्ञेषण काकाम करने वाला, यह स्यात् निपात हैजो सार्थक होने
के कारण (अथंयोगित्वातु ) क्रिपा के रूपम है ।' अभिप्राय यह है कि श्यात्,
सार्थक है, क्रियापद की तरह देखने मे लगता ह, अनिश्चय का व्यंजक है तथा
जपने विषेय "अस्ति" आदि शब्दो का विशेषणा बन जाता है। |]
यदि (स्यात्" शब्द एकान्त या निङ्वय का बोघ कराता तो स्यादस्ति
इत्यादि काक्यो मे “स्यात् शब्द निरर्थक होता [ साथंक नही; क्योकि "स्यादस्ति
ते निर्वयार्मक अथं ग्रहण करने पर अस्ति' पद काही अर्थंहो सकता है;
स्यात्" का नहीं, वह निरर्थक हो जायगा । ] किन्तु यदि स्यात्" को अनेकन्त
( अनिश्चय ) का बोधक माने तो “स्यादस्ति का अर्थं "कथंचित् अस्ति" { किसी
प्रकार है ) होता है जिसमें 'स्यात्' का अथं कथंचित्" ( किंसी प्रकार ) लेते है
जजर निरथंकता नहीं रहती । ( श्यात्" का अथं कु हौ जाता हि, बेकार इसका
प्रयोग नहीं है । अतः “स्यात्' कौ सार्थकता इसकी अनेकान्तबोधकता पर है ) ।
कहा है-^स्याद्राद का सिद्धान्त सब प्रकार से एकान्त ( निश्चय करने
वाले ) सिद्धान्तो को छोड़ देने पर, किम्" शब्द से निष्पन्न ( = कथम् < किम्)
शब्द मे "चित्" शब्द का विधान करने पर ( कथंचित्" अथं धारण करके ),
सप्तभङ्खीनय कौ अपेक्षा रखकर देय ( त्याज्य ) ओौर आदेय ( ग्राह्य = अस्ति +
नास्ति ) रूपी विकेषों से युक्त होता है ।" [ त्याज्य = नास्ति, ग्राह्य = अस्ति,
चे दोनों विकल्प तभी संभव है जब वस्तु का स्वरूप अनिशितदहो। इसे अब
ओौर स्पष्ट करंगे-- |
¢ ¢
यहि वस्त्वसत्येकान्ततः सरवेथा सर्वदा सत्र सबोत्मनाऽ-
स्तीति नोपादित्साजिहासाम्यां क्चित्कदाचित्केनचिस्परवर्तेत
निवर्तेत वा । प्रापषप्रापणीयत्वादहेयहानाजुपपत्तेशच । अनेकान्त
पञ्चे त॒ कथंचित्कचित्केनचित्सत्वेन हानोपादाने प्रेक्षावताघुप-
पद्येत ।
[=
१५४ सबेदशनसंम्दे-
यदि वस्तु एकान्त या निश्चित रूप से है ( अनेकान्त नहीं है ), तब सब
` प्रकारसे, सदा के लिए, सब जगह, सब लोगो के साथ है; तब तो ग्रहण या
त्याग करने कौ इच्छा से कहीं, कभी, या कोई न प्रवृत्त ही होगा मौर न निवृत
होमा [ क्योकि वस्तु सवो के साथ है पाने क क्या जरूरत ? याफिर छोड़ना
कैसे ? अतः सभी दृष्टिकोणों से हम "अस्ति" नहीं कह सकते--एक दृष्टिकोण
से कह सकते है कि यहाँ वस्तु है, पर वस्तु हः कहने का अथं होगा कि यह्
सवं, सर्वदा, सवंथा ओर सर्वात्मना है । ] प्राप वस्तु प्रापणीय ( पाने योग्य )
नहीं हो सकती तथा अहेय वस्तु की हानि भी संभव नहीं । [ जो वस्तु पहले से
नहीं मिली है वही प्राप्य हो सकती ह, प्राप्त वस्तु प्राप्य क्या होगी ? उसी
प्रकार जो वस्तु त्याज्य है उसी का त्याग भी होता है, अत्याज्य का नहीं।
सर्वत्र, सवंथा "अस्ति" माने जाने पर त्याग भौर ब्रह का प्रन ही नहीं
उठ सक्ता । |
किन्तु यदि अनेकान्तपक्ष मानं तो किसी प्रकार ( किसी दृष्टिकोण से };
कहीं, किसी जीव के दवारा त्याग ओर ग्रहण होगा--ेसा विद्वान् समञ्च सकते
ह । [ जब वस्तु सदा नहींहै, एक ही दशा में है तो उसक्रा त्याग ओौर ग्रहण
संभव है--एक समय में त्याग, दूसरे में ग्रहण | ।
किं च वस्तुनः सं स्वभावः, असं बा इत्यादि प्रष्टव्यम् ।
न तावदस्तित्वं वस्तुनः स्वभाव इति समस्ति । घटोऽस्तीत्यनयोः
पर्यायतया युगपत्प्योगायोगात् । नास्तीति प्रयोगवरिरोधाच ।
एवमन्यत्रापि योज्यम् । यथोक्तम्-
४७, घटोऽस्तीति न वक्तव्यं सन्नेव हि यतो घटः ।
नास्तीत्यपि न वक्तव्यं विरोधात्सदस्वयोः ॥ इत्यादि ।
इसके अलावे पूना चाहिए कि वस्तु कौ अपनी प्रकृति क्या है, सत् होना
या असत् होना ? एेसा नहीं कह सकते कि अस्तित्व ८ 1{8-11688 ) ही वस्तु का
स्वभाव है, क्योकि "घटः अस्ति ( चड़ है)" इस वाक्य मे "घटः" ( = वस्तु
का अस्तित्व ) ओर अस्ति, ( प्रत्यक्ष रूप से अस्तित्व ) इन दोनो दब्दों का एक
साथ इसलिए प्रयोग नहीं हो सकता कि ये पर्यायवाची हो जार्येगे 1 यदि
[ घटः ] नास्ति = वडा नहीं है' एेसा कँ तो प्रथोग से असिद्ध होगा
[ आदय यह है कि घट का अथं सत् या असत् दोनोंमे से कोई एकहीहैः
यदि सत् अथं है तो "सत् ( = घटः ) अस्ति कहने मेँ पुनरुक्ति होती है। यदि
असत् अथं है तो असत् ( घटः ) अस्ति" कहना अव्यावहारिक है । |]
[क = ,
आहेत-दशेनम् १७५
इसी प्रकार दूसरे स्थानों मे भी समभे । जसा कि कहा हैः--"वड़ाहै,
रेसा नहीं कहना चाहिए क्योकि "घट" मे सत् का बोध हो ही जाता दहै; नहीं
है" एेसा भी नहीं कह सकते क्योकि [ “घटो नास्ति" इस वाक्य मे | सत् ( घटः )
ओर असत् के एक साथ रहने से विरो होगा ।'' |
तस्मादित्थं वक्तव्यम्--सदसत्सदसद निवेचनीयवादभेदेन
गरतिवादिनशतिधाः । पुनरप्यनिवेचनीयमतेन मिश्ितानि
सदसदादिमतानीति त्रिविधाः । तान्प्रति कि वस्त्वस्तीत्यादि
पर्यनुयोगे “कथंचित्तदस्ति' इत्यादि प्रतिवचनसंमवेन ते बादिनः
स्वै निर्विण्णाः सन्तस्तृष्णीमासत इति संपूणोथबिनिशवायिनः
सयादवादभङ्गी कुवैतस्तत्र तत्र॒ विजय इति सवेशुपपन्नम् ।
यदवोचदाचा्ैः स्याद्रादमज्ञयाम्-
५८. अनेकान्तात्मकं वस्तु गोचरः सवसंबिदाम् ।
एकदेकविशिष्टोऽर्थो नयस्य विषयो मतः ॥
४९. न्यायानामेकनिष्ठानां प्रत्तौ श्रुतवत्मेनि ।
संपूणोर्थविनिश्चायि स्याद्रस्तु श्रुतमुच्यते ॥ इति ।
इसलिए एेसा कटे- सत्, असत्, सदसत् ओौर अनिवंचनीय सिद्धान्तो (वादो)
को मानने कै कारण विरोधियो के चार प्रकार ह । फिर, अनिर्वंचनीय-सिद्धान्त
के साथ सत्, असत् आदि [ पूर्वोक्तं तीन | मतो को मिला देने से उनके तीन
ओर भी प्रकार होति दहै। वे जब पूदधे कि वस्तु क्वा है, तब “किसी प्रकार वह
है" इत्यादि प्रत्युत्तर देना सं मव है इसलिए वे विरोधी-वादी लोग सवके शव
शान्त हो जाति है, बौर वस्तु के सभी पक्षो पर विचार करके “स्याद्वाद को
स्वीकार करने बाले की उन सभौ जगहों मे विजय होती है, यह पूणंरूप से
सिद्ध हो गया ।
स्याद्राद्मंजरी मे आचायं ( मह्लिषेण १२९२ ई० } ने कहा है-सभी
ज्ञानो ( अस्ति, नास्ति आदि ) का विषय बनने बाला पदार्थं अनेकान्तात्मक
( अनिश्वित ) दै; किन्तु नय (न्याय) का विषय बननेवाला पदार्थं एक ही
देश ( .8[९०४ षह, पक्ष ) से विभूषित रहता है। [नयमे किसी एक
पक्षस भी काम चल जाता है जैसे -घटः अस्ति, वटो नास्ति। किन्तु समी
ज्ञानो का विषय बनने के लिए, जिससे वस्तु के सभी पक्ष मादरम हो जाये, एक
प्ल या देश से काम नहीं चलता । उसके लिए वस्तु को अनेकान्त
१५६ स्वदशेनसंग्रहे-
( अनिश्यात्मक ) मानना पड़ेगा । भावात्मक हप से ( 0७४१९] ` स्नु के
विषय मेँ कुछ कह ‡ना उसे सीमित करके अपने दृष्टिकोण का उस पर आरोपण
कर देना है। इसलिए सुभग मागं है कि उसे अनेकान्तात्मक मानें जिसके
अन्दर सारे पक्ष चि हों । |'*
¶{ वस्तुके | एक ही | पक्ष 8319९6४ ] पर आधारित अनेक न्याय जव
प्रमारकोटि मे प्रवृत्त हो ( प्रामाणिक होना चाहते हों) तब संपूण अर्थो
( &]। 98९8 ) का निचय करनेवाला “स्यात् [शब्द से विशिष्ट बट आदि
वदाथं प्रामाणिक ( श्रुत ध्णछकणाः फ़ ) समज्ञा जाता है1
५०, अन्योन्यपक्प्रतिपक्षमावाद् यथा परे मत्सरिणः प्रादाः ।
नयानलेषानविश्ेषमिच्छन् न पक्षपाती समयस्तथाहतः ॥
( हेमचन्द्रकत दवितीयदरर्रिशिका वी° स्तु० शछो° ३० )
जिस प्रकार दूसरे [ देनो के ] सिद्धान्त एक दूसरे को पक्ष ओर प्रतिपक्ष
बनाने के कारण मत्सरतासे भरे हए है; उस प्रकार अहंनमूनि कां सिद्धान्त
पक्षपाती नहीं है क्योकि यह सारे नयो ( 20०७४००8 ) को बिना भेद-
माव के ग्रहण कर लेता है,
विरोष पक्ष = अपना सिदधान्त । प्रतिपक्ष = विरोधि्यो का सिद्धान्त ।
चश्य के लिए सत्का्ंवाद पक्ष है, असत्कायवाद प्रतिपक्ष । दूसरे दा्ंनिकों के
सिद्धान्त पक्षपाती ह क्योकि वस्तु के किंसो एक पहर का विचार प्रसृत करते
है, सर्वागपुणं विचारवे नहीं करते । रसा करना असंभव भौ है । जेनों का
सिद्धान्त इस पचडेसे दूर दहै, किसी पक्ष का आश्रय ^ लेकर सभो पक्षो को
स्वीकार करता है 1 जनों का दृष्टिकोण बहुत उदारवादी है, किसी प्रकारका
ञद-माव न मानकर सभी पक्षों को समान रूप से देखते ह । यही कारण हें कि
अनेकान्तवाद स्वीकार किया जाता हे ।
न
८ वको की तीन कोटियं ह--दनंय, नय ओौर प्रमाणं वाक्य । "वटः
अस्ति एव" दुर्नय है क्योकि यद् मिथ्या है। "नास्तित्व' आदिके होति हुए भी
उन्हे छिपाकर अस्तित्व, पर जोर देना मिथ्यारूप है । "घटः अस्ति" नय है ।
यह दनय नहीं है कयोकि नास्तित्व जादि को यह् छिपाता नहीं. बल्कि उनके
प्रति उदासीनता ({00{{७००५९) दिलाता हे । यह प्रमाण भी नहीं क्योकि
स्यात्" का प्रयोग नहोनेसे दूसरे धर्मो ( नास्तित्वादि ) को सूचना नहीं
मिलती । स्यादस्ति, प्रमाणा वाक्य है। नय के विषय मे देवसूरि का कहना
है--नीयते येन श्रुताख्यप्र माणविषयीकृतस्य अर्थस्य अंशतः तदितरांशौदासीन्यतः
स प्रतिपत्त॒रभिप्रायविशेषो नयः । ( भम्य॑° ) |
आहंत-दशेनम् १७७
( २६. जनमत-संग्रह )
` जिनदत्त्ररिणा जेनं मतमित्थयुक्तम्-
५१, बलमोगोपभोगानामुभयोदोनलामयोः ।
अन्तरायस्तथा निद्रा भीरज्ञानं ज॒गुष्सितम् ॥
५२, हिसा रस्यरती रागद्रेषावविरतिः स्मरः ।
शलोको मिथ्यात्वमेतेऽष्टादश्च दोषा न यस्य सः॥
५३, जिनो देवो गुरुः सम्यक्तखज्ञानोपदेशकः ।
ज्ञानदशेनचारित्राण्यपवगंस्य वर्तनी
स्य वतेनी ॥
जिनदत्त सूरि ( ग्रन्थ-विवेकविलास, समय-१२२० ई० ) ने जेन-मत
[ का सारांश ] इस प्रकार व्यक्त किया है "बल, भोग, उपभोग ( इन्दरियसुख ),
दान तथा लाभ के अन्तराय ( १-५), निद्रा (६), भय (७ ), अज्ञान (८),
घृणा ( ९ ), हिसा ( १९), रति (= इच्छा ११ ), अरति ( अनिच्छा १२ ),
राग ( १३), देष ( १४), अविरति ( ्ैराग्यहीनता १५), काम ( १६),
शोकं ( १७ ) तथा मिथ्यात्व-ये अढारह दोष जिनके पास नहीं है, वह्
देवता स्वरूप हम लोगों का जिन ( जितेन्द्रिय ) गुरुं सम्यकलूप से तच्वज्ञान
का उपदेशक ह । ज्ञान, दशन ओर चारित्र -ये अपं के मागं ह। [ ज्ञान =
संमोहरहित ज्ञान, दकेन = अहंनमूनि के उपदिष्ट मत मे विष्वास, चारित्र पापकर्म
से विरति । वर्तनी = मागं । |
५४, स्यद्वादस्य प्रमाणे दवे प्रत्यक्षमदुमापि च।
नित्यानित्यात्मकं सवं नव॒ त्वानि सप्त॒ वा॥
५५, जीवाजीवौ पुण्यपापे चाख्चवः संवरोऽपि च ।
¢ निजरणं ॐ
बन्धो निर्जरणं क्तिरेषां व्याख्याधुनोच्यते ॥
५६, चेतनालक्षणो जीवः स्यादजीवस्तदन्य कः ।
ॐ ©
सत्करमषद्रलाः पुण्यं पापं तस्य विषययः ॥
“स्याद्रा के सिद्धान्त में दो प्रमाण दै-- प्रत्यक्ष ओर अनुमान । [ उग्यक्त
विधि से वस्तुको प्रत्यक्षतः भी अनेकरूप का देखते है, दूसरे उपादान बौर
त्याग करने को इच्छा के उदेश्य से किसी पदार्थं के प्रति जो लोगों मे प्रवृत्ति
ओर निवृत्ति दिखलाई पडती है, यही हतु बनकर अनुमान ह्यास सिद्ध करेगी
कि वस्तुं अनेक रूप की है । ] सभी वस्तुं नित्य मौर अनित्यके क्पमें
१२ स० सं
१७८ स्वैदशेनसंग्रहे-
ह [ इसमे भी स्याद्वाद लगाकर स्यान्नित्यः, स्यादनित्य आदि वाक्य बनेगे । |
तत्तव नव या सात ह ( विभिन्न मतोंसे )॥ ५४॥ जीव, अजीव, पणय, षप,
आसव, संवर, बन्ध, निर्जरण ओर मुक्ति --अब इनकी व्याख्या की जाती है।
( इन नवो मेँ पुण्य को संवर मे तथा पराप को आल्लवमे ले लेने पर सातही.
त्व बचते ह । ] चेतना ( 111#6111९6106 ) जीव का लक्षण है, उससे भिन्न
( अचेतन ) अजीव होता है । अच्छे काम से उत्पन्न होने वाले पुद्रल (1१४४९,
0060168) पुण्य है, उसका उलटा पाप है( = बुरे काम से उत्पन्न पुद्रल ) ॥
५७. आसवः सोतसो द्वारं संवृणोतीति संवरः ।
परेशः कमणां बन्धो निजेरस्तद्वियोजनम् ॥
¢
८८, अष्टकर्मश्षयान्मोक्षोऽथान्तमौवश्च कथन ।
पुण्यस्य संवरे पापस्यासतवे क्रियते . पुनः ॥
` ५९. ठन्धानन्तचतुष्कस्य लोकागूढस्य चात्मनः । `
| ्षीणाष्टकरम € |
, क्षीणाषटकमणो ुक्तिनिम्यावृत्तिर्जिनोदिता ॥
"लव | पापरूपी ] स्रोत का द्वार है, जो उसे टेक ले, वह संवर कहलाता
है । कर्मो का प्रवेश करना बन्ध है ओौर उनसे अलग हो जाना मोक्ष है ॥ ५७ ॥
आठ प्रकारके कर्माकाक्षयहो जाने पर मोक्ष मिलता है। कुछ लोग परय
का अन्तर्भाव संवर मे करते है तथा पापका आस्व मे ॥५८॥ जिसे चार अनंत
पदां ( ज्ञान, दर्शन, वीयं ओौर सुख ) मिल चुके है, जो संसार मे बेधा हु
नहीं है ( अगूढ ) तथा जिसके आटो कमं नष्ट हो चुके है उस आत्मा को जिन
भगवान् कौ कही हई निर्व्यावृत्ति ( 107४० जहौ से फिर लौटना नहीं ) `
मुक्ति मिलती है ॥ ५९ ॥
६०. सरोजहरणा भैशषथजो टञ्चितमूधेजाः ६।
त्रेताभ्बराः शमाश्षीला निःसङ्गा जेनसाधवः ॥
६१. टुञ्िताः पिच्छिकाहस्ताः पाणिपात्रा दिगम्बराः।
उध्वीशिनो शृ दातुदधितीयाः स्युजिनषेयः ॥
६२. थेङ्केन केवली न सी मोक्षमेति दिगम्बरः ।
प्राहुरेषामयं भेदो महान्धेताम्बरेः सह ॥ इति ।
इति श्रीमत्सायणमाधवीये सद्शेनसंग्रदे आरईतदश्षनम् ॥ `
~<=
आहेत-दशेनम् १७६
[ अव जनो ॐ प्रसिद्ध भेद--उवेताम्बर ओर दिगम्बर-के विषय में विचार
करिया जा रहा है! ] "धूल ्ाड्नेवलि ( काहू कै तरह की चीज) को साथ
रनेवाले, भिक्षान्न खानेवाले, अपने केशों को उखाडनेवले, क्षमाशील तथा
बासक्तिरहित जैन साधु श्वेताम्बर ह ।॥ ६० ॥ केश उखाडे हए, मोर के पल
का क्ञाइन हाथमे लिये, हा्थोकोदही पात्र माननेवाले ८ करपात्री ) तथा
देनेवाले के धर परह ऊपरकी ओरसे खानेवालेये दूसरे जेन साधुहैजो
दिगम्बरः ( नंगे ) ह ॥६१॥ दिगम्बर साधूओं कौ मन्ता है कि केवलज्ञान से
युक्त पुरुष भोजन नहीं करता ओौर सखी को मोक्ष भौ नहीं भिलता ( इन्दं पूरुष
का जन्म प्रहण करने पर ही मोक्ष मिल सकता है )। इन ( दिगम्बरो ) का
इवेताम्बरो के साथ यह् बहुत बड़ा अन्तर लोग कहते ह ॥ ६२ ॥
इस प्रकार श्रीमान् सायण माघवके सवं दशंनसं ग्रह मे आहंतदर्चन [समाप्त हुजा]
॥ इति बालकविनोमाश द्धरेण रचितायां सववंदर्चनसंग्रहस्य
प्रकाशाख्यायां व्याख्यायामाहत दर्थन मवसितम् ॥
- "रे
८ 9 ) रामाजुज-दशेनम्
तच्छत्रयं चिद चिदीश्वरल्पमस्या-
विद्यातं न तु जगत्सविशेष इंशः।
भक्तिश्च तत्र॒ फलितेत्युपदेशकाय
रामालुजाय सततं प्रणतोऽस्मि तस्मे ॥- ऋषिः ।
( १. अनेकान्तवाद् का खण्डन )
तदेतदार्हतमतं प्रामाणिकगहेणमहेति । न दयेकस्मिन्वस्तुनि
परमां सति प्रमा्थसतां युगपत्सदसत्वादिधमाणां समावेशः
सम्भवति । न च सदस्यो; परस्परविरुद्रयो; सष्चयासम्भवे
विकर्षः किः न स्यादिति वदितव्यम् । क्रिया हि विकरप्यते न
वर्त्विति न्यायात् ।
सैनं का यह ( अनेकान्तवाद का ) सिद्धान्तवाद कतिपय प्रमाणो से कादा
( निन्दित किया ) जा सकता है । इसका कारण यह है कि वस्तुमे एकी
पारमार्थिक सत्ता ( 111४1088 1681) ) हो सकती है, उस सत्ता भे एक
ही साथ सत्ता, असत्ता आदि ( सात ) धर्मो से युक्त पारमार्थिक सत्ताओं का
समावेश नहीं हो सकता । [ पारमार्थिक या अन्तिम दशा म वस्तु का एक धमं
ही, जैसे सत्ता या असत्ता, स्थिर किया जा सकता है । अनेकान्तवादियों की तरह
एक ही साथ सात-सात धर्मो को मान लेना असम्भव है । ]
कोई यह नही कह सकता कि सत् ओर असत् चूंकि परस्पर विरोधी है भौर
उनका समुचय ( (07)010800 ) होना सम्भव नहीं ह, इसलिए उस प्रकार
क घमो मे विकल्प क्यो नहीं होगा ? विकल्प क्रिया का ही होता है वस्तुका
नही-रेसा नियम है, अतः विकल्प नहीं मान सकते । [ अनेकान्तवादी कौ भोर
से इस उत्तर की अपेक्षा है कि विकल्प द्वारा विभिन्न धर्मो का एकव समवेश हो
सकता है । जहां समुचय सम्भव नहीं है वहां विकल्प किया जाता है ! उदाहरण
के लिए-- उदिते जुहोति" ओौर “अनुदिते जुहोति" मे विकल्प है । पहले वाक्य
म सूर्योदय के बाद होम करने का विधान दै, दूसरे वाक्य मे सूर्योदय के पूर्वं ही
होम करना विहित है । उदित भौर अनुदित दोनों होम एक साथ नहीं हो
सकते, गतः यहां विकल्प करते है कुछ लोग सूर्योदय के बाद करे, कुच लोग
रामान॒ज-दशेनम् १८१
वहने । यह भी उसी प्रकार कयो नहीं मान लं १ उत्तर यौदे सकते ह -जो
वस्तु साघ्य होती है उसी मे कर्ता, कर्मं, अधिकरणं भादि बदल-बदलं करं विकल्प
कर सकते है, क्रिया ( साध्य ) काही विकल्प सम्भव है। जो वस्तुं षहलेसे
सिद्ध है, वह तो किसी एक प्रकारसे सिद्ध होती है, उसे विकल्प कहँ से
आवेगे ? सत्ता सिद्ध वस्तु ( (07 [016४60 8०४07 ) है, उसका कोई एक ही
प्रकार हो सकता है--जुहोति" साष्य ( क्रिया ) है जिसके लिए विकल्प दिये
जां सके । |
न च अनेकान्तं जगत्सर्वं हेरम्बनर्सिहवत्' इति दशन्ता-
वषटम्भवशादेशव्यम् । एकस्मिन्देशे गजस्वं सहत्वं वाऽपरस्मि-
ननरत्वमिति देशभेदेन विरोधामावेन तस्यंकस्मिन्देश एव सत्व -
स्वादिनाऽनेकान्तच्वाभिधाने दृष्टान्ताुपपत्तेः । नलु द्रव्यात्मना
सत्वं पयायात्मना तदभाव इत्युभयमप्युपपन्नमिति चेत् ,
नैवम्--कारमेदेन हि कस्यचित्स्वमसच्चं च स्वभाव इति न
कथिदोषः । सिः
निन्रलिखित दृष्टान्त को आधार ( अवष्टम्भ ) मानकर भी यह सिद्ध नहीं
हो सकता--“समूचा संसार अनेकान्त ( धपा ध10 ) है जि प्रकार गणेश
( गजं का सिर ओर मनुष्य की धड़ ) मौर नररिह ( सिह का सिर भौर मनुष्य
कौ धड़ } है ।' यह दृष्टान्त हमारी प्रहृत समस्या मे लग नहीं सकता, क्योकि
इस टृष्ान्त मेँ तो एकं देश ( खंड, भाग, 81 } मे गज या सिह का स्वरूप
है, दूसरे भाग में मनुष्य का स्वल्प है--देशों का अन्तर है इसलिए विरोध की
कल्पनां नहीं हो सकती । परन्तु अनेकान्तवाद मैएक ही भाग मे सर्वं, असर्व
आदि ( धर्मो को ) मानकर अनेकान्त सत्ता स्वीकृत की जाती है । [ दृष्टान्त में
देशभेद है, अतः दो पक्ष सम्भव है; जबकि अनेकन्तवाद ने देशका बिना भेद
किये ही एक ही जगह कई पक्ष मान लेते ह, जो कभी संभव नहीं । |
यदि कोई यह कहे कि किसी द्रव्य के रूप म सत्ता माने ( नेसे भिहरीकी
सत्ता ) ओौर उसके पर्यायो ( विभिन्न अवस्थां नैसे-मिदरी का पिड, खप्पड्,
घट आदि ) के रूप मेँ असत्ता मानं भौर ईस प्रकार दोनों को ही सिद्ध कर डाले,
तो [ हमारी आपत्ति है कि ] ेसा नहीं होगा-- काल के मेदसे किसी वस्तुका
सत् ( 018४671४ ) ओर असत् ( पप००-68९४ ) होना तो उसका
स्वभाव हौ है, इसमे को दोष नहीं है । [भिदो के पिरड मँ मिदटरौ की सत्ता है,
चट आदि कौ असत्ता; उसी प्रकार घट कौ अवस्था मं मिदरी ( द्रव्य ) की खत्ता
१८२ सबंदशेनसंग्रदे-
ह, कपाल ( {20181610 ) आदि की असत्ता । आशय यही है कि मूल द्रव्य की
सत्ता किसी भी अवस्था ( पर्याय ) मे रहती है, अन्य पर्यायो कौ नहीं । लेक्रिन
यहाँ कालका भेदस्पष्टहै। मृषिरडके कालमें घट नही, घटके कालमें
कपाल नही; किसी काल मेँ एक की सत्ता ओौर दूसरी कौ असत्ता होती है । यहं
तो अत्यन्त स्वाभाविक है। फलितां यह हृभा कि देश ( 908०९ ) गौर
काल ( ५76 ) के भेद से असतु भौर सत् को स्वीकार कर सकते है।
कोई वस्तु सत् भी है भसत् भी, किन्तु केसे ? देश-भेद या काल-भेद से । यह्
नहीं कि अनेकान्तवादी की तरह एक ही काल बौर एक ही देश में वस्तु के
कई परस्पर विरोधी धमं मान लं । |
न चैकस्य हस्वत्वदीधेत्ववदनेकान्तत्वं जगतः स्यादिति
वाच्यम् । प्रतियोगिभेदेन विरोधाभावात् । तस्मास्रमाणाभावा-
द्गपत्सत्वासचे परस्परविरुदरे नेकस्मिन्वस्तुनि वक्त युक्तं । एव-
मन्यासामपि भङ्गीनां भङ्गोऽवगन्तव्यः ।
ठेसा भौ नहीं कह सकते कि जिस प्रकार एक ही साथ एक वस्तु का छोटा
ओर बड़ा दोनों रूप रह सकता है उसी प्रकार संसार को अनेकान्त मान लं ।
[ एेसा इसलिए नहीं कह सकते कि उसका छोटा ओौर बड़ा होना ] विभिन्न
वस्तुओं पर आधारित ( प्रतियोगि ) है--इसलिए किसी विरोध का अवकाश्च
नही । [ अभिप्राय यह है कि जसे त्यणुक में हस्वत्व ओौर दीव दोनों है उसी
प्रकार जगत् सत् ओौर असत् दोनों है । लेकिन यह समानता ठीक नही, व्यणुक
काद्योटा ओौर बड़ा होना सापेक्ष है, किसी भिन्न प्रतियोगी की अपेक्षा रखता
है, जैसे--चतुरणुक गौर द्यणुक । चतुरणुक कौ अपेक्षा वह॒ चखोटा है, इधणुक
की अपेक्षा बडा। एेसीही दशा में हम त्यणुक मे दो विरुद्ध ( (0४१४ )
धर्मं एक साथ मानते है, जो स्वाभाविक है, असमंजस नहीं । किन्तु जगत् को
सत्-असत् मानने के समय यह बात नहीं मिलती । कोई प्रतियोगी नहीं है
जिसकी अपेक्षा उसे सत् या असत् कटं । दूसरे, हस्वस्व ओौर दीरषंरब अत्थन्त
विरोधी ( (201018.0;6\01.5 ) नही, जब कि सत्-असत् एसे है ।
निष्कषं यह निकला कि प्रमाणो के अभावे ( हमारे तक से खरिडित
होने से ) परस्पर विरोधी (०४०४) 6०प४्र्ण०प्णङ ० 6४५ पर €)
सत् ओर असत् को, एक ही साथ, एक ही वस्तु मे स्थित कहना ठीक नही हे ।
इसी प्रकार अन्य भंगियों का भो खण्डन समज्ञ लं ।
विरोष-अनेकान्तवाद की रक्षा करने के लिए जनों से चार युक्तयो की
अवेक्षा रली जाती है-( १) समुचय के अभाव में विकल्प मानते हए दो
[काका
रामानुज-दशेनम् १८२
विरुद्ध पदार्थो को एक साथ मानना, (२) गणेश ओौर नर्यसिह के शरीर की
तरह संसार को अनेकान्त मानना, (३)द्रव्यके सूप ने सत्ता ओौर उसके
ययायो ॐ रूप मे असत्ता मानना तथा (४ ) एक वस्तु मे हस्वत्व ओौर दीर्घत्वं
कीं तरह संसार को अनेकान्त मानना । किन्तु इनकी ये युक्तियां संसार को
अनेकान्त सिद्ध नही कर पातीं क्योकि सामन्यतय। हमलोगमभीदो विरोधियों
का एकः वस्तु मे समाविश कतां आदिके मेदसे(१), देश ( स्थान् ) के भेद
से (२); अवस्था अथवा काल के मेदसे(३) या प्रतियोगियों के भेद.
से. (४ ) मानते है-- तात्पयं यह है कि कुछ-न-कु्ठ उपा धिलगाकर हीदो
विरोबियो का एक मे समविश हो सकता है, जैनों की तरह निख्पाषि विरोघी
एक साथ, एक हौ काल मे नहीं मान सकते । अब उनके सप्तभङ्खीनय पर ही
प्रहार किया जायगा । |
( २. सत्तभंगीनय की निस्सारता )
वि च, सर्वस्यास्य मूलभूतः स्षभङ्गिनयः स्वयमेकान्तो-
उनेकान्तो वा आचे सर्वमनेकान्तमिति ्रतिज्ञाव्याघातः । द्वितीये
विवधिताथािद्धिः । अनेकान्ततवेनासाधकतवात् । तथा चेयञु-
भयतःपाश्ा रज्ञः स्याद्रादिनः स्यात् । |
अपि च, नवत्वस्तत्वादिनिधोरणस्य फलस्य तन्निधीर-
पितः प्रमातुश्च तत्करणस्य प्रमाणस्य प्रमेयस्य च नवत्वादिर-
नियमे साधु समधितमात्मनस्तीथेकरतव देवानांभ्रियेणाहतमत-
प्रतेकेन \
अब जर यही पू कि जो इन सरे पचो कौ जड़ सपत्ंगौनय है, वहं स्वरथं
एकान्त ( निश्चित स्वरूपवाला ) है या अनेकान्त ( अनिवित स्वहपवाला ) ।
धदि प्रथम विकल्प मानते है तो 'सब कछ अनेकान्त है" इस प्रतिज्ञा (^ 0)
काही विरो होता ह। [ सप्तभंगीनय यदि एकान्त ( निशित स्वरूपवाला )
हतो फिर किख मद से सब चीजों को अनेकान्त मानगे--क्या सप्तभंगीनय "सब
कुछ! के अन्तगेत नहीं है ? इस प्रकार असामंजस्य उत्पन्न होता है \] यदि
दूषरा विकल्प मानते है तो इष्ट वस्तु क सिद्धि नहीं होगी, क्योकि अनेकान्त हो
ज्ञानि ते सपतभगीनय प्रामाणिक नहीं हौ सकता, किंसो वस्तु को सिद्ध नहीं कर
घकता ( जो स्वयम् अनिचित हे उससे वस्तुओं या पदार्थं कौ सिद्धिकी क्या
१८४ सबेदशनसंम्रहे-
अवेक्षा करं ? ) इस प्रकार स्याद्वादियों के गले मेँ दोनों भर से फन्दा ( बन्धन }
देनेवाल रस्सी पड़ जाती है ( वे किसी ओर भाग नहीं सकते } ।
इसके अतिरिक्त, ( तचो की संख्या ) नव या सात मानी गयी है, यह
निर्धारण करना फल है, निर्धारण करनेवाला प्रमाता ( दि्र०कलाः ) है,
उक निर्धारण का साधन ( करण ) प्रमाण है, ( ये तख स्वयं ) प्रतेय है-
इनं सवो मे नव आदि का नियमहो दही नहीं सकता । [ यदि इन सबं का
स्वरूप निधित माने तो "सव कु अनेकान्त है" की प्रतिज्ञा कहाँ रही ? यदि
इनका स्वहूप अनिधित है तो इतने प्रपंच की क्या आवदयकता है ? इतने तद्व,
रमाण. प्रमाता, फल आदि का वणन करके कहते ह कि सब कु अनेकान्त है।
यह क्या लेल है ? ] आहंत-मत के प्रवत॑क, मूखंसम्राट् ने अपनी शाल-निर्माण-
शक्ति का अच्छा प्रदशंन किया है ! ( इस प्रकार अनेकान्तवाद अपने सिदढान्त से
हौ अपनी जड़ खोद देता है। जब सव कुद अनिधित है तो अनेकान्तवाद भी
अनिधित, जैनं का पूरा दशन ही अनिध्वित, सारे तद्व, उनके प्रमाण, प्रमाता
आदि सब अनिश्ित ! साधु ! साधुं | एेसे द्च॑न को शत शत प्रणाम ॥ )
| (३. जीव के परिमाण का खण्डन )
तथा जीवस्य देहानुरूपपरिमाणतवाङ्गीकारे योगबररादनेक-
देहपरिग्राहकयोगिशरीरेषु प्रतिशरीरं जीवविच्छेदः प्रसज्येत ।
मुजशरीरपरिमाणो जीयो मतङ्गजदेहं इत्लं प्रवेष्टुं न प्रभवेत् ।
कि च गजादि शरीरं परित्यज्य पिपीलिकाञ्चरीरं विद्यत: प्राचीन-
शुरीरंसन्निवेशविनाश्रोऽपि प्राप्लुयात् । न च यथा प्रदीपप्रमा
विशेषः प्रपप्रासादादयुद्रवतिसकोचविकाशवांस्तथा जीवोऽपि मजु-
जमतङ्गजादिङ्षरीरेषु स्यादित्येषितव्यम् । प्रदीपबदेव सविकारत्वे-
नानित्यस्वप्रा्ठो कृतप्रणाज्चाकृताभ्यागम प्रसङ्गात् ।
उसी प्रकार यदि आप यह् स्वोकार करते है किं जीव शरीर ( ए०्पप्न ) के
अनुरूप परिणाम धारण करलेताहै, तो योगके बल ते योगी लोग एक साथ
ज्ञो अनेक शरीर धारण करते है, उन शरीरो में प्रत्येक शरीर में जीव का टुकड
देखा जायगा । [ वास्तव मे जीव विभु है जिससे एकं साय अनेक शरी मे रह
रकता है ।. योगी लोग अपने योग की सामथ्यंसे एक ही वारम करई शरीरो
अं निवास कर सकते है । रसे शरीरो के समूह का नाम कायन्यूह है। बिभ्र
होने के कारण उन-उन शरीरो मे जीव का निवास संभव है । किन्तु मदि यह
रभांनज॑-दशेनम् १६५
नानं किं जीव शरीर के अनुरूप परिमाण धारण कर्ता है, तव तो कठिनाई
हयोमी किं शरीरस बाहर उसका सम्बन्ध नहीं रहेगा । एक क्षरीरमे जीवका
एकं टुकड़ा, दुरे मे दूसरा दुकडा--दम तरह जीव के टकडे-दुकडे हो जायेगे ।
[ दूसरा दोष पहं होगा किं | मनुष्य करे शरीरकं परिमाणा रखनेवाला
जीव [ पुनजैन्म होने पर, योनि बदलने से ] हाथो के पूरे शरीर में प्रवेश नहीं
कर सकता । ( किसी एक हौ अंश नरे मानव शरीर खप जायगा, शेषांश के लिए
क्या जवाब होगा ? ) यही नही, जब जोव गजादि के बड़े शरीर को छोड़ कर
चरी के छोटे शरीरम प्रवेश करने लगेणा तब [ बह दोटे परिमाण मे हो कर
¦ ] अपने पहले शरोर ( हाथी आदिकेश तीर) में प्रवेश करने की क्षमता
लो कैडेगा । [ शकि गज देह के परिमाण ते जीव चींटी के शरीर में प्रवेश नहीं
कुर सकता, इसलिए उसे अपने प्राचीन शरीरके परिमाण ( भाकार ) का विनाश
करना ही होगा--अतः बह पुराने शरीर मे फिर लौट नहीं सकता; त्यागपत्र
स्वीकार हो जाने पर फिर पुराने पद पर लौटना केसा ? |]
ठेसी भी कल्पना नहीं हो सकती क्रि नैते प्रदीपक प्रमा ( किरणों )के
अवयव ( विशेष 2६४८) 88 ), पनसाला-जेसी छोटी जगह या महल-जेसी
बड़ जगह मे, अपने आघार के अनुसार संकुचित ( सिकरुडते ) या विकसित
( फलते ) है, उसी प्रकार जीव भी मनुष्य भौर हाथी की देहो मे आकर [ संकोच
ओर विकास प्राप्त ] करता होगा । एषा करना इसलिए ठीक नहीं किं प्रदीप कौ
तरह ही जीव को सविकार मानना पडेगा [ जिसमें संकोच ओर विकास रूपी
विकार ( (2108028 ) होते ह 1, फलतः जीव अनित्य हो जायगा ओौर [ बौद
के क्षणिकवाद पर अप्किही हारा आरोपित ] "किये कमं का नाश तथा
“न किये गये कमं के फल कौ प्रा्नि'--ये दो दोष आ पटुचगे ।
विरोष--विकार से युक्त वस्तुं अनित्य होती है क्योकि संकोच ओौर
विकास का सम्बन्ध उत्पत्ति ओर विना से है--कभी-न-कभी जोव की उत्पत्ति
ओर विनाश होगा ही । जब उस्तति मानेगेतोन किये गये कर्मके फल की
्राभि होगी 1 उत्पत्ति के बाद उसे सुल-ढुःल रूपी फल भिलंगे, जिसके कारण
पुरुय-पाप है; जब जोव उत्पन्न हो नहीं हृभा था तब उसने इन फलो के कारण
रूप क्म ही कैसेक्यिये? कोद मी व्यक्ति उत्पत्ति के बाद कम करने पर ही
कल पाता है लेकिन जीव बिना कमं के ही फल पाने लगेगा । उसी प्रकार जब
जीव का विनाश होगा तब किये गये कमं का भी नाश होगा । विनाश के बाद
भोक्ता ही नहीं रहेगा तव फल कौन गिग ? विनाश के समय कयि गये कमं
क्का कल भी नष्ट हो जायगा--इसमे कोई भी प्रमाण नहीं है । अतः "कृतप्रणाश्'
दोष की प्राप्ति होगी ।
॥
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१५८६ सवैदशेनसंमरदे-
# प्रधानमह्निबहेणन्यायेन ©
- एवं प्रधानमहनिवरैणन्यायेन जीवपदाथेदूषणाभिधानदि
जञाऽन्यत्रापि दूषणमुरक्षणीयम् । तस्मान्नित्यनिदपिश्चुतिषिरुद्र-
त्वादिदघुषादेयं न भवति । तदुक्तं भगवता व्यासेन-नेकस्मि-
ससंमवात् ( त्र ° २।२।३१ ) इति । रामालुजेन च जेन-
मतनिराकरणपरत्वेन तदिदं सत्र व्याकारि । ।
इस प्रकार प्रधान मह्न को शान्त करने कौ तरह! जीव-पदाथं मे दोष दिखा-
कर संकेत किया गयादैकि अन्य पदार्थोमें भी दोष कौ कल्पना कर लें 1
इसलिए निय ( 1061108] ) ओर निर्दोष ( एशि7ण€ ) श्रुति ( वेह )
कै विरुद्ध होने के कारण यह जेन-मत ग्राह्य नही है। भगवान् ग्यासनेभी
ब्हासूतर मे ] कहा है--] जैन-मत ठीक ] नही, ोकि एक हौ ( बसठु ) भ
[ छाया भौर धूप के समान "नास्ति" गौर अस्ति जैसे विरुद घमो कां
आरोपण करता है जो ] असंमव है ( ब्र सु० २।२।३१ )। रामानुज ने ईसं
मूतर क व्याख्या जैन-मत का निराकरण करते हए हीकीदहै।
विरोष-- जीवस्वलूप का खण्डन करके संकेत किया गयादहैकिं वेदाः
प्रामाण्य, ईश्वरास्वीकार आदि पदार्थो का भी खण्डन कर लँ । यदि वेद प्रमाणं
नहीं है तो जैनं के सिदान्त के अनुसार अर्ह्मूनि के दारा प्रणीत ( उत्पन्न
किया गया ) आगम भी प्रमाण नहीं हो सकता । वेद॒ अपौरुषेय है इसलिए
पुरुषों ने पाई जानेवाली स्वच्छन्दता वहां नहीं है । जब स्वच्छन्दतां नहीं, तो
कोई दोष कैसे आयेगा ? अतः सारे दोषां से रहित वेद स्वतः ही प्रमाण है-
उसकी प्रामाणिकता कोई नहीं मिटा सकता । उसके बाद ईश्वरभी धति के
प्रमाणो से सिदढधहो जाता है-यतोवा इमानि भृतानि जायन्ते ( ते ० उ
३।१।१ ); द्यावाभूमी जनयन्देव एकः ८ ते उ० ३।३ ) । "नेकस्मिन्नसं भवात्"
सूत्र की व्याख्या सभी वेदान्तियों ने तैन-मत के खरडनके ल्पमेही कीदै।
विशेष ज्ञान के लिए वह स्थल देखना चाहिए । ,
(४. रामाजुज-दशेन के तीन पदाथे) |
एष हि तस्य सिद्धान्तः--चिदचिदीश्वरभेदेन भोक्त॒-मोग्य
नियामकमदेन च व्यवस्थितः पदाथ ति । तदम
` १. प्रधानमज्ञनिबहणन्याय- जिस प्रकार मुख्य पहलच को पछाड् देने
धर दूसरे पहलवान मन्ञ-युदध करने से विरत हो जाति दहै वैसेदहीजनोंके द्वारा
स्वीकृत जीवस्वरूप को दूषित कर देने पर अन्य सिद्धान्तो ओर पदार्थो का खणड
स्वयमेव हो जाता है ।
\ | । ंमानुज-दशेनम् १८७
, : १, $षरभिदचिच्चेति पदाथेत्रितयं हरिः ।
| $धरथिदिति प्रोक्तो जीवो दश्यमचि्ुनः ॥ इति ।
| उख ( रामानुज) द्थेन का यही सिद्धान्त है-चित् ( 90 ) अचित्
( णः९ः8९ ) नीर ईश्वर (७० ) के भेद से, जो क्रमश्च: भोक्ता
(पएण)ण6ः इ०} ९०४), मोग्य ( (008५ ) बौर नियामक ((ण्ण्णाल)
ह तीन प्रकार के निशित पदाथ है। एेसाही कहा है--'ईवर, चित् ओर
अचित् के रूप में वदा्थौ की संख्या तीन है; हरि ( विष्णु) हौ ईश्वर ह, चित् से
जीव का अभिप्राय है र दृश्यमान जगत् ( ^ ९९५९०५९ ) अचित् है ।'
( ५. अद्धैत-वेद्न्त का इस विषय नें पूवेपश्च )
` अपरे पुनरशेषविकेषप्रत्यनीकं चिन्मात्रं ब्रहैव परमाथैः ।
तच नित्यञचदबुदधुक्तस्वभावमपि (त॒खमसि! ( छा० उ
६।८।७ ) ह्यादिसामानाधिकरण्याधिगतजीवैकय बध्यते
मुच्यते च ।
तदतिरिक्तनानाविधभोक्तुमोक्तव्यादिभेदप्रपच सर्वोऽपि
तस्मिन्नविद्यया परिकल्पितः, (सदेव सोम्येदमग्र आसीदेकमेवा-
द्वितीयम् ( छा० उ° ६।९। १) इत्मादिवचननिचयत्रामा
ण्यात्--इति ब्रुवाणा; (तरति श्लोकमात्मवित्' ^ छा° उ°
७९।३ ) इत्यादिशुतिशषिरःशतवशेन निरविरेपत्रहमातमेकतवविद्य-
\, भृत्यो; स मृत्युमाप्नोति य
इह नानेव प्यति! ( काट०° उ“ २।१ ) इति मेदनिन्दाश्रवणेन
पारमाथिकं मेदं निराचक्षाणाः, वरिचश्षणभ्मन्याः तमिमं विभागं
न सहन्ते । ।
कु लोग ( शा द्खर वेदान्ती ), जो अपनेको बडे बुद्धिमान् मानते है
( विचक्षणम्मन्थाः ) इस विभाजन को नहीं मानते ( इससे सहमत नहीं है)
[ मायावादी थोड़ा भ देत नहीं सहन कर सकते । | | उनकी मान्यता है कि |
चित्के रूप मे ( स्वयं प्रकाक्ित होनेवाले ज्ञानमात्र के स्वरूप म) केवल
ब्रह्य ही परमाथं ( {11086 ४९४ ) है जिसमे सारे ( अशेष ) विशेषण
व =
नकि श्ण ॥
4
~ ््यरः
+~ सवदशेनसंगरदे-
( जैसे-- हस्वत्व, दीरच॑त्व, शब्द, स्पशं, ज्ञातृत्व, नित्यत्व आदि सभी व्यावहारिक
विशेषण जो किसी पदाथं की सीमा स्थिर करते किं यह इस तरहका है)
शत्रुके रूपमे ( =कोईमी विशेषण ईश्वर मे नहीं लग सकता) । उस
बरह्म का स्वभाव ( {8867106 ) ही नित्य ( 16178] ), शुद्ध ( एपः९ ),
बुद ( 1791116४ ) तथा मुक्त ( ८66 ) रहना है, फिर भौ "तवमसि"
(बह तुम्हीं हो) की तरहके वाक्यों से ज्ञात होनेवाले सामानाधिकरण्य
( जीव भौर ब्रह्म का एक होना, समानाधिकरण = एक आधार, [वला प्फ )
से उसकी एकता जीव के साथ सिद्ध होती है, ओौर इसीलिए वह बन्धन में भी
पड़ता है ओौर मुक्त भी होता है। [ "त्वमसि" का अथं है--वह ( ब्रह्म)
तुम ( जीव ) हो अर्थात् ब्रह्म ही जीव है। यद्यपि ब्रह्म मुक्त है किन्तु उपर्युक्त
वाक्यमे दोनोंकी एकता होने के कारण जीवके रूपमे ब्रह्य बन्धन मे पड़ता
है । जब जीव ओर ब्रह्म के एेक्य का साक्षात्कार हो जाता है तब वह ब्रह्म मुक्तं
हो जाता दहै।]
उस ( ब्रह्म ) के अतिरिक्त, भोक्ता ( जीव ), भोग्य ( जगत् ) आदिक
तेदों के रूपमे नानाप्रकार के प्रपंच ( विस्तार, {1019९86 9 पाण्ा8ः-
४68 ) उस ब्रह्य मेही कल्पित किये जति है-ये सारे-के-षरे अविद्या
( [ाण्०, 1००९०९९ ) से परिवालित होते है। इसके लिट कितने ही
वाक्य प्रप्ाणके रूपमे नेसे- ह सोम्य ( प्रसन्नमुख शिष्य ), सबसे पहले
यह बत् ( फाला ) ही उत्पन्न हा था, जो अकेला था, दूसरा कु
नही था"; इस प्रकार की बातें ये ( माया वेदान्ती ) लोग करते है । [ अद्धितीय
मानने से ब्रह्म निविशेष माम पडता है, उसमें कोई विशेषण नहीं लग
सकता \ यदि विशेषण लग सक्ते तो वे ही विशेषण लगकर दूसरे ब्रह्म भी हो
सकते \ जब तक सूत्र ( 70770प}8 ) नहीं माकम है तब तकं एक ही कलाकृति
है; जिस क्षण कृति के विशेष या सूत्र ज्ञात हो जार्येगे उसी क्षण दूसरी कृति
निभित हो जायगी । |]
"आत्मा को जाननेवाला शोक को पार कर जाता है" ( छा० उ० ७।१।३ )
इस तरह के सैकड़ों वेदवाकयों के सिर पर सवार होकर ( {617 8१४९०४
४6 ), निविकेष ब्रह्म ओर आत्मा के एकत्व ( [पलाधध्फ ) के ज्ञानसे
{ आत्माके शुद्ध रूप कां साक्षात्कार करके ), अनादि काल से चली अनेवाली
अविद्या ( माया, श्रम ) की निवृत्ति हो जाती है-एेसा वे स्वीकार करते है ।
"जौ व्यक्ति इष ( ब्रह्म ) को नानाप्रकारके रूपमे देवता है वह मृत्युके बाद
भी पूनः मृतुं ( जन्मान्तर भें ) पाता हैः (कार उ० २।१) गां [ जीव
रामान॒ज-दशेनम् ` १८६
जञौर ब्रहम मे ] भेद माननेवाले को निन्दा सुनकर दोनों के बोच ये (मायावेदान्ती)
ताद्विक भेद नही मानते ।
( ५. क. रामानुज्ञ का उत्तरपक्षः अद्धेतियौ की अविद्या का पूरवेपक्च )
तत्रायं समाधिरभिधीयते । भवेदेतदेवं यद्यविचयायां प्रमाणं
तियत । नन्विदमनादि भावरूपं ज्ञ ननिवत्यमज्ञानम् “अहमज्ञ
मामन्यं च न जानामि' इति प्रतयक्षप्रमाणसिद्धम् । तदुक्तम् -
२. अनादि भावरूपं यद्विज्ञानेन विलीयते ।
तदज्ञानमिति प्राज्ञा लक्षणं संप्रचक्षते ॥
( चित्सुखी १।९ ) इति ।
इन सभी शंका का समाधान इत प्रकार है [ शांकरवेदान्तियो का
कथन ठीक माना जाता, यदि अविधा को मानने के लिए प्रमाण रहते ।
[ अविद्या को माननेवाले यह कह सकते हैक] यह अज्ञान अनादि ओर
भावात्मक ( 2081४1९6 ) हे, तथा ज्ञान से हट जाता है; प्रव्यक्ष्रमाणसेिही
यह सिद्ध है (जेषाकिहम ठेस वाक्यो मे पति है) नतं अज्ञानी हूं अपने आपि
कोया किसी दूसरेकोभी नहो जानता ह ।' पेखा ही कहा भी है--जो अनादि
३, भावात्मक दै, विज्ञान ( (०1 ९02९ ) से जिसका नाश होता है, वही
अज्ञान है विशेषज्ञ लोग इसका लत इसी प्रकार करते द (चिर्पुखौ १ ।९)}
विरोष -- चिस्मुलाचायं ( १२२५ ई० ) के द्वारा लिखित चिस्सुखी या
्रत्यक्ततवप्रदीपिका शांकरदर्थन का एक बहुमान्य ग्रंथ है । इको टीका प्रव्यक्स्व-
हवने प्रायः १५०० ई° मे मरानसनयनप्रस्ादिनी के नाम से की थी । सवंद्चंन
संग्रह ( १३५० ई० ) मे चित्सुखी का उद्धरण उ्तकी कीति का सूचक है ।
न चैतञ्जानाभावविषयमिस्याश्ङक नीयम् । को शेवं ब्रा
आकरकरावलम्बी भहृदत्तहस्तो वा १ नाः
३, स्वरूपपररूपाभ्यां नित्यं सदसदात्मके ।
वस्तुनि ज्ञायते किचित्केधिद्रुपं कदाचन ॥
५, आवान्तरमभावो हि कयाचिन्त व्यपेक्षया ।
मआवान्तरादभावोऽन्यो न कशिदनिरूपणात् ॥
इति वदता भावव्यतिरिक्तस्यामावस्यानभ्युपगमाव् । |
१६० सवेदशेनसंग्रदे-
[ अज्ञान के विषय मे उपयुक्त प्रत्यक्ष, मायावादियों के दृष्टिकोण से भावलूप
( ?2०७४१९ ) अज्ञान का विषय है इसलिए उनके अनुसार ही यह कहा जता
है ] यह ( परवयक्ष ) ज्ञान के अभाव का विषयदहै'-देषीशंकाभी नहीं करनी
चाहिए । ( इस प्रत्यक्ष को ज्ञान के अभाव का विषय ) माननेवालि कौन ह?
यातो प्रभाकर गुरुः (मीमांसाके एकं संप्रदायके प्रवतंकं }) का वरद कर
वानैवातते ( = गुर-मतानुयायी ) या कुमारिलभट का सहारा पानेवाले ( भार
मीमांसक ) एेसा कर्हेगे । । ।
गुरुमतवाले तो एसा ( अज्ञान को भावलूपन मान कर, ज्ञानाभाव का
विषय मानना ) मान ही नहीं सकते । उन्हीं का कथन है-- अपने रूप ( सतु के
रूपमे ) तथा दूसरे के रूप ( असत् के रूप में } की सहायता से, नित्य.रूप से,
सत् ओौर असत् दोनों म विद्यमान वस्तु मे, कोई व्यक्ति, एकं समय मे, किसी
एक ही सूप को जान सकता है" । [ वस्तुओं मेँ सदा दो रूप होते है, स्वकीय
रूप से वस्तु सदातमक है भौर परकीय रूप से वह भसदात्मक है । कभी वस्तु
को हम सत् के रूप मे ( 181816४ ) जानते है, कभी असत् के रूप मे । जब
सत् के खूप मे कोई गुण जाना जाता है, उख समय उससे भिन्न या परकीय गुण
असत् द्ेगे ही । आम के फल भे रूप, रस आदि सभी कभी रूप को जानते
ह उस समय रस का ज्ञान नही, इत्यादि । अतः सत् रूपमे ज्ञान के समय भौ
अक्षत् रहता है, असत् के ज्ञान के समयमे भी सत् है; परन्तु यह प्रकृति का
नियम है कि व्यक्ति एक समय में किसी एक को टी जान सकता है यद्यपि दक्र
रूप भी दूसरे समय मे यथावत् जाना जा सकता है । अतः सत् ओौर असत् मे
कोई अन्तर नही \ |
९. प्रभाकर को गुरु उपाधि भिलने के विषयमे एक दन्तकथा है \ एक
बार इनके अध्यापक एक ग्रंथ मे यह पद् कर परेशान येअ तुनोक्तं, तत्रापि
नोक्तम् । परेशानी का कारण यह था कि दोनों स्थानो पर षदाथंका कथन
किया गया था जब किये पंक्तियां ठीक उलटी बातें सूचित कर रही धीं । गुरु
की परेशानी से प्रभाकर की बुद्धि जाग उठी गौर उन्होनि इन पक्तियों को इस
खूप मे षढ़ा--अत्र तुना उक्तम् ( यहां तु" शब्दके दवारा उल्लेख है), तत्र
अपिना उक्तम् ( वहां 'भपि' शब्द से उल्लेख है ) । स्मरणीय है कि पहले के
रथो मे अक्षर सटा-सटा कर लिखे जाते थे, इसीलिए इस तरह की कठिनाई
अव्यापक को हई । गुरुने कहा के प्रभाकर, आजसे तुम्हीं गुरुहो। यही
कारणथा कि प्रभाकर गुर कहलाये । इन्होने शबरभाष्य पर टीका लिख कर
अपना अलग संप्रदाय चलाया ।
रामानज-दशेनम् १६१
"अभाव एक प्रकारका दूसरा भाव ( प्रणष्) है जो किसी-न-किसी
उ्येक्षा ( सम्बन्ध, असत् के निरूपण की इच्छा ) से प्रकट किया जाता है ।
एक अन्य भाव ( माव का विशेष भद ) के अतिरिक्त अभाव नामक कोई पदार्थं
नहीं है क्योकि उसका निषूपण नहीं हो सकता ।' | पृथ्वी में घट का अत्यन्ता-
भाव पृथ्वीका स्वरूपं मात्र है ( 12050९6 ), धट का प्रागभाव मही दै,
हवं साभाव खपड़ा है, अन्योन्याभाव पटादि है--इस प्रकार घट के चारों अभावं
( अत्यन्ताभाव, प्रागभाव, ्रष्वंसाभाव; बौर अन्योन्याभाव ) किंसीन किसी
माव ( ए०5्र७ शप्प् ) के हो ल्पे ह, भतः अभाव मावहीका दषस
नाम है जो असत् पदार्थं कौ अभिव्यक्ति के लिए प्रयुक्त होता दै । ]--यह कह
कर प्रभाकर के मतानुयायी भाव क्रे अतिरिक्त अभाव पदाथं को स्वीकार ही
तहं करते [ कि अज्ञान को ज्ञानाभावविषयक माने । |
विरोष-यहां पर शंकर वेदान्त दारा पूव॑पक्ष को स्थापना हो रही है,
तथ्य यहीदहै कि शङ्कुर अज्ञान को भावषूप मानते है, इसके लिए मीमां सको से
भौ वे यह स्वीकार करवां लेते ह कि अभाव भावहूप है अर्थात् अज्ञान = ज्ञाना-
आव = ज्ञानभाव = भाव ( 20811९6 12018106 ) । अपने अज्ञान को
ज्ञानाभाव कहना वे किंसौ मूल्य पर भी स्वीकार नहीं करते । यही अज्ञान सारे
मायाजाल की सृष्टि करता है, यदि ज्ञानामाप इसे मान लेंगे तो इसकी विश्वषृजन-
शक्ति विनष्ट हो जायगी । रामाचुन आगे चल कर इस अज्ञानयां माया का
लर्डन करेगे । उषर्क्त पर्चो भ प्रभाकर उद्धरण देकर उनसे अज्ञान को
परकारान्त से भावात्मक स्वीकार कराया जा र्ट है। प्रभाकर भावकाही एक
दूसरा रूप अभाव मानते ह, उससे पृथक् नहीं । तो एक तरह से उन्होने शङ्कुर
करी स्थिति ही स्वीकार कर ली ।
न द्वितीयः । अभावस्य पषटप्रमाणगोचरत्वेन ज्ञानस्य
निस्यानुमेयस्वेन च तदभावस्य ्रत्यक्षविषयत्वानुपपत्तेः। यदि
पुनः प्रस्यक्षामाववादी किदेवमाचकीत, तं प्रत्याचक्षीत--
अहमज्ञ इत्यस्मिजनुभवेऽहमित्यात्मनोऽभावधमितया ज्ञानस्य
श्रतियोभितया चावगतिरस्ति न वा अस्ति चेत्; विरोधादेव
न ज्ञानालुभवः । न चेत्) धमिप्रतियोगिज्ञानसापेकषो ज्ञानाभावा-
जुभवः सुतरां न संभवति । तस्याज्ञानस। भावरूपत्वे प्रागुक्त-
१६२ सवेदशेनसंग्रहे-
दृषणाभावात् अयमनुभवो भावरूपाज्ञानगोचर एवाभ्युषग-
न्त्य इति ।
दूसरी ओर, भाटू-मीमांसक भी एेसा नहीं कहं सक्ते । अभाव का ज्ञान
उनके अनुसार छे प्रमाण ( अनुपलब्धि ) से होता है ( प्रत्यक्ष प्रमाण से नहीं),
तथा ज्ञान भी सदाही अनुमेय रहता है अतः इसका अभाव ( = ज्ञानाभाव )
भी प्रत्यक्ष का विषय नहीं हो सकता । [ यद्यपि अभाव को भाद लोग एक पृथक्
पदाथं स्वीकार करते है फिर भी भें नहीं जानता" इस प्रकार का प्रत्यक्ष ज्ञाना.
भाव का विषय नहीं। ज्ञान को प्रत्यक्ष मानने षर ही उसका अभाव प्रत्यक्षका
विषय हो सकता है, पर भाद्र लोग ज्ञान को प्रत्यक्ष न मान कर अनुमेय मानते
है । नैयायिको का यह कथन है कि भँ जानता है यह वाक्य अनुग्यवसायात्मक
आन्तर प्रत्यक्ष से निष्पन्न होता है इसलिए ज्ञान प्रत्यक्ष का विष है, परन्तु यह्
ठीक नहीं । इस प्रकार का ज्ञान दूसरे अनुव्यवसायाट्मक ज्ञान की अपेक्षा रखता
है, बह भी तीसरे की अपेक्षा करेपा--इस तरह अनवस्था नाम का दोष उत्पन्न
हो जायगा । इसलिए ज्ञान को भद्रमतानुसार स्वप्रकाशकं ( दीपको तरह)
मानना ही उपयुक्त है । एक दीप दूसरे दीप से प्रकाश्चित नहीं होता, अपना
प्रकाशन आप ही करता है। निष्कषं यह है कि ज्ञान इनके अनुसार अतीन्द्रिय
है। प्रत्यक्ष के योग्य पदार्थो का अभाव भलेही प्रत्यक्ष हो, लेकिन प्रत्यक्ष से
रहण न करने योग्य पदार्थो ( जेसे, ज्ञान ) का अभाव भी प्रत्यक्ष का विषय
नहीं । फलित यह हु कि भं अज्ञ हूं यह प्रत्यक्ष ज्ञानाभाव का विषय नही,
भआवरूप अज्ञान का ही विषय मानना पड़ेगा । ज्ञानाभाव प्रत्यक्ष नहीं है
प्रत्यक्ष ज्ञानाभाव नहीं है ( अप्णृ€ 0०९80 ) । |
अब यदि अभाव को प्रत्यक्ष ( अनुपलब्धि को प्रव्यक्त प्रमाण मे अन्तभ्रत )
माननेवाला व्यक्ति ठेस बात कहे तो उससे पृष्छना चाहिए- भे अज्ञ हू" इस प्रकार
के प्रत्यक्ष अनुभव मे, अभाव-धमंके रूपमे याज्ञानके प्रतियोगी ( विरोधी =
नहीं जानना ) के खूपमें, आत्मा ( अहम्" शब्द से प्रतीत होनेवाली ) की
अवगति ( ज्ञान .^7]0610611810 ) होती है या नहीं ? यदि देसी अवस्था
भे आत्मा काबोधहोतादै, तो विरोधके ही कारण ज्ञान के अभाव का अनुभव
नहीं होभा । यदि नहीं होता तो ज्ञान के अमावका अनुभव ओर नहींहोगा
क्योकि कोई भी अभाव तभी जनाजा सकता है जब अभावके धर्मो से युक्त
( उसके आधार का ) उसके विरोधी (भाव) का ज्ञान हो। [ नैयायिकादि
अभाव को प्रत्यक्ष ही मानते है । उपयुक्त अनवस्था इसलिए नहीं लगती किं अन्तिम
अनुग्यवस्ाय स्वयम् अज्ञात होकर भी वस्तु कौ सत्तासे ही अपने षहुलेके
रामानज-दशेनम् १६३
अनुव्यवसाय का ग्रहण कर लेगा । ञान दो तरह के ह--परगत ओर स्वगत ।
पूराका पूरा परगत ज्ञान तथा निर्विकल्पक स्वगत ज्ञान अतीन्द्रिय है। स्वगत
सविकल्पक ज्ञान प्रत्यक्ष का विषय है इसलिए इनके मतानुसार 'महमन्ञः यह
प्रत्यक्ष अनुभव ज्ञानाभाव का विषय है--एेसा कह सक्ते हैँ । इस सम्प्रदाय से
अद्धैतवेदान्ती पूच्ते है कि भँ अज्ञ हं (में ज्ञानामाव सम्पन्न हूं) इस अनुभव
मे जानाभाव को आधार मानने के कारण अहम्" अथं वाली आत्मा का ज्ञान
होता है किं नहीं ? उसी अनुभवं ज्ञानाभाव का विरोधी होने के कारणं ज्ञान
काज्ञान होता दहै किं नहीं? यदिदहैतो ज्ञान कौ सत्ता माननी पडेगी; ज्ञ नामाव
कहाँ है ओर कहाँ है उसका अनुभव ? यदि नही है तो ज्ञानाभाव रहनेषरमभी
इसका अनुमव नहीं होगा क्योकि अभाव काज्ञान तभी सम्भव है जब अभाव
के आधार का ज्ञान हो, अंभावके प्रतियोगी का ज्ञानहो। घटका बिना ज्ञान
हुए घटाभाव जानना असम्भव है। 1
अब यदि उस अज्ञान को भावूप ( 09४९ ) स्वीकार कर लं, तो
उपयुक्त दोषों से मृक्ति मिल जाती है । अतएव यह अनुभव भावरूप अज्ञान से
ही उत्पन्न होता है - एेसा मानना चाहिये । ( इस प्रकार मायावादियों का
परवंपक्ष समाप्त हुभा । )
( ६. रामाचुज द्वारा इसका खण्डन )
तदेतद्रगनरोमन्थायितम्। भावरूपस्याज्ञानस्य ज्ञानाभावेन
समानयोगक्षेमत्वात् । तथादहि--विषयत्वेनाश्रयत्वेन चाज्ञानस्य
©
व्यावतंकतया प्रत्यगथेः प्रतिपन्नो न वा १ प्रतिपन्नशेत् , स्व-
रूपज्ञाननिवत्यं तदज्ञानमिति तस्मिन्प्रतिपन्ने कथंकारमवतिष्ठते ?
अप्रतिपन्शवेत् , व्यावतेकाश्रयविषयश्ूल्यमज्ञानं कथमनुभूयेत १
| [ मायावादियो के दवारा अज्ञान को भावरूप मानने के लिए तकं देना ठीक
वैसा हौ असम्भव ह जैसा कोई पशु ] भाकाश का पागुर ( जुगाली, चवितचवंण,
९82१800६ ) करे ! भावके रूपमे अज्ञान को मानना ज्ञानाभाव के
रूप मे मानने के ही बराबर है। इसमे दो विकल्प हो सकते ह-[ अज्ञान के |]
विषय (आत्मा के स्वरूप का ज्ञान ) तथा आश्रय ( = अत्मा) के रूप मे,
अज्ञान कौ व्यावर्तक बनकर, उस ज्ञानस्वरूप आत्मा की प्रतीति होती है कि
नहीं ? ( भँ अज्ञ हः इस अज्ञान की प्रतोति के समय उस ज्ञानस्वरूप जात्मा
की प्रतीति होती है कि नहीं?) यदि प्रतीति होती है तो ^स्वरूपके ज्ञानसे
निवृत्त होने वाला ( ज्ञान का विरोधी ) वह अज्ञान है'-- इसलिए उस ( ज्ञान ) .
१३ स० सं
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१६४ सबेदशंनसंग्रहे-
की प्रतीति होने पर ज्ञान किंसी प्रकार नहीं रह सकता । [ चूंकि अज्ञान आत्मा
के शुद्ध स्वप को जान जनि पर हट जाता है इसलिये स्वरूप के ज्ञान के बाद
अज्ञान ठहरेगा ही नहीं । "अहमज्ञः स अज्ञान की प्रतीति के समय ज्ञान यदि
रहै तो अज्ञान की प्रतीति केसे हो सकेगी, अज्ञान कहाँ से रहेगा ? ] दूसरी ओर
यदि आत्मा कौ प्रतीति नहीं होती, तो ग्यावतंक ( अज्ञान का व्यावर्तक है.
आत्मा, प्रतीति, बोध ), आश्रय तथा विषय से शन्य होने से अज्ञान का अनुभव
ही कसे होगा ?
विरोष--अज्ञान (मै अज्ञ हं) का विषय ( (0९५ , भाल्ना के स्वल्प
काज्ञान ही है; उसका जाश्रय ( उिपणछकपपाप, ०७९८४ ) है आत्मा, क्योकि
अत्मा को प्रत्यक्ष रूप मे यह अनुभव होता है कि म नहीं जानतां हं । आत्मा ही
अज्ञान का व्यावतंक ( रोकने वाला, प्रतिषेधक ) है। यहाँ शांकरवेदान्तिषरो का
यह दोष दिखलाया जा रहा है कि ग्यावतंककोही वे अज्ञान का विषय ओर
आश्रय दोनों मान लेते है ।
अथ विद्दः स्वरूपावभास एवाज्ञानविरोधी, नाज्ञानेन सह
भासत इत्याश्रयविषयज्ञाने सत्यपि नज्ञानानुभवषिरोध इति--
हन्त, तदि ज्ञानाभवेऽपि समानमेतदन्यत्राभिनिवेश्षात् । तस्मा-
दुभयाभ्युपगतज्ञानाभाव एव (अहमज्ञो, मामन्यं च न जानामि
इत्यजुभवगोचर इत्यभ्युपगन्तच्यम् ।
( मायावादी यह् कह सकते ह कि ) आत्मा ( स्वरूप ) की जो प्रतीति
( अवभास ) स्पुट ( ए) {९७४९१ ) है वही अज्ञान (माया ) का विरोध
करती है। वह् ( विशद आत्मप्रतीति ) अज्ञान के साथ नहीं रह न । इस
प्रकार [ अज्ञान के ] आश्रय ओौर विषयके होने पर [ आत्मा की स्फुट
न होन से ] उसका विरोध अज्ञान ( अहमज्ञः ) के अनुमवके साथ नहीं होता
( तात्पर्यं यही है कि अविशद आत्मप्रतीति अज्ञान का व्यावतंक नहीं है, विशद
सेहौरेसी आश की जाय }।\ रामानुज उत्तरमे कहते ह कि हाय, हाय, तब
तो[ जो बात माव्ूप जज्ञान मानकर आप कह् रहे ह] वही बात ज्ञानाभाव
का दिषय मानने पर होगी (कि आधार बौर विरोधी -इन दोनों में विशद
स्वरूपावभास य! आमप्रतीति विरोधी हो सकेगी, अविशद स्वरूपावभास नहीं । )
ह, यदि आप पक्षपात ( अभिनिवेश ) न करे तभी एसा करेगे । । मायावादी
लोग भावरूप अज्ञान मानने मे जो पक्षपात करते है वह हम लोगों मे नहीं हे ।
इस प्रकार दोनो पक्षं ( हमारे ओर आपके } से सिदध ज्ञाना माव ही-- नें अज्ञ
रामानुज-दशेनम् १६५
अपने आपको ओर दूसरे को भी नहीं जानता इस वाक्य मे अनुभूत होता है
( 18 € 061९660 }-एेसा मानना चाहिए ।
विद्छोष- रामानुज अपने तकं के बल से अद्रैतियों को “अज्ञान भावल्प
नहीं, ज्ञानाभाव का विषय है" एेसा स्वीकार कराते है । निष्कषं यह निकला कि
अज्ञान प्रत्यक्ष प्रभारा से बोध्य नहीं । अब अनुमानके अखाडेमें ले जाकर अज्ञान
को पछ्छाडने की युक्ति रची जारहीदहै। रामानुज ने अपने ब्र° सू० भाष्यके
प्रथम सूत्र में अज्ञान का खण्डन बड़े जोरदार शब्दों मे किया है । उसी से विषय-
वस्तु लेकर प्रस्तुत स्थल मे प्रतिपादन कियाजारहाहै।
( ७. अज्ञान को भावरूप मानने मे अयुमान ओर उसका खण्डन )
अस्तु तद्यनुमानं मानं विवादास्पदं प्रमाणज्ञानं स्वप्रागमाव-
व्यतिरिक्त-स्वविषयावरणस्वनिवत्ये-स्वदेशगत-वस्त्वन्तर पूर्वकम्
अप्रकाशिताथेप्रकाशकत्वादन्धकारे प्रथमोत्पन्नप्रदीपप्रभावत् इति ।
[ शांकर वेदान्ती कह सकते हैँ कि | प्रस्तुत विवाद से प्रस्त ज्ञान (= अज्ञान
भावलूप है ) को अनुमान से सिद्ध क्यों नहीं मानते? अनुमान इस प्रकार हो
सकता है-
( १) [ अविद्या को] प्रमाणित करने वाला ज्ञान ( पक्ष) ज्रिसी दूसरी
वस्तु के बादमंहोतादहै, जो वस्तुज्ञानके प्रागभावे बिल्कुल भिन्न, ज्ञान के
विषयों को दँकनेवाली, ज्ञान के द्वारा हट जाने वाली, तथा जो ज्ञान के स्थान
मे घवस्थित रहती है ( साध्य ) ।
(२) कारण यह है कि प्रमाण ज्ञान ( ४ {९१००९46 )
अभ्रकाशित वस्तुओं को भी प्रकाशित करता दहै (देतु )।
( ३ ) जिस प्रकार अन्धकार में पहले-पहल उष्पन्न होने वाली दीपक प्रभा
होती है ( उदाहरण ) ।
विरोष-- प्रथम वाक्यम 'वस्त्वन्तर'के कुछ विशेषण लगाये गये ह ।
स्वविषयावरण = स्व अर्थात् प्रमाणज्ञान का विषय ब्रह्मादि है, उसके स्वरूप को
टंकनेवाला । स्वदेशगत = प्रमाणज्ञान का देश आत्मादहै, उसी में अवस्थित
रहनेवाला । स्वप्रागभावन्यतिरिक्त = प्रमाणाज्ञान के प्रागभाव से पृथक् । उप-
यक्त विशेषणो से युक्त अज्ञान भावरूप ही सिद्ध होता है। जो दीप प्रथम-प्रथम
प्रकाश की किरणं फौलाता है उसी मे अंधकार को नष्टकरने की शक्ति होती
है । जिस प्रकार अँधेरे में पहले-पहल जलाया गया दीपक अपनी प्रभासे अप्र
कारित वस्तुओं को प्रकाशमें लातादहै उसी प्रकार ओंषेरे की तरह विद्यमान
१६६ सर्वदशेनसंम्रदे-
किसी दूसरी वस्तु ( अर्थात् अज्ञान ) को हटाकर प्रमाणज्ञान भी अप्रकाशित
वस्तु ( आत्मस्वरूप ) को प्रकाश मे ले आताहै\ जो वस्तु हटाई जाती है
वही अज्ञान है, यह भावरूप हे जिसकी व्यावृत्ति ज्ञान द्वारा ही होती है ।
तदपि न क्षोदक्षमम् । अज्ञानेऽप्यनभिमताज्ञानान्तरसाधनेऽ-
पसिद्वान्तापातात्। तदसाधनेऽनेकान्तिकत्वात् । दान्तस्य साध
नविकलत्वाचच । न हि प्रदीपग्रभाया अप्रकाशशिताथेप्रकाशकत्वं
संभवति । ज्ञानस्यैव प्रकाशकत्वात् । सत्यपि प्रदीपे ज्ञानेन विष-
यप्रका्चसंभवात्। प्रदीपम्रमायायस्तु चश्ुरिन्द्रियस्य ज्ञानं सयुत्पाद्-
यतो विरोभिसतमसनिरसनदारेणोपकारकत्वमात्रमेवेत्यलमति
विस्तरेण ।
[ रामानुज का कहना है कि | उपयुक्त उक्तिभी तकं की कसौटी पर खरी
नहीं उतर सक्रती ( शब्दशः, चकौ मं पिसने से बच नहीं सकती; क्षोद = चरणं ) ।
कारण यह हैकि [आपज्ञान को एक दूसरी वस्तु-अज्ञान-के बाद सिदध करते
है तो ] यह अज्ञान भी [ उसी देतु से ( अप्रकालित प्रपञ्च को प्रकाशित करने
के कारण) ] एक दूसरे अज्ञान कौ अपेक्षा रवेगा जो सिद्ध करना आपको
अभीष्ट नही क्योकि एेखा करने पर [ दुरे अज्ञान से प्रपञ्च का आवरण हो जाने
वर संसार की ही संभावना मिट जायगी जो ] भापके सिद्धान्त के भी विश्दध है,
( अथवा इख दूसरे अज्ञान से आपके प्रस्तुत अनुमान का विषय--माव रूप
अज्ञान--क स आवरण दो जायणा जर संसार कौ पिष्टि नही रो सकेणो \ )
॥ यदि आष { भावरूप अज्ञान् को या उसके साधक अनुम् को तथाकथित
| षस स यक्त किसी दूखरो वसत क पवयात् } सिद नह करेगे तो दत् अने"
| कान्तिकं ( व्यभिचारयुक्त ) हो जायगा । [ यदह हेत, है अप्रकारिताथं को प्रका-
| कित करने के कारण' । यह हेतु साष्य ( 18] पल) ) के विरोधी स्थानो `
। मे भी रहता है इसलिये अनैकान्तिक = अनिश्ित है । | दुसरे, उपयुक्त अनुमान
मं दृष्टान्त ( साध्य को ) सिद्ध करने की सामथ्यं नहीं रखता है क्योकि वस्तुतः
दीपक कौ प्रभा अप्रकाशित वस्तु को प्रकाशित नहीं करती, ज्ञान ही किसी वस्तु
का प्रकादान कर सकता है । दीपक के रहने पर भी ज्ञान से ही विषयों का प्रका-
। हान सम्भव है । ददयनन्द्रिय ज्ञान उत्पत्न करती है, उसी समय प्रदीप-प्रमा
| ( सहायक के रूपमे) प्रकाश के विरोधी निबिड अन्धकार को दुर करके
। थोड़ा-सा उपकार ही भर करती है । अब अधिक विस्तार करना व्यथं है।
रामालुजन्दशेनम् १६७
( ७ क. उपर्युक्त अनुमान का प्रत्यजमान )
प्रतिप्रयोगश्च विवादाध्यासितमज्ञानं न ज्ञानमात्रब्रह्माधरितम्;
अज्ञानात्, शरक्तिकाचज्ञानवदिति । नलु शुक्तिका्ज्ञानस्या-
¢ क
रयस्य ग्रत्यगथेस्य ज्ञानमात्रस्वमावत्वमेव इति चेत्, मेवं
वेनेव
शङ्किष्ठाः । अनुभूतिं स्वसद्ध कस्यचिद्रस्तुनो व्यवहारा-
नुगुणत्वापादनस्वमावो ्ञानावगतिसंविदाद्यपरनामा सकमेकोऽ
[२ ् ~ व्िजञेष
नुभवितुरात्मनो धमेरिशपः । अनुभवितुरात्मत्वमात्मडृत्तिगुण-
विशनेषस्य ज्ञानस्वमित्याश्रयणात् ।
इका विरोधी अनुमान ८ (0०पाल-म मपे ) इस प्रकार है- जिस
अज्ञान के विषय में विवाद चल रहा है वह विशुद्ध ज्ञान के स्वरूप ब्रह्म मे आश्रय
नहीं ले सकता, क्योकि बह अज्ञान है ( जब कि ब्रह्मज्ञान है )-जिस प्रकार
शुक्ति ( सीपी, }> 2५6 ) आदि के विषय में उत्पन्न अज्ञान | ज्ञाता पर आश्रित
हैन किज्ञान पर ही, वर्योकि जीव हीज्ञातादहै; उसी प्रकार मायावादियों का
वह भावषूप अज्ञान ज्ञाता पर ही अधित हैन किंज्ञान पर । लेकिन मायावादी
तो इस अज्ञान को ज्ञानहूप ब्रह्म पर आधित मारते है--यह उनका दोष दै । ]
[ यदि कोई शंका करे कि ] शुक्ति आदि के विषथ सें होने वाले अज्ञान
( 1]प्ड०प ) का आश्रय स्वचेतन ( आत्मा, प्रत्यक् अथं ) ह, उसका स्वभाव
ही विशुद्ध ज्ञान है (फिर अज्ञान् का आरोपण ज्ञानस्वरूप आस्मा पर केसे
करते ह ? उत्तर में हम कर्टेग कि ) अनुभव करना अनुभव करनेवाली आत्मा
का एक धमं है जो ( मं ) केवल अपनी सत्ता से, किसी वस्तु मे व्यवहार कौ
योग्यता ( आनुगुय ) उत्पन्न करने का स्वभाव रता है; जिस ( अनुभूति ) के
ज्ञान, अवगति, संविद् ( बोध ) आदि बहुत से नाम है तथाजो (घमं) कमं
करनेवाला भी है। अनुमव करनेवाले को आत्मा ओर बात्मा की वृत्तिथो
( .‰.6४08 ) में स्थित एक गुण को ज्ञान कहते है ।
नचु ज्ञानरूपस्यात्मनः कथं ज्ञानगुणकत्वमिति चेत्, तद्-
सारम् । यथा हि मणिद्युमणिप्रभृति तेजोद्रवयं प्रमावदूपेणावतिष्ठ-
क [९ £
मानं प्रमारूपगुणाश्रयः । स्वाश्रयादन्यत्राप वतेमानत्वेन सूपः
ववेन च प्रमा द्रव्यरूपापि तच्छेषत्यनिबन्धनगुणग्यवहारो ।
एवमयमात्मा स्वप्रकाशचिद्रूप एव चैतन्यगुणः ।
$
नय
{~ नु ~ ~
१६८ सवेदशेनसंग्रहे- `
यहाँ कुद लोग शंका कर सक्ते हँ किं ज्ञान तो आत्मा का स्वरूप ( {,886-
70९ ) है, फिर ज्ञान उसका गुण कैसे होगा ? इस पर रामानुज का कथन है
कि यह शका ठीक नही । [ रामानुज जीवात्मा ओर परमात्मा दोनों को ज्ञान-
स्वरूप मानते ह, फिर ज्ञान उनका गुण भौ टै, एसा स्वीकार करते टहै। यह
उपन्यास ( 28४4.1131111670 ) आपत्तिजनक है क्योकि स्वरूप गण नहीं हो
सकता । किन्तु जिस श्रुति-प्रमाणसे आत्मा को ज्ञानस्वषूप मानते है, उसी
प्रमाण से आत्मा का गुणाज्ञान है, यह भी जानतेदहै। स्वष्प गुण हो सकता
है क्योकि स्वरूपवाले ज्ञान से गुावाले ज्ञान को पृथक् माना जाताहै।
इसमे दृष्टान्त भी है-- ] जिस प्रकार मणि, सूर्यं इत्यादि तंजस (पापा पकश्प)
पदाथं स्वयं प्रभा से युक्त स्वरूप से अवस्थित है, किन्तु प्रभालर्पी गुण के
आश्रयस्थान भीर (अर्थात् सूर्यादि तेज के स्वल्पमे होकर भी तेज के एक
प्रकार--प्रभा-गुण-से भरे दहै । स्वरूपहीगृणभी दहै),
अपने आश्रय से पृथक् होकर भी रहने पर तथा उसमे रूप ( 046 भ
॥118 ) होने के कारण द्रव्यके रूपमे रहने पर भी, प्रभा ( 11211 )
कोगुणके रूपमे पुकारते है क्थोकि वह सूर्यादिके तेज का उपकारी होने का
सौभाग्य रखती है । [ गुण किसी वस्तु में व्याप्य अथवा अव्याप्य वृत्ति धारणं
करके रहता है । आकाश मे शब्द उसके एकदेश में ही रहता है अतः अन्याप्य
वृत्तिवाला है, धटमें रूप चारों ओर से रहता है अतः व्याप्य वृत्तिवाला है ।
प्रभा नित्य ङूप से सूयं-सम्बद्ध है, फिर भी सूयं के अतिरिक्त समूद्र, पवंत, भूमि
आदि में देखी जाती है--इसलिये वह गृण नहींहै। दूसरे, प्रभाम शुङ्क-रूप
रहता है जिससे इसे द्रभ्य मानना पडतादहै) गणम गण नहीं रह सकता,
रव्य मँ गुण रहता है अतः प्रभा द्रव्यहै। फिरप्रभाको गुण केसे कटेगे ?
दकि सूर्यादि तेजो मे यह निवास करती है, गण भी द्रव्य मेँ रहते है, गुणों के
सादृश्य से प्रभा को गुण मानते है किन्तु यह् व्यवहार गौणा है, मख्य रूपसे तो
प्रभाद्रव्यहीदहै। ] ठीक इसी प्रकार, इस आत्मा का स्वल्प यद्यपि स्वयं प्रका-
हित होनेवाला चैतन्य है, इका गृण भी चैतन्य ही है (जो गौण प्रयोगसे
माना जाता है) ।
विद्ोष-जिस प्रकार प्रमा मुख्यतः द्रव्य है, गौणखूप से उसे गुण मानते
है; उसी प्रकार ज्ञान भी मुख्यतः द्रव्य ( आत्मा का स्वरूप है), गौणरूपसे ही
उसे गण कै रूप में समह्षते है क्योकि आत्माके रूपमे दूसरे द्रव्यो से सम्बद्ध
होकर गुणके ही समानहो जातादहै। अब श्रुतिप्रमाण से सिद्ध करते रहै करि
आत्मा का स्वरूप भी ज्ञान है ओर गुण भीज्ञान ही है।
रामानज-दशनम् १६६
तथा च श्रुतिः- स यथां सैन्धवधनोऽनन्तरोऽग्ाह्मः कृत्स
रसथन णत्रैवं वा अरेऽपनात्मानन्तरोऽबराह्मः इत्छः परज्ञान धनः
ज # ©
एव ( च° उ० ४।५।१३ ) । अत्रव पुरः स्वयंज्योतिभेवति
( बर० उ० ४।३।९ )। न विज्ञतरविज्तेर्विपरिलोपो विद्यते
( वृ० उ० ४।३।३० ) । अथ यो वेदेदं जिघ्राणीति स आत्मा
( छा० ८।१२)४ ) । योऽयं विज्ञानमयः प्राणेषु हचन्तज्यातिः
परुषः ( व° उ० ४।३।9 0 । एष हि द्रा स्प्रष्टा श्रोता घ्राता
रसयिता मन्ता बोद्धा कतौ विज्ञानात्मा परुषः ( प्रभो° ४।९ )
इत्यादिका । |
इसके लिए श्रुति-प्रमाण नी हे- जैसे नमक का टुकड़ा अन्तर-बाह्यका
मद बिना क्रिये ही ( सरवंत्र ) रस का ही खरड है, उसी प्रकार यह् अत्मा
मौ अन्तर-बाह्य के विभाजन से शून्य होकर ( सर्वत्र) प्रज्ञान काही खण्ड
है ( इसमे आत्म। को ज्ञानस्वरूप बतलाया गया है; वृ उ० ४।५।१३ ) ।
यहा ( स्वावस्था में ) यह पूरुष ( आत्मा ) स्वयंप्रकाशित होता दै ( वही,
४।३।९ ) । विज्ञाता ( मात्मा ) के ज्ञानं ( गुणप मे वर्तमान ज्ञान) का
विनादा नहीं होता है ( वही, ४।३।३० ) । जो यह समञ्ञेकि मँ दइसे सूघ रहा
हर वही आत्मा है ( ज्ञान उसका गुण हे; छा० ८।१२।४) । यह पुरूष जो
विज्ञान से युक्त इन्द्रियों ओौर हृदय मे मौ है, वह् अपने आप में प्रकाशित है
( प्रथम खरड मे ज्ञान गृण है, फिर ज्ञान आ्मस्वल्प है--वृ ° ४।३।७ }) । वह्
पुरुष हौ देखनेवाला, चरनेवाला, सुननेवाला, सु घेवाल।, स्वाद लेनेवाला, मनन
करनेवाला, समञ्लनेवाला, करनेवाला (सब जगह ज्ञान गुण है) तथा विज्ञानस्वल्प
अत्मा टै ( प्र° ४।९) इत्यादि ।
विोष-- इस प्रकार कुच श्रुतियों मे आत्मा को ज्ञानस्वरूप कुछ में ज्ञान-
गुणक तथा कुद तरं ज्ञानस्वरूप ओर ज्ञानगुणक दोनों मना गया है! आत्मा
केवल ज्ञाता ज्ञानगुणक ) दै, यह कंहनेवाले नेयायिक लोग भी परास्त हुए;
आतमा ज्ञानस्वह्प ही है, कहुनेवाले माय वेदान्ती मी गये ।
( ८. भावरूप अज्ञान मानने म श्रति रमाण नहीं दै )
न च (अनृतेन हि प्रत्युढाः' ( छा° ८।२।२ ) इति श्वुतिर-
विद्यायां प्रमाणमित्या्रयितं शक्यम् । ऋतेतरविषयो ह्नृतशचब्द्ः । `
सि भ
क ज क कायि
~~~ ~ रतः
२०० सबेदशनसंम्रहे-
ऋतशब्दश् कमेवचनः । “ऋतं पिथन्तौ' ८ का० ३।१ } इति
वचनात् । ऋतं कमं फलाभिसन्धिरहितं, परमपुरूषाराधनवेषं
तत्प्रापिफलम् । अत्र तन्रतिरिक्तं सांसारिकाल्पफएलं कमासतं
ब्रहमप्रापतिविरोधि । शय एतं ब्रह्मलोकं न षिन्दन्ति अनृतेन हि
्रत्यूढाः” ( छा० ८।३।२ ) इति वचनात् ।
"अनृत ( असत्य ) से ठेके हुए" ( छा° ८।३।२)*- यह् श्रुतिवाक््य अविद्या
के विषय मे प्रमाण ( ^ ५10८४ ) है, एेसा नहीं कहा जा सकता । "अनृत
का अ्थंहै जो ऋत (सत्य )सेभिन्नहो। ऋतः" का अथं है ( पुरय ) कमं,
कयोक्रि इस वाक्य मे- ऋत को पीते हए" कहा गया है [ जिसका अर्थं है कि
` वेदोनोंकम॑के फलों का अनुभव कररहेर्है।] ऋतका अ्थ॑है फलकी
कामना न रखते हुए किया गया कमं; परम पुरुष (ब्रह्म) कौ आराधनाके
रूप मे उसकी प्राति का फल मिलता है । यहाँ पर उससे भिन्न, सांसारिक तथा
थोड़ा फल देनेवाला कमं ही अनृत कहागया है जो ब्रह्मकी प्रातिका
विरोषी है। एेसा ही श्रुतिवचन भीटहै-जो इस ब्रह्मलोक को प्राप्त नहींकरते,
वे लोग अनृत ( सांसारिक फल ) से देके हुए है ( छा° ८।३।२ ) ।
मायां तु प्रकृतिं विद्यात्" ( श्वे उ० ४।१० ) इत्यादो
मायाश्ञब्दो विचित्राथेसगेकरत्रिगुणात्मकषम्रदरस्यमिधायको नानि-
वेचनीयाज्ञानवचनः
५, तेन मायासदक्चं तच्छम्बरस्याश्चगामिना ।
वाटस्य रक्षता देहमेकेकांशेन दितम् ॥ `
( वि° पु० १।१९।२० )
इत्यादौ विचित्राथसगंसमर्थेस्य पारमाथिकस्येवायुरा्यख्-
विषस्येव मायाश्षब्दाभिधेयत्वोपालम्भात् । अतो न कदाचिदपि
श्रुत्याऽनिवेचनीयाज्ञान प्रतिपादनम् ।
माया को मूलकारण समक" इस वाक्य मे माया-शब्द का अथं "विचित्र
पदार्थो की सृष्टि करनेवाली त्रिगुणात्मिका प्रकृतिः है, न कि अनिवंचनीय
१. इस वाक्य का मायावेदान्ती लोग अथं करतेहकि अनृत संसारका
मूलकारण मायानामकं भावरूपं अज्ञान दहै, उसी से शब्दादि विषयो द्वारा
कामनाओं की उत्पत्ति होने से लोग अपने वास्तविक रूप से हटा दिये जाते है ।
[= “= ,
रामान॒ज-दशेनम् २०१
( भावप ) अज्ञान । [ विष्णुपुराण के निम्नलिखित इलोक में ] विचित्र वस्तुओं
की पृष्ट मे समथं तथा पारमाथिक ( वास्तविक 8) ), अचर के अख्र-विशेष
काही बोध माया शब्द से होता दै--“बालक ( प्रह्वाद ) के शरीर कीरक्षा |
करते हए, उस आशुगामी [| विष्णु के चक्र ] ने शम्बर नामक राक्षस की हजारो |
मायाओं को एक-एक खणड करके नष्ट कर दिया" ( वि° पुर १।१९।२० ) । |
वलिण श्ुति्माण ते कमो मी अनि्वनोष अज्ञान का प्रतिपादन
नहीं होता । |
( ६. अज्ञान कौ सिद्धि अर्थापत्ति से भी नदी --“तच्वमसि' का अथे )
नाप्यैक्योपदेशचान्यथानुपपस्या । तचंपदयोः सविशेषत्रह्मा-
भिधावित्वेन विरुदयोजींबपरयोः स्वरूपैक्यस्य प्रतिपत्तुमशक्य-
तयाऽथापत्तेरनुदयदोषद्षितत्वात् ।
[ ^तच्वमसि" ( तुम वह हो ) इस वाक्य मे जीव ओर परमात्मा कौ
एकता का उपदेश दिया गया है। यदि इन दोनों में वास्तविक भेद होता तो
यह संभव नहीं था कि पेक्य दिखला दै, तथ्य यह है किं इन दोनो में काल्पनिक
मेद ही माना जायगा । यहं काल्पनिक भेद किसी अन्ध उपायं से सिदध नहीं
होता अतः इस अभेद ज्ञान के उत्पादक के रूप में--अर्थापत्ति-प्रमाण से--
अनिवंचनोय अज्ञान को स्वीकार करना पड़ेगा । इसका खर्ड करते हए
रामानुज कहते है किं जीव ौर परमात्मा में अज्ञान के अतिरिक्त | किसी दूसरे
प्रकार से एकता सिद्ध नहीं होती, इसलिए आप [ अज्ञान की सत्ता | नहीं मान
सकते [ स्मरणीय है किं जब किती विहेष अथं के अपादान ( ग्रहण ) के
बिना कोई वस्तु सिद्ध नहीं होती तब अर्थापत्ति-प्रमाण मानते ह-- मोटे देवदत्त
परिडत दिनमें खाति ही नहीं। इस वा्किय मेन खानेवाले देवदत्त की मोटाई
असिद्धहीहो जायगी यदि हम यहन कँ कि वेरात मेही दुगूना भोजन
करते है । यह "रात में दुगुना भोजन करना अर्थापत्ति प्रमाण से सिद्ध होता
है । यहाँ भी अज्ञान को न माने तो काल्पनिक भेद सिद्ध नहीं होगा । लेकिन
रामानुज इसे काट रहे है । ]
कारण यह है कि तत् ( वह ) ओर त्वम् ( तुम ) दोनों पदों भें सविशेष
( 0०91060 ) ब्रह्य का अथं है, आपस में विरोधी जीव जओौर परमाह्मा मे,
स्वल्प कौ एकता का प्रतिपादन करना ( इस वाक्य से ] कठिन है, अतः
अर्थापत्ति-प्रमाणा का यहाँ उदय ही नहीं होगा--यही दोष यहा लग जायगा [तत्
ओौर त्वम् दोनों सविशेष ब्रह्य के प्रतिपादक है, दोनों मे नीलो घटः' इत्यादि के
२०२ ` सवेद शंनसंग्रहे- |
समान समानाधिकरणता ( 1091४ ) है-दसी से वाक्यार्थं की षिद्धिहो
जाती है, अर्थापत्ति की आवश्यकता ही नहीं पडती । यदि किसी दुसरे प्रकार
से वस्तुसिद्धि नहीं होती हो, तब न अर्थापत्ति आवेगी ? |
तथा हि- तत्पदं निरस्तसमस्तदोषम् शनवधिकातिशया-
सह्कयेयकल्याणगुणास्पदं जगदुदयवरिभवलयलीरं ब्रह्म प्रतिपाद-
यति । (तदैक्षत बहु स्यां प्रजायेय' ( छा° ६।२।३ ) इत्यादिषु
तस्यैव प्रकृतत्वात् । तत्समानाधिकरणं स्वंपदं चाचिद्विरिष्ट-
जीवद्चरीरकं बह्माचष्टे । प्रकारदरयविशिष्टेकवस्तुपरत्वात् सामाना-
धिकरण्यस्य । |
इसे इस प्रकार समनं तत्" शब्द ब्रह्म का प्रतिपादन करतादहैजो
(ब्रह्म ) सारे दोषों से रहित है, असीम अतिशयो ( विशेषताओं ) से युक्तं तथा
असंख्य कल्याणप्रद गुणों का आगार है एवं संसार की उत्पत्ति, विभव (स्थिति)
ओर लय की. लीला दिखलाता है! “उसने देखा, मँ बहुत हो जाड, में उत्पन्न
होॐ' ( चा० ६।२।३ ) इत्यादि धरुतिवाक्यों मे उसी (ब्रह्य ) का वण॑न है ।
उसका समानाधिकरण ( 1067४108] ) "त्वम्" शब्द भो अचित् ( जड शरीर }
से वििष्ट जीव की देह धारण करनेवाले ब्रह्म काही बोध कराता है)
समानाधिकरणता ( [पथा ) दो प्रकारो से विशिष्ट किसौ एक ही वस्तु
पर निर्भर करती है । [ नीलो घटः" में एक ही वस्तु का बोध होता है किन्तु
एक प्रकार हैनील गुण से विशिष्ट होना, दूसरा प्रकार है घटत्वजाति से
विरि होना । तत् ओर त्वम् भी ब्रह्म के प्रतिपादक है किन्तु दोप्रकारोसे
विरि है । ]
विक्लेष--'तदैक्षत०' आदिमे ब्रह्मका संकल्प दिलाया गयाहै जो
संसार को उत्पत्ति के पूवं किया गया है। वे पहले निरीक्षण करते है, पुनः
बहत होने को कामना करते है कि चित्, अचित् के मिश्रण से जगत् के रूप
मेमेही बहुत बन जाऊं, उसके लिए पहले तेज, जल, अन्न आदिकेसूपमे
उत्पन्न होऊ । ब्रह्म का यह संकल्प तभो संमव है जब वे सभी दोषो से रहित हों,
अनन्त कल्याणकारी गुणो से संपन्न हों । इसलिए ब्रह्य मे वे सब गुण उपपन्न
होते ह । 'तच्वमसि' महावाक्य मे "तत्" शब्द से पसे ही ब्रह्म का बोध होता है ।
( १०. ("तचमसिः म लक्षणा--अद्वेत-पश्च )
ननु सोऽयं देवदत्त' इतिवत् तखमिति पदयोर्विरुद्रमाम-
त्यागलक्षणया निविंशेषस्वरूपमात्मेकः सामानाधिकरण्याथेः कि
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रामालज-दशेनम् | २०३
न स्यात् । यथा सोऽयमित्यत्र देशान्तरकालान्तरसंबन्धी पुरुपः
प्रतीयते । इदंशब्देन च संनिहितदेश्चवतमानकाान्तरसंबन्धी ।
तयोः सामानाधिकरण्येनेक्यमवगम्यते । तत्रैकस्य युगपद्विरुढ-
देशकालग्रतीतिनं संभवतीति योरपि पदयोः स्वरूपपरत्व
स्वरूपस्य चैक्यं प्रतिपत्तं शक्यम् । एवमत्रापि रकिंचिज्जत्व-
सर्वजञत्वादि.विरुद्रंश-परहाणेनाखण्डस्वरूपं लक्ष्यत इति चेत्--
[ मायावादौ लोग ] शंका करते है कि "तत्वमसि" महावाक्य मे भौ "ह
वही देवदत्त है" इस वाक्य को ही तरह ततु ओर त्वम् दोनों शब्दो मे विरुद्ध अंशं
को व्याग देने वालो लक्षणा से, आत्मा की एकता का बोघ क्यों नहा होगा,
इस एकता मे निर्विशेष ( {114प81;{164 ) स्वल्प रहता है ओौर इस प्रकार
समानाधिकरणता ( 1091167 ) का अथं क्यो नहीं हो जायगा ? 'सोऽयम्'
मे तत् शब्द से दूसरे स्थान भौर दूसरे काल से संबद्ध पुरुष का अथं मारूम
होता है) दूसरी ओर इदम् शब्द से निकट स्थान ओौर वत॑मानकाल-संबन्धी
पुरुष का बोध होता है । [ यहां देलना है कि दोनों पदों से भिन्ल-भिन्न स्थानो
जीर कालों का बोध होताहै, अतः दोनोंको एक वाय मं स्थापित करना
कुछ कठिन-सा लगता है इसलिए ] दोनों पदों कौ एकता स मानाधिकरण के
नियम चे ही संभवहै। यदिणेसान करं तो एकही पुरुष के उदेश्य के रूप
मे एक साथ ही विषु देश ओौर काल वाले शब्दों से उस पुरुष ( देवदत्त )
कौ प्रतीति संभव नहीं है, इसलिए दोनों पदं को हम व्यक्ति ( देवदत्त ) का
बोधक मानकर व्यक्ति की एकता समज्न सकते है । [ तात्पयं यह है किं देवदत्त
के उदेश्य के रूप मे दो शब्द यह' ओर "वही" अति है किन्तु दोनों शाब्दो में
स्थान ओर काल को लेकर काफी अन्तर है। जब दोनों एक दही व्यक्ति के
उदेश्य है तो अवद्य ही दोनों मे एकता होनी चाहिए, एकता तभी स्थापित `
हो सकती है जब दोनों शब्द मतभेदवलि अंश को निकाल दं! रेसीदज्षामें
उनका अपना अर्थं कम हो जायगा तथा लक्षणा से दूसरे अल्प अर्थं की कल्पना
करनी पडेगी । इसी को वविरुद्ध भाग त्याग करनेवाली लक्षणा कहते है ।
दस प्रकार “सः' बौर अयम्" के वीच एकता समानाधिकरणा के नियम ( 18
001वलप४ पि) से हो जायगी । ] इसी प्रकार, यहां मी जीवात्मा मौर परमात्मा
दोनों के बीच, "तस्वमसि' महावाक्य मे एकता हो सकती है यदि उन दोनों
के विरुद्ध अंश, जैसे थोड़ा जानना (जीवका गृण), सब कृ जानना
२० ५ सबेदशनसंग्रहे ७ (- ह ~=
( परमात्मा का गुण ) आदि, का त्याग हो जाय ओौर दोनोंके अखंड-स्वरूप
का बोध हो जाय! [ यह मायावादी लोगों का पूर्वपक्ष हमा । |
( १९. रामाचुज का उत्तर-प्च )
विषमोऽयघुपन्यासः । दृष्टान्तेऽपि विरोधवेधुर्येण रश्षणा-
गन्धासंभवात् । एकस्य तावद् भूतवतेमानकालदयसंबन्धो `
न विरुदः । देशान्तरस्थितिभूता संनिदितदेश्षस्थितिवेतेत इति
देधमेदसंबन्धविरोधश्च कालभेदेन परिहरणीयः । लक्षणापकषे-
पयेकस्यैव पदस्य लक्षकत्वाश्रयणेन विरोधपरिदरे पदद्वयस्य
लाक्णिकत्वस्वीकारो न संगच्छते ।
मायावादियो की यह स्थापना बिल्कुल व्यथं है । "यह वही देवदत्त है
इस हष्टान्त मे भी विरोध नहीं है, अतः लक्षणा कौ गव भी इस वाक्यमें
नहीं है । एक ग्यक्ति का संबन्ध यदि भूत ओर वतंमान दोनों कालो से [ भिन्न-
` भिन्न अवस्थाओं मे, एक साथ नहीं } हतो कोई भी विरोध की बात नहीं
[ जिससे लक्षणा स्वीकार करने कौ आवदयकता हो, यहं तो स्वाभाविक ही
है । ] दूसरे स्थान में उसकी स्थिति भूतकाल मँ थौ अब उसकी स्थिति निकट
स्थान मे है इसलिए स्थान के भेदो का संबन्ध, जिससे विरोध होने की संभावना
है, उसे कालका भेद मानकर समज्ञा सकते ह । [ कहने का अभिप्राय यह है
कि सः" ओर "अयम्" शब्दों मे विरोधदहै ही नहीं कि लक्षणा मानें । यह
माना करि "सः" का मतलब दूसरे काल ओौर दूसरे स्थान में अवस्थित पुरुष
है, यह भी माना किं अयभरू' का अथं निकट काल ओर निकट स्थान में
अवस्थित पुरुष है । किन्तु क्या दो स्थानों मे एक ही व्यक्ति नहीं रहं सकता !
हा, यदि एक साथ एक ही समय मेँ आप करै तो संभव नहीं है। सो बात तो
यहाँ है नहीं । वह पुरुष दो विभिन्न कालोँमे दो स्थानों पर था। भूतकाल
मे दूर पर था लेकिन वतंमान-काल में निकट आ गया । अतः कोई विरोध यहां
नहीं है । फिर लक्षणा क्यों स्वीकार करं । |
फिर भी, यदि आप लक्षणा मानने के लिए ही सिर पर सवार तो लक्षणा
म भी एक ही शब्द लाक्षणिक होता है। किन्तु उक्तं विरोध से बचने के लिए
दो पदोंको (सः गौर अयम् को ) लाक्षणिकं स्वीकार करना पडता है जो
वास्तव में संगत नहीं ।
विरोष-माघवाचायं का उपर्युक्त कथन चिन्तनीय है! लक्षणा मे यह
आवश्यक नहीं कि लाक्षणिक एक ही पद हो । लक्षणा मे केवल अन्वय का
रामानज-दशनम् २०५
ही विरोध नहीं किया जाता बल्कि तात्पर्थाथं का भी विरोध होता है। इसके
लिए एक पद के समान ही दो, तीन या समी पदों कौ लक्षणा होती है ।
(विष खा लो पर उसके घरमे भोजन मत करो" इसमे सभी पदों की लक्षणा
हे । लेकिन एक बात है। वह यह किं लाक्षणिक चाहे कितने भी पद हों परन्त
लक्षयता का व्यापक कोई एक ही होता है अर्थात् लक्ष्याथं एक ही होगा ।
इतरथेकस्य वस्तुनः तततेदं ताविशिष्टत्वावगाहनेनं म्रत्य-
भिज्ञायाः प्रामाण्यानङ्गीकारे स्थायित्वासिद्धौ क्षणभङ्गबादी
दो विजयेत । एवमत्रापि. जीवपरमात्मनोः शरीरा त्मभावेन
तादात्म्यं न विरुद्धमिति प्रतिषादितम् । जीवात्मा हि ब्रह्मणः
शरीरतया प्रकारत्वाद् ब्रह्मात्मकः । "य आत्मनि तिष्ठनात्मनोऽ-
न्तरो यमात्मा न वेद यस्यात्मा शरीरम् ( ब° २।०९ ~ )
इति श्रुत्यन्तरात् ।
यदि दोनों षदो मे लाक्षणिकता मान त्तं तो एक वस्तु को “इदम् ओर
“तत्” दोनों के गुणो से विशिष्ठ मानकर, प्रत्यभिज्ञा ( ‰€०0द्ुणाप्र०पे ) को
प्रमाण के रूपमे स्वीकार नहीं करना पडेगा । इस तरह स्थायित्व नाम की
कोई चीज नहीं रह जायगी, क्षणभगवाद करो स्वीकार करनेवाले बोधो की
ही विजय हो जायगी । [ रामानुज का यह पूना है कि काल मे भेद होने से
वस्तु मे भेद पड़ता है कि नहीं ? यदि नहीं पडता है तो लक्षणा की आवश्यकत।
ही क्या है। यदि वस्तु कालक्रम से भिन्न होती चली जाती है तो क्षणिकवादी
बद्धो का सिद्धान्त ही यह हो जायगा ! किन्तु वास्तव मे यह बात चिन्तनीय
है क्योकि बौद्ध-मत उसी समय स्वीकार किया जा सकता दै जब उपाधि में
भेद हो अर्थात् जव दो वस्तुओं मे भिन्न-भिन्न उपाधियौँ हों । किन्तु यहां पर
वस्तु तो एकलूप ही रहती है ! "यह वही देवदत्त हैः इस वाक्य मे अभेद की
उत्पत्ति नहीं कौ जाती क्योकि वह॒तो पहलेसे ही है। अभेद कौ सूचना ही
यहाँ भिलती है । फल यह इजा कि अभेद बतलाने के लिए इस वाक्य मे
लक्षणा का आश्रय लेना आवश्यक है । |
ठीक दसो प्रकार इस ( त्वमसि ) वाक्य मे जीव ओर परमात्मा दोनों के
बोच शारीर ओर आत्मा का संबन्व है इसलिए तादात्म्य ( 106४ ) स्ना
विरोध नहीं होता यही प्रतिपादित किया गया है । जीवात्मा ब्रह्य का शरीर
है । इसलिए वह् ब्रह्म का ही एक प्रकार है, ब्रह्यात्मक है । इसके लिए वेद का
| | । । | | सर्वदर्शनसंग्रहे क
| | । || २०९ -
॥।
| दसरा प्रमाण भी है-जो आत्मा में रहता है, आत्मा से भिन्न दूसरी आत्मां
जिस परमात्मा को. नहीं जान पाती, आत्मा जिसका शरीर है ( बृ° ३।७२२ )।
विशोष--यहाँ जीव ओौर ईश्वरके बीचके भेदको बाधने की बहुत ही
सुन्दर चेष्टा हुई है। जीव को शरीर माना गया ओौर ईश्वर उसकी अत्माहै।
{|| आत्मा ओर शरीर च्रकि परस्पर विरोधी शब्द है अतः दोनों के बीच शरीरात्म
| | | भाव दिखाकर त्वम्" शब्द का अथं जीवके शरीरको धारण करने वाले
| परमात्मा के रूपमे किथाजाताहै। "तत् त्वभू कहने पर कोई विरोध नहीं
है-- तादात्म्य दोनों मे हो सकता है ।
|
¢ | | ( १२. सभी शाब्द परमात्मा के वाचक हँ )
अस्यस्पमिदगुच्यते । सर्वे शब्दाः परमात्मन एव वाचकाः ।
न च पयोयत्वम् । द्वारभेदसंभवात् । तथा हि जीवस्य शरीर-
तया प्रकारभूतानि देवमनुष्यादिसंस्थानानीवं सवांणि वस्तूनीति
बरह्मात्मकानि तानि सवाणि ।
¬ [ त्वम" शब्द से जो जीव के अन्तर्यामी परमात्मा का बोध हृभा ] यह तो
। थोडा साही कहा गया । वास्तवमें तो संसार मे जितने भी [ वट, पट, मनुष्य
६ | आदि ] शब्द है, सभी परमात्माके ही वाचक रहै । एसी दशा मे यह बात नहीं
॥ । है कि वे (शब्द) एक दूसरे के पर्याय हो जायं क्योकि सभी शब्दो मे द्वार के भेद
\ । की संभावना है ( घट-शब्द घट-पदाथं की अभिव्यक्तिके द्वारा अपने अन्दर के
| परमात्मा का बोधक होगा, इस प्रकार सभी राब्द अपने निशित वषदार्थोके
॥ ॥ दवारा परमात्मा का बोध कराते है जिस विधिसे बोधहोताहै उसीके द्वार
॥ | मे अन्तर है ) । जैसे देवताओं, मनुष्यों ओौर अन्य योनियों के शरीर के अवयव
१। उनमें निवास करने वाले जीव के शरीरके विभिन्न प्रकार ( ए०्)ऽ ) है,
॥| उसी प्रकार सारी वस्नं ब्रह्यात्मक ह । [ मनुष्यों के शरीर के विविध अवयव उस
श | शरीर कै विभिन्न रूप है, उन अवयवों को. हम मनुष्या्मक कहते है क्योकि
| । | सब मनुष्यके हीरहै। ब्रह्मके शरीरके विविध अवयकोंके रूपमे ये सारी
1 | वस्तुं दृष्टिगोचर होती हँ अतः ये ब्रह्यात्मक है । |
| अतः- |
॥ ६. देवो मचुष्यो यक्षो वा पिशाचोरगराक्षसाः ।
॥ पक्षी वृक्षो रता कष्ठे शिला तृणं वटः पटः \
[क =
अ
रामानुज-दशनम् २०७
इत्यादयः स्वे शब्दाः प्रकृतिप्रत्यययोगेनामिधायकतया
प्रसिद्धा लोके, तद्वाच्यतया प्रतीयमानतत्तत्संस्थानवदरस्तुपुखेन
तदभिमानिजी (क ¢ क
बतदन्तर्यमिपरमात्मपयेन्तसंघातस्य वाचकाः ।
देवादिक्ल # © # ९ न्
ब्दानां परमात्मपर्यन्तत्वग्ुक्तं त्श्ुक्तावस्यां चतुथेरे ।
७, जीवं देवादिश्षब्दो बदति तदप्रथक्सिद्धभावाभिधाना-
निष्कपीमावयुक्ताद्हरिह च ट्टो लोक्वेदप्रयोगः ।
आत्मासंबन्धकारे स्थितिरनवगता देवमत्यादिमूतं-
जीवात्मानुप्रवे्ाज्ञगति विथुरपि व्याकरोन्नामस्पे ॥
( तत्छभुक्ताकलापः ४।८२ ) इति ।
इसलिये, देव, मनुष्य, यक्ष, पिशाच, सपं, राक्षस, पक्षी, वृक्ष, लता, काष्ठ,
हिला, घट, पट आदि सभी शब्द प्रकृति ( 1\0०४ ) ओर प्रत्यय ($णीीड )
के जोड़ने से क्रिसी न किसी अंका बोधक होने पर लोकव्यवहार में प्रसिद्ध
है । अपने उसी बाह्याथं से वे अपने-अपने शरीरावयवा को धारण करने वाली `
वस्तुओं का बोध कराते है तथा इसी प्रकार, उनका नियन्त्रण करने वालि जोव |
का ( सजीव वस्तुनो मे ) तथा उसके बाद उसके अन्दर मे नियामककेरूपमें |
रहने वाले परमात्मा तक के सारे समूहो (अर्थो) का बोधमभी ये शब्द ही |
करा देते ह । [ हमलोग शब्दों की महत्ता केवल बाह्य वस्तुओं का बोघ कराने |
मे ही समञ्लते है । लेकिन शब्द न केवल बाह्यां का प्रत्युत अन्तर्यामी परमात्मा
तकं का बोध कराने मे समथं हं । शब्द से वस्तु का बोध होता है, वस्तु से उसके `
भीतर रहने बाले जीव का, फिर जीव से परमात्मा का-इस प्रकार ये बहुत से
संघात बीच मे १३ते है । ]
देवादि शब्द परमात्मा तक का बोध करा देते है, यह तच्वमुक्तावली के
चतुथं सर ( अध्याय ) मँ कहा गया है--देव भादि शब्द जीव का बोध कराते
ह क्योकि उस ( जीव ) से पृथक न ॒रहनेवाले सिद्ध-माव ( देवादि कां शरीर )
का उल्लेख किया जाता है । [ जोव के बिना शरीर क स्वरूप नहीं सिद्ध किया
जा सकता है । इसलिए शरीर जीव से अपृथक् है, यह सिद्ध है।] इस अर्थ
मे, लोक ओौर वेद दोनों मे [ देवादि शब्दों का | प्रयोग बहुत ॒दृ़तासे होता
हे, कि [ जीव ओर शरीर मे ] निष्कषं ( पार्थक्य [20676706 ) का अभाव
है। [ लोक में देव, मनुष्य, पशु आदि शब्दों का प्रयोग शरीर तथा जीव दोनों
के तए होता है, किसी एक के लिए नहीं । वेदमें भी जहाँ-जहाँ देवत्वं प्राप्नोति
२०८ सवेदशेनसंग्रहे-
॥ | गच्छति" का प्रयोग है वहाँ-वहाँ "देवत्व" का अथं है देवता के शरीर की विशेषतः)
| | | ।, इस प्रकार दोनो स्थानों मे विशिष्ट अथ॑मेंही इन शब्दोंका प्रयोग होता है।
| | | इसमे कारण यही है कि शरीर से शरीरी ( जीव ) अपृथक् रूप से सिद्ध है।]
। "आतमा से सम्बन्ध विच्छिन्न हो जाने पर देव, मनुष्य आदि के शरीर
१ ( मूरति ) की स्थिति पले जैसो नहीं जानी जाती। [ मरजाने पर शरीर क्षण ए
भर भी पहले नैसा नहीं रहता जब क्रि उस शरीर में जत्मा या जीव का
| वास था । ] यहाँ तक कि परमात्माने भी वस्तुओं मे जीवात्मा का प्रवेश होने
| के कारणा ही संसार मे नाम ( पि१०९ ) ओर रूप ( {0४0 ) कीसृष्टिकी।'
| | विरोष-वेद्कटनाथ या वेदान्तदेशिक के लिखे हए बहुत से ग्रन्थो में
| तच्वमुक्ताकलाप भी एक है । वेदान्तदेशिक का समय ५९९७ से १३६८ ई०
| है। उक्त ग्रन्थ पर उम्होनि स्वयं भौ एक टीका लिखी थो। इस म्रन्थमें
| विशिष्ठादरैतवाद के मुख्य सिद्धान्तो का वणन स्रग्धरा छन्दो में किया गथा है ।
॥ ॑ इसमे पाच सर ( लड़ी ) है । इनमे मशः जडद्रव्य, जीव, नायक, बुष गौर
| | अद्रव्य इन पांच विषयों का वर्णन है । प्रस्तुत स्थल मे उसो ग्रन्थ की सहायता
| ` चे देव आदि शब्दों से परमात्मा तक का बोध होता है-पही बतलाया जा रहा
है । कुड इलोकों के तो केवल संकेत ही किये गये हं ।
अनेन देवादिशब्दानां शरीरविशिष्टजीवपयेन्तत्वं प्रतिपा,
(संस्थासैक्थाद्यमावे' ( त० भु° क ४।८३ ) इत्यादिना
शारीरलक्षणं दद्मयित्वा, शब्देस्तन्वंशरूपग्रमृतिः" ( ४।८४ )
इत्यादिना विशस्येधरा प्रथकसिद्त्वयुपपाय, 'निष्कपीड् त'
नीः @ ॥ ५९५ ॥
| ८ ४।८५ ) इत्यादिना पेन सर्वेषां शब्दानां परमात्मपवन्तर्
प्रतिपादितं € ©
, तत्सवं तत॒ एवावधायम्। अयमेवाथेः समथितो
© संग्रहे
बेदार्थसगरदे नामरूपशरुतिव्याकरणसमये रामालुजेन ।
उपर्युक्त इलोक में यह सिद्ध किया गया है कि देव आदि शब्दो का अर्थं
| शरीर से युक्त ( पृथक् न रहनेवाले ) जीव तक है । पुनः 'संस्थानेक्याद्यभवि'
| ( ४।८३ ) इससे आरम्म होनेवाले इलोक मं शरीर का लक्षण किया गया है,
| | पुनः शब्दैस्तन्वंहरूप' ( ४।८४ ) इस शलोक म यह सिद्ध किया गयाहिकि
। विश्च श्वर से प्रथक् सिद्ध नहीं हो सकता । अन्त भे (निष्कर्षादूत' ( ४।८५ )
के द्वारा सभी शब्दो को परमात्मा का बोधक बतलाया गया है। ये सभी चीजें
वहीं से जाननी चाहिए । रामानुज ने भौ नाम ओर हूपका वणेन करनेवाली
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॥ |
।
रामानज-दशेनम् २०६
रुतियों का विदलेषण करते समय अपने वेदाथ-संग्रह नामक ग्रन्थमें भी यही
बात पुष्टकीदहै।
विद्ोष--तच्वमुक्ताकलाप के उपयुक्त संकेतो क पूर शछछोक यों है--
संस्थानैक्यायभावि बहुषु निरुपधिदेहशब्दस्य रूढि
लेकान्नायप्रयोगानुगतमिह ततो लक्ष्म निष्कर्ष॑णीषम् ।
अग्याप्तत्वादिदु स्थं परमतपठितं लक्षणं तत्र तस्मात्
यद्धीतुल्याश्रयं तद्वपुरिदमपृथक्सिद्धिमद् द्रव्य भस्य ॥\
[ संसारके सभी जीवधारिथो मेँ] शरीर की रचना कौ एकता नहीं देखी
जाती, बहुत से पदार्थो में देह शब्द का प्रयोग ( रूढि = (00४९0४० }
उपाधिहीन ( 110 0110} 60081 ) ही है, यह लोक रौर वेदक प्रयोगो रे
सिद्ध है! इसलिये उसके अनुलूप हौ एक लक्षण ( शरीर का ) निकालना
चाहिये । दूसरे मतो के अनुसार दिये गये लक्षणं अव्याप्ति आदि दोषो से दूषित
है [जैसे नैयायिक लोग॒चेष्टाश्रयत्व शरीरत्वम्" कहते है, ईश्वर के शरीर
के रूप मे अभिमत काल आदिमे चष्ट नहीं है अतः पूरे शरीर के अर्थंको
यह लक्षण व्याप्त नहीं करता । | इसलिये शरीर का लक्षण होगा --बुद्धि का
आश्रय ही जिसका आश्चय है, जो द्रव्य जिक्षसे पृथक् होकर नहीं रहं सकता,
वही उसका शरीर है । [ शरीर का जाधार वही है जो बुद्धि काहि, शरीर बुद्धि
से पृथक् नहीं हो सकता, जो जिससे पृथक् नहीं हो वही उसका शरीर है। ] `
श्दैस्तन्वंशरूपप्रभृतिभिरखिलः स्थाप्यते विशवमूत्त-
रित्थं मावः परपन्चस्तदनवगमतस्तत्पृथक्सिद्धमोह: ।
श्रोत्राचैराश्रयेभ्यः स्फुरत खलु पृथक् शब्दगन्धादिधमों
जीवात्मन्यप्यदृश्ये वपुरपि हि दृशा गृह्यतेऽनन्यनिष्टम् ॥
तनु, अंशः, रूप आदि शब्दों से यह सिद्ध होता है कि इस सूप मे ( पृथक्
न रहकर सिद्ध होनेवाला ) यह समूचा संसार ( प्रपंच ) उस विश्वमूति ( विष्णु )
काही दहै (विष्णु से पृथक् यह जगत् सिद्ध नहीं होता ) । इसे नहीं समने
के कारण मूखं लोग ईश्वर से जगत् को पृथक् समक्षे कौ मूर्खता ( मोह ) करते
१. उदाहरण -- तत्सर्व वै हरेस्तनुः ( वि पु° १।२२।२५ ) ।
२. ममैवांशो जीवलोके ( भ० गी° १५।७ ) ।
३. दे खपे ब्रह्मणस्तस्य ( वि° पु० १।२२।५३ ) ।
५ आदि से शक्ति, काय, शरीर आदि का ग्रहण होता है--विष्णुशक्तिः
परा प्रोक्ता ( विं° पु० ६।७।६ ), यदम्बु ष्वः कायः ( वि° पू २।१ २।३७ ),
यस्यात्मा शरीरम् ( बरृ° उ० ३।७।२२ ) इत्यादि ।
१४ स० सं
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२१० सर्वदशेनसंम्रदे-
है। [ ज्ञानी लोग प्रप॑च को सदैव श्वर से अपृथक् ही सिद्ध समन्ल कर अपने
घ्यवहार चलाति दै । ] जिस प्रकार, श्रोत्र, घ्राण आदि टृद्दरियो के द्वारा, शब्द
गन्ध आदि गुणो का ग्रहण ८ ^" <] 69) ), अपने आशयो ( आकाश,
पृथिवी आदि ) से पृथक् होकर ही होता है [ कयोक्रि इन्दियां आश्रय को ग्रहण
नहीं कर सकतीं, अतः धर्म का ज्ञान अकेला ही होता है], उसी प्रकार अटश्य
जीवात्मामे भी [ ईक्वरका ग्रहण करने मे असमथं लोग | अपनी नंगी आंखों
चे केवल शरीर का ग्रहण करते है, किसी अन्य पदां ( जीव ) का ग्रहण नहीं
करर पाति । [ इन्द्रियां केवल गुणों का ग्रहण क ` सकती है, उनके आधार का
नहीं । केवल बाह्यन्द्ियो का सहारा लनेवाले मूखं लोग भी केवल शरीर का
ग्रहृण कर सकते है, जीव से विदिष्ट ( अपृथक् सिद्ध ) शार का नहीं । आंखों
से जीव के देन नहीं हो सकते । |
उप्ुक्तं दोनो शोको म संसार को परमात्मा से अपृथक् सिद्ध किया गया है।
अब संसार के वाचक शब्दों का "वार्थवय' ( निष्कषं ) अथंन होने के कारण
परमारमा ही अथं है, यह बतलाया जा रहा द--
निष्कर्षाकूतहानौ ` विमतिपदपदान्यन्त रात्मानमेकं
तन्पूतेर्वाचकत्वादभिदधति यथा रामकृष्णादिशब्दाः
~` सर्वेषामापमृख्यैरगणि च वचसा शाश्वतेऽस्मिन्प्रति्ठा
यास्तस्य प्रतीतेजं गति तदित रेः स्याच्च भञ्कत्वा प्रयोगः ।
जहौ [ जीव बौर शरीर मे ] पाथंक्य रखने का अभिप्राय नहीं है, वहाँ
विवादास्पद ( विमतिपद ) शब्द भो एकमात्र "अन्तरात्मा" ` अथं का ही बोघ
कराते ह क्योकि सारे शब्द उत ( ईश्वर ) की मूत्त (00) के ही वाचकं है।
राम, कृष्ण आदि शब्द भी एमे ही ह [ जिनसे परमात्मा के अर्थंका बोध होता
ह] । आप्त ( प्रामाणिक ) लोगों मे प्रधानो ( महषियों ) ने इसी शाश्वत ब्रह्य
सं सारे शब्दों की अवस्थिति मानीदै) { यह अवस्थिति वाच्या्थंके ही रूप ५
है, दूषरी किसी शक्ति कौ आवश्यकता नहींहै)। एक ठेसी ही उक्ति भी दै--
"तता; स्म॒ सर्ववचसां प्रतिष्ठा यत जञाश्चती ।' 1] पाको ( अज्ञा नियो, डिम्भों ) के
१. कहीं-कहीं जीवात्मा ओर शरीर में अपृथक्-सिदि हो जाने पर भो
वार्थक्य से प्रतिपादन होने के कारण वार्थक्य अथं अमीषु होता हे जेसे-यह
जीवातमा का शरीर है! यहा शरीर का अथं जीवात्मा-पयंन्त नहीं होगा, केवल
शरीर काही यहाँ अथंहै\ "यस्य पृथिवी शरीरम् यह मौ पृथिवी शब्द इसी
प्रकार काद, इससे परमात्मा तक अथं नहीं हो सकता \ जही रेस विवक्षा नहीं
ह वहाँ तो प्रत्येक शब्द परमातमा तक का वाचक हो सकता हे \. ।
राभानुज-दशेनम् २११
दारा उसकी प्रतीति नहीं होती, उनके साथ संसारमें व्यवहार करनेवाले दुसरे
( विदान् ) लोग भी तोड़कर ( लक्षणा से ) शब्दों का प्रयोग एक ही अथंमें
( लौकिक वस्तुओं के अथं में) करते है। [ वाच्यां तो शब्दोंका परमात्मा
ही दहै, लक्ष्याथंये सारी वस्तु है क्योकि इसी अथं में जीव ओौर शरीर की
पृथक् सिद्धि होती है, गौण अथं ( 9600110 11681102 ) का सहारा
लिया जाता है) )
( १३. निर्विरोष ब्रह्म की अप्रामाणिक्रता )
विच सर्वप्रमाणस्य सविशेषवरिषयतया निविहोषवस्तुनि
न किमपि प्रमाणं समस्ति । निविकस्पकप्रत्यक्ेऽपि सविशेषमेव
वस्तु प्रतीयते । अन्यथा सविकरपके सोऽयमिति पूवप्रतिपन्न-
प्रकारविशिष्टप्रतीत्यनुपपततेः ।
इसके अतिरिक्त, च्ंकि सभो प्रमाणो का विषय ( (20९५४ ) सविशेष
( 06०१५६९, रूपादि से युक्त ) पदार्थं हुजा करता है इसलिए निविशेष
( आकारप्रकार हीन ) वस्तु कौ सिद्धिके लिए कोई रमाण सङ्गत. नहीं हो
सकता । यही नहीं, निविकल्पक प्रत्यक्ष (110९९1१8, ‰ €६५७[भ०)
मे भी सविशेष ( आकार-प्रकार से युक्त } ही वस्तु कौ प्रतीति होती है [नकि
नैयायिको के अनुसार निधिरेष वस्तु कौ] नहीं तो सविकल्पक प्रत्यक्ष
( [नैलः 7१९४९ 6९८) ) मे "यह वही है" इस वाक्य मे पहले से
प्रतिपादित वस्तु के आकार-प्रकार आदिको विशेषतायं नहीं जानी जा सकतीं ।
[ जबतक हम पहले से वस्तु के आकार-प्रकार नहीं जानँगे तो केसे कह सकते ठँ
करि यह वही वस्तु है। अतः निविकल्पक प्रत्यक्ष मे वस्तु कौ विशेषतायं अवश्य
ज्ञात होनी चाहिए । |
विरोष--रामानुज का निधिकल्पक ओौर सविकल्पक नेयायिको से कु
भिन्न है, इसीलिए वे इस प्रकार की पक्तियां लिख रहे ह ¦ नैयायिक लोग निवि-
कल्पक को निष्प्रकारक ज्ञान समक्षते ह जिसमे वस्तु की सत्ताही ज्ञात रहत है
जसे - -इदं चित् । रामानुज निविकल्पक प्रत्यक्ष कौ परिभाषा यों करते ह
एकजातीयद्रव्येषु प्रथ मपिरडग्रहणम् अर्थात् एक प्रकार कौ वस्तुओं मे प्रथम
विड का श्रहणा करना । देवदत्त जब पहले से न देवे हूए धट को देखकर यहं
ज्ञान पाता है कि यह धट है ( अयं घटः ) तो यह निविकल्पक हमा । यहाँ
यथपि चटत्व के रूप मेँ उस घट का प्रकार प्रतिभासित होता है फिर भी यह.
चटत्व इस प्रकारं के दूसरे धटो मे ( एकजातीयद्रभ्येषु ) अनुवृत्त है-यह
9 ~ कि
नि
२१२ स्बेदशंनसंग्रहे-
अनुवृत्ति का प्रकार नहीं प्रतीत होता, इसलिए इस ज्ञान को वे निर्विकल्पक कहते
हं । जव वैसा ही दूसरा घट देखते है तब पहले देखे गये घट के आधारपरही
कहते ह क्रि यह भी उसी जाति ( (1888 ) का है यह अनुवृत्ति ( "घटत्व की }
प्रतीत होती है, इसलिए यह ज्ञान सविकल्पक है जिसका उदाहरण दै -
सोऽयं घटः । नैयायिक लोग सविकल्पक का अथं वस्तु का प्रकार आदि लेते है
जिसमे “अयं रूपादिविशिष्टठो चटः' कहते है । रामानुज का सविकल्पक नैयायिको
की प्रत्यभिज्ञा ( {€५0९ 01४00 ) है ।
सभी प्रमाणो मे सविशेष वस्तु काही ग्रहण होता है। यदि वस्तुमे रूप
आदिन होतो प्रत्यक्ष प्रमाण कीतो प्रवृत्ति होगी ही नहीं क्योकि प्रत्यक्ष के
लिए वस्तु ओर इन्दि का संनिकषं होना आवश्यक है; जबतक वस्तु मे कोई
गुरा नहीं, तब तक किसी वस्तु का प्रत्य नहीं होगा । दूसरे सारे प्रमाणा प्रत्यक्ष
के ही आधार पर होते है अतः उन सनो की भी प्रवृत्ति नहीं हो सकती । यही
कारण है करि रामानुज शङ्कुर के निविशेष ब्रह्य (ए पवुप्रशो € ८७१२)
का खरडन करते ह ।
( १४. प्रपञ्च की सत्यता )
कि च तचमस्यादिवाक्यं न प्रपश्चस्य बाधकम् । भ्रान्ति-
मृरकत्वात्; आ्ान्तिपरयुक्तरज्जसर्पवाक्यवत् । नापि ब्रहमातमेक्य-
ज्ञानं निवतंकम् । तत्र प्रमाणामावस्य प्रगेवोपादनात् । न च
[> एकविज्ञाने सर्वविज्ञान
प्रपञ्चस्य सत्यत्वग्रतिष्ठापनपश्च एकविज्ञानन प्रतिज्ञा-
व्याकोपः।
इसके अतिरिक्त "तत्वमसि" आदि वाक्यों को [ शङ्कुराचायं की तरह | इस
दृश्यमान जगत् ( प्रपञ्च ) का विरोधी ( बाधक ) नहीं समञ्चना चाहिए । इसके
मूल में भ्रान्ति ( 1]पञ० ) है, जैसे रम मे ही प्रयुक्त होनेवाले ^रस्सी-सापि'
के वाक्यभे हम पाति ह! [ यह रस्सी नही, सप है--यहाँ रस्सी को साप
समक्षना भ्रान्ति है) श्रान्त व्यक्ति की बात पर किसी को विश्वास नहीं होता दै ।
वास्तविक रस्सी को सांप समक्नेवाला व्यक्ति ही भ्रान्त दै । वैसे ही यदि प्रपञ्च
को ्राम्तिमूलक मान लें तो वेदादि भी भ्रममूलक ही हौ जा्यँगे-फिर उनकी
बात पर विश्वास ही कौन करेगा ? "तत्वमसि" वाक्य भीतोवेदके अन्तगंत है
जो स्वयं एक प्रपञ्च होने के कारण भ्रान्तिमूलक है । फिर इस वाक्य के आधार
पर प्रपञ्च का बाध केसे कर सकगे ? |
पुनः, ब्रह्म भौर जीव मे एकता का ज्ञान हो जाने से प्रपञ्च की निवृत्ति
रामानज-दशेनम् २१३
( नाश) हो जाती हो, एसी बत नहीं, क्योकि [ ब्रह्य ओर आत्मा की एकता
के विषय में ] कोई भी प्रमाण नहीं है, यह हमने पहले ही सिद्धकरदियादै।
[ अविद्या को मानने के लिए कोई प्रमाण नहीं है, यह कह चुके है । ब्रह्म ओौर
आत्मा मेँ प्रव्यक्त भेद है जिसका तिरस्कार नही किया जा सकता, अत. ब्रह्य
जौर आतमा की एकता प्रमाणो के हारा सिद्ध नही होती । यही नही, जब सभी
प्रमाणो को सविदेषवस्तु के षूप मे विषय को आवश्यकता पडती दहै, तब तो
विशेष का अथं है एक भौर पदाथं । विशेषण ओर विज्ञेष्य में एकता केषी ?
अतः जोव ब्रह्मका विशेषण दहै, दोनों मे एकता किसी प्रमाण से सिद्ध नहीं
होती । जब एकता नही हैतो किसी भी मूल्य पर प्रपञ्चकानाश नहीं होगा ।
स्मरणीय है करि शङ्कुर अविद्या कौ निवृत्ति से जोव-ब्रह्म की एकता मानते ह
ओर उसके बाद प्रपञ्च की श्नान्ति मिट जाती है जिससे परुष मुक्त होता है ।
रामानुज न तो च्ान्तिमूलक प्रपञ्च मानते है, न प्रपञ्चका नाश, न ब्रह्य-जीव
की एकता ओर न ही जीवन्मुक्ति । ।
अव, यदि सत्यके रूपमे प्रपञ्च को प्रतिष्ठित ( सिदध) करं तो भी एक
के ज्ञानसे सवों का ज्ञान हो जायगा" इष प्रतिज्ञा मे बाधा नहीं पडती ।
[ शंक्राचायं परमारमा के अतिरिक्त किसी को सत्य नहीं मानते । प्रपञ्चमात्र को
आत्मा पर आरोपित करते है, इसलिए प्रपञ्च के आधार के रूपमे जो आत्माहै
उवे जान जेन पर सारे प्रपञ्चका ज्ञान हो जाता है । छान्दोग्य उपनिषद् (६।१।४)
म कहा गया है--यथ। सेम्येकेन मृत्पिण्डेन सर्वे शृण्मयं विज्ञातं
स्यात् इसी की ओर संकेत है। रस्सी जान लेने पर रकखापमें क्या तस्व है",
यह ज्ञातो जातादै। सभी वस्तुओं के ज्ञान का अर्थं है सवों मे विद्यमान
तच्वांश का ज्ञान हो जाना। दूरे अंशोमे साम्य है कि नहीं, यह् दिखलाना
जलरी नहीं है । इसीलिए सम्पूणं जगत् के विवतं का उपादान-कारण
( 19४९१] ०8०8९ ), परमारेमा सिद्ध होता है । रामानुज केवल
वरमात्मा को ही सत्य नहीं मानते, संसारमात्र उनके लिए सत्य है। एेसी
अवस्था मे केवल एक के ज्ञानसे सबोंकाज्ञान होगा, यह कहना बड़ा कठिन
हे। घटकेज्ञानसे पटकाज्ञान नही हो जाता । तव तो रामानुज के अनुसार
उपर्युक्त श्रुतिवाक्य को निरथंकता ही सिदधहो जायगी । य ही इस शद्धाका
आशय दहै) रामानुज इसका प्रतिवाद करते हृए कारण अगले वाक्यो
म देतेरहै।]
्र्ति-एरुप-महददेकार-तन्मात्र-भूतेनद्रिय-चतुदंश्वनात्मक-
हमण्ड-तद्न्त्ति-देव-तिर्यड्-मलुष्य-स्थावरादि -सवेप्रकार-
- ^ जोष भक चकि
संस्थान-संस्थितं कायेमपि सवं ब्रहमवेति कारणभूतव्रहमात्मज्ञानादेव
सबेविज्ञानं भवतीत्येकविज्ञानेन सवविज्ञानस्योपपन्नतरत्वात् ।
अपि च ब्रहमव्यतिरिक्तस्य सवस्य मिथ्यात्वे सर्वस्यास्वादेव
एकविज्ञानेन सवेविज्ञानप्रतिज्ञा बाध्येत ।
यह ब्रह्मारड ८ {10198186 ) चौदह भुवनो ( ४४०१1५8 ) से बना है
जो प्रकृति ( 2111181 0९8३6 ), पुरूष ( 911 ), महत् ( {161166४ ),
अहङ्कार ( 36109४० ), तन्मात्रो ( ऽप्ण४1€ नृलण€0४8 ), भूतो
( 1088 61601678 ) तथा इन्धियों ( "878 5€86 874
80107 ) के साथ-साथ है । उस ( ब्रह्यारड ) के अन्तर्गत देवता, पु, मनुष्य,
स्थावर ( [01100116 ५0.08 ) आदि समी प्रकार के [ पदां अपने-अपने |
संस्थानों ( 0181083 ) से युक्त होकर अवस्थित हैँ । ये सबके सब कायक रूप
मेटहैफिरभी ब्रह्यहीटहै [क्योकि ब्रह्मके शरीरसेहीये सब पदायं निकले
है । मूलकारण भी ब्रह्म के शरीर से निकला है इसलिए प्रधान ( पुरुष } सूक्ष्म
शरीर का है, ब्रह्यारुड स्थूल शरीर का । | इसलिए कारणस्वरूप ब्रह्यात्मक ज्ञान
सेहीसबोंकाज्ञानहो जाता) एक को अच्छी तरह जाननेसे सभीकाज्ञान
हो जातादहै, यह भौर भी अच्छी तरह सिद्धहो गया। [ कहने का अभिप्राय
यह हैकि संसारकाकारयानब्रह्म सृक्ष्मश्चरीरमेंदहै, जबकि कायंल्प संसार
या ब्रह्मारड स्थूल शरीर में है । "सूक्ष्म श्षरीरसे विशिष्ट आत्मा" के ज्ञानके द्वारा
स्थूल शरीर से विशिष्ट आत्मा" काज्ञान हो जाता है। यह बहत ही सुकर है।
जेसे किसी बालक को छोटे रूप में देखकर उसे ही युवावस्था मे बड़े शरीर में भी
जान लेते कि यह वही बालकरहै। मद्री जिस प्रकार घटादि का उपादान
कारण है उसी प्रकार यह सूक्ष्म शरीरभी स्थूल शरीर का है। इसमें दृष्टान्त
( भिद्री-घट ) ओौर दार््ान्तिक ( सूक्ष्म शरीरादि) मे एक-एक अंश को लेकर
साम्यहै, जव कि शङ्कुर की व्याख्या में विवतं का आश्रय लेने से उतनी समता
नहीं रहती । ब्रह्य ओर प्रपञ्च में वह् संम्बन्ध नहीं जो भिटरी भौर घटादिमेंदहै।
इसलिए रामानुज का सिद्धान्त ओर अधिक सिद्ध--उपपन्नतर--दै' ! |
ज
१. यथा सोम्येकेन० की व्याख्या रामानुजने जेसीकीदहै, वह श्रुति का
तात्त्विक अथं नहीं है, अक्षरो से वेसा व्यक्त नहीं होता) वे कार्णके रूपमे
सृक्ष्मशरीरविरिष्ठ आत्मा तेते दै, कायंके रूपमे स्थूलद्रीरविशिष्ठ आत्मा
लेते है । आत्मा को दोनों जगहों मे रखने से उनका कुद विरोष मतलब नहीं ।
तात्पयं यही है कि सुच्मगरीरके ज्ञान से उसके काय स्थूलशरीर का ज्ञान
~~
रामान॒ज-दशेनम् २१५
इतना ही नहीं, यदि [ शङ्कुर की तरह ] ब्रह्म के अतिरिक्तं सभी पदार्थो
को मिथ्या मानले तो सभौ पदाथ को असत् मानकर, एक के ज्ञान से सबों
का ज्ञान होने की प्रतिज्ञा को छोड देन पडेगा ! [ ज्ञान-विज्ञान सतु
( ९136४ ) वस्तु का हौ होता है, असत् का नहीं । खरहे को सींग आदि
का विज्ञान सम्भव नहीं है! | |
[न ४४ ^~ परारीरं
नामरूपविभागानदेष्ह्मदशवलमङ्र त ब्रह्म
कारणावस्थम् । जगतस्तदापत्तिरेव प्रयः । नामरूपविभागः-
विभक्तस्थूरचिदचिदरस्तुशरीरं नघ कार्यीवस्थम् } . ब्रह्मणस्तथा-
[क [ऋ ॐ ¢
विधस्थृरभावश्च सुष्टिरित्यभिधीयते । एव च कायेकारणयोरनन्य-
त्वमपि आरम्भणाधिकरणे प्रतिपादितभ्ुपपननतरं भवति ।
[जगत् को सत्य मानते चे इतका विनाश सम्भव नहीं होगा ओर प्रलय
करी सिद्धि नहीं होगी । इस शङ्का का समाधान रामानुज इस प्र कार करते ह--
जिसमे नाम ( ४8०१९ ) मौर रूप ( ए) } का निश्चय ( विभाग ) नहींहो
सके एेसी सूक्ष्मावस्था मे रहनेवाला, प्रकृति-पुरुष के शरीर के रूपमे अवस्थित
बरह्म कारणावस्था में है; जब संसार अपते इसी रूपमे लौट जाता हैतब उसे
प्रलय ( 1);9801001 ) कहते है। नाम ओौर रूपके विभागोसे. माद्ुम
होनेवाला स्थूल ( (1088 ) चित् ओर अचित् वस्तुओ का शरीर (*130त५प्ग .)
लिये हृए ब्रह्म कार्यावस्था मँ स्थित है । जब ब्रह्म इस प्रकार के स्थूल रूपमे
जाता है तब उसे खष्टि कहते ह । |
इसी प्रकार [व्यासं ने ब्रह्मसूत्र के ] आरम्भण ( 021 भ
+]€ 011 ) अधिकरण मे कार्-कारण कौ एकता का प्रतिपादन किया
है-ओौर इससे वह एकता अच्छी तरह से सिद्धहो जाती है ।
( १५. निर्शणवाद ओर नानात्वनिषेध की सिद्धि)
निगंण
ब्ादाश्च प्राकृतहेयगुणनिषेधविषयतया व्यवस्थिताः ।
न, 1
नानात्वनिपेधवादाघ्रैकस्यैव ब्रह्मणः शरीरतया प्रकारभूत स॒वं
होता है-कायं ओर कारण एक होति है । श्रुतिवाक्य मे एेसा निदेश नहीं है ।
कारणा के खूपमेंज्ञान का विषय आत्मा ही ह, कायं है जगत् 1 तो आत्मा के
ज्ञान से जगत् का ज्ञान होता है, इतना ही कहना ह । यि्बाँटने ठीक ही कहा ह
कि रामानुज ब्रह्मसूत्र के अधिक निकट है जव कि शङ्कुर उपनिष दों के अधिकं
समीप है \ । | ¦
२१६ सर्वदशेनसंम्रहे- ५
चेतनाचेतनात्मकं वस्त्विति सर्वस्यात्मतया सवेप्रकारं ब्रह्मवा-
वस्थितमिति स्वात्मकत्रह्मपृथग्भूतवस्तुसद्धावनिषेधपरत्वाभ्युप-
गमेन प्रतिपादिताः ।
[ यदि ब्रह्यको सविशेष अर्थात् सगुण माने तो निगंण' शब्द धारण
करनेवाली श्रुतियों की क्या व्याख्या होगी ? ] -निगंश' का प्रतिपादन करनेवाली
श्रुतियों की यह् व्यवस्था होगी किं प्राङ़ृत ( ्रङ़ृतिसम्बन्धौ † 060 07161181 )
स्याज्य गुणों ( जैसे जरा, मरण आदि) का निषेध करके ही परमात्माका
ज्ञान सम्भव है । [ परमातमा निगुण है = उमे जरा, मरण आदि त्याग करने
योग्य गुण नहीं है । |
[ फिर भी, रामानुज परमेश्वर से जीवों ओौर जड्-पदार्थो का भेद स्वीकार
करते ह । दूसरी ओर श्रुतिं बहुत ( 10181387 } का निषेव करती दै--
नेह नानास्ति किचन { वृ० ४।४।१९ ), एकमेवाद्वितीयम् ( छां ° ६।२।१ । । एेसौ
दशा मे इन श्रुतियों को कथा उत्तर दंगे ? ] एक ही ब्रह्मके शरीर के रूपमे
उसी ( ब्रह्म )के प्रकार (०) के रूपमे सारी वस्तुं चेतनात्मक
( 86७१४ ) मौर अचेतनात्मक ( 11364166 ) है, इसलिए सर्वो की
आत्माके रूपमे, सब प्रकारसे ब्रद्य ( एकमात्र) ही अवस्थित है। अतः
"नानात्व" का निषेध करनेवाले धरुतिवावयों का यही अथं दिपा गया है कि सभी
वदार्थो की आलमा- ब्रह्म --से पृथक् किसी भी वस्तु की सत्ता नहीं है। एेसेही
अथं से उन वाक्यों की सिद्धि होत्ती है।
य क (का व 5 0 118
न्ट करद ~. ८ प
( १६. रामानुज-मत की तच्वमीमांसा )
किमत्र तं मेदोऽमेद उभयात्मकं वा १ सवं त्म् ।
चक ४५ # =
तत्र सर्वश्चरीरतया सर्वप्रकारं ब्रह्मैवावस्थितमित्यभेदोऽभ्युपेयते ।
एकमेव ब्रह्म नानाभूतचिदविस्परकारात् नानात्वेनावस्थितमिति
भेदाभेदौ । चिदचिदीश्वराणां स्वरूपस्वभाववेलक्षण्यादसंकराच्च
भेदः ।
रामानुज के मत से तत्व किस प्रकार का है--भेदात्मक, अभेदात्मक या
उभयात्मक ? सभो प्रकार का तत्व है\ सवोंका शरीर बनकर, सब प्रकार से
केवल ब्रह, दी अवस्थित है, इसलिए. अभेद वाद् कौ उपपत्ति होती है\ ब्रहम एक
हो है, नाना प्रकार के चित् जञौर अचित् पदाथ क भेदके कारण नान् रूप्
। से अवस्थ है--रषलिए भेद्प्मेदवाद् की विड होती है \ प्वित्, अप्वित् ओर्
क [क -.
[त त) त ~
= ~ नि
{+ व आद + म
' ४
+ ब ----~---
म न्क
५ न्वं क~
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रामान॒ज-दशेनम् २१७ |
श्वर म स्वरूप ओौर स्वभाव को लेकर भेद ( विलक्षणता 2९०य]18४ ) है,
उन मिलाकर नहं रख सकते, इसलिए भेदवाद् कौ भौ सिद्ध होती है। |
विश्नोष--चित् का स्वरूप है ज्ञानस्वरूप होना, इससे अचित् भिन्न है ।
चित् ओर ईश्वर मे यद्यपि ज्ञानातेमकता समान है पर चित् का स्वरूपअणु है,
श्वर का विभरु--यहीभेद होता दै। अब तीनों पदार्थो के स्वभाव अपनी
अलंकृत वैली मे रामानुज उपस्थित करते है ।
( १६. क. चित्, अचित् ओर ईश्वर के स्वभाव ) 1
तत्र॒ चिद्रूपाणां जीवात्मनामसंङ्चितापरिच्छिनन-निमल-
्ञानरूपाणाम् अनादिकर्मरूपाविद्यवषटितानां तत्ततकमोनुरूपन्ञान-
संकोचविका्तौ मोग्यभूताचित्संसेस्तदनुगुणसुख-दुःखोपभोग-
दवयरूपा भोक्ता भगवत्प्रतिपत्तिभंगवत्पद प्रा्षिरित्यादयः |
स्वभावाः ।
अचिद्रस्तूनां त् भोग्यभूतानामचेतनत्वमपुरुषाधेत्वं विकारा-
स्पदत्वमित्यादयः ।
परसयेशवरस्य भोक्त-मोभ्ययोरन्तयामिरूपेणावस्थानमपरिच्छ-
च्ञनैदवर्यवीर्यशक्ति तेजःप्रमृत्यनवधिकातिशयासंख्येय-कस्याण्-
गुणगणता स्वसंकरपग्रबृततस्वेतरसमस्तचिद चिद्रस्तुजातता स्वाभि-
मतस्वाजुस्पैकरूपदिव्यरूपनिरतिशायविविधानन्तमूषणतेत्यादयः ।
( १) इनमें चित् के रूप मे जोवात्माहै, वे संकोचरहित, सीमाहीन,
निर्मल ज्ञान के स्वल्प है, अनादि कमं रूपी अविद्या से धिरे है, इसलिए अपने-
अपने कमं के अनुसार ज्ञान का संकोच ओर विकास होना, भोमने योग्य
अचित् वस्तुओं के स्सर्ग मे आना, उसके गुण के अनुसार ही सुख ओर दुःख
इन दोनों का उपभोग करने से भोक्ता बनना, भगवान् के स्वरूप का ज्ञान,
भगवान् के चरणौ की भ्रात्ि आदि [ उस जीवात्मा के | स्वभाव ह ।
~ ~ -- रा
१. स्मरणीय है कि स्वरूप-ज्ञान का संकोच-विकास नहीं होता, जो ज्ञान
जीवात्मामे गुण के रूपमे टै उसी में संकोच-विकास होते दहै । अतः यहाँ
इसी ज्ञान से अभिप्राय है। रामानुज कमं को ही अविद्या मानते है जिससे ज्ञान
का संकोच ओर विकास होता है।
२१८ सबेदशेनसंम्रहे-
| (२) अचित् वस्तुं भोग्य (भोग करने के योग्य ए1}0 8016 ) है,
| इनके स्वभावं ( [५९४९ ) है-- अचेतन होना, पुरुषार्थो ( घमं, अर्थं, काम,
| मोक्ष ) की श्राति न करना ( अपुरुषा ), विकारं प्राप करना इत्यादि ।
| -(३) परमेश्वर के स्वभाव है--भोक्ता ( जीव) ओर भोग्य ( जड़ }
॥। दोनों के आन्तरिक नियन्ता ( {7४617181 (गाणा ) के रूप में अवस्थित
॥ रहना, असीम ( अपरिच्छे्य ) ज्ञान, रेश्वयं (12000100) वीयं (‰1५}€8५)
| | | शक्ति ( 120९1 ), तेज (13111118.106) इत्यादि अनन्त अतिद्ायौ (10४)
॥ | से युक्त तथा असंख्य कल्याणकारी गुणौ का समूह हीना, अपने संकल्प
॥ ८ इच्छा) से ही प्रवृत्तं होकर अपने से भिनत्नसारी चित् ओर अचित् वस्तुओं
| को उत्पन्न करना, अपने अभी तथा अपने अनुरूप, एक रूप से तथा दिव्य
। रूप से [ युक्त होकर | निरतिशय ( जिसे कोई पार न कर सके. {1708प 98888
| | । | 9९ ) विविध ओौर अनन्त भूषणो ( विशेषणो ) को धारण करना इत्यादि ।
विशेष ईश्वर के अतिशपों मे ज्ञान वह गुण है जो सदा सभी विषयो का
| प्रकाशन करते हृ अपना प्रकाशन भी करता है । रेश्वये = स्वतन्तव्रतापूर्वक
। | कार्थं करना, सभी जीचों ओर जड़ो पर नियंत्रण कौ सामथ्यं रखना । चीयं =
। संसार का उपादान कारण होने पर भी विकृति न होना । राक्ति = संसार का
| मूल कारण होना, न घटी हृदं घटना उत्पन्न करना । तेज = सहकारियों
॥ ( 8००११०९.५९8 ) को आवद्यकता न होना, दसरों से अभिभ्रुत
| ( (0४.0]] प ) नहीं होना । इस प्रकार सभी पदार्थो कौ विशेषता
( (87861 ला)8४९8 ) बतलाई गई । अब वेकटनाथ के तस्व मुक्ताकलाप के
आधार पर पदार्थोका वणन होगा । ॑
|
| | वेङ्कटनाथेन तित्थं निरटङ्कि पदाथेविभागः--
| ८, द्रन्याद्रव्यप्रमेदान्मितमुमयविधं तद्विदस्तखमाहुः
| | ` द्रव्यं द्वेधा विभक्तं जडमजडमिति प्राच्यमव्यक्तकारो ।
| जन्तं प्तयक्यराक्च ्रथम्ुमयथा तत्र जीवेक्ञमेदा-
। नित्या भूतिर्मतिश्ेत्यपरमिह ।जडामादिमां केचिदाहः ॥
| | ( त० मु° १६ )
व अ
च~ कमपु =
श ++
3 + चक = ५
;
1
= = गि
९. तत्र द्रव्यं दश्ावतप्रकृतिरिह गुणे; सखपूरुपेता
| कालोऽब्दाचयाद्ृतिः स्यादणुरवगतिमाञ्जीव ईश्ोऽन्य आत्मा ।
+
रामालज-दशेनम् २१६
संग्रोक्ता नित्यभृतिच्िगुणसमधिका सत्वयुक्ता तथेव
ज्ञातर्ेयावभासो मतिरिति कथितं संग्रहाद् द्रव्यलक्ष्म ॥
( त० यु° १।७ ) इत्यादिना ।
दकटनाथ ने पदार्थो का विभाजन इस रूपमे वशात किथा है--्रव्य ओर
अद्रव्यके मेदसे दो प्रकारका तव जाना जाता है--उसके ज्ञाता लोग एेसा कहते
ह । द्रव्य भीदोप्रकारका है--जड ओौर अजड । उनमे पहला ( जड ) भी
दो मेदं का है- अब्यक्त ( प्रकृति ओौर जगत् दोनों ) तथा काल । दषरा
( अजड ) मी दो भेदो का है निकट ( प्रत्यक् ) गौर दूर ( पर् ) | अपने
लिए प्रकाशित होनेवाला प्रत्यक् है, दूसरों के लिए प्रकाशित अजड परार है]
इनमें भी प्रथम ( प्रत्यक् ) जीव ओर ईश्वरके मेदसे दो प्रकारका हि । दूसरे
( पराक् ) के भौ दो मेद है--नित्यविभूति तथा मति । ` पहली (नित्यविभूति)
को कुछ विदान् "जड़ा" भी कहते ह" ( तच्वमूक्ताकलाप १।६ ) ।
“उनमें द्रव्य अवस्था धारण करता है ( यह् द्रव्य का लक्षण हुभा--विभिन्न
अवस्थाओं मेँ द्रव्य ही परिवतित होता है ) । सरव आदि ( रजस् , तमस् ) गुणों
से युक्त इसकी प्रकृति ( मूल. अवस्था ) है! अब्द ( वषे | आदि के आकार
( खूप ) मे काल है! जीव अणु तथा ज्ञान ( अवगति ) से युक्त ह, दूसरी
आत्मा ( चेतन स्वरूप } को $श्रचर कहते है । नित्य विभूति ( ५९१९।
ए1\88 ) उसे कहा गया है जो तीन गुणों से परे हो तथा सच्व गए से युक्त
हो । ज्ञाता ( जीव + ईश्वर ) को जो ज्ञेय ( जानने के लायक } वस्तु का भवासि
( विषय का प्रकाश ) मिलता हि, उसे मति कहते है। इस प्रकार संक्षेप में द्र्य
का लक्षण कहा गया है ।' ( त° मु° क° ५।७ ) 1
विरोष--इन भेदो के स्पष्टीकरण के लिए हम चित्रां कन (९14१९) करं--
द्रव्य जड--भव्यततः
(-काल
-अजड | प्रत्यक् -----) जीव
तच्व- | । ईश्वर
| पराक् नित्यविभरूति ( जडा )
।-मति
4 ( प 0-प०5४81166 )
पहले शछोक मे द्रव्य का विभाजन है, दूसरे मे उनके लक्षण है । द्रव्यका
सामान्य लक्षण दै "दशा में रहना अवस्थाश्रयीभूतं द्रव्यम् (जो अवस्थाका
आश्रय या आघार हो ) ।
२२० स्वदशेनसंग्रहे-
( १६. ख. जीव का वणेन )
तत्र चिच्छब्दवाच्या जीवात्मानः परमात्मनः सकाशाद्
भिन्ना नित्याश्च । तथा च श्तिः--्भा सुपणा सयुजा सखाया
( म° २।१।१, श्रे ४।६ ) इत्यादिका । अत एवोक्तं नाना-
त्मानो व्यवस्थातः' ( वैशे ° घू० २।२।२० ) इति तन्नित्यत्व-
मपि शरुतिग्रसिद्धम्-
१०, न जायते भ्रियते वा विपश्चि-
न्नायं भूत्वा भविता वा न भूयः।
अजो नित्यः शाश्वतोऽयं पुराणो
न हन्यते हन्यमाने ्षरीरे ॥ (गीता २।२०) इति ।
इनमें "चित्" शन्द से ज्ञात जीवात्मा ( 141९1081 8011108 } परमात्मा
से भिन्न है ओर नित्य ह! श्रुति भी एसा कहतौ है “दो पक्षी जो साथ रहते
है जौर भित्र हैः.“ ( मुरडकोप० ३।१।१ तथा धेताश्वतरोप० ४।६ )
इत्यादि । इसीलिए [ कणाद ने भी वेशेषिक-सूत्र मे ] कठा है-- "विभिन्न
अवस्थाओों ( (01011018 ) में रहने के कारण आट्मा नाना प्रकार कीटहै।'
( ३।२।२० ) । उस ( जीवात्मा, की नित्यता मी शरुतियो में प्रसिद्ध है--"यह
ज्ञानी आत्मा न तो उस्पन्न होती है, न मरती है; न यहं उत्पन्न ही हुई थी ओर
अब उत्पन्न होगी भी नहीं । यह् अज ( न जन्म लेनेवाली ), नित्य (न मरने-
वाली ), शाश्वत (जो कहीं से नहीं निकली-- नायं कुतश्चित् ) तथा पुरानी
( को उत्पन्न जो नहीं हई न बभुव कथित् ) है; शरीर के मारे जाने पर यह
नहीं मारी जाती' ( गी° २।२०, तथा कच परिवतनो के साथ- नायं कुतशिन्न
बभूव कथित्-कठो° २।१८ } । ।
विरोष- रा सुपर्णा' का शोक सांख्य-दश्ेन का मूल है तथा भारतीय-
दशनां मे महावाक्य के रूप मेँ उद्धत किया गया है । सुनते दै किं नील-घारी
की खुदाई मे इस छोक के भाव का एक चित्र मी प्राप्त हुजा है। पूरा शोक इस
रूपमे है-
द्रा सुपर्णा सयुजा सखाया समानं वृक्षं परिषस्वजाते ।
तयोरन्यः पिप्पलं स्वाद्वत्ति अनश्चन्न्योऽमिचक्चीति ॥
प्रथम चार पदों मे "सुषा सुलुक्० ( पा० भु° ७।१।३९ ) से ओं के स्थान
रामानज-दशेनम् २२१
नेडा(आ)होगयादहै। द्रौ सुपणौँ = जीव ओर ईश्वर, सपरं का अ थं पक्षी
होता है जिसके सादृश्य के कारण यहाँ खूपकातिशयोक्ति अलङ्कार है । सयुजौ =
समान गुणवाले, सखायौ = वाव नष करना आदि गुणो के कारणये आप्त में
समान है । वृक्ष = शरीर, वर्थोकि वह भी वृक्षके समानकाटाजाताहै। ये
दोनो जीव ओर ईश्वर रूपी वृक्ष पर म। धरित है । उनम एक ( जीव ) सुस्वादु
दीपल का फल खाता है ( कर्मफल का भोग करता है), दसरा ( ईर ) बिना
खये हृए ( कमंफल से असपृक्त होकर ) ही देवता है ( प्रकाशित होता है) ।
यहाँ वास्तविक विषय करो निगलकर ( दवाकर ) सुवं, वृक्ष आदि शब्दो का
प्रयोग किया गया है किन्तु अर्थमे उन्हें टी हटाना पडेगा-- यह बहुत सुन्दर
हपकातिरयोक्ति ह । इसकी ही व्याख्या म,गवत मे यो की गई है--
सुपणावितौ सदृशौ सलयौ यरच्छयैतौ कृतनीडौ च वृक्षे ।
एकस्तयोः खादति पिप्पलान्नं स पिप्पलादो न तु पिप्पलादः ॥
( ११।११।६ ) ।
श्नोक का भाव बहुत पुराना ह, इसमें कोई सन्देह नहीं ।
(नानातमानो ग्यवस्थातः' का भाव दहै किसंसारमें किसी को सुख मिलता
है, किसी को दुःख, कोई बन्धन मे हतो कोई मुक्त इस प्रकार की व्यवस्थायं
( विभिन्न अवस्थाय ) प्राप्त होती है । इसीलिए जीवात्माओं को नाना प्रकारका
मानते है, जीव एक नहीं है । तस्वावली मे कहा है-
कधिद्रद्धुः कंश्चिदाख्यः कश्चिदन्यविधः पुनः)
अनयैवात्मनानात्वं सिष्यत्यत्र॒ व्यवस्थया ॥ ( तच्वा° ९० ) ।
इस प्रकार जीवात्मा को परमेश्वर से भिन्न, नाना प्रकार का, ता
नित्य साना गया दहै। । |
अपरथा ढृतप्रणासचाकृताभ्यागमभ्रसङ्गः । अत एवोक्तम्--
(वीतरागजन्माद्वनात्' ( न्या० घ ३।१।२५ ) इति ।
तदणुत्वमपि श्वुतिप्रसिद्धम्--
११. बालाग्रशतभागस्य शतधा कल्पितस्य च ।
भामो जीवः स विज्ञेयः स चानन्त्याय कर्पते ॥
( श्व° ५।९ ) इति ।
(आराग्रमात्रः पुरुषः ( धे ° ५।८ ); "अणुरात्मा
चेतसा वेदितव्यः ( युण्ड० ३।१।९ , इति च ।
२२२ स्वंदशनसंग्रहे-
यदि जीव को नित्य नहीं मानं ( गौर जीव की उत्पत्ति ओर विनाश शरीर |
के साथ-साथ माने ) तो क्रिये गये कमं का नाश तथा नहीं किये गये कसं फल
क्रो प्राप्तका संयोग हो जायगा । [ कमे करनेके बाद रीर के साथ ही जीव |
मर जायगा, फिर कमका तोनाश्च हीहो जायगा--चार्वाक-मत की सिद्धि
होमी । जन्मान्तर का तो अभाव ही होगा, लेकिन जन्म लेते ही व्यक्ति को सुख,
दुःख का फल मिलने लगता है । यह तो बिना किये कमं का ही फल है। यदि
इन बातों को स्वाभाविक मानते है तो चार्वाक का चेला बनं ]
इसीलिए [ मौतम ने न्यायसूत्र में] कहा है कि राग ( {2९816 ) से
रहित व्यक्ति का जन्म नहीं होता (न्यायभूत्र ३।१।२५) । [ इससे अनुमान लगता,
हे राग से अनुब होकर ही प्राणी जन्मलेताहै। राग तभी उत्पन्न होता दहै
जब पहले से अनुमव किये गये विषयों का अनुचिन्तन किया जाय । पूर्वानुमव
तभी हो सकता है जब दूसरे जन्म मे विषयों का संसं शरीर धारण करके करिया
गया हो । वही जीव पूर्वं शरीर मे अनुभूत विषयों का अनुस्मरण करता है < तथा
उनकी इच्छा करतादै। यहीदो जन्मों की प्रतिसन्धि हि। इस शरीर मे पहले
शरीर से, उसमे भी उसके पहले के शरीर सै--इस प्रकार अनादि काल से चेतन
आटमा काः सम्बन्ध शरीर से रहा है । इसलिए जोव कौ नित्यता सिद होती है । |
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जीव का अणु होना भी श्रुतिवाक्ों मे प्रसिद्ध है-- "यदि केश के अग्रभागः |
का सोवा भागभीसौ मागमे वंटा हुमा माना जाय तो इष छोटे भाग की तरह
हौ जीव (अणु) है, यह जीवही मोक्ष की प्राप्ति ( आनन्त्य {णपा ) में
समर्थं है ( धे ५।९ ) 1 इसके अतिरिक्त भौ कहा हे ख्व अरा ( 806
0 8 म) ) के अन्तिम खरडके आकार का है" ( शे ५।८ ), (आमा
अणु है, इसे चित्त ( बुद्धि ) से ही सम्ञ सक्ते है" ( मु° ३।१।९ ) ।
( १६. ग, अचित् का निरूपण ) न
अचिच्छब्दवाच्यं दृश्यं जडं जगलिविधं भोग्य-भोगोष-
करण-भोगायतनभेदात् ।
"अचित्" शब्द से सामने दिखलाई पड़नेवाले जइ जगत् का बोध होता दहै
जिसके तीन भेद है-- भोग्य ( विषय, जेसे शब्द आदि ), भोग का उपकरण
( सावन, जसे इन्दर ) भौर मोग का आयतन ( स्थान, जैसे शरीर ) \
[ अचित् से रामानुज समूचे संसार का अथं लेते है जिसमे शरीर, इन्द्रा ओर
हदय पदारथ, तीनो चले अति ह \ ]
^)
९)
+)
र
( १७. ईश्वर का निरूपण--उनको पांच मतिर्या )
तस्य जगतः कर्तोपादानं चेधरपदाथेः पुरुषोत्तमो वामुदेवा-
दिपदवेदनीयः । तदप्युक्तम्-- ¦ |
१२. वासुदेव; परं ब्रह्म कस्याणगुणसयुतः ।
भुबनानामुपादान कत्त जीवनियामकः ॥ इति ।
स॒ एव वासुदेवः परमकारुणिको भक्तवत्सलः परमपृरूषस्त-
दुपासकानुगुणतत्तत्फटप्रदानाय स्वलीलावश्चादचा-बिभव-व्यृह-
ष्मान्तयौमिभेदेन पश्चधावतिष्ठते ।
उष [ स्थूल ] जगत् का रचयिता ओर उपादान कारण ( 218५6181
९४०७९ ) भी [ प्रकृति के रूप मे सूष्ष्मशरीरधारी ] पुरुषोत्तम ( परमात्मा )
हे जो ईशर शब्द का अथं है तथा जिसे वासुदेव आदि शब्दों कै द्वारा जानते है।
यह भी कहा गया है-- क्ल्याराकारी गुणो से भरे हृए वासुदेव ही परमनब्रह्म
( 3्])7ल€ा116 ^ 8०) ४९ ) है, वे भवनों के उपादान कारण ह, निर्माता
ह तथा जीवों के नियामक ( (00101) € ) है +'
वे ही वासुदेव सबसे अधिक दयादु, भक्तों से वात्सल्य-प्रेम रखनेवाले तथा
सर्वोच्च पुरुष ह, अपने उपासको के गुण के अनुसार विभिन्न फल देने के लिए,
अपनी लीला दिबलाति हुए वे अचां (^, ५0180101}, विभव ( [71181801011});
व्यूह् ( 11871; {68४6 ७0 ), सूक्ष्म ( 406 ०४५1९ ) तथा अन्तर्यामी
(1 धल] ९०४४०11७) --चन मेदो के कारण पाँच रूप मे अवस्थित रहते है।
तत्राचों नाम प्रतिमादयः। रामाद्यवतारो विभवः । व्युहश्च-
त्विषो वासुदेवसंक्णप्रय्॒नानिरुदधसंजञकः । चक सपू्षडगुणं
वासुदेवाख्यं परं ब्रह्म । गुणा अपहतपाप्मत्वादयः । (सोऽपहत-
पाप्मा विजरो विग्र्युर्विंश्ोको विजिषत्सोऽपिपासः सत्यकामः
सस्यसंकस्यः, ( छा० ८।७३ ) इति श्रतेः । अन्तयामी सकल
जोबनियामकः । “य॒ आत्मनि तिष्ठनात्मानमन्तरो यमयति"
( बर मा० ३।७२२ ) इति श्रुतेः ।
( १) अर्चा प्रतिमा आदि कौ कहते है। [घरमे या देव-मन्दिर मे,
चौराहे पर याेतमें देवताकेलूपमें पूजित-प्रतिष्ठित पत्थर, घातु आदि की
न ~~~ न
२२४ सवैदशेनसंप्रहे-
मूतियों को अर्चा कहते है । यह भो ईर का ही एक रूप है । इन प्रतिमाओं को
सृक्ष्म ओर दिग्यश्ञरीरयुक्त परमात्मा अपना दारीर बना लेता है। यहाँ ईश्वर
अच के अधीन स्नान, भोजन, आसन. शयन आदि भो करता है, यह सवं-
सहिष्णु है । कहं कही अचि स्वयं प्रकट होतो दहै, कदीं देवताओं, मनुष्यों या
सिद्ध पुरुषों के द्वारा स्थापित होती ह ।(|
( २) विभव--राम आदिके ल्प मे अवतार को कहते है । [ विमवदो
तरह का होता है मुख्य ओर गौणा । मुख्य विप्रव वह है जब परमात्मा स्वेच्छा
ते विशेष भक्तों पर अनुग्रह करने के लिए [साक्षात् प्रकट होते है। गौरा विमव
मे अविश के रूप मे अवतार होता है। जीवाधिषठित शरीर मे कोई विशेष कायं
सिद्ध करने के लिए परमात्मा अपने खूपसेया शक्ति से प्रविष्ठहो जाता दै,
परशुराम आदिमे स्वरूपसे ही आवेश्च ( 8,0४187७6 ) होता है। शक्तिके
दारा आवेश्च विधि, शिव आदि चेतन रूपों में होता है । मत्स्य, करुम आदि दस
अवतार विभव हीह । मख्य विभवो को उपासना मोक्ष चाहनेवालों को करनी
चाहिए वयोकि ये विभव दीपसे जले दीप की तरह है। विधि, शिव, अग्नि,
परशु म, व्यास आदि गौण विभवं को पूजा भोगेच्छु लोग हौ करं । |
( ३ ) व्यूह-चार प्रकार का ३, वासुदेव, संकषंण, प्रद्युम्न ओर अनि-
रुद्ध । [ उपासना करने के लिए तथा संसार की पृष्ट आदि के लिए परमात्मा ही
चार प्रकासें से अवस्थित है। वासुदेव ज्ञान, देयं आदि उपयुक्त छह गुणो से
पूण ह । ज्ञान ओर बल से युक्त संकषंण होते है । प्रद्युम्न रेश्वयं ओर वोयं से
युक्तं है ओर अनिरुद्ध मे शक्ति तथा तेज है ( दे० अनु० १६ क. )। स्मरणीय
है कि संकषंणादि मे अपने दो गुणो के अतिरिक्त भी चारों गुणा रहते है परवे
अप्रकाशित है-दो गृण व्यक्त ( 1867) ) रहते हैँ । संकषण का कायं
हेश का प्रवतंन करना ओर संहार । प्रद्युम्न धर्मप्रचार ओौर पृष्टिकरते
है, अनिरुद्ध तच्छनिरूप भौर रक्षण के अधिकारो है। कभी-कभी आद्य उह
( श्रीवासुदेव ) मे छह गण देखकर दूसरे व्यूहं से अभेद बतलाकर तीन व्यूहो
का ही प्रतिपादन किया जाता है। |
(४) खक्ष्म- चों गुणो से परिपू वामदेव नाम के परमन्रह्म को
कहते है । गुणो से अभिप्राय है, जिसके पाप नष्ट हो गये है, इत्यादि । श्रुतिवाक्य
भी है--वह् ( परमातमा ) पापरहित, जराहीन, मृत्युहीनः, रोकहीन, भूख से
रहित तथा प्यास से रहित ह, सत्य ही उसको कामना है ओर सत्य ही सङ्कल्प
( 68०] प४०४ ) भमो है" ( छा ८।७३ )1 [ सूक्ष्म रूप में अवस्थित
परमाटमा.नारायण दै, वैकुण्ठ पुरौ के निवासी है, दिव्पालय मे महामणिमरडप
रामालज-दशेनम २२५
से युक्त सहासन मे शेषनाग को पल ङ्गं बनाकर बैठते है, दिष्य, कल्याणकारी
विग्रह ( शरीर ) धारण करते है, लक्ष्मी के साथ है, चतुश्रुज होकर शङ्ख, चक्रादि
दिव्य आयुधो से भरे हुए, अनन्त गुडादि क द्वारा उपास्य ह। मुक्त लोग इन्हे
पराप्त करते ह । ]
( ५.) अन्तयौमी-ये सभी जोव का नियमन ( (0०४१०) ) करते
है । वेदवाक्य भी है--जौ आत्मा मे स्थित होकर भीतरसे ही भात्माको
नियन्वित करता है" ‹ ब° मा० ३।७।२२ } [ जीवात्मा के हृदथमें मित्रके खूप
से अवस्थित परमात्मा हो अन्तयामी है। योगी लोग इसे देख पते है । यद्यपि
यह जीव के साथ है पर जीवके दोषों से बचा रहता है। यही अन्तःकरण या
चट.चट का अन्तर्यामो परमात्मा है जो समी मनुष्यो को अच्छे-वुरे काम में प्रवृत्त
ओर निवृत्त करता है । |
ततर पूरवपूरवमू्युपासनया पूरुपाथपरिपन्थिद्रितनिचयक्षये
सत्युत्तरो्तरमृ्यपास्त्यधिकारः । तदुक्तम्--
१३. वासुदेवः स्वभक्तेषु वात्सल्यात्तत्तदीहितम् ।
प्रयच्छति फलं बहु ॥
१४. तदर्थं लीरया स्वीयाः पञचमूततीः करोति वे ।
प्रतिमादिकमचौ स्यादवतारास्तु वेभवाः ॥
इनमें हरेक पहली मूति कौ उपासना से पुरुषाथं मे बाधा प्ुचानेवाले पापों
के समूह का विनाश हो जाता है, ओौर तब भक्त को हर दूसरी मूत्ति की उपासना
का अधिकार प्राप्त होतादहै। [अर्वाके बादही विभव की उवासना हो सकती
है ओौर तब ही व्यूह् की--इसी क्रम से उपासना का अधिकार प्राप्त होता हि ।
एक-एक मति की उपासना से कुछ-न "कुचं पाप कः ही जति है)
यही कहा है--अपने भक्तो पर वात्छल्य-प्रेम रखने के कारण, वासुदेव,
अपने प्रत्येक भक्त की कामनाओं की पृक्त, अधिकारियों के गुण के आग्रह से,
करते ह ओर बहुत फल देते है ॥ १३॥ इसीलिए लीला दिखते हृए वे भपनी
पाच मूतियां रखते है--प्रतिमादि को अर्चा कहते है, अवतार विभव से
सम्बद्ध है । १४॥
१५. संकर्मणो वासुदेवः प्रद्युम्नानिरुढकः ।
व्ृहतुरविधो ज्ञेयः घमं सम्पूणेषड्गुणम् ॥
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२२६ सवेदशनसंग्रदे-
१६. तदेव वासुदेवाख्यं परं ब्रहम निगद्यते ।
अन्तर्यामी जीवसंस्थो जीवगरेरकं ईरितः ॥
१७. य॒ आत्मनीति बेदान्तवाक्यजारेनिरूपितः ।
अर्चोपासनया शिप्रे क्मपेऽधिकृतो भवेत् ॥
१८, वरिभवोपासने पश्चाद् व्युहोपास्तौ ततः परम् ।
ष्म तदनु क्तः स्यादन्तयौमिणमी्षितुम् ॥ इति ।
(संकर्षण, वासुदेव, प्रद्युम्न ओौर अनिरुद्ध इस प्रकार उद चार प्रकार
का सम्ञं । छहों गुणों से परिपू ( सूति ) को सक्षम कहते है, इसे ही वासुदेव
नामक परब्रह्म कहते है । अन्तयीमी जीवमें स्थित जीव के प्रेरक के रूपमे समञ्चा
जाता है ॥ १५-१६ ॥ जो आत्मा मे ` `" इस प्रकार के वेदान्त ( उपनिषद् )--
वाक्यो के समूह से वह॒ निरूपित होता है। अर्चा की उपासना करने से पाप के
नष हो जाने पर, भक्त, विभव कौ उपासना का अधिकार पातादहै। बाद में व्यूह
की उपासना मे अचिहृत होता टै, तव सूक्ष्म को उपासना मे 1 उसके बाद ही
भक्त अन्तर्यामी को देखने की शक्ति पा सकता है ।॥ १७-१८ ॥'
( १८. उपाखना के पांच धकार ओर मुक्ति)
तदुपासनं च पश्चविधममिगमनयुपादानमिज्या स्वाध्यायो
योग इति श्रीपञ्चरात्रेऽभिदहितम् । तत्राभिगमनं नाम देवतास्था-
नमार्मस्य संमार्जनोषरेपनादि । उपादानं गन्धपृष्यादिपूजासाधन-
संपादनम् । इज्या नाम देवतापूजनम् । स्वाध्यायो नाम् अथोनु-
संधानपूर्॑को मन्त्रजपो वैष्णवधक्तस्तोत्रपाटो नामसंकीत्तेनं तख-
ग्रतिपादकक्लाखराभ्यासश्च । योगो नाम देवतानुसंधानम् ।
उस (ईश्वर) को उपासना पाँच प्रकार की होती है-अभिगमन (6०688),
उपादान ( 1188010 }, इज्या ( 0णिश््ण ), स्वाघ्याय ( {६९०
५8७ ) ओर योग ( 126१०४०० ), रसा श्रीपंचरात्र नानक ग्रन्थ ( लेखक
अज्ञात, प्राचीन ग्रन्थ ) मे लिखा है ।
देव मन्दिर के रास्ते को साफ करना, लीपना आदि अभिगमन है \ गन्ध,
शूल आदि पूजा कौ सामग्रियों को एकत्र करना उपाद्पन है\ देवता कौ 3
ष मन्त्रो 3
करना इडया है । अथं पर व्यान रखते हृए् मन्त्रो का जप करना, चेष्यत सूक्त
जओौर स्तोत्रं का पाठ करना, नाम का कौत्तेन करना तथा त्व का प्रतिपादन
रामानज-दशेनम् २२७
करने बले शाखं का अभ्यास करना स्वाध्याय कहलाता है। देवता का
च्यान करना योग है ।
र |
एवभुपासनाकमसमुचितेन विज्ञानेन दरटदशेने नष्टे मगवद्ध- `
क्तस्य तनिषठस्य भक्तवत्सलः परमकारुणिकः पूरुषोत्तमः स्वया- |
थातम्पानुभवानुगुणनिरवधिक्ानन्दरूपं पुनराड्तिरहितं . स्वपदं |
म्रयच्छति । तथा च स्म्रतिः-
¢
१९. माघरुपेत्य पुनजन्म दुःखालयमशाश्वतम् । ।
गिद्ध $ ।
नाप्लुवन्ति महात्मानः संसिद्धि परमां गताः ॥ |
| ( गी° ८।१५ ) इति । |
२०. स्वभक्त वासुदेवोऽपि सप्राप्यानन्दमक्षयम् ।
पुनरावृत्तिरहितं स्वीयं धाम प्रयच्छति ॥ इति च ।
इस प्रकार उपासनारूपौ कमं से परिपूणं [ अन्तर्यामी के ] ज्ञान से जव |
जीव (द्रष्टा) का अपने कर्मो को देना समाति हो जाता दै, तव ईर में निष्ठा
रखने वाले भगवान् के भक्त को, भक्तवत्सल, परम दया पुरुषोत्तम अपना वह्
पद देते है जिसमें ईश्वरके यथाथरूपका अनुमव करने के अनुरूप अपरिमित
आनन्द श्राप होता है ओर जहा से फिर आवृत्ति ( दि ल्पण ) नहीं होती है ।
स्मृत्य मे देसी ही बात है--ुञ्ञे पाकर महात्मा लोग पुनजंन्म-रूपी अस्थिर
दुःख-भार्डार में प्रवेश नहीं करते है, वे सबपे ऊंची सिद्धिपालेते ह ( गीता
८।१५ ) ।' इसी प्रकार-- वासुदेव मी अपने भक्त को पाकर अक्षय-आनन्द के
ल्प मे अपना स्थान प्रदान करते है जहांसे किर लोट कर आना नहीं है ।'
विरोष--यह स्वाभाविक है कि जीव ञ्जपने आप को देवता टै, उसको यह्
हृष्टि बन्द हो जाती है । जीव का अपने रूप को देखना मोक्ष का प्रतिबन्धक है ।
बृहदारण्यकोपनिषद् ( ३।४।९ ) मे कहा है-न दषेद्र्टारं पश्ये; अर्थात् रृष्ट
करने वाले को मत देखो । जीव को अपने खूप को देखना नहीं चाहिए । फिर
'जात्मानं विद्धि" ( अपने को पहचानो ) का कैसे अर्थं होगा ? यह् स्मरण रखना
है कि दर्शेन करने वाला दष्टा) जीव है जब कि दशन किया जाने वाला (द्रष्व्य)
परमातमा है जो जीव कै अन्तर में निवास करता है । शरष्व्यः श्रोतव्यः मन्तव्यो
निदिध्यासितव्यः, मे जीव का अपने रूप से पृथक् अन्तरात्मा को देखने आदि का
विधान है! जीब इन्द्रियो के अधीन द्न-शक्ति प्राप्त करते है उन जीवों को
देखना नहीं चाहिए, प्रत्युत उनके अन्तर्गत विराजमान, विभु, अन्तर्यामी परमाटमा
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को देत । स्वान्तरात्मा को देखें, जीव को नहीं वथोकि यहं तो सास लेता है,
इसलिए ्रष्टदर्शंने नष्टैः का अर्थंहै कि जब जीव अपने आपको या अपने कर्मो
करो देखना बन्द कर देता है, उसको यह् स्वाभाविक शक्ति नष्टहो जाती है तब
भगवान् अपने धाम मे उसे प्रविष्ट कराते है।
( १९. ब्रह्मसूत्र की व्याख्या- प्रथम सृजन )
तदेतत्सं हृदि निधाय महोपनिषन्मतावरम्बनेन भगवद्वो-
धायनाचार्यकृतां तरह्मसत्रवृत्ति विस्तीणमारक्ष्य रामानुजः शारी-
रकमीमांसामाष्यमकाषींत् । तत्र अथातो ब्रह्मजिज्ञासा! ( ° घ
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१।१।१ ) इति प्रथमघरतरस्यायमथेः--अत्राथशब्दः पूर्ववृत्तकमी-
धिगमनानन्तयाीर्थः । तदुक्तं इत्तिकारेण--इततात्कमोधिगमादन-
न्तरं जह्य विबिदिषतीति ।
तो उपयुक्त सारी बातों को हृदय में ब्रेकर, बड़ी-बड़ी ( मख्य }) उपनिषदों
के मतो का आश्रय छेते हए, भगवान् बोधायनाचायं को लिखी हुई ब्रह्मसूत्र कौ
वृत्ति को बहुत विशालकाय देखकर रामानुज ते शारीरक-मीमांसा के ऊपर भाष्य
( श्रीभाष्य ) लिखा ।
इसमे अथातो ब्रह्मजिज्ञासा" इस हसू के प्रथम सूत्र का अथं इस प्रकार
हे- अथ, का अर्थं है, अभी तक जिन कर्मो का वर्णन [ मीमांसासूत्र मे ] किया
गया है उनको समञ्न लेने के बाद । वृत्तिकार ने कहा ही है- “अभी तक वणित
कर्मा को समञ्लने के बाद ही ब्रह्म को जानना चाहता है \'
विरेष--रामानुज के श्रीभाष्य लिखने के पूवे भो विशिष्टादैत का सिद्धान्त
था । विशेषकर विष्णुपुराण पर हौ यह सम्प्रदाय अवलम्बित था जिसकी साम्प्र-
दायिक टीका श्रीनायमूनि ने की थी । बोधायन ओर टकाचायं ने ब्रह्मसूत्र की
वृत्तिर्या लिखीं तथा द्रमिडाचायं ने भाष्य लिखा था। रामानुज ने इन मतो का
मन्थन करके एक सुन्दर रीति से सम्प्रदाय का प्रवत॑न क्रिया, यही उनका
अवदान है! रामानुज का समय है १०१९ से ११३९ ई० जब कि ईसा के पूर्वेसे
ही महाभारत, पञ्चरात्र आदि ग्रन्थों से यह सम्प्रदाय पूष्ित-पज्ञवित हो रहा धा ।
"अथः ( इसके बाद ) अपने साथ कु आक्षा रलता है कि किसके बाद
दो मीमांसाओं के बीच मे इसका प्रयोग बतलाता है कि_ब्रह्य की जिज्ञासा कर्मो
क्री मीमांसा के अनन्तर ही होती दै ।
अतःश्षब्दो हेत्वथेः अधीतसाङ्गवेदस्याधिगततद्थेस्य
रामानुज-दशनम् २२६
विनधरफलात्क्मेणो विरक्तत्वाद् हेतोः स्थिरमोक्षाभिराषुकस्य
तदु पायभूत्रहमजिज्ञासा भवति । ्र्म्ब्देन स्वभावतो निरस्त-
समस्तदोषानवधिकाति्चयासंख्येयकस्याणयुणः पुरुषोत्तमोऽ-
भिधीयते ।
एवं च कर्मज्ञानस्य तदवु्ठानस्य च वैराग्योत्पादनद्वारा
चित्तकरमषापनयद्वारा च ब्रहज्ञान प्रति साधनस्वेन तयोः
कार्यकारणे पूर्वोत्तरमीमांसयोरेकशाचत्वम् । अत ८५ वृत्ति
काराः--“एकमेवेदं शाखं जेमिनीयेन पोडश्चलक्षणेन' इत्याहुः ।
'अतः' ( इसलिए ) का प्रयोग हेतु के अथंमें हआ है। अथं होगा--जो
व्यक्ति अधो के साथ वेदों को पद् चुका है, वह नश्वर फल रखने वाले कर्मो के
सम्पादन से विरक्त हो जाता है; यही कारणं है किं स्थिर ( अनश्वर ) मोक्ष की
इच्छा रखने बाले व्यक्ति को ब्रह्म को जानने की इच्छा हती है क्योकि यही उस
( मोक्षभ्रात्ि ) का उपाय है। यह स्वाभाविक है कि श्रह्म' शब्द से उस पुर-
पोत्तम का बोध हो जो सारे दोषों से रहित ह,. अवधिहीन ( ४11४१४९५ )
विदोषताओं से युक्त है तथा असंख्य कल्याणकारी गुणो से भरा है । |
इस प्रकार कर्मो का ज्ञान ओर उनके अनुष्ठान [ मनम कमोकीओरसे|
ैरास्य उत्पन्न कर देते ह तथा मन के सारे पापों का भी नाद कर देते है । इष
लिए ब्रह्मज्ञान के लिए ये साधनस्वलूप है । फल यह हुआ कि कायं ( ब्रह्मज्ञान )
ओौर कारण ( कमं मौर अनुष्ठान ) के रूप मे इन दोनो पूवं मीमांसा तथा उत्तर
मीमांसा मे एकशाख्रता ( संगति (गणप प्ट ) सिदध हो जाती है। [ दोनों
का नाम मीमासाही दै, एक पूवं है, दूसरी उत्तर--इससे भी दोनों की एक-
शाद्लता जानी जाती है । | इसीलिए वृत्ति के रचयिता ( बोधायन ) का कहना
हे किं षोडश अध्यायो (जैमिनि के १२ अष्याय तथा संक्षकारड के चार अष्याय
१६ अव्याय ) मे लिवे गये जेमिनि-रचित मोमासासूत् सते यह शाख एक ( मिला
हभ, एक = संयुक्त {3 006 ४0 ) है ।
( १९ क. कमे के साथ ब्रह्म का कान मोश्च का साघन दै )
कर्मफलस्य क्षयित्वं ब्रह्मज्ञानफलस्य चाक्षयित्वं “परीक्ष्य
>ोकात्कमचितान्तान्नामणो निर्वदमायान्स्त्यकृतः कृतेन, (घरु°
१।२।१२ ) इत्यादि्चतिभिरलमानाथोपचयुपददिताभि; प्रत्य-
२३० सबेदशेनसंग्रहे-
पादि । एकेकनिन्दया कमेबिशिष्टस्य ज्ञानस्य मोक्षसाधनत्वं
दश्चेयति
दश्षेयतिं शरुतिः-
२१. अन्धं तमः प्रविशन्ति येऽविद्याशरुपासते ।
ततो भूय इवते तमो य उ विद्यायां रताः॥
् ( व° ४।४।१० तथा ३० ९)
२२, विद्यां चाविद्यां च यस्तद्वेदोभयं सह ।
अविद्यया मृत्युं तीत्वां विद्ययामृतमश्चुते ॥
(३० ११ ) इत्यादि ।
कमं से प्राप्त (स्वर्गादि ) लोकों की परीक्षा करके ब्राह्मण वैराग्य प्राप्त
कर ले क्योकि अकृत ( नित्य {87100181, £ € पा€, परमात्मा ) की प्राति
कृत ( कमं ) से नहीं होती" ( मुरुडक० १।२।१२ ) इ प्रकार की श्रुतियों कौ
महत्ता अनुमान ओौर अर्थापत्ति प्रमाणो से ओौर भी बढ़ाकर इनके द्वारा कर्मके
फल को नश्वर ओौर ब्रह्मज्ञान के फल को अक्षय दिखलाया गया है ।
एक-एक कौ ( केवल कमं की या केवलज्ञान कौ) निन्दा करके कमंसे
विशिष्ट ( युक्त ) शान को ही शवुति मोक्ष का साधन बतलाती .दै “जो अविद्या
( ज्ञान से भिन्न, केवल कमं ) की उषासना करते ह वे लोग घनघोर अन्धकार
( नरकं ) में प्रवेश करते ह । जो केवल विद्या (ज्ञान ) मे रत हैवेतो ओर
श्री घने अन्वकार मे पडते है" (बृ० ४।४।१०, ई० ९ )। "विद्या ( ज्ञान)
तथा अविद्या ( कमं ) दोनों को साथ-साथ जो व्यक्ति जानता है वह अविद्यासे
मृत्यु ( ज्ञानोत्पत्ति का प्रतिबन्धक, पुर्य-पापलूपी प्राक्तन कमं ) को पारकर
विद्या ( परमात्मा की उपासना ) से अमृत ( मोक्ष ) प्राप्त करता है" (६० ११) ।
म्म ---- तधम शकम क्रति „न ५५ :
तन 14 ५4 1 अ; द (~ +
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. ४ क - क
1
|
विहोष- कर्मफल की नश्वरता तथा ब्रह्मज्ञान के फल कीस्थिरताका
प्रतिपादन करनेवाली अन्य श्रुतियां है--तच्ययेह कम॑चितो लोकः क्षीयत एवमेवा-
मूत्र पुण्यचितो लोकः क्षीयते ( छा० ८।१।६ ); अन्तवदेवास्य तदवति ( बृ ३।
८।१०), न हयघ्ुवेः प्राप्यते ध्रुवं कम॑भिः (का० २।१० } 1 इस विषय में
अनुमान इस प्रकार होगा-( १) क्मंफल नश्वर है, क्योकि यह उत्पन्न
होता है ( हेतु ) जसे घटादि ( उदाहरण ) । (२ ) ब्रह्मज्ञान का फल अविनाशी
है, क्योकि यह उत्पन्न नहीं होता जैसे आत्मा 1 अर्थापत्ति प्रमाण से भी यह
सिद्ध होगा-- शुक, वामदेव आदि ने अपने कर्माकात्याग क्रिया था, यदि हम
कमफल की नश्वरता नहीं माने तो उसकी सिद्धि नहीं हो सकती । २१बे श्छोक भं
रामालुज-दशनम् २३१
केवल कमं या केवल ब्रह्मज्ञान की निन्दा कौ गई है, २रवें मे दोनों का अंगांगि-
सम्बन्ध दिखलाया गया है ।
तदुक्तं पाश्चरत्ररदस्ये--
२३. स॒एव करुणासिन्धुभेगवान्भक्तवत्सरः ।
उपासकालुसेधेन भजते मूतिपञ्चकम् ॥
२४. तदचौविभवब्यहश्हमान्तयोमिसंज्ञकम् _ ।
यदाभित्यैव चिद्र्गस्तत्तञ््ेयं प्रपद्यते ॥
२५. पूरवपूर्वोदितोपास्तिविरोषक्षीणकरमपः _ ।
उत्तरोत्तरमूतीनाुपास्त्यधिरतो भवेत् ॥
२६. एवं दयहरहः श्रौतस्मातेधमौजुसारतः ।
उक्तोपासनया पुंसां ` वासुदेवः प्रसीदति ॥
पाञ्चरात्ररहस्य में कहा है--वि हौ भगवान् जो दया कै समुद्र तथा भक्तो
पर वात्सल्य-प्रेम रखनेवाले है, उपासको या अक्तो के आग्रह से पच प्रकार की
मूतियौ धारण करते है ॥२३॥वे है, अचा, विभव, व्यूह, सूक्ष्म तथा
अन्तर्यामी, जिनका आश्रय लेकर जोवों का समूह करमशः ज्ञान कौ अवस्थ ओं
को प्राप्त करता है ॥ २४ ॥ मनुष्य के पाप उक्त मूतियों मे हर पहली मूति की
उपासना से न होते जाते र ओर भक्त उधर हर दूसरी मृति की उपासनाका
अधिकारी बनते जाता है ॥ २५ ॥ इस पकार श्रुतियों ओर स्मृतियों मे कटे
गये घर्म ( करतंब्यो ) के अनुसार उपयुक्त [ मृ्तियों को | उपासना से मानवो पर
वासुदेव भगवान प्रसन्न होते है । २६॥)
२७, प्रसन्नात्मा हरिभक्तंया निदिष्यासनरूपया ।
अविद्यां कर्मसङ्कातरूपां सो निवतेयेत् ॥
२८. ततः स्वामाविकाः पुंसां ते संसारतिरोदिता; ।
आविर्भवन्ति कल्याणा; सवंज्ञत्वादयो गुणाः ॥
२९, एवं गुणाः समानाः स्युशक्तानामीश्वरस्य च ।
सर्वकतैत्वमेवैकं तेभ्यो देवे विशिष्यते ॥
३०. मुक्तास्तु शेषिणि ब्रह्मण्यकञेषे शेषरूपिणः ।
सकी नइलुवते कामान्सह . तेन॒ विपश्चिता ॥ इति ।
२३२ स्बदशेनसंग्रहे-
“निदिध्यासन ( ष्यान }€0} ४६४०) ) के खूप मे भक्ति रखने पर हरि
प्रसन्न हो जाते है तथा कमो के समह के रूपमे जो अव्रिद्या है उसे तुरत नष्ट
कर देते ह । २७ ॥ उसके बाद संसार ( आवागमन } को नष्ट कर देने वाके
कल्याणकारी स्व॑ञत्व भादि गुणा प्रकट होते है जो मनुष्यों मे स्वाभाविक रूप
से है ॥ २८॥ इष प्रकार मुक्तो ओर ईर के सारे गुण समान हो जाते है,
केवल एक गुण ईश्वर मे विशेष टहै--सबों का निर्माण करना ( नियमन करना
भीइसीमें है) ।॥ २९॥ अशेष ( जो किंसी का अंग नहीं है, & 9301016 पूरण )
शेषी (अंगी ) में शेष (अंग )के रूपमे ये भुक्त पुरुष हो जाते है ( ब्रह्यमें
उसक्के अंग के रूपमे भिल जतिर्है)। उस ज्ञानमय ब्रह्म के खाथ-साथ उसके
सभी गुणों की भी प्राति ये ( मृक्तं ) लोग करते है ॥ ३० ॥ |
विरोष--मृक्त पुरुषों ओौर ईश्वर म सभी गुणों की समानता होने पर
कुछ विलक्षणता रह ही जाती है । जीव किसी भी अवस्था म ( मुक्त होने पर
भी) ईश्वर के समान संसार का निर्माण तथा चित्-अचित् का नियन्त्रण नहीं
कर सकता । इसी आशय से व्यास ने ब्रह्मूत्र मे लिला है-जगद्भयापारवजं
प्रकरणादसन्निहितत्वा्च ( ४।४।१७-१८ ) जडपदा्थं की उत्पत्ति, पालन
ओौर संहार तथा चित्-अचित् का नियमन करना, यहं जगत् का व्यापार हे ।
इन्हं छोडकर ही मुक्त पुरुष में ईश्वरता ( देश्वयं ) आती है । कारण यह हैकि
कुछ धरतिवावयों मेँ एसे प्रकरण आये है जैसे--यतो वा इमानि भूतानि जायन्तेऽ
( ते ३।१ ), यः पृथिवीमन्तरो यमयति ( व° ३।७।३ ) इत्यादि । पहली श्रुति
जं पदार्थौ की उत्पत्ति आदि का उङ्लेव दहै, दूसरी में ईश्वर की नियामक-शक्ति
का । इसके अतिरिक्त उपयुक्त व्यापार में मुक्त पुरुष का सन्निधान भी नहीं ।
अतः मक्त की ईश्वरता सीमित है।
३०बे श्टोक मे ब्रह्म को शेषौ अर्थात् अंगी कहा गया है क्योकि चित् ओौर
अचित् इसके अंग ह । श्वर स्वयं में पूणं है, किसी. का अंग नहीं है, इसलिए
उसे अशेष कहा गया है । ये मुक्त पुरुष उसका अंग बन जते है । अन्तिम पंक्ति
केदो अंहो सकते दह एक में 'विपधथिता' को अप्रधान कर्ता बना सकते है,
दूसरे में अप्रधान कमं । तृतौया विभक्ति में सह का प्रयोग बतलाता है कि वहु
शब्द अप्रधान हो जायगा । यदि यह अप्रधान कर्ताहै तब मुक्तो की प्रधानता
रहेगी-- मुक्ताः तेन ईश्वरेण सह, सर्वान् कामान् ( ईश्वरगुणान् ) प्राप्नुवन्ति ।
मुक्तं लोग प्रधानतः प्राप्त करते है, ईधर गौणतः । इसमे दोष होता है कि ईश्वर
से मुक्तो को अधिक ऊँचा स्थान मिला । दूसरी ओर यदि यह् अप्रचान कमं बन
जाय तो सारी बात सहल है--मूक्तं पुरुष वर के गुणों कौ प्राप्ति प्रधानतः
करते ह, साथ-साथ ईश्वर की प्राति भी करते है। अप्रधान कमं बन जाने पर
रामालज-दशेनम् २३३
श्वर कौ महत्ता में कु कमी हीं हुई, बल्कि ईशर से उसके गुणों का माहात्म्य
अधिक दिवलाया गया है । यह अच्छादही है ।
( २०, ब्रह्म-जिक्ञासा का अथे )
तस्मात्तापत्रयातुरेरभृतत्वाय पुरुपोत्तमादिपदवेदनीयं ब्रहम
जज्ञासितव्यमितयु्तं मवति । ्रकृतिपरतययौ प्रत्ययाथेप्राधान्येन
(क
सह ब्रूत इतः समोऽन्यत्र! इति वचनबलादिच्छाया इष्यमाणग्र
धानत्वादिष्यमाणं ज्ञानमिह विधेयम् । तच ध्यानोपासनादिः
ज्ञब्दवाच्यं वेदनं न तु वाक्यजन्यमापातज्ञानम् । पदसन्दभं
्राविणो व्युत्पन्नस्य विधानमन्तरेणापि प्रातत्वात् ।
इसलिए तीन प्रकार के तापो से व्याकुल पूरुषो को अमरत्व ( मोक्ष ) की
रातति के लिए पुरुषोत्तम आदि लब्दोंके द्वारा बोधित ब्रह्म की जिज्ञासा करनी
चाहिए--यही कहने का मतल है। [ सन्-परत्यय के प्रकरण मे पठा गया
व्याकरणश्ाख्र का यह नियम हक] इस सन्-प्रत्यय के प्रकरण को छोड़कर
दूसरे स्थानों मे जब प्रकृति ( धातु या प्रातिपदिक {००४, 8+€ ) ओर प्रत्यय
( 8परिड ) मिलकर अर्थं का प्रकशि करते द तव प्रत्यय के अर्थं की प्रधानता
समज्षी जाती है--ईइस वाक्य के बल से [ "जिज्ञासा" (../ ज्ञा=जानना, सनप्रत्यय=
इच्छा करना ) शब्द मे, जहाँ प्रत्यय इच्छा के अर्थे दहै] इच्छा की प्रधानता
नहीं है, बल्कि इष्ट वस्तु की प्रधानता होती है । इसलिए प्रस्तुत प्रसंग में इच्छा
किया जानेवाला ( अभीष्ट {6७780 ) ज्ञान ही विधेय के रूप मे है।
[ जिज्ञासा का अथं श्ञानविषयक इच्छा" नहीं है, वल्कि “इच्छा का विषय जञान'
है- इच्छा ( प्रत्ययां ) की प्रषानता नहीं है, ज्ञान ( प्रकृति) ही प्रधान है,
ठेसा सन्-प्रत्यय का नियम है ।]
उस ज्ञान का बोध ध्यान, उपासना आदि शब्दों के द्वारा होतादै, नकि
केवल वाक्य का श्रवणा करने के बाद ही उस्पन्न अथंज्ञान । व्युत्पन्न 4९१ पदो का
सन्दभ ( (010४6४४ ) सुनकर ही, बिना किसी विधान [फणपढघमा ) के
ही, उनका अथं समज्ञ लेता है। [ कहने का अभिप्राय यह हिक ब्रह्म का ज्ञान
केवल वाक्यों को सुनकर उनका अर्थं समञ्च लेने से नहीं होता जेसा किं लौक्रिक
ज्ञान मै होता ह । भूगोल में पते है कर कोलम्बो लंका की राजधानी है ओौर
हमे इसका ज्ञान हो जाता है। ब्रह्म के ज्ञान में ठेसी बात नहीं है । ध्यान,
उपासना आदि को ब्रह्म-जञान कहते ह, केवल ऊपरी ज्ञान को नहीं । यदि एेसा
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२३४ सबेदशेनसंग्रहे-
नहीं होता तो अथातो ब्रह्मजिज्ञासा में किया गया ज्ञान का विधान व्यथ॑ही
था । लोकिकं वाक्यों में दिये गयेज्ञान के बाद यहु नहीं कहा जाता हैकि इस
वाक्य को जानना चाहिए, विधान नहीं होता है । श्युत्पन्न पुरुष प्रसंग देखकर
अपने आप समञ्चलेते है। पर यहां ब्रह्यके ज्ञान का विधान है इसलिए यह
साधारण ज्ञान नहीं - उपासना आदिके खूप में यहां यह ज्ञानं है जिसके लिए
विधि दी गई टै] ~ | |
विरोष-ताप तीन प्रकार के है आध्यात्मिक, आधिभौतिक ओर
आधिरैविक । आत्मा के यहाँ दो अथं ह शरीर गौर अन्तःकरण । शरीर में
भूख-प्यास के ल्प में धातुओं के प्रकोप से ज्वर होना, अतिसार आदि
आध्यात्मिक ताप है । अन्तःकरणा मे उत्पन्न काम, क्रोध, लोभ, मोह, भय,
ईर्ष्या, विषाद, संशय आदि से उत्पन्न कष्ट भी आध्यात्मिक हीह भूतन्मांके
पेट से जन्म लेने वाले ( जरायु-ज ), अण्डज, स्वेदज ओर उद्धिन ( वनस्पति }
के रूपमे चोर, वैरी सिह, बाघ, पक्षी, सांप, जोक, पेड़-पौषे आदि । इनसे
होने वाले कष्ट आधिभौतिक है, देव =यक्ष आदि स्वगं के निवासी, हवा, पानी,
धुप, शीत, गर्मी आदि । इनसे होने वाले ताप आधिदैविक है ।
व्याकरण में प्रकृति-प्रत्यय के योग से पद बनतारहै, प्रकृति कामी कुद
अथं रहता है ( अर्थवदधघातुरप्रत्ययः प्रातिपदिकम् तथा दधाति अर्थानिति धातुः },
प्रत्यय काभी। किन्तु प्रत्यय का अथंही प्रधान होता है-दशरथ + इन्
( अपत्था्थंक प्रथय }=दशरथ के पुत्र ( दाशरथिः) । दशरथ की मुख्यता नहीं
है, अपत्य ही मुख्य है । गम् + तिप् (लकरार-वचन-पुरुष विशिष्ट प्रत्यय) = गच्छति,
गमनानुकरूलक व्यापार से अधिक मुख्य प्रत्याश है जिसमे लकार ( वतंमान
काल ), एकवचन तथा प्रथमपुष्ष की विशेषता व्यक्त होती है) प्रत्यय की
प्रधानता सन् के प्रकरण मे नहीं होती है, यहो कारण है कि "जिज्ञासा" शब्द
मे इच्छा को दबाकर ज्ञान प्रधान हो गया है।
ज्ञान का अर्थं श्रवणा मनन, उपासना आदि है इसे व्यक्त करने के लिए
श्रुतिवाक्य उदुधुत क्रिय जा रहे है।
‹आत्मा वा अरे द्रष्टव्यः श्रोतव्यो मन्तव्यो निदिध्यासिः
तव्यः! ८ ब्र ° २।४।५ ), “आत्मत्येबोषासीत' ( ° १।४।७ ),
“विज्ञाय प्रज्ञां वीत ( चर ° ४७।४।२१ ), (अनुविद्य विजानाति'
{ छा० ८।७।१ ) इत्यादिश्रुतिञ्यः ।
अत्र श्रोतव्यः, इत्यनुवादः । अध्ययनविधिना साङ्गस्य
रामानुज-दशेनम् २३५
स्वाध्यायस्य ग्रहणेऽधीतवेदस्य पुरुषस्य प्रयोजनवदर्थदश्ेनात्
न्निणयाय स्वरसत एव श्रवणे प्रवतेमानतया तस्य ग्रप्नतवात् ।
"सचमुच आत्मा को देखना चाहिए, सुनना चाहिए, मनन करना चाहिए,
ध्यान लगाना चाहिए" ( बृहदारण्यको० २।४।५ ), “आमा कौ ही उपासना
करनी चाहिए" ( वही, ११४७ ), "{ श्रवण ओर मनन से आत्मा को|
जानकर प्रज्ञा ( निदिष्यासन ) करं" ( वही, ४।४।२१ ), {श्रवण ओौर मनन
के द्वारा] जानकर ही विक्षेष ज्ञान प्रापि करे" ( छा० ८।७।१ ) इत्यादि
श्रुतिवाक्यं से [ यह सिद्ध होता हैकिं ज्ञान का अथं श्रवण, मनन, उपासना
आदि है],
यहाँ “श्रोतव्य' शब्द ॒व्पाख्यात्मक् है । अध्ययन का विधान करने वाले
वाक्य ( स्वाध्यायोऽयेतव्यः } से अङ्गौ के साथ [ वदो के | स्वाव्यायक्ा ब्रह
होता है ( ब्राह्मणेन निष्कारणो धर्मः षड्खो वेदोऽ्येयो ज्ञेयश्च ) । इसलिए जो
पुरुष वेदों का अध्ययन कर लेता है बह अपने आप ( स्वरसतः ) ही बेदोंको
सप्रयोजन ८ सार्थक र्ण) ) समते हए, उनमें अर्थं देख कर, अथं का निरय
करने के लिए श्रवण ( गुरुमुख से वेदाथं को सुनने ) मे प्रवृत्त होता है । अतः
[ ज्ञान मे श्चवणा की ] प्राप्ति होती है। [ज्ञान में श्रवण का अथं कैसे होता है,
इसे ही समज्ञा रहे दै । ब्राह्मणेन निष्कारणो! वाले उद्धरण मे छह अद्धो के
साथ वेदों के अध्ययन भौर ज्ञान का विधान ह । अध्ययन ( भक्षर-ग्रहण ) के
बाद जव वेदार्थज्ञान कौ आवदयकता होती है तव गुखमुख से सुनना ही पड़ता है,
अतः श्रवणा के विना ज्ञान नहीं होता । |
मन्तव्य इति चानुवादः } श्रवणम्रतष्ठाथेतवेन मननस्यापि
ाषत्ात् । अप्राते शाच्मथवदिति न्यायात । ध्यानं च तैल-
धारावदविच्छिबमरतिसंतानरूपम् । शवा स्यृतिः स्मृतिग्रति- `
लम्भ सवग्न्थोनां विप्रमोशष' इति धरवायाः स्पृतेरव मोक्षोपायतव-
श्रवणात् । सा च स्पृतिदंशेनसमानाकारा ।
"मनन करना चाहिए" यह भी व्याद्यात्मक ञः है। श्रवणा को दढता से
प्रतिष्ठित करने के लिये मनन की प्राति भी आदक््यक है । इसक्ते लिए एक नियम
है कि जव तक [ मनन कौ] प्राप्ति नही होती, तब तक शाख सार्थक ( केवल
अरथयुक्त, विशेष कुछ नहीं ) रहता है। तेल की धाराके समान स्मरण की
अविच्छिन्न ( ण010६6ा\ ) परम्परा को ध्यान कहते है। [ जब स्मृति कौ
3
२३६ सबेद्शनसंमहे-
परम्परा बीच में न ट्टे, चाहे दूसरे प्रकार की-- विजातीय स्मृतियां लाख न्यव-
धान डालती हों, तब उसे ध्यान ( 1601४80 ) कहते है । |] ध्रुवा स्मृति
( निरन्तर परमात्मा का ध्यान ) वह है जिसमें स्मृति निरन्तर रहती है ( प्रति-
लम्भ ), गौर सभी प्रन्थियों ( कर्मो, पापों, संशयो ) का मोक्ष हो जाता है--इस
प्रकार ध्रुवा स्मृति ( (07४1०७५ ्पलणला00१४०९ ) को ही मोक्ष का
उपाय कहते है, ठेसा सुना जाता है । यह ( धरुवा ) स्मृति दर्खनके ही समान
आकार धारण करती है ( दर्चन शब्द मे ध्यान काभी बोध हो जाता है।)।
विहोष-इस प्रकार यह सिद्ध किथागयाकि दर्शन या ज्ञान में श्ववरा,
मनन ओर ध्यान तीनों चले आते है। द्धन ओौरध्यानमे एकता का प्रद्न
करने वाला इलोक नीचे दिया जा रहा है ।
३१. भिद्यते हदयग्रन्थिर्छिद्यन्ते सवसंशयाः ।
घ्षीयन्ते चास्य कमणि तस्मिन्द्टे परावरे ॥
( मु०° २।२।८ )
इत्यनेनेकवाक्यत्वात् । तथा च (आमा वा अरे द्रष्टव्यः!
( ब २।४।५ ) इत्यनेनास्या दश्ेनरूपता विधीयते । भवति
च भावनाप्रकषौत्सपतेदं्नरूपत्वम् । वाक्यकारेणेतत्सवं प्रपञ्चितं
विदनुपासनं स्यात्" इत्यादिना ।
उस परमात्मा को देख लेने ( ष्यानमें ले आने ) पर हृदय की प्रन्थियां
( राग, द्वेषादि ) चित्न-भिन्न हो जाती है, सारे सन्देह मिट जाते है, जोव के कमं
भीनष्टहो जाते ह ( केवल प्रारब्ध कमं रहता है )' ( मु° २।२।८ ) [ इस शोक
म 'द्चन' का अर्थं "स्मृति" ही है ] अतः दोनों वाक्यों मे समानता है इसलिए
व्यान ( ध्रुवा स्मृति) को भीदर्थन कहते है। उसी प्रकार आत्मावा अरे
्रष्व्यः' {व° २।४।५) इस वाक्य में ध्रुवा स्मृति को दर्शन के रूप में लिया गया
है । भावनाओं के प्रकषं ( विशेषता ) के कारण स्मृति देन के रूपमेंहैमी।
वाक्यकार ( वृरि के रचयिता ) ने इन सवो का सविस्तार वंन किया है-
वेदन को उपासना कहते हँ इत्यादि ।
तदेव ध्यानं विश्चिनष्ट श्रुतिः
३२. नायमात्मा प्रवचनेन रुभ्यो
न मेधया न बहुना श्रुतेन ।
रामानुज-दशेनम् २३७
यततेवैष वृणुते तेन रभ्य
स्तस्पैष आत्मा विव्ृण॒ते तन् स्वाम् ॥
( कट० २।२३ )
प्रियतम एव हि बरणीयो भवति । यथायं प्रियतम आत्मानं
प्राप्नोति, तथा स्वयमेव भगवान् प्रयतत इति भगवतेवाभिदहितम्-
३३, तेषां सततयुक्तानां भजतां ्रीतिपूबेकम् ।
ददामि बुद्धियोगं तं येन माभरुपयान्ति ते ॥
( गी० १०।१० ) इति |
रुषः स परः पाथं भक्त्या लभ्यस्त्वनन्यया |
( गी० ८।२२ ) इति च ।
धरति में इसी ध्यान की विकेषताय बतलाई गई है -- "इख अत्मा को प्रवचन
( व्याङ्यान शध०अ ४० ) से नहीं पा सकते दै; न तो अधिक बुद्धि रखने से
ओौरन ही अधिक विद्या पानेसे! हसे पा सकते ] । जिस उषासक-विहेष का,
[ निदिध्यासन से प्रसन्न होकर ] यह परमात्मा वरण ( 8लाव्ल्०पण ) करता
ह, वही इसे धा सकता है । उस उपासक को यह वरमात्मा अपना शरीर ( रूप )
दिलाता है ।' ( कठ० २।२३ ) । सबसे अचिक प्रिय व्यक्ति काही वरण किया
जाता है। यह प्रियतम ( उपासक ) जिसमे आत्मा को प्राप्त करे, ईइसके लिए
सगवान् स्वयं प्रयास करते है--यह भगवान् ने ही कहा है--'जो निरन्तर मेरे
साथ युक्त होने की इच्छा करते है तथा प्रीतिपूवंक मेरा भजन करते है, उन्दँ मै
बुद्धि-योग ( भक्ति ) देता ह जिससे वे मेरे पास चले आति ह ।' ( गी° १०।१० )
तथा, हे अजुन, वह परम पुर्व ( परमात्मा ) अनन्य ( एकनिष्ठ ) भक्ति से ही
वाया जा सकता है ।' ( गी° ५।९९ ) [ इस प्रकार यह निदिष्यासन भक्ति का
प धारणा कर केता है । | |
( २९. भक्ति का निरूपण )
भक्तिस्तु =रतिश्चयानन्दभियानन्यप्रयोजन-सकलेतरवे वृष्णयः
व्ञज्ञानविशेष एव । तत्सिद्धिश्च विवेकादिम्यो भवतीति वाक्य
कारे मोत -तहन्ध्विवेकविमोकाम्यासक्रियाकल्याणानवसा `
नुदधर्वभ्यः सम्भवान्निवेचनाचेति ।
२३८ सबेदशैनसंग्रदे-
तत्र विवेको नामादृष्टादनात्सशद्धिः । अत्र निवेचनम्--
“आहारजद्धेः सच्वश्ुद्धिः सखशचद्धया धरुवा स्मृतिः” इति । विमोकः
कामानभिष्वङ्गः । शान्त उपासीतेति निवेचनम् ।
भक्ति एक प्रकारके ज्ञान को ही कहते है जिसमे निरतिञश्चय ( {95प[8-
8380)© ) आनन्द के समान प्रिय परमात्मा के अतिरिक्त दूसरा कोई भी प्रयोजन
( लक्ष्य ) नहीं है तथा जिसमे अन्थ समी विषयों से वितृष्णा या वैराग्य रहता
है। [ जिस ज्ञान का लक्ष्य परमात्माहै तथा जिसे पकर समी वस्तुओं से
वैराग्य होजाता है उसी ज्ञान को भक्ति कहते है। | उसकी सिद्धि विवेक
आदिसे होती है जैसा कि वाक्यकारने कहा है- उस ( भक्ति) की प्रापि विवेक
( [086८ प्णाण8०प ), विमोक (-फिशा०]#00), अभ्यास (1१8५४1९९),
क्रिया ( 00३6४ ९०९९ ), कल्याण (86९]]९7९6), अनवसाद (# "6600
पणि [3९€अुगव९प४स् ) तथा अनुद्धषं ( 84018800 ) के दवारा, युक्ति
( सम्भव ) तथा निवंचन ( व्याख्या } ॐ अनुसार, होती है ।' [ भक्ति की प्रापि
के ये साधन है, इनमें दो बातं रहती है-- सम्भव ( युक्ति ) अर्थात् प्रत्येक साधन
का युक्तियुक्त लक्षण दिया जाता है तथा प्रत्येक की व्याख्याकी जातीहैजो
प्रामाशिक वचनोंके रूपमे रहती है। इस प्रकार लक्षण ओौर व्याख्या करके
भक्ति-प्रापि के उपायों को समञ्लते है । ]
उनमें विवेक का अर्थं है, अ-दूषित अन्न से सचस्व ( प्रकृति ) की शुद्धि,
[ यह सम्भव है। ] अब इसका निर्वचन है-आहार की शुद्धि से प्रकृति शुद्ध
होती है, प्रकृति की शुद्धि से ध्रुवा स्मृति प्राप्त होती है।' विमोक कामनाओं में
आसक्ति न रखने को कहते है । इसका निवंचन है--शान्त होकर ( विषयों से
अस्पृष्ट होने पर }) उपासना करे
विदोष- अन्न ( मोजन ) तीन प्रकार के दोषों से दूषित होता है--जातिः
दोष से लहसुन, प्याज आदि दूषित हैँ । आश्रय -दोष से पतित, चारडाल आदि
का अन्न दूषित होता है ओौर निमित्त-दोष्र से ज्रूा, बासी आदि दूषित है । तीनों
दोषों से रहित अन्नके सेवन से शरीर-शुद्धि होकर चित्त की शुद्धि होती है । भक्ति
के साधनों का प्रथम लक्षण दिया जाता है। फिर प्रन उठ्ताहै किं क्यों इसे
भक्तिया श्रवा स्मृति का साधन मानते? तब आगम-प्रमाण दिया जाता है
जिसमे उस साधन से सम्बद्ध बातं रहती दहै, इसी को निवंचन कहते है \
` पुनः पुनः संशीरनमम्यासः । निवचनं च स्मातेशदाहतं
भाष्यकारेण--“सदा तद्भावभावितः! ८ गी ° ८।६ ) इति भ्रोत-
[क =
रामानज-दशेनम् २३६
स्मातकमीनुष्टानं शक्तितः क्रिया । (क्रियावानेष ब्रह्मविदां वर्ष्टिः
इति निवेचनम् । सत्याजेवदयादानादीनि कट्याणानि । “सत्येन
लभ्यत इत्यादि निर्वचनम् । देन्यत्रिपयंयोऽनवसादः । नाय-
(र
मात्मा बलहीनेन लभ्यः, ( मु° ३।२।४ ) इति निवैचनम् ।
¢ ~ ~ © अ ४
तद्विपययजा तुष्टिरुद्रषः । तद्विपयेयोऽनुद्धषः । “शान्तो दान्त"
इति निवेचनम् ।
[ देवता का ] बार-बार चिन्तन करना अभ्यास है, इसके लिए भाष्यकार
{ रामानुज ) नेस्मृतिसेही निर्वचन उद्धुत किया है-"उस ( परमात्मा } के
आवो मे जो व्यक्ति सदा ही निरत दै" ( गौ° ८।६ ) । अपनी शक्ति के अनुसार
श्रुति ओर स्मृतियों ( पुराणो ओर इतिहासो ) में प्रतिपादित कर्मो का अनुष्ठान
( एलान ७०९९ ) करना क्रिया है । इसका निवंचन यह है--“जो पुरुष
क्रियायुक्त है वहं ब्रह्यवेत्ताओं मे सर्वतरेष्ठ है !* सत्य ( सब जीवो कौ भलाई ),
आजव ( मन, वचन ओर कमं कौ एकरूपता ), दयां ( अपने स्वाथं षर ध्यान
न रखते हुए दूसरों के दुःखो को न सहना ), दान (चिना लोभके द्रव्यादि देना )
आदि कायो को कल्याण कहते है । इसका निवं चन है-- "सत्य से पाया जाता
ह" इत्यादि । { देश, काल कौ प्रतिकूलता क्रे कारणा या शोक-वस्तु के स्मरण से
उत्पन्न मन की शिथिलता को दीनता कहते है उसी ] दीनता से रहित होने को |
अनवसाद् कहते है । इसका निर्वेचन ह~ 'बलहीन व्यक्ति इस आत्मा को नहीं |
पा सकते ( मु० ३।२।४ ) । उपयुक्त दीनता के विरुढ कार्यो ( देशकाल की
अनुकूलता होने या ब्रिय-वस्तु का स्मरणा करने से मन की रिथिलता से उत्पन्न
सन्तोष को उद्धषं कहते है, इसका उलटा अचुद्ध है, [ शोक की तरह अति
संतोष भी मन को शिथिल कर देता है इसलिए उसका अभाव कहा गया है
(अभ्यं०) ] । इसका निवंचन है--*जो पुरूष शान्त है, इन्र्यो को दबाये हृए है ।'
विरोष--उद्धषं ( उत् = अधिक, हषं = प्रसन्नता ) । कोई बड़ी प्रसन्नता
कौ बात सुनकर मन रासो उछल पडता है, मनुष्य को अपने ऊपर नियन्त्रण नहीं
रहता । यह सन्तोष नहीं, अति सन्तोष की अवस्थाहै। पर एसा सन्तोद नहीं
चाहिए, सन्तोष एेसा हो जिसमे मन का नियन्त्रण ( दान्त } रहे । इसलिये दोनों
ही सन्तोष है, एक अतिसन्तोष, दूसरा शान्तिपूणं सन्तोष । पहले को हम विलास-
मय सन्तोष ( 1.पद्रप10ण8 39{9{3 0408 ) कहते है जो असंतोष हौ है ।
दूसरा शान्ति की अवस्था ( {3४8५9 त प्तप) प्फ) है। यही कार्ण हि
किं इसके निव॑चन में “शान्तः दान्तः' का प्रयोग किया दै ।
२४० सबेदशनसंग्रहे-
तदेवमेवंबिधनियमविरेषसमासादित-पुरुषो्तम प्रसाद -विष्व-
स्त-तमःस्वान्तस्य अनन्यप्रयोजनानवरतनिरतिश्चय-प्रिय-विश्चदा-
त्मग्रत्ययावभासतापन्नध्यानरूपया भक्त्या पूरुषोत्तमपदं लभ्यत
इति सिद्धम् । तदुक्त याघरुनेन-उभयपरिकि्मितस्वान्तस्यकान्ति-
कात्यन्तिकभक्तियोगो रम्य इति | ज्ञानकमयोगसंस्छृतान्तःकरण-
स्येत्यथः ।
इस प्रकार वह व्यक्ति जो इन वि्ञेष नियमों का सम्पादन करके प्रसन्न किये
गये पुरुषोतम मगवान् करौ कुपासे अपने भीतर के सारे अन्धकारो को नेष्ट कर
चुका है, देसी भक्ति से पुरुषोत्तम का पद भरि करता है जिस भक्ति मे [परमात्मा
को छोडकर ] कोई दूसरा प्रयोजन नहीं रखकर, निरन्तर, सबसे अधिक ( निरति-
शय ) प्रिय आत्मा के विशद प्रत्यय ( विचार ) अर्थात् स्पष्ट अवभासि का ध्यान
करिया जाता है। [ इस लम्बे समस्त-पद-युक्तं वाक्य क! अर्थं यही है कि उपयुक्त
नियमो से परमेश्वर को पाकर उनकी कृपा से सारे कमो का क्षय कर दं तथा
उनमें निरन्तर ध्यान लगाकर उनकी भक्ति दिखलाये जिससे परमेश्वर का परम
पद वैकुण्ठ प्राप्र हो । |
यामुनाचायं ( समय १०४० ६०, रचनयिं--आगमप्रामारय., सिद्धित्रय,
गीतार्थसंग्रह ओर स्तोत्र ) ने कहा है- "दोनों ( ज्ञान भौर कमं) केद्वारा
जिसका अन्तःकरण शुद्ध हो गया हो वही एकान्तिक ( 7081 ) तथा आत्यन्तिक
( 608010५९ ) पूण भक्तियोग षा सकता है।" तात्पयं यह है किं ज्ञानयोग
ओर कर्मयोग से जिसका अन्तःकरण संस्कारवान् हो चुका है [ वही व्यक्ति
परमपद षा सकता है । |
( २२. द्वितीय खत्र- ब्रह्म का लक्षण )
कि पुनर्बह जिज्ञासितव्यमित्यपेक्षायां र्षणषठक्तम् `
(जन्माद्यस्य यतः, (ब्रह्मम् १।१।२ ) इति । जन्मादीति चुषि-
स्थितिग्रलयम् । तद्गुणसंविज्ञानो बहुव्रीहिः । अस्याचिन्त्य-
विबिधविचित्ररचनस्य नियतदे्कालमोगन्रह्मादिस्तम्बपयन्तशत्र
मिश्रस्य जगतो, यतो = यस्मात् सर्वेश्वरात् निखिलदहेयप्रत्य-
नीकस्वरूपात् सत्यसंकल्पाद्यनवधिकातिक्चयासंखयेयकसल्याणगुणात्
सर्वजञातसर्बशक्तेः पुंसः सुष्टिस्थितिप्रख्याः प्रबतन्त इति त्राथेः ।
रामानुज-दशेनम् २४१
अब प्रदन होतादहैकिं किस ब्रह्मकी जिज्ञासा करनी चाहिए? इसकी |
आशंका से ही ब्रह्मका लक्षण कहा गया है--जिखसे इत (संसार) के जन्मादि होतें
है" (ब्र० सू० १।१।२) जन्मादि का अथं है सृष्टि, स्थिति जौर प्रलय । [ जन्मादि
शब्द मेँ ] बहूत्रीहि समास है जो अपने अन्दर स्थित पदों के अर्थो को मी ग्रहण
करता है ( तद्गुणसंविज्ञान ) । सूत्र का यह् अथं है--अस्य = इस अचिन्तनीय
( \6001०61४80}€ } विविध प्रकार कौ विचित्र रचनाओं वाले तथां निशित
देशकाल मे फल को भोगने का नियम ब्रह्म से लेकर तृण ( स्तम्ब ) पय॑न्त सभी
जीवों (कषेत्रज्ञं) मे जहाँ समान (मिश्र)टै, एमे जगत् का, यतः = वे
सर्वेश्वर, जो सभी त्याज्य गुणों के विरोधी रूप मेँ रहते है, जो सत्यसंकल्प (00
+68०]प्४० ) आदि अनन्त अतिश्शयों से युक्त है, असंख्य कल्याणकारी गुणों
के भारडार है, सर्वज्ञ ह॑ तथा सर्वशक्तिमान् ह, उन पुरुषोत्तम से, सृष्टि, स्थिति
तथा प्रलय--ये सभी प्रवृत्त होते है ।
विरोष--बहूत्रीहि समास के स्वपदार्थं को लेकर दो भेद है--तदृगृण-
संविज्ञान ओर अतद्गुणसंविज्ञान । जव समासमें स्थित पदोंके अर्थोका
( तद्गुणानां ) सम्बन्ध कायं (क्रिया) सेहो तब उसे तद्गुणसंविज्ञान कहते है
जैसे लम्बकरंमानय । यहाँ आनय” ( लाओ ) क्रिपा से "लम्ब" ओर "कं"
दोनों के अर्थौ का सम्बन्ध है लम्बे कान वालेपशु कोलानाहै; प्के साथ
ये दोनों भी अतेहै। द्सरी ओर, दृष्टसागरमानय' में अनयः का सम्बन्ध
हृष्ट ओौर सागरके साथ नहींदहै। जब पुरूष को लाया जायगा, तब सागर
ओर दृष्ट शब्दों के अथं नहीं होगे । यह अतद्गुण संविज्ञान बहुत्रीहि ( ९।४-
11} 0 8618789916 8¢प प्ट ) है । कभी-कभी तदुगुणंसं विज्ञान शब्द
कौ व्याख्या इस प्रकार होती है--तत्=विजेष्य, गुण=विशेषण, सम्-एक
करना । जिस बहुव्रीहि में विजेष्य ओर विशेषण को एक क्रिया से सम्बद्ध जाना
. जाय, वह तद्गुणसंविज्ञान है। लम्ब ओौर कणं शब्द "पशु" के विशेषण
पशु विकञेष्य है । अतः पशु को लाने के साथ इसके विरोषणों को भी लाना
अभीष्ट होता है लम्ब ओर कणं को पृथक् करके पशु नहीं लाया जा सकता ।
लेकिन पुरुष को लति समय सागर" नहीं आता ओर न॒ आता है दष्ट" शब्द
का अर्थं- ये विेषणा विशेष्य से पृथक् हो गये । “जन्म आदि यस्य तत् मेभी
तद्गुणसंविज्ञान ( 17186])8181016 8४7 10पा€ ) है क्योकि ब्रह्माके कार्योमें
सों का ग्रहण हो जाता है, जन्म ओर आदि दोनों का।
जगत् के दो विशेषणा दिये गये है एक मे अचित् का विद्लेषणा दहै. दूसरे
मे चित् का । अचिदंश के विषय में सोचना भी कठिन है कि वहु कितने प्रकार
काहे ओर कितना विचित्र है। वह जीव की कृति नहीं है कि उसके विषयमे
१६ स० सः
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२४२ सवंदशेनसंग्रहे-
कुछ सोच-विचार कर सकं, यह तो ईश्वर की अचिन्त्यशक्ति का मूतंरूप दै ।
दूसरी ओर िदंश है जिसमें फलमोग का सवंसावारण ` नियम सभी जीवों में
लगा हआ है चाहे वह ब्रह्मा हो या तुच्छ तृणएखणड हो, उसे किसी विशिष्ट काल
जौर देश में फल भोगना ही १इता है ।
इस प्रकार, ब्रह्म वह है जिससे संसार कौ उत्पत्ति, स्थिति ओर प्रलय
होती है ।
( २३. तृतीय सूत्र ब्रह्म के विषय में प्रमाण )
इत्थंभूते ब्रह्मणि कि प्रमाणमिति जिज्ञासायां शाखमेव
ग्रमाणमिल्युक्तम्--शाखयोनित्वात्' (ब छ १।१।२ )
इति । शाद्धं योनिः कारणं प्रमाणं यस्य तच्छाल्योनि । तस्य
मावः तं तस्मात् । ब्रह्मज्ञानकारणत्वाच्छाच्ञस्य तद्योनितं
ब्रह्मणः इत्यथः ।
इस प्रकार के ब्रह्म को सिद्ध करने के लिए क्या प्रमाण है? यदि यह पू
जाय तो उसका उत्तर पहले से हीतैयार हैक्रि शार हीब्रह्मकीसिद्धिके
` लिए प्रमाण ह क्योकि शाख ही उस (ब्रह्म कौ सिद्धि) के लिए प्रमाण
( योनि) है" (त्र° सूः १।१।३ )। शाख जिसकौ योनि अर्थात् कारण या
प्रमाण है वह ( ब्रह्म ) शाख्रयोनि टै । उसका भाव या तत्तव ( शास्रयोनित्व ),
इस कारण से-[ शाख्रयोनित्वात् | । शाख चूंकि ब्रह्मज्ञान का कारण है
इसलिए वह ब्रह्म की योनि ( कारण ) कहलाता है । यही अर्थं हुआ ।
न च ब्रह्मणः प्रमाणान्तरगम्यत्वं शङ्कितं शक्यम् । अती-
(३ © =
न्द्रियत्वेन प्रत्यक्षस्य तत्र प्रबृत्यनुपपत्तेः । नापि महाणंवादिक
४ © [क
सकर्तकं कार्यत्वाद् घटवदित्यनुमानम् । तस्य पूतिङप्माण्डा-
ग
यमानत्वात् । तछछक्षणं ब्रह्म “यतो वा इमानि भूतानि! ( तं°
२।१।१ ) इत्यादि वाक्यं प्रतिपादयतीति स्थितम् ।
ठेसी शंका भी नहींकी जा सकती कि ब्रह्म | गास्न=-जागम के अतिरिक्त ]
किसी दूसरे प्रमाणा से जाना जा सकता है । वह ( ब्रह्म ) इन्द्रियों की पर्हुव के
परे है इसलिए प्रत्यक्ष प्रमाण की तो वहां प्रवृत्ति नहीं हो सकती । समुद्र आदि
सकतक ( 118 & १०९८) है क्योकि ये कायं ह लेसे घट" इक्ष प्रकार
का अनुमान [ जसा कि नैयायिक लोग ईश्वर कौ सिद्धि के लिए उपस्थित करते
ह] भी नहीं हो सकता वरयोकि यह पूति-कुष्माएड ( गले हृए कुम्हडे ) की तरह
रामानुज-दशेनम् २४३
| दूरे ही व्याग करने योग्य ] है । इस प्रकार के लक्षणों से युक्त ब्रह्मका
प्रतिपादन "जिससे ये सब दृद्यमान पदाथ निकले" (: तै° २।१।१ ) इत्यादि
वाक्य करते है--यह सिद्ध हो गया ।
विश्ेष-पूति का अथं 'गला हुभा' तथा एक लता विष मी है। जिस
प्रकार पूति लता में कुम्हडे का फल नहीं हौ सकता उसी प्रकार उक्त हेतुसे
साष्य ( सकर्तंकत्व ) की सिद्धि नहीं हो सकती । समुद्र, पर्व॑त आदि का निर्माण
कोई कर रहा है, रेषा नहीं मिलता । इसलिए काय॑त्व-हेतु असिद्धदहै। नतो
इसे प्रत्यक्ष से ही जानते है न अनुमान से ही । ईइसके अलावे यदि पवंत, समुद्र
आदिकोकायंके रूपमे स्वीकार करंतो भी यह नहीं प्रमाणित होता कि
किसी एक ( कर्ता ) ने ही उन सों का निर्माण किया है जिससे एक ईश्वर को
ही सों का निर्माता सिद्ध करे । यह भी नहीं कह सकते कि जीवों में पर्वतादि
निर्माणा करने की सामथ्यं नहीं है बडे-बडे महर्षयो ओर देवताओं मे सिद्धि
के बल से रेषी सामथ्यं पाई गई है। इसके अतिरिक्त संसार का निर्माता ईश्वर
शरीरधारी है कि शरीरहीन ? यदि शरीरद़ीन हितो कतां बन नहीं सकता
क्योकि रेखा कोई प्रमागा नहीं है । शरीरघारी होने पर उसका शरीर नित्य
होगा या अनित्य । यदि नित्य है तो अवयवो से युक्त वह ईश्वर नित्य होगा ओर
संसार भी नित्य माना जायगा । जव संसार नित्यही है तो कायं ( उत्पन्न )
कैसे होगा ? उसकी उत्पत्ति की क्या आवश्यकता ? वह तो सदा से है--इस
प्रकार ईश्वर की सिद्धि नहीं होगी । यदि उसका शरीर अनित्य है तो किसने
शरीर को उत्पन्न किया ? स्वयं ईश्वर नेही कियातो भी ठक नहीं क्योकि
शरीरहोन वैसा नहीं कर सकता । यदि दूसरे शरीर से उत्पन्न किया तो फिर
प्रश्न होगा कि उस शरीर को किसने उत्पन्न किया ? इस प्रकार अनवस्था होगी ।.
इसके अतिरिक्त शरीर के मभाव में संसार का उत्पादनःरूपी कोई भौ व्यापार |
उससे सम्भव नहीं है । जब व्यापार नहीं तो, तो वह कर्ता कैसे बनेगा ?
इस प्रे विचार से सिद्ध हुआ किं ईश्वर की सिद्धि के लिए अनुमान प्रमाण
नहीं हो सकता 1 अन्य समी प्रमाण निरस्त है, अतः आगम-प्रमाण सेही ब्रह्य
की सिद्धि हो सकती है,
( २४. चतुथं सूत्र--शासखौ का समन्वय )
यद्यपि ब्रहम प्रमाणान्तरगोचरतां नावतरति तथापि प्रबत्ति-
निवृत्तिपरत्वाभावे सिद्धरूपं रह्म न सास प्रतिपादयितु प्रभवती-
त्येतन्पर्यनुयोगपरिहारायोक्तम्--^तत्त समन्वयात्" ( ब्र छ"
रथ सबेदशेनसंग्रे-
१।१।४ ) इति । तशषब्दः प्रसक्ताशङ्काव्याबृ्यथेः । तच्छाख्र-
प्रमाणकं ब्रह्मणः सम्भवत्येव । इतः १ समन्वयात् । परम-
परुषा्भूतस्यैव ब्रह्मणोऽभिधेयतयान्वयादित्यथः ।
यह शंकाकीजा सकती है किं यद्यपि ब्रह्यको दूसरे प्रमाणोंसे नहीं जाना
जा सकता, फिर भी यदि शास्र प्रवृत्ति ओौर निवृत्ति कासंकेतनकरेतो
सिद्ध-ब्रह्म का प्रतिपादन वह नहीं कर सकता । [ यदि शास्र सिदध-ब्रह्मका
प्रतिपादन करता है तो किसी का प्रवतंक ओर निवतंक वह नहीं हौ सकता ।
इसलिए न तो वह सुखं की प्राति करा सकेगा, न दुःख की निवृत्तिही। बिना
प्रयोजन के उसे कौन पटेगा ? अतः शास्र अप्रामारिक न हो, इसलिए उसे सिद्ध-
ब्रह्म का प्रतिपादक नहीं होना चाहिए । ] इसी शंकाके परिहारके लिए कहा
गया है- "उस ( शाखर-प्रमाण ) को तो समन्वय ( पद्ध] श्ना ) से
[ समस्ते है ] ८ ब्र० सु° १।१।४ )। यहां तु (तो) शब्द प्राप्त शंकाकी
निधृत्ति करने के लिए है । तत् = शास्र के दारा प्रमाणित होना, ब्रह्म के विषय
मे सम्भवहै, पर कैसे ? समन्वय से अर्थात् परम पुरुषां स्वल्प ब्रह्मही
अभिधेय [ इन शाखो मे | है, जिनके साथ उसका सम्बन्ध दिखाया गया है \
[ प्रथम सूत्रमेंब्रह्मकाही नाम लिया गया है, वही मनुष्यों का अन्तिम लक्ष्य
है, यही उदद्य है, उसी का सम्बन्ध लाखों के साथ दिखलाया गया है । इससे
पता लगता है कि सिद्ध-ब्रह्म का प्रतिपादन करने पर भी शाख्र सप्रयोजन है । |
न च प्रवृत्तिनिव्रस्योरन्यतरविरदिणः प्रयोजनश्चू्यत्वम् ।
स्वरूपपरेष्वपि “पुत्रस्ते जातो" (नायं सः" इत्यादिषु हेरि
भयनिवृत्तिरूपप्रयोजनवच्वं दृष्टमेवेति न किञ्चिदनुपपन्नम् ।
दि्ात्रमिह प्रद्ितम् । विस्तरस्त्वाकरादेवावगन्तव्य इति
विस्तारभीरुणोदास्यत इति सबरेमनाङलम् ।
॥ इति श्रीमत्सायणमाधीये स्दश्ेनसंग्रहे रामाजुजदश्ेनम् ॥
ेसी बात नटीं 8 कि प्रवृत्ति या निवृत्तिमें सेकसी एक के न होनेसे
कोई चीज निरर्थक हो जाती है । केवल वस्तुस्थिति (या स्वल्प ) का निदेश
करनेवाले कुर्द पुत्र उत्पन्न हज", “यह साप नहीं है' इस प्रकार के [ सिद |
वाक्यो में हषं की प्राप्ति तथा भय की निवृत्ति रूपी प्रयोजन होता तो है ही-
फिर भी कोर इन्हें असिद्ध नहीं कहता । [ तात्पयं यह निकला कि सिद्ध-वाक्य
मे भी प्रयोजन रहता है। इसलिए सिद्ध-ब्रह्य के प्रतिपादन के लिए प्रवृत्त
ˆ "छ चकन "~
रामान॒ज-दशनम् २४५
दासं मे प्रवृि-निवृत्ति है, वे शार अथंवान् ( सप्रयोजन ) है--इसमें
सन्देह नहीं । ]
यहाँ इस दर्शन का केवल समन्य निदेश किया गया है, विस्तारपूर्वक
सिद्धान्तो का निरूपण आकर-अन्थो ( जते श्रो माष्य, तत्वमुक्ताकलाप, यतीद्र-
मतदीपिका आदि ) से ही समभ ले । विस्तार होने के भय से अब आगे कौ बातं
छोड दं, सव कु स्पष्ट है ।
स प्रकार श्रीमान् सायण-माघब के सवंदर्थंनसंग्रह मे रामानुजदर्थेन
[ समाप्त हुभा | ।
| इत्ति बालकविनोभाशङ्करेण रचितायां सर्व॑दशंन संग्रहस्य प्रकाशाख्थायां
व्याख्यायां रामानुजदश्ंनमवसितम् ॥
---्ल ऋ --
। ।
` तच्छद्रयं स्वपरतन्त्रमिदेति सेदो
जीवोऽरुरीश्वर इतो जगतो निमित्तम् ।
वेदान्तभाष्यमिति तत्न मतं विधात्रे
मध्वाय पूणेधिषणाय नमध्िराय ।1--ऋछषिः।
( १. देतवाद की रामाजुजमत से सप्ता ओर विषमता )
तदेतद्रामालुजमतं जीवाणुख-दासत्व-वेदापौरूपेयत्व-सि द्वा
धैनोधकत्व-स्वतः पमाणत्व-प्रमाणत्रित्व-पश्चरत्रोपजीन्पतव परप
्षपणकयक्निकषप्तमित्युपे्षमाणः, (स॒ आत्मा त्वमसि! ( छा°
६।८।७ › इत्यादिवेदान्तवाक्यजातस्य भङ्ग्यन्तरेणाथोन्तरपर
त्वमुपपाच ब्रह्ममीमांसाविवरणव्याजेन आनन्दतीभैः प्रस्थानान्त-
रमास्थिषत ।
रामानुज के दैन मे [ हमारे दन = दवैतवाद से ] इन बातो मे सनता
हे--जीव को अणु ( } {ण ) मानना, उसे ईर का दास मानना, वेदों
को अपौरुषेय ( नित्य ) मानना, वेदों को सिद्ध वस्तु ९ ब्रह्म ) का बोधक
मानना, वेदों को अपने-मापमे प्रमाण मानना ( परतः प्रमाण नहीं मानना ),
तीन प्रमाण ( प्रत्यक्ष, अनुमान जौर शब्द }) मानना, पञ्चरात्र-ग्रन्थ पर अपने
सिद्धान्तो को आधारित करना, प्रपच ओौर उसके भेदों ( आतमा से आकाशादि
की भिन्नता ) को सत्य मानना इत्यादि । इतना होने पर भी परस्पर विरोधी
( 11१५०811 (0 १80)ल0 ) भेद, [ अभेद तथा मरेदाभेद के | रूप
मै तीन पक्षं को स्वीकार करने से ( देखिये रामानुजद्॑न, अनु ^ ६)
उक्त-द्॑न क्षपरकों ( जनों ) के | स्तभमोनय कौ तरह विशधौ | पक्षो को
स्वीकार करने की मूखंता करता है-- इसलिए उसकी उपेक्षा करते ह । "वह्
आत्मा है, वह् तुम्हीं हो" ( छा° ९।,- ) इत्यादि वेदान्त-वाक्यों मे वे दूसरी
भंगी ( तात्पयं ) से दूसरा ही अर्थं सिद्ध करते है, आनन्दतीर्थ ( मध्वाचायं,
पूरा्रज्ञ ) ने उक्त वातं दिखलाति हए ब्रह्ममीमांसा ( ब्रह्मसुत ) की व्याद्या
- पृणेप्ज्ञ-दशंनम् २४७
( विवरण = व्याख्यान प्रन्थ का व्याख्यात ) करने के बहाने एक नवीन प्रस्थान
( सम्प्रदाय खऽलण 9 ४010800 ) हो प्रवत्तितः कर दिया है ।
विोष-माघवाचायं ने पूंप््ञःद्ेन का आरंभ बहत सुन्दर ढंगसे
किया है। बहुत ही संक्षेपमें रामानुज ओौर मध्डके सिद्धान्तो की तुलना हो
गई । रामानुज का मत विशिष्टादरत दै जिसमे ईर को चिद् अचिद् से विषिष्ट
मानकर, तीन तस्व प्रतिपादन करने पर भौ अदरैत ( 00४ ) का पक्ष
लिया गया है। मध्व इख प्रच्छन्नता से दूर भागतेहै। वे सीधे द्वेतमत
( 120४]७ ) काही प्रस्यान रखते है जिसमें स्वतंत्र परमेश्वर तथा परत्र
जीव को स्वीकार किया जाता है। दोनों हो श्रोत दाथंनिक है, श्रुतियो पर
आधारित ई, पञ्चरात्र का स्पृति-रूपमे आधार लेते है--तकंबल से अपने
सिद्धान्तो कौ स्थापनां करते है, प्रच्छन्न ताक्रिक ह ¦ इसलिए बहुत दुर् तक दोनों
म साम्यदहै।
परन्तु रामानुज मघव से कुछ अधिक चतुर दह क्योकि एक ओर तो लम्बो-
चौडी भूमिका बांधकर जनों के स्याद्वाद की निन्दा करते है ( देखिए, आर्यभिक्
अंश), दूसरी ओर कहते है कि--'सर्वं तत्त्वम्, भेदोऽपेदोऽभेदाभेदाश्व' । अन्तर
इतना हो दै कि जैन सात विरोधी वाक्य रवते है, रामानुज तीन से ही संतुष्ट
ह। पर त्व वही है! रामानुज दिपकर चलते है कि तत्व अद्वैत है, पर
उसके दो विशेषण मी है । मध्व बेचारे सीषे-सादे आदमी, बिना किसी दुराव
के दो त्व पृथक्-पृथक् मान लेते ह । दोनों आचार्यो को अपने अभी अथंको
सिद्धि के लिए मूल शरुतियों, वेदान्तसूत्रो भ दि को तोडना मरोडना षडा
जिसमे कोई भी नहीं हि चकते ।
( २. द्वैतवाद् के तत्व-मेद् को सिद्धि )
तन्मते हि द्विविधं तत्वं स्वतन्त्रपरतन्त्रभेदात् । तदुक्त
तखबिवेके--
१. स्वतन्त्रं परतन्त्रं च द्विविधं तखमिष्यते ।
स्वतन्त्रो भगवान्विष्णुनिदषिऽशेषसद्गुणः ॥ इति ।
इन ( आनन्दतीथं ) के मत से दो प्रकारके तत्व है--स्वतंत्र जौर परतंत्र)
तस्वविवेक नाम के प्रन्थमे कहा गया है--दो प्रकार का तरव रखा जता
हे, स्वतंत्र ओर परतंत्र । इनमे स्वतंत्र स्वयं भगवान् विष्णु हैजो निर्दोष
तथा [ स्वतंत्रता, शक्ति, विज्ञान, सुख जादि ] सभी अच्छे-अच्छे गुणो से
भरे हृए है ।'
मेको
र सवेदशेनसंगरहे-
नु सजातीय-व्रिजातीय-स्वगत-नानात्वश्ुन्यं ब्रह्म तच्छ-
मिति प्रतिपादकेषु वेदान्तेषु जागरूकेषु कथमशेषसदगुणत्वं
कथ्यत इति चेत्, मेवम् । मेदग्रमापकबहुग्रमाणविरोधेन तेषां
तत्र प्रामाण्याुपपततेः । तथा दि, प्रत्यक्षं तावदिदमस्माद्धिनम्
इति नीलपीतादेर्मेदमध्यक्षयति ।
[ अद्वेत-वेदान्ती एेसी शंका कर सकते है--] ब्रह्मत्व सजातीय
{ अपनी जातिमें), विजातीय ( दूसरी जातिके पदार्थो से ) तथा स्वगत
{ अपने आप में विशेषणो के द्वारा ), इन तीनों भेदं ( नानात्व ) से रहित है-
इस प्रकार कौ बाते प्रतिपादित करनेवाले उपनिषदु-वाकयो के रहते हृए् आप
लोग ईश्वर के विषयमे यह कसे कहते है कि वह सभी सद्गुणो से भरा हु
है? [ हमारा उत्तर यह हैकरि] एेसी बात नहीं है, बहुतसे एसे वक्यहैजो
भेदकोही प्रमाणित करते ह उनके साथ उक्त उपनिषदु-वाक्यो का विरोध
होगा ओर इसलिए उद ( मेदशुन्य ब्रह्म के प्रतिपादक वायो को) हम
प्रामाणिक नहीं मान सकते । उदाहरणाथं प्रत्यक्ष को हौ लें, "यह ( वस्तु )
उस ( वस्तु ) से भिन्न है" इस प्रकार नील-पीत आदि पदार्थोमे मेद की सत्ता
को वह (प्रत्यक्ष ) प्रमाणित करता है।
विदोष-मेद तीन प्रकारके क्योकि उनमें श्रत्तियोगी तीन प्रकार के
होते हं-सजात्तीय, विजातीय, तथा स्वगत। जिस मेद म प्रतियोगी
( 00०6४ ) अपनी जाति ( (11988 ) का ही हो उपे सजातीय मेद कहते
है परमात्मा का जीवात्मासे क्रिया गथा भेद या एक वृक्षका दूसरे वृक्षसे
किया गया भेद सजातीय ( (ण०द्ु९ा€०ा§ ) भेद है । प्रतियोगी दूषरी
जाति का होने पर भेद भी विजातीय होता है जैसे परमात्मा का आकाशादि
भ्रतियोगियों से दिखलाया गया भेद या पेड का पत्थर से मेद। दोनोंकीदो
जातिर्यां होने से भेद विजातीय ( बि५४९०लाव्ण्प8 ) है। स्वगत
( 11106778] ) भेद वह है जिसमें किसी कस्तु का उसके अवयवो ( स्वगत )
से भेद कराया जाय । उदाहरणार्थं परमात्मा क! अपने अन्दर विद्यमान कर्णा,
अनन्द आदि विशेषणो से भेदया वृक्ष का भेद फल, परल, पत्तों से करना
स्वगत-भेद है ।
ञक्त तीनों भेदो का निषेध “सदेव सोम्येदमग्र आसीत् । एकमेवाद्धितीयम्'
( छा० ६।२।१ ) इत्यादि वात्या से ब्रह्म के विषय में होता ३ । श्रुति का अर्थं
यही हैकि तच्व एक ही था उसमें कोई भेद नहीं, किन्तु यदि उन्दँं गख
[ि
व्क च ^ ^ न + ` "कका
पूणप्रज्ञ-दशेनम् ८४६
मानते हैतो गुणोंके साथ होने वाला कम से कमं स्वगत भेद तो उनमें
अवदय ही होगा । अतः उक्त श्रुति का विरोध देत-मत का प्रतिपादन करने से
होता है । किन्तु मध्वाचायं ठेसी श्ुतियों की प्रामाणिकता इसलिए स्वीकार
नहीं करते कि परमात्मा मे मेद का प्रतिपादन करनेवाले बहुत से प्रमाण है ।
उनका भी अपलाप करना संभव नहीं है ।
इसके बाद विभिन्न प्रमार्णोसे भेदको सिद्धि करी चेष्ठा की जाती है।
प्रत्यक्ष, अनुमान ओौर शब्द तीनों प्रमाण कै रूपमे रखे जाति ह। प्रत्यक्ष.
प्रमाणा तो स्पष्ट बतलाता हैकि संसार नने भेदकी सत्ता) नील से पीत,
मनुष्य से पशु, पुस्तक से पाषाणा क्या भिन्न नहीं ?
( २. प्रत्यक्ष से ेद-खिद्धि--शका )
अथ मन्येथाः--करिं प्रत्यक्षं भेदमेवराबग। हते कि वा
धर्मिप्रतियोगिधटितम् १ न प्रथमः, धूर्मिप्रतियोभिप्रतिपत्तिमन्त-
रेण तत्सापेशषस्य भेदस्याशक्याध्यवसायात् । द्वितीयेऽपि धमि-
= (न ॥ स ¢
प्रतियोभिग्रदण पुरःसरं मेदग्रहणमथवा युगपततत्सवेग्रहणम् ‹
न पूर्वः, बदधर्िरम्य व्यापारामावात् । अन्योन्याश्रयग्रस-
ङ्गाच्च । नापि चरमः, कार्यकारणवुद्धयोरयोगपद्याभावात् । ध्मि-
प्रतीतिर्हि भेदप्रत्ययस्य कारणम् । एवं प्रतियोभिप्रतीतिरपि ।
संनिषहितेऽपि धर्मिणि व्यवहितप्रतियोगिज्ञानमन्तरेण भेदस्याज्ञा-
ततेनान्वयव्यतिरेकाभ्यां कायेकारणमावावगमात् । तस्मान्न
मेदप्रत्यं सुप्रसरमिति चेत् ।
[ मेदज्ञान को अस्वीकार करते हुए दछंकराचायं के अनुयायी भेदके विषय
नरे शंका करते है-- ] आप क्या मानते है, क्या प्रत्यक्ष ( 12©1८नुप०प )
सै मेद काही ज्ञान करा देता टया वह् धर्मा ( वस्तु ) तथा उसके प्रतियोगी
( विरोधी वस्तु) के ज्ञान के आधार पर [भेद का ज्ञान कराता है] ?१
पहला विकल्प नहीं मान सकते क्योकि जब तक धर्मी का ओौर उसके प्रतियोगी
( 0[ए०ण्ला४) का ज्ञान नहीं होगा, तब तक उन्हीं दोनो पर निंर
१. किसी भीमेदमे दो बाते अनिवायं है। एक धर्मी जिससे भेद कराया
जाता है इसे ही मूल वस्तु भी कहते है, दूसरा प्रतियोगी अर्थात् विरोधो वस्तु ।
“नीलं पीताद् भिन्नम्" मे नील धर्मी है, पीत प्रतियोगी ।
नोगट ^
। +> + 04 ४) -र+ ^^
~ « च्च.
। = ॐ + @ [न , 0८5 न ह
नै = ~ ॥ ~ श 1 ~ ष्ठ ् "~ १ ॥
~स 9
२५० सबेदशेनसंग्रहे-
करनेवाले मेद का ज्ञान प्राप्त करना असंभव है [ आधार-- र्मी ओर प्रतियोगी-
केज्ञानके बिना आपषेयकाकेपे ज्ञान होगा? नील ओर पौत- दोनों को
यथावत् समन्लने पर ही दोनों मे भेद समज्ञ सक्ते है । यदि सीषे मेद का प्रत्यक्ष
करने का दम्भ रखे तो यह व्यथं है, असंभव है । |]
यदि दूसरा विकल्पते है [कि धर्मी ओर प्रतियोगी के आधार पर मेद
काज्ञानहोताहै | तो पूचेकि मेद का यह् ज्ञान धर्मी ओर प्रतियोगी के ज्ञान
के पशवात् होता हैया स्बों ( तीनों) का ज्ञान एक ही साथ ( युगपत् अ7्प-
10811608] ) हो जाता है ।
उक्तं प्रर्न का प्रथम विकल्प ग्राह्य नहीं है क्योकि बुद्धि जब एक घ।र ठहर
जाती है तब अगे कायं संचालन नहीं कर पाती । | १ "गङ्कायां धघोषः' में
गङ्गा शब्द एक विशेष प्रकारके जलका अथंदेताहै। उतने व्यापारके बाद
ही वह शब्द विरतदहो जाताहै। घोष से सम्बन्ध दिखलाने के लिये गङ्खा `
का तटरूपी अथ वहु शब्द नहीं बतला सकता । एेसा करने से गङ्गा के किनारे
गांव" का अथं बिल्कुल संगत हो जाता। किन्तु वहां तक तो उसकी प्च ही
नहींहै, करे तो क्या करे ? इसलिये तट-रूपी अर्थं की उपस्थ पना, लक्षणा-शक्ति
दारा, सामीप्य सम्बन्ध से, "गङ्खा' शब्द का अथं जल' ही कर सकता है; जल के
निकट होने के कारण 'तट' अथं हो गया । गङ्गा शब्द कच नहीं कर सका--
लक्षणा अथं को ही हुई, शब्द की नहीं । सारांश यह कि हाब्द् अपना व्यापार
करके विरत हो जाताहै। २. कोई धनुधर बहत तेजीसे वाण चलाता है
यद्यपि वाणा में ६० गज जाने की सामथ्यं है परन्तु ३० गज जाते ही उसे कोई
रोक लेता है, बस उसका व्यापार रुक गया, एक अंगुलमी वहु वाण अब नहीं बढ़
सकता । अतः कमे रुक जाने पर अपना अगला व्यापार बन्द कर देता है ।
३. धर्मी भौर प्रतियोगी काज्ञान कर लेने पर बुद्धि विरत हो जाती है, लाल
चेष्टा करने पर भी भिद' को अपना विषय नहीं बना सकती । अतः बुद्धि भी
विरत हो जाने पर भ्यापार ( ‰ ५151 ) नहीं दिखला पकती । इसे ही
साहित्यशाचजिों ने कटः है-शब्दबुद्धिकममणां विरम्य व्यापाराभावः ।
( देख, काव्यप्रदीप, उन्ञास ५। ) दूसरे, इसमें अन्थोन्याश्नय -दोष ( 7४] 1.1.)
ण फप्रपकष] वदुलावला०९, 8 1021681 86688 ज ) भौ उत्पन्न हो जायगा ।
| भेद के ज्ञानके लिये धर्मी ओर प्रतियोगी का ज्ञान अपे्ित है, तथा धर्मी
ओर प्रतियोगीके ज्ञान के लिये भेदज्ञानं की आवश्यकता है--इस प्रकार
अन्योन्याश्रय-दोष होगा । ]
इसका दूसरा विकल्प भी ग्राह्य नहीं [ कि धर्मी, प्रतियोगी ओर मेद-
तीनो का ग्रहण एक ही साथ हो जायगा ] क्योकि कायं ( मेद-ज्ञान ) ओर
पृणपरज्ञ-दशनम् २५१
कारण ( घर्मि-प्रतियोगि-ज्ञान } के रूप मे गृहीत बुद्धियो की सत्ता एक साथ नहीं
हो सकती । धर्मी कौ प्रतीति (ज्ञान भण €€71807 ) मेद.ज्ञान का कारण
है, उसी प्रकार प्रतियोगी क प्रतीति भौ [ मेद-ज्ञान का कारण है ] । यदि धर्मी
निकटे भी हो किन्तु दूरस्थित प्रतियोगी का ज्ञान नहींहो तोभेदका ज्ञान
नहीं ही हो सकेगा, { उसी प्रकार घर्म ओर प्रतियोगी दोनों के रहने पर भेद का
ज्ञान हो जाता है |-- इसलिये अन्वय ओर व्यतिरेक के नियमों द्वारा हम लोग
[ धर्मी + प्रतियोगी ओर मेद के बीच | कायं-कारण का सम्बन्ध जान लेते ह।
[ कोई यह शंका न करे कि मेद ओर धर्िप्रतियोगी मे कायं -कारण-सम्बन्ध कहां
है, इसलिये पहले ही दिखला दिया गया है]
इख श्रकार मेद का प्रत्यक्षीकरण ( यः प्रत्यक्ष प्रमाण से मेद का ज्ञान)
नहीं हो सकता--यह् { भद्ेतवेदान्ती की } शंका है ।
(३ क. प्रत्यश्च से भेद्-सिद्धि-समाधान )
किः बस्तुस्वरूपमेदवादिनं प्रति इमानि दषणानि उद्घु-
धमेमेद दिनं
ष्यन्ते, फ वा वादिनं प्रति १ प्रथमे चोरापराधान्माण्ड-
व्यनिग्रहन्यायापातः ¦ भवदभिधीयमानदूषणानां तदविषयत्वात् ।
ननु वस्तुस्वरूपस्येव भेदत्वे प्रतियोगिसापेक्षत्वं न षते
तियोगिसा (~ ¢ इतिचेन्न
घटवत् । प्रतियोगिसपेश्च एव सवत्र भेदः प्रथत इतिचन ।
# सवेतो कर
प्रथमं सर्वतो विलक्षणतया वस्तुस्वस्पे ज्ञायमाने प्रतियोग्यपेक्षया
विशिष्टव्यवहारोपपत्तेः ।
ये सारे दोष किंस के सिर षर आरोपित हो रहे ह? क्या वस्तु (घटादि)
के स्वल्प ( गोलाकार कम्बुग्रीव आदि } को ही मेद मानने वालि लोगों के प्रति
( स्मरणीय है कि मध्वाचायं इसे ही जद कहते है ), या उन लोगों के प्रति जो
वस्तु ( घटादि ) से भिन्न उस वस्तुकेही घ्म को लेकर मेद मानते ह ( जेसा
कि वैशेषिक दशन मे मानते है ) ? [ मध्वाचायं एक हौ वस्तु मे उसके स्वरूप
ओौर वक्तु मे मेद मानते ह जय कि वेशेषिकादि वस्तु के घर्मो ( .^##10८६८8 )
के आधार पर दो वस्तुओं मे भेद मानते है। इन दोनों पक्षों को ही यहाँ पर
उठाया गया है ओौर पूर्वपक्षी से पृछा जा रहा है किं आप किंस पक्ष पर अपने
तर्का का गुर फक रहे है ? |
यदि आप वस्तु के स्वरूप कोभेद माननेवाले लोगों ( मध्वो }) पर यहं
ञजारोप लगा रहे ह, तो यह ठीक नहीं कर रहे है जैसे चोर के अपराधसे
२५२ सवेदशेनसंग्रहे-
मार्डव्य-ऋषि को पकड़ कर दशड दिया गया, वही स्थिति हो जायगी ।
( खेत खाय गदहा मार खाय जोलहा ) । [ महाम।रत के आदि पव ( अघ्याय
{०७-८ ) भें यह कथा आयी है मारडव्य नाम के ऋषिको किसी राजाने
चोर समक्ष कर पकड़ लिया । राजा ने जब उन्दं दण्ड देकर शली पर चढ़ाया
उसौ समय दूसरा असली चोर पकड़ा गया । ठुरत उन ऋषि को शूली से उतारा
गया ओौर राजा ने उनते क्षमा कर देने को प्रार्थना की। मारडव्य ऋषि ने
सोचा किं यह मेरे किसी न किसी कमं क] ही फल है, अतः उसका पत) लगाने
के लिए यमलोक में गये । यमराज ने बतलाया कि बचपन मं किसी कीडेको
आपने बाध किया था उसी का यह फल भोगने को भिला है। मारुडग्य बहुत
कंद हए भौर बोले कि अनजान में &ए अपराध का दण्ड इस प्रकार का नहीं
मिलना चाहिए । उन्होने यमराज को शाप दिया कि मर्त्यलोक तें तुम
श्रयोनि मे जन्म लो । तदनुसार वे विचित्रवीयं कौ दास्लीके गभ॑मेंग्यासके
संयोग से आये ओौर विदुरके रूपम उत्पन्न हृर्। उसी दिनसे यमराजने यह्
नियम ( (0परदण० ) चला दिया कि अज्ञन में किये गये अपराध को
क्षमा कर दिया जाय । जहाँ एक व्यक्ति का अपराध हो ओौर दूसरे को दरड
मिले, वहा इस न्याय का प्रयोग होता है । ]
इसका कारणा यह है करं आपके द्वारा आरोपित दोषों के क्षेत्र ( ५ पा
8५1५१101, §प।0}९५६ ) मे स्वरूप-मेदवादी लोग॒नहीं आते । [ पूरवंपक्षियों
का कहना था कि भेदवादी लोग धर्मी ओर प्रतियोगी के साथ ही प्रत्यक्ष का
जान होना मानते हजो वित्कुल असम्भव है। यह अपराध धमं को मेद
माननेवालों का है, स्वरूपभेदवादियों का नहीं, परन्तु यद्वि आष हमारे ( स्वल्प-
भेदवादियों के ) ऊपर भी यही आरोप लगाते हैँ तो ठीक नहीं । दूसरे के अपराध
से हमे क्यो पकड रटे ह ? आपके दवारा प्रतिपादित दोष वस्तु के स्वरूप को मेद
माननेवाले सिद्धान्त पर नहीं लग सकते । यदि वस्तु से भिन्न ध्मोँके साथ
इसरो वस्तु के रूप में भेद हो तभौ भ्रत्य सप्रमाणा केद्वारा भेदका ज्ञान होगा,
(र भेदका या ध्मि-प्रतियोगी के साथ भेद का। पूर॑पक्षि्यो ने फिर विकल्प
क्रियाथाकि धर्मी ओर प्रतियोगी के ज्ञान के वाद भेद काज्ञान होताहैया
एक ही साथ-- तो ये विकल्प मी घर्मभेदवादी को ही लग सकते है । स्वरूप को
मेद माननेवाले लोगों मे कमी भी ये विकल्प नहीं लग सकते । ]
| मध्वाचायं ने शंकर के उत्तरं धम॑मेदवादियों को घसीटा है, सोचा कि
इठे ही रंकरसेभिडा दे, हम बिल्कुल वचर जा्थेगे। पर लेने ॐ देने पडे,
धर्मभेदवादी अब मघ्वों ( स्वरूपभेदवादि्यो ) पर ही बिगड़ खड़े हए । अब
दोनों भेदवादि्ों में ठी शानां चला। धरम॑भेदवादी पते है - ] यदि
पूरणपरज्ञ-दशेनम् २५३
वस्तु के स्वरूप को ही भेद मान तं तो घटकी तरह, किसी प्रतियोगी
~ ( (नणधक्प, (00७ [९१४ ) कौ अवेक्षा नहीं स्हेगी । [ घट के ज्ञान के
ः लिए किसी प्रतियोगी की आवश्यकता नहीं रहती टै, सीघे घट् का ज्ञान कर
&£ लेते है । यदि वस्तु के स्वरूप {08867166 ) को भेद मान लेतो यह मेद
(0 भी चडकी तरह ही प्रियोगिःनिरपेक्ष हो जायगा । ] किन्तु लोक मे नियम
॥ से, सर्वत्र भेद-ज्ञान के लिए प्रतियोगी के ज्ञान की आवद्यकता पड़ती है
[ यदि धमं ( &४१ ७०५९8 ) के आघार पर दो वस्तुओं में हम भेद नहीं
मानभे तो रेसी संभावना नहीं रहेगी, अतः स्वल्प को भेद मानना
दोषपूणं है । |
उसका उत्तर [ मध्वो कौ ओर से ] होगा कि ठेस बात नहीं है, पहले-पहल
वस्तु के स्वलूपका ज्ञान दूसरी सभी वस्तुओं से पृथक ( विलक्षण २९९५11४ )
करके प्राप्त किथा जाता है तव परतिपोगी की अपेक्षा रखते हए विशेष प्रकार का
( लैसे.ट का घटत्व के रूप मे ) व्यवहार चलता ह। [ स्वरूप-भेदवादियो के
मत से पहले, घट का घटत्व के रूपमे, सबसे विलक्षण मानकर स्वप का
ज्ञात होता है। इसी को भेदज्ञान कते ह, । जो वस्तु सों से विलक्षण ~
उसके कम्बग्रीवादि संस्थान .विदोषों से युक्त स्वरूप को भेद ही मानते ह। तब
प्रतियोगियों का अनुसंधान करके घट पट से भिन्न है' एेसा व्यवहार करते ह । |
कै
तथा हि-परिमाणघटितं वस्तुस्वरूपं प्रथममवगम्यते ।
यश्वाखतियोगिविदेषायक्षया दस्वं॑दीषेमिति तदेव विच्चिष्य
व्यवहारभाजनं मवति । तदुक्तं विष्णुत्छनिणये--
(त च विज्ञेषणविदयेष्यतया मेदसिद्धिः विक्षेषणविशेष्य-
भावश्च मेदपेक्षः । धरमिप्रतियोग्यपेक्षया मेदसिद्धिः। भेदपक्ष
च धमिप्रतियोगित्वमित्यन्योन्याश्रयतया मेदस्यायुक्तिः । पदा-
्स्वरूपत्वाद् मेदस्यः-- इत्यादिना ।
हृते यों समै--परिमाण ( [॥एलाऽ)0)3 ) ते विशिष्ठ वस्तु-स्वरूप
काज्ञान पहले हो जातादहै। बादमे विभिन्न प्रकार कै प्रतियोगियों की अपेक्षा
रखकर उसी वस्तुको 'छोटा', "बड़ा इत्यादि विक्ञेषणों से विभूषित करक
उसका व्यवहार करते है । [ पहले कितौ घट का परिमाण जान लेते है, यही
उसका स्वरूप है ओर भेद भी है। फिर दूसरे घट का ज्ञान करके उसकी अपेक्षा
प्रकृत चट को छोटा या बड़ा मानते है । स्वरूप का व्यवहार सामान्य है, द्सरे
बरतियोमी की अपेक्षा रखने पर विशिष्ट ध्यवहार होता है। व्यवहार से
- - ~+ "नवा,
+ 1
२५४ सवेदशेनसंग्रदे-
अग्यवहित पुवक्षण मे ही भेदज्ञान होने का नियम नहीं है । जब हम कहते है--
धटस्य स्वरूपम्" तौ दोनो मेँ भेदं तो है ही ! यहाँ तक किं "वटः पटाद्धिन्नःः भी
व्यधिकरण से व्यवहृत होता है ओर उसमें धमं के भेद की सिद्धि नहीं होती ।
यह गौरा व्यवहार है । यदि पदाथं मे स्वरूप-मेद नहीं होता तो उसके देखने
पर सभी चीजों से उसकी विलक्षणता ज्ञात नहीं होती । पुनः, यदि पदाथंमें
स्वहूप-भेद नहीं होता तो गवय को देखने पर भी गाय खोजने वालों कौ प्रवृत्ति
होती ओर गो' शब्दका स्मरण होता कयोक्रि लोग स्वरूप को भेद नहीं
मानते, धमं को हौ भेद मानते--गो ओौर गवय में धर्मो का अन्तर है अतः
गवय मिल जाने पर भी गाय खोजते, परन्तु वस्तुस्थिति एेसी नहीं है । ]
र नि
(~ यी ॥
करे ध श
~ व्रणः) =
भ क क = दष्क न=
किति पा व 1
इसीलिए विष्णुतत्वनिर्णंय ( लेखक-आनन्दती्थं, समय ११७० ई० ) में
कहा गया है-- "विशेषण भौर विशेष्य रहने से भेद की सिद्धि नहीं होती ।
कारण यह् है कि विशेषणा ओौर विशेष्य का संबन्ध स्वयं भेद की अपेक्षा रखता
है । [ जोस्वयंभेदसे सिद्धहोताहै, भेदको क्या सिद्ध करेगा ? ] फल यह
होगा कि धर्मो ओर प्रतियोगी की अपेक्षासे मेद की सिद्धि होती है, तथा भेदके
आधार पर धर्मी ओौर प्रतियोगी की सिद्धि होती है- इस प्रकार अन्योन्याश्रय
दोष होने से भेद ही युक्तियुक्त नहीं हो सकता । पदार्थं के स्वरूप को ही
भेदं कहते हँ । [ उसके धर्म के आधार पर किये गये मेद को नहीं ]'-
इत्यादि ।
विहोष--“थह एक प्रतियोगी से युक्त मेद को धारणा करता है'-- इसमें
भेद विशेषण है, पट विशेष्य । "ट में कुछ श्रतियोगी से युक्त भेद रहता है"
यहाँ मेद विशेष्य है, पट विशेषणा । विशेषण गौर विशेष्य मेँ मेद होना सुप्रसिद्ध
है, जैसा करि ^राज्ञः ( विशेषणा ) पुरुषः ( विरोष्य )" मे हम देखते है। यदि
विशेषणविशेष्य के रूप में भेद को सिद्ध किया जायगा तो अन्योन्याश्चय-दोष
होगा । विशेषण ओौर विशेष्य का सम्बन्ध मेद के ऊपर आधारित है। इस
भेद को सिद्धि धरमित्व जौर प्रतियोगित्व की प्रतीति के ऊपर निर करती है।
दूसरी भोर, यह प्रतीति भेद की प्रतीतिके विना संमवही नहीं है, अतः
अन्योन्याश्रय-दोष होता है ।
इस प्रकार 'भेदयुक्त पट" या "पट में भेद' इनमें विशेषण-विशेष्य के रूप जें .
जो भेद की प्रतीति होती है, वहमेद की सिद्धिकरतेमें युक्तं नहीं है । फिर
भेद है क्िसिषूप का ? उत्तर होगा कि पदां का स्वरूप ही भेद है । विष्णुतस्व- :
निणंय में यही कहा गया है ।
अत एव गवाथिनो गवयदशनान्न प्रवर्तन्ते, गो शब्दं च न
#
3
+ (4
)
्कै+
|) +
#. ॥ 24
| `,
+
॥। न
+
`, त अ ` प
* न.
पूणंप्रज्ञ-दशनम् २५५
स्मरन्ति । न च नीरक्षीरादौ स्वरूपे ग्र्यमाणे भेदप्रतिभासोऽपि
स्यादिति मणनीयम् । समानाभिहारादिग्रतिबन्धकबसाद् मेद
भानव्यवहाराभावोपपत्तिः ।
इसीलिए गौ का अम्वेषण करने वाते लोग गवय (गौ के समान जन्तुविशेष)
देखने के बाद आगे नहीं बढते ( मानो उन्होने गाय पाली हो) तथ। गौ शब्द
करा स्मरण भी नहीं कसते, | चकि किंस वस्तु का सबोंसे विलक्ष स्वल्प
जान लेना दही उस वस्तु के विशिष्टं व्यवहार का कारण है इसौलिए सबों से
विलश्नण गौ के स्वरूप को लोग गवय मेभी देखलेते है ओर एेसा होने पर
मौ अज्ञान के कारण गौका अन्वेषरा करनेवालो की प्रवृत्ति या गौ कास्मरण
करना--ये व्यवहार नहीं होते । ] एसो भौ हका नहीं कर सक्ते कि | चूंकि
जद एक वास्तविक पदाथं है ओर प्रत्यक्ष का विषय है इसलिए ] जल से युक्त
दूष आदि को आलो से देख लेने पर, भेद का आमास भी दृष्टिगोचर होगा
( अर्थात् वस्तु का अपना स्वल्प दिखलाई नहीं पड़ेगा }) । उक्त उदाहरण मे
आव का संनिकषं तो रहता हीदहै। स्वरूपकोही मेद मानने परमेदका भी
ग्रहण होगा कि यह जल हे, यह दूष है। इसमे भेद का प्रतिभास अवदय होगा
परन्तु भेदज्ञान ही नहीं रहता है । | कारणा यह् है कि भेदके आभास रूपी
ठ्यवहार के अमाव कौ सिद्धि समानाभिहार (एक प्रकार के ही पदार्थो का सपरट्)
आदि प्रतिबन्धक ( प्रत्यक्षज्ञान को रोकनेवलि ) कारणों के बल से होती हे ।
[ समनाभिहार एकं प्रकार के पदार्थोका ही एक स्थान पर रहना) पेसी
स्थिति मे किसी वस्तु को सप्रूहसे पृथक् कषा कठिन है- प्रत्यक्षज्ञान में भी
यह प्रतिबन्ध डालता है । नीर-क्षीर एक भरकर के ही पदार्थं है, इनको पृथक्
करना कठिन है, इसलिए भेदामास का व्यवहार यहाँ पर नहीं होता । एेसी बात
नहीं है किं भेद यहां हही नहीं। वास्तव मे दो पदार्थोके सादय के कारणा
मिधित हो जानि से उनका पार्थक्य सम्च मे नही आता, भेद तोहैही। अतः
नीरक्षीर में स्वरूप का ग्रहण कर लेने पर मेद का प्रतिभास, इसलिए नहीं होता
कि नीर-क्षीर मिलकर एक हो गये है, समानामिहार हो गया है । नहीं तो एसी कोर
मी स्थिति नहीं है जिसमे स्वरूप का ज्ञान होने पर भेद का प्रतिभास नहीं हो । |
तदक्तम्--
२. अतिद्रात्सामीप्यादिन्द्रियधातान्मनोऽनवस्थानात् |
सोक्ष्म्याद् व्यवधानादभिभवात्समानाभिहारा्च ॥
( सांख्यकारिका, ७ ) इति ।
२५६ सवदशेनसंप्रहे-
अतिद्रात् = गिरिशिखरवर्तिपवेतादौ, अतिसामीप्यात् =
ोचनाञ्ञनादौ, इन्द्रियघातात् = विदयदादौ, मनोऽनवस्था-
नात् = कामाद्युपप्ठुतमनस्कस्य स्फीतारोषवतिनि षटादौ,
सौक्ष्म्यात् = परमाण्वादौ, व्यवधानात् = कुब्यान्तर्हिते, अभि-
भवात् = दिवा प्रदीपप्रमादौ, समानाभिहारात् = नीरक्षीरादौ
यथावत् अ्रहणं नास्तीत्यथैः। `
एेसा ही [ सांख्यकारिका मे ] कहा गया है-- बहुत दूर होने के कारण,
बहुत नजदीक होने के कारण, इन्द्रियोमें दोष होनेके कारण, मन के
अव्यवस्थित ( चंचल } होने के कारण, पदार्थं के बहुत सूष्षमरहोनेके कारण,
[ इन्दिय ओर वस्तुके बीच में] क्रियौ प्रकार का व्यवधान पड़ जानेके
कारण, [ किसी दूसरे तीव्र पदाथं दारा वस्तु के ] अभिभूत ( अपेक्षाकृत
शक्तिहीन ) होने के कारण तथा समान ल्प वाले पदार्थो में मिल जाने के कारण
[ प्रत्यक्षज्ञान को बाधा परहुंचती है । ]'
बहुत दूर होने कै कारण, जिस प्रकार पहाड़ोंकी चोधियोंपर उगे हुए
वक्ष अदि को [ देखना कठिन है ] ! बहुत नजदीक होने के कारण, जैसे अपनी
खो मे लगे हुए अंजन आदि को नहीं देख सकते । इन्दियों मे दोष होने कै
कारण बिजली आदि को नहीं देख पाते । मन के अग्यवस्थित होने के कारणा,
जसे कामादि वासनां से मनके शुन्ध हो जाने पर, खुब प्रकाश मँ अवस्थित
घटादि को नहीं देख पाते । सूक्ष्मताके कारण परनाणु दिको नहीं देख
पाते । व्यवधान होने के कारण, दीवाल ( कुञ्य ) के बीचमें आने पर कोर
चीज दिखलाई नहीं पड़ती । अभिभूत होने के कारणा जैते दिनमें दीपक की
प्रभा आदि को नहीं देख सकते । समान वस्तुओं में भिले होने के कारण, जैसे
नीर-क्षीर में क्षीर का यथावत् प्रत्यक्ष नहीं होता है।
विशेष- सांख्यकारिका में यह कारिका प्रकृति की सिद्धिके क्रममेंदी
गई है। कहा गया है कि प्रतयक्ष-प्रमाणा से मौ बहुत-सी वस्तुं सिद्ध नहीं होती
क्योकि उसके मागं मे बहुत से बाधक कारणा है-- प्रकृति का प्रत्यक्ष सूक्ष्मता के
कारणा नहीं हो सकत, एेसी बात नहीं है कि प्रकृति का अभाव है । उसी प्रकार
समानाभिंहारके कारण नौरक्षीरकाभेद माम नहीं १डता। रएेसी बात
नहीं हैकिभेद उनमेंहै ही नहीं । 'स्वल्पग्रहरो मेदप्रतिभासोऽपि स्थादिति न
भणनीयम्' । सामान्य दशामें एेसा नहीं कहते कि नीरक्षीर मे स्वहूपग्रहण
हो गया, भेदका प्रतिभास भी होगा। नहीं, मेद ग्रहण नहीं होता। पर
पूणप्रज्ञ-दशेनम् २५७
यह तो हमारे सिद्धान्त के प्रतिकूल हैकि स्वरूपसे भेदज्ञान नदींहो। नहीं,
प्रतिकूलता तनिक भी नहीं है - वास्तव में भेद-ज्ञान है, पर नीर-क्ीर के
मिधित होने के कारणा नहीं प्रतीत होता । इसलिए यहाँ भेद-ज्ञान का प्रहण
आपाततः नहीं होता ।
कभी-कभी एक ही वस्तु के कई स्वरूप होते है । मनुष्य कोदूरसे देखने पर
कोई पदां जान पड़ता ह, उसके बाद ऊँचा पदार्थ, फिर प्राणी, फिर मनुष्य, फिर
युव ॐ आदि--इत प्रकार तारतम्यसे नानाप्रकार के स्वरूप दिखलाई पडते ह । इस
प्रकार का तारतम्य धर्ममेदवादी ( वैशेषिक ) लोग भो स्वीकार करते है ।
स्व्पनदवादी के मत से यदि स्वल्प अनेक प्रकारके हतो भेद की भो अनेक-
ह्यता स्वीकार करनी पडेगी । इसलिए जल-मिश्ित दूध में घडे से भेद दिखाया
जा सकता है, नीर से नहीं । क्योकि उस प्रकारके स्वरूपका ज्ञान करने में
हमारी आलं असमर्थं हँ । अतएव नीर क्षीर में विलक्षण स्वरूप का ज्ञान नहीं
होता, उस प्रकार का मेदज्ञान भी नहीं होता, "नीर से क्षौर भिन्न है" एेसा ज्ञान
भी नहीं होता--यही व्यवहार है ।
( ७. धर्मभेदवादी का समथन--मेद् की सिद्धि )
भवतु वा धर्ममेदवादस्तथापि न कथिदोषः । धर्िप्रतियो-
मिग्रहणे सति पश्वात्तद्वटितभेदग्रहणोपपत्तेः । न च परस्पराश्रय-
प्रसङ्गः । पराननपेक्ष्य परभेदशषालिनो वस्तुनो ग्रहणे सति धमेभे-
दभानसंभवात् । न च धर्मभेदवादे तस्य तस्य भेदस्य भेदान्त-
रेद्तेनानवस्था दुरवस्था स्यादित्यास्थेयम् । भेदान्तरप्रसक्तो
~ ~ क ©
यृलाभावात् । मेदभेदिनो भिन्नाविति व्यवहारादशचेनात् ।
[ मध्वाचायं देखते है कि अपने ही पक्षवाले - धर्मभेदवादी को चिढनेसे
काम नहीं चलेगा । वह भीतो भेदको स्वीकार करता है। यह दूसरी बात
हैकि वह् स्वर्पकामेदन मानकर्र्मोका मेद मानता है। अपने मतके
प्रतिपादन के पश्चात् उस पर भी दो-चार वाक्य लिख देना कोई बुरा नहीं है ।
इषसे भदवाद की जड़ ओौर भी जम जायगी । इसलिए वे कहते है-- | अथवा
वैशेषिको के वममभेदवादकोही स्वीकार करे, उसमे भी कोई दोष नहीं है ।
चर्मी ओर प्रतियोगीका ज्ञान होने पर, उसके बाद उन पर ही आधारित
( चटित ) भेद का ग्रहण हो जाता है। [ यह अभिप्राय दहै कि पहले घट धर्मी
१७ स० सं
२४८ सबेदशेनसंग्रदे-
काज्ञान घट.सामान्यके रूपमे तथा पट-प्रतियोगी का ज्ञान पट-सामान्य के
ङ्प हो जाता है, तब घट ओर पट में क्रमशः धमित्व ओर प्रतियोगित्व की
स्थापना के -साथ हौ साथ सामूहिक-ज्ञान ( {700 ७160९ ° ‰ "0४? )
की तरह एक ही क्रियासे भेदका ग्रहण भी हो जायगा । इसी को धर्मि-प्रतियोगि-
चटित भेद कहते है । यहा पर कारण-बृद्धि ओर कार्य-बुद्धि एक साथ नहीं
होती । इसलिए पूर्वोक्त दोष होने को संभावना है, किन्तु वह बात नहींहै।
चट भौर पट का जो ग्रहण धर्मी ओौर प्रतियोगी के रूपमे हो रहा है वह भेद
के ज्ञान का कारण नहींहै। बत्कि घट ओरपटकाजो ज्ञान घटत्व ओर पटत्व
के रूप मे किया गया था वही मेद-ज्ञान काकारण है) घटको भेदका धर्मी
मानना भौर पट को मेद का प्रतियोगी -मानना तो वस्तु को सत्ता होने पर ही
सेदज्ञान का कारण होता है । इसलिए उक्त दोष नहीं लगता । |
॥ 1
¢ |
॥
॥
॥
॥
॥
¢. १
ॐ | ।
2 8
अन्योन्थाश्रय-दोष की भी संभावना यहां नहीं है क्योकि दूसरों ( भिन्न
वस्तुओं ) की अपेक्षा न रखते हुए ही, भेद-युक्त वस्तु का रहण होता है, इसलिए
धर्म-मेद ( 10106160 770 86010प\68 ) का ग्रहण होना संभव है।
[ अन्योन्याश्रय-दोष का भारोपणा इसलिए होता है कि घटका घटत्व-रूप में
ओर पट का पटत्व-लूप मे ज्ञान होना भदज्ञान के ऊपर निभैर करता है, दूसरी
ओरं भेदज्ञानं इष प्रकार के ज्ञान पर निभंर करता दहै। परन्तु यह दोष नहीं
होता--स्वरूपभेदवाद मे वस्तु सबसे विलक्षण स्वरूप दी मानी जाती है
चट-पट के ज्ञान में इनसे विलक्षण स्वल्पो से ही ज्ञान हो जायगा, इसे दरसरो
कौ अपेक्षादही नहीं ज्ञान तो स्वल्पसेहो रहा है अतः घट का घटत्व
ल्प मौर पट का पटत्व-रूप में ज्ञान होने पर भेदज्ञान की सापेक्षता ( भेदजञान
परं आधारित होना ) नहीं रहेगी । इसके बाद धर्मी-प्रतियोगौ बना कर दोनों
पदार्थौ के भेद कौ कल्पना होगी 1 |
ठेखा भी यह कहना ठीक नहीं है कि घर्मभेदवाद को स्वीकार कर लेने पर
अनवस्था-दोष इसलिए उत्पन्न होगा किं प्रत्येक भेद को किसी दूसरे भेद के द्वारा
युक् करने की आवदयक्रता होगौ । [ वट मे मेद है जिसका प्रतियोगी है पट,
इस प्रथम मेद के द्वारा घट को भेद्य ( = प्रथमभेद से.घट भिच्च है-एेसे व्यवहार
के योग्य ) समक्षते दँ । अब प्रथम-भेद का प्रतियोगी बट हो गया, इस प्रथम भेद
मँ द्वितीय भेद है--जिसके दवारा प्रथम सेद की ही भेद्य समन्ते दै । द्वितीय भेद
करा प्रतियोगी प्रथम भेद हि, द्वितीय भेद में एक तृतीय भेद की कल्पना करनी
पडेगी जिसके द्वारा द्वि तीय भेद को भेद्य समरगे । इस प्रकार अन्त न होने वाली
एक परम्परा चलती रहेगी । ] यह अनवस्था इसलिए नही होगी कि दृसरे भेद
पूणेरज्ञ-दशेनम् २५६
को स्वीकार करने का कोई कारण नहीं दिखलाई पडता ( मूलाभावात् ) । मेद
भौर भेदी दोनों भिन्न हरसा व्यवहार देषने मे नहीं आता। [ आशय यह
है कि जिस प्रकार वट ओर पट भिन्न है एसा व्यवहार पट को प्रतियोगी गौर
घट को धर्मी मानकर चलता ह, उसी प्रकार यदि “मेद ( द्वितीयभेद ) तथा
भेदी ( प्रथम मेद ) भिन्न है" एेसा व्यवहार लोक मे दिलाई पड़ता तभी
द्वितीय मेद की सिद्धि हो सकती थी । किन्तु रेषा होता नहीं इसलिए अनवस्था
नहीं है। भेद एक ही होता है वह चहि दूसरी बारहो या तीसरी बार। धट
पट से भिन्न है" इसमें एक भेद है, अब "वह् भेद स्वयं घटसे भिन्न है यहाँ
प्रा्तमेद भी कोई अलग नहीं-सरवंत्र एक प्रकार के भेदकौ ही प्राप्ति
होती है । |
` न चेकभेदबलेनान्यभेदानुमानम् । दृष्टान्तमेदाविषातेनो-
त्थाने दोषामावात् । सोऽयं पिण्याकयाचनाथं गतस्य खारिका-
तैलदातृत्वाभ्युपगम इव । इृष्टान्तमभेदविमर्द त्वनुत्थानमेव । न
"५ बरव्िघाताय कन्योदाहः । तस्मान्मृक्षयामावादनवस्था न
षाय ।
ेसी भी दका नहीं करनी चाहिए कि एक भेद के बलसे दूसरे भेदका
अनुमान होता चला जायगा (ओर अनवस्थाषेरही लेगी) । [ आश यह्
है किं प्रथम भेदका प्रतियोगी घट दहै, फिर द्वितीय भेद का अनुमान, द्वितीय भेद
से तृतीय का, इस प्रकार अनुमान से अनवस्था हो जायगी । परन्तु मध्व इसका
खरडन करते ह । ] यह अनवस्था हष्टान्त के रूप में दिये गये प्रथम-मेदका
बिना नाश किये ही यदि उत्पन्न होती है तब तो अनवस्था माननेमे कोई दोष
ही नहींदहै। [भेदको तो आप इसप्रकार स्वीकार करतेदहीर्है। आपभेद
स्वीकार कर लें फिर हम पर लाखों दोष क्यों न भारोपित करं! हमारा काम
समा ! ] यह दोषारोपण ेसा ही है, जैसे कोई थोडी-सी तिल कौ खल्ली
( 011.691€ ) माँगने जाय ओौर उसे एकाध पसेरी तेल हौ देना पड़ जाय
[ थोडीसी वस्तु मगि ओर अधिक वस्तु स्वयं देनी पड़े) भेदवादियों पर
अनवस्था लगाने जाय ओर अनुमान द्वारा दोषारोपण करने में दृष्टान्त के रूप
मं स्वयं भेद ( खर्डनीय वस्तु ) को स्वीकार करना पड़ । ] दुसरी ओर, यदि
भेदको टृष्टान्तके रूपमे स्वीकार हीन करं तो अनुमानदही नहीं होगा
[ ओर फलतः अनवस्था-दोष नहीं लगेगा | । कन्या का विवाह वर के विनाश
के लिए नहीं होता [ अनुमान का आधार लेकर चलनेवाली अनवस्था सीषे
१ = ~ च
६
४ |
1
९ | । ¢
80
॥
४
4
ह
#
|
॥
रै सवेदशेनसंमरदे-
अनुमान का ही विनाशा कर देती है । ] इसलिए हमारे भूल का क्षय न करने
के कारण अनवस्था कोई भी दोष नहीं लातो ।
विष प्रस्तुत संदभं कठिन के साथ-साथ मनोरंजक भो कम नहीं।
जब अनुमान से पूर्वंपक्षी लोग एक भेद से दूसरे भेद की सिद्धि करके अनवस्था
का आरोषणा करने लगते ह तब इस प्रकार का पराम होता है-
्वितीय-भेद किसी दूसरे भेद के द्वारा भेद्य है ( प्रतिज्ञा + सध्य † 0:
वरयोकि वह भौ एक प्रकार का भेद है ( हेतु } ।
जिस प्रकार प्रथम-भेद होता है ( दृष्टान्त ) । जहां अनवस्था का आरोपण
होता है वहां किंसी-न-किसी प्रकार विश्राम ‹ {70 ) खोजना ही पड़ता
है। कहीं-कहीं यह विश्राम सिद्ध के समान ग्रहण क रते है जेसे--घटस्वे,
पटत्व आदि सामान्यो ( @शाशश्ोध्फ ) में यदि सामान्यत्व की जाति
मानें तो इसका भो फिर सामान्यत्व मानना पड़गा, उसका भी स्षामन्यत्व
होगा--यो अनवस्था होगी । इसके निराकरण के लिए सिद्धहि किं सामान्यो
करी सामान्यत्व-जाति नहीं मानी जाती। मूलमें ही एसा नहीं होता कि
चरत्व-पटत्व मे जाति न मानें वर्योकि इनमें तो जाति लोकसिद्ध ॒दै। कही
कहं यह विश्राम स्वभावतः मानना पड़ता है जैसे नैयायिको के मत से
"यह धट है" इसमे घट का ग्रहण व्यवसायात्मक ज्ञान से होता है, फिर इस
व्यवसाय का ज्ञान भी अनुव्यवसाय ( शै घट जानता हं इस भ्रकरार के )
से होता दहै, इसके लिए भी दूसरे अनुव्यवसाय की आवदयकता होती दै ।
बृद्धि की योग्यता देखकर अपने आप दो-चार कक्ष्याओं ( कोटियो ४५६५8 }
के बाद विश्रामहो जाता है। अन्तिम व्यवसाय भन्ञात ही रहता है । बस,
अनवस्था वहीं समाप्त हो गई ( अभ्यंकर ) ।
प्रस्तुत प्रसंग मे अनवस्था का रूप यह हैकि एकमभेदसे दूसरे भेद का
अनुमान करते है, दूसरे भेद से तीसरे मेद का, इत्यादि । अनुमानका रूप
ऊषर देख ही चुके है । इस अनवस्था का निराकरण भीदोतरहसेदहो सक्ता
है--या तो अनुमान को कहीं विश्राम कराना हैया सिद्धवाक्य भानं कि संसार
मे मेद है ही नहीं,
( १) बुद्धिकी सामथ्यं सत कहीं न कहीं सक ही जाना पड़ेगा । दृष्टान्त के
रूपम तो पूरवंपक्षी प्रथम भेद को मानते हन ? उसका तो विधात ( विष्वंस )
नहीं करते ? तब तो बड़ा आनन्द हे! कम-से-कम द्षटान्तके रूप मे भी
मानने काथं हे कि पूर्वपक्षी कुच भेदोंको तो स्वीकार क्रते है । इससे
हमारे पक्ष का ही समथंन हुजा । हम पर दोषारोपरा करने करने क्या आयि कि
। न >
पूणंपरज्ञ-दश॑नम् २६१
स्वयं हमारे पञ्च को ही स्वीकार करना पड़ा । तिल कौ खज्ञी मांगने अये मौर
ढेर-सा तेल देना पडा ।
(२) यदि षहलेसेहीदुरग्रहहोकि भेददैही नहीं तबतो भौर भी
अच्छा ! मेद अस्वीकार करने पर रृष्टान्त के रूपमे दिया गया प्रथमशेदभी
नहीं सिद्ध होगा। एेसी स्थिति में अनुमानके मूल पर ही कुठाराघात हो
जायगा । अनुमान के आधार पर टिकी हुई अनवस्था का तो क्या पूना ? जिस
अनुमान के आघार पर अनवस्था चलतो है उसी अनुमान का बहु खरडन कर
देदी है । कन्या का विवाह हृञा पर व॑र ही मर गये।
इसलिए अनवस्था मानने षर भी हमारे मेदवाद को कुद भी हानि नहीं
हई । एेसी लाखो अनवस्थाये रहँ तो मौ हम गजनिमीलिकान्याय से अपना काम
करते रहैगे ।
( ५. अनमान-प्रमाण से मेद् की सिद्धि )
अनुमानेनापि भेदोऽवसीयते । परमेश्वरो जीवाद् भिन्नः ।
तं प्रति सेव्यत्वात् । यो यं प्रति सेव्यः स तस्माद् भिन्नः।
यथा भ्रत्याद्राजा ।
न हि सखं मे स्याद् दुःखं मे न मनागपि--इति पुरुषाथे-
मर्भयमानाः पुरुषाः स्थपतिपदं कामयमानाः सत्कारभाजो
भवेयुः । प्रत्युत स्बानथेभाजनं भवन्ति । यः स्वस्यात्मनो
हीनत्वं परस्य गुणोत्कषं च कथयति स स्तुत्यः प्रीतः स्ताव-
कस्य तस्याभीष्टं प्रयच्छति । तदाह-
३. घातयन्ति हि राजानो राजाहमिति वादिनः ।
ददत्यखिलमिषटं च स्वगुणोत्कषेवादिनाम् ॥ इति ।
अनुमान-प्रमाणसे भी भेदकौ सिद्धि होती दै । [अनुमान की प्रक्रिया
इस प्रकार की है परमेश्वर जीव से भिन्न टै ( प्रतिज्ञा + साष्य ), क्योकि
उसके लिए परमेश्वर सेव्य है ( हेतु), जो जिसके लिए सेव्य है वह उससे भिन्न
है जैसे भृत्य से राजा [ भिन्न है] ( दृष्टान्त ) ।
“मुके केवल सुख ही मिले, दुःख थोड़ा भी नहीं हो" इस प्रकार के पुरुषार्थं
की कामना करते हृए ( मुमुष्ु ) पुरुष यदि संसार ( स्थ ) के स्वामी परमेश्वर
करा षद ही प्राप्त करना चाहं तो उनका सत्कार नहीं होता { ईश्वर उन पर् कृषा
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२६२ सवेदशेनसंग्रदे-
रदश नहीं करते ); यही नही, वे सब प्रकार के अनिष्ट प्राप्त करते ह । दूसरी
ओर यदि कोई अपने आपकी हीनता तथा दूसरों के गुणों के माहात्म्यका
वर्णन करता है उस स्तुति करने वाले भक्त कौ, स्तवनीय परमात्मा प्रसन्न होकर
सारी कामना पूरी करतां है । [ यदि भक्त परमेश्वर की स्तुति करता हैतो
व प्रसन्न होते है, यदि स्वयं परमेश्वर बनना चाहे ( नेसे अदैव पक्ष में होता
है) तोवेरुषट होकर सारे अभीष्ट कामों कोनष्ट कर देते है । इसलिए जीव
ओर शश्वर मे अभेद मानना ईश्वर की कोपान्नि में घी डालना है । |
एसा ही कहा है- "राजा लोग उन सों का विनाश कर ` डालते हैजो
अपने को राजा घोषित करते है! उधर अपने गुणों के उत्कषं का वणन
करनेवाले लोगो की सारी कामनायें वे पूणं करते है ।' [ इस लौकिक उदाहरण
से अनुमान होता है कि स्वामी से अभेद स्थापित करनेवाले पर स्वामी अप्रसन्न
होते ह तथा अपने से भेद रखने पर प्रसन्न होते है । |
`एवं च परमेश्वराभेददष्णया विष्णोगुणोत्कमेस्य शरगदष्णि-
कासमत्वाभिधानं विपुलकदरीएरलिप्सया जिहाच्छेदनमनु-
हरति । एतादशविष्णुविद्रेषणादन्धतमसप्रवेशच प्रसङ्गात् । तदेत-
ल्मतिपादितं मध्यमन्दिरेण महामारततात्पयनिणेये--
&, अनादिद्धेषिणो दैत्या षिष्णो द्वेषो बिवधितः ।
तमस्यन्धे पातयति देत्यानन्ते विनिश्यात् ॥
(म० भा० ता० १।१११ ) इति ।
इस प्रकार परमेश्वर से अभिन्न ( एक ) होने के लोभ से [ अदवैतवेदान्ती
लोग ईश्वर को निगुण मानकर ] विष्णु भगवान् के गुणों के उत्कषं को मृगतृष्णा
( 11196 ) के समान श्रान्त ( मायामय ) कहते है । यह् कहना वेसा ही
है जैसे कोई केले के फलों की इच्छासे अपनी जोभही कट्वाले । [ इनमें
कायकारण सम्बन्ध नहीं है । बल्कि जीभ कट जाने पर केले के फलों का कोई
उपयोग हौ नहीं है। उसी तरह ईश्वर को निगुण मानने पर उनसे मिलने का
कोई उपयोग ही नहीं । ] एसे विष्णु भगवान् को अप्रसन्न करने पर [ उनसे
एकाकार होने की धृष्टता करने से ] अन्धतमसं ( नरक ) मेही प्रवेश करना
पड़ेगा ।! इसका प्रतिपादन मध्यमन्दिर ( पूरप्रजञ ) ने अपने ग्रन्थ महाभारतः
तात्प्य-निणंय से किया है- दैत्यगणा विष्णु से अनादि काल से (एष) धप)6
पण्शणणः)8&] ) द्वेष रखते आ रहे है, विष्णु मे भी उनके प्रति अत्यधिक
3.~ क ५ {१ ०. ष्क 25
पूणंभ्ञ-दशेनम् २९३
वेष बढता रहा है । इसलिए वे दत्यो को अन्त में निशित रूप से निविड अन्धकार
( नरक ) में गिरातेहै।' ( मर भा० ताऽ १।१११)
विरोष--मघ्यमन्दिर मध्यगेह के पुत्र ये। इन्हीं का नाम आनन्दतीर्थ था
तथा पूणंप्ज्ञाचायं मीये ही ये। इनका समय ११७० ई० है । ईन्होनि दैतवाद
के सिद्धान्तो कै प्रतिपादन के लिए महाभारत-तात्पयं निणंय नामकं भ्रन्थ लिखा
था जिसकी तीन टीकायें हुई -- जनादन भटर कृत ( १३२० ई० ), वादिराज
कृत तथा विद्रलमूनु कृत । महाभारततात्प्यनिणंय मे ही ग्रन्थकार के विषय मेँ
लिखा है-
आनन्दतीर्थाख्यमुनिः सुपूरंप्रज्ञाभिषो म्रन्थमिमं चकार ।
तारायणोनाभिहितो बदर्यां तस्येव शिष्यो जगदेकमतुः ॥ ( ३२।१७० }
( ६. ईश्वर को सेवा के नियम )
सा च सेवा अङ्कन-नामकरण-भजनभेदात् त्रिविधा ।
तत्राङ्गनं नारायणायुधादीनां तद्रुपस्मरणाथेमयेक्षिताथेपिद्धयथं
च । तथा च शाकस्यसंहितापरिशिष्टम्-
५. चक्रं विभक्ति पुरुषोऽभितपर
बरं देवानाममृतस्य विष्णोः ।
स याति नाकं दुरितावधूय
विक्चन्ति यद्यतयो वीतरागाः ॥
६. देवासो येन विधृतेन बाहुना
सुदशेनेन प्रयातास्तमायन् ।
येनाङ्किता मनवो रोक
वितन्वन्ति बाह्मणास्तद्हन्ति ॥
उस सेवा के तीन भेद र्ह--अंकन ( 91208.{188109 ), नामकरण
( [फ़न्भघ्ज ° 0 क€§ ) तथा भजन ( 0178111} ) ।
उनमें अंकन वह है जिसमे भगवान् नारायण के रूपके स्मरणके लिये
या अपेक्षित लक्ष्य { मुक्ति) की सिद्धिके लिये उनके आयुध ( अखर-शच्र )
आदि का चिल [ शरीर के कि्षी भाग पर अंकित कर दिया जाय । | शाकल्य-
संहिता ( ऋण्वेद का संहिता.विशेष ) के परिशिष्ट मे एेसी वात है--जो पुरुष
देवताओं के बलस्वरूप अमर विष्णु के अभितप्त ( पणा ) चक्रको धारण
„न ०4 ज ~ १ व १ `
१ न “+>
=-=" ~ र्य कनवािक 1
२ सबेदशेनसंग्रदे-
करता है बह दुरितों ( पापों ) को नष्ट करके उस स्वगं मे प्रवेश करता है-
जहाँ रागसे हीन संन्यासी लोग जा सकते है ।॥ ५1 बाहु में जिस सुद्ेन
चक्र को धारण करके देवता लोग चलते-चलते उ स्वं लोक मे पहुचे; जिस
चक्र से अंकित होकर मनुओं ने संसार की सृष्टि की थी, उसी चक्र को ब्राह्मण
लोग धारण करते है ।॥ £ ॥)'
विरोष- इन दोनों इलोकों तथा अगले इलोक् मे वैदिक छन्द का प्रयोग
है, ऋण्वेद की एक संहिता शाकल्यसंहिता के परिशिष्ट के नाम से इनक्रा उद्धरण
दिया गया है । दुरिता = दुरितम् द्वितीया एकवचन में 'डा' अदेश हो गया दहै।
, ब्रह्मारडपुराणा से अंकन के विषय मे कहा गया है--
कृत्वा घातुमयीं मुद्रां तापयित्वा स्वकां तनुम ।
चक्रादिचिद्धितां भूष॒ धारयद्ेष्णवो नरः ॥
नारदपुराण मे चक्रधारणा के विषय में यह लिला दै--
दवादशारं तु षट्कोणं वलयत्रयसंयुतम् ।
हरेः सुदर्थ॑नं तपतं धारयेत्तद्धिचक्षणः ॥।
यह सुदर्थन देवताओं को बल देता दै; उसी से देवताओं ने स्वगं पर विजय
पायी, मनुओं ने संसार की सृष्टिकौ।
७, तद्विष्णोः परमं पदं येन गच्छन्ति राञ्छिताः ।
उरुक्रमस्य चिदैरङ्किता रोके खुमगा भवामः ॥ इति ।
‹अतद्तनूसं तदामो अदलुते भितास इद्रहन्तस्तत्समासत'
( त° आ० १।११ ) इति तेत्तिरीयकोपनिषच । स्थानविदोष-
आग्नेयपुराणे प्रदशचितः --
८. दक्षिणे त करे विप्रो धिभृयाच सुदशेनम् ।
सव्येन शर्धं बिभयादिति ब्रह्मविदो विदुः \
चिष्णु का वह पद सवसे अच्छा है ( वेकुरठ ) जिसे होकर अंकित पुरुष
पार करते ह । बडे पग (८ 8९]) ) वे विष्णु के चिल्ल से अंकित होकर
हमलोग ससार मे देशवय॑युक्त बने ॥ ७ ॥' तेत्तिरीयक उपनिषद् भे भी कहा है-
“जिसका शरीर तप्त { अंकित ) नहीं है, वह पुरुष कच्चा ( आमः ) है, उसे १ स्वगं
को ) नहीं पाता । उसको धारण करने वाले भक्त धितासः ) गणा ही उसे
प्राप्त करते ह ।' ( तेऽ आ० १।११ ) । [ अंकन करने के लिये ] विशेष स्थानों
का उल्लेख अन्नि-पुराण में किया मया है--श्राह्मण दाहिने हाथ मे सुदर्शन चक्र
[=
पूणंपरज्ञ-दशनम् २६५
धारणा करे, शंख की छाप बायं हाथमे धारण करे, एेसा ब्रह्मवेत्ता लोग
मानते है \'
अन्यत्र चक्रधारणे मन्त्रविशेषश्च दशितः --
९. सदर्चनः महाज्वाल कोटिद्यंसमप्रम ! ।
अज्ञानान्धस्य मे नित्यं विष्णोमौगं प्रदशचेय ॥
१०. त्वं पुरा सागरोत्पन्नो विष्णुना विधृतः करे ।
नमितः सर्वदे्ेश्च पाश्चजन्य नमोऽस्तु ते ॥ इति ।
दूषरी जगहों मे चक्रधारणा के विहेष मन्त्र भी दिये गये है--हे सुदर्धन,
तुम बहुत ज्वालाओों से युक्त हो, करोड़ों सूयं के बराबर तुम्हारी जयोति दै, मेँ
अज्ञान के कारण अधाहं मृन्ने विष्णुका मागं प्रतिदिन दिखलाभो ॥ ९ ॥'
तम पहले समुद्र मे उत्पन्न हुए थे, विष्णु ने तुं अपने हाथमे धारण किया
था, सभी देवताओं ने तुम्हे प्रणाम किया है, हे पांचजन्य शंख, तुम्हं प्रणाम
करता हुं ।। १०॥'
( ६ क. नामकरण ओर भजन )
नामकरणं पुत्रादीनां केशवादिनान्ना व्यवहारः, सवेदा
तज्नामालुस्मरणार्थम् । भजनं दशविधं--बाचा सत्यं हितं श्रिय
स्वाध्यायः, कायेन दानं पणि्राणं परिरक्षणं, मनसा दया सण
[क =, # क ¢ +
श्रद्धा चेति । अत्रेकेकं निष्पाद्य नारायणे समपण भजनम् ।
तदुक्तम्
अङ्कनं नामकरणं भजनं दश्चधा च तत् । इति ।
एवं ज्ञेयत्वादिनापि भेदोऽनुमातव्यः ।
नामकरण का अभिप्राय है अपने पुत्र आदि का केशव आदि ( वैष्णव )
नाम रख कर पुकारना जिससे भगवान् के नामों का अनुस्मरण होता रहे ।
भजन दस प्रकार का है--वाणी के द्वारा सत्य, हित, प्रिय वचन तथा स्वाध्याय;
हरीर से दान बचाव ओर रक्षा करना; मनसे दया, स्वृहा ( इच्छा ) ओौर
श्रद्धा । इनमे एक-एक की प्राप्ति कर लेने पर उसे नारायण को समपंण कर
देना हौ भजन है । एेखा ही कहा है--अंकन, नामकरण तथा दत प्रकार के
भजन--यही सेवा है ।
१
¢ | २६६ सव॑दशंनसंम्दे-
कि |
। । | | ॥ | [ इस प्रकार सेव्य-हेतु से भेद का अनुमान किया गया ]। वसे ही ज्ञेयत्वं
॥ आदि हैतुओों के हारा भी भेद का अनुमान हो सकता है ।
विद्येष-ज्ञेयत्व के द्वारा भेद का अनुमान इस प्रकार होगा-
॥ परमात्मा जीव से भिन्न है क्योकि जीवके द्वारा वह ज्ञेय है,
| । | जो जिसके हारा ज्ञेय होता है वहु उससे भिन्न है जैसे जीव से घट ।
||
। ( ७. श्चति-प्रमाण से भेद की सिद्धि )
॑ तथा श्रुत्यापि भेदोऽवगन्तव्यः । सत्यमेनमञु विधे
| । मदन्ति, रातिं देवस्य शरणतो मघोनः ॥ सत्यः सो अस्य
| महिमा गृणे श्वो, यज्ञेषु विप्रराज्ये ।' सत्य आत्मा, सत्यो
। # ^ # मेवारुबण्यो द. मेवा
। जीवः, सत्यं भिदा सत्यं भिदा सत्यं भिदा, मंवार्वण्यो मेवा-
रुवण्यो मेवारूबण्य' इति मोक्षानन्दमेदप्रतिपाद्कभरुतिभ्यः ।
उसी तरह श्रुतिप्रमाण ( 6१९1१107) ) से भी भेद की सत्न जानौ
| | | जा सकती है । "यह सच है कि स्तुति करने वाले धनयुक्त ( अथवा इन्द्र ) देव
|| के इस मित्र ( राति = दान) से सभी लोग प्रसन्न होते ै। [ इन्दरके मित्र
| विष्णु से सभी प्रसन्न होते दै अर्थात् विष्णु ओर लोक में पार्थक्यहै। ]' उन
| | ( विष्णु भगवान् ) की वह महिमा सचरहै, म ब्राह्मणों के राज्य-रूपी यज्ञोमे
| सुख ( शवः ) के उदेश्य से उनकी प्राथंना करता हं ।' [./ गृ = प्रार्थना करना
। ( क्रयादि, परस्मै° ) । ] “आत्मा ( परमात्मा ) सत्य है, जीव सत्य है, उन
|| दोनों कामद भी सत्य है, भेद सत्य है, मेद सत्य है, [ परमात्मा | दृष्टो के द्वारा
| ( आरभिः ) सेवनीय ( वन्यः ) नहीं है (माएव), दृष्टो के द्वारा सेवनीय नहीं
हे, दृष्टो के द्रा सेवनीय नहीं है!" इन श्रुतियों मेँ मोक्ष ओर आनन्द में भेद
का प्रतिपादन किया गया है। [ आरू-अर = दोष, अर+उण् ( मतुष के अथं
मे ) = आर् = दोषयुक्त । |
|
4 ॥
॥
|
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॥ ॥
त । । ॥ 1 ॥
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[धि
११. इदं ज्ञानञपाभित्य मम ॒साधम्यमागताः ।
सर्गेऽपि नोपजायन्ते प्रलये न व्यथन्ति च ॥(गी ० १४।२)
(जगद्व्यापारवजेम्!; ्रकरणादसंनिहितत्वाचच' ( ° घू°
४।४।१७-१८ > इत्यादिभ्यश्च । न च जह बेद् ब्रह्मेव. भवति"
( य° २।२।९ ) इति भ्रुतिबलाजीवस्य पारमेश्वयं शक्यशङ्कम् ।
पूणेप्ज्ञ-दशेनम् २६७
(संपूज्य ब्राह्मणं भक्तया शृद्रोऽपि ब्राह्मणो भवेत्'--इतिवद्
हितो भवतीत्यथेपरन्वात् ।
[ गीता मे कृष्ण कहते है-- | इस ज्ञान ( परमात्मा के ज्ञान } को पाकर
मनुष्य मेरे समान हो जते है, वे सृष्टि होने पर भी उत्पन्न नहीं होते मौर प्रलय
( विनाश्चकाल ) में भी दुःखो का अनुभव नहीं करते | गीता० १४।२ ) [ इसमें
मोक्ष के बादभी भेद दही रहता है वयोकि ज्ञान पाकर मनुष्य ईश्वर के समान
हो जाता है, ईश्वर ही नहीं बन जाता । ] संसारके व्यापारो ( नियमन, पृष्ट
आदि ) को छोडकर [ मुक्त पुरुष सभी कायं कर सकता है ] क्योकि जीव का
प्रकरण ( प्रसंग ) इतना ही है, तथा जीवों को संसार के व्यापार से दूर रखा
गया है ( उनमें वह सामथ्यं नहीं है, ब्र सू ४।४।१७-१८ }- दस श्रृतिवाक्यो
मे मेदकाही वर्णन है। श्रह्मको जाननेवाला ब्रह्य हीहो जाता है" ( मु
३।२।९ ) इस श्रुति के बल से एेसी शंका न करं करि जीव ही परमेश्वर है क्योकि
इसमें केवल प्रशंसा की गई है, ( तथ्य का निरूपण नहीं ) जेसा किं इस शोका
मे अथं है-- "भक्तिसे ब्राह्मण की पूजा करने पर शुद्र भी ब्राह्मण ही हो जाता
हे" [ इस एकावस्था-्रतिपादक श्रुति को अतिशयोक्तिपूणं मान लं । )
( ८. माया का अर्थ-द्रेत का प्रतिपादन )
ननु --
१२. प्रपञ्चो यदि विद्येत निवर्तेत न संशयः ।
मायामात्रमिदं दवेतमद्रैतं परमाथेतः ॥
( माण्डूक्यकारिका १।१७ )
इति वचनाद् द्वैतस्य कल्पितत्वमवगम्यत इति चेत्सत्यम् ।
भावमनभिसंधायाभिधानात् । तथा हि- यच्ययुत्पद्येत तहिं
निवर्तेत न संशयः । तस्मादनादिरेवायं प्रकृष्टः पञ्चविधो भेद्-
प्रपश्चः। न चायमविद्यमानः । मायामात्रत्वात् । मायेति
भगवदिच्छोच्यते ।
[ मारडक्य कारिका ( अदवैतग्रन्य ) मे कहा है कि ] यदि प्रपञ्च की सत्ता
वास्तव में है तो वह नष्ट भी होगा, इसमे सन्देह नहीं । यह दैत (110९१९९९)
केवल माया है, वास्तवमे तो अद्रेतही सत्यहै (मा० का० १।१७)- इस
वाक्यसे कोई शंका कर सकता है कि दैत ( भेदवाद }) काल्पनिक है । हा, ठीक
रे सबेदशेनसंग्रदे-
है, लेकिन बिना भाव को सोचे-सम्े कहने का यह फल है [ कि शंका दिलाई
पडती है । ] इसे समक्षे की चेष्ठा करं-- यदि यह् ( प्रपञ्च ) उत्पन्न होत्ता तभी
इसका विनाश होता इसमे सन्देह नहीं । इससे पता लगता है कि यह् श्रकृष्ट
भेद प्रपञ्च ( भेदात्मकं संसार ) पांच प्रकारका है। इसकी खत्ता नहींदहै, एसी
बात नहीं, क्योकि यह् मायामत्रहै। माया का अर्थं है भगवान् की इच्छा ।
विरोष- मारद्क्र्य कारिका की प्रथम पक्ति से उस स्थान में यह अनुमान
लगाया गयाहै कि प्रपञ्च माया है, काल्पनिक रहै, जब कि मध्व इससे दूसरा
ही निष्कषं निकालते है कि यह प्रपञ्च अनादिदहै। यह् माया अर्थात् ई्रकी
इच्छा ही है । महाभारततात्पयंनिय में कहा गया है-
पञ्चभेदांश्च विज्ञाय विष्णोः स्वाभेदमेव च।
निर्दोषत्वं गुणोद्रेकं ज्ञात्वा मुक्तिनं चान्यथा ॥ ( १।८२ ) । `
अब पौराणिक वाक्यों का उद्धरण देकर माया की व्याख्या की जायगी ।
१३. महामायेत्यविध्ेति नियति्मोहिनीति च ।
प्रकृतिवोसनेत्येव तवेच्छानन्तकथ्यते ॥
१४. प्रकृतिः प्रकृष्टकरणाद्रासना वासयेद्यतः ।
अ इत्युक्तो हरिस्तस्य मायाविद्येति संज्ञिता ॥
१५. मायेत्युक्ता प्रदष्टव्वासरकृष्टे हि मयाभिधा ।
विष्णोः प्रजञपिरेवेका शब्दैरेतेरुदीयते ॥
१६. प्रज्परिरूपो हि हरिः सा च स्वानन्दलक्षणा ।
इत्यादिवचननिचयगप्रामाभ्यबलात् ।
हे अनन्त ईश्वर ! आपकी इच्छाको ही महामाया, अविद्या, नियति,
मोहिनी, प्रकृति ओर वासना भी कहते है ।॥ १३॥ अधिक उत्पन्न होने के
कारणा इसे प्रकृति कहते हे, विचायं को पैदा करने के कारण इसे वासना कहते
है। "अ" काथं हरिदहै, उनकी माया (इच्छा) को अविद्या नाम देते
है॥ १४॥) प्रकृष्ट (बडा) होनेके कारण इसे माया कहते ह॑ वयोकि "मयः
का अथं 'बड़ा' होता है \ इन् शब्दों से एकमात्र विष्णु कौ प्रज्ञा ( ४,६७९)€#
०) €९९€ ) का हौ बोघ होता दहै \\ १५\\ हरि विशिष्ट ज्ञान् के स्वरूप
है, उस पिरि ज्ञान ( प्रज्ञ; ) का लष्डण है निरन्तर ८ अपने अप ) अनन्द-
प्राति \ १६ \\- इन वचनो के प्रमाण से \ माया का अथे भगवान् कौ इच्छ
सूचित होता है } \
पृणेप्रज्ञ-दशेनम २६६
सैव प्रज्ञा मानत्राणकत्रीं च यस्य॒तन्मायामात्रम् । ततश्च
परमेश्वरेण ज्ञानत्वाद्रकषितत्वाच्च न दतं भ्रान्तिकल्पितम् । न
हीश्वरे सर्वस्य आन्तिः संभवति । विशोषादशेननिबन्धनतवाद्
भ्रान्तेः ।
तहिं तद्व्यपदेशः कथमित्यत्रोत्तरमद्रैतं परमाथेत इति ।
परमार्थत इति परमारथापेक्षया । तेन सबेस्मादुत्तमस्य विष्णुत-
त्वस्य समभ्यधिकशन्यत्वञुक्तं भवति ।
[ ऊपर प्रपंच को मायामात्र कहा गया है। अब मायामात्र शब्द का अथं
करते है ] ईश्वर की उपयुक्त प्रज्ञा ( इच्छा, माया, बृद्धि ) जिसको मपि
( 11९85पा.९ ०४४) ओर जिसकी रक्षा करे वही है मायामात्र ( माया +
</मा + <./ त्रा) । अतः यह सिद्ध हुमा कि परमेश्वर इस प्रपञ्च को जानते ह तथा
रक्षा भी करते ह ( अर्थात् प्रपञ्च सत्य है, तभी तो परमेश्वर इसे जानते ह तथा
रक्षा करते है ) । इसलिये द्वैत च्रान्ति ( भ्रम [प्0ण ) के द्वारा कल्पित
नहीं है ( सत्य है ) । ईश्वर कोभी सभी पदार्थोके विषयमे जान्ति होगी--
यह सम्भव नहीं है क्योकि आन्ति विशेष (मेद } के अ-दशंन पर निर्भर करती
है। [ ईशर के लिये कोई भी पदार्थं अदृश्य नहीं वे सव कुछ देवते है इसलिये
उन्हँ भ्रान्ति नहीं होगी । |
फिर [ माण्डकय कारिका मे | उसका उल्लेख ही त्यों हआ ? | ईश्वर के
लिये "अद्वैतः सर्वभावानाम्" आदि इलोकों मे अदरेत शब्द से क्यो मभिहित किया
गया है ? ] इसका उत्तर है कि परमाथं से अद्वैत तच्च होता है। परमार्थं से'
का मतलब है परमार्थं की अपेक्षा रखने पर । इसलिये अभिप्राय यही है कि
सबों से ॐचा विष्णु-तच्व है, कोई न तो उसके समान है, न उससे ऊंचा ।
विरोष-अद्रैत की खींच-तान खूब हीकौ गई है। तच्व॒ षपरमाथंतः
` अदैव है अर्थात् परम ( सबसे ऊवे ) अथं ( = विष्णु ) को लक्षित करने पर
तत्व अदैत ही है । विष्णु सबसे ऊँचा है, एक ही तत्तव है क्योकि उतना ऊँचा
कोई तत्व नहीं, न तो उसकी कोई बराबरी कर सकता न उससे बढ़ सकता है ।
अतः अद्रैत का अथं है सबसे ऊँचा, न कि एकमात्र तस्व ।
तथा च परमा श्ुतिः-
१७. जीवेश्वरभिदा चेव जडश्वरभिदा तथा ।
जीवभेदो मिथश्चेव जडजीवभिदा तथा ॥
२७०. स्वेदशेनसंग्रहे-
१८. मिथश्च जडभेदो यः प्रपञ्चो भेदपञ्चकः ।
सोऽयं सत्योऽप्यनादिश्च सादिधेन्नाशमाप्लुयात् ॥ `
१९. न च नां प्रयात्येष न चासो भ्रान्तिकखितः ।
कर्पितरचेननिवर्तेत न॒ चासौ विनिवतेते ॥
२०. द्वैतं न विद्यत इति तस्मादज्ञानिनां मतम् ।
मतं हि ज्ञानिनामेतन्मितं त्रातं हि विष्णुना ॥
तस्मान्मात्रमिति भोक्त परमो हरिरेव तु । इत्यादि ।
तस्माद्धिम्णोः सर्वेत्किषं एव तात्पयं सवोगमानाम् ।
इसीलिए परम श्रुति यही है-- जीव ओौर ईवरमें भेद है, जड़ ओौर
शवर मं भेद है, जीवों मे परस्पर भेद है, जड़ ओौर जीवोँमे भेददहै, जडोमेभी.
परस्पर भेद है- इस प्रकार संसार ( प्रपच ) में पोच प्रकार के मेद टै ।
यही मेद सच्चा है ओर अनादिकालसे चलाभा रहा है । यदि इसका कहीं
ञारंभ हआ होता तो नष्ट भी हो जाता॥ १८॥ किन्तु यह नष्ट ( समाप )
नहीं होता, यह भ्रान्ति से भी कल्पित नहीं है । यदि कल्पित होता तो इसकी
समासि भी हो सकती । लेकिन इसकी समाति नहीं होती । १९ ॥ इसलिए
“डत की सत्ता नहीं है" एेसा सिद्धान्त अज्ञानियों का है। ज्ञानियोंका तो यह
मत है कि इस प्रपंच की मिति ( नापा जाना ) तथा रक्षा विष्णुंके द्वारा होती
ह इसलिए इसे "मात्र" कते दहै, हरि ही सबसे ऊचे है ।' इत्यादि ।
अतएव सभी आगमो का तात्पयं यही है कि विष्णु ही सबसे ऊचे है ।
( ९. ईश्वर की सर्वोत्छृष्टता के अन्य ध्रमाण )
एतदेवाभिसंधायाभिहितं भगवता--
२१. द्वाविमौ पुरुप रोके श्षरशाक्षर एव च ।
क्षरः सर्वणि भूतानि इूटस्थोऽश्वर उच्यते ॥
२२. उत्तमः पुरुषस्त्वन्यः परमातमेत्युदाहतः ।
यो छोकत्रयमाविश्य मिभस्य॑व्यय रदेधरः ॥
२३. यस्मारक्षरमतीतोऽहमक्षरादपि चोत्तमः ।
अतोऽस्मि रोके बेदे च प्रथितः पुरुषोत्तमः ॥
ऋ
ह+ नि :
= =+, टाः
पूण्रज्ञ-दशंनम् २७१
२४. यो मामेवमसंमूढो जानाति पुरुषोत्तमम् ।
सवेविद्धजति छ €
स॒ सर्वेि मां सवभावेन भारत ॥
२९५. इति गुद्यतमं शाख्मिदग॒क्त मयानष ।
एतद् बुद्ध्वा बुद्धिमान्स्यात्कृतकृत्यश्च भारत ॥
( गी ° १५।१६-२० ) इति ।
इन्हीं बातों पर ध्यान रखते हुए भगवान् कष्ण ने कहा है--'संसारमें ये
ही दो पुरुष है, क्षर ओौर अक्षर। ये सभी पदार्थं ( 36108) क्षर
( ए6€ा18}0806€ ) है, बह कूटस्थ अर्थात् अविकृत पदार्थं ही अक्षर
( [06158016 ) कहा जाता है* ॥ २१ ॥ इनसे पृथक एक दूसरा पुरुष
है जो परमात्मा के नाम से पुक्रारा जाता है। वह अव्यय ( {14९९8518 )
ईश्वर है जो तीनों लोकों को अपने मे समेट करके ही धारणा करता है ॥ २२॥
[ कृष्ण आगे कहते है-- | चूंकि मेँ क्षर-पदार्थं के ऊपर हुं तथा अक्षर से
भी ऊँचा ह, इसलिये लोकमें ओर वेदम भी पुरुषोत्तमके रूपमे विख्यात
हं ।॥ २३ ॥ संमोह ( 11.8५० ) से रहित होकर जो व्यक्ति मुभ
पुरुषोत्तम के रूप में जानता है; हे अजुन, वह॒ सब कुच जान जाता है तथा सवं
प्रकार से मुभे मजता है ।\ २४॥ है निष्पाप ( अर्जुन ), इस प्रकार मैने सबसे
अधिक गोपनीय शाख का वर्णन किया, हे अर्जन, इसे जान कर मनुष्य बुद्धिमान्
( आन्तरिकं ज्ञान सम्पन्न ) तथा कृतकृत्य ( अपने कार्योको समाप्तकर देने
वाला ) हो जाता है ।' ( गीता १५।१६-२० ) ।
( १०. मोक्ष ईश्वर के प्रसाद से हयी मिलता है)
महावराहेऽपि-
२६. मुख्यं च सवेबेदानां तात्पयं श्रीपतो परे ।
उत्करे तु तदन्यत्र तात्पयं स्यादवान्तरम् ॥ इति ।
---- ----- ~~~ >
१. तुल ० -- ब्रह्मा शिवः सुरेशाद्याः शरीरक्षरणात्क्षराः ।
लक्ष्मीरक्षरदेहत्वादक्षरा तत्परो हरिः ॥
ब्रह्मा, शिव, इन्द्र आदि क्षर है क्योकि इनके शरीर नष होते ह । अक्षर देह
हीने के कारण लक्ष्मी अक्षरा दहै। इन दोनों चेतनो से भिन्न हरि है। लोक
संसार या पर्यालोचना करने पर ।
२७२् सवेदशेनसंप्रदे-
युक्तं च विष्णोः सरत महातात्येम् । मोक्षो हि सवे-
परुषा्थात्तिमः ।
२७, धमीर्भकामाः सर्वेऽपि न नित्या मोक्ष एव हि ।
नित्यस्तस्मात्तदथीय यतेत मतिमान्नरः ॥
इति भाछवेयशरतेः ।
महावराह ( पुराण \में मी कहा गया है किसमी वेदोंका मुख्य तात्पयं
वरम श्रीपति ( विष्णु ) मेही स्थित है, उनसे भिन्न किसी देवता के गणो में
तालस्य होना तो गौण ( 3०५११९४९ एषणः ) है ॥ २६ ॥ यह
युक्तिसंगत दै कि विष्णु के उत्कषं का वर्णन ही महान् ( मख्य ) तात्पयं [ उन
वेदों का ] है । मोक्ष ही सभी पुरुषार्थो मे ऊच है जैसा कि भाज्ञवेय उपनिषद्
मे कहा गया है-धमं, अथं भौर कामये सब कोई भी नित्य नहींर्हैः नित्य
कोई है तो मोक्ष--इसलिये उसी कौ प्राप्निके लिये बुद्धिमानोंको प्रथन करना
चाहिए ।'
मोक्षश्च विष्णुप्रसादमन्तरेण न रम्यते ।
२८. यस्य प्रसादात्परमात्तिरूपा-
दस्मात्संसारान्पुच्यते नापरेण ।
नारायणोऽसौ परमो षिचिन्त्यो
ुसश्वभिः कमेपा्चादय्ुष्मात् ॥
इति नारायणश्रुतेः ।
२९, तस्मिन्प्रसन्ने कफिमिहास्त्यरभ्यं
धमीर्थकामैरलमसपकास्ते ।
समाभिताद् ब्रह्मतरोरनन्तात्
निःसंशयं सुक्तिफलं प्रयान्ति ॥
८ वि° पु° १।१७९१ )
इति विष्णुपुराणोक्ते \ प्रसादश्च शुणेोत्कष्ानादेव नभेदः
ज्ञानादित्युक्तम् ।
विष्णु की कृपा के बिना मोक्ष नहीं मिलता तैसा किं नारायण उपनिषद्
मे कहा गया है-- जिनकी कृण पाकर परम दुःख-हूपौ इस संसार से लोग भुक्त
पूणप्रज्ञ-दशनम्
हो जाते है, दूरे लोग ( बिना कृपा पाये ) नहीं । इस कमं के जाल से मुक्त होने
करी इच्छा रखने वालों को उन परम नारायण का चिन्तन (ध्यान ) करना
चाहिए ।' ॥ २८ ॥ विष्णुपुराण मे भो कहा गया है “उन भगवान् ( विष्णु )
क प्रसन्न हो जाने पर इष लोक में कौन पदाथं दुलंभ है ? धमं, मं ओौर काम
की प्राथंना करना व्यर्थं है कर्थोकिवे बहुत थोडे है ( अस्थायो है )। अनन्त
बरह्यवक्ष पर आश्रित रह कर [ मृक्ति के इच्छुक लोग ] निःसन्देह मृक्ति रूपी
कल प्राप्त करते ह ' ॥ २९ ॥ यह कहा गवा है कि गुणों के उत्कषं का ज्ञान
होने से ही [ भगवान् की] कृषा प्राप्त होती है, अभेद का ज्ञान होने से नहीं
( जैसा कि अद्वैतवादी कहा करते है ) ।
( ११. (तत्वमसि' का अथं )
न च तखमस्यादितादात्म्यव्या रोपः । श्ुतितात्पयापरि-
ज्ञानविजुम्भणात् ।
३०. आह नित्यपरोकषं तु त्वच्छब्दो ह्यविशेषतः ।
त्वंशब्दश्चापरोक्षार्थं तयोरेक्यं कथं भवेत् ॥
३१. आदित्यो युप इतिवत्सादश्याथा तु सा श्रुतिः । इति ।
तथा च परमा भरुतिः-
३२. जीवस्य परमैक्यं तु बुद्धिसारूप्यमेव तु ।
एकस्थाननिवेक्ञो बा व्यक्तिस्थानमपेकष्य सः ॥
३३, न स्वसूपैकता तस्य युक्तस्यापि विरूपतः ।
स्वातन्त्यपूर्णतेऽर्पत्वपारतन्त्ये विरूपते ॥ इति ।
ठेसा कहना ठीक नहीं कि "तवमसि" ( वह तुम्हीं हो ) इस वाक्य मे स्थित
[ जीव भौर ईश्वर के बीच ] तादारम्य-सम्बन्ध से कोई विरोध है क्योकि ठेसा
कहना वेदों के तात्पयं को न जानकर किया गया बकवाद ( 59४णा०६) है ।
[ प्रन यह है किं | 'तत्' शब्द ॒सामान्य-रूप से नित्य-परोक्ष पदाथंका
बोष कराता है, दूसरी ओर, (त्वम्” शब्द ॒भ्रत्यक्ष वस्तु का बोधक है दोनोमें
एकता कैसे हो सक्ती है ? [ किन्तु उत्तर यही होगा कि | इस श्रुतिवाक्य मं
(आदित्य ही यूष हैः ( = आदित्य के समान यूप है }- इस वाक्य की तरहही
[ लक्षणा ] से सादृश्य का अथं है । [ निस प्रकार आदित्य ओौर यूप ( यज्ञ
का खूंटा) में एकता असम्भव देख कर सादृश्य _ अर्थंकी कल्पना होती है उसी
१८ स> सं
२७४ सबेदशेनसंग्रहे-
प्रकार "तत्" ओर "त्वम् ' में एकता असम्भव होने से इस श्रुति मे जीव को ब्रह्मं
का सरूप ( सहश ) मानने का तात्पयं लिया जाता है । |
जैसा परम ध्रुतिमे कहा गया है--जौव की परम ( {1110086 )
एकता का अर्थं ह बुद्धि ( ज्ञान ) मे समरूप ( 90118 ) हो जाना [ यद्यपि
परमात्माकेज्ञानके अनुसार जौवका ज्ञान होने के कारण परमात्मा जोजो
जान सकता ह वही जीव नहीं जान सकता ], या एक ही स्थान पर रहना
( वैकरुढ लोक मेँ जीव भौर परमातमा का एक साथ रहना ही जीव की एकता
है ), किन्तु यह निवास मूलस्थान के भ्यंजक ( वेकुरठ लोक } कोही ध्यान में
रखते हृए कहा गया है । [ “एकं साथ निवास करना' कहने पर बद्ध जीवों के
साथ भौ परमात्माका रहना सम्भवदहै, पर रेसी. बात नहीं । मूलस्थान
अर्थात् वैकुण्ठलोक में ही एक स्थान पर रहने का अभिप्राय है इसीलिए "व्यक्ति
स्थान" का उल्लेख किया गया है । | ॥ ३२ ॥
"जीव [ बद्ध तो क्या, ] यदि मूक्तहो जाय तब भी विरुद्ध घमं होने के
कारण ८ विरूपतः ) ईश्वरसे स्वरूपम एक नहीं हो सकता । उन दोनों में
विरूपता यही है- ईश्वर मे स्वतन्रता ओौर पूर्णता है -जब कि जीवमें
अल्पता ( अणुस्व ) ओर परतन्त्रता है ।॥ ३२३ ॥'
( १९ क. तच्वमसि का दूखरा अथं )
अथवा त्वमसीत्यत्र स॒ एवात्मा स्वातन््यादिगुणो-
पेतत्वात् । अतखमसि त्वं तत्र॒ भवसि तद्रहितत्वादित्येकत्वम-
तिशयेन निराकृतम् । तदाह--
अतचखमिति वा छेदस्तेनेक्यं सुनिराढ़ृतम् । इति ।
तस्माद् च्टान्तनवकेऽपि “स यथा शकुनिः सत्रेण प्रबद्धः'
( छा ६।८।३ ) इत्यादिना भेद एव दृष्टान्ताभिधानान्नायम-
भेदोपदेश्च इति तच्ववादरहस्यम् ।
[ अब "आत्मा तत्वमसि" की व्याख्या दूसरे प्रकार से करने के लिए इसका
पदच्छेद दूसरे रूप में करते है कि आत्मा + अतत् + त्वमसि" = तुम॒वही नहीं
हो । इसके लिए वे कहते है-- ] या यह भी सम्भव है कि 'तच्वमसि' मे [ इसके
यूं | उसी आत्मा ( परमात्मा } का अथं हो जो स्वतन्त्रता आदि गुणो से
युक्तं है । [ किन्तु इसके बाद ] अतत् त्वम् असि" का अथं यही है कितुम
वही ( परमात्मा ) हीं हो क्योकि स्वतन्त्रता आदिवे गुण तुममे नही है ।
पूणपरजञ-दशनम् २७५
इसलिये दोनों की एकता का निराकरण अच्छी तरह किया गया है। जेसा कि
कहते है -- “अतत् :वभू' के रूपमे छेद करे जिससे [ जीव ओर ईशर की |
एकता अच्छी तरह निराकृत कर दी जाय । |
[ फिर भी प्रश्न हो सकता है कि छान्दोग्योपनिषद् मे जहां से यहं वाक्य
लिया गया ह वहां पर तो नव॒ उदाहरणो से सिद किया गया है किं जीव ओर
शश्चर एक है तत् त्वम् असि । इसके उत्तरम वे कहते ह-- ] इसीलिए नवो
हषटान्तों के द्वार, "जैसे पक्षो सूते मे . ठव जाने परः इत्यादि ( छा ६।८।३ )
वाक्यो से मेद का प्रतिपादन है, दृष्टान्त देकर यह समक्ञाया गवा है कि इनमें
अजेद ( अद्वैत ) का उपदेश नदीं है एषा तच्ववादरहस्य म कहा गया है । ]
विशोष--चान्दोस्योपनिषद् के छे अध्याय मे सद्विद्या का प्रकरण है।
वहाँ आघ्वे खंडसे आरम्भकरके सोलह खण्ड तक ( कुल नव लर मे )
रत्येकं खण्ड मे एक-एक उदाहरणा देकर अंत तरे . "आत्मा त्वमसि" ` निष्कषं
निकाला गया है। वहाँ स्पष्ट रूपसे एेक्यका प्रतिपादन हि, -पर मघ्व भेद
स्वभाव के कारण दृष्टान्तं को भेद-प्रतिपादक मानतेहै। उन दृष्टान्तो
का अवलोकन करं ।
(१) प्रथम खरुड यें यह कहा गया कि सुषुप्ति अवस्था ( 9166) ) का
अनुभव सभी प्राणो करते है । इसी अवस्था मे जीव सद्रूप ( 8810
76811 ‰8 €8861106 ) ब्रहासे संपन्न होता है) इसके लिए दृष्टान्त है-
चसे व्याव के हाय मे स्थित रस्ती मे बंधा हुंमा पक्षी वंघन से बचने के लिए
इधर-उधर गिरकर कहीं आश्वय न पाकर फिर बन्धन ने ही लौट आता है, उसी
प्रकार जोव भी स्वप्न ओौर जागृति की बवस्थामे इधर-उधर गिरकर कहीं
विशान्ति न पाने पर सुषुत्नि अवस्था मे सदरूपौ ब्रहम का ही आश्रय लेता है ।
मध्व कहते ह कि इस दृष्टान्त में आश्चय-आध्ित का मेद है, यह शक्रुनि ( पक्षौ )
ओर सूते के उदाहरण से स्पष्ट किया गया ह। अतः ब्रह्म ओौर जीव में मी भेद
है । वही “ख आत्मा तच्वमसि वेतकेतो कह कर दिलाया गया है । [ उदालक
अपने पुत्र इवेतकेतु को यह समन्ञाते है\ ]
(२) द्वितीय खंड में यह बतलाया गया है--इस शरीर मे जीव को आश्रय
देने वाला उससे भिन्न कोई पदार्थं नहीं है क्योकि मेदरूप मे किसी एसे पदां
करो उपलब्धि नहीं होती ॥ इस शंका के निवारण के लिए दृष्टान्त है-जेसे
"मौर नाना प्रकार के वृक्षों के फूलों का रस लाकर एकम् करते है तब मधु बनता
है । उसके रख भिन्न होने पर भी यह नहीं जानते कि मेँ इस एल का रस है, वह
उस कूल का--इस प्रकार वे आपसी भेद नहीं जानते । वैसे ही जोव भौ अपने
प च लन व भ (पिं
जिः > क
त
क + -4
~~ = ~ = को = ०
रे धवा क नयोः तौ ध, , = 7, +>
„ ----- ~ ~ 4 पा क¬ क = = => जोक
किक जक ~ ~= य क प
व व क
काणं
यणि
के क~ ॐ ड
= = „ --- :--= > --- --------- -*~ ~= ~---
२७६ सबेदशेनसंम्रहे-
आश्रय को नहीं जानते । वास्तवमें अआश्रयतोदहैही। इसप्रकार "जहां भेद
नहीं दिखला ई पडता, वहां भेद है ही नही'-- इस नियम का उक्ञघन हुजा ।
भेद नहीं दिखलाई पड़ने पर भी भेद की सत्तां रह सकती है । फिर भी क्का
हो सकती है कि चेतन पदार्थो मे तो यह नियम रहेगा ही कि भेद न दिखलाई
पड़ने पर भेद नहीं हो । इसका उत्तर अगे है ।
(३) तृतीय खंड मे कहते है कि जैसे गंगा, यमुना आदि नदियों की चेतन
देवियां समुद्रम चली जाने पर यह नहीं जानती, किमे गंगा ह, वह यमुना,
ओौर मेघ कै द्वारा समृदसे निकल जाने पर भी अपना अस्तित्व नहीं जानती
मेव से पृथ्वी पर गिरने पर भी अपना स्वतंत्र अस्तित्व नहीं रखतीं, उसी प्रकार
जोव भी जागृति-सुषुप्ति में आश्चय का ज्ञान नहीं रखता । परन्तु मघ्व के अनुसार
भेदतोहैही। इस प्रकार चेतन पदार्थोमे भी उस नियम का उल्लंघन होता
है। फिरमीशंकाहोगी कि ईश्वर जीवसे भिन्न होने पर भी जीव को अपने
अधीन कसे रखेगा ?
( ४) चतुथं खंड मे इसका उत्तर रै। वृक्षके मूलम, बीचमें, अगेमें
या कहीं मी आघात होने पर केवल रसका स्राव ( 10४ ) होतार, वृक्ष
ही नहीं सूख जाता । कभी-कभी तो बाहरी कारण के अभावमें भी वृक्ष सुख
जाता है--यह जीव के अधीन नहींहै। जीवतो सदा सुखही चाहता है,
जेसे वृक्ष के शरीर में रहने वाला जीव ईर के अधीनदहै वसे ही मनुष्यादि के
शरीरमे रहने वाला जीव भी ईश्वराधीन हीहोगा। इससे भेदवादी जीवसे
भिन्न, जीवाश्रय के रूपमे ईश्वर की सिद्धिकरतेहै। फिर भी अद्वेतवादी रोका
करगे कि किंस कारणसे ईश्वरका ज्ञान जीव को नहीं होता ?
(५) पंचम खंडमें इसके समाधानके लिए कहा है कि जेसे वटवृक्षं के
फल को तोड़ने पर सूक्ष्म बीज दिखलाई पडते हैँ । इन बीजों के तोडने पर कुछ
भी दिखलाई नहीं पड़ता क्योकि ये बीज के बीज ओौर भी सुक्ष्म) किन्तु इन
सक्ष्मतर बीजावयवोँसे ही विशाल वटवृक्ष उत्पन्न होता है। ईश्वर भी जीव
की अपेक्षा परम सृक्ष्महोनेके कारण ज्ञात नहीं होता । सुक्ष्म अवयवो (कारण)
कोन देखने पर भी हम वटवृक्ष ( कायं ) को देख सकते ह । वेसे ही कार्यरूप
संसार को देखने पर भी कारण-स्वरूप ईश्वर को नहीं देख सकते । पर इस पर
विश्वास कैसे करें ?
(६) षष्ठ खंड मे उत्तर दिया गयादौ कि पानी मे डालने पर नमक जब
विलीन हो जाता है तव कहीं दिखलाई नहीं पड़ता, त्वचा (10 ) से भो
स्पशं का अनुभव नहीं होता, हां, जीभ से उसे जान सकते है । जेसे लवण के
पूणेप्रज्ञ-दशेनम् २७७
गुण ( रस ) का अनुभव करने प्र॒ भी लवण दिखलाई नहीं पडता वैसे ही
श्वर की सामथ्यं का दशन होने पर भी ईश्वर दिलाई नहीं १३ते । फिर एसे
अत्यन्त सूक्ष्म ईश्वर को जानते ओौर पति कषे है ?
( ७ ) सप्तम खंडमें कहा है कि जेसे गन्वार देश के एक घनी निवासी
को चोर मिलकर हाथ वैर बाँध दं, ओला पर पटौ बाध दे ओर सव कु छीन
कर जंगल में छोड द--उसे एेसो अवस्था मे रोति कलपते देकर कोई दयालु
पुरुष बंधन चे चुडा दे ओौर कह दे कि इस दिशामे गांधार देश टै, चले जाभौ,
वह धनी भी गाव-गांव धूमते हुए गान्वार पहुंच जाता है; . ठोक उको प्रकार
क्मंङ्पी चोरों के द्वारा जीव कासारा ज्ञान छीन लिया जता है ओर वह जोव
जञरीरलूपी जंगल में छोड़ दिया जाता है, कोई कपाट सद्गु उसे उपदेश देते हैँ
ओर बह श्रवण, मनन आदि साधनों से होते हश अपनी जन्मभूमि अर्थाद् भगवान्
को प्राप्त कर लेता है । इस प्रकार वृक्ष के शरीर में स्थित जीव भगवान् के अधीन
हैवैते ही मनुष्य के शरीर में मौ अनुमान कर लें, यह् चतुथं खणड का तात्पयं
यहाँ भी कहा है । अव मनुष्य के शरीर में ही जीव की ईश्वसाघीनता का अनुभव
होता है इसके लिए अष्टम ष्रड में लिखते है ।
(८ ) अष्टम खंड में कहा है कि मनुष्य कौ जब भृत्यु निकट आती है तब
वाणी आदिकानाशहोनिसे वह् कुछ बोल नहीं पाता, निकट आये हुए बन्धु
बान्धवो को भौ नहीं पहचानता । ईश्वराथीन होने के कारण जीव भौ उसी दशा
का अनुभव करता है ।
(९) नवम खंडमेंकहाहै कि जिस चोर पर राजा को सन्देह है, उक्षके
यह कहने पर भी किर्मैने चोरी नहींकीहै, राजाधिकारी लोग परीक्षा के लिए
गम लोहा उसके हाथ पर र्ते है । रूढ बोलने वाला चोर जल जाता है, सत्य
बोलने वाला सत्य के द्वारा व्यवधान पड़ने से नहीं जलता । इसी तरह तद्व
को जानने वाला भी मूक्त हो जाता है दुसरे लोग बन्यन में रहते है । परमात्मा
को मेदरूप मे जानने वाला ही तच्वज्ञानी है ।
इस प्रकार नवों स्थानों मे भेदका ही प्रतिपादन है। पक्षो ओर सूते,
विभिन्न वृक्षं के रसोंमे, नदी ओर समुद्रे, जीव ओर वृक्ष में, बटवृक्ष ओर
क्ष्म बीजों मे, नमक ओर पानीमे, गान्धार ओौर पुरुष मे, मरणासन्न ओर
उसके बन्धुओं मे तथा चोर ओौर वस्तु मे ेकय हो नहीं सकता । विशेष के लिए
छदोग्योपनिषद् ही देखं ।
( ११ ख. उक्त नव दान्तौ से भेद्सिद्धि )
तथा च महोपनिषद्--
३४. यथा पक्षी च त्रं च नानाब्रक्षरसा यथा।
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२७८ सवैदशनसंमहे-
यथा नधः समुद्राश्च यथा जीवेमहीरुहो ॥
३५. यथाणिमा च धाना च श्रुद्रोदल्वणे यथा ।
चोरापहार्यो च यथा यथा पुंविषयावपि॥
३६. यथाज्ञो जीवसंघश्च प्राणदश्च नियामकः । .
तथा जीवेखरौ भिन्नौ सवेदेव विलक्षणो ॥
३७. तथापि पृ्ष्मरूपत्वान्न जीवात्परमो हरिः ।
भेदेन मन्दद्ष्टीनां दृश्यते प्रेरकोऽपि सन् ॥
३८. वैलक्षण्यं तयोज्ञीत्वा मुच्यते बध्यतेऽन्यथा । इति ।
इसलिए महोपनिषद् मे कहा गया है-"जंसे पक्षी ओौर सूत्र, जसे नाना
प्रकार के वृक्षो कै रस, जैसे नदियां भौर समुद्र, जसे जीव ओर वृक्ष, जेसे अणुता
ओर धारणशक्ति, नेसे शुद्ध जल ओौर नमक, जंघे चोर ओौर अपहरणीय वस्तु,
जैसे पुरुष भौर उसके विषय, जसे अज्ञ जीवों का समूह ओौर प्राणादि का
नियामक~- ये सब भिन्न उसी प्रकार जीव ओौर ईश्वर विभिन्न लक्षणों के
होने के कारण सदा ही भिन्न है । ३४-३६॥ फिर भौ सूक्ष्मरूप होने के
कारण परम ( सर्वोच्च ) हरि को मन्द दृष्टि वाले पुरूष जीव से भिन्न रूप मे नहीं
देखते ह यद्यपि वे ही ( हरि ) सों को कायं में प्रवृत्त करते है ।॥ ३७ ॥ इन
दोनों की - विलक्षणता ( {20676106 ) जानने पर मनुष्य मूक्त हो जाता है,
नहीं तो वहु बन्धन में पड़ा रहता है ॥'
विरोष- छान्दोग्योपनिषद् के उक्त नव॒ उदाहरणों का उल्लेख यहां किया
गया है, उसमे भी क्रम में कुछ परिवत॑न किया गया है । एक ही बात-भेद-का
प्रतिपादन करने से कुछ एकरसता-सी लगती है ।
३९. ब्रह्मा शिवः सुरायाश्च शरीरक्षरणारक्षराः ।
रक्ष्मीरक्षरदेहत्वादक्षरा तत्परो हरः॥
४०. स्वातन्त्यशचक्तिविज्ञानसुखा्यरखिलगेणंः ।
निःसीमत्वेन ते सर्वे तद्रश्ञाः सवेदेव च ॥ इति ।
४१. विष्णुं सबगुणेः पूणं ज्ञात्वा संसारव्जितः
निदुःखानन्दथङ नित्यं तत्समीपे स मोदते ॥
पूणेप्ज्ञ-दशेनम् २७६
४२. भुक्तानां चाश्रयो विष्णुरधिक्रोऽधिपतिस्तथा ।
तद्रा एव ते स्वै सवदैव स इरः ॥
इति च ।
ब्रह्मा, शिव, इन्द्रादि क्षर कहलाते है क्योकि इनके शरीर नाशवान् है,
अनङ्षर शरीर होने के कारण लक्ष्मी अक्षरः है, हरि इन दोनों से परे ह ।॥३९॥
स्वतन्त्रता, शक्ति, विज्ञान, सु आदि स भोगुणोंके ईश्वरम असीम मात्रामे
होने के कारण सवंदा समी पद।थं उनके वश्च में रहते ह ।॥। ४० ॥'
"विष्णु को सभी गुणो से परिपूर्णं जानकर, पुरुष संसार ( आवागमन ) से
मक्त हो जाता है, दुःल से रहित आनन्द का भोग करते हए नित्यलूप से वह्
( पुरुष ) परमात्मा के पास सुख-मोग करता है ॥ ४१ ॥ मुक्त पुरुषो के आश्य
विष्णु ही है, सर्वोच्च स्वामीवेहीदह। उन्दींके वश मेवे सब हुमेक्ा के लिए
रहते है, वे ही ईश्वर द॥ ४२॥.
( ९२. पक के ज्ञान से सभौ वस्त॒भौ का ज्ञान--इसका अथं)
एकविज्ञानेन सवेविज्ञानं च प्रधानत्वकारणत्वादिना
युज्यते न त॒ सवेमिध्यात्वेन । न हि सत्यज्ञानेन मिथ्याज्ञानं
संमवति 1 यथा प्रधानपुरूषाणां ज्ञानाज्ञानाम्यां ग्रामो ज्ञातोऽज्ञात
इत्येवमादिव्यपदेशो च एव । यथा च कारणे पितरि ज्ञाते
जानात्यस्य पत्रमिति । यथा वा साद्ध्यादेकस्त्रीज्ञानाद् अन्यद्ी-
ज्ञानमिति ।
[ छान्दोग्योपनिषद् ( ६।६।४ ) मे एक. वाक्य है-'यथा सोम्येकेन
मृत्पिरडेन सवं मृण्मयं विज्ञातं स्यात्" । इसके पूवं मे वाक्ध है--एवे चाविज्ञातं
विज्ञातं भवति । इन उद्धरणो मे एक केज्ञान से सभी अविज्ञात वस्तुओं के
ज्ञान का वरन किया गया ह । इसका अर्थं अद्रैतवेदान्ती लोग जगत् को मिथ्या
मानते हृए करते ह । जगत् ब्रह्म करी शक्ति अविद्या से विवतंरूप से उत्पन्न हु
है, बह मिथ्या है इसीलिए वास्तव मे आत्माका ज्ञान ही सब कुछहै, उसे
जानने से ही. सों काज्ञान हो जाता ह-इसी के आधार पर जगत् को मिथ्या
मानते है । लेकिन मघ्वाचायं स श्रुतिवाक्य का दूसरे रूप मे अर्थं करते है,
दोनों के फलो या निष्कर्षो मे अच्तर हे । उनका कहना है कि | एक के जानने से
सनो का जानना इसलिए. युक्तियुक्त है कि प्रधानता या का्यकारण-सम्बन्ध
आदि होने के कारण एेसा कहा गया ह, इसलिए नहीं कि सब कुद मिथ्या है।
२८2 सवेदशनसंग्रहे-
इसका कारण यह है कि सत्य वस्तु ( जसे शुक्ति, ब्रह्म आदि ) केज्ञान से
मिथ्या वस्तु ( रजत, जगत् भादि) का ज्ञान सम्भव नहींदहै। [ सीपीको
जाननेसेचांदीको भी जान लेगा, एसी स्थिति कहीं नहीं है बल्कि यही ज्ञान
हो सकता है किं यह चाँदी नहीं है । दोनों ज्ञान एक दुसरे के विरोधी है । ]9
[ अब प्रधानता, का्यकारणसंवंध तथा सादृश्य के कारण उक्त श्रुति कैसे
युक्तियुक्त है इसका विवेचन करते ह-] जेसे किसी गव के प्रधान व्यक्तियों
को जाननेयान जाननेसे गाव कोही जानने या नहीं जानने का लौकिक-
प्रयोग लोगों मे साधारणतः देखा जाता है। पुनः जिस प्रकार कारणके रूप
मेँ पिताकोजान लेने पर उसके पुत्र कोभी जान लेते है अथवा जिस तरह
सादृश्य के कारणएक स्री को जान लेने पर दुसरी लिर्याका ज्ञान हो
जाता है ।
विरोष-एक विज्ञान से सबों का विज्ञान स्वरूप पर आधारित नदीं है,
फल पर ही निरभर करता है। एसी बात नहींहै कि एक वस्तु का स्वरूप जान
लेने पर सभी वस्तुओं का विधिवत् ज्ञान हो जाता है । बल्कि सबों के ज्ञान का
फल एक के ज्ञानसेही मिलताहै। प्रवान वस्तु के ज्ञान सेसबोंकाज्ञान
होता है, कारणकेज्ञानसे कायं का ज्ञान होता है तथा किसी वस्तुकेज्ञान से
उसकी तरह कौ अन्य वस्तुओं का ज्ञान होता है। खरी का लक्षण है--स्तनों भौर
केशो ( कोमल ) का होना,* इसे देखने से अन्य लियो के ज्ञान का फल मिल
जाता है । दूसरी लियो को देखने पर अपने आप पहला ज्ञान चला आता है ।
किन्तु इस साद्य के आधार पर जीव ओौर ईश्वर के बीच सादृश्य स्थापित
नहीं कर सकते । कुच बातों म एेसा हो सकता है, पर सभी पहलुओं से नहीं ।
ब्रह्म भौर जीव में चैतन्य, सत्यता, ज्ञान आदि की तुलना हो सकती है परन्तु
स्वतन्त्रता आदि कतिपय गुणो का साह्य नहीं है क्योकि श्रुति प्रमाण से
इसका विरोध होता है । अतः परमात्मा को सत्य रूप मे जानकर जगत् को भी
सत्य रूप में जान लंगे- यह सिद्ध है ।
तदेव सादृर्यमत्रापि विवक्षितं “यथा सोम्येकेन मृतिपण्डन
4 ५ विज्ञातं
सवं स्न्मयं विज्ञातं स्थात्" < छा० ६।१।४ ) इत्यादिन ।
अन्यथा सोम्येकेन स्िपिण्डेन सवं मृन्मयं विज्ञातम्" इत्यत्र
१. इसके विरुद्ध पतंजलि महाभाष्य मे कहते हयो हि शब्दाज्ञानात्यप-
शब्दानप्यसौ जानाति । ( पस्पशा्भिक, व्याकरणाप्रयोजन प्रकरण ) ।
२, तुलनीय--^स्तनकेशवती खरी स्याज्ञोमशः पुरुषः स्मृतः, ।
पूणप्रज्ञ-दशेनम् २८१
एक-पिण्डकश्चव्दौ था प्रसज्येयःताम् । श्ृदा विज्ञातया! इत्येता-
। £
वतेव वाक्यस्य पूणेत्वात् ।
उप्यक्त तीन प्रकार के सम्बन्धो मे सादश्य.सम्बन्ध ही इस निम्नलिखित
उदाहरणा में कहना अभीष्ट है-हि सौम्य ( प्रसन्नमुख शिष्य), जेसे मिरी के
एक पिण्ड को जानने से मिरी जाति का ही बोधहो जाता है" ( छा० ६।१।४)
इत्यादि । यदि रेषा नहीं होता ( = साद्य इसका कारणं नहीं होता, बल्कि
उपादानोपादेय-भाव कारण होता ) तब सौम्य, मिरी के एक पिर्डसे सभौ
मृरमय पदार्थो काज्ञानहो जातादहै' इस वाक्य में एक' भौर 'पिर्ड' शब्द
व्यर्थंहीहो जाते, केवल इतना कहने से ही वाक्य पएणंहो जाता--'मिहरीको
जानने से.“ ' ` ` * इत्यादि ।
विरोष-जब सादभ्य के कारण एकके जानने से सवोंका ज्ञान होना
मानेंगे तभी मही के क्रिसो एक पिड की अभिव्यक्ति दिललाकर (दूसरी अभि-
व्यक्तियां भी रेसी ही होती है" सा ज्ञान दूसरोके विषयमे हो जायगा । इस
प्रकार एक शब्द का अपना महत्व होगा । सारश्य केलिएभी भेदकी तरह
ही दो पदाथं होते ह-- एक धर्मी, दूसरा प्रतियोगी । भिदटरी के बने घंट आदि को
धर्मी बनाकर मिरी का पिड स्वयं प्रतियोगी हो जाताहै। मिहीका बना हुआ
पिडभीदहै, घट भी । पिडके साहश्यसेही मिदरीके दूसरे विकार घटका ज्ञान
होता है । अतः पिड शब्द मी सार्थक है।
दूसरी ओर, यदि उपादानोपादेय-सम्बन्ध से उक्त वाक्य की प्रामाणिकता
मानं तो एक ओौर पिड शब्दों की आवश्यकता नहीं रहेगी । इनके बिना भी
वाक्य का पुरा-पूरा अथं निकलता । “मृदा विज्ञातया स्वं मृरमयं विज्ञातं
स्यात्"--केवल इतना ही कहते । कहीं की थोड़ी मिटटी का ज्ञान उपादान
( 218९118] ८६०७९ ) होता ओर सारी मिह्ियों का ज्ञान उपादेय (€0€५७४)
होता । परन्तु 'एक' ओर "पिड' शब्दों का प्रयोग निरर्थक नही, अतः साहृर्य
संबन्ध ही विवक्षित है । इसके अलावे, एक ओर पिडश्षब्दोंमे विरोधमीही
जायगा । एक ही मृत्पिंड सभी मृरमय पदार्थो ( ष्धाला ०४८५४६७ ) का
उपादान कारणा नहीं हो सकता । मिद्री मृण्मय घट आदि का उपादान है, मिदर
का पिड नहीं । भिका पिड तो चट बनाने के समय रघ दिया जाता है पर
मिद्री ज्यो की त्यों रहती ह । नष्ट होने पर मिरी का विड कारण केसे होगा ?
न च "वाचारम्भणं त्रिकारो नामधेयं मृत्तिकेत्येव सत्यम्!
८ छा० ६।१।५ ) इत्येतत्कायेस्य मिथ्यात्वमाचष्ट इत्येष्टव्यम् ।
२८२ सवेदशेनसंग्रहे-
वाचारम्भणं विकारो यस्य तदविृतं नित्यं नामधेयं मत्तिकेत्या-
दिकमित्येतद्चनं सत्यमित्यथंस्य स्वीकारात् । अपरथा नाम-
धेयमितिन्ब्दयोर्वेयथ्यं प्रसज्येत । अतो न त्रापि जगतो
मिथ्यात्वसिद्धिः ।
ठेसा नहीं समभ कि निम्नलिखितं वक्रय मे कायं ( संसार ) कामिथ्यारूप `
होना कहा गया है- { घटादि } विकार केवल शब्दों मे अवस्थित ( शाब्दिक )
नाममात्र हि, वास्तवमेंतो [उन विकारो कारणके रूपमे विद्यमान |
मृत्तिका ही सत्य है ( छा० ६।१।५)। [ शंका करने वालों का यह कथन है
कि वाचारम्भणाम्० वाला वाक्यं "यथा सोभ्येकेन°' वाले वाक्य का पूरक है
उसका दृष्टान्त है । घट, सुराही, सिकोरा, कटोरा आदि बतंनों का कारण एक-
माच मिद है; जिसे जान लेने पर सव बतैनों का (मिटौ से बने हुए बर्तन का )
ज्ञानदो जाताहै। कारणंका ज्ञान होने परकायं का ज्ञान हो ही जायगा
क्योकि का्यं-कारण परस्पर सम्बद्ध होति है। अतः कारणल्प भिद्री सत्य है
उसके विकार मिथ्या । इस पर पृणंप्र्ञ-दार्शनिक कहते हैँ किं ठेसी बात नहीं
है-- इसका कारण अगे देखे । |
कारण यह है कि इसका अर्थं हम दुसरे रूपमे स्वीकार करते ह।
वागिन्दरिय से उच्चारण करना विकार ( उत्पादने ) है, [ अभिग्यंजन नहीं |।
यह् विकार जिष पदाथका होता है बहु ( पदार्थं) अविकृत ( संस्कृत ) है
नित्य है, नाम है जैसे मृत्तिका. इत्यादि, यह वाक्य बिल्कुल सत्य है। यदि
एेसा अर्थं नहीं रखे तो नामषेय' ओौर “ईइति" दोनों शब्द व्यथं हो जायगं ।
इसलिए कहीं भी ( किसी श्रुतिवाक्य से ) संसार को मिथ्यारूप सिद्ध नहीं कर
सकते । [ शब्द के दो स्वल्प ह-- असंस्कृत ( अनित्य ) ओौर संस्कृत ( नित्य ) ।
अनित्य शब्दों का वागिन््रिय से केवल उत्पादन होता है, ये उत्पत्ति-विना
होने के कारणा ही अनित्य (००-९॥९)8]) कहलाते है । "मृत्तिका" आदि
नित्य शब्दों का उत्पादन नहीं होता, उनकी अभिव्यक्ति (1811) {8४९10}
होती है क्योकि उत्पत्ति-विनाश इनका होता ही नहीं । इस आकार में रहने वाला
शब्दस्वरूप पदार्थं का वास्तविक नाम है। यही अविकृत ओर नित्य भीहै।
नामधेय संस्कृत ( नित्य ) ओौर असंस्कृत. ( अनित्य ) दोनों शब्दों से पड़ता है
परन्त् योग्य नामधेय नित्य शञब्दका ही है "विश्वविद्यालय मे. सत्यदेवजो ही
अव्यापक दै, दूसरे लोग छायामाव्र है" इस वाक्य मे "अध्यापकः का अथं
योग्य अध्यापक है। यदच्चपि सभी अष्यापकहौ है परन्तु अयोग्यता के कारण
उन्हें रेखा नहीं कहते । इसलिए उद्दालक श्वेतकेतु को कह रहे है किः वागिन्द्रिये से
~, 1 ^
च = # 13, क ज ध्न "च ककः #।
पूणंप्रज्ञ-दशेनम् २८३
उचारण करना ( वाचारंमण ) विकार ( =विङृति, अनित्य ) है, नामधेय तो
मृत्तिका आदि शब्द ( नित्य शब्दस्वह्प | ही है,--यह वाक्य जो मैने कहा
यही ठीक है, क्रूठा नहीं । यदि शका करने वालों के अनुसार वाचा रम्भणं
विकारः, मृत्तिका सत्यम्-विकार केवल शाब्दिक या मिथ्या है, सत्यं तो मृत्तिका
हौ है )--एेसा अथं करं तो उक्त वाक्य मे "इति" मौर "नामधेयम् शब्द व्यथं
हो जायेगे । बद्ैतवेदान्वयो के द्वारा दिमा गया अथं यहां देख ही चके । हम
अथं करते ह--शरृत्तिका इत्येव नामघेयम्”, यहां नामवेय शब्द विधेय हो जाता
है। अद्ैत-पक्ष मे इसकी कोई उपयोगिता ही नहीं रहती । इति" का हमारे
यह यह उपयोग है कि "मृत्तिका" को इसी के द्वारा शब्द के रूपमे लेते है।
मृत्तिकेति = “मृत्तिका' इति शब्दः । ] |
` विदहोष--दस प्रकार “वाचारम्भणं विकारः' को पूरवंवाक्यका पूरक न
मानकर स्वतन्त्र दृष्टान्त मान लेते ह । अविकृत ओर नित्य होने के कारणा
शृत्तिका" शब्द संस्कृत ( प्रधान ) नाम है। असंस्कृत नामोंके जाननेकाजो
फल है वह संस्कृत नाम को जाननेसेही प्राप्त हो जाता है। उसी प्रकार संसार
को जानने का फल परमात्मा के ज्ञानसेप्राप्यहै। किसी रूपमे संसार मिथ्या
नहीं, बह सत्य ( 1२6५1 ) ही है ।
( १३. मिथ्या का खण्डन }
किं च प्रपञ्चो भिथ्येत्यत्र मिथ्यात्वं तथ्यमतथ्यं वा।
प्रथमे सत्यद्रेतभङ्गप्रसङ्गः । चरमे प्रपश्चसत्यत्वापातः । नन्व-
नित्यत्वं नित्यमनित्यं बा । उभयथाप्यनुपपत्तिरित्याक्षेपवदय-
मपि नित्यसमजातिभेदः स्यात् ।
तदुक्तं नयायनिमाणवेधसा--“नित्यमनित्यभावादनित्ये
~--- कष्या = गि [0
१. "इति" शब्दं की ` उपयोगिता केवल उद्धरण देने मँ ही नहीं है, प्रव्युत
वदार्थो का विपर्यय भी येह करता है । जब किसी शब्द से शब्द का ही अथं
निकलता ह तब उसमे इति लगा देने पर अर्थपरक अथं हा जातां है । "अग्नेदंक'
( पा० सुऽ ४।२।३३ ) कहने पर “असि शब्द ( अर्थं नहीं) से ठक् प्रत्यय
विहित है । उसी प्रकार "न वेति विभाषा' ( १।१।४४ } कहने पर भी न' ओौर
वा, शब्दों की प्राति होती है जब किं इति के प्रयोग के कारण यहाँ न = निषेध
ओर वा-विकल्प अथं लेते है, शब्द से काम नहीं चलता । "गवित्ययमाह, मे अथं
कर प्राति को इतिं शब्द हौ रोकता है ओौर शब्द की प्राति कराता है।
न्न पवी क~ नि ~, ~ किन छ >
ग्वा यिं ५4
क्क ह १ 9
र्स्थ सबेदशंनसंम्रहे ग्ररे~
नित्यत्योपपततेर्नित्यसमः' (न्या० घू° ५।१।३५) इति । तार्कि-
करक्षायां च-
४३, धमेस्य तदतद्ूपविकस्पानुपपत्तितः ।
धरमिणस्तद्िशिष्टत्यभङ्गो नित्यसमो भवेत् ॥ इति ।
अस्याः संज्ञाया उपलक्षणत्वमभिप्रेत्याभिदितंप्रबोधसिद्रा-
वन्वधित्वात्ुपरञ्जकधमसमेति । तस्मादसदृत्तरमिति चेत्-- ।
इसके अतिरिक्त हम यह पृ कि भ्रपंव (संसार) मिथ्या इस
वाक्ये (मिथ्या होना' वास्तवमें तथ्य ( ५०४ ) है या नहीं( = ठा
है)? यदिप्रपंच का मिथ्या होना सत्य मानते है तो सत्य अद्वैत का खण्डन
होता है। [ वास्तव में सत्य एक होता है । अदैतवादी केवल ब्रह्म या अद्ेत-
तततव को ही सत्य स्वीकार करते है । यदि प्रपंच का मिथ्या होना भी सच मान
लं तो पहले सत्य कारभंगहोजाताहै। एकसाथही दो-दो सत्योंको मानने
का प्रंग आ पड़ेगा । ] दूसरी ओर यदि प्रपंच का मिथ्या होना श्लुठ समञ्च लं
तव प्रपंच को सत्य ही मानना पड़ेगा [ जिससे मायावादका आधारही नष
हो जायगा ] ।
कु लोग एेखा तकं कर सकते है कि हमारे द्वारा प्रस्तुत उप्ुक्त द्विविधा
( 01०8 ) ठीक निम्नांकित द्विविधा की तरह हौ `नित्यसम' नामक
जाति ( न्यायल्ाख्र का एक दोष ) का उदाहरण हो जायगा-अनित्य होना
क्या नित्य है या अनित्य? दोनों हौ विकल्पों की असिद्धि होती है ( एसा तकं
दोषपूर्णहो जाताहै।) [ कहने का अभिप्राय यह् है कि अनित्यत्वं को यदि
नित्यया अनित्यके रूपमे लेकर तकं द्वारा दोनों पक्षो का खरडन कर दिया
जाय तो यहु उचित ढंग नहीं दहै, न्यायशाल्रमें कही गयी जाति नामक दोषों
की कोटिमे यह आ जायगा) दूसरोके द्वारा किये गये प्रहन का असमीचीन
( गलत ) उत्तर देना जाति' है । उत्तर इसलिए गलत माना जाताहै कि
दोष उसमे नहीं दिखला सकते । गौतम ने न्यायसूत्र के पंचम अषघ्याय के प्रथम
आधिक मे इस जाति के २४ भेद बतलाये हँ । उनमें एक भेद 'नित्यसमः'
भीटहै। यहां यही जाति लगती है। यदि श्रपंच का मिथ्या होना' उसी प्रकार
तथ्य या भतथ्य मानक्रर खरिडत करदं तो नित्यसम जाति हो जायगी । अब
नित्यक्षम जाति के विषय में कुच विचार कर लं । ]
न्याय्ञाख के निर्माण में ब्रह्मा बाबा की तरह पूज्य [ गौदम | कहते है-
अनित्य होने के कारण [ अनित्यत्व ] नित्य है, क्योकि अनित्य में नित्यत्व की
प्णप्ज्ञ-दशेनम् र८५
। होती है, इस प्रकार का तकं करना नित्यसम कहलाता टै ( गौतमीय
न्यायसूत्र, ५।१।३५ ) । | अभिप्राय यह है किं स्वयं अनित्यत्वं ( }\0.-
छछाकःध्र ) को स्थायी मान लेते है, वह इस आधार पर कि अनित्यत्वं भले
हौ अस्थायी हो परन्तु अनित्यत्व के अभाव की अवस्था में शब्द अनित्य नहीं
मानः जा सकता । ] इसे वरदाचायं ( १०५० ई६० ) ने अपने ताक्रिकरक्ञा नाम.
के अ्रन्थ में पल्लवित किया है--'जब धमंका ( जो शब्दगत है तथा अनित्यत्व
के रूपमे है) तद्रूप होना ( = अनित्य होना ) या अतदूष होना ( नित्य होना ),
ये दोनों विकल्प असिद्ध हो जति है तब धर्मो ( शब्दं ) का उन विकल्पों के
द्वारा विभरषित होने कौ दशाओं का लरडन होता है, इसे ही नित्यसम कहते
ह । | अनित्यत्व अनित्य है या नित्य इन दोनो मे कोई भी सिद्ध नहीं होता)
उलटे इनसे विरुद वाक्य क सिद्धि हो जाती है|
दसी संज्ञा ( = नित्यसम )} को आदं मानकर प्रबोधसिद्धि नाम के ग्रन्थ
न कहा है किं अथ॑ के अनुसार. | प्रस्तुत प्रसंग मे नित्यसम के समनदही।
उपरजकसम नाम कौ जाति मानें । अतः दू्वेपक्नी लोगो का यहं कहना हैकि
भिथ्यां के खण्डन के लिए आपक्रा तकं असंगत है।
विकोष- मिथ्या का खण्डन करने के लिए पूरं यही तकं देते | =
प्रप मिथ्या है" ( प्रपञ्चो मिथ्या )
इस वाक्य मँ मिथ्यात्वं तथ्यदहै या अतथ्य । उपयुक्त विवेचन मे दोनों
विकल्पो कौ निस्सारता देखी जा चुकी है । भब मिथ्या को मानने वजि लोग
कहते है कि इस तकं से मिथ्या का खरडन करने पर न्यायश्चाख्र के अनुसार
नित्यसम नामक जाति ( -दोष ) होगा । नित्यसम में टीक एेसा ही होता है--
अनित्यः शब्दः' इस वाक्य में पूं कि यह अनित्यत्व स्वय नित्य है या अनित्य?
यदि नित्य है तो धमं ( अनित्यः) के नित्य रहने पर घर्मा ( शब्दः) को भी
नित्य ही मानना पड़ेगा, क्यो न हो, धर्मी ओर धमं तोएकही तरह के रर्हैगे
न? ओर प्रतिज्ञाके ठीक विपरीत “नित्यः शब्दः" सिद्ध हो गया । दूसरी ओर
अनित्यत्व यदि सदा नहीं रहता ( अनित्य होता ) तो अनित्यामाव अर्थात् नित्य
शब्द की ही सिद्धि होगी ( अनित्यता करौ अनित्यता = नित्यता ) किसी मी दशा
मं ठेसा तक करना नित्यसम ह, यह दोष है । नित्य तक प्ुचना नित्यसम है ।
प्रमोधसिद्धि में नित्यसम की तौल का ही एकं शग्द उपरंजकस्षम दिया गया
है जिसका अथं है एेसा उत्तर देना जिसमे धर्मं कौ उपरंजकता का प्रतिषादन हो ।
उपरंजक उसे कहते है जो विकल्पों का विचार उठने के पूवं तकदही अच्छा
लगे ) 'प्रपच्चो मिथ्या या अनित्यः शब्दः आदि वाक्यों मे धमं ( मिथ्या
२८६ सवदशनसंग्रहे-
अनित्य ) तभी तक लुभा सकता है जब तक विकल्प नहीं आते । विकल्पों के
आति ही ठीक उलटे अमिथ्या या नित्यको सिद्धि हो जाती र इस प्रकार पू॑षक्षी
पूणंप्रज्ञ के मिथ्याखरडक तकं को असतु कहते है । अब पूणंपरज्ञ इसका उत्तर देंगे ।
अशिक्षितत्रासनमेतत् । दुष्टत्वमृलानिरूपणात् । तद् दिबिधं
साधारणमसाधारणं च । तत्राद्यं स्वन्याघातकम् । द्वितीयं तरिविधं
युक्त ङ्गदीनत्वमयुक्ताङ्गाधिकत्वमविषयदृ्तितवं चेति ।
तत्र साधारणमसंभावितमेव । उक्तस्याक्षेपस्य स्वात्मव्याप-
नाचुकम्भात् । एवमसाधारणमपि । घटस्य नास्तितायां नास्ति
तोक्तौ असितित्ववस्प्रकृतेऽप्यु पपत्तेः 1
[ पूरणप्रज्ञ उत्तर देते है कि इस प्रकार जाति ( गलत उत्तर ) का आक्षेप
लगाने से ] मूष लोग ही डर सकंगे ( हमारा इससे कु होना नहीं है ) । आपने
दोषके मूलका तो प्रतिपादन किया हीनहीं। [दोषके. बीजका निरूपण
बिना किये हुए किसी उत्तर को गलत ( जाति ) नहीं कह सकते | । अब्, दोष
का मूल दो प्रकारका हो सकता है-साधारण ( 61618] ) भओौर
असाधारण ( ४४ 0पाश्षः ) । इनमें जो पहला ( साधारण दोषमूल ) है वह्
अपने आपका ही विनाशकं है [ क्योकि जिसके लिए इसका प्रयोग होता है
उसको व्याप करने के साथ-साथ अपने को भी व्याप्त कर लेता है। इसलिए यह
उत्तर आत्मघातक होने से ठीक नहीं। यदि कोई विरोधी अपने अभिमत की
सिद्धि के लिए कृद तकं उपस्थित करता है तो उसके तकं की अप्रामाशिकता
कंसेहीसिद्धकी जा सकती है। अब यह अप्रामाणिकता केवल विरोधी के
तकंकोही नहीं व्याप्त करती, प्रत्युत उस तकंकी अप्रामाणिकता सिद्ध करने
वाले अपने तकं को भौ समेटलेती है,
दूसरा भेद ( असाधारण ) तीन प्रकार का है--अ1वश्यक ( युक्त ) अंग से
रहित हो सकता है या कोई अनावद्यक अंग उसमे अधिको सकताहै या
विषय ( असंगत स्थान ) मे उसकी वृत्ति (चाल, गति) हो सकतीदहै,
[ इष प्रकार असाधारण दोषमूल भी ठीकं नहीं जंचता । |
प्रस्तृत प्रसंग मे साधारण' दोष को प्राप्ति नहीं होती क्योकि यहाँ द्यि गये
आक्षेप मे अपने आपको व्याप्त करने की शक्ति नहींहै। [ साधारण वहीहैजो
पर की तरह अपने को.भी व्याप्त करे। प्रस्तुत स्थल मे श्रपञ्चगत मिथ्या तथ्य
है या अतथ्य इसमे प्रपंचगत मिथ्याको ही दूषित कर सकते है, प्रपंचकी
सत्यता ८ जिसे इषित करना अभीष्ट है ) का इससे कुछ नहीं बिगडतां । अतः
पूणप्ज्ञ-दशेनम् २८७
अपने अभीष्र दूषणीय पदार्थ--प्रपच्च कौ सत्यता--को व्याप्तन कर सक्नेसे
'्याधारण-दोष की प्राति नहीं हो सकती । प्रपञ्च को- सत्यता पर लगाये गये
आरोप व्यथं ह।|
"असाधारण, दोष कौ भी प्रवृत्ति नहीं होगी क्योकि यदि वास्तव में | उदाह-
रणाथं ] घट नहीं रहे भौर हम करे कि घट नहीं है तो यह निषेध-कल्पना घट
वर उसी श्रकार आरोपित होती है जिष प्रकार अस्तित्व की कल्पना । ठीक
इसी प्रकार यहाँ भी सिद्धि होगी । [ असाधारण दोष अपने अभीष्टा्थं को दूषित
नहीं करता, फिर भी द्रो की बातोंको भी दूषित नहीं करता क्योकि कहीं
तो उषे आवश्यक अंग नहीं रहता जेते- कोई प्रतिपक्षी पहाडमे अग्निका
अभाव सिद्ध.कर चुकादो ओर हम अग्नि कौ सत्ता सिद्ध करते हुए कँ किं
पहाडम अग्नि है जसे रसोईघर मे ; यहाँ एक आवहयक अंग हेतु-- धूमवान्
होने के कारण'--दूट गया जिससे यह उत्तर न तो अपने अभीष्ट अग्नि को सिद्धि
ही कर सक्ता है ओर न प्रतिपक्षी के अभीष्ट अग्नि के अभावः को हौ दोषपुणं
दिखा सकता-- यह युक्तांगरहित ` असाधारण दोष है । कहीं-कहीं उसमे अना-
व्यक अंग जुड़ा रहता है जेसे--उपयुंक्त स्थल के उत्तरमे यह कँ करि पहाड़
मे अग्नि है क्योकि वहाँ धूम हैः तथा प्रकाश मी है वहु पाथिव भीः है जेसाकि
रसोईघर । "यहाँ प्रकाश भी है! यह अनावदयक अंम अधिक है किन्तु यह अपने
अभीष्ट अन्निकी सिद्धिभी नहीं करता ओर पराभिमत "अग्नि के अभाव" को
दूषित भी नहीं करता । हां, यह् अधिकांग अपने उत्तर में वक्ता का अविश्वास
प्रकट करता है--इसमे योग्यता नहीं । कहीं-कहीं उसमे अविषय में वृत्ति होती ट
( अपने विषय से सम्बन्ध नहीं रहता ) । उदाहरणाथं यदि उत्तर मे यहं कँ कि
पहाड़ पाथिव है क्योकि घट कौ . तरह गन्धयुक्त है तो यह उत्तर अपने अभीष्ट
( अभ्युपगत ) अग्नि से संबद्ध नहीं है ओौर न दूसरे के अभीष्ट अग्नि के मभाव
से ही असंबद्धटै। अतः न यह अग्नि कौ सिदि करता ओर न अग्नि
के अभाव को ही दूषित कर पाता । प्रस्तुत प्रसंग मे मिथ्या तथ्यटहैया अतथ्य'
थह उत्तर न तो आवश्यक अंग से रहित है, न अनावद्यकं अंग से युक्त मौरन
परपंच की सत्यता विषय से ही असंबद्ध । तब फिर असाधारण दोष क्यो होगा?
विकल्प की उद्धावना करने से प्रपच के मिथ्यात्व को दूषित कर देने पर प्रपच की
सत्यता की सिद्धि हो जायगी । |
नच प्रपञ्चस्य मिध्यात्वमभ्युपेयते नासमिति चेत्, तदे-
तत्सोऽयं सिरद्छेदेऽपि शतं न ददाति, विंशतिपश्चकं तु भ्रवच्छ-
रणम सवंदशनसंग्रहे-
तीति शाकटिकवृत्तान्तमनुहरेत् । मिध्यालास्षखयोः पर्यायत्वा-
दित्यरमतिग्रपश्चेन ¦
अब यदिवे लोग कहंकिं हम प्रपंच क्रा मिथ्या होना सिद्ध करते है, असत्
होना नहीं--तो यह ठीक वैसा ही हुआ जेसा कोई गाड़ीवान सिर काटे जाने
पर भी सौ रुपये नहीं देता, किन्तु वाच बीस ( बीत ›‹ पाच = १००) देने के
लिए तुरत तेयार हो जाता है । मिथ्या ओर असत् दोनों का अथंशकहीतो
है--अब अधिक बढ़ाकर वयां कटं ?
विरोष-शंकराचायं के अनुसार मिथ्या ओौर असत् मै अन्तर है--जगत्
मिथ्याहै, किन्तु असत् नहीं क्योकि व्यावहारिक दश्चा मेँ तो उसकी सत्ता है। `
असत् वह है जो किसी भी दशाम न रहे जैसे वन्ध्यापुत्र, शशश्छंग आदि ।
पारमाथिक दशा में जिसकी सत्तान हो वह भिथ्याहै। परन्तु मध्व दोनोंको
एक मानकर ध्यंग्य करते हैँ कि मूखं गाड़ीवान सौ रुपये देता नही, ५५२०.
देने को तेयार हो जाता है-उसे १०० ओौर पाँव-बीस में बड़ा अन्तर मालूम
पडता है । मिथ्या ओौर असत् को एक मानने पर फल यह होता है कि मिथ्यात्व
को दूषित करके सत्ता की सिद्धि हो जाती है । अतः यह उत्तर जाति" (५।।६.
0००३) नहीं है, वस्तुतः भिथ्यात्वं तथ्यमतथ्यं वा" आदि तक के द्वारा मिथ्या
का खरडन संभव है, ( प्रपंच ) संसार की सत्यता इसी से सिद्ध हो जायगी ।
( १७. ब्रह्मसूत्र के प्रथम सूत्र का अर्थं )
तत्र॒ (अथातो ब्रह्मजिज्ञासा" ( ० घ १।१।१ ) इति
प्रथमसत्रस्यायमथेः । तत्राथश्ञब्दो मङ्गलयर्थोऽधिकारानन्तयाथेश्
स्वीक्रियते । अतःशब्दो हेत्वथः । तदुक्तं गारुड--
४४. अथातःशब्दपूबोणि प्राणि निखिखान्यपि ।
प्रारभ्यन्ते नियत्येव तत्किमत्र नियामकम् ॥
४५. कश्चाथस्तु तयोर्विदन्कथषुत्तमता तयोः ।
एतदाख्याहि मे ब्रह्मन्यथा ज्ञास्यामि तदतः ॥
अब अथातो ब्रह्मजिज्ञासा" ब्रह्मसूत्र के इस प्रथम सूत्र क्रा थह मर्थं है-
इसमे अथ” ( इसके बाद ) शब्द मंगल का द्योतक ( व्यंजक ) है गौर [ ब्रह्म
ज्ञान के | अधिकारकी प्राप्ति केबादका वाचकटहै। [ अथ शब्द का अर्थं
मंगल नहीं है वह केवल इससे व्यक्त होता है । वास्तव मे उसकां वाच्याथं है--
आनन्तयं अर्थात् इक्के बाद । पर प्रहन उठता है किसके बाद ? ब्रह्मज्ञान का
पूणेमरज्ञ-दशेनम् २
अधिकार मिलने के बाद ही ब्रह्म की जिज्ञाषा करनी चाहिए । ] अतः" (इसलिए)
शब्द का अथं है प्रयोजन । जैसा करि गख्डपुराण मे कहा गया है-'सभीः
सूतरप्रन्थ नियम ( नियति ) से अथ ओर इति" शब्दों के द्वारा आरम्भ होते है,
इसका क्या कारण है? [नारद ब्रह्मा ते पूते ह ]--'हे विदन् ! इन दोनों
का कया अथं है, इन दोनों को उत्तमता (श्रेष्ठता ) का क्था कारण है? हे
ब्रह्मन् ! आप यह बतलावें जिससे म ध्नका रहस्य जान जाऊ ॥'
४६. एवुक्तो नारदेन ब्रह्मा प्रोवाच सत्तमः ।
आनन्तयीधिकारे च मङ्गलार्थे तथेव च ॥
अथचब्दस्त्वतःशब्दो हेत्वर्थ समुदीरितः । इति ।
यतो नारायणग्रसादमन्तरेण न मोक्षो रमभ्यते प्रसादश्च
्ञानमन्तरेण, अतो ब्रह्मजिज्ञासा कतेव्येति सिद्धम् ।
नारद के द्वारा इस प्रकार पठे जाने पर सजनो मं रेष्ठ ब्रह्मा बोले-
“आनन्तयं, अधिकार ओौर मंगल के अर्थम "अथ ' शब्द होता है ओौर अतः"
शब्द हेतु के अर्थं में प्रयुक्तं होता हे ।"' दकि नारायण के प्रसाद के बिना मोक्ष
हीं मिलता ओौर ज्ञान के बिना यह प्रसाद नहीं मिलता, इसलिए ब्रह्य को
जानने की इच्छा करनी चाद्िए, यह सिद्ध हो गया ।
विद्तोष--किसी शाख मे चार अनुबन्ध होते है--विषय, प्रयोजन, अधिकारो
जर सम्बन्ध । वेदान्तशाख्न का विषय ब्रह्म टै) ब्रह्म जीव से पृथक् ओर सभी
गुणो से पूं है, शरुतिवाक्य “तद्विजिज्ञासस्व तद् ब्रह्म" ( ते° ३।१।१ ) के द्वारा
उसका प्रतिपादन होता है । उसके अस्तित्व मे कोई सन्देह नहीं है। सूत्रम भी
जिज्ञास का विषय ब्रह्म को ही बनकर ब्रहमाजिज्ञसा' पद क! प्रघोगण क्रिया गय।
है। इष शार का प्रयोजन है मोक्ष को प्रापि, वरयोकि "तमेवं विद्वानमृत इर
भवति" ( न° पू० १।६ ) ईस श्रुति में ब्रह्मज्ञान से मोक्षलाभ का वर्णनं
किथा गथा है। ब्रह्मज्ञान हो जाने पर जञानियों को ब्रह्यके प्रसादसे मोक्ष
मिलता हे। कहा भी है-- यमेवैष वृणुते तेन लम्यः' ( का० २।२३ )। जिस
अक्त पर परमात्मा प्रसन्न होति है उसे अपनाते है, उसौ भक्त को परमात्मा मिल
सकते है । प्रम बदानेसेही कृपा होती है, परमातमा प्रसन्न होते है । ब्रह्मज्ञान
होने पर प्रेम ब् ही जायगा । गीता ( ७।१७ ) मं कहा हे- प्रियो हि ज्ञानिनोऽ*
त्य्थमहं स च मम प्रियः । वेदान्त का यह प्रयोजन "अतः" शब्द के दारा व्यक्त
किया गथा है 1 विषय गौर प्रयोजन की सत्ता होने पर अधिकारी की सम्भावना
कठिन नहीं । इसके बाद अधिकारी ओौर शास्र का सम्बन्ध निशित ही होगा \
१६ स सं
२६० सबदशेनसंग्रहे-
इस प्रकार चारों अनुबन्धो के सिद्ध होने पर शाख का आरम्भ करना बिल्कुल
संगत है।
ब्रह्मविद्या के अधिकारियों में देवता उत्तम, ऋषि-गन्धवं मध्यम तथा मनुष्य
मन्द या अधम है। अधिकारियों मे (१) विष्णुमक्ति, (२) अध्ययन, (३) शमद-
मादियोग, (४) संसार की असारता ध्यान में रलते हृए वैराग्य लेना तथा
(५) विष्णु के चरणों मे एकमात्र शरण लेना--ये गुण आवश्यक ह । प्रथम दो
गुणों की अधिकता से अधम, तृतीय की अधिकता से मध्यम ओर अन्तिम दोनो
को अधिकता से उत्तम अधिकारी होता है।
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( १५. ब्रह्म का लक्षण )
जिज्ञास्यब्रह्मणो लक्षणयुक्तं जन्माद्यस्य यतः ( ब्र° घ
१।१।२ ) इति । सृष्टिस्थित्यादि यतो भवति तद् ब्रह्मेति
वाक्याथः । तथा च स्कान्दं वचः-
७, उत्पत्तिर्थतिसंहारा नियतिज्ञोनमावरतिः ।
बन्धमोक्षौ च पूरुषाद्यमात्स हरिरेकराट् ॥
यतो वा इमानीत्यादिश्रुतिभ्यश्च ।
हि । | | जिस ब्रह्म की जिज्ञासा की जाती है उसका लक्षण बतलाया गया है- "इस
| | ( संसार ) के जन्म आदि जिससे हुआ करते है" ( ब्रर्सु° १।१।२ ) वाक्य का
ह (॥ अथं यह् है किपृष्टिः स्थिति आदि जिषसे हों वही ब्रह्म है । स्कन्दपुराण की
|| उक्ति भी है- “जिस पुरुष से उत्पत्ति, स्थिति, संहार नियंत्रण, ज्ञान, अज्ञान
¶| { आवृत्ति ), बन्ध तथा मोक्ष उत्पन्न होते है, वे ही एक मात्र स्राद् हरि है)
यही नहीं, श्रुति का प्रमाण भी है-- जिससे सभो जीव `" ( ते०° ३।१।१ )
विरोष-्ंकर जन्मादि का अथं केवल सृष्टि, पालन ओौर संहार लेते है ।
चि देख - 'जन्मस्थितिभ ङ्ख समासार्थः । --- `` -शरुतिनिर्देशस्तावत् “यतो वा इमानि
भूतानि जायन्ते इति, अस्मिन्वाक्ये जन्मस्थितिप्रलयानां क्रमदश्ेनात् 1 ` `` `` अन्ये-
घामपि भावविकाराणां त्रिष्वेवान्त्ीवः इति जन्मस्थितिनाशानामिह ग्रहणम् ।'
{ शारीरकभाष्य, १।१।२ ) । दरैतवेदान्ती सखीचर्खाच करके आठ उत्पन्न पदार्थं
लेते है। योंतो भौर भी संमवरहै। जो श्रुति इसका आधार है वह यह है
यतो वा इमानि भूतानि जायन्ते, येन जातानि जीवन्ति, यसप्रयत्यभिसंविशन्ति"
{ तै० ३।१।१ ) । तात्पयं यह है किं उसी ब्रह्म से सारे पदाथं जन्म लेते दै, जन्म
पृणप्रज्ञ-दशेनम् २६१
लेने पर जीतिर्है, उसी में लीन होकर प्रवेश कर जाते है । स्पष्टतः तीन ही विकारो
। कावर्शन किया यया है। पर भध्वपक्षी “य आदित्यमन्तरो यमयति" ( बृ
३।७।९ ) इत्यादि श्रियो के द्वारा नियमन आदि भावोंका संग्रह करतेरहँ।
( १६. बरह्म के विषय मे प्रमाण )
तत्र प्रमाणमप्युक्तं “शाख्लयोनित्वात्' ( च घू° १।१।३ )
इति । 'नवेदविन्मनुते तं ब्रहन्तम्' ( ते० ब्ा° ३।१२।९।७ ),
“तं स्वौपनिषदमू' ( ब ३।९।२६ ) इत्यादिशरुतिभ्यस्तस्यालुमा-
निकत्वं निराक्रियते । च चानुमानस्य स्वातन्त्येण प्रामाण्य
मस्ति । तदुक्तं कोर्म-
४८. श्रुतिसाहाय्यरहितमनुमानं न त्रचित् ।
निश्वयात्साधयेदथं प्रमाणान्तरमेव च ॥
४९. श्रुतिस्रतिसहायं यत्प्रमाणान्तरत्तमम् ।
प्रमाणपदवीं गच्छेनात्र कायां विचारणा ॥ इति ।
उस ( ब्रह्म) के विषयमे प्रमाण भी कहा गया है--शास्त्ों मे इसका
खोत है ( शास्त्ोंसे वह ब्रह्यज्ञेयरहै) (ब्र° सू० १।१।३)। “उस महान्
पुरुष को वेद नहीं जानने वाला व्यक्ति नहीं जान पाता (ते° ब्रा० ३।१२।९।७)”,
“उपनिषदों मे वशित उस पुरुष को ( बु° ३।९।२६ )' आदि श्रुतियो से इस
बात का खण्डन होता दहै कि वह अनुमानके द्वाराज्ञेय है। [ अशास्तरज्
व्यक्तिके द्वारा ब्रह्यका अज्ञेय होना, उपनिषदों के दारा उसका ज्ञान आदि
बाते स्पष्ठ ख्पसे घोषित करती कि ब्रह्म एकमात्र शास्त्रोके द्वारा ही समधि-
गम्य ( जानने योग्य ) है, अनुमान द्वारा इसका ज्ञान नहीं होता । |
अनुमान स्वतंत्र रूपसे प्रमाण है भी नहीं। करुमे-पुराणमेतो कहाही
गया है - श्रुति ( शब्द प्रमाण ) की सहायता से रहित होकर अनुमान या
कोई भी दूसरा प्रमाण ( प्रत्यक्षादि ) निशित रूप से [ अदृष्ट विषय कौ | किंसौ
वस्तु कौ सिद्धि नहीं कर सकता ( प्रामाणिक नहीं हो सकता } । श्रुति-स्मृति
की सहायता मिलने पर ही कोई दूसरा प्रमाण ( प्रत्यक्षादि ) अच्छा हौ सकता
है ओर प्रमाण की कोटिमेे जा सकताहै, इसमें विचार ( संदेह) नहीं
करना चाहिए ।
२६२ | सवेदशेनसंम्रहे-
शाखस्वरूपमुक्तं स्कान्दे
ऋग्यजुःसामाथवा च भारतं पाश्चरात्रकम् ।
भूररामायणं चैव॒ शाखमित्यभिधीयते ॥ `
५१, यचानुक्लमेतस्य तच्च शास्रं प्रकीतितम् ।
अतोऽन्यो ग्रन्थविस्तारो नेव शास्त्रं कबत्मं तत् ॥ इति ।
शास्त्र का स्वरूप स्कन्दपुराण में कहा गया है-- ऋगवेद, यजुर्वेद, सामवेद
ओर अथववेद; महाभारत, पंचरात्र भौर मूलरामायण ( वाल्मीक्रि रामायणं का
प्रथम अध्याय )- येही ग्रन्थ शाख कहलाते है, जो म्रन्थ इनके सिद्धान्तो के
अनुकूल है वे भी शाख ही ह । इनके अतिरिक्त जो भी ग्रन्थों का समूह दै, वह
शाख नहीं है । उन पर चलना कुमागं पर चलना है । [ अपने शालो का उन्ञेल
इस प्रकार हुमा । |
तदनेन, “अनन्यलभ्यः शाल्ञाथंः' इति न्यायेन भेदस्य
प्राप्रतेन तत्र न तात्पयं किन्तु अद्रेत एव वेदवाक्यानां तात्प-
मू--इ्यद्ेतवादिनां प्रत्याश्चा प्रतिधिप्ता । अनुमानादीश्वरस्य
सिद्रयभावेन तद्धेदस्यापि ततः सिद्धयभावात् । तस्मान्न भेदानु-
बादकत्वमिति तत्परत्वमवगम्यते । अत एवोक्तम्.
५२, सदागमेकविज्ञेय समतोतक्षराक्षरम् ।
नारायणं सदा बन्दे निदाषाशेषसद्गुणम् ॥
( षि° त० १) इति।
अद्रेतवादियों का यह कहना है कि शाख का अर्थं (प्रयोजन, आवश्यकता)
वहीं है जहाँ दूसरे प्रमाणो के हारा उसकी सिद्धि नहीं होती हो" इस न्याय
( नियम ) से केवल अद्रैतमेंही शाखं का तात्पयं (अर्थं) है, मेद (देत) तो
प्रत्यक्षतः उपलब्ध होता है इसलिए उसमे शाख्र का तात्पयं नहीं हो सकता ।
उनको इस धारणा क्रा खरडन उपर्यक्त विधि से कर दिपा गया। [ अद्रत की
सिद्धि प्रत्यक्षादि से नहीं होती, शाख यदि है तो अद्टेत के लिए--यह अदरतियों
कीधारणादहै।]
अनुमान से ईश्वर की सिद्धि नहीं होती, फिर उसके भेद कौ भी तो सिद्धि
उससे नहीं ही हो सकेगी । इसलिए इन श्रुतिवाक्यों मे भेद का अनुवाद
( व्याख्या ) नहीं किया गया है, प्रत्युत ये शाख ही भेदपरक है । [ अनन्यलभ्यः
प्णप्रज्ञ-दशेनम् २६३
खायः, के न्यायसे ही यह कहाजा सकतारै किभेद की सिद्धि किसी
दूसरे प्रमाणसे नहीं होती इसलिए शाख का तात्पयं ही मेद-प्रातिपादन में
है। अनुमानके द्वारा मेद की सिद्धि हीं होती । बस, इतना ही पर्याप्त है!
शाख का तात्पयं ही उसीपें है । |
इसीलिए कहा गया है--“जो केवल ध्रे्ठ आगमो ( शाख ) से जाने जाते
ह, जो क्षर ( प्रकृति ) मौर अक्षर ( जीव ) को अच्छी तरहं पार कर चूके है,
जो सवथा निर्दोष है एवं समी सद्गुरों ( जैसे पूर्णानन्द आदि } से युक्त हं वेसे
नारायणा की मै सदा वन्दना करता हं ।' ( विष्णुतच्वविनिणंय, मङ्गल्छोक ) ।
( १७. राखो का समन्वय )
शाखस्य तत्र प्रामाण्यमुपपादितं तत्तु समन्वयात्. ( ब्र°
चू १।१।४ ) इति । समन्वय उपक्रमादिणिङ्गम् । उक्तं च
बृहत्संहितायम्-
५३. उपक्रमोपसंहारावम्यासोऽपूवेता , फलम् ।
अर्थवादोपपत्ती च लिङ्ग तात्पयेनिणेये ॥ इति 1.
रह्म के विषय मे शाख कौ प्रामाणिकता भौ सिद्ध की गई है--'किन्तु
उसकी [ प्रामाणिकता तो | समन्वय करने के बाद ही सिद्ध होती है" ( ब्र सु
१।१।४ ) [ शाख की प्रामाणिकता तभी सम्भव है जब विष्णु के अथंमेंही उन
शाखं या श्रुतियों का समन्वय किया जाय । समन्वय का अथं है सम्यक् (ठीक)
भ्रकार से सम्बन्ध या अन्वय दिखलाना । | उपक्रम ( आरम्भ ) आदि चिल्ल के
द्वारा समन्वय ( शाख के अथं का निणंय ) होता है । ब्रहत्संहिता मे कहा गया
है “उपक्रम, उपसंहार, अभ्यास, अूवं ता, फल, अर्थवाद ओौर उपपत्ति शार
का तात्पयं निर्णय करने के समय लिङ्ग ( चिह्व 21811 ) के रूप मे रहते है ।'
विद्रोष- श्रुति के अर्थंका संशय होने पर उपक्रम आदि लिगोके द्वारा
ठसका निर्णय होता है, कम से कम तात्पयं तो समन्ञा जा सकता है, भले ही
व्याख्या न हो सके । प्रतिपाद्य विषय का आरम्म करना उपक्रम ( (+गणा6-
7९601@0४ १ है । आरम्भ को देखकर बीच के वाक्यो का अर्थं अपने आप खुल
ही जाता ह। जब इसके बाद भौ संशय रह जाय तो उपसंहार ( 0-
1० ) का सहारा लं । विस्तारपूवेक निरूपित बातों का सारश्च करना
उपसंहार है, जिससे अ्थंनिर्णय में सहायता मिलती दहै। फिर भी यदि
सन्देह रहे तो एक ही बात कोएक ही प्रकार से कहे जाने वाले स्थलों अर्थात्
प 3 ५ ~ ॥ -1 3
२६४ सबेदशेनसंमरहे-
अभ्यास ( एलष्चदप्तण ) का आश्रय लें। इसके बाद अपूता
( ण्न) का आग्रह है जिसमे किसी दूसरे प्रमाणा से असिद्ध नई बात को
टृदृतापूवंक कहा जाता है । संमव है क्रि नई बात के प्रतिपादने हीश्रुतिका
अथं छिपा हो । प्रयोजन से युक्त होना फल ( २०३०] ) है । इसकी आवरय-
कृता अपूर्वता के वाद पड़ती है । अपूर्वता में मृख्य का प्रतिपादन होता है जब
किं फल में मुख्य वस्तु के उदेश्य का व्ण॑न होता है। फल के बाद भी सन्देह
होने पर अर्थवाद ८ 71० ) का आश्रय लेते है जिसमे स्तुति या निन्दा
का बदा-चदाकर वर्णन होता है। अन्त मँ उपपत्ति या युक्ति ( 1)60101086-
7802 ) ही सहायक होती है जिससे अथं का निणंय होता है। इन लिङ्खों
म पूर्वापरके क्रमसे प्रबलता बढती जाती है । कहा है--उपक्रमादिलिङ्गानां
बलीयो ह्यत्तरोत्तरम् । मीमांसा-दर्च॑न मे इन लिङ्खोंका बडा महत्व है क्योकि
श्रुति में कहे गये विधिवाक्य का अथं-निरंय करना उनका प्रथम कत्तव्य है ।
विशेष विवरण के लिए लौगाक्षिभास्कर का अर्थसंग्रह या आपदेव का मीमांसा-
न्यायप्रकाकश् देखना चाहिए । ू
( १८. पृणप्रजञ-दरन का उपसंहार )
एवं बेदान्ततात्पयंवश्चात् तदेव ब्रहम शाख्गम्यमित्युक्त
भवति । दिडमात्रमत्र प्रादि । चिष्टमानन्दतीथेभाष्यव्याख्या-
नादौ द्रष्टव्यम् । ग्रन्थवहूत्वभियोपरभ्यत इति ।
इस प्रकार वेदान्तो ( उपनिषदां ) का ॒तात्पयं जानकर वही ब्रह्म शास्र के
दवारा बोधनीय है- यही कहने का अभिप्राय है। हमने यहाँ केवल दिशाका
निदेश किया है, बाकी बातं आनन्दतीथं के [ब्रह्मसूत्र | - भाष्य के व्याख्यान
आदि में देखनी चाहिए । ग्रन्थ बढ़ जाने के भय से अब हम सकते हैँ ।
विोष-आनन्दतीथं या पू्णंपरज्ञ ( समय ११२०- ११९९ ई० ) ने
ब्रह्मसूत्र पर भाष्य लिखा था जिससे द्वैतवाद का प्रवत॑न हुआ । इस भाष्य पर
जयती्थं ( ११९३-१२६८ ), श्रीनिवासतीथं ( १३००) , विद्याधीश आदिने
टीकायं कीटँ ।
एतच्च रहस्यं पूणपरज्ञन मध्यमन्दिरेण बायोस्ततीयावतार-
म्मन्येन निरूपितम् ।
५४, प्रथमस्तु हनूमान्स्याद् दितीयो भीम एव च |
पृणग्रज्ञस्तृतीयशव भगवत्कायंसाधकः \
पूणप्रज्ञ-दशेनम्
एतदेवाभिप्रेत्य तत्र तत्र प्रन्थसमाप्ताबिदं पद लिख्यते-
५५. यस्य त्रण्युदितानि वेद्बचने दिव्यानि रूपाण्यरं
बट् तद्ीतमित्थमेव निहितं देवस्य भर्गो महत् ।
वायो रामवचोनयं प्रथमकं प्रक्षो द्वितीयं वपु
मषवो यत्त॒ ठतीयमेतदयुना ग्रन्थः कृतः केदावे ॥
(म० भा० ता० ३२।१८१ ) ।
पूाप्र्ञ जो अपने को वायुका तीसरा अवतार मानते है तथा जिनका नाम
मध्यमन्दिर भी है, उन्होने इन सभी रहस्यो का निषूपणा किया है । [ वायुके
तीनों अवतार ये ह-- ] "पहले हनूमान् है, दूसरे भोम ओर तीसरे परंप्रज्ञ-ये
सब भगवान् के काय के साधक ह ।' इसी को लक्ष्य मं रखकर जहाँ-तहां (जेैसे-
ब्रह्मसूत्र माष्य, विष्णुतस्वविनिणंय, महाभारततात्पयंनिणंय आदि ग्रन्थो में) ग्रन्थ
की समाति होन पर उन्होने यह पद्य लिखा है-- (५५) वेद के वाक्यो मे जिसके
तीन खूप पर्याप्त रूप से मिलते है ( कटे गये ह). वडित्था' ओर (तदृशेतम्”
( ऋ ० १।१४१।१ ) आदि श्रतियों में इस रूपमे ही ( बट् = बलाट्मक, दश्च॑तम्=
ज्ञानपृणं ) जिस ॒वायु-देव के भगं ( मरण ओर गमन ) रूपी गुण ओौर महत
नामक तस्व माने गये है, उस वायु का पहला शरीर वह है जो राम के सन्देश
को [ सीता के पास ] पर्चाने वाला है ( = हनुमान् का अवतार ), दूसरा शरीर
पृक्ष ( सेनानाशक, परं = पृतना = सेना, क्ष = क्षि = नाञ्च करना, कौरव-सेन्य
का विनाश करनेवाला ) भीम काटहै भौर तीसरा शरीर मध्व का है जिनकेद्वारा
केशव के लिए यह ग्रन्थ लिखा गया ।' ( महाभारततात्पयंनिणंय ३२।१० १) )
विरोष--हनुमान् का उल्लेख ! रामवचोनयम्" के द्वारा हुंभा है । इसके
तीन अथंहो सकते ह। राम के वचनो अर्थात् संवाद को सीता तक पहचाने
वाला; राम के विषय की बातें जैसे मूलरामायण, उसे शिष्यो तक पहुंचानेवाला;
राम की वाणी द्वारा जो नय (अज्ञा) मिले उसको पालनेवाला । “मध्वः शब्द
मे मघु ओर व है। मधु का जानन्द अथं है ओर वका तीथं, जिसका तीर्थं
( शाल्न ) आनन्दकर हो । आनन्दतीथं नाम पड़ने का भी यही रहस्य है । कुल
मिलाकर चार शब्दों से इनका बोध होता है मध्वाचायं, आनन्दनी्थं, पूंपरज्ञ
ओर मध्यमन्दिर । मध्व के विषयमे कहा है-
मध्विट्यानन्द उदटष्टो वेति तीथंमुदाहृतम् ।
मध्व आनन्दतीर्थः स्यात्तृतीया मारुती तनुः ॥
बलित्था आदि मन्त्र का अथं आगे देखे ।
२६६ सबेदशेनसंग्रहे-
एतत्पद्याथस्तु रित्थ तद्वपुषे धायि दशतं देवस्य भर्भः
सहसो यतोऽजनि' ( ० १।१४१।१ ) इत्यादिशुतिप्यालोच-
नयाऽवगम्यत इति । तस्मात्सवंस्य शाखस्य विभ्णुतखं सर्बोत्तिम-
मित्यत्र तात्पयेमिति सर्वं निरवचम् ।
इति श्रीमत्सायणमाधवीये स्वेदशेनसंग्रहे पूणप्रजञदशेनम् ।
नन्त
इस पद्य क्रा अथं निम्न श्रुतियों का सम्थक् मनन करने से आता है-- देव
{ वायु) का वहु द्चंनीय तेज ( भर्गः) शारीरिक व्यवहार के लिए एवं बलप्रात्ि
के लिए (बट् ) इस प्रकार से ( इत्था=इत्थं ) धारण किया जाता है कयोक्रि वह॒
बल से ( सहसः ) ही उत्पन्न हुभा है ।' (ऋ० १।१४१।१ ) । इसलिए सभी
शास्त्रों का तात्पयं यही है कि विष्णुतत्व ही सबसे अच्छा है। इस प्रकार सब
कुछ ठीक ( निर्दोष) है।
इस प्रकार श्रीमान् सायण माधव के सवंदशंनसंग्रह में पूप्रज्ञ-दशंन समाप्त हृभा ।
इति बालकविनोमाश ङ्कुरेण रचितायां सवंद्च॑नसं प्रहस्य प्रकाशाख्यायां
व्याख्यायां पूणंप्रज्ञदरंन मवसितम् ॥
>
(६ › नकुटीश-पाशपत-ददानम्
कायं कलादि किल कारणमीश्वरोऽसौ
योगस्तयोर्विधिरथापि जपादिरूपः ।
दुःखान्त॒इत्यविहतं विहितं प्रपच्चं
बन्दे तमादिशति पाञ्युपतं मतं यः।।-ऋषिः |
न ( १. वेष्णव-द्रानौ मे दोष )
बमतं दासत्वादिषदबेदनीयं परतन्त्रत्वं, दुःखाव-
हत्वानन दुःखान्तादीष्सितास्पदम् इत्यरोचयमानाः, पारमेशयं
कामयमानाः, पराभिमता मुक्ता न भवन्ति, परतन्त्रत्वात् ,
पारमैधयरहितः [१
पारमैश्वयरटितत्वात् , अस्मदादिवत्!, शयुक्तात्मानश्च परमेश्वर
गुणसंबन्धिनः, पुरुषत्वे सति समस्तदुःखबीजविधुरत्वात्परमेश्वर-
वत्'--इत्याद्यनुमानं प्रमाणं प्रतिपद्यमाना; केचन मादेश्वराः
¢ $ © +
परमपुरुषाथसाधनं पञ्चाथेप्रपश्चनपरं पाशुपतशाखरमाश्रयन्ते ।
वैष्णवों का पह मत तो परतन्त्रता काही दूसरा नाम है जिसका बोध
दासत्वादि शब्दों के द्वारा होतादहै, [ किसीका दास होना ] सचमुच बहुत
दुःखकर है, इसमे दुःख का अन्त नहीं होता इषलिए यह कमी भी अभीष्ट नही
हो सकता [ क्योकि जब परतन्त्रता रह ही गई, विष्णु के दासही बने रह् गये,
तब मुक्ति किस काम की ? |--इस प्रकार माहिश्वरसम्प्रदायके कृ दार्शनिकों
को यह मत अच्छा नहीं लगता। वे लोग [ मुक्तं होने पर साक्षात् | परमेश्वर ही
जअन जानेकी कामना करतेहै। वे निम्नोक्त प्रकार से दिये गये अनुमान को
प्रमाण मानते है--
( १) इन प्रतिपक्षो के द्वारा वात मुक्तं परुष वास्तव में मुक्त नहीं है
{ प्रतिज्ञा ), वयोकि मुक्त होने पर भी ये परतन्त्र ह या इनमें परमेश्वरता (अन्तिम
रशं ) का अभावटहै (हेतु), जैसे हम लोगों के समान बद्धजीव होते ट
( उदाहरण } ।
(२) मुक्त आत्माय वे हीह जिनमें परमेश्वरकी तरह दी गृण हों (प्रतिज्ञा)
क्योकि पुरुषत्व होने पर भी ये सारे दुःखों के कारणों से रहित हि ( हेतु ), जिस
भ्रकार साक्षात् परमेश्वर होते ह ( उदाहरण } ।
२६८ सर्व॑दशनसंग्रहे-
ये माहेश्व र-सम्प्रदाय वाले परम पुरुषाथं का साधन पाशुपत-शाखर को ही
मानते है जिसमें पच पदार्थो का विस्तार किया जाता है।
विरोष- तैष्णव-दर्यंन में मुक्त पुरुष को ईश्वर का दास का रूपदेते हे ।
मक्त होने पर भी दासता ही रह गई तो मुक्तिका अथंही क्या रहा? मृक्तितो
वह है जो सर्वोच्च पद पर पचा दे । इसलिए महैश्वर-दश्॑न में मृक्त को साक्षात्
ईश्वर ही माना जाता है। |
माहश्वर-सम्प्रदाय यें बहुत से अवान्तर भेद हैँ । धार्मिक दृष्टि से इनके चार
` भेद है- पाशुपत, दौव, कालामुख ओौर कापालिक जिनके मूलप्रन्थ रोवागम
कहलाते ह । यह् आगम वैदिक मौर अवेदिक दोनों है । माहेश्वर-सम्प्रदाय में
दाशनिक दृष्टिकोण से भी चार भेद ह--पाशुपतदशेन ( जिसका प्रचार गुजरात
ओर राजपूताना मे था ), दैवदश॑न ( तामिल देश में ), वीरशेवद्॑न (कर्नाटक)
तथा प्रत्यभिज्ञादर्चन या त्रिक यां स्पन्द (काहमीर) । पाशुपत-दञ्च॑न के संस्थापक
नकुलीश ( या लकुलीश ) थे । शिवपुराण मे कारवण-माहात्म्य से पता चलता
है कि भृगुकच्छ के पास कारबन नामक स्थान में इनका जन्म हआ था । नकरलीश
की मू्ि्यां राजपूताना ओौर गुजरात में बहुत मिलती है। इन मूतियों मे सिर
केश से दका रहता है, दाहिने हाथ में बीजपूर का फल तथा बाय में लगुड
( लाठी ) रहता है । लगुड धारण करने के कारण ही इन्दं लगुडेश > लकुलीश
> नकुलीश्च कहते है । भगवान् शंकर के १८ अवतारो मे लकुलीश प्रथम है ।
रेतिहासिक दृष्टि से इनका समय विक्रम संवत् के आरम्भ होने के समयका है ।
पाशुपतो ओौर म्याय वैशेषिक में घना सम्बन्ध है । गणरत्न ने तो नेयायिकों को
शैव तथा वैशेषिकं को पाशुपत कहा मी है । भारद्वाज उद्योतकर ( न्यायवातिक
के रचयिता ) अपने को “पायुपताचायं' कहते है । पाशुपतो का मूल सूत्रगरंथ
“माहेश्वररचित पाशुपतसूत्र" अनन्तशयन ग्रन्थमाला मे कोरिडन्य रचित "पञ्चार्थो-
भाष्य के साथ प्रकाशित हुआ दहै जिसे राशीकरभाष्यया कौरिडन्यभाष्य
भी कहते है ।
पारुपत-द्च॑न की मूल भित्ति पांच पदार्थो कायं, कारण, थोग, विधि ओौर
दुःखान्त--के विवेचन पर आधारित है । इनका विवरण हमे आगे प्राप्त होगा ।
तौवद्च॑न के सांगोपांग विवेचन के लिए देखं-डा° यदुवंश का प्रबन्धग्रन्थ
'शौवमत' ( वि० राष्टृ° परि० पटना से प्रकाशित ) ।
"पाशुपतः शब्द पशुपति ( = शिव ) से बना है। पशु सभी प्राणियों को
कहते दै । लिङ्खपुराण मे कहा है-
बरह्मा्याः स्थावरान्ताडच देवदेवस्य शूलिनः ।
पश्वः परिकीर्त्यन्ते समस्ताः पशुवतिनः
चः ~ कर क == ्
अ = ४१. $ # #
~ - १, कृ 4 ऋय
नङ्कलीश-पाञ्यपत-दशेनम् २६६
जिस प्रकार हमारे लिए गाय, भस आदि परु ह उसी प्रकार महेश्वर के
लिए सारे प्राणिमात्र पञ ह कंयोकि सो मे ज्ञान का अभावदहै, पशु की तरह
आचरण है । इन पशुओं के पति महादेव है, अतः वह वे पशुपति कहलाते ह ।
जीवों की परवशता पर शेक्सपीयर का कहना है--
{1६6 9168 #० 116 98.010) 1808, क€ &€ 81] ५० ४१ € &०५8,
गू0९् ४1) प३ णिः {161४ 8०१४.
"चंचल बालकों के लिये मत्रिखयों का जो महर है वही देवताओं के लिए
हमारा है। वे बेल-लेल मे हमे मार डालते ह ` किन्तु शिव का कल्याणकारी
रूप भीदहै।
( २. पाश्चुपत-सू्र को व्याख्या-- गुरु क स्वरूप )
तत्रेदमादिस्त्रम्--“अथातः पदयुपतेः पाञ्युपतयोगविधि व्या-
ल्यास्याम' इति । अस्याथेः-अत्राथ्न्दः पूर्वप्रकृतापेक्षः \
पूर्व्रकृतश् गुरं प्रति शिष्यस्य प्रश्नः । गुरुस्वरूपं गणकारिकायां
निरूपितम्--
१. पश्चकास्त्वष्ट विज्ञेया गणथकच्िकामकः ।
वेत्ता नवगणस्यास्य संस्कत्तो गुरुरुच्यते ॥
२. लाभा मला उपायाश्च देश्चावस्थाविशुदधयः ।
दीश्षाकारिवलान्यष्टौ पश्चकाद्खीणि वृत्तयः ॥
(तिकलो वृत्तयः इति प्रयोक्तव्ये त्रीणि वृत्तयः › इति
च्छान्दसः प्रयोगः ।
उस ( पःशुपत-शाख ) का यह पहला चू है- अब इसलिए पशुपति के
पाशुपतशाख्र के योग भौर विधि की व्याद्या करगे । इसका अथं इस प्रकार
है--यहाँ अथ" शब्द पहले के कुछ प्रसंग का ोतक है। पहले का कुछ प्रसंग
यही ह कि गुरुके प्रति शिष्य का प्रश्न हौ चुका है। [ प्रदन यही है किं त्रिविध
दुःखों का सरवेथा विनाश केसे हो ? यह दुःखान्त के विषय का प्रन है । | गरु
का स्वरूप गराकारिका मे निदिचित किया गया है--“भाठ पचक ( पाँच-र्पाच
अवान्तर भेदो चे युक्त गण ) जानने योग्य है ओर एक गणा तीन अवान्तर भेदो
काहे इन नव गणोंका ज्ञाता जौरजो संस्कार करनेवाला हो वह गरु
कहलाता है ॥ १ ॥ लाभ, मल, उपाय, देश, अवस्था, विशु, दीक्षाकारी ओर
३०० . ` सबेदशेनसंम्रहे- `
बल ये आठ पंचक ( प्रत्येक के पांच भेद ) है। वृत्तियां ( कायं ) तीन ह ॥२॥
मूलदलोक में "तिलो वृत्तयः" ( दोनों स्त्रीलिङ्ग शब्द ) का प्रयोग करना चाहिए
किन्तु श्रीणि (नपुं० ) वृत्तयः ( खरी)" प्रयोगदहै यह वैदिकं व्यत्यय का
उदाहरण है । [ “ग्यत्ययो बहुलम्” (पा० सु° ३।१।८५) में लिङ्गं का व्यत्यय | ।
विरोष-नव गणो का ज्ञाता गुरुहै। इन गणोंमें प्रथम जाठ पंचक
{ 61848 ) ह अर्थात् इनमे प्रत्येक के पांच-पाच अवान्तर भेद ह । नवे गण
को त्रिक कहते हँ क्योकि इसके तीन ही भेद हैँ । इनकी गणना कर--
( १ ) लाभ (^ व्पपध०ण)-- ज्ञान, तपस् , .नित्यत्व, स्थिति, शुद्धि ।
( २) मल (1007४ )- मिथ्याज्ञान, अधमं, आसक्तिहेतु, च्युति,
पशुत्वमूल । |
( ३ ) उपाय ()ष€4)€०४) -- वासचर्था, जप, ध्यान, स्दरस्मृति, भ्रपत्ति ।
( ४ ) देदा ( 10५९11८ )-- गुरु, जन, गुहादेश, इमञ्चान, रुदर ।
( ५ ) अवस्था ( {2€78€ ९ €1€0९6 )-- व्यक्ता, अव्यक्ता, जया, दन,
निष्ठा । ॐ
( ६ ) विश्युद्धि ("10०80 }--प्रत्येक मल की हानि, जेसे मिथ्या-
ज्ञानहानि, अधमंहानि आदि ।
( ७ ) दीक्षाकारिन् ( 101४8107 )-- द्रव्य, काल, क्रिया, मूति, ` गुर् ।
( ८ ) बल ( 2०७९ )--गुरुभक्ति, बृद्धिप्रसाद, इन्धजय, धमं, अप्रमाद ।
( ९ ) चृतति ( 1611008 ) = जोविकोपाय भिन्ना, उत्सृषटग्रहण,
यथालब्ध ग्रहा । इन गणो का संक्षिप्त वर्णन अगे प्रस्तुत क्रिया जायगा ।
तत्र विधीयमानञ्ुपायफलं रामः । ज्ञानतपोनित्यत्वस्थिति-
शद्धिभेदात्पश्चविधः। तदाह हरदत्ताचायं --
ज्ञानं तपोऽथ नित्यत्वं स्थितिः शुद्धिश्च पञ्चमम् ।
आत्माभितो दुष्टभावो मकः । स मिथ्याज्ञानादिभेदासपश्च-
विधः । तदप्याह-
३. मिथ्याज्ञानमधमश्च सक्तेहेतुश्च्युतिस्तथा ।
पञ्ुत्वमूरं पञ्चैते तन्त्र हेया विविक्तितःॐ# ॥
( गणकारिका, ८ ) इति ।
# हेयाधिकारतः- इति क्वचित्पाठः ।
नकुलीश-पाञ्युपत-दश्नम् ३०१
(१) उपाय के फलोंको प्राप्तकरने का नाम लाभ है। ज्ञान, तपस् ,
नित्यत्व , स्थिति ओौर शुद्धि के भेद से पाँच प्रकारकादहै, जैसा किं हरदत्ताचायं
कहते है--्ञान, तपस्या, नित्यता, स्थिति (चैयं) ओौर पाँचवाँ शुद्धि ! स्वच्छता,
पवित्रता)-ये लाम है ।'
(२) आत्मा मे अवस्थित दुष्ट मावा (2000; ४०) को मल कहते ह \
मिथ्याज्ञान आदि के मेदसे वह पाँच प्रकारका है। यह मी कहा है-- मिथ्या-
ज्ञान, अधर्मं ( 1)€श0९€71४ ), सक्तिटेतु ( (९१५९8 ` 0 ४४९८९07) 61 च
च्युति ( सदाचार से शष्ट होना ) ओौर पशुत्वमूल ( जीव प्राप्त करने के अनादि
संस्कार ), इन पांच मलो को तन्त्र मे ( इस शास मे) विवेक दवारा त्यागनाः
चाहिए ।
साधकस्य शद्िहेतुरुपायो वासचयोदिभेदात्पश्चव्रिधः ।
तदप्याह--
४. वासचया जपो ध्यानं सदा रुद्रस्तिस्तथा ।
प्रपतति्ेति लाभानाुपायाः पश्च निधिताः ॥ इति ।
॥ स थोनुसंधान ¢ * 95
येनाथौयसंधानपू्वकं॑ज्ञानतपोवरदधी प्राप्नोति स देशो
गुरुजनादिः । यदाह--
५. गुरुजनो गुदादेश्ः उमशानं रुद्र एव च । इति ।
( ३ ) साधक की शुद्धिके कारणों को उपाय कहते है जिसके वासचयां
आदि पाच भेदहै। इसे भीकहाटै- वासचर्यां ( अच्छी तरह निवास करने
के नियम), जप, ध्यान, रद्र का सदा स्मरण करता ओर प्रपत्ति (शरणगति)--
चे लाभों के उपाय निचित किये गए है। [ वासच्यां आदि पाच प्रकार कीः
शुद्धि करके साधक पांच लाभको प्राप्त करता है! उपायन्लाम के उपाय,
लाभ=उपाय के फलों की प्राति | ।
( ४ ) जिनके पास रहकर अर्थो ( = कायं, कारण, योग, विषि गौर
दुःखान्त ) का अनुसन्धान करते हुए [ साधक | ज्ञान ओर तपस्या की वृद्धि
प्राप्त करता है वह देश है जैसे गुरु, जन आदि । उसे कहा है--गुरु, जन
( ज्ञानियों की समा ), गुहा-देश ( गुफा, एकान्त स्थान ), इमशान तथा दर ।
[ इनके पास रहकर साधकं ज्ञान की वृद्धि करता है (गुरु ओर जन के साथ),
तथा तपस्या कौ भी वृद्धि करता दै ( अविष तीनों के साथ) |।
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३०२ ् स्वैदशैनसंम्रदे-
आ रम्र्िरे$मयादावस्थितस्य यदवस्थानं सावस्था
व्यक्त।दिविशेषणविशिष्टा । तदुक्तम्-
व्यक्ताऽव्यक्ता जया दानं निष्ठा चेव हि पञ्चमम् । इति ।
मिथ्याज्ञानादीनामत्यन्तव्यपोहो विश्चुद्धिः । सा प्रतियोगि
मेदात्पश्चविधा । तदुक्तम्-
६. अज्ञानस्याप्यधर्मस्य हानिः सङ्गकरस्य च ।
च्युतेह्ीनिः पञचत्वस्य शुद्धिः पञ्चविधा स्छरता ॥ इति ।
(५) लाभ की प्राति प्॑न्त जब साधक एक ही प्रकार से अवस्थित रहता
है तब उसकी यही अवस्थिति अवस्था कहुलाती है जिसमें व्यक्त आदि विशेषण
लगाते ह [ तथा पाँच प्रकार की होती है]। यह कहा है --ग्यक्तावस्था ( जब
किसी साधक के उपाय अनुष्टान आदि प्रकाशित हो, लोगों की स्तुति-निन्दा को
^ चिन्ता न रहे ), अब्यक्तावस्था ( जब साधक सव गुप्त रूप से करे ), जयावस्था
( मन ओर इन्द्रियों कौ विजय करके अवस्थित रहना ), दानावस्था ( सब कुछ
त्याग देना ) ओर निष्ठावस्था । महेश्वर मे सदा अविच्छिन्न भक्ति रखना ),
वींदहे।
५ १, 2 आदि का बिलकुल ( सर्वथा } विनाश हो जाना विद्युद्धि
है । प्रतियोगियों ( जिनका विनाश होता हे, 2810760, (णणभृरशप८० )
के पाच भेद होने के कारण यह भी पाच प्रकार कीहै। [ मल पाँच प्रकारके
है, उनमें प्रत्येक का विना करना अभीष्टे, इसलिए इस विशुद्धि के पाच भेद
है । ] कहा है-अज्ञानहानि, अधमंहानि, आसक्तिदैतु कौ हानि, च्युतिहानि
ओर पशुत्वहानि-- शुद्धि पाच प्रकार की मानी गयी है।
दीक्षाकारिपश्चकं चोक्तम्-
(, मर्तिगुरूः र
७. द्रव्यं काठः क्रिया चेव हि पश्चमः । इति ।
बरपश्चकं च-
मतेदेन्दर
८, गुरुभक्तिः प्रसादश्च मतेदेन्दजयस्तथा ।
धमेदचेवाप्रमादश्च बलं पञ्चविधं स्मृतम् ।। इति ।
पश्चमल-लघूकरणाथेमागमाविरोधिनोऽनाजनोपाया वृत्तयो
मैक्ष्योत्स॒ष्टयथालब्धाभिधा इति। शेषमशेषमाकर एवावगन्तच्यमू्।
।#॥ तिक्रकण्द च ककः चक ~ ०4 = क
नङ्कलीश-पाञ्पत-दशेनम् ३०३
( ७ ) पाच दीक्चाकारियो ( दीक्षा के तच्वों ^ 8[०९५५३ 01 171४8.
#00 ) का कथन हुआ है-- द्रव्य ( दीक्षा के समय उपयोगी वस्तुं ), काल
{ शुभ महतं, दीक्षा के योग्य समय ), क्रिया ( गुरुसेवनादि, दीक्षा कौ विधियां },
मूति ( देवप्रतिमा } ओर गुर, यह पाँचवाँ है ।
( ८ ) पाँच बल हि--गुरुमक्ति, बुद्धि की निर्मलता, सुख-दुःखादि इन्दर पर
विजय, धमं ओर अप्रमाद ( सावधान रहना }), इस तरह बल पाच प्रकार कां
माना गयादै।
(९) पाच मलों को क्षीण ( कम ) करने के लिये, आगमो ( शाखत्रों ) के
विरुद्ध नहीं जाने वाले (शाखरानुङ्कूल कमे करने वाले) पुरुषों के अन्नाजन (जीविका-
निर्वाह) के उपायों को वृत्ति कहते ह । [ पाच मलों का विनाश्च वासचर्यां दि
उपायों से होता है। किन्तु किसी मौ वस्तुका तुरत विनाश कर देना सम्भव
नहीं है अतः पहले इन्दर कम करते है। इसी में वृत्तिर्या काम देतीर्हैजो तीन
है-- ] भिक्षा में मिले हृए् अन्न पर निर्वाह करना, लोग जिसे छोड दं उसे ग्रहण
करना ( उत्सृष्ट) तथा जो मिल जाय उसे ही, लेना। ( यहाँष्येयहै कि इन
सभी पदार्थो करा ग्रहण करते समय शाल के विरोध पर भी घ्यान दिया जाता
हे, नहीं तो कीटादि-दूषित अन्न या नीचादि व्यक्तियों से मिला अन्न भी ग्राह्यही
होगा । दाख इस प्रकार के अन्न का विरोध करते ह अतः इनं लेना वृत्ति
नहीं है । ) अवशिष्ट सारी बात आकरग्रथो से ही जाननी चाहिए ।
विरोष- प्रथम सूत्रमे स्थित अथं" शब्द की व्याख्यां ही गुरुके ढारा
जातग्य इन नव गणो का उज्ञेख कर दिया गया है। अब दूसरे शब्द अतः"
को व्याद्या मे दुःखान्त का, शशु के दारा कायं का, "पति' के दवारा कारण
का तथा योग" ओौर "विधि" का स्वतंत्र रूप से विचार होगा, इस प्रकार पाचों
पदार्थो का वर्णन हो जायगा ।
(२ क. खूत्र के अन्य शाब्द् अतः, पति आदि )
अतःशब्देन दुःखान्तस्य प्रतिपादनम् । आध्यात्मिकादि-
दुःखत्रयव्यपोहपरहनाथेतवा्तस्य । पशशब्देन कायस्य । परतन्त्र
वचनत्वात्तस्य । पतिरब्देन कारणस्य । श्वरः पतिरीशिता'
इति जगत्कारणीमतेश्रवचनःत्वाततस्य । योगविधी तु प्रसिद्धो ।
अतः" ( इसलिए ) शब्द कै द्वारा दुःखान्त का प्रतिपादन होता है क्योकि
इस शब्द से आध्यात्मिक आदि तीन दुःखो के विनाश के लिषए प्रश्न करना व्यक्त
३०४ सबेदशेनसं्रह- `
होता है। [ जब शिष्य ने गुरुसे प्रन किया कि दुःखान्त कैसे हो तब उसका
उत्तर देने के लिए गुरु तैयार हए गौर बोले--"ईसलिए "` । भव यहो इसलिए”
के द्वारा ुःखान्त के लिए का बोधहो गया। पाच पदार्थो मे दुःखान्त भी
एक है । जिसकी ध्वनि प्रथम सूत्र मे मिलती हे। यही नही, अन्य पदाथंभी
दस सूत्र से ध्वनित हो जाते है । |
"दु" शब्द के द्वारा कार्यं का प्रतिपादन होता हि करथोकि वह (पगुया
कायं ) परतंत्र होता है। [ पशु पतिके वश में रहता है ओौर कायं कारण
करे अधीन है इस समानता से दोनों कौ एकरूपता सिद्ध हो जाती है । | "पत्ति"
शब्द से कारण का बोधहोता है क्योकि ईश्वर शासन करने वाला पति है"
इस वाक्यम संसारके कारणस्वरूप ईश्वर का वणन है। [ पति शब्दसे
श्शचर का बोध होता है ओौर ईर संसार का कारण है। अतः पति केद्वारा
कारण की ध्वनि निकलती है । ] योग ओौर विधि तो अपने आपमें स्पष्ट है
( शब्दों से ही व्यक्त है ) । |
विद्दोष-पाशुपत-दच॑न मे कहे गये पाचों पदार्थो का प्रतिपादन प्रथम
सूत्रके द्वाराहीहोगयाहै। सूत्रका अर्थंहै क्रि शिष्यके द्वारा पूेगये
प्रन के उत्तरमें गुरु दुःखान्त की सिद्धिके लिए महेश्वर के हारा प्रतिपादित
महेश्वर की प्राप्तिके लिए जो योग ( {7ण0) ) है उसकी विधि बतलाते
है, इस प्रकार पाशुपत शाख के आरम्भ कौ यह प्रतिज्ञा है। पञशुकेद्रास
कार्यं, पतिके द्वारा कारण, अतःके द्वारा दुःषवान्त--इस प्रकार इन तीन
पदार्थो की ध्वनि है; योग ओौर बिधि तो शब्दों से ही स्पष्ट ह ।
सभौ परतन्त्र पदार्थो ( पञ्च, मनुष्य, द्रव्य } को पशु कहते है । जिस प्रकार
पशु अपने स्वामिरयो के अवीन होते ह उसी प्रकार ये पारिभाषिक "पलु भी अपने
पति (ईश्वर) के अधीन दै । चिदातमक या अचिदाटमक, सभी पदार्थं पशु (कायं)
ह जिनका कारण स्वतंत्र परमेश्वर है । परतन्त्र सदा स्वतन्त्र के अधीन रहता है।
जप, ध्यान आदि को योग कहते है ओर भस्मलेपन, ज्ञान आदि के व्रत विधि
ह दुःख से निवृत्त होने पर रेशरयं कौ प्राति करना दुःलान्त है । ये ही पाच
तच ह क्योकि परम पुरषाथं के साधन है । त्व वही दै जिसका क्वान
परम-पुरषा्थं का साधन हो । प्रस्तुत दशन मे इन पांच कां जान उसकी
प्राति के लिए अनिवायं हे । पंचम तत्त्व ( दुःलान्त ) तो परमःपुर्पाथं के रूप
मही है अतः उसका ज्ञान तो आवद्यक हैही; दुःखके बीजके रूप मे अस्वतत्र
(कायं, पलु) को जानना भी नितान्त भावस्यक है बयोकि इसीकी निवृत्ति
करनो है। रेश्वयं की प्राप्ति के लिए स्वतंत्र ईश्वर ( कारण, पति ) को जानना
नकुलीश-पाड्ुपत-दशेनम् ३०५
| है, यह कौन अस्वीकार करेगा ? रेश्वयंकी प्राति के लिए भस्म-
क्ानादि विधि के साथ जप-ध्यानादि योग भी ्ञेयरहै। इस प्रकार पाचों
का ज्ञान परमावदयक है।
(२. दुःखान्त का निरूपण )
तत्र दुःखान्तो दि विधः--अनात्मकः सात्मकथेति । तत्रा-
©
नाटमकः सवेदुःखानामत्यन्तोच्छेदरूपः । सात्मकस्तु दकृक्रिया-
न्स ४३ (~ अ विषयमे श्चविधं
शक्तिलक्षणमेशयंम् । तत्र दकुशक्तिरेकापि दात्पश्चविधा-
पचर्यते- दर्शनं श्रवणं मननं विज्ञानं सवेन्ञतवं चेति ।
इनमें दुःखान्त दो प्रकार का होता है--अनातेमक ओर सामक । अनात्मक
( 107९8008] >) दुःखान्त उसे कहते ह जिसमे सभी दुःखो का पूणं खूपसे
विनाश हो जाय [ इसके बाद एेश्वयं की प्राप्ति न हो |। सात्मक । 6801181)
ुःलान्त वह है जिसमें टकशक्ति ओौर क्रियाशक्ति से युक्त ( लक्षित }) रेश्वयं कौ
भी प्राप्ति हो । हकशक्ति ( बुद्धि या ज्ञान की शक्ति ) यद्यपि एक है किन्तु विषयों
( 06५08 ) की विभिन्नता के कारणा पाँच प्रकार से व्यक्त की जाती है--
द्थ॑न, श्रवा, मनन, विज्ञान { विवेचन ) ओौर सवंज्ञता । | अव इनमे प्रत्येक
की परिभाषा बतलाई जायगी । |
तत्र स॒ष्म-व्यवहित-विप्रकृष्टाशेष-चाषुप-स्पशचोदिविषयं ज्ञानं
¢ पब्दविषयं विज्ञानं
दशेनम् । अश सि श्रवणम् । समस्तचिन्ता-
विषयं सिद्वज्ञानं मननम् । निरवरेष्चाख्लविषयं गरन्थतोऽथेतशच
सिद्वज्ञानं विज्ञानम् । खशचाख्ं येनोच्यते । उक्तानुक्तशोषार्थषु
समासविस्तरव्रिभागविशचेषतश्च तस्वग्याप्तसदोदितसिद्विजञानं सवे-
्ञत्वमिति । एषा धीशक्तिः ।
दुन उस ज्ञान-शक्ति का नाम है जिसके दवारा समस्त चाघयुष विषयों (नेत्र
सम्बन्धी जैसे रूप ओर तदाधित द्रव्य ), स्प सम्बन्धी विषयो, | रस सम्बन्धी
विषयो ओौर घ्राण सम्बन्धी विषयों ] का ज्ञान होता है चाहे वे विषय कितने
ही सूक्ष्म हों ( परमाणु आदि) या किसी वस्तुके द्वारा व्यवहित ( {५6 -
ए९ा160 ) हों या दूर पर स्थित हों। | बद्ध जीव सभी चाश्चुष, स्पार्चनादि
विषयों को नहीं जान सकते, वे दूरस्थ, व्यवहित या सूक्ष्म पदार्थो को भी नहीं
जान सकते- विन्तु मुक्त पुरुषों मे यह रेशवयंशक्ति आ जाती हैकि वे ईश्वरकी
२० ख० स
३०६ सवेदशेनसंम्रहे-
तरह इन सारे विषयों कौ जानकारी कर सकते है । एेसी कोई वस्तु नहीं जिते
वे नहीं जान पाते! ] सभी शर्ब्दो के विषय मे ( सूक्ष्म, दूरस्थ या पञु-पक्षी
दिके द्वारा किये गए शब्द ) सिद्धि के रूप में उत्पन्न ज्ञान को श्रवण कहते है ।
[ यद्यपि श्चवण दशन मे अन्तभरत हो सक्ता है पर तच्वज्ञान म इसकी विशेष
उपयोगिता होन के कारण इसे पृथक् रखा गया है । इसमें सिद्धि अर्थात् योगादि
साधनो चे उत्पन्न एक विशेष शक्ति के द्वारा ज्ञान होता है । ] जिन जिन
विष्यो का चिन्तन संभव है उन सबों का केवल चिन्तन करते ही [ बिना
शाच्नादि देवे हृए ही ] योग की सिद्धद्वारा ज्ञान षा लेना मनन ( (०९१५९
0 ) कहलाता है । सिद्धिके द्वारा वभी शास्रं के विषयों को ग्रन्थ ( पक्ति )
र उसके अर्थंके साथ जान तेना विज्ञान है। [ भ्न्थमें इस तरह की पंक्ति
है ओर उसका यह अथं है, यह् जान लेना विज्ञान है।] इसी से अपने
(पाशुपत) शार का प्रवचन होता है ( शाख कौ असंदिग् व्याख्या मे विज्ञान ही
उपयोगी है ) 1
[ गुरुके द्वारा ] उपदिष्टया अनुपदिष्ट, सभी अर्थो ( विषयों ) में समास,
विस्तर, विभाग भौर विशेष के द्वारा ( इनका वरान इसी द्च॑न में बादमें
होगा) तच्व के रूपमे संबद्ध भौर सदैव प्रकालित सिद्धि-ज्ञान को सवेक्ञत्व
कहते है । [ यह वेसा ज्ञान है जो सदा उदित या प्रकाशित रहतादहै, कभी
द्धिपता नहीं । तच्वोके रूपमे यह सदा बंवा हज रहता है । बातं बतलाई
गई हों या नहीं, सभी स्वंजञ को माटूमहो जाती है, बह भी संक्षिप्र ( समास )
विस्तृत, विदिलष्ट ( ^९।४8९५ ) तथा विशिष्ट ( 8166181;860 ) रूप मे ।
ज्ञान शक्ति की यहाँ पराकाष्ठा है । ] यह ( दकशक्ति ) ज्ञान (बुद्धि 1०९11९५५)
की दाक्तिहै।
क्रियाक्तिरेकापि च्रिविधोपचयते--मनोजवित्वं कामरू-
पित्वं विकरणधर्भित्वं चेति । तत्र निरतिशयश्षीघरकारित्वं मनो-
जवित्वम् । कमादिनिरपेक्षस्य स्वेच्छया एवानन्त-सलक्षण-
विलक्षण-स्वरूप-करणाधिष्टातृत्वं कामरूपित्वम् ¦ उपसंह तकर-
णस्यापि निरतिश्चयैर्मसम्बन्धित्वं विकरणधमित्वमिति । एषा
क्रियाशक्तिः ।
क्रियाशक्ति यद्यपि एक ही होती है फिर भी परोक्षतः तीन प्रकार की कही
जाती है--मन की तरह वेगवान् होना, इच्छासे रूप बदलना तथा विकरण
{ इन्द्रियादिहीन ) होने पर भी रेश्वयं धारण करना ( विकरणधमित्व )। मन
नकुलीश-पाश्चुपत-दशेनम् ३०७
की तरह वेगवान् होने का अथं है कि इतनी शीघ्रता से काम करं जिससे अधिक
कीचर ओर कोई न करे । कमंफल आदि से निरपेक्ष (पृथक् ) होकर, केवल अपनी
इच्छा से ही अनन्त सलक्षणा ( समान धर्मो वाले ), विलक्षण ( विभिन्न लक्षणों
वाते ) तथा सरूप ( एकं तरह के ) करणो ( शरीरो ओर इन्द्रियों ) मे अधिष्ठित
होना ही कामरूपित्व ( अपनी इच्छा से रूप बदलना ) है। विकरणधर्मित्व
वह है जब करणो कै न होने पर (या संक्षि होने पर) भी सर्वोच्च ( निरतिशय )
श्वय से सम्बन्ध हो जाय । यह् क्रिया को शक्ति है ।
विरोष अनात्मक दुःखान्त बिल्कुल निषेवात्मक ( } ९९५४९ ) ४
क्योकि इसमे केवल दुःख की निवृत्ति ही होती है। दुःख कौ निवृत्तिके बाद
रयं कौ प्राप्ति साटमक दुःखान्त मे होती है) एेशवयं मिलनेमें भौ दो प्रकार
करौ शक्तिर्या मिलती है टकशक्ति या जानने की शक्ति तथा क्रियाशक्तिया
करायंके खूप दिवलाने कौ शक्ति। इनके क्रमशः पाच ओौर तीन भेद ह।
इस प्रकार दुःखान्त का निरूपण हुआ ।
(४. कायं का निरूपण )
अस्वतन्त्रं सर्वं कार्यम् । तत्तिविधं-विद्या कला पृ्चुशचेति ।
एतेषां ज्ञानात्संशयादिनिवृत्तिः । तत्र पटुगुणो बिद्या । सापि
दविविधा-बोधाबोघस्वमावभेदात् । |
बोधस्वभावा विवेकाषिवेकप्रवृत्तिमेदाद् दिविधा। सा
चित्तमित्युच्यते । चित्तेन हि सवेः प्राणी बोधात्मकप्रकाशानु-
गहीतं सामान्येन विबेचितमविवेचितं चार्थं चेतयत इति ।
जो कुद भी अस्वतंत्र ( परतंत्र ) है वह सब कायं कहलाता है। वह तीन
प्रकार का है- विद्या, कला ओौर पशु । [ जीव-जड़-वगं अपने-अपने गणो के
साथ कभी स्वतन्त्र नहीं है। गुरा अपने-अपने आश्रयो के अधीन ह, जडपदाथं
जीवों क अधीन है। जीवों मे भी एक दूसरे की पराधीनता देली जातौ है--
खरी पति के अधीन, नौकर अपने स्वामी के अधीन, प्रजा राजा के अधीन
आदि । परमेश्वर के अधीन तो सभी है । पाशुपत-दशन मे जीवों को पशु कहते
है, जीवों के गुणों को विद्या भौर गुणसहित पृथिवी जादि जड़ व्यो को कला
कहते है । ] इन (मेदो ) के ज्ञान से संशय बादि की निवृत्ति होती है । इनमें
पशुं के गुण को विद्या ( 86600 ) कहते है । इसके भी दो भेद है--
वोधस्वभाव ओर अबोधस्वभाव वाली विद्या । |
३०८ सवेदशनसंग्रहे-
बोध स्वभाववाली या बोधात्मिका विद्यादो प्रकार की है क्योकि उसमें
विवेक या अविवेकं कौ प्रवृत्तियां होती ह । इस बोधात्मिका विद्या को चित्त भी
कहते ह । चित्तके ही द्वारा सभी प्राणी बोधात्मक ( वस्तुओं काज्ञान कराने-
वाले ) प्रका से अनुगृहीत ( प्रकाशित ) सामान्य रूप से सभी वस्तुओं को
जानता है (चेतयते, ~/ चित् = जानना), चाहे वे वस्तुएँ विवेक प्रवृत्ति से पूं हों
या विवेक प्रवृत्ति से रहित । [ जीवों मे विषय का ज्ञान करने के लिए जो परवृत्ति
उत्पन्न होती है उसी के रूपमे जीव में अवस्थित एक विशेष गुणकाही नाम
चित्त है । यह चित्त-गुण स्वयं बोधात्मक होने के कारण घट, पट आदि पदार्थो
का बोध कराताहै। जैसे सूयं या दीपकं स्वयं प्रकाशात्मक होने के कारणं
वस्तुओं का बोघ कराते ह उसी प्रकार चित्त के साथ भी यही बात है । चित्त
नाम की यह प्रवृत्ति कभी विवेक से युक्त होती है कभी उससे रहित । अब इन
दोनों की कृतिर्या व्यक्त होगी । ]
तत्र बिवेकप्रदृ्तिः प्रमाणमात्रव्यङ्ग्या । पश्चथंधमाधर्मिका
पुनरबोधास्मिका बिद्या । चेतनपरतन्त्रत्वे सत्यचेतना कला ।
सापि दविविधा-कार्याख्या कारणाख्या चेति । तत्र कायाख्या
दशविधा--प्रथिव्यादीनि पञ्च तानि, सूपादयः पश्च गुणा-
इचेति । कारणाख्या त्रयोदश्चविधा--ज्ञानेन्द्रियपश्चकं, कर्मन्द्िय-
पञ्चकम्, अध्यवसायाभिमानसंकल्पाभिधवृत्तिभेदाद् वुद्ध्यहं-
कारमनोरक्षणमन्तःकरणत्रयं चेति ।
उनमें विवेकर-प्रवृत्ति केवल प्रमाणो के ज्ञान से ही व्यक्त होती है। [ इसके
अतिरिक्तं जो सामान्य या विवेक से रहित प्रवृत्ति है वह अतीन्द्रिय होती है। वह
अपने साध्य अर्थात् सामान्यज्ञानात्मक फल से व्यक्तं होती है । चित्त बोधात्मक
हे तथा अपने बोघरूप स्वभाव से घटादि पदार्थो को ( जड़ होने पर भी इन्दं)
व्यक्त कर देता है । यह चित्त-गुण बोधात्मक है अतः ज्ञान का सधन बन
सकता है । ]
अबोधार्मिका विद्या वह् है जिकषमे परत्व की प्राप्ति कराने वाले घमं ओर
अधमं ये दोनों संस्कार रह! [ यह भी जीव का एक विरिष्ट गुण ही है किन्तु
इसका उपयोग ज्ञान मे कु नहीं । कारण यह है कि बोध कराना इसके स्वभाव
मेही नहीं ओौर ज्ञान बोधसे ही होता है।]
चेतन के अधीन रहनेवाली कला स्वय अचेतन होती है । इसके भी दो
भेद है-कायंकेरूपमें कला ( विषयरूपा कला ) ओर कारण के रूपमे कला
नकुलीश-पाडुपत-दशेनम् ३०६
{ इन्दरियल्पा कला }) । कार्य्या कला दस प्रकार की होती है--पृथिवी आदि
पाँच तस्व ( (7088 शलश€ा४३ ) ओौर रूप आदि पांच गुण ( 9४०५९
ललणल)#§ ) । कारणाष्या कला के तेरह मेद ह-- पाँच ज्ञनेन्द्रियां ( 9€736
0108708 ), पाँच कर्मेन्द्रियं ( 1०४०१ 01288 ) तथा अध्यवसाय (निश्चय),
अभिमान ( अनात्मा के साथ आत्मा का तादात्म्य स्थापित करना }) ओर
संकल्प नाम की तीन वृत्तियो ( ए 1061008 ) के भेद के कारण तीन रकार
के अन्तःकरण दधि ( 1091९९४ ), अहंकार ( 7० ) ओर मन ( (01.
{80४ ?76€ ) ।
विङ्ञोष--दस इन्द्थां भौर तीन अन्तःकरण कारण केरूपमें( कारः
शाख्या ) कला ह क्योकि ये विषयज्ञापन के कारण है। दूसरी ओरर्पाच
महाभूतो ओर उनके गुणों ( रूप, रस, गन्ध, स्प्चं, शब्द ) को कायंके रूपमे
कजा" कहते ह क्योकि ये इन्द्रियो के कायं है । दिषय इन्द्रियों के अधीन है ओर
इन्द्रिया विषयों के अधीन--इस प्रकार ये दोनों प्रकार कौ कलाएं आपसे एक
दूसरे के अधीन है। चेतन के अधीन तो दोनो ही है। इस प्रकार को गणना |
सिद्ध करती है कि सांख्य -दर्न का प्रमाव इन पर पर्याप मात्रा मे है। सांख्य में
इन दस ओर तेरह तों के अतिरिक्त पुरुष भौर प्रकृति मिलाकर कुल पचीस
त्व दिखलाये जति है ।
पश्चतवसंबन्धी पशुः । सोऽपि द्विषिधः --साञ्नो निरज्ञ-
नदचेति । तत्र साज्ञनः शरीरेन्द्रियसम्बन्धी । निरञ्जनस्तु
तद्रहितः । तत्प्रपशचस्तु पञ्चा्थ॑भाप्यदीपिकाद द्रष्टव्यः ।
पशुत्व ( पुनजंन्मादि गुण ) जिसमें हो बह पशुटै। यह मीदोप्रकारका
है-साजन ( शरीर ओर इन्दो से युक्त ) तथा निरजञन (शरीरेन्दरिय से रहित) ।
साजन वह है जिसे शरीर ओर इन्द्रियों से सम्बन्ध हो । | जिस सम्बन्ध के द्वारा
एक सम्बन्धी के घमं दूसरे सम्बन्धी मे भी समञ्च या कहे जाते है उस विशेष
सम्बन्ध को अजन कहते ह । जोव मं शरीर ओौर इन्द्रिय के सम्बन्ध से स्थूलत्व
कारात्व आदि घमो का वर्णन होता है अतः वह साज्न है। ] निरजन उस
सम्बन्ध से रहित होता है । इनका विस्तार पञ्चाथमाष्यदीपिका राश्लीकरभटु
के भाष्य पर टीका- लेखक अज्ञात ) आदि ग्रन्थो में देखना चाहिए ।
(५. कारण ओर योग का निरूपण )
समस्तयुष्टिसंहारानुग्रहकारि कारणम् । तस्येकस्यापि
गणकर्ममेदापिश्चया विभागः उक्तः “पतिः साद्यः" इत्यादिना ।
३१० सर्वदशेनसंगरहे-
तत्र पतित्वं निरतिक्चयदकक्रियाशक्तिमच्वं तेनेच्वर्येण नित्यस
न्रे संबन्धित्वम्.
बन्धित्वम् । आद्यत्वमनागन्तुरदवर्संबन्धितवम्-इत्यादश्ेकारा-
दिभिस्तीथेकरनिरूपितम् ¢ न,
दिभिस्तीथेकरनिरूपितम् । ।
सारी वस्तुओं की पृष्ट, संहार ओर अनुग्रह ( कृषा ) करनेवाले तत्व को
कारण ( ईश्वर ) कहते है । यद्यपि यह एक ही है फिरभी गुण ओौर कमंके
मदो कौ अपेक्षा रखने के कारण इसके विभाग ( 11108 ) मौ कदे गये
है- “ति आद्यगुा से युक्त है“. इत्यादि । इस सूत्र मं पति का अथंहै
निरतिशय ( सर्वो ) टक्शक्ति ओौर क्रिया शक्ति ( देखं परि० ३) से युक्त
होकर उसी रेश्वयं के द्वारा नित्य सम्बन्व धारण करना । अ का अथं हैएेसे
तेष्वयं से संबद्ध होना जो ( रेश्चयं ) आगन्तुक या आकस्मिक न हो ( प्र्युत नित्य
हो )--इसी प्रकार आदश" आदि ग्रन्थो के लेखक तीर्थकरों ( शाल््प्रवतंको }
ने इसका निरूपा किया है ।
चित्तद्वरेणेच्वरसंबन्धहेतुर्योगः ( पाञ्चु° घ् ५।२ )।स च
दविबिधः-क्रियालक्षणः, क्रियोपरमलक्षणर्चेति । तत्र जपध्या-
नादिरूषः क्रियारक्षणः । क्रियोपरमलक्षणस्तु निष्ठासंविद्गत्या-
दिसंज्ञितः । `
चित्त ( जीव के बोधात्मक गुणविशेष ) के दवारा [ जोव का ईश्वर के
षाथ जो सम्बन्ध होता है उसके कारणों को योग कहते ह । यह भी दो
प्रकार का है-- क्रिया से युक्त ओौर क्रिया की निवृत्ति वाला । जप, ध्यान आदि
के रूपमे जो योग ( जीवेश्वर सम्बन्ध करानेवाला ) है उसे क्रियायुक्त योग
कहते ह [ क्योकि इसमें कु काम॒ करना पड़ता है । | क्रिया की निवृत्तिवाला
योग वह् है जिसकी संज्ञाय निष्ठा ( महेश्वर मे अविचल भक्ति }, संवत् ( तत्व-
ज्ञान ), गति ( शरणागति ) आदि हैँ ।
( ६. विधि का निरूपण )
धमीर्भसाधक्व्यापारो विधिः।! स च दिविधः--
कषद्धमेरेतः
प्रधानभूतो गुणभूतश्च \ तत्र प्रधानभूतः साश्षदधमेदेतु्चयो \
सा द्विविधा- बतं द्वाराणि चेति! तत्र भस्मस्नानशयनोप-
हारजपप्रदक्षिणानि चतम् । तदुक्तं भगवता नङ्रीश्ेन- भस्मना
#गुणा-- सस्व, रजस्, तमस् । कमं-- वृष्ट पालन, संहार ।
नकलीश-पाञ्चुपत-दशेनम् ३११
त्रिषवणं स्नायीत, भस्मनि शयीत ( पा० ष्ठ १।८ अग्रतः )
इति ।
अत्रोपहासे नियमः । स च षडङ्गः । तदुक्तं पूत्रकारेण-
हसित-गीत-नृर्य-हुड्क्कार - नमस्कार-जप्यषडङ्खोपहारेणोपतिष्टे-
तेति ।
घमं ( महेश्वर ) ङ्पी अथं ( लक्ष ) की सिद्धि कराने के लिए ८ महेश्वर के
समीप पचाने केलिए) जोमौ व्यापारया कमं करे वह विधि है| विधान
होने के कारण इसे विधि कहते ह । ] इषकेदो मेद ह-प्रधान विधि जौर
गौरा विधि । प्रधान विधि वहै जो साक्षात् धमं का कारण हो, इसे चर्याभी
कहते है । इसके भी दो भेद है- त्रत ओौरद्वार। भस्म से स्नान, भस्म म
शयन, उपहार, जप ओर प्रदक्षिणा--ये व्रत ह । भगवान् नकुलीश ने कहा
है-- भस्म से तीन समय ( प्रातः, मध्या, सन्या ) स्नान करे { लेपन करे),
भस्ममें ही शयन करे, इत्यादि ।
यहाँ उपहार का अथं है नियमों का पालन । ईइसके छह अंग ह जेसाकि
सूत्रकार ने कहा है --हसित, गीत, नृत्य, हृड्क्कार ( एक प्रकार की ध्वनि ),
नमस्कार ओर जप्य--इस षडंग उपहार के दारा पूजा करे ।
१
तत्र॒ हसितं नाम ॒कण्ठोषटपुटविस्फ्ूजेनपुरःसरम् अहदेत्य-
इहासः । गीतं गान्धवेशासत्रसमयानुसारेण महेवरसंबन्धिगुण-
धमीदिनिमित्तानां चिन्तनम्। तृत्यमपि नाय्यास्रालुसारेण
हस्तपादादीनाघरक्षेपणादिकमङ्गभ्सयङ्गोपाङ्गसहितं भावामावसमेतं
च प्रयोक्तव्यम् । हडक्कारो नाम जिद्धाताटसंयोगानिप्पाद्यमानः
पुण्यो दरृषनादसटो नाद्: । हुडगिति शब्दालुकारो वपडितिवत् ।
यत्र लौकिका भवन्ति ततरैतत्सव॑गूटं प्रयोक्तव्यम् । शिष्टं
प्रसिद्धम् ।
हसित ( 1.8।९1१४९९ } का अथं है कण्ठ ओर ओष्टपुटो को हिला-हिलाकर
"अहह ध्वनि करते हुए अद्रहास करना) गान्धवं-शाखर ( संगीत विद्या } को
परम्परा ( समय = प्रसिद्धि, आचार, (071९ €11;0 ) के अनुसार महेश्वर से
सम्बद़ गुण ओर धमं आदि निमित्तो का चिन्तन करना ही गीत ( 900 )
है । नाव्यज्चाल्र ( 9००९९ 9 [४8 णाद ) के अनुसार हस्त-पादादि
३१२ सवेदशेनसंग्रहे-
का ऊपर फकना आदि अपने अंगों, प्रव्यंगों ओर उपांगों के साथ करं जिसमें
भाव ( आन्तरिक ) का अभाव ( हाव या अभिव्यक्ति) भी रहे, यही रत्य है।
[ ना्यशाख्न के नियमों से नृत्य को सीमित करना अनिवायं है । हस्तोत्क्षेपण,
पादोतकषेपणा आदि की भो विभिन्न मुद्राये ह जिनमें हदय की भावनाय बाह्य
मुद्राओं द्वारा अभिव्यक्त होती है । इनका विस्तृत विवरण भरत ने नाव्यशाख्र मे
किया है । नृत्य के आचाय स्वयं महेश्वर ह जिनका नाम नटराज भी है अतः
इनकी प्रसन्नता के लिए नृत्य की बनिवाययता स्वतः सिद्ध है। | हक्का
उस नादविशेष को कहते ह जो वृषभ (साड } की आवाज की तरह काहै
तथा जिह्व ओर तालु ( चवगं का उच्चारणस्थान ) क संयोग से उत्पन्न होने-
वाला जो पुरयप्रद शब्द है । "हुक्" शब्द वास्तव में “वषट् कौ तरह ही [ एक
अव्यक्त ] ध्वनि का अनुकरण करनेवाला शब्द है ।
जहां पर लौकिक पुरुष ( सामान्थ जन ) विद्यमान रदे, वहां पर इन सबों
का श्रयोग गुप्त रूप से करना चाहिए [क्योकि प्रत्यक्षतः लोगों के सामने करने पर
लोग “मूखं' कहकर उपासक को अपने व्रत से श्रष्ट करदं सकते है । इसलिए
व्रतचर्या को गोपनीय रखें या एकान्त में ही ये सब किया कर । एकान्तता हौ
रखने के लिए क्राथनादि द्वारचर्याओं की आवश्यकता पडती है जिन्हे हम इसके
बाद देखेंगे । ] अवदिष्ट [ दोनों ब्रतचर्यायं--जप भौर नमस्कार | तो प्रसिद्ध
दीदे)
द्वाराणि तु क्राथन-स्पन्दन-मन्दन-भूङ्गारणावितत्करणावित-
द्वाषणानि । तत्रासुप्रस्यैव सुप्तलिङ्गप्रदशेनं क्राथनम् । वाय्वभि-
भूतस्येव शरीरावयवानां कम्पनम् स्पन्दनम् । उपहतपादे-
न्दरियस्येव गमनम् मन्दनम् । सूपयोवनसम्पन्नां कामिनीम-
वलोकयात्मानम् काथुकमिव येर्धिलासैः प्रदशेयति तत्
शृङ्खारणम् ।
दारचर्याय ( बाह्य प्रदश्चन के योग्य मद्रायं ) ये है--क्राथन ( खरटि भरना
ॐ ), स्पन्दन ( देह कंपाना (॥९णणापट ), मन्दन ( लडखड़ाकर
चलना 1000982 ), श्युगारणा ( विलास का प्रदर्शन ), अवितत्करण ( उलटा-
सीधा काम करना ) ओर अवितद्धाषण ( अनाप-शनाप बकना ०867886
{818 }) ।
बिना नींद अयेही (जगेहृए ही) सोये हुए व्यक्ति के समान चेष्टे
( अखं बन्द करना, खरटि भरना आदि ) प्रदशित करना क्राथन है। वायुरोग
नक्कलीश-पाद्ुपत-दशेनम् ३१३
से अभिभूत व्यक्ति की भति अपने शरीर के अंगों को कंपाना स्पन्दन कहलाता
है। हे हृए वैर वालि ष्यक्ति की तरह लड्खंड़ा कर चलना मन्दनदहै। ल्प
( सौन्दयं ) ओौर यौवन से संपन्न किसी कामिनी को देखकर अपने को कामुक
के समान प्रदशित करते हए ( साधक ) जब कामुकों के योग्य जिन~जिन विलासो
का प्रद्न करतादहैवे श्छंगारण है। (दे° पार ° ९। १२-१७ ) [ वास्तव
ते उपासक इन दौ से मक्त है किन्तु लोगों को अपने पास से अलग करने के
लिए वह् उक्त बेष्टायं दिवलाता है। अभी भी बहुत से एेसे साधक भारत मे
विद्यमान है। |]
कार्याकायेविवेकविकलस्येव लोकनिन्दितकमेकरणमवित-
त्करणम् । व्याहतापा्ेकादिशब्दोचारणमवितद्धापणमिति ।
गुणभूतस्तु विधिश्वयालु्ाहकोऽुस्नानादिः मैध्योच्छि्टा-
दिनि्मितायोग्यताप्रत्ययनिदृत्यथेः । तदप्युक्तं सत्रकारेण--
अनुस्नाननिमौल्यलिङ्गधारीति ।
कतंब्य ओर अकतंव्य की विवेचना करने मे असमं व्यक्ति को तरह लोगो
के द्वारा निन्दनीय कमं करना अवितत्करण है । परस्परविरोधी, निरर्थक अ दि
शब्दों को बकते फिरना अवितद्धाषण कहलाता है । [ इस प्रकार प्रवान विधि
का वर्णान समाप्त हुजा । |
चर्या के अनुग्राहक ( सहायक ) अनुस्नान ज दिको गौण विधि कहते दहै।
इसका प्रयोग इसलिए होता है कि भिक्षान्न-मोजन, उच्छिष्ट-भोजन अदिके द्वारा
शरीरम जो अयोग्यता ( अपवित्रता) आ जाती है उसका निवारण इस
विधिके द्वाराही होता दहै। सूत्रकार ने यह भी कहा है--अनुस्नान, नित्य
ओर लिंग का धारण करनेवाला [ पवित्र होता है ] ।
विरोष- प्रधान विधि ( या चर्या ) का पालन अपवित्र अवस्था मे नहीं `
किया जाता । भोजन के अनन्तर बिना स्नान किये हए उच्छिष्टादि अन्नजनित
दोष रहते है । अतः अपवित्र दशा मे योग्यता के अभावमे चर्या का अधिकार
नहीं रहता । मल-मूत्र-त्याग के बाद भो वही बात दहै) यह अपवित्रता
अनुस्नान आदि गौण विधियो से दूर की जा सकती है। अनुस्नान ज्ञान का
प्रतिनिधि है जिसमे जलस्प्ं, आचमन, भस्मस्नान आदि रहै। व्रतो मे षढा गया
अस्मस्नान तीनों कालों में विहित दै, बह नित्य है जब किं यहां का भस्मस्नान
नैमित्तिक ( 00५688}01)81 ) है। अनुस्नान के अनन्तर पवित्र होकर निर्माल्य
३१४ सबेदशनसंमहे-
ओौर भस्म वारण करें । जबतकये शरीरमें हैँ तब तक उपासक अपवित्र नहीं
हो सकता । तन्त्रसार में कहा है- निर्माल्यं शिरसा धायं सर्वाद्धे चानुलेपनम् ।
( ७. समासादि पदाथ ओर अन्य शाखौ से तुलना )
तत्र समासो नाम ध्मिमात्राभिधानम् । तच्च प्रथमघ््र एव
कृतम् । पश्चानां पदाथानां प्रमाणतः पञ्चाभिधानं विस्तरः ।
स॒ खलु राश्चीकरमाष्ये द्रष्टव्यः । एतेषां यथासम्भवं लक्षणतोऽ-
सङ्रेणाभिधानं विभागः । स तु विहित ए ।
[ ऊपर सर्वज्ञत्व का लक्षणा करते हुए समास, विस्तर, विभाग ओौर विशेष
जैसे शब्दों का प्रयोग किया गया था । अब उन शब्दों की व्याख्या की जाती है ।]
केवल धियो ( पदार्थो ) का नामभरले लेना समास कहलाता है। रेषा
प्रथम सूत्रमहीक्रियागयाहै [कि पाचों पदार्थोका चतुराईदसेनामले लिया
गया है ] ) पाचों पदार्थो का प्रामाणिक रूप मेँ विस्तारपूवंक ( पञ्च = विस्तार )
नाम लेना विस्तर है। इसे राशीकर-भाष्य ( संभवतः कौरिडन्य-भाष्य )
मे देखना चाहिए । इन सवो का यथासंभव लक्षणा दिखलाते हए, एकं दूसरे
पदाथं से बिना मिलाये हृए ( स्पष्टरूपसे), वंन करना विभाग कहलाता
है । इसका विधान तो इस शाखरमें हुभादहीहै।
शाखरान्तरेभ्योऽमीषां गुणातिज्ञयेन कथनं विशेषः । तथा
दि--अन्यत्र दुःखनिवृततिरेव दुःखान्तः । इह त॒ पारमेश्वयप्रा-
भिश्च । अन्यत्राभूत्वा भावि कायम् । इह तु नित्यं पश्वादि ।
अन्यत्र सापेक्षं कारणम् । इह तु निरपेक्षो भगवानेव । अन्यत्र
केवस्यादिफलको योगः । इह तु पारमेशवयदुःखान्तफलकः ।
अन्यत्र पुनराब्तिरूपस्वगोदिफलको विधिः । इह पुनरपुनरा-
वृत्तिरूपसामीप्यादि फलकः ।
दूसरे शाखो ( न्याय आदि ) से इस शार घे कथित इन पदार्थो के गुणों
के पार्थ॑क्य का वरन करना विह्ञोष कहलाता है । [ पाशुपत शास्र मे जिन पाच
पदार्थो का वणन हु है उनके लक्षण दूसरे शानो में पृथक् रूप में दिये गये
है। इस शाख के लक्षणों से उन लक्षणों की तुलना करके अपने लक्षणों को श्रेष्ठ
सिद्ध करना ही विशेष कहलाता है । स्मरणीय दहै कि सर्वज्ञ पाचों पदार्थोको
नङ्कलीश-पाशुपत-दशेनम् २१५
समास, विस्तर, विभाग ओौर विशेष के साथ ही जानतादहै। अब अन्य शास्त्र
से अपने शाख्र की विशेषतायं बतलाई जायेंगी । |
उदाहरणतः, ( १ ) दषरे शस्त्रो मे दुःखसे मूक्तहो जाना ही दुःखान्त
( 1069 मोक्ष ) है किन्तु अपने ( पाशुपत ) शाख मे परम रेश्चयं को
प्राति भी होती है। (२) दसरे शाख्रोंमे कायं वह दहै जो पहले विद्यमानन
हो पीछे [कारकादि के व्यापारो ( प्रयासों) से | उत्पन्न हो ( अर्थात् कायं
अनित्य है)।, किन्तु अपने शाख में पशु मादि नित्य पदार्थो को कायं कहते है |
( ३ ) अन्य शाखं मे कारण सपिक्ष होता है ( जैसे वेदान्त मेँ धर्माघिमं की
अपेक्षा रखने वाला ईश्वर ) जब कि इस शास्रमे निरपेक्ष भगवान् ही कारण
होता है। (४) द्सरे शाखं मे योग वहै जो केवल्य की प्राप्ति करादे
( जैसे योगशा में कहा गया है किं जब चेतन बुद्धि आदि उपाधियोंसे रहित
होकर अपने स्वप मे अवस्थित होता है तब पुरुष को कंवल्य मिलताहैजो
योगसे संभवदहै)। इस शाख्रमे योग उसे कहते जो परम ेश्वयं से युक्त
दुःखान्त ( मोक्ष ) देता है। (५) अन्य शास्रं म (जसे मीमांसा मे ) विधि
वह है जो स्वगं आदि एेसा फल प्रदान करे जिक्च ( फल ) कौ आवृत्ति (निवृत्ति)
फिर हो जाय, लेकिन इस शाल्रमें विधिसे सामीप्य आद फल मिलता है
जिसका नाश्च संभव नहीं । [ ईश्वरसामीप्य पाकर फिर वहां से लौटना नहीं है,
मीमांसा की विधियो के अनुसार काम करने के वाद स्वंफल मिलता है
किन्तु बह क्षणिक होता है-पुरय क्षीण होने पर फिर मत्यंलोक में आना ही
पडता है । |
विरोष-पाश्चपत-शाल्र का "विशेष" बहुत महच्वपूणं है। यदि सभी
दार्च॑निक अपने-अपने दशैनों का विशेष व्यक्त क्रते तो बड़ा ही सुन्दर होता ।
विज्ञापन ओर पदार्थज्ञान दोनों का अभूत समन्वय होता । यह् विशेष पाञुपत-
दशन को विशिष्ट भूमि पर स्थापित करता है जिसमे अन्य सम्प्रदायो को अपेक्षा
पाशुपत शार को अपनी विशेषतायं स्पष्ट व्यक्त होती है ।
( <. निरपेक्ष इश्वर की कारणता }
ननु महदेतदिन्द्रजारं यच्िरपेक्षः परमेश्वरः कारणमिति ।
तथात्वे कमवैफल्यं स्वकार्याणां समसमयसपुत्पादश्ेति दोषद्वयं
्रादुःष्यात् ।
सैवं मन्येथाः । व्यधिकरणत्वात् । यदि निरपेक्षस्य भग
बतः कारणत्वं स्यात्तं कर्मणो वैफव्ये किमायातम् ? प्रयोज-
३१६ स्बदशेनसंग्रहे-
नाभाव इति चेत्--कस्य प्रयोजनाभावः कमेवेफय्ये कारणम् १
फ कर्मिणः, किं वा भगवतः!
यह शंका होती है कि यह बहुत बडा इन्द्रजाल ( क्षूढी बात, इन्द्रियो की
श्रान्त, ईश्वर की माया ) है कि निरपेक्ष ( ^.080]प॥९ ) परमेश्वर को [पाशुपत
दशन मेँ | कारण मानते है क्योकि एेसा करने पर दो दोष उत्पन्न होगे--सभी
कमं निष्फल होंगे तथा सभी कायं एक साथ ही उत्पन्न होने लग जायें गे ।
[ यदि ईश्वर निरपेक्ष या बिल्कुल स्वतन्त्र होकर कायं करता है तब तो प्राणियों
के द्वारा किये जाने वाले धमं या अधमंका बिना विचार ही किये फल देता
होगा । एेसी दक्षा में पुय या पाष कमं तो व्यथं हीर्है। कायं की उत्पत्ति में
हाथ न बटाने के कारण सभी कायं अपने-आप एक हौ साथ उत्पन्न होने लगेगे ।
दूसरी भोर यदि ईशर को सापेक्ष मान लं तो ये कठिनादयां स्वर्यं सहल हो जायं
क्योकि ईश्वर के दारा सुखदुःख का संपादन होगा भौर कर्मो की सफलता
मानी जायगी । यदि सभी कमं एक साथ नहीं किये जायेंगे तो उनको फलप्रापि
मी एक साथ नहीं होगी । यही कारण है कि वेदान्त में ईशर को धर्माधमपिक्षी
मानते ह । ( ब्र° सू° २।१।३४) ]
पाशुपत-द्॑नवाले कहते है कि आप लोग एसा न समभे क्योकि दोनों के
( ईश्वर ओर प्राणियों के ) कारयकषेत्र के आधार अलग-जलग है। [ प्राणियों
के द्वारा किये गये कर्मा से उत्पन्न अदृष्ट प्राणियों पर हौ आधारित है। संसार
को उत्पति का व्यापार ईश्वर पर आधारित है। दूषरी जगह का अदृष्ट दुषरी
जगह के व्यापार पर कंसे अपनी छाप दे सकता है 2 संसारोत्पत्ति ओौर कमफल
बिल्कुल पृथक है--एक को दूसरे से क्या लेना देना ? अतः निरपेक्ष इधर को
ही कारण बनाना ठीक है। |
यदि निरपेक्ष भगवान् को ही संसार का कारण मानं ओौर कमं की विफलता
माननी ष्डेतो क्या आपत्ति (क्या फल पडेगा)? यदि आप ककि
रेता करने से कोई प्रपोजन ही नहीं रहेगा, तो हम फिर पूगे किकमंको
विफल मानने मे कारणास्वल्प किंसका प्रयोजनाभाव रहेगा ? क्या कमं करनेवाले
प्राणी के प्रयोजन का अभाव कमं की विफलताका कारण होगा या भगवान्
( संसारोत्पादक ) के प्रयोजन का अभाव?
नाचः। शरेच्छानुग्दीतस्य कमेणः सफरत्वोपपत्तेः । तदन-
ुग्रहीतस्य ययातिप्रभूतिकमेवत् कदाचि न्निष्फरत्वसंभवाच्च । न
नङ्कलीश-पाञ्चपत"दशेनम् ३१७
चैतावता कमेसु अप्रवृत्तिः । कपेकादिवदुपपत्तेः । दश्वरेच्छाय-
ततया पशनां प्रवृत्तेः ।
यहला विकल्प ( कि कमं करने वलि प्राणी कौ प्रयोजन-शून्यता कर्मवेफल्य
काकारणदहै) तोहोही नही सकता । ईश्वर की इच्छासे अनुगृहीत होने
( ऽणक०५९९ ) पर ही कमं को सफलता निर्भर करती है। ईश्वर को इच्छा
चे संपादित न होने पर कभी-कभी ययाति आदि पूरुषो के कमं की तरह हमारे
कमं भौ निष्फलदहो जा सक्ते ह! [ ईश्वर तो कमं से निरपेक्ष रहकर ही
जगत्कारण बनता है किन्तु कमं को हरेक दशा मे ईश्वरसापेक्ष होना पडता है ।
कषि-कमं मे अंकुर उत्पन्न करने की सामथ्यं मेष पर निर्भर है किन्तु मेव कृषि-
कमं से निरवेक्च है। जीव तीन प्रकारका कमं करता है- कुछ कर्मो से ईश्वर
्रसन्न होता है, कच कर्मा से कृद होता है ओर कुश करमो पर उदासीन रहता
है। प्रथम दो कमं तो फल देते ही दहै, भले ही वह अच्छी फल हो या बुरा ।
किन्तु अन्तिम कमं निष्फल होता है। जिस कमं को वह अनुगृहीत या स्वीकार
नहीं करता उसका फल नही मिलता । फिर भी इससे कोई क्षति नहीं है । ] इससे
(कमं के निष्फल होने पर) भी कर्मो में अप्रवृत्ति नहीं होती क्योकि किसान आदि के
उदाहरणो से इसकी पुष्टि हो जातौ ह । ईश्वर की इच्छा के अधीन ही पञयुओं की
प्रवृत्ति होती है । [ आशय यहं है कि जहाँ ईश्वर उदासीन रहता है उन कर्माका
फल नहीं मिलता । परन्तु यह कोई पहले से नहीं जानता किं इस कं मके प्रति
श्वर उदासीन है। परिणाम यह होता हैकि क्मंके निष्फल होने पर लोग
फिर से उसके सम्पादन में लगते है । खेती खराब हो जाने पर भी किसान उसमें
फिर लगता है--उसे यह ज्ञान कहाँ कि खेती फिर खराब होगी । यदि कोई पहले
से कम॑तैफल्य का ज्ञान रवे तब तो उसे करेगा ही नहीं । इसलिए यह कहना
कि प्राणी का प्रयोजनाभाव ही करमंवेकल्य का कारण ह, ठीक नहीं । प्राणौ
नं प्रयोजन ( लक्ष्य 110117€ ) रहने पर भी तो कमं निष्फल हो जाता है।
इश्वर की इच्छा पर ही कमं निंर करते है। स्मरण रखना है किं फलदान के
दो ल्लोत है- ईश्वर ओौर कमं। ईरके दारा दिये गये फल में कमं की अपेक्षा
नहीं है जव किं कमं केद्वारा मिलनेवाले फल मे ईश्वर की अपेक्षा रहती है ।
न तो ईश्वर के स्वातच््य की हानि ही होती है भौरन जीव की अप्रवृत्ति ही देखी
जाती । |
नापि द्वितीयः । परमेश्वरस्य पयौपठकामत्वेन कमसाध्य-
प्रयोजनायेश्चाया अभावात् । यदुक्तं समसमयस्त्पाद इति,
तदप्ययुक्तम् । अचिन्त्यश्क्तिकस्य परमेश्वरस्य इच्छायुविधा-
३१८ सबेदशेनसंग्रहे-
© ४
यिन्या अब्याहतक्रिया्ञक्त्या कायकारितवाभ्युपगमात् । तदुक्तं
सम्प्रदायविद्धि :--
९. कमादिनिरपेश्षस्तु स्वेच्छाचारी यतो ह्ययम् ।
© ^~
ततः कारणतः शास्त्रे स्ेकारणकारणम् ॥ इति ।
दूसरा विकल्प (किं ईश्वर में प्रयोजन नहोनादही कमं की विफलता का
कारणा है) भी ठीक नहींहै। परमेश्वरको सारी कामनायं परिपू है अतः
कमक द्वारा उत्पन्न होनेवाले प्रयोजन कोः उसे अपेक्षा नहीं रहती । [ ईश्वर
कर्मनिरयेक्ष है, कमं सम्बन्धी कोई मो इच्छा उसमे नहीं है। इस प्रकार कमं की
विफलता का कोई कारण नहीं है । निरपेक्ष ईश्वर की कारणता पर इसका कोई
प्रभाव नहीं पड़ता । |
दूसरा आरोप जो यह लगाया गया है कि सभी काथो का उत्पादन एक ही
साथ होने लगेगा यह भी ठीक नहीं है। परमेश्वर की शक्ति अचिन्तनीय दै,
उसकी क्रियाशक्ति अब्याहत है ( कहीं भो कुरिठत नहीं होतो ) जो उपकी इच्छा
काही अनुसरण करती है। परमेश्वर की इस राक्तिमें कोई भी कायं करनेकी
शक्ति है । संप्रदाय के वेत्ताओं ने कहा है--
कि वह ( ईश्वर ) कर्मादि से निरपेक्ष ( स्वतन्त्र ) है, अपनी इच्छा के
अनुसार कार्य करनेवाला है इसी कारण से शाखरमें उसे सभीकारणोका
कारण कहा गया है ।'
४ ( १०. इश्वर के ज्ञान से मोक्च-प्रा्ति )
नयु दश्चेनान्तरेऽपीशवरज्ञानान्मोक्षो रभ्यत एवेति तोऽस्य
बिशेष इति चेत्- मेवं बादीः । बिकस्पाटुपपत्तेः । किमीरवर-
विषयज्ञानमात्रं निबाणकारणं किं वा साक्षात्कारः अथ वा यथा-
वत्तत्वचनिइचयः !
नाद्यः । शाख्मन्तरेणापि प्राकृतजनवद् “देवानामधिपो
महादेवः” इति ज्ञानोत्पत्तिमत्रेण मोक्षसिद्रो शास्त्राभ्यासवेफ-
ल्यप्रसङ्गात् । नापि दवितीयः । अनेकमलग्रचयोपचितानां
पिरितलोचनानां पञ्चूनाम् परमेऽ्वरसाक्षात्कारानुपपत्तः ।
कोई यह पच सक्ते है कि दूसरे द्॑नोमें भीतो ईश्वरके ज्ञान से मोक्ष
मिलता ही है, इस पाशुपत-दर्च॑न में क्या विशेषता है ? हम करगे किं एेसा मत
कहो । नीचे दिये गये विकल्पो मे [ किसौकेद्वारा भी तुम्हारी बात | सिद्ध नहीं
।
।
प
|
नकुलीश-पाड्पत-द शेनम् ३१६
होगी । निर्वाण या मोक्ष का कारण वास्तवमें क्या है--ईर के विषय म
केवल ज्ञान प्राप्त कर लेना या उसका साक्षात्कार ( दशैन ) करना या यथाथ
खूप से ( जैसी वस्तुस्थिति है वैसे ) तक्वो का निणंय करना !
पहला विकल्प तो ठीक नहीं है क्योकि विना शाख के भौ साधारण
व्यक्तियों की तरह, "महादेव देवताओं के राजा है" केवल इसी ज्ञान की
उत्पत्ति से ही मोक्ष की सिद्धि हो जायगी, शास्त्रों का अभ्यास करना निष्फल है ।
दूसरा विकल्प भी नहीं ही ठीक है। अनेक प्रकारके मलोके समूह से भरे
हए तथा मांस की ओंखोवाले पशु ( जीव ) परमेश्वर का साक्षात्कार कर सकंगे,
यह असम्भव दहै ।
ठतीयेऽस्मन्मतापातः । पाश्चुपतश्ास्त्रमन्तरेण यथावत्तच्च-
निश्वयानुपपत्तेः । तदुक्तमाचार्यः-
१०. ज्ञानमात्रे वथा शास्त्रं साक्षाद् दष्टस्तु दुरम ।
पञ्चाथादन्यतो नास्ति यथावत्त्निदचयः॥ इति ।
तस्मात्पुरुपार्थकामैः पुरुषधोरेयैः पथ्चाथंग्रतिपादनपरं पाञ्ुपत-
शास््रमाश्रयणीयमिति रमणीयम् ॥
इति श्रीमत्सायणमाधवीये सवद शेनसं ग्रह
नङुलीशपाश्चपतदशेनम् ॥
नम ¶> < -
तीसरे विकल्प को स्वीकार करने परतोफिर हमारे ही द्लैनमें अना
पड़ेगा । पाशुपतशाख्र के बिना तत्वों का यथार्थं निश्चय नहीं हो सकता । इसी
बात को आचार्यो ने इस प्रकार कहा है- "यदि ज्ञान मात्र से [ मोक्ष मिलता
है ] तो शास्त्र व्यथं हो जा्ेगे, ईश्वर का साक्षात् दन करना दलंमहीहैः
तत्वों का यथार्थं निदचय पञ्चाथं ( पाच पदार्थो कं प्रतिपादक पाशुपत शास्त्र)
के बिना हो ही नहीं सकता" इसलिए पुरुषार्थं की कामना करनेवाले उत्तम पुरुषों
को पाँच पदार्थो का प्रतिपादन करनेवाले पाशुपत-शास्त्र का आश्रय लेना
चाहिए यही अच्छा है।
इस प्रकार श्रीमान् सायएा माधव के सवदर्नसंग्रहमें
नकुलीश-पाशुपत-दंन [ समाप्त हुजा । |
इति बालकविनोमाशङ्करेण रचितायां सवंदशंनसंग्रहस्य प्रकाश्ाद्यायां
व्याख्यायां नकुलीकशपाशुपत दशंनमवसितमू ॥
०2९००
+ # =
( ७ ) दोव-दरनम्
पाशः पुः पतिरिति चरितयेन सवं
व्याप्तं स एव भगवाञ्छिव इंश्वरोऽत्र ।
कमीयपेश्षत इतीह विशेषणेन
युक्तं तमेव पति मीश्वररूपमीडे ।।-ऋषिः ।
( १. शोवागमसिद्धान्त के तीन पद्ा्थं )
तमिमं “परमेश्वरः कमोदिनिरपेक्षः कारणमिति, पक्ष
बैपम्य-ेण्य-दोषदषितत्वात् प्रतिक्षिषन्तः, केचन माहेश्वराः
सोवागमसिद्धान्ततच्वं यथावदीक्षमाणाः, कमादिसापेश्वः परमे-
श्वरः कारणमिति पक्षं कक्षीङुवांणाः, पक्षान्तरपुपक्षिपन्ति-
पतिपशचुपाशभेदात् त्रयः पदाथा इति । तदुक्तम् तन्त्रतच्वज्ञे--
१. त्रिपदां चतुष्पादं महातन्तरं जगद् गुरुः ।
घरत्रेणेकेन संक्षिप्य प्राह विस्तरतः पुनः ॥ इति।
कु माहिश्वर ( महेश्चर-सम्प्रद।य के दार्चनिक }) इस उपयुक्त ( पाशुपत )
पक्ष को स्वीकार नहीं करते कि कर्मादिसे पृथक रहकर परमेश्वर संसार का
कारण है" । यह पक्ष इसलिए तिरस्करणीय है कि इसे स्वीकार करनेमेदो
दोष आते ह- वैषम्य (अर्थात् जीवों के सुखदुःख के सम्बन्ध में ईरवर कौ
दृष्टि असमान या पक्षपाती रहेगी, क्च जीव अपने-आप दुःल ही दुःख ज्ञलंग,
दूसरे सुखोपभोग करंगे--ईड्वर कारण होने पर भी देखता रहेगा, लोग उसपर
पक्षपात का आरोप करगेही) तथा निदंयता ( ईरवर निदंयतापूवेक संसार
का संहार करेगे वयोकि प्राणियों के कमं से तो ईङ्वरं को कुं लेना देना
नहीं है ) । [ यदि ईदवर कर्मादिसापेक्ष रहँ तो कोई दोष ही न रहे- सुखदुःखं
का उपभोग अपने आप नहीं होगा, प्रारियोंके कर्मो का भी फलदान के समय
विचार होगा, कमं भौ असाधारण कारण रहैगे; अतः न तो पक्षपात कौ भावना
रहेगी क्योकि कर्मानुसार फल मिलेगा, ओर न निदंयता का आरोप ईश्वर पर
लगेगा वयोकि न्याय होने पर निर्दय ओौर सदय केसा ? ] ये ( माहेश्वर ) शेवागम
(समी शेव सम्प्रदायो का मूलग्रन्थ ) के 'सद्धान्तोंके रहस्य को यथाथ रूप
शेव-दशेनम् ३२१
से देखते दै वे यह पक्ष मानते हकि कर्मादि से संबद्ध ( सपक्ष ) परमेश्वर संसार
काकारणहै, इस प्रकार दूसरे पक्षों ( मतो) का प्रस्ताव करते है--पति
( श्वर ), षडु ( जीव ), पाश ( बन्धन ) कै भेदसे पदाथं तौन ह। तन्त्रका
तरव जानने बाले लोगों ने कहा भी है-- "संसारके गुरुने एकसूत्रमेही तीन
वदार्थो ओर चार पादं से निर्मित महातंत्र का संक्षेप किया, फिर उका
निरूप विस्तार से किया ।”
विदोष--देवदसष॑न के मूल ग्रत्थ है शेवागम जिनमें शिवसंहिता, अहिबहन्य-
संहिता आदि प्रसिद्ध है। इसके अनंतर आगम ओौर यामल ग्रन्य है जौ सभी
संस्कृत मे है । इनके अतिरिक्त शलैवमतकाजो गढ़ तमिठदेशमेंदहै, वहांकी
परपरा मे तमिक माषा सैव ग्रंथ प्राप्तर्है। ४ संतोंको बात वहाँ भिलती
ह जिनमे चार आचार्यो-अष्पार, ज्ञानसंबेध, सुन्दरमूति तथा माशिक्षवाचक
( समय ७वी.८वीं श्ञ० )--का नाम प्रसिद्ध है। इन सों ने इस मत का प्रवतंन
किया । इस प्रकार उत्तरी भारत मे जहां संस्कृत के आगमग्रन्थ शेवमत की
मूल भित्ति है वहां भारत मे उक्त आचार्यो कौ तमिक रचनायें ही शेवमत का
आधार है । इन्हे दक्षिण मे लोग दक्षिणी आगमो के समान ही अत्यंत अभ्यहित
मानते है । वास्तव में शैवमत अभी दक्षिणम ही जीवित है। इन ग्रंथों को
दक्षिा मे "तौवसिद्धान्त' या लैवागम' भी कहते है। वहाँ प्रसिद्धि कि
शिव ने अपने पाच मुखो से २८ तन्वो का आविर्भाव करिया। उनकी संख्या
निन्नलिखित रै-
( १ ) सद्योजात मूख से--कामिक, योगज, चिन्त्य, करण, अजित (५) ।
( २) बामदेव मूख से-- दीप्त, सूक्ष्म, सहल, अंशुमान् , सुप्रमेद ( ५) ।
( ३ ) अघोर मुख से-- विजय, निश्वास, स्वायम्भुव, अनल, बौर ( ५)
( ४ ) तत्पुरुष मुख से--रौरव, मुकुट, विमल, चन्द्ज्ञान, बिम्ब ( ५ )।
( ५ ) ईशान मुख से--प्रोद्रीत, ललित, सिद्ध, संतान, सर्वोत्तिर, परमेश्वर,
किरण ओर वातुल (८),
अभिनवगुप्त द्वारा रचित तन्त्रालोक को टीका करते समय जयरय ने इन
तत्रो का उत्लेख किया है । इन तन्वो पर भी अनेक टीकायं ह जिनसे शेवागम-
साहित्य की विपुलता का अनुमान लग सकता है । इसके अलावे भी सद्योज्योति
(८०० ई० } के द्वारा रचित नरेवरपरीक्षा, रौरवागमव्ृत्ति, तत्सं ग्रह, तच्व-
त्रय, भोगकारिका, मोक्षकारिका ओौर परमोक्षनिरासकारिका, हरदत्त रिवाचायं
( १०५० ई० ) रचित श्रुतिसूक्तिमाला ओौर चतुरे दतात्पयंसंग्रह, सामकरण्ठ
( ११०० ई० ) लिखित मातङ्खवृत्ति, नादकारिका ओर सद्योज्योति कै ग्रन्थों
की टीकाये, श्रीकण्ठ ( ११२५ ई० ). का रत्नत्रय, भोजराज ( वही समय )
२१ स सं
ननि त च = >
~र? - या दि नइ श कुक् "मसर सह
--
०.
३२२ सवेदशेनसंग्रहे-
को तसवप्रकादिक्षा ओर रामकरठ के शिष्य अघोरदिवाचायं रबित तच्व-
अ्रकाचिका ओर नादकारिका की वृत्तियां-येग्रन्थ भी बहुत महच्वपूणं दै ।
सद्ोज्योति के अन्तिम पाँच ग्रन्थ, भोजराज कौ तच्वप्रकाशिका, रामकरठ की
नादकारिका ओर श्रीकण्ठ का रत्नत्रय-ये आठ ग्रन्थ अष्टप्रकरण कहलाते
ह । ये सिदधान्तग्रंय चैवागमसंघ से नागराक्षरों में प्रकाशित हो रहे है! विदोष
विवरण देखं--पं० बलदेव उपाध्याय, भारतीय दशन" पृ ५५०-५२ ।
©
अस्यार्थं :--उक्ताद्धयः पदाथ यस्मिन्सन्ति तत्विपदाथं,
विद्याक्रियायोगचयीख्याश्चत्वारः पादा यसिस्तच्चतुश्वरणं
महातन््रमिति । तत्र पञ्चूनामस्वतन्त्त्वात्पाश्चानामचेतन्यात्
तद्विलक्षणस्य पत्युः प्रथमथुदेशः । चेतनत्वसाधम्योत् पशनां
© +
तदानन्तर्यम् । अवशिष्टानां पाश्ञानामन्ते विनिवेश इति करम-
नियमः ।
इसका यह अथं है कि उपयुक्त तीन पदाथ ( पति, पशु, पाश ) जिसमे ह
वह ( महातंत्र ) श्रिपदा्थं' कहलाता ३, विद्या, क्रिया, योग, ओौर चर्या नाम के
चार पाद ( चरण ) भी जिसमें ह वह महातंत्र चतुश्चरण' है ।
दीन पदाथौँ में पूर्वापरक्रम--इनमे पगु तो स्वतंत्रही नहीं ह, पाञ्च
( संसार ) अचेतन ही है, इसलिए इनसे विलक्षण ( 01881701} 8 ) रहने बाले
( अर्थात् स्वतन्त्र ओौर चेतन ) पति का पहले नाम लिया गया है । [ पति से |
चैतन्य धमं समान रूप मे होने के कारण उसके बाद पश्युञओं ( जीवों ) का नाम्
लेते ह । अव बाकी बचे हए पाद्या ( जड़ पदार्थो }) का नाम अंत मे लेते, यही
इनके पूर्वापर क्रम का नियम है।
= दीक्षायाः परमपुरुषाथेदेतत्वात् तस्याश्च पञ्ुपाशेश्वरस्वरूप-
पायभूतेन मन्तरमन्त्रेशरादिमाहात्म्यनिश्चायकेन ज्ञानेन
बिना निष्पादयितुमशक्यत्वात् तदबबोधकस्य विद्यापादस्य प्राध-
म्यम् । अनेकविधसाङ्गदीक्षाविधिप्रदश्चकस्य क्रियापादस्य तदा-
नन्तर्यम् । योगेन बिना नाभिमतभ्राक्िरिति साङ्गयोगज्ञापकस्य
^~ ©
योगपादस्य तदुत्तरत्वम् । विहिताचरणनिषिद्धवजेनरूपां चां
विना योगोऽपि न निर्वहतीति ततप्रतिपादकस्य चयोपाद्स्य
चरमत्वमिति षिवेकः ।
६ ३२३
च!र पादौ का तारतम्य-दीक्षा ( गुर से नियमपू्वंक मंत्र का उपदेश
लेना+ ) से ही परम पुरूषाथं ( मोक्ष ) की प्राति होती है, किन्तु दीक्षा का निष्पा-
दन ( संपादन ) उष ज्ञान के बिना संमव नहीं दै जिसज्ञानके द्वारा षु, पाय
ओौर ईश्वर के स्वरूप का निणंय होता दहै ( = पदार्थोके निय करनेकाजो
उपायै), तथा जो ज्ञान मन्त्र, मन्तरेश्वर आदि कौ महिमां का निरय कराता
है । [ पशुओं की विशिष्ट सामथ्यं के प्रतिबन्धक अनेक पाश है, भक्तों के अधिकार
के अनुसार ईर इन पाशो को मिटाता है । इन सों को जानने पर ही परति,
पदु ओौर पाश पृथक रूपमे समज्ञमें आ सकता है। इसीलिए सबसे पहले
दीक्षा का उपपादकं ( साधक ) ज्ञान या विद्या अपेक्षित है। |
अंगों के साथ अनेक प्रकार की दीक्षाओंको विधियो का प्रदर्छन करने वाले
क्रियापाद का वर्णान उसके बाद हुआ दहै। उसके बाद योगपाद् आताहै
जिसमे सांगयोगका वर्णान है क्योकि योगके बिना अभिमत वस्तुकी प्राप्ति
नहीं होती । चर्या वह है जिसमें विहित कमं का आचरण तथा निषिद्ध कमं का
वजंन { त्याग ) हो, इसके बिना योग॒परिपक्क नहीं होता, अतः योग के प्रति-
पादक चयांपाद् को सवते अन्तमें रखा गया है। यही विचार किया जाता
है । [ सर्वप्रथम ज्ञान की आवदयकता होने से विद्यापाद, फिर दीक्षाविधि के डप
मे क्रियापाद, तब दीक्षाका ग्रहण करने के अधिकार की सिद्धिके लिए जप-
ध्यानादि से युक्त योगपाद ओर अन्तमेंयोग की सहायता करने वाली चर्यां
का पाद । योग ओषधि है तथा चर्या पथ्य । दोनों की परस्पर अपेक्षा है। इसी
रमसे शेवागमों मे चार पादोंकाक्रम रखा गया है।२ अब क्रमशः तीन पदार्थो
का निरूपण आरम्भ होता है । |
( २. पति" का निरूपण )
तत्र पतिपदाथः शिवोऽभिमतः । शरक्तात्मनां बिचेधरादीनां
च यद्यपि शिवत्वमसि्ति, तथापि परमेश्वरपारतन्त्यात् स्वातन्त्यं
नास्ति । ततश्च तचुकरणयुबनादीनां भावानां संनिवेश्चविशिष्टत्वेन
-नकय ~~~ --~~-~-~ ~ ~
१ दिव्यज्ञानं बलो दद्यात्कुयत्पापस्य संक्षयम् । तस्मरीक्षेति सा प्रोक्ता
मूनिभिस्तच्ववेदिभिः । मन्त्रो का ग्रहण दीक्षा-विषि से ही होता है-
ग्रन्थे दृष्टा तु मन्त्रं वै यो गृह्णाति नराधमः। मन्वन्तरसहस्रेषु निष्ृतिर्नेव
जायते ।
२ इनं तभिल में सरियेई, किरिकेइ, योकम् ओर ज्ञानम् कहते है ।
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३२४ सर्व॑दशंनसंम्रदे-
कर्मत्वमवगम्यते । तेन च कायतवेनेष ुद्धिमलूर्वकत्वमनुमीयत
इत्यलुमानवक्चात्परमेशरप्सिद्धिरंपपदते
इनमें "पति, पदाथ से शिव का अथं समज्ञा जाता है। मुक्त आत्मावलि
( तथा ) वियेश्वर आदि यद्यपि शिव ह ८ उनमें शिवत्व गुण है), तथापि
परमेश्वर के पराघीन होने के कारण वे स्वतन्त्र नहीं ह । [ यह स्मरणीय है कि
नकुलीश-पाञुपत देन मे मुक्तो को शिवत्व.प्राप्ति के साथ स्वतन्त्र, भी मिल
जाती है, परतन्त्रता नहीं रहती, किन्तु दौवदद्॑न मे उनकी परतन्त्रता मानी
जाती है । "मुक्त आत्मा वाले" शब्द वियेधरादि के विशेषणा भीहो सक्ते दै
जर स्वतन्वर शाब्द भी । विचेश्वरादि को परा ( 11191168 ) सूक्ति नहीं मिलती ।
हौ, अपरा मूक्ति के अधिकारी तो वे अवद्य है। इ प्रकार यहं स्पष्ट हैˆकि जिस
तरह संसार के उत्पादन मे परमेश्वर कौ प्राणियों के कमं की अपेक्षा रहती हैया
नहीं, इस विषय में मतभेद है--उसी तरहं मुक्तो की स्वतन्त्रता के विषय भं भी
मतभेदं है । अब परमेश्वर की सत्ता का निरूपण होता है|
इसीते शरीर, इन्द्रियों ओौर संसार आदि पदार्थोको कायक रूपमे हम
` समन्ते है बयोकि इन पदाथों मे अवयव-रचना ( संनिवेज्च 8ष 000९0 ) कौ
विदिष्टताये है । [ मनुष्य, पशु, पक्षी, लता, पवत आदि पदार्थो के अवयवो कौ
रचना चै एक नियमितता देखते है, इससे मादरम हता हैकिये कायं है। किसी
ते इन्दं उत्पन्न किया है । ] चकिये कायं है इसलिए किसी बुद्धियुक्त कर्ता ने
इनका निर्माण किया है, एसा अनुमान होता है-- इसी अनुमान के बल से
परमेश्वर की प्रसिद्धि कौ बात सिदध हो जाती ह। [ कर्त वह् है जो इच्छा ओर
प्रयन्न का आधार हो--“चिकीषप्रयज्ञाधा रवे कतूंत्वम्' \ कायं के पूवं उसको.
सत्ता अवदय होगी भौर बकर कर्तां इच्छा से युक्त होता है अतः इसमें वुद्धि का
होना अनिवार्यं है। संघार रूपी विराट् कायं के लिए तदनुरूप कर्ता होना
चाहिए जो, ओौर कोई नही, परमेखवर ही हे। नैयायिको के दारा भी वर की
सिद्धि के लिए यही तकं प्रस्तृत किया जाता है । देषिए--मंगलाचरणश्ोक-- ९
( सवंदशनसंग्रह ) । |
(२ क. श्वर को कतां मानने मेँ आपत्ति ओर समाधान )
नु देहस्यैव तावत्कारयत्वमसिद्धम् । नदि क्वचित्केनचित्
कदाचित् देहः क्रियमाणो द्टचरः । सत्यम्, तथापि न केन-
[9 ॐ © ~
चित् क्रियमाणत्वं देहस्य इष्टमिति कर्तदश्ेनापहबो न युज्यते ।
तस्यानुमेयत्वेनाप्युपपत्तेः ।
। प
भ 4 1 श १ व, =
शेव-दशेनम् ३२५
देहादिकं भवित॒महेति संनिवेशविशिष्टस्वात्
तथा हि- कायं भवितुमहति ।
विनध्रस्वाद्रा घटादिवत् । तेन च कायैतवेन बुद्िमतूेकत्वमनु-
मातं सुकरमेव ।
[ पूव॑पक्षियो का तकं है कि] देह कायं है" यही वाक्य पहले असिद्ध है ।
कारणा यह टै कि कहीं पर, किसीने, कभी भी देह को उत्पन्न होते हृए नहीं
देखा । हम ( शैव ) इसे मानते ह, फिर भी "किसी ने देह को उत्पन्न होते हुए
नहीं देखा" इस आधार पर कर्ता की सत्ता को अस्वीकार करना ठीक नहीं है ।
किसी का कर्ता होना अनुमानसे भीतोसिद्धहो सकताहै [ भले ही प्रत्यक्ष
प्रमाणा न भिले |।
उदाहरण कै लिए देखा जाये--देह् आदि कायं हो सकते हँ क्योकि अवयव-
रचना से ये विरिष् होते ह या नश्वर है जैसे घटादि ( कायं ) ह । जब इन्हे कायं
मान लगे तो फिर किसी वृद्धिमान् पुरुष कौ रचना मानना बौर आसान ही है ।
+ ¢ 9 ¢ #
विमतं सकतेकं कायत्वाद् घटवत् । यदुक्तसाधन तदुक्त
साध्यं यथा्थादि । न यदेवं न तदेवं यथात्मादि । परमेश्वरानु-
मानप्रामाण्यसाधनमन्यत्राकारीस्मुपरम्यते ।
२. अज्ञो जन्तुरनीश्लोऽयमात्मनः सुखदुःखयोः ।
हश्वरपरेरितो गच्छेत्स्वगं वा श्वभ्रमेव वा॥
0 ण
इति न्यायेन प्राणिकृतकमोपेश्षया परमेश्वरस्य कतत्वोपपत्तेः ।
विवादग्रस्त वस्तु ( = तनु, भुवनादि पदार्थं, क्योकि इन्हीं के विषय में संदेह
है किये सकतुंक है या अकतंक ) सकतुंक है, क्योकि कायं यह है जिस प्रकार
घट हआ करता है । जो पदाथ उक्त साधन वि है ( कायं है ), वे उक्त साध्य
( सकतुंक वाले है जैसे अथं ( घट, पट ) आदि । जो इस प्रकार का नहीं ( जो
सकर्तृक नहीं ), वह वैसा नहीं ( वह कायं नहीं ) जसे आत्मा आदि । [ यहाँ पर
सायरामाधव की चली संकषेषीकरण कौ चरम सीमा पर पहुंची हुई है । ऊपर
विवाद है कि पदार्थो का कर्ता कोई है कि नहीं । अब अनुमान होता है-
सारे पदाथं सकतुंक ( साष्य ) है,
क्योकि वे पदाथं कायं है,
जिस तरह घट होता है।
अनुमान के अनन्तर अन्वय ओौर व्यतिरेकके द्वारा व्यापि की स्थापनाकी
जाती है । ( अन्वय-) जो कुच भी कायं ( उक्तसाधनं ) है वह सकतृंक होता
३२६ सबेदशनसंग्रदे-
है ( उक्तसाध्यम् ) जैसे घट, पट आदि । ( व्यतिरेक-- ) जो वस्तु कायं नहीं
वह सकतृंक भी नहीं है जसे आत्मा आदि । |
परमेश्वर के विषय मे ( सिद्धिके लिए) जो अनुमान दिया गया है उसकी
प्रामाणिकता की सिद्धि दूसरे स्थान पर दी गई है, इसलिए यहाँ पर छोड देते
है । [ यदि शरीर, इन्द्रिय, भुवन आदि पदार्थो का कोई भी कर्ता नहीं होता तो
अपनी इच्छा से ही सों की उत्पत्ति माननी पड़ती । वसी दशा में जीव को व्या
पडाथाकि दुःख के साधन ग्रहण करता ? वह केवल सुख के साधन ही खोजता
किन्तु जीव का इसमे वश चले तब तो ? अतः सुख-दुःख का कोई दूसरा नियन्ता
जरूर होगा । प्राणियों के द्वारा क्रिये गये कर्म की अपेक्षा रखते हुए ही ईश्वर
संसारका कर्ताहै।|
"जीव अज्ञ है, वह अपने सुख-दुःल को नियंत्रित करने मे असमथं है, ईश्वर
से प्रररितहोकरहीयातो वह स्वगंजातादहै या नरक ( श्वभ्र )।' इस न्याय
से प्राणियों के कर्मो की अपेक्षा रखते हुए ही ईश्वर का कर्ता होना सिद्ध होता है।
न च स्वातन्त्रयविहतिरिति वाच्यम् । करणपेक्षया कतः
स्वातन्त्यविहतेरनुपरुम्मात् । कोषाध्यक्षापेक्षस्य राज्ञः प्रसादा-
दिना दानवत् । यथोक्तं सिद्धगुरुमि :-
३. स्वतन्त्रस्याप्रयोज्यत्वं करणादिग्रयोक्तता ।
कतः स्वातन्त्यमेतद्वि न कमो्यनपेश्चता ॥ इति ॥
तथा च तत्तत्कमोशयवक्ञाद् भोग-तत्साधन-तदुपादानादि-
विेषह्नः कतीलुमानादिसिद्ध इति सिद्धम् \ तदिदभुक्तं तत्रभव-
&- ---
४, इह भोग्यभोगसाधनतदुपादानादि यो विजानाति )
तमृते भवेन हीदं पुंस्कमाशयवरिपाक्ञम् ॥ इति ।
ठेसा नहीं समञ्चं करि [ कमो की अपेक्षा रखने से ईश्वर की | स्वतंत्रता में
किसी प्रकार की क्षति पर्हवेगी । क्योकि आज तक एेसा कभी नहीं पाया गया है
कि करणो ( साधनों ) कौ अपेक्षा रखने से कर्ता की स्वतंत्रता में बाधा पर्ची
१ तुल ° दुर्योधन की यह प्रसिद्ध उक्ति- =
जानामि धमन चमे प्रवृत्तिर्जानाभ्यधमं न चमे निवृत्तिः ।
केनापि देवेन हदि स्थितेन यथा नियुक्तोऽस्मि तथा करोमि ॥
^+ ^> प त शके
रेव-दशेनम् ३२७
हो । राजा यद्यपि कोषाष्यक्ष कौ अपेक्षा रखते हैँ किन्तु अपने ही प्रसाद ( कृपा )
से दान करते है । ( कोषाध्यक्षसे दान दिलवनि का अथं यह नहींहैक्रि राजा
से बड़ा कोषष्यक्ष ही है ओौर राजा को स्वतंत्रता नहीं)। जैसा किं सिद्ध गुरु
ने कहा है-- "किसी स्वतंत्र व्पक्तिमेंही ये विशेषतायं होती है कि दूषरा कोई
उसे प्रयोजित न करे (कामये न लगादेवे अप्रयोज्यहो ) तथा स्वयंजो
करण ( साधने ) आदिका प्रयोग करे। इसे ही कर्ताकौी स्वतंत्रता कहते है,
यह नहीं करि कर्मादिकौ अपेक्षान रखनेवालादही स्वतंत्र है।" [ यदि ईश्वर
स्वतंत्र नहीं होता तो उसके प्रयोजक या उस पर आदेज्ञ चलानेवाते कु प्रयोजक
होते । प्रयोजक दोही काम करतादहै-यातो अपने अभीष्ट कायं का विना
करता हिया अनिष्ट कायं कराता है) यही परतंत्रता है । लेकिन प्रयोजक कोई
चेतन हो तभी परतंत्रता है, इसलिए कर्मो के वारा ईश्वर यदि प्रयोजित होतो
भी कोई हानि नहीं। कर्मोको अपेक्षान रखना स्वतंत्रता नहीं है । स्वतंत्र
दूसरों का उषयोगतो करताहीदहै, इसलिए ईश्वर भी कर्ता होकर करण,
सम्प्रदानादि कारक-चक्र का खूब उपयोग करता है । |
इस प्रकार यह सिद्ध हुआ किं भिन्न-भिन्न [ पप-पुय | कर्मोके समृहया
आशय के फलस्वरूप मिलने वाले भोग, भोग्य वस्तुं ( मो ग-साघन ) भौर उनके
उपादान आदि को विहेषरूप से जानने वाला कर्तां ( ईश्वर ) अनुमान आदि
(श्रुति-प्रमाणासे भी) से सिद्ध क्रिया जाता है । पूज्यपाद बृहस्पति ने इसे
इस तरह निरूपित किया है- "इस संसार में भोग्य, भोग के साधन, उनके
उपादान ( प्रात्निया कारण ) आदि को जो विशेषरूपसे जानता है उस (ईश्वर)
के अतिरिक्त पुरूषो के कमं-समूह के परिणाम का ज्ञाता यहाँ कोई नहीं है ।'
विरोष-- आशयः पाप ओौर पुशय-रूपो कर्मो के संघात को कहते जो
फल मिलने के समय तक अंतःकरण मे विराजमान रहता है-- आशेरते फल-
पाकपयंन्तमन्तःकरण इत्याशया; । “भोग' का अथं सुख ओर दुःख से मिलना; भोग
के साधन = सुख दुःख भिलनेकी वस्तु रोग, शोक, द्रव्यप्राप्नि आदि ।
उपादान = मिलकर फल देने बाला कारण ( ‰18{€118} ९8.86 ) ।
अन्यत्रापि-
याचितं ४३ [> ५ -8
५, विवादा सवं वुद्धिमत्कतेपूवकम् ।
कायेत्वादावयो सिद्ध # +
त्वादावयोः सिद्धं कायं कुम्भादिकं यथा ॥ इति ।
सवेकतेत्वादे © 9 क
त्वादेवास्य सवजञत्वं सिद्धम् । अज्ञस्य करणासं भवात्)
उक्तं च श्रीमन्म्गेन्द्रः--
रमं सबेदशेनसंग्रदे-
६, सर्वज्ञः सर्वकतेत्वात्साधनाङ्गफलेः सह ।
यो यज्ञानाति इर्ते स तदेवेति सुस्थितम् ॥ इति ।
दूसरी जगह भी कहा है --'संपूरं संसार ( पक्ष ) जो विवाद का विषय दहै,
चह किसी वृद्धिमान् कर्ताके वारा निमित है क्योकि यह ( संसार ) कायं है ।
हम दोनों ( पूर्वंपक्षी, सिद्धान्ती ) के मत से यह कायंकेल्पमे खिद्धदहै दही, जिस
तरह घट आदि को [ हम मान करक्रिसीकर्ताके हारा निमित मानते है । ]'
चकि इस ईश्वरने सभी वस्तुओंका निर्माण क्रिया है इसीलिए उसकी
सर्वज्ञता सिद्धहो गई । अज्ञ व्यक्ति क्रिसी को उत्पन्न नहीं कर सकता ।
[ जब तक सवंज्ञता नहीं होगी, सभी वस्तुओं का निर्माण नहीं हौगा। जो जिसे
जानता है उसीका निर्माण कर सकता है 1 ] श्रीमान् मृगेन्द्र ने कहा है--'सभी
वस्तुओं की उत्पत्ति करने के कारण वह स व॑ज्ञहै, वह वस्तुओं को साधन, अंग
ओर उनके फल के साथ [ जानता जौर बनाता है) द्ं-पुणंमास यज्ञका
संपादन करने वाला व्यक्ति उसके साधनों ( समिधा, पुरोडाशादि ), अंगो (प्रयाज
आदि ) तथा फल ( स्वर्गादि } को भी जानता है। ] जो ध्यक्ति जिस कामको
जानता है, वही काम वह करता है--यह तो अच्छी तरह निशित है ।'
| (३. दभ्वर का दारीर-घारण )
अस्तु तहिं स्वतन्त्रः ईरः कतो । स ॒तु नाशरीरः ।
©
वदादिकायस्य शरीरवता इलालादिना क्रियमाणत्वदशेनात् ।
शरीरवन्त चास्मदादिवदीशवरः । क्ठेशयुक्तोऽसतजञः परिमितराक्तं
प्राप्नुयादिति चेत्- मेवं मंस्थाः । अशरीरस्याप्यात्मनः स्वश
च
ररस्पन्दादौ कठत्वदशेनात् ।
[ पूर्वपक्षी कहते ईै--] अच्छा मान लिया कि ईश्वर स्वतंत्र कर्ता है किन्तु
यह भी तो मानना होगा किं वह अशरीर नही है ( बरीरधारी है) । घटादि
कार्यो [के जो हृष्टाम्त आपदेतेहै] वे तो शरीर धारण करने वलि कुम्भ-
कारादिके द्वारा निमित होति है! शरीरधारी ईशर मानने का वुपरिणाम यहं
होगा क्रि वह भी हम लोगो को तरह माना जायय! । [ हमलोगों के समान |
क्लेशो से युक्त, अस्व॑ज्ञ होकर केवल एक निशित सीमाके ही भीतर शक्ति प्राप्त
करेगा । [ शैव दश॑नकारों का उत्तर है--| एेसौ बात नही सम । आत्मा तो
शरीर धारण नहीं करती, किन्तु [ जिर शरीरके भीतर वास करती है उष |
अपने शरीर का स्पंदन, संचालन आदि तो वही करती है, [ इषलिए !शरीरधारी
रोव-दर्शनम् ३२६
ही कर्ता होगे" इस प्रकारकी व्याप्ति आप नहीं सिद्ध कर सकते। शरीर की
सहायता के बिना भी कोई कर्ता हो सकता है । ईश्वर भी शरीरहीन होकर कर्ता
हो सकता है । ]
अम्युपगम्यापि त्रुमहे । शरीरवच्वेऽपि भगवतो न प्रागुक्त-
-] । परमेश्वरस्य हि मलकमोदिपाशजालासं मवेन प्रातं
शरीरं न भवति, फं तु शाक्तम्। शक्तेरूपैरीशानादिभिः पञ्चभिः
मन्त्रः मस्तकादिकल्पनायाम्--ईशानमस्तकः, त्पुरुषवक्त्रः,
अोरहृदयः, वामदेवगुद्यः, सद्योजातपादः ईश्वरः--इति प्रसिद्धया
यथाक्रमानुग्रहतिरोभावादानलक्षणस्थितिलक्षणोद्भवलक्षणढ्त्य-
पञश्चककारणं, स्वेच्छानिमितं तच्छरीरं न चास्मच्छरीरसदशम् ।
तदुक्तं भीमन्मृगेन्द्रे --
मलाद्यसंभवाच्छाक्तं वपूर्नेतादशं प्रभोः ॥ इति ।
अब इसे स्वीकार करे (ईश्वर को शरीर मानें) तोभी कगे किं शरीरधारी
मानने पर भी भगवान् में पूर्वोक्त दोषों के लगने का प्रसंग नहीं है । परमेश्वर में
मल, कमं आदि पाशजालो की संभावना ही नहीं, अतः उसका शरीर प्राक्त
( प्रकृति से उत्पन्न, हम लोगों की तरह का ) नहीं है उसक्रा शरीर शक्ति से
वना है । [कख पाश्च है जैसे- मल, प्राणियों के कम, माया की आवरणशक्ति ।
इन सवोंका वर्णन इसी द्चन में प्रायः अन्तमे होगा।, इन पाशोंका क्षेत्र
भक्ति है । जिनके शरीर प्राकृत होते है उन्हींमेये पाच रहते है । परमेश्वर
अनादिकालसे मुक्त है। यदिटेसा न मानें तो अनवस्था-दोष उत्पन्न होगा ।
ईश्वर के मुक्तन होने पर कोई उसे मुक्ति देने वाला तो होगा, फिर उसे भी कोई
मक्त करेगा इत्यादि । इसलिए कोई न॒ कोई तो अनादि मुक्तं होगा ही, जो ईश्वर
हीहै। अनादि मुक्त माननेसे पाश-मुक्त भौ वह होगा । इसलिए ईशर का
शरोर शक्ति { मातृका, वणंमाला ) से निमित मानते है । ]
शक्तिके रूप में ईशान आदि पाँच मंत्रह जिनके द्वारा परमेश्वर के मस्तक
आदि की कल्पना को जाती है। वे इस प्रकार है- ईश्वर का मस्तक 'ईशानः०"
( महानारायणोपनिषद्, २१ ) संत्रसे बना है, मुख (तत्पुरुषाय ०' ( म०, २० )
से, हृदय (अघोरेम्योऽ" ( म०, १९ ) से, गृह्यस्थान (वामदेवाय०' (म०, १८)
से तथा पाद "सच्ोजातं०' ( म०, १७) मन्व से बना है । इख प्रकार की प्रसिद्धि
होने से, उसका शरीर स्वेच्छासे ही निमित हा है, वह क्रमशः अनुग्रह (दया)
३३० सबेदशेनसंमरहे-
तिरोभाव ( अन्तर्धान 000९8106) ), मादान-लक्षण ( संहार ), स्थिति-
लक्षणा ( पालन ) शौर उद्रवलक्षण ( सृष्टि )-इन पाच प्रकार के कार्योका
कारणा ३, इसलिए हम लोगो के शरीर की तरह नहीं है । श्रीमन्मृगेन्र ने कहा
है शरभ के शरीर मे मल आदि होना असंभव दै, इसलिए [ हम लोगों के शरीर
की तरह ] उनका शरीर नहीं है, किन्तु उनका शरीर शक्तिनिष्पन्न है ।
विरोष-- तन्त्रशाखर में मन्त्रोंकोही शक्ति माना गया है। मन्त्र का एक
एक अक्षर अनुभव शक्ति का प्रतीक है-- शक्तिस्तु मातृका ज्ञेयासा च ज्या
शिवात्मिका । मातृकाओं या वणंमालाओंमे ही सारे मन्त्रो की सत्ता होती है ।
कालिकापुराण मे कहते है--
ये ये मन्त्रा देवतानामृषोणामथ रक्षसाम् ।
ते मन्त्रा मातुकायन्त्रे नित्यमेव प्रतिष्ठिताः ॥
ईश्वर का शरीर मंत्रमय होने से उसके अवयव भी मंत्रोंसे ही बनते दह ।
अन्यत्रापि-
७, तद्वपुः पश्चभिमन्त्रः पश्चकृत्योपयोगिभिः
शशतस्पुरुषाधोरवामाचैमंस्तकादिमत् ॥ इति ॥
ननु पञ्चवक्त्रखिपश्चटगित्यादिनागमेषु परमेश्वरस्य मुख्यत एव
श्चरीरेन््रियादियोगः श्रयत इति चेत्-सत्यम्, निराकारे ध्यान-
पूजाद्यसंभवेन भक्तानुग्रहकारणाय तत्तदा्ारग्रहणाविरोधात् ।
दूसरी जगह भी कहा है-- "उसका शरीर पाच कृत्यो ( अनुग्रह, तिरोभाव,
संहार, पालन, सृष्टि) के उपयोग मेँ आने वाले पाँच मंत्रोंसे बना है जो ईशान,
तत्पुरुष, अघोर, वाम आदि के द्वारा मस्तकादि अवयवो का है ।' [ इनमे ईशान-
मंत्र अनुग्रह के लिए, तत्पुरुष-मंत्र तिरोभाव के लिए अघोर-मंत्र संहार के लिए,
वामदेव-मंत्र पालन के लिए तथा सद्योजात-मंत्र सृष्टि के लिए उपयोगी है । |
अब कोई प्ररन कर सकताहैकि आपके आगमोमेहीतो पाच मृंहोते
युक्त' पंद्रह आंखो से युक्त' आदि विज्ेषणो से परमेश्वर के मूख्यतः शरीर,
इन्द्रिय आदि का संबंध सुनते है [किर उसे सशरीर मानने में क्या आपत्ति है १]
ठीक है, निराकार ईश्वर का व्यान करना, पूजा करना आदि असंभव है इसलिए
भक्तों पर अनुग्रह करने वाले परमेश्वर के लिए उन आकारोको धारणा करने में
विरोध की कोई बात नहीं ।
तदुक्तं श्रीमत्पोष्करे-
८. साधकस्य तु रकषाथं॑तस्य रूपमिदं स्पृतम् । इति ।
र क +
४ के न ५ १४ क अति {` 24 ण क च
"ऋ न
( ३३१
अन्यत्रापि-
आकारवांस्त्वं नियमादुपास्यो
ह्र [क्रे
न वस्त्वनाकारमुपंति बुद्धिः ॥ इति ।
कृत्यपञ्चकं च प्रपञ्चितं भोजराजेन-
९, पञ्चविधं तत्छ्रत्यं सुष्टिस्थितिसंहारतिरोभावः ।
तद्रदनुग्रहकरणं प्रोक्तं सततोदितस्यास्य ॥ इति ।
जैसा कि श्रीमान् पुष्करके श्र॑थय लिला है-'साघक की रक्षाके लिए
ही उस परमेश्वर का एेसा रूप माना जाता है ।' दूसरी जगह भो कहा गया दै-
तुम आकारवान् हो, नियम से उषासना करने के योग्य हो कथोक्रि निराकार
वस्तु का ग्रहण हमारी वुद्धि नहीं कर सकती ।* [ यह् भगवान् के समक्ष की गई
भक्त की प्रार्थना का खरडहं ] ।
भोजराज ने पाँच कृत्यो का निल्पणा इस प्रकार किया है-- “उस (परमेश्वर)
के कृत्य पाँच प्रकार के होते है--पृष्टि, स्थिति, संहार, तिरोभाव तथा
अनुग्रह करना, ये उस निरन्तर जागरूक रहने वाले परमेश्वर के कृत्य है ।
विद्ोप-उपाक्षना का अथं है सेवा। इसके कायिक, वाचिक ओर मानसिक
तीन भेद है। कायिक का अथंहै पाद, अवयं, स्नान, धूप, दीष, नैवेद्य आदि
पंनोपचार या षोडशोपचार से पूजा । वाचिक का अर्थं स्तोत्रपाठ करना है।
मानसिक का अथं ध्यान जपादिहै। निराकार का खंडन करते हृएये लोग
कहते है कि निराकारकी सेवा मानसिकही नहींहो सकती, कायिक ओर
वाचिककीतोबातहीदूरहै। निराकार पदार्थंक्ो मन ( बुद्धि ) अपना विषय
बना ही नहीं सकता कोक विषय बनाने का अथंदहैवस्तुके कारके समान
ही बुद्धि में आकार ग्रहृण करना, जो निराकार वस्तु के साथ होना असंभव ही
है। बृद्धिकी पक्डमे न अनेके कारण वाचिक स्तोत्रपाठमी नहीं होगा ।
कायिक सेवा तो निराकारकीहोही नहीं सकती)
एतच कृत्यपञ्चकं शद्धाप्वविषये साक्षाच्छिवकतृकं कन्दरा
ध्वविषये त्वन्तादिद्वारेणेति विवेकः । तदुक्तं श्रीमत्करणे--
शदधेऽध्वनि शिवः कतां प्रोक्तोऽनन्तोऽहिते प्रभोः ॥ इति ।
एवं च॒ शिवश्चब्देन शिवत्वयोगिनां मन्त्रमन्त्रशवरमदेशवर-
ुक्तात्मशिवानां सवाचकानां शिवतमप्राप्तिसाधनेन दीक्षादिनो-
३३२ सबेदशेनसंमरदे-
पायकलापेन सह पतिपदा्थे संग्रहः कृत इति बोद्धव्यम् । तदित्थं
पतिपदार्थो निरूपितः ।
हन पाच कृत्यो का संपादन, गुद्ध-मागं के विषय मे, साक्षात् शिवकेहीद्ारया
होता है, यदि कृच्छर ( कृष्ण या अशुद्ध या अहित } माग कौ चर्चा हो तो अनन्त
आदि अधिकारियों के द्वारा इनका संपादन होता ह-- यही पार्थक्य है । जेसा कि
श्रोमत् करण ( चौथे मागमे ) में कहा है--शुढ मागं में शिव ही कतां कहलाता
है ओौर अहित मागं में शिव के [ प्रयोज्य रूष में विद्यात ] अनन्त कर्तां हँ ।
इस प्रकार यह समक्ञ लं फि शिव" शब्द केद्वारा, शिबत्व से संबड़ सभी
पदार्थं जैसे मन्व, मेर, महेश्वर, मृक्त आत्मा, शिव--इन सभी का, शेवदर्थन
के प्रवचनकतमों का तथा शिवत्व की प्राप्ति कराने वाले साधन, जेसे दीक्षादि
उपाय समूह, का संग्रह पति-पदाथंमेंहीहो जाता है। इस तरह पति पदाथ का
निरूपण समाप्त हृभा ।
विरोष--उपसंहार-वाक्य मे “पतिः पदां की व्याप्ति पर विचार किया
गयां है । ऊपर कह चुके हैँ किं पति का अथं क्िवदहै, किन्तु अब विरलेषण करने
पर उसका क्षेत्र कुच बडा मालुम पड़ता है । शिवत्व-घमं से जिन पदार्थोका
संबंध है वे सभी ( शिवत्वयोगी ) पदाथं पति के अंतर्गत है। वे है--पांचों मंत्र,
मरडली आदि मन्त्रों के ईश्वर, महेश्वर अर्थात् विदेश्वर ( जिनका निरूपण तुरत
ही होने वाला है ), मुक्त आत्मायं तथा स्वयं शिव पदार्थं! मंत्र से जीवविशेष
का भी बोध होता है जिनका वणन वियेश्चरोके साथ होगा। यही नही, इन
पदार्थो के वाचक शब्द या आचाय भी इसी "पति' पदार्थं के अन्तरगत है । शिवत्व-
प्राति कराने वाले साधन, जैसे- दीक्षा मादि सारे उपाय-समूह, भी पति ही हे ।
अतः पति का क्षेत्र बहुत व्यापक है । उसके अनन्तर "लु पदाथं का निरूपण
होगा ।
( ७. "पश्य" पदाथ का निरूपण--अन्य मतो का खण्डन )
संप्रति पञ्चपदार्थो निरूप्यते--अनणुः धेत्रज्ञादिषदवेदनीयो
जीवात्मा प्ञ्चः। न तु चावीकादिवद् देहादिरूपः । नान्य-
ष्टं स्मरत्यन्यः, इति न्यायेन प्रतिसंधानायुपपत्तेः । नापि नेया-
यिकादिवस्प्रकार्यः । अनवस्थाप्रसङ्गात् । तदुक्तम्-
१०, आत्मा यदि भवेन्मेयस्तस्य माता भवेत्परः ।
पर आत्मा तदानीं स्यात्स परो यदि दश्यते ॥ इति ।
न €
शव-द शनम् ३३३
अब हमश्पशु" पदां का निरूपण करते ह! जो अणु नहीं है, शषेत्रज्ञ' (शरीर
का ज्ञाता ) आदि पर्यायवाची शब्दों से जिसका बोध हो, वह जीवात्मा पटु है ।
( १ ) चार्वाक आदि मतवादियों को तरह आत्मा को दारीरके रूपमे नहीं
माना जा सकता क्योकि देशी स्थिति में [ दो अवस्थाओं की बातोंमे स्मरति के
दारा ] संबंघ स्थापित नहीं करिया जा सकता एक नियमदहैक्रि एक व्यक्ति के
दवारा देखी गई बातो का स्मरण दूसरा व्यक्ति नहीं कर सकता । [ यदि अत्मा
कौक्चरीर मान लेते तो शरीरमें अन्तर के साथ-साथ आत्मा मी बदल जायगी ।
बाल्यावस्था में जो शरीर है वह तरुणावस्या मे नही--चार्वाकों के अनुसार
तब तो आल्पा भी बदल गई होगी । अर्थात् दो अवस्थाओं में दो पृथक्पृथक्
जोवातमा्ये है । फिर एक जीवात्मा के काल मे होने वाली धटना का स्मरण
दूसरी जीवात्मा कैसे कर लेगी ? बाल्यावस्था की बात तरुणावस्था में केसे याद
आयी ? अतः चार्वाको का आटम~विषयकर मत ठीक नहो है । |
(२) नैयायिको क तरह आत्मा को प्रकाश्य (ज्ञेय;]:110 ४8.116) भी नहीं
मान सकते क्योकि एसा करने पर अनवस्था-दोष होनेकाभयदहै। [ आत्मा यदि
प्रकादय है तो उसका प्रकाशक या ज्ञाता कोई अवश्य होगा क्योकि एक ही क्रिया
( जानना ) में एक ही साथ कोई एक पदार्थं कर्ता ओर कमं नहीं हो सकता ।
अब जोदूसरा ज्ञाता ( आत्मा ही को लँ ) है उसका भीतो कोई ज्ञाता होगा जो
उससे पृथक् ही होगा । ईस प्रकार यह समस्या अनन्त काल तक चलती
चलेगी ) ] जैसा कि कहा ,गया हे- “आमा यदि मेय ( ज्ञेय ) हतो इसका
माता (ज्ञाता, जानने वाला, ./ मा ) कोई दूसरा अवर्य होना चाहिए । उसी
अवस्था मँ दूसरे ज्ञाता कौ सत्ता स्वीकरणीय रै जब वह दूसरी आत्मा जानी
जाय या देखने मे अये! | पहली दक्षा मे अनवस्था होगी, दूसरी दशा में अनुभव
का विरोध होगा, )
न च जैनवदव्यापकः । नापि बौद्धवत्क्षणिकः । देश्षकाला-
भ्यामनवच्छिन्नतात् । तद्युक्तम् `
११. अनवच्छिन्नसद्धावं वस्तु यदेश्चकारतः ।
तन्नित्यं विश्च चेच्छन्तीत्यात्मनो विशुनित्यता ॥ इति ।
नापि अदैतवादिनामिवेकः । भोगप्रतिनियमस्य पुरुषबहृत्-
ज्ञापकस्य संभवात् ।
(३) जैनों की तरह आत्मा को <भ्यापक ( 00706९९6) ) भी
नहीं मान सक्ते ओौर (४) न बोदोंको तरह क्षणिक ही) देश ओर काल
३३४ सवेदशेनसंग्रहे-
( 90866 80 1706 } के दवारा आत्मा को इयत्ता (अवच्छेद, 117001४ सीमा)
निर्धारित नहीं हो सकती । [ जेन लोग आत्मा को अव्यापक मानते ह अर्थात्
आत्माकी सीमा देशके द्वारा निर्धारितहो जातीदहै। परन्तु आत्मा देश
( 99०6 } कै द्वारा निर्धारित नहीं हो सकती कि वह अमुक देशमें है, अमुकमें
नहीं । स्थान से अव्याप्त रहने पर व्यापक-अव्यापक का प्रडन नहीं उठता, वस्तुतः
आत्मा बिभ्र (^11-6९8५10& ) है । अव्यापक मानने का अथंहैकि देश
के हारा आत्मा अवच्छिन्न ( व्याप्त) हो जातीहैजो अभीष्ट नहीं। दूसरी ओर,
बौद्ध लोग आत्मा को क्षणिक मानते ह अर्थात् आत्मा कालके द्वारा अवच्छिन्न
है, परन्तु वास्तव मेँ काल की सीमा मेँ आत्मा नहीं भाती-यह् नित्य है । ]
यह भी कहा गया है-- जो वस्तु देश ओौर काल की इयत्ता से रहित सत्ता
धारणा करती है उसे नित्यः ओर विभु मानने की इच्छावे लोग करते है, इस
प्रकार आत्मा की विश्रुता ओौर नित्यता स्वीकार की जाती है।'
(५) अद्वेतवादियों की तरह आत्मा को एक ( 1100;8६;५ ) भी नही
माना जा सकता । विभिन्न भोगों ( सुख ओर दुःख का साक्षात्तार) के नियम
को देखकर यह मालुमहोता है करि पुरुष की बहुलता है। [ विभिन्न पुरुष
विभिन्न भोग भोगते है, कोई सुख भोगता है तो कोई दुःख। जो फल रामको
मिलता है वही मोहन को नहीं-मोगों के इस नियम से पुरुषों की अनेकता का
अनुमान होता है । कर्मो के द्वारा इसका नियन्त्रण नहीं होता । यदि जीव को
एक मानं तो अमुक ने यह कमं किया ओौर अमुक ने नहीं-रेा कना कठिन
हो जायगा, इसलिए जोवों को अनेक मानें । ]
नापि सांख्यानामिवाकतां । पाश्चजालापोहने नित्यनिरति-
शयदकूक्रियारूपचेतन्यात्मकशशिवत्वश्रवणात् । तदुक्तं श्रीमन्मू-
गन्द्रः--"पाशचान्ते शिचताश्रतेः' इति ।
१२. चेतन्यं दर्क्रियारूपं तदस्त्यात्मनि सर्वदा ।
सवेतश्च यतो भुक्तो भ्यते स्ेतोपुखम् । इति ।
तच्वगप्रकाशेऽपि-
१३. शक्तात्मानोऽपि शिवाः कि त्वेते यत्प्रसादतो यक्ता ।
सोऽनादिगुक्त एको विज्ञेयः पश्चमन्त्रतनुः ॥ इति ।
( ६ ) सांख्यो कौ तरह हम आत्मा को अकर्ता भी नहीं मान सकते । जब
पाशो का जाल ( समहु ) समाप्तहो जाता ह, तब नित्य ओर निरतिशयं ( सबसे
शेव-दशेनम् ३३५
ॐंचौ ) दष्टशक्ति ओर क्रियाशक्ति के रूप मेँ चैतन्यात्मक शिवत्व की प्राति होती
है, एेसा श्रुतिों में का है । [ चैतन्य नित्य है, वह इक् ओर क्रिया के रूपमे
है, अतः वह नित्यसूपसे कर्ता है । बद्ध जीवात्माये अपनी इयां के द्वारा
विभिन्न क्रियाय करती ह, यह हम रोज देखते ह । जो जीव मोक्ष की इच्छा
रखते हँ वे मल, कमं आदि पाश-जाल का विनाश करने के लिए ब्रत, चर्या
आदि क्रियाय ही तो करते है । मुक्त आत्मायं भो शिवत्व कौ प्राप्ति करती ह--
यह भोतोकमंही है क्योक्रि शिवत्व का अथं होता है हक् ओर त्रिधा के रूपं
में चैतन्य । क्रिया विना कर्ता के सम्भव नहीं है इसलिए जीवात्मा कर्ता है।]
श्रीमान् मृगेच्ध ने यही कहा है-- पाशो का नाश हो जाने पर शिवत्व-श्रापि की
बात शरुतियों से सिद्ध है ।'
क् ( \ 190 ) ओर क्रिया (4000 ) के रूपमे जो चैतन्य है,
वह आत्मा में सब समय सब तरहसे है क्योंकि मुक्ति होने पर सभी ओर मुख
( हार, प्रतिहत गति ) वाला चेतन्य सुना जाता है । [ तात्पयं यह है कि
मक्ति मिल जाने पर जीव की हक्रशक्ति ( ज्ञान ) या क्रियाशक्ति सवंतोगामिनी
वन जाती है, उसे रोक नहीं सकता । ] तच्वप्रकाश मे भी कहा है--ृक्त
आत्मायं भीशिवही रहै, किन्तु ये जिसकी कृपा से मुक्त हुई है, वह अनादि काल
से मुक्त परमेश्वर एक ही है जिसका शरीर पाच मन्त्र का बना हुमा सम्भ ।
( ५. जीव के तीन मेद् )
पशुखिविध :--विज्ञानाकल-प्ररयाकर-सकलमेदात् । तत्र
प्रथमो विज्ञानयोगसंन्यासेभोगिन वा कर्मक्षये सति कर्मक्षयार्थस्य
कलादिभोगवन्धस्य अभावात् केवलमलमात्रयुक्तो "विज्ञानाकलः'
इति व्यपदिश्यते । द्वितीयस्तु प्रलयेन कलादेरुपसंहारान्मलकर्म-
युक्तः श्रलयाकल' इति व्यवहियते । तृतीयस्तु मलमायाक्म-
त्मकबन्धत्रयसहितः “सकल इति संलिप्यते ।
पञ तौन प्रकार का है-( १) विज्ञानाकल, (२) प्रलयाकल ओर (३)
सकल । उनमें पहला केवल मल से ही युक्त रहता है ( अन्य तीन पाशो से नहीं )
तथा विज्ञानाकल कहलाता है क्योकि इसमें विज्ञान ( परमेश्वर के स्वरूप का
ज्ञान ), योग ( जप, व्यान आदि ) ओौर संन्यास से अथवा भोग से ( = कर्मफल
काभोगकरलेने पर) कमंका विना्हो जाता है तथा कर्मक्षय कै लिए बने
कला ( इनका वर्णन आगे होगा ) आदि भोगबन्व ( शरीर ) का अभाव रहता
है। [ जिसमें कला न हो वह् अकल है । कमं का क्षय हो जाने पर उनका फल-
३३६ सबेदशेनसंम्रदे-
भोग करने वाले शरीर की आवश्यकता नहीं रहती । अतः शरीर के प्रयोजक
कला आदि या इन्दो का अत्यन्त अभावदहो जाता है इसलिए वह् पशु अ-कल
ह । चरूकि विज्ञान के कारण अकलता प्राप्त होती है इसलिए इसे विज्ञानाकल
कहते है । ] दूसरा प्रलयाकल कहलाता है व्योकि प्रलय ( 0138०]प्४० )
क द्वारा इसमें कलादि ( शरीर के प्रयोजक ) का विनाश होता है--इसमे मल के
साथ कमं भी ( = कल दो पाश्च ) रहता है। तीसरा खकल है क्योकि इसमं
मल, माया, कम॑--ये तीन बन्धन या पाश्च रहते है ।
( ५ क. विज्ञानाकल जीव के दो भद् )
तत्र प्रथमो दिप्रकारो भवति-समाप्रकङ्षासमाष्षकटष-
भेदात् । तत्राद्यान् काटुप्यपरिवाकवतः पूरुषधोरेयानधिकारयो-
गयान् अनुग्रह अनन्तादिविचेशराष्टपदं प्रापयति । तदिद्ेधराष्टकं
निर्दिष्टं बहदेवत्ये-- |
१४. अनन्तश्चैव बक्ष्मश्च तथेव च शिवोत्तमः ।
एकनेत्रस्तथेवेकरुद्रापि त्रिमृत्तिकः ॥
१५. श्रीखण्डथ शिखण्डी च प्रोक्ता विदेश्वरा इमे । इति ।
उनमें पहला ( विज्ञानाकल ) दो प्रकार का है--जिनका कलुष ( मल )}
समाप्त हो गया है तथा जिनका कलुष समाप्त नहीं हमा है। जिन लोगों के
कालुष्य या मल का विनाशा ( परिपाक ) हो जाता है वै पूरुषो मे श्रेष्ठ ह तथा
अधिकार ( ईश्वरप्रात्ति ) के सर्वथा योग्य है, उन्ह अनुगृहीत { उन पर कृषा }
करके उन्हं अनन्त आदि आठ विचेश्वरों के पद पर पहवाया जाता है [ -- इ
हो समाप्रकलुष विज्ञानाकल जीव कहते है | आठ वियेशवरो का निदेश बहुदेवत्य
नामकं ग्रन्थ में इस प्रकार हभ है-- अनन्त, सूक्ष्म, शिवोत्तम, एकनेत्र, एकष्ड,
त्रिमूति, श्रीकरठ ओर शिखर्डी- ये ही ठ विेश्वर कटे गये है ।' [ ये विद्येश्वर
जीवों मे सबसे उच है, इन्द शिवत्व की प्रापि हो जाती है। जीव अधिक से
अधिक यही पद पा सक्ता है, यदि जीवावस्था में हो । ये भक्तं नही है, केवल
शिव का अनुग्रह प्राप्त किये हुए अधिकारी है । समाप्कलुष से केवल इन विद्येश्वरो
काही बोध होता है।]
अन्या ( न्त्या ) न्सप्रकोटिसंख्यातान्मन्त्रानसुग्रहकरणान्ि-
धत्ते । तदुक्तं तश्वप्रकाशे--
शेव-दश॑नम् ३३७
१६. पञ्चवखिविधाः प्रोक्ता विज्ञानप्रलयकेवलौ सकलः ।
मलयुक्तस्ततराद्यो मलकमेयुतो दितीयः स्यात् ॥
१७. मलमायाकमेयुतः सकलस्तेषु द्विधा भवेदाद्यः ।
आद्यः समाप्तकट्षोऽसमाप्रकटषो द्वितीयः स्यात् ॥
१८. आद्यानयुग्रह्य शिबो विदयेश्त्वे नियोजयत्यष्टौ ।
मन्त्रश्च करोत्यपरोस्ते चोक्ताः कोटयः सप्त ॥ इति ।
असमाप्तक्रलुष जीवो को [ शिव ] अनृग्रह करनेवले सात करोड मन्त्रोका
खूपदेदेताहै। [ मन्वरतो कमं ओौर शरीर से मुक्त रहते है, केवल मल उनमें
रहता है, ये एेसे जीव-विशेष है । ये संख्या मे सात करोड़ हैँ तथा दृषरे जीवों
पर दया भी करते है । ] तच्वप्रकाश में कहा गया है-
“तीन प्रकार के पशु होति है, केवल विज्ञान, केवल प्रलय तथा सकल । उनमें
पहला (विक्ञानाकल) मलयुक्त होता है, दुसरा (प्रलयाकल) मल ओर कमं से युक्त
रहता ह । सकल मे मल, माया ओौर कमं होते हैँ । उनमें प्रथम के दो भेद है-
समाप्तकलुष ओौर असमाप्तकरलुष । प्रथम भेद में पड़नेवाले जोवों पर शिव कृपा
करके वियेश्वरों के भाठ पद प्रदान करता है जबकि दूसरे मेदमे अनेवाले
जीवों को मन्त्रों काषददेतादहै जो संख्यामे सात करोडर्है।'
सोमश्चंञुनाप्यभिहितम्-
१९. विज्ञानाकलनामेको द्वितीयः प्र्याकलः ।
ततीयः सकलः शस्त्रेऽनुप्राह्यस्िविधो मतः ॥
२०. तत्राद्यो मलमात्रेण युक्तोऽन्यो मलकमभिः ।
करादिभूमिपयन्ततचेस्त' सकलो युतः ॥ इति ।
सोम-शंभ्ने भी एेसा ही कहा है “एक विज्ञानाकल नामकारटै, दुसरा
प्रलयाकल, तीसरा सकल-शाख्र मे ये तीन प्रकार के अनुग्राह्य (दया के पात्र,
जीव ) माने गये है । उनमें प्रथम केवल मलसेही युक्त रहतादहै, दुसरा मल
ओर कमं से युक्त है तथा सकल कला से लेकर भूमि पय॑न्त तच्वों ( सात कलाय,
तीन अन्तःकरण, दस इन्द्रियां, शब्दादि पांच तन्मात्र, आकालादि भूमिपर्यन्त
पाच तचव = कुल ३० तत्व ) से युक्त रहता है ।' |
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३३८ सवेदशेनसं्रहे-
(५ ख. प्रलयाकल जीव केदो मेद् )
प्रर्याकरोऽपि दहिविधः-- पक्रपाश्चद्यस्तद्विलक्षणश्च । तत्र
प्रथमो मोक्षं प्राप्नोति । द्ितीयस्तु पयेष्टकयुतः .कमेवशानाना-
विधजन्मभाग्भवति । तदप्युक्तं तच्वग्रकाशे-
¢ न्त्येते
२१. प्रर्याकरेषु येषामपक्रमलकमेणी त्रजन्त्येते ।
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पुयषटकदेहयुता योनिषु निखिरासु कमेवश्चात् ॥ इति ।
प्रलयाकल जीव भीदो प्रकारका होता है- जिसके दो पाश्च ( मल ओर
कमं ) परिपक्र हो गये है तथा जिसके दो पाश परिपक्व नहीं हुए हैँ । [ परिपक्व
काञथंहैजो अपने कायं कोकरनेमें असमथंहै। दो पाशोंके परिपक्वहो
जानेसेभोगकीभी हानि हो जाती है ओर जीव मुक्तं होता है। | इनमें पहले
प्रकार का जीव मोक्ष प्रापत्त करता है जब कि दसरा पूय्टक ( शरीर ) प्राप्त करके
कमंके वश्चमें होकर नाना प्रकार के, जन्म प्राप्त करता है। | पुटक से तीस
तत्वों से बना हुआ शरःर' अथं लियाजातादहै। वे तच्वहै-पांच महाभूत,
पाच तन्मात्र, पांच ज्ञानेन्द्रिय, पाच कर्मद्धियां, सात कलादि, तीन अन्तःकरण-
नके विवरण के लिए अगे देखं । ] तच्वप्रकाशमें यह् मी कहा यया है--
“प्रलयाकल जीवों में जिनके मल ओर क्म परिपक्व नहीं, वे कर्मके वश में होकर
पयंष्टक ( तीस तत्वों से बनी } देह धारण करके सभी योनियं में विचरण करते
रहते हँ ।
पुयंष्टकमपि तत्रेव निदि्टम्-
© ॐ ©
स्यात्पुयष्टकमन्तःकरणं धीकमेकरणानि । इति ।
विबरतं चाधोरश्िवाचार्यण--पुयष्टक नाम प्रतिपुरुषं नियतः,
सगोदारभ्य कटपान्तं मोक्षान्तं वा स्थितः, परथिव्यादिकरापये-
न्त्िशत्तत्वात्मकः, घक्ष्मो देहः । तथा चोक्तं त्संग्रहे--
२२. वसुधाद्यस्तखगणः प्रतिप॑नियतः कखान्तोऽयम् ।
प्यंटति कमेवश्ाद् भुवनजदेदेष्वयं च सर्वेषु ॥ इति ।
पंक का उल्लेख भी उसी स्थान पर हुआ है--अन्तःकरण ( मन, बुद्धि
जौर अहंकार तथा सात कलादि ), बृद्धिके कमं ( = ज्ञेय; पाच भूत + पाँच
तन्मात्र ) ओर करण ( साधन अर्थात् दस इन्द्रियां बयोकिवे ज्ञान भौर कमं के
साधन है )- इसे पुयं्टक कहते है ।
शैव-दशेनम् ३३६
अधोरशिवाचायं ने इसका विवरण दिथा है--वुयंष्टक उप सूक्ष्म देह को
कहते है जो प्रत्येक पुरुष के लिए निशित रहती है, सृष्टि के बारम्भसे लेकर
कल्प के अन्त तकया मोक्ष के अन्त तक स्थिर रहती है ओौर पृथिवी आदि
कला-पर्यन्त तीच तच्वों से निमित होती है। जेता कि त्वसंग्रह मे कहा गया
है--'वसुधा ( प्रथिवी ) से आरम्भ करके कला-परयन्त जो तत्वों का समूह है वहं
्रस्येक पुरुष के लिए नियत है तथा कमंसिद्धान्त के अनुसार वह् भुवन में उत्पन्न
होनेवाले (पथु, पक्षी, मनुष्य अ।दि) सभी जीवो के शरीरो में धरुभता रहता है ।'
तथा चायमर्थः समपद्यत--अन्तःकरणशचब्देन मनोबुद्धय-
हंकारवाचिनाऽन्यान्यपि पसो मोगक्रियायामन्तरङ्गाणि कला-काल-
नियति-विद्या-राग-प्रकृति-गुणाख्यानि सप्र तखान्युपलक्ष्यन्ते ।
धीकर्मशचब्देन ज्ञेयानि पश्चभूतानि तत्कारणानि च तन्मात्राणि
विवक्ष्यन्ते । करणशचब्देन ज्ञानकर्मन्दरियदशकं संयते ।
इष प्रकार यह अथं संपन्न हआ--"अन्तःकरण' शब्द से, जिससे मन, वुद्धि
ञओौर अहंकार का बोध होता है, पुरुष की भोग-क्रिया मे अनिवायं (अन्तरं) रूप
से विद्यमान कला, काल, नियति (अदृष्ट + २४९), विद्या, राग ( {79{प8 ४071
विषयासक्ति), प्रकृति ओौर गुण--इन सात तत्त्वों को मौ उपलक्षित (1761४५९)
किया जाता ह । "धीकर्म' शब्द से ज्ञेय पांच भूतो को ओर उनके कारणरूप पाँच
तन्ान्रो को समन्चा जाता है। करण शब्दसे ज्ञान ओौर कमं की दस इन्दं
लो जाती ह । [ इस तरह कुल तीस तत्वों को पुयेश्टक कहते ह । |
विरोष--कलादि सात तच्वो से सृष्टिका क्रम समज्ञा जाता है। समस्त
सृष्टि के मूल में माया-तच्व है जो अस्यन्त सुक्म तथा प्रलयकाल मे भी नष्ट नहीं
होने वाला है । परमेश्वर के साथ, सृष्टि के आरंभ मे, उसका संपकं होता है जौर
उसे परिणाम उत्पन्न होते है । प्रथम परिणाम कला हैजो माया की अपेक्षा
कम सूक्ष्म तथा प्रलयकाल में नष्टो जनिवालौ है। अभीभी तीन गुणोँकी
उलत्तिन होने के कारण यह गुणत्रय से मौ परे है। इसके बाद काल आता
हैजोएकही दै, वाद मे भने वाली सभी चीजे काल के अधीनरहै। तदनन्तर
नियति कौ उत्पत्ति होती है जो विभिन्न प्रकार की है क्योकि जीव के द्वारा किये
गये पूर्वं करभो के अनुसार काल के निवम से, जीवों से यह संबद्ध रहती है।
नियति से विद्या उत्पन्न होती है जिते चित्तके रूपमे जोवका गण मौ मानते
ह । उसके बाद राग ( विषयासक्ति ) आता है। यह देष का विरोधी है तथा
जीव काएक गृण ही है। उपयुक्त ` गों तच्व ( त्रिया ओर राग) प्रत्येकं जीव
३४० सवेदशनसंग्रहे-
के लिए भिन्न-भिन्न है । तब प्रकृति ( स्वभाव ) का तच्व उत्पन्न होता है, तब
तीन गुण अतिहै। |
इन सात तचो की उत्पत्ति के बाद ही तीन अन्तःकरण उत्पन्न होते है ।
अन्तःकरण के पश्चात् पांच सूष्ष्म-तचस्व (शब्द, रूप, रस, गन्व, स्प्ञ--ये
तन्मात्र ) उत्पन्न होते है तथा पांच स्थूल-तचव ( पृथ्वी आदि पाँच महाभूत }
उसके बाद आते ह । पाँच ज्ञानेन्दियों ओर पांच कर्मेनदरयों कौ उत्पत्ति उसके बाद
होने पर स्थूल देह बनती है । यह सृष्टिक्रम साख्यद्थेन से बहुलांश मे समान
है । यह इन तीष तच्वों को पृष्ट कहते ह ।
नचु श्रीमत्कालोत्तर--
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२२, शब्दः स्पशेस्तथा रूपं रसो गन्धश्च पश्चकम् ।
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ुद्धिमेनस्त्वहंकारः पुयंशटकमदाहतम् ॥
इति श्रुयते । तत्कथमन्यथा कथ्यते १ अद्धा, अतएवच
तत्रभवता रामकाण्डेन तत्र व्रिशषत्त्वपरतया व्याख्यायीत्यल-
मतिग्रपश्चेन ।
अब कोई पृश सकता है कि श्रीमत् कालोत्तर नामक आगम मे एेसा सुनते
है- शब्द, स्पश, रूप, रस, गन्ध इन पाचों का समूह तथा बुद्धि, मन ओर
अहंकार, ये मिलकर पुटक कहलाते है) तो फिर आप लोग यहां अन्य प्रकार
से ( तीस तत्त्वों का पुयं्टक ) कंसे कहते है ? ठीक है, इसीलिए तो आदरणीय
रामकारड ने उपयुक्त उद्धृत सूत्र ( इलोकाटमक } की व्याख्या इस तरह् कीट
करि तीस तत्वों का अभिप्राय निकले--अधिक विस्तार क्था कर ?
विरोष- पुटक मे दो शब्द ह “पुरि = शरीरे, अष्टकम् ।' शरीर मे आठ
चीजों का ही वास्तव मे ग्रहण करना चाहिए किन्तु मूल-शब्द को कौन पूता
है ? शब्द पड़ा रह जाता है ओर अथं करा-से-कहां पटच जाता है--पूर्य्टक =
तीस त्वो से निमित शरीर ! कोई माठ त्वो का निदेश भी करे तो उसको
व्याख्या से ३० तत्वों को समाहित करना ही है।
© [क
तथापि कथमस्य पुयं्टकत्वम् १ भूततन्मत्रुदधीन्द्रिय-
[४ + (क श्वभिर्वर्गे ¢ [>
कर्मन्द्ियान्तःकरणसंजञः पथ्चभिवेरगँः तत्कारणेन प्रधानेन कलादि-
बादित्यविरोध ©
पश्चकात्मना वर्भेण चारग्धत्वादित्यभिरोधः। तत्र पुय्टकयुतान्वि-
लिष्टएण्यसंपन्नान् कंधिद युग्य थवनपतित्वमत्र महेधरोऽनन्तः `
प्रयच्छति । तदुक्तम्-
शौव-दशेनम् २४१
काथिदनुगह्य वितरति शुवनपतित्वं महेश्वरस्तेषाम् ॥ इति ।
किर भो इसे पुटक कंसे कहते है ? [ पुय्टक' मे 'आठ' शब्द है जिसका
तात्पयं कुछ न-कु् तो होगा ही । तोस तच्वों वाले पुयंष्टक मे अष्ट संख्या
आई केसे ? ]
इस प्रकार यदि अवान्तर वर्गोके द्वारा हम गिनि तो विरोध नही
होगा- - पञ्च महाभूत, पञ्च तन्मात्र, पांच ज्ञनिन्दर्या, पाच कर्मेन्द्रियं ओर तोन
अन्तःकरण --ये पाच वर्गं हुए; अब इनके कारणस्वरूप तीन गुण, अ्रषन
( = समस्त संसार का मूल कारण, प्रकृति ) तथा कलादि पाच तत्वों ( कला,
काल, नियति, विद्या, राग ) का वगं--ये तोन वगं हुए । [ सब मिलकर अठ
वं हो जति ह फिर विेष कैसे ? ] पुटक से युक्त तथा विशेष पुण्य करने
वाले कुच लोगों पर अनुग्रह ( दया ) करके महेश्वर अनन्त उन्दर इसी संसार से
ञुवनपति का पद देते ह । नेस्ा क्रि कहा गथा है-- इन लोगों मे कुछ पुरुषो `
पर दया करके महेश्वर उन्हँ भ्ुवनपति का पद दे देते ह ।' [ यहां महेश्वर का अथं
विद्येश्वर टै । |
( ५. ग. 'सकल' जीव के मेद् )
सकलोऽपि दि विधः । पक्रकटुषापक्वकल्षभेदात् । तत्रा-
चचान्परमेश्वरस्तत्परिपाकपरिपाव्या तदुगुणशचक्तिपातेन मण्डल्या-
द्य्टादश्चोत्तरश्चतमन्त्रेशवरपदं प्रापयति । तदुक्तम्--
२४. शेषा भवन्ति सकलाः कलादियोगादहसेखे कले ।
शतमष्टादश्च तेषां ङुरुते स्वयमेव मन्त्रेशान् ॥
२५. तत्राष्टौ मण्डलिनः कोधाच्यास्तत्समाश्च वीरेशः ।
श्रीकण्ठः शतरुद्रा; शतमित्यष्टादज्ञाभ्यधिकम् ॥ इति ।
सकल भी दो प्रकार का है--पक्कलुष ( जिनके कलुष पक्व हो गये है)
तथा अपक्कलुष । उनमें पक्तकृलुष जीवों को, परमेश्वर, उनके परिपाक की
प्रणाली को देखकर, उसके अनुसार ही [ दक् ओर क्रिया को आच्छादित करने
वाली ] शक्ति का हास होने पर, मण्डली आदि एक सौ अठारह मन्त्रेवरो ( एक
प्रकार के जीव ) का पद प्रदान करतादहै। [ तात्पर्यं यहदहैकिं जेसे-जेसे मल
आदि पाको का परिपाक बढते जाता है वेसे-वेसे हौ उन पाशो मे विद्यमान ज्ञान
र क्रिया की अच्छादन-शक्ति भी क्षीणा होती जाती है । शक्ति क्षीण हो जाने
से पाशा बेचारे कुछ नहीं कर पाते--रहकर भी नहीं रहते । देसी दशामेही
॥ | ३४२ सवेदशनसंग्रदे-
जीव मन्रेश्वर का षद प्राप्त करता है । इसके पहले सात करोड मन्त्रो का वंन
हो + है,जो जीवही्है-उस पदको प्राप्त करने के अधिकारी ये मन्वरे्वर
ही है।|
जसा कि कहा गया है- "अवशिष्ट जीव सकल कहलाते ह क्योकि पृष्ठि के
आरंभ के समयमे इनका संवंध कला आदि के साथ रहता है । इनमे.एक सौ
अठारह जीवों के शिव स्वयं मन्तरवर बना देते है ॥ २४॥ इनमे आठ तो
मर्डली कहलाते है, फिर उतने ही क्रोधादि तच्च है ( = आठ ), वीरेश ओर
श्रीकण्ठ के बाद एक सौ श्र--इस प्रकार करल ११८ मन्त्रे्वर है ॥ २५ ॥'
विदोष--महमुंल काल सृष्टि के आरंभ का समय । सृष्टिको दिन कहते
है तथा प्रलय को रात्रि । दिन का मुख अर्थात् सृष्टि का आरंभ ।
तत्परिपाकाधिक्यानुरोधेन शक्त्युपसंहारेण दीक्षाकरणेन
मोक्षप्रदो भवत्याचायमूतिंमास्थाय परमेश्वरः । तदप्युक्तम्--
२६. परिपक्रमलानेतानुत्सादनहेतुशक्तिपातेन ।
योजयति परे तत्वे स दीक्षयाचायेमूतिस्थः ॥ इति ।
भरीमन्प्रगेन्द्रेऽपि--
पूवं व्यत्यासितस्याणोः पाश्चजालमपोहति ॥ इति !
उन पाशो का, परिपाक इतना अधिक हो जाताहैकि उन्हींके आग्रह से,
रोध-शक्ति का सवंथा विनाश हो जाने पर, उन जीवों के लिए, आचायं कौ मूति
म प्रवेश करके, परमेश्वर दीक्षा के द्वारा मोक्षप्रदं बनता है । यह भौ कहा गया
है--जिनके मल पूर्णतः परिपक्र हो जाते है, उनकी विनाशकं उत्सादनहैतु =
ज्ञान को विनाशक ) शक्ति को समाप्त करके, वह परमेवर आचायं की मृति
( शरीर ) में अवस्थित होकर दीक्षा-दान करके परम तस्व से मिला देता है ।'
श्रीमत् मृगेन्द्र मे भी यही कहा है-- पहले व्यत्यासित ( अनादि संस्कार से
मक्त करिये गये } जीव (अणु) के पाश-जालको ही वहु दूर करता है)"
व्यातं च नारायणकष्ठेन । तत्सवं तत॒ एवावधार्यम् ।
अस्माभिस्तु विस्तरभिया न प्रस्तृयते। अपक्रकट्षान्बद्रानणन्भो-
विधत्ते ©
गभाजो विधत्ते परमेश्वरः कमेवशात् । तदप्युक्तम्--
२७. बद्भाञ्छेषानपरान् विनियुङ्क्ते मोगथक्तये प॑सः ।
© नुगमादित्येषं कीतित। हः
तत्कमेणाम ; पश्चवः ॥ इति ।
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शैव-दशेनम् ३४३
नारायणाकरठ ने इसकी व्याख्या भौ कती है। सव कुद वहीं से देल लेना
चाहिए । हम यहाँ केवल विस्तार के भय से नहीं दे रहे है।
जिन जीवों (अणुओं) के कलुष परिपक्त नहीं हुए हवे बद्ध । उन परमेश्वर
कर्मं के कारण भोग भोगने देता है । यह भी कहा है--अवशिष्ट बचे हृए दूसरे
पुरुषों को, जो अपने कमं मे वेधे है, परमेश्वर उनके करमां कै अनुसार मोग मोगने
का विधान करता है; इस प्रकार पशुओं या जीवो का निरूपण समात हुमा ।
( ६. "पाश" पदाथ का निरूपण )
¢
अथ पाच्चपदार्भः कथ्यते । पा्चश्तुिधः--मरकमेमाया-
रोधक्चक्तिभेदात् । नच॒--
२८, सेवागमेषु मुख्यं पतिपदयुपाशा इति क्रमात्रितयम् ।
तत्र पतिः शिव उक्तः पश्चवो द्यणयोऽथेप्चकं पाशाः ॥
इति पाशः पश्चवरिधः कथ्यते । तत्कथं चतुर्धिध इति गण्यते ?
अब पादा पदाथ के विषयमे कहा जातादहै।. पाश चार प्रकार के है-
मल, कमं, माया ओौर रोधशक्ति। कुछ लोग आशंका करते ह किं निम्नलिखित
लोक में पाच प्रकारके पाश्च बतलाये गये, फिर आपलोग चारही प्रकार
दते गिनाते ह ?-रौवागमों मे मुख्यल्य से पति, पशु ओर पाश ये क्रमशः
तीन पदाथं ह । उने पति शिव को कहते दहै, अणु अर्थात् जोव पशु है ओर
पाच पदार्थं पाश्च, मेह ।' [ इस आशंका का उत्तर अब दिया जायगा । |
उच्यते--बिन्दोमौयात्मनः शिवतखपदवेदनीयस्य शिबपद-
्ा्निक्षणपरम्ठक्त्यवेश्षया पाञ्चत्वेऽपि तच्योगस्य विद्येधरादि-
पदप्रा्िेतुत्वेन अपरभुक्तितात्पाश्ववेनाुपादानम् इत्यत्रिरोधः ।
अत॒ एवोक्तं तखप्रकाशे--पाशाधतुवरिधाः स्युः इति ।
श्रीमन्मृेन्द्रेऽपि--
परावती (. © ॥4 चतुरषिं
२९. बलं कमं मायाकायं चतुविधम् ।
पाचजाङं समासेन धमो नाञ्नेव कीर्तिताः । इति ।
आशंका का उत्तर दिया जातादहै-मायाके रूप मे जो बिन्दु दहै, जिसे
किवतस्व' मी कहते है [ यही पचम पादै ]। जि मुक्ति मे शिवपद कौ
प्रापि हो जाय वही परम-मुक्ति है। इसकी अयेश्ना करनेसे तो बिन्दु पाश ही है
किन्तु इससे सम्बन्ध होने पर केवल वियेश्वर आदि के षदोंकी प्रापि होती दहै,
३४४ सबेदशनसंग्रहे-
इसलिए इससे केवल अपर-मृक्ति ही होती है- यही कारण है फ इसे पाशके
रूपमे नहीं लियाजातादहै, इस प्रकार दोनों मतोँमें कोई विरोध नहीं।
[ तात्पयं यह दहै कि पाँचवाँ पाश माणत्मक बिन्दुको मानते है, जिसका
दसरा नाम शिवततच्व भीटहै; इस पाशसे बद्ध जीवको परामूक्ति, जिशमें
शिवपद की प्राति होतीहै, नहीं मिलती; हाँ, अपरा या गौणा मृक्ति मिलती है
कथोक्रि यह पाश केवल विचेश्वर आदिपददहीदे सकतादहै। मलादिकी तरह
इसकी गति सर्वत्र नहीं है इषलिए इसे पाश्च नहीं माना जाता । |
इसीलिए तत्त्व-प्रकाशमें कहा गया है--पाश चार प्रकार के है।'
श्रीमत् मृगे मे भो कहा गया है--आवरण का स्वामी ( आतति + ईश =
मल ), बलवान् ( रोधरशक्ति ), कमे तथा मायाके कार्यं पे पाशजाल है, इनके
धमं इनके अपने-अपने नाम ( निवंचन करके) से ही स्पष्टर्है. [ व्याख्या की
आवश्यकता नहीं है । |
¢
अस्याथः--प्रावृणोति प्रकर्षणाच्छादयत्यात्मनः स्वाभा-
प्राबृतिरश्चचिमल ५)
विक्यौ दक्क्रिये इति चिमलः । स च इष्टे स्वातन्त्ये-
णेति इशः । तदुक्तम्-
३०. एको हनेकशक्तिटंकूक्रिययोर्छादको मलः पुंसः ।
तुषतण्डुलवज्ज्ञेयस्ताम्राधितकालिकावद्रा ॥ इति ।
इसका यह अथं है ( १) प्रावरणा अर्थात् अच्छी तरह (प्र ) आत्मा
को स्वभाविक टक् ( ज्ञान ) ओर क्रिया की शक्तियों को आच्छादित (आवरण)
करे वह् प्रावृति या अपवित्र मल है। साथ-ही-साथ जो स्वतत्रतापूवक शासन
( </ ई ) करे वह ईश है ( अर्थात् शासक मल ही प्रावृतीज्च है) । कहा है--
"जो एक् होने पर भी अनेक शक्तियों ( अनेक प्रकार की आच्छादनशक्ति तथा
नियामकरशक्ति ) से युक्त है तथा पुरुष के ज्ञान ओर क्रियाको देंकने वालादहै,
वही मल है । इसका ज्ञान तुष-तरडल के संबन्ध की तुलना से करे (आच्छादक
ओर आच्छाद्य का संबन्ध, या ताग्र-घातु में स्थित कालिका (जंग या मोरचा
लगना 7८७४ ) कौ तुलना से करं ।'
बलं रोधश्षक्तिः । अस्याः शिवशक्तेः पा्चाधिष्ठानेन पुरुष-
तिरोधायकत्वादुपचारेण पात्यम् । तदुक्तम्-
३१. तासामहं वरा शक्तिः सवानुग्राहिका शिवा ।
धमौनुवतेनादेव पाश्च इत्युपचयंते ॥ इति ।
शेव-दशेनम् ३४५
(२) बल का अथं रोधश्क्ति है। यह शिवशक्ति ( वस्तुं करी अपनी
सामथ्यं, जैसे अनि मे दहनशक्ति, जल मे शेत्योत्पादनशक्ति आदि ) पाश्में
अधिष्ठित होकर पुरप्र (आत्मा) के स्वरूप को छिपा देतीदहै, इसलिए इसे
मौपचारिक ( आलंकारिक ) विधि से पाश मानते हैँ । कहा गया है- “इनमे मेँ
सर्वश्रेष्ठ शक्ति हँ ओौर सों पर दया करने वाली शिवा ( कल्याणमयी ) हं ।
धमं ( आश्रय की वस्तुओंके धमं) के अनुसार चलनेके' कारण इसे पाश्च
कहते है ।' [ ज्ञान ओौर क्रिया की शक्तियों कोरक देने को सामथ्यं ही रोधशक्ति
है जो मल में स्थित है।| |
¢ ५
क्रियते फलाथिभिरिति कमं धर्माधमोत्मकं बीजाङ्छुरवतसप्र-
बाहसूपेणानादि । यथोक्तं श्रीमत्किरणे-
नं |
३२. स्तस्य कमीर्पकमनादिकम् ।
यद्यनादि न संसिद्धं बेचिष्यं केन हेतुना ।॥ इति ।
(३) फल के इच्छुक व्यक्ति जो कु करं वह कमं है जिसमें धमं भौर
अधमं दोनोंही अतिदहैँ। बीज ओौर अकुरकौ तरह प्रवाहुके रूपमे यह
अनादि ़ालसे चलाञआ रहादहै। श्रीमत् किरणमें कहा गया है--'जिस
प्रकार मल अनादि है उसी प्रकार जीवके जो थोडेसे कमंहँवे भी अनादिही
ह । यदि कमं को अनादि सिद्ध नहीं करं तो कर्मो की विचित्रता केसे सिद्ध कर
स्केगे ? [ इस समय जषा विचित्र कमं देखते है वेसा ही वह अनादि भी सिद्ध
होता है । यदि कर्मको आादियुक्त मान लं तो उसकी विचित्रताका प्रारंम
मे कोई कारण जर देना पडेगा । किन्तु कोईमभी हेतु दिखलाया नहींजा
सकता इसलिए कमं अनादि ही है । ]
मात्यस्यां श्चक्त्यात्मना प्रलये सवं जगत्यो व्यक्ति
मायातीति माया । यथोक्तं श्रीमत्सोरभेये-
३३. शक्तिरूपेण कायांणि तष्टीनानि महाक्षये ।
विद्रतौ व्यक्तिमायाति सा कार्येण कलादिना । इति ।
( ४ ) प्रलयकालमें शक्तिके रूपमे जिसमें समूचा संसार परिमित रहता
है (./ मा ) तथा सृष्टिकाल मे अभिव्यक्ति प्राप्त करतादहै(आ + ~/ या)
वही मायादहै। जैसा कि श्रीमत् सौरमेय मे कहा गया है-- महाक्षय ( प्रलय )
होने पर शक्तिके रूपमे सारे कायं (जगत् के पदाथं) उसी विलीन हो
जाते है बौर विकृति ( सृष्टि ) की अवस्था मे कलादि कार्य॑के द्वारा अभिश्यक्त
३४६ सबद शनसंग्रहे-
हो जाते है । [ अतः माया" शब्द की व्युत्पत्ति है ../ मा + आड उपसगंसहित
५</या+धन् के अथंमेक प्रत्यय + टाप् स्रीलिग प्रत्यय । अथं होगा--लीनं
होना ओर अभिव्यक्ति मे आना) ] ।
( ७. उपसंहार )
य्प्यत्र बहु वक्तव्यमस्ति तथापि ग्रन्थभूयस्त्वभयादु
प्रम्यते । तदित्थं पतिपड्ुपाश्चपदाथास््रयः प्रदर्धिताः
२४. पतिविद्ये तथाविद्या प्यः पाशचश्च कारणम् ।
तनिवृत्ताविति प्रोक्ताः पदाथाः षट् समासतः ॥
इत्यादिना प्रकारान्तरं ज्ञानरतावल्यादौ प्रसिद्धम् । सवं
तत एवावगन्तव्यमिति सवं समञ्जसम् ॥
इति श्रीमत्सायणमाधवीये स्व॑द्च॑नसंगरहे तैवदश्षनम् ॥
><=
यद्यपि यहां पर बहुत कुछ कहना है तथापि प्रन्थ बडाहो जाने के भय
से अब हम यहींरकं । तो इसप्रकार पति, पशु ओर पाशके तीन पदार्थं
दिखलाये गये । ज्ञानरल्नावली आदि ग्रन्थो मे पदार्थोकी गणाना दूसरे ढंग से
प्रसिद्ध है--'पति, विद्या, अविद्या, पशु, पाश्च ओर कारण, उस (कारण) की
निवृत्तिकेलिएये छह पदाथं संक्षिप्तल्पसे कहे गये ह।' तरै सब बारें वहीं
से जानी जायं, इस तरह सारी बातं ठीक हँ ।
इस प्रकार श्रीमान् सायणामाधव के सवंदशंनसंग्रह में
रोव-दर्शन | समाप हुआ ]।
इति बालक्विनोमाश द्रेण रचितायां सर्व॑दशनसं ग्रहस्य
प्रकाशाख्यायां व्याख्यायां शेवदर्घंनमवसितम् ।॥
॥ 4
: +< +
८ < ) परत्यमिनना-दशोनम्
स्वच्छन्दतः खजति संसरतिमीश्वरोऽयः
भ।बान्विभासयति चात्मनि विम्बरूपान् ।
अद्रैतशूपविदितं नववन्वमनत्र
साक्षा्कति दिशति तत्परमं समीहे ।-- ऋषिः
( १. प्रत्यभिज्ञा-दशेन का स्वरूप )
अत्रावेक्षाविहीनानां जडानां कारणत्व दुष्यतीत्यपरितु-
धयन्तो, मतान्तरमन्वि्यन्तः, परमेशवरच्छावश्ादेव जगन्निमोणं
परिघुष्यन्तः, स्वसंवेदनोपपर्या आगमसिद्धप्रत्यगात्मतादार्म्ये
नानाविधमानमेयादिभेदाभेदश्चालिपरमेधरोऽनन्यमुखभरे कषित्वलक्
णस्वातन्त्यभाक् स्वात्मदपेणे भावान्द्रतिवरिम्बवद् अवभासः
यतीति भणन्तो, बाह्याभ्यन्तरचयाप्राणायामादिक्लेश्प्रयासक-
लापवरधुयेण सर्मैसुरभमभिनवं परत्यभिज्ञामत्रं परापरसिद्वयुपा- `
यमभ्युपगच्छन्तः, परे माहेधराः प्रतयभिन्नाश्ाख्नमभ्यस्यन्ति ।
महेश्वर-संप्रदाय के ही कुच दूसरे दाशनिक है जो उपयुक्त शेव-द्॑न से
असंतुष्ट है वयोकि उस दर्शेन के अनुसार अपेक्ारहित ( प्रयोजन शृन्य 10;
‰ ९९९88 ) जड़ पदार्थो को कारणा माना गया हैजो दोषपूं है। [ लोकिकं
व्यवहार मे लोग कहते है कि चट-निर्माण के कारणा मिदर, डंडा, चाक
आदि । लेकिन वस्तुस्थिति रेसी नहीं दै। नतौ केवल भिदरीसे घट बनता
है,न केवल चाकसे, न डंडेसे। अव यदि यह मानेंकिये सब भिलक्रर धट
बनाते है तव प्रन होगा कि चट-निर्माण मे किसकी अपेक्षा हुई ? मद्री, डंडे
याचाककीतो अपेक्षा नहीं है क्योकि अपेक्षा किसी चेतन पदाथंमे दही होती
हे, यह चेतन का धमंहै। अव यदि कुम्भकार को चटका कारण माने किं
वह मिहो आदि कौ अपेक्षा रखते हृए घट बनाता हितो ठीक होगा। ठीक
यहो उदाहरण संसार के निर्माणमें दिया जा सकता है। कमं तो जड-पदा्थं
हे, उससे संसार का निर्माण कैसे हो सकेगा ? अब यदि इसी उदाहरण के
बल पर, कमो की अपेक्षा रखनेवाले ईश्वर को संसार का कारण माने तो ठीक
~
1 क.
यट
~
३४८ सबेदशेनसंग्रहे-
नहींहै क्योकि ेसा होने से संसारके निर्माणामें ईश्वर परण॑तः स्वतंत्र नहीं
रहेगा । पूणं स्वातंत्य का अभिप्रायरहैकरि किसी दुसरी वस्तुकी अपेक्षान
रहे । किसी रूपमे दूसरे कासहाराननले। |
इसीलिए ये लोग किसी दूसरे मतकी खोजमेंह। ये घोषणा करते
कि परमेश्वर की इच्छामात्रसे संसारका निर्माण होता है। अपने संवेदन
( अनुभव )के द्वारा अनुमान करने से ( उपपत्ति=अनुमान ) ओर शेवागमों
से सिद्ध होने वाली, प्रत्यक् ( सबों के ऊषर 181186674©06 ) आत्मा
के साथ तादात्म्य ( एकलूपता पशप ) होने पर नाना प्रकारके मान
( ज्ञान (णदपाप्०)8§ }) ओर मेय ( ज्ञेय [९108016 ) आदि के भेदों
जर अभेदो को धारण करने वाला परमेश्वर ही है; वह एषी स्वतन्त्रता धारण
करता है जिसमें क्रिषौ दूसरे कौ मुलपिक्षिता ( हस्तक्षेप, आवश्यकता ) नहीं
रहती; वह॒ अपनी आत्मा पर आकाशादि भावों को उसी प्रकार अवभासित
( व्यक्त) करता है जिस प्रकार किसी दपा पर प्रतिबिम्ब ( परछाहं)
पड़ता है--इन लोगों का यही मत है! [ आशय यह है--जिस प्रकार दपण
पर प्रतिबिम्ब पड़ता है उसी प्रकार परमेश्वर अषपनेही स्वरूपम सृष्टि, स्थिति
संहार आदि संसार की सभी क्रियाओंको व्यक्त करता है क्योकि चेतन-
अचेतन सभी पदां परमेश्वर के अन्तगेत ही है, कोई उससे पथक् नहीं--यही
अद्वैत तच्व है । किन्तु यहां माया न मान कर सब पदाथो का ईश्वर में अवभास
मानते है इसीलिए यह दन वस्तुवादी प्रत्ययवाद था [२९५] 9४;९ 14९४];
कहलाता है। अब परमेश्वर के अन्तर्गत देखे-- वहां विद्यमान पदार्थो में भेद ओर
अभेद दोनों हैँ । वस्तुओं मे पारस्परिक भेदै, संसारम नाना प्रकारके ज्ञेय
पदाथं है जिसके ज्ञान भी पृथक्-पृथक् होते रहै, किन्तु यह संसार परमेश्वर से
थोड़ा भी भिन्न नहीं है। वृक्ष एक दहै, शालायं भिन्न-भिन्न है-- वैसे ही ईश्वरमे भी
भेद ओर अभेद दोनों है । यह परमेश्वर प्रत्यगात्मा के साथ तादात्म्य रखता है
पर इसे जानते केसेहै?यातो अनुमानसे या शेवागमोंके बल षर च
ही ईश्वर हूं दूषरा कोई नही" इसे ही प्रत्यभिज्ञा कहते है क्योकि यहां साक्लातकार
होता है-जीव ओर ईश्वरका तादात्म्य स्थिर होताहै। यही स्वानुभाव
१. जतोऽसौ परमेशानः स्वात्मव्योमन्यनरगलः ।
इयतः मूष्टिसंहाराडम्बरस्य प्रकाशकः ॥
निर्मले मृकरुरे यद्वद भान्ति भूमिजलादयः।
अमिध्रास्तददेकरस्मिधिन्नाये विश्ववृत्तयः ॥
तन्त्रालोक ( २।३-४ }) ।
त ३४६
( भै ईश्वर हं ) अनुमान का माधार है। ईश्वर की स्वतंत्रता भौ मानी जाती
ह, वह अपनी इच्छा से ही संसार को बना ओर मिटा सक्ता है । |
बाह्य -च्यां ( मस्मस्नानादि ), आभ्यन्तर-चर्या ( क्राथनादि ), प्राणायाम
आदि क्लेशप्रद प्रयासोँसे दूर रहं कर, सन लोगों के लिए सुलभ, बिल्कुल
नवीन, प्रत्यभिज्ञा मात्रकोही परसिद्धि ( मुक्ति ) भौर भपरसिद्धि ( अम्युदय,
स्व्ग्राप्ति आदि ) मानते हृए पे महेश्चर-सिद्धास्त वाले प्रत्यमिज्ञाशल्र का
अभ्यास करते है।
( २. भ्रत्यभिज्ञा-द्रोन का साहित्य )
तस्येयत्तापि न्यरूपि परीक्षकेः-
१. सत्रं वृततिर्विवृतिरुष्वी बृहतीत्युमे विमर्धिन्यो ।
ग्रकरणविवरणपश्चकमिति चाच प्रत्यभिज्ञाया; ॥
परीक्षकों ( अधिकारियों ) ने इस शाख की सीमा ( इयत्ता ) का भी विचार
किया है--मूत्र ( संक्षेप मे अथं को समज्ञाना ), वृत्ति ( सम्बद्ध अथं का कथन )
विवृति ( विवरण, दूखरे शब्दों के द्वारा अ्ं-वर्णन ), लघु ओौर बृहत् दो प्रकार
करौ विमश्चिनी ( कुछ ओौर अधिक विचार करना ), ये पच प्रकारके प्रकरण
( प्रसंगबोधक या एकाथेप्रतिपादक रथांश ) ओर विवरण ( व्याख्यानग्र की
व्याख्या ) प्रत्यभिज्ञा के शाख ( साहित्य ) है ।
विरोष-- प्रत्यभिज्ञा-दर्घन का वास्तव मे चरिक-दकन नाम होना चाहिए
कयोक्रि इसीसे पूरे द्च॑न का बोषहो जाता है । स्यन्द" भौर प्रत्यभिज्ञा तो
इसके केवल अंगमात्र है, भले ही वे अवरयक ही क्योंनहों। चिक नाम
पड़ने में यह कहा जाता है कि ९२ आगमोमें केवल तीन- सिद्धा, नामक
ओर मालिनी--की प्रधानता होने के कारण ( तंत्राललोक १।३५ ), या पर,
अपर ओौर परापर के त्रिक का व्ण॑न करने के कारण ( वही, १।७-२१), या
अेदवाद के आलोक में अभेद, ञ्रेद ओौर भेदाभेद तीनों का व्ण॑न करने के
कारणा इसका नाम त्रिक पडा हो। काद्मीरमेंही सभी भ्रंथकारों के उत्पन्न
होने के कारण इसे कादमीरी लैव-तिद्धान्त भी कहते ह । काश्मीर मे इस दशन
का बहुत प्रचार था, किन्तु गत १०० वर्षो से इसकी परंपरा वहाँ भी समाप हो
गई है । स्मरणीय है कि हिन्दी कै सुप्रसिद्ध कवि ओर नाटककार श्री जयद्यंकर
प्रसाद" के परिवारमें भी इसी त्रिकद लन का प्रचार था जिसे उन्होने अपने
युग-प्रवतंक महाकाव्य 'कामायनीः में अमर कर दिया है।
२५०. सवदशनसंम्रहे-
तरिरु-दर्लन दोव सिदढान्त का ही एक भेद है किन्तु अद्वेतवादी विचारोसे
परिपूणं है । एेसी मान्यता है करि परम शिव ने अपनेर्पांच मुखो से उत्पन्न शिवा-
गमों की द्वैतवादी व्याद्या देवकर अदत तत्व के प्रचार के लिए दुर्वा ऋषि
को अपना कायं-मार सौपा । दुर्वाक्षा ने अपने तीन मानस पुत्र उत्पन्न किये ओर
उन तीन उपदेश दिये--त्थम्बक को अद्ैत दशन का, आमर्द॑ककोद्रेत का तथा
श्रीनाथ को दतादैत दर्यंन का उपदेश दिया । यम्बक कै द्वारा प्रचारित होने के
कारण इस दश्च॑न ( अद्वेतवादी त्रिक) को त्यम्बकं दर्शन भी कहते है जिससे
सोमानन्द ( ८५० ई० ) अपने को उथम्बकसे १९ वीं पीठी में रखता है । बहत
संभव है त्रिक-द्ंन का आविर्भाव पंचम शतक में हा हो।
दोनों को विचारधारा एक होने पर भी स्पन्द ओर प्रत्यभिज्ञा के साहित्य
पृथक् पृथक् हँ परन्तु दोनों को प्रायः भिला कर ही रखते है । प्रत्यभिज्ञा-द्शन के
पांच प्रकरणा विवरण प्रथो मेये है सूत्र, वृत्ति, विवृति, लघुविमशिनी, वृहद्-
विमथिनी । प्रथम तीन की रचना उत्पल ने कौ ओर अंतिम दोनों अभिनव-
गुत्त की रचनाएं है । इस प्रकार संकनेपतः दो आचायं हौ प्रत्यभिज्ञा-दर्थन के
सवंस्व है । डा० कान्तिचन्द्र पारडेय ( अभिनवगुप्-एेतिहासिक ओौर दानिक
अध्ययन, प ८३) का कहनाहै क्रिदोनों के पूवज कारमीरके बाहर के
निवासी थे । सोमानन्द की चौथी पीठुोके पूवंन इसे कारमीर में अष्टम शतक के
मध्यमेले ञाये थे तथा अभिनवपुपके पूर्वंन अत्रिगुप्र को ललितादित्य नामक
कारमीर-नरेश प्रायः ७४० ई० के बाद काड्मीरले गयेये। तवसे दोनों के
पूवज वहां बसर गये थे। उक्तं दोनों आबा्यों के पूवं त्रिक का प्रवततंन वसुगृप्त
( ८२५ ई० } ने किया था जिनसे स्पन्द-शाखा का आरंभ होता है ।
वसुगुक्त ( ८२५ ई० ) ने अपने 'श्िवसूत्र'मे तांत्रिक शवमत को अद्रैत-
वादौ रूप दिया । राजतरंगिणी ( ५।६६ ) मे न्ह सिद्ध कहा गया है तथा इनके
शिष्य कल्लट को अवन्तिवर्मा (८५५-८०८३ ई०) का समकालिक माना गथा है ।
भेमराज ने शिवसूत्रविमशिनी मे कहा है कि वसुगु्र को स्वप्न हुआ था कि वहं
महादेव गिरि के एक विशाल शिलाखंड पर उत्कीणं शिवसूत्रों का उद्धार करे ।
ये ७७ शिवसूत्र ही इस दर्शन के मूल हैँ जो तीन खंडोंमे बेटे है । इसने ओर भी
कई पुस्तकं लिली जेसे- स्पन्दकारिका, स्पन्दामृत, गोता कौ वाक्षवी टीका नथा
सिद्धान्त-चन्द्िका । क्ल ( ८५५ ई० ) ने स्पन्दकारिका पर स्पन्दसवंस्व टीकां
लिली तथा तच्वाथंचिन्ताभणि ओौर स्पन्दपूत्र भी इषके लिते श्रथ है । रमकण्ड
५ ९५० ई० ) ने स्पन्दविवरणसारमाव्र नामक प्रथ लिखा जो स्वन्दकारिका कौ
टीका है । मास्कराचायं ( अभिनव के समक्तालिक ) के साथ स्पन्द शाखाका
प्रत्यभिज्ञा-दशेनम् २५१
। समाप्त होता है यद्यपि अभिनव के बाद भी कुन कुछ टीकायें
लिखी गई ।
रत्यभिज्ञा शाखा का प्रवतंन सोमानन्द् ( ८५० ई० ) ने अपनी 'शिवदृश्ि'
के द्वारा किया । इसमे सात अष्यायों मे ७०० दलोक है । स्पन्द-शाखा में प्रचलित
रूदिवाद के विरुद्ध इसमें तकंवाद कौ प्रतिष्ठा हुई है । इनके पुत्र ओौर शिष्य
उत्पल ( ९०० ई६० ) थे जिन्होने ईश्वरपत्यभिज्ञा-कारिका, ईश्वर-प्रत्यभिज्ञाः वृत्ति,
ईश्व र-प्रत्यभिज्ञा-टीका, स्तोत्रावली आदि प्रायः ११ ग्रथ लिखे । प्रत्यभिज्ञाका
दार्शनिक विवेचन सर्वप्रथम इन्होनि ही या । लक्ष्मण गुत्त उत्पल के पुत्र ओर
चिष्ध भौ ये जिन अभिनवगुक्च (९५०-१०२० ई०) के समान बहुमखी प्रतिमा
वाति शिष्य को उत्पन्न करने का गौरव प्राप है। अभिनवगुप का नाम दर्शन
जञौर साहित्य दोनो ही क्षत्र मे प्रसिद्ध है। इनके पिताका नाम नरसिहगुतथा
जिनसे इन्होनि व्याकरण ण्ठा था।
अभिनवगुप्त ने प्रायः पचास ब्रन्थ विभिन्न विषयों के लिते । साहित्यिक
ग्रन्थो में ध्वन्यालोक की टीका लोचन नथा नव्यशाज की टीका अभिनवभारती
अत्यन्त प्रसिद्ध ह । त्रिक-दशेन पर इनके ये सुप्रसिद्ध प्रथ है-- मालिनीविजय-
वात्तिक, परातरिशिका विवृत्ि, तन्त्रालोक, तन्त्रसार, परमाथंसार, ईश्वर प्रत्यभिज्ञा
विमश्चिनी, ईश्वर-परत्यभिज्ञा-विवृति-विमशिनौ इत्यादि । अभिनवगुप्त पर विशेष
ज्ञान के लिए डा० कान्तिचन्द्र पाण्डेय की पस्तकं ( चौोखम्बासे प्रकाशित )
देख । अभिनव के शिष्य श्चेमराज (९७५-१०५०) ते भी गुरु की तरह ही तंत्र,
काव्यशाख्र ओर शैवद्न पर प्रथ लिखे । लैव-दर्शन पर स्पन्द-सन्दोह्, स्पन्द-
निरय, प्रत्यभिज्ञा हृदय, शिवसूत्रविमशिनी आदि इनमें विख्यात ग्रन्थ है । इनके
चिष्य योगराज ( १०७५ ) ने अभिनव के परमाथं-सार पर विवृति लिकौ ।
तन्त्रालोक पर सर्वप्रथम टीका सुभटदत्त ( १२०० ) ने लिब्ली थी यद्यपि.
ज्ञयरथ ( १२२५ ई० ) कौ सृविशाल टीका 'विवेक' के समक्न उसकी कोति
मन्द पड़ गई । भास्करकण्ठ ( १७५० ई६० )} ने अभिनव को प्रत्यभिज्ञा
विमश्चिनी पर एकमात्र उपलब्ध टीका लिखी जिसका नाम भास्करी है । इसके
अतिरिक्त इन्होने १४ वीं शती में किसी ली के द्वारा प्राचीन कादमीरी भाषां
लिखित लल्ला वाक्य का संस्कृत मे अनुवाद क्रिया जोर योगवासिष्ठ पर टीका
लिली । वरदराज ने वसुगुप्त के शिवसूत्र पर वातिक लिखा है ।
इस प्रकार कादमीरी चैव-द्न मं विपुल साहित्य है जो अपने आलोडन के
लिए विद्वानों का निरन्तर अवाहन करता है ।
३५२ सवेदशेनसंग्रहे-
(२. प्रथम सूज की व्याख्या )
तत्रेदं प्रथमं स्रत्रम्-
२. कथंचिदासाद्य महेश्वरस्य
दास्यं जनस्याप्युपकारमिच्छन् च
समस्तसंपत्समवा्रिेतं
तस्प्रत्यभिज्ञायुपपादयामि ॥ इति ।
। | उनमें यही प्रथम सूत्र है ( वास्तवमें प्रत्यभिज्ञासूत्रपर अभिनवगुतको टीका
।। | का मंगलाचरण है )--किसी प्रकार महेश्वर के दास का पद पाकर ओर लोगो
| का उपकार करने की इच्छा से सारी संपत्तियों की प्रापि करनेवाले प्रत्यभिज्ञा
शास्त्रकार आरंभ कररहाहूं।'
विरोष-- अभिनवगुप्त बहुत बडे तांत्रिक मीये ओर उनका महेश्वर की
॥१ 1 दासता स्वीकार करना सर्वथा उचितदहै। तांत्रिक ओर संन्यासीक कूपमें
॥1 1 उन्होने संसार का वहा भारी कल्याण किया था । प्रत्यभिज्ञा सूत्र पर विमर्शिनी
1 । | के आरभमेही यह शोक दिया गया है। यह स्मरणीय है कि नकरुलीश-पाशुपत-
| दर्शेन में जहां वैष्णवों की ईश्वर-दासता का उपहास किया गया है वहाँ एक
॥ || माहेधवर ईश्वर की दासता प्राप्त करने मे कठिनाई का अनुभव करते हतया षा
|| लेने पर गर्व॑पूरवक इसका उल्लेख करते हैँ । इसके बाद इसी सूत्र की व्याख्या में
|| | सारे द्चन का विपुलांश समक्षाया जायगा ।
|
कथंचिदिति- परमेश्वराभिन्नगुरुचरणारविन्दयुगलसमारा-
धनेन प्रमेधरषण्तिन एवेत्यथः । आसाध्ेति--आ समन्तात्प-
| सिपूणैतया सादयित्वा, स्वात्मोपभोग्यतां निरगेलां गमयित्वा ।
||| तदनेन विदितवेचत्वेन परारथाञ्धकरणेऽभिकारो दितः ।
अन्यथा प्रतारणमेव प्रसज्येत ।
कथंचित् का यह अर्थं है--गुरं जो परमेश्वर से भिन्न नहीं है, उनके दोनों
चरणकमलों की आराधना करके; यह आराधना भी परमेश्वर के स्वीकार करने पर
ही होती दहै! आसाद्यका अथंदहै-आ अर्थात् चारोंओरसेया पूंरूपसे
पाकर ( ./ सद् + शिच् ), या निबन्ध रूप से अपनी आत्मा के उपभोग करने
की योग्यता पाकर । [ अभिप्राय यह दहै किं आत्मा को बन्धनरहित उपभोग प्राप
होता है। यह उपभोग है प्रत्यभिज्ञाके प्रकाशन ओौर परोपकार केद्वारा प्राप्त
मानसिक संतोष । अभिनवगुप्त आत्मा कौ उपभोग्यता या संतुष्टि प्राप्त कर चुके
क्रन्त = 3
क प्व =-= ष्ट - =. +
य क ~" न
ज ० का
= ॐ ड
यकव
ए)
=
9
|
& ३५३
ह इसीलिए प्रत्यभिज्ञा-शासख्र लिखने का उपक्रम कर रहे है। संतोष तभी होगा
जब जानने लायक सारी वस्तं जान चुके हों, ज्ञान के विषयमे कोई बन्धन
नहीं हो । ] इस प्रकार इस शब्द से यह दिलाया जाता है कि सारीज्ञेय
वस्तुं जान लेनेके बादही परोपयोगी ( पराथं ) शाल निर्माण करनेका
अधिकार मिलताहै। नहींतो (ज्ञान के अभावमें) लोगोको ठगनाही मर
हो सकता है । [ यह भाशय है--राजाके द्वारा अधिकार मिल जाने पर नौकर
अपनी नौकरी के अधिकार का इच्छापूवंक. उपभोग करता है। सूत्रकारने भी
अपनी इच्छा के अनुसर ईश्वर की दास्ता प्राप्तकी है जो उनके उपभोग के
योगप है ओर जिसमे कहीं कोई रुकावट नहीं । वे सारे ज्ञेय पदार्थं जान चुके है,
इसमे अपने अधिक्रार का उपमोग अच्छी तरह कर सकते है,--परोपकार का
काम कर सकते ह, प्रत्यभिज्ञा-शाख्र लिख सकते है इत्यादि । जो अपना अधिकार
नहीं जानते, वे केवल दरों को ठगते है, वास्तव में उन ग्रंथ लिना नहीं
चाहिए । यदि ग्रन्थ लिखते है तो गलत ब।तोंकाभीतो प्रदिपादन कर सकते
है ओौर इस प्रकार वे शास्र पद़नेवालो को मागं से शष्ट करेगे । ]
मायोत्तीणी अपि महामायाधिकृता विष्णुविरिञ्च्याद्या
यदी्धर्वरेेन शशरीभूताः स॒ भगवाननवच्छिननप्रकाश्ानन्द्-
च
स्वातन्त्यपरमार्थो महेधरः। तस्य दास्यम्। दीयतेऽस्मं स्वामिना
सर्व॑ यथाभिरुषितमिति दासः । परमेश्वरस्वरूपस्वातन्त्यपात्र-
५
मित्यथेः ।
विष्णु, विरिञ्चि ( ब्रह्मा ) आदि देवता यद्यपि माया को पार कर चुके,
परन्तु महामाया ( अनन्त माया ) के अधीन ह। जिष्ष शक्ति के रेश्वयं के
केवल लेश ( अल्पांश ) से ये देवता ईश्वर के रूपमें माने जति है बही भगवान्
( रेषवयं से युक्त ) महेश्वरः है जो असीम ( अनवच्छिन्न ) प्रकाश, आनन्द तथा
स्वातच्य कै शूप मे है तथा परमतत्त्व भौ यही है। उस महेश्वर की दासता
( पाकर ) । दास उसे कहते ह॑ जिते स्वामीकीओरसे सारी अभीष्ट वस्तुं
दीजातीषहै। दूसरे शब्दों मे यह करगे कि दास परमेश्वर के ही स्वरूप-
स्वतंत्रता--का पात्रहोतादहै। [ परमेश्वर की स्वतंत्रता का थोड़ा अंश दाक्
कोभी प्राप्त होता है । परमेश्वरके स्वरूपमेये है--प्रकाश, आनन्द, स्वातत्य ।
यही परमतच्व या परमां ( (1४०१९१९ रिन्ध्ाप्) है। ये किसी भी
पदा्थंके द्वारा व्याप्त नहीं दहै।]
जनराब्देनाधिकारिविषयनियमामावः प्रादि । यस्य यस्य
२३ स० सं
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३५४ सर्वदर्शनसंग्रह
हीदं स्वरूपकथनं तस्य॒ तस्य महाफलं भवति । ्ज्ञानस्येव
। # # भिभेगवत्सोमा
परमार्भफलत्वात् । तथोपदिष्टं रिवद््ौ परमगुरुभिभेगवत्सोमा-
नन्दनाथपादः--
३. एकवारं प्रमाणेन शाद्खाद्रा गुरुवाक्यतः ।
ज्ञाते शिवत्वे सस्थे प्रतिपत्या ददात्मना ॥
9, करणेन नास्ति कृत्यं कापि भावनयापि वा ।
ज्ञाते सुवर्ण करणं भावनां वा परित्यजेत् ॥ इति ।
(ज्ञनः शब्द से अधिकारी बनने के विशेष नियमों का अभाव व्यक्त होता
हि। [ जन का अधंहै सामान्य ब्यक्ति। भन्य दक्च॑नों मे जहां शास्र सुनने के
लिए कंडे-कंडे नियम बनाये गये है, वहीं प्रत्यभिज्ञा का दार जनसधास् के लिए
खुलादहै। मुमु कोईदमी हो प्रत्यभिज्ञा-शाल सुने । भस्ममें स्नान, व्रत
आदि किंस नियम की आवश्यकता नहीं ।* ] जिष क्रिसी व्यक्तिको महेश्वर
के इस स्वरूप का ज्ञान कराया जाय महान् फल की प्राप्तिहोतीहै। कारण
यह है कि प्रकृष्ट ज्ञान (प्रत्यभिज्ञा) मेही परमार्थंका फल प्राप्त होता दै ।
[ महेश्वर के स्वरूप का कथन इस प्रकार होता है--यह सब कु महेश्वर
ही है", जिस व्यक्ति को रेस बात बतलायौ जातीहै वह जानलेताहैक्रि भि
ही महेश्वर हं । इस अद्रैत-तच्व का साक्षात्कार कर लेना ही परमार्थ,
महाफल है जो मुमृश्ुजों को प्राप्त होता ह ।
शिवरृष्ि नामक अपने ग्रन्थ मे परम-गुर ( शाख्र-प्रवतंक ) भगवान् पूज्य
श्रो सोमानन्दनाथने यही कहा है--जब एक बार प्रमाणो के दारा, शास्र
( प्रत्यभिज्ञा ) के हाराया गृरुओो की वाणी के द्वारा हृद् आत्मा से प्रतिपत्ति-
पूर्वक ( विश्वासपूर्ेक ) सर्वत्र स्थित शिब-तच्व का ज्ञान हो जातादहै तबन
सा
१. $शवरप्रत्यमिज्ञाविमशिनी ( २।२७६ ) से सूचित होता हैकिं शाखा
च्थयन के लिए जाति-पांति का कोई बन्धन नहीं । फिर भी अध्ययन के लिए
छह वैदिक दर्थेनों ओर वेदाङ्गो का अध्ययन पहले सेहो क्योकि इस दर्घन
मे सबों की आलोचना है । इसके अतिरिक्त भौ कहा टै-
योऽघीती निखिलागमेषु पदवि्यो योगशाखश्रमी,
यो वाक्याथंसमन्वये कृतरतिः श्रीप्रत्यभिन्ञामृते ।
यस्तर्कान्तरविश्वुतश्रुततया द ताद्वयज्ञानवित् |
सोऽस्मिन्स्यादधिकारवान्कलकलप्रायः परेषां रवः ॥
1). ह. 0, एप्स, ^ णपकरश््वप१९, ए. 1711-2.
ह ३५५
तो किसी करण ( प्रमाणादि साधन ) का कोई काम ( आवदयकता ) है ओर
न भावना काही । सुवणं काज्ञन हो जनि पर करण ओर भावनाको लोग
छोड हो देते है ।'
वि्ोष--मावना का अथं है-पर्यालो चना या विशेष गुणो का चिन्तन ।
इस स्थान पर शँ शिव हं" इस प्रकार का निरन्तर चिन्तन करना भावना है।
जव शिव का सर्वस्वरूपे ज्ञान हो जातादौ तब उसके ज्ञान के प्रमाणो
को आवदयकता नहीं होती ओर न उक्त चिन्तन या भावना-व्यापार क ही ।
जबर तक "यद सुवणा है' इस रूपमे सुवणं का ज्ञान नहींहो जति तत्र तक
उसके ज्ञान के साघन कसोटी-षत्थर ( ४0०}0-31006 ) अदि चोजं ले अति
ह । कोई व्यक्ति किसौ चोज को अ-सुवणं समज्ञ कर त्यागना चाहत हो ओर
हम उसे कठँ किं यह सुवर्णं हौ के खूप में भावनीय हैतो यह भावना हई ।
सुवण का ज्ञान हो जाने परनतो कसौटी को जरूरत है ओर न सुवणं
वना की । रोगमूक्ति के बाद ओषवि काक्याकाम ?
( ३ क. “अपि! ओर “उपः राब्दौ के अथे )
अपि््देन स्वात्मनस्तदभि्तामाविष्डुवंता पूणेत्वेन
स्वात्मनि परार्थसंपक्तयतिरिक्तप्रयोजनान्तरावकाश्चश्च परादरतः ।
परार्थश्च प्रयोजनं भवत्येव । तद्टक्षणयोगात् । न ह्ययं देवज्ञापः
<स्वा्थं एव प्रयोजनं न परार्थ" इति । अत एवोक्तमक्षपादेन--
4यमर्धमधिद्रत्य प्रवर्तते तत्प्रयोजनम्" (गो ° ष १।१।२४) इति ।
अपि" शब्द के द्वारा, अपनी आत्मा की अभिचरता उस महेश्वर से स्थापित
करने बाले पूर्णत्व के कारण, अपनी ही आत्मा मे परोपकार का कायं संपादित
करने के अतिरिक्तं किसी अन्य प्रयोजन की संभावना समाप्तहो जाती है ।
[ अभिप्राय यह है कि आत्मा ओौर महेश्वर एकहीदहै। अभिनवगुप्त सभी
लोगों को महेश्वर के समीप पटहुाना चाहते है ( उपकार = समौप ले जाना )
अर्थात् दास का पद देना चाहते है । स्वयं तो दास्य षा हौ चुके है, लोगो को
भी देना चाहते है । इत प्रकार “अपि, के द्वारा उनको अपनी प्रत्यभिज्ञा या
साश्चात्कार का अथं समक्षा जातादहै। दास्य-प्रापि के लिए सूत्रकार ने
परमेश्वर के साथ अपनी अभिन्नता का साक्षात्तार किया है--उस अथंकी
प्रापि इस "अपि" के द्वारा हो जाती है। फलतः अव सूत्रकार को केवल परोपकार
ही सू्षता है अब स्वाथंकी मावनातो रही नहो--इसलिए् परोपकार के
३५६ सर्वदशेनसंग्रदे-
अतिरिक्त सारे प्रयोजनो का खण्डन ही अपि'के द्वारा होता है। 'अपि'से
एक ही साथ करई चीज ज्ञात हो जाती है।]
[ शाल का | प्रयोजन परोपक्ारतो हो ही सकता है कथोकि परोपकार के
लक्षणों की प्रापि प्रस्तुत स्थल महो जाती दहै) यह किसी देवता का शाप नहीं
ह कि मनुष्यका प्रयोजन जब होगा तब स्वां ही, परमार्थं नहीं । [ बहत से
व्यक्ति निस्वाथं-माव से परमाथं ( परोपकार ) मे लगे ह । ] प्रयोजन का लक्षण
करते हुए अक्षपाद ( गौतम ) अपते न्थायसूत्र मे कहते दै --जिस ( उपादेय या
त्याज्य ) वस्तु को लक्षित करके [ उसकी प्रात्तिया त्याग के लिए मनुष्य |
उपाय करता है वही उसका प्रयोजन कह्ातः हे ।" ( न्यायसूत्र १।१।२४ ) ।
[ रेसी स्थिति मे यदि मनुष्य का अभीष्ट--उपादेय--परोपकार हो तो वही
प्रयोजन है, इसमे सन्देह को क्या बात है ?]
उपशब्दः सामीप्याथेः । तेन जनस्य परमेश्वरसमीपताकरण-
मात्रं फलम् । अत एवाह- समस्तेति । परमेश्वरतारमे हि
सवी; संपदस्तनिष्यन्दमय्यः संपन्ना एव)
रनसंपद् इव । एवं परमेशरतारामे किमन्यतप्राथेनीयम् ?
‹उपः शब्द का अथं है समीप आना । इसलिए यह ज्ञात हौता दे किं प्रत्य
भिज्ञा-शाख्र का फल केवल परमेधर के समीप कर देना ही हे, गौरं कुद नहीं ।
इसीलिए अगे कहा दै लमस्तसंपत्समवा्िेतुम्? । परमेषर का ¶
लेने पर ही सारी संपत्तियां उस ( परमेश्वर ) के निष्यन्द ( प्रवाहित वस्तु ) के
ल्प में निकल कर भ्राप्तहो जाती है जिस प्रकार रोहणाचल ( मेरुपवंत जिसमे
रन्न के मैदान ह ओौर जो स्वयं स्वणं का, हीह) के मिल जाने पर रल्न-संपत्तियां
प्राप्त होती है । इस प्रकार वरमेक्वर का पद मिल जाने पर ञञौर कौन सी एेसी
वस्तु है जिसके लिष प्राना कौ जाये ?
तदुक्तत्पलतच यैः-
६. भक्तिलक्ष्मीसमरद्धानां किमन्यदुपयाचितम्
एतया वा दर््रिणां किमन्यदपयाचितम् ॥ इति ।
इत्थं षष्ठीसमासपक्षे प्रयोजनं निदिष्टम् । बहुव्रीहिपक्षे तूप
पादयामः ।
जसा कि उत्पलाचायं ने कहा हे-"भक्ति-रूपी लकषम से समृ पुरूषो के
लिए कौन-सी दूसरी चीज है जिसके लिए वे प्रार्थना करे ? ओौर जो व्यक्ति उस
परत्यभिज्ञा-दशंनम् ३५७
{ भक्ति रूपी धन ) से रहित है उनके लिए कौन सी वस्तु त्याज्य है? [ भक्ति
से रहित व्यक्ति की याचना सभी वस्तुओं के लिए होती है- याचना की इयत्ता
तो कहीं है ही नहीं । [20008243 816 ०७९९१ {1161|९0. ]
इस प्रकार समस्त समवातिहैतु' मे षष्ठो तत्पुरुष समास मानने पर प्रयो-
जन दिलाया गया । [ षष्ठोसमास--'सारी संपत्तियों कौ प्रात्ति क; कारण' ।
बहुत्रीहि समास--'सारो संपत्तियों को प्राप्ति ही जिसका हेतु ( लक्ष्य ) है।]
बहुत्रीहि-समास मान लेने पर जो स्थिति होगी उसका निरय अव करते है ।
समस्तस्य ॒बाह्याभ्यन्तरस्य नित्यसुखादेया संपत्सिद्धिः
तथात्वग्रकाश्चः, तस्याः सम्यगवरापियस्याः प्रत्यभिज्ञायाः हेतुः
सा तथोक्ता । तस्य महेश्वरस्य प्रत्यभिज्ञा, प्रति आभिषरुख्येन,
ज्ञानम् । लोके हि स॒ एवायं चत्र इति प्रतिसंधानेनामियुखीभूते
वस्तुनिज्ञानं प्रत्यभिज्ञेति व्यवहियते। इहापि प्रसिद्धपुराणसिद्वाग-
माजुमानादिज्ञातपरिपूेशक्तिके परमेऽवरे सति स्वात्मनि अभिष्रखी-
भूते तच्छक्तिग्रतिसंधानेन ज्ञानघुदेति नूनं स एवेशधरोऽहमिति ।
[ बहुत्रीहि-पक्ष में अथं--] बाहरी या भीतरी समी प्रकार के नित्य-सुख
आदि संपदाओं की सिद्धि अर्थात् उनके वास्तविक स्वरूप का प्रकाशन होता है।
उक्त सिद्धि या प्रकाशन को अच्छी तरहसे प्राप्तकरलेना ही जिस प्रत्यभिज्ञा
का हेतु ( लक्ष्य } है वह [ प्रत्यभिज्ञा ही "समस्तसंपतस मवापिहेतुः' के द्वारा व्यक्त
होती है ]। उस महेश्वर कौ प्रत्यभिज्ञा का अथं है--प्रति अर्थात् अभिमुख होकर
जान प्राप्त करना । लौक्रिकं व्यवहार मे “यह वही चेच है" इस प्रकार प्रतिसंधान
( बीती बात का संबन्ध जोड़ना ) करके सम्मुख आई हुई वस्तु का ज्ञान प्राप्त
करने को श्रत्यभिज्ञा' ( [२९००7४00 वहचानना ) कह कर पुकारे है ।
यहां भौ परमेश्वर कौ सत्ता मानते है जि ( परमेश्वर ) की परिपणं शक्त
को प्रसिद्ध पुराणो, सिद्ध आगमों ओौर अनुमानादि प्रमाणो से जानते ह । जब
आत्मा हमारे सम्मुख आती है तब परमेश्वर की शक्ति का संबन्ध इससे जोड
लेते है ( प्रतिसंधान ), इससे ज्ञान उत्पन्न होता है करि सचमुच मेँ भी वही
ईश्वर हं । | प्रत्यभिज्ञा किसी बीती बात के आधार पर होती है। यहाँ वह॒
बीती बात दै ईश्वर की आगमानुमानसिद्ध सत्ता । इसी के आधार पर आत्मा
मे ईश्वर की + ( साक्षात्कार ) कर लेते हैँ । यही प्रत्यभिज्ञा-दश्च॑न
नाम पड़ने का कारणदहै। हम ऊपर देख चुके ह कि प्रत्यभिज्ञा केवल एक
आवरयक तत्तव मावर है, पूरे देन का नाम इष पर पड़ जाना ठीक नहीं । ]
३५८ सर्वंदशंनसंग्रहे-
तामेतां प्रत्यभिन्ञाघुपपादयामि । उपपत्तिः संभवः । संभव-
तीति तत्समर्थाचरणेन प्रयोजकव्यापारेण संपादयामीत्यथः ।
[ सूत्र की व्याख्या का उपसंहार करते हए कहते हैँ कि | उक्त गणो से
युक्त प्रत्यभिज्ञा का आरंभ कर रहा हुं । उपपत्ति का यहां अथं है संभव ( उत्पत्ति
करना )। संभव हो रहा है = मै [ परत्यभिज्ञा-शाल्र की रचना की | सामथ्यं
व्यक्त करने वाने वाले आचरण से युक्त प्रयोजक ( सूत्रकार, काम कराने
वाला) की क्रियाकेद्वारा इसकी स्थापनां कररहाहं। | सूत्रकार यहाँ पर
प्रयोजक ह, अपने व्यापार में वह लगा हैक्रि लोग इस शाख को पद । उसका
व्यापार यही है करि प्रत्यभिज्ञा के उपपादन के अनृक्रूल आचरण करे । प्रत्यभिज्ञा
तभी संभव है जब इसकी प्रतिबन्धक विपरीत भावनाओं का विनाश कर
दिया जाय । दृष्टान्त के लिए अग्निकोलं। शीतकाल में ठंडक बढ़ जाने पर
अध्ययन करने मे असमर्थं छात्र आग पास में रखकर अध्ययन करते है । तब
ठेसा कहा जाता है कि आग ही उन पढ़ा रही दहै। अमि यहाँ प्रयोजक कर्ता
है इसका व्यापार यही है किं अध्ययन करनेमें छात्रों को समर्थं बना दे जिसमे
उसे शीत का निवारण करना पड़ता है । उसी प्रकार प्रयोजक सूत्रकार प्रत्य-
भिज्ञाशाख्र को अपने व्यापार से अभिव्यक्ति के समथं बनातादै मौर विरोधी
भआवनाओं का बहिष्कार करता है । |]
( ४. प्रत्यभिज्ञा के प्रद्शेन की आवश्यकता )
यदीश्वरस्वभाव एवात्मा प्रकाशते, तहिं किमनेन प्रत्य-
भिज्ञाप्रदशेनमप्रयासेनेति चेत्-- तत्रायं समाधिः । स्वप्रकाशतया
सततमवभासमानेऽप्यात्मनि मायावश्षाद् भागेन प्रकाकमाने
पू्णतावभाससिद्धये दकक्रियात्मकशक्त्याविष्करणेन प्रत्यभिज्ञा
प्रदश्येते ।
[ यह प्रदन हो सकता है कि ] यदि ईश्वर के स्वरूप ( = चैतन्य ) के रूप
मे ही आत्मा प्रकाशित होती है ( अर्थात् यदि चैतन्य ही आत्मा के रूप में व्यक्त
होता है) तो प्रत्यभिज्ञा ( आत्मा द्वारा ईशवरका साक्षात्कार) को प्रदशित करने
का यह इतना परिश्रम व्यथं क्रियाजारहाहै। [ आशप यह् है कि आत्मा
ओौर ईश्वर मे एकता यदि पहले हीसे सिद्धै ओर आत्मा ईश्वर का अपना
रूप ही है तो अपने आप वह् व्यक्त हो जायगी, उसके द्वारा ईश्वर को पहचान
जाने कीबात तो बिल्कुल व्यथं है । ]
प्रस्यभिज्ञा-दशेनम् ३५६
इसका यह समाधान है--आत्मा अपनी प्रकाशन शक्ति के कारण निरंतर
अवभासित ( व्यक्त) होती रहती टै, फिर मो माया के कारण उसका यह
प्रकाशन अंशतः ही होता है। [ आत्मा में चंतन्य का प्रकाशन होता है किन्तु
पूं चैतन्य का नहीं; पूणं चेवन्य ईश्वरम ह। आत्मामे मायाके कारणहौ
पूणं चैतन्य का प्रकाशन नहीं होता । साधारण व्यक्तियों को आंशिक चैतन्य
का अवभास होता है | इसलिए पूणता के अवभास की सिद्धि के लिए हकशक्ति
ओर क्रियाशक्तिं का आविष्कार करके प्रत्यभिज्ञा का प्रदर्न होता है।
[ प्रत्यभिज्ञा निष्फल नहीं है। जिक्ष समय ज्ञान ओर क्रिया दोनों प्रकार कौ
शक्तियाँ मिल जाती है तब प्रत्यभिज्ञा होतीहैकि नै वहो ईश्वर है । तभो
पूतः ईश्वर का साक्षत्कार या अत्म से एकोक्रण संभव दहै। वस्तुतः
तरिक-द्थंन अद्रैतवादो है इसीलिए जोव ओौर ईश्वरका क्य स्थापित किया
जाता है। रेक्य होने पर पा्थंक्य की जो प्रतीति होती टै बह मायाजनित है ।
वह माया अद्धैतवेदान्तियों के पक्षम रहकर स्वीकृत होती है। अवभास
या आभास प्रत्यभिज्ञा-दर्चन का अपना शास्त्रीय शब्द है जिसका प्रयोगये
लोग प्रकाशन ( }/187\{68४81071 } के अथं करतेटै) सामान्य व्यक्ति के
लिए जीव भागतः चैतन्य से युक्त है, प्रज्ञो के लिए पूणंतः चैतन्ययुक्त । प्रत्यभिज्ञा
ही यह ज्ञान दे सक्ती है । ]
तथा च प्रयोगः (अयमात्मा परमेश्वरो भवितुमहेति ।
्ञानक्रियाशक्तिमच्वात् । यो यावति ज्ञाता कतो च स ताव-
तीधरः प्रसिद्धेशवरवद्राजवद्वा । आत्मा च विश्वज्ञाता कतो च ।
तस्मादीध्वरोऽयम्' इति । अवयवपश्चकस्याश्रयणं मायावदेव
सैयायिकमतस्य कक्षीकारात्
उसे सिद्ध करने के लिए यह प्रयोग ( अनुमान ) है-( १) यह आत्मा
परमेश्वर बनने मे समथं दहै (२) क्योकि इसके पास ज्ञान गौर क्रियाकौ
शक्ति ह । ( ३) जो जितनी चीजों का ज्ञाता ओर कर्ता होता है वह उतनी
चोजों के लिए ईश्वर ( स्वामी) टै, जेसे संसार-प्रसिद्ध ईश्वर ( मंडलेश्वर, नरेश
आदि) हैया राजालोगहोतिदहै। (४) आत्मा संसार का ज्ञाता ओर कर्ता
ह; ( ५ ) इसलिए यह आत्मा ईश्वर है।* इन पांच अवववों वाले ( परार्था-
ऋ
&. इन पांच वाक्यो में क्रमशः प्रतिज्ञा , देतु, उदाहरण, । उपनय ओर
निगमन के वाक्य ह । न्यायशास्र के अनुसार ही ये र्पाचों वाक्य दूसरे शास्र
म भी प्रयुक्त होते है । कहा है-- न्यायमूलं सवंशासख्रमू ।
३६० सर्वदशनसंग्रहे-
नुमान } का आश्रय लेते समय नैयायिकं के सिद्धन्त को. स्वीकृत किया गया
है(या नैयायिकोंसे पंचावयव अनुमान लिया है) जिस प्रकार मायाका
विचार [ हमने अद्रैतवेदान्त से लिया है | ।
तदुक्तथुदयाकरस्नुना--
७, कर्मरि ज्ञातरि स्वात्मन्यादिसिद्धे महेश्वरे ।
अजडात्मा निषेधं वा सिद्धिवा विदधीत कः ॥
८. दिः तु मोहवश्षादस्मिन्द््ऽप्यदुपरक्िते ।
शाकत्याविष्करणेनेयं प्रत्यभिज्ञोपदश्येते ॥
जैषा कि उदयाकरकेपूत्रने कहा है-( प्रन दहै कि) जब हम जानते
है कि कर्ताभौर ज्ञाताकेल्पमेंजो यह जीवात्मा है वह आदि-सि्ध महेडवर
हीह, तो फिर कौन एेसा विवेकशील ( अजडात्मा ) व्यक्ति टै जो इस ईश्वर का
[ जीवात्मा में ] निषेध करे या सिद्धि करे ? [ तात्पयं यह है कि जव स्वात्मा
ओौर महेश्वर की एकता अनादि काल से सिद्ध है तब हमे इस प्रशन पर तनिक्र
ओ प्रयास करने की आवदयकता नहीं-न तो हम जीवात्मा मे ईश्वर का निषेध
कर सकते ह क्योकि एसा करने से सिद्ध वस्तु का खर्डन होगा, ओरनही
इसकी सिद्धि कौ आवर्यकता है क्योकि स्वयंसिद्ध वस्तु को पुनः सिद्ध करना
निरथंक है, कम से कम विवेकी व्यक्ति तो एसा नहीं करते । ] ॥ ७ ॥
[ इसका उत्तर यह होगा-- ] “यद्यपि स्वात्मा रे ईश्वरके दक्षन होति
( श्वर का स्वरूप--चतन्य कु दृष्टिगोचर होता है ) किन्तु मोह या मायाके
| कारण यह स्पष्टतः उपलक्षित ( दिलाई ) नहीं होता । इसलिए शक्ति का
॥॥ ( ज्ञानशक्ति ओर क्रियाशक्ति का ) प्रतिसंघान ( संबंष-स्थापना ) करने के लिए
। | इस प्रत्यभिज्ञा का प्रदर्थन होता है। [ प्रत्यभिज्ञाके द्वाराही जीवात्मा में
। विद्यमान ज्ञानशक्ति ओर क्रियाशक्ति का संबंध ईश्वर की ज्ञानशक्ति ओर क्रिया-
| शक्तिके खाथकर लेते है तथा दोनों के बोच अद्वेत-तच्व की स्थापना संभव
होती है । इसीलिए प्रत्यभिज्ञा आवश्यक है । ]* ॥ ८ ॥
~~~ न्कान्कीष्योयो
९. ०
न --~ --. च
विद्चोष-सायण-माधव की पुरानी बीमारी फिर उत्पन्न हो गई दै । दोव-
दलन मे जिस प्रकार एक-एक बात कहकर उसक्रौ पृष्टिके लिए प्रमाणो का
अम्बार लगा रहे ये, अब यहौ मो अनेक उद्रणोके दारा अपनी सुभ्रतिपादित
बातों का पुनः प्रतिपादन करते है । क्यों न हो ~ द्विबंदं सुब भवति = दो बार
बध देने पर अच्छी तरह बेध जाता है ।
८2 क ष
क" क
म 0 ----- 9
"नहि = ^^
प्रत्यभिज्ञा-दशेनम् ३६१
( ५. ज्ञानराक्ति ओर क्रियादाक्ति )
तथा हि-
९. सर्वेषामिह भूतानां प्रतिष्ठा जीवदाश्रया ।
ज्ञानं क्रिया च भूतानां जीवतां जीवनं मतम् ॥
१०. तत्र ज्ञानं स्वतःसिद्धं क्रिया कायाश्रिता सती ।
परेरप्युपरक्षयेत तथान्यज्ञानमुच्यते ॥ इति ।
११. या चेषां प्रतिभा तत्तत्पदार्थक्रमरूपिता ।
अक्रमानन्दचिद्रूपः प्रमाता स महेहवरः ॥ इति च ।
जेसा कि इन श्लोकों से प्रकट है- “इस लोक मे सभी प्रणियों कौ प्रतिष्ठा
( स्थिति ) जीव पर ही आधित है; जीवित प्राणियों का जीवन भी उनके ज्ञान
ओर क्रिया पर निर्भर करता है।॥ ९॥ अब उन दोनों शक्तियों मेँ ज्ञान तो स्वतः
सिद्ध है ( ज्ञान का अनुभव अपने आपमेंही व्यक्ति करता है, दूसरे लोग किसी
के ज्ञान को नहीं जान पाते )। किन्तु क्रिया कार्यो पर निर्भर करती है इसलिए
दूषरे लोग भी इसेजाननलेते है (स्वयंकोतो क्रिया मालूम रहती ही है)।
इसी प्रकार दूसरों के ज्ञानको भी जाना जा सकता (जबकि वहु कायंके
रूपमे परिणत हो )॥ १० ॥
ओर भी कहा है-“इन जीवों मे जो यह ज्ञानशक्ति (प्रतिभा) है [ वह् देश,
काल ओर वस्त की उपाधियोंके द्वारा सीमित है] वह विभिन्न जेय पदार्थो का
पता लगाने पर उसौक्रमसे निरूपित है। यही ज्ञानशक्ति प्रमाता ( सवज्ञ )
महैश्वर है जब कि [ उपाधियों से रहित होने पर ] क्रम से रहित, आनन्द ओर
चितुकेरूपमें यहप्रकटहोतीदहै। [जीवक ज्ञानमें उपाधियां है, ईश्वरकी
ज्ञानशक्ति निरुपाधिक है, आनन्दस्वरूप है ओौर चिद्रूप है । यह शुद्ध ज्ञानशक्ति
है। 1 ॥.११॥
सोमानन्दनाथपादेरपि-
सदा शिबात्मना वेत्ति सदा वेत्ति मदात्मना । इत्यादि ।
ज्ञानाधिकारपरिसमाप्तावपि-
१२. तदेक्येन विना नास्ति संबिदां छोकपद्रतिः ।
प्रकाशेक्यात्तदेकत्वं मातेकः स इति स्थितिः ॥
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३६२ सवेदशंनसंग्रदे-
१३. स एव विमृश्त्वेन नियतेन महेश्वरः ।
विम एब देवस्य शुध ज्ञानक्रिये यतः ॥ इति ।
पूज्यपाद श्री सोमानन्दनाथने भौ कहा है--{ महेश्वर का दासं अपनी
आत्भा को ] सदैव शिवके रूपमे जानता है, वह उसे आत्मा अर्थात् शिवशक्ति
के रूप मे जानता है ।" इत्यादि । ( मत् = मे, आत्मा } ।
इसके अतिरिक्त ग्रन्थ मे जहाँ ज्ञान का अधिकार ( अष्याय, 00010 ) समाप्त
हआ है, वहां पर भो कहा गया है-- “उस महेश्वर के साथ एकता स्थापित हए
बिना प्रकाशया ज्ञान ( संवित् ) का लौकिक व्यवहार नहीं हो सकता । सभी
प्रकार के प्रकाशो मे एकता होने के कारण महेश्वर-विषयक एकता को जानने
वाला वह एक ही त्व है -एेसी वस्तुस्थिति है । [ तात्पयं यह हि किं सूर्यादि के
प्रकाश से बहत सी चीजें प्रकाशित होती है, उनका ज्ञान हमे प्राप होता है ।
इस प्रकार सांसारिक ज्ञान की प्रणाली या पद्धति है। इस प्रकार के प्रकाशन
ओर महेश्वर के प्रकाशन मे एकता है- महेश्वर उसी प्रकार आभासित होता है,
मोहव हमे दिखलाई नहीं पडता । यह एकता तभी सिद्धहोगी जबहम
उपाधिहीन प्रकाशो में भेदन मानं । यह एकमात्र प्रकाश ही समी वस्तुओं का
रमाता ( ज्ञाता) है1 ] वही ( प्रकाश, ज्ञान ) एक निरिचत विमं ( ज्ञान-
क्रिया शक्ति) के कारणा महेश्वर कहलाता टै क्योकि देवदेव महेश्वर के विमो
काअर्थंही है शुद्ध ( उपाधिहीन ) ज्ञानशक्ति ओर क्रियाशक्ति का होना ।
विर्ोष-ईश्रर के प्रकाश से सम्पूणं जगत् प्रकाशित होता है ¦ निरुपाधिक
ज्ञानशक्ति ओर क्रियाशक्ति मे ही संपूण जगत् निहित है । ईश्वर के प्रकाशन भौर
वस्तुओं का प्रकाशन प्रायः एक ही है । प्रायः इसलिए कि वस्तुओं मे देश-काल
आदि उपाधियां लगी ह । इन के हट जाने पर तो अद्रयतच्व ही बच रहता है ।
यह रेकय या अद्रयतच्व ही महेश्वर है ।
( ६. वस्तुओ का भ्रकादान--आभासवाद् )
विवृतं चाभिनवगुप्ताचार्थेः । (तमेव भान्तमनुभाति सव,
तस्य मासा सर्वभिदं विभाति! ( काठक० २।२ ) इति श्रुत्या
प्रका्चचिद्रुपमहिम्ना सर्वस्य भावजातस्य भासकत्वमभ्युपेयते ।
ततश्च विषयगप्रकाशञस्य नीलग्रकाश्चः पीतप्रकाञ्च इति विषयोपराग-
मदाद्धेदः । वस्तुतस्तु देशकालाकारसंकोचवेकसयादमेद् एव । स
एव चैतन्यरूपः प्रकाशः प्रमतेत्युच्यते ।
्रत्यभिज्ञा-दशनम् ३६३
आचायं अभिनवगु्ने व्याख्याभी कौहै। एक शरुतिवाक्य है--उस
। पुरुष के पेपी सार चीजे प्रकाशित होती दै, उसो के प्रकाशसे
ये चारी चौजें प्रकाशित होती ह!" ( काठक० २।२) [ इस श्रुति का तात्पयं है
करि महेश्वर के प्रकाशित होने पर सूर्यादि का प्रकाश होता है। जेषे जाते हए
पुरुष के पीे-पीचे चलने वाले पुरुष कौ गति स्वतंत्र नहीं होती, उसी प्रकार
सूर्यादि का प्रकाश स्वतंत्र नहीं होता उसी महैश्वर के अधोन इनका प्रकाश
स्फुरित होता है । ] इस श्रुति से सिद्ध होता है क्कि उस प्रकाशस्वरूप, चिद्रूप
अर्थात् बुद्धिस्वलूप ( महेश्वर ) करी महिमा से सारे पदाथं {= प्रकाश देनेवाले,
सुयंचनद्रादि ) प्रकाशक कहलाते है। इसके बाद विषयों के प्रकाशन में नीला
प्रकाश ( = नीली वस्तु ), पीला प्रकाश ( वस्तु ) इस प्रकार के भेद इसलिए होते
ह किं स्वयं विषयों ( ०४९९8 ) में ही रंग ( ८०० ) काभेददहै [ ओर
ये ही रंग प्रकाश पर पड्क्रर वस्तुको नीली, पीली बना कर प्रकाशित कराते
ह~ वस्तुओं में भेद का यही कारण है। |
वास्तव मे देश, काल ओर आकार को सीमा ( संकोच) न होने के कारणं
तस्व तो एक ही है । वही चैतन्य ( बुद्धि) के षूपमें प्रकाश है जिसे हम प्रमाता
या्ञाताभी कहतेहै। [ ईश्वर प्रकाश है तथा चेतन्यरूप है। वही अपनी
आतमा के दर्पण पर प्रतिबिम्ब की तरह सभी वस्तुओं को प्रकाशित करता है ।
इसी सिद्धान्त को आभासवाद् कहते है । |
तथा च परहितं शिव्त्रषु-“चेतन्यमातमा' (१।१)
इति । तस्य चिद्रुपत्वमनवच्छिन्नविमदत्वमनन्योन्मुखत्वमानन्द-
कथनतवं महशवर्ममिति पर्यायः । स एव ह्ययं भावात्मा विमदः
श्रद्धे पारमाथिक्यौ ज्ञानक्रिये । तत्र प्रकाशषरूपता ज्ञानम् ।
स्वतो जगन्निमौत्त्वं क्रिया ।
जैसा कि शिवसूत्रोंका आरंभ हुआ करता है-चतन्य ही आत्मा है'
( शि सू० १।१)। उसके बहुत से पर्याय मी है--चित् ( 19४९11९८ }
के रूपमे होना, विमशं अर्थात् ज्ञान-क्रिया-शक्ति का अब्यवहित ( उपाचिहीन )
होना, द्सरे पर निभंर न करना (= स्वतंत्रता), भानन्द के एकमात्र घन-पिरड
के रूपमे होना तथा सबसे अधिक रेश्वयं होना ( महेश्वर होना ) [ ये सभी
ईश्वर के गुण के पर्यायवाची दाब्द है । ] इसी को भाव ( धमं, शक्ति ) के रप मे
विमं मानते है, जिसका अथं है विशुद्ध ( उपाधिहीन ) पारमाथिक ज्ञान,
ओर क्रिया ।
3 च न न्न दः -- ~ ब्त च
क क +~ र ~ क क
-- क क त षते विसि हः म क = शक ~ च~ ए ॥ कः क =
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३६४ स्वेदशेनसंम्रदे-
इनमे ज्ञान उसे कहते ह जिसके दारा वस्तुओं का प्रकाशन हो । अपने आप
से ही समूचे संसार का निर्माण करना क्रिया है। [ ईरके गुणों के पर्यायो मे
नविम" शब्द आया है । पूरा शब्द है ईश्वर के.विमशं का अनवच्छिन्न होना ।
विमं अवच्छिन्न तभी होता है जब श्रांतिवश हम विमं ( ज्ञान ओर क्रिया)
में देश, काल, आकार, वणं आदि अवच्छेदक या सीमित करनेवाली उपाधिरयां
लगा र। यदि इन उपाधियों का अमावहो तो विमद्य अनवच्छिन्न अर्थात्
अव्यवहित होता दै । ईश्वर का विमं ेसाही होता दहै। अच्छा, यह बार-बार
उच्चरित "विमहीः है क्या ? इसका अथं ज्ञान ओौर क्रिया है। ईश्वर के पास
शुद्ध विमन्ं यानी शुध ज्ञान ओर शुद्ध क्रिया है। अषनेज्ञानसे वे सारी वस्तुओं
का प्रकाशन करते है-- सारी वस्तुएं उसी प्रकार सत्य है जिस प्रकार स्वयम्
ईश्वर । सारी वस्तुं ईर के आभास से आती है, अतः इस दशनः को वस्तुवादी
प्रत्ययवाद ( 26811810 14681) } करते है । अब रही ईश्वर की क्रिया-
शक्ति ! तो उससे सारे संसार का निर्माण ही होता है। शक्ति की व्याख्या आगे
की जायगी । |
तच निरूपितं क्रियाधिकारे--
१४. एष चानन्तश्क्तित्वादेवमामासयत्यमून् ।
भावानिच्छावश्षादेषां क्रिया निमीतृतास्य सा ॥ इति ।
उपसंहारेऽपि--
१५. इत्थं तथा घटपटाद्याकारजगदात्मना ।
©
तिष्ठासोरेवमिच्छेव हेतुकवेकृता क्रिया ॥ इति ।
टस दर्यन के क्रिया-परिच्छेद मे उसका निरूपण भौ हृभा है-- "वह
( महेश्वर ) अपनी अपरिमित शक्ति होने के कारणं उन भावों ( पदार्थो) को
्रकारित ( आभासित ) -करता है [यह उसकी ज्ञानशक्ति है |। उसी प्रकार
अपनी इच्छासेही वह उक्त पदार्थोका निर्माण करता है जो उसकी क्रिया-
शक्ति हि | १४ ॥
उपसंहार करते हृए भी कहा गया है "इस प्रकार घट, पट आदि आकारं
( पदार्थो ) से भरे हृए संसारके रूपमे स्थिर रहने के इच्छुक, हेतुकर्ता ( प्रयोजक
कत ~ महेश्वर ) में उत्पन्न जो इच्छा है, वही क्रिया है ।। १५ ।)'
विोष- दहेतु का अर्थ प्रयोजक-कर्ता है क्योकि पाणिनिःमूनि कहते है
तत्प्रयोजको हेतुश्च ( पा° सू १।४।५५ ) । प्रेरणाथंक क्रिया का प्रयोम
होने पर दो कर्ता होते है-- प्रयोज्य ओर प्रथोजक । रामः पठति । अध्यापकः
प्रत्यभिज्ञा-दशनम् ३६५
रामं पाठयति । इन वाक्यों मे (अध्यापक ओौर राम" दोनोंही कर्तार,
अध्यापक प्रयोजक या हितु कर्ताहै जव कि राम प्रयोज्य कर्ता । उसी प्रकार
इस स्थान मे, "मावा आभासन्ते, महेश्वरो भावानाभाक्षयति' के साथ भी बात
है-- महेश्वर प्रयोजक करता हि। महेश्वर को इच्छा होती है-- "एकोऽहं बहु स्यां
प्रजायेय" । उसको यह इच्छा ही क्रिया कहलाती है ।
( ७. दई्वर की इच्छा से संसारोत्पत्ति )
[क ¢
१६. तस्मिन्सतीदमस्तीति कायंकारणताऽपि या।
साप्ययेकषाविहीनानां जडानां नोपपद्यते ॥
इति न्यायेन यतो जडस्य न कारणता न वाऽनीश्वरस्य
चेतनस्यापि, तस्मात्तेन तेन जगद्रतजन्मस्थित्यादिभावविकार-
त्तद्धेदक्रियासहसखरशूपेण स्थातुमिच्छोः स्वतन्त्रस्य भगवतो
महेशरस्यच्छैव उत्तरोत्तरुच्छरनस्वभावा क्रिया विश्वकतेत्वं
बोच्यत इति ।
"एक वस्तु ( बज ) के होने पर दूसरी वस्तु ( अंकुर ) की सत्ता होगी--
दस प्रकार का जो कायकारण संबंध है वह भी अवेक्षारहित जड़ ( 10867)
#1<€०५ ) पदार्थो मे नहीं रह सकता ॥ ६९६ ॥ |
उपर्यक्त नियम से यहं सिद्ध होता हैकि जड़ पदाथं ( परमाणु आदि )
संसार के कारणा नहीं हो सकते [ क्योकि इनमे अपेक्षा नहीं है, अपेक्षा किसी
चेतन में ही रहती है |। दूसरो ओर, ईश्वर के अतिरिक्त कोई दसरा चेतन
(जैसे जीव ) भी [संसारक कारण नहीं हो सकता क्योकि उसमे संसार
उत्यन्न करने कौ सामथ्यं नहीं है। इसलिए बटादि का कारण होने परमौ
जीव संसार को नहीं उत्पन्न कर सकते | । इसलिए संसार के जन्म, स्थिति
आदि भाव-विकारोके रूपमे तथा उनके भेदोंके खूपमें हजारों क्रियाओंके
द्रारा भगवान् ठहरना चाहता है । उस स्वतंत्र महेश्वर भगवान् की इच्छा, जो
मशः बढती हौ जाती है, हो क्रिया है । दूसरे शब्दों मे उसे विश्व का उत्पादनं
( सचना ) भी कहते दै ।
विरोष-संसार कौ रचना ईश्वर की इच्छासे ही होती है। जब ईशर
चाहतः है कि अपनी क्रियाओं के रूपमे अवस्थित रहं--एक होकर मौ बहुत
से रूपों मे रह, तब भावके छह विकारों ( जायते, अस्ति, वर्धंते, विपरिणमते,
अपक्षीयते, विनश्यति - दें निरुक्त १२ } ओर उनके नाना शरक के भेदो
२६६ सर्बदशनसंमरहे-
के रूपमेंसंसारकीरचनाहोजातीदहै। वस्तुतःक्रियातो एकहीदहै-ईशर
की इच्छा, परन्तु उसके विकार इतने प्रकार के हो जाते हैकरि क्रियायं हजारो
हजार हो जाती हँ । महेश्वर की इच्छा उत्तरोत्तर बढ़ती जाती है ( उच्छून-
स्वभावा )--इसीसे विकास होता है जिसका अन्त विनाशमेंहै। इस प्रकार
संसार की रचनाके लिए किसी उपादान की आवदयकता नहीं । वह केवल
ईश्वर कीएक शक्ति क्रिया अर्थात् इच्छा-से ही उत्पन्न हो जातादहै। इसे
इस दशंनके आरभमेंभी कहचुकेरह। केवल इच्छासे संसार की रचना
मानने के लि सांसारिक बुद्धि प्रस्तुत नहीं होती । इसी के कारणा त्रिक-दश्ंन
की पृष्ठभूमि मे तान्तिक-मतदहै। तंत्रकेप्रभावसे इच्छामत्रसे क्षणभरमें
बहुत सी चीजे उत्पन्न हो जातो हैँ । अभिनवगुप्त स्वयं भी एकं बडे तान्विक थे ।
इसके बिना कोई लौकिक दृष्टान्त देना असंभव है ।
इच्छामात्रेण जगन्निमीणमित्यत्र द्टन्तोऽपि स्पष्टं निदि्टः-
१७. योगिनामपि म्रद्धीजे वषिनेवेच्छावशेन यत् ।
घटादि जायते तत्तस्स्थिरभावक्रियाकरम् ॥ इति ।
यदि घटादिकं प्रति मृदाचेव परमाथेतः कारणं स्याततर्टि
कथं योगीच्छामात्रेण घटादिजन्म स्यात् १ अथोच्येत--अन्य
एव ॒मृद्रीजादिजन्या षटाङ्कुरादयो, योगीच्छाजन्यास्त्वन्य
(+ ©
एवेति । तत्रापि बोध्यसे--सामग्रीभेदात्तावत्कायेभेद इति सव-
जनप्रमिद्धम् । `
केवल इच्छा करनेसेही संसारका निर्माणहो जातादहै, इस विषयमे
लोकिकं दृष्टान्त भीतो स्पष्रूपसे ही दिया गया है--पोगीलोणमी मिदर
ओर बीजके बिना हौ केवल इच्छा करके घट ओौर अंकुर उत्पन्न कर देते हँ
जो [ इन्द्रजाल या आभासमात्र नहीं, प्रत्युत ] लौकिक धट भौर अंकुर की
तरह स्थिर तथा अपनी-अपनी भावरप्रक क्रियाओं ( जसे जल लाना, पेड
बनाना ) के संपादन मे भी समथं है--[ एेसा बहुधा सुना जाता है | ॥ १७ ॥
अब यहां प्रश्न होताहै कि वास्तवमें (पारभाथिक दृष्टिसे) घटादि
के कारण मृत्तिकादिही होतिहैँ। यहं केसी बातदहैकरि योगियों की इच्छा
करनेसे ही घटादि पदार्थोका जन्म हो जाता है ? यहाँ उत्तर यह होगा--
जो घट ओर अंकुर मिदर गौर बीज से उत्पन्न होति हवे कु दूसरे हीह,
{ योगियों की इच्छा से उत्पन्न होने पर भी दूसरे घडो मौर अंकरुरो का संबध
| दशनम् ३६७
मिद्री-बीजसे हुटता नहीं । उनका वास्तविक संबंध रहेगा ही । | इसमें भी
आपको जानना चाहिए किं सामप्रीकेभेदसे कार्यम मेद पडताहौहै। यह
तो समूचे संसारम प्रसिद्धदहै। [जिन घटोंका निर्माण मिहरीसे होता है
उनमें भीतो सामग्री के भेदके कारण भेद दिलाई पड़ता है । कम मिह लगाने
पर छोटा या पतला घड़ा बनताहै, दूसरी मिहीका दृसराही धड़ होता
है इत्यादि । सामान्य रूपसे घट मिद्रीसेही बनता है । विशेष स्थितियों में
योगी लोग भौ बनाते हैँ ओौर एेसे घटो में पर्याप्त मेद रहता है । ]
( <. उपादान कारण ओर पदार्थौ की उत्पत्ति )
ये तु वणेयन्ति नोपादानं विना षटादयुत्पत्तिरिति, योगी
विच्छया परमाणृन्व्यापारयन् संघटयतीति तेऽपि बोधनीयाः।
यदि परिदृष्टकायकारणभावतरिपययो न लभ्येत तरह घटे मद्
ण्डचक्रादि देहे स्ीपुरुपसंयोगादि सवेमपेकष्येत । तथा च योगी-
च्छासमनन्तरसंजातधयदेहादिसंमवो दुःसमथे एव स्यात् ।
लो लोग कहते हँ कि उपादान ( 111५6118} ) कारण के बिना घट आदि
की उत्पत्ति नहीं हो सकती ओर उघर योगी अपनी इच्छासे परमाणुओंका
संचालन करके उनका नवीन संघटन (0"221188600 }) करता दहै, एेसे
लोगोंको मी यह जानना चाहिए किं यदि कार्य-कारण-संबन्ध ( (8७81
16}80107 ) का सुस्पष्ठ॒उज्ञंघन ( विपयंय +#1018.001 ) नहींहो रहाहो
( अर्थात् योगियों की इच्छाकेबादही कायं संपादित नहीं होकर विलम्बसे
हो ) तबतो कायं के उत्पादन के लिए सभीकारणोके व्यापायों की अपेक्षा
रहेगी ही; षट के लिए मिट, डंडा, चाक भादि की आवश्यकता होगी, शरीर-
निर्माण के लिए खरी-पुरुष के संयोग आदि की आवश्यकता होगी । एेसा करने
पर योगी की इच्छा के तुरत बाद में उत्पन्न होने वाले धट, देहादि की संभावना
करना बिल्कुल असंगत ही हो जायगा ।
विरोष-इस संदभं मेँ उन मतवादियों का उल्लेख किया गयाहैजो
योगियोके कायंमे भी सामान्य-नियम के समान कार्य-कारण-संबंध हने
का प्रयज्न करतेर्है। वे बिना उपादान के कार्योत्पत्ति मानतेही नहीं। यदि
योगियों कौ क्रियाओं मे कायं-कारण संबंध नहीं मिला, तो क।यत्पत्ति को ये
असंगत ( 08361688 } सिद्ध कर दंगे । योगी जो अपनी इच्छासे कायं
उत्पन्न क्रिया करते है उनमें भी परमाणुओं का संघटन होता ही होगा । किसी
२३६८ सबेदशनसंम्रहे-
निर्धन व्यक्तिको योगी आशीर्वाद देकर धनाल्य बनादं तथा वह॒ व्यक्ति घर
आकर देखे क्रि उसके यहाँ मिटीके स्थान पर सोनेकी दीवालदहैतो इस
इच्छात्मक आशीर्वाद मे भी स्वणं के परमाणुओं को क्रिया हुई होगी--किसी भौ
अवस्था मे कायं लिए कारणसामग्री अपेक्षितहीदहै, बह चाहे सामान्य कायं
हो या योगी कौ इच्छा से उत्पन्न कायं हो।
अब योगियों कौ शच्छा से उत्पन्न कायंकेभीदोमेद संभवरह--एकतो
वह॒ जब योगियों की इच्छा ( आशीर्वाद ) के बाद ही कायं हो जाय ओर
दूसरा वह जब इच्छा के बहुत देर के बाद कायं उत्पन्न हो । पहली स्थिति मे तो
कार्यकारण का संबंध स्थिर करना बडाही कठिन है क्योकि बेचारे परमागुओं
को संघटित होने का समय कहाँ मिलता है किं उपादान बनकर कायं उत्पन्न
करे । हाँ, दूसरी स्थिति मे कल्पना कर सकते हैँ कि योगियों कौ इच्छा के
बाद परमाणुओं को संघटित होने का पर्याप्त अवसर मिलता है जिसते वे कायं
उत्पन्न करते ह । योगी लोग दोनों तरह के कायं उत्पन्न करते देखे जते है ।
किसीको देखते ही रोगमृक्त कर देते हँ तथा यथासमय पुत्र होनेकाभी
आशीर्वाद देते ह । शीर कायं करने वाले योगियों की इच्छा से कायं उत्पन्न
होने पर कायं-कारण-माव की रक्षातो किसी भी मूल्य पर नहीं हो सक्ती ।
देर से होने वाले कायं में भी अलक्षित परमाणु-व्यापार की कल्पना व्यथंही
है । किसी भी स्थितिमें योगियोंके कायंमे कायं-कारण-भावका बड़ाभारी
अपमान होता है जो न्यायशाख्रकीदटृष्टिसे बहुत बडा अपराघदहै। यही उन
मतवादियो का कथन है ।
अब प्रत्यभिज्ञा-द्लेन वाले अपने पक्षकी रक्षा करते हुए, भगवान् को
दुहाई देते हए तथा उनके समक्ष कार्य-कारण-भाव की असंगति को गौण
बतलाते हुए उत्तर दंगे ।
चेतन एव तु तथा भाति, भगवान् भूरिभगो महादेबो
नियत्यनुवतंनोल्लङ्बनधनतरस्वातन्त्य इति पक्षे न काचिद-
नुपपत्तिः । अत एवोक्तं वसुगुप्राचार्यः--
१८. निरुपादानसंमारमभित्तावेव तन्वते ।
जगचित्रं नमस्तस्मे करानाथाय जूटिने ।॥ इति ।
उपयुक्तं असंगति सामान्य चेतन पदाथ के साय ही हो सकती हे { अर्थात्
योगियो के काये मै आप भले हौ असंगति दिखा दं ] किन्तु विपुल रेश्वयं वाले
अगवान् महादेव तो निर्याति ( ४२४५८४९ } का अनुवतेन या उत्लंघन करने
प्रत्यभिज्ञा-दशनम् ३६६
मे बिल्कुल स्वतंत्र, उनके पक्षमे कायंकारणभावके विषयमे कोई भी
असंगति ( 116, [णग्णपट्प्फ ) नहीं होती । [ ब्रह्मा नियति
या अष्ठया सांसारिकं नियमों का केवल अनुवतंन कर सकते है, उल्लंघन
नहीं । पर ईश्वरके लिए नियति का खंडन बायें हाथ का खेल है--अपनी
लोलासे ही वे नियति ( नेसे--कायंकारणभाव ) को काट सक्ते है । बडे लोगों
के लिए कोई अनुचित कायं नहीं । |
इसीलिए आचायं वसुगुप्तने कहा है-- जो बिना किसी भित्ति ( आधार)
के [ शृन्थ श्रदेश में ] बिना उपकरणोके समूह का सहारा लिए, इस विचित्र
संसार की रचना करता है कलाओं के उस स्वामी शलधारी भगवान् शिव को
मँ प्रणाम करताहूं।'
विश्ञोष-इस मंगल-द्लोक मे यह प्रदशित हैकि मटैश्वर को संसारकी
रचना करने मे न किसी भाधार की आवश्यकता पडती है ओर न किसी सामग्री
कीदही। उसकी इच्छाहीक्रियाहै, विश्व की रचनादहै।
( ९. विभिन्न परश्न-जीव ओर संसार का संबंध )
नु प्रत्यगात्मनः परमेश्वराभिन्नत्वे संसारसंबन्धः कथं
भवेदिति चेत्- तत्रोक्तमागमाधिकारे--
१९. एष प्रमाता मायान्धः संसारी कमेबन्धनः।
विद्यादिज्ञापितेवयंरिचद्भनो मुक्त उच्यते ॥ इति ।
अव प्रन है कि जब प्रत्यगात्मा ( जीव {701४108} 8९1) को पर-
मेश्वर से अभिन्न ही मानते तो जीव का संबन्ध संसारसे केसे होगा ? इसका
उत्तर उसी दर्शन मे आगमों का वर्णान .करनेवाले परिच्छेद में हुआ है--
"यह प्रमाता ( ज्ञाता जीव ) मायासे अधा होकर ( ईशवरके स्वरूपके विषयमे
ज्ञान न रहने के कारण ) कमं के बन्धन में पड़ा हुआ संसारमें ही रहतादहै।
विद्या ( प्रत्यभिज्ञा ) आदि के द्वारा जब उसे एेश्वयं ( ईश्वर के स्वल्प ) काज्ञन
प्राप्त कराया जाता है [ कि वह ईशवरही है] तब चित् की मति बनकर | दक्
शक्ति ओर क्रियाशक्ति से युक्त होकर | वह मुक्तं कहलाता है । १९ ॥* [ यही
जीव गौर संसारका संबन्व है किमृक्तिके पूवं तक जीव इस संसारमेंही
विचरण करता रहता है । |
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क्कि कर्क्न्यी े ~ <~ = न्नी
३७० सबदशनसंम्रहे-
(९. क. प्रमेय को लेकर वद्ध ओर मुक्त मे भेद )
ननु प्रमेयस्य प्रमात्रभिननत्वे बद्धमुक्तयोः प्रमेयं प्रति को
वि्ेषः १ अव्रापयु्तरुक्तं त्खाथेसंग्रहाधिकारे -
२०. मेयं साधारणं सक्तः स्वात्माभेदेन मन्यते ।
महेशरो यथा बद्धः पुनरस्यन्तभेदवत् ।॥ इति ।
दूरा पदन है कि प्रमेय ( {२००७801९ )} ष्दाथं प्रमाता ( 00९ )
से अभिन्न होता है तब प्रमेय को लेकर बद्ध ओर मुक्त जीवो मे क्था अन्तर
होगा ? [ इस प्रश्न का यहं आशय है--प्रत्यभिज्ञा-दशेन की यह मान्यता स्पष्ट
ह कि ईश्वर अपनी "बहु स्याम्" की इच्छासे पणं जगत् के रूप में स्वयंही
आविरभूत होता है। इ प्रकार जीव तो परमेश्वर से अभिन्न हही, पृथ्वी आदि
प्रमेय पदाथं मी ईदवर से अभिन्न ही ह । किसी में कोई मेद-माव नहीं । परिणाम
यह होगा कि प्रमेय ( पृथ्व आदि पदाथं ) ओौर प्रमाता ( जोव ) में भी एकता
या अभिन्नता हो जायगी । जीव के दोनों मेद ( बद्ध ओर मुक्त ) एक ही प्रकार
चे प्रमेय का प्रयोग करगे । बद ओर भुक्त जीवोंमे फिर अन्तर दही क्या
रहा ? |
इसका भी तच्वार्थो का संग्रह ( संकलन ) करनेवाले परिच्छेद मे दिया गया
ह-- मुक्तं जीव महेश्वर के समान हौ सभौ प्रमेय पदार्थो ( अच्छा-बुरा, सृन्दर-
कुरूप, अमृत-विष ) को अपनी आत्मा से अभिन्न समज्षते हए समान-रूप से
देवता है ( अर्थात् विषयों में वह भेदभाव नहीं करता है)। दूसरी ओर, बद्ध
जीव [ अभेदकाज्ञानन होनेके कारण | प्रमेय पदार्थो मे कई प्रकार के भेद
देवता है ( अमृत ओौर विष को एक दृष्टिसे नहीं देवता है ) ॥ २० ॥'
( १०. प्रत्यभिज्ञा की आवश्यकता--अथेक्रिया मे मेद )
ननु आत्मनः परमेशवरत्वं स्वाभाविकं चेननाथः प्रत्यभिज्ञा
्रर्पनया । न हि बीजमप्रतिज्ञातं सति सहकारिसाकय्येऽङ्कर
नोत्पादयति । तस्मात्कस्मादवात्मग्रत्यभिज्ञाने निबेन्ध इति चेत्-
उच्यते । श्रण॒ तावदिदं रहस्यम् । द्विविधा यथेक्रिया--
वाह्याङ्रादिका, प्रमातृविश्रान्तिचमत्कारसार। प्रीत्यादिरूपा च ।
तत्राय प्रत्यभिज्ञानं नापेक्षते । द्वितीया तु तदपेक्षत एव ।
> ३५१ .
यहां यह प्रन हो सकता है कि परमेश्वर हो जाना यदि आत्मा का स्वाभा.
विकिगुणही है तो प्रत्यभिज्ञा की प्रार्थना करना तो निरथंक हीन? यदि
सारी सहकारी सामग्रियां तैयार हों ओौर बीज का प्रत्यक्षीकरण नहीं भी हुआ हो
(गु्तख्पसे बीज छीट दिया गयाहो)तो क्था अङ्कुर उत्पन्न नहीं होता ?
| बीज ज्ञात रहे या अज्ञात, अन्य सामभ्रियां ( वेत, पानी, हवा, धूप भादि )
तेयार रहँ तो वह अवदय अङ्कुरित होगा । उसी प्रकार, भरँ ईशर ह" यह बात
जीव को मादम रहे या नहीं, यदि वह् सचमुच ईश्रका स्वरूपदहै, जैसाकि
भाप स्वीकार करते, तोसदाही मुक्त रहैगा।] तो, किष लिए अप लोग
मात्मा की प्रत्यभिज्ञा ( साक्षात्कार ) के लिए आग्रह ( निबन्ध ) कर रहे है?
| इस प्रकार प्रत्यभिज्ञा को आवद्यकता ही नहीं ] ।
इस शंका का समाधान हम करते है । पहले सुनो, रहस्य यह है । अर्थक्रिपा
( फल देने वाली क्रिया )* दो प्रकार को होती है-एक तो बाह्य ( एषाः.
81 ) जिसमें अङ्कुर आदि आति है, द्री [ आन्तरिक ( 1०४९8] ) |
जिसे ज्ञाता को विश्राम मिल जाने के कारण अपूवं आनन्द मिलता है तथा
जो प्रीति, सन्तोष आदि के रूपम प्रकट होती है । [ जब बीज अंकुर उत्पन्न
करता है तब भी एक अथंक्रिया ( सफल कायं ) होती है किन्तु यह बाह्य जगतुसे
वेधी होने के कारण बाह्य अथंक्रिया है । जव पुत्रजन्म का समाचार सुनने पर
आनन्द उत्पन्न होता है तब आभ्यन्तर अर्थक्रिया होती है- यह क्रिया सफ़ल हई
किन्तु अन्तजंगत् में । ज्ञाता जीव जब बाहरी-भोतरी कामों से छुरी पालेताहै
तब इससे उत्पन्न चमत्कार या आनन्द आन्तरिक क्रियाका सबसे अच्छा
उदाहरण है । ]
उनमें पहली अथेक्रिया को तो प्रत्यभिज्ञा (साक्षात्कार, ज्ञान) को आवश्यकता
नहीं किन्तु दूसरी ( आन्तरिक ) भथंक्रिया को तो ज्ञान की अनिवायं आवदयकता
है । [ ूव॑पक्षियो ने जो बीज ओौर अंकुर को शिखण्डी बना कर खड़ा किया है
वह वास्तवे बाह्य अर्थक्रिया का उदाहरण है । बीज ज्ञात रहे या अज्ञात,
उसका फल मिल ही जायगा, अंकुर उत्पन्न हो जायगा ? । डाक्टर के यहाँ ली
गई दवा ज्ञात रहे या अज्ञात, उसकी अरथंक्रिया ( रोगनिवृत्ति ) होकर रहेगी ।
आप जानकर विष खायं या अनजाने, इसका फल मिलकर रहेगा । निष्कषं यह
है कि बाह्य अथंक्रिया को प्रत्यभिज्ञा की आवक्यकता नहीं है। रहे तो, नहीं
रहे तो-- दोनों स्थितियों मे फल मिलेगा । किन्तु, पुत्रजन्म की बात, सुनने पर
ही, कार्यमेंलगे हुए मन कोभी तुरत विरत करके कु देर तक आनन्द नहीं
* देखं सवंद्ंनसंग्रह मे बौदढध-दशंन, क्षरिकवाद का प्रसंग, पृ ३८-५६ ।
३७य् स्वेदशनसंग्रहे-
मिल घकता । इस प्रकार, यह सिडढ हुआ कि आन्तरिक अथंक्रिया उत्पादक कः
प्रत्यभिज्ञान ( 1०७1९१2९ ) होने पर ही उत्पन्न होती है। मात्माका
साक्षात्कार भी आन्तरिक अथंक्रिया ही है जिसमे ज्ञान होने पर ही फल मिल
सकता है । यही आगे सिद्ध किया जायगा । |
इदाप्यहमीश्चर इ्येवंभूतचमलत्कारसारा परापरसिद्धिलक्षण-
सैकत्वरक्तिषि ¢
जीवात्मैकत्वशक्तिविभूतिरूपाथेक्रियेति स्वरूपप्रत्यभिज्ञानमपेक्ष-
णीयम् ।
<थक्रिया
नयु प्रमातृविश्रान्तिसारा प्रस्यभिज्ञानेन षिना
अदृष्टा सती तस्मिन्च््ेति क दम् १ अत्रोच्यते-नायकगुण-
गणसंश्रवणप्रबद्वानुरागा काचन कामिनी मदनविहयला विरद-
क्लेद्चमसदहमाना मदनलेखावलम्बनेन स्वावस्थानिवेदनानि
विधत्ते । तथा बेगात्तनिकटमटन्त्यपि तस्मिनवरोकितेऽपि तदव-
लोकन तदीयगुणपरामञ्षौ मावे जनसाधारणत्वं प्रापे हृदयङ्गमः
भावं न लभते । यदा तु दृतीवचनात् तदीयगुणपरामश् करोति
तदा तत्क्षणमेव पूणेभावमभ्येति \
यहौ मो ( प्रत्यभिज्ञा-द्नमे), नन ईर ह इस प्रकार के आनन्द से
परिपूर्णं, परसिद्धि ( मोक्ष ) गौर अपरसिद्धि ( अभ्युदय ) के लक्षण से युक्त,
जीवात्मा के साथ { महेश्वर कौ] एकतारूपी शक्ति ( ज्ञानशक्ति, क्रियाशक्ति }
की विभूति ( आनन्द } के रूप में अथंक्रिया प्राप्त होती है ( अर्थात् यह अथक्रिया
भी आन्तरिक हीट), इसलिए आत्मा को अपने स्वरूप का साक्षत्कार करना
ञावदयक हे । [ यही कारण है कि प्रत्यभिज्ञा-दशंन के द्वारा आत्माको एकत्व
ज्ञान कराया जाता है । ]
अब यह प्रश्न है कि वह अथंक्रियाजो प्रमाता को विश्राम प्रदान करके
आनन्द देने वाली है, वहं प्रत्यभिज्ञान ( साक्षात्कार {0०४1600९ ) के बिना
तो अषृष्टही रहेगी, प्रत्यभिज्ञान हो नाने पर उसे दे लेते है-एेसा कहीं
किसी ने देखा है क्या ?( यह केसे जानते ह ? )
इसका यह उत्तर होगा । कोई कामिनी किसी नायक के गुण-समूह को
केवल सुनकर उससे प्रेम करने लगती है, वह मदनाग्नि से पीडित होकर विरह-
वेदनां को सहने मे असमथं हो जाती है। किसी प्रकार मदन-लेख ( प्रेम-पत्र
प्रत्यभिज्ञा-दशेनम् ३५३
10१€-16॥५९४ ) भेज कर अपनी अवस्था का निवेदन उक्ष नायक से करती
है । यही नहीं, क्षटपट वह उसके पाष दौड़ भी जाती है भौर उसे देखने लगती
है । किन्तु, उसके गुणों के पराम ( प्रत्यभिज्ञा 19000107 ) के अभाव
मे वह स्री उस नायक को साधारण आदमी की तरह ही देखती है । फल यह्
होता है किं उसके हृदय को वह ठीक नहीं लगता ( बह अनन्द या संतोष
नहीं पाती )। लेकिन जब कोई दूती आकर उसे मपने वाक्यो केद्वारा नायक
के गुणों की पहबान करादेतीहै तबतो वह नायिकातुरतदही पू्णहूपसे
प्रेम करने लगती है। [ इस दृष्टान्त में यह दिखाया गया कि बिना पहचान
कराये कोई किंसो मे रचि नहीं ले सकता । इसी दृष्टान्त से यह स्पष्ट होता है
कि प्रत्यभिज्ञा-शाल्रके द्वारा ही कोई ईश्वर को पहचान सकता है । ]
एवं स्वात्मनि विशवेश्वरात्मना भासमनेऽपि तन्निभासनं
तदीयगुणपरामदशेविरहसमये पूणेभावं न संपादयति । यदा तु
शुरुवचनादिना सर्वजञत्वस्वेकतेत्वादिलक्षणपरमेश्रोत्कषपरामशों
जायते तदा तत्क्षणमेव पूणात्मतालामभः
उसी तरह यद्यपि अपनी आत्मा में विदवेदवर की अत्मा ( स्वरूप } का
आमास होता है, किन्तु यह जाभासभी ईश्वरकें गणो की पहचान नहीं होने
करी स्थिति में पूर्णभाव ( पूरा संतोष, पूरण॑त्व ) नहीं दे सकता । लेकिन जब गुर
कै वचन आदि से सब कुछ जानने वाले, सब कुछ उत्पन्न करने वाले तथा अन्य
गुणो से युक्त परमेश्वर के उत्कृष्ट गुणों कौ प्रत्यभिज्ञा होती है उसी समय पूर्णत्व
क प्राप्तिहो जाती है।
विद्टोष--प्रव्यभिज्ञा-दर्शन की निरथंकता का खण्डन हो रहा है। यद्यपि
आत्मामं ईश्वर का स्वरूप निसर्गतः आभासित होता है तथापि उसकी पहचान
कराने के लिए कोई माध्यम ( 2160140 ) तो हो । गुरु को बातों से प्रव्य-
भिज्ञा-दर्शन का अध्ययन करके परमेहवर को पहचान लं तभी आत्मसाक्षात्कार
या मोक्ष हो सक्ता है। इसलिए प्रत्यभिज्ञा-दर्घन को आवद्यकता रहेगी ही ।
इसके बिना मूलतः गौर परमात्मा एक होने पर भौ एक-से नहीं लगेगे ।
( १९. उपसंहार )
तदुक्तं चतुर्थ विमर्श
२१. तेस्तेरप्युपयाचितेरुपनतस्तस्याः स्थितोऽप्यन्तिके
कान्तो रोकसमान एवमपरिज्ञातो न रन्तुं यथा ।
३७४ सबेदशेनसंग्रहे-
लोकस्येष तथानवेक्षितगुणः स्वात्मापि विश्वेधरो
नेवायं निजवैभवाय तदियं तस्प्रत्यभिज्ञोदिता ॥
( ३० प्र०° ४।२।२ ) इति ।
अभिनवगुप्षादिभिराचार्यविहितप्रतानोऽप्ययमथेः संग्रहयुप-
क्रममाणैरस्माभिरविस्तरभिया न प्रतानित इति सवं शिवम् ॥
इति श्रीमत्सायणमाधवीये सवेदशेनसंगरे प्रत्यभिज्ञादशेनम् ॥
"न~
जैसा कि चतुथं विमशं मे कहा है--"विभिन्न प्रकार की प्राथनाओं के कारण
[ जो नायक नायिकाके | पास गयाहै, उसके पासही खडामीहै किन्तु
बिना पहचान हृए बह ( नायिका ) अपने प्रिय नायक को टृसरे लोगों के समान `
ही साधारणा व्यक्ति समञ्च लेती है तथा उसके साथ रमर नहीं करती । उसी
प्रकार इस संसार में लोगों की आत्मा मे यदि विदवेश्वर ( महेश्वर ) के गुणों को
जाना नहीं जा सका तो यह ( महेवर ) अपने पूणं वमव ( एेदव्ं ) को नहीं
पा सकता । यही कारण है कि इस प्रत्यभिज्ञा-दर्थन की व्याख्या की जाती है।
( ईइवरप्रत्यभिज्ञाविमशं ४।२।२ ) ।
मभिनवगप्त तथा दूसरे आचार्योने इस दर्शन का विस्तारपूर्वक वर्णन
किया है किन्तु हम तो यहां केवल संकलन ( सारांश ऽपाणाणश्प़ ) कर रहे है
इसलिए विस्तार के भय से ग्रन्थ को आगे नहीं बढ़ा रहे है । इस प्रकार सब कु
शिव ( कल्याणकारी }) हो ।
इस प्रकार श्रीमान् सायण-माधव के सवंदशंनसंग्रह में प्रत्यभिन्ना-दंन [समाप्त हु]
इति बालकविनोमाशङ्करेण रचितायां सवं दशंनसंग्रहस्य प्रकाशाख्यायां
व्याख्यायां प्रत्यभिज्ञादर्चन मवसितम् ॥
र
(८९) |
माहेश्वरः कलितकाव्चनचारुरूपो
रोगक्षपाक्षर णदीप्रदिनेशरर्मिः।
मोक्षं च जीवति जने तनुतेऽक्षरं यः
पायादपायनिचयात्परपारदोऽसो ।- ऋषिः
( १. रस से जीवन्मुक्ति- पारद ओर उसका स्वरूप )
अपरे महेश्वराः परमेश्वरतादात्म्यवादिनोऽपि, पिण्डस्थेये
सर्वाभिमता जीबन्धुक्तिः सेत्स्यतीत्यास्थाय, पिण्डस्थैरयोपायं
पारदादिपदवेदनीयं रसमेव संगिरन्ते । |
[ उपर्युक्त ] महेश्वर-सम्प्रदायों में ( = नकुलीशपागुपत, शेव, प्रत्यभिज्ञा तथा
रसेश्वरमें) कु दूसरे [ दार्यनिक ] ( = रसेश्वर सम्प्रदाय को माननेवाले )
यद्यपि परमेश्वर ( परमात्मा ) के साथ [ जीव का | तादात्म्य (एक रूप होना }
स्वीकार करते है, तथापि सभी [ दर्चनकारों से सम्मत जीवन्मृक्ति( = शरीरके
रहते हए जरामरणादि से द्रूट जाना ) शरीर ( पिरड } की स्थिरता होने से ही
भिलेगी-एेसी आस्था ( विइवास ) रखकर, शरीर को स्थिर करनेका उपाय
रस को, जिसको "पारदः आदि शब्दों से भी जानते (पारद = रस),
बतलाते हैँ ।
विरोष- महेश्वर ( शिव) को परम-तत््वके रूपमे स्वीकार करनेवाले
दाश॑निक माहेश्वर कहलाते हैँ । स्वंदर्थन-संग्रहमे चार माहेदवरों का वणेन
है-नकुलीशपाशुपत, शेव, प्रत्यभिज्ञा ओर रसेश्वर। वे सभी जीवात्माका
परमात्मा से एेकरूप्य मानते हँ । रसेख्वर-दर्थंन इन सों से इसलिए पृथक् टै करि
इसमे जीवन्मुक्ति के लिए रस अर्थात् पारद-~रस का प्रयोग अनिवायं माना गया
है । पारदरससे शरीर को अजर-अमर कर देते है, बिना वेसा क्रिये जीवन्मुक्ति
नहीं मिल सकती है । जीवन्मुक्ति वह है जिसमें आत्मतच्व का साक्षात्कार हो
जाय, अम्यास के आधिक्य से मिथ्याज्ञान का विनाश हौ जाय किन्तु प्रारग्ध-कमं
को भोगने के लिए जीव-धारण किया जाय । इसे अपर-मृक्तिमी कहते है ।
सभी दार्शनिक इसे स्वीकार करते है, रामानुज आदि नहीं मानते यह दूसरी
बातदहै। रसेश्वर के अनुयायियों का कहना है किं जीवन्मुक्ति का वास्तविक
३७६ ` सवेदशेनसंमरे-
आनन्द हम लोग ही जानते है क्योक्रि शरीर को बिना अमर किये भनन्त
जीवन्मुक्ति हो नहीं सकती । आयुवेंद-शाल्र के अनुसार पारद का महत्व प्रति-
पादित कियाजातादहै।. |
रसस्य पारदत्वं संसारपरम्रापणहेतुत्वेन । तदुक्तम्-
१. संसारस्य परं पारं दत्तेऽसो पारदः स्प्रतः । इति ।
रसाणेवेऽपि-
पारदो गदितो यस्मात्पराथं साधकोत्तमेः ।
२. सप्रोऽयं मत्समो देवि ! मम प्रत्यङ्गसम्भवः ।
मम देहरसो यस्माद्रसस्तेनायरुच्यते ॥ इति ॥
संसार [ के कष्टों ] से [ बचाकर ] मोक्ष दिलानेके कारणही रस को
वारद ( पार + द = मोक्ष देनेवाला ) कहते ह । कहा भी है--जो संसार
( पुनजंन्म ) के दूसरे पार ( मोक्ष ) को गोर पहुंचा दे वही पारद कहलाता है ।'
रसाणंव ( ई० ¶० का एक प्राचीन ग्रन्थ ) मेंभी [ कहा हे ]--इसे पारद कहते
है क्योकि उत्तम साधक लोग मोक्ष ( चरम लक्ष्य, पर-प्रापनि ) के लिए [ इसका
प्रयोग करते है ]। [ शिव पावती से कहते है किं ] हे देवि, यह ( पारद-रस )
मेरे अन्तरङ्ग ( प्रत्यङ्ख ) से उत्पन्न है, सुपरावस्था में रहने पर यह मेरे समान ही
है, चकि यह मेरे शरीर का रस ( द्रव-पदाथं ) है इसलिए रस कहा जाता हे ।*
विरहोष- पारद (पारे) को रसशस्त्रमे श््रका वीयं माना गया है,
इसलिए रसार्ण॑व में शिव-पावंतो-संवाद के अन्तगंत पारद को शिव अपना देहुरस,
व्ंगसंमव आदि कह रहे द । पारद कौ उत्पत्ति के लिए. देखें -“शिव गात्
प्रच्युतं रेतः पतितं धरणीतले । तदेहसारजातत्वाच्छुक्लमच्छमभूच्च तत् ॥\ जत्र
भेदेन विज्ञेयं शिदवी्यं चतुर्विधम् । इवेतं रक्तं तथा पीतं कृष्णं तत्त॒ भवेत् क्रमात्
ह्मणः क्षत्रियो वैदयः शूद्रस्तु खलु जातितः ॥* पारद कौ सुत अवस्था का अर्थं
ह जब वह मूल रूप में हो, शुद्ध नहीं किया गया हो । रेकी ही अवस्था में उसकी
तुलना शिवसे कीजातीदहै।
( २. जीवन्मुक्ति की आवश्यकता )
नलु प्रकारान्तरेणापि जीवन्धुक्तियुक्त नेयं वाचोयुक्तियुक्ति-
सतीति चेन्न, पटस्वपि दशनेषु देहपातानन्तरं सुक्तरुक्ततया तत्र
विशवासालुपपत्या निविचिकित्सग्रवृत्तेरचुपपत्तेः । तदप्युक्तं
तत्रैव--
रसेश्वर-दशनम् ३७७
३. पडदश्ेनेऽपि युक्तिस्तु दिता पिण्ड पातने ।
करामलकवस्सापि प्रत्यक्षा नोपरभ्यते ।
तस्मात्तं रक्षयेतिपण्डं रसेडचेव रसायनः ॥ इति ।
यदि यह शंका करं कि दूसरे प्रकारो से भी तो जीवन्मुक्ति के उपाय
[ बतल्लाये गये ] है इसलिए यह कथन ( = पारद सेवन से शरीर को स्थिर
करके जीवन्मुक्त होना ) ठीक नहीं है-[ तो समाधान यह होगा कि ] एसी
लंका न करं कोकि छह दशनो मे देहपात के बाद मृक्ति का कथन होन से,
विश्वास ( = ठेस मुक्ति मे ) न होकर, [ लोगों की ] असंदिग्ध ( विश्वासपूरवंक )
प्रवृत्ति [ छह दर्शनो में कहे गये उपायों के प्रति | नहीं हो सकती । यह बात
मो वहं पर ( रसाणौव में ) कही गई है-- "छह द्थ॑नो मे शरीरनाश कै बाद हो
मुक्तिका निर्देश हृ है, वह ( मृक्ति) हाथमे रे हुए आंवले को भाति
श्रत्यक्ष-रूप से नहीं मिलती; अतः इस शरीर की रक्षा रसो ओौर रसायनों से
करनो चाहिए ।'
विह्तोष- वाचोयुक्ति-घोषणा, कथन ( अलुक् समास ) निविचिकित्स=
निःसंशय, विश्वासपूणं । करामलकवत् हाथ में रे आँ वले की तरह; यह एक
लौकिक-न्याय है। जब कोई बात प्रव्यक्षसे ही सिद हो जाती ह, किसी प्रमाण
कौ जावकश्यकता नहीं होती तब इसका प्रयोग होता है जेसे--शरीरस्य विनाशः
करामलकवत् । रसपारद से बने हृए योग ( ओौषधिर्यां )। रसायननएेसो
जौषधि जिससे वृद्धावस्था न अवि। रसेश्वर-दश्॑न के विरोधमें शंका यह कौ
गई हैकरि छह दर्शनोंमे भी जीवन्मुक्तिका वंन है, मिथ्याज्ञान के बिनाश्च
के वाद सद्ज्ञान से होने बाली मुक्ति का, निर्देश सभी लोग करते है
( रामानुज-आदि इसे नहीं मानते ) । तब रसेश्वर-दर्शान का उपक्रम व्यथं है।
इसके उत्तर मे ये कहते है- छह दर्शनों मे जीवन्भक्ति का निर्देश होने पर भी
वहाँ शरीरनाश के बाद ही वास्तविक मुक्तिका कथन है। इससे माम पडता
है कि जीव्मृक्ति के प्रति वे लोग विरसता दिखललते है । लोगों मे यह् भ्रमहो
जायगा किदो प्रकार की मृक्तियां केसीर्है, वे जीवनमूक्ति या परा-मृक्ति ( मृत्यु
के बाद) में भी सन्देह करने लग जायंगे ओर विश्वास के साथ मुक्ति प्राप्त करने
मे प्रवृत्ति नहीं दिखलायंगे । सबसे अच्छाहै कि रस-~रसायन कां सेवन करके
दारीर को अजर-अमर करलं ओौर पंसार को विश्वास दिलायं। सच तो यह
हैकिसमो लोग अपनी प्रासा करतेर्है, दूसरे को निकृष्ट ही समन्ते है)
कुलाचार ( तात्रिक-मत ) मे भी कहा दै
'जीवन्मुक्तावुपायस्तु कुलमार्गो हि नापरः ।'
३७८ ` सबेदशनसंग्रहे-
(३. हर-गोरी की खष्टि-पारद्, अश्चक )
गोविन्दभगवत्पादाचार्यैरपि-
४, इति धनद्यरीरभोगान्मत्वानित्यान्सदेव यतनीयम् ।
रक्तौ सा च ज्ञानात्तच्चाभ्यासात्स च स्थिरे देहे ॥इति।
नु विनश्वरतया दर्यमानस्य देहस्य कथं नित्यत्वमव-
सीयत इति चेत्-मेवं मंस्थाः । षाट्कौशिकस्य श्रीरस्यानित्य-
त्वेऽपि रसाभ्रकपदाभिलप्यहरगौरीसृष्टिजातस्य नित्यत्वोपपत्तेः ।
पूज्य गोविन्द-मगवान् आचायं जी भी [ कहते है ]-- इस प्रकार धन,
शरीर ओर विलास को अनित्य ( क्षणिक ) समञ्च कर मुक्ति के लिए सदा यत्न
करना चाहिए, बह (मुक्ति) ज्ञान से होती है, वह (ज्ञान) भी अभ्यास से होता है,
अभ्यास तमी सम्भव है जव शरीर स्थायी (नीरोग) हो ।' यदि कोई पूषेकिजो
देह नश्वरके रूपमें दिखाई पड़ती है वह् कैसे नित्य बन सकती है; तो [यह् शंका]
ठीक नही-एेसा मत समञ्ो क्योकि यद्यपि छह कोशो ( त्वचा, रक्त, मांस, मेदस्,
अस्थि ओर मजा) का बना शरीर अनित्य है तथापि रस ओर अश्रकं के नामों
से अभिहित क्रमशः शिव ओौर पावती की सृष्टि से उत्पन्न [ देह तो ] नित्य हो
सकती है ।
विशोष--ष ट्कोश = त्वचा, रक्त, मांस, मेदस्, अस्थि ओौर मजा जो शरीर
को ठक रहते है । इनमे प्रथम तीन मातासे तथा बादके तीन पितासे प्राप्त
होतेह । ये ्हों कोश आत्मा के आवरक ( ठँकनेवाले, छिषानेवाले ) दै ।
वेदान्तशाखर में भी अन्नमय, प्राणमय, मनोमय, विज्ञानमय ओर आनन्दमय इन
पाच कोशो की मान्यता है । देखिये- पञ्चदज्ली (३।१-११) 1 आयु दोक्त षटकोशों
से बना शरीर भले ही अनित्य हो परन्तु जब इसमे हर-गौरी कौ सृष्टि रस
( पारद ) ओर अभ्रक का संयोग हो जायगा तब उसे ( शरोर को ) हम नित्य
बना देगे\ पारदशिवकीसृष्िहे तथा अश्रक पावती कौ\ इस तरह शरीर
नित्यहो जानि पर छह कोशो वाने शरीर का त्याग भौ नहीं होगा ओर उसे
दिव्य तथा दृढ भौ बना दिया जायगा । तब मृत्युमय मिट जायेगा ।
तथा च रसहदये-
५. ये चात्यक्तशरीरा हरगोरीस॒ष्टिजां तं प्राप्राः ।
युक्तास्ते रससिद्धा मन्त्रगणः किंकरो येषाम्। (१।७) इति)
रसेश्रदशनम् | ६
तस्माजीबन्क्ति समीहमानेन योगिना प्रथमं दिव्यतनुवि-
घेया । हरगौरीसुष्टिसंयोगजनितत्वं च रसस्य हरजत्वेनाभ्रकस्य
गौरीसं भवत्वेन तत्तदात्मकत्वयुक्तम्--
६. अभ्रकस्तव बीजं तु मम बीजतु पारदः।
अनयोर्मेलनं देवि मृत्युदारिद्रयनाश्चनम् ॥ इति ।
उसी प्रकार रसहृदय मेँ [ कहा गया है |--जो लोग शरीर को बिना त्यागे
हए ही हर-गौरी की ष्टि ( पारद-अश्रक ) से बना इभा शरीर पये हृएरहै,
वे रससिद्ध ( रसो को सिद्ध करनेवाले } लोक् मूक्त ह, मन्त्रों का समूह तो उनका
क्रिकर ( दास ) है!" इसलिए जीवन्मुक्ति की कामना करने वलि योगीको
पहले दिव्य-शरीर कर लेना चाहिए । रस ( पारद ) हर से उत्पन्न है, अभ्रक
गौरी से; हर-गौरी-सृष्टि के संयोग से उत्पन्न होना तथा उन देवताओं रूप होना
[ इस शोक मे ] कहा गया है--[ शिव पावती से कहते ह ]-अश्रक तुम्हारा
बजह ओौरमेरा बीज पारदैः हे देवि, इन दोनों का भिलना मृत्यु ओौर
दरिद्रता का नाशक है ।'
विरोष--रस-हदय गोविन्द भगवत्पादाचायं का लिखा हुआ ग्रन्थ है ये
आद्य शंकराचार्य के गुरुथे। इनका समय प्रायः ७८० ई० है । यह आयुवेंद-
रसायन-शासखन का सुविख्यात ग्रन्थ है । अश्रक-पारद मेलन से दिव्यशरीर धारण
करके मृत्यु का नादा कर सकते है, सिद्ध-पारद से विद्ध होने पर लोहा सुवणं
बन जाता है--इसीसे इसे दरिद्रता का नाशक कहा गया हे । “रससिद्ध' शब्द
मे इलेष दिखलाते हए भतहरि ने नीतिशतक मे एसे ही मृक्त पुरुषों का संकेत
किया है-
जयन्ति ते सुकृतिनो रससिद्धाः कवीश्वराः \
नास्ति येषां यशःकाये जरामरणजं भयम् ।
(४. रस की सामथ्यं से दिव्य-देह कौ प्रापि )
अत्यल्पमिदमच्यते । देवदैत्यमुनिमानवादिषु बहवो रस-
सामर्यादिव्यं देहमाश्रित्य जीवन्मुक्तिमाश्रिताः श्रयन्ते रसेश्र-
सिद्धन्त-
७, देवाः केचिन्मदेश्ाद्या देत्याः काव्यपुरस्सराः ।
मनयो बारखिस्याद्या नृपाः सोमेश्वरादेयः ॥
दे८> सवेदशनसंग्रहे-
८. गोविन्दभगवत्पादाचार्याो गोषिन्दनायकः
चवेटि
; कपिलो व्याछिः कापालिः कन्दरायनः ॥
९. एतेऽन्ये बहवः सिद्धा जीबन्षुक्ताथरन्ति हि ।
तँ रसमयीं प्राप्य तदात्मककथाचणाः ॥ इति ।
यह तो बहत थोड़ा ही कहा है । रपेदवर सिद्धान्त मे कहा गया हैकि
देवो, दैत्यो, मुनियों गौर मनुष्यों मे, बहत लोगों ने, रस की शक्ति से, दिव्य
शरीर धारण करके जीवन्मुक्ति पाई है। [ वे है-- ] कुछ देवतागण जेसे--
महेश इत्यादि, कान्य (शुक्राचायं) इत्यादि दैत्य; बालखिल्य आदि मुनि, सोमेरवर
आदि राजा, गौविन्द-भमगवत्पादाचायं, गोविन्दनायक, चवंटि, कपिल, ग्यालि,
कापालि, कन्दलायन-ये तथा दूसरे भी बहुत-से सिद्ध लोग, जीवन्मुक्त होकर
[ पारद- ] रस से बना शरीर पाकर, उस (रस की प्रथंसा) से परिपुणं आख्यानं
से प्रसिद्ध होकर, विचरण करते है ।
विरोष--रसेश्वरसिदान्त सोमदेव का लिखा हआ ग्रन्थ है जिनका समय
निर्धारित नहीं हो सकादहै। महेशाद्याः से अभिप्राय है दोवदर्न में उक्त
विदेडवरो का--अनन्त, सूक्ष्म, शिवोत्तम, एकनेत्र, एकण्दर, त्रिमूतिक, ध्रीकरठ
शिखरडी । कथाचणाः = कथाओं से प्रसिद्ध । तेन वित्तश्चुरचुप्वणपो" ( पा
सु° ५।२।२६ ) से कथाभिः वित्तः प्रसिद्धः' इस अथं मे चणप् प्रत्यय हुआ है ।
अथं होगा--सदा रस की कथा कहने वाले, कथाओं से प्रसिद्ध ।
(५. दो प्रकार के कमे-योग )
अयमेवाथेः परमेश्वरेण परमेश्वरीं प्रति प्रपथितः--
१०. कमयोगेण देवेशि प्राप्यते पिण्डधारणम् ।
कमेयोगो
रसश्च पवनश्वेति कमेयोगो द्विधा स्मृतः ॥
११. मूच्छितो हरति व्याधीन्प्रतो जीवयति स्वयम् ।
खे ५ क (स
बद्धः खेचरतां इयोद्रसो व।युश्च भैरवि ॥ इति ।
यही अथं परमेश्वर ( शिव) ने पार्वती को विस्तारपूवेकं सम्ञाया है-हि
देवियों कौ देवि ! कम॑योग॒( क्रियाविधि ) से शरीर कौ स्थिरता प्रात होती है,
यह कर्मयोग दो प्रकारका रस (पारद) ओौर वायु (= प्राणवायु )। ह
भैरवि ! पारद ओौर पवन मूच्छित होने पर रोगों का हरण करते ह; स्वयं मृत
होने पर जिलाति ह भौर बद्ध होने पर आकाश में चलने की शक्ति देते है
3 ३८१
विदोष--कमंयोग = शरीर के कर्मो को स्थिर करने वाले पदाथं-- पारा
| प्रणावायु । प्राणवायु शरीर के अन्दर संचरण करती है। प्राणायाम के
हारा प्राणवायु को रोक देते है जिससे उसमें विशेष गति उत्पन्न हो जाती है
तथा यह “मूच्छित' कहलाती है । मूच्छित होने से ही रोगनिवारण की शक्त
इसमे आ जाती है। रससिद्ध योगीके रोग नष्टहोते है। अधिक निरोध होने
पर यह स्वयं प्रेतहो जाती है तथापि योगियोंको अषपनेसे अलग होने नहीं
देती--शरीर नित्य हो जातादहै। स्तम्भित होने पर आकाश में चलने कौ
राक्ति भी देतीहै। इस प्रकार न केवल पारद, प्रत्युत प्राणवायु पर भी रससिदध
योगियों का अधिकार देखा जाता है।
( ६. पारद् के तीन स्वरूप--मूकित, स्रत ओर बद्ध )
मूच्छितस्वरूपणक्तम्--
१२. नानावर्णो भवेस्प्रतो विहाय घनचापलरम् ।
लक्षणं दश्यते यस्य मूच्छितं तं बदन्ति हि ॥
१३, आद्रत्वं च घनत्वं च तेजो गोरवचापरम् ।
यस्यैतानि न दृश्यन्ते तं विद्यान्मृतघ्तकम् ।॥ इति ।
अन्यत्र बद्धस्वरूपमप्यभ्यधायि-
१४. अक्षतश्च रघुद्रावी तेजस्वी निमेलो गुरुः ।
स्फोटनं पुनराच्त्तो बद्धघतस्य लक्षणम् ॥ इति ।
मूत [ पारद ] का स्वल्प यों कहा गया है --“जब पारद ( सूत) करई
वर्णो का हो ओर उसमें घनत्व॒ओौर चंचलता ( तरलता ) न हो, इस प्रकार
के लक्षणा दिखलाई पड़ने पर उसे मूत ( -पारद ) कहते है। आप्र होना,
घनत्व, चमक, गुरुत्व ओर तरलस्व, ये ( लक्षणा ) जिसमे नहीं दिखलाई पड़
उसे श्त सुतक ( पारद ) समञ्ना चाहिए ।'” दुसरी जगह ( अन्य पृस्तक में }
बद्ध { पारद ) पारद का स्वरूप भी कहा गया है -- “जो क्षय रहितः; थोड़ा द्रवित
होनेवाला, तेजोमय ( चमकीला ), स्वच्छ, गुर ( भारी ) तथा पुनः आवृत्तिकाल
(संस्कार करने के समय) में विकसित होनेवाला-- यह बद्ध-पारद का लक्ष हे ।
(७. रस के अष्टादश संस्कार )
नलु हरगोरीष्टिसिद्धौ पिण्डस्थै्यमास्थातं पायते, तत्सि-
द्विष कथमिति चेत्-न । अष्टाद्ञसेस्कारवशात्तदुपपततः ।
तदुक्तमाचायंः--
|
|
~~~
३८२ सर्वेदशनसंग्रहे-
ष ह कर्य ककि
~~ प्रतिकमनि ¢
१५. तस्य प्रसाधनविधो सुधिया मखाः प्रथमम् ।
अष्टादश्च संस्कारा विज्ञातव्याः प्रयत्नेन ॥ इति ।
[ ठेसा प्रन पच सकते है करि | यदि | पारद को ] हर ओर गौरीकी
सृष्टि सिद्ध कर देने १२. शरीर को स्थिर करना संभव है, लेकिन इसे सिद्ध कर
केसे सकते ह ? यह तकं ठीक नहीं कथोकि [ पारद | के अष्टादश संस्कारोंसेही
उसकी उपपत्ति ( सिद्धि ) हो जाती है । आचार्यो ते कहा है --"उस ( पारद )
के साधन की विधिम, पटले विद्वानों को, प्रयतं, प्रत्येक कमं मे निम॑ल
करने वाले, [ पारद के | अठारह संस्कारो को जानना चाहिए ।'
रे
ॐ ए
कात द क
[> 2111 वा 0 नि
त ; च्छ +
= 3
` „= ककव सः
कनकं कै २.
विशेष --उपर्युक्त शंका का अभिप्राय यहं है--रस ओर अश्क हर-गौरी
की सृष्टि है सही, यह भी ठीक है किं उन दोनों को सिद्धकर लेने पर शरीर अजर-
अमरो जायगा किन्तु हमारा भौतिकं शरीरतो रसाभ्रक कौ तीब्रता को
सहन नहीं कर सकेगा--ईइसीलिए पारद को अठारह कर्मो से संस्कृत करते है।
इसके बाद वह शरीर के लिए सह्य बन सक्ता है । प्रतिकर्मनिम॑लाः-अठारह
संस्कासे मं एक के बाद दूसरे मे पारद निम॑ल से निमंलतर होते जाता है ।
ते च संस्कारा निरुपिताः-
१६. स्वेदनमर्दनमृच्छनस्थापनपातननिरोधनियमाश्र ।
दीपनममनग्रासप्रमाणमथ जारणपिधानम् ॥
(क क द,
१७. गर्भट्रतिबाह्यदरतिक्षारणसंरागसारणाशव ।
करामणवेधो भक्षणमष्टाद्चेति रसकमे ॥इति।
तत्परपश्चस्त॒ गोबिन्दभगवत्पादाचाये-सवेशञरामेश्वरभदारक
प्रभृतिभिः पराचीनैराचा्रनिरूपित इति ्रन्भूयस्त्वभयादुदास्यते।
[ रस के ] उन [ अष्टादश ] संस्कारों ( शुद्ध करने के उपायों ) का वणन
|| इस प्रकार हआ है- (१) स्वेदन, (२) मर्दन, (३) मूर्छन, (४) स्थापन, (५)
॥ ॥[| \ पातन, (६) निरोध, (७) नियम, (८) दीपन, (९) गमन, (१०) प्रासप्रमाण,
॥। | (११) जारण, (१२) पिधान, (१३) गर्भदूति, (१४) बाह्यदरूति, (१५) क्षारण,
(१६) संराग, (१७) सारण तथा (१८) क्रामण ओर वैध करके भक्षण करना--
ये रस के अठारह कमं है । इनकी व्याख्या गोविन्दभगवत्पादाचा्यं तथा सर्वज्ञ
रमेश्वर आदि प्राचीन आचार्यो नेकीदहै, अतः यहाँ रंय बढ़ जनिके भयसे
उसे छोड दिया जाता है ।
रसेश्धर-दशनम् ३८३
विरोष~-पारद के अठारह संस्कारोंका वर्णन किसी रसायन-ला की
पुस्तक में देखं । इनमें कितनी प्रक्रियाये तो वैज्ञानिक, आधुनिकतासे पूरा
मेल रखती है । इनका सामान्य अथं इस प्रकार है-८ १) स्वेदन=आप्रता
निकाल देना, (२) मर्दन = मसलना, धिसना, (३ ) भून = धनत्व ओर
तरलता निकाल देना, (४) स्थापन =स्थिर आकार का करना, (५)
पातन = गिराना ( ६ ) निरोधन = रोकना, ( ७ ) नियमन = सौमित करना,
( = ) दीपन = जलाना (९ ) गमन = चलना या उडाना, (१०) ्रसप्रमाण =
गोली बनाना, (११) जारण = चूण बनाना, ( १३ ) पिधान = दक देना, ( १३)
गरभ॑दरूति = आंतरिक परिवतंन, (१४) बाह्यदरति = बाह्य परिवर्तन, (१५) क्षारण
क्षार के रूपमे कर देना, (१६) संराग=रंगना, (१७) सारण-छिंडकना, तथा
(१८) क्रामण ( दटकंडे करके ) ओर वेधन ( चीर कर ) करके भक्षण करना ।
( <. देहवेध ओर उसकी आवश्यकता
॥ बादाथमेवेति
न च रसज्ञास्त्रं धातु मन्तव्यम् । देहवेधद्रारा
क्तेरेव परमप्रयोजनत्वात् । तदुक्तं रसाणेवे--
१८, लोहमेधस्त्वया देव॒ यदथेमुपवर्णितः ।
तं देहबेधमाचक्ष्व येन स्यात्खेचरी गतिः ॥
१९. यथा रोहे तथा देहे कतव्य खतकः सता ।
समानं रुते देवि प्रत्ययं देहरोहयोः ॥
पूर्वं लोट परीक्षेत पञ्चादेहे प्रयोजयेत् ॥ इति ।
यह न समरे कि रस-शाख्र केवल धातुम के अर्थवाद ( स्तुतिपरक
लाक्षणिक वाक्य = प्रसा ) के लिए है क्योकि परम लक्ष्य तो देहवेव ( शरीर में
वारे का प्रयोग ) से होनेवाली मूक्ति ही है । यह रसाणंव मे कहा हैे--"{ पार्वती
शिव से पूछती ह कि ] हे देव, जिस प्रयोजन कौ सिद्धि के लिए आपने लों वेध
का वन किया है उस देहवेध का वणंन कोजिषए जिससे आकाश्च मे चलने को
शक्ति प्राप्त होती है। [ शिव ने कहा |--हे देवि, सज्जनो को चाहिए कि जिस
प्रकार लोह में( =रक्तमें) पारद का प्रयोग करते है उसी प्रकार देहमे भी
करे [ वर्योकि ] शरोर ओौर रक्त दोनों मे इसका एक ही रूप रहता है । पहले
रक्त मे परीक्षा करे फिर देह में प्रयोग करे ।
विरोष--अर्थवाद = स्तुति या निन्दा के लिए प्रयुक्त लक्षयाथंयुक्त वाक्य,
जते अपि गिरि शिरा भिन्यात् = एेसा करने पर पहाड़ को भौ सिर से तोड़दे
३८४ सर्बदशनसंम्रहे-
सकता है । इसका लक्ष्याथं है कि उसके पास काफो शिति हो जायगी ।
अभिप्राय यह दै किं रसशाख मे धातुजं की प्रशंसाही हे, सो बात नहीं--
उसका अंतिम लक्ष्य है मुकरित ( जीवन्मुवित ) जो देहवेघ से होती दै । देहवेष =
शरीर को नित्य करना, पारेका शरीर में प्रयोग । लोहवेध = लोह ( लह ) पर
रस का श्रयोग । जैसे खत में ्रविषट होने पर पारा रक्त को कांचनवत् दिव्य कर
देता ह उसी प्रकार देह मे प्रविष्ट हो जाने पर उसे भी दिव्य कर देगा ।
( ९. जीवितावस्था मै मुक्ति-देवेघ के विषय म रंक)
न॒ सच्विदानन्दात्मकपरतचचसफुरणादेव , क्तििदधौ
किमनेन दिव्यदेहसंपादनग्रयासेनेति चेत्--तदेतद्ातेम् । अवा-
§द्रीरालाम वद्वातीया अयोगात् । तदुक्तं रसहदये --
२०. गलितान्पत्रिकर्पः स्ोध्वविवक्ितचिदानन्दः ।
सफुरितोऽप्यस्फुरिततनोः करोति जन्तुबगस्य ॥
| {भः ( २० ह° १।२० ) इति ।
२१, यज्जरया जजेरितं कासश्वासादिदुःखविशदं च ।
योग्यं यन्न समाधो प्रतिहतवुद्ीन्दरियप्रसरम् ॥
( २० ह° १।२९ ) इति ।
२२, बालः पोडशव्षो विषयरसास्वादलम्पटः परतः ।
यातविवेको ¢
वेवेको वद्धो मत्यैः कथमाप्लुयान्मुक्तिम्॥ इति ।
कोई यह् पं सकता ह कि सत्, चित् ओौर आनन्द के रूपमे परम-तच्व
के स्फुरण ( साक्षात्कार ) से ही जब मृक्ति मिल जाती है तब दिभ्य -देह् बनने
के लिए इस प्रकारके प्रयाससे क्या लाम है? [ उत्तर होगा कि ] यह तकं
- चरथं ( वातं ) है क्योकि वास्तविक ( सत्य ) शरीर विना पाये हृए एेसौ बात
( आमकाक्षात्कार से मुक्ति कौ बात ) हो ही नहीं सकती है । वैसा रसहदय
मे कहा है-सभी विकल्पों को नष्ट करनेवाला तथा सभी प्रस्थानों ( दनो )
से सम्मत विदानन्द स्फुरित ( प्रकट ) होने पर, अप्रकट ( अस्थिर ) शरीरवाले
जवो षर क्या कर सकत। है ? ( रषह्दय, १।९० ) । जो ( शरीर } वृद्धावस्था
से जजजरित ( जीरं र्णं) हो गया है, जिसमे खांसौ ओौर दमा आदि दुःख
पूतया व्याप्त हो, जिसमे जानेन्दरियों का प्रसार (गति) कुरिठ्त हौ जाता
हो, वह समाधिके योग्य ( शरीर ) नहीं है1 (र० ह° १।२९ ) । मनुष्य
[वि का क्च?
ऋष ना. १, "त क" ना = ह ह भ
रसेश्वर-दशनम् ३८५
सोलह वर्षो तकतो बालक रहतादहै, बाद में विषय-रसके आस्वादं
लिपटा रहता है, वृद्ध होने पर विवेक-शून्य हो जाता है, वह मुक्ति केसे पा
सकता है ?"#
( १२. जीवितावस्था मे मुक्ति-एक वाद् )
नु जीवत्वं नाम संसारित्वम् । तद्विपरीतत्वं शुक्ततम् ।
तथा च परस्परविरुद्भयोः कथमेकायतनत्वमरुपपन्नं स्यादिति
य॒क्तेस्तावत्स्वेतीरथं
चेत्--तदनुपपन्नम् । विकल्पानुपपत्तेः । सवेतीथ-
करसंमता । सा कि ज्ञेयपदे निविशते न वा । चरमे शशविषाण-
वनं वसं ६॥.
कर्पा स्यात् । प्रथमे न जीवनं बजंनीयम् । अजीवतो ज्ञातत्वा-
युषपत्तेः । तदुक्तं रसेश्वरसिद्धान्ते-
२३. रसाङ्कमेयमागोक्तो जीवमोक्षोऽन्यथा तु न ।
प्रमाणान्तरवादेषु युक्तिभेदावरम्नबिषु ॥
२४. ज्ञातज्ञेयमिदं विद्वि सर्वतन्त्रेषु संमतम् ।
नाजौवञ्ज्ञास्यति जञेयं यदतोऽस्त्येव जीवनम् ॥ इति ।
कोई पू सकता है कि जीव होने का अभिप्राय है संसारके साथ रहना,
उससे पृथक् रहने मे मूक्तिटै। तव परस्पर विरुद्ध [ वस्तुओं- जीव ओौर
मक्ति-- | का एक आयतन (आधार ) मे रहना कैसे सिद्ध हो सकता है?
| उत्तर होगा कि | यह तकं ठीक नहीं क्योंकि इसमे होनेवाले दोनों विकल्प
असिद्ध हो जायेंगे । मूक्तिकोतो सभी तीथकर ( दा्ंनिक-सम्प्रदाय के आचायं )
मानते है । व्या वह सूक्ति (१) ्ेयहैया(२) नहीं? यदि अ्ेय मानते >
तो लरहे की सीग' जेसे शब्दों कौ तरह असंभव (कल्पना का विषय ) हो
जायगौ, मौर यदि पहला विकल्प ( मुक्ति को जेय ) मानते ह तो जीवन को
त्याग नहीं सकते क्योकि बिना जीवन के कोई ज्ञाता बन जायगा--एेसा सिद्ध
नहीं कर सकते । रमेश्वर सिदडान्त में कहा है -रस-शाख्र ( रसेश्वर-दश्चन ¢
कथित नियम के अनुसार ही जीवन्मुक्ति संमव है, दूसरे किसी प्रकार से नहीं ।
विभिन्न युक्तियों का अदलम्बन करनेवाले [ विभिन्न दशनो मेँ | जहां [ जीवन्मुक्ति
को सिद्ध करने के लिए ] दुसरे प्रमाणा दिये गये है, वहां भौ समञ्ञलो कि सभी
# तुलनीय--चपंटपं जरिका स्तोत्र मे--
२५ स संर
र ---¬) न्क नन
व्क कानि कि व ^ 9 नै 9" "क ककं क
पो
३८६ सबेदशेनसंग्रहे-
तंरा से सम्मत ज्ञाता ओर य का सम्बन्ध रहता ही है । ज्ञेय ( मुक्ति) को
चूंकि जीषन से रहित व्यक्ति नहीं जान सकता, अतः जीवन की सत्ता स्वीकार
करनी पडेगी ही \
विदचेष--ऊपर जीवन्मुक्ति को सिद करने को बड़ी सुन्दर युक्ति है । पूर्व
वक्षियों का कहना दै कि जीवित होना ( संसार मे रहना ) ओर मुक्त होना दोनों
विरोधी धारणाय है एक स्थानपर दोनों कौ सत्ता हो ही नहीं सकती । इसपर
उत्तर पक्षो दूसरी ही युक्ति का आश्रय केति ह कि मृक्ति करी सत्ता यदिहै तो
ज्ञाता ओर ज्ञेय का सम्बन्ध भी रहेगा--मृक्ति जेय रहेगी, इसका ज्ञाता कोई
जौवधारी व्यक्ति होना चाहिए क्योकि निर्जीव या मृत व्यक्ति इसे कैसे जान
सङ्घेगे । इसलिए जीवित होना ओौर मुक्त होना--दोनों को सत्ता (९९ साथ
स्वीकार करनेमेही कुशल ह, नहीं तो ज्ञानमीमांसाविषयक ( एि8प्ला0०
10168] ) आपत्ति्या उदम । यदि मुक्ति को अज्ञेय मानते दहै तब तो यह
बिल्कुल कल्पना की वस्य हो जायगी, दूरौ सत्ता हौ नहीं रहेगी । मृक्ति को
सत्ता मानने पर जीवन्मुक्ति हौ एकमात्र माननी पडेगी, विदेह मूक्ति के लिए
कोई स्थान नहीं \
( १९. दारौर की नित्यता--इसके प्रमाण )
न चेदमदषटचरमिति मन्तच्यम् । विष्णुस्वामिमतानुसारि
भिनेप्चास्यश्चरीरस्य नित्यत्वोपपादनात् । तदुक्तं साकारसिद्धो--
२५. जिनित्यनिजाचिन्त्यपूणोनन्देकविग्रहम् ।
नृपश्चास्यमहं बन्दे श्रीविष्णुस्वामिसंमतम् ॥ इति ।
एसा भीन सम्षं कि यह ( देह का नित्यत्व ) पहले से देखा नहीं गया दै ।
विष्णुस्वामी के मत १२ चलने वाले लोग नरह ( च +पंचास्य = पंचानन )
के दाशर को नित्य सि करते ह \ जेसाकि साकारसिदधि मे कहा गया है-सत्,
चित्, नित्य कै स्वरूप मे, निज ( अपना }, अत्वितनीय, ओौर पूणं आनन ही
क रूप मे जिलका एकमात्र शरीर ( विग्रह् ) है, तै नर्यसिहं कौ वन्दना करता
हंजो ्रीविष्णुस्वामी से संमत ह ।
विरोष--सत्-जिसको सत्ता है, सदा प्रकाशित है। चित् = शुदढध ज्ञान
स्वरूप । नित्य = सदा कखारमे विद्यमान, तरिक्राल मे अबाधित ) निज =
आत्मस्वरूप । पूर्णानन्द = आरम-षाक्षात्कार के लमय-जैसा आनन्द जिसमे
ज्ञाता जौर ज्ञेय काध्व मिट जाय । विग्रह = शरीर । यह ध्येय हिकिवे सारे
विशेषण ब्रह्य के स्वरूप लक्षण के लिए अद्रैत-मत में युक्त होते ह ,
रसेश्वरदशेनम् ३८७
नन्वेतत्सावयवं रूपवदवभासमानं नृकण्टीरवाङ्गं सदिति न
संगच्छत इत्यादिनाक्षेपपुरःसरं सनकादिप्रत्यक्ष, सहस्रकषीषा
पुरुषः" (छे ३।१४ ) इत्यादि श्रुति,--
तमद्धतं बालकमम्बुजेक्षणं चतुशेजं शद्धगदादयुदायुधम् ।
( भाग० १०।३।९ ),
इत्यादिपुराणलक्षणेन प्रमाणत्रयेण सिद्धं नृपञ्चाननाङ्ग
कथमसत्स्यादिति सदादीनि व्रिशेषणानि गमेश्रीकान्तमिश्ररविष्णु-
स्वामिचरणपरिणतान्तःकरणेः प्रतिपादितानि । तस्मादस्मदिष्ट-
देहनित्यत्वमत्यन्तादृषटं न मवतीति पुरुषाथेकायुकेः पुरुपेर्टव्यम् ।
अत एवोक्तम्-
२६. आयतनं बिदानां मूं धमोथेकाममोक्वाणम् ।
प्रेयः परं किमन्यच्छरीरमजरामरं विहायेकम् ॥ इति ।
[ अब प्रश्न हो सकता है किं ] नर्सिह के दिलाई पडने वाले शरीर को
जिसमे अवयव ( अंग-प्रत्यंग ) तथा रूप ( आकृति या रंग ) भी है, सत्तायुक्त
कहना संगत नहीं है। इस आक्षेप के बाद--( १) सनकादि ऋषियों के
र्यश्च के आधार पर, ( २) सहस्र सिर वाले पुरुष --इस वेदिक प्रमाण के
आधार पर तथा ( ३ ) “उस विचित्र, कमलनयन, चारभुजा्ओंवाले, तथा शंख,
गदा आदि आयुधो वाले बालक को" (कृष्ण के वणान में, भागवत १०।३।९) --
इस प्रकार के पौराशिक-लक्षणों के आधार पर, तीन प्रमाणो से सिद्ध होने पर
ओ नरसिंह का शरीर कंपे असत् होगा । यही कारण है किं सत् भादि ( चित्,
नित्य, निज आदि ) विशेषणो का प्रतिपादन, विष्णुस्वामी के चरणों में अपने
अन्त.करणा को लगाने वाले उनके शिष्य श्रीकान्त मिश्रने किया है। इसलिए
हमारा प्रतिपाद्य विषय जो देहु क! नित्यत्व है वह बिल्कुल नहीं देखा गया,
रेसी बात नहीं--यह पुरुषां की कामना करने वाले व्यक्ति खोज लं । इसीसे
कहा है--'समी विद्याओं का समह तथा धमं, अथं, काम ओौर मोक्ष का मूल
एक मात्र अजर ओर अमर शरीर को छोड़ कर, दूसरा क्या [हो सकता है] ?*
* तुल० कालि दाष, कुमार०-शरीरमाय्यं खलु धमंसाधनम् ( ५।३३ ) ।
च *
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क्तो न्को अ == "न दः - -----.
दे सर्वदशेनसंमरदे-
( १२. पारद्-रस क्रे सेवन से जरामरण से मुक्ति)
अजरामरीकरणसमरथशच रसेन्द्र एव । तदाद `
एकोऽसौ रसराजः शरीरमराजमरं इरुते । इति ।
कि वर्ण्येते रसस्य माहात्म्यम् ।
द्वीनस्प्यनादिनापि महत्फलं भवति ।
अजर ओौर अमर करने की लामथ्यं रसराज ( पारद ) मे ही ह । उसे कहा
है--'एक रसराज ही शरीर को अजर, अमर करता है!" रस की महिमा क्थः
कही जाय ? देखने ओर दूते से भी बड़ा फल मिलता दै ।
( १३. पारद्-लिग की महिमा )
तुकं रावे ,
२.७. दश्चेनात्स्पशेनात्तस्य पि।
नाच्च दृश्यते षड्विधं फलम् ॥
२८. डेदारादीनि लिङ्गनि थिव्यं यानि कानिचित् ।
तानि ष्ट्रा तु यस्पुण्य तत्पुण्यं रसदशेनात् ॥\
इत्यादिना ।
अन्यत्रापि-
२९. कादयादिसवेरिङ्गेभ्यो रसलिङ्गाचेनाच्छिवः ।
प्राप्यते येन तदि ॥ इति ।
रसा ही रसार्णव मे कहा गया है-- "उसके देखने से, दून से, खनेसेया
केवल स्मरण से भी, इसकी पूजा करने से या स्वादलेनेसे छह प्रकार के फल
मिलते दहै \ पृथ्वीम केदार आदिया दूसरे जो भी लिग ( शिवलिग ) है, उन्टं
देखने चे जो पुराय होता है, वह रस (पारद) के दर्शने भी मिलता दै।'
दूसरी जगह मी "काक्लो-जादि [ सभी तीर्थो ] के लिङ्धोसे बद्र रसरूपी
लिंग कौ अर्चना से शिव ( देवता या कल्या ) की प्राप्ति होती हि क्योकि वह
लि भोग, आरोग्य ओर अमरता श्रदान् करनेवाला है ।*
द
44 तुलनीय-- पारदं परमेशानि ब्रह्मविष्णुश्िवात्मकम् ।
यो यजेत्पारदं लिङ्खं स एष शम्भुरव्ययः ॥
( अभ्यंकरटीका मे उद्धत ) ।
य कक" मः
र ३८६
रसनिन्दायाः प्रत्यवायोऽपि दरितः-
३०. प्रमादाद्रसनिन्दाय।ः श्रुतावेनं स्मरेप्य॒धीः ।
द्राक्त्यजेन्निन्दकं नित्यं निन्दया पूरिताश्चुभम् ॥ इति ।
[ पारद- ] रस की निन्दा करने का कुपरिणाम दिखलाया गथा है-- विद्वान्
यदि प्रमादवश रसकी निन्दा करदे तो अपने मनमें [ उसके परिहार के
लिए ] इस (पारद ) का स्मरण करले। निन्दकं को सदा के लिए तुरत छोड
दे क्योकि वह् अपनी निन्दा के चलते पापपूणं है ।
( १४. पुरुषां ओर ब्रह्म-पद )
तस्मादस्मदुक्तया रीत्या दिष्यं देहं संपाद्य योगाभ्यास-
वश्चात्परतखे दृष्टे पुरुषाथप्रापतिभेवति । तदा--
३१. भ्रयुगमध्यगतं यच्छिखिविद्यत्घयवज्ञगद्धासि ।
केषांचितपुण्यदज्ञायुन्मीरुति चिन्मयं ज्योतिः ॥
३२. परमानन्दकरसं परमं ज्योतिःस्वभावमविकस्पम् ।
बिगकितसकलक्लेशं ज्ञेयं शान्तं स्वसंवेद्यम् ॥
३२. तस्मिन्नाधाय मनः स्फुरदखिरं चिन्मय जगत्पर्यन् ।
उत्सन्नकरमबन्धो ब्रह्मत्वमिहेव चाप्नोति ॥
( २० ह° १।२१-२३ )।
इस प्रकार हमारे संप्रदायमें कही गई विधि सेः दिव्य-शरीर बनाकर, योग
( ब्रह्म के साथ एकता की स्थापना ) के अम्यासके द्वारा परमतच्व देख लेने
पर पुरुषार्थं की प्राति होती है। तब-'दोनों मौहोंके बीच में स्थित रहने
वाली तथा जो असि विद्युत् तथा सूयंकी तरहसंसारको प्रकाशित करतीदहै
वह चित् ( चेतनता ) के स्वरूप में वत्त॑मान ज्योति किन्हीं-किन्हींही पुण्य
( पवित्र ) दृष्टि वाले (व्यक्तियों) के समक्ष खलती ( प्रकाशित होती ) है (३१) ।
परम आनन्द की प्राप्ति कराने वाला, एक ( अद्वैत ) रष से परिपूर्णं, परमतत्व-
के रूपमे, ज्योति ही जिसका स्वरूप है, जिसमें किसी विकल्प ( पक्षान्तर ) का
स्थान नहीं जिससे सभी क्लेश ( कष्ट ) निकल जाते है, जो ज्ञानका विषय है
शन्त है, अपने में ही अनुभव की वस्तु है (३२)-- उसमें अपने मन को लगाकर,
प्रकाशित होने वाले समस्त चिन्मय संसार को देखते हुए मनुष्य, सभी कम
बन्धनो के नष्ट हो जाने पर यहीं ( पृथ्वी में ) ब्रह्मत्व प्रात कर लेता है (३३) ।"
( रसहदय १।२१-२३ )। |
[~ ~र = जय न
२३६० सबेदशेनसंम्रदे-
( १५. रस ओर परब्रह्म मे समता--रसस्तुति )
रतिश्च-^सेो वै सः । रसं ह्येवायं लस्ध्वानन्दी मवति
( तै० २।७।१ ) इति । तदित्थं मवदैन्यदुःखभरतरणोपायो रस
एवेति सिद्धम् । तथा च रसस्य परब्रह्मणा साम्यमिति प्रति-
पादकः इलोकः--
३४. यः स्यास्प्रावरणाविमोचनधियां साध्यः प्रकृत्या पुनः
संपन्नः सह तेन दीव्यति परं वेशानरे जाग्रति ॥
ज्ञातो यद्यपरं न वेदयति च स्वस्मात्स्वयं द्योतते
यो ब्रह्मेव स दैन्यसंसुतिभयात्पायादसो पारदः ॥
इति श्रीमत्सायणमाधवीये सर्वदर्शनसंग्रह रसेशवरदशेनम् ।
---*~>-0-< ~
वैदिक प्रमाण भी है--वह ( परमात्मा ) रस ही है । वह ( पुरुष ) रस
( पारद ) को पाकर आनन्दी ( मुक्त ) होता है' ( तैत्तिरीय ० २,७।१ ) । तो
इस प्रक।र भव ( आवागमन ) तथा देन्य-दुःखके भार से बचने का उपाय
रसहौहै, यह सिद्ध हा) उषी प्रकार “सकी समता परब्रह्मसे है'
यह सिद्ध करनेवाला इलोक [ देखं ]--श्रावरणा. [ भ्रान्ति ] से मृक्ति पाने की
इच्छावाते व्यक्ति स्वभावतः जिसकी साधना करते ह, फिर [ यह पारद | पृं
हो जाने से, वैश्वानर के जागृत होने पर उसी के साथ खेलता भी है, जो स्वयं
ज्ञात होने पर भी दूसरों को ज्ञात नहीं कराता, अपने आप प्रकाशित होता है,
जो ब्रह्म के समान दहै वह पारद दीनता ओौर संसारके आवागमन के भय से
हमे बचावे ।'
इस प्रकार श्रोमान् सायणा-माधव के सवंदर्शंनसंग्रह मे रसेश्वर-दशंन [समाप हुभा] ।
विरोष--उपयक्त इलोक म पारद की स्तुति कौ गई, जिसमें इसे ब्रह्म के
सारे रहस्य-वादी विशेषण दे द गये है। गफ ने अपने अनुवादमे दूसरी
पक्ति यों री है- संपन्नः सहते न दीव्यत्ति° अर्थात् पारद सम्पन्न होने पर
सहता नहीं ओौर जागृत वैश्वानर होने पर लेलता भी नहीं ।
इति बालकविनोमाशङ्कुरेण रचितायां सवंदशेनसंग्रहस्य
प्रकाशाख्यायां व्याख्यायां रसेरवरदश्चनमवसितम् ।
॥ |
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न च व 9
म रि क 2 र
+ ररर ऋसये ---¬-ः
| वय === ==
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| ~ ~ दः क तक जे कके ऊक - ~ = =
का
=
८ १० ) ओलुक्य-ददोनम्
भावाः षडेव मुनिना विदहितास्तदन्ते
चान्योऽप्यभाव इति सप्रपदाथंशाखम् ।
सामान्यवणेनपरोऽपि विशेषरूपो-
ऽसौ नित्यमेव जयति प्रथितः कणादः ॥
-ऋषिः।
( १. दुःखान्त के लिप परमेश्वर का साक्षात्कार )
इह खलु निखितग्रक्षावान् निसगंप्रतिदूरवेदनीयतया
निखिरात्मसंवेदनसिद्धं दुःखं जिहासुस्तद्धानोपायं जिज्ञासुः पर-
मेश्वरसाक्षात्कारमुपायमाकर्यति ।
१. यदा चमेवदाकाशं वेष्टयिष्यन्ति मानवाः ।
तदा शिवमविज्ञाय दुःखस्यान्तो भविष्यति ॥
इत्यादिवचननिचयमप्रामाण्यात् ।
इस संसार में जितने बुद्धिमान् लोगहैँवेदुःखका त्याग करना चाहृतेर्है
क्योकि दुःख का अनुभव करना उनकी प्रकृति के विरुद्ध पड़ताहै ओर इस
दुःख की सत्ता का अनुभव समी लोग अपनी आत्मामेंकरतेहीर्है। उसदुःख
के विनाश के लिए कोई उपाय जानना बाहते है ओर निदान उन्हँं परमेश्वर का
साक्षत्कार करना ही उपायके रूपमे दिखलाई पडता है । इसकी पृष्ट के लिए
निम्नलिखित खूप मे प्राप्त वचन प्रमाणा होते है-- “जब चमडेकी तरह आकाश
कोभीलोग ढंकने लग जारयेगे तभी शिव ( परमेदवर } को जाने बिनाही दुःख
का अन्त भो होने लगेगा । ( इवेता० ६।२० )। [ जिस प्रकार चमडेको ढेंकते
है उसी प्रकार आकाश को नहीं ढँक सकते । शिव के ज्ञान के बिना मुक्ति पाना
ओर आकाश को ठेंकना तुल्य है । दोनों ही असंमव कायंहै। |#
# इस ढंग से कहना अतिशयोक्ति अलंकार का एक मेद है । यदि एेसी-ेसी
( असंमव ) बातं हों तभी इस तरह का कायं संभव है। कालिदास पावती के
स्मित का वंन करते है--
पुष्पं प्रवालोपहितं यदि स्यान्मुक्ताफलं वा स्फुटविद्रुमस्थभू ।
३६२ सबेदशेनसंग्रहे-
विरोष- -ओौ्वय-द्थ॑न को मुख्यतया लोग वशेषिक के रूप मे जानते ह।
इसके प्रवतंक कणाद ऋषि थे जो रास्ते पर गिरे हुए अन्न-कणों को चुनकर उर
ही खाकर अपनी जीविका चलाते थे । इनके कणाद या कणभक्ष ( कण + अद्
या भक्ष = खाना ) नाम पड्ने का यही रहस्य है । उदयनाचायं की किरणावली
के अनुसार ये करयप-गोत्र के ब्राह्मण थे। वायु प्राण में इन्हे प्रभास तीथं का
निवासी, सोमशर्मा का पिता एवं शिव का अवतार माना गया हि। परम्परा है
है किये उदक ऋषि के पुत्र ये इसलिए इष दशन को ओचूकय ( उलूक के पुत्र
का) द्येन कहते है । यह भी जनश्रुति है करि कणाद तपस्या कर रहे थे जब
कि उन्हँ स्वयम् ईश्वर ने उलूककारूप धारणा करके छह पदार्थो का उपदेश्च
दिया था इसलिए इस दशन को ओलूक्य ( उलूकेन प्रोक्तम् ) कहते है ।
इस दर्शन के "वैशेषिक नाम पड़ने के बहुत-से मत है । कछ लोगो का
कहना है कि अन्य शास्र से, विशेषतया सांख्य से, विशेषता होने के कारण
इसका नाम वैशेषिक पड़ा । दूसरे कहते ह कि गौतम के प्रतिपादित १६ पदार्थो
मे धमं ओौर धर्मौ का स्पष्ट विवेचन न होने के कारण उनका परस्पर साधम्यं
ओौर वैषम्यं दिखलाते हृए सुब्यकस्थित खूप से द्रष्य, गुण आदि ७ पदार्थोका
ही वर्णन कणादने कियादहै। इस विशेष उदूदेक्यसे अगे बढुने के कारण
इसका नाम वैशेषिक पड़ा । किन्तु ये सारे कारण कपोल-कल्पनायं है । सच
तो यह है कि शविशेष' नामक पदार्थं पर अधिक जोर देकर इसका समीचीन
विवेचन करने के कारणा ही इसे वेशेषिक-दर्शन कहते है ( व्यासभाष्य १।४९
योगसूत्र ) ।
वैशेषिक-दर्शंन नौर न्याय-दर्शन समानत्र कहलाते है क्योकि दोनों मे
सिद्धान्त की अत्यधिक समताहै। दोनोंका साहित्य भी समान शूपसेही
चलता है। जो लोग न्यायके विद्धान् हैते वेशेषिककेभीहैँ। एककाभी
नाम लेना होता है तो न्याय-वैशेषिक ही कहते द । फिर भी वैशेषिक साहित्य
की विपुलता अपना स्वतंत्र स्थान रखती दै ।
न ससकारसयमसेते -----*
ततोऽनुकूर्याद्विशदस्य तस्यास्ताम्रोष्ठपयंस्तरुचः स्मितस्य ॥
( कु० १।४४ )
इसी तरह शिशुपाल वध में कृष्ण के वक्षःस्थल का वणंन-
उभौ यदि व्योन्नि पृथक्प्रवाहावाकाशगङ्खापयसः पतेताम् ।
तेनोपमीयेत तमालनीलमामुक्तमुक्तालतमस्य वक्षः ॥
। ( शि व° ३।८ )
[=
ओदक्य-दशेनम् ३६३
इय ददन का आरंभ कणाद् से वैशेषिक सूरो से होता है जिसमें १०
अध्याय ( प्रत्येक के दो-दो आधिक ) जौर ३७० सूत्र है । इस पर प्रशस्तपाद
का तथाकथित भाष्यदहै जो एक् स्वतंत्र ॒प्रन्थ हीदहै। इसे पद्ाथेधमेसम्रह
भी कहते है । वैशेषिक सिद्धान्तो को स्पष्टतर विवेचना होने के कारण इस ग्रन्थ
का बहुत अधिक प्रचार हुआ । इसका वही स्थान है जो पाणिनि व्याकरण मे
सिद्धान्त-कौमुदी का या साख्य दर्शन मे सांख्यकारिका का। बादकी सारी
लका इसी पर लिली गई ( प्रशस्तपाद का समय ४५० ई० हे) । इसकी
टीकाओं मे वयोमरिवाचाय ( ९८० ) की व्योमवती, उद्यनाचायं (९८४)
कौ किरणावल्ली, श्रीधर की न्यायकन्दली, श्रीवत्स ( १०२५) की
लील्लावती मख्य ह । इन टोकाओों पर भी एकाषिक टीकयं है ।
कणाद के सूर्रोंपर एक रावणामाष्य भी मिलता है किन्तु सबसे प्रौढ
टीका है दंकरमिश्च की । शंकर ( १४२५ ) मिथिला के बहत बड़ विद्वान् तवा
सुप्रसिद्ध भवनाथ भिध्न ( अयाची मिश्र) के पूत्र थे। इनका निवासस्थान
सरिसव ( दरभंगा ) में था। इन्होने कणदसूत्र पर उपर्कारः टीका, प्रशस्तपाद
भाष्यं षर कणाद्रहस्य-टीका, आमोद ( स्याय-कुमुमांजलि की टीका ), कल्प-
लता ( आत्मतक्वविवेक कौ टीका), भा नन्दवर्धंन ( खरडनखरडलाद्य की
टीका ), भेदरत्नप्रकाश ( ्रीहषं के खण्डनखण्डखाद्य का खरएडन करने वाला
्रन्थ ) इत्यादि अनेक ग्रन्थ लिखे । इसके अतिरिक्त भरद्वाज, जयनारायण, नागेश `
( १७१४ ) तथा चन्द्रकान्त ( १८८० ) ने कणादसूव्र की वृत्तियां भो लिीं ।
वैशेषिक-दर्शन पर स्वतंत्र ग्रथों मे ज्ञानचन्दर ( ६०० ) की दशपदार्थी, उदयन
की लक्षणावली, रिवादित्य ( १०५० ) कौ सत्तपदार्थी, वलटुभन्यायाचायं
( ११५० ) की न्यायलीलावती तथा लोगाक्षिभास्कर ( १३२५ ) क
तककौमुदी है । इन पर कई टीकायं अन्य आचार्यौ कौ है।
प्रसिद्धि की दृष्टि से विश्वनाथ न्याय पञ्चानन का भाषा-परिच्छेद तथा
अन्नंभट्र का तक॑संग्रह अत्यधिक महच्वपूणं है। भाषा-परिच्छेद पर लेखक
( १६३४ ) की ही टीका न्यायसिद्धांतशुक्तावली है जिस पर रुद्र, दिनकर,
त्रिलोचन आदि आचार्यो कौ टीका ह । रामशद्रने तो दिनकरी पर भी टीका
लिखी है । अन्नमद ( १६९० ) ने अपने तकंसंग्रह पर स्वयं दौपिका टीका
लिखो जिक्ष पर नीलकंठ की प्रकाश-टीका ओर उसपर मी लक्ष्मीनृसिंह को
आस्करोदयां टीका है ! तक॑संग्रह पर बहुत-सौ दूसरी टीकायं भी है जिनका
उल्लेख करना यहा अभीष्ट नहीं । तकंसंग्रह न्यायवेशेषिक के अध्ययन का प्रथम
सोपान है । इसकी शैली अत्यन्त सुबोध, सरल भौर संक्षिप है । इस प्रकार वेशे
विक-दर्न के प्रमुख ग्रन्थो का उतल्लेल करने से इसको "विशेषता" प्रकट होती है।
३६४ सर्बंदशेनसंग्रहेः भि # ह कः
परमेश्वरसाक्षात्कारश्च द । यदाह-
२. आगमेनानुमानेन ध्यानाभ्यासबलेन च ।
त्रिधा प्रकरपयन्परज्ां लभते योगयुत्तमम् ॥ इति ।
तत्र मननमनुमानाधीनम्। अुमानं च व्याधिज्ञानाधीनम् ।
उयापिज्ञानं च पदाधवियेकसपेश्ष् । अतः पदाथेषटकम् (अथातो
धर्म व्याख्यास्यामः! ( वै° ख० १।१।१ , इत्यादिकायां दज्ञ-
लक्षण्यां कणमक्षेण भगवता व्यवस्थापितम् ।
परमेहवर का साक्षात्कार ( ज्ञान ), श्रवण ( शास्त्र का ), मनन ( चिन्तन )
तथा भावना ( अन्तःकरण मे ध्यान करना, निदिव्यासन, 11९01४80 } के
दारा पाया जा सकता ह । जेसा कि कहा गया हे -'आगम से, अनुमानसे
तथा ध्यानाभ्यास के बल से--इस प्रकार तीन तरह से अपनी बुद्धिको
दरमेऽवर के विषय मे लगाकर सावक उत्तम योग प्राप्त करता दै।' [ आगम
ओर श्रवण समाना्थंक ( अनर्थान्तर ) है। गुरुके पास से परमेरवर के स्वरूप
तथा उसके गुणों के विषय मे श्रवणा करना परमेश्वर-ज्ञात का प्रथम सोपान है ।
इस श्रवण मेँ आत्त ( प्रामाणिक } वाक्य या जागम को आवरयकत। पड़ती है
इसलिए इसे आगम भी कहते ह । जो बातत सुन चुके है उनमे ददता लाने या
अच्छी तरह उनपर विश्वास करने के लिए अनुमान के निपमों के अनुत्तर
युक्तिपूवंक चिन्तन करना भो आवदयक ही दै। यही चिन्तन मनन कहलाता
है । चकि इसमे अनुमान का सहारा लेना पड़ता है । इषलिए इमे अनुमान भी
कह देते है । श्रवण ओौर मनन के पश्वात् उ अथं का बार-बार ध्यान
करना चाद्िए । एेसा करने से वह बात हृदय में कठ जाती दै। यही भावना
है । जिस मागं से सामान्यपदाथं का श्रवणादि होता ह उसी मांसे ईश्वर के
विषय का भी\ जब बुद्धि ईरविषयिणी हो जाती है उसी समय उत्तम
योग अर्थात् ईश्वर का साक्षात्कार प्रात होता है। |
[ अब इन तीनों उपायों मे ] मनन अनुमान पर निर करता है ओर
स्वयम् अनुमान व्याप्ति ({ ए ९1.38] 76180 ) के ज्ञान पर । व्याति का
ज्ञान भी पदार्थो की पारस्परिकं विवेचना ( 1)इ०्पञडण ` की अपेक्षा
रखता है । यही कारण है कि छह् पदार्थो करौ व्यवस्था मगवान् कणाद ने दस
लक्षणों ( अध्यायों ) से युक्तं [ अपने शशेषिकदकन मे ] कौ है. जिस ( द्येन )
का आरम्भ-सूत्र है-अब इसलिए ( हम ) धमं कौ व्याख्या करेगे ( वेशेषिक
सूत्र १।१।१ ) ।
ओद्क्य-दशेनम् ३६५
वि रोष-- श्वेताश्वतर उपनिषद् मे एक वाक्य आया है-' तमेवं विदित्वाति
मृत्युमेति नान्यः पन्था विद्यतेऽयनाय" ( ३।८ ) अर्थात् उस परमेश्वर को इस
रूप में जानकर लोग मृत्यु ( दुःख ) के बन्धन से चट जाते है, कोई दूसरा मागं
इससे निकलने का नहीं है । इस श्रुति को ही आधार मानकर वेदेषिक लोग
परभेश्वर-साक्षात्कतार को ही एकमात्र उपाय बतलातत है जिससे मृत्यु से निकल
जा सक्ते है। इस साक्षात्कार ( 1९70 160९6 } के लिए तीन परस्पर
कमबद्ध उपाय है -- श्रवण, मनन ओर भावना । प्रस्तुत दशन का सम्बन्ध न तो
श्रवणसे हैन भावना से। मनन ओौर विशेषतया उसकी पदति का निषहूपण
करना ही न्यायःवेशेषिक का लक्षण है । मनन के लिए अनुमान भौर अनुमान
के लिए व्यातिज्ञान आवश्यक है। ग्याभिज्ञान के लिए पदार्थो का विवेचन
महर्षि कणाद करते हैँ । न्याय में मनन की पद्ति--अनुमान--का विज्ञद
विचार होता है जवक्रि वैशेषिकदर्शन मे उस अनुमान की सफलता के लिये
पदार्थो का वि्लेषण क्रिया जाता है। दोनों इस दृष्टि से एक दूसरे की सहायता
करते है । इन दर्शनों के द्वारा ईश्वरकी उपासना ही होती है क्योकि इनकी
सारी चर्चायं मनन के अन्तगंत आती हँ । उदयनाचायं अपनी न्यायकुसुमाज्ञलि
( १।१३ ) में कहते है--
न्यायचर्चेय मीशस्य मननग्यपदेशभाक् ।
उपासनेव क्रियते श्रवणानन्तरागता ।।
अर्थात मनन' ( {00प्टा0॥ ) शब्द से भभिहित यहु न्यायचर्चा श्रवणा के
अनन्तर आती है तथा इससे ईरवर की उपासना ही होती है। यहां
न्यायचर्चा का अथं है अनुमान क्योकि वही न्याय में विज्ेष रूप से चित
होता है ।
कणाद ने अपने सूत्रों में केवल छह पदार्थो का निलूपण किया है। वे है-
द्रव्य ( 908{811९6€ ), गण ( @पक्ाध् ), कमं ( ^ 00) ), सामान्य
( ७061618]1¢ ), विशेष ( {वा८पाक्प प्फ ) मौर समवाय ( 1०0 -
606 ) । प्रशस्तपाद मे अमाव ( पप०-68)81९€०९८९ ) को भो स्तम पदार्थं
( (&९्९्०य्फ़ ) के रूप में स्वीकार किया गया है । तवसे पदाथं सात माने गये
है । भावात्मक ( [09४२९ ) पदाथं छह ही है । इसकी संख्या पर आगे मूल
मे ही विचार करगे । कणाद के दस अध्यायो वालि सूत्र-प्रन्थ को ` 'दश्लक्षणी'
( = दशाध्यायी ) कहा गया है। कणाद के पास कुछ एेसे शिष्य आये जो
विधिवत् वेद-वेदाङ्ग का अध्ययन कर चुके थे, असुया (दोषान्वेषणा की प्रवृत्ति )
से शून्य थे ओर इस प्रकार श्ववए" कर चुके ये । मनन के लिए आये हुए इन `
शिष्यो पर परम कारुणिक भगवान् कणाद प्रसन्न हो गये ओर उन्होने वैशेषिक-
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३६६ सबेदशेनसंम्रहे-
दन कौ रचना की । उका प्रथम सूत्र यही है--अथातो धमे व्याख्या-
स्यामः । इस सूत्र में 'अथ' राब्दके द्वारा मंगलया आनन्तयं ( उ०३९५प९-
7०6 ) का बोध होता है अर्थात् शिष्यो की जिज्ञासा के परचात् । अतः
इसलिए । शकि श्रवणादि में निपुण, अमुया रहित शिष्य लोग आये है इसलिए
ज्ञान की पराकाष्ठा के रूपमे जो धमं है उसकी व्याख्या अब करेगे । धमंका
लक्षणा दूसरे ही सूत्र मँ दिया गया है-यतोऽभ्युद्यनिः ष्रेयसखसिद्धिः स
धर्मः ( १।१।२ ) । जिससे अभ्युदय ( स्वगं, तवज्ञान, लौकिक उन्नति ) तथा
निःश्रेयस ( मोक्ष ) की प्राप्ति हो वही धमं है। यहाँ 'वम' शब्द अपने शासनीय
विषय के अथंमें लिया गया है,
अब कणाद.सूत्रो की विषयवस्तु पर विचार आरम्भ होता है ।
( २. वैरोषिक-सू्र की विषय-वस्तु )
ततराह्िकदवयात्मके प्रथमेऽध्याये समवेतादोषपदाथेकथन-
मकारि। तत्रापि प्रथमाहिके जातिमन्निरूपणम् । द्वितीयादिके
जातिविशेषयो्निरूपणम् ।
आ्धिकद्ययुक्ते द्वितीयेऽध्याये द्रव्यनिरूपणम् ¦ तत्रापि
प्रथमेऽध्याये भूतविशेषसक्षणम् । द्वितीये दिक्कालप्रतिपादनम् ।
आद्िकद्रययुक्ते ततीय आत्मान्तःकरणलक्षणम् । तत्राप्या-
त्मलक्षणं परथमे । दितीयेऽन्तःकरणलक्षणम् । आविक ययुक्त चतुर्थ
श॒रीरतदुपयोगिषिवे चनम् । तत्रापि प्रथमे तदुपयोगिविवे चनम् ।
द्वितीये शरीरषिवेचनम् ।
प्रथम अध्याय मे, जिसमे दो आद्धिक ( एक दिन का पाठ = आधिक ) है,
उन सभी पदार्थो का वणन दै जो समवेत अर्थात् समवाय-सम्बन्ध से युक्त रै ।
[ समवाय-सम्बन्व का अथं है नित्य-सम्बन्ध, जो कभी भिन्ननहो। द्रव्य, गुण,
कमं, सामान्य ओौर विशेष--इतने पदार्थो का समवाय-सम्बन्ध होता है। द्रव्य
अपने अवयवो मे समवेत रहता है, गणो ओर कर्मो का समवाय-सम्बन्ध द्रव्य
के साथ रहता है, क्योकि गुणा गौर कमं से युक्त होना द्रग्य-सामान्य का लक्षा
ही है ¦ सामान्य तो जातिको ही कहते है, जिसका समवाय-सम्बन्त् उप्यक्त तीनों
से है ! विक्ञेषं नित्य द्रव्यो मे समवेत रहते ह । अवयवहीन परमाणुजों को तथा
आका आदि को भी यद्यपि समवेत नहीं कहं सकते ह किन्तु नित्य द्रव्यो के साथ
उनका समवाय-सम्बन्ध होता है । इसी अर्थं भँ वे समवेत ह । षष पदाथं समवाय
ओदक्य-दशेनम् ३६७
समवेत नहीं होता है क्योकि यदि उसे समवेत मानें तो किसी मे समवेत होगा ।
उसका किसी क साथ समवाय होगा--फिर उसका भी दूसरा समवाय होगा ।
सा करते-करते कहीं अन्त नहीं होगा, अनवस्था हो जायगी । इसलिए प्रथम
पवौच पदार्थं ही समवेत होते है । |
उसमे भी प्रथम आद्भिक में उन पदार्थो का निरूपण हज है जिनकी जाति
( सामान्य, (1888 } होती ह ( अर्थात् द्रव्य, गुण ओर कमंका)। द्वितीय
आह्भिक मेँ सामान्य ( जाति ) ओर विशेष का निरूपण किया गया है।
दो आह्व वाले द्वितीय अध्याय भें द्रव्य का निरूपण हभ है जिसमे प्रथम
आह्हिक में भूतो ( क्षिति, जल, अम्भ, वायु, आकाश ) के लक्षण है ओर दूसरे
नरे दिशा तथा काल का निरूपण है। [ स्मरणीय है क्कि द्रव्य नवर्है-- पृथ्वी,
जल, अनि, वायु, आकाश, दिशा, काल, आत्मा ओौर मन । इनमें प्रथम सात
का वणन द्वितीय अध्यायमें दहीहोगयाहै।]
तृतीय अघ्याय मँ जिसमें दो आह्जिक है, आत्मा भौर अन्तःकरण ( आन्त-
रिक इन्द्रिय = मन ) के लक्षणा दै । इनमे भी प्रथम आधिक मे मात्मा का लक्षण
ह, द्वितीय मे अन्तःकरण का । [ इस प्रकार द्रव्यो कौ विवेचना समाप्त होती
है । ] दो आह्भिकों वाले चतुथं अभ्याय मे शरीर जौर उसके उपयोगी तच्वों
( ^ ९]०0९#8, जैसे-परमाणुक्रारणता आदि ) का वरशंन है । प्रथम आद्भिक
त्रं शरीरके उपयोगियों काही व्णंन है ओौर दूसरे आ्लिकमें शरीरका
विवेचन टै ।
आद्धिकद्यवति पश्चमे कमंप्रतिपादनम् । तत्रापि प्रथमे
शरीरसंबन्धिकर्मचिन्तनम् । द्वितीये मानसकमेचिन्तनम्। आह्विक-
दरयश्चालिनि षे श्रौतधमेनिरूपणम् । तत्रापि प्रथमे दानप्रति-
्रहधर्मविवेकः । द्वितीये चातुराश्रम्योचितधमेनिरुपणम् ।
दो आद्भिकों वाने पंचम अध्याय में कमं का प्रतिपादन हृजा है । इसमे प्रथम
आहिक म शरीर से निष्पन्न होने वालि कर्भो का विचार हृजा है, दूसरे आद्भिक
नरे मानसिक कर्मो का चिन्तन ( विचार) कियागयादहै। दोही आल्लिको से
विभूषित षष्ठ अध्याय में श्रुतियों में प्रतिपादित घमं का निरूपण किया गया है ।
निमे प्रथम आल्धिक मे दान ( दान करना }) ओर प्रतिग्रह ( दान लेना }--
हन दो धर्मो पर विचार किया गया है । द्वितीय आ्िक मे चारों आश्रमो के
लिए उचित धमं का निरूपण हुमा है ।
३६८ सवेदशेनसंग्रदे-
तथाविधे सक्मे गुणसमवायप्रतिपादनम् । तत्रापि प्रथमे
जुद्धिनिरपेकषुणप्रतिपादनम् । द्वितीये तत्सपेक्षयुणभ्रतिपादनं
समवायग्रतिपादनं च ।
अष्टमे निविकर्पकसविकरपकप्रतयक्षप्रमाणचिन्तनम् । नवमे
बुद्धिषिशषप्रतिपादनम् । दशमेऽनुमानमेदगप्रतिपादनम् ।
उसी प्रकार के विभाजनवाले सप्तम अध्याय मे गुणों ओर .समवायका
्रतिपादन हुआ है जिसमे प्रथम आ्िक मे उन गुणों का प्रतिपादन जा है
जो बृद्धि कौ अपेक्षा नहीं रखते ( रूप, रस, गंघ आदि )। द्वितीय आदिक में
बुद्धि की अपेक्षा रखने वाले गुणों ( द्वित्व, परत्व, अपरत्व, भवरत आदि) का
तथा इसीमे सामान्य का भी प्रतिपादन हआ है। [ द्वित्व, एकत्व, बहूत्व आदि
को संख्या कहते ह, वह भी बुद्धि पर निर्भर करती है। इसका विशद विचार आगे
करगे । |
अष्टम अध्याय में निविकल्पकं ( [णव९लटप ०8६९ ) तथा सविकल्पक
{ एदप्यपपोपक४८९ ) प्रत्यक्ष प्रमाण का निल्पण हमा है। नवम अध्याय
मे बुद्धि के विशेषो ( भेदो ) का व्णंन है। दक्चभ अध्याय में अनुमान के भेदो
का वन है । [ यह आरयहै करि नवम ओर दरम अध्ययोंके विषयमे
माधवाचयं इतने श्रम में । वास्तव में नवम अध्याये अतीद्धिय संयोगादि
से होने वालि प्रत्यक्ष का तथा अनुमान का वणन है। दशममें सुख-दुःखादि
आत्मा के गुणों का वर्णन एवं त्रिविध कारण का भी प्रतिपादन हना है । माधव
के जम काकारण समन्नमे नहींआता! |
( ३. शाख की प्रवृत्ति--उदेश, लक्षण, परीक्षा )
तत्रोदेशलो रक्षणं परीक्षा चेति त्रिविधास्य शान्ञस्य प्रवृत्तिः
(बातस्यायन > १।१।१)। नलु विभागपेक्षया चातुर्धिध्ये वक्तव्ये
कथं त्रविध्यघक्तमिति चेत्--मेवं मंस्थाः । विभागस्य विशेषोदेश-
रूपत्वात् उदेश एवान्त मोवात् । तत्र द्रव्यगुणकर्मसामान्यविकञेष-
समवाया इति षडेव ते पदाथा इत्युदेशः ।
` [ वात्स्यायन कां कहना हेकि] इस शार ( न्याय.वैज्ञेषिक ) की प्रवृति
{ प्रतिपादन } तीन प्रकारसे होती है --उद्दैशं { एणप)९४४५०१, गणना )
लक्षणा ( 00 ) भौर परीक्षा ( लक्षणो का आरोपण, ४90)
ओद्धक्य-दशेनम् ३६६
08007 )। [वस्तुका केवल नामले लेनाया गिना देना ही उद्दा
कहलाता है जेसे यह कहना कि द्रष्य, गुण, कमं, सामान्य, विशेष ओर समवाय,
ये छह पदाथं है । लक्षण में वस्तु के उस धमं का उल्लेख करते है जिसके द्वारा
हं वस्तु अन्य सजातीय वस्तुओंसे पृथक् को जाय जैसे द्रष्य उसे कहते ई
जिसमे गुण हों । परीक्षाके द्वारा यह विचार होता है कि उक्त प्रकार से दिये
गये लक्षण प्रस्तुत वस्तुमेंठीकरहैँकिनहीं। न्याथ-वशेषिक के प्रतिपादन की
एक अपनी विशेषता है कि इन तीन विधियोंसे शाल का ज्ञान प्राप्त किया
जाता है। उसने मी परीक्षा पर बहुत जोर दिया जाता है जिसके कारण ये
दशन अत्यन्त ताक्रिक माने जाति हँ । यही नहीं, अन्य शास्त्रों पर भौ जब विपत्ति
आती है तब वे अपनी सुरक्षाके लिए तर्कशास्त्र का ही आश्रय लेते है ओर
९वपक्षियों को खवर इसी परीक्षा के द्वारा लेते है । ]
| अब प्रस्न यह है कि इन तीन विधियो के अतिरिक्त इनमे ] विभागको
भी रखकर चार प्रकार की शस्तरप्रवृत्ति का वणन करना उचित था, आप तीन
ही प्रकार को प्रवृत्तियां क्यों मानते है? ेसा न समन्ञं बयोक्रि विभाग भी एकं
तरह का उदेशहीतोहै।[ जब वस्तुओं का नामग्रहण करते है तब विभाजन
या वगक्ररण ( (]48अ{व्ब्जा ) करके ही तो नाम लेते है, यों ही मनमाने
व्गसे तो नहीं। ]* इसलिए विभागको उदेश्च के अन्दर ही रख लेतेहै।! -
देशेषिक-द्शन मे उटेश यही है-- रव्य, गुण, कमं, सामान्य, विशेष ओौर समवाय,
इस प्रकारये छह ही पदाथं है ।'
किमत्र क्रमनियमे कारणम् १ उच्यते । समस्तपदार्थायतन-
त्वेन प्रधानस्य द्रव्यस्य प्रथमघरद्देशः । अनन्तरं गुणत्योपाधिना
यत्त्तेगुणस्य
सकलद्र> । तदनु सामान्यवचसाम्यात्कर्मणः ।
पश्चात्तत्रितयाधितस्य सामान्यस्य । तदनन्तरं समवायाधि-
करणस्य विशेषस्य । अन्तेऽवशिष्टस्य समवायस्येति ।
यहाँ पदार्थो कौ गणना कराते समय एक विशेष क्रम देखते है उसका क्या
कारण दै? कहते है--सारे पदार्थो का आधार होने के कारण प्रमुख रूपसे `
यः
* उद्देश दो प्रकार का है सामान्य जेसे, द्रव्य गुण कर्मादि पदार्थोकी
गना तथा विरोष जैसे, पृथ्वी, जल, तेज आदि द्रव्य के भदो की गाना ।
गुणो को गणना करति समय "विभाग" नाम आता है इसलिए विशेष उद्देश
( अवान्तर भेद के अन्तगंत } होने से विभागको पृथक् नहीं लेते । उद्देश मे
ही क्योंकि क 7 क त 1 एल १5 अनव स
०० सबेदशेनसंग्रहे-
विद्यमान द्व्य का उदेक्ष ( नामग्रहण ) पहले हमा हि। [ नीव का ज्ञान पहले
करके तब भवन का निर्माण होता ह, मनुष्य को जानने पर ही उसके घम का,
जैसे स्थूलता आदि का, ज्ञान प्राप्त करते है । धमंकाज्ञान पीचे होता दै, धर्मी
का पहले । इसी प्रकार समी पदार्थो का साक्षात् या परंपरा से आधार द्रव्य ही
है। गुण ओौर कर्मं का तो वह साक्षात् आवार है । द्रव्यत्व, पृथिवीत्व, घटत्व
आदिक ल्प भे जो सामान्य है उसका भी वह सीवा आधार है । हां, गुण भौर
कम कौ जाति ( सामान्य ) अर्थात् गुणत्व ओौर कम॑स्व आदि के लिए उसे
(द्रव्य को) गुणकम का सहारा लेना पडता है--गुणत्व ओौर कम॑त्व क्रमशः
गुण ओर कमं में है ओर द्रव्य इन दोनों का आधार है। विशेषो का भी साक्षात्
आधार द्रव्यहीदहै। समवाय का कहींतो वह साक्षात् भधार होता है कहीं
गुणादि के द्वारा) तात्पयं यह है किद्रव्यया तो सभी पदार्थो का साक्षात्
ाधारहिया परषरासे आधार है। प्रमुखहोनेके कारण द्र्य को पहले
रखते है । |
इसके बाद गुरात्व उपाधि के रूप में समी द्रव्यो मे पाये जानेवले गुण
कानामह। [गुरा का अथं अप्रधान होता है इसलिए द्रव्य की अपेक्षा अप्रधान
हष से विद्यमान रहनेवालि गुणो को द्रव्य के बाद रखते ह । यद्यपि गुण, कमं
आदि पाचों पदार्थो को समान रूप से अप्रधान ( गुण ) कहा जा सकता है
किन्तु वैशेषिक लोग रूप, रस आदि को हौ साकितिक रूप से गुण कहते है ।
गृण का सामान्य अथं बहुत व्यापक होने पर भी शाल्ञीय-टृष्टि से एक विक्चेष
पदारथंको ही गुणा कहते है जो सभी द्रव्यो में रहता है। इसका यह अथं कमी
नहीं समश्चना चाहिए कि सभी द्रव्यो मे सभी गुण रहते ह--पृथ्वीमे रूप, रस
आदि नहीं दहै, न बुद्धिहीहै। किन्तु कोई-न-कोई गुणा सभी द्रव्यो मे रहता ही
है। यह सौभाग्य अन्य पदार्थो को नहीं । यही कारण है करि द्र्य के
पश्चात् ओर अन्य पदार्थो के पहले गृण का नाम लिया जाता है । |
इसके बाद कमे का उटेश होता है क्योकि | द्रव्य, गुण ओर कमं तीनों
म ) सामान्य की सत्ता रहती हे, यही समानता है । [ द्रव्य, गुण ओर कम॑ तीनों
मं जाति ८ (1888 ) रहती है । इसलिए तीनों को एक साथ ही रखना चाहिए ।
द्रव्य, गुण अपने विशिष्ट कारणों से पहले आ चुके है। अवशिष्ट कमंहीहै
इसलिए गुण के बाद उसे रखते है । इसके अतिरिक्त यह ध्येय है कि गुण, कमं
के बीच गुण को प्रधानता मिलती है क्योकि गुणों को पहुंच ( वृत्ति ) सभी
द्रव्यो तक रहती है, कमं बेचारे कुच ही द्रश्यो तक पंच पाते है--आकश्च,
काल, दिशा, आत्मा इन विश्रु द्रव्यो मे कमं पटच नही सकते । गुणों को
[क्क =
ओद्धक्य-दशनम् ४०१
अपेक्षा कमं द्रव्य के पास पैरवी पटूंचाने मे पिचड जाते ह इसलिए गुणों के
उपरान्त ही इनका स्थान होता है । ]
इसके बाद इन तीनों मे आश्रय लेनेवाले सामान्य या जाति का उदेश
होता है । [ ऊपर कह चुके है कि आधारके बादही आधेय पदां अतिहै।
रभ्य, गण, कमं तीनों ही सामान्य के लिए आधार है। इसलिए वे सामान्य की
अवेक्षा प्रधान है। सयो के भरोते जीनेवाला पटले नहीं रह सकता । पहले
उसके आश्रयदाता का नाम रहेगा-तभौी उसका नाम रहेगा। यही कारण
है कि सामान्य इन तीनों के अन्त में आतादहै।]
इसके अनन्तर समवाय के आधारके रूपमे अवस्थित विहोषका नाम
लेते है ओर अन्तम बचे हुए समवाय का नाम अतादहै--यही क्रमदै)
[ विशेष ओर समवाय को सबसे पीले डालनेका यह कारण है कि इनका
प्रत्यक्ष कभी नहीं होता । प्रत्यक्ष होनेवाले पदार्थो से भप्रत्यक्ष पदाथं पचे ररहैगे
ही । अबये दोनों निर्णय करे कि कौन पहले रहेगा, कोन पीछे ? फिर आधार-
आचेय का संबंध हो गया । समवाय आधेय है, विज्ञेष आधार । जाधार पहले
होता है, आवेय पीठे । बस, विशेष के वाद समवाय कौ नाम है । |
( ४. पदार्थो की संख्या- छह या सात १ )
ननु षडेव पदाथौ इति कथं कथ्यते १ अभावस्यापि
सद्भावात् इति चेत्-- मैवं बोचः। नजथोचुद्टिखितधीविषयतया
भावरूपतया षडवेति विवक्षितत्वात् । तथापि कथं पडवेति नियम
उपपद्यते १ विकरपानुपपत्तेः। नियमव्यवच्छेधं प्रमितं न वा !
प्रमितत्वे कथं निषेधः ? अग्रमितत्वे कथंतराम् ?
अव यह प्रदन ह करि आप कैसे कहते है कि पदाथंचछटहीदह? अभावकौ
भी तो सत्ता है [ जिसे सातवां पदाथं मानते ह ] । इस प्रश्न पर हम करगे कि
ठेसा मत कहो । निषेधात्मक ( नजथके द्वारा उल्लिखित या बोधित ) प्रतीति
( ज्ञान, धी, प्रत्यय, ९००५।९0&९ ) को हम अपना विषय नहीं मानते तथा
भाव-रूप ( भावात्मक {208४19९ } [ प्रतीति को ही हम विषय | मानते है
इसलिए हमारी विवक्षा (कहने की इच्छा) से ही छह पदां माने गये है । [ नज्थं
के रूपम निषेध को समञ्च लेने के लिए अभाव भी एक पृथक् पद थं रहे, इसमे
हमे कोई आपत्ति नहीं । किन्तु इस अमाव के दारा किसी वस्तु को असत्ताका
ही तो बोध होगा, सत्ता का तो नहीं । हम सत्ताका विद्लेषण करना चाहते
२६ स सं
९%०र् स्वेदशनसंदे-
है इसलिए अभाव नहीं स्वीकार करके छह ही पद।थं मानते ह जो सब के सब
भावात्मक है । |
फिर भी प्रन हो सकताहैक्रि यह नियम अपि कहाँ से लाते ह कि पदाथं
केवल छह ही है । [ इसकी सिद्धि के लिए दिये गये ] दोनों विकल्प असिद्ध हो
जारयेमे । देखिए-इस नियमसे [ कि पदार्थं छह ही ह ] व्यावृत्त किया जने
बाला ( 060४ ९४००१९५ ) [ सप्तम पदाथ | प्रमाणो से सिद्धै कि नहीं?
[तात्पयं यह है कि जब आप छह ही' मेही" का प्रयोग करते है तब अवरय किसी
आगामी पदार्थं को निकाल बाहर (व्यावृत्त) करते है, यह बहिष्करण जिसका हो
रहा है उसकी सिद्धिके लिए कोई प्रमाणहिया नहीं। यातो स्तम पदां
प्रमाणसिद्ध होगा या असिद्ध । दोनों ही अवस्थाओं मे आप पकडे जाते है । |
यदि वहु ( सप्तम पदार्थं ) प्रमाणो से सिदध है तब उसका निषेध क्यों कर
रहे है? [ प्रमाणसे सिदध पदा्थंतो खदा स्वीकायं है, उसका निषेध नहीं हो
सकता । ] यदि प्रमाणो से उसकी सिद्धि नहींहोरहीदहो तब तो निषेव करना
ओर भी कठिन है। [ असिद्ध या असत् वस्तु का निषेध करने मे अपना समय
कौन मखं नष्ट करेगा ? |
न हि कचितरेकषावान्मूषिकविषाणं प्रतिपदं यतते । ततश्चा
लुपपत्तेन नियम इति चेत्- मैवं भाषिषठाः । सप्तमतया प्रमितेऽ-
न्धकारादौ भावत्वस्य, मावतया प्रमिते शक्तिसाद्यादो सक्नम-
त्वस्य च निषेधादिति कृतं विस्तरेण ।
कोई भी रेसा विचारशील व्यक्ति नहीं होगा जो चहे की सींग (असिद्ध वस्तु)
का निषेध करने मे अपने सारे पारिडत्य का खचं करे । | मूषिक-विषाण प्रत्यक्ष
प्रमाण से ही असिद्धहैदूसरोकी तो बात ही क्या? इसलिए असिद्ध वस्तु का
निषेध करना मूखंता नहीं तो ओर क्या है? ] इष प्रकार दोनो विकल्पों कौ
असिद्धि के कारण छह ही" पदार्थं होने का नियम आप न हीं लगा सकते ।
[ इस प्रहन् का उत्तर यह होगा-- ] एेसा नहीं कहना चाहिए \ यदि अप
लोग अन्धकार या किसी एेसी ही अभावात्मक चीज मे सप्तम पदार्थं की कल्पना
करते है तब तो हम अपने भावात्मक पदार्थोमेंइसेलेही नहीं सकते [ क्योकि
आवात्मक पदार्थं मे अन्धकार नहीं आ सकता, वह् निषेधात्मक है। ओर हम
केवल भावपदार्थो कोही स्वीकार कर रहै] । यदि दूसरी ओर आप लोग
आवके रूपमे सिद्ध शक्ति, साददय आदि को ही सप्तम पदाथं मानते हतो यह
सप्तम पदाथं नहीं, [वास्तव मे हमारे भावात्मक पदार्थो मेही उसकी सत्ता है ।|
अधिक विस्तार करना व्यथं है।
ओक््क्य-दशेनम् ०३
विरोष - पदार्थो की संख्या छह मानने का कारणवे यह बतलाते ह करि
भावात्मक पदाथं छह ही होगे । यदि किसी अभावात्मक वस्तु को सातवां पदार्थं
मानते हतो भावक्ता प्रतियोगी होने के कारण हमारी परिभाषा ( भावषूप
पदाथं } मे वह पदार्थं नहीं होगा, यदि किसी भावात्मङ वस्तु कोही सातां
पदाथं मानते है तब तो वह हमारे भावात्मक पदार्थो के वीच हो कहीं-न-कहीं
स्थान पा सकेगा । हमारा वर्गीकरण इतना ऽथापक ( € क्ष्पऽर€े } है कि
समौ भाव इसमे आ जा्येगे, फिर सप्तम पदां की आवदयकत। ही नहीं रहेगी ।
क्रिस प्रकार छह से अधिक माव-पदा्थं नहीं होगे ।
षडेव" ( छह ही ) कहने से न केवल सप्तम पदाथं का निषेध होताहै,न
केवल भाव का, प्रत्युत सत्तमत्व से विशिष्ठ भाव का निवेध होता है । दसरे शब्दों
मे यह केँ कि सातवाँ माव पदाथं ही नहीं है । केवल सत्तम पदाथं तो अन्धकार
अदिषहैही, परये भाव तो नहीं ह। अन्धकार का अथं है तेज का अभाव ।
शक्ति ओर.सादर्य यद्यपि माव है, पर ये केवल भावं है, सातवें नहीं है । छह में
ही इन्दं स्थान मिलता है। शक्तिके विषयमे लोग प्रन करते ह कि जब
हथेलौ पर दाहशक्ति को रोकने वाले मणि आदि पदार्थं रे रहते है तब अगति
का संयोग होने पर भी हाथ नहीं जलता । यदि खाली हाथ रहै तो जल जाय ।
इस नियम से लगताहै कि शक्ति भी कोई अतिरिक्त पदाथं हे । किन्तु एेसी बात
नहींहै। अग्निका दाह-कारण होना ही शाक्ति है ( अनेर्दाहं प्रति कारण
तेव शक्तिः ) । प्रतिवन्धक का अभाव तो सभी कार्यस कारण रहता है जिते
पार्चात्थ तकंशास्त्र मे ९०8४ ए€ (07४०) कहते हँ इसलिए अथि
मेही शक्ति है अतिरिक्त तो कुच नहीं । आधुनिक विज्ञान मे शक्तिको एक
पृथक् पदार्थं मानते है। सादृश्य भी भिन्न पदार्थ नहीं है इसका अथं है--
किसी पदार्थ॑से भिन्न रहने पर उसमें वतंमान धर्मो को धारण करना ( तद्भिन्नत्वे
सति तद्तधमंवच्वम् ) । वेशेषिक लोग भाव पदार्थो का विचार करते समय इन
वस्तुओं को कभी नहीं भूलते ।
(५. छह पदार्था के लक्षण--द्रन्यत्व ओर गुणत्व )
तत्र द्रवयादित्रितयस्य द्रव्यत्वादिजातिलंक्षणम् । द्रव्यत्वं
नाम गगनारविन्दसमवेतत्वे सति, नित्यत्वे सति, गन्धासमवेत-
त्वम् । गुणत्वं ॒नाम॒समवायिकारणासमवेतासमवायिकारण-
भिन्नसमवेतसत्तासक्षाद्व्याप्यजातिः ।
४०४ सबेदशेनसंगरदे-
उनमें द्रव्य आदि प्रथम तीन पदार्थो के लक्षणा ह द्रव्यत्व आदि के सामान्य
( जाति ) से युक्त होना । | द्रभ्य उते कहते है जो द्रव्यत्व-जाति का हो, गुण
गुणत्व-जाति का होता ह तथा कमं कमत्व-जाति का । इस प्रकार अपने-मपने
सामान्य के हारा ये लक्षित होते है । अब इनके सामान्यो के लक्षण पृथक् ¶ृथक्
नैयायिक -भाषा मे दिये जाये गे जिसमे प्रत्येक शब्द ओौर विशेषण साभिप्राय
रहेगा, उसके अभाव मे लक्षण के अशुद्ध हो जाने कौ संमावना है! |
द्रव्यत्व का लक्षण--जव आकाश्च के साथ तथा अरविन्द के साथ
अलग-अलग कोर पदार्थं समवेत हो, वह नित्य भीहो तथा गन्ध कै साथ समवेत
( नित्यरूप से सम्बद्ध, {लला ) न हो तो उसे ही दव्य-सामान्य
कहते है ।
[ अव इस लक्षण कौ व्याख्या करे । द्रव्य-सामान्य ( द्रव्यत्व ) से द्रव्य का
लक्षणा किया जाता है । इसलिए इस द्रव्य-सामान्य को समन्ञना अ1वदयक है ।
रव्य-सामान्य के लक्षणा म तीन दुकडे है--( १ ) गगन तथा अरविन्द के साथ
चमवेत होना, ( २) नित्य होना तथा ( 3 ) गन्ध के साथ समवेत न होना ।
गगनारविन्द को वेदान्तियो के समान आकाश का कमल 7 समञ्च । यहां इन्-
समास है। इन्द्र होने के कारण "समवेत" शण्ड का सबन्ध दोनो पदो के साथ
होगा । (इन््रादौ इनद्रमच्ये इनान्ते च श्रूयमाणं पदं प्रत्येकमभिसं बध्यते) । द्रव्य का
समवाय ( अपरिहायं, नित्य ) सबन्ध गगन-जैसे नित्य द्रव्य से तथा कमल जेसे
क्षणिक द्रव्य के साथ भी दहै, भले हौ सम्बन्व ।नल्य है! आकाश तो द्रव्य मे ह
ही, कमल की गणना पृथ्वी मे होती है । समूह का सम्बन्ध अपने प्रत्येक व्यक्ति
से रहता ही है । दूसरे, द्रव्य का सामान्य नित्य भी है क्योकि जाति या सामन्य
नित्य होता है। व्यक्ति के विनाश के बाद भी जाति को.सत्ता रहती है । अन्त
मे, यह द्रव्य-सामान्य गन्ध से अ-समवेतं रहता है क्योकि गन्ध गुण हि। द्रथ्यत्व
की वृत्ति गुणों मे नहीं होती, द्रव्यो मे ही होती है।
अब हम लक्षण के शब्दों की अनिवार्यता पर विचार करे । (१) यदि
लक्षणा से "गगन से समवेत रहना" यह विशेषण हटा द तो पृथिवी-जाति
( पृथिवीत्व ) का भौ लक्षण बन जायगा, केवल द्रव्यत्व का लक्षण नहीं
रहेगा । दूसरे शब्दो मे, पृथिवीत्व मे इस लक्षण करी अतिव्याति हो जायगी ।
पृथिवो-सामान्य अरविन्द से खमवेत होता है तथा नित्य भौ होता है ( सामान्य
होने के कारण )। पुनः गन्ध का समानाधिकरण ( प्रथिवी-सामान्य ) गन्धे मे
होगा ही नहीं जिससे यह् गन्धासमवेत भी है। पृथिवी-सामान्य गमत से समवेत
नहीं होता ( जो हमने हदा ही दिया है), केवल पृथिवी मे पृथिवीत्व कौ वृत्ति
0 44
र ॑ ०४
रहती है । इसलिए 'पृथिवीत्व' का ही लक्षण हो गया 1 (२) यदि लक्षण से
“अरविन्द से समवेत रहना हटा दे तो यह गगन मे वतमान एकत्व-संख्या
का भी लक्षण हो जायगा । एकत्व-संख्या गगन से समवेत रहती है, नित्य भी
हि । एकत्व-संख्या नित्य द्रव्य में रहने पर नित्य है, अनित्य मे रहने पर अनित्य
होती है-- यहां आकाकशगत है इसलिए नित्य है । गन्ध से इसे कु लेना-देना है
ही नहीं क्योकि एक गुण में दुसरा गण आ नहीं सकता । अरविन्द से भी यह
समवेत नहीं होती । अरविन्दमें भो एकत्व है पर वहु एकत्व आकाश के
एकत्व की अपेक्षा भिन्न है । इस प्रकार एेसी स्थिति मे एकत्व-संख्या का लक्षण
हो गया । ( ३ ) यदि लक्षणा से “नित्य होने पर' यह विशेषण निकाल देतो
गगन ओर अरविन्द दोनों मे विद्यमान द्वित्वसंख्या क्रा भी लक्षण बन जायगा ।
द्वित्व-संख्या गगन ओर अरविन्द दोनों मे समवेतं है, गुण होने के कारण दूसरे
गुण गन्धे से इसका सम्बन्ध ही नहीं । हाँ, यह् नित्य नहीं है। द्वित्व आदि
संख्याएं सर्वत्र अपेक्षा-बुद्धि से उत्पन्न होती है इसलिए अनित्य है। ( इसके
विचार के लिए जागे देखं । ) निदान, यह लक्षण द्वित्व-संख्या का हो गया ।
( ४) अन्तमें यदि लक्षण से “गन्धसरे समवेत न रहना यह विशेषण
निकाल द तो यह द्भ्य, गुण ओर कमं तीनों मे अधिष्ठित सत्ता का भी लक्षण
हो जायगा । सत्ता गगन भौर अरविन्दमेतोहै[ही, नित्यमीहै। लेकिन यह्
गुणो मे भी है, अतः गन्ध से असमवेत नहीं हो सकती । लक्षण से वह पद
निकल जाने पर इसकी प्राप्निहो ही जायगी ।
लक्षण एेसाहोजो लक्ष्यसेन तो अधिक कोव्याप्त करे, न कम को।
अधिक को व्याप्त करने पर अतिव्या्नि-दोष ( 100-106€ पणक्छ )
होता है, कम को व्याप्त करने पर अब्याप्ति-दोष ( 28114 9 100
18110 0९0४) ) होता है । उपयुक्त पदों को निकाल देने से लक्षण
सदेव अपने लक्ष्य से अधिक को समेट लेता है- द्रव्यत्व के साथ-षाय कभी तो
पृथिवीत्व का, कभी एकत्व का, कभी द्वित्व का भौर कभी सत्ता का भो लक्षण
यह् बन जाता है, अर्थात् मत्िव्याति-दोष हो जाता है। इससे बचने कै लिए
प्रत्येक पद रखना अनिवायं है । ]
गुणत्व का लक्षण--गुण-सामान्य उस जाति को कहते ह जो [ द्रव्य,
गुण, कमं में अधिष्ठित | सत्ताके द्वारा सीषेही व्याप्त हौ सके, समवायि-कारण
( द्रव्य ) से समवेत नहीं रहे तथा असमवायि-कारणा से भिन्न किसी भी पदां
( जेसे--आत्मा के गुण ) से समवेत हो ।
| गुणत्व के लक्षण मे भौ तीन विशेषण है-( १) एसी जति जो
समवायि-कारण से समवेत न हो, (२) जो असमवायि-कारण से भिन्न किसी
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०६ सबेदशनसंग्रदे-
पदार्थं से समवेत हो तथा (३) जो सत्ता के द्वारा सीषे( साक्षात्, परपरासे
नहीं ) व्याप्त हो सके । समवायि-कारण उसे कहते है जिसके समवेत होने
या मिलने पर कायं उत्पन्न होता है, जेसे--पट के लिए तन्तु, घट के लिए मिह
आदि । सभवायि-कारण कोई द्रव्य ही होता है। द्रव्य में गुणत्व नहीं रहता,
वहू किसी गण में ही रह सकता है अर्थात् गुणत्व द्रव्य से समवेत नहीं होता
ह : अखमवायि-कारण उसे कहते हैँ जो कायं या कारण के साथ किसी वस्तु
के मिलजानि षर कारणके ल्पमें अवे, जैसे-षपटमें तन्तुओं के मिलने
( समवेत होने ) पर उन तन्तुओं का संयोग पटरूपी कायं के लिए कारणा है ।ॐ
असमवायि-कारण से भिन्न आत्माके विशेष गण होते है क्योकि आत्माके
गुणा कभी भी असमवाधि-कारण नहीं हो सकते । इन गुणो से गुणत्व समवेत
रहता है । सत्ता तीन पदार्थो में है-दरव्य, गण, कमं । इसके द्वारा साक्षात्
तीन जातियों को व्याप्त क्रिया जा सकता है--द्रव्यत्व, गुणत्व, क्त्व ।
पृथिवीत्वं आदि द्रव्यट्व के दारा सीषे व्याप्त होते है, सत्ता के द्वारा परपरासे)
सत्ता पहले द्रव्यत्व को व्याप्त करती है, फिर द्रव्यत्व पृथिवीत्व को व्यापत् करता
है । इसीको "रपरया व्याप्तिः" कहते है । इसीलिए गुण-सामान्य सत्ता के दारा
सानात् व्याप्य है । ओौर भी पदां -- द्रव्यत्व, कमंत्व - सत्ता से व्याप्त होतेह
पर अन्य विशेषण गुण-सामान्य को उनसे पृथक् कर देते है । लक्षण मे दो चीजं
दी जाती ह- एक तो सामान्य-धमं ( ९108 ), दरूषरा विशेष-धमं ( 1216 -
7९708) 1 तीसरा विशेषण सामान्य-वमं है, प्रथम दोनों विशेषणा विहशेष-धमं हँ ।
अब विशेषणो कौ उपयोगिता पर दृष्टिपात करें । ऊपर हम देख चुके हैँ
कि इस लक्षण मे जो सामान्य-धमं है वह गुणत्व, द्रव्यत्व ओर कर्मत्व तीनो
के लिए समान है। यह तो इसका विशेष-धमं है जो उन दोनों से गुणत्व को
पृथक् करता है । इसलिए यदि विशेष धर्मो में से कोई हटता है तो लक्षण द्रन्यत्व
या कर्मस्व कोव्याप्त करलेगा।( १) यदि लक्षणसे हम यह विशेषण हटा द
किं “वह ( गुणसामान्य ) समवायि-कारण अर्थात् द्रव्य से असमवेत रहता है,
तो यह लक्षण द्रव्यत्व को अतिव्याप्त करलेगा। द्रव्य का सामान्य सत्ता के
दारा साक्षात् खूप से व्याप्य होता है तथा असमवायि-कारण से भिन्न द्रव्य मे
समवेत भी होता है । द्रव्य कभी भी असमवायि-कारण नहीं हो सकता इसलिए
रव्य मे समवेत होने के कारण द्रव्यत्व असमवायिकारणर्भिन्न-समवेत) हैही।
हाँ, यह समवायिकारणा ( द्रव्य ) से असमवेत नहीं हौ सकता क्योकि द्रव्यत्व
=
* इनके अतिरिक्त, इन दोनों से भिन्न निमित्त-कारण ( गलला६
(28088 } भी होता है जैसे- पट-कायं के लिए जुलाहा, करघा, डंडा आदि ।
ओद्क्य-दशेनम् ४०७
द्रव्य ( समवापि-कारण ) में अवस्थित रहत। है इस प्रकार यदि पहला विशेषण
उक्त लक्षण से हटा दे तो यह द्रव्यत्व का भो लक्षण बन जायगा \ (२) यदि
उक्त लक्षण से यह विशेषण हटा दे कि "यह ( गृण-सामान्य ) असमवायिकारण
से भिन्न ( आत्मा के विशेष-गुण जेसे--ज्ञान, बुद्धि ) वस्तुजों से समवेत होता
है, तो यह् .कम॑त्व को अतिव्याप्त ( 1९}०१९ ) कर लेगा । कमं का सामान्य
सत्ताके हारा तो साक्षाद् व्याप्त होता ही है, समवायि-कारण (द्रव्य) से असमवेत
भी रहता है । कमं ओर द्रव्य में समवाय-संबेध तो है नहीं । केवल एक बात है
कि कर्मत्व असमवायि-कारण से भिन्न वस्तु से समवेत नहीं रहता । सभी कमं
असमवायि-कारण है क्योकि उनका संबन्ध संयोग या विभागसे अनिवाय॑तः
होता है असमवायि-कारण से भिन्न वस्तुमें कमंकी कल्पनाही असंभव दहै,
( ३ ) अब यदि अंतिम विशेषण कि यह सत्ताके द्वारा साक्षात् रूपमे व्याप्य
होता है", हटा द, तो ज्ञानत्व आदिमेंही अत्िव्याति हो जायगी । ज्ञानत्व
की वृत्ति ज्ञान में रहती है, समवायि-कारणा ( द्रव्य ) में नहीं। इसलिए ज्ञानत्व
समवायि-कारणसे असमवेत है। यह असमवायि-कारणसे भिन्न वस्तु में
समवेत भी है क्योकि ज्ञान आदि आत्मा के विशेष गुण ह, ये असमवायि-कारण
नहों हो सकते--असमवायि-कारण से भिन्न स्थानम, नजेसे-ज्ञान में इनकी वृत्ति
होती है। किन्तु इस ज्ञान को सत्ता साक्षात् रूपसे व्याप्त नहीं करती । गुण के
दारा ज्ञान सोधे व्याप्त होता है, सत्ताके द्वारा परम्परासे। इसप्रकार गुणत्व
का शुद्ध लक्षण यदि चाहते है, कोई पद हटा नहीं सकते । |*
६ ( ५ क. कर्मत्व, सामान्य, विदो ओर समवाय )
कमत्वं नाम नित्यासमवेतत्वसदहितसत्तासाक्षाद्व्याप्य-
जातिः । सामान्यं तु प्रध्वंसप्रतियोगित्वरदहितमनेकसमवेतम् ।
विशेषो नामान्योन्याभावविरोधिसामान्यरहितः समवेतः । सम-
वायस्तु समवायरहितः संबन्धः इति षण्णां लक्षणानि व्यव-
स्थितानि )
। >
गुणत्व के लक्षणा मे एक दूसरा पाठ भी है- समवएयिकारणासमवा-
यिकारणमिन्नसमवेतसत्तासाक्लाद्ब्याप्यजातिः अर्थात् गुणत्व वह है
जो सत्ताके द्वारा साक्षाद् व्याप्य हो, समवायि.कारण या असमवायि-करणसे
भिन्न पदार्थो से समवेत हो । द्रव्य समवायि-कारण है, उससे गण भिन्न है,
संयोग विभाग असमवायि-कारणा है, गण उनसे भी भिन्न है। दोनों पाठ एक
ही अथं पर आतिदह।
-4-1~1 सबेदशेनसंग्रहे-
कर्म कौ जाति वह है जो नित्य पदार्थो मेँ समवाय-सम्बन्व के साथ
विद्यमान न हो तथा सत्ता के द्वारा सीषे-सीषे व्याप्त होती हो । [ यह स्मरणीय
है कि द्रव्यत्व या गुणत्व नित्य पदार्थो में समवेत होते है द्रभ्यत्व जाति
रमाण, आकाश आदि नित्य पदार्थो मे समवेत होती है ; गुणत्व-जाति भो
जलादि परमाणुओं मे स्थित रूप आदि गुणो मे तथा परमातमा मे स्थित ज्ञानादि
गुणो मं रहती है । ये गण नित्य है तथा इनमें गुण की जाति समवाय-संबघ से
रहती है । द्रव्यत्व ओौर गुणत्व नित्य षदार्थो मे समवेत है, असमवेत नहीं
ह- इसीलिए उन दोनों से पार्थक्य प्रदरित करने के लिए कम॑त्व को नित्यसे
असमवेत कहा गया है । समी कर्मं अनित्य होते ह । इसीलिए नित्य से उसको
जाति को कभी कोई मतलब ही नहीं रहता । ऊपर कंह चकै है कि सत्ताद्रव्य
गुण, कमं तीनों मे रहती है। इसलिए सत्ता के हारा सीधा सम्बन्ध कर्मत्व का
ह । कमं के मेदो--आक्ुंचन, प्रसारण आदि-- को सत्ता परम्परा से व्याप्त करती
ह, पहले कर्मत्व को व्याप्त करती है, तब भेदो को । |
सामान्य--( 6९181; ) उसे कते है जो प्रध्वंस ( विनाश्च) का
प्रतियोगी ( अर्थात् विनाशी 1{2€8प्८प्ल्णि€ ) न हो तथा अनेक पदार्थोमे
समवेत ( {70116160 ) हो । | नाग का प्रतियोगी ( साथ देनेवाला, सामने
पड़ने वाला ) विनाशी पदाथं होता ह, इसलिए प्रध्वंस का प्रतियोगी = विनाशी,
ध्वंस .श्रतियोगित्व = विनाशित्व, उससे रहित = अविना्ी । तात्पयं यह है कि
सामान्य का विनाश नहीं होता । जिस वस्तु कौ जाति मानी जाती है उसके
वदार्थो के नष्ट होन पर भ जाति यथापूव स्थित रहती है--उसका विनाश
नहीं होता । भारतीयों के मरने पर भो भारतीयता ज्योकी त्यों रहती है, धट
के नष्ट होने पर भौ घटत्व रहता है । दूसरे, जाति या सामान्य कौ स्थिति
समवाय-सम्बन्ध से अनेक पदार्थो में रहती है, एक ही पदां मे नहीं । केवल
अविनाशी होने सेतो दिक्, काल आदि मे भी अतिव्यापि हो जायगी । इनं
व्यावृत्त ( 1४८1५९९ ) करने के लिए ही “अनेक-समवेत' विशेषण लगाया गया
ह । दिक्, काल अनेक पदार्थो में नहीं रहते जब किं घटत्व एक ही साथ संसार
के सारे घटोमेंदहै।।
विद्नोष- ( 12५7४८०1; ) वह है जो समवाय-सम्बन् से अवस्थित
हो तथा जो अन्योन्याभाव का विरोध करनेवाले सामान्य से रहित हो।
[ अन्योन्याभाव उस अभाव को कहते है जब एक दूसरे मे एक दूसरे का
अभाव होताटहै, घट ओर पट का वारस्परिक मेद अन्योन्याभाव है । परमाणुओं
ने जो आपस मेँ मेद है वह मी अन्योन्याभाव दै। इस भेद को समज्लते के लिए
ओद्क्यन्दशेनम् ४०६
विष की आावदयकता है । अन्योन्याभाव का विरोध करने वाले सामान्य इसमें
नहीं रहते । सामान्य से रहित होने से द्रव्य गुण र कमं से इसका पार्थक्य
प्रकट होता है । अन्योन्याभाव का विरोधी कहने से सामान्य से व्यावृत्ति होती
ह । सामान्य का सामान्य नहीं होता, यहं सर्वविदित है। किन्तु यह ध्यातव्य
है कि सामान्य मे सामान्य का अमाव इसलिप् मानते टँ कि अनवस्था
दोष न प्रात्त हो जाय, इसलिए नहीं कि वह अन्योन्यामाव का विरोध
करेगा । विजञेषो मे एक दूसरे के साथ अन्योन्याभाव रहता है, कोई विशेष समान
नहँ होता कि एक जाति में उन्हे रलं । प्रत्येक विशेष विज्ञेष है (1९1) प
; 8817 ) । यदि विशेषो की जाति होने लगे तो विशेषता उनसे चिन जायगी,
समानता होने लगेगी । सामान्य ओर विष में सम्बन्ध कंसा? सभी विशेष
अन्योन्याभाव की प्रतीति करति है । इसमे सामान्य लेने से उरके इस स्वभाव
की हानि होगी । इसलिए विषो मे सामान्य का अभाव इसी से सिद्ध होता है
कि इनमे सामान्य मानने से अन्योन्याभाव क्री रतीति नदीं होगी ।
यही कारणा टहै कि विशेष अन्योन्याभाव का विरोध होने के कारण सामान्य से
रहित होता है । विरेष को समवेत मानने से इसका पार्थक्य समवाय-नामक
पदार्थं से स्पष्ट होता है। समवाय मे दूसरा समवाय नहीं होता जिससे वह समः
वेत भी नहीं हो सकता । |#
समवाय से रहित सम्बन्ध को समवाय ( [णला.€ा९९ ) कहते है, इष
प्रकार छो पदार्थो के लक्षण पृथक्-पृथन् कटे गये । [ जिस सम्बन्ध का समवाय
नहीं हो वही समवाय है । इसके हारा संयोग-सम्बन्ध का विभेद क्रिया जाता
हे । संयोग गुण ह, संयोगी पदार्थो में वह समवाय -सम्बन्ध से अवस्थित हौ सकता
है । वास्तव में समवाय वहु है जब दो वदार्थो में नित्य सम्बन्ध हो, जेसे पृथिवी
ओर गन्ध में समवाय दै । अब इस समवाय मे कोई दूसरा समवाय नहीं होणा 1
दूसरी ओर दो वस्तुओं में संयोग ( थोड़ी देरके लिए ) सम्बन्ध हज है ।
संयोग ओर उन वस्तुओं के बोच समवाय हो सकता है। अब मागे नहीं बदु
सर्केने कि फिर समवाय का समवाय होगा । |
त
* जिन वस्तुओं मे अवयव होते दै उनके व्यक्तियों ( {णतीणतपरष18 )
को अवयवो का अन्तर देखकर पहचाना जा सक्ता है। किन्तु एेसे भी पदार्थं
ह जिनके अवयव नही है जेसे- आकार, काल, दिक्, परमाणु ( पृथिवी, जल
आदि के), जीव आदि। इनके व्यक्तियों को जानने के लिए ही विशेष की
अ।वर्यकता पड़ती है । विशेष का विवेचन वैशेषिको का अपूव प्रयास है जिससे
दन कानामहीष्ड़ाहै।
(स
( ६. द्भ्य के भेद् ओर उनके लक्षण )
द्रव्यं नवविधं परथिव्यप्तेजोवास्वाकाशश्चकालदिगात्ममनांसि
[ष [ऋ ^ ©
इति । तत्र पृथिव्यादि चतुष्टयस्य परथिवीत्वादिजातिलक्षणम् ।
पृथिवीत्वं नाम॒ पाकजरूपसमानाधिकरणद्रव्यत्वसाक्षाद्-
व्याप्यजातिः । अप्त्वं नाम सरित्सागरसमवेतत्वे सति ज्वलना-
सभवेतं सामान्यम् ।
द्रव्य नौ प्रकार का है- पृथिवी, अप् ( जल), तेजस् (अग्नि), वायु,
आकाश, काल, दिक्, आत्मन् ओौर मनस् । उनमें पृथिवी आदि प्रथम चार
द्रव्यो के लक्षण हँ पृथिवीत्व आदि की जाति । [ पृथिवी का लक्षण पृथिवीत्व
की जाति, अप् का लक्षण अप्त्व-जाति, तेजस् का लक्षण है.तेजस्त्व-जाति, वायु
का लक्षण वायुत्व-जाति । जिस प्रकार द्रव्य, गण, कमं के लक्षणों में उनके
सामान्यो का उल्लेख होता है उसी प्रकार इन द्रभ्यों के लक्षणमें भी इनके
सामन्यके द्वारा ही इन्दं लक्षित ( [)96 ) किया जातादहै) अब इनके
सामान्यो के लक्षण दिये जातेरहँ। यह द्रविड-प्राणायाम न्याय-वेशेविकों की
विशेषता है। किसी बात को सीषे कहने मे नानाप्रकार की आपत्तियाँ होती
है, इसलिए तौल-तौल कर एक एक शब्द पर ध्यान रखते हए वे लक्षणा देते है ।
इसके लिए चाहे जितना पयंटन करना पडे । ]
पृथिवी-सामान्य का लक्षण-जो पाक ( अग्नि-संयोग ) से उत्पन्न रूप
के समानाधिकरण ( 1५46116५] ) हो तथा द्रव्य-सामान्य के द्वारा सीषे व्याप्त
हो सके, उसी जाति को पृथिवी-जाति कहते है। [ पाक = तेज का संयोग ।
इसोसे पृथिवीमे रूपादि गणोंका परावतंन ( ‰€ील्<्०प ) होता है ।
जिस प्रकार पके हुए आम के फल में पीत-ख्प आदि परावृत्त होते है उसी
प्रकार पृथिवीमें भीरउक्त क्रिया होतीदहै। यहु बात जलादि द्रव्यं में नहीं
पायी जाती । जलमें अग्तिसंयोग होने पर भले ही उष्ण-स्पक्ं का अनुभव
होता है किन्तु जलम स्वतः विद्यमान शीत-स्प्चका परावतंन नहींह्'ता।
जल में प्रविष्टहोने वाले अग्नि-कणोंके साथ-साथ दही उष्णता स्थित है, जल
के साथ नहीं । उष्णता कौ प्रतीति होनेके समय भी जल वास्तवमे शीदल
हीदहै। उस समय शीतस्पर्चंका भाननहीं होरहादहै, यह दूसरी बात है।
उक्त लक्षण मे 'पाकज-रूप-समानाधिकरणः' यह् विशेषणा लगाने से जलत्वं आदि
मे अतिव्याति नहीं होती । यहाँ यह् स्मरणोयदहै करि जिस जाति का लक्षण
ओददय-दशनम् ४११
करन्ए अभीष्ट हो उससे भिन्न सभो जातियों को पृथक् कर देना चाहिए । ये
पृथक् करने योग्य जातिया दो प्रकारकी हो सकतीरहै--या तो लक्ष्य ( 1)6-
7०९0 ) जाति के समानाधिकरण हो या उससे व्यधिकरण हो । सजातीय-
विजातीय पदार्थो से पृथक् करके लक्ष्य को लक्षित करना ही लक्षण का काम
` है। समानाधिकरण जातिया भीदोप्रकारकी होती है--कुछटेसी है जो लक्ष्य
की जातिके द्वारा व्याप्त होती हैँ भौर कुठ उन्हँही व्याप्त करती है । अस्तु, यहां
"पाकजरूप-समानाधिकरण्' के पृथिवीत्व से व्यधिकरण मे पड़ने वाली जलत्व
आदि सारी जातियों की व्यावृत्ति होतीदहै। जोदो प्रकार की ( व्याप्य +
व्यापक ) समानाधिकरण जातियाँ ह उनकी व्यावृत्ति ( {षवुप01) ) ्रव्यत्व
के द्वारा सीघे व्याप्य' इस विशेषण से होती दहै। पृथिवीत्वं को व्याप्त करने
वाली जातिाँ ह- द्रव्यत्व ( जो सीधे व्याप्त करती है ) ओर सत्ता ( जो परम्परा
सेव्याप्तकरतीदहै)। येदोनोंही द्रव्यत्व के द्वारा व्याप्त नहीं होतीं वयोकि
व्याप्त करने के लिए अधिकक्षेत्र होना चाहिए । दूसरी ओर, पृथिवीत्वके द्वारा
व्याप्त होने वाली घटत्व आदि जातियां ह जौ द्रव्यत्व के द्वारा व्यापन होत्तीतो
ह १२ सीघे नहीं । द्रव्यत्व पहले पृथि वीत्व को व्याप्त करता है फिर घटत्व को ।
इस प्रकार लक्षणा के पद अन्य जातियों को व्यावृत्त करते हैँ । |
अप्-सामान्य का लक्षण -जलत्व एसा सामान्य है जो सरिताओं ओौर
सागरो मे समवेत हो किन्तु ज्वलन से समवेत न हो । [ सरिताओं ओर सागरो
के साथ जलका समवाय-सम्बन्ध होतादहै। इस विशेषण का प्रयोग होने से
उन जातियों की व्यावृत्ति होतो है जो जलत्व से व्यधिकरण में ह जेसे पृथिवीत्व
आदि । इपके साथ सरिताओं-सागरोंका संयोग मभलेहीहो समवाय नहींहो
सकता । इसी विशेषणा से उन जातियों की भी व्यावृत्ति { निरास €द्टोपञश०) )}
होती है जो जलत्वके हारा व्याप्त हो सकती है जसे सरिच्व, सागरत्व आदि ।
सरित् से सरिच्व भले ही सतवेत हो क्योकि वह॒ उसकी जाति है किन्तु सागरत्व
तो नहीं होगा । उसी प्रकार सागर से सरिर्व समवेत नहीं हो सकता । जलत्व-
जाति सरित्-सागर दोनों से एक ही साथ समवेत है जबकि सरिच्व ओर सागरत्व
की जातियां सरित् भौर सागर से क्रमशः ( 168[€०#४९]फ़ ) समवेत होती
हि। यहीकारणदैकि इस विशेषण से उनको व्यावृत्ति होजातीदहै। यही
नहीं, कूपत्व-तडागत्व आदि जातियों के लिए तोकिसीमे चारा नहीं न सरित्
मे, न सागर में । अब बचींवे जातिं जो जलत्व को ही व्याप्त करती जेसे
द्रव्यत्व ओर सत्ता । जिस समय “ज्वलन से समवेत न होना" कहते है, उसी समय
इनकी व्यावृत्ति हो जाती है, द्रव्यत्व भी ज्वलन से समवेत होता है, सत्ता भी
ज्वलन से समवेत है वयोकि सत्ता या द्रव्यत्व मे तेज या ज्वलन आता है
४१२ सर्वदशेनसंम्रदे-
तो परम्परया घा सीषे वह उक्त दोनों से मौ समवेत ही है । जलत्व मे ज्वल
नहीं होता, होता है तौ समवायल्प मे नहीं । अग्निकणो का प्रवेक ओर
निस्सरण क्षणिक है । |*
तेजस्त्वं नाम चन्द्रचामीकरसमवेतत्वे सति सलिलासमवेतं
सामान्यम् । वायुतवं नाम त्वगिद्दियस्षमवेतद्रव्यत्वसाक्षाद्-
व्याप्यजातिः ।
आकादकालदिकचामकेकत्वादपरजात्य भवि पारिभाषिक्य-
स्तिखः संज्ञा भवन्ति । आकारं कालो दिगिति ।
नेजस्त्व-रेसा सामान्य है जो चनद ओर स्वं ( चामीकर ) के साथ
समवेत हो किन्तु जल से समवेत न हो । [ उपयुक्तं जलत्व की तरह इसकी भौ
व्याख्या होगी । तेजस्त्व गौर चन्द्र-चामीकर मे समवायसम्बन्ध होता ह, इस
विशेषणा के द्वारा तेजस्त्व से व्यधिकरण मे स्थित पृथिवीत्व, जलत्व आदि
जातियों का निरास होता है । पृथिवी से चन्या स्वणं का संयोग-सम्बन्ध हो
जाय ( यदि इनमें गन्ध का प्रवेशहो) तो हो जाय पर समवाय-सम्बन्ध संभव
नहीं । पनः, तेजस्तव के द्वारा व्यात होने वाली चन्द्रह्व, स्वर्त्व आदि जातियों
कराभी निरसन इसीसे होता है क्योकि चन्द्र चन्त से समवेत हो सकता
है, स्वत्व से नहीं । स्वणं भौ स्वरणात्व से समवेत हो सकता है, चनद्रत्व से
नहीं । दीपक बेचारा किसी से स मवेत नहीं होगा । किन्तु तेजस् दोनों से एक ही
लाथ समवेत रहता है । तेजस्त्व जल से खमवेत नहीं होता, इस विशेषण क
दारा तेजस्तव को ही व्याप्त करनेवाली जातियो--जैसे सत्ता, द्रव्यत्व कौ
व्यावृत्ति होती है । ये दोनों जातिया परम्परया या सीषेही सलिल के साथ
समवाय संबंध रखती ह । तेजस्त्व ( ज्वलनत्व ) का अस्थायी रूप मे जलसे
संव होता है समवाय नहीं । |
,वायुत्व--रेषी जाति दै जो त्वचा करो इन्द्रिय ( स्पचन्द्िय ) से समवेत हौ
तथा द्यत के द्वारा सीव व्यान हो सके । | भयु -------- के द्वारा सीवे व्याप्त हो सके । | वायु के साथ स्पर्ेन्द्रिय संब है ।
+ यह ध्येय है कि वैशेषिको की ये सारी वरिभाषाये निषेधात्मक है -- दुरो
क व्यावृत्ति ह मुख्य ध्येय है, स्वरूप का प्रकाशन नहीं । दूसरे शब्दों मे ये एेसा
भवन बनाते ह जिसमें प्रतिरक्षा पर ही विशेष ध्यान रहता ह, निवास की सुख-
सुविधाओं पर नहीं । भय जोन क राये । कोई चढ़ाई करदेतो? उष समन
सारी सुविधायं व्यर्थं हो जायगी ।
[कः ; इ <स ~~ क
एक~ --
न्नव
= +
व ~
ओद्छ्क्य-दशेनम् ४१३
वायुके कारण ही स्पद्यंका अनुभव होतादहै। द्रव्यत्वमें वायुभी आतादै
इसलिए साक्षादुव्यापत होता है । ]
आकाश, काल ओर दिक्-ये तीनों अकेले-अकेले है । इसलिए इनके ऊपर
कोई जाति नहीं । यही कारण हैक्रि पारिभाषिक संज्ञायेये तीनों स्वयं है
आकाश, काल ओर दिक् । [उपयुक्त द्रभ्यों मे पारिभाषिक संज्ञाय उनकी जातियां
थीं जेसे-- परथिवी का पृथिवीत्व, जल का जलत्व । परन्तु यहाँ सीषे आकाश का
ही लक्षण होगा--आकाशत्व का नहीं । अकाश एक होता है) जाति तभी
होती है जब अनेकता हो । अनेक गौ होने पर ही गोत्व का प्रयोग होता है ।
सामान्य ( समानता, जाति ) के लिए न्यूनतमदो व्यक्ति रहने ही चाहिए
अन्यथा समानता किसमे ? |
संयोगाजन्यजन्यविशेषगुणसमानाधिकरण विशेषाधिकरणमा-
काञ्चम् । विथुखे सति दिगसमवेत परत्वासमबायिकारणाधिकरणः
कालः । अकारतवे सति अविशेषगुणा महती दिक् ।
आकारा का लक्षण- संयोग से उत्पन्न न होने वाले ( संयोगाजन्य )
तथा अनित्य ( जन्य ) [ आकाश के | विशिष्ट गण कै साथ जो विशेष समाना-
धिकरण ( समान ) हो उसी विशेषका आधार आकादाहै। [ऊपर देव
चुके है कि विदोष नामक पदां केवल नित्य द्रभ्यों के साथ अवस्थित रहता
है । आकाश भी नित्यहै, इसीलिए इसमें कोई विशेष अवश्य ही होगा । दृसरे
शब्दो मे, भाकाश विशेष का आधार या अधिकरण है । आकाशम एकर विशिष्ठ
गरुण ( 96०० वप्रा ) है चब्द। इस राब्दके साथ ही आकाश में
अवस्थित विरेष समानाधिकरण दहै। कारण यहटहै कि शब्दका आधारमभी
आकाश है, उस विशेष का भी आधार आकाशदहै। आधार या अधिकरण की
समानता के कारण दोनों समानाधिकरण हैँ । इस लक्षण मे उस विशिष्ठ गुण
( शब्द ) के दो विशेषण है संयोगाजन्य तथा जन्य । शब्द जन्य अर्थात्
अनित्य है, उत्पन्न क्रिया जाता ह इसलिए अनित्य है । यह ध्येय है करि मीमांसक
ओर वैयाकरण लोग शब्द को नित्य मानते है, जव कि नैयायिक भौर
वैशेषिक उसे अनित्य स्वीकार करते ह, संयोग से उत्पन्न न होना भी शब्द
काधमंहै । वेरेषिकोंके यहां विभाग से उत्पन्न तथा शब्द से उत्पन्न शब्द
की सत्ता मानी जाती है।
अब हम लक्षण के ताकरिक पक्ष पर चलं। “विशेषाधिक्ररणः कहने से
दयणुक, त्यणुक आदि, गुरा, कमं आदि तथा सभी अनिहय द्रव्यो की ग्यावृत्ति
होती है । विशेष केवल नित्य पदाथ मं ही रह सकते हँ । विशेष गुण को संषोग
४१४ स्वदशनसंम्रहे-
से अजन्थ तथा जन्य ( अनित्य ) भी होना चाहिए । देखिए, पृथ्वी के परमाणुओं
मे स्थित रूपादि गुण यद्यपि जन्य ( उत्पन्न होने के कारण अनित्य ) है किन्तु
संयोग से उत्पन्नन होते हों, एेसी बात नहीं है। ये विशेष गुण पाकज अर्थात्
तेज के संयोग से उत्पन्न होते है। जल, तेज ओर वायुके परमाणुओंपरे जो
विशेष गुण हवे जन्य ही नहीं है, प्रत्युत नित्य है । दिक्, काल ओर मनमें
कोई विकशेष गुणा है ही नहीं । परमात्मा मे अवस्थित जो बुद्धि आदि विशेष गुण
हवे नित्य, जन्य नहीं । जीवातमा के बुद्धि आदि गण जन्य है पर संयोगा-
जन्य नहीं क्योकि वे मन के संयोग से उत्पन्न होति है ( तो संयोगजन्य ही हृए,
संयोगाजन्य नहीं ) । तो, सभी दशाओं मे आकाश ही एसा बचता है जो संयोगा-
जन्य तथा जन्य विशेष गुण को धारण करता है तथा उस गुण के समाना-
धिकरण विशेष का भी आधार है।
इस लक्षण मे कहना केवल इतना ही था क्रि शब्द जिसका गुणा हो वही
ञाकाश है। इतना घटाटोष वैचित्र्य का प्रद्ष॑न करने के लिएही हमा है। हाँ
यह कहु सकते है कि विशेष का आधार होने पर किन-किन में परस्पर साधम्यं
होगा या विशेष गुण के समनाधिकरण विश्चेष का आधार होने पर किनमें
साधम्यं होगा-इस प्रकारके ज्ञान की आवश्यकता तब पड़ती है जब इसी
लक्षण के अनुमान में हम व्यापि के उदाहरण दिखलाने लगते है । आकाश
का लक्षण वास्नव में संमृष्ट ( (70711५९९ ) हो गया है । ]
काल का लक्षण-काल वह द्रव्य है जो व्यापकं (विभुं [06९४8१९ )
हो तथा दिक् (8188 ) से असमवेत परत्व के असमवायि-कारण का
अधिकरण हो । [ परत्व ( 1218087९ ) दो प्रकार का होता है--स्थानगत
अर्थात् समीप की वस्तु की अपेक्षा दूरस्थ वस्तु मे विद्यमान परत्व ( 9[8४१६।
0188716€ ) तथा कालगत अर्थात् छोटी अवस्थावाले पदाथ कौ अपेक्षा बड़ी
अवस्था वाले पदार्थमें विद्यमान परत्व (17600018) 0१8४९7९6) । स्थानगतं
परस्व का असमवायि-कारण होता है दिक् ( स्थान ) ओौर वस्तु का संयोग ।
इसमें दिक समवेत रहता है ओर काल असमवेत, क्योकि संयोग दो ही पदार्थो का
हो सकता है । कालगत परत्व का असमवायी कारण है काल ओर वस्तुका
संयोग । इसमें दिक् असमवेत रहता है, काल समवेत । काल इसी का आधार
है अर्थात् कालमेही काल-वस्तु-संयोग होता है। "विश्रु का प्रयोग करने से
ज्येष्ठ मे अतिव्याप्ति नहीं होती । संयोग दक्रि दो वस्तुओं का होता है इसलिए
काल ओौर ज्येष्ठ वस्तु दोनों मे उसकी सत्ता रह सकती है । अन्तर यही है कि
काल विभु होता है, ज्येष्ठ वस्तु विभु नहीं हो तकती । (रत्व का प्रयोग करने
[का चक
ओच्छक्य-दशेन १५
से आकाश्च ओर आत्मा मे अतिभ्यातनि सुकृती है क्योकि आकाश या आत्मा परत्व
का असमवायौी कारण नहींहो सकती । "दिक् से असमवेत" कहने से दिशा मे
अतिव्याप्ति सकती है । |
दिक् का लक्षण _-जोक्ालन हो, किसौ विशेष गुणसे रहित हो तथा
महती ( विभु, व्यापक ) हो वही दिक्दहै। [ काल मे अतिष्याति रोकने के लिए
'अकाल' कहते है । काल भी विरेष गुण से शून्य तथा विभरुहोतादहै। दिक्
उक्त विशेषणो से युक्त होने पर भी काल नहीं है। आकाश ओर आत्मा मेँ
अतिव्याप्ति रोकने के लिए 'विरोष गुण से रहित" ेसा विशेषण लगाया गया
है । आकाश का विशेष गुण शब्द है, आत्मा का बुद्धि आदि । ये दोनों अकाल
है तथा विश्रु है किन्तु विशेष गुण ते रहित नहीं दह। मन में अतिव्यात्ति
रोकने के लिए "महती' कहा गया है । मन ञकाल मौ है, विशेष गुण से रहित
भी, किन्तु विभु नहीं दहै) इसीलिए यह लक्षण केवल दिक् का ही हुजा । |
आत्ममनसोरात्मत्वमनस्त्वे । आत्मत्वं नामामूतंसमवेत-
द्रव्यत्वापरजातिः । मनस्त्वं नाम दरव्यसमबायिकारणत्वरहिताणु-
समत्रेतद्रव्यत्वापरजातिः ।
आत्मन् ओर मनस् के लक्षणा ह आत्मत्व अर्थात् आत्मा का सामान्य तथा
मनस्त्व अर्थात् मन का सामान्य । [ अब इन दोनो सामान्यो के लक्षण दिये
जाय गे 1 ]
आत्मत्व का लक्षण - आत्मत्व ेसौ जाति है जो भूतं द्रव्यो में समवेत
नहो तथा द्रव्यत्व केद्वारा व्यार होतौ है । [ प्रथिवी, जल, तेज, वायु ओर
मन--ये पाँच मूतं द्रव्य है । उने उन-उन द्रव्यो की जातिया समवेत रहती
ह । उन सबं करा निरसन इसी विशेषणा से होता है--अपूतंसमवेत । आकाश,
काल ओौर दिक् एक-एक ही है, इसलिए उनमें तो जाति का ही प्रदन नहीं
उठता । इस प्रकार आत्मत्व-जाति ही लक्षित होती है। |
मनस्त्व का लक्चषण-जो अण् ( & 0008 ) द्रव्य का समवायि-कारणं
नहीं हो सकते उन अणुओं में समवेत ( {2611181} ००१०९९५९५ ) तथा
दव्यत्व के द्वारा व्याप्त होनेवाली जाति को मनस्त्व-जाति कहते है । [ मन के
परमाणु एसे है जो किसी द्रव्य का तमवाधि-कारण नहीं बन सकते । पृथिवी,
जल, तेज ओर वायु के परमाणुं का संयोग होने पर उन द्रव्यो के चणुक,
त्यणुक, चतुरणुक आदि बनते हि। इस प्रकार वे परमाणु दचणुकादि के |
समवायि-कारण होति ह । मन इनसे पृथक् है क्योकि इसके अणु समवायि-कारण
४१६ सर्वंदशेनसंग्रहे-
नहीं ह । अणु कहने से उन पदार्थो कौ व्यावृत्ति होती है जो विभ है जेसे--
आकाश. काल, दक् आत्मा । मन अणु होता है ।
दस प्रकार नौ द्रव्यो के लक्षण समाप्त हए । उन द्रव्यो मे पृथिवी, जल,
तेज, वायु तथा मात्मा, मन की जातिया है, जब कि आकाश, काल ओर दिक्
अकेले है । |
(७. गुण के मेद् ओर उनके लक्षण )
रप-रस-गन्ध - स्पद्च-संरया - परिमाण -प्थक्त्व-संयोग-
विभाग-परत्वापरत्व-बुद्धि-सखदुःखेच्छा-देष-प्रयलार्च कण्टोक्ताः
सप्तदश्च, चश्चन्दसघठुचचिता गुरुत्वःद्रवत्व-स्नेह-संस्काराद्ट-शब्दाः
सप्तवेत्येवं चतुर्विंश्षतिगणाः ।
तत्र रूपादिश्चब्दान्तानां रूपत्वादिजातिरंक्षणम् । रूपत्वं
नाम नीलसमवेतगुणत्वापरजातिः । अनया दिशा शिष्टानां रक्ष-
णानि द्रष्टव्यानि ।
गुणा चौबीस होते ह । उनम सत्रह तो साक्षात् कणाद के मुखं सेही कटे
गये है--रूप (0100), रस ( 185४6}, गन्ध ( ज९॥।। ) स्प ((0पलो),
संख्या ( पपा ), परिमाण ( 18०१४०५९ ), पृथक्त्व ( 1)18006४-
1688 ), संयोग ( (० पा०४० }, विभाग ( [अपण्ठम ), परत्व
( {शा०४९ा1688 ), अपरत्व. ( पि €8ी7)688 ), बुद्धि ( (द्रणम ),
सुख ( 168ऽप7€ ), दुःख ( 281) ), इच्छा ( 1{)6€अ९ \, देष ( ^र्ला-
8107) ), प्रयत्न ( 2007 ) । जिस सूत्रम कणाद ने इनका उल्लेख किया
ह उमे शच ( भौर )' शब्द आया है, इससे सात भौर गुणो का भी समुच्चय
( ‰.40३५४० ) होता है- गुरुत्व ( 14 ९8.१170688 ), द्रवत्वं (ए प्ता प्प),
स्नेह ( ४1800४४ ), संस्कार ({€70श९प़), अदृष्ट अर्थात् घमं (1611४),
मौर अधमं ( 1)€0611४ ), शब्द ( 80प०१ ) । [ कणाद ने अपने वैेषिक-
सूत्र १।१।५ मे सत्रह गुणो का इस प्रकार उल्लेख किया है रूपरसगन्धस्प्शः
संख्या परिमाणानि पृथक्त्वं संयोगविभागौ परत्वापरत्वे बुद्धयः सुखदुःखे इच्छाद्वेषौ
प्रयत्नाच गुणाः। ये सत्रह गुण कणाद के कणठ से के गये है । 'च' ( भी )
का प्रयोग बतलाया है कि कुछ गुण ओर भी उन कहने को ह 1 उन सात
गुणों का समूच्यय होता है । मेरी समज्ञ मे वास्तव मे "च" कै द्वारा सात
~~ +, 2 ~ +," "भुन
ओल्ट्क्य-दशनम् ॑ ४१७
गुणों का समुच्चय नहीं होता । सूत्र तें पृथक-पृथक् गुणो का निदेश क्रिया गयां
है। प्रयत्न अंतिम गुणै उसी का सम्बन्ध शेष गुणों कै साथ दिललाना
च को अभीष्टहै। बादमें टीकाकारोंने चौबीस गुरा बनाये तथा ष्व" की
नई व्याख्या की। |
उनमें रूप से लेकर शब्द पर्यन्त जितने गण है ( अर्थात् चौबीस ) उनके
लक्षणा है रूपत्व आदि कौ जाति । [जिस प्रकार द्रव्यो के लक्षण मं जाति द्वारा
ल<णा दिया जाता है उसी प्रकार गुणों के लक्षणां भी जाति का प्रयोग
होता है । ] रूपत्व-जाति वह है जो नील से समवेत हो गौर गुणत्व के द्वारा
व्याप्त होती है। [ रसत्व, गन्धत्व आदि जाति्यां नील से समवेत नहीं
रहतीं |।
इसी रीति से अवशिष्ट गुणों के लक्षण भी देवे जा सकते हँ । [ विशेष
ज्ञान के लिए तकंसंग्रह, सिद्धान्तमुक्तावली या वैशेषिकसूत्र ही देवे जायें । ]
( <. कमे आदि के भेद )
कमं पश्चविधम्। उत्कषेपणापकषेपणाडश्चनप्रसारणगमनमेदात्।
भ्रमणरेचनादीनां गमन एवान्तभावः। उन्कषेपणादीनागरुकषेपण-
त्वादिजातिरंक्षणम् । तत्रोतध्ेपणत्वं नामोरध्वदेशसंयोगासमवायि-
कारणसमवेतकमेत्वापरजातिः। एवमपक्षेपणत्वादीनां लक्षणं
कतेव्यम् ।
कमं के पांच मेद है--उत्जञेपणा ( 1110178 प४148 ), अपन्नेपण
( 10019 १०४78148 ), आकुचन ( सिकुंडना (0078660 ),
प्रसास्ण ( (व्परता ) तथा गमन ( ५ण४णा )। भ्रमण ( घूमना );
रेचन ( खाली करना ) आदि कर्मोको गमन में ही समाहित कर लेते है ।
उत्नेपरा आदि कमो का लक्षणा है उल्क्षेपणात्व आदि की जाति । तो उहकषेपणात्व
का अथंहै वसी जाति जो कर्म॑त्वके द्वारा व्याप्र होती है तथा ऊपरी स्थानों
के साथ संयोग के असमवायौ कारणा ( अर्थात् कर्मविरोष ) से समवेत रहती है ।
| तात्पयं यह है कि उ्वंदेश के साथ संयोग करने का हेतु ही उत्घ्ेपण नामक
कमं है । | इसी प्रकार अपक्षेपण आदि की जातियोंके भी लक्षण कर लेना
चाहिए ।
विदोष-- उत्क्षेपण का अथं है ऊपर फेंकना, अपक्षेपणा = नीचे दंकना
( अधोदेश से संयोग का कारण }। आक्रुचन = वस्तुओं का वक्र होना या वस्तु
२५ स ० सं०
१८ सवेदशनसंम्रहे-
के अवयवो का निकटतर आ जाना । प्रसारण = वस्तुओं का सीधाहोजनाया
उनके अवयवो का दूर हो जाना। इन कर्मके अतिरिक्त सारे कमं गमने
आति ह । माषा-परिच्छेद ( ७ ) मे कहा गया है
श्रमणं रेचनं स्यन्दनोष्वंज्वलनमेव च ।
तिरयग्गमनमप्यत्र गमनादेव लभ्यते ५
धूमना-फिरना, खाली करना, प्रवाहित होना, ऊपर की ओर जलना, तिरा
चलना आदि सारी क्रियाय गमनम ही समन्लौ जाती है । गमन का क्षेत्र इतना
व्यापक हो जाता है कि हमें उत्क्षेपण आदि प्रथम चार कर्मों की पृथक् सत्ता पर
भी संदेह होने लगता है । पर सूत्रकार को स्वतंत्र इच्छा पर कौन प्रन करे ?
सामान्यं द्विविधं परमपरं च । परं सत्ता द्रव्यगुणसमवेता ।
अपरं द्रव्यत्वादि । तस्रक्षणं प्रागेवोक्तम् ।
1
विरषेषाणामनन्तत्वात् समवायस्य चकत्वाद् विभागो न
संभवति । तस्लक्षणं च प्रागेवावादि ।
सामान्य दो प्रकारका है-पर (्)211९8) मौर अपर (1.0९) ।
पर सामान्य ( उप्र प्रण) तशा पञ ) तो सत्ता ही है जो द्रव्य ओर गुणसे
समवेत है । [ केवल द्रव्य का नाम लेनेसे द्रव्यत्व मे अतिव्यापि हो जातो,
केवल गुणा का नाम लेने से गुणत्व मे। इसलित दोनों मे समवेत कहा गया है ।
यह भी कह सकते ह कि कमंमें मी समवेत होती है किन्तु दोसेही काम चल
जाता है- लक्षणम तो कमसे कम शब्दन होने चाहिए ? ] अपर सामान्य
तो द्रव्यत्व आदि है जिनके लक्षण पहले ही दिये जा चुके है । [ कितने लोग
पर, अपर ओर परापर ये तीन सामान्य मानते ह। पर तो सर्वोच्ि सामान्य है
ञसे-सत्ता । अपर नीचे का सामान्य है जेसे-पृथिवीत्व । परापर वह हैजो
किसी सामान्य की अपेक्षा पर हो, क्रिसी की अपेक्षा अपर, जेसे- द्रव्यत्व
पृथिवीत्व कौ अपेक्षा पर (ऊपर ) है किन्तु सत्ता की अपेक्षा तो अर ( नीचे )
है। |
विरोष अनन्त प्रकारकैदै ओौर खमवाय तोएक होतरह काद,
इसलिए इनका विभाजन करना संभव ही नहीं है। जहां तक इनके लक्षणो का
्रदन है, हम उन पहले ही देख चुके ह ।
वि्ोष--यहां पर देशेषिक-दशंन के आधारभूत पदार्थो का विवेचन
समाप्त हो गया । अब इसके कु गम्भीर विषयों मे माधवाचायं प्रवेक कर रहै
ह । वे विषय है--द्ित्व की उत्पत्ति, पाकज की उत्पत्ति, विभागज विभाग
[क =
ओदधक्य-दशेनम् ४६६
इत्यादि । इनका विचार कर लेने पर भभाव का निह्पण होगा ओर वहीं दस
दर्शन का अन्त हो जायगा ।
( ९. द्वित्व आदि की उत्पत्ति का विवेचन )
३, द्वित्वे च पाकजोत्पत्तौ विभागे च विभागजे ।
यस्य न स्खलिता वुद्विस्तं बे वेशेषिकं विदुः ॥
इत्यामाणकस्य सद्धावाद् द्वितवादयुत्पत्तप्रकारः दयते ।
"वक्षा वैरोषिक उसी को कहते है जिसकी वृद्धि द्वित्व ( 100 प्ट) की
संख्या के विषय में, पाकज उत्पत्ति ( अम्नि-संयोग के कारण होने वाले परिवतंन )
के विषय मे तथा विभाग ( 1{18}पण९४० ) से उत्पन्न होने वाले विभाग के
विषय सें स्लित ( च्युत ) नहीं होती । ( तातपयं यह है कि वैरोषिक-ददैन में
टन तीनों को विवेचना विशेष रूपसे को जाती है । )** ठेसौ लोकोक्ति संसार
मै प्रचलित ३, इसलिए अब यहां द्वित्व आदि की उत्पत्ति को विधि दिवलाई
जायगी ।
विहोष-गुणो मे एक गुण संख्या भी ह, जिससे हम एक-दो-तीन जादि
का व्यवहार करते द । इनमें एकत्व ही मुख्य नसगिक संख्या है जो आधार वस्तु
करौ प्रकृति के अनुसार नित्य या अनित्य होती है--पदि नित्य पदार्थं में ( जैसे
आकाश में) एकत्व हो तो वह नित्य होता है, यदि अनित्य वस्तु मे रेतो
यही एकत्व अनित्य हो जाता है । एकत्व के अतिरिक्त सारो संख्याय कृत्रिम
तथा अनित्य है। हम अपनी बुद्धिके कारण द्वित्व, त्रित्व, बहुत्व आदि की
कल्पना करते है क्योकि व्यावहारिक दशा में उसकी आवश्यकता पड़ती है ।
इस प्रकार एकत्व जहां वस्तु मेँ स्वभावतः स्थित है, द्वित्व बुद्धि ( = अपेक्षाबुद्धि)
पर निर्भर करता है, बुद्धि के द्वारा ही वस्तुओं पर द्ित्व-त्रित्वादि का भारोषरा
होता है। अपक्षावुद्धि उसे कहते ह निससे यह ज्ञान होता हैकि यहणए्करटै,
यह दूरा है । अनेक पदार्थो मे एक-एक का बोध इसी से होता है ( अनेकेकत्व-
विषयिणी बुद्धिः ) ।
अपेक्षाबुद्धि ओर द्वित्व के सम्बन्ध के विषय भें मीमांसक ओौर वैशेषिको
मे मतभेद है । मीमांसक कहते ह कि जिस समय दो घट एक साथ होते है उसी
समय द्वित्व संख्या उत्पन्न हो जातीदहै। बादमें इन्द्रियो के साथ घटो का
संनिकर्षं ( ८०११९९४ )} होने पर "यह एक धट हे, वह दूसरा" इस प्रकार कौ
अवेक्षाबुद्धि के द्वारा द्वित्व काज्ञान होता है । द्वित्व पहले से वतंमान है जिसकी
अभिव्यक्ति ( 08701804४070 ) अपेक्षाबुद्धि के द्वारा होती है । अपेक्षाबुद्धि
२० सबेदशनसंग्रदे-
द्वित्व को उत्पन्न नहीं करती । दै्ेषिको का विचार ठीक ह। वे कहते
है कि जब द्वित्व संख्या अज्ञात ह ( जैसा कि मीमांसक अपेक्षाबुद्धि के पहले
उसे मानते है) तब उसे स्वीकार करना ही निरर्थक है। इसलिए उसकी स्ता
(ज्ञात या अज्ञात भी) त भी होती है जब अपेक्षाबुद्धि उसे उत्पतन करती है।
इस दृष्टि से अपेक्षाबुद्धि के हारा द्वित्व संख्या की उत्पत्ति होती हे, अभि-
व्यक्ति नहीं ।
द्वित्व के नाश के विषयमे भी दोनों के मत विरोधी ही है) मीमांसकं के
अनुसार दो घटो के वियुक्त होने १२ द्वित्व का नाश होता है, जबकि वैशेःषक
अपेक्षाबुद्धि को भी लगाकर कई अवस्थां के बाद विनाश्च मानते ह । वैशेषिको
री द्ित्वोत्पत्ति ओौर द्वित्व-निवृत्ति अनी आगे मिलती है । आठ क्षणो मै उत्पत्ति
ओर उतने ही क्षणो मे निवृत्ति ( नाश ) भी होती है । इनका वर्णान देखे ।
(९ क, द्वित्व की उत्पति का क्रम )
तत्र प्रथमिन्दरियाथसंनिकपेः (१) । तस्मादेकत्वसामान्य-
ज्ञानम् (२) । ततोऽयेश्षाबुद्धिः (३) । ततो दि स्वोरपत्तिः (४) ।
ततो दवितवत्वसामान्यज्ञानम् (५) । तस्मार् दित्वगुणज्ञानम्
(६) 1 ततो धे द्रव्य इति धी; (७) । ततः संस्कारः (८) ।
तद्
„>, आदाविन्द्रियसंनिकपैषटनादेकत्वसामान्यधी-
रेकल्योभयगोचरा मतिरतो द्वित्वं ततो जायते ।
दविखत्वप्रमितिस्ततो चु परतो द्वितवघ्रमाऽनः तरं
दे द्रव्ये इति धीरिये निगदित द्वित्वोदयप्रक्रिया \इति)
सबसे पहले इन्द्रियो के साथ वस्तु ( ०४९५४ ) का संनिकषं ( संबेध }
होता है ( प्रथमक्षणमें दो घटो के साथ चचुओं का संबंध होता ह ) । उसके
बाद दुसरे क्षण में एकत्व कौ जा तिका ज्ञान होता दहै! तीसरे क्षण भर
अपेक्षाबुद्धि होती है [ कि यह एक घट हे, यह दूसरा } । चोये श्ण में द्वित्व
को उत्पत्ति होती है ( = वस्तुमे द्वित्व संख्याका बोध होता है ) । ्पोचवं
क्षण में द्वित्वत्व की जाति का ज्ञान होता है। [ चकि जाति का जनि होने पर
व्यक्ति का ज्ञान होता है इसीलिए अब ] छठे क्षण मं द्वित्व संख्या ( गुण के
रूपमे ) काज्ञान होतादहै। इसके बाद सातवे क्चणमे ये दो द्रभ्य हैः इष
[का
ओद्छ्क्य-दशनम् ९२१ |
प्रकार [ द्वित्व-संख्या से विशिष्ट द्रव्य ] का ज्ञन होता है। अन्त तै आत्मामें |
उक्त ज्ञान से संस्कार उत्पन्न होता है। [ इन अों क्षणो मेँ उत्पन्न पदार्था में |
पहलेवाला पदाथं दूषरे का कारणा होता है। बौद्धो के द्वादश निदान की तरहं
ये श्वं बलाबद्ध ह । इषोलिए इन्हें इस क्रममें बाधा गया है ।] |
यही कहा गया है- “सबसे पहले इन्द्रियो के सथ | वस्वुका ] संनि कषं
होना, फिर एकत्व को जाति को बुद्धि (ज्ञान ) होना, फिर दोनों वस्तुओं मे
एकत्व का अलग-अलग बोघ कराने वाली बुद्धि (अपेक्ञाबृद्धि) को उत्पत्ति, फिर
टिस्व की उत्पत्ति, उसके बाद द्वित्वस्व का ज्ञान, उसके बाद द्वित्व का ज्ञान,
तब दो द्रव्यो कौ बृद्धि होना, [ फिर द्वित्व का संस्कार |--इस प्रकार द्वित्व कौ
उत्पत्ति की विवि बतलाई गई है 1"
्वित्वदिरपषाबुदधिजन्यले पि प्रमाणम् १ अग्राहुराचायोः--
अपेश्वाबद्धिद्ि्वादेरत्पादिका भवितुमहति । व्यज्जकत्वानुपपत्तो
तेनालुविधीयमानत्वात् । शब्दं प्रति संयोगघदिति । वयं तु
ब्रृमः-- द्रितादिकमेकत्वदरयविपयानित्यवुद्धिव्यङ्यं न भवति ।
अनेकाभ्रितगुणत्वात् पृथक्त्वादिवदिति ।
अब प्रदन दहो सकताहै किक्या प्रमाण है कि द्वित्व आदि की उत्पत्ति
अपेक्षाबुद्धि से होती है ? इसके उत्तर ने आचायं ( उदयन ) कहते ह किं
अयेक्षाबुदधि द्विवादि को उत्पन्न करने मे सथं है । जब अपेक्षाबुद्धि को द्वित्वादि
का व्यंजक सिद्ध नहीं कर पाते तब्र इस द्वित्वादि के दारा ही अपेक्षावुद्धिकी
अवेक्षा ( अनुविधान ) की जाती हे । जिस प्रकार शब्द केद्वारा अपेक्षित कंठादि
स्थानों में संयोग होनिसे शब्द की उत्पत्ति होती है । [ इस अत्यन्त संक्षि
उक्तर को यों समफ-जिस प्रकार व्यंग्य-अथं व्यंजक शब्द कौ अपेक्षा रता
ह उसी प्रकार उत्पाद्य अर्थं भी उत्यादक की अपेक्षा करता है। यहाँ पर
द्वित्वादि संख्या अपेक्षाबुद्धि कौ अपेक्षा रखती ३ । पहले ही आघात में मीमांसकं
करी यह् मान्यता काटदेतेहकि अवेक्षाबुद्धि द्विहवादि का ग्यंजक है । एसा तमो
होता जब अपेक्षाबुद्धि के पूवं द्वित्वादि की सत्ता सिद्ध होती, परन्तु उसके लिए
तो कोई प्रमाण ही नहींहै। तो, अपेक्षाबुद्धि को व्यंजकता सिद्ध नहीं होती ।
अब अयेक्षयमारता ( अपेक्षा ) माननी पडेगौ ।# जह -जहौँ अपेक्षा होती है वर्ह
वहां उत्पादकता रहती है ( जिसको अवेक्षा होगो, वह उत्पादकं होगा ) । उदा-
वाका न्यो
+ सभी कारण यातो ज्ञापक होतेह या जनक । अपेक्षाबुद्धि यदि ज्ञापकं
नहीं है, तो जनक है ।
२२ सर्वदशनसम्रहे-
हरणाथं शब्दके द्वारा संयोग कौ अपेक्षा की जाती हि कि कंठ-तालु भादि
स्थानों मे वायु का संयोग हो तो शब्द उत्पन्न होगा । यहाँ संयोग शब्द का
उत्पादक है । इसी अनुमान से, द्वित्वादि संख्या के लिए अपेक्षाबुद्धि की आावह्य-
कता होने कै कारण, द्वित्वादि की उत्पादक अपेक्षाबुद्धि कौ सिद्धि होती है ।
अभिप्राय स्पष्ट है, अब दूसरे तको से उसी बात की सिद्धि की जायगी । |
हमारा यह कहना दै द्विटव अदि की अभिव्यक्ति उस अनित्य बुद्धि
( अपेक्षाबुद्धि ) के हारा नहीं हो सकती जिसमे दो या उससे अधिक एकत्व ही
विषय के रूपमे आति ह क्योकि ये (द्वित्वादि ) अनेक पदार्थो मे आधित रहने
वाले गुणा है जिस तरह पृथक्त्व गुणा [ अनेक पदार्थ में ही रहता है । |
विरोष- इस दरे तकं का यह अभिप्राय है। दो एकत्वों के विषय मे
अयेक्षाद्धि होती है कि एक यह है, एक यह । यह अपेक्षाबुद्धि अनित्य है ।
चकि द्वित्व अनेक पदाथ मे रहनेवाला गृण है इसलिए अपेक्ञाबुद्धिके हारा
इनकी अभिव्यक्ति नहीं हो सकती । अभिव्यक्ति के लिए वस्तु का एकाश्चित
रहना जशूरी है । द्वित्व-संख्या दो पदार्थो में रहती है, त्रित्व-संख्या, तीन पदार्थो
म रहती है इत्यादि । जैसे पृथकृत्व-गुण के लिए अनेक पदारथ मे रहना
आवदयक है--हरि से इयाम पृथक् है, दयाम से शंकर !' इन उदाहरण मे
पृथवत्व ( 36]818{611688 ) की वृत्ति अनेक व्यक्तियों भं है। इस प्रकार
पृथकत्व के विषय में होनेवाली अपेक्षाबुद्धि के दारा धृथक्व की अभिव्यक्ति नहीं
होती । जब कोई वस्तु व्यंग्य नहीं है, तो जन्य होगी । निष्कषं यह् हु कि
अपेक्षाबुद्धि से द्वित्व आदि की उत्पत्ति होती दै ।
(९ ख. द्वित्व की निचृत्ति का क्रम )
निव्तिक्रमो निरूप्यते--अपेक्षाबुद्धित एकत्वसामान्यज्ञा-
नस्य द्ि्वोत्पत्तिसमकालं निद्ततिः । अपेक्षवुदधेटटंखत्वसामान्य-
ज्ञानाद् द्वित्वगुणबुद्धिसमसमयम् । दित्वस्यपिक्षाबुद्धिनिवृततदर
व्यबुद्विसमकारम् । गुणवुदध्रव्यबुद्धितः संस्कारोत्पत्तिसम-
कालम् । द्रव्यवुदधेस्तदनन्तरं संस्कारादिति ।
अव द्वित्व की निवृत्ति का क्रम निरूपित किया जाता ह। [ तृतीय क्षणमें
उत्पन्न होनेवाली ] अपेक्षाबुद्धि से जो [ चतुथे क्षण मे ] द्वित्व कौ उत्पत्ति
होती है उसी के साथ-साथ [ द्वितीय क्षण में उदपन्न हए | एकत्व के सामान्य के
ज्ञान की निवृत्ति ( विनाश ) हो जाती है ( अर्थात् अपेक्षाबुद्धि एक ओर द्वित्व
ओद्क्य-दशेनम् ९२३
करो उत्पत्ति करती ह ओर दृखरी ओर पकत्व-जाति के ज्ञान क। विनारा
करती टहै।)
[ पंचम क्षण में उत्पन्न होनेवाली | द्वित्वत्व करो जाति कैज्ञान से जब
[ षष्ठ श्चण मे ] दत्व संख्याका ज्ञान उत्पत होता है ठीक उसी समय [ तृतीय
क्षण मे उत्पन्न हई ] अपेक्चावुद्धि का विनाश्य हो जाता है। अपेक्षाबुद्धि के
विनाश ( षष्ठ क्षण ) के बाद [ सतम क्षण सै] जो चेदोद्रव्य है" एेसा ज्ञान
होतादहै उसीके साथ दवित्व-संख्या का विनाशा होता है ( क्योकि द्वित्व
सद्या के काररास्वषूप अपेक्षाबुद्धि का विनाश इसके पूवंहीहो चुका रहता
है) । द्रव्य काज्ञान हो जाने ( सप्तम क्षण ) के बाद जब [ अष्टमक्षण मे]
संस्कार की उत्पतति होती है ठीक उसी समय द्वित्व-संख्या के ज्ञानकामी
विनाङ्घा हो जाता है । इसके बाद [ अष्टम क्षण मे उत्प ] संस्कारके बाद
( =न्वेंश्चणमे)दो द्रभ्यौ काज्ञानमी नष्रहो जाता ह । ( इस प्रकार
द्वित्वादि का क्रमशः विनाश होता है । ]
तथा च संग्रहर्लोकाः--
५. आदावयेक्षाबुद्धया दि नघ्येदेकत्वजातिधीः ।
द्वि्बोदयसमं, परचात् सा च तज्ञातिबुद्धितः ॥
६, द्वित्वाख्यगुणधीकारे, ततो दित्वं निवतेते ।
अपेक्षाबुद्विनश्ेन द्रव्यधीजन्मकारुतः ॥
9, गुणबरद्धद्रैवयवुद्या = संस्कारोत्पत्तिकारतः ।
्रव्यबुद्धिश्च संस्कारादिति नाशक्रमो मतः ॥ इति ।
उष्युक्त बातों का संग्रह इन इलोकों मे हा है--"“सबसे पहले अपेक्षाबुद्धि
से द्वित्व की उत्पत्ति होने के साथ-ही-साथ एकत्व-जाति का ज्ञान नष्ट हो जाता
है । उक बाद उष द्वित्व की जाति ( अर्थात् द्वित्व ) के ज्ञान से जिश्च समय
द्वित्व नामक गुण ( संख्या ) का ज्ञान होना है उसी समय उस { अपेक्षाबुद्धि )
काभी विनाश हो जाता है। तदनन्तर अपेश्नाबुद्धि के नाश के बाद दो द्रव्यो
के ज्ञान के उत्पन्न होने के ही समय द्वित्व कौ निवृत्तिहो जातीहै। द्रव्यो की
बुद्धि ( ज्ञान ) के बाद संस्कार क्री उत्पत्ति के समय ही द्वित्व-संश्या ( गृण )
की वृद्धिका नाश होता है ओर संस्कार के अनन्तर दो द्रव्यो कौ वृद्धि का नाल
होता है--यही नाश का कम निरूपित क्रियां गया है ।"
रथै सबेदशेनसंग्रदे-
विरोष- निम्नलिखित षाटीसे द्वित्वं के उदय ओौर विनाश काक्रम
अच्छी तरह समज्ञा जा सकता है -
क्षण ` उदय विनाद्य ( उदय क्षण )
प्रथम इन्द्रिया्थंसंनिकषं ८
द्वितीय एकत्व-जाति काज्ञान >
तृतीय अपेक्षाबुद्धि ><
चतुथं द्वित्व की उत्पत्ति एकत्वजाति का ज्ञान (२)
पंचम द्वित्वत्व-जाति का ज्ञान >
षष्ठ द्वित्व-संख्या का ज्ञान अपेक्षाबुद्धि (३)
सप्तम दो द्रव्यो का ज्ञान द्वित्वसंख्या (ॐ )
अष्टम संस्कार द्वित्वसंख्या का ज्ञान (६)
नवम १८ द्रव्यो का ज्ञान ( ७ )
अब इन ज्ञानो के विनाश के लिए प्रमाण दियेजा रहै ह जिनसे द्वित्व कौ
निवृत्ति की पृष्टिहो सके ।
ु्ेवद्वयन्तरविनादयत्वे संस्कारविनादयत्वे च प्रमाणम्--
~ = यवि [8
विवादाध्यासितानि ज्ञानान्युत्तरोत्तरकायंविनादयानि क्षणिक
विविशेषगुणत्वाच्छब्दवत् । कचिद् द्रव्यारम्भकसंयोगप्रति-
© ~
दरन्दरिविभागजनककमंसमकालमेकत्वसमकारुचिन्तयाऽऽश्रयनिन्च-
तेरेव द्वित्वनिवृत्तिः । कममसमकालमपेक्षाबुद्धिचिन्तनादुभाम्या-
मिति संषपः ।
अब इतके लिए प्रमाण दियाजारहाहै करि एक बुद्धि ( ज्ञान ) का विनाश
दूसरी बुद्धि ( ज्ञान ) सेया संस्कारके द्वारा होता है। इस स्थान पर जिनकी
बात चल रही है वे ( प्रस्तुत, विवादग्रस्त, ८१९१ ५०९8100 ) ज्ञान उत्तरोत्तर
कार्योके द्वारा क्रमशः नष्ठ होते जातेर्है। कारण यहदहैकि शब्द कौ भांति,
विभु द्रव्यो के विशेष गुण क्षणिक हा करते है । [ आकाश विगर द्व्यहे
इसका विरोष गुरा शब्द है जो क्षणिक है । यह क्षणिक शब्द अपनी उत्पत्ति के
द्सरे क्षण मे अपने ही सदश दूसरे शाब्द को उत्पन्न करके स्वयं तीसरे क्षण
मे नष्टहो जाता है। तो निष्कं यह निकृलतः है कि प्रथम क्षण वाले शब्दके
हारा द्वितीय क्षण मे उत्पन्न शब्द कायं हआ, प्रथम क्षग वाला दन्द कारण
है- वही कायंरूप में विद्यमान द्वितीय क्षण वाला शब्द प्रथम क्षण वे
ओख्क्य.दशनम् ४२५
कारणभूत शब्द का विनाशक हौ जाता है। कारणका नाश कायं ही करता
ह, पिता का वध पुत्रके ही हाथोंसे होता है । ठीक इसी प्रकार प्रथम् क्षण मे
उत्पन्न ज्ञान द्वितीय क्षणम दूसरे ज्ञानको या संस्कार को उत्पन्न करता है
ओर बदले में उत्तरवर्ती कार्यरूप ज्ञान या संस्कार अपने उत्पादकं का ही विनाश
कर डालता है । इसलिए ज्ञान को ज्ञान हीखाजाताहै।]
[ ऊपर यह कह चुके है कि अपेक्षावुद्धिका नाश हो जानेपर ट्त्व का नाश
हो जाता है । अव द्वित्वनाश को एक दूसरी विधि भी देखे-- ] क्ी-कहीं किसी
द्रव्य ( जैसे घट ) को आरंभ करने वाले संयोग ( = अवयवों का संयोग ) के
विनाशक ८ प्रतिद्न्द्रौ ) विभाग ( [0ऽंप्०८६०० ) को उत्पन्न करने वाले कमं
के आने के समयमे ही एकत्व-जाति कौ चिन्ता ९ ज्ञान ) होती है भौर तब
आश्रय घट का विनाशहो जनिसे द्वित्व का भी नाश दहो जाता है। [ वस्तु |
के अवयवो का विभाग करने वाला कर्मं अपनी उत्पत्ति के चतुथं क्षण मे वस्तु
का नाश्य करतादहै) प्रथमक्षण मे वह कमं उत्पन्न होता है। उसी कमं से
दूसरे क्षण में वस्तु के अवयवो का विभाग होता है। तीसरे क्षण मे अवयवो
के संयोग का विनाश होता है। चौयेक्षण मे वस्तु (घट) काही विनाश हो
जाता ह । द्वित्व की उत्पत्ति का विचार करते हए हमने आठ क्षण देखे ये
जिनसे द्वितीय क्षण में एकत्व की जाति का ज्ञान उत्सन्न होता है जो अपेक्षाबुद्धि
को तृतीय क्षणा में उत्पन्न करता है । यह एकत्वजातिज्ञान यदि घट का विनाश
करने वाले चार क्षणो के मध्य प्रथम क्षण महो तब स्वभावतः दवितीय क्षण
मरे अर्थात् विभाग के समय अपेक्षाबुद्धि की उत्पत्ति होगी । उसके बाद तृतीय
क्षण में संयोगका नाद होने के समय द्वित्व कको उत्पत्ति होगी । चतुथं क्षण मे
( वस्तु का नाश्चहोनेके क्षण म ) द्वित्वत्व-जाति का ज्ञान होगा । इको क्षण
नं घट-रूपी आश्रय ( आधार ) के नाश के कारण सके वाद वाले क्षण
तरे दो घें में विद्यमान द्वित्व क। विनाशा हो जाता हे करयोकि घट ( द्रव्य )
के नाश के अनन्तर उसमे स्थित द्वित्व ( गुण ) का स्थित रहना असंभव है)
इस प्रक्रिया मे अपेक्षाबुद्धि के नाश ते द्वित्वनाद नहीं होता, क्योकि द्वित्वनाश के
पूवं अपेक्षाबुद्धि के विनाश की कोई बात ही नहीं चलती । |
[ मूलमे जो 'एकलत्वसामान्यचिन्ता' पद है, उसका अथं है एकत्व-जाति
का ज्ञान । अब इस एकत्वजातिज्ञान को यदि जाप पहले हौ रख लं--विभाग-
जनकं कमं के पहले ही एकत्व जाति का ज्ञान हो जाय तब स्वभावतः उसके
बाद आने वाली अपेक्षाबुद्धि प्रथम क्षण में ही ( विभागोत्पादक कमं के समय
म ही ) उत्पन्न होगी 1 द्वितीय क्षण मे ( विभाग के समय) द्विव की उत्पत्ति
४२६ सर्वदशंनसंम्रहे-
तथा तृतीय क्षण मे ( संयोगनाश के समय ) द्वित्वजाति का ज्ञान होगा)
चतुर्थं क्षणा में ( घटना के समय ) अपेक्षाबुद्धि का विनाश्च होगा । इस क्षण
मे ( चतुर्थं क्षणा में ) घट-रूपी आश्रय का नाश तथा अपेक्षाबुद्धि का नाश्च दोनो
कारणों से उसके उत्तर क्षण में द्वित्व का नाश्चहोतादहै। इसे ही कहाजा रहा
है-] ओौर यदि विभागजनक क्के क्षणमें ही अपेक्षाबुद्धि कौ चिन्ता
( उत्पत्ति ) करं तो दोनों कारणों से द्वि्व का नाश हो सकता है--यही संक्षेप
मे [ द्वित्व का विचार हो गया। |
विशोष- उपर्यक्त दोनों कारणों का अन्तर इतना हौ है किं अवेक्षाबुदि
की सत्ता कहा मानें । यदि अवेक्षावृद्धि द्वितीय क्षण में ( विभाग के समय )
मानते है तो अपेक्षाबुद्धि केनाशके ही समय द्वित्व का नाश हौ नाता है उस
समय अपेक्षाबुद्धिनाश् कारण नहीं हौ सकता वर्योकि कारण को कार्यं के पूवं
ही रहना चाहिए, समकाल .नहीं। निदान हमे आधारनाश्ञ से द्वित्वनाश्च
मानना पडेगा । दूसरी ओर यदि सारी प्रक्रिया एक सीढ़ो ऊपर खिसकं जाय
तथा अपेक्षाबुद्धि को द्वितीय क्षण में न मानकर प्रथम क्षण में स्वीकार कर लें
तो चतुथं क्षण मे उसका नाश हो जायगा ओौर वह नाश आरामसे उत्तरवर्ती
क्षणा में होने वाले द्वित्वनाश का कारण बन जायगा । इसे निभ्न पाटी से समञ्
सकते ह :--
क्षण कायेचतुष्टय द्वित्वनाश की द्वित्वनाहा की
प्रक्रिया सं० (१) प्रक्रिया सं० (२)
१, विभागजनक कमं एकत्वजातिज्ञान (२) अपेक्षाबुद्धि (३)
२. विभाग अपेक्षाबुद्धि (३) द्वित्वोत्पत्ति (४)
३. संयोगनाज्ञ द्वित्वोत्पत्ति (४) द्वित्वत्वजातिज्ञान (५)
४. घटना दवितवत्वजातिज्ञान (५) अपेक्षाबुद्धिनाश (६)
५. (जाधारनाशसे) द्वित्वनाश, अपेक्षा- द्वित्वनाश (७)
बुद्धिना (६)
कोष्ठकं से निष्ठ अंक यह सूचित करते है कि पूर्वोक्त आठ क्षणोवाली
प्रक्रिया मे इन कार्यो का कौन-सा स्थान था। प्रस्तुत प्रक्रिया सं° १ में द्वित्व
नाश का कारण घटनाश्च अर्थात् आघारनाश है जब कि प्रक्रियासं० रमे पहले
की भांति अपेक्षाबुद्धिके विनाशसे ही द्वित्व का विना माना जाता है \
वास्तव में नवीनता प्रक्रियासं° १मेंहीदहै।
अब अपेक्षाबुद्धि का लक्षण देकर द्वित्व का प्रकरण समि क्रिया जायगा ।
क चै न [4 ष
"अ = कक - "अ", -* ° चा
७ कक - = न ` क ० र क =
५ "क
ओद्क्य-दशेनम् ९२७
( ९ ग. अपेक्षाबुद्धि का लक्षण )
अपेशावद्धिनौम विनाशकविनाप्रतियोगिनी बुद्धिरिति
बोद्धव्यम् ।
अवेक्षावुद्धि उष वृद्धि को कहते ह॑ जिसका विनाश [द्वित्व संख्या का |
विनाशक हो । [ तात्पयं यह दै कि अपेक्षाबुद्धि के नाश से द्वितवसंख्या का नाश
होता है-- दोनो के विनाशो न्ने कायकारण का सम्बन्ध दरे । अब, यदि अपोक्ञा-
बुद्धिके नाशसे द्वित्वसंख्या का ना होता है तब तो अपेक्षाबुद्धि अपने नाश
कर प्रतियोगिनी हई । नाश धर्मी है, अपेक्ष बुद्धि प्रतियोमिनी है। इसी को कहा
गया ह कि अयेश्ावुद्धि दित्वसंख्या कनो नघ करने वाले विनाश की
प्रतियोगिनी वुद्धि दै । 1
विरोष--इसपे अन्तत पदो पर विचार करने से यह मासूम होता है कि
यदि लक्षण से विनाशक" पद हटा तो जीव की वुद्धि मे अतिव्याति हो
जायी । कारण यह है कि जब हम कते द॑ “यह घट है' तो इस वुद्धि कामी
तृतीय क्षण मेँ विनाग हो ही जाता है--यह वृद्धि मी विनाश की
र, इसलिए ह घट है इस ज्ञान को मी अपिश्नावद्धि कटने लगेगे । इसलिए
अतिव्याप्ति रोकने के लिए "विनाशक पद का प्रयोग हआ है। वेसा करने से
चट-ज्ञान का ना होने पर किसी दूसरे का विनाश नहीं होता--इसलिए चट
ज्ञान का नाश किसी का विनाशक नहीं है । द्विव कां नाश अयेक्षावृद्धिके ही
नादा से सम्भव है।
ैयोषिकों का यह मत दिलाया गवा है कि द्विः्व अपक्षावुढ से उत्पल
होता है। नैयायिक भी इसी को स्वीकार करते है किन्तु इसमे उनकी विशेष
रुचि नही, विशेष पर ञलोलिक काही माग्रहदै। कुच लोग जो यह शंका करते
है कि वैशेषिको का द्वित्व अपेक्षाबुद्धि से व्यक्त होता ह, उत्पन्न नहीं - यहं बिल्कुल
निरथंक टै ।
आषा-परिच्छेद ( गुणखंड, १०९ ) मे अपेक्षाबुद्धि का लक्षण देते |
विश्वनाथ कहते ह --अनेककस्ववुद्धियो सा<वेश्चावद्धिरुच्यते बर्थात् अक्षाः
बुद्धि उसे कहते ह जो अनेकत्व मे एकत्व का अवगाहन कराये जैसे अयम् एकः,
अयम् एकः' 1 मुक्तावली मं प्रस्तुत प्रसंग को इस रूप मे व्यक्त किया गया दै--
न्त् चपेक्षावुद्धिनाशात्कर्थं द्वित्वनाश इति वाच्यम् । काल न्तरे हत्व प्रत्यक्षामावात्
दिकः तन्नाशस्तन्नारक इति कल्पनात् ।* पूवं पक्षवाले का
करते ह किं अवेक्षाबुद्धि के विनाश कै बाद दिस्व का नाश केसे होता है ? उत्तर
२८ सवेदशनसंम्रहे-
यह है कि जव अपेक्षाबुद्धि नहीं रहती तब षत्वं आदि धर्मोका प्रत्यक्षीकरण
नहीं होता, इसलिए एसा निश्चय होता है कि अपेक्षाबुद्धि ही उन्हँं उत्पन्न करती
है भौर अपेक्षाबुद्धि के विनाशसे उन द्वित्वादि वर्मोका भी विनाश ही
जाता है।
द्िादिके कारण के रूपमे अपेक्षाबुद्धि किष प्रकारकी कव होती है,
| इस पर विचार करते हए मूक्तावली मे लिखा है कि दचणुकादि पदार्थो का ज्ञान
| इन्दियो से नहीं हो सकता । उनमें द्वित्व के ज्ञान के लिए योगिर्यो को अपेक्षा-
बुद्धि काम देती है। सृष्टि के आदि-कालमेंजो परमाणु अदि ह उनमें द्वित्व के
कारणाके रूपमे यातो ईश्वर की. अपेक्षाबुद्धि काममें मातीहै या दूषरे
रह्मारड ( जिस ब्रह्माण्ड की सृष्टि हो रही है उससे किसी भिन्न ब्रह्माणड ) में
विद्यमान योगियों की अपेक्षाबुद्धि काम देती है । ( मुक्तावली, वहीं ) ।
( ६०. पाकज़ पदाथे की उत्पत्ति )
अथ दयणुकनाश्चमारभ्य कतिभिः क्षणेः पुनरन्यद् इचणु-
कत्पय रूपादिमद्मवतीति जिज्ञासायायुतपत्तिप्रकारः कथ्यते--
नोदनादिक्रमेण इचणुकनाश्ः । नष्टे ढयणके परमाणावम्नि-
संयोगाच्छयामादीनां निवृत्तिः । निवृत्तेषु इ्यामादिषु पुनरन्य-
स्मादग्निसंयोगाद् रक्तादीनायुत्पत्तिः ।
अब यह प्रश्न होता है कि एकं द्रचणुक का नाश होने पर, कितने क्षणो के
बाद फिर दूषरा द्रचणुक उत्पन्न होकर रूप-रस आदि से युक्त होता है। इस
जिज्ञासा के उत्तर मे अब हम द्यणुक की उत्पत्ति की रूपरेखा ( प्रकार ) प्रस्तुत
करते ह ।
(१) सबसे पहले नोदन (संयोग, अभि-संयोग, ^/ नुद् = प्रेरणा, 10४0}
अदि के क्रम से* द्रचणुक ( दो अणुओं के सम्मिलित रूप ) का नाश्च होता है ।
(२) द्वयणुकं केनष्टहो जानि पर परमाणुमे अग्नि-षंयोग होता है जिक्षसे
श्याम आदि गुणों कौ निवृत्ति (नाश) होती है। (३) भव श्याम आदि
% अग्निसंयोग ( नोदन ) से घटके अणुओों में क्रिया उत्पन्न होती है,
तव एक अणु से दूसरे अणु का पृथक्षरण ( 36108780 ) होता है। फिर
कृष्ण ( क्वा ) घट का निर्माण करने वाले अणुओं के संपोग का नाश होता है
ओर अन्त मे द्चणुक का विनाश होता है। यह इयणुक नष्ट होने पर पुनः
नवम क्षण में दूरा द्रचणुक दूसरे रूप का उत्पन्न करता है। भः
ओदक्य-दशेनम् ९२६.
` भरतपूव गुणों के हट जाने पर उस परमाणु, मे पुनः अग्नि-संयोग होता है जिससे
रक्तं आदि गुणो कौ उत्पत्ति होती है ।
विरोष--धाक' का अथं है तेजःसयोग । अग्निके साथ संयोग होने पर
द्रव्यो मे रूप, रस, गन्ध ओर स्पशं का अन्तर या परिवतन होता दहै। कच्चा
घडा काला है किन्तु जब उसमे अनिका संयोग होगा तब वह लाल हो जायगा ।
आम, अमरूद आदि के हरे फलों में तेज के संयोग से पीलापन आ जाता है--
यह रूप का परिवतंन है । कचा फल स्वाद (रस ) मे खदा, गन्ध में दूरी
तरह का तथा स्प मे कड़ा लगता है जबकि अग्नि-संयोग ( धूपसे) हौ
जाने पर जब वहु पक जाता है तब उसमें मधुरता, सुगन्ध तथा कोमलता आ
जातो है, इसी तरह से द्रव्योंमें रूपादि चार गुणों का पाकजत्व देखा
जाता है, किन्तु स्मरणीय है कि नव द्रव्यो मे केवल पृथ्वीमें ही यह पाकजत्व
होता है--“एतेषां पाकजत्वं तु क्षितौ नान्यत्र कृत्रचित्' (भा०प ० १०५) ।
जलादि द्रव्यो मे पाकजत्व नहीं होता ।
अब प्रहन यह है कि पाक होता किसका है--परमाणुओं का या पूरे द्रव्य
(पिण्ड) का ? वैशेषिक कहते ह कि परमाणुओं मे ही पाकज गुणो (रूप, रस, गन्ध,
सपक का परावतंन होता है--तत्रापि परमाणौ स्यात्पाको देशेषिके नये ( भा०
प० १०५ ) । उनके सिद्धान्त को पीलपाक-प्रक्रिया कहते है वयक "वीलु'
का अथं परमाणु होता है। दूसरी ओर, नैयायिको कौ मान्यतादहै कि पिश्ड में
हो रूपादि का परावर्तन होता दै! अवयव भौर अवयवी (जसे घट) का
नित्य संबेध होने के कारण दोनोंका एक साध विनाश ओौर एकही साथ
उदय होता है। अतः पूर्वरूप आदि का नाशया विकास अवयवी ( पिरड )
से संबद्ध है। नैयायिकों का सिन्त पिडरपाक-परक्रिया के नाम से प्रसिद्ध
है ( पिठर = पिण्ड या अवयवी जसे घट )।
प्रस्तुत प्रसंग मे वेशेषिकों कौ पीलुपाकः प्रक्रिया ही महचवपूणं है । अतः
उसीका बिश्लेषण समीचीन दहै। सामन्यतः तेजःसंयोग कै कारण घटके
अवयवो या कपालों ( घट के टूकड़ं ) के पारस्परिक वियोग से घट ( अवयवी )
का नाश होता है। इन कपालो के भौ अवयवो के वियोग या विनाश से इनका
नाक्च होता है। इस प्रकार का नाश त्र्यणुकं तकं ही होता दै। इचणुक का
नादा इसके अवयवो के नाशसे नहीं होता, प्रत्युत दो परमाणुओं के पार
स्परिक वियोग से होता है क्योकि परमाणु नित्य होने के कारण नष्ट नहीं हो
सकते । हां, एक दूसरे से वे पृथक् हो सकते ह । अब इन परमाणुओं के
पृथक् होने से इनके पहले कै रूप, स्स आदि गुण नष्टहो जाति है तथा दूसरे
४३० सवेदशंनसंग्रहे-
ही रूप, रस आदि उत्पन्न होते हैँ । अब इन परमाणुओं से क्रमशः द्चणुक,
व्यण॒क आदि के क्रम से नवीन घट उत्पन्न होता है ।
मुक्तावली (भा० प १०५ कीदटीका) मे इसप्रकार कहा गयादहै--
पृथिवी-दरव्य में भी केवल परमाणुमें ही पाक होता दहै, एसा वैशेषिक लोग
कहते है । उनका यह अभिप्राय है--अवयवी ( घट } के हारा निरुद्ध ( संब )
अवयवौमे पाकका होना संभव; नहीं। हा, अग्तिके संयोग से अवयवियों
के नष्टहो जाने पर प्रत्येक अवयव के स्वतंत्र परमाणुं मे पाकहोताहै।.
फिर पक्र ( पाक होनेके बाद, तेजःसंयोग से रूपादि-परावृत्ति होने पर ) पर
माणुओंके संधोगसे द्वचणुकादिके क्रम् से महान् अवयवी ( = घट ) पर्यन्त
उत्पत्ति होती है । अभग्नि-पदाथं मे अतिशय वेग होने के कारण पहले के व्यूह्
( अवयव-समूहु के रूपमेंषट) का नाञ्च होकर तुरन्त दूसरे ब्युहु कौ उत्पत्ति
हो जाती है।'
एक द्रचणुक का नाश होने पर दुसरा द्रवणुक कितने क्षणो में उत्पन्न होता
है, इस प्रशन को लेकर वेरोषिकों के यहाँ क्षणप्रक्रिया चलती है । विभागज
विभाग को स्वीकार करने पर इसमे दस क्षण लगते है किन्तु उसे अस्वीकार
करं तो केवल नव क्षणो मे कामहो जाता है। कु दूसरे मतों से इसमें पांच,
छह, सात, आठ या ग्यारह क्षण भी होते है। उन सों का विवेचन मुक्तावली
कै उपर्युक्त स्थल पर हुभा है ।
इस स्थान पर नवक्षणा प्रक्रिया की चर्चा चलरहीदहै| ऊपर तीन क्षण
हम दे चुके है । चौथे क्षण के लिए आगे देखे ।
उत्पन्नेषु रक्तादिषु अदृ्टवदात्मसंयोगात्परमाणो द्रव्या-
रम्भणाय क्रिया । तया पूरवदेशाद्विमागः। विभागेन पूषदेकञ-
संयोगनिवृत्तिः । तस्मिनिवृत्ते परमाण्वन्तरेण संयोगोत्पत्तिः।
संयुक्ताभ्यां परमाणुभ्यां दवयणुकारम्भः । आरब्धे इयणुके कारण
गुणादिभ्यः कायेगुणादीनां रूपादीनायुत्पत्तिरिति यथाक्रमं
नव क्षणाः ।
दशक्षणादि प्रकारान्तरं विस्तरभयान्नेह प्रतन्यते । इत्थं
पीटुपाकप्रक्रिया । पिटरपाकप्रक्रिया नेयायिकधीसंमता ।
(४ ) रक्त आदि गुणों के उत्पन्न हो जाने पर अदृष्ट ( षमं-अधमं)से
युक्त आत्मा के साथ संयोग होने पर परमाणामें द्रव्य का आरम्भ ( उत्पादन )
ओद्कय-दशेनम् ४३९
करने के लिए क्रियाहोतीदहै। [ च्खंकि निर्गुण द्रव्य में क्रिया का रहना असंभव
है इसलिए रक्तादि गुणों की उत्पत्ति के अनन्तर ही द्रव्यारम्भक क्रिया उत्पन्न
होती है। अदृष्ट अर्थात् धमं या अधमं ही सभी पदार्थो का साधारण कारणहै
क्योकि अदृ के आश्रय जीव है जो विभ्रु होने के कारण सभी कार्योमें अटृष्टुके
साथ रहते ह । ] (५) इस क्रिया के द्वारा परमण का अपने पूवं स्थान से
विभाग ( [:8}00९6010 ) होता है । (६ ) विभाग होने पर परमाणु के पूर्व
स्थान के साथ विद्यमान संयोग का विनाश होतादहै। (७) जवर संयोग की
निवृत्ति हो जाती है तब उस परमाणुका संयोग टृसरे परमाणु के साथ होता
है। (८) दो परमाणुओं के संयुक्त होने से द्रचणुक (दो परमाणुओं का समाहार)
काआरम्भहोतादहै भौर अन्तमं (९) द्यणुक का आरम्भ होने पर कारण
के रूपमे स्थित गुण आदिसेकायंके रूपमे स्थित गुणादि, जैसे खूप, रघ,
गन्धादि, की उतयत्ति होती है--इस प्रकार क्रमशः ये नौ क्षण होतेह ।
दस क्षण में होनेवाली या दूसरे प्रकारसे ( पाँच, छह भादि क्षणोंमें)
होनेवाली प्रक्रियाओं का वर्णन विस्तारके भयसे नहींकरियाजा रहाहै।
अस्तु, इस प्रक्रिया को षीलुपाक-प्रक्रिया कहते है । नैयायिको के दवारा पिढर-
पाक-परक्रिया स्वीकृत है । [ इसकी रूपरेखा ऊपर की टिप्पणी में दी गई है । ]*
( ११. विभागज विभाग का विवेचन )
विभागजविभागो दिविधः-कारणमात्रविभागजः कारः
णाकारणविभागज्च । तत्र प्रथमः कथ्यते--कायव्याप्ने कारणे
कर्मोत्पन्नं यदाऽवयवान्तराद्विभागं विधत्ते, न तदःऽऽकाशादि-
देश्चाद्विभागः। यदा त्वाक्राश्चादिदेश्चादिमागः) न तदाऽवय-
वान्तरादिति स्थितिनियमः ।
विभाग से उत्पन्न होनेवाला विभाग दो प्रकारका है-(१) जो केवल
# पीपा कप्रक्रिया मे कच्चा घट जब पकाया जाता है तब उसका नाश
ही हो जाता है क्योकि इसके दरधणुक आदि नष्ट हो जति हँ । पाक (अभि-संयोग)
से परमाणुओं मे लाली आती है तथा घट पक कर लाल हो जाता है । क्रिया
इतनौ शीघ्र होती है कि घट के परिवतंन को आंखं नहीं सम्ञ पातीं । चट बदल
जाता है। पिठरपाक-प्रक्रिया में अग्नि द्रव्य के अणुओं में सीघे प्रविष्टहो जाती
है तथा कच्चे घट का विनाश बिना क्ियिही अपना प्रभाव उन अणुओं पर
व्यक्त करके उसी घट में गुण-परिवतंन कर देती है ।
३२ सर्वदशेनसंग्रहे-
कारण ( उपादान कारण ) के विभाग से उत्पन्न हो तथा (२) जो कारण
ओर अकारण ( स्थान ) के विभागसे उत्पन्न हो । पहले हम प्रथम भेदका
वान करं ।
कायं ( दरचणुक ) के द्वारा व्याप्त कारण ( परमाणु ) मे जो कमं (क्रिया)
उत्पन्न होता है वह जब दूसरे अवयवो से विभाग धारण करता है, उस समय
आकादा आदि देशों ‹ २190९ ) से विभाग नहीं होता । दूसरी ओर जब उसमें
आकाल आदि देशों से विभाग किया जाता है तब दूसरे अवयवो से विभाग
नहीं होता-- यह एक स्थिर नियम है ।
वि्तोष--वैशेषिकों के द्वारा प्रदशित गुणों मे एक गुण विभाग ( {>भु
प्९६ज ) है । यह तीन प्रकारसे होता है-एक पदाथं को क्रिया से उत्पन्न
होने वाला विभाग, दोनों कौ क्रियाओं से होने वाला विमाग तथा विभागसेही
उत्पन्न होने वाला विभाग । इनके उदाहर्ण कमश योँहै- द्येन पक्षी से पव॑त
का विभाग (एक-करियाजन्य विभाग), दो मेषो (मं) का विभाग (उभयक्रियाजन्य)
तथा कपाल ( घडेके दुक्डे ) ओौर वृक्षका विभाग करने से घट ओर वृक्ष
का विभाग करना ( विभागज विभाग) । विभागज विभागमे भीदो द्रव्यो
का पृथक्करणा होता दै किन्तु उनमें पहले एक ओौर विभाग हो जाता है । एक
वस्तु ( धर्मी ) के अवयवो के साथ दूसरी वस्तु ( प्रतियोगी ) का विभागकर
लेने पर उसी के आधार पर पूरे धर्मोके साथ प्रतियोगी का विभाग मानते
ह । तैयायिक इस प्रकारका विभाग स्वीकार नहीं करते ।
टस विभागज विभागक दो भेद है--
विभागजस्तृतीयः स्यात्तृतीयोऽपि द्विधा भवेत् ।
हेत॒मात्रविभागोत्थो हेत्वहेतुविभागजः ॥ ( भा० पर १२० )।
सिदधान्तमुक्तावली में इसकी विवेचना बहुत सरल ओर संक्षिपतरूपसे हुई है।
१. कारणमा विभागजन्य--पहले कपाल मे क्रिया उत्पन्न होती है,
फिर दो कपालो का विभाग होता है, फिर घट का भारभ करने वाले संयोग का
नाश्च होता है, फिर घट का नाश्च होता है। अब उसी कपाल-विभागके हारा
पूर्वोक्त क्रिपायुक्तं कपाल का आकाश के साय विभाग उत्पन्न होता है । पुनः
आकाडसंयोग का नाश्ञ ओर तब उत्तर देश के साथ कपाल के संयोग का नाद्य
होकर अंत मे कमं का नाश होता है \. तात्पयं यह निकला किं कमं पहले एक
प्रकार का विभाग ( कपालद्वय-विभाग ) उत्पन्न कर देता है-- तब इस विभाग
के द्वारा दूसरा विमाग ( आकाश अर्थात् स्थान से कपाल का विभाग }) उत्पन्न
होतादै। इस प्रक्रियामेदो विभाग हृए--\ अवयवो से विभाग तथा
६ | ‰३३
२. देशान्तर ( दूसरे स्थान) से विभाग । ये दोनों एक साथ नहीं रहत ।
केवल पूर्वापर का हौ नहीं, इन दोनो के बीच कु क्षणो का भो अन्तर है ।
हम एेसी हका नहीं कर सक्ते कि जिष पहले कमंसे दो अवयवोंका
विभाग किया गया है उसीसे कपाल का आकाश या देशान्तर के साथ विभाग
उत्पन्न होना क्यों नहीं मान लेतेर्है? कारण यहदटहै कि एकही कमं
आरंभक ( उत्पादक ) संयोगके विरोमे खडेहोने वाले विभागको तथा
अनारमक्त संयोग के विरोधी विभाग को-दोनों को उत्पन्न नहीं कर सकता ।
यदि दोनों प्रकारके विभागों को उत्पन्न करनेवाली क्रियाको हमणएकही
समज्लने की भूल करं तो लिलते हृए कमल की कलिकाके हूटजनेकी भी
संभावना करनी १३ेगी ( विकसत्कमलक्रुडमलमङद्धप्रसङ्खात् )। कमल के खिलने
के समय जो कमं उसमे उत्पन्न होता है, वह उस विभाग को उत्पन्न करता है
जो कमल के अनारंभक आकाल-प्रदेश्च के साथ उसके संयोग का विरोधी है । यदि
वहु कमं अब कमलके आरंभक संयोगके विरोधी विभागको उत्पन्नकरे तो कमल
का विना निशित है । आरंभक संयोग विनाशपर ही आधारित होता है। फल
यह निकला कि जौ कमं अनारभक संयोगके विरोधी विभाग को उत्पन्न करता
है, वह आरंभक संयोग के विरोधी विभाग को उत्पन्न नहीं करता। जो कमं
दूसरे अवयवो से अर्थात् परमाणुओं से विभाग ( आरंमकसंयोगप्रति ्रन्दरिभूतं
विभागम् ) उलन्न करतारहै, वह कर्मं दरचणुकों का आरंभ न करने वाक्ते
आकाश्ा-प्रदेदा के साथ होने वाले संयोग का विरोधी विभाग उत्पन्न नहीं
करता । दोनों मंसे कोई एक ही क्रिया संमवदहै- दोनों प्रकारोके विभागको
उत्पन्न करने वाली क्रियाय दोरहै।
ठेसी भी शंका नहीं की जा सकती कि कारण-विभाग (अवयवो से विभाग)
से ही, द्रव्य-नाश के पहले ही, देशान्तर ( आकाश }-विभाग क्यों नहीं उत्पन्न
होता ? कारण यह है कि अवयव आरंभक-संयोग के विरोधी विभाग को उत्पन्न
करता है, द्रव्य के होने पर ( विना दरव्य-नाश के ) देशान्तर से इसका विभाग
होना असंमव है) अतः किसीभी दला में अवयव-विभाग ( कारण-विभाम )
के होने के बाद ही देशान्तर-विभाग होता हे।
२. कारणाकारण-विभागजन्य- हाथमे क्रिया उत्पन्न होने से हाथ
ओर वृक्ष के वीच विभागहोतारै, इसीसे शरीर में भी "विभक्त ( पृथक् )
होने का ज्ञान होता है ( स्मरणीयदहैकि विभागके द्वारादो द्रव्यो प्रे विभक्त
होने की प्रतीति होती दहै)) इसप्रकार हस्त-वृक्ष-विभाग (कायं )के लिए
हस्त-क्रिया कारण है । किन्तु यही हस्त.क्रिया शरीर ओर वृक्षके विभागका
२८ स सं
२४ स्वदशेनसंम्रदे-
कारणा नहीं हो सकती क्योकि दोनों का एक अधिकरण नहीं है । कायं-कारण
का संबंध समानाधिकरण पदार्थो का ही होता दै। जञरीर.क्रिया को भी शरीर
जौर वृक्षके विभागका कारण न हीं मान सकते क्योकि शरीर मे क्रियातो
उस समय हृई ही नहीं । अवयवी (शरीर) के कमं अवयवो ( हाय, पैर
आदि) षरही निर्भर करते है । सभी अवयवो मे क्रिया होने पर ही शरीर
कर क्रिया मानी जाती दै । ठेसे स्थलों मे कारणाकारण-विभाग से कार्याकायं-
विभाग उत्पन्न होता दै । हस्त.वृक्न का विभाग (कारण ) होने के बाद शरीर-
बृक्ष का विभाग होता है--हस्त-वृक्ष का विमाग होने से शरीर मे भो विभक्त
प्रत्यय होता है,
दन सबों का विवेचन मुक्तावली के आधार १ किया गया है । सवंदर्च॑त-
संग्रह् मे भी प्रस्तुत प्रसंग मे यह विषय अवेगा ।
कर्मणो गगनविभागाकतेत्वस्य द्रव्यारम्भकसंयोगविरोधि
विभागारम्भकत्वेन धूमस्य धूमध्वजवर्भेणेव व्यमिचारादुपल
म्भात् । ततशवावयवकमीवयवान्तरादेव विभागं करोति नाका
चादिदेशचात् । तस्मादिमागाद् द्रव्यारम्भकसंयोगनिबत्तिः । ततः
कारणाभावात्कायो माव इति न्य यादबयवनिवृ्तिः
जिस प्रकार धूमका व्यभिचार धूमघ्वज (असनि) के साथ कहीं प्राप्त नहीं होता
( अधिके बिना घूम नहीं मिलता ), ठीक उसी प्रकार कमं ( = घटव्वंस-कमं )
जिसे हम स्थान (3१४९९ ) के विचार से होनेवाले विभाग का कर्तां नहीं
मानते ( = स्थानजन्य विभाग का अनारंभक कमं); द्रव्य का आरंभ करने
वाते संयोग के विरोधी विभाग के उत्पादक के खूपमें ही सदा रहता हि, व्य-
भिचरित नही . होता । [ ऊपर कही गई बातोको हौ इसमे पफोलायाजा रहा
ह स्थानगत विमागकोजो कमे उत्पन्न नह करता, वही कमं द्रव्य रमक
संथोग का विरोघ करने वाले विभाष को उत्पन्न करता है--दोनो कर्मो मे
कायकारण संन्धटै। चक्रि संयोग ओर विभागमे सीधा विरोध है इसीलिए
स्थान-स्थान पर ` संयोगप्रतिद्वन्दरविभाग' को तरह करी उक्तियां दौ जाती है। |
इसलिए अवयवों का | चरध्वं स-हूपी } कमं अपना विभाग दूसरे अवयवो
चे हौ उत्पन्न करता दहै, आकाश आदि देशों ( 9४०९ ) से नहीं । इस विभाग
के बाद द्रव्य (घट) का अर्म करने वाते संयोग कौ निवृत्ति होती है । उक्षके
बाद, कारणं का अभाव होने पर कायं का अभाव होता है--इस नियम से
[ता ==
ओच्क्य-दशैनम् ` ४३५
[ द्रव्यारंमक-संयोग-ह्षी कारण के नष्टहो जाने से उसके कायं अर्थात् ||
अवयवी ( चट } की भी निवृत्ति हो जाती है।
निदरत्तेऽव विनि तत्कारणयोरवयवयोः वर्तमानो विभागः
का्यविनादाविरिषटं कालं स्वतन्त्रं वायवयमपेक्ष्य सक्रियस्यवाव-
© $ निष्क्रियस्य
यवस्य कार्यसंयक्तादाकाशदेशाद्विमागमारभते न निष्क्रियस्य ।
कारणाभावात् ।
इस प्रकार जब अवयवी ( घट ) का विनाश हो जाता है तब उस (विनाश)
के कारणास्वषूप जो दोनों अवयव ( टुक्डे) है उनके बीच विद्यमान विभाग
यातो कायंके विनाश से संबद्ध काल ( 1116 ) की अपेक्षा रखता है या
किसी स्वतंत्र अवयव की अपेक्षा करके ही केवल सक्रिय अवयव काही
विभाग काय-संबद्ध आकाश-देशसे आरभ कर्ता है, निष्क्रिय अवयव का
विभाग वह इषलिणए अरम नहीं करता किं उसका कोई कारण ही नहीं दिखलाई
पडता । [ अभिप्राय यह दहैकिदो अवयवो का विभागदहोने से षट की निवृत्ति
होती है। उन दोनों अवयवो मे एक करो सक्रिय मानते है, दूसरे को निष्क्रिय ।
हम ऊपर देख चुके है कि अवयवो का पारस्परिक विभाग होने के बाद उनका
विभाग आका देश ( स्थान ७8९९ ) से भी होता है। इसलिए अब प्रथम
विभाग आकारदेशविभाग क्रो उत्पन्न करता है। किन्तु यहां मी निष्क्रिय अवयव
तते आकाश-विभाग नहीं माना जा सकता क्योकि दाक्ति के अभावमे वह् कारण
नहीं बन सकता । सक्रिय अवयव से ही आकाश-विभाग माना जा सकता है ।
'स्वतंत्र अवयव! का यहाँ अथं है अपने विनाश के पश्वात् आने वाला कालका
कोई विेष अवयव । |
विङ्ञोष - विभागज विभाग को स्वीकार करने पर द्यणुकोत्पत्ति को
दशक्षणा या एकादशक्षणा प्रक्रिया का उल्लेख किया गया है। वह इस ॒श्रकार
है। जब हम विभागज विभाग को स्वीकार करतेरहै तो साथ-ही-साथ यह भी
मानना पडेगा कि एक विभाग विना किसी की अपेक्षा रखे हए दूसरे विभाग को `
उत्पन्न नहीं कर सकता । यदि निरपेक्ष होकर विभाग दूसरे विभाग का उत्पादन
करता है तब उस पहले विभाग को विभाग समन्षना भूल है। वस्तुतः वह् कमं
हे, क्योकि कणाद ने वैशेषिक सूत्र ( १।१।१७ ) मे कहा है -संयोगविभाग-
योरनवेश्चं कारणं कर्म । इसका अथं है कि संयोग ओर विभाग को उत्पन्न
करनेवाला पदाथं जो अपने बाद क्रिसी कौ अपेक्षा नहीं रवे बह कमं हे ।
विभाग ( आकालविभाग ) यदि किषी निरपेक्ष विभाग ( अवयवविभाग )से
३६ सर्वदशेनसंग्रदे-
उत्पन्न होने लगे तो वह उत्पादक विभाग कमं के लक्षण मे आने के कारणं क मं
ही हो जायगा । ईस प्रकार कर्मं के लक्षणा मे अतिब्या्ति-दोष होता ह। दूसरी
ओर यदि कमं के लक्षणमें कुछ परिवतंन करं किं उत्तरसंयोगोत्पत्ति के समय
परवंसयोग के नाश की अवेक्षा है तो अव्या्ि-दोष होगा । अन्ततः यह मानिता
पड़ा कि विभागज विभागमे विभागारंम के लिए सापेक्ष विभागही कारण हो
सकता है ।
अव प्रन है कि अपेक्षा हो तो किसकी ? यदि द्रव्यारंभ करनेवाले संथोग
कौ निवृत्ति करनेवाले काल की अपेश्वा करके विभागज विभाग मानतेर्है तो
दशक्षणा ( 1€0-11010 6१४ 910५688 ) प्रक्रिया होगी । यदि द्रव्यनाय करने-
वाले काल कौ अपेक्षा करेगे तो एकादजक्षणा शरक्रिया होगी । दोनों की तुलना
निम्न चित्र द्वारा कीजा सकरती है
दशक्षणा पकादशश्चणा
अभ्निसंयोग से इचणुक का आरभ अभ्भिसंयोग से परमाणु में क्रिया,
करने वाले परमाणु में क्रिया, उसके | उसके बाद विभाग, तब द्रव्यारभक
बाद विभाग, तब आरंभक के संयोग | संयोग का नाश । तब-
कांनश्च। तब | (१ ) दचणुकनाशः;
(१) दयणुकनाश ओौर विभागज- (र) दयणुकनाश से संबद्ध कलं
विभाग । | की अवेक्षा रखते हृए विभागज विभाग
(र) इ्यामनाश्च ओर पूवंसंयोग | तथा श्याम का नाश;
का नाशः | (३) पूव॑संयोग का नाश ओौर
रक्तोत्पत्ति;
(४) उत्तरसंयोग;
न्निनोदन से उत्पन्न
धीः 6 १ ५ | (५) अभिनोदन से उत्पन्न परमा-
परमाणुगत क्रिया का ना; |
| णुगत क्रिया का नाश;
(५) न, समि. के संयोग ("श कै संयोग
चे द्रव्य के आरंभ के अनुकूल क्रिया; | से द्रभ्यारंभ के अनुकूल क्रिया;
|
(६) विमागः; (७) विभागः;
(३) रक्तोत्पत्ति मौर उत्तरसं योगः;
(७) पूर्वसंयोग का नाशः | (८) पूरवंसंयोग का नायः;
(८) आरंमक-संयोग; | (९) द्रव्यारं मक-संयोगः
(९) द्रचणुक की उत्पत्ति; | (१०) द्रचणुक की उत्पत्ति;
(१०) अंत में रक्तादिकी उत्पति । | (११) अंतमे रक्तादि की उत्पत्ति ।
‡
ओदक्य-द शेनम् ४३७
( ११ क. विभागज्ञ विभाग का दूसरा भेद )
दितीयस्त् हस्ते कर्मेत्पिन्नम् अवयवान्तराद्रिभागं डवत्
आकाशादिदेशञेभ्यो विभागानारभते । ते कारणाकारणव्रिभागाः
कर यां दिं प्रति कार्यारम्भाभिषुखं, तामपेक्षय कायोकायेविभा-
गमारभन्ते । यथा हस्ताकाशशविभागच्छरीराकाश्चविभागः ।
विभागज विभागका दूसरा मेद (कारणाकारणा विभाग से उत्पन्न विभाग)
वह है जिसमे हाथ मे उत्पन्न होने वाली क्रिया दूरे अवयवो ते विभाग करती
हई आकाशादि देशों से विभाग आरम्म करती है। [ हाथ का सम्बन्ध घट,
पट, तर आदि से होता है, इन पदार्थो से विभाग उत्पन्न होता है । हाथ शरीर
का अवयव होने के कारण शरीरका कारण है किन्तु आकाश आदि शरीरके
कारणा नहीं है, हाथसे विभाग होना कारण विभाग रहै, आकाश से विभाग
होना अ-कारण विभाग है, दोनों का-- कारण ओौर अकारण का-- पारस्परिक
विभाग दही शरीर का आकाशादि से विभाग उत्पन्न करता है) |
जिस दिशामें क्रिया कार्यारम के लिए अभिमुख दिलाई पडती है उसी
दिशा की अपेक्षा रखते हृए कारण ओर अकारण के ये विभाग कायं ओर
अकां के विभाग उत्पन्न करते है । उदाहरण के लिए हाथ ओर काश्च का
विभाग उत्पन्न होने पर शरीर ओर आकाश का विभाग उत्पन्न होता है ।
विदोष-हाथ कारण ओौर शरीर कायंहै। उसी प्रकार आकाश अकारण
तथा अकाय है । इसलिए--
कारणा + अकारण का विभाग > कायं + अकयं का विमाग,
जेस, हस्त + आकाश का विभाग >शरीर + आकाश का विभाग ।
ये विभाग कर्मके अनुरूप ही होते ह । उत्तर में चला हुआ हाथ दक्षिण आकाश
देश से विभाग उत्पन्न करता है) वसे ही पूवं में चला हुआ हाथ पधिम-आकाश
से विभाग उत्पन्न करता है ।
न चासौ शरीरक्रियाकायंः । तदा तस्य निष्कियत्वात् ।
नापि हस्तक्रियाकार्यः व्यधिकरणस्य कर्मणो बिभागकतेत्वानुप-
पत्तेः । अतः पारिशेष्यात् कारणाकारणविभागस्तस्य कारण-
मङ्गोकरणीयम् ।
शरीर ओर आकाश का विभाग दारीर-गत क्रिया का कायं नहीं मानाजा
सकता क्योकि उस समय शरीर निष्क्रियही रहता है । [ तात्पयं यह दहै कि
+~ सर्वंदशंनसंग्रदे-
आकाल का विभाग हस्ताकाशविभाग से ही उत्पन्न होता ह ।
पत्ति नही मानी जा सकती । हस्ताकाशविभाग
करीर तो निष्क्रिय ही रहता है वर्योकि अवयवी
होति है । देखिये
शरीर ओर
हारीरस्थित क्रिया से इसकी उः
होने पर हाथ ही सक्रिय रहता टै
( शरीर ) तमी सक्रिय होता है जब सभी अवयव सक्रिय हं
पहले की टिप्पणी । |
शरीराकाश-विभाग को हस्त-कमं का भी कायं हीं कह सकते । [ जिस
प्रकार हस्ताकाश-विभाग हस्त कौ क्रियाके कारण होता दै वैसे ही हस्तक्रिया
से हौ शरीराकाश-विभाग क्यों नहीं हो जाता ? यही दका है] दूसरे आधार
मे रहनेवाला ( व्यधिकरण ) कमं किसी दूसरे स्थान में विभाग उत्व नहीं कर
सकता । [ अभिप्राय यह है कि क्रिया अपने आाश्रय मे ही अपना कायं करती ग
द्सरे के आश्रय मे नहीं । नहीं तो अतिप्रसंग नामक दोष होगा । यहाँ पर क्रिया
हाथ में रहे ओर उसका कार्य विभाग--शरीर में रदे, एेसा कना कठिन दै \
` कायं भौर कारण का लमानाधिकरण रहना परमावदयक है । |
इस प्रकार केवल एक ही विकल्प बच रहने से कारणाकारण विभागको
हीं हम उस ( जञरीराकाशष.विभाग ) का कारण मान सकते दै ।
( १२. अन्धकार का विवेचन )*
{ अः न्द क निषिष + #~ ४
यदवादि--“अन्धकारादा भावत व्यते इति तदसम्-
तम् । तत्र चतुधो विवादसंभवात् । तथाहि- द्रव्यं तम इति
भद्रा बेदान्तिनस्च भणन्ति । आरोपितं नीलरूपमिति श्रीधरा-
चार्यः । आलोकनज्ञानाभावः इति पराभाकरेक्देशिनः । आलोका-
~ च्म [३
भाव इति नैयायिकादय इति चेत्--
ऊपर जो आपने कहा किं अन्धकार आदि को भाव नहीं मानते ( देखिये-
इसी दर्शन के अनु० ४ का अन्तिम भाग )- यहं बिल्कुल असंगत है क्योकि
* अन्धकार के विषयमे ्रेलेषिक-मत की श्रेष्ठता श्रीहषं ने भो नेषध-
चरित मे शब्दच्छलसे स्वीकार की ह। नारायणौ टीका मे इसका व्याख्यान
दें । शलोकं है--
घ्वान्तस्य वामोरु विचारणार्यां तरैलेषिकं चारु मतं मतंमे।
ओल्कमाहुः खलु दशनं तरम तमस्तच्वनिरूपणाय ।॥ ( २२।३९ )
करं उलूक ही अन्धकार का विर्लेषण करने मे समर्थं होता टै इसलिए ददन का
ही नाम 'ओौक्क' हो गया |
ओदक्य-दशनम् | ४३६
अन्धकार के प्रदन पर चार प्रकारके विवाद सम्भव हैँ । उदाहरणतः( १)
भाद मी्मांसकों ओौर वेदान्तियों का यह कथन है किं अन्धकार एक द्रभ्य है
[ स्वाभाविक नीललूप से विशिष्ट द्रव्य ही अन्धकार है जसे कजल, कालिख
दिद । ] दूसरी ओर ( २) श्रीधराचायं कते है कि अन्धकार वह है जिस
पर नील रूप का आरोपण हृजा हो । [ वास्तव मेँ अन्धकार द्रव्यहीहैकिन्तु
नीला रूप वास्तविक नहीं है आरोपित किया जाता है, जेसे जल परश्वेतषूप या
आकाश पर नीललरूपका आरोपण होता है।] (३) तीसरा पक्ष प्रभाकर-
मी्मांसकों के दल के कु लोगो का है जो कहते ह कि प्रकाश के ज्ञान के अभाव
को मन्धकार कहते ह । (४) अन्त में नेयायिकों का सिद्धान्त है कि प्रकाश
काही अभाव अन्धकार है। [ इसे कुछ दूसरे लोग भी मानते है । |
उप्यक्त शंका होने पर इसका उत्तर निम्नलिखित रूप से दगे ।
तत्र द्रव्यत्वपक्षो न घटते । बिकट्पानुपपत्तेः । द्रव्यं
मवदन्धकाराख्यं परथिव्याद्यन्यतममन्यद्वा। नाचः । यत्रान्तभोवो-
ऽस्य तस्य यावन्तो गुणास्तावद्गुणकत्वग्रसङ्गात् । न द्वितीयः ।
^ © ॐ
निगेणस्य तस्य॒ द्रव्यत्वासंभवेन द्रव्यान्तरत्वस्य सुतराम-
संभवात् ।
( १ ) इनमे अन्धकार को द्रव्य मानने वाला पक्ष संभव नहीं है क्योकि
निश्नलिखित दोनों ही विकल्प असिद्धहो जाते रै । प्रशन है क्रि यह अन्धकार
नामक द्रव्य पृथ्वी आदि नौ द्रध्यों मे ही किंसी के अन्तगंत हैया इनके अतिरिक्त
दश्चम द्रव्य है ? पहला पक्ष नहीं लिया जा सकता क्योकि जिस द्रव्य में अन्धकार
का अन्तर्माव ( 17018100 ) करगे उस द्रव्यके सभी गुण अन्धकारकेभी
अपने गुण होगे, एेसी स्थिति हौ जायगी । दुसरा पक्ष, किं अन्धकार दशम
द्रव्यै, मी स्वीकायं नहीं है क्योकि अन्धकार निर्गुण होन के कारण पहले
तो द्रव्य ही नहीं हो सकता ( `. द्रव्य सगुण होता है), द्रव्यान्तर होना तो दुर
कीबात है।
विशेष-अन्धकार को यदि पृथिवीमें लेते तो पृथिवी की तरहही
उसमे भी चौदह गरा मानने पड़गे । फिर तो अंधक्रार मे भी शुक्ल, पीत आदि
नाना प्रकारके रूप ओर रस, गन्ध आदि गुण होने लगे । लेकिन बात एेसी
नहीं है! इसी प्रकार जलमें अन्धकार का ग्रहण करने से शीतस्पद्चं, रस,
द्रवत्वं आदि गुणों की उपलब्धि होने , लगेगी । तेजस् में अन्तर्भाव करने पर
ष्ट | सर्वदशेनसंग्रहे-
उष्णस्य आदि कौ उपलन्धि होगी । पृथिवी आदि नौ द्रव्यो मे रहने बाले
गुणो का निदधन भाषा-परिच्छेद ( ३०-३४ } मे किया गया है-
१. वायु-स्पर्थ, संख्या, परिमाण, पृर्थक्टव, संयोग, विभाग, परत्व, अपरत्व
तथा वेग नामक संस्कार (९ युए ) ।
२२. तेजस्-- स्पा आठ, खूप, वेग, तथा द्रवस्व ( ११ गण ) ।
३. जल-- स्पर्शादि अट, वेग, गुरुत्व, द्रवत्व, ल्प, रस्त तथा स्नेहं
( १४ गुण )
%. पृथिवी-- स्पर्शादि आठ, वेग, गुरुत्व, द्रवत्व, ल्प, रस तथा गन्ध
( १४ गुण ) ।
५. जीवात्मा-- वुद्धि, सल, दुःख, इच, रेष प्रयल्ञ, संख्या, परिमा,
पृथक्व, घंयोग, विभाग, भावना नामक् संस्कार, घमं तथा अधमं ( १४ गुण )।
५ क. ईश्वर--संख्यादि पाँच, वुद्धि, इच्छा, प्रथन ( र गुणा )।
द. आकाद्वा--संख्यादि पाँच, शब्द ( ६ गुण ) ।
७.८. काल ओर दिशा--संख्यादि पच ( ५ गुण )।
९. मनस्--परत्व, अपरत्व, संख्यादि पाच तथा वेग (> गुण ) 1
दूसरे विकल्प मे यह कहा गया है कि गुण द्रव्यो मे रहता है जब कि
जन्धकार मे कोई गुण नहीं । फिर अन्व को किल आघार पर द्रव्य मानने ?
जब द्रव्य ही नहींतो दशम द्रव्य होने कौ बात कहां से अयेगो ? दरवाजे के
आतर ही आना कठिन है सभापति होने का स्वप्न् कहां से देख रहे ह?
नु तमारशष्याम लत्वेनोषलम्यमानं तमः कथं निगैणं स्या-
दिति चेत्-तदसारम् । गन्धादिव्याप्तस्य नीलरूपस्प तन्नि
वृत्तौ निवृत्तेः ।
अथ नीलं तम इति गतेः का मतिरिति चेत्-नीरं नभ
इतिवद् आन्तिरेेत्यरं ब्रृद्वीवधया । अत ए नारोपितसूपं
तमः । अधिष्ठानप्रत्ययमन्तरेणारोायोगात् । बाह्यालोकसहका-
रिरहितस्य चश्ुषो रूपारोपे सामथ्यीनुपलम्भाच् ।
अब आप यह पू सक्ते हैकि तमालवृक्ष के समान इयामल-ल्प मे पाये
जाने वाले अन्धकार कौ आपि निगुण कंसे कहते है? यह प्रन निस्सार ट
अयोकि गन्ध, रस आदि गुणो से व्याति जो नीलल्प है वह व्यापक ( गन्धादि
गुणों ) के नष्ट होते ही स्वयं भौ न्ट हो जातादै। । जहाँ -जहां नीलल्प है
ओद्ध्य-दशेनम् ४९१
वहाँ-वहां गन्ध, रस आदि गुण है जेसे ्रियंगु कौ कलिका गादि । यह व्याप्ति
हई । यहाँ नौलरूप व्याप्य हि, गन्धादि व्यापक । व्यापक का यदि अभावहो
तो उस स्थान परया उप्तद्रव्यमें व्याप्यका भीतो अभाव होगा । अन्धकार
में व्यापकं ( गन्ध, रस, स्प आदि गुण ) मिलते ही नहीं, इसलिए व्याप्य
अर्थात् नीलूप भी अन्धकार में नहीं ही है--यह सिद्ध हुजा । ]
अव यह् पृछा जा सक्ता है किं [ यदि नीलषूपं तमः" नहीं कहुकर नीलं
तमः" अर्थात् ] अन्धकार नीना होता है, एेसा कहें तो क्या हानि है ? यह वाक्य
ठीक उस वाक्य की तरह ्रान्तिपूणं है जब हम कहते हैँ कि जाकाड नीला है ।
[ वस्तुतः आकाश्च शून्य है किन्तु भ्रमसे नीला प्रतीत होतादै]) वृढों( भाट
मीमांसकं ओर वेदान्तियों ) के दोषों कौ अधिक आलोचना ( वीवधा = दोषा-
लोचन ) करना व्य्थंहै।
(२) इसीलिए [ श्रीधराचायं की यह मान्यता कि ] अन्धकार वह है
जिस पर रूप का आरोपण ( [701]0081107 ) हआ है" भी ठीक नहीं । [ इसी-
लिए = चकि अन्धकार द्रव्य ही नहीं है इसलिए । ] कारण यह है करि अधिष्ठान
( आधार §प्०ऽध्षकप्पा) ) का ज्ञान हए बिना किसी का आरोपण नहीं किया
जा सकता । [ रस्सी देखने कै बाद ही उसपररसांप काआरोपण होता दहै,
शंख देखने के बाद ही पित्त दोष के कारण उस परर पीतत्व आदि गणको
आरोपित करते है । अन्धकार पर नीलखूप का आरोपण तभी सम्भव है जब
कोई आधारहो। | दृषरा कारण यह हैकि बाहरी प्रकाश की सहायता जब
अखि को नहीं मिलती है तब वहलूपके आरोपमें समथं नहीं हो सकती ।
[ अन्धकार में कोई प्रकाश तोदहै नहींकि आंख उसे देखकर उसपर नीलया
किसी रूपका आरोप कर सके । बाह्य प्रकाज्ञ की सहायता लेने पर ही आंख
किसी पदाथं कौ पीला, नीला या हरा समञ्चती है, प्रकाशाभावमें किसीभी रूप
का आरोप करना उसके लिए नितान्त असम्भव है। |
न॒ चायमचाक्षुषः प्रत्ययः । तदुविधानस्यानन्यथासिद्ध-
त्वात् । अत एव नालोकन्ञानाभावः । अभावस्य प्रतियोगिग्राह-
केन्द्रियग्राद्यत्वनियमेन मानसत्वग्रसङ्गात् ।
अंधकार के ज्ञान को अचाष्चुष ( नेव्रेन्दरिय से असंबद्ध, मानस) ज्ञान मी नहीं
कहा जा सकता । कारण यह है कि चश्षुरिन्दरिय के द्वारा तमकाज्ञान होता दहै,
यह् विधान निरर्थक ( अन्यथासिद्ध) हो जायगा । [ भाव यहदहैकि अन्धकार
४४२ सबेदशनसंग्रदे-
का ज्ञान चक्षुरिन्द्रियं की अपेक्षा रखता । यह अवेक्षा तब असिद्ध हो जायगी
जब हम अन्धकार-ज्ञान को अचाश्ुष मान लेंगे । |
( ३ ) इसलिए ( अन्धकार दकि चाशचुषज्ञान से ज्ञेय है इसलिए ) आलोक
के जान के अभाव को अन्धकार नहीं कह सकते । यहं एक नियम है कि अमाव
उसी इन्धिय के द्वारा ग्राह्य हो सकताहै जो इन्द्रिय उसके प्रतियोगो ( विरोधी )
का ग्रहणा कर सके) इसलिए अभाव मानस ज्ञान है [ क्योकि अभाव का
परतियोगो यहां आलोक-ज्ञान है जिसे मनके दवारा ग्रहण करते । जिस
वस्तु का अभाव होता दहै वह वस्तु उप्र अभाव का प्रतियोगी समन्ञी जातीदहै।
अभाव को धर्मी कर्टेगे, आलोकज्ञानाभाव धर्मी है, आलोक-ज्ञान प्रतियोगी ।
जो इन्द्रिय प्रतियोगी का ग्रहण कर सकती दहै वही धर्मीका भी ग्रहण कर
सकती ह । आलोकन्ञान चाश्ुष नहीं है, मन के द्वारा ही ग्राह्य होता है इसलिए
आलोकज्ञानाभाव भो मानस होगा। यदि मानसदहैतो अन्धकार का लक्षण
आलोकज्ञानाभाव कैसे होगा ? अन्धकार तो चाक्षुष पदार्थहैन?] इसप्रकार
अन्धकार के विषय में प्रभाकर का सिद्धान्त भी समात् हुजा । |
( १३. अन्धकार के विषय में वेशोषिक-मत )
तस्मादालोकाभाव एव॒ तमः! न च विधिप्रत्ययवेयतवे-
नाभावत्वायोग इति साप्रतम् 1 प्रर्यविनाशावसानादिषु व्य-
भिचारात् । न॒ चाभावे भावधमीध्यारोपो दुरुपपादः । दुःखा-
भावे सुखत्वारोपस्य संयोगाभावे विभागत्वाभिमानस्य च
दृष्टत्वात् ।
इसलिए प्रकाश का ही अभाव अन्धकार है। यहां एेसा संदेह नहीं किया
जा चकता कि अथकार विधानात्मक ( ^.1{1108 0९९ ) शब्द के दारा ज्ञेय हं
ओर इसीलिए उसमें अभाव-शब्द का प्रयोग करना ठीके नहीं है । [ भावात्मक
शब्दो के द्वाराही अंघकारक्रा बोध कराना ठीक है। ] प्रलय (सृष्टका
अभाव ), विनाश ( सत्ता का अभाव ), अवसान ( समाति ) भादि शब्द यद्यपि
अभाव के योतक दै किन्तु इनका प्रयोग विधानार्थक सूपसे ( जेसे- प्रलयः
अस्ति) भी होता है - संदेह करने से इन शदो मे व्यभिचार ( असिद्धि) होगा ।
[ इस प्रकार यह अनुमान गलत हो गया किं जिन शब्दोंमे नकार का उल्लेख
नहीं भावरूप ज्ञान के विषय दही है । वस्तुतः नज.न रहने पर भी अभावाथं
~
ककु वावा कत" छ ऋत क च र ` क क = का ` "क का "कः धाक श ` ऋ
च त ५ ~= तर धा क का का क का काकताति = = का क्् क ऋका = का क क व ~
ओद्धक्य-दशेनम् ४४३
हो सकता है इसलिए अन्धकार स्वकः भावात्मक होने पर भौ अरथंतः
अभावात्मक है । |
ठेसा उदाहरण मिलना कठिन नहीं है कि अभमावातमक पदां ( जेसे
अन्धकार ) पर भावात्मक पदार्थं ( जैसे नीलपुष्प आदि ) के धर्मो ( जेसे--
नीलत्व ) क। आरोपण हो । दुःख का अभाव होने पर सुखत्व का आरोप देखते
है तथा संयोग का अभाव होने पर विभागका बोध होता है। [ उसी प्रकार
प्रकाशाभाव होने पर अन्धकार का बोध होता है। |
न चालोकाभावस्य घटाद्यभाववद् रूपवदभावत्वेनारोकसा-
पेश्चचक्ष्जन्यज्ञानविषयत्वं स्यादिव्येषितव्यम् । यदग्रे यदेश
चक्षुः, तदभावग्रदेऽपि तदपेक्षत इति न्यायेनालोकग्रहं आलोका-
वेक्षाया अभावेन तदभावग्रहेऽपि तदपेक्षाया अभावात् ।
ठेसा भी कहना नहीं चाद्दिए क्रि जैसे [रूपसे युक्त ] घटादि पदार्थोका
अभाव, आलोक की सहायता से, आंखो के ज्ञान का विषय होता है ( ~प्रकाश
की सहायता पाकर अखं देव सकती हैँ ) उसी प्रकार आलोक का अभाव भी,
रूपयुक्त पदार्थं का अमाव होने के कारण, प्रकाशयुक्तं आंखोके ज्ञान का
विषय होगा । जिस पदाथं का ग्रहण करने में जिसकी अपेक्षा आंखों को
होती है, उस पदाथं के अभावका ग्रहण करने के समय भी आंखे उसौ की
अपेक्षा करती है- इस नियम से आलोक का ग्रहण करने में यदि ओंखोंको
किसी द्सरे प्रकाश की अपेक्षा नहीं रहती है तो आलोक के अभाव का ग्रहण
करने के समय भी प्रकाश की अपेक्षा नहीं रहेगी ।
न चाधिकरणग्रहणावरयं भावः । अभावप्रतीतावधिकरण-
ग्रहणावर्यंभावानङ्गीकारात् । अपरथा, "निवृत्तः कोलाहलः
इति शब्दग्रध्वंसः प्रत्यक्षो न स्यात्--इति अप्रामाणिक परवच-
नम् । तत्सर्वमभिसंधाय भगवान्कणादः प्रणिनाय सवरं --द्रव्य-
गुणकमेनिष्पत्तिवेधम्यौदभावस्तमः' ८ ० ° ५।२।१९ )
इति ।
एेसा नहीं सोचना चाहिए कि अन्धकार ( प्रकाशाभाव ) का ग्रहण करने
के लिए अधिकरण ( स्थान, आधार) काभी ज्ञान प्राप्त करना आवर्यक है,
>
४४४ सबंदशनसंप्रहे-
क्योकि अभाव की प्रतीति (ज्ञान) कै लिए अधिकरण का ग्रहृण करना
आवश्यक नहीं माना जाता । यदि एे्ा नहीं होता तो कोलाहल समापहो
गय इस वाक्य मेँ जौ शब्द ( आवाज ) का प्रध्वंस समज्ञा जाता है वह प्रत्यक्ष
नहीं होता [ क्योकि शब्द का आश्रय आकाश है, वह आकाश प्रत्यक्ष का विषय
है ही नहीं-- इस तरह शब्द ओर शब्दाभाव दोनों ही आधारके अप्रत्यक्ष होने
के कारण प्रत्यक्षीकृत नहीं होते । किन्तु यह बातत लोकसिद्ध है करि दोनों का
प्रत्यक्षीकरण होता ह । अतः अन्धकार आलोककाही अभाव है, यह सिद्ध
हो गया । ] इष प्रकार दुसरे मतवादियों ( नैसे--भाषटर, वेदान्ती आदि ) के
सिद्धांत अप्रामाशिक है ।
अनः इन सारो समस्याओं पर विचार करते हुए भगवान् कणाद ने सूत्र
लिखा है अन्धकार एक अभावहै जो द्रव्य, गण ओर कमं की निष्पत्ति
( उत्पत्ति ) से विलक्षण होता है ।' ( वैशेषिक सूत्र ५।२।१९ ) ।
विहोष--अन्धकार को उत्पत्ति ओर विनाश दोनों होते है। इषलिए
सामान्य, विज्ञेष मौर समवाय में तो इसक्रा अन्तर्भाव हो ही नहीं सकता क्योकि
ये पदाथं नित्य हैँ । द्रव्य, गुणा मौर कमं की उत्पत्ति होती है परन्तु इनमे भी
अन्धकार खपाया नहीं जा सकतः क्थोकि अन्धकार की उत्पत्ति इनकी उत्पत्ति से
बिल्कुल ही भिन्न है । उत्पन्न होनेवाला द्रव्य अवयवों से आरभ होता है।
अंधकार कौ अनुभूति अकस्मात् हीहो जाती है जब कि प्रकाश का अपसरण
होता है । गुण ओर कमं की उत्पत्ति द्रव्य को आधार लेकर ही होती है, अन्धकार
के साथ ेसी बात नहीं है।
इस प्रकार निष्कषं निकलता है कि अन्धकार अभाव है। परन्तु किसका
अभाव ? तो उत्तर होगा क्रि आलोक का अमाव ही अन्धक्रार है। अब प्रसंगत
अभाव को सप्तम पदा्थं मानकर इसका विवेचन करना अपेक्षित है ।
( १४. अभाव का विवेचन )
अभावस्तु निषेधद्चुखप्रमाणगम्यः सप्तमो निरूप्यते। स
चासमवायत्वे सत्यसमवायः । ॑
संक्षेपतो द्विविधः-- संसग मावान्योन्यामावभेदात्। संसगा-
भावोऽपि त्रिविधः प्राक्परष्वंसात्यन्ताभावभेदात्। तत्रानित्योऽ-
नादितमः प्रागभावः । उत्पत्तिमानबिनासी प्रध्वंसः | प्रतियो-
(कं ~+ क ५ ्
व्यक क क न कृ = ७ > ककः == ०८ ? ककाककक कत अन्नः. ` ४ ¢ भोः
ओद्धक्य-दशनम् ४४५
ग्याश्रयोऽभावोऽत्यन्ताभावः । अत्यन्ताभावव्यतिरिक्तत्वे सति
अनवधिरभावोऽन्योन्याभावः ।
अभाव निषेधात्मक प्रमाणोंसे जाना जाता है तथा यहु सत्तम पदार्थं
माना गयादहै) अभाव उस पदार्थं को कहते ह जो समवाय-संबन्ध से रहित
होकर समवाय से भिन्नहो। [स्मरणीय कि द्रव्य गुण, क्म, सामान्य ओर
विरोष मे समवाय-संबन्ध रहता है ! प्रथम विशेषण ( असमवायत्वे सति ) के
दवारा इन सभी पदार्थो से अभावके पार्थक्यया व्याव्तंन का प्रदर्शन हआ है।
द्रव्यो का समवाय-संबन्ध अपने पर आधित गुणादिके साथहोताहै) गुण
ओर कमं अपने आश्रय द्रव्यके साथया अपने पर आशित सामान्यके साथ
समवाय-संबन्ध रखते हँ । सामान्य का भी अपने आश्रयस्वहूप द्रव्य, गुण ओौर
कमं के साथ समवाय-संबन्ध रहता है। विशेष भी किसीसे पीषेनहीं। वे
आश्रयस्वरूप नित्य द्रव्यो के साथ ही समवाय-संबन्ध रखते है। ओौर तो ओौर,
अनित्य द्रव्य तक्र अपने-अपने अवयवों से समवेत रहते हीरहै। समवायका
तो समवाय इसलिए नहीं होता है कि अनवस्था-दोष होगा । "असमवायत्वे सति"
कह्ने से ओर पदार्थो की व्यावृत्ति तो हो गई किन्तु समवाय की व्यावृत्ति कैसे
हो ? इसलिए साफ कहते है कि अभाव समवाय नहीं है (असमवायः) ¦
यदि एेसा नहीं कहँ तो समवाय-पदाथं मे अतिव्याति होगी अर्थात् अभावका
लक्षण समवाय को भी व्याप्तकरलेगा। |
संक्षेप मे अभाव दोप्रकारका होता है- संसर्गाभाव ओर अन्योन्याभ।व।
[ संसं का अथं है सम्बन्ध । संसं को प्रतियोगी ( विरोधी ) मानकर जो
निषेध किया जातादहै उसे संसर्गाभाव कहते है- एक वस्तु में दूसरी वस्तु के
सम्बन्ध का निषेव संसगभिवदहै। प्रागभावका जो उदाहरण देते हैकि
घटोत्पत्ति के पहले यहां घट नहीं था, तो यहाँ भिह्री के पिडमें घटके सम्बन्ध
काही निषेध होता है। उसी प्रकार प्रष्वंसाभावके उदाहरणा मे कहते हैकि
घटनादा के बाद यहाँ घट नहीं है। यहाँ मिदटी के द्रुकड़ों में घटके सम्बन्धका
निषेध किया जाता हे ।* अत्यन्ताभाव के उदाहरणा मे कहते है कि भूतल में घट
नहीं है--इसमें भूतल में ही घट के सम्बन्ध का निषेव होता है। प्रागभाव ओर
्रष्वेसा भाव क्रमशः विनाशक्षील ओर उत्पत्तिशील होने के कारण अनित्य है ।
अत्यन्ताभाव गौर अन्योन्याभाव नित्य ह --उत्पत्ति-विनाश से रहित है।
संसर्गाभाव जहां एक वस्तु मे दूसरी वस्तुके सम्बन्ध का निषेध करता है,
अन्योन्यामाव एक वस्तु को दूसरी वस्तु मानने का निषेध करता है।
४४६ सवेदशनसंगरहे-
पहले का उदाहरण दहै-कमे ख नहींहै। दुरे का उदाहरण है-क्रख
नहीं है । |
संसर्गाभाव तीन तरह का है- प्रागभाव, प्रष्वंसाभाव तथा अत्यन्ताभाव ।
उनमें पागमभाव अनित्य तथा सबसे अधिक अनादि होता है। [ अनादितम का
अथं है वैखा अनादि जिसका आदिहो ही नहीं। यों तो किसी पुराने मन्दिर को
देख कर यहु कह देते है क्रि यह अनादि कालका है। यहाँ पर यद्यपि मन्दिर
अनादि नहीं है, कभी-न-कभी उसका आरम्भ हुमा ही होगा, परज्ञान न होने
कै कारणा उसे अनादि कहा करते हैँ । प्रागभाव वैसा अनादि नहीं है । घटोत्पत्ति
के पूवं घटका भभाव कब सेह, ब्रह्मा भी नहीं बतला सकते, ओरों कीतो
बातहीक्याहै? इसप्रकार प्रागभाव की उत्पत्ति का काल क्रिसी के लिएभी
अज्ञेय है। | |
प्रध्वं साभाव वह है जिसक्ती उत्पत्ति होती है किन्तु जिसका विनाश नहीं
होगा । [ दुसरे शब्दो मे जिसका आरंभ हो किन्तु अन्त नहीं हो वही प्रध्वंसाभाव
है। घटके पट जाने पर अभावका आरंभतो हृ किन्तु इसका अन्त नहीं
हो सकता-- ब्रह्मा भी घटाभाव को इयत्ता नहीं बतला सकते । ] अत्यन्ताभाव
वहु अभावटहै जो अपने प्रतियोगी मे आश्रय ग्रहण करे। | प्रागभाव ओर
प्रध्वंसाभाव का आश्रय कभी प्रतियोगी ( विरोधी ) नहीं होता क्योकि प्रतियोगी
( घट ) के साथ इनका सम्बन्ध-भेद नहीं होता-हम नहीं कह सकते कि घट
मे चट का अभावौ (यह उदाहरण अत्यन्ताभाव का होगा जो अनादि ओर
अनन्त होता है )। घटोत्पत्ति के पूवं जिस समय प्रागभाव रहता है उस समय
घटाभाव का प्रतियोगी ( धट ) नहीं रहता । उसी तरह घटना के पदचात्
( प्रष्वंसाभाव के समयमे) भी घटाभाव का प्रतियोगी ( घट ) नहीं रहता है ।
अन्योन्याभावे भौ यह बात है। षट घटाभाव है-एेसा हम नहीं कह सकते ।
केवल अत्यन्तामावमें ही आश्रय प्रतियोगी होता है। भूतल में घट का अभाव
है--इस वाक्य में भूतल आश्रय है, घटाभाव धर्मी जिसका प्रतियोगी धट होता
है। अव यह घटाभाव अपने प्रतियोगी मे भी रह सकता है-घट मे घटाभाव
है । कोई पदाथं अपने में नहीं रह सकता है-- घट मे घट नहीं रहेगा! अत्यन्तामाव
ओर अन्योन्याभाव का प्ृथक्करणा होता है । अत्यन्ताभाव प्रतियोगी के समाना-
धिकरण होने पर कभी मी प्रतीत नहीं होता--भूतल में घट की सत्ता होने पर
उसमे घटात्यन्तामाव होता है फिर भी प्रतीत नहीं होता। दूसरी ओर अन्यो-
न्याभाव की प्रतीति प्रतियोगी ( घट ) के समानाधिकरण होने पर भो होती है,
घटयुक्त भूतल में भी घटभेद की प्रतोति होती है। अत्यन्ताभाव के उपयुक्त
ओदक्य-दशेनम् ४७
लक्षसा मे "अभाव" शब्द नहीं रखें, केवल श्रतियोग्याश्चयः' ही करे तो प्रकाश
मे अतिव्यात्नि होगी) आकाश्चके समान सूर्यप्रकाश व्यापक है- इस वाक्य में
साददयसम्बन्ध का अनुयोग प्रकाश है । प्रतियोगी आकाश है! प्रकाश आका
मे आधित है अतः यह भी प्रतियोगी में आधित होने के कारणं अत्यन्ताभाव के
लक्षण से ही लक्षित हो जायगा । अभावः कहने से एेसी समस्या नहीं उषगी
क्योकि प्रकाश अभाव नहींदहै।]
अन्योन्याभाव वह अभाव है जो अत्यन्ताभाव से पृथक् है तथा
[ कालगत ] अवधिसे रहित दै। [ अमाव शब्द का प्रयोग करने से नित्य
परमाणुओं तथा आकाशादि भावों मे अतिव्याप्ति रोको जाती है। अनवधि का
अर्थं है नित्य । |
नलु अन्योन्याभाव एवात्यन्ताभाव इति चेत्--अहो राज-
मार्म एव अरमः। अन्योन्यामाबो हि तादारस्यप्रतियोगिकः
प्रतिषेधः । यथा घटः घटात्मा न भवतीति । संसंप्रतियोगिकः
प्रतिवेधोऽत्यन्तांभावः। यथा वायौ रूपसम्बन्धो नास्तीति ।
न चास्य पूरुपार्थोपयिकत्वं नास्तीत्याशङ्कनीयम् । दुःखा-
त्यन्तोच्छेदापरपर्यायनिःरेयसरूपत्वेन परमपुरुषाथंतवात् ॥
इति श्रीमत्सायाणमाधवीये स्ैद्ीनसंग्रदे ओल्क्यदशेनम् ॥
2
अब यदि कोई यह सोचे किं अन्योन्याभाव ही अत्यन्ताभाव हैतो हम करेगे
किं आप लोगों को राजमार्गं ( चौडी सड़क ) पर भी रास्ता भूलना पड़ रहा
है। तादात्म्य के विरोधी प्रतिषेष ( ९8४0" ) को अन्योन्याभाव कहत
ह जैसे- घट पट कौ आत्मा नहीं है [ यहाँ घट जओौर पट के तादात्म्य ( एक-
हूपता 10८धध्फ़ ) का प्रतिषे होता है-घट पट नहीं हे, धटात्मा पटत्मा
नहीं है । | दूसरी ओर, अत्यन्तामाव वह प्रतिषेष है जो संसं या सम्बन्ध का
विरोध करता है जैसे- वायु में रूप का सम्बन्ध नहीं है [ इसका उलटा होगा-
"वायु में रूप है", यहां सम्बन्ध बतलाया जा रहा है। |
ेसी आशंका नहीं करनी चाहिए कि यह ( अभाव) पुरुषां प्रात्तिका
साधन ( उपाय ) नहीं हो सक्ता । | तात्पर्यं यह है करि छह पदार्थो के तत्वज्ञान
धरत सबेदशनसंग्रहे-
से मोक्ष प्राप्त होता है, यह तो सिद्ध है- कणाद ने ही कहा है । परन्तु अभाव के
ज्ञान से यह लाभ कहां तक हो सकता है ? यही शंकाक्ार की शंकाहै, पर यह
ठीक नहीं । ] दुःख का आत्यन्तिक विना होना, जिसे दुरे शब्दों मेँ निःश्रेयस
( मोक्ष ) कहते है, वही तो परम पुरुषां ( उपपरप एता ) है। `
[ अभाव को पुरुषाथं का उपयोगी नहीं मानते है इसमे कोई क्षति नहीं है। यह
अभाव स्वयं ही परम पुरुषां है । दुःख का आत्यन्तिक अभाव ही मोक्षहै।
इस प्रकार मोक्ष अभावात्मक् शब्द है । |
इस प्रकार सायणमाधव के सवं दशनसंग्रह मे ओदूवय-दर्न [ समाप्त हज | ।
इति बालकविनोमाश्चङ्करेण रचितायां सवं दशनसंग्रहस्य प्रकाशाख्यायं
व्याख्यायामौङ्क्यद्च॑नमवसितम् ।
नक >
( | १ ›) अक्तपाद-दरंनम्
निःश्रेयसाधिगतिरत्र त॒ षोडशानां
्ञानासमाणमिह वेत्ति चतुष्टयं यः।
देशो जगत्सघजति यस्य मते स्वतन्त्रो
न्यायप्रवतंकमहामुनये नमोऽस्मे ।--ऋषिः।
( १. न्यायद्ाख की रूपरेखा )
तचज्ञानाद् दुःखात्यन्तोच्छेद्लक्षणं निःश्रेयसं भवतीति
समानतन्त्रेऽपि प्रतिपादितम् । तदाह त्रकारः ---प्रमाणप्रमेये-
त्यादितचज्ञानान्निःभ्रेयसाधिगमः ( न्या० ० १।१।१ , इति ।
इदं न्यायश्ञाखरस्यादिमं खत्रम् \
हमारे समान ही सिद्धान्तो वाङे न्याय-दर्न ( समान-तन्त्र ) मे कहा गया
है कि तत्तव काज्ञान हो जानि पर वह निःश्रेयस ( मोक्ष ) प्राप्त होता है जिसमें
दुःखों का आत्यन्तिक ( 12118061 ) उच्छेद ( विनाश) हो जातादहै
( न्या० सूऽ १।१।२९ ) । तो सूत्रकार ( गौतम मुनि) नेही कहा है प्रमाण
प्रमेय इत्यादि पदार्थो का तत्त्व जान लेने पर निश्रेयस की प्राप्ति होती दै। यह्
त्यायश्चाख्र का प्रथम-सूत्र है ।
विरोष-- वैशेषिकदाखर से न्यायशास्त्र के सिद्धान्त बहत-कुछ भिलते-जुलते
ह इसकिए वे एक दूसरे को समानतन्त्र कहते ह । तन्त्र = सिद्धान्त । न्यायदशेन
का प्रथम ग्रन्थ न्यायसूत्र है जिसमें पाच अध्याय हैँ । इसके प्रणेता गौतम ह ।
गौतम अपने मत के दूषक व्यास ( वेदान्त-सूत्रकार ) के मुख को अपनी आंखों
सेन देखने की प्रतिज्ञा करच्केये। बादमें व्यासने हाथ-पेर पड़कर उन
ब्रसन्न किया तो गौतम ऋषि ने केवल इतनी ही कृपा की कि अपने पेरोमे आं
लगाकर उन देखा । तब से गौतम को लोग अक्षपाद कहने खगे । एक दूसरी
क्रिवदन्ती भी है कि गौतम अपने न्यायशाख्र की धुनमे तकं करते हुए कहीं जा
रहे ये । अन्तरङ्ग मे इतने तज्ञीन थे किं बहिरङ्गकी वुध-वुध खो बेटे बस,
न देख सकने के कारण एक कए मे गिर पडे । विधाता ने इन्ह निकाला ओर
जिससे रास्ता दिखलाई पड सके इसलिए पैरो मे भी अखिदे दीं! इन दोनों
२६ स सं°
‰५० सर्बदशनसंग्रहे-
(क्रवदन्तियो का सार यही है कि नेयायिकों का वेदान्तियों से विरोध दैतथावे
अपने शाल में इतना तल्लीन रहते हैँ कि बाह्य जगत् का कोई पता नहीं टोता ।
न्याय-द्ोन नाम पड़ने का कारण वात्स्यायन अपने भाष्य मे देते टै-
प्रमाणैरवस्तुपरीक्षणं न्यायः ( १।१।१ ) अर्थात् प्रमाणो का संग्रह करके उनसे
प्रमेय वस्तु की परीक्षा करना न्याय है 1 न्यायमें इन प्रमाणो के स्वरूप तथा
वस्तुकी परीक्षा-श्रणाली का सम्यक् वणन होता है) इसके दूसरे नामर्है-
आन्वीक्षिकी ( अनुमान-शालर ), तकंविद्या, वादशा, प्रमाणशाखर, हेतृविया
( क्योकि अनुमान मे मख्य स्थान हेतु काटी होतादटै) आदि । <
न्यायश्चाखं च पश्चाध्यायात्मकम् । तत्र परत्यध्यायमाहिक-
दयम् । तत्र प्रथमाध्यायस्य प्रथमादिके भगवता गोतमेन
परमाणादिषदार्भेनवकलक्षणनिरूपणं विधाय द्वितीये बादादि-
सक्षपदा्थलक्षणनिरूपणं कृतम् । द्वितीयस्य प्रथमे संशायपरीक्षणं
परमाणचतुषटयाप्रामाण्यशङ्कानिराकरणं च । द्वितीयेऽथापस्यादेर-
न्तभावनिरूपणम् ।
न्यायशाख (गौतमीय न्यायसूत्र) पाच अध्यायो का है जिनमें प्रत्येक अध्याय
मँ दो आहिक ( दिन भर का पाठः ) है । प्रथम अध्याय के प्रथम आद्लिक में
अगवान् गौतम ने प्रमाणादि नौ वदार्थो के लक्षणों पर विचार करके द्वितीय
आधिक मेँ वाद आदि सात वदार्थो के लक्षणों का निरूपण किया है 1 द्वितीय
अध्याय के प्रथम आद्धिक में संशय की परीक्ना करके चारं प्रमाणो को अप्रामाणिक
मानने वालों की शंकाओं का निराकरण किया गया है । इसी अध्याय के द्वितीय
आधिक मे [ अन्य दाशेनिको के द्वारा स्वीकृत अन्य प्रमाणो जसे ] अर्थापत्ति
({णाःरप०प) आदि का अन्तर्भाव [ इन्हीं चार प्रमाणो मे ] किया गया टै 1
विक्नोष - न्यायशाख्र मे सोलह पदार्थो ( (81601168 ) के ज्ञान से मोक्ष-
प्राप्ति बतलाई गरईदटै। वे वदां गौतमीय न्यायसूत्र के प्रथम सूत्रम ही वणित
ह~ प्रमाण ( 90१९५९३ + ९8]; 0१1९4९९ ), प्रमेय ८ (०१९९४
९8110 1710५16१€ ), संशय (1) प), प्रयोजन ( एप ])०§€ ), ष्टान्त
( {81011187 1708४81९ ), सिद्धान्त ( {5{8011811€0 ५९०९४ ), अवयव
( {6068 ), तकं { (0पि्॑प्ण) ) निर्णय ( ७९९)(817 06४ ),
वाद ( 18608810) )› जल्प ( ५११४९] ). वितण्डा ( (;8ए)) ),
हेत्वाभास ( 81180 ) छल ( दफएण€ ) जाति ( एप्प ) ओर
निग्रहस्थान ( 00683101) {01 #€पोः€ ) 1 प्रथम अध्याय मे सभी पदार्थो
अष्षपाद-दशेनम् ४५१
के लक्षण दिये गये हैं । प्रथम नौ पदार्थं पटले आल्लिकमें अये है, बाद के वादादि
सात पदार्थो के लक्षण दूसरे आल्भिक में हैँ । दूसरे अध्याय में प्रमाणो की परीक्षा
करके बाद में तीसरे अध्याय से प्रमेयादि पदार्थो की परीक्षाकी गई है। न्याय
शास्र मे विषय-विवेचन की तीन प्रक्रियाये है--उदेश अर्थात् पदार्थो या उनके
भेदो कानाम देना ( ाप्फ€पव्ण्मा }, लक्षण ( 6ीण्म ) ओर
परीक्षा अर्थात् लक्षण का विश्लेषण, विवेचन, प्रामाणिकता आदि पर विचार
( धरकषणाप्धठा ) । परीक्षा मे विशेषकर कारण जौर स्वरूप का विचार
. होता है । द्वितीय अध्यायसे ही परीक्षाका क्रम चल पड़ादहै।
ठतीयस्य प्रथम आत्मशरीरेन्द्रियाथपरीक्षणम् । द्वितीये
बुद्धिमनःपरीक्षणम् । चतुथेस्य प्रथमे प्रवृत्तिदोषपरेत्यमावफल-
दुःखापवगंपरीक्षणम् । द्वितीये दोषनिमित्तक(त)त्वनिरूपणमव-
यव्यादिनिरूपणं च । पश्चमस्य प्रथमे जातिभेदनिरूपणम् ।
द्वितीये निग्रहस्थानमभेदनिरूपणम् ।
तृतीयाध्याय के प्रथम आल्लिक मे आत्मा, शरीर, इन्द्रि ओर {अर्थ॑की
परीक्षा हुई है । इसके द्वितीय आधिक में वुद्धि ओर मनकी परीक्षा हुई है।
चतु्थध्याय के प्रथम आल्लिक मे प्रवृत्ति, दोष, प्रेत्यभाव ( पुनजंन्म ), फल,
दुःख तथा अपवगं को परीक्षा हईटै। [ इस प्रकार ३ आद्धिकों मे बारह
प्रमेयो ( (०९९४8 01 ।१०।6५९९.) की परीक्षा हुई है । | द्वितीय आहिक
मे दोष के निमित्तोश्का निरूपण हज टै (या दोष के निमित्तस्वरूप तत्व
का निरूपण किया गया है )। साथ दही अवयवी आदि ( अवयवी का अवयवों
से भेद, परमाणुओं का निरवयव होना, मिथ्योपलन्धि, समाधि, वाद, जल्प
ओर वितण्डा ) का निरूपण भी हुआ है । पठ्चमाध्याय के प्रथम आद्धिक मे
जाति के भेदोंका निरूपण करके द्वितीय आदिक मे निग्रहस्थान के भेदोंका
निरूपण हुआ है ।
उ 9 9 जा
# इस स्थान पर कवि ने सुञ्लाव रखा है कि दोषनिमित्तकत्व ' के स्थान
पर "दोषनिमित्ततत्व' एेसा पाठ होना चाहिए । न्यायसूत्र (४।२।१ ) की
शब्दावली --दोषनिमित्तानां तत्त्वज्ञानादहद्का रनिवृृत्तिः- देखने से भी यह ठीक
लगता है । किन्तुं अभ्यंकर का पाठ या कलकत्ता संस्करण का पाठभी बुरा
नहीं; एकं ही अथं पर पचते हँ ।
४५२ सबवेदशेनसंग्रह-
विरोष- न्यायश्ाख्र के सर्वागीण विकास का बीज न्यायसूत्रमे पाया
जाता है जहाँ सभी पदार्थो का उदेश, लक्षण ओर परीक्षण हुआ टै । बहुत दिनों
तक इसी रूप मे न्यायशाख्न की रूपरेखा स्थित थी । यों तो सभी दाडनिकों
को विपक्षियों के क्रर प्रहार से टकराना पडा किन्तु नैयायिकों ओौर बौदधोका
संघं भारतीय दर्शन के इतिहास में अमर है। गौतम के आविर्भाव (३०० ई
प०) कै वाद कुछ दिनों तक वृक्तियां लिखी जाती रहीं जिन सों का समावेश
करके वात्स्यायन ( ३०० ई० ) ने अपना प्रसिद्ध भाष्य छिखा । दोनो के बीच
भी कई आचायं हो चुके थे किन्तु उनका पता भरहीदटै, वह भी अनुमानके
आधार पर । बौद कीओर से नागान ( १५० ई० ) ने न्यायसूत्र का खण्डन
किया था जिसका उत्तर वात्स्यायन ने भाष्य में दिया । वात्स्यायन का खण्डन
भी जोद्धाचायं दिडनाग (४०० ई० ) ने अपने ग्रथ ( प्रमाणसमुच्चय, न्यायप्रवेश्च
आदि ) मे यथास्थान किया । इनके कुतर्का का उत्तर देकर न्याय की पुनः
प्रतिष्ठा करने वाके भारद्वाज उन्रोतकर ( ५६० ई० ) ने न्यायभाष्य पर अपना
न्यायवािक लिखा । सुबन्धु ने अपने ग्काव्य वासवदत्ता" मे उद्योतकर का
उक्ञेव किया है । दिडनाग के सुप्रसिद्ध टीकाकार धम॑कौति ( ६३५ ई० ) ने
उग्रोतकर का भी खण्डन प्रमाणवातिक, व्यायबिन्दु आदि ग्रन्थोमे कियादटै--
कहीं कहीं उनके सुज्ञावो के अनुसार अपने पक्ष का परिमाजंन भी किया है।
उद्योतकर न्यायशाख्र तथा बौद्धागम के महान् पंडित थे। बौद्धो के प्रहारसे
फिर न्याय की रक्ना करने के लिए वाचस्पतिमिश्र (८४१ ई० ) ने उग्योतकर
के वार्तिक पर तात्पर्य-टीका लिखी। ये मिथिलाके निवासीथे, तथा सभी
शाखं मे इनकी प्रतिभा चमकती थी । तात्पयंटीका की प्रसिद्धिका एक प्रबल
प्रमाण है कि वाचस्पति को 'तात्पर्याचाये' काही नाम दे दिया गया । उसके
बाद न्यायसूत्रों पर न्यायमञ्जरी नामक वृत्तिटीका लिखने वाले जयन्तभदटर
( ८८० ई० ) आते हँ जिन्ोने वि रोधियो के तर्कोका खण्डन करते हुए प्रबल
प्रमाणो से न्यायदर्शंन की विवेचना कीदै। न्यायदशंन मे सबसे अधिक विषयों
का विश्लेषण इसी में है । भासर्वंज्ञ ( ९२५ ६० ) ने न्यायसार लिखा जिसके
विषय भी न्यायमंजरी की तरहके ही है । न्यायदर्शन की इख धारा के सबसे बड़े
रत्न उदयनाचा्यं ( ९८४ ई० ) थे जि्होने वाचस्पति की तात्पयंटीका पर
तात्पर्यपरिृद्धि, ईवर की सिद्धि के लिए न्यायकुसुमांजलि* ओर बौद्धो के
# उदयनाचायं ने भक्त के रूप मे ईरवर का उपारुंभ किया दै--
ठेदवयं मदमत्तोऽसि मामवज्ञाय वतंसे ।
पराक्रान्तेषु बौद्धेषु मदधीना तव स्थितिः ॥।
४ ४५३
वण्डन के किए आत्मतस्वविवेक (या बौद्धधिक्षार )-ये तीन प्रसिद्ध पस्तकं
छिखीं । पिछली दोनों पुस्तकं करई टीकाओं से अलंकृत हैँ ।
अभी तक न्यायदर्लनमें प्रमाणके साथ प्रमेय पर भी विचार-विमहंहो
र्हा था। बौद्धं के तकँसे नैयायिक लोग परेशान हो उठे थे--इसीलिए एक
नई धारा चक पड़ी जिसमें प्रमाणो के विद्लेषण तथा बुद्धिवाद पर अधिक
जोर दिया गया । सूक्ष्मता के किए नये प्रकार के शब्दो-जेसे, अवच्छेदक
( व्याप्त करने वाला ), अवच्छिन्न ( व्याप्त ), प्रकारतानिरूपित ( विशेषण् कै
द्वारा विशिष्ठ ), निष्ठता ( अभेद-संबन्ध ) आदि-- का प्रयोग होन र्ग गया ।
इस भाषा का चाकचिक्य इतना प्रभाव डालने ल्गा कि न्यायतो न्याय, दूसरे
दर्शनों ओर शास्त्रं मे भी इस तरह की भाषा का बेधडक व्यवहार होने ल्गा।
न्याय कीडइसधाराको पुरनीधारासे पृथक् करनेके किए नव्य-न्याय कहा
गया ओर गौतमसे लेकर उदयन तक को प्राचीन-न्याय की शब्दावलीसे
विभूषित किया गया ।
नव्यन्याय के प्रवतंक शङ्खेश उपाध्याय ( ११७५ ६०) थे जिन्होने
तत्त्वचिन्तामणि लिलकर प्रमाणशाख्र का बीज-वपन क्िया। ये मिधिलाके
निवासी ये जहाँ न्याय की धूम मच गई। गंगे के पुत्र वधंमनने चिन्तामणि
पर प्रकाश नाम की टीका लिखी। इसके बादसे गंगेशके ्रथोकी टीकाही
पाण्डित्य की कसौटी मानी जाने लगी । जयदेव मिश्र (या पक्षधर मिश्च १२७८
ई० ) ने तत्त्वालोक-टीका लिखी । नव्यन्याय का प्रसार नवद्रीप (बंगाल) में
वासुदेव सार्वभौम ( १२७५ ई० ? ) ने किया । ये चैतन्य के समकालिक ये
तथा इन्होने तत्त्वचिन्तामणि पर अपनी टीका कीथी। इनके बहुत से शिष्य
हए जिनमे रघुनाथ भद्राचायं अत्यन्त प्रसिद्धथे। इन्टोने ( १३०० ई° )
तच्वचिन्तामणि पर तच्वदीधिति टीका लिखी जो कालान्तरमे स्वतंत्र ग्रन्थ
बन गई तथा जिसपर दही टीका लिखना पांडित्य माना गया। मथुरानाथ
तर्कौवागीश ने आलोक, चिन्तामणि तथा दीधिति पर अपनी टीकायं लिखी
( १५८० ई० ) 1 अंतिम टीका मथुरानाथी के नाम से प्रसिद्ध हुई । ठोक इसी
समय जगदीश भदराचायं ( १५९० ई० ) ने तत्त्वदीधिंति पर अपनी टिप्पणी
कीओर जिसकी भी टीका भिथिलाके शंकर भिश्च ( १६२५ ई° ) ने लिली थी ।
जगदीश की दूसरी कृति शब्दशक्तिप्रकाशिका है जिसमे शब्दशक्ति पर ॒वदुष्यपूणं
विचार दिये गये दहै। गदाधर भटाचा्यने भी तच्वदीधिति पर अपनी बृहत्
व्याख्या प्रस्तुत की जो सवंसाधारण मँ गदाधरीके नाम से प्रचित है । व्युत्पत्ति-
वाद ओर शक्तिवाद जैसे सुप्रसिद्ध ग्रन्थो की रचना काश्रेय भी इन्हींको प्राप्त
५४ सबदशनसम्रद-
है । इस प्रकार न्यायाखर के प्रमुख आचायां ओर ग्रन्थो का उद्ञेख किया
जा सकता है ।
( २. प्रमाण का विचार )
मानाधीना मेयसिद्विरिति न्यायेन प्रमाणस्य प्रथमथुदेल
तदनुसारेण रक्षणस्य कथनीयतया प्रथमोदिष्टस्य प्रमाणस्य
प्रथमं सक्षणं कथ्यते साधनाश्रयाव्यतिरिक्तत्वे सति प्रमाव्याप्र
प्रमाणम् ।
प्रमाण के अधीन प्रमेय की सिद्धिहोतीटहै ( =प्रमाणका विचार करने
पर ही प्रमेय का विचार होता टै )- इस नियम के अनुसार प्रमाण का प्रथम
उज्ञेव किया है । चंकि उदेश ( नामग्रहण ) के बाद लक्षण का विचार करना
चाहिए इसलिए प्रथम उक्िखित प्रमाण का ही लक्षण पके कहा जाता टै--
प्रमाण वह है जो साधनों ( यथां अनुभव के साधन जसे आंख, कान, नाक,
द्धि ) तथा आश्रय ( यथाथं अनुभव के आश्रय अर्थात् आत्मा ) से व्यतिरिक्त
(पृथक्) न हो ओर जो प्रमा ( यथां अनुभव )के द्वारा व्याप्त भीहो।
[ यथार्थं अनुभव को प्रमा कहते हं जैसे षीत का ज्ञान पीतरूप मेँ होना, नीखरूप
म नहीं । प्रमाका करण प्रमाण है अर्थात् जिससे ( जिस साधन से । यथां
अनुभव हो । प्रमा का साधन प्रमा से नित्य संबद्ध रहेगा टही- वही प्रमाण दै!
प्रमा का आश्रय परमेदवर भी नित्यसंबद्ध है किन्तु दूसरा आश्रय जीव नित्य-
संबद्ध नहीं होता, उसे भ्रम हो सकता है । इसकी व्यावृत्ति के लिए श्रमाव्याप्तः
पद रखा गया है जिखसे जीव से प्रथक् न रहने पर भी प्रमाण को यथाथं अनुभव
से नित्य-संबद्ध रहना अनिवायं है । इससे परमेदवर की प्रामाणिकता भी सिद्ध
होगी क्योकि वही खसे अधिक आप्त ( विद्व सनीय ) दै । |
एवं च प्रतितन्त्रसिद्धान्तसिद्ध परमेश्वरप्रामाण्य संग्रहीत
मवति । यदचकथत् प्रत्रकारः --मन्त्रायुर्बेदप्रामाण्यवच्च तत्परा
माण्वमाप्तमरामाण्यात् ( न्या० ० २।१।६८ ) इति । तथा च
न्यायनयपारावारपारद्धः विश्वविख्यातकीतिर्दयनाचार्यांऽपि
न्यायङगसमाञ्रलो चतुर्थं स्तवके--
१. मितिः सम्यक्परिच्छित्तिस्तदटत्ता च प्रमातृता ।
तदयोगव्यवच्छेदः प्रामाण्यं गौतमे मते ॥ (४।५) इति ।
# 9
अक्षपाद-दशनम् ४५५
इस प्रकार ही प्रतितन्वर-सिद्धान्त ( केवल एक तन्त्र या राख मे प्रचलित
सिद्धान्त ) से जो परमेहवर की प्रामाणिकता सिद्ध की जाती है उसका
संकलन भी होतादहै। जेसा किं सूव्रकारने कहा है- जिस प्रकार मन्तो
की ओर आयुवेद की प्रामाणिकता [आप्त प्रमाणसे | सिद्ध होती है उसी
प्रकार उस ( परमेदवर ) की प्रामाणिकता भी यथाथेवक्ता ( आप्त ) की
प्रामाणिकता से सिद्ध होती है ( २।१।६८ ) । [ मन्तो से विषादि का निवा-
रण होता है तथा आयु्वेद-शाख्र से उचित ओषधियों का परिज्ञान होता है ।
इनकी प्रामाणिकता इनके उपदेशकों पर आधारित है क्योकि वे आप्त अर्थात्
यथार्थं का ज्ञान कराने वले ऋषि है । ये इसलिए आप्त ह कि इन्होंने सत्य का
साक्लात्कार किया है, जीवों पर दया की भावना से प्रवृत्त हँ तथा अपने सत्यज्ञान
को मानवो तक पहुंचाते हँ । जैसे मन्त्र ओौर आयुर्वेद की बातों पर विश्वास
करते है । उसी प्रकार आप्त के उपदेश पर विशवास करना चाहिए । यह सूत्र
वेद को सत्ता के विषयमे सुचनादेताटै किवेदके द्रष्टा मन्त्रों ओर आयुर्वेद
के भी लेलक है अतः वेद की प्रामाणिकता भी उसी विश्वास के साथ माननी
चाहिए । इसकिए यह अभिप्राय निकलता है कि सर्वाधिक आप्त ( 6118916 )
परमेखवर की प्रामाणिकता भी सूत्रकार को अभीष्ट है । |
इसी ठंग से न्यायमागं-रूपी समुद्र के पार तक देखने वाले तथा विश्व भर
मे विख्यात कीति वाले उदयनाचा्यं भी न्यायकुसुमांजलि के चतुथं स्तबक ( गुच्छ,
अध्याय ) में कहते हैँ "सम्यक् रूपसे (यथार्थरूपमें) ज्ञान प्राप्त कर लेना
( परि च्छत्तिः ) मिति ( यथार्थं ज्ञान ) है । उससे (प्रमा से) युक्त प्रमाता ( यथार्थं
वक्ता ) होता है [ उख प्रमा से युक्त होना ही प्रमाता बनना है।] उस (मिति
या प्रमा ) से सम्बन्धाभाव (अयोग ) न रहना ( व्यवच्छेद ) अर्थात् मितिसे
आवश्यक सम्बन्ध रहना ही गौतम के अनुसारं प्रामाण्य (प्रामाणिकता .&४॥१०-
116 ) है ।' ( न्यायकुसुमांजकि ४।५ ) ।
वि्ोष--प्रतितन्त्रसिद्धान्त का लक्षण न्यायसूत्र मे इस प्रकार दिया गया
है--समानतन्त्रसिद्धः परतन्त्रासिद्धः प्रतितन््रसिदधान्तः' ( १।१।२९ ) अर्थात् जो
समानतन्त्र मेँ माना जाय, किन्तु दुसरे तन्त्रम स्वीकृत न हो वह प्रतितन्त्र-
सिद्धान्त कहलाता है । शब्द को अन्तिम मानना या परमेइवर को प्रमाण मानना, `
ये प्रतितन्त्र॒ सिद्धान्त हैँ । खमानतन्त्र॒ अर्थात् वैशेषिक दर्शन मे इन्हे मान्य
ठहराते है किन्तु परतन्त्र में जैसे मीमांसा-दशन में इन्ह अस्वीकृत किया गया है ।
उदयनाचायं के विषय में व्यक्त कयि गये माधवाचायं के प्रशंसात्मक उद्गार
बड़ प्रेरक है । पारददवा-- पार + ~./ दय् + क्वनिप् = पारं इष्टवान् ( जो पार
५६ सर्वदशनसंमर हे-
तक्र देके हए हो ) । देविये--अ° ६० ३।२।९४ दृः क्वनिप् । स्यायकुसुमांजलि
मे पांच स्तबक है
२. साक्षात्कारिणि नित्ययोगिनि परद्रारानपेश्षस्थितौ
` भूता्थलुमवे निविषटनिषिलप्रस्ताविवस्तुकरमः ।
ड शादष्टिनिमित्तदृषटिविगमग्रश्रटगङ्कातपः
श॒ङ्ञोन्मेषकलङ्िभिः किंमपरेस्तन्मे प्रमाणं शिवः ॥
( न्या० कु०° ७1६ ) इति ।
तच्तुर्विध ्रत्यश्षानुमानोपमानशब्द भेदात् ।
रे लिए तो वे शिव ही प्रमाण है; सिद्ध पदार्थो करे विषय में जिन (हिव)
का अनुभव प्रत्यक्ष हप से होता है, नित्य के साथ युक्त है ( क्षणिक नहींटै )
तथा किसी भी दूसरे साधन की अपेक्षा नहीं रखता; इस प्रकार के अपने अनुभव
मे जिन्होने सभी ( निखिल ) वतमान ( प्रस्तावी = प्रस्तुत ) वस्तुओं का उता
दनादि क्रम स्थिर कर ल्या है; लेदामात्र भी [ पदार्थोके | न दिखलाई पड़ने
देने वाके ( अदृष्टि-निमित्त ) दोषों को दूर हटाकर, जिन्होने शंका-रूपी भूसों को
भस्मीभूतं कर दिया है । लञंकाओं की उत्पत्ति से करंकित दूसरे प्रमाणोसे क्या
काभ है ? ( न्यायकुसुमांजलि ४।६ ) । [ ईश्वर का ज्ञान प्रत्यक्ष ही है-खारे
पदार्थौ काः वे साक्नात्कार करते है । यह् साक्षात्कार भी मनुष्यो के ज्ञान की तरह्
ज्ञणिक नहीं, प्रत्युत नित्य टै । अन्त मे, डेंदवर को ज्ञान प्राप्त करने के लिए
किसी भी बाह्य-साधन की अपेक्षा नहीं पडती । हमलोग भी कुछ वस्तुओं का
प्रत्यक्ष ज्ञान प्राप्त करतेर्है, योगी लोग अपने योग-बल सेही यह संभव कर
दिखाते ह । उन परमेदवर के विषयमे क्या कहना जिनकी शक्ति अचिन्तनीय
ह? सष्टिके आरम्भमें पहले के कल्प ने जो-जो पदाथ सिद्ध थे उनकी केवल
कल्पना करके ही ईदवर देखना आरम्भ करते है ओर उधरवे पदार्थं तैयार
होने लगे ! पुरुषसूक्त मे "यथापूर्वमकल्पयत्" के द्वारा इसी तथ्य की ओर संकेत
किया गया दै। उन ईदवरके ज्ञान मे ही सारे पदार्थोकौ उत्पत्ति आदि का
क्रम ( 01081 ) निहित है । सारा संसारी ज्ञानमय ८ ©)1१1०8), 1068
19४७ ) है । इन पदार्थो की स्थिति या क्रम के विषय मे हम लोग अपने अज्ञान-
वक्ञ नाना प्रकार की शंकायें करते रहते दै किन्तु सू वसप को नहीं समञ्च सकने
के कारण दही रेखा होता है! परोक्ष ज्ञान मतो शंकायं होती हीह, प्रत्यक्ष ज्ञान
मेंभीपूर्णरूपमें वस्तुकाज्ञानन होने के कारण किसी एक अंश के अदान से
अनेकं प्रकार की विपरीत भावनाय चली आती है। ये दोष परमेदवर से सवंथा
अक्षपाद-दशैनम् ` ‰५७
पृथक् रहते है । अपने ज्ञान-पवन से श्डवर इन शेका-तुषों को उड़ा कर कहां से
करटा ले जाते है । दंकाओं से दूसरे प्रमाण कृलंकित ह, कोई न कोई शंका उन
प्रमाणो को धर ही दबातीदै। इसलिए अन्त मे उदयन निष्करंक हिव कोटी
प्रमाण मानते दै । ]
यह प्रमाण चारं प्रकार का हे-- प्रत्यक्ष, अनुमान, उपमान ओर शब्द ।
विदलोष - प्रमाणो की संख्या के विषय न प्रायः सभी दर्शनो मे कुछ-न-कुछ
विचार क्रिया गया है । चार्वाक केवल प्रत्यक्ष ( 1>€८ल४०ण ) को ही प्रमाण
मानते ह । जेन ओर बोद्ध प्रत्यक्ष के साथ अनुमान ( [एलिप्ला८्€ ) कोभी
परमाण मानते द । वैशेषिको के लिए भी भरमाण येही द। माध्व रोग (द्रेतवादी)
प्रत्यक्ष ओर शब्द ( 1^8 (0) को केतेदै। रामानुजीय, पातंजल तथा
जरन्नैयायिक ( प्राचीन नैयायिक ) प्रत्यक्ष, अनुमान त) शाब्द से संतुष्ट दै । दूसरे
नैयायिक प्रत्यक्ष, अनुमान, उपमान ५ (;00])811801\ ) तथा लड को प्रमाण
मानते ह! माहेश्वर दाशंनिक भी यही कहते द। इनके साथ अर्थापत्ति
( 110 [11ब ४५ ) को लगाकर गुरू-मीमासक पाच प्रमाण तथा अभाव को
भी मिकाकर छह प्रमाण मानने वाले भाद्र-मत के मीमांसक एवं अद्वैतवादी
लोग है । सम्भव ( 1*0 3510111 ) तथा एेतिह्य « [1801070 ) को भौ
मिलाकर आठ प्रमाण मानने वलि पौराणिक लोग है । तान्त्रिक लोग चेष्ठा
( &6्रप्फ )को भी प्रमाण मानकर संख्या नौ तक पचा देते हँ । यहा पर
नैयायिको के प्रमाणो को समञ्च लेना अपेक्षित $~
९. प्रत्यक्ष-जो ज्ञान इन्द्रियो ओर पदा्थके संनिकषं से उत्पन्न होता है
तथां भ्रम से रहित ( अव्यभिचारी ) होकर नाम लेते योग्य ( व्यपदेश्य ) न हौ
तथा निर्चयात्मक हो । जब हम खो से घट का नान् प्राप्त करते ह तब यह
शुद्ध ज्ञान है; ज्ञान के समय धट रान्द का कोई प्रयोजन नहीं क्योकि ज्ञान
अब्द अर्थात् निविकल्पक टै 1 दूसरे, प्रत्यक्ष ज्ञान निर्चयात्मक होता है, दूर से
देखकर किसी पदार्थं को धूम या धूल मानने की भूल होने पर उसे प्रत्यक्ष ज्ञान
नहीं करेगे । कुछ निचय होने पर ही उसे प्रत्यक्ष ज्ञान कह सकते हं । वात्स्यायन
इन्द्रियों के साथ वस्तु के सन्निकषं का तथ्य निरूपित करते हुए कटते हँ किं
आत्मा का संबन्ध मनसे होतादैः मनका इन्द्रियों से ओर इन्द्रियो का वस्तुओं
से । तभी प्रत्यक्ष होता है । किन्तु यह प्रक्रिया कारण का अवधारण { ।१९१८४-
57800 ) करना है-- विशिष्ट कारण तो इन्दरिय-विषय-संयोग टी है । प्रत्यक्ष
मेह प्रकार के संनिकषं हुआ करते है । चकि प्रत्यक्ष का साधन इन्द्रिय है
इसचिए इन्द्रिय कोही प्रव्यक्त प्रमाण मानते ह । निविकल्पक ओर सविकल्पक
के मेद से प्रत्यक्ष दो प्रकारका दहै । निविकल्पकमे प्रकार या विशेषण का ज्ञान
४१८८ सबेदशनसंग्रहे-
नहीं रहता है जेसे-- यह कुछ है । सविकल्पक में प्रकार का ज्ञान हो जाता है
जेसे- यह श्याम है । रामानुज-दकशन मे इसकी रूपरेखा कुछ दूसरी है जो हम
देख ही चुके ह ।
२. अनुमन-लिङ्ग ( 4416 (€ ) का परामश होना अनुमान
है। व्याप्ति की सहायतासे वस्तु का बोध करनेवलेको छ्गिया हेतु कहते
है जसे रुम अम्निकालिग है । व्याप्ति का अर्थं साहचर्यनियम ( 11;४९188]
1610010 ) है जेसे- जहा-जहां धूम है वहां -वहां अनि भी है। जब व्याप्ति
से विशिष्ट लिगि का ज्ञान पक्ष ( 1170 ४७7) जैसे पव॑त ) मेँ उतपन्न होता
है उसेहील्गिका परामशं कहतेहै। तकंसंग्रह में परामशं के विषयमे कहा
गयादै किं व्याप्तिसे विशिष्ट पक्षधमंता काज्ञान ही परामशं है। उदाहरण
के लिए, "अभिक द्वारा व्याप्य ध्रुम से युक्त" यह पवंत है । एेसा ज्ञान परामश
है । 8 परामशंसे 'पवंत भी अ्निमान् है" यह ज्ञान ( निष्कषं या निगमन )
उत्पन्न हुआ, यही अनुमिति है। नीचे चिखि रूपमे इसे स्पष्टतरं किया जा
सक्ता टै-
( १) यत्र यत्र धूमस्तत्र तत्र अभिः ( व्याप्ति या }/[8]01 [7९110186 )
( २) षवंतो धूमवान् ( पक्षधर्मता या 111०१ {16186 )
( ३ ) पवंतोऽग्रिमान् ( अनुमिति या (07605०7) )
इख अनुमिति तक पहुंचने का जो साधन ( करण, असाधारण कारण ) हो वही
अनुमान दै । न्यायदश्ेन में अनुमान के तीन भेद किये गये है पूववत्, शेषवत्
ओर सामान्यतो । जहाँ कारण को देखकर कायं का अनुमान हो, वह पूवंवत् है
जसे मेधो को आकाश मे धिरते देखकर वृष्टि होने का अनुमान । जब कायंको
देखकर कारण का अनुमान हो, वह शेषवत् है जैसे चारों ओर पानी ही पानी
देखकर "वर्षा हुई है' उसका अनुमान । सामान्य रूप से अनुमान करना कि जिस
वस्तु को एक जगह देवा था, दूसरी जगह पर है तो वह वस्तु अवश्य चलती
ठोगी । इस आधार पर अप्रत्यक्ष होने पर भी सूयं की गति काः अनुमान कर लेते
हं । दूसरे ग से भी इनका विवेचन होता है जैसा कि वात्स्यायन ने किया है ।
नव्य नैयायिक अनुमानकेदो मेद करते है- स्वथं ओर परार्थ। स्वार्थका
अभिप्राय हैजो एक व्यक्ति को अपने आपमें संतुष्ट कर सके, अनुमिति करा
सके । जब कोई व्यक्ति स्वयंदही बार-बार रसोईघर, कल-कारखाने आदि से |
देखकर व्याप्ति ग्रहण कर केता है कि जहां धूमदटै वहाँ अभिदहै', तब पवंतके .
पास जाकर वहां कौ अमिके विषय में सन्देह होने पर, पर्वत मे धूम देखकर
व्याप्ति का स्मरण करता टै कि जहां धूम हे वहाँ अथ्रिदहोती टै) तब यह् ज्ञान
41 +
' +
अक्षपाद्-दशेनम् 9
( किग-परामड ) उत्पन्न होता है करं अभिकेद्रारा व्याप्यं धूम से युक्त ( वल्लि
व्याप्यधरूमवान् ) यह पर्वत है । अन्त में यह ज्ञान होता है किं पवत अभि से युक्त
है । यही स्वार्थानुमान है । जब स्वयं धूमसे अग्निका अनुमान करके दूसरोंको
समञ्ञाने के लिए पांच अवयव-वाक्यों ( {00618 ) का प्रयोग किया जाय
तो उसे परार्थानुमान कहते है । इसे हम मूक की व्याख्या में ही अगे स्पष्ट करगे ।
(३) उपमान--जव सादृश्य ( अतिदेश ) का बोध कराने वाले वाक्य का
स्मरण करके सदश वस्तु का ज्ञान होता टै उसे ही उपमान कहते हँ । न्यायसूत्र
मे कहा है कि प्रसिद्ध वस्तुके साधम्यंसे ज्ञेय वस्तु का ज्ञान प्राप्त करना
उपमान है। जसे कोई आदमी गवय" नामक जंगली जीव को नहीं जानता
किन्तु जब एक अतिदेश ( सादृश्य ) वाक्य सुनता है कि गवय गौ के समान
होता है, तभी उसे गवय को पहचानने मे देर नहीं कगती 1 उपमिति-ज्ञान होता
है कि यही गवय है ।
` (४ ) शाब्द्--यथाथंवक्ता (आप्त) के द्वारा उच्चरित वाक्य ही शब्द है जैसे
वेद के वाक्य या भगोर मे कहे गये वाक्य । न्यायसूत्र मे शब्द के दो भेद कयि गये है--
हृष्राथं शब्द ओर अदृष्टार्थं शब्द । जब आप्तवाक्य की संगति इस संसार के तथ्यों
से बेठाई जा सके जसे यह कहना कि साईवेरिया में बफं जमी हई रहती है । तब
उसे दृष्टाथं कहते हैँ । किन्तु आप्तवाक्यो से परलोक की बातों का ज्ञान होने
पर उसे अदृष्टाथं शब्द कहते हैँ! इस प्रकार लौकिक वाक्यों ओर ऋषि कै
वाक्यो मे भेद किया जा सकतादहै। इसे ही लौकिक ओर वैदिक भी कहते है ।
इन प्रमाणो से ही प्रमेयो का ज्ञान तथा परीक्षण होता दै । न्याय मे प्रमाण-
शास्र ( 1.]018४6100010़ ) पर बहुत अधिक जोर दिया गया है । नव्यन्याय
तो विशुद्ध प्रमाणशाख्र ही है । प्रमाणो के विषय मे जितना विदटेषण भारतीय-
दशन में हुआ है विश्व के किसी भी दशन मे मिलना असम्भव है-न्यायकातो
यह् विषय ही टहै। अन्य दशंन इस टषटिसे न्यायके ऋणी दँ । अपने विषयों
के प्रतिपादन के लिए न्यायके कितने ही शब्द अन्य दशंनकारोने लिह,
इस दृष्टि से यदि न्याय-दर्शनको "दशंनोंका दशन" कँ तो कोई अत्युक्ति
न होगी ।
( ३. प्रमेय-पदाथे का विचार )
प्रमायां यद्वि प्रतिभासते तत्प्मेयम् ¦ तच द्वादशप्रकारम्-
न्दरियाथं (= त्यभाव खाप
आत्म-शरीरेन्दरियाथे-वुद्वि-मनः-प्रव्र्ति-दोष-प्रत्यभाव-एक-दुःखाप-
वगभेद।
त्।
६० सवेदशनसंग्रहे-
प्रमा अर्थात् यथाथं अनुभव में जो दिखलाई पडे वही प्रमेय (1९7080९)
दै । इसके बारह भेद है आत्मा, शरीर, इन्द्रिय, अर्थ, बुद्धि, मन, प्रवृत्ति, दोष,
प्रेत्यभाव, फल, दुःख ओर अपवग ।
विशेष-प्रमेयों के लक्षण न्यायसूत्र में प्रथम अध्याय में नवम सूत्र से ठेकर
२२वं सूत्रतक द्यि गयेदहै। तृतीय ओौर चतुथं अध्यायों मे इनकी परीक्षा
हुई दै ।
, (१) आत्मा ( 8०] )- ज्ञान से युक्त आत्मा है, यह सवो को देखने
वाली, सवंज्ञ तथा सबों का अनुभव करने वाली दहै) यह विश्रु ओर नित्य है।
ईदवर ओर जीव के ल्पमें इसके दो भेद हैँ । स्व॑ज्ञ ईदवर एक ही है,* जीव
प्रत्येक शरीर के लिए भिन्न-भिन्न टै । आत्मा के लिए कुछ चिह्घ है जैसे-- इच्छा
( जिस तरह की वस्तु से आत्मा को सुख मिर्ता है उसी तरह की वस्तु की 1
इच्छा उसे होती है ), देष, प्रयत्न, सुख, दुः ओर ज्ञान । दुःखप्रद वस्तु से द्रेष |
होता है, उन्हं हटाने या सुखद पदार्थो को लाने के लिए प्रयत होता है । भोग
करने पर या बोध होने पर यह माद्म होता है कि यह अमुक पदाथ है ।
(२ ) शरीर ( ०५ )--आत्मा के भोग का अधिष्ठान (आधार) शरीर
है । शरीर विभिन्न चेष्ठाओं, इन्द्रियों जौर उनके अर्थोका भी आश्रय हँ । किसी वस्तु
को छोडने या पाने के किए चष्टायं शरीरमेंही होती है। शरीर के अनुग्रहसे
इन्द्रियां अनुगृहीत होती है, उसी में कोई उपघात होने पर ये भी उपहत होती है--
अपने-अपने अच्छेया बुरे विषयों की प्रवृत्ति दिखलाती है, उन इन्द्रियों का ।
आश्रयभी शरीरहीटै। शरीररूपी आयतनमे इन्द्रियों ओर उनके अर्थोके
संनिकषं से उत्पन्न होने वाले सुख ओौर दुःख की संवेदना होती दै। इसीलिए
रारीर अर्थोका भी आश्वरयदहै।
* न्यायकरुसुमांजलि (५।१) में ईदवर की सिद्धि के लिए प्रमाण
दिये गये है-
का्यायोजनधृत्यादेः पद त्परत्ययतः श्रुतेः ।
वाक्यात्संख्या विशेषाच्च साध्यो विव विदन्ययः ॥
संसाररूपी कायं के कर्ताके रूपमे, सृष्टि के आरम्भमें दो परमाणुओं को जोडने
वेके रूपमे, संसारकाधारण करने वालेकेरूपमे, विभिन्न कलाओं का
व्यवहार चलने वेके रूप् मे, अतक्ये वेद-सिद्धान्तो के प्रबतंकके रूपमे,
ए दोने के कारण, वाक्यभूत् वेदो के रचयिता के रूप भे, द्ित्व्-
संख्या कौ उत्पादक अपेक्षाबुद्धि को धारण करने विके रूपमे तथा अदृष्ट
(धर्माधमं) के व्यवस्थापक के रूप में विश्ववेत्ता अव्यय ईदवर की सिद्धि होती है ।
त
# = क म १, न ,
4 ६१
(२ ) इन्द्रिया ( 3९8९8 }--इन्द्ियां भोग का साधन जो शरीर
से संयुक्त रहती हैँ । ये पाँच दै घ्राण, रसन, चक्षु, त्वचा ओर श्रोत्र जिनसे
करमशः सधना, स्वाद लेना, देखना, दूना, ओौर सुनना-ये काम होतेह इन
इन्द्रियो मे शक्तिदान करने वलेये हैँ पृथिवी, जल, अभि, वायु ओर आकाश
जिन्हे भूत भी कहते है ।
(४ ) अर्थं ( (00]९०४७ )--उप्क्त इन्द्रियों के दारा भोग्य (£,१]०&-
16 ) वस्तुओं को अर्थं कहते है । घ्राणेन्रिय का अथं गन्ध है, रसनेन्द्रियं का रस,
चशचुरिन्दरिय का रूप, त्वगिन्द्रिय का स्परो ओर ्नोत्रेन्दरिय का शब्द ।
( ५ ) बुद्धि ( 1० ५९।।९०४ )-- वुद्धि, ज्ञान ओर उपलन्धि ( (17५€-
8087 त)05) इन तीनों को गौतम अनर्थान्तर अर्थात् पर्याय मानते टै (१।१।१५ ) 1
यह चेतन है ओर शरीर तथा इन्द्रियों के संघात से पृथक् है ।
(६ ) मन ( 21114 }--सुखादि ज्ञानो का साधन इन्द्रिय मन टै । इसी
को अन्तःकरण अर्थात् आन्तरिक भावों को जानने वाली इन्द्रिय भी कहते है ।
सका चिह्न ( लिङ्गं या पहचान ) टै एक साथ करई ज्ञान की उत्पत्तिन होने
देना । केवल इन्द्िया्थंसंनिकषं से यदि ज्ञान उत्पन्न होता तो घ्राणेन्द्रि का
सम्बन्ध गन्धसे तथा श्रोत्रेन्द्रियं का शब्दसे एकटी साथ होकर दोनो ज्ञान
( गन्धज्ञान ओर शब्दज्ञान ) साथ-साथ उत्पन्न होने पर एेसा नहीं होता क्योकि
मन नियामक रूप से पृथक् करने के लिए प्रस्तुत रहता है । मन गन्धज्ञान कराने
पर ही शब्द का ज्ञान करा सकता है।
( ७ ) प्रवृत्ति ( ४ ०1४० )-- वाचिक, मानसिक ओौर शारीरिक
क्रिया को प्रवृत्ति कहते है । फिर शुभ ओर अथुभके भेदसेचह प्रकार कीहो
जाती है । वात्स्यायन शुभ ओौर अशुभे प्रवृत्तयो मे प्रत्येक के दस-दख भेद मानते
हे ( न्या० भा० १।१।२ ) अञुभ प्रवृत्तियों मे शरीर से प्रवृत्त हिसा, अस्तेय
ओर प्रतिषिद्ध मैथन; वचन से प्रवृत्त अनृत, परुष, सूचन ( चुगली, शिकायत,
निन्दा ) ओर असम्बद्ध भाषण करना; मन से प्रवृत्त परद्रोह, परधन को हृडपने
की इच्छा ओर नास्तिकता । शुभे प्रवृत्तियों मे शरीर कै द्वारा दान, रक्षा ओर
सेवा; वचन से सत्य, हित, प्रिय ओर स्वाध्याय; मन से दया, अस्पृहा ओर
श्रद्धा । प्रवृत्तियों के ही कारण जन्म ठेना पडता हे ।
( ८ ) दोष ( 2४.०४8 )- प्रवृत्ति उत्पत्न करने वाजे दोष कहलाते है ।
थे तीन है राग, द्वेष ओौर मोह । येहीज्ञाताकोपष्यया पापक ओर प्रवृत्त
करते ह । जहाँ मिथ्याज्ञान होता है वहां राग ओर द्वेष रहते दै । इन दोषों की
संवेदना प्रत्येक आत्मा को होती है । राग, देषया मोहके वश में प्राणी वह
काम करता है जिससे सुख या दुःख मिक्ता है ।
%&२ सबदशनसंग्रहे-
( ९.) प्रेत्यभाव ( 1८750018181107 }--उल्यन्न होने के बाद मर
कर फिर जन्म केना ही प्रेत्यभाव है । उत्यचच प्राणी का सम्बन्ध देह, इन्द्रिय, वुद्धि
ओर संवेदना के साथ होता टै। मर जने पर ये सम्बन्ध द्ुट जाते है 1! जब
पुनः उत्पत्ति होती टै तब दूसरे शरीरादि का सम्बन्ध स्थापित होता है। जन्म-
मरण के प्रबन्ध का यह अभ्यास ( आवृत्ति ) तब तक चरता रहता है जब तक
अपवगं की प्राप्तिन हो जाय ।
( १० ) फल ( ए५०४ }-- प्रवृत्तियों ओर दोषों से उत्पन्न होने वाले
अथं को फल कहते हँ । फल मे सुख जौर दुःख की संवेदना होती टै) हम जो
भी कमं करते हैँ उनमें कुछ तो सुख का फल देते ट, कु दुःख का । देह, इन्द्रिय,
विषय ओर बुद्धिके होने परही फल मिलता इसलिए इन सबों को फर में
गिन छ्तेहै। इन फलोंकोलेनेया त्यागनेमें ही सारा संसार व्यस्तदहे)
इनका अन्त नहीं है ।
(११) दुःख ( 28: }--जिससे पीड़ा या सन्ताप हो वही दुःख हे ।
जव लोग देखते है किसारा संसारदहीदुःखसे पूणंटै तो दुःखको हटनि की
इच्छा से जन्मकोदुखके रूपमे समन्ल कर निविण्ण ( निम॑म ) हो जतिरटै,
तव विरक्त होते है ओर विरक्त होने पर मुक्त भो हो जाते है । दुःख तीन प्रकार
के है-- आध्यात्मिक ओर आधिदैविक । वात, पित्त ओर कफके दोषों कौं
विषमता से उत्पन्न शारीरिक अथवा काम, क्रोधादि से उत्पन्न मानसिक दुःखों
को आध्यात्मिक कहते हँ । आन्तरिक उपायो से ही इसका निवारण सम्भव टै ।
सर्पं, व्याघ्र आदि जीवों से उत्पन्न दुःख आधिभोतिक है । यक्ष, राक्षस, ग्रहादि के
आवि से आया हुभा दुःख आधिदैविक है \ ये दोनों दुःख बाहर उपाय से ही
हटाये जा सक्ते है \ दूसरे मत से दुःख इक्तीस तरह के है--रारीर, छह इन्द्रिया,
छह विषय, छह वृद्धया, सुख ओर दुःख । दुःख से सम्बन्ध होने के कारणं सुखं
भीदुःखहीदहै। शरीरादि दुःखके साधन दसलिए दुःख के ही अन्दर ह 1
दूसरे स्थान में बाहरी दुःखसाधन १६ प्रकार के माने गये ह--परतन्त्रता, जाधि
( मनःक्ट ), व्याधि, मानच्युति, शत्रु, दरिद्रता, दो खी होना, अधिक पुत्रियां
होना, दृष्ट खी, दृष्ट नौकर, कुग्रामवास, कुस्वामिसेवा, वार्धक्य, परगृह मे रहना,
वर्षा मे परदेश रहना, बुरे हल से खेती 1 वस्तुतः दशनो का मूल ही दुःखदे,
( १२ ) अपवग ( प्रि90८ं [91 )-- दुःखो से बिलकुल सूक्त हो
जाना अपवर्ग है 1 मिला हज जीवन जब नष्ट हो जाय ओर अप्राप्तं जीवन न
मिये तभी अपवग है । इस प्रकार नैयायिक अपवगं की व्याख्या निषेधात्मक
शब्दो मे करते है ।
अक्षपाद-दशेनम् ४६३
( ४ संदाय, भ्रयोजन ओर द्टान्त )
अनवधारणात्मकं ज्ञानं संशयः । स त्रिविधः-साधारण-
धर्मासाधारणधमेविग्रतिपत्तिरक्षणमेदात् ।
यमधिद्कत्य प्रवरतन्ते पुरुषास्तत्प्योजनम् । तद् द्विविधम्-
चृष्टादृष्टमेदात् ।
व्याप्तिसबेदनभूमिर्टान्तः । स दवि्िधः--साधम्यवेधम्ये-
भेदात् ।
अनिश्चयात्मक ज्ञान को संदाय कहते ह । यह तीन प्रकार का टै
(१) दो वस्तुओं में कोई ध्म साधारण होने के कारण होनेवाला संशय
[ जैसे--यह स्थाणु है कि पूरुष । स्थाणु ( खम्भे ) ओर पुरुष, दोनों में
सामान्य धमं एक ही टै--ञचा होना । विोषतायें स्पष्ठ नहीं दै स्थाणत्व
करा नि्णंय करने वाली विशेषतायें जैसे वक्रता या कोटरादि होना अथवा परुषत्व
करा निर्णय करने वाली विशेषतां जसे हाथ, पैर आदि--कोई भौ स्पष्ट तहीं
ड, इसीसे संशय होता है । ] ( २ ) किसी वस्तु के असाधारण धमं दिये जाने
के कारण होने वाला संशय [ जैसे पृथिवी नित्य टै कि अनित्य । पृथिवी का
असाधारण ( अपना ) धमं है गन्ध से युक्त होना । यह् गन्धवत्त्व ' न तो अनित्य
पदार्थो मे दै ननित्यमेंदी, केवल पृथिवीम ही इसकी सत्ता है । पृथिवी की
नित्यता या अनित्यताके ज्ञान का साधनन होने के कारण दही एेसा संशय
हुआ । ] (३) विभिन्न शाख्रकारों मे मतभेद होने के कारण उत्पन्न संशय
[ जैसे-- कुछ लोग कहते ह कि शब्द नित्य हे, दूसरे कहते है कि शब्द अनित्य
हे। इन दोनों का मतभेद देखकर बीच वाला धवरा उठता टै ओर
संशय होता दै । |
जिस कायं को ध्यान म रखकर पुर्दषों की प्रवृत्ति होती टै वही प्रयोजन
है। यहदोप्रकार का दैष् प्रयोजन ओर अदृष्ट प्रयोजन । [ कोई वस्तु
त्याज्य या ग्राह्य होती है । उसे त्यागने या ग्रहण करने को मनुष्य उपाय करता
हे । वह वस्तु ही प्रयोजन कही जाती है । दष्ट प्रयोजन प्रत्यक्ष होता है जेसे-
अवघात करने का प्रयोजन है भूंसोंको पृथक् करना । अ््ट प्रयोजन विहित
तथा परोक्ष होता है जैसे- ज्योतिष्टोम-याग का प्रयोजन स्व प्राप्ति । |
व्याप्ति कौ स्थापना का जो आधार होता है वही व्याप्ति है । इसके दो भेद
ह साधम्यं दृष्टान्त ओर वेध्यं दृष्टान्त । | न्यायसूत्र मे कहागयाटहै कि
‰
॥ + | ।
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। ति
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॥
। 9
४६४ सवेदशन संग्रहे
लौकिक परीक्षकं की बुद्धि जिस विषय पर एकमत हो जाय वही दृष्टान्त है ।
दृष्टान्त का अपना अथं है- जिसके द्वारा अन्त या निश्चय देखा गया हो, पाया
गया हो) यत्र धूमः तत्राचिः' इख व्याप्ति का निङ्चय करने के च्एि महानस
( रसोईघर ) का उदाहरण देते है- यही दृष्टान्त है । रसोईघर अपने पक्ष का
पोषक होने के कारण साधर्म्यं दृष्टान्त है । इसी व्याप्ति मे सरोवरः वेधम्यं
हृष्टान्त होगा क्योकि जब व्यतिरेक-विधि से व्याप्ति पर आयंगे-- "जहाँ अनि
नहीं वहाँ धूम नदीं जैसे सरोवर", तब यह दृष्टान्त काम देगा । फलतः अन्वय-
विधि का दृष्टान्त साधम्यं दै, व्यतिरेक-विधि का दृष्टान्त वेधम्यं । |
विर्ोष- वाचस्पति मिश्र ने अपने न्यायसुचीनिबन्ध मेँ उक्त तीन पदार्थो
को न्यायपूर्वाग कहा है क्योकि ये न्याय अर्थात् पंचावयव अनुमान कौ भूमिका
के रूपमे ह । न्यायसूत्र मे संशय के पांच भेद माने गये हैँ क्योकि वहां लक्षण
ही कुछ दूसरे ठंग का दै, यद्यपि फल दोनों का एक दी है-- समानानेकधर्मोपपत्त-
विप्रतिपततेरुपलब्ध्यनु पलन्ध्यव्य वस्थातस्च विशेषपेक्षो वि मशः संशयः (१।१।२३) ।
संशय वह ज्ञान टै जिसमें विशेष धमं की अपेक्षा रहती है । निम्नलिखित पांच
कारणों से उत्पन्न होने के कारण संशय पाँच प्रकारकाटै--
( १) समानघर्मोपपत्ति- जव समान धर्मो की प्राप्ति कई वस्तुओं में
हो ओर विशेष धमं की अपेक्षा हो तव एसा ज्ञान संशय है । उच्चता-धमं
स्थाणु ओर पुरुष दोनों में दै । निविकल्पक ज्ञान के अनन्तर दोनों वस्तुओं में
संशय हो गया । जब हाथ-पैर आदिके रूप मं विशेषधर्मो का ज्ञान हो
जायगा तब संशय की निवृत्ति होगी कि यह मनुष्य हे ।
( २ ) अनेकधर्मो पपत्ति--अनेक का अथं टै सजातीय ओर विजातीय ।
जब असामान्य धर्मोका ज्ञान {होता दै तव भी संशय होता दै। शब्द का
श्रवण करके यह पूना कि यह नित्य दै या अनित्य, संशय दहै । शब्द का धमं
मनुष्य, पद्यु आदि अनित्य पदार्थोमें भी नहीं है जोर न नित्य परमाणुओमे ही है ।
गन्धवती होने के कारण पृथिवी, जल आदि द्रव्यो सेभी विशिष्ट है, गुणकमं
से भी विरिष्टं दै । अब संशय हो गया किं पृथिवी द्रव्य टै किगुण या कमं।
( ३ ) विप्रतिपत्ति-- शास्त्रों मे परस्पर विवाद होने से भी संशय
होता दै । शब्द की नित्यता ओर अनित्यता का उदाहरण प्रचलित ही है ।
(४) उपलन्ध्यव्यवस्था-- कभी-कभी हम देखते हैँ किं प्रत्यक्ष की
अव्यवस्थासे भी संशय टोता है! तडागादि में तो विद्यमान होने पर जल
का प्रत्यक होता दै पर मृगमरीचिका ( 1111826 ) मे अविद्यमान होने पर
अक्षपाद-दशेनम् ४६५
भी इसका प्रत्यक्ष होता है। अब संशय हुआ कि जल का प्रत्यक्ष क्या केवल
विद्यमान अवस्थामेंही होता टै या अविद्यमान होने पर भी।
( ५ ) अचुपलब्ध्यञ्यवस्था-- कभी-कभी अप्रत्यक्ष की अव्यवस्था से
संशय होता है । मूली में ( {९018} ) जल है पर दिखलाई नहीं पडता है ।
पत्थर मे भी जल नहीं दीखता पर वहां वास्तव मे नहीं दहै। क्या जल
विद्यमान या अविद्यमान दोनोदही दशाओं में दिखवलाई नहीं पडता? यही
संशय टै ।
( ७ क. सिद्धान्त ओर अवयव )
ामाणिक्र.नाभ्युपगता छ
त्वेनाभ्युपगतोऽथेः सिद्वान्तः । स चतुर्विधः-
सवेतन्त्रप्रतितन्त्राधिकरणाभ्युपगमभेदात् ।
पराथानुमानवाक्येकदेश्नोऽवयवः । स पञ्चविधः- प्रतिज्ञा
हेत्दाहरणोपनयनिगमनभेदात् ।
प्रामाणिक मानकर सिद्ध किया गया अथं ( ॥८४ ) सिद्धान्त है । इसके
चार भेद है स्वंतन्व, प्रतितन्व्र, अधिकरण ओर अभ्युपगम सिद्धान्त । [ सिद्धांत
यातो किसी दाश्ंनिक सम्प्रदाय की प्रामाणिकता स्वीकार करतादहैया किसी
अधिकरण ( आधार) की या फिर किसी ज्ञापक ( 1001160 ) विषय की।
सवेतन््र सिद्धान्त वह है जिसे सभी शास्रं की मान्यता प्राप्त हो । उदाहरण
के लिए पांच महाभूत, पाँच इन्द्रियां, इन्द्रियों के विषय आदि की स्वीकृति सभी
दशंनों मेह) श्रतितन््रसिद्धान्त वहदटै जो समानतन्त्र (जेसे न्याय का
समानतन्तर वैशेषिक-दर्शन है ) मे तो मान्य हो किन्तु दूसरे तन्त्रो ( दाशंनिक
सम्प्रदायो में असिद्ध हो । जैसे--शब्द की अनित्यता न्यायवेशेषिक मेँ मान्य है
किन्तु मीमसिकादि इसे नहीं मानते । असत्कायंवाद को न्याय-दशंन मानता है,
सांख्य नहीं मानता । अधिक्ररणसिद्धान्त उसे कहते है जिसे सिद्ध कर लेने
पर दूसरे प्रकरणों की भी सिद्धि हो जाती है जेसे--देह ओर इन्द्रियों के अतिरिक्त
एक ज्ञाता है क्योकि दर्शन ओर स्पशंन के द्वारा एक ही अथं ( 09} ) का
ग्रहण किया जा सकता है ( न्या° सू° ३।१।१ )। इस सिद्धान्त को मान लेने पर
कु आनुषंगिक अर्थं भी मानने पडते है जेसे--(१) इन्द्रियां अनेक दै, (२) प्रत्येक
इन्द्रिय को अपना एक विषय है; (३) आत्मा या ज्ञाता करो इन इद्द्रियो के माध्यम
से ही ज्ञान मिलता है, (४) अपने गुणों से प्रथक् वतमान द्रव्य ही इन इन्द्रियों
का आश्रयस्थान है, आदि-आदि । इन अर्थो के विना पहले सिद्धान्त की संभावना
नहीं । परन्तु पहले सिद्धान्त के सिद्ध होने पर ही ये अथं सिद्ध होते हँ । अभ्युप
३० स० सं
६६ =
गम सिद्धान्त उसे कहते € जो स्पष्टरूपसे कहा. नहीं गया हो ( वाचनिक
न हो ) किन्तु उखसे संब विजेषों को देखने पर अनुमान से ज्ञात हो। च्सेही ..
व्याकरण मे ज्ञापक ८ {फ़<५ ) कहते हैँ । उदाहरण कै लिए जब प्रन
कहते है किं शब्द नित्य है या अनित्य, तब यहं मानकर चलना पड़ता हे कि
शब्द एक द्रव्य है । इस प्रकार '्ाब्द द्रव्य है" यह अभ्युपगम सिद्धान्त ( 1}
160 ५००४ ) है । न्यायदर्शन मे यह कटी नहीं कहा गया है कि मन
ज्ञानेन्द्रिय है किन्तु सम्बद्ध स्थलों क्री परीक्षा करने पर एेसा मानना पड़ता है 1 |
अव्रयव परार्थानुमान के वाक्य का ८? भाग है जिसके पाच भेद ट--
प्रतिज्ञा, देतु, उदाहरण, उपनय जौर निगमन । [ जिस वाक्य की सिद्धि करनी
होती है उसका निर्देश कर देना ही श्रतिज्ञा है जैसे--शन्द अनित्य टे । उदहिरणः
क साधम्यं या वैधम्यं से खध्य वस्तुका का देना हेतु दै जेसे- क्योकि यह
उत्पन्न होता है । दोनो प्रकार के उदाहरणों मे हेतु एक ही रहता है- भले टी
हष्ठान्त बद । साध्य वस्तु के साधम्यसे या वेध्यं से उसके अनुकूलं या प्रतिकूल
दृष्टान्त देना उदाहरण कहलाता है । वस्तु के साधम्यं से अनुक्रक दृष्टान्त देना--
जो कुछ उत्पन्न होता टै वह अनित्य है जैसे घट । वस्तु के वेधम्यं से प्रतिकूल
दृष्टान्त देना--जो अनित्य नहीं है वह उत्यन्न नहीं होता जैसे आत्मा । उदाहरण
के आधार पर जो निष्कषं या उपसंहार निकलता हैकिंयहणेसादैया ठेसा नहीं
हे, वही उपनय कहलाता दे जेते ~ शब्द भी उत्पन्न होता टै ५ वेसाहीदै) या
ब्द अनुत्पन्न होन वाला नहीं है ( वैसा नहींहै)) कारण का उल्लेख होने पर
ग्रतिजञा का पुनः कथन करना निगमन है जैसे--इसलिए शब्द अनित्य टे । इस
प्रकार वस्तु के साधम्यं या धर्यं के कारण परार्थानुमान मे पंचावयववाक्य
केदोरूपहोगे--
साधम्यं का रूप--
( १) प्रतिज्ञा-- शब्द अनित्यटै।
( २ ) हेतु- क्योकि यह् उत्पन्न होता दै ।
(३) उदाहरण-- जो भी उत्पन्न होता है वह अनित्य है जैसे घट ।
( ४ ) उपनय--शब्द भी वैसा ( उत्पन्न होने वाला ) टी टे \
( ५ ) निगमन इसलिए शब्द अनित्य है ।
वैधम्यं का रूप--
{ १ ) प्रतिज्ञा-- शब्द अनित्य है ।
( २ ) हेतु- क्योकि यह उत्यन्न होता है ।
(३ ) उदाहरण-- जो नित्य होता है वह् उत्पन्न नहीं होता जेसे आत्मा ।
| |
4
\
॥ ~ ॥ + ॥. # कव. ` =" क्क्व ह,
अक्षपाद्-दशेनम् ४६७
( ४ ) उपनय--चब्द वैसा नहीं है ( अनुत्पन्न नहीं होता = उत्पन्न होता है )
( ५) निगमन--ईइसलिए शब्द नित्य है ।
बहुत से नेयायिक वाक्य मे दस अवयव मानने का साहस करते ह । वे अन्य
अवयव ह जिज्ञासा, संशय, शक्यप्राप्ति, प्रयोजन ओर संशयन्युदाख । इनका
वणन वात्स्यायन ने ( १।१।३२ ) की न्याख्यामें किया है। अन्तमं माना है कि.
ये अनिवायं अंग नहीं है । ] ः
विशोष--इन अवयवोंकोही न्याय कहते है क्योकि वास्तव मे न्याय-
दशंनकेये केन्द्रबिन्दुः जिनके चारों ओर न्यायदरंन घूमता है। स्पष्टतः
वाचस्पति संबद्ध सूत्रों मे न्यायस्वरूप मानते हैं ।
(५. तक का स्वरूप ओर भद् )
पि = [प ¢ स
न्पप्यारोपेण व्यापकरोपस्तकंः। स चेकादश्चव्रिधः।
व्याषतत्माश्रयेतरेतराश्रय-चक्रकाश्रयानवस्थाप्रतिवन्धिकस्यना-
कर्पनालाधघकल्यनागोरवोत्सगौपवाद्वैजात्यभेदात् ।
व्याप्य पदार्थं का आरोपण करके व्यापक पदार्थं का आरोपण करना तक
है । | यदि यहाँ असि का अभाव होता तो धूमकाभी अभाव दहो जाता । एेसा
कहना तकं है। इसमे अमनिका अभाव व्याप्य है जिसका आरोपण हुआ है;
उसी के आधार पर व्यापक--धूमाभाव-काभी आरोपण हुआ । पव॑त में धूम
देखकर कोई व्यक्ति उक्त तकं की सहायता से अनुमान प्रमाण के द्वारा अधिका
निर्चय कर ले सकता है। यही कारण है कितकंको प्रमाणो का सहायक
मानते हँ । न्यायसूत्र मे कहा गया है किं जिस वस्तु का तत्त्व ज्ञात नहींहो
उसका तत्त्व जानने के लिए जो विचार (अह) कारणों का ओचित्य
दिखाते हृए किया जाता है, वह तकंहै। इस प्रकार तकं का आश्वय
तत्वज्ञान के ए ल्तेहै। हां, किसी बात को हपूरवक सिद्ध करने के किए
कृतकं का आश्य लेते है । तकं मे तत्त्व-निणंय करने के लिए साध्व वाक्य
( ("0०७४० ) के उलट वाक्य की असंगति दिखलाते हए आते है जैसे
यदि एसा नहीं होता तो" `“ एेसा होता । इसलिए यही ठीक है । या, यदि
एेसा होता तो“ ““"एेसा होता जो असम्भव है । इसलिए एेसा नहीं हो सकता
आदि । |
तकं के ग्यारह भेद होते है व्याघात, आत्माश्रय, इतरेतराश्रय ( अन्यो-
न्याश्रय ), चक्रकाश्रय, अनवस्था, प्रतिबन्धी की कल्पना कल्पनालाघव, कल्पना-
गौरव, उत्सं, अपवाद ओर वैजात्य ।
४६८ सबेदर्शनसंग्रदे-
विोष- जगदीशः त्कलंकार ने केवल पाच प्रकार के तकांके नाम च्यि
है--आत्माश्चय, अन्योन्याश्रय, चक्रक, अनवस्था ओरं प्रमाणबाधिताथंक । भाषा-
परिच्छेद मे व्यभिचार की शंका के निवतंक वाक्य को तकं कहा गया टै । किन्तु
तकं के जितने भेद बताये जारहेदहैवे दोष है, स्वयं निवारण किये जाने की
अयेक्षा रखते ह-व्यभिचार का निवारण क्या करेगे ? असंबद्ध अर्थं से युक्त
वाक्य को व्याघात कहते द जैसे यह कहना है कि मेंमूकहे या अमूतं पर रूप
करा आरोपण करना । जव किसी वस्तु का प्रतिपादन उसी वस्तुके आधार पर
होने का प्रसंग आ जाये तव उसे आत्माश्चय कहते है जैसे--रूप से युक्त वस्तु
पर खूप का आरोपण । जब दो वस्तुं एक दूसरे पर निर्भर करं तब अन्यो-
न्याश्रय या इतरेतराश्रय तकं हता है । उदाहरण के लिए हराम । उलो
यह वाक्य सुनने से राम जागता है ओर उधर जागने पर ही राम सुन सक्ता
है। तो, जागरण कारण दहै या श्रवण ! जागरण कायं है या श्रवण ? दोनों एक
दूसरे पर आधित ह । जब दोसे अधिक वस्तुं एक दूसरे पर आचरित हो जायं
तव॒ चक्रक होता है जैसे उपयुक्त उदाहरण मे इन्दरियाथंसंनिकर्षं को बीच मे
ले आना । जागृति से इद्दिया्थसंनिकषं होता है ओर जागृति तभी होती है
जवं श्रवण होता इस प्रकार श्रवण जागृति--इन्दियार्थसंनिकषे-- श्रवण
आदि" के खूप मे आवतंन ( 1६९८ {£ ) होता दै 1 जव एकं ही दिश्ामें
कल्पनां करे ओर कहीं भी इसका अन्त न हो तो उसे अनवस्थ कहते हैँ जैसे
जाति ( ७९1९१५1) ) मे यदि जाति भाने तोउस जाति की भी एक
दूसरी जाति होगी । इस प्रकार बदते-बठते कहीं भी अन्त नहीं होगा । ये प्रसंग
सभी दर्शनों मे आति ह । जिस तकं से दोनों पश्च समान ल्पसे प्रभावित हों वहं
ग्रतिबन्धि-कर्पना ( या प्रतिबन्दौ ) हे जसे- पुरुष होने के कारण यदि यहं
चोरहैतोआषपभीतो चोर टै क्योकि पृष ह ।# कल्पनालाघव जौर कल्प-
य
+ प्रतिबन्दी का बडा सुन्दर उदाहरण किसी वंगीय नैयायिक ( संभवतः
जगदीश ) के विषय से सम्बन्ध स्लता हे \ नैयायिक जी बचपन मे पते कुछ
कमये\ बस पिताने बिगड़ कर कटा कि तुम गौ (= मूं ) हो । बालक ने
लक्ष्यां को वाच्यार्थं मे लेकर कटा
करि गवि गोत्वमुतागवि गोत्वं चेदूगवि गोत्व मनथंकमेतत् ।
अगवि च गोत्वं यदि तव पक्षः सम्प्रति भवतु भवत्यपि गोत्वम् ॥
आप 'गो'से केवल गाय का ही अर्थक्तेह या उससे इतर प्राणियों का
भी? यदि केवल गाय अथं केतेहंतोमेरेक्एिगौ का प्रयोग व्यर्थं है, किन्तु
गौ चे इतर मे यह अथं लेने पर आप ओर हम दोनों ही गौ ह।
अक्षपाद-दशेनम् ४६६
नागौरव मे कल्पनाओं का क्रमशः संकोच ओर विस्तार होता टै- इसके
उदाहरण इस पुस्तक में हौ अन्यत्र भिकगे । उत्सगं सामान्य नियम को कहते
है ओर अपवाद विशेष नियम हे, वै जात्य तव होता है जब तकं में विलक्ष-
णता रहे ।
इन तर्को की उपयोगिता इसीमे है किं उप्यक्त दोषों की संभावना से न्याय
को वचा । तकं को कुछ इस प्रकार रखते है -यदि एेखा नहीं होगा तो किसी
न किसी ( अनवस्था, अन्योन्याश्चय"*) तकं के भेद का प्रसंग हो जायगा । इस
प्रकार प्रमाण ते साध्य अर्थंके विरुद जाने की संभावना समाप्त हौ जाती है ।
इसीलिए ये प्रमाण के अनुग्राहक दै ।
( ५ क. निणंय, वाद्, जस्प, वितण्डा )
यथा्थालुमवपर्यायः प्रमितिर्निणेयः । स चतुरिधः । साक्षा-
्ृत्यनुमित्युपमितिलाब्दभेदात् । तखनिणेयफलः कथाविशेषो
वादः । उमयसाधनबती विजिगीषुकथा जल्पः । स्वपक्षस्थापन-
हीनः कथाविेषो वितण्डा । कथा नाम वादिप्रतिवादिनोः पक्ष
प्रतिपक्षपरिग्रहः ।
यथार्थं अनुभव अर्थातु प्रमिति ( ९8। ०७1९0५९ ) को निणेय
कहते हैँ । | न्यायसूत्र मे कठा गया है-- विमृद्य पक्षप्रतिपक्लाभ्यामर्थावधारणं
निर्णयः ( १।१।४१ ) अर्थात् पक्ष ओर विपक्ष की बातों पर विचार करके संदेह
दूर करते हुए तत्त्व का निश्चय करना ही निर्णय है। निणेय करने के लिए
जिस प्रमाण की आवश्यकता पडती है, उसी के आधार पर उसका नाम पड़ता
है । जैसे अनुमान के आधार पर क्रिया गया निर्णय अनुमिति निर्णय कहलायेगा ?
तो, ] इसके चार भेद है--साक्षात्ृति ( प्रत्यक्ष ), अनुमिति, उपमिति ओर
शाब्द ।
वाद् एक प्रकार की कथा ( 013) ण९प्००, १४००९ ) है जिसका
कल तत्व का निर्णय हो जानादै। [ दो पक्षों मे एक पक्ष का ग्रहण करके, उस
पश्च नें पंचावयव अनुमान का प्रयोग किया जाताटै तथा प्रमाणो से उस पक्ष
कीरक्नाकरते हृएतकंके दवारा उसके विरुद्ध पक्ष का खंडन भी करते हा,
पूवंसे स्थिर किये गये सिद्धान्तो के विशद नहींजाना चाहिए-यही वाद
( 18८७०) ) कौ रूपरेला है ( न्या० सुर १।२।१) । |
विजय की इच्छा से की जानेवाली कथा, जिसमे दोनो पक्षों कौ सिद्धि दहो
सकती है, जल्प कहलाती है । [ जल्प मे केवल विजय पर ध्यान रखते है 1
० सर्वदशेनसंग्रदे-
यह् ध्यान नहीं रहता किं जिन तर्को से अपने पक्ष की रक्षाकी जाती है उन्हींसे
परपक्ष कीभीतो रक्षा होती दै। इसमें छल, जाति, निग्रहस्थान का भी प्रयोग
होता दै यद्यपि पंचावयव-वाक्यों से ही शास्त्रा आरंभे होता है । उक्त लक्षण मे
'विजिगीषु" पद का प्रयोग जल्प को वाद से पृथक् करता है । वितण्डा से पृथक्
करने के लिए 'उभयसाधनवती' का प्रयोग हुआ है । |
जिस कथा मे अपने पक्ष की ही स्थापना नहींकी जाय वह वितण्डा
( 8९] ) है । | न्यायसूत्र ( १।२।३ ) के अनुसार जिस जल्प में प्रतिपश्
( किंसी एक पक्ष ) कौ स्थापना नहीं हो, केवल एक ही पक्ष पर विवाद या हठ
ठान लं वही वितण्डा है । वैतण्डिक किसी भी साध्य की प्रतिज्ञा नहीं करता ।
उसका कोई अपना पक्ष नहीं रहता । | कथा का अभिप्राय यहं है कि वादी
ओर प्रतिवादी पक्ष ओर प्रतिपक्ष का ग्रहण कर ले। [ यह् एक प्रकारका
वार्तालाप है जिसमें दो दल्वाले एक ही विषय के पक्ष ओर विपक्ष में बोलते हे ।
स्मरणीय है कि कथा के ही वाद, जल्प ओर वितण्डा ये तीन भेद है । |
(५ ख. हेत्वाभास ओर छल )
असाधको हेतत्वेनाभिमतो हेत्वाभासः । स पश्चविधः--
सन्यभिचार-विरुदर-प्रकरणसम-साध्यसमातीतकालभेदात् ।
हेत्वाभास उसे कहते ई जो हेतु के ख्पमें रखा गया हो किन्तु लक्षय को
सिद्धन करसकरे। (नतु साक्षाद् हेतुः किन्तु तथा प्रतीयते ) । इसके पांच भेद
हे- सव्यभिचार, विरूढ, प्रकरणसम, साष्यसम् भौर अतीतकाल (या
कालातीत )।“
विरोष- हेत्वाभास के उक्त मेदोंके नाम न्यायसूत्र करे आधार पर लिए
गये है । नव्यन्याय कौ सूक्ष्मता यहाँ पर भी लगी है जिससे विश्लेषण तथा
नामकरण में कुछ अन्तर हो गया। दा निक विवेचना मे हेत्वाभासों का
अत्यधिक प्रयोग होने के कारणा यहाँ हम उनकी व्याख्या करं ।
(१) सखन्यभिचार (1)13616])80॥ {€९8०)-- व्यभिचार का अर्थं
+अनुमान के वाक्योमेंजो हेतु ( 7114416 ध८) )} शुद्ध नहीं रहता वहं
शुद्ध अनुमान नहीं करा सकता ओर फलतः एेसे अनुमान दोषपूण हो जति
ह । एेसे ही अशुढ हेतुं को हित्वाभास ( 1१61५०९8 0 1\68807 ) कहते
है। हतु + आभास ( प्रतीत होने वाला ) = जो हेतु नहीं हो पर हेतु के समान
दिखलाई पड रहा हो ।
अक्षपाद-दशेनम् ४७१
मे साष्पका अभावदहो। व्यभिचार रहने पर सव्यभिचार नामका हेत्वाभास
होता है जिससे एकाधिक निष्कषं ( अन्त ) की प्राति होतीहै। यही कारण है
कि सव्यभिचार को अनैकान्तिक कहा जाता है । उदाहरण है-
सभी द्विपद जीव विचारलील है |
हंस द्विपदजीव है
~, हंस विषारशील है । |
यहाँ का हेतु ( द्विषदजोव ) साध्य अर्थात् `'विचारश्षील' से व्यात्ति-सम्बन्ध नहीं |
रखता बयोकि द्विपदजीव का सम्बन्ध विचारशोल ओौर अविचारशील दोनोंसे |
ह । दूसरे शब्दों मे यों कँ किं द्विपद जीव ( हेतु ) ओर विचारशील" (साष्य) 4
न व्यभिचार-संबंष टै। जिस प्रकार इस हेतु से हंसों की विचारशीलता सिद्ध
होती है उसी प्रकार उसी हेतु ते उनङ्ञो विचारहीनता भो सिद्ध होती दै। #|
इसी से यह अनैकान्तिक हेतु है । सव्यभिचार के तीन भेद किये गये है -
( कः ) खाघारण ( (091७५46 )-जवब हेतु को वृत्ति या स्थिति |||
साध्य वस्तु के अभाववाले स्थानोंमे भोहो ( जहाँ साध्यनहो वहाँ मीदेत |
की प्रात्नि हो) तव साधारणा सव्यभिचार होता है । उदाहरण के लिए-- |
"पव॑त अभ्नियुक्त है क्योकि यह् प्रमेय ( जेय ) है)" इस वाक्य मे श्रमेयत्व'
( हेतु) जो अन्नि के साथ दिखलाया गया है वह असनि के अभाव वाले स्थान में |
(जैसे--तालाव ) भीतो रहता है- जैसे अभ्भियुक्त पदार्थं ज्ञेय है, वेते ही |
अधचिरीन पदाथं मोतो ज्ञेय हो सक्ते दै। फल यह होगा किं "पव॑त की अभ्नि- |
हीनता" भी इसी हेतु मे सिद्धदहो जायगी । इस प्रकार हेतु की वृत्ति साष्य
अर साष्याभाव दोनों स्थानों मे दै । यह गाय रहै बोकर इसकी दो सीगं हैः
यह भी साधारण का उदाहरण है ।
( ख ) असाधारण ( ए. प९णफ० )-जोदहेतुन तो सपक्षमे पाया
जाय न विपक्ष में ही, उत्ते असाधारण कहते ह । रेसा हतु केवल पक्ष (1100
गू ) में ही रहता है । जेमे-- शब्द नित्य है क्योकि उसमे शब्दत्व है । यहां |
"शब्दत्व' ( हनु ) सारे नित्य पदार्थो ( लैसे-आतमा आदि) तथा अनित्य पदार्था |
( जैसे-चट आदि ) से पृथक् है । मिलता है तो केवल पक्च अर्थात् शब्द में ही । |
इसी हेतु से हम यह निष्कषं भी निकाल सकते है किं शब्द अनित्य है । जब कहीं
मिलना ही नहीं तो नित्य ओर अनित्य दोनों का दावा समान दहै। |
( ग ) अुपसंहारी ( }०0-(0० प्ञर€ }--जिस हेतु कोन तो |
अन्वय ( समान ) इष्टान्त मिले ओर न ही व्यतिरेक (असमान {)138101118ए} |
दृष्टान्त ही, उते अनुपसंहारी कहते है । जेसे-सभी वस्तु क्षणिक ह क्योकि वे ।
जः
रः
> ए
॥ |
|
॥ हि
| ।
जं कः शाण 1 > ऊक
७२ सवेदशनसम्रहे-
्रमेय है । यहाँ समान ओर असमान दृष्टान्त मिलना असंभव है क्योकि सभी
वस्तु" ही पक्षके ख्पमें ह । कोई दृष्टान्त इसमे पृथक् रहे तज तो? ओर पक्ष
स्वयं दृष्टान्त होगा ही नहीं । यद्यपि यहाँ पक्ष का दोष है परन्तु हेतु के कारण
ही अनुमान में निष्कं निकलता है अतः यह भी हित्वामासही है)
(२) विरुद्ध (011५16७१ }{44}€ )- जिस हेतु का सम्बन्व
साष्यसे बिल्कुल हीन रहे, उलटे जो साध्याभावके द्वारा व्याप्त हो--वही
विष रहेतु है पसे दतु से साध्य करी सिद्धितोहोती नहीं उसके अभावकौ
सिद्धि हो जाती है अर्थात् ठीक उलटा निष्कं निकलता है। “शब्द नित्य है
क्योकि यह उत्पन्न होता है'--इस उदाहरण मे “उत्पन्न होना' ( हेतु ) साध्य
( निघ्य }) का ठीक विरु है, उससे शब्द कौ अनित्यता हौ सिद्ध हो जायी ।
कारण यह है कि उत्पत्ति ओर अनित्यता ( साध्याभाव ) में व्याप्षि-संबन्धे है ।
हसी प्रकारये उदाहरण मी होगे वायु भारी है कयोक्रि यह खाली है, यह
चोडा है क्योकि इसे सी है, इत्यादि । सव्यभिचार साध्य की सिद्धि मे
असफल रहता है जब कि विरुद्ध उसे असिद्ध कर देता है या इसके अभाव को
सिदध करता है।
(३) प्रकरणसम या सत्प्रतिपश्च (01०३९०९ {२९४8० }- - जिच
हेतु से किसी पक्ष पर किसी साध्य का साच हो सके ओर दुरे हेतु से उसी
चक्ष पर ठीक साध्यके अभाव की भी सिद्धिदो जायेतो वहं हेतु प्रकरणसम
है । दूसरे शब्दो मे उस हतु का प्रतिपक्षो या विरोध करने वाला हेतु भी रहता
है जो उलटी बात भी सिद्ध कर सकता हे । ( प्रतिपक्ष = प्रतिहेतु (0५१५९
1368807, सत् =है । ) प्रकरण का अथं है प्रक्रिया अथवा विचार । विचार
यां प्रकरण की जब आवश्यकता पडतो है तब वादोया प्रतिवादी, जो भी
रहं, अपने मतलब कौ सिद्धि के लिए कोई हतु रवते है । यदि हेतु निर्णायक
(शुद्ध) हआ तो प्रकरण समति हो जाता दहै । यदिहेतु सत्प्रतिपक्ष हृ, हेतु
का प्रतिदृन््धी हेतु साध्य से उलटी बात क्री सिद्धिके लिए तैयार रहा, तत्र निर्णय
तो होगा ही नहीं-- प्रकरण चलता रहेगा । इस प्रकार प्रकरण के समानदही
एक ओर प्रकरणा ले आनेवाले हेतु को प्रकरणसम हेतु कहते है । उदाहरण के
लिए-
शब्द नित्य है बयोकि इसमे नित्यधमं को प्राप्ति होती है ।
तो, ठीक इसी तरह--
शब्द अनित्य है क्योकि इसमे अनित्य धमं मिलते दै ।
“नित्य ध्म क! मिलना' सत्प्रतिपक्ष हेतु है क्योकि साध्याभावको सिद्ध करने
| ‰७द
वाला प्रतिपक्षो हेतु भी तैयार है-अनित्य घमं का मिलना! । अन्य
उदाहरण है-
शब्द नित्य है क्योकि यह श्रवणीय है,
तथा, शब्द अनित्य है क्योकि यह कतक ( 91106181 ) है ।
पहली दशा मे इष्टान्त के रूप मँ “शब्दत्व' दिया जा सकता है जब्र किं दूसरी
दशमे घट पटआदि दिये जा सकतेर्है। व्याति मी दोनोंमें पृथक् होमौ ।
अतः "श्रवणीय होना" यह प्रथम दहेतु प्रकरणसम या सत्प्रतिपक्ष है कयोकि एक
दूषरे हेतु से साध्याभाव की सिद्धि होती हे। विषश्ददहेतु साघ्याभाव की सिद्धि
स्वयं ही करता है, जब कि सत्प्रतिपक्ष हेतु साघ्यामावं की सिद्धि एक दूसरे
हेतु से कराता है)
( ४ ) असिद्ध या साभ्यसम-, (~ 1010९6५ {14416 }- साध्य
की सिद्धि के लिए सिद्ध हेतु कौ आवदयकत। पड़ती है । यदि वहं अपने आप
सिद्धनहोतो साघ्यको क्या सिद्ध करेगा, स्वयमेव साघ्य बन जायगा । इसीलिए
इसे साध्यसम ( साध्य के समान ही सिद्धि की अपेक्षा रखने वाला ) कहते है ।
जब गलती से कि्षी अनुमान-वाक्य { 2८6113९ )} मे कोई हेतु मान लिया
जाता है तब असिद्ध होता है। उदाहरण के लिए-- जाकाश-कमल मे सुगन्ध
हे क्योकि य़ कमल ह, अन्य कमल जिस प्रकारके है।' यहां हेतु ( आकाश.
कमल ) की व्यावहारिक सत्ता ( 10008 8187001 ) नहीं, क्योकि आकाश में
कमल होता नहीं । इसके तीन भेद होते हैँ ।
( कं ) आश्रयासिद्ध ()००-९९18१५॥ 3प०}९# }-- आकाश
कमल सुगन्धित है वर्थोकि इसमे कमलत्व है जैसा करि सरोवरके कमलोमे
होता है'- यहाँ आश्रय ( ३०९०४ } ही असिद्ध है जिसे हेतु ( कमलत्व )
व्यर्थं ( {०४९ ) हो जाता है वर्योकि पक्ष ओौर हेतु मे कोई सम्बन्ध नहीं है ।
( ख ) स्वरूपासिद्ध ( 07.68 18&7 ‰€९४३०० }--जब हेतु पक्ष
1170" 0) ) मे सिद्धन हो, न रहे, तव स्वरूपासिद्ध हेतु हीता है। जेसे-
"शब्द गुणा है क्योकरि यह चाश्ुष है ञैवाकरिं रूप होतादहै। यहाँका हेतु
{ चाक्चुषत्व ) शब्द में नहीं मिलता क कि शब्द श्रवणेन्दरिय से गृहीत ( श्रावण )
होता है । इस तरह का हेतु पक्षधमंताके ज्ञान का विरोधी होता है '
( ग ) उयाप्यत्वासिद्ध ( पपत) .€ ४186४ = (0१९०।११६४१९९ ) --
जिस देतु में कछ उपाधि ( (०० दत्तं )` लगी हई होती है, वही
व्यव्यत्वासिद्ध है । नाम के अनुसार इस प्रकार के हेतु में हेतु ओर साध्य के
बीच होनेवाली व्यापि असिद्ध रहती है। उपावि साध्य को तो व्याप्त करती है
४७४ सबेदशनसंग्रहे- `
किन्तुहितु को वह व्याप्त नहीं कर पाती। उदाहरण के लिए- पर्व॑त धूमवान्
३ व्योकि वहं अग्निसे युक्त है। यहाँ अग्नियुक्त होना" हेतु है जो सोपाधिक
है। यहां उवाधि है--आगद्रं इन्धन का संयोग । दूसरे शब्दों मे, अग्नियुक्त
पदाथं तभी धूमवान् हो सक्ते हैँ जब उनमें भींगा जलावन ( ९] ) रहै ।
“आपद्रेनधनसंयोग' ( उपाधि ) यहाँ साघ्य कोव्याप्रकरताहै किन्तु हेतु (अग्नि)
को व्याप्त नहीं कर पाता । उपाधिके विषयमे चार्वाक-दर्न मे हम विस्तृत-
विवेचना कर चुके है।
( ५ ) कालातीत या बाधित ( ४९186 1\€880 )-- जहां साध्य के
अमाव की सिद्धि किसी दूसरे प्रमाणसे ( अनुमानको छोडकर किसी प्रमाण से)
हो वहां बाधित दहेतु होता है। जेसे--अगिनि अनुष्ण ( शीतल ) है क्योकि यह्
द्रव्य है। यहाँ '्ीतलता' साध्य है उसका अभाव उष्णता है जिसका निरय
स्पर्शन-प्रत्यक्ष से होता है। द्रव्यो (हेतु) मे केवल एकद्रव्य ही है ( तेजस् )
जो उष्णा होता है। भाठ द्रव्यो को शीतल पाकर कोई नवम द्रव्य --अग्नि--करो
भी शीतल सिद्ध करना चाहता है परन्तु अनुभव ( प्रस्यक्ष ) से वह उष्ण सिद्ध
हो जाताहै। दूसरा उदाहरण- चीनी खटी है क्योकि इससे अम्लता उत्पन्न
होती है ।#
अनुमान में हेत्वाभासों का बड़ा महच्वपृणं स्मान है क्योकि वादी-प्रतिवादी
के शाल्राथंमेंहेतुया कारण की शुद्धिपर ध्यान देना परम आवश्यक है। षंभव
है कि ऊपरसे देखने में हेतु शुद्ध लगता हो परन्तु वहु हेत्वाभास हो । भारतीय
तकेशास्रमें दोषों के प्रकरणम केवलदहेतु का ही गला पकड़ा जाता है जब कि
युनानो तकंशाख मे अन्य पदों ( पक्ष, साध्य ) की भी शुद्धता की परीक्षा होती है।
शब्दइृत्तिव्यत्ययेन प्रतिषेधहेतुरछलम्। तत्िविधम् । अभि-
धानतात्प्ापचारव्रत्तिव्यत्ययमेदात् ।
शब्द की विभिन्न वृत्तियों ( अर्थोत्पादक शक्तियों ) को उलटकर जिसके हारा
किसी की बात का विरोध क्रिया जाय वही छल ( @ण००।७ ) है । [ न्याय-
सूत्र के अनुसार, किसी शब्द के वैकल्पिक अर्थोके आधार पर वक्ता की उक्ति
का खण्डन करना छल है । वक्ता किसी विशेष अर्थम किसी शब्दका प्रयोग
^ साघ्यामाव का निश्चय चकि प्रत्यक्षसे हीहौजाता है इसलिए हैतुवाक्य
को कोई आवदयक्ता नहीं रहती, उसके उच्चारण के पूवं ही कायं हो जाता है ।
इस तरह हेतु का काल ( कायंकाल ) पहले ही बीत जाता है ओर इसे
कालातीत कहते है ।
अक्षपाद्-दशनम् ४५५
करते हुए कोई बात कह रहा है। उसी समय छलवादी उस शब्द का दूसरा
अथं लगाकर कहता है कि एसा केसे होगा ? |
छल के तीन मेद ईै--अभिधानवृत्ति ( (+0 र) (1017) शक्ति ) का व्यत्यय
( उलटना ), तात्पर्यवृत्ति ({ पाण ) का व्यत्यय तथा उपचारवृत्ति ( लक्षणा
17041580 ) का व्यत्यय । [ अभिधानचरत्ति के व्यत्यय से छल तव होता
ह जब किसी वाज्य में ठेसा शब्द दिया जाय जिसके कई वाच्याथं या मुख्यां
हों तथा उसके दूरे अथं को दृष्टि मे रच्ते हुए वाक्य का खणएडन करं । इते
ही न्यायसूत्र मे वाक्छल ( ०००९ 0{8 1600 ) कहा गयाहै। जेषे
कोई कटे कि यह छात्र नव कम्बल से युक्त है। उषके कहने का अभिप्राय है
"नये कम्बल से' । अब चूंकि 'नव' का स्थं नौ संख्या भी है, इसलिए छलवादी
वाक्य काटता है क्रि इसके पास नव कम्बल कहांसे अये, इस दरिद्रको तो
एकं भी कम्बल दलम है । तात्पयेवृत्ति के व्यत्ययसे होने वाले छल मं एक
ही शब्द के तात्पयं के भेदसे कर्द अथं होते है तथा एक तात्पर्याथंका दूसरे
तात्प्थाथं से प्रतिषेष करते ह । जेसे- सामान्य अर्थं ({ 0€ा€५। 5618€ )
मे कोई कहता है कि ब्राहमण में विद्या होती है, अब छलवादी उसका तात्पयं
यह समज्ञकर कि सभी ब्राह्मणो मे नियमतः विद्या होती ह, इस उक्ति का
निषेध करता है कि ब्राह्मण मे विद्या केसे संभव, मूलं ब्राह्मण मी तो होते
है। इस प्रकार सामान्याथं को विशेषार्थं मे लेकर छलवादी बात काटता है ।
इसे न्यायपूत्र मे सामान्यच्छल कहा गया है । उपचारवृत्ति के व्यत्यय से
होनेवाले छल मे किसी शब्द का लक्ष्यार्थंमें प्रयोग देखकर छलवादी उसे
वाच्यां में लेकर बातें काटताहै। जैसे- मंच चिल्ला रहे ह; इसका लक्ष्यां
है कि मंच पर ठे हए लोग चिज्ञा रहे है । मब छलवादी इसे वाच्याथमेही
लेकर कहता है कि अचेतन लकड के बने मंच केसे चिल्ला सकते हैँ । |
( ६. जाति ओर उसके चोवीस भेद )
स्वव्याधातकमु्तरं जातिः । सा चतुर्विंशतिधा । साधम्य
वरैधम्योत्करषीपकर्षवण्यावण्यं - विकरप-साध्य - प्राप्त्यप्रा्ति- प्रसङ्ग
प्रतिदृषटान्ताुत्पत्ति-संशय-प्रकरण ~ हेत्वथापत्यविशेषोपपस्युपल-
उध्यनुपलन्धि-नित्यानित्य-कायंसमभेदात् ।
अपने आपका विनाश करनेवाले उत्तर को जाति कहते है । [ गौतम के
अनुसार--साधम्यं या वैषम्यं के आघार पर किसी का विरोध करना जाति हे ।
कैसे कोई वादी कहता है कि आत्मा निष्क्रिय है वरयोकि यह आकाश की तरह
४७६ सबेदशनसंग्रहे-
व्यापक है । अब उसका प्रतिपक्षी उत्तर देता है कि यदि आत्मा आकाश की तरह
व्यापक होने के कारण निष्क्रियहैतो वहु घटकी तरह अवयवसमूहु होने के
कारण सक्रिय क्यो नहींहै ? वादो की उक्तिमे साधर््यंसे व्यात्ि-संब॑ध है पर
प्रतिपक्षी की उक्तिमे नहीं। व्यापक पदाथ निष्क्रिय, किन्तु अवयवसमूह के
लिए सक्रिय होना आवद्यक नहीं । |
जाति के चौबीस भेद है- साधम्यंसम, वेधर््यसम, उत्क्ष॑सम, अप-
कषंसम, वराय॑सम, अवर्यं सम, विकल्पसम, साध्यसम, प्रात्तिसम, अप्रातिसिम,
प्रसंगसम, प्रतिदृष्टान्तसम अनुत्पत्तिसम, संशयसम, प्रकरणसम, ठेतुसम, अर्था-
पत्तिसम, अविश्ेषसम, उपपत्तिसम, उपलब्न्रिसम, अनुपलब्धिसम, नित्यसम,
अनित्यसम तथा कायंसम ।
विरोष- जति के चौबीस प्रकारोंका व्णंन गौतम ने पंचम अघ्यायके
प्रथम आह्निक मे अलग-अलग सूत्रम क्रियादहै। इनमें प्रव्येकमें 'सम'का
प्रयोग बतलाता है कि जातियों मे साधम्यं आदि की समानता का प्रदछंन किया
जाता है किसी में वेधर्म्यं की तुलना होती है, किसी मे उत्कषं की, तो किसी
मेनित्यकीही। ¦
( १ ) साधम्येखम जाति में साधम्यं में दिये गये उदाहरण से युक्त वाद
( ^ ए्पा)९४ ) का विरोध किया जाता है तथा विरोधी प्न उसी प्रकार कै
उदाहरण का प्रयोग करता है जिस तरह का उदाहरण वादीने दिथादहै।
कोई वादी शब्द की अनित्यता सिद्ध करने के लिए इस प्रकारका वाद रखता
है- शब्द अनित्य है क्योक्रि यहु उत्पन्न होता ( कृतक ) है जेसे घट । दूसरा
व्यक्ति निम्न जाति के द्वारा उस्तका विरोध करता ह-शब्द नित्य है क्योकि
यह अमूत्तं है जैसे आकाश । वादी ओौर विरोधो दोनों के उदाहरण एक प्रकार
के ह अर्थात् पाधम्यंके उदाहरण है। वादी अनित्य घटके साथ शन्दका
साम्यं दिखाकर ( क्योकि दोनों कृतक है ) शब्द को अनित्य सिद्ध करता है,
प्रतिपक्षी नित्य आका के साथ शब्द का साधम्य दिखाकर ( कर्कि दोनों
अमूतं है ) शब्द को नित्य सिद्ध करता है। दोनों ओर साधम्यंके ही उदाहरण
ह । किन्तु प्रतिपक्षी का विरोध-पक्ष जाति है वथोकि अमूर्तं ( हेतु ) ओर नित्य
( साध्य ) मेँ साहचयं या व्याप्ति होना कोई अवदयकं नहीं ।
( २ ) वेधम्यंसम जाति में वैषम्यं के उदाहरण से युक्त वाद का विरोध
प्रतिपक्षी करता है तथा वह् अपने विरोध-पक्ष में वेषम्यं काही उदाहरण देता
हे । वैषम्यं के उदाहरण की समानता के कारण इसे वैषम्यंसम कहते है । वादी
का कथन है--शब्द अनित्य टै वयोक्रि यह इतक ( 1206४ ) है, जो
अक्षपाद-दशनम् ४७७
अनित्य नहं वह॒ कृतक नहीं है जसे आकाश \ अव प्रतिपक्षी कहता ह-शब्द
नित्य है क्योकि यह अमूर्तं है, जो नित्य नहीं वह अमूतं नही है जेसे घट । दोनों
स्थानों पर बैधम्यं के उदाहरण है, जिनको लेकर समता है! वादी शब्द ओौर
अनित्यहीन अकाश के वेध्य के आधार पर राम्द को अनित्य सिद्ध करता र
जब कि प्रतिपक्षी शब्द ओौर अमूतंहीन ( मूतं ) घट के वैषम्यं के आधार पर
शाब्द को नित्य सिद्धकरता है) प्रतिपक्षी का विरोध करना जाति है! गौतम
का कहना हक्रि इन दोनों जातियों का उत्तर भी हौ सकता है। गोत्व के
कारणा जैसे गौक्री सिद्धिहोती है उसी प्रकाररेतु ओर साघ्य का संबंध भी
साच्यं या वैधम्यं से सिद्ध किथा जासकञादहै मौर जाति का निवारण ही
सकता है ( देविये ५।१।३ } ।
( ३ ) उत्क्षसम जाति उसे कहते है जव वादी क्रिसी उदाहरण के
आधार षर अपना वाद प्रस्तुत करे मौर उसक्रा विरोध प्रतिवादी किसी अधिक
उल्छरष्ट विशेषणो से युक्त उदाहरण ( 9\श0]16 ण 80५1५108]
60918०16.) क आधार पर करे। जैसे वादी का कथन--राठ्द अनित्य है क्योकि
यह कृतक है जैसे घट । अब प्रतिवादी कहता ह-शब्द अनित्य तथा मूतं
ह क्योकि यह कृतक है जैसे घट ( जो अनित्य तथा मूतं भौ है) । प्रतिवादी का
यह तकं कि यदि शब्दको घट की तरह अनित्य मानते है तोषटदहीकी
तरह वह मूतं भी है । यदि मूतं नहीं मानते हतो षट की तरह अनित्यभीन
मानं । यहां दोनों पक्षो के वादों की समता उदाहरण के उ्कृष्ट गुण के आधार
पर दिखाई गई है । यह उच्कृष्ट गुण उदाहरण मे है तथा पक्ष ( ऽप्णु्लः )
पर आरोपित हुभा है ।
(४) अपकर्षसम उसे कहते है जहां वादीके द्वारा दिये गये उदाहरण
से युक्त वाद का विरोध प्रतिपक्षो वैसे वाद से करे जिसके उदाहरण मे कृच
धमं का अपकषं दिखाया जाय । जैसे वादी के द्वारा दिये गये उपयुक्त उदाहरण
न प्रतिपक्षो कहे कि शब्द अनित्य किन्तु अश्राव्य है वरयोकरि यह कतक है जेसे
चट ( जो अनित्य तो है पर अश्राव्य है)। प्रतिपक्षीका तकँ है कि यदि घटके
आघार पर आप शब्द को अनित्य मानते हतो घट कौ तरह ही उसे अश्राव्य भी
माने । यहाँ श्ाव्यत्व-धमं का अपकषं दिखलाया गया है ।
( ५) वण्यंसम जाति में वादीके द्वारा दिये गये उदाहरण का विरोध यह
कह कर किया जाता है करि उदाहरण का धमं भी उसी प्रकार प्रदञचनीय है
जिस प्रकार पक्ष का धमं। वादी कहता है -शम्द अनित्य है क्योकि कृतक है
जसे घट । प्रतिवादी द्वारा खण्डन होता है--घट अनित्य है वर्योकि क तक है जैसे
थ कक" ग सि (स न
।
|
|
|
४ 3 सषेदशनसंग्रहे-
शब्द । प्रतिवादी का तकंहैकि यदि शब्द की अनित्यता का प्रदशष॑न कर रहे
है तो उदाहरणके रूप में दिये गये घट का प्रदर्शन क्यों नहीं करते ? दोनों ही
तो कृतक हैँ । शब्द का उत्पादन तालु, ओष्ठ आदि के व्यापारसे होता है जब
कि घटका उत्पादन कुम्भकार आदि के व्यापारसे होता है। पक्ष भौर
उदाहरण दोनों कौ वरएयंता ( (५९8॥1०789]€ (11986: ) की समानता
दिखलाई जाती है ।
( ६ ) अवण्येसम जाति काअ्थ॑हैकि जव वादी के उदाहरणा पर यहं
आरोप लगाते हए उसके वाद का खंडन करंकि पक्षका धमं उदाहरण के धमं
की तरह ही अवणंनीय या सिद्ध है। वरय॑सममेंजो वादी ओर प्रतिवादी के तकं
ह उनमें जब प्रतिवादी यह् कहे कि यदि दहृष्न्त के रूपमे दिये गये घटम
आप अनित्यता को अवरायं या सिद्ध मानते तो शब्द की अनित्यता भी
अवएयं या सिद्ध वयो नहीं मानते? दोनों ही तो उत्पन्न है। उसक्रा तात्पयं
यह है कि अनित्यता सिद्ध करनेके लिए किसी वादको व्यथं मानां जाय ।
इस प्रकार पन्न ओर दृष्टान्त में अवरयंता या सिद्धि को लेकर समानता है ।
( ७ ) विकररपसम जाति वह है जिसमे प्रतिवादी किसी वादका खंडन
करने के लिए पक्ष ओर दृष्टान्त ( उदाहरण ) पर वैकल्पिक धर्मोका आरोप
करे । वादी के उपयुक्त वाद पर प्रतिपक्षी कहता है- शब्द नित्य ओौर निराकार
है वरयोकिं यह उत्पन्न होता है जसे घट (जो अनित्य ओौर साकार है)।
प्रतिवादी का कहना है करि घट ओर शब्द दोनों कृतक है ङ्न्तु एक साकार है
दूसरा निराकार । इसी सिद्धान्त पर एक ( धट }) अनित्य तथा दूसरा ( शब्द )
नित्य क्यो नहीं माना जाय ? दोनों पक्षों के तर्को की समानता पक्ष गौर दृष्टान्त
पर आरोपित वैकल्पिक धर्मो को लेकर दिखलाई गई है ।
(८ ) साध्यसम जति वह है जिसमे पक्ष ओौर दृष्टान्त के पारस्परिक
संबन्ध को लेकर किसी वाद का खर्डन हो । वादी का कथन है--शन्द अनित्य
है क्योकि यह कृतक है, जेमे घट । प्रतिवादी कहता है-- घट अनित्य है कथोंकरि
यह कृतक है जसे शब्द । शब्द ओौर घट दोनों कृतक होने के कारण सिद्धि की
अपेक्षा रखते हैँ । शब्द को घट के दृष्टान्त से अनित्य सिद्ध करते है, घट को
शब्द के दृष्टान्त से । घट को शब्द के ृष्टान्त से श्रावण भी सिद्ध कर सक्ते हैं ।
फल यह् होगा कि निय नहीं होगा--न तो नित्यता सिद्ध होगी न अनित्यता ।
भतः पक्ष गौर दृष्टान्त मे अन्योन्याश्रय दोष लगाकर निर्ण रोक लेते है ।
(९ ) प्राप्तिसम जाति उसे कहते हैँ जिसमें हेतु ओौर साध्य के सहचार-
संबंध पर आधारित वाद का विरोध उसी प्रकारके वादसे कियाजाय। रेसी
अक्षपाद्-दशनम् ४०६
स्थितिमेंच्रूकिठेतु साष्य से पृथक् करके समज्ञा नहं जा सकता, इसलिए जाति
प्रापि ( सहचार ) सम कहलाती है । वादौ पर्वत मे अशनि सिद्ध करने के लिए
तकं करता है--पवंत अम्निसे युक्तै क्योकि वहां धभ है जैसे रसोईघर मे ।
अश्र प्रतिवादी कहता है--पवं् धूमवान् है क्योकि वहां अभ्नि है जैसे रसोईघर
सं । प्रतिवादी का अभिप्राय यहदहैकि अभ्निओरधरूुमके संबन्ध का पाथेक्य
न रहने के कारण धूम साधन ह कि साघ्य, यह् निश्चय करना कठिन है । उसके
अनुसार धूम भी साधन के रूपमे रखा जा सक्ता है । अतः साघ्य ओर साधन
का सहचार देखकर किसी के वाद को रोक देना प्रात्निसम है ।
( १० ) अप्रा्तिसम जाति उते कहते है जहां साध्य ओौर साधनके
असंच के आधार पर किसी वादका विरो करं । पूवं उदाहरण मे प्रतिवादी
का यह् वचनाद कि क्याध्रूमको हेतु मान सकते है चकि वह अन्नियुक्त स्थानों
मं अनुपस्थित है ? किन्तु एेसा सोचना गलत होगा । साध्य से बिना सम्बन्ध हए
हेतु कभी भी पक्ष की सिद्धि नहीं कर सकता । अपनी परहुच के बाहर कौ चीजों
को प्रकाश प्रकाशित नहींकर पाता। यदि साध्यसे अबद्ध हेतु साव्य की
सिद्धिकरे तो अग्नरिमीहेतु हो सकती है। इक प्रकार दोनोंके परस्पर
असंबंध से वादी की उक्ति रोकी जाती है ।
( ११ ) प्रसंगसम जाति वहाँ होती है जहां वादी की उक्ति को रोकने के
लि वादीके द्वारा दिये गये साधन ( हेतु ) को सिद्धि के लिए पुनः दुसरे साधन
करो आवद्यकृता बतलाई जाती है, पूनः उस साधन कौ सिद्धिके लिए दूसरे
साधन कौ सिद्धि--इस प्रकार अनवस्था का प्रसंग लाया जाता है। वादीको
-क्ति- शब्द अनित्य है क्योकि यह कृतक है जेते घट । प्रतिवादी पूछता है किं
चट को आप कैसे अनित्य मानते है इसके लिये दूसरे साधन को जरूरत ह ।
इस प्रकार इसमे अनवस्था का प्रसंग लाकर "शब्द की अनित्यता, की सिद्धि
असंभव कर देते है ।
( १२ ) ्रतिदृश्रन्तसम जानि तव होती है जब विरोधी दृष्टान्त देकर
वादी का विरोध कियाजाय। कोई वादी शब्दको अनित्यता सिद्ध करने के
लिए घट का ृषान्त देता है तो प्रतिवादी उसको नित्यता सिद्ध करने के लिए
आकाश का दृष्टान्त देता है । यदि आकाश के दृष्टान्त का खंडन करेगे तो धट
के दृष्ठान्त का भौ विरोध किया जा सकता है।
( १३ ) अनुत्पत्तिसम जाति का अथं है कि जब तक पक की उत्पत्ति
नहीं हो जाती तब तक साध्य को सिद्ध करने वाला साधन काममे नहींलया
जा सकता--इस आधार पर ही वादी कौ उक्तिका विरोध करदेते है) वादी
८० सबेदशनसंग्रहे-
कहता है--शग्द अनित्य है क्योंकरि यह प्रयत्न से उत्पन्न होता है जैसे घट ।
अब प्रतिवादी जातिके द्वारा विरोध करता है--शब्द नित्य है क्योक्रि यह्
प्रयत्न से उत्पन्न नहीं होता जसे आकाश । प्रतिवादी का अभिप्राय यहदहैकि
वादीकी उक्तिमें जो श्रयत्नोत्पाद्य' ( कृतक } हेतु दिया गया है वहु तब तक
कारण (हेतु) के रूपमे नहींदिया. जा सकता जब तक पक्ष ( शब्द) की
उत्पत्ति नहीं होती । कारणा यहाँ श्रयत" है, कायं शब्द । कारण के बाद
ही तो कायं होता है हेतु तब तक शुद्ध नहीं होगा जब तक पक्ष की उत्पत्ति
नहीं हो, पर यहाँ विषमता हो जाती है । पक्ष अभी आया नहीं ओौर उधर पक्ष
काही कारण हेतु ( प्रयत्न ) रख दिया गया। खंडनका फल यह् हुआ कि
ङाब्द को नित्य मानना पडेगा ।
( १४ ) संदायसम जाति मे वादी का विरोध इस आधार पर किया जाता `
हे कि दृष्टान्त तथा सामान्य ( @€णणड ) दौनोंके समान रूपसे इन्दरियग्राह्य
(रेन्द्ियक) होने के कारण, उनके नित्य भौर अनित्य दोनो प्रकार कौ वस्तुओं का
साधम्यं देखकर संशय होता है। वादी की उक्तिटैकि कृतक होने से धट की तरह
दाब्द अनित्य है। अब प्रतिवादी संशय करता ह-शब्द नित्य या अनित्य है
क्योकि यह इन्दियग्राह्य है जेसे घट या घटत्व । प्रतिवादी कहता है कि कृतक
होने से कारण ( शब्द ओौर घट मे कृतकत्व का साधम्यं देखकर } शब्द अनित्य
है जब किं इन्दरियग्राह्य होने के कारण घटत्व की तरह शब्द नित्य है, यह् सम्देह
होता है । वादी का विरोध तो हुआ ।
( १५ ) प्रकरणसम वह जाति है जिसमें दोनों पक्षों (नित्य ओौर अनित्य)
के साधम्यं (या वैधम्यं) से वादीका विरोध करते है। वादी उपयुक्त रीति
से शब्द को अनित्य सिद्ध करताहै जबकि प्रतिवादी कहतादहै किं शब्द नित्य
है क्योकि यह श्रवणीय है जेसे शब्दत्व । प्रतिवादी कठता दहै क्रि शब्द की
अनित्यता सिद्ध नहीं हो सकती क्योकि हेतु ( श्रवणीयता ) शब्द तथा श्दत्व
दोनों मे ( जो करमशः अनित्य ओौर नित्य दहै) साधम्यं रखता है तथा यह
वही शाल्ञाथं आरंम करता है जिसके साधन के लिए इसका प्रयोग हुभआथा।
श्रवणीयता'-दहेतु शब्द को अनित्य सिद्धकरने ने लिए प्रयुक्त हु ओर उलटे
यह् निव्यानित्य का विवाद खडा कर देताहै।
( १६ ) हेतुसम ( या अहेतुसम ) जाति में हेतु को तीनों कालों में असिद्ध
करके वादी का विरोध करते है। वादी की उक्ति--शब्द अनित्य क्योकि
यह कतक है जेसे घट । अव प्रतिवादी कहता है किं हतु साध्य के पठे हुआ
कपी कि साथ-साथ ? यदि हेतु ( कृतकत्व ) साघ्य ( अनित्य ) के पहले
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१ द ९
् श - `:
हा तव्रतोहेतुकानाम हौ पड़ना कठिन है। साधन (हेतु) के समथ यदि
साष्यही नहीं रहा तो साधन होगा किसका ? यदि हेतु सघ्यके बाद आता
हेतव तोहितु की आवदषकत। ही नहीं क्योकि साध्य तो पहले से है ( = सिद
है)। यदिदटेतु ओौरसाध्यएकही साथ आवे तत्रतोगायकी बा्यी-दायीं
ग के चमान संबद्ध रहने से साष्य-साधनका संबंध नहीं रह सकेगा । यह जाति
वास्तव में कारक ओर ज्ञापङ्हेकुओंको एक् समभनेके कारण उत्पन्न होती है।
( १७ ) अथापत्तिसम वह जाति है जिसे विरोधीदल अर्थापत्ति (अन्यथा
असिद्धिका आभास) के द्वारा वादीका खंडन करता है। वादी की उपर्युक्त
उक्ति का विरोध प्रतिवादी यों करता है--शब्द को यदि अनित्य मानते है तो अथं
सेटौ ज्ञातहोतादैक्रिं शब्दके अतिरिक्त सभौ चीजें नित्य टहै। घटका
हृष्टास्त भौ तो नित्य ही है फिर आप इसे अनित्य कौ सिद्धि के लिए वयो रखते
ह ? तवर अर्थाप्ति से, शब्द निस्य है क्योकि यह आकाश कौ तरह अमृतं है--
यह सिद्ध हु । |
( १८ ) अविश्ञेषसम जाति वहां होती है जबर वादीका विरोध इस
आधार पर करते ह कि यदि पक्ष भौर दृष्टान्त मे समता ( अ विश्लेष .^ 08611९6
> 006०८) है तो सभी पदार्थोके साथ भौ समता ( अविशेष )}
दिखलाई जा सकती है । यदि शब्द ( पक्ष ) ओर घट ( दृष्टान्त ) मे कृतकत्व
के चलति सभता ह तो प्रमेयत्व के चलते शब्द के साथ सभी पदार्थोकी भी
चमता दिलाई जा सकती है! सब तो तब के सब पदां नित्य या अनित्य कु
भी किये जा सकते है।
( १९ ) उपपत्तिसम जाति वह है जिसमे पृथक्-पृथक् हेतओं से साध्य
ओर उसके विरोध दोनों कौ सिद्धि कौीजा सके । यदि कृतक होने के कारण
शब्द अनित्य है तो अवयवरहित होने के कारण वहं नित्य क्यो नहीं हो सक्ता ?
पहले वाद में धट दृष्टान्त होगा, द्सरे मे आकाश ।
४
( २० ) उपलब्धिसम जाति उसे कहते है जिसमे वादी का खंडन करने
के लिए यह कहा जाता है कि आपके द्वारा निदष्ट कारण के अभावमेंभी दूसरे
, कारणों से ( प्रत्यक्षादिसे) हम साध्यका ज्ञान पा लेते ह। वादी की यह्
उक्ति कि पर्वत धूम के कारण अ्चिमान् है, खंडित हो सकती दहै कि धूमके बिना
भी आलोक आदि देखकर हम अग्नि का पता लगा लेते है । शब्द को अनित्य
सिद्ध करने के लिए कृतकल्व" हेतु देने की आवदयकता नहीं, उसके बिना भी हवा
के चकोरे से पेड की डालोंकोटुटते देखकर शब्द की अनित्यता सिढ होती
३१ स सं
7. सर्बदशेनसंग्रहे-
है । शब्द हआ ओर समाप्त । एक कायंका एकही कारण होतादै, सी
चारणा है, इसीलिए यह जाति लगती है ।
( २१ ) अनुपलब्धिसम वह जाति है जिसमे किसी वस्तु की अनुपलब्धि
( च०ण-कृशव्शृपठप अप्रत्यक्ष ) देखकर उस वस्तु का अभाव सिद्ध करनेवाले
वाद का खरडन (उसके विरूढ निगमन कौ सिद्धि) अनुपलब्धि को भौ अनुपलब्धि
दिवाकर करते है । नैयायिक ( वादी ) करता ठै कि शब्द को ठँंकनेवाला कोई
आवरणा नहीं है क्योकि हम उसे नहीं पाते (२।२।१ ८) । अब प्रतिवादी कहता हे
किं आवरण है क्योकि इसके अप्रत्यक्ष का प्रत्यक्ष नहीं होता । प्रतिवादी के
अनुसार यदि किसी वस्तु के अप्रत्यक्ष से वस्तुका अभाव सिद्धहौ जाय तो
उसके अप्रत्यक्ष काप्रव्यक्षन होने से वस्तु कौ सत्ता भवर सिद्ध हो जायगी ।
तदनुसार शब्द को अनित्य नहीं मानं ।
( २२) नित्यसम जाति वह है जिसमे धमं के नित्त्व ओर अनित्यत्व
इन दो विकल्पों के द्वारा धर्मी को नित्य सिदध करते हए वादौ का खण्डन करते
ह । नैयायिक सिद्ध करते है किं राव्य ( धर्मी } अनित्य है) अब प्रतिवादी पूता
ह करि शब्द का यह अनित्य-घमं स्वथं नित्य है या अनित्य ? यदि नित्य हैतो
चर्मी के बिना धमं की स्थिति असम्भव है इसलिए धर्मी ( शाब्द ) कीभी
नित्यता माननी पडेमी । यदि अनित्य ठ तो इसका अथं यही हुआ करि शाब्द की
अनित्यता अनित्य है अर्थात् शाब्द नित्य दै। किसी प्रकार भौ शब्द की नित्यतां
ही सिद्धहो जातो टै।
( २३ ) अनित्यसम जाति वह है जव कु वस्तुओं कौ समता देखकर
उनमे समान धमं की सिद्धि करके समी वस्तुओं को अनित्य मान लें । यदि
तक होने के कारण घट के साधम्यं से शब्द को आप लोग अनित्य मानते हतो
्रमेयन्व ( 17100] ) होने के कारण घट के साधम्यंसे सभी वस्तुं
ही अनित्य हो जार्येगी । इस प्रकार सभी वस्तुओं को अनित्य मानने का दोष
लगा कर जाति के द्वारा शब्द कौ अनित्यता का खण्डन करते ह)
( २४ ) कायं सम जाति उपे कहते ह जहां किषी प्रयत्न के अनेक कायं
( परिणाम 11६५ ) दिखाकर किस) वाद का खण्डन करते ह। वादी कहता
है कि शम्द अनित्य है क्योकि यह प्रयतत का परिणाम है । अब प्रतिवादी कर्टता
ह किप्रयत्न के कायं दो प्रकारके है-( १ ) असत् वस्तु कौ उत्पत्ति जेसे
चट ओौर ( २ ) पहले से विद्यमान (सत्) वस्तु कौ अभिव्यक्ति जैसे करूपजल । शब्द
इन दोनों मे किस प्रकारका कायं है? पहली स्थिति मे तो शब्द अनित्य
रहेगा किन्तु दूसरी स्थिति में नित्यता आ जाती है। इ प्रकार कायं की
अनेकता से शब्दानित्यरव सिद्ध होना कठिनं है 1
= ८
गौतम ने न्पायशालर के पंचम अध्यायके प्रथम आह्धिक में इन जातियों
की विवेचना करते हृए् इनमें दोषों को उद्धावना करने की विधि भी बतलाई है।
विशेष ज्ञान के लिए वात्स्यायन भाष्य देखे ।
( द क. निग्रहस्थान ओर उसके वास भेद )
पराजयनिमित्तं निग्रहस्थानम् । तद् द्रार्विशति प्रकारम् ।
प्रतिज्ञादानि-ग्रतिज्ञान्तरः ्तिज्ञाविरोध-परतिञासंन्यास-देलन्तराथौ-
न्तर-निर्थकाविज्ञाताथीपाथेकाप्राप्तकाल-न्युनाधिक-पुनरुक्तानचु-
माषणाज्ञानाप्रतिमा-विकष प-मतालज्ञा-पर्यनुयोञ्योपेक्षण-निरडयो-
ज्यानुयोगापसिद्धान्त-देत्वामासमेदात् ।
अत्र सर्ान्त्मणिकस्तु विशेषस्तत्र शा विस्पषटोऽपि विस्त-
रभिया न प्रस्तूयते ।
[ किसी शाखराथं मे ] पराजय प्राप्त करने के जो-जो कारणा है उन्हं
नि प्रहस्थान (2९685101) {07 एला) €) कहते है । ये वाईस प्रकारके है-
प्रतिज्ञाहानि, प्रतिज्ञान्तर, प्रतिज्ञाविरोध, प्रतिज्ञासंन्यास, हत्वन्तर, अर्थान्तर,
निरर्थक, अविज्ञाता्थं, अपार्थक, अप्राप्तकाक, न्यून, अधिक, पुनरुक्त, अननु-
भाषणा, अज्ञान, अप्रतिमा, विक्षेप, मतानुज्ञा, पर्यनुयोज्योपेक्षण, निरनुयो-
उ्यानुयोग, अपसिद्धान्त तथा हेत्वाभास ।
यहाँ इन सब के अवान्तर भेदका वरान विस्तार के भय से प्रस्तुत
नहीं कर रहे है क्योकि [ न्याय- | शाख मे ये अच्छी तरहसे स्पष्ट किये
गये है ।
विरोष-कोई वादी शाखार्थं में इसलिए परास्त होता है कि वहं निग्रह
स्थानके क्रिंसी न किसी मेद कीचपेटमे पड़ जाता है। मध्यस्थो के लिए
निग्रहस्थान बडे काम की चीज दहै करि जब कोई शास्त्रार्थो ओवो मे धूल क्ोकरकर `
आगे बदाजा रहादहो तो उसे रोकं!
| ( १ ) अपनी प्रतिज्ञा का खरडन होता देखकर उसङा निषेव करने वाली
प्रतिज्ञा मान लेना प्रतिज्ञाहानि है। शब्द एेन्द्रियक होने के कारण अनित्य है,
इस वाद का विरोध प्रतिवादी करता है कि सामान्य भीतो रेन्दियक है पर
नित्य है। ठेसा सुनते ही वादी कहता है किं तब शब्द नित्य है। स्पष्टरूप
से यह पराजय है। (२) अपनी प्रतिज्ञा का खण्डन देखकर दूषरी प्रतिज्ञा
मान लेना प्रतिज्ञान्तरै। वादी की प्रतिज्ञा पूववत् है, प्रतिपक्षी ने उसी तरह
८४ सवंदशेनसंग्रदे-
` खणशडन क्रिया । अब वादी महाशय करवट बदलते है--सामान्य तो व्थापक
है, अव्यापक शब्द अनित्य दै । स्पष्टतः अपनी प्रतिज्ञा का वादीने मौका
देखकर संशोधन कर लिया, पर यह पकड़ा जायया । ( ३ ) प्रतिज्ञावाक्य
ओौर हदुवा्य मे विरोध होने से प्रतिज्ञाविरोध होता है) द्रव्य गुणसे
भिन्न ह कथोकि इसे रूप, रस आदि गुणों से भिन्नता नहीं मिलती दहै ।
प्रतिज्ञावाक्य के अनुसार द्रव्य गुण से भिन्न है जबकि हेतुवाक्य के अनुसार
रभ्य गुणा से भिन्न नहीं । बहुधा मन ओौर वाणीका संबंधन होने सेएेसी
ब्रातं निकल पडती दहै जहां हारने का अवसर भा जाता है। (४) अपनी
प्रतिज्ञा का खण्डन देखक्रर अपनी कहौ हई बातों को अस्वीकार करना प्रतिन्ञा-
संन्यास दै। शब्द के अनित्य होने कर प्रतिज्ञा का किसी ने अच्छी तरह
खरडन किया । अब वादी महाशय अपनो प्रतिज्ञा परहौी हट कि किसने
कटा था कि शब्द अनित्य है? मनि कहाथा? कभी नहीं । (५) साधारण
हेतु के काट दिये जाने पर विशेष प्रकार का हेतु देना हेत्वन्तर है ! शब्द
अनित्य है क्योकि बाह्येन्दरिय से प्रध्यक्ष होने योग्य है। अब प्रतिवादी दोष
दिखाता है कि रेषा करने पर सामान्य नामकं पदाथं में व्यभिचार होगा
अर्थात् सामान्य बाह्यन्द्ियप्रतयक्ष टै पर नित्य नहीं । तवहेतु मे संशोधन
करते कौ आवदयकता पडती है- "सामान्य से युक्त होने पर' ( सामान्यवत्ते
सति ) बाद्येन्ियप्रत्यक्ष होने के कारण" `“ इत्यादि । सायण कौ ऋ्वेद-
भाष्यभूमिका मे मन्त्रो कौ प्रामाणिकता दिखाने के समय या व्याति के लक्षण
देने मे नन्यन्याय मे इसका बड़ा सुन्दर प्रयोग हआ है । सूक्ष्मता के लिए या
शुद्धतपर लक्षण देने के लिए इसकी आवद्यकत! पड़ती है ।
(६ ) किसी प्रकरण मे अप्रासंगिक बातें देना अथोन्तर है । कोई हेतु का
प्रयोग करे जौर हि-घातु ( हिनोति ) में तुन् प्रत्यय करने से धातु को गुण करके
हेतु" शाब्द की 'ध्युत्पत्ति समञ्ञाने लगे, तो उसे न्याय-शाख मे क्या करेगे ? बहुधा
नैधराज किसी रोग का विवेचन करने के पूवं अपने वैयाकरण-तच्व का भ्रदशेन
अवश्य करते ह । यह अग्रासंगिकता भी पराजय का कारण है । (७ ) निरर्थक
अश्षरोका प्रयोग करके तकं करना निरर्थक निग्रहस्थान है जेसे--कचटतप शब्द
नित्य हे कथोकि ये लच्ठ्थफ से संबद्ध है जैसे गजडदव । इन वणंसमूहों का कोई
मतलब नहीं । (८) जब वादी एेसा बोले कि तीन वार कहने पर भीन तो
परिषद् के सदस्य ( निर्णायकादि ) समक्षं ओौरन प्रतिवादौहौी स मन्ने तो उपे
अचिज्ञातार्थं कहते ह । रेखा तब होता है जब वादी दिलष्, असमर्थ, अग्रतीत
या भिन्नमाषा के शब्दोंका प्रयोग. करता है अथवा शब्दों का जल्दी-जल्दी
उच्चारण करता है । ( ९ ) आकांक्षा, योग्यता आदि से रहित तथा पूर्वापर से
अक्षपाद-दशनम् ४८५
असंबद्ध उक्ति को अपार्थकः कहते है । कोई व्यक्ति परास्त होने के भय से कोई
उपाय न देखकर बचने के लिए--दश दाडिमानि, षडपूपाः ( दस अनार, छह
पए) याञआगसे सींचताहै आदि--बकने लगता है । ( १०) प्रतिज्ञा, हेतु
आदि वाक्यों को उलट-पुलट कर॒ रवना अप्राप्तकाल कहलाता है । पंचावयव
अनुमान के नियम का उल्लंघन करना वास्तवमें परास्तहोनादहै। (११)
प्रतिज्ञादि अवयवो मसे एकाध अवयव क प्रयोग त करना न्यून कहुलाता है ।
(१२) एकसे अधिकदहेतुया उदाहरण देना अधिकदहै। एकदहीदहेतुया
उदाहरण से साध्य की सिद्धिहोजाने पर भो अधिक का प्रयोग करनेवाला
हारेणा ही ।
( १३ ) किसी वाक्यका उपीरूपमेया प्रकारान्तरसे बार-बार कहना
पुनस्त है। हां, अनुवाद में कोई दोष नहीं । अनुवाद विधि केद्वारा विहित
वस्तु कौ आवृत्ति करने को कहते है ( न्यायसूत्र २।१।६५ ) । ( १४) जब
निर्णायक लोग तीन बार बोलने को कहँ फिर भी वादीकुद्धन बोले तो इसे
अननुभाषण कहते ह जिससे वादी पराजित माना जतादहै। (१५) वादी
या पत्िवादौी कौ उक्ति को प्रतिवादीया वादीन समन्ञे किन्तु मध्यस्थ समञ्च
रहे हों तो उसे अज्ञान कहते है । जवतक शालरार्थी एक दूसरे कौ बात नदीं
समञ्चंगे तबतक रास्व्राथं करेगे हौ कसे ?( १६) दृषरेके द्वारा दिये गये उत्तर
को समज्ञ लेने पर भी उस्षका उत्तर नदेना अप्रतिभा है । इसमे भी पराजय होती
है । ( १७ ) जब कोई शस्त्रार्थी हारनेके डरसे किसी काम का बहाना करके
शास्त्रार्थं छोडकर चल दे तो उसे विक्चेप कहते है । जेसे लास्त्राथं करते-करते
कोई कहता है कि मेरे शौचका समयदहै, मँ चला । यदि इसके लिए पर्याप्त
कारण हो तो कोई दोष नहीं। ( १८) अपने पक्ष पर दोष भते देख कर दूसरे
क्च परभी वही दोष लगादेना भौर अपने दोषका निराकरणन करना
मताचज्ञाहै। इसमे वादी अपने दोष को स्वोकार करतादहै, एेसा समज्ञा
जातादहै। वादी को कहा गया तुम चोर हो। अब वादी इसका प्रतिवाद तो
करता नहीं, उलटे दोष दिखानेवाले को भी चोर बनातादहै। आज का समाज
इसका मूतिमान् स्वरूप है ।
( १९ ) प्रतिपक्षीको पराजयहो जाने पर भी यदि अपनी प्रलता से
कोई उसकी उपेक्षा करदे तो उसे पयेनुयोज्योपेक्षण कहते ह । उपेक्षा
करनेवाला भमी दण्डनीय है । ( २० ) जहाँ किसी की पराजय वास्तवमें न हई
हो किन्तु "उसकी पराजय हई" एेसा कहना निरलुयोञ्यानुयोग है । ( २१ )
यदि कोई व्यक्ति किसी सिद्धान्त की स्थापना करके वादके क्रम में उस सिद्धान्त
८६ स्वदशनसंग्रह-
से हने लगे तो उसे अपसिद्धान्त कहते है। परास्त होने के भयसे लोग
प्रायः अपने सिढान्तों कौ तिलांजलि देकर दूसरों की भोर भरुकने लगते दह पर
सीवे नहीं, प्रकारान्तर से । स्वाथं किसे अचेत नहीं करता ? (२२) देत्वाभासो
की चपेट में षड़ जाने से भी पराजय का प्रसंग हो जाता है! इनका वर्णान हम
कर ही चुके है ।
अब हम अभी तक वर्णन किये गये न्यायाय पदार्थो की उपादेयता पर
विचार करं । प्रमेह के बारह भेदो मे जो अथं नामकभेद है उसके अन्दर ही
प्रमेय को छोडकर अन्य पंद्रह पदाथं चले आति है, प्रमेयो में भी अंको छोड़कर
अन्य सभी प्रमेय उसके अन्दर ही है। सूत्रकार यह अन्तर्भाव मानते भी है किन्तु
मोक्ष के साधन होने के कारणा इन सों को पृथक्-पृथक् रखा गया है । मोक्ल
(१२) काथं दुःखसे बिल्कुल बच जाना। दुःख ( ११) मृत्यु तथा
गर्भवासरूो प्रेत्यभाव (९ ) से होता है । प्रेत्यभाव भी सुखदुःख का फल
( १० ) उत्पन्न करने वाली प्रचृत्ति (७ ) से उत्पन्न होता है 1 प्रवृत्ति भौ
मनोगत ( ६ ) राग-देष-मोह रूपी दोषो (८ ) से होती है। दोष कीहानि
छारीर (२), इन्द्रिय (३) ओर अथे (४) से प्रथक् ल्पमे आत्मा
(१) के तत्वके ज्ञान (५) से होतादहै। इस प्रकार ये प्रमेय मोक्ष के
उपयोगी हैँ ।
घोडक पदार्थो की उपादेयता भी कम नहीं! प्रमेय (२) में गिनाये गये
तत्वों का ज्ञान प्राप्त करना ही परमाणौ ( १) का प्रयोजन (४) है । प्रमाणो
मे सुक्ष्म विषय के लिए अनुमान ही पंचावयव ( ७) से युक्त होकर दृष्टान्त
(५) के आधार पर अनुग्राहक तकं (८) कौ सहायतासे संशय (३)
का निराकरण करके सिद्धान्त ( ६ ) के अनुसार निय (९ ) दे सकता टै ।
निरय भी पक्ष ओर प्रतिपक्ष का परिग्रह करने वाली कथा के भेदो मे वाद (१०)
के द्वारा ही दृढ हो सकता है । कथा मे भी जप ( ११), वितण्डा ( १२),
हेत्वाभास ( १२), छल ( १४), जाति ( १५ ) तथा निश्रहस्थान (१६)
काज्ञान आवश्यक है क्थोकिये त्याज्य है। इस प्रकार सूत्रकार के द्वारा
` दिखलाये गये सभो पदार्थो का ज्ञान मोक्ष के लिए उपयोगी है ।
अब, इन पदार्थोके साथ हमारा क्या व्यवहार हो? जल्प आदि का
प्रयोग तो स्वयं करना ही नहीं चाहिए । यदि दूसरे प्रयोग कर रहे हतो
मध्यस्थो को चाहिए कि वे उन्हँं दोष दिखाकर रोकं । यदि प्रतिपक्षी
अज्ञानी, मूखं या हटी हो तो मौन धारण करना हौ अच्छा है । यदि मध्यस्थ
अनुमति दं तो छल आदि का प्रयोग करके उस मूलं को परास्त कर दं। रेसा
त ६.-,,.३ + ~ भ ¢ += + +~ "क" 4
क श क क ४
१ 1
अक्षपाद-दशेनम ४८७
न होने से जनता समञ्नगी कि चूपहोजानेके कारण यह परास्त हो गया ओौर
प्रतिपक्षी की बात मान लेने से अज्ञानी लोग ठगे जार्येगे ।*#
( ७. स्यायराखर का नामकरण )
नलु प्रमाणादिषदा्थपोडश्के प्रतिपाद्यमाने कथमिदं न्याय-
श्ाखमिति व्यपदिश्यते ? सत्यम् । तथाप्यसाधारण्येन व्यपदेज्ञा
भवन्तीति न्यायेन न्यायस्य पराथोदुम! नापरपयीयस्य सकल-
विचयानुग्राहकतया स्वैकमोचुषठानसाधनतया प्रधानत्वेन तथा
उयपदेश्चो युज्यते ।
कोई पृछता है कि इस शाल्लमे प्रमाण आदि सोलह पदार्थो का प्रतिपादन
होता है फिर इसे न्यायशाखर वथो कहते ह ? शंका ठीक टै, पर एक नियम है कि
किसी असाधारण (प्रधान) वस्तुक | नाम पर सपूहभर का ] नाम पड़ता है -
इसी नियम से न्याय को, जिसका दरा नाम पराथानुमान मोटि, समी ज्ञानो
का अनुग्राहक ( सहायक ) होने के कारण तथासभी कर्मोके सम्पादन का
साधन होने के कारण प्रधान होनेसे तेसा नाम ( व्यपदेश ) ठीकही दिया
गया हि। [ अभिप्राय यह है कि पंचावयव वाव्योंसे बने हुए परार्थानुमान
करो न्याय कहते ह । जिसे विवक्षित अथं की सिद्धिहो वही न्याय है (नि +~/इ
+ चज. )। इस शास्त्रे परार्थानुमान का प्रमु स्यान है क्योकि इसीषे
तभी ज्ञान प्रा होति है, शास्नाथं चलते है तथा जय-पराजय होत्री है। किसी
को प्रधानतां देखकर पूरे समूह का नाम वेसा हौ रल देत है । परार्थानुमान का
नामन्यायतोह दही, पूरे शालको ही न्याय कहते है । ]
सव्ञेन © #
तथाभाणि सर्व्ेन--“सोऽयं परमो न्यायो विग्रतिपन्नपुरुप
ग्रति प्रतिपादकत्वात्। तथा प्रबृत्तिदेतुत्वाच' ( न्या° घ
वातिक १।१।१ ) इति । पर्षिरस्वामिना च--ियमान्वीक्षिको
विद्या प्रमाणादिभिः पदार्थः प्रविभज्यमाना--
1 न
दुःशिक्षितकुतर्काशलेशवाचालिताननाः
शक्याः किमन्यथा जेतुं वितरडादोषमरिडताः ॥\
गतानुगतिको लोकः कुमागं तत्त्रतारितः।
मा गादितिच्छलादीनि प्राह कारुणिको मनिः ॥
~ सबेदशेनसंग्रहे-
३, प्रदीपः सर्वविद्यानमुपायः सवेकमणाम् ।
आश्रयः स्वधमीणां विद्योदेशे परीक्षिता ॥
( न्या० स्रू० माप्य १।१।१ ) इति ।
इसीलिए भासर्वज्ञ ने कहा दै-- "विरोधी व्यक्ति के सामने भी तत्वे का
्रतिषादक होने कै कारणा यहौ परम न्याय ( मुख्य प्रमाण, निर्णायक ) है, उसी
प्रकार इसी ( परार्थानुमान ) से प्रवृत्ति ( क्रिया ) भी उत्पन्न होती है ।' ( न्याय-
सूत्रवातिक १।१।१ ) ।
पक्षिलस्वामी ( वात्स्यायन, <./ पक्ष + इलच् = पक्ष अथात् तत्वज्ञान का परि-
ग्रह करने वाले ) ने भी कहा है यही आन्वीक्षिकौ (न्याय) विद्या है जो प्रमाण
आदि सोलह पदार्थो मे बेटकर-( ३ ) यहं सभौ विद्याओं (ज्ञानो) के लिए
दीपक के समानहै, सभी कर्मोःका उपायै, सभी धर्मो का जाश्चयस्थान है
तथा ज्ञान ॐ व्याख्यान में पूर्णतः परीक्षित हो चुकी है। ) ( वात्स्यायन भाष्य
१।१।१ ) ।
वि्ोष- प्रत्यक्ष भोर आगम के द्वारा जिस पदार्थं को देख चुके है
उन अनुमान के द्वारा फिर से देखना ( परीक्षा करना ) अन्वीक्षा हे अर्थात्
अन्वीक्षा = अनुमान ( प्रत्यक्ष ओौर आगम पर आश्रित )। अन्वीक्षा ( अदुमान् )
से जो शाख चलता दै (प्रवृत्त होता हे ) वह आन्वीक्षिको या न्याया हे ।
उक्त श्लोक में वात्स्यायन ने न्याय की बड़ी प्रदंसाकी हे ।
( ८. अपवर्गं के साधन-- न्याय का द्वितीय सूत्र )
ननु तच्ञानाननिःभ्रेयसं भवतीत्युक्तम् । तत्र कि तच्व-
ज्ञानादनन्तरमेव निःश्रेयसं संपद्यते १ नेत्युच्यते । किन्तु त्च-
ज्ञानाद् (दुःखजन्मग्रवृ्तिदोषमिथ्याज्ञानानागुत्तरोत्तरापाये तदन-
न्तरापायादपवर्मः' ८ न्या० घू° १।१।२ ) इति ।
तत्र मिथ्याज्ञानं नामानारमनि देहादाबात्मबुद्धिः । तदनु-
कूलेषु रागः । तत्प्रतिङेषु द्वेषः । वस्तुतस्त्वात्मनः प्रतिकरल-
मनुक्ूलं बा न किचिद्रस्त्वस्ति । परस्पराचुबन्धित्वाच्च रागा-
दीनां मूढो रज्यति, रक्तो सुद्यति, मूढः कुप्यति, इषितो
मुह्यतीति ।
अक्षपाद-दशेनम् ८६
` आप कह चुके ह कि तच्वज्ञानसे निःश्रेयस ( मोक्ष ) होता है तो अव
यह बतलाइये कि तस्वज्ञान होने के बाद ही क्या निःश्रेय मिल जाता
है ? उत्तर होगा कि नहीं । बल्कि तच्वज्ञान के बाद "दुःख, जन्म, परवृत्ति, दोष
तैर मिथ्याज्ञान--इन सब मे उत्तरोत्तर कारण का क्रमशः विनाञ्च होने पर
उस कारणा के पूवं अभ्यवहित रूप से विद्यमान ( अनन्तर ) कार्यं का विनाश्च
होता है ओर अन्त में अपवभं ( मोक्ष ) की प्राप्ति होती है।' ( न्यायशुत्
१।१।२ ) । [ दुःखादि की शबला मे एक काय है दूसरा कारण । दुःख जन्म
के कारण है, जन्म प्रवृत्ति के कारणा, प्रवृत्ति दोष के कारण ओर दोष मिध्या-
जान के कारणा । उत्तरोत्तर वस्तु (कारण) के विनाश से पूवे-पूवं वस्तु (कायं)
का विनाश होगा--कारणाभावात्करा्यामावः । मिथ्याज्ञान नष्ट होने से इसके
अनन्तर आने वाले दोष का नाश होगा, दोषनाश्च से प्रवृत्तिनाश्च, उक बाद
जन्मना ओर तब दुःखनाश। ्ुःख से पूर्णतः मुक्त हो जाना ही तो अपवगं
है' ( ्यायसूत्र १।१।२२ ) । इस प्रकार तत्त्वतः ओर अषपवगं के बीच कई
सौदियां चनी पडती दै । तत्त्वज्ञान से मिथ्याज्ञान का नाच होता है आदि । |
अब मिथ्याज्ञान का अथं है कि अनात्मा अर्थात् देह आदि को भआत्दा
मान छेना। [ देह आदि = देह, खी, पत्र, धन, इन्द्रिय, मन॒ आदि । ] उसके
गाद [ देहादि के ] अनुक्रूल पड़ने वाले वदार्थो मे राग (प्रेम ) उत्पन्न होता है
तथा उसके प्रतिकूल पड़ने वलि पदार्थो से देष होता ह। क्रिन्तु वास्तव में
आस्मा के प्रतिकूल या अनूक्रूल कोई भी वस्तु नहीं है । [ मिथ्याज्ञान कै कारणं
शरीरादि के अनुकूल या प्रतिकूल पड़नेवाले पदार्थो को हम यह कह बैठते द कि
अमुक वस्तु मेरी आत्माके अनृकरुल है या प्रतिकूल है । अत्मा तो शरीर, इन्द्रिय,
मन, बुद्धि ओौर प्राण से भिन्न पदाथ है । उसमें एक दोष लग जाने पर उसीके
अनुषड्धसे द्रे दोष भौ लग जाते ह । किन्तु वास्तवमें वे आत्मा के स्वल्प
के साथ नहीं ह । मिथ्याज्ञान होनेके कारण दोष भौ बात्मा पर लगते है।
यदि कारणा नष्ठहो जाय तो दोष भी अपने आप हट जार्येगे । |
राग आदि दोषों के पारस्परिकं वेधे रहने के कारण देखा जाता है कि मोहं
से ग्रस्त प्राणी राग ( \ ४४8६०) 06€ा)४ ) धारण करता है; रागयुक्त प्राणी
मोह धारण करता है; मूढ ( मोह से प्रस्त ) क्रोध करता ह, क्रोधग्रस्त मोहं
करता है आदि । [ वात्स्यायन कहते हिकि इसी मिथ्याज्ञान से राग ओर
देष उत्पन्न होति ह । रागद्वेष का अधिकार होने से असत्य, ष्या, माया
( कपटाचार ) लोभ आदि मौ दोष कहलति है ¦ दोषों से भर जाने पर शरीर,
बाणी या मनमें ध्रचृत्ति जागती है जिससे नाना प्रकार कौ क्रियःयें उत्पन्न
४६० सवेदशनसंग्रहे-
होती ह । प्रवृत्ति अच्छी भी होती है ( जिससे धमं होता है), बुरी भी ( जिसते
अधमं होता है ) । प्रवृत्ति के साधन धमं ओौर अधमं को भी प्रवृत्तिशब्दमेंही
रखते है । अब इक प्रवृत्ति से निन्दित या पूजित जन्म मिलता टहै। शरीर,
इन्द्रिय, बुद्धि के निकाय (समूह) से बने हए प्रादुर्भाव कोही जन्म कहते है!
जन्मसे दुःख होता है। मिथ्याज्ञान सेलेकर दुःख तकजो भीधमं हवे
अविच्छिन्न हैँ जिनका प्रवर्तन ही संसार है, इनका विनाश्च होने पर अपवभं
मिलता है । नीचे शेष धर्मोकीव्याख्याहो रही है । |
ततस्तेदपिः प्रेरितः प्राणी प्रतिषिद्रानि शरीरेण हिसास्ते-
यादीनि आचरति । वाचा अनरृतादीनि । मनसा परट्रोहादीनि ।
+ ¢
सेयं पापरूपा प्रवृत्तिरधमः । करीरेण प्रशस्तानि दानपरपखि-
णादीनि । वाचा हितसत्यादीनि । मनसा अनजिघांसादीनि ।
ॐ ^~ ¢ [३
सेयं पुण्यरूपा प्रवृत्तिधेमंः । सेयमुमयी प्रवृत्तिः ।
पवुत्ति- तव उन दोषों ( राग-देषादि) से प्रेरित होकर प्राणी निषिद्ध
कार्यो मे शारीर से हिसा, स्तेय (चोरी) आदि कायं, वाणी से न्चठ बोलना
आदि तथा मन से परद्रोहं आदि आचरण करतादहै। तो यह् प्रवृत्तिपापकी
है जिसे अधमं कहते है । अब प्रशस्त कारयाम हारीरसे दान, दूसरों की रक्षा
आदि करना, वाणी से हितकर बातं बोलना, सत्य बोलना आदि, मन से किसी
की हिसा न करने की इच्छा आदि। यह पुर्य कौ प्रवृत्ति हैओौर इसे ही धमं
कहते है । इम प्रकार इन दोनां रूपों ( धमं ओर अधमं ) मे प्रवृत्ति ही है। [ इन
पक्तियों मे वात्प्यायन-माष्यकी आत्मा गूँज रही है । वहीं से माधवनेमावलियेहै ।|
ततः स्वानुरूपं प्रशस्तं निन्दितं वा जन्म पुनः शरीरादेः
्रादुमौवः । तस्मिन् सति प्रतिकूरबेदनीयतया बाधनात्मकं
दुःखं भवति । न दयप्रवृत्तस्य दुःखं प्रत्यपद्यत इति कश्चित्य-
¢
पद्यते। त इमे मिथ्याज्ञानादयो दुःखान्ता अविच्छेदेन प्रबतं-
मानाः संसारशब्दार्थो घटीचक्रवननिरवधिरलुवतेते ।
यदा कशचित्पुरुषधोरेयः पुराकृतसुङृतपरिपाकवश्चादाचार्या-
पदेशेन सर्वमिदं दुःखायतनं दुःखानुषक्तं च पश्यति, तदा
निब तेकमवि्यादि [क [क
तत्सवं हेयत्वेन बुध्यते । ततस्त निवतेयितु-
मिन्छति । तनिब्रयुपायश्च तच्चज्ञानमिति ।
~ ४६१
उसके बाद अपने अनुरूप प्रशस्त या निन्दित जन्म होता है अर्थात् पुनः
जरीर आदि ( शरीर, इन्द्रिय, बुद्धि, मन, त्राण ) का प्रादुर्भाव होता दै)
[ शरीरादि-संयुक्त ] जन्म मिल जाने पर दुः होता है जिसमे प्रतिकूल ( मन
के विशुद्ध ) वेदना या अनुभव होता है भौर बाधा भिलती है ( हमारी इच्छा
के विषुढ है )। रेसा कोई नहीं मानेगा कि जो व्यक्ति प्रवृत्त नहीं होता उसे
दुःख की प्राति होगी। | प्रवृत्ति के अभाव मे आवृत्ति नहीं होती, दुःख की
संभावना मी नहीं रहती । इस दशा मे दुःखका जनुनव नहीं होता । } तो,
मिथ्याज्ञान से लेकर दुःख तक~-ये सारे धमं अविच्छिन्न (बिना स्के हुए)
रूप से चलते रहते है तथा संसार" शब्द का अथं भो यही है किं घटी चक्र (रंहट)
की तरह लगातार चलता रहता है ( संसरतीति संसारः ) 1
जव कोई पुरुषश्रेष्ठ अपने पुराकृत ( ूवंजन्म मे अजित) पुर्यो के
परिणा मस्वरूप आचाय के उपदेश से इस समूचे संसार को दुःख का आपतन
( सधरूह ) एवं दुःख से परिपूणं देखता हैतो इन सभी वस्तुओं को हेय (त्याज्य)
समक्ता है। उसके बाद इस संसार को उत्पन्न करने वाले { निवर्तक )
कारणों जैसे अविद्या आदि को हटाना चाहता है। उनको निवृत्ति का उपाय
तत्वज्ञान ही है ।
कस्यचिच्चतसुभिर्विधाभि्विभक्तं प्रमेयं भावयतः सम्यण्द्-
कलनपदवेदनीयतया तच्ज्ञानं जायते । तच्ज्ञानान्मिथ्याज्ञानम-
तैति । मिथ्याज्ञालापाये दोषा अपयान्ति । दोषापाये प्रदत्तिर-
वैति । प्रृस्यपाये जन्मापैति । जन्मापाये दुःखमल्यन्तं निवतंते ।
सा आत्यन्तिकी दुःखनिदृत्तिरपवेः । निडृत्तरात्यन्तिकतव
नाम निवत्यसजातीयस्य पुनस्तत्राचुत्पाद इति । तथा च पार-
मपं त्रम् दुःखजन्मम्रवृततिदोपमिथ्याज्ञानानायुत्तरोत्तरापाये
तदनन्तरापायादपव्गः ८ न्या० ० १।१।२ ) इति ।
जो व्यक्ति चार विधाओं ( प्रकारो=उदेश, लक्षण, परीक्षा, विभाग) में
बारकर प्रमेय की भावना ( ज्ञान ) करता है उसमें तच्वज्ञान अर्थात् सम्यक्
दर्शन उत्पन्न होता है । तच्वज्ञान होने से मिथ्याज्ञान दूर होता है। मिथ्याज्ञान
के हटने पर दोष दूर होतेह । दोषो के नष्ट होने पर प्रवृत्ति नष्ट होती है ।
* दूरे विचार से दुः निरोध (
ये चार प्रकार है।
ख, दृखःहतु , दुःखनिरोध ( मोक्ष ) तथा मोक्षोपाय--
४६२ सबेदशेनसं्रहे-
वृत्ति के दर होने पर जन्मका विनाश होताहै। जन्मके अपायके बाद
दुःख को आत्यन्तिक ( पणं रूप से ) निवृत्ति होती है । दुःख की यह् आत्यन्तिक
निवृत्ति ही अपवगं है । निवृत्ति तभी अत्यन्तिक कहलाती है जब निवृत्त होनेवाले
( दुःख ) के सजातीय [ क्रि्ी मी दरे दुःख | की फिर वहां उत्पत्तिन हो ।
इसीलिए परमि गौतम का सूत्र ही है--्ुःख, जन्म, प्रवृत्ति, दोष ओर मिथ्या
ज्ञान, इनमें उत्तरोत्तर वस्तु का अपाय होने पर, उसके अनन्तर ( पुवे-पूवं )
की वस्तुका अपाय होता है तथा अन्त मे अपवर्गं मिलता है।' (च्या० सु9
१।१।२ ) ।
( ९. मोक्ष का स्वरूप- माध्यमिक मत )
ननु दुःखात्यन्तोच्छेदोऽपवगे इत्येतदद्यापि कफोणिगुडा-
यितं वतते । तत्कथं सद्भवतछत्य व्यवहियते इति चेत्- मेवम् ।
सर्वेषा मोक्षवादिनामपवगेद्ञा प मात्यन्तिकी दुःखनित्तिरस्ती-
त्यस्याथस्य सवरेतन्तरसिद्वान्तसिद्धतया वण्टापथत्वात् । तथा
हि--आत्मोच्छेदो मोक्ष इति माध्यमिकमते दुःखोच्छेदोऽस्तीत्ये-
तावत्तावदविवादम् ।
कोई शंका करता है--अपवगं का जो लक्षण आपने दिया है कि यह दुःख
को आत्यन्तिक निवृत्ति है यह तो आज तक केहुनी ( 100७, हाथ के बीच
का माग ) को गुड़ समन्षनेकी भरूलके बरावरही है ( = असिद्ध या निष्कल
है)। [जसे केहनी मे गुड नहीं है किन्तु कोई भूल से उसका आस्वादन करने
लगे उसी प्रकार मोक्ष का उक्त स्वरूप असिद्ध है। | तो आप लोग सिद्ध की तरह
उसे मानकर क्यो प्रयोग कररहेरहै?
उत्तर मे यह कहा जा सक्ताहैकि सभी मोक्षवादी ( मोक्ष माननेवाले,
इसका लक्षण करने वले }) तो मानते है कि अपवगं को दामे दुःखकां
मात्यन्तिक विनाश हो जाता है- इस प्रकार यह् बात सभो तन्त्रो के सिद्धान्त
से सिद्धहोनेके कारण घण्टापथ { राजमार्गे, हाथी आदि जहाँ घंटे कौ ध्वनि
करते हुए चलं ) की तरह [ प्रशस्त ओर प्रतिष्ठित] है। इसे यों देवं -
माध्यमिक (बोधो ) के मतसे तो आत्मा,का विनाश्च करदेना ही मोक्ष है, इस
प्रकार [ उनके मतमें मी | दुःख $ नाश होता है, इतना तो निरविवाद है ।
अथ मन्येथाः--शरीरादिवदात्मापि दुःखहेतुत्वादुच्छे्य
इति तन्न संगच्छते । बिकरपाजुपपत्तेः । किमात्मा ज्ञानसंतानो
~ दशनम् ४६३
विवश्षितस्तदतिरिक्तो वा ९ प्रथमे न विप्रतिपत्तिः । कः खल्वनु-
कररमाचरति प्रतिकूलमाचरेत् १ दितीये तस्य नित्यत्वे नित्रत्ति-
रश्क्यविधानैव । अनित्यते प्रवरच्यनुपपत्तिः । व्यवहारालुपपत्ति-
श्राधिकं दृषणम् । न खल कच्चितरक्षावानात्मनस्तु कामाय सवं
परियं भवतीति सर्वतः प्रियतमस्यात्मनः समच्छेदाय प्रयतते ।
सर्वो हि प्राणी सति धमिणि मुक्त इति व्यवहरति ननु ।
अब यदि आप मानते हों किं शरीर आदि की तरह आत्मा भीदुःखका
कारणा है ओर इसीलिए उसका उच्छेद ( विनाल ) होना चाहिए; तो यह ठीक
नहीं । [ शंका करने वाले यह कहते है कि माध्यमिक बौद्धो की समता करने
ते वैयायिकों को भी 'आत्मोच्छेद ही मोक्ष हि" यह मानना प्डेगा। पर नैयायिक
पहले ही कह चुके ह कि माष्यमिकों की उक्तिसे हमे यहीलेनादहै क्रिवे भी
दुःखोच्छेद को मोक्ष मानते ह । आतमोच्छेद वाले पक्ष कातो हम खंडन
करेगे । आत्मा का उच्छेद मानने पर ] इन दोनों विकल्पों की असिद्धि हो
जायो । अच्छा यह बतलाइये कि अत्मा को अपि ज्ञान संतान ( 9९५९-
85९९ 00760 ) मानते है या उससे कुच भिन्न ? [ विकल्पये है--
आत्माका अथं क्या ज्ञान का प्रवाह है या ज्ञानप्रवाह से भिन्न उसका
आश्रय ? |
यदि पहली बात है (कि आत्माका अथंज्ञान है) तो कोई भं्ञट नहीं
है। कौन एेसा मूखं होगा जो उसके अनुकूल बात करने वाले पक्ष के विरु
अपने आचरण दिषायेगा ? [ तात्पये यह दै किं आत्माको ज्ञान मानने मे
आतमोच्छेद का अथं ज्ञानोच्छेद हो जायगा जो नेयायिकों के अनुकूल ही दै ।
मोक्षे ये ज्ञाननाश् मानते ही ह । नेयायिकों का सिद्धान्त है कि मोक्षमें जीव कौ
स्थिति प्रायः पाषाणा की तरह हो जाती है । जब माष्यमिक लोग नैयायिको के
पक्षं ही बोल रहे ह तन उनका खण्डन करम की मूर्खता कौन करे ? |
यदि दूसरी बात है (कि मात्मा का अथं ज्ञन का जन्निव हि) तो यदि
वह नित्य हुई तो उसकी निवृत्ति ( विनाश ) का विधान करना असमव है ।
यदि अनित्य हुई तो भी [ “उसके विनाश क लिए किसी व्यक्ति में | प्रवृत्ति
उत्पन्न नहीं होगी । एक ओर दोष होगा कि | अपक व्यक्ति मुक्त हुआ" इस
प्रकार का | व्यवहार भो लोक मे नहीं चल सकता । "आत्मा कौ प्रसन्नता क
ही लिए सारी वस्तुएँ प्रिय लगती है' इसलिए जो आत्मा संसार में सबसे अधिक
प्रिय ह, उसके विनाश के लिए कौन बुद्धिमान् व्यक्ति प्रयत्न करेगा ?
४६४ सबेदशेनसंग्रहे- `
[ इसलिए आत्मोच्चेद की प्रवृत्ति होगी ही नहीं । ] दूसरी ओर, सनो प्राणी,
धर्मी (आत्मा ) के रहने पर हौ तो उरक मोक्ष हआ, रेखा व्यवह्।र करते
ह? [ कहने का यह अभिप्राय है कि जब हम कहते टै क्रि शुक मुक्त ९,
वामदेव मुक्त हुए तो उस उक्ति के पीठे यह तात्पयं है--मोक्ष धमं है, इसका
आश्रय धर्मी ( आत्मा केरूप में) कोड अव्य है। यदि मोक्ष हो जाने पर
आत्मा का विनाश हो जाता तो एसा व्यवहार कभी नहीं करते कि अमुक मक्त
हआ । सत्य तो यहं है किं व्यवहार से प्रतीत होता हैकरि मूक्तं होने पर भी
आत्मा की सत्ता रहती है 1 |
(९ क. मोक्ष के विषय त्र विज्ञानवादियौ का मत )
धमिनिव्तौ नि्मल्ञानोदयो महोदय इति विज्ञानवादिवादे
सामग्रयषावः सामानाधिकरण्यानुपपतिश्च भावनाचतुष्टयं हि
तस्य कारणमभीष्टम् । तच्च क्षणमङ्गप स्थिरैकाधारासंमवात्
लङ्कनाम्यासादिवत् अनासादितप्रकषं न स्फुटममिज्ञानमभिजन-
पितं प्रभवति सोपप्ठतरस्य ्ञानसंतानस्य बद्धत्वे निरुपप्ठवस्य
च शक्तत्वे यो बद्धः स एव फक्त इति सामानाधिकरण्यं न
संगच्छते ।
धर्मी (ज्ञान का आश्रय = आत्म ) की निवृत्ति हो जाने पर निर्मल ज्ञान
का उदय होना ही महोदय ( मोक्ष ) है-- विज्ञानवादो के इस मत मे हमारी
यह आपत्ति है कि इसमे एक तो कारणसामग्री ( साधन ) नहीं है; दूसरे दोनो
दशाओं का समानाधिकरणं ( एकाधार ) होना भी सिद्ध नहीं किया जा सक्ता ।
{ विज्ञानवादी मानते है क्रि जान स्वभावतः निमंल तथा क्षणिक है। ज्ञान
इसलिए मलयुक्त हो जाता है कि उससे उसके धर्मी या आश्नय आत्मा का
संसग होता है। जब आश्रय की निवृत्ति हो जायगी तब अपने अपि निर्मल
ज्ञान क्षण-क्षण मे उत्पन्न होने लगता ह । पर इस प्रकार के मोक्षम दो दोष
शयायिकों को दिलाई पड़ते ह वर्यात साधन का अमाव तथ' समानाधिकरण
न होना । |
[ हमारी प्रथम आपत्ति के उत्तर ने यदि ये उत्तर दं कि निर्मल ज्ञानोदय
के] कारणाके खूप मे हम चार भावनाओं ( सव दुःखं, क्षणिकं, स्वलक्षण,
शृन्यम् } को मानते है तो हम कर्टैगे कि इस स्थिति मे जब बौद्धो काक्षण-भंग
प्च मानसँगे तो कोई भी आधार स्थिर नहीं हो सकता । [ जब क्षण क्षण
अक्षपाद-दशनम् ४६५
ने ज्ञान बदल रहाहै तो उसका आधार कैसे स्थिर हो सकता हि, आत्मा
( आश्रय ) भीतो स्थिर नहीं हो सकती । ] जैसे बीच-बीच में छोडकर अभ्यास
करने से अध्ययन प्रकृष्ट नहीं हो सकता उक्षी तरह [ किसी एक स्थिर आवार के
अभावमे चिटपुटहोजनेसे ये भावनाय भो] प्रष्टं नहीं हो सकतीं । फल
यह होगा कि ये भावनाय क्रिसो भी निशित ( स्फुट ) ज्ञान या तत्वज्ञान का
उत्पादन नहीं कर सकतीं । [| जब तक भवना हृ त हो उसमे अभिज्ञान
हो नहीं सक्ता । सामान्य भावना से कुछ नहीं होता । जैसे किसी स्फुट लक्षण
से रहित मणि को देखने पर भो, यहं मणिटहै' केवल इतना कह देने से,
मणित्व की भावना होने पर भी प्रत्यभिज्ञा नहीं हो सकती । बार-बार देखने के
बाद प्रढृष्ट भावना होती है भौर तब किकी वस्तु को पहचाना जा सक्ता है ।
चछोड-छोड़ कर या लंघन करके अभ्यास करने से ज्ञान का प्रकषं नहीं होता ।
उसी प्रकार क्षणक्षण मे बदलने वालि ज्ञान से प्रकषं नहीं होता --एेसी भावना
स्फुट ज्ञान नहीं दे सकती । इसलिए दु.ख, क्षणिक, स्वलक्षण ओर शन्यकेषूप
नै प्रत्यभिज्ञा नहीं हो सक्ती । फल यह हृंजा कि मोक्ष की सामग्री ( साधन |
भावना नहीं है । कोई भी मोक्षके साधक तत्वज्ञान को उत्पन्न नहीं कर सक्ता । |
दूसरे, उपप्लव ( स्वाभाविक क्लेश, मल ) से युक्तं ज्ञान का प्रवाह बद्ध
कहलाता है जब कि उपप्लव से रहित ज्ञन-्रवाहं सक्त होता है-रेसी दशा
नरे 'जो बद्ध था वही मुक्त हुमा" एषा समनाविक्ररण होना सम्भव ही नहीं,
{[ मुक्त की दशामें समानाधिकरण होना बहुत अवश्यक है-जो बद हुंमा था
उसे ही मुक्तं होना चहिए । किन्तु यहाँ तो जो ज्ञानप्रवाह् बद्ध था वहं दूषय
है। मुक्तं होने वाला ज्ञानप्रवाह दूषा हीहै। इस प्रकार विज्ञानवादियोंक्रा
मोक्ष भी ठीक नहीं माना जा सकता । |
( १०. जञेनौ के मत से मोक्ष का विचार )
आवरणुकति्थक्तिरिति जैनमताभिमतोऽपि मार्गो न
निसर्गतो निरगेलः। अङ्ग, मवान्पष्टो व्पाचशं किमवरणम् ।
धरमीधरमशरान्तय इति चेत्-इष्टमे्र । अथ देहमेबावरणम् । तथा
च तन्निवृत्तौ पञ्जरान्यक्तस्य श॒कस्येशात्मनः सततोध्वंगमनं
पक्तिरिति चेत्-तदा वक्तव्यम् ।
अभ्यंकर जो ने लंघन का "उडनाः अथं लेकर समन्ञाया है किं उड़ने की
कला मे भी प्रकषं तभी हो सकता है जब अभ्यास करिथा जाय । उसी प्रकार
आवना की आवृत्ति से प्रकृता आती है ।
भ >
+ => हु > = क चक ॐ
र विनि नी क्क नगे
ए ~ 3 कि
ति म
निय ~ किक क 9 जानक =
9)» किष
--=- ~~ रय
४६६ | सबेदशेनसंमरहे-
“आवरणं ( व्याघात, बाधा, रुकावट ) से मृक्त हो जाना ही मुक्ति है--
जैन-सिद्धान्त से सम्मत यह माभं भी स्वभावतः प्रतिबन्व-रहित नहींहै।
महाशय, पसे (जनों से) हम पचते है, बतलावं तो-आवरण व्याह?
यदिवे कहं किं हम धमं, अधमं भौर श्रान्तिको आवर्ण मानते टहैतवतो
हमारी बातकाही समर्थन होगा । यदि देहं कोआवरण मानते हुए उसका
विनाश्च हो जाने पर पिज्डेसेद्कुटे हुर् सुगगे की तरह आत्मा का लगातार उपर
जाते रहना ही मुक्ति समजते है तो अव हमारी बात का उत्तर दीजिये ।
(>
किमयमात्मा मूर्तोऽमूर्तो वा ? प्रथमे निरवयवः सावयवो
वा ? निरबयवत्वे निरवयवो मृतैः परमाणुरिति परमाणुलक्षणा-
पत्या परमाणुधममवदात्मधमीणामतीन्द्रियसं प्रसजेत् । सावयव-
त्वे यत्सावयवं तदनित्यमिति प्रतिषन्धवरलेनानित्यत्वापत्तौ कृत-
प्रणाज्चादताभ्यागमौ निष्परतिबन्धो प्रसरेताम् ।
अमृतत्वे गमनमदुपपन्नमेव । चरनात्मिकायाः क्रियाया
मृतेतवग्रतिवन्धात् ।
क्या यह आत्मा मृतं है या अमूतं ? यदि मूतंहैतो अवयवोंसे रहित है
यां सावयव >? यदि आत्मा को निरवयव मानतैर्हैतो निरवयव मूतं पदार्थं
परमाणु है' इस प्रकार आत्मा पर परमाणु के लक्षण का आपादन हौ जायगा
तथा जिस प्रकार परमाणुके धमं अतीन्िय है आत्मा के धमं भी अतीन्द्रिय हो
जायेगे । यदि आत्मा अवयवयुक्त हो तो जो पदार्थं सावयव होता है वह अनित्य
है' इस प्रकार व्याति ( प्रतिबन्ध ) की स्थापना होने से यह् ( आत्मा ) अनित्य
हो जायगी ओर बिना किसी स्कावटके कृतःप्रणाश्च' तथा "अङ्ृताम्यागम' ये
दोनों दोष चले आयंगे । [यदि आतमा अनित्य हो जाती है तो इसकी निवृत्ति भो
होगी तथा जो काम इसने किया था । उसका फल निवृत्ति होने के साथ-साथ ही
नष्ट हो जायगा । इस प्रकार कृत-प्रणाश होगा । जो काम अत्मा ने नहीं किया
था उसका फल इसे मिलने लगेगा । अच्छा या बुरा फल जो किसौ आत्माको
भोगना पडेगा वह उसके पूव॑जन्म मे कयि गये कर्मो कातो फल नहीं दहै। यही
'अकृताभ्यागम' दोष है । ये दोष संसार के कमं-सिद्धान्त के विरुद रह । |
अब यदिवे आात्मा को अमूतं मानें तो उसका गमन ( ऊध्वंगमन ) ही कंसे
होगा ? चलने का काम रेषाहै जोकिंसी मूतं पदाथंसेही हो सकताहै।
[ प्रतिबन्ध = व्यापि । मृतं के साथ ही चलन-क्रिया की व्याप्ति संमवदहै।]
अक्षपाद-दशेनम् ४६७
( ११. चावौक ओर सांख्य-मत में मोक्ष )
(पारतन्त्यं बन्धः, स्वातन्त्यं मोक्षः" इति चावोकपधषेऽपि
स्वातन््यंदःखनिन्रत्तिरचेत्--अविवादः । एेडयं चेत्-
सातिक्यतया सदक्षतया च प्रेक्षावतां नाभिमतम् ।
चार्वाक्त का पश्च ड करि परतंवरता बन्धन है ओर स्वतंत्रता मोक्ष । इस मत
न्रे भौ यदि स्वतंत्रता" से दुःख की निवृत्ति समश्चते है तो हमारा उनसे कोई
विवाद नहीं [ क्योकि हम भी दुःख का उच्छेद ही मुक्ति मानते है । | किन्तु यदि
ते स्वतंत्रता" का अथं रेदवयं लेते है तो कोई भी बुद्धिमान् व्यक्ति इसे स्वीकार
नहीं करेगा क्योकि एदवयं को कोई पार कर सकता है या उसके समान बन
सकता है ) [ मोक्ष एेसा होना चाहिए कि उपसे कोई बहे नहीं, ओरन ही कोई
उसके समान बने । दूसरे शब्दों मे परम पुरुषां को निरतिशय तथा निरुपम
होना चाहिए । परन्तु एेडवयं का अतिशय ( पार ) क्रिया जा सकता है क्योकि
बह पाथिव है। राजा के एेश्वयं से मौ ठ्सरे राजा का एेश्वयं बढ़ सकता है ।
तेदवयं की समकक्षता भी हो सकती है। अतः एेसा एेवर्याल्मक मोक्ष नहीं
चाहिए ।
प्रकृतिपुरुषान्यत्वख्यातौ प्रकृत्युपरमे पुरुषस्य स्वरूपेणाव-
स्थानं शक्तिरिति सांख्याख्यातेऽपि पक्ष दुःखोच्छेदोऽस्त्येव ।
विवेकज्ञानं पुरुषाश्रयं प्रकृत्याश्रयं वेत्येतावदवषिष्यते । तत्र पुरं
वाश्रयमिति न दिलष्यते । पुरुषस्य कोटस्थ्यावस्थाननिरोधा-
पातात् । नापि प्रकृत्याश्रयः । अचेतनत्वात्स्याः ।
कविं च प्रदतिः प्रवृत्तिस्वभावा निवृत्तिस्वभावा वा!
आचेऽनि्ोक्ष; । स्वभावस्यानपायात् । द्वितीये संप्रति संसारोऽ-
स्तमियात् ।
रहति ( जडवगं का अचेतन त्रिगुणात्मक भूल कार्त ) ओर पुरुष
( जीव ) के भेद का ज्ञान ( द्याति ) हो जाने पर, प्रकृति के हट जाने पर, पुरुष
करा अपने रूप मे अवस्थित होना ही मुक्ति दै' --सांख्य-दकलंन के इस पक्षम
दुःख का उच्छेद तो होता हौ है! अब विवाद करने के लिए बचा है तो इतना
ही कि यह् दिवेकज्ञान पुरुष पर आश्रित हैया प्रकृति पर ? उनमें विवेकञ्ञान
का पुरुष पर॒ आश्रित होना ठीक नहीं है क्योकि साख्य मे पुरुष को करुडस्थ
३२ स° सं
६८ स्वंदशनसंम्रहे-
( मूल रूपमे सदा एक } रूप मे अवस्थित माना जाता है जिसका निरोधहो
जायगा । [ पुरूष को अविकृत मानते । यदि उसे विवेकन्ञान होतादत्त
इसका यही तात्पयं है क्रि पहले यह अज्ञानमें लिप्तथा। फिर अविकृत कैसे
रहा ? ] विवेकज्ञान को प्रकृति पर आधित भी नहीं मान सक्ते क्योकि वह्
अचेतन है ।
अच्छा अब यह बतलावें कि प्रकृति का स्वभाव प्रवृत्त होना है या निवृत्त
होना ? यदि इसके स्वभःव में प्रवृत्ति दै तब तो इसका मोक्ष हो नहीं सकता क्कि
स्वभाव द्रूटता नहीं [ गौर जब तक प्रवृत्ति रहेगी तब तक मोक्ष नहीं होगा । |
यदि इसके स्वभाव में निवृत्ति है तो इसी समय संसार का अस्त हो जायगा ।
(१९१ क. मीमांसा-मत से मुक्ति-विचार )
नित्यनिरतिक्चयसुखाभिव्यक्तिक्तिरिति भद्रसवेज्ञा्मिमत-
ऽपि दुःखनिवृत्तिरभिभतेव । परं तु नित्यसुखं न प्रमाणपद्धति-
मध्यास्ते । शरुतिस्तत्र प्रमाणमिति चेत्--न । योग्याुपल-
न्धिवाधिते तदनवकाज्ञात् । अवकाये वा प्रावप्ठवेऽपि तथा-
भावप्रसङ्कात् ।
मदर सवंज्ञ ( कुमारिल ) आदि के मत से नित्य ओर निरतिशय ( सर्वो )
सुख की मभिव्यक्तिही मृक्तिरै। इन्दर मी दुःखकौ निवृत्ति अभिमतही है
[ क्योकि थोड़ा भी दुःख रहने से सुख निरतिशय नहीं रह सकता । ] लेकिन
मोक्ष होने पर नित्य सुखकी प्राप्ति होतीदै, यह प्रमाणो से सिद्ध नहींहो
सकता । यदि आप कटं कि इसमे श्रुतिप्रमाण है, तो ठीक नहीं । श्रुतिप्रमाण
वहा नहीं लगाया जा सकता जहां योग्य ( उचित ) अनुपलन्धि से विषय का
खण्डन होता हो । यदि शत्तिप्रमाण लगाया गया हो तो "पत्थर तेरते है' इस
तरह के वाक्यो भी [ मुख्याथं लेकर ही इनकी ] प्रामाणिकता स्वीकार
करनी पडेगी । ।
विदोष- नित्य ओर निरतिशय सुख के प्रकाशन को मोक्ष माननेवाले
मीमांसकों को बातमे नैयायिकोंको अपनी बात की पृष्टतो मिल जाती है
कि मुक्ति में दुःखोच्छेद हो जाता है पर 'नित्थसुख” का प्रयोग उन खटकता है ।
मीमांसक लोग कट सकते है कि "सोदनुते सर्वान्कामान्सह ब्रह्मणा विपश्चिता"
( तै- २।१) आदि वेद-वाक्य प्रामाणिक ह जहाँ मोक्ष होने पर सभी कामनाओं
कीप्रात्निका वर्ानदै। तो, सुखतो स्वीकायंहीहै। पर उन्हं यह जानना
चाहिए किं श्रुति मे प्रतिपादित होने पर भी जिस विषय का अभाव भिले, जो
अक्षपाद्-दशेनम् ४६६
विषय बाधित हो-- वैसे स्थानों पर श्रुतियां प्रमाण नहीं होतीं । तात्पयं यह
ह कि वहौ शरुतियों का मृश्याथं नहीं लिया जा सकता । गौणाथं मे वेसे वाक्यों
का उपयोग होता है। (आतमनः ञाकाशः संभूतः" ( तै० २।१ ) में आकाश को
उत्पत्ति का वर्शान है। अब प्रदन होगा कि अवयव-रहित आकाश की उत्पत्ति
से संभव है? अतः यह अथं बाधित हो गया तो उत्पत्ति का अथं ( गौणारथं )
हमे लेना होगा--अभिव्यक्ति । उसी प्रकार मोक्नावस्था मे शरीर ओौर इन्द्रियो
का संबन्ध न होने के कारण सुख की प्राति नहीं हो सकती । यह विषय बाधित
हो गया । गौणाथं लेना चाहिए । सवं कामों को अवाप्ति = सवं कामोकी
अनवातमि का अभाव । मोक्षम जब शरीर ओर इन्दियां ही नहींहैतो काम
करौ प्राति या अप्राप्ति क्याहोगी? इसलिए अप्रति का अभाव हो मानना
पडेगा । दूसरे, उस वाक्य मे सह अश्नुते, का प्रयोग है । सह का अथं होता >
एक ही साथ । सभी इन्द्रियो से सभी विषयो का एकं ही साथ भोग करना कभी
संभव नहीं । मन तो अणुदटै, वह एक बार मे एक ही विषय से संब्डहो
सकता 8 । अतः हमें किसी भी दशाम श्रुतिवाक्य का गौणाथं ही मानना
पडेगा । यदि श्रुति में गौणा्थं न मानकर हठ से मुष्याथं हौ मानेंगे तौ “लवन्ते
्रावाणः' ( पत्थर तै <ते है, षड्विश ब्राह्मण ५।१२ ) एषे वक्योंका भी मुख्याधं
ही प्रमाण मनना पड़ेगा ।
सभी मतो का खण्डन करके नेयायिक् लोग अपने मत--"दुःखोच्छेदवाद'--
करा विदलेषणा तथां प्रतिपादन करते है ।
( १२. नैयायिक-मत से सुक्तिविचार )
नज सुखाभिव्यक्तियेक्तिरिति पष परित्यज्य दुःखनिव्र
ततिरेव युक्तिरिति स्वीकारः क्षीरं षिदायारोचकग्रस्तस्य सोवीर-
रुचिमनुमावयतीति चेत्--तदेतन्ाटकपक्षपतितं त्वद्व इत्यु-
वक्ष्यते । सुखस्य सातिज्यतया सक्षतया बहुप्रत्यनीकाक्रान्ततया
साधनप्रा्भनपरिद्धिटतया च दुःखाविनाभूतत्वेन विषानुषक्तमधु-
वद् दुःखपश्षनिक्षेपात् ।
अब कोई कह सकता है --सुख की अभिच्यक्ति ही मोक्ष टै", इस सुन्दर पक्ष
को छोडकर "दुःख की निवृत्ति मोक्ष है यह स्वीकार करना ठीक वैसा ही इजा
से अरुचि से ग्रस्त व्यक्ति को दूष तो दे नहीं, उलट नीरस कांजी ( सौवीर =
द्रा तीता रस } पिलाकर रुचि बढ़ाने का प्रयास करे । [ अरुचि से प्रस्त व्यक्ति
५०३ सर्वदशनसंग्रहे-
को एक तो किसी चीज की रुचि स्वभावतः नहीं होती । यदि उन्हँं कु ¦
वदार्थं दै तो ख्चिबढे भी! परन्तु नीरसं काजी पिलाने से रुचि बदेभी क्या,
उलटे उस व्यक्ति मे अरुचि ओौर बढती ही जायगी । वैसे ही प्राणियों में मोक्ष कौ
प्रवृत्ति एक तो स्वभावसे ही कम है, दरे यदि उन्दै आप बतला्ेगे कि मुक्ति
मे सुख तनिक नहीं है तो कौन मूं इसमे प्रवृत्त होगा ? कोई न हीं । ]
हम उत्तर देंगे कि आपकी बात नाटक के संवादकी तरहटै, इसलिए
उपेक्षणीय है । [ गम्भीर दानिक विवेचन में इस तरह क क्षिक चमत्कारी
वावयों से काम नहीं चलता । वसी बातों की असिद्धि दूषर प्रमाणो से तुरत
ही कर दी जायगी । अनृकरूल तकं के अभावमें केवल दृष्टान्त देने से कोई बात
सिद्ध नहीं हो जाती। आप लोगो मे किस तरह अनुकूल तकं का अभाव है वह
देवं -- ] सुख का दुःख के साथ अविनाभाव ( व्याति) संबंध टै क्योकि सुख
सातिशय ( एक दूसरे से बढ़ने वाला ) ह, उसके समान दूषरे सुखं हो सकते
ह, नाना प्रकारके विष्नोंसे भरा भीष तथा सुख के साधनोंकी प्रार्थना
( याचना ) करने में कलेश भी खूब ही होते है । फलतः विषरससे भरे मधु
के समानसुखभी दुःखकोही तेली मे चलाआतादहै। [संसारमें एकमे
बदकर दूसरे सुख है, कही उसकी इयत्ता नहीं । जब अतिशय कौ प्राति नहीं
होगी तो प्राणी उसकी आशामे लगा रहेगा ओौर आशा हि परमं दुःखम् ।
सुखानुभव के बाद परिणाम दुःखद ही होता है। तो, क्याेसे सुख कौ प्राति
करे लिए प्राणी प्रयत्नवान् होगा ? सुखोद्दे्य से मुक्ति की प्रवृत्ति नहींहो
सकती । |
नन्वेकमनुसंधित्सतोऽपरं प्रच्यवत इति न्यायेन दुःखवत्सु-
खमप्युच्छिद्यत इत्यकाम्योऽयं पक्च इति चेत्- मेवं मंस्थाः ।
सुखसंपादने दुःखसाधनवाहुस्याङुषङ्गनियमेन तप्रायःपिण्ड
तपनीयबुद्धया प्रवतमानेन साम्यापातात् । तथा हि-न्यायो-
पाजितेषु विषयेषु कियन्तः सुखखद्योताः कियन्ति दुःखदुदि-
नानि । अन्यायोगार्जितेषु तु यद् भविष्यति तन्मनसापि चिन्त-
यितुं न ज्ञक्यमिति ।
अब कोई यह शंका करे किएक कीखोज में चले भौर दसरा भौ नष्ट
हो जाय' इस नियम से दुःख की तरह । दुःख-निवृत्ति के साथ ) सुख की भी
निवृत्ति हो जायगी, इसलिए [ नैयायिको क दुःखोच्छेदवाद का ] यह पक्ष कमी
अक्षपाद-दशनम् ५०१
काम्य नहीं हो सकता । [ दुःख कौ निवृत्ति करने चले ओौर हाथों से सुख भी
चला जाय तो अच्छानहींहै। एककी खोजमे दूसरा खोना नहीं चाहिए ।
कम-ते-कम सुख तो मिलता रहेगा । |
नैयायिक उत्तर देते कि एेसान समनं । सुख का संपादन करने वालि
पदार्थो मे दुःलके ही साधनों कौ प्रचुरता रहती है, यह नियम है । [ दुःखश्रद
वस्तुओं को सुखद समक्षना वैसा ही दहै] जेते कोई व्यक्ति तप लोहे के पिण्ड
को स्वर्या ( तपनीय ) समज्ञकर पकड़ने जाय । [ स्वणं की प्राप्ति तो उसे
नहीं ही होगी, उलट गमं लोहेसे वह जल जायगा । उसी प्रकार बिषयो को
सुखप्रद समने वालो को सुख तो मिलेमा कि नही, संदेह है। किन्तु ढुःल
अनिवायंष्ै। पसे दुःखसे सने सुख करो कामना किसे होगी? सुखम दुःख
अनिवार्यं ही नहीं, प्रयु दुःख कौ अधिकता भी हे । ] देविये--त्याय से उपाजित
विषयों चे सुल के खदयोत ( जुगन् ) कितने थोडे है{ जो जर्हाँ-तहां चमक
उचते ह) ओर कितने ही दुःख के दुदिन ( मेषाच्छन् वर्षादिन ) है [ जो सुवो
को निगल जति ह । ] अन्यायसे उपार्जित विषयों मेँ तो जो होगा उसका चिन्तन
मनसेदहो ही नहीं सकता ।
एततस्वानुभवमप्रच्छादयन्तः सन्तो विदांडुवन्तु विदां बरा
भवन्तः । तस्मात्परिशेषात् परमेश्वरायुग्रहवयात् भ्रवणादिक्रमेण
आतमतस्वसाधात्कारवतः पूरुषधोरेयस्य दुःखनिवृत्तिरात्यन्तिको
निःभ्रेयसमिति निरवदम् ।
इ विषय मे जाप लोग अपना अनुम् विषूपित न करके इस पर विचार
करं वयोकि आप विद्वानों मेर है। इसलिए अब बात इतनी ही बचौीदैकि
परमेश्वर के अनुग्रह से श्रवण ( श्रुति-वाक्यो का श्रवण ) आदिके क्रमसे
आत्मत्व का साक्षात्कार करने वाले ुरष-धरेष्ठ के लिए दुःखो से आत्यन्तिक
ख्य से निवृत्तहो जानादही निःत्रेयस ( मोक्ष ) है, यह स्पष्ट है ।
( १३. ईश्वर की सत्ता के लिप प्रमाण --पूषेपश्च )
नन्वीदवरसद्धावे # प्रमाणं प्रतयक्षमनुमानमागमो वा । न
तावदत्र प्रत्यक्षं क्रमते। सूपादिर हितत्वेनातीन्द्रियत्वात् ।
नाप्युमानम् । तदृव्य्िङ्गामावात् । नागमः । विकल्पास्-
हत्वात् । किं नित्योऽवगमयति अनित्यो बा १ आधेऽपसिद्धा-
|
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॥ |
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1
{
की किष क - -- = य = == एः
क ण -- - ~ क "रिरि ~~ वय क
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= =3 अको चि = ` ॐ = च
ऋ 9 व 9 वि क `
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ब्र " चकः = "= हि ।
। ५०४
४५०२ स्बेदशनसंम्रहे-
न्तापातः । द्वितीये परस्पराश्रयापातः । उपमानादिकमशक्य-
शङ्कम् । नियतविषयत्वात् । तस्मादीड्वरः शशविषाणायत इतिं
चेत्-)
अब पूर्वपक्षी यह लंका करते ह कि ईदवर कौ सत्ता के लिए कौनसा
प्रमाणा है- प्रत्यक्ष, अनुमान या आगम ? इस विषय मे प्रत्यन्त प्रमाण न हीं लग
सकता क्योकि [ ईरवर ] रूप आदि से रहित होने के कारण इन्द्रियों को पर्व
के भीतर नहीं है । [ प्रत्यक्ष मे इन्द्रियो के सथ संनिकषं चाहिए । ईश्वर के साय
इन्द्ियसंनिकषं संभव ही नहीं । ] अनुमान भी ईश्वर की सिद्धि नहीं कर सकता
क्योकि ईश्वर के द्वारा व्यप्र कोई लिग ( हेतु ) ही नहीं है। [ भनुमान मे लिङ्ख
या ज्ञापक वस्तु ( 2110016 ५९८) ) का होना अनिवायं है। देतु साध्य
( ईश्वर) केद्वारा व्याप होना चाहिए, परन्तु ईश्वर का ज्ञापक कोई पदार्थं प्रत्य-
क्षादि प्रमाणो से ज्ञात नहीं होता । |
आगम प्रमाराभी नहीं लग सकता क्योकि दोनों निम्नांक्रित विकल्प
असिद्ध हो जाति है । ईश्वर को बतलाने वाला आगम स्वयं नित्य है या अनित्य ?
यदि नित्य है तो अपसिडान्त हो जायगा [ अर्थात् आप नैयायिको के सिद्धान्त के
विरुद्ध हो जायगा । अभिग्राय यह है कि विशेष वणो के विरोष संघटन को
आगम कहते है । वर्णो का उच्चारण होने के बाद ही प्रवं हौ जाता है
इसलिए वै अनित्य है तथा आगम कौ भौ अनित्यता सिद्ध होती है। यही नेया-
यिकों का सिदान्त है । पूवंपक्षी कहते है कि यदि नैयायिक लोग नित्य जागम
से ईवर की सिद्धिकरे तो अषने ही सिद्धान्तो की हत्या करनी षड़गी । ] यदि
अनित्य आगमसे ईदवर की सिद्धिकरे है तो अस्योन्याश्रय-दोष होगा ।
[ आगम अनित्य है तो उसका प्रामाण्य कर्ता ( ईङवर ) के प्रामाण्य पर निर्भर
करता है मौर उधर कर्ता ( ईश्वर } कौ प्रामाणिकता उसके बनाये अगम पर
निर्भर करती है - इख प्रकार अन्योन्याध्रय-दोष होता हें । |
उपमान आदि प्रमाणोंकातो यहां पर प्रश्न ही नहीं उठता । उन सभी
प्रमाणो के विषय निरिचतर्है [ तथा ईइ र-सिद्धि के लिए लाभदायक सिद
नहीं हो सकते 1 ] इसलिए हमारी सम्मति मे ईदवर शश-विषाण ( खरहे कौ
सींग ) की तरह असिद्ध हे ।
( १३ क. नैयायिको का उत्तर -दश्वरसिद्धि )
तदेतन्न चतुरचेतसां चेतसि चमत्कारमाविष्करोति ।
विवादास्पदं नगसागरादिकं ¢ #
विवादास्पदं नगसागरादिकं सकरकं कायेत्वात्ुम्भवत् । न
अक्षपाद-दशेनम् ५०३
चायमसिद्धो देतु; । सावयवत्वेन तस्य सुसाधनतवात् । नञु
किमिदं सावयवत्वम् ! अवरयवसंयोभित्वमवयवसमवायित्वं वा !
नाद्यः । गगनादौ व्यभिचारात् । न द्वितीयः तन्तुत्वादानः
नैकान्त्यात् ।
उपर्युक्त तकं चतुर बुद्ध वाले व्यक्तियों के चित्तम चमत्कार उत्पन नहीं
कर सक्ता, ( मखं लोग भलेही ठ्गे जाये ) । इन प्रस्तुत ( विवादास्पद ) पर्व॑त,
चागर आदि सारे पदार्थो का कोई कर्ता होगा व्थोकि ये कायं है जसे घट ।
[ इस अनुमान से ईश्वर करी सिद्धि होती है। यहां ०र "कारयस्व" के रूपमे)
जो हेतु दिया गया है वह असिद्ध ( साध्यम ) नहीं है, 'सावयव' हेतु के द्वारा
उसको सिद्धि अच्छी तरहसे कौजा सकती है । [ 'कायेत्व' हेतु की सिद्धि ईस
प्रकार हो कती है-- वंत, सागर जदि पदार्थं कायं है क्योकि ये अवयवोंसे
युक्त है जेमे घट । इस अनुमान ते कायंत्व कौ सिद्धि करके पूवं के अनुना मे
कार्यत्वं को हेतु र्व दिया गया ह तचा कायं होनेके कारण हौ सार को
सकतुंक सिद्ध किया गया है। |
अनर प्रश्न है कि अवयवो से युक्त होना क्या है? अवयवो के साथ संयोग-
सम्बन्ध होना या अवयवो के साय समवाय ( 10606१४ ) सम्बन्त होना ?
अवयवो के साथ संयोगी होन) होक नहीं दै क्योकि गगन आदिमे व्यभिचार होगा)
[ आकाश का संयोग-खबन्व चटादि पदार्थो के अवयवोसे रहता है। इसलिए
आकादा को भो कायं मानना पडेगा \ पर नेयायिक्र लोग आकाय को कायं नहीं
मानते । अतः, यदि अवयवो के साथ सयोगो होने के कारण कोई वस्तु कायं
मानी जाय तो जाकाशको मौ इष लक्षए मे समेट लेना पटेगा । यही नही,
अपते अवयवो कं साथ संयोगी कायं मानने पर तो घटादि भवयवयुक्त कटे ही
नहीं जा सक्ते । अवयव ओर अवयवो में संयोग-संबन्व नहीं, समवाय
संबन्ध है । |
दूसरा पक्त [ कि अवयवो > साथ समवाय संबन्व होने से कायं को सद्धि
होती है ] भो ठीक नहीं क्योकि एसा मानने से तन्तुत्व ( तन्तु के सामान्य ) में
व्यभिचार होगा । [ तन्तुत्व मौ तो तन्तुं मे समवेत रहता है पर उसे हम
कायं चहं मानते । फल यह हुभा कि अवयवो मे समवेत रहने से कायंत्व की
सिद्धि नहीं होती । पूर्वपक्षो का यह तकं तैयायिकों के कार्यसव-साघन के विरुद
दिया गया हे ।]
तस्मादनुपपन्मिति चेत्-मेवं वादीः समवेतद्रव्यत्वं
॥ 1
|
।
।॥)
४,
१
| 8।
||
। ॥
7
1
॥।
व क = न =
॥॥ ऋ क विका › त,
५०४ सवेदशनसंम्रहे-
सावयवत्वमिति निरुकतेवक्त शक्यत्वात् । अवान्तरमहच्वेन वा
कायेत्वालुमानस्य सुकरत्वात् । |
इसलिए [ 'सावयवत्व' हेतु के द्वारा कारयस्व का अनुमान करना | असिद्ध
है। तो उत्तरम हम यह करगे हिरा मत कत कहिथे। सावयव होने का
मतलव है समवेत होना ओर द्रव्य होना--इस प्रकार निर्वचन ( पदव्याख्या )
करके कहा जा सकता है । [ आकाश के अवयव नहीं होते इसलिए वह किसी
से समवेत नहीं हो सकता--उसमे व्यभिचार नहीं होगा । तन्तुह्वं द्रव्य
नहीं है इसलिए उसमे भी व्यभिचार नहीं होगा । अतः सावयव को इस व्याद्या
से प्रहन बिल्कुल सहज हो जाता है ओर इसके हारा हम काय॑त्व की सिद्धि
करके संसार को कायं मानते हृए ईश्वर की सिद्धि कर सकते है । |
इसके अतिरिक्त निम्न कोटिके महत्व ( आकार }1१9प्पप6 ) के
दवारा भी [संसार को | कार्यं सिद्ध करनेके लिए अनुमान करना सरल है।
[ महच्व या आकारदो प्रकार के है-परम महत्व अर्थात् सबसे अधिक
आकार तथा अवान्तर महस्व जो परम महच्व के नीचे के पदार्थोका बोधक
है । अवान्तर महस्व के अन्तगंत द्चणुक से लेकर पव॑त, सागर आदि सारे
वदां है । अवान्तर महच्व से अनुमान इस प्रकार होगा-- पवंत, सागर आदि
कायं ह क्योकि इनमें अवान्तर महर है जेसे घट आदि । ]
नापि विरुदो हेतुः । साध्यविपयेयव्याप्तेरभावात् । नाप्य-
नैकान्तिकः । पश्षादन्यत्र व्तेरदशेनात् । नापि कालात्ययाप-
ष्ट । बाधकानुपलम्भात् । नापि सत्प्रतिपक्षः । प्रतिभट-
दशनात् ।
ननु नगादिकमकतेकं शरीराजन्यत्वाद् गगनवदिति चेत्-
नेतत्परीक्षाक्षममीक्ष्यते । न हि कटोरकण्टीरवस्य ङरङ्गशावः
प्रतिभटो भवति । अजन्यत्वस्येव समथतया शरीरविशेषण-
वैयथ्यौत् ।
[ संसार को सकतुंक सिद्ध करनेवाला यह "काय॑त्व' ] विरुद्ध हेतु नहीं है ।
कारणा यह् दै कि साध्य ( सकतंकत्व ) के विरुद्ध कोई भी व्याति नहीं मिलती ।
[ विशुद्ध हेतु या हेत्वाभास यही है जो साध्यमें कभौप्राप्तन हो, साध्याभावं
रहे । काय॑त्व हेतु साध्याभाव ( अकरतृक ) मे प्राप्त नहीं होता--जो कायं होगा
(3 | ५०५
उक्तका कत कोई अवद्य होगा, बिना कर्ताके कायं नहीं हो सकता । ] यह
हेत अनेकान्तिक भी नहीं है कर्योकि पक्ष के अलावे ओर कहीं इस हेतु की
प्राप्ति ( वृत्ति ) नहीं होती । [ सकतृंक साध्य हे, परमाणु आदि में उक्षका अमाव
हे किन्तु उनमें काय॑त्व भी नहीं है इसलिए "कायंत्व' हेतु का व्यभिचार परमाणु
आदि मे नहीं होता । अतः सव्यभिचार या अनैकान्तिक हेतु यहां नहीं ] । यहं
हेतु कालात्ययापद्ष्ट या बाधित मी नहींदहै। क्योकि ब्राघक प्रमाण नहीं
मिलता । सत्प्रतिपक्ष हेत् भी यह नही है वथोकि [ साध्याभाव को सि करने-
वाला "कायंत्व' हेतु के ] टक्कर का कोई दूसरा हेतु नही ह। [ इस प्रकार पाचों
हेत्वाभास खरिडत हो जते है जिससे संसार को सकर्तंक सिदध करनेवाले
अनुमान मेँ 'कार्यत्व' शुद्ध हेतु माना गया । |
अब यदि कोई पूर्वंपक्षी शंका करे किं पर्व॑त आदि का कोई कर्ता नहीं
( = पर्वत अकर्तुंक ह) क्योकि ये शरीर से उतपन्न नहीं होते जसे आकाशश, तो
उत्तर ने कह सकते ह कि यहे प्रतिदन््र हेतु ( जो सत्प्रतिपक्ष हेत्वाभास सिद्ध
करते के लिए दिया गया है ) परीक्षा के योग्य नहीं दिखलाई पड़ता । हरिण का
बच्चा प्रौढ सिह ( कर्ठीरव } का ्रतिद्नद्रौ नहीं हो सकता ।# “उत्पन्न न होना"
( अजन्यत्व ) देतु ही पर्याप है, "शरीर" विशेषणा उसमे व्यर्थं ही लगाया गया
है । [ ऊपर सत्प्रतिपक्ष हेत्वाभास का दंडन इस आधार पर किथा गया है कि
कोर प्रतिदन्द्री हेतु (प्रतिभट ) साध्याभाव सिद्ध करने वाला नहीं मिल रहा
है। अब पूर्वपक्षी कहते ह कि हेत्वन्तर कौ सत्ता है जो साध्याभाव ( अकतृ-
कत्व ) सिद्ध करदे। वह हेतु है - “शरी राजन्यत्व' । नैयायिक कहते है कि
अजन्यत्व ही पर्याप है, श रीराजन्यत्व क्यो रखते है ? नैयायिक अपने प्रतिदन्द्र
को तकं करना भी सिखाति है । अस्तु, कोई बात नहीं । पूर्वंपक्षी अपने हेतु को
सुधार कर फिर तकं करता है-- |
क > ~ +,
|
।
तरलजन्यत्वमेव साधनमिति चेत्-न । असिद्ेः । नापि
सोपाधिकत्वशचङ्काकलङ्कङ्करः संभवी । अनुकूरतकेसंभवात् ।
© © (~ [8
य्ययमकरंकः स्यात्कायंमपि न स्यात् । इह जगति
किण्वक 7 ग्कपोे वा कः किः
[ क 1 ॐ ॐ करक करो
~~
[व +र ऋ-न १9 कन
~ कि ==> ऋ
* बडे सिह का प्रतिभट हरिण का बचा नहीं हो सकता, वैसे ही
सकर्तृकत्व कौ सिद्धि के लिए दिये गये करायंत्व' हेतु का प्रतिद््धौ ( हित्वन्तर )
अक्तकत्वसाधन के लिए दिया गया 'शरीराजन्यत्व' हेतु नहीं हो सकता ।
सत्प्रतिपक्ष हेतु वहीं होता है जहाँ पूर्वं हेतु के समान ही दूरा हेतु हो। दोनो मे
समान बल रहना चाहिए ।
+ +^
५०६ स्वेदशेनसंग्रहे-
नास्त्येव तत्कार्य नाम यत्कारकचक्रमवधीयौत्मानमासादयेदि-
त्येतदविवादम् । तच सर्वं करं बिरोषोपदितमयोदम् ।
तब यदि ये पू्ेपक्षी “अजन्यत्व' को ही साधन (देतु) मानेतो भी ठीक
नहीं । इषकी भी सिद्धि नहीं होती । [ अजन्य का अथं है उत्पत्ति से रित होना।
कोई नहीं कटेगा कि पव॑त, सागरादि की उत्पत्ति नहीं होती याये अजन्यहै।
क्रिस प्रमारा से इसको सिद्धि नहीं हो सकती । नेयायिकों ने प्वंपक्षियों को
अच्छा फँसा दिया ! शरीर" विशेषणा हटवा कर उन विधिवत् परास्त किया । |
इसके अलावे, [ वस्तुतः उपाधि न होने पर भौ | यदि कोटं "कार्ंत्व' हेतु के
सोपाधिक होने की शंका करेतोभी इसदहितु पर कलंक का अंकुर नहीं उग
सकता । कारण यह है कि अनुकूल तकं दिया जा सकता है । [ यदि “सकतूंकसत्व'
( साध्य ) का व्यापक तथा 'कारय॑त्व ( हेतु ) का अव्यापक कोई पदां निकले
तभी उपाधि कीशंकाकीजा सकती दहै। एसी संभावना तभी है जब्र कार्यत्व
व्यभिचारी हो । व्यभिचार कौ भी संभावना तभी है जब्र कर्ता से रहित (भक-
तुक ) वस्तु काथं उत्पन्न करने लगे । अनुकल तकं से इसका खंडन क्रिपा जा
सकता है । अनृक्रूल तकं का स्परूप दिखलाया जातां है-)
यदि यह ( संसार, पवंतादि } अकतं ‹( ष 1{10पा 8. 109६6 ) होता
तो कायं भी नहीं होता [ क्योकि कता से उत्पन्न वस्तुओं को ही कायं कहते है ।]
इस संसारमे एेसा कोई कायं ही नहीं जो कारकचक्र ( कर्ता, कमं, करण,
संप्रदान अपादान ओर अधिकरणा ) कां तिरस्कार करके अपनी स्थिति हृद् कर
त-- इतना तो निविवाददहै। सारे कार्यो कौ मर्यादा किष न-किसी कर्ता पर
हो आधारित है । [घट, पट आदि की उत्पत्ति के समय कुम्भकार, तन्तु आदि
कत सभी कारको को कार्यो्त्ति के गुरा के अनुसार देठाता है । कर्ता अपने कौ
भी वैसे ही बेठतादहै।]
( १३ ख. कतौ का लक्षण तथा इश्वर का कतेत्व )
कर्तत्वं चेतरकारकापरयोऽ्यत्ये सति सकलकारकप्योक्ततव-
लक्षणं ज्ञानचिकीषीप्रयत्ाधारत्वम् । श्वं च कतव्याकतत-
स्तदुपदितसमस्तकारकव्याशतो अकारणककार्योत्पादभ्रसङ्ग इति
स्थलः प्रमादः । तथा निरटङ्कि शङ्करकिङ्रेण--
४, अनुकूलेन तकेण सनाथे सति साधने ।
साध्यव्यापकताभङ्कात्पक्षे नोपाधिषंमवः ॥ इति ।
अक्षपाद-दशेनम् ५०७
कतां वह हैजो दुसरे कारकों ( कमं, करणादि ) से प्रयोजित नहीं हो,
प्रत्युत समो कारकों को प्रयोजित करे तथा ज्ञान, चिकरर्षा ( उत्पन्न करने की
इच्छा ) ओर प्रयत्न का आघार मीहो। [ मिटरी, डरडा, चाक आदि पदाथं
जो घटोत्पादन कायं मे विभिन्न कारकर्है, कुम्भकार (कर्ता) को घटनिर्माण
के लिए प्रयोजित नहीं करते । उलटे कुम्भकार ही उन अपनी इच्छा से प्रयोजित `
करता है। यहस्पष्हैकिकर्ता पे पहले वट काज्ञान होता है तब इच्छा
ओौर अन्त मे उसमे प्रयत्न होता है । इन तीनों का आधार कर्ताहीहै।]
कर्ता का उक्त लक्षण मानलेने पर, यदिकर्तां को त्याग दं [ क्योकि,
आप लोग = पूवं पक्षी, अक्तुंक कायं मानने जारे] तो कर्ता पर निभैर
करनेवाले सब के सब कारक भीतोहट जायँगे ओर इस दशामें [ कारकोंके
अभाव में भी कायं मानने वालों का ] यह स्थूल प्रमादहीनदैकि बिना कारण
के भी कायं की उत्पत्ति माननी पडेगी ?
शंकर किक्रर नामक विद्धान् ने इस विषय का संकलन किया है--"जवब हेतु
अनुक्रुल ( बुद्ध ) तकं से अलंकृत किया जाता है तब साध्य की व्यापकता (जो
उपाधि होने के लिए आवद्यक दहै) कानाशदहो जाता है तथा पक्ष में उपाधि
की संमावना नहीं रहती ।' [ अनुकूल तकं से यह निञ्चय क्रिया जाताटै कि
हेतु साष्यके द्वारा व्याप्यहै। ठेसे स्वव्याप्यका जो व्यापक नहीं है तथा
कहीं-कहीं इस प्रकार का व्याप्य होने पर भीन रहे वह ( हेतु) अपने साघ्यका
व्यापक कंसे हो सक्ता है। जो अपने व्याप्य का व्यापक नहीं रहता उसमें
अपने (साध्य) को व्याप्त करनेकरा सामथ्यं नहीं रहता! रेखा नियमदहै।
फलतः साघ्यकोव्याप्रन करने के कारण उपाधि नहीं हो सक्ती । |
यदीश्वरः कतां स्यात्तं शरीरी स्यादित्यादिप्रतिक्रूलतक- `
जातं जागतींति वेत्-देधरपिद्रयसिद्विभ्यां व्याघातः । तदुदित-
मुदयनेन--
५. आगमादेः प्राणत्वे बाधनादिनिषेधनम् ।
आभासत्वे तु सेव स्यादाश्रयासिद्धिरुद्रता ॥
( न्या० कु०° ३।५ ) इति ।
न च विशेषविरोधः चशक्यशङ्कः । ज्ञातत्वाज्ञातत्वविकस्पपरा-
हतत्वात् ।
५०८ सवेदशनसंम्रदे-
"यदि ईश्वर करतां होत। तो वह शरीरधारी होता'--इस प्रकार के प्रतिकूल
तकं भो जागृत हो सकते है [ जिनसे ईश्वर के कृतव का खण्डन होगा | तो
हम उत्तर दंगे कि रेषा तकं दोनों टी दशाओं में खंडित होता है, हम ईश्वर
की सिद्धि कर या असिद्धि। [ यदि आगम आदि प्रमाणो के आधार पर ईश्वर
की सिद्धिकी जाय तो उन्हीं प्रमणोसे सार का कर्ता ईश्वर है यह् भी
मानना पडेगा एषी स्थिति मे आपका अनुमान खरिडित हो जायगा ओर ईश्वर
के कतुत्व का निषेध नहीं हो सकता । अव यदि आगमादि को प्रमाणन मान
कर प्रमाणाभास कटं भर ईश्वर की असिद्धि कर तो भी आपके अनुमान में
पक्ष की असिद्धि होगी ही । पक्ष ( 1007: ९८) ) स्वयं तो असत् है इसलिए
किसी निवेध-वाक्य का यह उद्य नहीं होगा । तुलनीय--न्यायङ्रुसुमांजलि
( ३।२ ) । इस प्रकार दोनों स्थितियों मे आपकी उक्ति खरिडत हो जाती है। |
इसे ही उदयन ने कहा है--'आगम आदि को प्रमाण मानने पर [ पूवक्त
अनुमान का | खंडन होजनेसे [ ईक्वरका| निषेध नहीं किया जा सकता ।
[ यदि आगमादि को केवल प्रमाण का ] आभास अर्थात् दोषपूणं प्रमाण मानं
तौ आश्रयासिद्ध दोष उठ खड़ा हो जाता है ।' ( न्या° कु° ३।५) ।
इसके अलावे, विशेष होने के कारण [ श्वर मे कतृंत्व का | विरो
होगा रेसी शंका नहीं कौ सकती क्योकि [ ईश्वर के । ज्ञात होने या अज्ञात होने,
हन दोनों विकल्पो का खण्डन हो जाता है। [ ईश्वर नित्य द्रव्य है तथा नेयाधिकों
के अनुसार विशेष लक्षणो से युक्त है-- स्वलक्षण अर्थात् समी पदार्थो से विलक्षण
है; संसारमें साधारण जीवोंका कतुंत्व देखकर उनके सादृश्य से सवंतो-
विलक्षण एवं विशेष ईश्वर का कर्तृरव मानने.का क्या अधिक्रार ह? विशेष
तो सामान्यसे पृथक् हौ रहेगा न ? नैयायिक कहते टै क्रि एेसौ शंका आप
लोग नहीं कर सकते । विशेष ( ईश्वर ) यातो ज्ञात रहेगा या अज्ञत । विशेष
यदि ज्ञात हतो स्वभावतः सभी वस्तुओं से विलक्षण है, इसलिए अन्यत्र कहीं
भीन देखे गये कर्तृत्व ( संसार का कतंत्व ) का साधक होगा । इसका कोई
बाधक नहीं । यदि विहेष अज्ञात है तब तो उसके आधार पर् करिये गये अनुमान
नरे विरोध की संभावना हौ नहीं रहेगी । यदि विशेष ज्ञात है तो उसको सत्ता
स्पष्टतः मानी गई है, यदि अज्ञात है तो उसके विषय में तकं व्यथं दहै। किसी
तरह ईश्वर पर शंका संमव नहीं । | |
( १७. ईश्वर के दारा संसार-निमाण -पूवेपश्च )
स्यादेतत् । परमेश्वरस्य जगननिमौणे प्रत्तः किमथ १
स्वाथ परार्था बा १ आचेऽपि, इष्टप्राप्त्यथीऽनिष्टपरिहाराथा
6 ४५०६
बा १ नाद्यः । अवाक्चसकलकामस्य तदनुपपत्तेः । अत एव न
„9 क
द्वितीयः । द्वितीये प्रर्यनुपपततिः । कः खलु पराधं प्रव॑तमानं
्े्षावानित्यएचक्षीत ! ¦
अच्छा, यह् सब मान लिया गया । अब किये क्रि संसारका निर्माय
करने मे परमेश्वर की प्रवृत्ति किख लिए है--अपने लिए या दूसरों के लिए ?
यदि अपने लिए है तो फिर कहियेकि इष वस्तुकी प्राप्निके लिए्या अनिष्ठ
वस्तु के परिहार के लि् ? पहला विकल्प ठोक नहीं है क्योकि सभी कामोको
प्रा्तकियि हृए ईश्वरका इष्ट व्तुकी प्राति के लिए प्रवृत्त होना ठीक नहीं
जैचता । इसीलिए दसरा विकल्प भी ठोक नहीं [ क्योकि जो सभी कामो कोपा
चुका है उसे अनिष्ट ही नहीं रगे जिनके लिए वह प्रवृत्त होगा । ] यदि यहं
माने कि दूसरों के लिए प्रवृत्त होता है तो इसमे प्रवृत्ति कौ ही सिद्धि नही होती ।
दूसरों के लिए प्रवृत्त होने वलि व्यक्ति को समञ्लदार ( बुद्धिमान् } कौन कठेगा ?
अथ करणया प्रवृच्युपत्तिरित्याचक्षीत कथित्; तं प्रत्याच-
्षीत । तहि सवी् प्राणिनः सुखिन एव सूजेदीश्वरः । न दुःख-
¢
शवलान् । करुणाविरोधात् । स्वाथेमनपेकष्य परदुःखप्रहाणेच्छा
हि कारुण्यम् । तस्मादीश्वरस्य जगत्सजेनं न युज्यते । तदुक्तं
मदाच :--
^~ रवतते
६, प्रयोजनमनुदिश्य न मन्दोऽपि प्रवतते ।
जगच स॒जतस्तस्य फ नाम न कृतं मवेत् ॥ इति ।
अब यदि [ नैयायिक या | कोई रसा कटे कि करुणा से ईशर कौ प्रवृत्ति
मानीजा सकती दहै तो उसके प्रति हम (पूर्वंपक्षी ) करेगे कि तब तो ईश्वर
सभी प्राणियों को सुखी बनाकर पृथ्वी पर उत्पन्न करता । वह किसी कोदुःख
से नहीं रंगता क्योकि एषा करने से उसकी कर्णा का विरोध होगा । स्वार्थं
को अवेक्षा न रखते हृए दूसरों के दुःख का हरण करने कौ इच्छा ही करुणा
कहलाती ह ) इसलिए ईश्वर के द्वारा संसार की सृष्टि मानना युक्तियुक्तं नही है ।
इते भद्राचायं ने कहा है श्रयोजन का निना उदेश्य रखे हृए मूलं भो प्रवृत्त
नहीं होता । वह ( ईश्वर ) यदि संसारक मृष्ट्ि करता हैतो कौन-सा काम
नहीं करता ( सभी वस्तुओं का निर्माण वह करता है) ?' [ ईश्वर सब कु
करता है किन्तु किसी प्रयोजन से नहीं । कोई प्रयोजन सिदध न होने के कारण
ईश्वर की सिद्धि ही नहीं होती । |
५१० सबेदशेनसग्रहे- `
( १५. इश्वर के द्वारा संखार-निर्माण-- सिद्धान्त )
अत्रोच्यते- नास्तिकशिरोमणे ! तावदीष्यीकषायिते चक्षुषी
निमीस्य परिभावयतु भवान् । करणया प्रवृत्तिरस्त्येव । न च
©
निसर्गतः सुखमयसगंप्रसङ्कः। सूज्यप्राणिकृतदष्छृेतसुङृतपरिषाक-
विरोषाद् वैषम्योपपत्तेः। न च स्वातन्त्यभङ्गः शङ्कनीयः । स्वाङ्ग
स्वव्यवधायकं न भवतीति न्यायेन प्रत्युत तन्निवाोहात् । (एक
एव रुद्रो न दितीयोऽत्रतस्थे' (त° सं° १।८।६) इत्यादिरागम-
स्तत्र प्रमाणम् ।
अब हुम उत्तर देतेहै। है नास्तिको के शिरोमणि ! पहले आप ईर्प्या मे
हषी हई अपनी आंखों को वंद कर ले तव विचार करं । करुणा से तो ईश्वर कौ
प्रवृत्ति होती ही है। प्राकृतिक ल्पसे ही सुखी संसार को सृष्टि हो, एषा प्रसंग
नहीं आ सकता वयोकि उत्पन्न होने वाले प्राणियों के द्वारा क्रिये गये विभिन्न
पुरुयों ओौर पापों के परिणामस्वरूप विषमता तो रहेगी ही 1
उक्त आधार पर यह् शंका नहीं करनी चाहिए कि | प्रारियों के द्वारा श्ये
गये कमं पर निर्भर करने के कारण ] ईश्वर स्वतंत्र नहींहै। [ जब संसार की
सष्टि करने मे अपनी इच्छासे कृमौ काम नहीं कर सकता, प्राणियों के
कमं के अनुसार उन्दँ सुख-दुःख देता है तो ईवर स्वतन्त्र केसे हभ ? प्राणिकमं
के अधीन ही वहु रहता है। किन्तु वसी बात नहीं । ] अपना ही अंग अपनेही
कार्यं का विरोध नहीं करता'- इसी नियमसेतो ओरं अच्छी तरह से उसका
निर्वाह हो जायगा। [संसार ओर इसके सारे पदार्थं, कमं आदि सबकुछ
ईश्वर काशरीरदटै। प्राणियों केद्वारा किये गये कमं उसके अंगहीरहैं। यदि
ईश्वर सृष्टि के कायं मे इन कर्मो अर्थात् अपने अंगो कौ अपेक्षा रे तो इसका
यह अथं नहीं है कि वह पराधीन है! अपने ही हाथ-पैरसे कामलेने से कोई
पराधीन नहीं कहलाता, भले ही दूषरों से काम लेने पर पराधीनता आती है ।
अपने अंगोंसे काम लेनेसे बल्कि बड़ाईहीहोतीदहै। वेसेही ईद्वर केद्वारा
आरम्भ किये गये कायं का साधन भी स्वतंत्रहै, इसमें स्वतत्रताकाही गौरव
बढता है । ]
[ ईवर की सत्ता कौ सिद्धि केलिए] आगम काभी प्रमाण दहै--श्र
एक ही है, दूसरा कोई हमा ही नहीं! ( तैत्तिरीय संहिता १।८।६ तथा
दवेता० ३।२ ) ।
अक्षपाद्-दशेनम् ५११
यद्येवं तहिं परस्पराश्रयवाधव्याधि समाधरस्वेति चेत्-
तस्यानुत्थानात् । करमुत्पत्तौ परस्पराश्रयः शङ्क्यते ज्ञप
वा । नाद्यः । आगमस्येश्वराधीनोत्पत्तिकत्वेऽपि परमेश्वरस्य
नित्यलेनोत्पत्तेरनु पपत्तेः । नापि ज्ञप्तो । परमेश्वरस्यागमाधीन-
्ञभिकस्वेऽपि तस्यान्यतोऽव गमात् । नापि तदनित्यत्वज्ञौ ।
आगमानित्यत्वस्य तीव्रादिधमपितत्वादिना सुगमच्वात् । यस्मा-
निवर्तकधरममानुष्ठानवश्चादीशर्रसादसिद्धावभिमतेष्टसिद्विरिति सबे-
मवदातम् ॥
इति श्रीमत्सायणमाधवीये सवेदशैनसंग्रहेऽक्षपाददशेनम् ॥
---=‰=--
यदिरेसी बातत है तो अन्योन्याधरय-दोष रूपी रोगका तो निराकरण
कीजिए । [ ईश्वरकी सिद्धि आगमसे करने पर तथा आगम कौ ईश्वर-शरीर
मानने षर, ईश्वर भौर आगम में तो अन्योन्याश्चय-होष होगा। इसका
निराकरण करना कठिन है । आप करं तो जाने । पूरवपक्षियों की इस शंका
धर तैयाथिक कहते ह कि ] यह दोष उठाता ही नहीं । इस परस्पराश्रय-दोष की
दका उत्पत्ति के विषय मे मानते दै याज्ञान के विषयमे ? पहला विकल्प नहीं
माना जा सक्ता क्योकि यद्यपि आगम ईश्वर के अधीन उत्पन्न हा है तथापि
परमेश्वर नित्य है इसलिए [ वह अपने आपमें प्रमाराहै, मागम से उसको
उत्पत्ति नहीं होती है। आगम की प्रामाणिकता ईश्वर पर निर्भर करती है
परन्तु ईश्वर की प्रामाणकता आगम पर निर्भर नहीं करती । भागम अनित्य है
ईश्वर नित्य - दोनों मेँ अन्योन्याश्चय केसा ? |
ज्ञान के विषय में दोष नहीं उठता क्योकि यद्यपि परमेश्वर का ज्ञान आयम
पर निर्भर करता पर आगमको दूषरे स्थानो से जानते ह । [ उत्पत्तिके
लिए घट कुम्भकार पर निर्भर करता है परज्ञान के लिए्तो प्रकाश अदि
कीही अवेक्षा रहती दै। वेसे ही उत्पत्तिके लिए आगम ईश्वर कौ अवेक्षा
स्ता पर ज्ञानके लिएतोनहीं। आगमका ज्ञान ईश्वर नहीं कराता
है- गुरुको परंपरा आदिसे हम जगम को जान परति है।]
ञागम [के धर्मो | की अनित्यताकेज्ञानमे भी शंकरा नहींहौ सक्ती ।
आगम की अनित्यता का ज्ञान तीव्र आदि धर्मो ( तीत्र, तीक्ष्ण, दुःसह, भयंकर,
५१२ सबवेदशनसंग्रह-
कटु) से युक्त होनेसे लोग सरलता से कर लेते ह । [ अर्थयुक्त शब्द को आगम
कहते है । अथं मे तीक्ष्णत्व, दुःसहत्व आदिं दोष होते है, शब्द मे कंकदरुत्व
आदि) ये धमं अनित्यत्व के द्वारा व्याप होते है इसलिए आगम कौ अनित्यता
सिद्ध करते ह । अभ्यंकर जी ने बहृत सुन्दर दृष्टान्त दिया है कि जसे जमीन पर
नाव कोले जानि में बैलगाड़ी की जरूरत होती है ओर पानीमे बैलगाड़ी ले जाने
मे नावकी, फिर मी आधारकाभेदहोनेसे अन्योन्याश्रय दोष नहीं होता-
उसी श्रकार यह मानने पर दोष नहीं होता कि आगम कौ उत्पत्तिके लिए
ईश्वर की अवेक्षा, ज्ञान के लिए नहीं तथा ईश्वरके ज्ञान के लिए आगमकी
अपेक्षा है, उत्पत्ति के लिए नहीं । विषयभेद के कारण अन्योन्याश्रय दोष नहीं ।
इस प्रकार निवृत्ति-परक धर्मो का अनुष्ठान करने से ईश्वर की कृपा प्राप्त
होती है ओर इसौ से अभिमत इष्टसिद्धि ( मोक्ष-प्राप्ति ) होतौ है--यह
सब स्पष्ट है।
इस प्रकार सायण माधव के सर्वं दश॑नसंग्रह मे अक्षपाद-दर्॑न समाप्त हुजा ।
१इति बालकविनोमाश ङ्कुरेण रचितायां सवंदर्चनसंग्रहस्य प्रकाशाद्यायां
व्याख्यायामक्षपाददशैनमवसितम् ।
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क" ५ ४ ~, १.4 वक ष । 4 क श = ॐ १. 1 ।
च ` , पणा = प अन
+ ~ "१ १
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^ "छ ॥ ६ । ९५. च
नक "$ ऋ ० द्व १ कः १ कमः व ककन 7 क १ १६. अ; क.
८ १२ ) जेमिनि-दशोनम्
वेदोक्तकमेसरणिः स तु यागरूपो
विध्यथेवादयुगलं परिलम्बमानः।
धर्मो भवेत्किल ततो जननान्तरेषु
कमेव सर्वमिति जैमिनये नमोऽस्तु ।- ऋषिः
( १. मीमांसा-सूत्र कौ विषय-वस्तु )
ननु धमौलुष्टानव्ादभिमतधमेसिद्विरिति जेगीयते भवता ।
तत्र॒ धमः किंलक्षणकः रविप्रमाणक इति चेत्-उच्यते ।
भूयतामवधानेन । अस्य प्रभस्य प्रतिवचनं प्राच्यां मीमांसायां
प्रादरिी जैमिनिना फनिना। सा हि मीमांसा द्वादशलक्षणी ।
आप लोग ( मीमांसक ) बार-बार यही कहते हँ कि धमं ( वेदविदहित कमं )
का अनुष्ठान करने से अभीष्ट धमं कौ प्राप्ति होती है। हम पृच्छते हँ कि उख
धर्मं का क्या लक्षण दै, उसके लिए प्रमाण क्या है? हम इसे बतलाते है, ध्यान
देकर सुनिये । इस प्रदन का उत्तर जेमिनि मुनि ने अपनी पूव॑-मी्मासा मे अच्छी
तरह दिखाया है । उस पूव॑-मीमांसा में बारह अध्याय हं । [ लक्षण = अध्याय ।
मीमांसा का विषयदहीधमंहै। | े
विषयर्भवादमन्तस्यतिनामधेयार्थकस्य €
तत्र॒ प्रथमेऽध्याये |
शब्दरसः प्रामाण्यम् । द्वितीये उपोद्धातकमंभेदप्रमाणापवादग्र-
योगभेदरूपं ज्यं [न ^
¦ । ठतीये श्ुतिलिङ्खव।क्यादिविरोधग्रतिषत्ति
कर्मानारभ्याधीतवहप्रधानोषकारकम्रयाजादियाजमानचिन्तनम् ।
उसमे पटले अध्यय मे विधि, अथंवाद, मंत्र, स्मृति ओर नामधेय के
अर्थम जो शब्दराशि दहै--उसी की प्रामाणिकता बतलाई गई टै 1 [ इसके
प्रथम पाद (३२ सूत्र ) मे विधि का प्रामाण्य, द्वितीय पाद ( ५३ सूत्र ) मे अथं-
वाद ओर मन्त्रो का प्रामाण्य, तृतीयपाद ( ३५ सूत्र ) मे मनुं आदि स्मृतियो का
प्रामाण्य, तथा चतुथं पाद ( ३० ) में नामधेय ( }4५०)९8 ) की त्रा माणिकता
पर विचार किया गया दटै। | |
३३ स संर
५१४ स्बंदशेनसंग्रहे-
दूसरे अध्याय में उपोद्घात, कमभेद, कमभेद कै प्रामाण्य का अपवाद तथा
प्रयोगो मे मेद - इन विषयों का प्रतिपादन हआ है । [ प्रथम पाद ( ४९ ) में
कर्भमेद का वर्णन करने के लिए उपोदृघात दिया गया है जिसमें अपूवं का बोध
कराने के लिए आख्यात को उपयुक्त माना गया है, धमं का वणन ही तीनों
वेदों में है जिनकी रचना सर्वोत्तम भाषामें हई दै । द्वितीय पाद ( २९) मे धातु-
अद, पुनरक्ति आदि के कारण कमं मे भेद पड़ने का वर्णन है । तृतीय पाद (२९)
मे उपयुक्त कमभेद की प्रामाणिकता के अपवाद ्वाणत है जब कि चतुर्थं पाद
(३२ ) मे नित्य ओर काम्य प्रयोगो के बीच भेद का प्रदशन है । |
तीसरे अध्याय मे श्रुति, छिग, वाक्य आदि ओर उनके पारस्परिक
विरोध, प्रतिपत्तिकर्म ( उपयुक्त द्रव्यो का विनियोग करना ), आकस्मिक रूपसे
निर्िष्ठ वस्तुओं, बहुत से प्रधान कर्मो के सहायक प्रयाज आदि कमं तथा यजमान
के कमो का विचार हुआ दै । [ मीमांसा सूत्र के तीसरे अध्याय मे आठ पादह ।
प्रथमपाद (२७ सूत्र ) में श्रृति-प्रमाण, द्वितीय पाद ( ४३) मे किग-षएमाण,
तृतीय पाद ( ४६ ) मे वाक्य-प्रकरण-स्थान-सखमास्या ये चार प्रमाण, चतुर्थं पाद
( ५७ ) मे निवीत, उपवीत आदि कर्मो मे, विधि दहै कि अर्थवाद, इसका निणंय
करने के लिए श्रुति आदि चछ्हों प्रमाणो के परस्पर विरोध की मीमांसा, पंचम
पाद ( ५३ ) मे प्रतिपत्ति कर्मो का वर्णन, षष्ठ पाद ( ४७ ) म अनारभ्याधीत
अर्थात् सामान्य रूप से विहित कर्मो का वणंन, सप्तम पाः ( ५१) में बहुतसे
प्रधान कर्मो के सहायकं प्रयाजादि कर्मो का वर्णन तथा अष्टम पाद ( ४४) मे
यजमान के कर्मो का व्ण॑न--इस प्रकार इसका पादगत विभाजन हंजा है|
विद्तोष- श्रुति आदि छ प्रमाणो पर मीमांसा म॒ बहुत जोर दिया जाता
है । जैमिनिने लिखा है-- श्॒तिलिङ्गवाक्यध्रकरणस्थानसमाख्यानां सम-
वाये पारदो्स्यमथैविप्रकर्षात् ( जे° सू° ३।३।१४ ) श्रुति, कलिग, वाक्य,
प्रकरण, स्थान, समाख्या--इन छां मे एक दूसरे से संघं होने पर पहले वाला
प्रबल रहता है दूसरा दुबल होता दै । क्योकि विनियोग ( .‰]){01\५९ ० )
रूपी अर्थं पटले वाले की अपेक्षा दूसरे मे विंब से प्रतीत होता हे ।
इन्दे समञ्चने से पहले यह जानना चाहिए कि मीमांसा-दशंन मे सम्पूणं
वैदिक भाग ( वेद, अपौरुषेय वाक्य } को पाचि भागो मे बाँट है--विधि, संत्र
नामधेय, निषेध ओर अथेवाद । अज्ञात वस्तु (किसी भी अन्य प्रमाण से अज्ञात)
काज्ञान कराने वाला वैदिक भाग विधिहै जञेसे-- "अग्निहोत्रं जुहयात्स्वगेकामः'
ङस विधि में किसी भी अन्य प्रमाण से प्राप्त न होने वाके स्वगं के
प्रयोजन से किये गये होम का विधान किया गयादहै। इस वाक्यका अर्थंटै कि
जेमिनि-दर्शनम् ५१५
अन्निहोत्र-होम से स्वगं की भावना करनी चाहिए (भावना=उत्पत्ति) । इस विधि के
चार भेद है उत्पत्तिविधि, विनियोगविधि, अधिकारविधि ओर प्रयोगविधि। इनमें
जो दूसरी विनियोग-विधि है उसका अथं है श्रधान ( होम ) के साथ अदल
( = देवता, द्रव्य, साधन आदि) का सम्बन्ध बतलाना । उदाहरण-'दध्ना जुहोति"
यहां दधि अंगहै क्योकि यह होमका साधनदहै, दधि तरृतीया-विभक्तिके दासय
अपने अंग होने का प्रद्शंन कर रहा है । अग्निहो जुहोति" इस प्रधान के साथ
इसका संबंध टै जिसक्रा बोध कराने के लिए उक्त (दध्ना जुहोति" वाक्य आयां
टै । इस प्रकार वाक्याथ होगा कि दधिकेद्वारा होम की भावना करं ।
इसी विनियोग-विधि की सहायता करने के किए श्रुति आदि छह प्रमाण
है । जिस समय यह प्रशन उत्पन्न होता है किमत्र के देवता, हवि के द्रव्य यां
किसी अन्य वस्तु (अंग) का विनियोग करां पर हो तो इसका निणंय ये छह प्रमाण
ठी करते है । जबदो प्रमाण एकसाथ आरहेहोंतो पहले वाला ही मान्य
होता है । अव हम इनका पृथक्-पृथक् प्रतिपादन करे ।
( १ ) श्रुति-प्रमाणान्तर कौ अपेक्षा नहीं रखने वाले शब्द को श्रुति
कटते हैँ । इससे सर्वत्र निणंय किया जाता है। इसके मूलतः दो भेद है--
साक्षात् पढ़ी गई तथा अनुमान से सिद्ध । सीधे पदी गई श्रुति के उदाहरण में
न्द्रया गा्हुपत्यमुपतिष्ठते' दे सकते हैँ । यह श्रुति का ही वाक्य है जिसमें
बतलाया गयादहै कि इन्द्रदेवतासे संबद्ध ऋचाका अंगके रूपें प्रधान
गार्हपत्य अञ्चि की उपस्थापना मे विनियोग होगा । अनुमान से सिद्ध श्रुतियों
के उदाहरण में स्योनं ते इति पुरोडाशस्य सदनं करोति" है । यह वाक्य
धृति में कहीं नहीं मिलता किन्तु श्योनं ते सदनं कृणोमि ( तै० त्रा० ३।६ )
इस मंत्र के अ्थको देखकर उसी लिङ्खिसे मंत्र के अथं के अनुसार मंत्रका
विनियोग करने वाटी श्रुति का अनुमान करते हं । उसी तरह का विनियोग
भीहोतादहै। ।
( २ ) लिङ्ग किसी र्द में जो अर्थं प्रकाशन की सामथ्यं रहती है उसे
ही लिङ्ग कहते हैँ । श्रुति का अनुमान करने वालाल्गिदो प्रकारका दै--
सीधा दिखलाई पड़ने वाला तथा अनुमान केद्वारा ज्ञात। सामथ्यं का अथं
रूढि है, अतः क्िग-प्रमाण में रूढि ( परंपरागत शब्दार्थं ) का अभिधान होता
है जब कि समाख्या में यौगिक शब्द का अथं देखा जाता है। उदाहरण के
किए "बहिदेव सदनं दामि" (हेदेव ! मेँ तुम्हारे स्थान के किए कु काटता
हं ) यह मंत्र कुशल्वन ( छेदन ) रूपी अंग है । बहिष् शब्द कुश के अर्थंमें
ही ढ् टै अतः अन्य तृणोंके काटने का प्रसंग उत्पन्न नही होता । उसी
५९१६ स्वंदशेनसंमहे-
प्रकार देवस्य त्वा सवितुः प्रसवेऽदिवनोर्बाहभ्यां पूष्णो हस्ताभ्यामभ्न जुष
निर्वपामि ( तै० सं० १।१।४ ) यह एकं ही वाक्य है जिसमे योग्यता, आकांक्षा
आदि के कारण परस्पर अन्वित पदों का समूह है । इसमे प्रत्यक्ष दिखलाई
पड़ता है किं देवस्य त्वा' इस वाक्य मे अग्नये जुष्टम् आदि भाग की सामथ्यं
निर्वाप-अथं का प्रकाशन करने कीदटै। वक्यि आदि कौ अपिक्षा चिग प्रबलतर
होता है । स्योनं ते सदनं कृणोमि" इस मंत्र को पुरोडाग-स्यापन रूपी प्रधान
कर्मके अंगके रूपमे जानते! यह ज्ञान सदनं कृणोमि" इस लिगि को
देखकर ही होता है वाक्य से नहीं ।
( ३ ) वाकय--अंग ( शेष ) ओर प्रधान ( शेषी) बोधक पदोंकाएक
साथ उच्चारण करना ( समभिव्याहार ) वाक्य है । योग्यता, आकांक्षा आदि
इसमें रहती है । वाक्य उप्यक्त लिगि का अनुमान करता है।! उदाहरण में
"समिधो यजति' दे सकते ह । इसमे इष्ट-विशेष कां निर्देश नहीं किया गया है
अतः आकांक्षा होती है कि समिधाओोंके याग से भावना किसकी करं ?
दशंपूणंमास के विधि वाक्यमे भी स्वगं कौ भावना कैसे करं, यह आकांक्षा
होती ही है । स्मरणीय है किं इसी आकांक्षा को प्रकरण-प्रमाण कहते है । “यस्याः
पणमयी जुहभवति न स पापं इकोकं श्यणोति' इस वाक्य मे पणता ओर जह
( अर्धचनद्राकार एक पात्रविशेष ) का एक साथ उच्चारण हजा है अतः इसी
से जह् ( प्रधान ) का अंग पणं ( पला ) दै, यह मादूम होता है। जुहु के
दवारा जिस अपूव ( कमफल, पुण्य ) की भावना अर्थात् उत्पादन करते है उसके
लिए पर्णं की अनिवायं आवश्यकता हे। बिना पर्णं के अपूर्वं की सिद्धि नहीं होती ।
( ४ ) प्रकरण जहां पर उपकारी की (किसकी भावना करे, इसकी) तथा
उपकारक की ( कैसे भावना करं, इसकी ) आकांक्षा हौ उसे प्रकरण कहते है ।
उदाहरण ऊपर दे चुके ह । "खमिधो यजति" । जहां मुख्य भावना से सम्बद्र
प्रकरण हो उसे महाप्रकरण कहते ह, जहां अंग की भावना से सम्बद्ध प्रकरण
हो उसे अवान्तर प्रकरण कहते ह। महाप्रकरण के कारणं ही प्रयाज
आदि कर्माः को दर्शपृणंमास का अद्ध मानते दै । अवान्तर प्रकरण के कारण
अभिक्रमण ( घूमना ) आदि प्रयाजके अंग होति हँ । स्थान आदि की अपेक्षा
प्रकरण बलवान् होता है, यही कारणं है कि अक्षैदीव्यति' "राजन्यो जिनाति'
इत्यादि वाक्यों मे, जहाँ क्रीडा, विजय आदि का उतल्लेव है, सन्देह होता है कि
यह राजसूय का अङ्खटै किं सोमयाग का? समान देश मे पाठहोनेसेतो इसे
( स्थान-प्माण से ) सोमयाग का अंस सम्चना चाहिए किन्तु राजसुय मे
उपकारक की आकांक्षा होने के कारण देवन ( दीव्यति ) आदि का विधान है"
अतः प्रकरण भ्रमाण से वह राजसूय का ही अंग हो जायगा ।
का कनन धोक नमान नो =
तः भायि प तोत
य स क्स
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वेते = न्द
वारि चि
ससर
जेमिनि-दशेनम् ५१७
(५) स्थान-एकहौी देश स्थान टै । स्थान को क्रम भी कहते ह,
ेद्रासनमेकादशकपालं निवपेतु" ( तै० सं° २।२।११ ), वश्वानर द्वादशकपालं
निरवयेत् ( तै० सं° २।२।५ ) इख क्रम से इष्टयो का विधान किया गयादै।
अतः “इन्द्रानी रोचना दिवः" ( तै० सं० ४।२।११) इत्यादि जो याज्यानुवाक्या
{ "यज" विधिं के बादब्रह्माके द्वारा उच्चारित ) मन्त्रों का विनियोग क्रम से
होगा--पहले मन्त्र का पहले, दूसरे मन्त्र का बाद मे आदि । इस प्रकार पाठके
विशेष रम के कारण दोनों की आकांक्षा ( प्रकरण ) का अनुमान होता है!
प्रकरण के द्वारा वाक्य का, वाक्यसे लिगिका ओर उससे श्रुति का--श्ुति के
द्वारा विनियोग का अनुमान होता है।
( ६ ) सभाख्या-योगिक शब्दों को समाख्या कहते टँ । जेसे--हौत्रम्,
ओद्रात्रम् । होत्र के द्वारा किये जाने वाले कर्मो को होत्र कहते है अतः “होत्र
नाम से जिसका विधान होउसे होतृ के द्वारा किये जाने योग्य कमं खम ।
इस प्रकार विनियोग-विधि के लिएये छह प्रमाण होते ह । योगिक शब्दों
के अथसेजो विधान होता है उससे अधिक प्रबल पाठका क्रम होता दे)
वयोकि उससे लीघ्र ही विनियोग समञ्लमे आतादै। यौगिक शब्दकेद्वारा
विलंब कौ सम्भावना है । क्रम से अधिक प्रबल प्रकरण टै क्योकि आकांक्षा का
श्रवण होने से अ्थंबोध शीघ्र होता है । वाक्य मे आकांक्षा से भी अधिक प्रबल्ता
है क्योकि अंग ओर प्रधानका एक साथ उसमे उच्चारण ही होता है। वाक्य
की अपेक्षा छिग में अर्थबोध की अधिक दक्तिदै ओर अन्तमें श्रुति तो सर्वोच्च है
ही । जहाँ विनियोग के लिए साक्षातु श्रुति नहीं मिती वहीं पर अन्य प्रमाणो
कौ आवकष्यकता पडती है । ( विशेष विवरण के लिए अथं-संग्रह या मीमांसा-
न्यायप्रकाश देखं । )
षे वी त्वजुहपणेतादिफल
चतुर्थे प्रधानप्रयोजकत्वाग्रधानप्रयोजकत्वजहूपणताएदपल-
राजख्यगतजवन्याङ्गकषद्यतादिचिन्ता । पञ्चमे रुत्यादिक्रम-तद्वि-
लेषवृद्धयवर्भनप्राबस्यदोबेल्यचिन्ता। । षष ऽधिकारितद्धमद्रव्यप्र
तिनिष्व्थलोषनप्रायशित्त-सत्रदेयवहविविचारः । सक्षमे प्रत्यक्षवच-
नातिदेशदोषनाभलिङ्गातिदेश्षविचारः ।
चये अध्याय में प्रधान कर्मो की प्रयोजकता ( जेस प्रधान कमं आमिक्षा
दध्यानयन-ूपी दूसरे कमं का प्रयोजक है } अप्रधान कर्मो की प्रयोजकता
( जैसे वत्सापाकरण कमं चाखाच्छेद का प्रयोजक है }, पणं अथात् पलाश की बनी
इई जुह आदि के फर तथा राजसुय-याग । प्रधान ) के अन्तगंत आने वाले
५१८ सबदशेनसंग्रहे-
अप्रधान ( जघन्य ) अङ्गो जैसे अक्षयृत ( अक्नरदीव्यिति ) आदि का विचार हुजा
है । [ उक्त चारो प्रस्नों का विचार इसके चार पादों (४८ +३१+४१+४ १)
मे हुआ है जो स्पष्ट है) |
वोचे अध्याय में श्रुति आदि का क्रम, उनके विभिन्न भागो का करम,
करमो की वृद्धि जौर अवृद्धि, तथा श्रुति अ।दि की प्रवर्त एवं दुबंलता का विचार
किया गया है । [ इसके प्रथम पाद ( ३५ ) मे श्रुति, अर्थं, पठनादि के क्रम का
निह्पण हआ दै ।# द्वितीय पाद ( २३ ) में क्रमके विरिष्ट भागो का वर्णन हुआ
है जैसे अनेक पदुर्ओ के होने पर एक-एक परु के धमकी समाप्तिकी जाय ।
तृतीय पाद (४४) मे वृद्धि ओर अवृद्धि पर विचार हुजा है जसे अग्नि ओर
सोम को एक साथ दिये जाने वाले ( अग्िषोमीय ) पशु मे ग्यारह प्रयाजो का
यज्ञ होता है। तो इसमे पाच प्रयाजों की पुनः आवृत्ति करके अन्तिम प्रयाज
की एक बार ओर आवृत्ति करने पर ग्यारह संख्या पूणं हो जाती है 1 यह् वृद्धि
हई, कीं पर एेखा नहीं करके पहले जैसी ही संख्या छोड़ देते टं । चतुर्थं पाद
( २६ ) में श्रुति आदि चट प्रमाणो मै पहले के प्रमाण प्रबल, वादके दुबल,
इखका विचार हआ टै । |
छे अध्याय में यज्ञ करने के अधिकारी व्यक्ति, उनके धमं, यज्ञ में प्रयुक्त
होने के लिए विहित द्रव्यो के (न मिलने पर) स्थान मने दिये गये द्रव्य, द्रव्यो
का लोप, प्रायदिचत्त कमं, सत्रकम, देय वस्तु, तथा विभिन्न अग्नियों मे होम-
इनका वणन है । । षष्ठाध्याय नं आठ पादद। प्रथम पाद (५२ ) मे यज्ञ
+ जिस प्रकार विनियोग-विधि के छह प्रमाण है उसी प्रकार प्रयोगविधि के
भी छह प्रमाण है-- श्रुति, अथं, पाठ, स्थान, मुख्य तथा प्रवृत्ति । ये क्रम (५१५९ ४)
का बोध कराकर प्रयोग-विधि की सहायता करते ड वेदं कृत्वा वेदि करोति--
म श्रतिसे ही कर्मोकी पूर्वापरता मादम होती है । अग्निहोत्रं जुहोति यवागूं
पचति'- में प्रयोजन या अथंकेद्रारा क्रम मादम् होता है कि यवागू होमाथेक टै
अतः उसका. वाक्य पी रहने पर भी पहले वही काम होगा ( यवागूपाकं ) ।
इन दोनों क्रमों के न रहने पर पाठकाक्रम ही प्रामाणिक होता दै-- जिस क्रम
सेवेदमें पाठदटै उसी क्रमसे काम करना है। देश-काल के अनुसार जो जां
उपस्थित है वह पहले करे, दूसरा षी, ( यह स्थान ~कम हे) प्रधान के क्रम
से अंगों को रखना मुख्य-कम दै । जिस क्रम से आदित्यादि प्रधान देवताओं की
पूजा हो उसी क्रम से उनके अधिदेवताओं की पूजा करं । प्रवृत्ति-क्रम वहं है,
जिसमे, एक स्थान पर जैसा हुआ हो उसी क्रम से दूसरी जगह भी होगा-- एसा
विचार रहे ।
जैमिनि-दशेनम् ५१६.
करने के अधिकारी का निरूपण हुआ है कि आंखवाला ही यज्ञ कर सकता है
अन्धा नहीं । द्वितीय पाद ( ३१ ) मे अधिकारियों के धमं का विचार हुजा है ।
तृतीय पाद ( ४१) में मुख्य वस्तु के अभाव मे प्राप्य वस्तु का कर्हा-कटहां ग्रहण
करं, कटां नही, इसका विचार हुआ है । चतुर्थं पाद ( ४७ ) में किस वस्तु का
कहाँ लोप होता है यह निरूपित हआ है । पंचम पाद ( ५६) में कीं परं भरल
हो जाने से प्रायस्चित्त करने का विधानदटै। षष्ठ पाद (३९ ) मे सत्र नामक
यज्ञ के अधिकारियोंका वणेन हुआ टै । सप्तम पाद (४० ) मे अदेय तथा
देय वस्तुओं का वर्णन हुआ है। अष्टम पाद ( ४३ ) में यह विचारदहै कि
लौकिक अगि में काँ होम करं । |
सात अध्याय में वैदिक वाक्यों के प्रत्यक्ष आदेशसे किसी यज्ञके कर्मो
का द्सरे यज्ञ में स्थानान्तरण ( प्रथम पाद २३ ), अवशिष्ट विचार ( द्वितीय
पाद २१), [ अग्निहोत्र आदि ] नामोंके कारण स्थानान्तरण ( तृतीय षाद
३६ ) तथा छिग कै कारण स्थानन्तरण ( चतुर्थं पाद २० ) का वणन दहै।
अष्टमे स्पष्टास्पष्टप्रबललिङ्गातिदेश्ापवादविचारः । नवमे
उहविच!रारम्भसामोमन्त्रोहततपरसङ्गागतविचारः । दश्चमे बाध-
हेतदरारलोषविस्तारयाधकारणकार्थैकल्वसमुच्चयग्रहादिसामप्रकीण
नजर्थविचारः । एकादज्े तन्त्रोपोद्धाततन्त्रावापतन्त्रप्रपश्चनावाप-
परपश्चनचिन्तनानि । द्वादशे प्रसङ्गतन्त्रि निणेयसमुच्दयविकस्प-
विचारः ।
आट अध्याये स्पष्ट किगोके द्वारा क्रिय गये अतिदेश ( प्रथम पाद
४३ ), अस्पष्ट लिगों के द्वारा क्रि गये अतिदेश या स्थानन्तरण ( द्वितीय पाद
३२ ), प्रबल गोसे किये गये स्थानान्तरण ( तृतीय पाद ३६) तथा अंतमे
इन अतिदेशो अर्थात् स्थानान्तरणं के अपवाद प्रदशित है ( चतुथं पाद २७ ) ।
नवे अध्याय मे उह (मंत्रमे अये हृए देवता, किग, संख्या आदिके
वाचकं शब्दों का प्रयोगविशेष मे अवसर के अनुखार परिवतंन ) के विचारका
प्रारंभ ( प्रथम पाद ५८), खामोंका उह द्वितीय पाद ६०) मंत्रोंका ऊह्
( तृतीय पाद ४३ ) तथा अंत में ऊह के प्रसंग मे उठने वाले प्रदनों पर विचार
किया गया है ( चतुथं पाद ६० )।
दसवें अध्याय ( आठ पाद ) में पहले बाध ( निषेध ) के कारणस्वह्प
दरारों (कारणों) के लोपका वर्णन हुआ है ( प्रथम पाद ५८ ) [ जहाँ वेदि-
५२० सवदशेनसंमहे-
निष्पादनरूपी मुख्य कमं (द्वार) काही अभाव दै वहाँ वेदि-निष्पादन कमं
में सहायक उद्धनन आदि अंग-कार्यो का बाध (निषेध) हो ही जायया ।
जहा धान्य को तुषरहित करना ही नहीं है वहाँ अवहुनन का निषेध हो जायगा । |
तब उसी द्वारलोप का विस्तार बहुत से उदाहरणोके दारा किया गयादहै
{ द्वितीय पाद ७४ )। इसके बाद कायं कीएकताको बाधका कारण बत-
काया है ( तृतीय पाद ७५) | जैसे प्रकृति (8४0])1€) याग मेँ गो, अश्व आदि
की दक्षिणा का कायं ऋत्विकपरिग्रह माना गया है, विकृति ( 1)€\18 17
{८0०0 16 98116 ) याग में उसी कायं केलिए धेनु कौ दक्षिणा
कही गयी है । इस प्रकार श्रकृतिवतु' शब्द कै द्वारा जहां अतिदेश या स्थाना-
न्तस्ण किया गया है उससे प्राप्त होने वाली गो, अइव आदि की दक्षिणा का
निषेध है । | उसके बाद बाधके कारणोंकेन होने पर समूच्चय ( चतुथे पाद
५९), बाध का प्रसंग उठने पर ग्रहादि का विचार ( पचम पाद रऽ), बाध
केप्रसंगमेंदही सामविचार ( षष्ठ पाद ८०), इसी प्रसंग में विभिन्न सामान्य
प्ररनो पर विचार ( सप्तम पाद ७३ ) तथा अन्तमें बाध करने वाले ननथैका
विचार किया गया है ( अष्टम पाद ७० ) [स्मरणीय है कि परिमाण कीरष्टि
से दशमाध्याय सभी अध्यायोंसेवडारहै।|
` ग्यारहवे अध्याय में तन्त्र का उपोद्धात ( प्रथम पाद ७१), तन्त्र ओर
आवाप ( ह्ितीय पाद ६६), तन्त्रका विस्तार ( तृतीय पाद ५४) तथा
आवापके विस्तार ( चतुथं पाद ५६) पर विचार हुजआदहै। [ अनेक लक्ष्यो
क[ ध्यान रखते हुए एक ही साथ अनृष्टान करना तन्त्र है । एक ही काम करें
जौर बहुतों को लाभो जैसे बहुत लोगोंके बीच स्थापित दीपक । लेकिन
जो आवृत्ति ( दुहराने ) पर बहतो का उपकार करे वह आवापरटै जेसे बहुत
लोगों का भोजन जो पारी-पारीसे संभवहै। जब दूसरे के उदेश्य से दूसरी
वस्तुओं का भी एक ही साथ अनुष्ठान करं तो उसे प्रसंग कहते हैँ । |
बारहवें अध्याय मे प्रसंग ( एक मुख्य उदेश्य से क्रिया जाने परभी
दूसरे का प्रसंगतः उल्लेव ) का विचार ( प्रथम पाद ४६), तन्त्रियों ( साधारण
धर्मो से युक्त ) का निर्णय ( द्वितीय पाद ३७), समुच्चय ( तृतीय पाद ३८ )
तथा विकल्प ( चतुथं पाद ४७) का विचार किया गया दहै)
विह्लेष-आस्तिक दर्शनों की व्याख्यामे माधवाचार्य की एक प्रवृत्ति
देखने मे अती है कि उन्होने सूत्र-गरनथों की विषयवस्तु कीसूची दे दीदे।
जिन दर्शनों में (जेसे सांख्य ) वे एेसा नहीं. कर सके उनके सूतरग्रन्थ उनके
समक्ष उपलब्ध नहीं ये यायेतो प्रामाणिक नहीं थे । इससे पूरे रन्ध के विषयों
2 द =
8", , +~ म ~
क क += १," २7
जेमिनि-दशेनम् ५२१
का अवगाहन कराना उनका लक्ष्य था । इसके बाद उस दशन कौ मुख्य
समस्याओं पर भी वे विचार करते रहै ।
( २. प्रथम सूत्र तथा अधिकरण का निरूपण )
तत्राथातो धरमजिज्ञासा ८ जै° ख० १।१।१ ) इति प्रथम-
~ चै पूवमीमांसारम्भोपपादनपरम् धि क क । ।
मधिकरणं । अधिकरणं च पश्चा-
(ऋः
वयवामाचक्षते परीक्षकाः । ते च पश्चावयवा विषयसंशयपूवेपक्ष-
सिद्धन्तसंगतिरूषाः । ॑
उनमें अथातो धर्मजिज्ञासा" ( अब इसलिए धर्मं की जिज्ञासा आरम्भ होती
हे, जे० सू० १।१।१ )- यह प्रथम अधिकरण ( 70191 ) है जिसका उदेद्य
पूवं, मीमांसा के आरम्भ का उपपादन ( सिद्धि ) करना है । परीक्षक लोग कहते
है कि अधिकरण ते पाच अवयव (अंग) रहते) वे पौँचों अवयव है--विषय,
संशाय, पूवं पक्ष, सिद्धान्त ओर संगति ।
विद्नोष - वेदों में प्रतिपादित याग आदि को धमं कहते रै, उसकी जिज्ञासा
अर्थात् विचार करना चाहिए । चूंकि अध्ययन का फल है अथंज्ञान, इसलिए
गुरुकुल मे रहकर वेदाध्ययन करके धमं का विचार करना चाहिए यही
सूत्र का अथं हे ।
किसी भी शाख का अध्ययन कईं अधिकरणं में बंटा रहता है । इन अधिः
करणो की एक निद्ित विधा है जिसमे पाच अवयव रहते है । जिस पर
आधारित होकर कोई विचार प्रवृत्त टोता टै उसे विषय ( 9०९५४ ) कहते
ह । यहाँ पर शाख ही विषय है । विषय का उल्लेख करने के अनतर सराय
( 12०८७०४ } का स्थान है जिसमेदोयादो से अधिक पक्षो की संभावना पर्
विचार होता दै। ये दोनों पक्ष कहीं तो भावरूप ( ^ {18 ४९1€ ) होते है--
यह स्थाणु टै या पुरुष ? कहीं पर भाव जौर अभाव दोनों रूपों मे रहते ह--
यहाँ पुरुष है या नहीं ? वादी क द्वारा प्रतिपादित वस्तु को पूवेपक् ( ^°
3४७7 ) कहते हँ जिसमें प्रस्तुत वस्तु के विरोध मे तकं का उपन्यास होता है ।
निर्णय करना सिद्धान्त ( 1\९]215 ) दै । संगति { 1९९५०७१1 ००४ } मे
तीन है--लास्रसंगति, अध्यायसंगति तथा पादसंगति । कोई विचार किंस
जाज्ञ मे, किस अध्यायमें जोर किख पाद मे करना ठीक दै, यही संगति हे ।
उसी प्रकार पूर्वाधिकरण ओर उत्तराधिकरण म पारस्परिक अवान्तरसंगति भी
लीक की जाती दै । कुमारिलभदट के अनुयायी छोग संगति को अधिकरण के अंग
के रूप मं स्वीकार नहीं करते। वे लोग उत्तर को अधिकरण मानते है। वादियों
के मत का खंडन करनेवाला वाक्य ही उत्तर है । उसके वाद निर्णय का स्थान
५२२ सवेदशनसं्रहे-
है । चकि खंडन गलत उत्तर देकर भी हो सकता है अतः निर्णय को पृथक् रखा
गया दहै) भाद्रं का यह कहना टै--
विषयो विशयर्चेव पूर्वंपक्स्तथोत्तरम् ।
| निणंयश्चेति पञ्चाङ्कं शास्रेऽधिकरणं स्मृतम् ॥
विश्य का अर्थं संशय ( संदेह )। यद्यपि सभी दर्शनों मे अधिकरणों की सिद्धि
हो सकती है परन्तु दोनो मीमांसायं ( पूवं ओर उत्तर ) इस ष्टि से बहुत आगे
है । उनमें भी जेमिनि की पूवमीमांसा के अधिकरण ओौर भी प्रसिद्ध क्योकि
सूत्र भी अधिकरणों को टष्टिमे रखकरही च्वि गये ल्गतेरै। मीमांसा के
अधिकरणों का संकलन भी जेमिनीन्यायमाला आदि ग्रन्थों में हुआ दै ।
( ३. भाद्धमत से अधिकरण का निरूपण )
[से रेणाधिकरणं # [8
तत्राचायेमतानुसा निरूप्यते । शस्वाध्यायोऽ-
ध्येतव्यः' इत्येतद्वाक्यं बिषयः । “चोदनारक्षणोऽरथो धमंः' ( जं°
घु १।१।२ ) इति आरभ्य “अन्वाहाय च दशचेनात्' ( ज॑°
मर० १२।४।४७ ) इत्येतदन्तं अमिनीय धमेश्ाखमनारभ्यमारभ्यं
वेति संदेहः । अध्ययनविधेरदश्टाथेत्वटष्टाथेत्वाभ्याम् ।
अब उनमें आचायं (कुमारिलभदर) के मतसे अधिकरण का निरूपण
करे । “स्वाध्याय अर्थात् वेद का अध्ययन करना चाहिए" यह वाक्य ही
विषय है । प्रवृत्ति उत्पन्न करने वाठ वाक्यों से लक्षित वस्तु ही धमं है" ( जं°
सु° १।१।२ ) यहां से आरंभे करके इसे अन्वाहायं में देखने पर भी यही
सिद्ध होता है' ( जे० सू° १२।४।४७ ) यहाँ तक जो जैमिनि का चज्खा हुआ
ध्मंशास्र है, उसे आरभ करं यानहीं-यही सदेहदै। कारण यहटैकि
अध्ययन-विधि ( स्वाध्यायोऽ्येतव्यः ) को कुछ मतो से दृष्टार्थं ( साक्षात्प्रयोजन
की सिद्धि करने वाला) ओौर कुछ मतोंसे अदष्टा्थं ( अदृष्ट प्रयोजन जसे
स्वगंप्राप्ति आदि प्रयोजनों की सिद्धि करनेवाला ) मानते हँ । [ स्वाध्यायो
ध्येतव्यः' का दृष्ट प्रयोजन है अथंज्ञान । यद्यपि आचायेके वारा कयि गये
उच्चारणं के अनुसार उसी तरह की आनुपूर्वी रखते हुए शिष्य को भी उच्चारण
करना चाहिए । किन्नु अध्ययन-विधि का तात्प केवल यहीं तक नहीं है ।
अर्थज्ञान-रूपी साक्षात् प्रयोजन तक इसका तात्पयं है । अर्थज्ञान विचार के बिना
संभव ही नहीं अतः जैमिनि के द्वारा प्रोक्त ( 1५४ ) यह विचार-शाख्र
विधि पर कृपां करके शुरू करना टी चाहिए । अध्ययन-विधि को दृष्टाथं मानने
पर मीमांसा-गाख्र का आरंभ आवश्यक टै। दूसरी ओर, यदि अध्ययन-विधि
को अदृष्टाथं मानें, यह कँ कि स्वाध्याय का तात्पर्यं केवल स्वर्गादि की प्राप्ति
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( ५२३
पर्यन्त है अर्थज्ञान पर्यन्त नहीं, तो विचार करने की कोई आवश्यकता ही नहीं)
विचार-गाखर से विधि पर कोप्रभाव पडेगादही नहीं तौ मीमासासूत्र का
आरंभ दही क्यों करं ? इसीसे दो पक्ष टो जाते हँ ओौर संदेह उत्पन्न होता है । |
(२ क. पूर्वपक्च-शाखारंभ ठीक नदी )
तत्रानारभ्यमिति पूर्वः पक्षः । अध्ययनविधेरथवबोधरक्च-
णद्टफलकत्वानुपपत्तेः । अथावबोधाथेमध्ययनविधिरिति वदन्
ब्ादी प्रष्टव्यः - किमत्यन्तमग्रा्तमध्ययनं विधीयते कविं वा
पाक्षिकमवधातवन्नियम्यत इति !
तो, पूर्वपश्च यह हा कि मीमांसाशास्व का आरम्भी नहीं करना
चाहिए । अध्ययन-विधि से अर्थावबोध होता है, इस अष्ट फल की सिद्धि नहीं
होती । जो वादी एेसा कहते हँ कि अर्थावबोध के लिए अध्ययन-विधिदटै तो
उनसे पूना चाहिए-- क्या अध्ययन किसी भी दूसरे साधन से प्राप्त नहींथा
इसलिए विधान करते हँ ( क्या अध्ययन-विधि अपूरवं-विधि है ) या दूसरे साधन
से वैकल्पिक हो जाने के चलते, अवघात-विधि के समान, इसे नियम में बाधते
हँ ( क्या अध्ययन-विधि नियम है ? )
विोष - पूर्वंपक्षी प्रश्न करता है कि अध्ययन वारी विधि अपूव॑-विधि दै
या नियमविधि ? अपूवं-विधि उसे कहते है जिसमे किसी विधि (1) प्णट्मः)
कां श्रयोजन किसी भी अन्य प्रमाणसे प्राप्त नहो अतः उख प्रयोजन के लिए
विधि दी जाय । उदाहरण के लिए यजेत स्वगकामः'। याग से स्वगे-प्राप्ति
होगी, इस प्रयोजन की सिद्धि किसी प्रमाण से नहीं होगी, केवल इसी विधि से
इसका ज्ञान हो सकता टै अतः इसे अपूरव-विधि कहते टै । जहां पर अनेक साधनों
चे क्रियां की सिद्धिहो सके, एक साधन प्राप्त हो किन्तु दूसरे अप्राप्त-तो इन
अप्राप्त कारणों का बोध कराने वाली विधि नियमविधि {€8४१८५९७
†ए१०००४०१ ) कहलाती है । जैसे ब्रीहीनवहन्ति ( अवघात-विधि ) 1 इस
` विधिसे यह सूचित नहीं होता किं अवघात धान को तुषरहित करने के लिए
होता है क्योकि यह तो लोक में प्रसिद्ध ही दहै। किन्तु यहाँ पर नियम-विधि है
कि अप्राप्त अंश की पति कीजाती टै। तुषरहित करना नाना उपायोसेहो
सकता है--कोई धान को नाखुनो से छील सक्ता है, कोई चक्की मे दलं सकता
हे, कोई अवघात कर सकता है आदि । जब कोई व्यक्ति अवघात ( मुसल से
छँटना ) छोड़ कर किसी दूसरे उपाय का ग्रहण करना चाहता है तो अवघात
की अप्राप्तिहो जातीदहै। इस विधिकेद्धारा उसी अप्राप्त अवघात का नियमन
२ सबेदशेनसंम्रहे-
करते ह किं अन्य उपायोंसे नहीं, केवर अवघातके द्वाराही धान का तुष
चडायं । पाक्षिक रूप से अप्राप्त वस्तु की प्राप्ति करानेवाली विधि नियम-विधि
है । इसे कहा गया है-
विधिरत्यन्तमप्राप्ते नियमः पाक्षिके सति ।
तत्र चान्यत्र च प्राप्ते परिसंख्येति गीयते ॥
नियम विधिमें तोएक की अप्राप्ति ओर दूसरे की प्राप्ति रहने पर अप्राप्त
वस्तु की पूति की जाती है, परिसंख्या-विधि (ष्ट पष्ट 8[€} 8८६४०)
मेएकही साथदोकी प्राप्ति रहतीदहै ओर तब एक की निवृत्तिकरते ह
जेसे "पञ्च पञ्चनखा भक्ष्याः' । इसका अर्थं है पांच पंचनखों के अतिरिक्त ( शशकः
राज्ञको गोधा खड्गी कूर्मोऽथ पञ्चमः ) किसी दूसरे पंचनख जीव का भक्षण मना
है । इस प्रकार यह निवृत्ति परिसंख्या द्वारा ही होती है ।
न तावदाद्यः । विवादपदं बेदाध्ययनमथौवबोधहेतुरध्ययन-
त्वाद् ; भारताध्ययनवत्--इत्यनुमानेन विध्यनयेक्षतया प्राप्त-
त्वात् । अस्तु तिं द्वितीयो यथा नखबिदलनादिना तण्डुलनि-
प्यत्तिसंभवात् पाक्षिकोऽवधातोऽवर्यं कतव्य इति षिधिना निय-
म्यते, तथा रछिखितपाटेनाथज्ञानसंभवात्पाक्षिकमध्ययनं बिधिना
नियम्यत इति चेत् ।
[ पूवंपक्षी कहते हैँ कि | इनमें पहला विकल्प तो माना नहीं जा सकता
क्योकिं निम्नलिखित अनुमान से यह सिद्ध हो जायगा किं किसी विधि की अपेक्षा
न रखते हुए भी यह ( वेदाध्ययन ) [ उस अर्थावबोध के साधन के रूपमे]
प्राप्त होगा-
= श्रस्तुत वेदाध्ययन अर्थं बोध करे के लिए है
क्योकि यह एक अध्ययन है,
जेसे महाभारत का अध्ययन [ अर्थज्ञान के लिए होता है ]।'
[ अभिप्राय यह है कि यदि अपूवंविधि मानकर आप ( सिद्धान्ती ) खोग,
वेदाध्ययन अथज्ञान के लिए दहै, एसा सिद्धकरते हँ, तो विधि की कोई
आवश्यकता ही नहीं है । महाभारत के अध्ययन की तरह वेद का अध्ययन
भोग विना किसी विधि के अर्थान के किए ही कर रगे । |
जच्छा, दुसरा विकल्प लीजिए [ कि यह नियमविधि है| जैसे नखों के
दारा विदलन ( नाखूनसे धान के दानों की छीलना ) जादि (= अवघात ) से |
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॥
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५
ज्ञेमिनि-दशनम् ५२५
चावल की निष्पत्ति हो सकती है किन्तु पाक्षिकं रूप से (एक विेष उपाय )
अवघात का ही प्रयोग आवश्यक है, इस विधि के द्वारा नियमन
( ‰€8#11५0४ ) किया जाता दै । कि अन्य उपायों से तण्डूल-निष्पत्ति नहीं
की जाय | उसी प्रकार लिखित पाठ से भी अर्थके ज्ञान की सम्भावना होने से
वाक रूप से ( एक विशेष उपाय ) अध्ययन कोटी विधिकेद्रारा नियमित
क्रिया जाता दै | ताल्ययं यह दै कि गुर के उपदेश को छोडकर केवल
लिलित षाठसे ही अथंज्ञान के लिए को प्रवृत्त हो जाय तो अध्ययन अत्रात
हो जायगा जिका विधानं करना चादिए । इसलिए पाक्षिकरूप से जो
अध्ययन अप्राप्त है उसी के नियमन के लिए यह् विधि दै।|
नेतच्चतुरकषम् । दृान्तदाश्ीन्तिकयोवे धम्येसंमवात् । अव-
[कः च. स पिष्टप्रोडास्चादिकरणेऽ ् ^~ ¢
घातनिष्पन्नेरेव तण्डकः बान्तरापूद्ारा
दपूर्णमासौ परमापूवंशत्पादयतो नापरथा । अतोऽपू्व मवधः-
तस्य नियमहेतुः । प्रकृते लिखितपाढजन्येनाध्ययनजन्येन वाथो-
बघ्ोधेन करत्नुष्ठानसिद्ेरध्ययनस्य नियमदेतनीस्त्येव । तस्मा-
दथवयोधदेतुविचारशाखस्य वेधत्वं नास्तीति ।
[ पूर्वपक्षी कहते है कि ] आपका यह् कट्ना ठीक नहीं (चतुर = अच्छा) ।
कारण यह है कि दृष्टान्त ( \११७४१०९ ) तथा ` प्रस्तुत वस्तु ( दार््न्तिक ५16
०४९९४ 107 ]);0}) € 178६९०९९ 18 शत) ) में वेधम्यं की संभावना
है । केवल अवघातके द्वारा निष्पन्न चावलों के पीसे जाने पर जब पुरोडाश
( यज्ञ मे प्रयुक्त रोटी की तरह का पदां ) आदि निमित होते रै तभी अवान्तर
( सहायक ) अपूवं के दारा दलं (अमावस्याका याग ) ओर पूणंमासख याग
परम ( मुख्य ) अपूवं ( अर्थात् स्वर्गादि ) उत्पन्न कर सक्ते है, किसी अन्य `
चाधन से नहीं । [ दशंपूणंमाख आदि यागो से मुख्य अपूवं अथात् पृष्य की
उत्यत्ति होती है । स्वर्गादि मुख्य पुण्य ट । इनकी उत्पत्ति मे सहायक पण्य को
अवान्तर अपूवं कहते दै । अवघातादि से इनकी उत्पत्ति होती है। अदृष्ट वस्तु
की उत्पत्ति मे कायं-कारण भाव शाख से ही माढुम होता है। |
अतः अवघात के नियमन का कारण अपूर्वं ( पुष्य ) ही दे। [यदि अवचात
रूपी नियम से उत्पन्न होनेवाले अर की कल्पना नहीं होती या कल्पना करने
पर भी यदि वह मुख्य अपूर्वं की उत्पत्ति मे सहायकः नहीं बनता तो अवघात
विधि का शाख्रही व्यथंदहो जाता । घान को तुषरहित करने के लिए विधि की
आवश्यकता नहीं थी । लोग धान से चाव निकालना भली-भाति जानते दै ।
५२६ सबंदशंनसंम्रदे-
इसलिए अवधघातनियम का एकमात्र कारण यहीदहैकि दशपूणंमासयागसे
उत्पन्न होनेवाले मुख्य अपूवं की सिद्धि इससे होती है । |
प्रस्तुत विधि में, लिखित पाठसे भी अथंबोध हो सकता है ओर अध्ययन से
भी,-अतः अ्थंबोधके वबादजो क्रतु ( यज्ञ) का अनुष्ठान किया जायगा,
उसमे नियम-हेतु रहेगा ही नहीं । [ अवधघात-विधि ओर अध्ययन-विधिमें
समानता स्थापित नहींकी जा सक्रती। अवघात-विधि कम से कम अपूवंका
हेतु है परन्तु अध्ययन-विधि अपूवं का हेतुं नहीं । एेसा नहीं कहा जा सकता कि
<स्वाध्यायोऽध्येतव्यः' कौ विधि अथंज्ञान ( फल ) के उदेश्य से दी गई है, क्योकि
अध्ययन के विना भी केवल लिखित पाठ से अथज्ञान हो सकता है । जब अथंज्ञान
हो जायगा तब यज्ञादि कमंका अनुष्ठान करना संभव ही दै । जैसे अवघात-
नियम से उत्पन्न होनेवाले अवान्त रापूवं को अस्वीकार करने पर मुख्यापूवं की
उत्पत्ति नहीं होती अतः मुख्यापूवं ही अवान्तर अपूवं का हेतु है, वह बात
अध्ययन-विधि के साथ नहीं । अथंके ज्ञान के किए अध्ययन के नियम से उत्पन्न
अवान्तर अपूवं स्वीकार कर लेनेमेंकोईटहेतु दिखलाई नहीं पड़ता । | अतः
अध्ययन-विधि को नियमविधि नहीं मान सकते । |
तरिं श्रयमाणस्य विधेः का गतिरिति चेत्-- स्वगंफएलकोऽ-
्षरग्रहणमात्रविधिरिति भवान्परितुष्यतु । विश्वजिन्न्यायेनाश्रत-
स्यापि स्वगस्य कटपयितु शक्यत्वात् । यथा “स स्वगं सवो-
न्प्रत्यविशिष्टत्वात्' ( जं० घ् ४।३।१५ ) इति विश्वजिति
अश्रुतमप्यधिकारिणं संपादयता, तद्विशेषणं स्वगं; फलं युक्त्या
निरणायि तद्रदध्ययनेऽप्यस्तु । तदुक्तम्.
विनापि विधिना ~ €
१. विनापि विधिना दृष्टकाभान्न हि तदथेता ।
करप्यस्तु विधिसामथ्योत्स्वर्गो विश्वजिदादिवत् ॥
तब उक्त श्रौत ( वेदोक्त ) विधि की क्या गति होगी ? आप घवबरायं नही,
संतोष करें, [ अपूवं का उत्पादन करके | यह विधि स्वगंकाफलदेने वाली है
ओौर यह केवल अक्षर-ग्रहण करने के लिए ही विहित दै। [ यह अपूवेविधि है
क्योकि इस विधिके बिना मालूम नहींहो सकता किं अध्ययन स्वगं-प्राप्ति
करातादहै। यह् पृचछछ सकते हैँ कि अध्ययन-विधिमें स्वग-प्राप्तिक्हांदीहूरईदटै
कि आप इससे स्वगं-फल की उपरन्धि बोटे चे जा रहे हँ ? | यद्यपि अध्ययन-
विधि ( = स्वाध्यायोऽध्येतव्यः) में स्वगं-शब्द नहीं सुनाई पडता परन्तु
जेमिनि-दशेनम् ५२७
विश्वजित्-न्याय से उसकी कल्पना कौ ज सकती दं । जैसे जेमिनि ने अपने
सूत्र-“वह फल स्वगं हौ है क्योकि सोके लिए यह एक समान है (४।३।१५)*-
मे यह निश्चय किया है कि विश्व जित्-याग मे जिनका स्पष्ट उल्टेख नहीं किया
गया है वे रोग भी इसके अधिकारी हँ, पुनः युक्तिपूर्वक उन्होनि यह भी निणंय
क्रिया है किं विश्वजितु-याग का विषिष्टं फञ स्वगं ही है,--अध्ययन-विधि
मे भी यही बातक्योंन मान ली जाय ? [ सूत्र का अथंटै किं स्वगं चूंकि दुःख
से सर्वथा अस्पृष्ट ओर निरतिशय सुख का आगार है अत, विदवजितु-याग का
फल हम इसे ही मानले। स्मरणीयहै कि जिस प्रकार अध्ययन-विधि का
कोई फल श्रुति में नहीं दिया गया है, उसी प्रक।र विश्व जित्-विधि ( विश्वजिता
यजेत ) का भी कोई फल नहीं दिया गया है । जैमिनि सिद्ध करते है कि
विरवजित् का फल स्वगं टै क्योकि चारे सकाम व्यक्ति इसकी टी कामना करते
है । “ज्योतिष्टोमेन स्वर्गकामो यजेत' जेस स्पष्ट विधि दै वैसी "विश्वजिता यजेत'
नहीं क्योकि इसमे किसी कर्ता का उल्लेल ही नहीं कि अमुक कामना वाला
व्यक्ति इस ( विशवजितु-याग ) के दारा अपूव कौ भावना करे । तब इसका
अधिकारी कौन हो? इसीलिए कुछ फर की कल्पना करनी ही पडेगी ओर
उसी फल की कामना रखने वाला व्यक्तिइस यागका अधिकारी बनेगा ।
जब कल्पना ही पर चलनादहैतो एेखा फल क्यो न चुन जिसके किए सभी
उत्सुक हों । वह फर है स्वर्गं, जिसकी अभिलाषा स भी लोग करते है। यही
डे विश्वजित्-न्याय । इसी न्याय से अध्ययन-विधि कै फल की कल्पना की
जाय किं इसका फल भी स्वगे ही टै |
यहो कहा भी गया है--श्ुकि दृष्ट फर ( अथंज्ञान ) कौ प्राप्ति विधि
( स्वाध्यायोऽध्येतव्यः ) केबिना भी हो जतो है अतः यहं विधि उस ( ष्ट
फल ) के लिए नहींहै। विर्बजितु-न्याय से, विधि की साम्यं से स्वगं कौ
कल्पना करनी चाहिए ।' | अध्ययन-विधि मे इतनी सामथ्यं है कि उससे स्वगं
मिल सकता है अतः उसी फक के किए अध्ययन-विधि है, अ्थज्ञान-रूपी दष
कके लिए नहीं । सारांश यह किं अथज्ञान विधिसंमत नहीं दै, अतः अर्थज्ञान
मे उपयोगी यह मीमांसाशाखर भी विधिसंमत नहीं ही होगा । इसका
आरम्भ नहीं ही करना चाहिए । इसे आगे स्पष्ट कर के पूवपक्ष का उपसंहार
करगे । |
एवं च सति वेदमधीत्य खयादितिं स्मृतिरनुग्रहीता
भवति । अत्र हि वेदाध्ययनसमावतेनयोरव्यवधानमवगम्यते ।
तावके मते त्वधीतेऽपि वेदे धमेविचाराय गुरुके वस्तव्यम् ।
४२ सबेदशेनसंग्रहे-
तथा सत्यव्यवधानं बाध्येत} तस्मादिचारश्ाख्रस्य वेधत्वाभा-
ऋ कि क, ©
` वात्पाटमात्रेण स्वगसिद्धेः समावतेनश्चाखाच्च धमविचारश्ाखरम-
पूवेपक्षसंके क
नारम्भणीयमिति पः |
ेसा होने पर ( अध्ययन-विधि को अर्थज्ञान का बोधक न मानने पर ) ही,
वेद का अध्ययन करके स्नान ( गार्हस्थ्य का अधिकार प्राप्त कराने वाला
स्नान, जिसे समावतंन भी कहते हैँ ) करे इस स्मृति-वाक्य का पालन होता
है । इस विधि ( वेदमधीत्य स्नायात् ) से वेदाध्ययन तथा समावतंन के बीच
भे कोई व्यवधान नहीं रहे, एेसा मालुम पडता है । किन्तु यदि आपका मत
माने [ कि अध्ययन का तात्पयं अथंज्ञान भीदटै | तवतो वेदका अध्ययन
करनेके बाद भी धमं का विचार करनेके लिए गुख्कुलमें ही रहना आवश्यक
टो जायगा तथा [ वेदाध्ययन ओौर समावतंन के बीच मे | व्यवधान नहीं पडे,
इसका उल्छ्वंन करना पड़ेगा । विचारशाख्र ( मीमांसा-गाखर ) विधिसंमत
नहीं है क्योकि पाठ करनेसे ही स्वगं की प्राप्ति होती है ( अथंज्ञान से नहीं );
इसके अतिरिक्त “समावतंन-शास्र' ( वेदमधीत्य स्नायात् ) के पालन के लिए
भी धर्मविचार-शास्र का आरभ नहीं करना चाहिए । यही पूवंपक्ष का
सारांश दै।
(४. सिद्धान्तपश्च-शास्ारंभ करना सर्वथा उचित दै )
सिद्धान्तस्त्वन्यतः प्राप्तत्वादप्ा्बिधित्व मास्तु । नियम-
विधिः बजहस्तेनापि नापहस्तयितुं पायते
त्वपक्षस्तु षज! नापहस्तयितुं पायते । तथ।( हि-
6 ध्यायोऽ ध्येतव्य ) ( ते © © इति तन्प्रत्ययः
स्वध्या ;' ( ते आ० २।१५ ) इ ४
4 पुरुषप्रवृत्तिरूपाथेभावनामाव्यामभिधाभावनां च
्रेरणापरपयायां |
^~ € ^~
प्रत्याययति । सा द्यथेभावना भाव्यमाकाडश्चति ।
अब सिद्धान्त ( (0प्लंप७००, दिलुणष् ) का निरूपण करते टै-
हम स्वीकार करते कि दूसरे स्थानोंमें भी प्राप्त होने के कारण यह्
( स्वाध्यायोश््येतव्यः } अप्राप्त विधि अथात् अपूर्व विधि नहीं है 1 [ अपूवं-विधि
ओर कहीं से प्रमाणित नहीं होती है । अथंज्ञान लिखित पाठ से भो संभव है
अतः अन्यत्र भी प्राप्ति होती है। ] किन्तु इसे नियमविधि माननेका पक्षतो
वज्रहस्त ( इन्द्र) केद्वारा भी मिटाया नहीं जा सकता । दे विये--^स्वाध्यायो-
अध्येतव्यः मे विद्यमान तव्य-प्त्यय उस अभिधा ( शाब्दी ) भावना की प्रतीति
रि ह € । । ~=
कराता दै जिसका दूसरा नाम प्रेरणा" भी टै तथा जो पृरुष-प्रवृत्ति के रूप में
रहने वाली आर्थो भावनाके द्वारा सध्यदटहै। वह आर्थी भावना किसी भाव्य ॥ |
( साध्य, उदेश्य ) की अपेक्षा रखती है । [ किसी व्यापार को भावनां कहते है | ॥ | |
जैसे किसी को प्रेरणा देना या मनुष्यों मे प्रवृत्ति उत्यन्न करना । आख्यात ।
(क्रिया) ओर लिङ् दोनों अंशोंके द्वारा भावना का अभिधान होता है जेसे-- |
।
| ॥
जेमिनि-दर्शनम् ५२६ |||
|
|
यजेत" मे लिङ् है, “जहोति" मेँ आख्यात है । इस प्रकार तिङ प्रत्यय के द्वारा ।
ही भावना अभिहितहोतीदटै। भावनाके दो भेदरहै-आर्थी ओर शाब्दी ।
शब्द की ओरसे (जसे तव्य-प्रत्ययकीओरसे) जो प्रेरणात्मक व्यापार
उत्पन्न हो उसे शाब्दी भावना कहते ह । प्रस्तुत स्थल में यह् तव्य-प्रत्यय के
दवारा अभिहित होती है । स्वाध्यायोऽध्येतव्यः' मेँ तव्य प्रत्ययात्मकं शब्द सुनने | ।
के अनंतर यह प्रतीति होती है कि यह शब्द मुञ्चे अध्ययन-कमं में प्रेरित कर ॥
रहा दै। जिस शब्द से जिस अथं कौ प्रतीति नियमपूवंक होती टै वह अर्थं उस #
शब्द का वाच्यदटै। एेसे्रममेंन पडंकिसंसार कौ अन्य प्रेरणाओं की तरह
यह प्रेरणा भी परुष पर निर्भर करती टै । वेद अनादि ह, उसके कर्ता कोई पुरुष | |
नहीं है । अतः अभिधा-भावना (या शाब्दी भावना) का आधार तव्य प्रत्यय |
हीह । वही तव्य प्रत्यय शाब्दी भावना का वाचक दहें। ।
अभिधा-भावना के द्वारा अध्ययन कौ ओर पुरुषों की प्रवृत्ति सिद्ध होती है । ॥
यह प्रवृत्ति ही आर्थी भावना कहलाती है क्योकि प्रवृत्ति पुरुष आदि अर्थो |
( विषयों ) पर निभैरकरतीदै। आर्थो भावना का वाचकं तव्य प्रत्यय ही
है क्योकि अध्ययन मात्रका बोध धातुसेहीहोतादहै। यह् आर्थी भावना अपने
भाव्य की आकांक्षा करती है कि इसके द्वारा कोन-सी भावना करं (कि |
भावयेत् ) ? उसका साध्य अध्ययन है किन्तु वह आर्थी भावनाके द्वारा भावित ` @।|
नहीं हो सकता । इसे ही स्पष्ट करते हैँ 1 | ॥ ।
न तावत्समानपदोपात्तमध्ययनं भाव्यत्वेन परिरमते । ॥
अध्ययनकब्दाथेस्य स्वाधीनोचारणक्षमत्वस्य वाड्मनसव्यापा- |
रस्य क्लेशचा्थकस्य भाव्यत्वासंभवात् । नापि समानवाक्योपात्तः | |
स्वाध्यायः । स्वाध्यायशचब्दाथेस्य वणेरारोनि.यतवेन बियुत्वेन
चोत्पच्यादीनां चतुणां क्रियाफएलानामसंमवात् ।
|
चकि अध्ययन का उपादान उस एक ही पद ( अध्येतव्यः) में हुआ है (1
[ जिसमें आर्थी भावना के तव्य प्रत्यय काभी स्थान टै] अतः इस आधार | |
पर यह नहीं हो सकता कि आर्थी भावना का भाव्य ( साध्यं) अध्ययनदही ||
( ।
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५३० सर्बदशनसंग्रहे-
है। कारण यह है किं अध्ययन राब्द का अथं है प्रत्येक वणं का स्पष्ट
( स्वाधीन ) उच्चारण में समर्थं होना; इसमे वाणी ओर मनका व्यापार
होता है तथा बड़ा क्टेश भी होता है अतः यहं ( अध्ययन ) भाव्यनहीं दहो
सकता । [ पुरुष की प्रवृत्ति का भाव्य वही हो सकता टै जो सुखकर हो । सुखद
वस्तुकीओरही प्रवृत्ति हो सकती है 1 अतः कष्टप्रद अध्ययन की भावना तो
की ही नहीं जा सकती |
उसी वाक्य मे आनेवाला स्वाध्याय भी भाव्य नहीं हो सकता क्योकि
स्वाध्याय" शब्द का अथं है व्णंराशि ( वेद }, जो नित्य ( ^९179 ] ) तथा
विश्रु ( ‰11-<€१01£ ) दै, उस परं उत्पत्ति आदि चार क्रियाफले
(कर्मो) मे से कोई भी आरोपित नहीं किया जा सकता । | उसी दाब्द्
"अध्येत व्यः' मे स्थित अध्ययन जब भाव्य नहीं बन सका तब उसी वाक्य ५
स्थित स्वाध्याय" शाब्द को भाव्य वनाने के सपने आने लगे । किन्तु फिर मुंह
की खानी पड़ी । स्वाध्याय ( वेदराशि ) साध्य नहीं हो सकता । क्रियाके चार
फल है--उत्पत्ति, प्राप्ति, विकार ओर संस्कार । कुम्भकार कीक्रियासे घट की
उत्पत्ति होती है । गमन-क्रिया से देशान्तर की प्राति होती है। पाकक्रिया से
तण्ूल मे विकार होता टै । वैज्ञानिक क्रियाओं से पेटोलियम के दोषो को दूर
करके संस्कार होता है । प्रस्तुत प्रसंग में अध्ययन मे प्रवृत्ति होने से वेदराहि
करी उत्पत्ति तो होती नहीं क्योकि वह नित्य है 1 उसकी प्राप्ति भी नहीं होगी
क्योकि वह सर्वत्रहै। प्राप्ति उसी की होती है जो अप्राप्त है, किन्तु वेद तो
विभरुद, कहां नींद? इसका विकार भी नही होता क्योकि रेखा मानना
अनित्यत्वं को निमन्त्रण दे देना है । अध्ययन-प्रवृत्ति के द्वारा वेद का संस्कारभी
नहीं होता । संस्कार का अर्थंटै किसी द्सरे कार्यं की योग्यता प्राप्त करना ।
नित्य स्फोटल्प शब्द-ब्रह्म मे कोई अपूवं गण नहीं दिया जा सकता । फत्;
'स्वाध्यायः' भी भाव्य नहीं हो सकता । तब भाव्य होगा कौन ? बिना भाव्य कें
अध्ययन-वियि निरर्थक होने जा रही दै । इसीकिषएु अर्थबोध को भाव्य मानगे । |
(४ क. अध्ययन-वियि का लक्ष्य अर्थबोधघ दी दहै)
तस्मात्सामर्थयप्राप्तोऽवबोधो भाव्यत्वेनावतिषठते । अथीं
समर्थो विद्वानधिक्रियत इति न्यायेन दश्पूणेमासादिविधयः
स्वविषयावयोधमपेश्षमाणाः स्वा्बोधे स्वाध्यायं विनियुञ्जते ।
अध्ययनविधिरच लिखितपाटादिव्यादृच्याऽध्ययनसंस्छृतत्व
स्वाध्यायस्यावगमयति ।
- ५३१
इसलिए [ अध्ययन-विधि की | सामथ्यं से प्राप्त अर्थावबोध ही भाव्य
के रूपमे अवस्थित हो सकता है । [ अथं यह निकला क्रं अध्ययन से अथबोध
का संपादन करं । स्वर्गादि फल, विरवजित्-न्याय से अनुगृहीत होने पर भी
अष्ट होने के कारण मान्य नहींहैँं। दृष्ट फल विद्यमान रहने पर भी अदृष्
फल की कल्पना करना अनुचित है । यह अपूवे-विधि नहीं है क्योकि इसका
दृष्टफल ( अर्थाव बोध ) लोकसिद्ध है । अध्ययन के बाद अथज्ञान का संपादन
करना चाहिए--इस नियममें दृष्टफल न रहने से विवश होकर अवान्तर-
अपूवं ( अदृष्ट ) कौ कल्पना की जाती है। इस कल्पनाका कारण है सभी
यज्ञो से उत्पन्न होने वाला अपूवं । अथंज्ञान के बिना यज्ञ करना असंभवदहै
इसलिए अथंज्ञान के किए यह श्रुति अध्ययन-नियम निर्धारित करती टै। |
यह एकं नियम है कि धनवान्, समथं तथा विद्वान् पुरुष यज्ञ॒ करने के
अधिकारी है ( देखिये, मीमांसा-सूत्र, ६।१ )। इसलिए दशं, पूणंमास आदि
विधियां अपने-अपने विषय के ज्ञान की अपेक्षा | याजकोंसे | करती ओरवे
अपने अर्थावबोध के लिए स्वाध्याय का विनियोगभी करतीरहै। दूसरी ओर
अध्ययन-विधि भी चिखित-पाठ आदि [ अर्थावबोध के दूसरे साधनो] को
हटाकर यह बतकातीदहैकि स्वाध्याय का संस्कार ( अथंज्ञानरूपी फक का
संपादन ) भी अध्ययनसेही होता है। [ यहाँ संस्कार-शब्दसे गुणाधान या
दोषनिवतंन न समञ्नं । स्वाध्याय से अथंरूपी फल प्राप्त होता है किन्तु अध्ययन
करने पर ही। स्वाध्याय पर इसका कोई असर नहीं पडता, व्यक्ति दही
प्रभावित होता है । |
तथ च यथा दद्ेपूणंमासादिजन्यं परमापूवमवधातादिज-
न्यस्यावान्तरापू्॑स्य कटपकं तथा समस्तक्रतुजन्यमपूबेजातं
क्रतज्ञानसाधनाध्ययननियमजन्यमपूं कर्पयिष्यति । नियमा-
दृष्टानिष्टौो बिधिश्रवणवेफल्यमापद्येत । न॒ च विश्वजिन्न्यायेन
फलकस्पनावकरप्यते । अथोवबोधे दृष्टे फले सति फलान्तरक-
ल्पनाया अयोगात् । तदुक्तम्-
२. कभ्यमाने फले दष्टे नादृष्टफएलकस्पना ।
विधेस्तु © हि~ ¢ ^~
बेधेस्तु नियम थेत्वान्नानथेक्य भविष्यति ॥ इति ।
जिस प्रकार दर्ल-पूणंमास आदि यागो से उत्पन्न होने वाला परम अपुर,
अवघात आदि अवान्तर कर्मो से उत्पन्न होने वाले अवान्तर अपूर्वं की कल्पना
क
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४३२ सर्वदशनसंग्रदे-
कराता है उसी प्रकार समस्त ्रतुओं से उत्पन्न होने वाला अपू्व-खमूह
(पुण्यराशि ), क्रतुजो के ज्ञान के याधन-स्वरूप अध्ययन-नियम से उत्पन्न होने
वालि अपूव की कल्पना करेगा । यदि नियम ( अध्ययन-नियम ) मे अष्ट
( अपूरवं ) आप नहीं मानना चाहते है तो विधियो का श्रवण ( श्रुति ) भी
व्यथं हो जायगा [ क्योकि विधि ओर नियम एकप्रकारकी ही चीजे है |
कं मे अद न मानें ओर दूसरे मे माने तो यह ठीक नहीं होगा 1 ] विश्व
जित्-न्याय से फल की कल्पना नहीं करनी चाहिए क्योकि अर्थाव बोधरूपी दृष्ट
कके होति हए किसी दूखरे फल ( = अष्ट ) की कल्पना करना उचित
नहीं है। यही कहा गया है--ष्ट ( 1217660 ) फक के प्राप्य होने पर अदृष्ट
( 10411९60 ) फल की कल्पना नहीं हो सकती । अध्ययन-विधि नियमके
लिएटहै [ किं अरथज्ञान के दूखरे उपाय कान रेन लाये], अतः यह विधि
निरर्थक नहीं हो सकती ।'
(४ ख. मीमांसा के विषय त्र अन्य शंका ओर उत्तर }
ननु ल भोधाजुदयेऽपि साङ्गवेदाध्या-
यिनः पुरुषस्याथववोधसंमवाटि चारशास्य वैफल्यमिति चेत्-
तदसमञ्जसम् । बोधमात्रसभवेऽपि निर्णयस्य षिचाराधीन-
त्वात् । तद्यथा--“अक्ताः शर्करा उपदधाति' ( त° ब्रा°
घृतेन तेलादिना क @ ¢ =
३।१२।५ ) इत्यत्र घृतेनैव न तेलादिना इत्यय नणया तवाक
रणेन निगमेन निसक्तेन वा न ऊभ्यते । विचारशाखरेण तु
तेजं घृतमिति वाक्यज्ञेपवश्चादथेनिणयो ¢
] घृतमिति वाक्यशेषवचादथनिणेयो भ्यते ।
अब यह शंका हो सकती ट कि केवल वेद का अध्ययन करने वलि व्यक्ति
कोभलेही अर्थकाज्ञाननहो सके किन्तु जो व्यक्ति अंगों ( शिक्षा, कल्प, छंद,
निरुक्त, ज्योतिष ओर व्याकरण ) के साथ वेदका अध्ययन करेगे उन्हे तो
अर्थ-बोध हो सकेगा । अतः विचारशालर ( मीमांसा ) व्यथं है । | उत्तर यह
है किं यह कहना बिल्कुल । असंगत है। बोधतो हो जायगा किन्तु जहां
तक निर्णय का प्रदनटै वह विचारशालर के ही अधीन रहेगा जैसे--
भसिक्त चकंरा ( कंकडों ) का उपधान ( स्थापन ) करता है (तें° त्रा°
३।१२।५ ) यहौ पर "घी से सिक्त, तेल आदि से नही' इसका निणंय व्याकरण,
निगम ( वैदिक वाक्य का निकक्तमे उद्धरण, जिसमे शब्द की व्युत्पत्ति दी गई
है) या निरुक्त से नहीं करिया जा सकता । विचार-शास्न कौ सहायता लेने पर
- ५३३
उस वाक्यके अवशिष्ट अंश-श्वीही तेज है इसके द्वारा अर्थका निर्णय
हो जातादहै। [किसी भी स्थिति मे मीमांसा-शाख की अवहेलना नही की
जा सकती । |
( ५. सिद्धान्तपक्च का उपसंहार ओर संगति का निरूपण )
तस्माद्िचारश्ाञ्चस्य वैधत्वं सिद्धम् । ते च वेदमधीत्य
स्नायादिति चां गुरकुलनिदृत्तिपरं व्यवधानप्रतिबन्धकं बाध्ये
तेति मन्तव्यम् । स्नात्वा ङ्त इतिवत् पूवोपरीमावसमान-
कत कत्वमात्रप्रतिपर नैरन्तया
तवमात्र्रतिपरया अध्ययनसमावर्तनयोनरन्तया प्रतिपतेः ।
तस्माद्रिधिसामथ्यादिवाधिकरणसहस्ात्मकं पूवं मीमांसाशाखरमा-
रम्भणीयम् ।
इदं चाधिकरणं शाखेणोपोद्ातत्वेन संबध्यते । तदाह `
चिन्तां प्रकृतिसिदधयरथापुपोद्धातं प्रचक्षते । इति ।
इस प्रकार यह सिद्धहो गया कि विचार-शाखर विधि-संमत दहै! एेसा
नहीं सोचना चाहिए कि वेदमधीत्य स्नायात्" ( वेदाध्ययन करके समावतेन
संस्कार वाला स्नान करे )--यह स्मृति गख से दिष्य को हटने का उपदेश
देती है तथा तनिक भी व्यवधान को रोकती है, अतः [ विचारशाख्र का
अध्ययन करने से ] उक्त स्मृति का उल्लंघन होगा । [ वास्तव मे उक्त स्मृति से
मीमांसाशाख्र का कोई वि रोध नहीं है । ] जिस प्रकार (स्नात्वा भूडक्त' ( नहाकर
खाता दै) इस वाक्यसे केवल इतना ही मालूम होता है कि दोनों क्रियाओं
म पूर्वापर का संबंध है जौर दोनों के कर्ता एक टी है ( यह नहीं ज्ञात होता
किं दोनों के बीच कोई व्यवधान नहीं टै-नहाकर कोई पूजा-पाठ भी कर
सकता है ) उसी . प्रकार अध्ययन ओर खमावततंन लगातार ( जल्दी से विना
व्यवधान के ) हो जा्ंगे, यह प्रतीति नहीं होती । [ जिस वाक्य से जितना अर्थं
लगे वहीं तक दौड़ लगानी चाहिए । पाणिनि अपने समानकतृंकयोः पूर्वकाले,
( ३।४।२१ ) सूत्रम क्त्वा का विधान करते हृए यह नहीं कहते कि दोनों
क्रियाओं के बीचक्त्वाके कारण व्यवधान रहेणा ही नहीं । ] इसलिए विधि
करी सामथ्यं रहनेके कारणही एकं हजार ( वस्तुतः ९१५ ) अधिकरणों के
बने हुए पूवंमीमांसा-गाख्र का आरभे करना चाहिए ।
संगति-- यह अधिकरण उपोद्धात ( भूमिका, सहायक )केरूप मे शास्त्र
से संबद्ध है। यही कहा गया है-- प्रकृत विषय की िद्धिके लिए जो विचार
५३४ ट
क्रिया जाय उसे उपोद्धात कहते है 1" [ इस प्रकार कुमारिल भटर के मतसे
अधिकरण पर विचार हुआ । |
( ६. प्रभाकर के मत से उक्त अधिकरण का निरूपण )
इदमेवाधिकरणं गुरुमतमयुसुत्योषन्यस्यते । अष्टवप ब्राहणः
मुपनयीत, तमध्यापयीतेत्यत्राध्यापनं नियोगविषयः प्रतिभ
सते । नियोगश्च नियोज्यमपश्षते । कथात्र नियोज्य इति चेत्-
आचार्यककाम एव । “संमानन--' ( पा० घ १।२।२६ )
इत्यादिना पाणिन्यनुद्चासनेनाचायके गम्यमाने नयतेधोतोरा-
त्मनेपदस्य विधानात् । उपनयने यो नियोज्यः स॒एवाध्याप-
नेऽपि । तयोरेकप्रयोजनत्वात् ।
अब इसी अधिकरण का निरूपण गुरु ( प्रभाकर }-मत से क्या जाता
है। “आठ वषंके ब्राह्मण के बालक का उपनयन करदे तथा उसे पडाये'
( आदव° गृ° सु° १।१९।१ }- इस प्रकार अध्यापन ही नियोग ( विधि) का
विषय प्रतीत होता है। नियोग ( विधि ) नियोज्य ( विधि के पात्र) कीं
अवेक्षा रता है, तो कौन नियोज्य होगा ? [ विधि किस के किष टै ?।
[ उत्तर होगा कि | जो व्यक्ति आचार्य के क्मकी कामना करता टै उसके
लिए ही विधिदै। पाणिनिके सूत्र “सं माननोत्सन्जनाचायंकरणज्ञानभृतिविगण-
नव्ययेषु नियः ( १।३।३६ )' के द्वारा आचार्यं के कमं (करण ) का अथं प्रतीत
होने पर नी-धातु से आत्मनेपद होने का विधान किया गया है। [ उपपूवंक नी
धातु का अर्थंटहै विधिपूवंक अपने पास पटंचाना । ईस प्राण क्रियाकै दारा
माणवक ( शिष्य ) मे संस्कार उत्पन्न किया .जाता है। यह फल चकि आचायं
को (कर्ता होने के नाते ) नहीं मिलता, संस्कार-रूपी फक माणवक कोटी
मिलता है अत; 'स्वरितवितः कतरंभिप्राये क्रियाफले" ( पा० सू १।२।७९ ) से
आत्मनेपद नहीं होता । यही कारण टै किएक दूखरे सूत्र के द्वारा आचायंकरण
अर्थं में नी-धातु को आत्मनेपद सिद्ध किया गया है । आचायंक = आचायं का
कमं । वुन् प्रत्यय ( पा० सू° ५।१।१३२ १११
उपनयन मे जो व्यक्ति नियोज्य है ( आचार्यं ) वही व्यक्ति अध्यापन मे
भी नियोज्य बनता है क्योकि दोनों क्रियाओं का लक्ष्य ( प्रयोजन ) एकहीदै
( = आचायंत्व की प्राप्ति ) ।
६ ५३५
विज्ञेष-यहां प्रभाकर-गुख के विषय मे एक किवदन्ती टै कि ये गर केसे
हृए । इनके गुर एक बार एकं कद्ठिका के फेरे मे ये--'अत्र तु नोक्तम् ।
तत्रापि नोक्तम् ! अतः पौनरुक्त्यम् 1 जव दोनों जगह नहीं ही कहा गया है
तब पुनरुक्ति कैसे हुई ? प्रभाकर के गख संशयम ये) प्रभाकर को स्फुरण
हुआ कि पुस्तक मे पदच्छेद की गडबडीदहै। होना यह् चाहिए-अत्र तुना
उक्तम् ( यहाँ ^तु" शब्द के द्वारा कहागयादहै)। तत्र अपिना उक्तम् ( वहाँ
'अपि' शब्दके हारा कहा गया ह )--दोनों जगहों पर कटे जाने के कारण
पुनरुक्ति है । गुद जी इनकी इस प्रतिभा पर इतने प्रसन्न हुए कि उन्हे ही गुर
कह्ने लगे ।
मीमांसा-दर्शन का संक्षिप्त इतिहास देना यहाँ असंगत नहीं होगा । वेदों के
मकाण्ड-वक्ष पर विचार करने के उदेश्य से मीमांसासूत्र को रचना जेमिनि
ने की (३०० वि°प्०)1 सभी दरौन-सूत्रो की अपेक्षा यह ग्रन्थ बड़ा है ।
प्रायः २६५० सूत्र जो बारह अध्यायो मे विभक्त टहै। इस पर उपवषं ओर
बोधायन ने वृत्तियां लिखी थीं किन्तुवे उद्धरणों मे ही उपलब्ध है । द्ावरस्वामी
(१०० ई० पू०) ने मीमांसासूत्र पर अपना विस्तृत भाष्य लिखा जो शबरभाष्यके
नाम सेप्रसिद्धदै। सूत्रों को समञ्चन के लिए यह एकमात्र प्रामाणिक ग्रन्थ रै)
शवरभाष्य पर विभिन्न टीकायें हुई जिनसे मोमांखा के तीन संप्रदाय हो गये--
भाट, गुर ओर मुरारि ।
भाट-मतके प्रवतंक कुमारिल ( ५५० ६० ) शंकराचार्य के समकाल्कि थे ।
इ होने शबरभाष्य पर तीन वृत्तिग्रन्थ लिवे-( १ ) प्रथम अध्याय के प्रथम (तकं)
वाद पर विशाल श्लोकवार्तिक, जो कारिकाओ मने उक्त पाद की व्याख्या टै)
( २) प्रथम अध्याय के दूरे पाद से ठेकर तीसरे अध्याय तक ग मे तन्त्र
वातिक तथा (३ ) अविष्ट अध्यायो कौ संषप्त टिप्पणी दुपटीक्राके नाम
ते की) दोनों वातिकों मे बौद्धो का पूणं समीक्षण किया गया दहै। कुमारिलके
प्रधान चिव्य मण्डन मिश्र ये जो शंकराचायं से परास्त होकर सुरेदव राचायं
बन गयेये (८०० ई० }। इन्दोने तंत्रवातिक की व्याख्या, विधिविवेक,
आवनाविवेक, विश्रमविवेक ( पाँच ख्यातियो की व्याख्या ) तथा मीमांसासूत्र
नुक्रमणी लिखी । वाचस्पति मिश्च ने ( ८५० ) विधिविवेक पर (न्यायकणिका'
व्याख्या की । कुमारिल के दूसरे शिष्य उभ्बेकः ( जो भवभूति हौ समश्चे जति
ह) ने भावनाविवेक कौ टीका तथा इलोकवातिक की प्रथम टीका ' तात्प्यंटीका
तामसे की । अपूर्णं होने के कारण इसकी ९ ति जयमिश्रनेकी थी)
पार्थसारथि मिश्च ( ११०० ई० ) ने भेषटरुमत कौ पृष्ट के लि तकररत्न
( टूपटीका की व्याख्या ), न्याय-रत्नाकर ( हलोक वातिक की टीका ), न्यायरत्न-
५३६ सवेदशनसंग्रहे-
माला (मीमांसा के सात विषयों पर स्वतंत्र निबन्ध) तथा शास्त्रदीपिका ये
ग्रन्थ लिखे । प्रस्तुत ग्रन्थ के ठेलक माधवाचायं ने श्लोको मेँ जैमिनीयन्यायमाला
तथा उसकी टीका “विस्तर के नाम से लिखी। खण्डदेव मिश्च (१६५० ई०)
ने भाट्रकौस्तुभ, भाट्रदीपिका ओर भादर रहस्य लिखकर नव्य मीमांसा का प्रतंन
किया । मीमांसान्यायप्रकाश के रचयिता आषदेव इसी समय हुए ये । इनके
अतिरिक्त लोगाक्षिभास्कर ( १६४० ई० ) का अर्थसंग्रह तथा कृष्णयज्वा की
मीमांसापरिभाषा--ये भी प्रचलित ग्रन्थ रहै ।
गुरुमत का प्रवर्तन प्रभाकर ने ( ७७५ ई० ) शाबरभाष्य पर बृहती-टीका
लिखकर किया । आचाय शालिकनाथ ने इसपर ऋजूविमलका टीका लिखी। भवदेव
( नाथ ) ने ्ालिकनाथ ( ७९० ई० ) के मतके स्पष्टीकरण के लिए नयविवेक
नामक ग्रन्थ की रचना की जिसमे अधिकरणों की व्याख्या टै (९०० ई० )। इस
ग्रन्थ की चार टीकाये उपलब्धं है--रन्तिदिव का विवेकतत्त्व, वरदराज की
नयविवेकदीपिका, शंकरमिश्च की पंचिका तथा दामोदर का नयविवेकाकंकार ।
रामानुजाचार्य ( ११५० ई० ) का तंत्ररहस्य बहुत खर तथा स्पष्ट पुस्तक टै
जो गुरुमत का प्रवेशक है । अपने उदारवादी दृष्टिकोण के कारण नाद्रमत के
सामने गुरुमत नहीं ठहर सका ।
मुरारि-मत के प्रवर्तक मुरारि मिश्र कानाम गंगेश तथा वर्धमान ने अपने
अरन्ों मे लिया है परन्तु ये अत्यन्त अ्पज्ञात आचायं द । दो पुस्तकं-- त्रिपादी-
नीतिनयन तथा एकादलाध्यायाधिकरण--इनके नामसे मिलीर्है। संभवतः
इनका समय १२ वीं शतान्दीमेंहो। इनके नाम पर लोकोक्ति भो चल पडो
है-- मु रारेस्तृतीयः पन्थाः ।
अत एवोक्तं मनुना मुनिना--
३. उपनीय तु यः शिष्यं वेदमध्यापयेद् दिजः ।
साङ्गं च सरहस्यं च तमाचायं प्रचक्षते ॥
( मनु° २।१४० ) इति ।
मः ॥ णवककतेङेनाध्ययनेन [०
ततश्चाचाय्यंकतेकमध्यापन माणवककत विना
न सिध्यतीत्यध्यापनविधिप्रयुक्त्यैवाध्ययनानुष्टानं सेत्स्यति ।
्रयोज्यव्यापारमन्तरेण प्रयोजकल्यापारस्यानिवाहात् ।
इसलिए महर्षि मनु ने कहा है-- जो द्विज ( ब्राह्मण ) हिष्य का उपनयन
करके उसे वेदांगों ओर रहस्य ( उपनिषद् ) के साथ वेद ॒पडाता है उसे ही `
जेमिनि-दशनम् ५३७
आचार्यं कहते है ।' ( मनुस्मृति २।१४० ) । | उपनयन के बाद अध्यापन करने
से आचायं मे कुछ अतिदाय की उत्पत्ति होती है । यही अतिशय अध्यापक को
आचाय बनाता है। यद्यपि उपनिषदं वेद के अन्तगंत ही है तथापि प्रधानता
दिश्वलाने के किए उनका निदेश पृथक् किया गयादहै। मेधातिथि का कहना
` है कि उपनिषदं वेदान्त केनामसे प्रसिद्धै । कितने लोग वेदान्त का अर्थं
वेद के पास होना' करज्ते है अतः उनके वेदन होने की भ्रान्ति हो जाती
है । यही कारण है कि रहस्य शब्द का भी ग्रहण किया गया है । |
तो, आचाय का अध्यापन तब तक सिद्ध नहीं होता जब तक कोई शिष्य
अध्ययन न करे । इसलिए अध्यापन-विधि ( वेदमध्यापयीत ) के प्रयोगसे ही
अध्ययन के अनुष्टान की सिद्धि हो जायगी । | अध्ययन के लिए विधि दहोौया
नहीं हो, अध्यापन के लिएतोहै। जब तक अध्ययन करने वाला कोई नहींहो
आचार्यं अध्यापन क्या करगे ? अध्यापन की विधि दही अध्ययन की सिद्धि कर
देगी क्योकि | प्रयोज्य ( = शिष्य ) के व्यापार के बिना प्रयोजक का व्यापार नहीं
चल सकता । [ अध्यापन-योग्य शिष्य के रहने पर ही अध्यापक की क्रिया चल
सकती टै । | |
तहिं “अध्येतव्यः” (तै आ० २।१५) इत्यस्य विधित्वं न
सिध्यतीति चेत्-मा सैत्सीत्का नो हानिः १ एथगध्ययनविषेरभ्यु-
पगमे प्रयोजनाभावात् । विधिवाक्यस्य नित्यानु बादत्वेनप्युप-
पत्त; । तस्मादध्ययनविधि्ुपजीव्य पूरुपन्यस्तौ पूर्वोत्तरपकषो
प्रकारान्तरेण प्रदशेनीयो ।
त्रिचारदाद्म्वधत्वेनानारब्धव्यमिति पूवंपक्चः । वेधत्वेना-
रब्धव्यमिति राद्धान्तः ।
तब यदि यह शका हो कि “अध्येतव्यः' ( त° आ० २।१५ }- यह वाक्य
विधिके रूपमे नहीं सिद्ध होगा, तो मत सिद्धहो, हमारी हानि इसमे क्या
है ? [ अध्यापन-विधि के अन्तगंत ही अध्ययन चला जाता है, अतः अध्येतन्यः'
कोतो विधि नहीं कह सकंगे क्योकि विधि होने पर इसे विधि की आवद्यक
श्तौ की पूति करनी होगी--यह अज्ञातज्ञापक् या अप्रवृत्तप्रवतक हो, किन्तु
अध्ययन का ज्ञान या इसकी प्रवृत्ति पहले ही अध्यापन विधिके हारादहो चुकी
है 1 अतः यह वाक्य विधि नहीं टै, ] अल्गसे अध्ययनके किए विधि मानने
का कोई प्रयोजन ( कारण ) नहीं है। कटी-कहीं विधि-वाक्य ( विधायक के रूप
मं प्रतीत होने वाला वाक्य ) नित्य रूपसे प्राप्त वस्तु का अनुवाद ( आवृत्ति,
कक
५३८ सबंदशनसंग्रहे-
पष्ट) करता है, यह भी देखा जाता है ( सम्भवतः (अध्येतव्यः' भी किसीका
अनुवादकहीदहो)। इसलिए अध्ययन-विधि को आधार मान कर इसके पहले
दिये गये पूरवंपक्ष ओर उत्तरपक्ष, दोनों को दूखरे प्रकार से प्रदशित करना चाहिए ।
इसमें धवंपक्ष यह रखते हैँ कि विचार-शाख्र विधि-षंमत नहीं है, अतः
उसका आरभं नहीं करना चाहिए । उत्तरपक्ष मे कहते हैँ कि यह शा्र विधि-
संमत टै, अतः उसका आरंभ कर ।
(६ क. प्रभाकर के मत से पूवपक् )
स वदितव्य त्रिमध्योपनविधिर्माणवक
तत्र वैधत्वं वदता --किमध्यापनविधिमीणवकः-
स्यार्थावबोधमपि प्रयुङ्क्ते, किं वा पाठमात्रम् १ नाद्यः, विना-
प्यथाव्ोधेन।ध्यापनसिद्ेः । न द्वितीयः । पाठमात्रे विचारस्य
विषयप्रयोजनयोरसंभवात् । आपाततः प्रतिभातः संदिग्धोऽरथो
विचारश्ाख्रस्य विषयो भवति ।
[ पूर्वपक्षी कहता है कि | जो लोग॒विचारशाख्र को वेध ( विधिसंमत)
मानते है बे इसका उत्तर दं क्या उप्यक्त अध्यापन-विधि का लक्ष्य ( प्रयोग )
शिष्य को अर्थका बोधकरा देनाभीदहै या केवल पाठ ( अध्ययन) करना
भर ही ? [ अध्यापन-विधिसे जो अध्ययन का अथं निकालते टं उसमे अथंबोध
भी कराते या केवल अध्ययन ?] पहला विकल्प ठीक नहीं है क्योकि
अर्थावबोध के विना भी अध्यापन-विधिकी सिद्धिहो ही जाती ह । [ तात्पयं
यह है कि विधि अध्यापन से संबंध रखती है, अध्ययन से नहीं । चकि अध्यापन
अध्ययन के बिना नहीं हो सकता, इसीलिए विवश होकर हमे अध्ययन का
आक्षेप ( 170०) ) करना पड़ता है । जितनी वस्तुके बिना किसी के
काममें हानि हो रही हो उतनी वस्तुका ही आक्षेप किया जाता है, अधिक
का नहीं। अध्ययन का आक्षेप अनिवायं था, अर्थावबोध के आक्षेप कौ
आवइयकता नहीं ह । |
दूसरा विकल्प [ कि अध्यापनविधि केवर पाठ से संबद्है | भी ठीक नहीं
क्योक्रि जब वेदों का अध्ययन मात्र ही लकष्यहै तब तो विचारशाख्र कान कोई
विषयही संभव ओर न प्रयोजन ही। विचारशास्रका विषय वहीहो
सकता हे जो ऊपर से प्रतीत होनेवाला किन्तु संदिग्ध हो ।
तथा सति यत्राथोवगतिरेष नास्ति तत्र सन्देहस्य का
कथा ? षिचारफलस्य निणेयस्य प्रत्याशा दूरत एव । तथा च
जेमिनि-दशनम् ५३६
यदसदिग्धमप्रयोजनं, न च तस््रेश्षावतपरतिपित्सागोचरः । यथा
समनस्केन्द्रियसनिकृष्टः स्पष्टालोकमध्यमध्यासीनो धट इति
न्यायेन बिषयग्रयोजनयोरसंभवेन विचारशास्तमनारभ्यमिति पूर्वः
पक्षः |
एेसा होने पर, जहाँ अर्थका अवबोध ही नहीं होता वहां सन्देह का
प्रन भी नहीं उठता । विचार काफल जो निणंय के रूप मेँ है उसकी प्रत्याशा
तो ओर भी दुर दै । इसके साथ-साथ, जिस वस्तु मे कोई सन्देह नहींहोया
जिसका कोई प्रयोजन नहीं रहे, वसी वस्तु को प्रतिपादित करने की इच्छा
समीक्षको में नहीं हुआ करती । [ जिस विषय का निणंय पहले से हो उसका
प्रतिपादन करना व्यथं है । सन्देह होने पर ही वस्तु प्रतिपाद्य होती है । सन्देह
रहने पर भो यदि प्रतिपादन का कोई प्रयोजननहो तो उसका प्रतिपादन
व्यथेहीदहै। इसप्रकार सन्देह ओर प्रयोजन दोनों के रहने पर ही समीक्षकों
म प्रतिपादनेच्छा जागृत होती है । एक के भी अभाव में इच्छा नहीं होगी,
दोनों का अभाव रहनेपरतो कहनादही क्या? ] उदाहरण के किए, मनः-
संयुक्त इन्द्रिय के साथ संबद्ध तथा स्पष्ट आलोक मे अवस्थित घट [ प्रतिपादन
का विषय नहीं बन सकता क्योकि यह असंदिग्ध तोदहै ही, इसके प्रतिपादन
का कोई प्रयोजन भी नहीं। | इस नियमसे, दकि विचारशाख्र के विषय
ओरं प्रयोजन दोनों ही संभव नहीं है, अतः इसका आरंभ नहीं करना चाहिए ।
यह पूवे-पक्ष हुआ ।
( £ ख. प्रभाकर-मत से सिद्धान्तपक्च )
अध्यापनविधिनाऽ्थोवबोधो मा प्रयोजि । तथापि साङ्ग
वेदाध्यायिनो गरहीतपदपदाथंसंगतिकस्य पुरुषस्य पौरुपेयेष्विव
परबन्धेष्वाम्नायेऽप्यथावबोधः प्रामोत्येव । ननु यथा "विषं युडध्व'
इत्यत्र प्रतीयमानोप्यर्थो न॒ विवक्ष्यते । मास्य गृहे यडक्थाः"
इति भोजनप्रतिषेधस्य मातृवाक्यतात्पयविषयत्वात् । तथाम्ना-
याथेस्याविवक्षायां विषयाद्यमभवदोषः प्राचीनः प्रादुःष्यात् इति
चेत्-- मेवं वोचः । दृ्टान्तदाष्टान्तिकयो्वपम्यसंभवात् ।
हमे स्वीकार है कि अध्यापन-विधिसे अर्थावबोध का तात्पयं ( प्रयोग )
नहीं निकल सकता । फिर भी जो व्यक्ति अंगों के साथ वेद का अध्ययन करेगा,
५५० सबदशंनसंग्रहे- |
वह पद ओर पदाथं की संगति ( संबन्ध ) का ग्रहण तो करेगा ही । जैसे पुरुष
के द्वारा लिखि गये ग्रन्थों में [अथं का बोध होता दै] वैसे ही व्यक्ति को आम्नाय
(वेद) में भी अ्थं-बोधकी प्राप्ति होगीदही। [विधि न रहने पर भी
बोधकत्व-शक्ति के स्वभाव से ही अथंबोध हो जायगा । |
अब शंका हो सकती टै कि जैसे इस वाक्य में प्रतीत होनेवाठे (विष-भोजन
खूपी ) अर्थ की विवक्षा नहीं है क्योकि माताके वाक्य का तात्पयं है उसके धर
पर भोजन मत करना" इस तरह का प्रतिषेध करना [माता चाहती है |; ठीक
(= तरह कहीं वेद का अक्षरा्थं उसके वास्तविक अभिप्राय ( विवक्षा ) कौ प्रकट
न कर पाये तो पहले जिस तरह विषयाभाव ओर प्रयोजनाभाव आपत्तिर्यां लगाई
गई थीं वे पुनः इसे दूषित कर दंग । [ वेद को समन्लने का कोई प्रयोजन नहीं
रहेगा ओर न यह विचार का विषय ही रह सकता । |
हमारा उत्तर है कि एेसा मत कटो दृष्टान्त ओर प्रस्तुत प्रसंग में
विषमता संभव है। (दोनों समान नहीं हँ किं एकं दूसरे कौ सहायता
कर सकं । )
विकशोेष-किसी माताने अपनेपुत्र कोरशात्रु के धर परन खानेका
उपदेद दिया किन्तु उसमे व्यंजना-वृत्ति का आश्रय लिया-"विष खालो,
परन्तु उसके घर भोजन मत करो 1" माता अपने पुत्रको विष खानेके लिए
कभी प्रवृत्त नहीं कर सकती, अतः विषभोजन का विधान रूपी अथं यहां
विवक्षित नहीं है, प्रत्युत माता उसे शत्रुके धरपरन खाने का प्रतिषेधात्मकं
उपदेशा ही देती है ।! यही अथं विवक्षित है । कान्य-प्रकाश्के पंचम उज्ञासमें
मीमांसाओं के द्वारा व्यंजनाव्रत्तिके प्रन पर विचार किये जाने के सिकसिले
म यह उदाहरण दिया गयाहै। तो, इसी आधार पर शंका करने वाले
कहते हं कि हो सकता दै वेद का शब्दार्थं हमने कुछ किया ओर विवक्षित
अर्थं उससे भिन्न हो । वसी अवस्थामे तो वेदाथं जानना, न जानना बराबर
हो गया । परन्तु शंका करने वाले भ्रम में । उपयुक्त दृष्टान्त से प्रस्तुत प्रसंग
का सम्बन्धदहै ही नहीं) इसे अगे स्पष्ट करतेह।
विषभोजनवाक्यस्याप्तप्रणीतत्वेन भख्याथेषरिग्रहे वाधः
स्यादिति विवक्षा नाश्रीयते । अपौरुषेये तु बेदे प्रतीयमानोऽथेः
कुतो न विवक्ष्यते । विवक्षिते च वेदाथं यत्र यत्र॒ पुरुषस्य
संदेहः स सर्वोऽपि षिचारशाद्धस्य विषयो भविष्यति । तन्निणं
यश्च प्रयोजनम् । तस्मादध्यापनविधिग्रयुक्तेनाध्ययनेनावगम्य-
[कक
जेमिनि-दशनम् ५४१
¢ बरेचाराहैत्वादहिचारशाखरस्य |
मानस्याथस्य चि वैधत्ेन विचारज्ाख- |
मारम्भणीयमिति राद्रान्तसंग्रहः । |
उपयुकत षटानत मे, विष-भोजन का वाक्य दकि आप्त॒( प्रामाणिक यहां |
पर माताहीदै) व्यक्ति के द्वारा उच्चारित है ओर यदि इसका गुख्याथ ग्रहण |
करगे तो इसका विरोध ( बाध एश्णेप्ञण) ) होगा । यही कारण है कि |
[ माता की] विवक्षा [ मुद्यारथ-प्रकाशन की है यह | नहीं मानते [ ओर हमें
दूसरे व्यंग्याथं के अन्वेषण मे चलना पड़ता है]। किन्तु वेदतो अपोरुषेय है
अतः उसमें प्रतीत होने वाला अथं ( वाच्याथं ) क्यो नहीं विवक्षित होगा ? ६
[ बाच्याथं ही वेद का विवक्षित अर्थं है । | इस विर्वा्षित (अभीष्ट 1५९०५९५)
वेदां में पुरुष को जहाँ-जहां संदेह उत्पन्न होगा वह सारा-का-सारा विचारशाख्र
काटी विषय हो जायगा । उखका निर्णय करना ही विचारशाख्र का प्रयोज्ञन |
हे । [ फिर आप केसे कगे कि विचारशास्र का न विषय है न प्रयोजन ? | ।
इस तरह अध्यापन-विधि के द्वारा प्रयुक्तं अध्ययन से जो अर्थं अवगत होता | | |
है वह विचारके योग्यदहै इसलिए विचार-शास्र विधिसंमत है । अतः इसका |
आरंभ करना चाहिए । यही सिद्धान्त का संग्रह हुआ । ( राद्ान्त = सिद्धान्त 1 | ।
राध् + क्त = राद्ध = सिद्ध । ) |
( ७. वेदो को पौर्षेय मानने वाले पू्वेपक्ष का निरूपण › |
स्यादेतत् । वेदस्य कथमपौरुपेयत्वमभिधीयते १ तत्रति- `
पादकप्रमाणामावात् । अथ मन्येथाः अपोरुषया वेदाः, संप्रदा- `
¢ तदे , =
याचिच्छेदे सत्यस्मर्यमाणकतकत्वादात्मवत्' इति । तदेतन्मन्दम् ।
विेषणासिदधेः । पौरुपेयवेदवादिभिः प्रलये संप्रदायविच्छेदस्य ,
€ © क ~+
कक्षीकरणात् । रवि च किंमिदमस्मयमाणकदठकतव नामाप्रमीय-
।
|
माणकर्तकत्वमस्मरणगो वरकठेकत्वं वा १ न प्रथमः कल्पः ।
परमेश्वरस्य कतुः प्रमितेरभ्युपगमत् ।
अच्छा, ेसा होगा । वेद को अपौरषेय आप लोग कैसे कहते हँ ? जब किं
इसका प्रतिपादन करने के लिए कोई भी प्रमाण नहीं? आप (सिद्धान्ती) कोग कहं
सकते टै-
चेद अपौखतेय है, क्योकि संप्रदाय ( ४९५1४1००, परपरा ) अविच्छिन्न |
रहने पर भी इनके कर्ता का स्मरण हीं किया जा सकता जैसे आत्मा"
५४२ सवेदशंनसंप्रहे-
| अभिप्राय यह् है- जहाँ ्रन्थ के आदि, मध्यया अन्तमें ग्रन्थकारने कर्ता
के रूपमे अपने नाम का उल्लेव किया है, उसमे तो कोई विवाद ही नही--
वह तो पोरषेय है ही । जेसे- महाभाष्य, प्रदीप, रचुवंश, रलोकवात्तिक आदि ।
जहाँ पर ग्रन्थकार से आरंभे करके अविच्छिन्न संप्रदायके द्वारा गुरुपरपरा से
कर्ता का स्मरण क्ियाजाताटै वहां भी विवाद नहीं होता जेसे- पाणिनि,
पतंजलि आदि ऋषियों के नाम व्याकरण, योगादि सूत्रगरथो के कर्ताके रूपमे
च्वि जतिदहैं। प्रंथकारने अपनेग्र॑य में कहींभी कर्ता के रूपमे अपना
नामोल्केख नहीं किया तथा विच्छिन्न संप्रदाय होने के कारण कर्ता का स्मरण
नहीं किया जा रहा टै वहां पर पौरुषेयत्व म संदेह हो सकता है । किन्तु जहां
संप्रदाय अविच्छिन्न ( लगातार ) रहने पर भी कर्ताका स्मरणन करं तब तो
स्मरणाभावका कारणकर्ताकान होनाहीहै, इस तरह वेद को अपौरुषेय
सिद्ध करते हैं । |
| पूर्वपक्षो कहते हँ कि | आपका यह कहना कोई दम नहीं रखता ( तकं
दुबल है)। कारण यह हैकि हेतु का विशेषण ( संप्रदायाविच्छेदे सति =
संप्रदाय के अविच्छिन्न रहने पर भी) जो आपने दिया है वह असिद्ध है। जो
लोग वेद को पौरुषेय मानते हँ वे लोग प्रलयकाल में संप्रदाय का विच्छिन्न होना
भो स्वीकार करतेरहै। इसके अलावे, आप यह तो बतलावें कि कर्ता का
स्मरण नहीं किया जाता" इसका क्या अर्थं है- क्या उसका कर्ता प्रमाणं चे
सिद्ध नहीं होता या स्मरण का विषय ( गोचर ) नहीं होता ?
पटला विकल्प ठीक नहीं है क्योकि उसके कर्ता परमेदवर की सिद्धि
प्रमाणजन्य ज्ञान ( प्रमिति ) से होती है। [ वेद में कई वाक्य हैजो ईइवरकी
सिद्धि करते हं अस्य महतो भरतस्य निःश्वसितमेतद् यदृग्वेदो यजुर्वेदः'
( च्रृ° उ० २।४।१० ), 'तस्माचज्ञात्सरवंहुतः ऋचः सामानि जज्निरे । छन्दांसि
जज्ञिरे तस्मादयजुस्तस्मादजायत' ( ऋ० १०।९०।९ ), दं सवमसृजत ऋचो-
यज्जुषि सामानि" ( व° उ० १।२।५) । इन सभी शरुतियों में ईइवर वेद के कर्ता
उदुघोषित किये गये टे अतः: उसकी सिद्धि के किए आगम प्रमाणतो है ही | |
न दितीयः । विकल्पासहत्वात् । तथा हि--किमेकेनास्म-
रणमभिप्रेयते सर्वेवां १ नादयः । यो धर्मीलो जितमानसेष्ः
इत्यादिषु ुक्तकोक्तिषु व्यभिचारात् । न द्वितीयः । सर्वास्मरण-
स्यासवक्ञुज्ञोनत्वात् । पौरुषेयत्व प्रमाणसंमवाच । वेदवाक्यानि
जेमिनि-दशनम् | ५९३
पौरूषेयाणि वाक्यत्वात् कालिदासादिवाक्यवत् । वेदवाक्यान्यासत-
प्रणीतानि प्रमाणसवे सति वाक्यत्वान्मन्वादिवाक्यवदिति ।
दूसरा विकल्प [करि वेद का कर्तास्मरणका विषय नहीं बनता] भी ठीक नहीं
व्योकि यह निम्नलिखित विकल्पों को सह नहीं सकता । वेयेर्है-क्या एक के
दारा स्मरण करना अभितप्रेतदटैया सोके द्वारा ? पहला पक्ष नहीं च्ियाजा
सकता क्योकि फेखा करने से “यो धमंशीलः जितमानरोषः' ( जो धामिक है तथा
मान, रोष को जीत चुका है )--इत्यादि मुक्तक ( पुटकर ) द्लोकों मे भी
अपौर्षेयत्व की प्राप्ति हो जायगी । [ कहने का तात्पयं यह है कि मूक्तकों
का भी रचयिता होता है, भले ही परंपरा यादन करे । “उपमा कालिदासस्य '
आदि मुक्तक इसी तरह के टै । रचयिता के समकालिक लोग तो उसे याद करते
ही होगे । संभव है कितने लोगों को अभी भी मालूम हो, परन्तु कुछ लोगो को
तो मालूम नहीं ही है । अतः कुछ रोगों के द्वारा कर्ता कास्मरणन किये जाने
से वेद को अपौरुषेय नहीं ` कह सकते क्योकि एेसा करने से इन सुभाषित
मुक्तकों को भी अपौरषेय मानना पड़ेगा, जव कि नके रचयिता कोई पुरुष
अवश्य ये । ] दूसरा पक्ष भी ठीक नहीं है क्योकि वेद के कर्ता कां स्मरण कोई भी
नहीं कर रहा है--यह तो सवज के अलावे ओर कोई जान ही नहीं सकता ।
[ संसारम सर्वज्ञ कोई भी नहीं टै, अतः विवश होकर वेदों को पौरुषेय ही
स्वीकार करना पडेगा । |
यही नहीं, वेदो को पौरुषेय मानने के किए प्रमाण भी टे
( १) वेद के वाक्य पौरुषेय है,
क्योकि ये वाक्य है, जैसे कालिदासादि के वाक्य ।
( २) वेद के वाक्य आप्त ( यथार्थवक्ता ) के द्वारा रचे गये,
क्योकि ये प्रामाणिक वाक्य है, जैसे मनु आदि के वाक्य ।
नबु-
४, वेदस्याध्ययनं स्वं गुैध्ययनपूवंकम् ।
वेदाध्ययनसामान्यादधुनाध्ययनं यथा ॥
८ इलो० वा० ७।३६६ )
इत्यलमानं प्रसाधनं प्रगल्भत इति चेत्--तदपि न प्रमाण-
कोरि प्रवष्ट्मीष्टे ।
= - नक व न +
क #\-न्क धि ॥ि
श्ट ` सबेदशंनसंग्रहे- ४
५. भारताध्ययनं सवं गुवेध्ययनपूवंकम् ।
भारतध्ययनत्वेन सांप्रताध्ययनं यथा ॥
इत्याभाससमानयोगक्षेमत्वात् ।
अब प्रदन हो सकता है कि वेदका संपूणं अध्ययन पहले से गुर के अध्ययन
की अपेक्षा रखता है, क्योकि वेदाध्ययन दोनों ही दशाओं में एक ही रहता है, [जसे
पहले का अध्ययन |] वेसे ही आज का अध्ययन [ इससे परंपरा की अविच्छिन्नता
मादरम पडती है |'--इलोकवातिक में दिये गये इस अनुमान की, जिसमे पू वपक्षी
के विरुद्ध साध्य को सिद्ध करने की सामथ्यं है, प्रबल्ता होगी । [ मीमांसक लोग
कहते टै कि वेद का अध्ययन शिष्य गुरं से करता है, उसके पूवं भी तो गुखने
अध्ययन किया था। यह क्रम चलता ही रहा है । कोई अध्ययन एसा नहीं जो
गुवंध्ययन के बिना ही हुजा हो । यदि पौरूषेय-पक्ष स्वीकार करते ह तो वेद के
रचयिता पुरूष के द्वारा किया गया वेदाध्ययन तो बिना गवंध्ययन के ही सिद्ध
होगा जो असंगत है । अतः हमं वेदों को अपौर्षेय ही मानना पड़ेगा क्योकि सारे
अध्ययन गुरवध्ययन के बाद होते है । इस अनुमान से पूवंपक्षी की बातों का खंडन
होता है अतः यह श्रतिसाधन' ( प्रतिकूल सिद्धि करने वाला ) अनुमान है । |
यह प्रन प्रमाण की कोटि में नहीं आ सकत क्योकि निम्न रूप से प्रतीत
होने वाले अनुमान से इस अनुमान मे कोई अन्तर नहीं ( दोनो का योगन्ेम
अर्थात् जीवन एक ही तरह का है )-- "महाभारत कासारा अध्ययन गुरके
अध्ययन की अपेक्षा रखता है, क्योकि महाभारत का अध्ययन है, जैसा पहके
वैसा ही आज का अध्ययन'--[ उक्त अनुमान की तुल्नामे ही यहं अनुमान
दिया गयादहैतो क्या महाभारत को भी आप अपौरुषेय ही मान लगे? पूर्वंपक्षी
कहते हँ कि वास्तव मे दोनों अनुमान आभासमात्र हैँ क्योकि दोनोमेंदही हेतु
अप्रयोजक है । जो-जो अध्ययन है वह सव गृरव॑ध्ययन के बाद ही होगा"
इस नियम की स्थापनामें कोई हेतु नहीं दिखलाई पडता । लिखित पाठ करने
या पहटे-पहल प्रकारित् करने मे तो गुवध्ययन की अपेक्षा नहींही रहती दहै) |
अतः ङ्लोकवातिक मे दिया गया अनुमान हमारी बातके विख्ढजनेका
साहस नहीं कर सकता । |
ननु तत्र व्यासः कर्तेति स्मर्यते--
को ह्यन्यः पूण्डरीकाक्षान्महाभारतढ़द्धबेत् ।४
# तुलनीय कृष्णद्वैपायनं व्यासं विद्धि नाराहणं विभुम् ।
कोज्यो हि भुवि मेत्रेय महाभारतकृद्भवेत् ॥ ( वि० प° ३।४।५ )
जेभिनि-दशनम् ५४५
इत्यादाविति चेत्-तदसारम् ।
ऋचः सामानि जज्ञिरे ।
छन्दांसि जज्ञिरे तस्माद्यजस्तस्मादजायत ॥
( ऋ० १०।९०।९ )
¢^ ^~
इति पुरुषध्कते वेदस्य सकतेकताप्रतिपादनत् ।
अब आप कह सकते है कि वहाँ ( महाभारतम) व्यास का स्मरण कतां
के रूपमे किया जाता है जैसे इस लोक मे--पुण्डरीकाक्ष ( नारायण के अवतार
व्यास ) के अलावे महाभारत का रचयिता कौन हो सकता है ? इस उक्तिमे
भी कोई दम नहीं । पुरुष-सक्त ( ऋ० १०।९० ) मे भी तो वेद के सकंतृंक होने
का प्रतिपादन किया गया है--““"* ऋम्बेद, सामवेद उत्पन्न हुए, उससे छन्द भी
निकले तथा यजुर्वेद भी उससे उत्पन्न हुआ ।' ( ऋ° १०।९०।९ )। [ यदि महा-
भरत कै रचयिता का स्मरण कियाजाताहैतो वेद के रचयिता भी तो प्रति-
पादितदहीरहै। |
(७ क. पौरुषेयसिद्धि का दुसरा रूप )
कि चानित्यः शब्दः सामान्यवे सत्यस्मदादिबाद्यन्द्रिय-
्राद्यत्वाद् घटयत् । नन्विदमयुमानं स एवायं गकार इति प्रत्य-
मिङ्ञपरमाणप्रतिहतमिति चेत् तदतिफःणु । सूनपुनजोतकेश-
कुन्दादाविव प्रत्यभिज्ञायाः सामान्यविषयत्वेन बाधकत्वाभावात् ।
[ पूर्वपक्षी नैयायिक आगे कते ह कि | इसके अतिरिक्त मी, "शब्द अनित्य
है वधोकि सामान्य से युक्तं होने पर हम लोगो के बाह्यन्द्िों से ग्राह्य है, जेसे
चट ।* [ शब्द मे शब्दत्व है तथा उसके द्वारा व्याप्य कत्व, खल्व आदि जातिर्या
भी) वेदोंको अपौरुषेय मानने के लिए उन्दँ नित्य मानना जरूरी है जेसा
नि मीमांसक शब्द को नित्य मानते भीर । किन्तु पूर्वपक्ष से नैयायिक शब्दों
को अनित्य मानकर वेद की पौरुषेयता सिद्ध करगे । यह अनुमान उसी कै प्रसंग
मरे दिया गया है। |
कृद लोग आपत्ति कर सकते है कि यह अनुमान तो यह वही गकार है'--
इस तरह की प्रत्यभिज्ञा ( ्वद्व््डुणाप०य ) के प्रमाणसे खण्डित हौ जायगा ॥
[प्रत्यभिज्ञा एक तरह का प्रत्यक है जिसमें इन्द्रियों को सहायता से संस्कार के
द्वारां ज्ञोन उत्पन्न होता है । "यह वही गकार दै" कहने से स्पष्ट प्रतीत होता है कि
३५ स० सं०
५४६ &
गक्रार अनित्य नहीं है । यदि उसकी सत्ता नहीं है तो कुच देर के बाद भो कंसे
प्रतीत हुजा ? |
[ नैयायिक कहते ह कि ] यह सोचना बिल्कुल व्यथं है | जसे काट देने पर
फिर जनमने वाले केशमें याट्ट जाने पर फिर खिलने वाले कन्दके पूलमें
्रव्यभिज्ञा समानता के कारण विषय का ग्रहण कर लेती है [ कि यह वही
केश या कुन्द-पुष्प है-- यद्यपि केश या एल वही नहीं किन्तु वस्तु कौ समानता
से प्रत्यभिज्ञा होती है, वेसे ही यहाँ मी प्रत्यभिज्ञा हुई ], अतः प्रस्तुत प्रसंग मे
वह बाधक नहीं बन सकती ।
नन्वश्षरीरस्य परमेश्वरस्य तास्वादिस्थानाभावेन वर्णोचार-
णासंभवात्कथे तत्प्रणीतत्वं बेदस्य स्यादिति चेत्--न तद्धद्रम् ।
स्वभावतोऽश्चरीरस्यापि तस्य भक्तानुग्रहाथं लीलाविग्रहग्रहणसं-
भवात् । तस्माद्रेदस्यापौरुषेयत्ववाचोयुक्तिनं युक्तेति चेत्-- ।
अब कोई यह पृच्छ सकता है कि परमेश्वर के पास तालु आदि उच्चारण-स्थान
नहीं है इसलिए वे वर्णो का उच्वारणा नहीं कर सकते । फिर वेदों को उनके
द्वारा रचित आप कैसे मानते? यहे प्रन उचित नहींहै। यद्यपि परमेश्वर
स्वभावतः शरीररहित टै किन्तु वे भक्तों पर कृषा करने के लिए अपनी लीला
से विग्रह ( शरीर, इन्द्रिय आदि) धारणा कर सकते है। इस प्रकार वेद कौ
अपौरुषेय मानने के तकं ( वाचोयुक्ति ) असंगत है ।
( ८. वेद अपौरुषेय दै-लिद्धान्त-पश्च )
तत्र समाधानमभिधीयते । किमिदं पोरुषेयत्वं सिसाधयिषि-
तम् १ पुरुषादुत्पन्नत्वमात्रं यथास्मदादिभिरदरदरुचायमाणस्य
ब्दस्य प्रमाणान्तरेणाथेषुपलम्य तत्प्रकाशनाय रचितत्वं वा
यथास्मदादिभिरेव निबध्यमानस्य प्रबन्धस्य ? प्रथमेन विग्र
तिप्तिः।
अब हम सों का समाधान करतेरहै। यह पौरुषेयत्व सिद करने कीजो
इच्छा करते है वह पौरुषेयत्व है क्या चीज? जसे हम लोग प्रतिदिन वेद का
उच्वारणा करते है क्था उसी प्रकार पुरुष से केवल उत्पन्न होना ही पौरुषेयत्व
ह? अथवा जसे हमलोग प्रबन्ध कौ रचना करते है उसी तरह दूसरे प्रमाणो से
विषय का ग्रहण करके ( तथ्य-संग्रह करके } उसके प्रकाशन कै लिए रचना
करना ही शौरुषेयत्व है ? यदि पहला पक्ष स्वीकार करते तोहमे भी कोई
जेमिनि-दशेनम् ५४७
आपत्ति नहीं [ क्योकि इक्र दशा मेँ पौरुषेयत्व स्वीकार करते हृए भी हमारे
स्वर-मे-स्वर मिलाकर यह स्वीकार करतेही हैकि वेद ईश्वर की रचना नहीं
है। जैवे वेदों का हमलोग उच्चारण करते है वेसे ही ईश्वरने भीकियाथा।
इसका अर्थं है कि वेद पहले से ये, ईश्वर ने केवल उच्चारण किया । ]
द्वितीये किमनुमानबलात्तत्साधनमागमवलादा { नाध, ।
माठतीमाधवादिवाक्येषु सव्यभिचारत्वात्। अथ प्रमाणत्वे सतीति
विशिष्यत इति चेत् --तदपि न विपश्चितो मनसि वेश्यमाप-
चते । प्रमाणान्तरागोचराधैप्रतिपादकं हि वाक्यं वेदवाक्यम् ।
तत्प्रमाणान्तरगोचराथंप्रतिपादकमिति साध्यमाने मम माता
वन्ध्य तिवद् व्याघातापातात् ।
दूसरे विकल्प को लेने पर क्या उक्त तथ्य की सिद्धि जाप अनुमान के बल
से करते ह था आगम ( शब्द ) प्रमाणके बलसे ? अनुमानत्रबण के बलसे
तो नहीं कर सकते वयोकि वैसो दशा मे मालतीमाधव ( भवभूति-रचित एक्
नाटक ) आदि ग्रन्थों के वाक्यों में इपका व्यभिचार होगा । [ यदि प्रमाणान्तर
से अर्थोका संग्रह करके ईद्वरने वेद की रचनाकी हितो मालतीमाघव के
कपोलकल्पित वाक्यो को प्रामाणिक मानना पडेगा । यहां पर सव्यभिचार नामक
हेत्वाभास है 1 ऊपर जो अनुमान पूर्व॑पक्षियों ने दिया है किं वेदवाक्य वाक्य होने
के नाति आत पुरुष के रचित है जसे मनु आदि के वाक्य,- इसमे वाक्यत्व हेतु
ह, पौरुषेयत्व सा्य है ओौर पौरुषेयत्व का प्रस्तुत प्रसंग मे अथं है प्रमाणन्तर
से वस्तु का ग्रहणा करके उसकी अभिष्यक्ति के लिए रचना करना । मालती-
माघव में कथावस्तु काल्पनिक होने के कारण प्रमाणान्तर से सिद्ध नहीं कौ गर
है । इस प्रकार मालतीमाव में साध्य का अभाव है फिर भी वाक्यत्व की वृत्ति
हो जाती है । अतः 'वाक्यत्व' हेतु सव्यभिचार है, असत् है । |
अब यदि श्रमाण होने पर' ( = प्रामाणिक वाक्यहोने के कारण--पूरा
हेतु ) एसा विशेषण लगा दंतोभी यह विद्वानों के मनको संतुष्ट नहींही कर
सकता । [ मालतीमाधव के उषयुक्त दोष--व्यभिचार- की निवृत्ति के लिए यह
विशोषण लगाया गया है । उपर्युक्तं रीति से मालतीमाधव के वाक्यों को वाक्य
भले ही कह सकते ह किन्तु जब श्रामाशिक वाक्य' एसा नियम लगा दगे तो
मालतीमाधव मे व्यभिचार नहीं हो सकरेगा। पर यहं भी ठीक नहींहै|।
कारण यह रहैकिवेदके वाक्यों का सवंमान्य लक्षणहै कि जो वाक्य दूसरे
किसी भ प्रमाणसेन प्रतीत होने वलि विषयों का प्रतिपादन करे वही वेद
५४= सवेदशेनसंग्रहे-
वाक्य है । अब यदि भाप उपर्युक्त रीति से इसे जन्य प्रमाणो के द्वारा ज्ञात होने
वाले विषय का प्रतिपादक सिद्ध करने लगेंतोवेसा ही व्याघात ( आत्मविरोध
०61९018 410क्न ) होगा जैसे कोई कहे कि मेरी माता वन्ध्या है)
(८ क. पौरुषेयत्व का दूसरे प्रकार से खण्डन )
किं च परमेश्वरस्य रीराविग्रहपरि्रहाभ्युपगमेऽप्यती-
न्द्रियाथदर्शनं न संजाघटीति । देश्कालस्वभावविग्रदृषटाथे-
ग्रहणोपायामावात् । न च तज्कषुरादिकमेव ताद्कप्रतीतिजनन-
क्षममिति मन्तव्यम् । दृष्टानुसरेणेव कल्पनाया आश्रयणीय-
त्वात् । तदुक्तं गुरुभिः सवेजञनिराकरणवेलायाम्--
६. यत्राप्यतिशयो दृष्टः स॒स्वाथोनतिलडघनात् ।
दूरष््मादिष्ौ स्यान्न सूपे श्रोतरदृत्तिता ॥ इति ।
यदि आप (पूर्वंपक्षी ) लोगों के अनुसार यह मी मानलं करि परमेश्वर
अपनी लीला से विग्रह धारणा करते दहतो भी इसका समाधान नहींही होता ह
करि वे अतीन्द्रिय वस्तुओं को कैसे देखते होगे ? देश, काल ओर स्वमावसे जो
वस्तुत इ्दियों से असंबद्ध ( विप्रकृष्ट ) ह उनके ग्रहृण का परमेश्वर के पास
कोई उपाय तो नहीं ३। [ देशान्तर या लोकान्तर में विद्यमान वस्तु देश से
विप्रकृष्ट होती द, भूत या भविष्यत् को वस्तु काल से विप्रकृष्ट होती है । कितनी
चीं स्वभाव से इन्दरियासंबद्ध ह जैसे--ओख से रस ओर गन्ध का प्रहण । सभी
दृन्दियों के अपने-अपने विषय है जिन स्वभाव कहते है । नाक से गंध ही ले सकते
ह रूप नहीं इत्यादि । |
आप एेसा नहीं कह सकते कि चष आदि इन्द्रियां ही [ ईइवर को विग्रहृ
वस्तुओं की भी ] वैस प्रतीति कराने पं समरथ द । कल्पना भी देली हुई वस्तुओं
के आधार पर की जातीदहै, [ बे-ठिकाने की नहीं। ] सव॑ज्ञ का निराकरण
( ईदवर-खरडन ) के अवसर पर प्रमाकर-गुर ने कहादै-जहां भौ हम
अतिशय ( विशेष प्रकार की साम्यं ) देखते है वहां बह ( सामथ्यं ) अपने
विषयो ( जेते चक्षु के लिए रूष } का बिना उल्लंघन किये ही हए देखी जाती
है । [ स्वविषय का अतिक्रमण बिना क्ियि हए ही वहं सामथ्यं ] दुरस्य वस्तुओं
या सूषम वस्तुं का ग्रहण करा पाती है) [किन्तु इसका यह अर्थं | कमी
नहींहैकि रूपके विषयमे श्रोतरन्दिय की वृत्ति देली जाय ।' [ किसी व्यक्ति में
अविक शक्ति होने पर यह हो सकता है वह दूर की या सूक्ष्म वस्तुओं को देख
जेमिनि-दशेनम् ५४६
ले किन्तु देश, काल या स्वभावके कारण जो वस्तु इन्द्रियों को पहुंच के बाहर
हो गई है उसे तो नहीं देख सकता-- वह व्यक्ति कान से देख नहीं सकता, नाक
से सुन नहीं सकता । यही बात ईङवर के साथ है। अतः जव आपक्रा पुरुष
{ ईहवर ) ही सत्तावान् नहं तो वेद क्या पौरुषेय होगे-ईद्वर वेद की रचनां
क्या कर सकेगा ? |
[अ 2
अत॒ एव नागमवलात्तत्साधनम् । यथा तिन प्रोक्तम्"
( पा० सू ७।३।१०१ ) इति पाणिन्यनुन्चासने जाग्रत्यपि
काटक-कालाप-तैत्तिरीयमित्यादिसमाख्याध्ययनसंप्रदायप्रवतेकवि-
पयत्वेनोपपदयते, तद्रदत्रापि संप्रदायप्रवतंकविषयत्वेनाप्युपपदयते ।
इसीलिए ( सर्वज्ञ की सिद्धि नहो सकनेके कारण ) आगम के बल से भो
आपके साध्य ( पौरषेयत्व ) की सिद्धि नहीं हो सकती । | युक्ति का विरोध होने
के कारणा ईदवर के सर्वज्ञत्व को सिद्धि आगममें कही गई बातों से नहींहो
सकती । ] जैसे पाणिनि के तिन प्रोक्तम्" ( उन्होने प्रवचन किया ४।३।१०१ )
इस सूत्र के रहने पर॒ भो काठक (कठ ऋषि के दारा प्रोक्त विषयों को पठने
वालि ), कालाप ( कलापो ऋषि के प्रोक्त विषयों को पढने वाले ), तैत्तिरीय
( तित्तिरि“ ) आदि यौगिक शब्दों कौ सिद्धि उस ऋषि के द्वारा संचालित
अध्यन के सम्प्रदायके प्रवतंकके रूपमे होतो दै, उसी प्रकार यहाँ भौ (वेद
उस से उत्पन्न हुए, आदि वाक्यो मे भी ) सम्प्रदाय के प्रवर्तकके रूपमे सिद्धि
कीजा सकती है।
[ि ' क र = हः य = # क
4 = = जके = भनक शो = कनक =
~~~ = ण्वि म ध र गद
^ < सकः = 9 प | (यो यि 3. जि क व्व
= त तः नि किः
कोक =-= -
विरोष--पाणिनि जौ के "तेन प्रोक्त्' इस अर्थांश विधायक सूत्र से
विभिन्न प्रत्ययो को लगाकर उक्त यौगिक शब्दों कौ सिद्धि होती है--कठेन
प्रोक्तमधीयते कठाः । कलापिना प्रोक्तमधीयते कालापाः । तित्तिरिणा प्रोक्तम-
धीयते वैत्तिरीयाः। यद्यपि कंडादि ऋषियों ने अपनो-अपनी शाला कौ रचना नहीं
को फिर भी वे एक-एक अध्ययन-सम्प्रदाय के प्रवर्तक केखरूप में शखाओंमे
विख्यात ह । जैसे कठादि के आधार पर शालां नें समाख्या ( यौगिक शब्द )
बनतो है वैसे ही ईदवर मे सवजञत्व का निल्पणा करते है । वास्तवमें इसका
अथं निर्माण करना नहीं है, बल्कि अपनी या दूसरे कौ कृति को अध्यापन के
दारा प्रकाशचमे लानादही प्रवचन दहै। इस प्रकार कठादि नाम ( समाख्या)
अपनी मुख्य वृत्ति के ही साथ विराजमान है । अब शब्द को अनित्य माननेवाने
जयायिकों पर दरड.प्रहार करने जा रहे है ।
१ क
५५० सबेदशेनसंग्रदे-
( ९. इाब्दानित्यत्व का खण्डन )
न चानुमानवलाच्छब्दस्यानित्यत्वसिद्विः । प्रत्यभिज्ञाविरो-
धात् । न चासत्यप्येकत्वे सामान्यनिबन्धनं तदिति स्तम् ।
सामान्यनिब्न्धनत्वमस्य वलवद्वाधकोपनिपातादास्थीयते कचिद्
व्यभिचारदर्शनादवा । तत्र कचिद् व्यभिचारदशचने तदुत्क्षाया-
क्तं स्वतः प्रामाण्यवादिभि :-
७, उत्रेक्ेत हि यो मोहादज्ञातमपि बाधनम् ।
स सर्वव्यवहारेषु संज्ञयात्मा विनञ्यति ॥ इति ।
अनुमान के बलसे आप शब्द को अनित्य सिद्ध नहीं कर सक्ते । एेसा
करते से प्रत्यभिज्ञा का विरोध होगा। (ऊपर देखं, अनु ७क)। यहं
कहना भी युक्तियुक्तं नहीं है कि [ "यह वही गकार है'--इस प्रत्यभिज्ञा में |
यदपि वणो की एकता नहीं है पर वे वर्णो के तादत्म्यके कारणा एक समान
जैसा लगते है, [ उनमें गत्व-जाति है । ] "वर्णो का एक समान लगना' जाप
वों स्वीकार कर रहे है? व्या टृढतर प्रमाण से वर्ब्यक्तियों ‹ 170110४8}
16४68 ) मे भेद पड़ने के कारण बाधासे डरते है या कहीं पर व्यभिचार
( नियम का उल्लंघन ) होने से डरते दह? [ यह वही है, एेसी प्रत्यभिज्ञ
तभी हो सकती दै जब पहले से देखी हई ओर अब देवी गई वस्तुमे एकता
हो- यह नियम है। कहीं-कहीं एकता न रहने पर प्रत्यभिज्ञा किसी तरह ह
जाती है जैसे कटे हए केशों के पनः उगने पर कहते हैक्रि ये वही केश दहै।
यहाँ तो उस नियम का उल्लंवन अर्थात् व्यभिचार हा । भव इन विकल्पों
कौ खबर लेते हुए पहले दूसरे विकल्पो की ही आलोचना करते है । |
यदि कहीं-कहीं व्यभिचार-दश्चंन के कारण [ उप्यक्त सा मान्य-निबन्धनत्व =
वर्णो के तादात्म्य के कारण उनकी समता की प्रतीति |* माननी पड रहीहो
न ---- सा ~ `
# कटे हुए केशो के फिरसे उगजानेके दृष्टान्त में केश-व्यक्ति का भेद
प्रत्यक्ष रूपसे दिखलाई पडता है । विवश होकर नियम-व्यभिचार स्वीकार
करना पडता है। दूसरे किसी भौ दृष्टान्तमें बाधा देने वाला कोई नहीं है ।
इसलिए इस स्थान पर व्यभिचार देखकर मानना पडता दै क्रि एकत्व न रहने
पर भी साहदय के कारण प्रत्यभिज्ञा होती है। इसी के उत्तरमे मीमांसक
सातवें श्लोक का उपन्यास करते हैँ ।
६ ५५१
तो इस पर वेदों को अपने आपमें प्रामाणिक मानने वाले ( मोमांसक ) कहते
है “जो ( मूखं ) अपनी मूता के कारण अज्ञात बाधाओं कौ भी संभावना
( उ्क्षा ) करता रहता है, वह संशयात्मा संसारके सभी व्यवहारोमे मारा
ही जाता है॥ ७॥' [ कोई रेलगाड़ी पर बैठते हृए सोचने लगे कि कीं दुर्घटना
नहो जाय, या कहीं खाते समय सोचे किं वह मरन जाय--अर्भिप्राय यह है
किं बाधा अज्ञात रहने परभी उसी की चिन्तामें इवजाय तो एसे व्यक्ति
संसारमें कोई काम नहीं कर सक्ते । प्रत्यभिज्ञा बाले भी यदि किसी दान्त
रं व्यभिचार होने के भय से अपने सिद्धान्तो का परिमा्जन करने लगते है तो
इन्ट दानिक कहने का दम नहीं करना चाहिए । |
नन्विदं प्रत्यभिज्ञानं गत्वादिजातिविषयं न गादिव्यक्तिषि-
पयम् । तासां प्रतिपुरुषं भेदोपलम्भात् । अन्यथा ! सोमशमोधीते'
इति विभागो न स्यादिति चेत्--तदपि शोभां न विभति ।
गादिव्यक्तिभेदे प्रमाणाभावेन गत्वादिजातिविषयकसपनायां प्रमा-
णाभावात् । यथा गोतखमजानत एकमेव भिन्नदेश्षपरिमाणसस्था-
नवक्षाद्धि ~ दीधेमिव
नव्यक्त्युपधानवन्ाद्धि न्देश्षमिवास्पमिव महदिव दीषेमिव वामः
नमिव प्रथते तथा गव्यक्तिमजानत एकापि व्यञ्जकभेदात् तत्त-
द्रमीनुबन्धिनी प्रतिभासते ।
[ अब बलवान् बाधक वाले पक्ष पर प्रहार करते है--ये नेयापिक लोग पृ
सक्ते ह कि ] यह प्रत्यभिज्ञान ( यह वही गकार है जिसे पहले देखा था, इस रूप
मं होने वाली प्रत्यभिज्ञा ) गत्व आदि जातिसे संबदहै, नकिग आदि व्यक्ति
ते \ कारणा यह है कि प्रत्येक पुरुष के उच्चारणं की भिन्नताके कारण ग आदि
वर्णों के व्यक्ति-रूप ( 1710; र4०४] {08 ) भिन्न-भिन्न होति है। यदिरेसा
नहीं होता तो "सोमशर्मा पठ् रहे है" रेमे व्यवहार मे विभाग नहीं हो सकता ।
[ यदि समी गकार-व्यक्तिएक हीहोतेतो जिसगका उच्चास्य सोमशर्माने
कियादहैउसीका दसरेने भी किया होगा, तो फिर राम पठता हि, हरि पढ़ता
है--ईइस तरह के विभागों का प्रयोग क्यों करते ह? सोमशर्मा पदता है,
देवदत्त नहीं--यह व्यवहार तो निराधारही हो जायगा । |
यह प्रदन भी करना नैयायिको को शोभा नहीं देता । गकार के व्यक्तिकी
भिन्नता मानने के लिए जिस प्रकार कोई प्रमाण नहीं है उसी प्रकार गत्व आदि
जाति के विषय मे कल्पना करने का भी कोई आधार नहींहै। [ अभिप्राय
५५२ सबेदशेनसंम्रदे-
है कि यह् वही गकार इस तरहगके व्यक्तिके विषय मे जो प्रत्यभिज्ञा
होती है उसे गत्वजा।त से संबद्ध मानने का कोई प्रमाण नहीं । | जैसे (नैयायिको
के सिद्धान्त के अनुसार ) गोत्व-जाति को नहीं जानने वाले पृरुषको एकही
गोत्व-जाति विभिन्न देश, परिमाणा या संस्थान (आति) की व्यक्तिगत उपाचियो
( 1०९१५०४] 00710783 ) के चलते विभिन्न ह्पों में प्रतीति होती दै क्कि
यह ( गोत्व ) दुसरे स्थान का दै, यहाँ चोटा है, यहां बड़ा है, यहाँ लम्बा है,
यहौँ नाटा है आदि। [ कहने का अथंहैक्ति गोत्व-जाति का वास्तविक रूप
न जानने वाले लोग एक ही गोत्व-जाति को व्यक्तियों को विलक्षणता देकर
विभिन्न प्रकार की समक्षते दै इष स्थान का गौत्व उस स्थान के गोत्व से
अलग है, यहाँ का गोत्व लम्बाहै, बौना है आदि। इमसे गोत्वमें भेद नहीं
पडता, यह तो नैयायिक भी मानते ही है ¦ यही बात गकारादि व्यक्तियों के विषय
महै । इसे दें । ] उसो प्रकार गकार.व्यक्ति को नहीं जानने वाले पुखष को,
व्यक्त करने वाले साधनों ( व्यंजकों ) के भेद के कारण, गो-व्यक्ति एक होने पर
भी, विभिन्न धर्मो से संबद्ध प्रतीत होती है ।
विज्ञोष-नाभि-प्रदेशसे प्रयत्नके द्वारा प्रेरित वायु मुख म आतीहै
तथा जिह्वा, अग्रभाग आदि का स्प करती हुई कणठ आदि स्थानों मे आचात
करके ध्वनि उत्पन्न करती है। यह ध्वनि ही अपने अन्तर मे विराजमान
गकारादि वर्णो की अभिव्यक्ति करती है। यही ध्वनि नाद् कहलाती है। इस
ठयंजकं ध्वनि मे रहने वाले अल्पत्व, महर्व आदि घर्माके सम्बन्धके कारण
ग-व्यक्ति एक होने पर भी भिन्न-भिन्न प्रतीत होती है। इसी कारण सोमशर्मा
पृते है" ेसा विभाग किया जाता ह। शब्द को नित्य मीमांसक भी मानते
ह। शब्द सदासे रहता दै, किन्तु वायुकौ तस्गों से अभिन्यक्त किये जने की
अपेक्षा रखता है । देखिये, जेमिनिसूत्र ( १।१।१७ } ।
एतेन विरुद्रधमीध्यासाद् भेदसिद्धिरिति प्रत्युक्तम् । तत्र कि
स्वाभाविको विरुदरधमीष्यासो मेदसाधकत्वेनाभिमतः प्रातीतिको
वा १ प्रथमेऽसिद्धिः ! अपरथा स्वाभाविकमेदाभ्युपगमे "दश्च
गकारानुदचारयच्चैत्रः" इति प्रतिपत्तिः स्यान्न तु दशकृत्वो
गकार इति ।
इस प्रकार [ ग-ग्यक्तियों में | विरोधी धर्मों ( जैसे अल्पत्व, महच्व } का
आरोपण होने से [ विभिन्न गकारोमें] भेद की सिद्धि होती है, यह प्रत्युत्तर
दिया गया । अबभ्रदन है कि मेदकी सिद्धिकरनेके लिए जो विरूढ धर्मो के
[=
जेमिनि-दशेनम् ८५३
मिथ्यारोपणा ( अष्यास ) का सहारा लिया गया है वह् वास्तविक हैया केवल
प्रतीत होता है ? यदि यह ( विश्द्ध धर्मोँका अध्यास } वास्तविक है तब तो
इसकी सिद्धि नहीं होगी [ क्योकि गकारो मे स्वमावतः विरूढ घमं है ही नहीं --
न कोई ग-शब्द छोटा हैन वडा) ] नहींतो, यदि [ यह अध्यास वास्तविक
होता ओर | हम स्वाभाविक रूपसे भेद की सत्ता मानते तो चवते
दसं गकारों का उच्चारण किया रसे वाक्य का प्रतिपादन होतान कि "्चेत्रने
गकार का दस बार उच्चारण किथा' एेसे वाक्यका। [ वास्तवमें गकार का
दस बार उच्चारणा होता है! अतः गक्रार पर विरुढ धर्मो का आरोपण सत्य
नहीं होता । ]
द्वितीये त॒ न स्वाभाविकमभेदसिद्धिः । न हि परोपाधिभेदेन
स्वाभाविकमैक्यं विहन्यते । मा भूमभसोऽपि इम्भादयुपाधिभे-
दात्स्वाभाविको मेदः । तत्र व्याचत्तव्यवहारो नादनिदानः।
तदुक्तमाचा्येः-
८, प्रयोजनं तु यञ्जातेस्तद्रणोदेव लप्स्यते ।
व्यक्तिलम्यं तु नादेभ्य इति गत्वादिधीवरथा। इति ।
तथा च-
९, प्रत्यभिज्ञा यदा शब्दे जागतिं निरवग्रहा ।
अनित्यत्वाज्ुमानानि सैव सवाणि बाधते ॥
यदि दुक्षरा विकल्प ( विरुद्ध धर्मो काप्रातिमासिक अध्यास ) लेते दहतो
स्वाभाविक मेद की सिद्धिही नहीं होगी । दूसरे स्थानों में वतंमान उपाधियोंके
भेद से क्रिसी कौ स्वाभाविक एकताका विनाश नहीं होता। [यदि किसीकी
स्वाभाविक एकता का कभी विनाश नहीं होगा तवतो आकाशम घटादि
उपाधियो के कारणा भेद नहीं ही हो सकेगा, आप घटाकाशादि कौ लिद्धि केसे
करेगे ? ] ठीक है, आकाश में भी घटादि उपाधियोंके कारण स्वाभाविक भेद
नहीं ही उत्पन्न होता है । [ जो लोग 'ओपाधिक भेद' कहते है उनका तात्पयं है
किं उपाधियां भिन्न-भिन्न होती है, न कि उपाधियों के कारणा वस्तुमेंमेद । तब
गकार-ग्यक्ति के एक होने पर “इस गकार को सोमज्ञमां ने पढ़ा, “इसे देवदत्त ने
पटा'-इस तरह एक दूसरे के विरोधी वाक्यों को प्रतीति कैसे होगी ? ] इन
एक दूसरों का ग्यावतंन ( विरोध }) करने वाले वाक्यों का व्यवहार नाद्
( व्यंजक ध्वनि } के कारण है। |
4
3 -919 ः
। नस
५५४ सवेदशेनसंगरहे-
इवे आचार्यो ने कहा भी है -'जिस काम के लिए [ नैयायिक लोग ] जाति
को स्वीकार करते है वह॒ काम ( प्रयोजन ) तो केवल वणं से पूरं कियाजा
सकता है । जिस लक्ष्य की प्राप्ति उन्दँ व्यक्ति को स्वीकार करने पर होती है
उसे हम नादो ( व्यंजक घ्वनियो ) से सिद्ध कर लेते है--अतः गत्वादि-जाति
कां ज्ञान व्यर्थं है| = ।' [ मौमांसक गत्व-जाति का खंडन करते ह बयोकि
शकारादि व्यक्ति एक ही दै । घटत्वादि जाति को नैयायिक इसलिए स्वीकार
करते है कि "यह् घट, वह "घटः आदि प्रतीति हो सके। यह काम हम लोग
गकार.व्यक्ति की एकतासे ही सिद्धकरदेते ह । अब बात है कि जोरों से
उक्चरित गकार, धरे से उच्चरित गकार आदि मेंमेदके लिए तो व्यक्ति का
स्वीकार करना ही पड़ सकता है ? नही, व्यक्तियों कौ अनेकता की सिद्धि उस
विशिष्ट व्यक्ति की ग्यंजना करने वाले नादोंसेदही दहो जायगी । इस प्रकार गत्व
आदि जाति मानना व्यथं है।|
उसी प्रकार--शब्द मे जब निर्वा प्रत्यभिज्ञा उत्पन्न होती है, तब शब्द को
अनित्य सिद्ध करने वाले सारे अनुमानों का यही खर्डन कर देती है ॥ ९ ॥\'
( १०. वेद की प्रामाणिकता-निष्कषं }
एतेनेदमपास्तं यदवादि वागीश्वरेण मानमनोहरे--
(अनित्यः शब्दः, इन्द्रियग्राह्विकञेषगुणत्वाचक्ूरूपवदिति' ।
शब्ददरव्यत्ववादिनं प्रत्यसिद्धेः। ध्वन्यंशे सिद्धसाधनत्वाचच ।
अश्रावणत्वोपाधिबाधितत्वाच्च । उदयनस्तु आश्रयाप्रत्यक्षत्वेऽ-
प्यभावस्य प्रत्यश्चतां महता प्रबन्धेन प्रतिपादयन्निवृत्तः कोलाहलः;
उत्पन्नः शब्द इति व्यवहाराचरणे कारणं प्रत्यक्षं शब्दानित्यत्व
प्रमाणयति स्म)
इस प्रकार के शाख्राथंसे, जो वागीश्वर ने मानमनोहर नामक-ग्रन्थ में
अनुमान दिया है, उसका भो खण्डन हो गया । [ वह अनुमान इस प्रकार
ह ] “शब्द अनित्य है कयोकरि यह इन्द्रिय ( श्रोत्र ) के द्वारा ग्रहण करने योग्य
विशेष गुण है, जेसे चष्ु ( इन्द्रिय } का रूप ( गृण ) ॥ शब्द को द्रव्य मानने
वाते लोग तो इसे असिद्ध कर देंगे । मीमांसक लोग वर्णाटमक शब्द को द्रव्य
मानते ह । मष्व-मत माननेवाले मौ ककारादि को द्रव्य ही कहते है । जब शब्द
गुण ही नहीं है तो एक इन्द्रिय के द्वारा ग्राह्य विशेष गुण कहां से होगा ? इस
न त त जा
> ~ + ~ ~ > ~~
जेमिनि-दशेनम् ५५५
तरह शब्द (पक्ष) में हेतु को वृत्ति नहीं होने से यह स्वरूपासिद्ध हेतु हो जायगा ।
घ्वन्यात्मक शब्द को मीमांसक अनित्य मानते ह । |
छवन्याटमक शाब्द को [ अनित्य सिद्ध करने का प्रयास व्यथं है क्योकि एेसा
करना ] सिद्ध वस्तुको फिरसे सिद्ध करना हो जायगा । इसके अतिरिक्तं यह
अनुमान ( ध्वन्यंशञ को नित्य सिद्ध करते वाला अनुमान ) अश्रावणत्व' उपाधि
से बाधित होगा ( = व्याप्यत्वासिद्ध हेतु हो जायगा । ) { उपाधि के विषयमे ।
चार्वाक-दर्शन में काफी प्रकाश डाला गया है । उपयुक्त अनुमान मे हेतु ( इन्द्रिय- |
ग्राह्यवरिशेषगुणत्व ) इतना व्यापक ह करि कभी-कभी यह नित्य (साच्पका अभाव) |||
वस्तुओं मे, जैषे मीमांसकं के अनुसार नित्य शब्दम भौ पाया जाता है अतः
अश्रावणत्व उपाधि लगानी पडेगी । देखिये -चार्वाकदशेन । उपाधियुक्त हेतु रहने |
से दोष होगा । | ॥ |
| [ शब्द को अनित्य माननेवाले उद्यन का मत ] उदयनाचायं अश्रय ।
( शब्दाश्रय आकाश } का प्रत्यक्ष न होने पर भी अभाव का प्रत्यक्ष ( आश्रय
मे विमान अभाव का प्रत्यक्ष ) बहुत बडे निबधके द्वारा प्रतिपादित करके
कोलाहल समाप्त हो गया', "हल्ला शुरू हुभा' इस प्रकार के व्यवहारो मे शब्द
को अनित्य मानने का कारण प्रत्यक्ष प्रमाण हीदहै, एेवा सिद्ध करते है ।
[ शाब्द की उत्पत्ति ओौर ध्वंस होता है अतः वह अनित्यहै। यह हम प्रत्यक्षतः
जानते ह । शब्द के उल्पन्न होने का या शब्द के विनष्ट होने का व्यवहार
प्रत्यक्ष ही ह। प्रन किया जा सकता है कि शब्द का विनाश तो प्रष्वंसामाव
हआ--उसका प्रत्यक्ष कंसे होगा ? अभाव का प्रत्यक्ष करने के लिए तो उसके
आश्रय का प्रत्यक्ष करना बहुत आवश्यक है ओर शब्दाभाव के आश्रय आकाल
का प्रत्यक्ष होता नहीं क्योकि वहु अतीन्द्रिय है । इसका क्या उत्तर है? वायु
यद्यपि अचाश्ुष है किन्तु वायुमें जो रूपामावदहै उसे तो चाश्चुष ( चश्ुर््राह्य )
ही देखते ह । अतः यह कोई नियम नहीं कि अमाव का प्रत्यक्ष करने के लिए
अभावाश्रय का प्रत्यक्ष करना जरूरी है । फल यह् हृजा कि शब्द कौ उत्पत्ति
जौर विनाश के आधार पर शब्द को अनित्य सिद्ध करते है। |
सोऽपि विरुद्रधर्मसंसर्मस्यौ पाधिकत्वोपपादनन्यायेन दत्तरक्त `
बरिवेतालसमः । यो हि नित्यत्वे सवेदोपरुन्ध्यनुपलब्धिप्रसङ्गो
न्यायभूषणकारोक्तः, सोऽपि ध्वनिसंस्कृतस्योपलम्भाभ्युपगमा-
सतिक्तः । यत्त युगपदिन्द्रियसंबन्धित्वेन प्रतिनियतसंस्कारक-
सस्कार्यत्वाभावानुमानं तदात्मन्येकान्तिकमित्यलमतिकरटेन ।
----~ ~~ - र नि मीम क ~~ +
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4 + क च !
-
५६ सवेदशनसंग्रहे-
ततश्च बेदस्यापौरुषेयतया निरस्तसमस्तशङ्काकलङ्काङ्करत्वेन स्वतः-
सिद्धं धर्मे प्रामाण्यमिति सुस्थितम् ।
शब्द मँ परस्पर विरुद्ध धर्मो ( उत्पत्ति ओर विनाश्च )का संसगं होना उपाधि
पर निर्भर करताहै, एेसा सिद्ध कर सकते है अतः उदयन उस वेताल की
तरह संतुष्ट हो जागे जो रक्त की बलि देखकर प्रसन्न हो जाताहै। [ ब्द
ने जो व्यंजक ध्वनि है वह उपाधिके ल्पे है जिसपर तारत्व, मंदत्व आदि
विश्द्ध धमं प्रतिभासित होति है भलेहीये धमं शब्द मँ वस्तुतः नहींरह।
उसी प्रकार उत्पत्ति ओर विनाश भी उस परवेमे ही प्रतिभासित होति है।
कोलाहल समाप्त हा, "शब्द उत्पन्न हुआ" इन वायो के व्यवहार इसी आधार
पर होते है। इन वाक्यों के सिद्ध करनेकी जो हमारी विधि दहै, उससे उदयन
संतष्टहो जायेगे । वे शब्द की नित्यता का खंडन करने को आगे नहीं बढृगे । |
न्यायभूषण के रचयिता ( भासर्वंज्ञ, समय--९२५ ई० ) ने जो यह कहा
है करि शब्द को नित्य माननेःपर,यातो सदा सभी शब्दोंकी उपलब्धि होगी या
सदा अनुपलन्धि ही रहेगी ; नाना प्रकार के नित्य शब्द यदि प्रत्येक को व्याप्त
करते है तो व्यंजक ध्वनिसे सभी शब्दों कौ उपलब्धि होगी ओर यदि व्याप्त
नहीं करते है तो व्यंजक ध्वनि रहने पर भी शब्द की उपलब्धि नहीं हो सकेगी }-
यह भी खरिडत हो गया है क्योकि घ्वनि से जिसका जहां संस्कार दो जाता है
वह उक्ीकी उपलब्धि होती है [ सभी शब्दों की सवत्र उपलन्धि या अनुपलब्धि
नहीं हो सकती । |
फिर भी कुछ लोग कह सकते हैँ किं [ शब्दों के व्यापक होने के कारण
समी शब्द] एक ही साथ श्रोत्रेन्द्रियं से संबद्ध हो जायंगे इसलिए संस्कारकं
( व्यंजक ध्वनि ) ओर संस्कायं ( शब्द ) का नियमित संबन्ध नहीं मिल सकता,
ेसा अनुमान होता है । [ अनुमान इस रूप में होगा-- कोई शब्द किसी निशित
संस्कारकर के द्वारा संस्कृत नहीं होता, क्योकि दूसरों के साथ भी उसका वही
संबन्व रहता है । किन्तु यहाँ पर हेतु सत् ( शुद्ध ) नहीं दै । | यहां आत्मा मे
अनैकान्तिक ( सव्यभिचार ) हेतु है-सो, अधिक क्षगड़ा करना बेकरार हे
[ समी जोवात्माएुं विभु दहै, सर्वत्र विमान ह फिर भी चाक्चुष-प्रस्यक्ष आदि से
ज्ञान प्राप्त करने के समय एक ही आत्मा संस्कृत होती है, सभी जीवात्माये नहीं ।|
अतः सारी शंकाओंके कलंकाकुर का नाश हो जाने पर, अपौर्षेय ज्ञान
के ल्पे धमंके विषयमे, वेद की प्रामाणिकना अपने आपमेंहीसिददै-
यह् निरिचत हुआ ।
4 ५५७
( १९. प्रामाण्यवाद् का निरूपण )
स्यादेतत् ।
१०. प्रमाणत्वाप्रमाणत्वे स्वतः सांख्याः समाता; ।
तेयायिकास्ते परतः, सौगताश्चरमं स्वतः ॥
११. प्रथमं परतः प्राहुः प्रामाण्यं, वेदवादिनः ।
प्रमाणत्वं स्वतः प्राहः परतश्चाप्रमाणताम् ॥
इति वादिविवाददशेनात्क्थंकारं स्वतः धर्म प्रमाण्यमिति
सिद्भवच्छरत्य स्वीक्रियते !
अस्तु, ठेसा ही हो । परन्तु निम्नलिखित सूप मे वादियों को विवाद करते
हुए देख कर भी आप वेद को धमं के विषय मे अपने आपमें प्रमाण मानते हृए
इसे निर्चित-जेसा वयो समञ् रहे है? शध्रामार्य ओर अश्रामारय दोनों को
वांख्य लोग स्वतः मानते ह । नैयायिक लोग दोनों को परतः मानते है \ बौद
लोग अप्रामारय को स्वतः तथा प्रामाण्य को परतः कंते है जब कि
वेदवादी ( मीमांसक ) लोग प्रामारखय को स्वतः तथा अत्रामाए्य को परतः
मानते ह 1"
विक्तोेष--यथा्थं अनुभव के रूपमे जो प्रमाया प्रमाण होता है उसीमे
रहनेवाले धमं को प्रामाण्य (या प्रमाणत्व या प्रमात्व ) कहते हैँ । इसी तरह
अयथाथं अनुभव में रहनेवलि धमं को अप्रामाण्य कहते हि। अव प्र्नेहिकि
किसी वस्तु केप्रामाख्य या आप्रामाण्य का कारण क्या है? कारण खोजने के
विषय मे विभिन्न दार्थ॑निकं विवाद करते है--उनके वाद को ही प्रामाण्यवाद्
के नामसे पुकारते्है। यहदोप्रकार का हो सकता है) एक तो वहं जिसमें
कारण को प्रामाण्य का उत्पादक समन्ले ओौर दूसरा वह् जिसमे कारण को इस
का ज्ञापकं ( बतलाने वाला ) समल । इस धिवाद का मूल यही टैक कुद लोग
प्रामारय का कारण स्वयं ( = प्रामाण्य, उसपर आधित ज्ञान तथा उसके लिए
उपयुक्तं कारणसामग्री ) को ही समञ्चते ह जबकि दूसरे लोग इसका कारण
किसी अन्य साधन ( जैसे स्मृति, अनुमान आदि ) को समञ्च ह । यही बात
अप्रामारय के सम्बन्धमें मीदहै। अपने ञआप्मेय दि अग्रामाणिकता उत्पन्नया
ज्ञात होतो अप्रामारय स्वतः है, अन्यथा परतः हि यदि वह किसी दूसरे साधन
से उत्पन्च होती है । विभिन्न दाश॑निकों के विवाद इस प्रकार है-
ॐ - # पि ह [ह बे च्छ
कक स्का ॐ +
1) 0 अ
ऋ तः ऋः गजवान "
= अ ~ 9
५४८ स्वदशेनसं्रह-
( १) सांख्यो के अनुसार, प्रामाण्य स्वतः, अघ्रामा्य स्वतः ।
(२) तेयायिकों + - च ,, परतः ।
( ३ ) बौद्धो ६ ~ चरक „, स्वतः।
(४) मीमांसको ४ , स्वतः, ;: "परतःः)
परभारयवाद के प्रन पर मीमांसकों का सबसे वड़ा विवाद नेयायिकोके ही
साथ है। यद्यपि नैयायिक ओौर मीमांसक अप्रामारायके प्रहन पर एक
मत है कि यह् परतः है पर प्रामाण्य के विषय मेँ दोनों एकान्त-विरोधी है ।
नैयायिको का कथन है कि प्रामारय तमी उत्पन्न हो सकता है जब ज्ञान
को उत्पन्न करने वाले सभो साधन विद्यमान हो, इन्द्रियां ठीकहों आदि। ये
सभी साधन बाह्य है । विषयेद्धियसंनिकषं होने पर (अयं घटः' यह व्यवसाया-
त्मक्र ज्ञान उत्पन्न होतादहै। तब अहं घटं जानामि" इस खूप में अनुव्यव-
साय का जन्म होता है। इसके बाद प्रामारय ओौर अप्रामारय की स्मृति होती
है, तब ईस प्रत्यक्षज्ञान के विषय में सन्देह उत्पन्न होता है--अन्त में प्रवृत्ति के
सफल होने पर ज्ञान को प्रामाणिक कहते है । अतः अनुमानके द्वारा प्रामाण्य
की उत्पत्ति होने से ये लोग परतः प्रामाण्यवाद् स्वीकार करते है ।
इस पर मीमांसक कहते है कि उक्त बाह्य साधन वास्तवमें उस ज्ञान के
सामान्य साधन है क्योकि उनके बिना विश्वास नहीं होगा ओौर इसलिए कों
ज्ञान नहीं होता । नैयायिको कौ यह उक्तिकि प्रामाण्य अनुमान से उत्पन्न
होता है, श्रान्त है क्योकि इससे अनवस्था होगी ओौर सारे व्ववहार निष्फल
हो जार्थेगे ¦! यदि किसी प्रत्यक्ष के समर्थन के लिए अनुमान की भावदश्यकता
हैतोन्याय के नियमके ही अनुसार अनुमान का भी तो समथन किसी दुसरे
अनुमानसेहोगा। इस तरह एक प्रत्यक्ष पर अनन्त काल. तकं अनुमान चलते
रहैगे । इस तरह करने से संसार काकाम केसे चलेगा? मोटर की ध्वनि
सुनते ही हम बगल हो जाते दहै । यदि सुनने के बाद अपने प्रत्यक्ष ज्ञान की
प्रामाणिकता के लिए अनन्त काल तक चलने वाले अनुमानों में इबे ररहैगे
तो डग-डेग पर दु्घंटना होतो रहेगी । यह सच हि करि संदिग्ध स्थलों पर प्रामारय
के लिए हमें अनुमान का सहारा लेना पड़ता है किन्तु यहाँ पर अचुमान का
काम इतनाहीहै किज्ञान के मागं में आने वालो कठिनाइ्यो को वह दुर
करदे। इनके दूरहो जाने पर ज्ञान अपने आपमें सामान्य साधनों ( कारण-
सामग्री ) से उत्पन्न होता है । ज्ञान उत्पन्न होने परं प्रामारय कौ तथा प्रामाण्य
मे विश्वास की उत्पत्ति भी होती है ।
फ. ग्र ` 1 7१ #ि 27
दक + ~ ॥
ककन 0 = नि ९
ष्क सककरः र § ^ `.
जेभिनि-दशनम् ५५६
आत वाक्यों मे भी--चाहे पौरुषेय हो या अपौरूषेय, वैदिक या अदेदिक-
हमारा विश्वास टेसे ही उत्पन्न होता है। जब तक सन्देह का कोई कारण
न हो, किसी सार्थक वाक्यको सुनकर हम उसमे तुरत विश्वास कर लेते है।
इसीलिए असंदिग्ब वेद भी स्वतः प्रमाण है। यह अपौरुषेय है । इसकी प्रामा-
शिकता स्वयंतिद्ध है, अनुमान से नहीं । हा, सन्देह ओर अविश्वास दुर करने
के लिए त्को की आवश्यकता तो पड़ती है । सन्देह ओर अविदवाक्त दूर हौ
जानि पर वेद अपने अर्थो कौ अभिव्यक्ति स्वयं करते है तथा अर्थावबोध के
साथ-साथ विश्वास ( प्रामारुय ) भी चलता रहता है । इसके लिए मीमांसाका
एकमात्र कतंब्य है करं जिन त्को के आधार पर वेदी कौ प्रामाणिकता पर
कृठाराघात करने कौ सम्भावना हौ उन सों का निवारण करे ओर यही
क्रिया भीगयादै।
यद्यपि सत्य ( प्रामाण्य ) स्वयंसिद्ध है अर्थात् जब भी ज्ञान उत्पन्न होता
ह तो इसके साथ-साथ एक विघास भी लगा रहता है कि यह सत्य है, तथापि
कभी-कभी संभावना होती दहै कि कोई दूखरा ज्ञान इसे गलत न सिद्धकरदेषा
इसके साधनों को दोषपूणं न ठहराये । ठेस स्थिति में इन दोषधूणं साधनों के
आधार पर यह सिद्ध करने के लिए अनुमान करते है कि यह ज्ञान असत्य
( अप्रामाणिक ) है। स्पष्ट हैकिज्ञान की अभ्रामाणिकता के लिए हमे अनुमान
( बाह्य-साधन ) पर अवलंबित रहना पडता है। इसे ही “परतः अप्रामाण्य'
कहते है । फलतः जबः कोई प्रत्यक्ष, अनुमान वा कोई दूसरा ज्ञान उत्पन्न होता
8 तो उसे हम अपने आप स्वीकार कर लेते है, तकं नहीं करते जब तक कि
किसी विरोधी प्रमाण से उसपर संदेह या अविश्वास करने को समस्यान आ
जाये ओर हम अनुमान से उसका अप्रामारय न स्वीकार करं । इसी खूप में
हमारा काम चलताहै। इस प्रकार मीमांसाके मतका स्पष्टीकरण किया
गया है।
( ११. क. स्वतःप्रामाण्य का अथे--लम्बी आरांका )
वि च किमिदं स्वतः प्रामाण्यं नाम ? कि स्वत एष प्रामा-
ण्यस्य जन्म १ आहोस्वित् स्वा्रयज्ञानजन्यत्वम् ! कि
` स्वाश्रय्ञानसामग्रीजन्यत्वम् १ उताहो ज्ञानसामान्यसामग्रीजन्य-
ज्ञानविज्ेषाभितत्वम् ? किं वा ज्ञानसामान्यसामग्रीमात्रजन्यज्ञान-
विक्ेषाभरितत्वम् ?
५६० स्वंदशेनसंग्रहे-
[ पूर्वपक्षी कहते है कि ] अच्छा बतलाद्ये--इस स्वतः प्रामारय काक्या
अथं हे? क्या प्रामाण्य अपने आप से उत्पन्न होता है? अथवा अपने आधार-
स्वरूप ज्ञान से उत्पन्न होता है ? क्या अपने आधारभूत ज्ञान की सामग्रीसे
उत्पन्न होतादै? या क्या ज्ञान के साधारण कारणों (सामग्री) से जी
बि्ञेष ज्ञान उत्पन्न होता है उसमें रहता है ? या केवल ज्ञान के साधारण कारणों
(सामग्री मात्र) से ही उत्पन्न होने वले विशेष ज्ञान में रहता है ? { इनमे से
कौन-सा अर्थं आप लेंगे कोई मी ठीक नहीं है ? |
तत्राद्यः सावद्यः । कार्यकारणभावस्य भेदसमानाधिकरणः
त्वेन एकस्मिन्नसंभवात् । नापि द्वितीयः । गुणस्य सतो ज्ञानस्य
ग्रासाण्यं प्रतिसमवायिकारणतया द्रव्यत्वापातात् ।
( १ ) उनमें पहला विकल्प तो दोषपूशं है क्योकि कायं ओर कारण के
बीच मे मेद रहना आवश्यक है, दोनों तच्व एक हीमे नहीं रह॒ सकते ।
[ प्रामारय ही कारणा ओौर कायं दोनो बनकर अपनी उत्पत्ति अपने आपसे
नहीं कर सकता । ] ( २) दूसरा विकल्प भो ग्राह्य नही हि क्थोकि ( यदि ज्ञान
चे प्रामार उत्पन्न होता है तो ] ज्ञान को प्रामारय का समवायिकारण मानना
पडेगा ओर ज्ञान को, जो गुण है, द्रव्य मानना पड़ेगा । | गुण किसी का सम-
बाथिकारणा नहीं हो सकता अतः प्रामारय ( कार्यं } के कारणभूत ज्ञान को द्रव्य
मानने का प्रसंग आ जायगा ! देखिये-- भाषापरिच्छेद, २३- समवायिकारणत्वं
रव्य स्थैवेति विज्ञेयम् । |
नापि ठतीयः प्रामाण्यस्योपाधित्वे जातित्वे वा जन्मा-
योगात् । स्मृतित्वानधिकरणस्य ज्ञानस्य बाधात्यन्ताभवः त्रानाः
ण्योपाधिः । न च तस्योत्पत्तिसंभवः । अत्यन्ताभावस्य नित्य-
त्वाभ्युपगमात् । अत एव न जातेरपि जनियुज्यते ।
(३ ) तीसरा विकल्प भी ठीक नहींहै क्योकि उपाधिके रूपं लंया
जातिके ल्यमे, प्राभारयका जन्महोताही नहीं) [प्रामार्यका अर्थं
अनेकं प्रामाणिक ज्ञानो रहने वाला एक वर्मं । एसे धमं को सामान्य भी
कहते दै । सामान्य के दो भेद है--जाति ओर उपाधि । यदि प्रामाण्य करो
जाति स नेते है तो जाति नित्य होती है, अतः प्रामाण्य कौ उत्पत्ति मानना
पंभव नहीं । अव यदि आप करं कि प्रत्यक्षत्व आदि के संबन्ध होने से प्रामाण्य
जाति नहीं है तब उसे उपाधि माने। उपाधिके दो भेद है सखण्ड ओर
` अखरड । यदि प्रामारय अखंड उपाधिके रूपमे हैतो नित्य ही है । यदि बह
५
जेमिनि-दशेनम् ५६१
सलंड उवाधिके रूपमे हो तबरतो द्रव्यादि पदार्थो में अन्तभूंत होकर कहीं
नित्य, कहीं अनित्य हो जायगा । जैसे पृथिवीत्वं आदि से मिल जने के कारण
शरीरत्व जाति नहीं हे, बल्कि उपाधिदहै। ेसाहोनेसे शरीरमेंचेष्टाका
आश्रय होना ही शरीरत्व है" अर्थात् चेष्टा ही शरीरत्व है। अवच्रुकि चेष्टा एक
प्रकार की क्रिया है इसलिए शरीरत्वमें क्रिया रूपौ उपाधि होनेके कारण
अनित्यता का आरोपण हो जायगा। इसे प्रामाण्य यथार्थानु मवत्व अर्थात्
अनुभव मं रहनेवानी यथार्थता दै । अनुभव दकि स्मृतिसे भिन्न ज्ञान है
इसलिए अनृभव की यथार्थता का अभिप्राय होगा--बाधा ( ००३११०४० }
का अत्यन्ताभाव । कारणा यह दहै कि बाधित ज्ञान यथाथ नहीं होता । अतः यहाँ
उपाधि है--अनुमवात्मक ज्ञान की बाधा का अत्यन्तामाव । अब जब उपाधि को
हो प्रामारय समन्ते है तब तो उपयुक्त बाधात्यन्ताभाव कोहीप्रामारय मानते
होगि । अत्यन्ताभाव भी नित्य ही होता है इसलिए उपाधि के रूपमे मी प्रामाण्य
करो लेने पर इसकी उत्पत्ति नहीं हो सकती । यही आगे कहते है ।]
स्मृति के स्वमावसे जो पृथक् हो वेसे ज्ञान की बाधा का अत्यन्ताभाव ही
प्रामारय या उपाधि है ( यदि आपप्रामर्य को उपाधि मानते ह )। उसकी
उत्पत्ति नहीं हो सक्ती क्योकि अत्यन्ताभाव को समी लोग नित्य मानते ह ।
इसलिए जाति [के रूपमे भी प्रामारय को स्वीकार करने पर उस | को उत्पत्ति
नहीं हो सक्ती दै [ क्योकि जाति भी नित्य ही होती है। |
नापि चतथेः। ज्ञानविशेषो द्यप्रमा । षिशेषसामग्रयां च
सामान्यसामग्री अनुप्रविश्चति शिक्लपासामग्रयामिव बृक्षसामग्री ।
अपरथा तस्याकस्मिकतवं प्रसज्येत । तस्मात्परतस्त्वेन स्वीकृता-
प्रामाण्यं विज्ञानसामान्यसामग्रीजन्याभितमित्यतिन्यापिरापद्येत ।
( ४ ) चौथा विकल्प भी स्वीकायं नहीं है । अप्रमा ( अयथाथं अनुभव ) भी
एक विशेष प्रकार काज्ञान ही है । [ वस्तुतः सीप रहने पर भी दूषित इन्द्रिय
के कारणा जो रजत की प्रतीतिहोजातोरहै यहभीज्ञानहीदहै। यहभीज्ञान
की सामान्य सामग्री ( इन्द्रिय, प्रकाश आदि ) से ही उत्पन्न होता है। | ज्ञान की
सामान्य सामग्री को उसकी विशेष सामग्री ( साधनों ) में अन्तरक्त कर लिया
जाता है । जेसे- वृक्ष की सामग्री ( सामान्य साधन) को शिशपाको सामग्री
मही गिनलेतेटह। [ वृक्ष के सामान्य कारणा है- मिट, जल, हवा, धृष, बीज
आदि । एक विदेष वृक्ष शिशपा है उसमें अन्य कारणों के साथ विशेष प्रकारका
( शिद्यपा का ) बीज भी कारणसामग्री मे आता है। यह भी एक प्रकारका बीज
३& स० सं
क~
४
6
§ |
|
|
१
^ |
५४ ।
¢
५६२ सर्वदशनसंग्रहे-
ही है। यदि इसे बीजन मान ] तो श्ि्यपा वृक्ष की उत्पत्ति बिना बीज के आक
स्मिक खूपसे होती है, रेसा स्वीकार करना पडेगा । [ फल यह होगा किं |
अयथार्थ ज्ञान भी ज्ञान कौ सामान्य वामभ्री से उत्पन्न एक विशेष प्रकार का जान
बन जायगा, जब करि माप ( मीमांसक लोग ) अयथाथं ज्ञान अर्थात् अप्रामाण्य
को परतः के रूपमे स्वीकार करते है, अतः अतिव्या्नि-दोष हो जायगा ।
[ प्रामाण्य का लक्षण अग्रामाराय को भी अपने मे समेट लेगा |
विरोष-- अप्रमा एक ज्ञानविशेष ह । विशेष कारणों मे सामान्य कारणो
का अन्तर्भाव हो जाता है। सःमान्य कवि म जो गुणाद वे विशेष कवि म भी
होति ही ह। अतः ज्ञानविशेष मे ज्ञान-सामान्य जा गया । चौथे विकल्प के
अनुसार ज्ञान के सामान्य कारणों से निकले ज्ञानविशेष पर प्रामार आधारित
रहता है । त्र तो अप्रमा भो प्रामार्यदहीकीकोटिमे आ गई क्योकि यह भी
ज्ञान के सामान्य कारणों से निकले ज्ञानविशेष पर ही आधारित है, यह सिदध
किया गया है । पौचवं विकल्प मे "मातर , ब्द रख देने से उक्त दोष का परिहार
हो जाता है। इसे आगे कहते है ।
` पञ्चमविकःरपं विकल्पयामः । क्रि दोषामावसहद्ृतज्ञानसा-
मग्रीजन्यत्वमेव ज्ञानसामग्रीमात्रजन्यत्वं किं वा दोषाभावासहडङृत-
ज्ञानसामग्री जन्यत्वम् १ नाद्यः । दोषामावपहद्तज्ञानसामग्री-
जन्यत्वमेव परतः प्रामाण्यवादिभिरररौकरणात् ।
( ५) पांचवें विकल्प के सम्बन्ध मे हमे पूना दै करि केवल ज्ञान के कारणो
से उत्पत्ति होना' इसका अथं क्या है--( क ) क्या दोषाभाव के साथज्ञान के
कारणों से उत्पन्न होना या५ख ) दोषाभाव से रहित होकर ज्ञान के कारणों
से उत्पन्न होना ?
( कं ) पहला विकल्प तो ठीक हौ नहीं है क्योकि दोषाभाव से युक्त ज्ञान
के कारणों से उत्पन्न होना ही 'परतः प्रामारय' है इसलिए प्रामार्य को बाह्य
साधन से उत्पह ( परतः ) माननेवाले यायिकादि इसे तुरत स्वीकार करलेगे । |
वि्तोष--चौये विकल्प भे दोष । अतिव्यामि ) का प्रम देखा गया है
अयथाथं ज्ञान जहाँ होता टै उन स्थानों मे सामान्य कारणों को अपेक्षा दोषरूपो
कारणा ही अधिक होता है। इसीलिए "मात्रं शब्द का प्रसोग करके व्यावृत्ति
( दोर्षो की) की जाती है। उसो प्रकार यथार्थं ज्ञान के स्थलोंमे सामान्य
सामग्री की अवेक्षा दोषाभाव-हूषी कारण हौ अधिक ह। अतः “मात्र शब्द से
उस दोषाभाव कौ व्यावृत्ति ( 1,९५। 308 ) करं या नही ? पहले विकल्प
जेमिनि-दशनम् ५६३
से दोषाभाव करी व्यावृत्ति नहीं करते, दूसरे विकल्प मे व्यावृत्ति करते हैँ । पहला
विक्रल्प इसलिए उठाया गया किं व्यावृत्ति करने से प्रामाण्य के लक्षण का को
उदाहरण ही नहीं दिया जा सकता, इसलिए दोषाभाव को हटाना ठोक नहीं
ह। दूसरे विकल्प के उठनि में कारण है कि यथाथज्ञान में दोषाभाव कारणाके |
खूप मं नहीं रह सकता, उपे हटाने पर भी कोई हानि नहीं है ।
नापि द्वितीयः । दोषाभावसहशृतत्वेन सामग्रयां सहछृतत्वे
सिद्रेऽनन्यथासिद्धाबन्वयन्यतिरेकसिद्धतया दोषाभावस्य कारण-
ताया वज्रलेपायमानत्वात् । अभावः कारणमेव न भवतीति
चेत्तदा वक्तव्यमभावस्य कायत्वमस्ति नवा? यदि नास्ति
तदा घटग्रध्वंसानुत्पच्या घटस्य नित्यताप्रसङ्गः। अथास्ति,
किमपराद्धं कारणत्वेनेति सेयघरुभयतस्पाश्चा रज्जुः ।
(ख ) दूसरा विकल्प मी ब्राह्यं नहीं। [ दोषाभावको ज्ञान सामग्रीसे
हटा कर नहीं चला जा सक्ता । ] कारण यह है कि दोषाभाव के साय-साथही
ज्ञानसामग्री ( ज्ञान के कारणो-जेसे इन्द्रिय, प्रकाश आदि) रहने परज्ञान
की उत्पत्ति हो सकती है, उसके बिना नहीं ( दोषाभाव न रहने पर = दोष रहन
पर ज्ञान सामभ्रीसे ज्ञान को उत्पत्ति नहीं होती )--इस प्रकार अन्वय-व्यतिरेक
से हम [ ज्ञानोदत्ति के लिए | कारण के रूपमे दोषाभाव को वज्लेप ( सिमट
के पलस्तर ] की तरह दृदृता से स्वीकार करगे । अब यदि आपकर्हँकिहम
अभाव को कारणा ही नहीं मानते, एेसा होता ही नहीं तो बतलाइये कि अभाव
का्यंहो सक्रताहिया नहीं?
यदि अभाव कायं नहींदो सकता तो घट को नित्य भानना पडेगा क्योकि
चट के प्रध्वंस (जो एकं अभावही है ) की उत्पत्ति नहीं हो सकेगी । यदि अभाव
कायं हो सक्रतादहैतोकारणने आपका क्याविगाड़ाहैकि अमावकोकारण
नहीं होने देते है । इस प्रकार दोनों ओरसे वाँधनेवाली रस्पी आपक्रे ऊपर है
[ जो आपको फंस्ा हौ लेगी |।
तदुदितयुदयनेन--
भावो यथा तथाभावः कारणं कायंवन्मतः ।
( न्या° ० १।१० )
इति । तथा च प्रयोगः--बिमतं प्रामाण्यं ज्ञानहेततिरिक्त-ः
हेत्वधीनं कायेत्वे सति तद्विरेषाभितत्वादप्रामाण्यवत् । प्रामाण्यं
५६ ५ सर्वदशंनसंग्रदे ह = हे =
परतो ज्ञायते अनम्यासदज्ञायां सांश्चयिकल्वादप्रामाण्यवत् ।
तस्मादत्पत्तौ ज्ञपो च परतस्त्वे प्रमाणसंमवात्सखतः सिदध
प्रामाण्यमित्येतसपूतिकुष्माण्डायत इति चेत्-।
इसे उदयन ने भी कहा है जिस प्रकार भाव कारण होता है उसी प्रकार
अश्राव भी कायं की तरह कारण भी हो सकता है ( न्यायकरसुमांजलि, १।१० ) ।
[ अभाव को स्वरूपटीन होने के कारणा समवायि-कारण मत समक्षिये किन्तु उसे
निमित -कारण तो मान ही सकते ह । इसमे कोई भी बाधा नहीं है । इस प्रकार
ठक्त पाच प्रकारोमेसे किसी के हारा स्वतःप्रामारय की निरुक्ति नहीं हो पाती
अतः विवश होकर हमे परतः प्रामारय ही स्वीकार करना पड़ता है । अनुमान
भ इसके लिए प्रमाण हो सकता है-]
इसके लिए तकं ( 12८0670४ ) इस रूपमे हो सकता है--श्रस्तुत
विवादग्रस्त प्रामारय ज्ञान के सामन्य कारणों के अतिरिक्त किसी दूसरे कारण
( दोषाभाव ) के अधीन है, क्योकि यह् कायं होने के साथ-सा ज्ञानविशेष
वर आधित है जैसे अप्रामार्य ।' [ इस प्रकार उत्पत्ति के विषय में प्रामाण्य
को परतः सिद्ध करके अबये नेयायिक ज्ञप्ति के विषयमे भी इसे परतः सिद्ध
करने का प्रयास कर रेह] प्रामाण्य को बाह्य सावन (जेसे--अनुमान)
से ही जानते भी है व्ोकि जिस वस्तुः का परिचय ( अभ्यास ) पहले से नही
रहता है उसके विषय मे संशय उत्पन्न होता है जैसे अप्रामारुय के विषय म
होता है। [ अप्रामारय को तो मीमांसक भी षरतः ही मानते है । जेसे किसी
अज्ञात माभ पर जाते-जाते कोई व्यक्ति जब जल देखता है तब सोचतादैकि
यह ज्ञान प्रमाहै या नही तात्पयं यहं करि संशय मे पड़ जातादै। जब
वास जाता है तब पहले से उत्पन्न जल-ज्ञान को तब प्रमा कहता है जब उससे
सफ़ल प्रवृत्ति उत्पन्न होती है । यदि एेसा नहीं हुभा तो वह पूरवं्ञान अभ्रमा है-
हस प्रकार अनुमानसे प्रामाणयका ज्ञान होता है। यदि प्रामाण्य ज्ञान को
वामान्य रूपसे ज्ञात करानेवाले कारणो से हौ ज्ञात हो जातातो ज्ञ नोसत्ति के
बाद ही आन्तर प्रत्यक्ष से ज्ञान माद्ुम हो जाता तर्था उसी रहने वाला
प्रामारय भी ज्ञात ही हौ जाता-- संशय उत्पन्न होने का अवकाश ही
कहां था? |
पृवेपश्च का निष्कषं-- इसलिए उत्पत्ति ओर ज्ञप्ति दोनों विषयों में परतः
्रामारय के ही लिए प्रमाण संभव दहै मौर स्वतःसिद्ध प्रामाण्य तो मानना
पके हृए् कुम्हडे की तरह व्यथं ( असंमव ? ) है।
8 ५६५
( १२. स्वतःप्रामाण्य की सिद्धि-शंका-समाघान )
तदेतदाकाशमटिहननायते । विज्ञानसामग्रीजन्यत्वे सति
तदतिरिक्तरेत्वजन्यत्वं प्रमायाः स्वतस्त्वमिति निरृक्तिसंभवात् ।
अस्ति चात्रानुमानम्-- विमता प्रमा विज्ञानसामग्रीजन्यत्वे सति
तदतिरिक्तजन्या न भवति । अग्रमात्वानधिकरणत्वात् । घटादि-
प्रमावत् ।
[ अब हम समाधान करते है--] उपयुक्त सारे के सारे तकं आकाशमें
धसा चलाने के बराबर [ निष्फल | है। जोज्ञान के सामान्य कारणों ( इन्द्रिय,
प्रकाश आदि) से उत्पन्न होने के साथ-साथ, उनके अतिरिक्त किसी भी दूसरे
कारणा से उत्पन्न न हो वही स्वतः प्रामाण्य है--इस प्रकार इसको निरुक्ति
( एग ) दी जा सकती है । यही नहीं, इसमें अनुमान भीदिया जा
सकता है- विवादग्रस्त प्रमा ज्ञान के साधारण कारणों से उत्पन्न होने के सथः
साथ उनके अतिरिक्त किसी कारण से उत्पन्न नहीं होती क्योकि यह अप्रमा कौ
तरह की चीज नहीं है, जिस तरह घट आदि प्रमाय ह। [ज्ञान की सामान्य
सामग्री ( कारण समूह ) से ही प्रमा-रूपी ज्ञानविदोष की उत्पत्ति होती है, नकि
उसके अतिरिक्त किसी अधिक गुण सेया दोषाभावसे। दोष तोप्रमाका
प्रतिबन्धक है-एेसा हम मानते ह । |
न चौदयनमनुमानं परतस्त्वसाधकमिति शङ्कनीयम् । प्रमा
दोषव्यतिरिक्तज्ञानहेत्वतिरिक्तजन्या न भवति ज्ञानत्वादग्रमा-
वदिति प्रतिसाधनग्रदम्रस्तत्वात् । ज्ञानसासग्रीमात्रादेव प्रमोत्प-
पत्तिसंभवे तदतिरिक्तस्य गुणस्य दोषाभावस्य वा कारणत्व-
कल्पनायां कल्पनागोरवग्रसङ्गाच्च । ननु दोषस्याप्रमाहेतुत्वेन
तदाभावस्य प्रमां प्रति हेतुत्वं दुर्निवारमिति चेन्न ) दोषामावस्या-
प्रमाप्रतिबन्धकत्वेनान्यथासिद्रत्वात् ।
ठेसी शंका नहीं करनी चाहिए कि उदयनाचार्यं के द्वारा दिया गया अनुमान
प्रामाण्य को परतः सिद्ध कर देगा । उनके अनुमान के विरुद्ध सिद्धि करने वाला
( (0णधलः 10 66066 ) ग्रह॒ उनके [ अनुमान के ] पचे लगा हभ है-
प्रमा ( यथार्थानुमव --यही पक्ष है ) दोषों से पृथक् रहने वले ज्ञान के सामान्य
कारणो के अलावे किसी कारण से उत्पन्न नहीं होती वयोकिं वह् ज्ञान है जिस
न वः =
न
~ ~ -
सिन ~ 2 गं
1 स्र ->
"+ मी =
द
क $ + +^.
वो व
बकु > न ७. = ऋ [क
---
क
५६६ सवैदशेनसंग्रे-
प्रकार अप्रमा ।* जब केवल ज्ञान-सामभ्री (ज्ञानक सामान्य कारणों से
ही प्रमा कौ उत्पत्ति हो सकती है तो उनके अतिरिक्त किसी गुण या दोषाभाव
को कारण बनाना कर्पना-गौरव ( अनावश्यक कल्पना करन) ) नामक दोष
का भागी होगा ।
अब यदि कोई कटे कि दोषको तो ओप ( मीमांसक } अध्रमाका कार्ण
मानति हतो दोषके अभावको प्रमाका कारण मानना अनिवायं है,- तो
हम करगे कि एसी बात नहीं हो सकती । दोषाभाव केवल अप्रमा के प्रतिबन्धक
के रूप मे हम मानते है, इसकी सिद्धि दूसरे खूप मं होती है। [ जेसे चट के पूवं
निदिचत रूप से रहने पर भी दरडत्व या दर्ड के रूप को हम कारण नहीं
मान सकते । कारण नहीं रहने पर भौ उसकी पूवंवृत्ति ( पहले रहने ) का
नियम तो रहेगा ही क्योकि घट का दण्डत्व वा दण्डरूप भले ही न हो, दण्ड तो
है । दरड चूंकि दण्डत्व जजर दण्डरूपके बिना रहं नहीं सकता जतः इन्दं घट
के पूवं निरिचित रूप से रहना जरी ह । दश्डत्वादि की सिद्ध दुसरे रूप मे होती
ह ( अन्यथासिद्ध ) या इनं नहीं मानने से घट की सिद्धि नहीं होगी ( अन्यथा +
असिद्ध )। उसी प्रकार प्रमाज्ञान के पूवं मे नियमतः रहने पर भी दोषाभाव
को प्रमाज्ञान का कारण नहीं कह सकते, पर उसे पूरं में रहना जलरी है क्योकि
दोव अप्रमाकाकारणहै, दोष रहने पर प्रमा करी उत्पत्ति नहींहो सकती ।
इस प्रकार जहाँ प्रमा का ज्ञान होता है उन स्थलों मे नियमतः पूवं मे रहने-
वाला दोषाभाव इतना काम कर देता है कि अघ्रमाके ज्ञान का प्रतिबन्ध
हो जाये । प्रमा-ज्ञान के उत्पादन सं उसकी कोई उपयोगी क्रिया नहीं होती ।
इस तरह दोषाभाव प्रमाज्ञान का कार्स नहीं, दूसरे रूपमे उसकी सिद्धि होत)
हे ( अन्यथा-सिद्ध ) । |
१२. तस्माद् गुणेभ्यो दोपाणामभावस्तद भावतः ।
अग्रामाण्वद्यासभ्वं तेनोत्सरगोऽनपोदितः ॥ इति ।
[ यदि प्रमाज्ञान के लिएगु णो कोकारणकेरूपमे स्वीकार नहीं करेगे
तो गुणों को मानना ही व्यर्थ ह। इसी के उत्तर मे कहते ह ]--इस प्रकार
गुणों से दोषों के अभाव का बोघ होता है ओौर दोषों के भमावसे [ संशय भौर
विपर्यय न हो सकने के कारण | दोनों प्रकार के अप्रामारयों ( निश्चित
अघ्रामारय तथा स्दिग्व अप्रामाण्य ) कौ सत्ता नहीं रहती । उसके बाद
( अप्रामाण्य के अभाव मे ) सामान्य ( उत्सगं ) प्रामाण्यका बहिष्कार नहीं
+ इस प्रकार उदयन का अनुमान सत्प्रतिपक्ष हेतु से युक्त दै ।
+ ~+
~ क
॥ ३ क
1
[का
= (~ € ।
जमिनि-दशंनम् ५९७
क्रिया जा सकता [ वयोकि अपवाद न रहने पर उत्सर्गं कौ ही शक्ति
रहती है । |
विरोष्र--दुरी पुस्तकों में--तेनोत्सर्गो नयोदित.' पाठ है जिसका अर्थ
होगा किं अप्रामाएयका अभाव रहने से उत्षगं अर्थात् सामान्य का उद्य
स्वभावतः ( नयेन ) ही हो जायगा । इ प्रकारः उत्पत्ति-विंषयक प्रामारय
का स्वतःसिद्ध होना प्रमारित क्रिया गया । अज ज्ञपि (ज्ञान ) के विषय
सेभौी जो श्रामारय होता है उसकी स्वतःसिद्धि प्रमाणित की जाती है।
ˆ १२ क. ज्ञपि-विषयक स्वतःश्रामाण्य की सिद्धि)
तथा प्रमाज्ञपरिरपि ज्ञानज्ञापकसामग्रीत एव जायते । न च
संशयायुदयग्रसङ्गो बाधक इति युक्तं वक्तुम् । सत्यपि प्रतिभा-
सपुष्कलकारणे परतिबन्धकरोषादिसमवधानात्तदुपपत्तेः । किं च
क क स [क
तावकमनुमानं स्वतः प्रमाण न वा! आचेऽनेकान्तिकता ।
द्वितीये तस्यापि परतः प्रामाण्यमेवं तस्य, तस्यापीत्यनवस्था
दुरवस्था स्यात् ।
हसी तरह प्रमा की ज्ञप्ति (प्रामाण्य का ज्ञान )भो ज्ञान के बोधक करणा
से ही उत्पन्न होती है ( किन्हीं बाह्य अनुमानादि करणोंसे नहीं), एसा भो
कहना युक्ति-युक्तं नहीं है करि संशय नामकी कोई चीजन रहनेके कारण
ठेसी विचारसरणि रखने पर बाधा प्डेगौ। संशय की सिद्धि वहीं होती दै
जहाँ यद्यपि ज्ञान ( प्रतिभास ) को उत्पन्न करने वाले सभी कारण विद्यमान
हों, तथापि कु प्रतिबन्धक कारणों जैसे दोष आदि-कीभी साथ-साथदही
सत्ता रहे
अच्छा, अबयह कंहेंकिं आप का ( उदयन का ) उक्त अनुमान अपने
अपने प्रमाणादैया नहीं? यदि स्वतः प्रमाण हेतो [ आपके हारा प्रामाण्य
करो परतः माने जाने का नियम | व्यभिचरित होगा ( एकान्त रूप से प्रतिष्ठित
नहीं होगा क्योकि आप दोनों ओर प्रामाण्य कोले चलेगे।) अव, यदि स्वतः
प्रमाण नहीं मानते है तो उसकी सिदि के लिए कोई दूसरा प्रमाणा देना होगा,
फिर उस अनुभव की सिद्धिके लिए मी दूसरा प्रामाण्य होगा--इस प्रकार
अनवस्था होगी जिसका निवारण नहीं किथा जा सकता । [ इस प्रकार हमे
स्वतः प्रामाण्य हौ सिद्ध मानना पडेगा । कोई चौज देवकर हम उसकी प्रापि
के लिए तुरत दौड़ पड़ते ह । यह नहीं सोचने लगते करि अनुमानादिसेप्रामारखय
श्ध्ठ ` सबेदशेनसंग्रदे-
का निश्चय करं ¦ यदि प्रामारय को परतः स्वीकार करेगे तो प्रवृत्ति मेँ शीघ्रता
नहीं हो सकेगी । |
( १३. प्रामाण्य का उपयोग पचत्ति में नदीं दोता--उद्यन )
यदत्र कुसुमाञ्जलाबुदयनेन क्षटिति प्रचुरप्र वृत्तेः प्रामाण्य-
निथयाधीनत्वामावमापादयता प्रण्यगादि--श्रवृतिदीच्छाम-
¢
प्ते । तत्प्राचुयं चेच्छाप्राचुयेम् । इच्छा चेष्टसाधनताज्ञानम् ।
तस्चेटजातीयत्वलिङ्गायमवम् । सोऽपीन्द्ियाथसंनिकपेम् ।
प्रामाण्यग्रहणं तु न क्चिदु पयुञ्यते' इति ।
दस प्रषंग मे न्यायकरुसुर्माजलि मे ( उदयनाचायं ने, मनुष्यों मे शीघ्रतथा
्रचुर रूप से उत्पन्न होने वाली प्रवृत्ति ( क्रिया) को, प्रामाण्य-निश्वय के अधीन
न रहने का प्रतिपादन करते समय, कहा है---'्वृत्ति इच्छा की अपेक्षा रखती
हे । यदि प्रचुर रूप मे परवृत्ति हई तो समभे कि वहां इच्छा हौ प्रचुर रूप मेदहै।
इच्छा उस ज्ञान की अवेक्षा रखती है ।जससे इष्ट वस्तुओं का बोध [ इच्छापूति
के | साधनकेरूपमेहोताहै। यह ज्ञान भो उक्त लिग के अनुभव की अपेक्षा
करता है जस ( लिग ) के द्वारा, इष्ट वस्तु प्रस्तुत वस्तु को जाति कौ है, ेसा
बोध होता है । यह अनुभव भी इन्द्रियों भौर वस्तुओं के संनिकर्षं पर भी निर्भर
करता है । प्रामाराय का ग्रहण करने की आवद्यकता तो कहीं पर है ही नहीं।
{ प्रामारय-ग्रहणा करने से प्रवृत्ति उत्पन्न नहीं होती । |'
( १३ क. इसका खंडन )
तदपि तस्करस्य पुरस्तात्कक्षे सुबणंुेत्य सवोज्गोद्षाटन-
मिव प्रतिभाति । यतः समीहितसाधनताज्ञानमेव प्रमाणतया-
वगम्यमानमिच्छां जनयतीत्यत्रेव स्फुट एव प्रामाण्यग्रहणस्यो-
पयोगः । किं च कचिदपि चेन्निविचिकित्सा प्रवृत्तिः संशयाद्प-
पचचेत्त, तहिं सरवत्र॒ तथामावसंमवात् प्रामाण्यनिश्चयो निरथेकः
स्यात् ।
जैसे कोई चोर सामने ही अपनी कलमे सोना चुराये ओर पचने पर
समूचा शरीर क्ञाङ्कर दिखला दे उसो तरह आपकी ये बातें भीदहै। क्योकि
इष्ट वस्तु का [ इच्छापूतिके ] सधन के खूप मे बोध कराने वाला ज्ञान
जेमिनि-दशेनम् ५६६
प्रमारा-रूप मे अवगत होता है, वही इच्छा को उत्पन्न करता है- यहींषरतो
प्रामारय-ग्रहए कौ आवश्यकता स्पष्ट हो जाती है। इसके अतिरिक्त, यदि कहीं
भ संशय से उत्पन्न निश्चित प्रवृत्तिकी सिद्धि हो गई (= संशय से उत्पन्न
प्रवृत्ति का एक भी उदाहरण निशित कर लिया गया ), तो सभी स्थानों पर
वैसा ही होने कौ संभावना होगी एवं प्रामार्य का निश्चय करना व्यथं सिदध
होगा । [ संशय के कारण कहीं मी प्रवृत्ति नहीं होगी क्योकि अनिधित वस्तु
नं सत्ता ही दृलंम है । |
तथोक्तम् -अनिधितस्य सच्वमेव दुकंममिति । यदि सं
सुखभ भवेत्तदा प्रामाण्यं दत्तजलाञजलिकं भवेदित्यलमति प्रपञ्चेन ।
यस्मादुक्तम्--
१३. तस्मात्सद्रोधकत्वेन प्राप्त बुद्धेः प्रमाणता ।
अर्थान्यथात्वहेतत्थदोषक्ञानादपोद्यते ॥ इति ।
वैसा ही कहा गया है--अनिदिचत वस्तु की सत्ताही दुलंभ होती है
यदि उसकी सत्ता आसानीसे षायोजा सकती तब तो प्रामार्य नाम की कोर
वस्तु ही संसारमें नहीं रहे [ प्रामाण्य कोही जलांजलिदे दी जाय-- स्वतः
न्नौर परतः का प्रन ही समाप्त हो जाय । ] अधिक विस्तार करने से कोई लाम
नहीं है । चूंकि कहा गया है--
"इसलिए सद् वस्तु के बोधककेरूपमें जो बृद्धि का प्रमाण्य देखा जाता ट
वह उस दोष.ज्ञानसे ही नष्ट हो जाता है जिस दोष-क्ञान कौ उत्पत्ति वस्तु
करी अन्यथा प्रतीति (जैसे सीपी कीर्वादी केरूपमे प्रतीति) से होती है।'
[ प्रामाण्य सद्वस्तु का बोध कर।ता है । किन्तु जब वस्तु की प्रतीति दूसरे रूपमे
होती है तब उक्त प्रामाण्य का अपवाद हो जाता है कयोक्रि एेसौ दशा मे अप्रा-
भाण्यहो जाता है) सामान्यलू्पसेप्रामारुय की प्रतीति होती है जब किं अषप
वादके रूपमे अप्रामाण्यं आतादहै। |]
( १४. मीमांसा-दशेन का उपसंहार )
तस्माद्ध स्वतःसिदधप्रमाणमावे “ज्योतिष्टोमेन स्वगेकामो
यजेत) इत्यादिविध्यथेवादमन््रनामधेयात्मके वेदे "वजेत" इत्यत्र
तप्रत्ययः ग्रढत्य्थोपरक्तां भावनामभिधत्ते--इति सिद्धे व्युत्पत्ति-
मभ्युपगच्छतामभिहितान्वयवादिनां भद्राचायीणां सिद्धान्तः ।
1
%।
|
ध
3
८५० सर्वदर्शनसंग्रह
यागविषयं नियोगमिति कार्ये व्युत्पत्तिमनुसरतामन्विताभिधा-
नवादिनां प्रमाकरगुरूणां सिद्वान्त इति सवेमवदातम् ॥
इति श्रीमत्सायणमाधवीये सर्वद्चीनसंग्रे जैमिनिदशेनम् ॥
~=
इसलिए धर्मं के विषयमे [वेदका] प्रामाण्य अपने आपमें सिदध है \
“उयोतिष्ठोम केद्वारा स्वगं की कामना करने वाला व्यक्ति यज्ञ करे इत्यादि
विधि, अथंवाद, मन्त्र तथा नामधेय से लक्षित तैदिक वायो में "यजेत" शब्द में
वतमान "त" ( विधिलिड् ) प्रत्यय प्रकृति ( </यज् धातु ) के अर्थं (याग) से
उपरक्त ( सम्बद्ध ) भावना का बोध कराता है । [ ^त' प्रत्यय विधिके अर्थमें
आतादहै। कुमारिल के अनुसार विधि शाब्दी भावना है, यद्यपि आर्थी भावना
मओ त' प्रत्यय से ही प्रकट होती है । "यजेत" में ~/ यज्-धातु प्रकृति है जिसका
अथं हे याग । उस याग के विषय में जो प्रवृत्ति होती है, उसे ही आर्थी भावना
कहते ह । उक्त अर्थमावना रूपौ फल को देने वाली शाब्दी भावना है अर्थात्
श्रति केद्वारा दी गई प्रेरणा ही शब्दभावना है । ।
इस प्रकार सिद्ध ( शब्दों ) मे व्युत्पत्ति ( अर्थबोव कराने कौ शक्ति मानने-
वाले अभिहितान्वयवादी भदाचार्यो ( कुमारिलि के मतानुपायियों) का यहं
सिद्धान्त ३ । अन्विताभिधानवादी प्रभाकर-गुरु जो कायं [मे लगे हुए वाक्यो मे
अन्वित पदों ] में व्युत्पत्ति ( अथंबोधिका शाक्तिं ) मानते ह, उनका सिद्धान्त है कि
[ यह तप्रत्यय पूरे वाक्य से सम्बद्ध | याग-विषयक नियोग ( आज्ञा) का बोध
कराता है। इस प्रकार सब स्पष्ट हुआ । [्रभाकर गुरु का कहना है किं शक्तिकां
रहण करानेवाले साधनों मे वृद्धव्यवहार सर्वोत्तम है। इस वृद्ध-व्यवहार से गो-
आदि शब्दों का शक्तिग्रह होता है किन्तु यह कायं ( वाक्य ) मेँ अन्वित गो-आदि
अर्थोमेही होता है अकेले "गौः" आदि शाब्द में नहीं । उनके अनुसार ¶ृथक्
पदोंका कोई अथं नहीं । शामानय' वाक्य में आनयन-क्रिया से अन्वित
( संबद्ध) गौ को देखकर ही शक्तिग्रह ( अथंबोध ) होता है। ये विधि को
शाब्दो भावना न मानकर नियोग ( आज्ञा) मानते है । समी पदां की राक्ति
कां मे अन्वित होने पर ही होती है। यहं दश्चातो लौकिक वाक्यों को हुई ।
जो वाक्य वेद म सिद्ध है उनमें कार्यांश कहाँ से लायेगे ? विवश होकर लक्षणां
का स्वंत्र आश्रय लेना पड़ेगा ।
कमारिल भटर उसे नहीं मानते । पहले तो कायं मे अन्वित होने प्र ही
शक्तिग्रह होता है, राक्तिग्रह होने पर मी कार्यांशका त्याग ही कर देना पडता
ह । सिद वाक्यो मे सर्वत्र लक्षणा का सहारा लेना कठिन भी है। एसी बात
~ 1 सिरर अरः
जेभिनि-दशनम् ५७१
भी नहीं कि हमें विवञ्च होकर लक्षणा स्वीकार करनी पड़ेगी । जो लोग लक्षणा
को खूब समन्ते हवे भी सिद्धवाक्यो मे लक्षणा को अपने मस्तिष्कमें नहीं
बैठा पायेगे क्योकि लक्षणा के जो मूस्यार्थवाध आदि कारण है उनका अनुभव `
नहीं हो सकेगा । अतः प्रभाकर का मत स्वीकायं नहीं है। शब्दों का पहले
अथं ल जाता है तब आकांक्षा, योग्यता आदि के बल से उनका अन्वय होता
है जिससे वाक्यार्थ-बोध होता है। यह कुमारिल का अभिदहितान्वयवाद
है । प्रभाकर के अनुसार वाक्य में शब्दों का अन्वयहोनेके बाद उनका पृथक्
अभिधान होता है- इसे अन्विताभिधानवाद कहते है । तदनुसार गौः का |
अथं गोत्व नहीं है बल्कि "आनयनान्वित-गोत्व' ( अर्थात् आनयनक्रिया से संबद्ध
गोत्व ) है- वस्तुतः "गामानय" वाक्य के साथ यह बात है।]
जाप ------ दषोभयायन्कन्यादयााययायिययायरय यो (के
क
इस प्रकार श्रीमान् सायणा-माधव के स्वंदर्शनसंग्रह में जेमिनि- दर्शन समाप्त हुआ ।
विदोष-- प्रस्तुत स्थानमेंवेदके चार भगोंके नाम लिये गयेहै--विधि, ।
अथंवाद, मंत्र, नामधेय । अज्ञात वस्तुका बोध करानेवाले वाक्य को विधि
कहते है जेसे--'अमिहोरं जृहुयात्स्वगकामः ।' यह वाक्य किसी भी दूसरे प्रमाण [
से अप्राप्त होम का विधान करतादहै जिसहोम का प्रयोजन है स्व्ं-प्राति। ॑
वाक्यार्थ होगा कि अ्भिहोत्र-होमसे स्वर्गं की भावना करे। स्तुति या निन्दा #
करने वाले वाक्य को अथंचाद कहते है जेसे--'वायु्वे क्षेपिष्ठा देवता" ( ते° ।
सं° २।१।१ ) । इस अर्थवाद से वायु देवता की स्तुति होती है तथा --वायव्यं
श्वेतमालभेत" ( वहीं )- इस विधिकी प्रशंसा की जाती है। सोऽरोदीत् तद्र
द्रस्य शद्रत्वम्" ( ते० सं° १।५।१ )--यह अथंवाद रोदन से रजत की उत्पत्ति
का बोध करात। है ओर साथ-घाथ बहिषि रजतंन देयम्" इस निषेधका
समर्थन कराते हुए रजत की निन्दा करता है। प्रयोगसे समवेत वस्तुओंका
बोध करानेवाला वेदभाग मंत्र है। जैसे--स्योनं ते सदनं कृणोमि" ( ते° त्रा°
३।६ ) । पुरोडाश्च का आसन (रखने का स्थान ) सुखद बनाने का अथं है
जिसकी अभिव्यक्ति करते हुए यज्ञादि कमं मे इसका उपयोग बतलाया मया है ।
अथंकास्मरण मंत्रोसे ही किया जाता है अतः मेवोंका संकलन निरथंक नहीं
है । यज्ञविशेष के नामों को नामघेय कहते ह जेसे-- “उद्भिदा यजेत" मे उद्भिद् `
एक यागक्रानामदहे।
इति बालकविनो माशङ्भुरेण रचितायां सवंदशंनसं ग्रहस्य प्रकाशाख्यायां
व्याख्यायां जेमिनिदर्यंनमवसितम् ॥
-- स~
८ १३ › पाणिनि-दरशनम्
स्फोटात्मकं प्रणववैकृतिरूपनेत-
. . त्तच्ं समादिशति यञ्च जगद्विवतम् |
शब्दाथबन्धमखिलं किल यद्विध्ते
बन्दे तदेव पथि पाणिनिशब्दशाखम् ।।-- ऋषिः
( १. प्रकृति-प्रत्यय का विभाजन )
नन्वयं प्रहृतिमागोऽयं प्रत्ययभाग इति प्रकृतिप्रत्ययविभागः
कथमवगम्यत इति चेत्-पीतपातञ्जलजलानामेतचोद्यं चम-
त्कारं न करोति । व्याकरणशाच्ञस्य प्रृतिप्रत्ययविभागप्रतिपा-
दनपरतायाः प्रसिद्धत्वात् ।
इतना खंड प्रकृति है ओौर इतना खंड प्रत्यय "- इस प्रकार प्रकृति भौर
प्रत्यय का विभाग केसे जाना जाय ? [ हम उत्तर देगे कि ] जिन लोगों ने
पतंजलि के [ महाभाष्यरूपी ] जल का पान कर लिया है उन्हें यह प्रन आश्चयं
मे नहीं डालता । यह प्रसिद्ध है कि व्याकरणशाख्र प्रकृति ओर प्रत्यय के
विभागकाही वशंन करता है।
विरोष- किसी शब्द का खराड दो भागों मे किथा जाता है प्रकृति ओौर
त्वव | व्याकरण का जारम्म प्रकृति-प्रत्यय-विभागके लिए ही हआ था जैसा
किं आदि वैयाकरण इन्द्र के विषयमे कथा है ( ते० सं० ६।४।७।३ ) । पहले
वाणी अव्याकृत अर्थात् समुद्रादि की अव्यक्त ध्वनियों कीत रह॒ एकात्मक थी ।
परकृति-प्रत्यय, पद-वाक्य आदि के विभाग उसमें नहीं थे। इन्द्र ने देवताओं की
प्रार्थना पर इस्त वाणी को व्याकृति-युक्त किया, टुकड़ो मेंर्बांट दिया । इस तरह
व्याकरण” शब्द से ही शाग्द-व्युत्पादन या प्रकृति-प्रत्यय-विभाग का अथं समन्चा
जाता है । ( व्याक्रियन्ते = ब्युत्पा्न्ते = प्रकृतिप्रत्ययादिविभागा; कल्प्यन्ते ऽनेनेति
व्याकरणम् ।)
जिस खंड के बाद प्रत्यय लगाये जाने का विधान करिया जाय उसे प्रकृति-
खंड कहते है जेषे--"रामः' में राम-शब्द प्रकृति है, विसर्ग (या चु पाणिनि
के अनुसार) प्रत्यय है। "राम प्रातिपदिक मे भौ रम् धातु प्रकृति है, अ"
प्रत्यय । 'गमन' में गम् प्रकृति “अनः प्रत्यय । यह 'पीतपातज्ञलजल' मे रूपक
(~ दक्वा ष क~~ ~ _ - 3 क
[\#-" + ४) अन).
पाणिनि-दशनम् ७३
रला गया है । पतंजलि के लिखे हुए महाभाष्य को समुद्र मानकर उसके जल
का पान करनेवाले = महाभाष्य का सम्यक् अध्ययन करनेवाले व्यक्तियों ( वेया-
करणो ) का संकेत किया गया है।
( २. अथ शाब्दाुद्ासनम्? का अथं )
तथा हि पतञ्जरेर्मगवतो महाभाष्यकारस्येदमादिमं वाक्यम्-
अथे शब्दानुशासनम्" < पात० म० भा० १।१।१ , इति ।
$ = (~ ४
अस्यार्थः--अयेत्ययं शब्दोऽधिकाराथेः प्रयुज्यते । अधिकारः
प्रस्तावः । प्रारम्भ इति यावत् । शब्दानुश्चासनक्षब्देन च पाणि-
निप्रणीतं व्याकरणजशास्रं विवक्ष्यते । शब्दानुश्चासनमित्येताव-
त्यभिधीयमाने संदेहः स्यात् । किं शब्दानुशासनं प्रस्तूयते न
वेति । तथा मा प्रसाइक्षीदित्यथश्ब्दं प्रायुक्त ।
महाभाष्य के रचयिता भगवान् पतंजलि का यह पहला वात्य है--अथ-
राब्दानुरासनम् अर्थात् अब ( यहाँ से ) शब्दों का अनुशासन ( ६0081:
ग) ) आरंभ होता है (प म० भा० १।१।१ )।*
इसका अथं इस प्रकार है-“अथः शाब्द अधिकार के अथं मे प्रयुक्त होता है ।
अधिकार का अथं है प्रस्तत करना, या आरंम करना) "शब्दानु्ा्न शन्द
से पाणिनि के द्वारा लिखा हृभा व्याकरणशाखर समज्ञा जाता ह । यदि केवल
“शब्दानुशासनम्' इतना ही कहते तो संदेह रह ही जाता कि शब्दानुशासन
प्रस्तुत किया जा रहा है या नहीं ? एसा ( रेते संदेह का ) प्रसंग न उठे इसलिए
"अथ, शब्द का प्रयोग क्रिया गया है ।
विर्ोष--अपने प्रथम वाक्यकी व्याख्या भाष्यकार स्वयं कर रहे है ।
देषा न सोचे कि व्याख्या करने के कारणा वह॒ वाक्य किसी दुसरे का लिखा
हभ टै। कंयट भी लिलते है स्ववाक्यं व्याख्थातु तदवयवमथज्ञब्दं तावद्
व्याचछ्े । "अथं" शब्द का प्रयोग यदिन करं तो केवल शब्दानुशासनम् कहना
पड़ेगा । एेसी दशा में वाक्य की पति नहीं होती, पूति करने के लिए अन्वय
के योगय क्रिया-पद का अध्याहार करना पडेगा । अव कौन सी क्रिया आवे ?
# भाष्य का लक्षण--
सूत्रार्थो वर्ण्यते यत्र॒ वाक्येः सूत्रानुसारिभिः ।
स्वपदानि च व्य॑न्ते माध्यं भाष्यविदो विदुः ॥
४७५ सबेदशनसम्रहे-
प्रस्तूयते" या॒“स्तूयतेः या कया ? अथ शब्द का प्रयोग होते हो यह सहल हो
जाताटै। अथ का अथंहै प्रारंभ । वस, प्रस्तूयते" क्रिया का अध्याहार कर
तने । अन्य क्रिाओं का अध्याहार करने से अथ" के साथ संपति नहीं बेठती ।
अथ ॒शब्दप्रयोगवलेनाथोन्तरब्युदासेन भ्रस्वयत इत्यस्या
न ५
मभिधीयमानत्वात् । अनेन हि वैदिकाः शब्दाः शं नो देवीर
¢ + (1
भिष्टये' ८ अथं सं° १।१, ऋ० सं १०।९।४ ») इत्यादयः
पकारिणोा च,
स्तदु लोकिकाः शब्दाः 'गौरखः पुरुषो हस्ती शङनिः'
इत्यादयरचानुशिष्यन्ते, व्युत्पाद्य संस्क्रियन्ते प्रकृतिग्रत्ययतिभा-
गवत्तया बोभ्यन्त इति शब्दानुशासनम् ।
नमथ" हाम्द का प्रयोग करनेसे दूसरे अर्थो ( जसे स्तुति करना, वणंन
करना आदि ) का निराकरण करके श्रस्तुत क्रिया जाता है" एेखा अर्थं रखते
है । [ यही कारण है कि अथ" शज्द आरम्म में दिया गया है । ]
इस श्रकार श्ल नो देवीरमिष्टयेः ( दिष्य जल हमारा कल्याणा करं ओर
इच्छापूति मे सहायक हों, अथवं १।१ ) इत्यादि वेदिक शब्दों का ओर [ अर्थं-
वरकाशन के माध्यम से उनकी सहायता करने वालि "गौ, अव, पुरुष, शकुनि"
जादि लौकिक शब्दों क! अनुशासन होता है, व्यु्पत्ति के द्वारा उसका संस्कार
होता है, ये प्रकृति ओर प्रत्यय के रूपमेंर्बाटकर समन्ने जाते ह - यही शब्दा-
नुशासन है । [ वैदिक शब्दों का अर्थंबोध भौ लौकिक शब्दों को तरह ही होता
है। वहाँ भी पदको शक्ति मानी जाती है जिस शब्द कौ शक्ति ( सामथ्यं
( 126०४६५७ ) का ज्ञान लौक्रिक भामे हो गया, उसका ज्ञान वेदमें
भीदहो जायगा । लोक मे शब्दशक्ति-बोध कराने के कई उपाय है जेते-
वृद्धव्यवहार, व्याकरण, कोश. आदि । इन शक्तिग्राहक प्रमाणो के द्वारा कोई
व्यक्ति लोक मे शब्दशक्ति का बोध करलेता है तवर वेद में भौ एसा शाब्दबोध
हो जाता है। ( लोकावगतसाम्यंः शब्दो वेदेऽपि बोधकः । ) अतः लौकिक
शब्दशक्ति की आधघारदिला पर वैदिक शब्दशक्ति अवलबितदहै। मीमांसक भी
वेद मे अर्थं मानने के लिए लौकिक वाक्यो की युक्ति देते ह । |
( २ क. श्राब्दानुशासन' पर विचार-विमरो )
अत्र केचित्प्यनुयु्ते--अयुञ्ासिक्रियायाः सकमेकत्वा-
£
तकर्मभूतस्य शब्दस्य केभूतस्याचायेस्य प्राप्नो सत्याम् उमय-
पाणिनि-दशेनम् ५७५
्रप्तौ कर्मणि! ( पा० छ २।३।६६ ) इत्यनुशासनवलात्
€ ९
कर्मण्येषा पष्ठी विधातव्या । तथा च कमणि च! (पार घ
२।२।१४ ) इति समास प्रतिवेधसंमवाच्छब्दाुश्चासनशब्दो न
प्रमाणपथमवतरतीति ।
यहाँ पर कुछ लोग प्रश्न करते है कि अनुशासन-क्रिया सकर्मक है, प्रस्तुत
दाग्द ( शब्दानुशासन } मे उसक्रा कमं "शब्द, हे ओर कर्ता 'आचायं' (जौ
अप्रयुक्त है ) है । दोनों शब्दों मे| 'कतृंकमंणोः कति" ( पा० सु° २।३।६५ )
के अनुसार ] षष्ठो होने को संभावना हो जनि पर उभयप्राप्तौ कर्मणि" ( पार
सू० २।३।६६ ) के अनुसार यहां पर कमंमेंही षष्ठी विहित होनी चार्ट ।
[इसलिए शब्दानामनुशासनम् = शब्दानुशासनम्, यहं षष्ठो तत्पुरुष समास होगा ।|
किन्तु (कर्मणि च' ( पा० सू० २।२।१४ ) के अनुसार कर्मंमें षष्ठौ होने पर
समास नहीं होता, भतः शब्दानुशासन -रान्द किसी भी दशामेप्रामाशिक् नहीं
माना जा सकता ।
विरोष- "अनुशासन" शब्द अनु-पूरवंक <./ शास् मे त्युट् प्रत्यव करके बनता
है । ल्युट् कृत् प्रत्यय है वयोकि धातु से विहित, अतिङ् है ( देखिये--कृदतिङ्
३।१।९३ ) । किसी धातु में त् प्रत्यय होने पर उस क्रियाके कर्ता ओौर कमं
ने षठो होती है । यदि किसी स्थान पर दोनों पटच जायं तो कमं का पलङ्ा
भारी रहता है । अनुशासन का कम "शब्द है अतः षष्ठोतो होगी पर कर्मणि
च" सूत्र पहलेसे ही समासन होनेदेनेके लिए तैयार है । 'शब्दानुशासन'
यह समस्त ( (010 ]0पप५ } पद नहीं होगा; हा, शब्दों का अनुशासन
ठेसा व्यस्त वाक्य हो सकता है । केवल समास नहीं होगा, षष्ठो होने से कौन
रोकता ह ? यह दाका शब्दानुशासन" शब्द के साधुत्व पर ही उठाई गई है ।
क ^ ¢ ०
अत्रायं समाधिरमिधीयते--यस्मन्कृत्प्रत्यये कतेकमेणो-
(~ © = ~
रमयोः प्ा्षिरस्ति, तत्र कर्मण्येव पष्ठीविभक्तिमेवति न कतेरीति
बहन्रीिविज्ञानवलान्नियम्यते । तद् यथा-- आश्चर्यो गवां
दोहोऽचिक्ठितेन गोपालकेनेति । शब्दालुशासनमित्यत्र तु शब्दा-
ह य विवक्षि ।*
नामनुज्ञासनं नाथोनामित्येतावतो विवक्षितस्याथेस्याचायंस्य
¢ रि [क
कर्तरुपादानेन विनापि सुप्रतिपादत्वादाचार्योपादानमक्रिचित्करम् ।
अव सका समाधान बतलाति ह । सूत्र को बहुत्रीहि समास में तोड़ने पर
( उभयोः प्रातिः यस्मिन्छृतपरत्यये स उभयप्रापतिः ) यह अथं निकलता हैकि जब
५७६ सर्बदशनसंयररे-
कृत् प्रत्यय के होने पर [ क्रियाके ] कर्ता ओौर कमं दोनोका प्रयोग हो,
वहाँ कभमेंही षष्ठो होती है, कर्ता मे नहीं--यह नियम ( ९४1५४०४ )
हमा । जैसे--आश्च्यां गवां दोहः अशिक्षितेन गोपालकेन ( मूं या
अनाडो ग्वाल के द्वारा गौओंका दुहा जाना आशचयंजनक है )। [ "उभयश्रातो
कमणि" सूत्र मे ऊपर के कतृकमंणोः कृति" से कति" शब्द का अनुवतंन होता
है तथा "उभयप्राप्तौ कृति" एेसा करके दोनों मं विक्ेष्य-विेषण-भाव माना जाता
है । अथं यह हुआ कि जिन छत्-प्रत्ययों के प्रयोग मे कर्ता जौर कमं दोनों आ
रहे हों वैसी अवस्था में "कतृकमंणोः कृति" से कर्ता मँ होनेवाली षष्ठो न॒ होकर
केवल क्म॑मेंहीहो- जव केवल कर्ताका प्रयोग हो तब उसमे षष्ठौ होगी ।
"दोहः" शब्द दुह् + घन् करके बना है, दह् का कर्तां है “गोपालक, ओर कमं है
"गो" । दोनों का प्रयोग एक ही साथ हृञा है अतः कर्तामें षष्ठौन होकर कमं
"गो" को षष्ठो हुई गवां दोहः । यह उस सूत्र का अथं है । ]
शशब्दानुश्ाषन शब्द मे तो "शाब्दो का अनुशासन, अर्थो का नहीं' इतनी ही
बात कहने की है, जो कर्ता आचार्य" को बिना लाये भी अच्छी तरहष्ष्टहो
जाती है अतः आचार्य" शब्द का लाया जाना कोई विशेष प्रयोजन नहीं रखता ।
तस्मादुभयप्रपनरभावादुमयप्राप्तौ कमेणीत्येषा षष्टी न
९ ९८५ ~
भवति । किन्तु (कतेकमेणोः ठति! (पा० सू २।३।६५ )
क कतरि
इति कृद्योगे कतरि कमणि च पृष्ठीविभक्तेमेवतीति कद्योगल-
क्षणा पष्ठी भविष्यति । तथा च इध्मप्रतरश्वन-पलाश्च्चातनादिव-
त्समासो भविष्यति ।
इसलिए दोनों ( कर्ता ओर कमं) का प्रयोगन होनेसे इस स्थान पर
"उभयप्राप्तौ कम॑रि ( २।३।६६ ) से षष्ठी नहीं होती । [ कमणि च" ( २।.
२।१४ ) केद्वारा जोक्ममे षष्टो का समास-निषेध किया गया है बह "उभय
प्राप्नो कमणि" सूत्रसे होने वाली ष्ठीका ही है। काशिका-- 'उभयप्रापौ
कर्मणि ' इति षष्ठया इदं ग्रहणम् ( पृ १०१) । किसी अन्य सूत्रसे यदि कमं
म षष्ठी हो तो उसका सम।स-निषेव नहीं होता । |
किन्तु यहां पर "कतृकमंणोः कतिः ( पा सूर २।३।६५ ) सूत्र से कृदन्तं
के योगम कर्ताओौर कर्ममे (एक बार मेएकं के ही प्रयोगमें) षष्टी-
विभक्ति होती है अतः कत् प्रत्यय के प्रयोग से सम्बद्ध षष्ठो यहाँ होगी । | फल
यह निकला करि “उभयग्राप्तौ कमणि" ते षष्ठी नहींहुई हैकि समासनहो;
यहाँ लो "कतृकर्मणोः कृति" से षष्ठी हुई है भतः समास होने मे कोई बाधा
पाणिनि-दशनम् ५७७
नहीं । ] अतः "दइष्मग्रव्ररचन' ( लकड़ी का चौरना }, पलाशशातनः ( पलाश
का काटना) आदि शब्दों कीतरह समास होगा। [ इषमस्य प्रब्ररचनः =
इहमप्त्रस्चनः । “इध्म पे कमणि षष्ठी है परन्तु कर्तृक म॑शोः कृति" से हुई है
अतः समास हुजा 1 उसी प्रकार शब्दानापनुरःसत्रम् = शब्दानुशासनम् भो
होगा । "वष्ठी ( पा० सू० २।२।८ } पर वातिक भी है-ङृयोगा षष्ठो समस्यत
इति वाच्यम् अर्थात् "कतृकममंणोः कृति" सूत्र से हौनेवाली षष्ठी विभक्ति से युक्त
शब्द का समस दूसरे समथं सुबन्त के साथ हो सक्ता है । |
कत्यपि पष्ठी भवतीति केचिद् ब्रुवते । अत . एवोक्तं
^ ¢ = =
काथिकाषृत्तौ ८ २।३।६६, प° १२२ )-ेचिदविषेषेणेव
विभाषामिच्छन्ति, च्ब्दानामनुक्ञामनमाचार्येणाचायेस्य वेति ।
अथवा देषलक्षणेयं षष्टी । तत्र किमपि चोचं नावतरत्येव ।
ययेवं तहिं लेषलक्षणायाः षष्ठयाः सर्वत्र सुवचत्वात् पष्टीसमास-
प्रतिषेधघरत्राणामानथेक्यं प्राप्नुयादिति चेत्-सत्यम् । तेषां
स्वरचिन्तायायुपयोगो वाक्यपदीये हरिणा प्रादक्चि ।
कुछ लोग कहते है कि कर्तामें भी षष्ठो होती है। इसीलिए काशिका-वृत्ति
मं कहा है - कु आचार्यं बिना क्रिंसी भेद-भाव के यहाँ पर विकल्प चाहते हैँ
जेसे-- राब्दानामनुश्चासनम् आचार्यण, आचायस्य वा । [ 'उभयप्राौ कमंशि'
सूत्र पर एक वातिक है करि यह् नियम (कमंमेही षष्ठो होने का नियम) दो
प्रत्ययो-अक (इका) ओरञअ (आ )-केबाद सख्रीप्रत्यय लगने परलागू
नहीं हो सकता । जेसे-- भेदिका देवदत्तस्य काष्ठानाम् । यहाँ </भिद् + णवुल्
(अक )+टाप् होने पर भिदिकाः शब्द बना है; देवदत्त कर्ताहै, काष्ठ कमं।
दोनोंमे ष्ीदहोगई है) इसी प्रकार, “चिकीर्षा देवदत्तस्य काष्ठस्य इस
उदाहरण में./क़ + सन् + अ + टाप् से चिकीर्षा वना ओौर उ्षके कर्ता, कम
दोनों मे षष्ठो हई टै! च्रीललिग के अन्य प्रत्ययो के साथ षष्टी होना (कतरि
षष्ठो होना ) वैकल्पिक है- विचित्रा सूत्रस्य कृतिः पारिनेः पाणिनिना वा । अब
इसके बाद कहा गया है कि कुञ्च लोग विना भेद-माव कयि हुए ( ख्रीलिग आदि
का विचार क्य ही बिना ) वैकल्पिक "कतरि षष्ठो" मानते है । उदाहरण ऊपर
दिया ही रै-शब्दानुशासन० ! इसका परिणाम यह हुआ कि उभयप्राप्तौ कमंशि'
का नियम असफल हौ गया ओर इसीलिए कर्मणि च सूत्र समासका निषेव
नहीं कर सक्ता । |
३७ स सं
५५८ ` स्वदशनसंदे- `
यारेसा करं कि यहां शेषे (= ष्ठी शेषे २।३।५० )" सूत्रसे षष्टी मानें
[ ओौर समास-कायं करं |। एेसा करने पर कोई प्रश्च खडा नहींदहो सकेगा)
अब कुल लोग शंका कर सकते ह कि यदि एेसा करगे तो सभी स्थानों मे शिषे
| सूत्र से होनेवाली षष्ठो ही आसानी से कह दी जायगी ओौर षष्टो समास का निषेध
करने वाते सूत्र ( पा० सू० २।२।१० से २।२।१६ तक ) निरर्थक हो जायेगे ।
ठीक कहते है किन्तु एेसी बात नहीं । भरतृहरिने अपने वाक्यपदीय में
दिलाया हे किं इन सूत्रों का उपयोग स्वर ( 40०९४ ) का विचार करने के
समय होता है ।
विस्चेष- स्व ओरस्वामीकासंवंधयादेसाही दूसरा संबंध अन्य कारकों
मे नहीं भा सका है इसलिए ्रेसी स्थिति मे अवशिष्ट संबंधों का निदेश "जोष" के
दारा होता है भौर उसमे षष्ठी होती है । जेसे--राज्ञः पुरुषः । पशोः पादः ।
वास्तव मे कमं आदि कारकं मे भी करमस्व आदि नहींहो तभी हेष-षष्टी होती
ह जैसे- ग्रामस्य गच्छति । इसे ही शास््रीय-शब्द भे लेषलक्षणा षष्ठो कहते है ।
यहौँ कम कौ विवक्षा ही नही हे अतः "उभयप्राप्तौ" वाला नियम लगेगा ही नदीं
कि समास का निषेधं हो। लेक्रिन हर जगह शिषे" का प्रयोग करने से बडी
अराजकता छा जायगी । सभी शब्द समास के लिये "रेषे" के अधिकारमें आने
लगे तथा सभास-निषेधक सूत्रों कौ पूचछ ही नदीं होगी । "गवां दोहः" मे कम॑त्व
की विवक्षा नहीं ह । रेखा कहकर शेषे षष्टो" मानते हए 'गोदोहः' समास बना
देगें तब समास के निषेव का लाम ही क्या हुभा ?
नहीं, निषेष-सूत्रों की आवश्यकता है ओर वह् दै स्वर-विचार में 1 भोदोहः'
ब्द मे यदि वष्ट शेषे मान कर समास कर दें तो "समासस्य" ( पा० सू
६।१।२२३ ) सूत्र के अनुसार यह पद अन्तोदात्त हो जायगा. ओर यही होता
भी है। उक्तसूत्र का अपवाद सूत्र 'गतिकारकोपपदात्छृत्' ( ६।२।१३९ )
वृत्त नहीं होता है क्योकि इसका पूवपद ` गो" न तो गति-संज्ञक दै ओरन
कारक ही । स्मरणीय है "गो" यद्यपि कर्मकारक है परन्तु कर्मस्व अविवक्षित
( अनीप्षित ) होने से उसमें कारकता रही ही नहीं । दरे शर्ब्दं मे, "षष्ठो शेषे
से होने वाली षष्ठमे कारक नहीं रहता । सूत्र का अथं ह गति, कारक या उपपद
यदि पूरवंपदमें हो तो उत्तर-पद के छरःदन्त शन्द मे प्रकृतिस्वर होतादै। यदि
समास कानिवेधन करतो "गो शाब्द मे कमणि षष्ठोण होने पर भी "दोह
शब्द के साथ इसका समास हो जायगा । तब पूरवंपद "गो" कारकं हो जायगा
( *. कमणि षष्ठी हृई दै )। इस दशा मे उत्तरपद "दोहः" घन् प्रत्ययसे बना
ह अतः “छिनत्यादिनित्यम्' ( पा० सु० ६।१।१९७ ) के अनुसार बह शब्द
> ऋ क । र
५, ~ न्क ~ ॐ * ४ 9 ¢
कर "न. > 6 0
(- ५५६
आद्यदात्त होगा । नो समास में--गोदोहः एसा हो जायगा जो मष्योदात्त-पद
ह । ठेकिन एेसा होता नहीं । होता है ऊपर जषा ही-गोदोहः । यही कारण
हैकि समास का निषेध करतेरहै।
तदाह महोपाध्यायवधेमानः
१. लोकिकव्यवहारेषु यथेष्टं चेष्टतां जनः
वेदिकेषु तु मार्गेषु विलेगोक्तिः प्रवतंताम् ॥
२. इति पाणिनिशत्राणामथेवस्वमसो यतः
जनिकलरिति तरते तत्प्रयोजक इत्यपि ॥ इति ।
तथा च शब्दानुक्षासनापरनामधेय व्याकरणश्चाञ्लमारब्ध
वेदितव्यमिति वाक्याथेः संपद्यते ।
इसे महोपाध्याय वधंमान कहते है--लौक्रिक व्यवहार के समय तो लोग
अपनी इच्छासे ही काम करे ( वयोकि लौकिक वाक्यों मेंस्वर का विचार
नहीं होता )। किन्तु वैदिक शब्दों के प्रयोग में विशेष विधिके अनुसार चलं
॥ १ ॥ पाशिनि के सूत्रों की साथंकता यही है नहीं तो वे (जनिकतुः' (१।४।-
३० ) ओर "त्रयोजक' ( १।४।५५ ) जैसे [ समास न होने वाले समस्त पदों
का ] प्रयोग करते है ।॥ २॥
तो, इस तरह "शब्दानुशासन" शब्दसे भी अभिहित व्याकरण-शाख्रका
आरम्भ समक्ष, यह वाक्याथ निकला ।
विोष-पाणिनि की बहुत-सी उक्तियां केवल स्वर-विचार के उद्देश
सेकी गई ह, लोक में उनका कोई काम नहीं। जेते समास-निषेधक सूत्र,
विभिन्न अनुबन्ध आदि । यही पाणिनि कौ विशेषोक्ति है--इनका लोक मे काम
नहीं, पर वेदमें तोहोता है। अतः पाणिनि के सूत्र निष्फल नहीं है।
पाणिनि स्वयं लिखते है तृजकाम्यां कतरि ( २।२।१५ ) अर्थात् जो षष्टी
कता मे होती है उसका समास तृच् प्रत्ययान्त या अकप्रत्ययान्त शब्द के साथ
नहीं होता । जैसे-- मतः शायिका, आसिका ( आपकी शय्या, आन } ।
किन्तु वे स्वयं इस नियम का उल्लंघन करते है ओर जनिकर्तुः ( = जनिकतृं ),
तत्प्रयोजकः जसे शब्दों का प्रयोग करते ह । इससे पता लगता है कि समास के
निषेधक सूत्रों का यह प्रयोजन नहीं है कि रेमे स्थानों मे समस्त पदों को अशुद्ध
घोषित करे, प्रस्युत वे विशेष स्वर की सिद्धिमेंही सहायक होते है । पाणिनि
का यही लक्ष्य माङम पडता है ।
५८० सर्वदशनसंग्रदे-
(२. शब्दाुशाखन से प्रयोजन की सिद्धि )
तस्यास्य श्षटिति प्रतिपत्तये “अथ व्याकरणम् इत्येवा-
भिधीयताम् । अथ शब्दानु ्ासनमित्यधिकाक्षर मुधाभिधीयत
इति । मेवम् । श्दानुकञासनमित्यन्वथैसमाख्योपादाने तदीय-
बेदाङ्कत्वप्रतिपादकप्रयोजनान्वाख्य सिद्धेः । अन्यथा प्रयोज-
, नानभिधाने व्याकरणाध्ययनेऽध्येतृणां प्रवृत्तिरेव न प्रसजेत् ।
उसी अ्थंका शीघ्रतरं बोध कराने के लिए अथ व्याकरणम् ही कहना
चाहिए । (अथ हाब्दानुगासनम्' कहं कर अक्षयो की संब्यामें व्यथं की वृद्धि
कुरते ह । लेकिन एसा नही सोचना चाहिए । शब्दानुशासन नाम ( समाद्या )
अथं के अनुकूल ही रखा गया है। यह शाल | नरैदिक शब्दों का अर्थं बतलाने
के कारण ] वेदाङ्गं है, इसका प्रतिपादन करने वाले प्रयोजन ( लक्ष्य ) का भो
कथन साथ-ही-सथ हो जाता है। [ शब्दानुशासन कटने से न केवल व्याकरण-
्ञाज्ञ कौ प्रतीति होतो है प्रत्युत व्याकरण करे प्रयोजन--शब्दों के संस्कारकं
भी बोध हो जाताहै। व्याकरणं कटने से इतना बोध नहीं होता । केवल शाख
की ही प्रतीति होती । | यदि प्रयोजन का कथन नहीं किया जाय तो व्याकरण
के अध्ययन की ओर अध्येताओं की प्रवृत्ति ही नहीं होगी ।
नलु "निष्कारणो धमेः षडङ्ग वेदोऽध्येतन्यः' इत्यध्येतव्य-
विधानादेव प्ररत सेरस्यति इति चेत्-मेवम् । तथा विधानेऽपि
क
तदीयवेदाङ्कतप्रतिपाद्कम्रयोजनानमिघाने तेषां प्रवत्तेरयु पपत्तेः ।
तथा हि-- पुरा किर वेद मधीत्याध्येतारस्त्वरितं वक्तारो भवन्ति ।
अब यदि रेसा करें कि [ ब्राह्मण को | बिना किसी स्वार्थं के ( साक्ञात्
कल की आशा कयि बिना ही, नित्यरूप से) धमं कातथा षड वेद का
अच्ययन करना चादिए'-- इस विचि मे जो “अध्येतव्य शब्द है उसीके द्वारा
अध्ययन कौ प्रवृत्ति होगी, तो हम उत्तर ठगेकि रेस बात नहींदहै। एसा
विधान होन पर भी उस ( शाख ) का एक प्रमोजन जो वेदाङ्खहोनादै, उपे
बतलाये बिना उनकी प्रवृत्ति नहीं हो सकती । उदाहरण के लिए { रेस बातें
उन्हें कहनी चाहिए कि } पडले वेद का अघ्ययन् करके लोग हीच वक्ता बन्
जति थे । [ यह् वाय वेदाव्ययन कौ विधि का अर्थवाद अथौत् विज्ञापन है
जसे लोग उस ओर प्रवृत्त हों । वैसे ही व्याकरण मे इस तरहं क, विज्ञापन
॥ ५८१
रहना चाहिए । शब्दानुशासन" शब्द मं वहं भाकर्षर-शक्ति है ! अतः यही
राढ्द उपयुक्त है । ]
वेदान्न वैदिकाः शब्दाः सिद्धा लोकाच्च लोकिंकाः ।
तस्मादनर्थकं व्याकरणमिति । तस्म्ेदाङ्गत्वं मन्यमाना-
¢ ^+ ~
स्तदध्ययने प्रवृत्तिमकाषुः । ततश्च इदानातनानामापि तत्र॒ ब्र
त्ति सिष्येत् । सा मा प्रस ड्चीदिति तदीयवेदाङ्गलग्रतिपाद्कं
प्रयोजनमन्वाख्ये यमेव ।
वेदों से वेदिक शब्द.तिद्ध हृद ओर लौकिक व्यवहार से लौकिक शब्द'-
इसलिए व्याकरण को व्यथं समञ्च कर, उपे केवल वेदाङ्ख मानकर ही उसके
अध्ययन में पहले के लोग प्रवृत्ति प्रदशित करते ये । | क्रिसी विशेष प्रयोजन
का ज्ञान उन्हे नहींथा, विधिके अनुसार चलते हुए वे अव्ययन कर जाते
ये । ]# तो आजकल केलोगों कौ भी प्रवृत्ति नहीं ही होगौ । देसी स्थिति
न उत्पन्न हो जाय इसलिए "वह वेदाङ्ग है' इसका प्रतिपादन करने वाला
प्रयोजन कह ही देना चाहिए । [ शब्दानुशासन कहने से स्पष्टहो जायगा कि
व्याकरण एक वेदाङ्ख है, इसके अध्ययन मे लगना चाहिए । |
यद्यन्वाख्यातेऽपि प्रयोजने न प्रवर्तैरस्तदिं लोकिकशब्द्सं-
स्कारज्ञानरदितास्ते याज्ञे कर्मणि प्रत्यवायभाजो भवेयुः । धमो-
द्रीयेरन् । अत एव याज्ञिकाः पटन्ति--आदिताभिरपद्चःः
प्रयुज्य प्रायश्चित्तीयां सारस्वतीमिष्टिं निवपेत् ( पात° म० भा
पस्पश्च०° ) इति ।
यदि प्रयोजन बतला देने पर भी उष ओर प्रवृत्त नहीं हो तो लौकिक शब्दो
के संस्कार ( रचना, व्युत्पत्ति, ¦ 01108101) ) के ज्ञान से शून्य होने के
कारणा यज्ञ के कमंमें वे पापके भागी होगे तथा धमं से च्युत होगे । इसीलिए
या्िक लोग पढते ईै- आहिताग्नि पुरुष यदि अपशब्द ( अशुद्ध शब्द ) का
प्रयोग करे तो प्रायथित्त के रूप में उसे सरस्वती देवता कौ इष्टि ( यज्ञविशेष )
करनी चाहिए" ( महाभाष्य, पृ० ४ पस्पश मेँ उद्धृत } । [ जो याज्ञिक व्याकरण
नहीं जानते ओौर यज्ञ कराने लगते ह उन्हे शब्दार्थंका ज्ञान न होने से पद-
5 = `
# उनकी प्रवृत्ति नैसगिक नहीं थी, बनानी पड़ती धी । विधि के अनुसार
अपने जीवन के कायंक्रम उन्दं निरिचत करने थे ।
४८२ | सर्वंदशनसंम्रहे-
वद पर अशुद्धियां गले लगाने को तैयार रहती है-वे पापभागी होते ह ।
अपडब्द के प्रयोग से होने वले पाप का प्रायधित्त सारस्वत इष्टि से
होता है । |
अतस्तदीयवेदाङगतपरतिपादकम्योजनान्वाख्यानाथेमध शब्द्ा-
लुासनमित्येव कथ्यते, नाध व्याकरणमिति । भवति च शब्द-
संस्कासे व्याकरणशचास्त्रस्य प्रयोजनम् । तस्माच्छव्दानुशिष्टिः
संस्कारपदवेदनीया शब्दानुशासनस्य प्रयोजनम् ।
इसलिए उसके वेदाङ्गं ॑होने का प्रतिपादन करनेवाले प्रयोजन को बतलाने
के लिए “अथ शब्दानुशासनम्" यही कहते है, अथ व्याकरणम् नहीं । व्याकरण-
शाख का प्रयोजन भी शब्द् का संस्कार ( बनावट ) बतलाना ही है । कणोकि
उसके उदेश्य से व्याकरण की प्रवृत्ति होती है। जैसे स्वगं के उदेश्यसे किये
गये याग का प्रमोजन स्वगं ही है । इसलिए (संस्कार ( बनावट ) ` शब्द के द्वारा
समनो जानेवाली शब्दानुशिष्टि [( शब्दो की रचना) ही शब्दानुशासन का
प्रयोजन दै ।
विदोष- इस प्रकार यह सिद्ध हुआ कि पतंजलि ने व्याकरण का नाम
दाब्दानुशासन कुछ विरेष उद्द्य से रा है किनामसे ही प्रयोजन की सिद्धि
हो जाय ।
( ४. व्याकरणदराख्र कौ विधि प्रतिषदपाठ नदीं )
नन्वेवमप्यभिमतं प्रयोजनं न लभ्यते । तद्पायाभावात् ।
अथ प्रतिपदपाड एवाभ्युपाय इति मन्येथास्तरहिं स ्यनभ्युपायः
शब्दानां प्रतिपत्तौ प्रतिपदपाटो भवेत् । श्रब्दापशचब्दभेदेनान-
न्त्याच्छब्दानाम् । एवं हि समाम्नायते -बृहस्पतिरिन्द्राय दिव्यं
वर्षसहसं परतिपदपाटविदहितानां शब्दानां शब्दपारायणं प्रोवाच ।
नान्तं जगाम । बृहस्पतिश्च प्रवक्ता । इन्द्रोऽध्येता ! दिव्य
वषसहखचमष्ययनकालः । न च पारावापषरभूत् । क्िताच
यथिरं जीवति स वपेशषतं जीवति । अधीतिबोधाचरण प्रचारणे
तुभिदयपायेविद्योषयक्ता भवति । तत्राध्ययनकारेनैव सवेमायु-
रुपयुक्तं स्यात् ।
- ५८३
[ पूर्व॑पक्षिथो कोश्ंकाहैकरि | एेसाहोने पर भी अभी प्रयोजन की प्राति
नहीं हो सकती क्योकि उस ( प्रयोजन की प्राति ) के लिएु कोई उपाय नहीं है
( = शब्दसंस्कार के ज्ञान का अर्थात् कौन-कौन शब्द शुद्ध द कौन-कौन अगुद--
इसको जानने का उपाय है ही नहीं)। यदि आप कठँ कि प्रत्येक शब्द को पद्
डालना ही उपायै तो यह प्रतिपद-पाठ शब्दों के ज्ञान का उपाय नहीं है,
[ यह तो अध्येता करा मरण है] । शब्द ओर अपशब्द के भेद से दाब्दों के अनंत
भेद है ( =कुश्च शव्द शु है, कुछ अशुढ ) ।
ठेसी कथा कही जाती है ( परम्परा से चलौ आ ती है )- ब्रहस्पति ने इन्द्र
के सामने एकं हजार दिष्य वषं तक प्रत्येक पद कां पाठ करते हृए शब्दों का
पारायण किया किन्तु अन्त तक नहीं पहुंच सके ( = उतने समय मे भी सभी
शब्दो का पाठ नही कर सके ) । [ जरा सोचिये ! | बरहस्पति-जैसे अध्यापक, इन्द्र
जैसे अध्येता ओर एक हजार दिव्य वधं अध्ययन का समय! फिर भी अन्तकौ
प्राप्ति नहीं हृई ! आजकीतोबातही क्या है? जो बहुत जीतादहैतोएकसौ
वथो तक जीता है। अष्ययन ( उप्त ), बोष ( (1 0लाऽ्धाताणषट ),
आचरण ( {2186110६ ) तथा प्रचार ( पटना 1€बन0४ )- इन चार
उपायों से विद्या उपयोगी बनती है । [ इधर प्रतिपद-पाठ करने से व्याकरण
के ] अध्ययनकालमेंही सारी भयु का उपयोग हो जायगा ( अन्य कालो का
तो प्रन ही नहीं उठेगा ) ।
वि्तोष ~ प्रतिपद-पाठ का अथं है प्रत्येक शब्द ( रामः, कृष्णः आदि )
का पाड करके उसका साधुत्व बतलाना । यह् उपाय ( 161५५ ) व्याकरण-
शाल का नहीं हो सकता, इसे आगे बतलाति है । "शब्दानां शब्दपारायणम्' मे
विरक्ति नहीं है) शन्दपारायण' एक शब्द है जो व्याकरणः-शाख के अथंमें
रूढ ( योगखूढ ) हो गया है। इसी से बोध होने पर भौ शब्दानाम् का जलग
प्रयोग इसलिए किया गया है क्रि श्रतिपदपाठविहितानाम्' विशेषण को स्थान
मिल सके । "वाचमवोचत्' मे व्यथंता होने पर भी 'शुचिध्मितां वाचमवोचत्!
ठीक है वयोकिं "वाचम्" का विशेषणा दिया गया है) शिशुपालवघ ( १।२५ ) ।
उक्त कथा का उद्धरण पतंजलि ने महामाष्यमे दियादहै। अन्त में प्रतिपदपाठ-
विधि का खण्डन करके उत्सर्गापवाद-विधि का प्रतिपादन क्रिया जायगा ।
तस्मादनभ्युपायः शब्दानां प्रतिपत्तौ प्रतिपदपाठ इति
प्रयोजनं न सिध्येदिति चेत्- मेवम् । च्दप्रतिपत्ते; प्रतिपद् `
पाठसाध्यत्वानङ्गीकारात् । प्रकृत्यादि विभागकर्पनावत्सु रक्षयेषु
अय स्बदशेनसंग्रदे-
` सामान्यविरशेषरूपाणां लक्षणानां पजेन्यवत्सक़ृदेव वत्तौ बहूनां
शब्दानामनुश्ासनोपलम्भाच्च ।
इसलिए शब्दो के ज्ञान के लिए प्रत्येक शब्द का पाठ करता उताव नहीं
हो सकता, अतः व्याकरण के प्रयोजन की सिद्धि नहीं होगी ।
[ पूवपक्षी की इस शंका पर वैयाकरण कहते हैक्रि] ेसौ वात नहीं।
हम भी यह स्वीकार नहीं करते कि शब्द का ज्ञान प्रतिपद पाठसे मिल सकता
ह ( साध्य है)। [ प्रतिपदपाठके द्वारा व्याकरण नही चलता- हमारी मी
यही मान्यता है । लक्ष्यके रूपमे जो शब्द ह उनमें प्रकृति आदि ( = प्रत्यय,
पद, वाक्य ) के विमागों की कल्पना की जाती है तथा उग्के लिए सामान्य
ओर विज्ञेष लक्षणों ( सूत्रों ) की प्रवृत्ति एक बारहो मेषकी तरह होती दै
जिससे बहुत-से शब्दों का अनुशासन देखा जाता है ।
विरोष- पतंजलि अपने भाष्य मे शब्दानुशासन कौ प्रक्रिया बत्तलाति हुए
कहते है--कथं तरदीमे शब्द्; ध्रतिपत्तव्याः ! किचित्सामान्यविशेषव-
हश्चणं प्रवर्त्यं येनास्पेन यत्नेन महतो महतः दाब्दौघान्प्रतिपद्येरन् ।
किं पुनस्तत् ! उत्सर्गापवादौ । (पृण ६) उन्हीं का शब्दान्तर करके
जआधवाचायं दिये जा रहे ह । पर्जन्यवत् प्रवृत्ति का अथ॑हैकि जेसे मेव एक ही
साथ सभी स्थलों पर, समुद्र ओर मरुमूमिमे भो, जल बरसाता है उसी तरह
किसी सामान्य या विशेष लक्षण से एक टी साथ अनेकनिकं शब्दो का अनुशा्तन
होगा, अलग-अलग उन्हे देखने कौ आवश्यकता नहीं पड़गी । महाभाष्य
( १।१।२९ ) मे कहा है - छृतकारि खल्वपि शाखं पजेन्यवत् । तद्यथा
पर्जन्यो यावदूनं पूर्णं च सवेमभिवषेति ।
तथा हि । "कर्मण्यम्" ( पा० चू ३।२।१ ) इत्येकेन
सामान्यरूपेण लक्षणेन कर्मोपपदाद्वातुमात्रादणप्रत्यये ठते,
(कुम्भकारः! काण्डलावः इत्यादीनां बहूनां शब्दानामनुशासन-
मुपलभ्यते । एवम्, “आतोऽनुपसर्गे कः” ( पा० घ ३।२।१८
इत्येकेन विशेषलक्षणेनाकारान्ताद्वातोः कप्रत्यये एते, धान्यदः
“धनदः! इत्यादीनां बहूनां शब्दानामयुक्ञासनमुपरम्यते । ब्रह-
स्पतिरिनद्रायेति प्रतिपदपाटस्याशक्यत्वप्रतिपादनपरोऽथेवादः ।
उदाहरण के लिए, कमण्यण् ( ३।२।१ अर्थात् कमं के उपपद मे रहने
पर धातर से अण प्रत्यय होता है }--इस अकेले सामान्य सूत्र ( लक्षण ) से
पाणिनिनदशनम् ५८५
उन सभी घातुओं से, जिनके उपपद में कोई कर्मं हो, अणा प्रत्यय क्रिया जाता है
तथा कुम्भकारः (कुर्म क रोति, कुम्भ + </ कृ + अण् ), कार्डलावः ( काण्डं
लुनाति, कारड + «/ दुन् + अण् ) इत्यादि बहुत-से शब्दों का अनुशासन
अर्थात् संस्कार पाया जाता है । उसी तरह, आतोऽनुपसग कः ( ३।२।१८
अर्थात् यदि उपसगं उपपदे न रहे तो आकारान्त धातुसे क प्रत्यय होता
` है )--इस अकेले ही विरोष सूत्र से आकारान्त धातुके बाद क प्रत्यय क्रिषा
जाता है तथा धान्यदः ( घान्यं ददाति, धान्य + </दा+क), धनदः ( धनं
ददाति, धन + ./दा + क ) इत्यादि बहुत-से शब्दों का अनुशासन पाया जाता
है । शृहस्पति ने इन्दर को पढ्ाया' इत्यादि कथा प्रतिपद-पाठ की सामध्यंहीनता
का प्रतिपादन करनेवाला अर्थवाद है । [ अथंवाद का सामान्य अर्थं है
स्तुति या निन्दा करने वाले वाक्य जो किंसो बात को बढ़ा चढ़ा कर प्रस्तुत करे ।
यहाँ पर श्रतिपद-पाठ असंभव है" यही दिखाना है जिते कथाके सूप मे दिया
गधा है।]
विरोष- व्याकरण-लालर की यही विधिदहै करि विभिन्न लक्ष्यो की सिद्धि
के लिए कद सामान्य लक्षण देते है तथा उनके अपवाद दिखाने के लिए विशेष
लक्षणा देते ह सामान्य पुत्रको विज्ेष सूत्र दवा देताहे। हसी प्रणाली से पाणिनि
ने व्याकरण लिला है। महामाष्यके प्रथम अलिक मे इन समस्याओं पर
बहुत सुन्दर विचार प्रस्तुत किया गया है ।
( ५. व्याकरण के अन्य प्रयोजन )
नन्वन्येष्वप्यज्गेषु सत्सु किमित्येतदेवाद्रियते ! उच्यते--
प्रधानं च पटुस्वङ्गेषु व्याकरणम् । प्रधाने च करतो यज्ञः एटवा-
नभवति । तदुक्तम्-
३. आसन्न ब्रह्मणतस्य तपसायुत्तमं तपः ।
परथमं छन्दसामङ्गमाहुव्योकरणं बुधाः ॥
( बा० प० १।११ ) इति ।
तस्माद् व्याकरणज्ञाख्चस्य शब्दानुशासनं भवति साक्षास्प्रयो-
जनम् । पारंपर्येण तु वेद्रक्षादीनि । अत एवोक्तं भगवता
माष्यकारेण--रक्षोहागमलष्वसंदेहा प्रयोजनम् । (पा म° भा
पस्पश्च ) इति ।
म ५८ है दशेनसंग्रहे भक
६ ब, सवे
अव प्रशन हो सकता है कि जब दूसरे वेदाङ्ग भी विद्यमान दहतो इस (व्याकरण-
दाख) का ही इतना अधिक अदर कथो किये जा रहे है ? उत्तर होगा कि चहो
वेदाङ्खों में व्याकरण ही प्रवान है ओर प्रधान विषयमे किया गया परिश्रम ही
फल होता है । यही कहा दै--"यह उस [ परम ] ब्रह्म के निकटः है तथा
तपस्थाओं ते सबसे उत्तम तपस्या है; विद्धान् लोग व्याकरण को वेदों का प्रथम
( प्रधान ) अंग कहते दै ।' ( वाक्यपदीय १।११ ३.१
इसलिए व्याकरण शास्र का साक्षात् ( सीधा ) प्रयोजन है शब्दों का अनु-
जासन करना ( संस्कार बतलाना }। परपस से ( परोक्ष खूपसे, घुमा फिरा
कर ) वेदकी रक्षा आदिभी | टेसके प्रमोजन ही है ]। इसोलिए भगवान्
भाष्यकार ने कहा है--रक्ना, ऊह, आगम, लघु तथा असदेह-ये [ व्याकरण `
शास्र के ] प्रयोजन है । ( महामाष्य, ¶९ १)
विदरोष-- व्याकरण के इन प्रमोजनों का उद्धरण कितनेही स्थानों षर
दिया जाता है। अतः उन्हं अच्छी तरह जान लेना चाहिए ।
(१) रक्षा (" 168८1९80 }--वेदों की रक्षा करने के लिए व्या-
करणा का अध्ययन करना बहुत आवश्यक है । वेदों मे बहुत से ैसे-रेसे रूप है
जो लौकिक भाषा मे नहीं ह जेसे--देवासः ( देवाः ), देवेभिः ( देवैः ), व्मना
( आत्मना ) । इन अलौकिक ल्पों को देखकर व्याकरण न जाननेवाला व्यक्ति
श्रम से इनका संशोधन कर दे सकता है जिससे वेद कौ आनुपूर्वो ( शब्दक्रम }
के भगहोनेका भयदहै। व्याकरण जाननवाला व्यक्ति संबद्ध सूत्रों से उनकी
सिद्धि देखकर वेद के क्रम की रक्षा करर सकता है।
` ( २ ) ऊद-( 116९11५९ )-ऊह का अर्थं ह वेदिक राब्दों का
देवता, लिग, वचनादि के अनुसार परिवर्तन कर देना । एक मन्त्र है-"अभ्ये
जुष्टम्" ( तै० सं १।१।४ )। अव यदि सूयं देवता को हवि दान करनाहौ
तो सूर्याय जुष्टम्, करदैगे । वेद मे पाठ है- "अन्वेनं माता मन्यताम् । इसका
प्रयोग एक पशु के लिए होता है। जब पशुओं कौ संख्या बदेगी तो एनौ,
एनान् रूप करने पडंगे । अतः परिस्थिति के अनुसार वचन क परिवतंन
करना है। पतंजलि कहते है किं वेद मे मन्त्र सभी लिगों ओर सभी विभक्तियों
मे नहीं पदे गये है। यज्ञ कौ आवश्यकता के अनुसार उनके लिगों ओर
विभक्तियों मे परिवतंन करना पड़ता है । यह् काम बिना व्याकरणा जाने नहीं
हो सकता ।
4 (३ ) आगम-, 3611])प1€ }--एक वाक्य है कि ब्राह्मण को बिना
स्वाथं ( कामना) केनित्य रूपसे धमं ओर छह अंगोँके साथवेद का
पाणिनि-दशेनम् ५८७
अध्यग्रन करना चाहिए ओौर जानना भी चाहिए । हरदत्तादि इस वाक्व को
श्रति मानते ह जबक्रि कुमारिल आदि इसे स्मृति मानते है । ( स्मृति भी
आगम-मूलक होने से आगमदही है) । इस आगम से तो परता लगता है कि
व्याकरण का अध्ययन नित्य खूपसे दृष्ट फल करौ अभिसंधि रे हौ बिना
करना चाहिए । यही नहीं, व्याकरण वेदाङ्ग मे प्रचान है ओर प्रधान विषय
नं किया गया परिश्रम सफल दोता है ।
(४ ) लघु ( ४९०1४ )- किसी व्यक्तिको शब्दों का ज्ञान करन
अत्यन्त आवश्यक है । उसके लिए व्याकरण से छोटा उपाय हो ही नहीं सकता ।
प्रतिपद-पाठ करते-करते भादमी मर जायगा परः समाति नहीं होगी । व्याकरण
सरलतम विधि से शब्द-ज्ञान करा देता ह ।
( ५) असखन्देद ८ ^ 3021817) 670॥ )- व्याकरण-शासर ही सन्देह
का निवारण करता है । श्रुति मे कहा है स्थूलपृषती मनड्वाहीम। लमेत । अन-
ड्वाही का अथं है गाय । उसका विज्ञेषण है स्थूलपृषती । अव यह सन्देह है
किं स्थूला चासौ पृषती" अर्थात् एसी गाय लाने जो स्थूल ( मोटी ) ओर गोले-
गोले चिह्र से युक्त भी हो ( कर्मधारय समास ) अथवा स्थूलानि पृषन्ति यस्याः
सा" ( जिसके गोले चिह्व बडे हो फेसी गाय--वहुत्रीहि समास ) हो । पहले
विग्रह मे गौ के चिल्ल बडेहोंया छोटे हों, कोई बात नहीं । दूसरे विग्रह मे गौ
मोटी हो या पतली, कोई बात नहीं । एक बड़ा भन्तर है। अब वयाकरण
स्थुलप्रषती' शब्द भे पूर्वपद का अन्तोदात्त देखकर निरिचत कर लेता है कि
यहां बहुत्रीहि-समास होगा बयोकि इसके लिए सूत्र है--हूव्रीहौ प्रहृत्या पर्व
पदम्" ( पा० सूु० ६।२।१ ) जिससे पूर्वपद का ्रकृति-स्वर होता है। यदि
कमधारय होता तो (समासस्य! ( भ सू° €।१।२२२ ) से अन्तोदात्त होता ।
टस प्रकार वैयाकरणा सन्देह का निवारण करता है ।
मि क
ग
= -
कण यी
~ +; १
~~ णः
०-> आ = क च
नाका न
(५ क. व्याकरण से अभ्युदय की प्राति ) |
साधुशषब्दप्रयोगवज्ादम्युदयोऽपि भवति । तथा च कथितं
कात्यायनेन शा्पूर्वके प्रयोगेऽभ्युदयस्तत्तरं बेदशब्देनेति। `
अन्यैरप्युक्तम्--एकः दाब्दः सम्यग् ज्ञातः युष प्रयुक्तः स्वभ `
लोके कामधुग्भवतीति । तथा- | ||
४. नाकमिष्टसखं यान्ति सुयुक्तेवेदवग्रथैः । |
अथ पत्कापिणो यान्ति ये चिकमितमभाषिणः ॥ ८ |
भूछ सबदशेनसंम्दे-
इसके भतिरिक्त युद्ध राब्दों के प्रयोग के कारण अभ्युदय की प्राप्ति भी हत्ती
है। जेसा कि कात्यायन ने कहा है--'{ व्याकरण ] शाख का ज्ञान पाकर जो
प्रयोग किया जाय उससे अभ्युदय प्राप्त होता है व्योकि यह शास्र षद
( जानता है) शब्दके समानहीदहै। [ एक ब्राह्मण वाक्य है- योश्वमेषेन
यजते य उ चैनमेवं वेद" अर्थात् जो व्यक्ति अश्वमेधके द्वारा अश्रिष्टठोम-याग
करता हैया उसकी विधिको जानता है उसे फल मिलता दहै (ते० ब्रा
३।१।७ ) । यहां विद' शब्दको ध्वनि है कि ज्ञानपूर्वकजो याग करता है
उसे ही फल मिलता है। उसी तरह व्याकरण जानक्रर जो शब्दों का प्रयोग
करताहै, उसे अभ्युदय मिलता है। षेद" (जानताहै) काजो महत्व
अभिष्ठोमके लिए, वही व्याकरण-ज्ञान का शब्द-प्रयोगके लिएभीदहै।]
द्सरे लोगोंने भी कहा है-"एक ही शब्द यदि अच्छी तरह ( प्रकृति-
प्रत्ययका विभाग करके) जान लिया गया भौर अच्छी तरह से उसका
प्रयोग भोकिया गयातो वह स्वगं मे ओर इसलोक मेंभी कामनाओंकी
पूति करता है ( यथेष्ट फल देता है)।' उसी प्रकार--"सुसज्जित ओौरर्बेधी
हई [ शुद्ध ) वाणी खूपी रथके द्वारा लोग अभीष्ट सुख देने वाले स्वगंलोकृ में
जाति है; किन्तु जो व्यक्ति 'चिक्ष' शब्द के समान ( अपशब्द ) बोलनेवालेरहैवे
पैरों से राह को पीठते हृए ( = वैदल ) हौ जति है ।'
विरहोष-यह इलोक कारिकामे ३।१।४८ की व्याख्यामें दियागयादहै
किन्तु वहां कु पाठान्तर है--
| नाकमिष्टसुखं यान्ति सूयुक्तेवंडवारथेः।
अथ पत्कराषिणो यान्ति येऽचीकमतमाषिरः ॥
` किन्तु काशिका कौदनोंही व्याब्याओं--पदमज्ञरी ओर न्यास-में इस
इलोक की व्याख्याका अभाव देखकर इसकी मौलिकता पर॒ संदेह होता है ।
कुच भी हो, इसके द्वारा सुन्दर शब्दों के शुद्ध प्रयोग पर बल दिया जाता है ।
नन्वचेतनस्य शब्दस्य कथमीदश्ं सामथ्यंमुपपद्यत इति
चेत्-मेवं मन्येथाः । महता देवेन साम्यश्रवणात् । तदाह
श्रतिः
५. चत्वारि शृज्खा त्रयो अस्य पादा दव शे सप्त हस्तासो अस्य ।
। । रेवं [के दबो =+ )
त्रिधा बद्धो वृषभो रोरवीति महो देवो मत्य आ विवेच ॥
( ऋ० सं० ४।५८।३) इति ।
^ ` = , ग्वा त १ $ ज `,
च #
पाणिनि-दशेनम् ४५८६
अब यदि यह पूषछठाजाय किशब्द तो अचेतन ह, उसमें इतनी सामथ्यं
कहां से आ जायगी ? तो हम करगे क्रि एेसा मत समञ्चिये क्योकि महान् देव
( ईखवर ) से इसको समता सुनी जातौ है ( = श्रुति मेँ प्रतिपादित है)। तो
श्रुति कहती है-- इसकी चार सींग ओर तीन परह, दो सिर है तथा इसके
सात हाथ रहै; तीन तरह से बंधकर यह वृषभ ध्वनि उत्पन्न करता है, वह महान्
देव (शब्दरूप में ) मनुष्यों मे प्रवेश करता है" ( ऋ० सं° ४।५८)३ } । [ यह्
ऋचा महानारायणोपनिषद् १०।१ मे भी ज्यो-कीःत्यों उद्धृत है |] *
व्याचक्रार च भाष्यकारः चत्वारि शृङ्गाणि चत्वारि
पदजातानि, नामाख्यातोपसगेनिपाताः । त्रयो अस्य पादा
् ४ १ =^
रुडादिविषयासत्रयो भूतमृविष्यदरतेमानकालाः । दवे शपे दी
शब्दात्मानौ नित्यः कायश्च । ्यङ्ग्यग्यञ्जकमेदात् । सप्त
हस्तासो अस्य, तिङा सह सप सुवृतरिभक्तयः। त्रिधा बद्धः
त्रिषु स्थानेषु उरसि कण्टे शिरसि च बद्धः । वृषभ इति प्रसिद्र-
क 08 ज्ञानपूवंकानुष्ठानेन
वृषभत्वेन रूपणं क्रियते । व्ष॑णात् । वर्षणं च ज्ञानपू्वंकालुष्ठानेन
फलप्रदत्वम् । रोरवीति शब्दं करोति । रोतिः शब्दकमां ।
इह शब्दशब्देन प्रपञ्चो विवक्षितः । महो देवो म्यी"
आविवेश्च । महाय देवः शब्दो मर्त्या मरणधमणो मनुष्यास्ता-
नाविवेशेति। महता देवेन प्रेण ब्रह्मणा साम्यसुक्तं स्यात्
( महाभाष्यम्, प २) इति।
भाष्यकार ( पंतजलि ) ने इसकी व्याख्या भीकोहै। चार सींगोंका अर्थं
है चार पद-मेद अर्थात् नाम, आख्यात, उपसं ओर निपात । इसके तीन पैर ह
लट् आदि लकारो के विषय अर्थात् भूत, भविष्यत् भौर वतमान काल । दो सिर
हशब्द के दो स्वल्प है, नित्य ओौर कायं । इन दोनोंमें यही मेददहै किएक
व्यंग्य है दूसरा व्यंजक । [ नित्य शब्द आन्तर रूप से विद्यमान है, यही व्यंग्य
# शेदछन्दसि बहुलम्" ( ६।१।७० ) से श्युङ्खणि के स्थानम श्यृङ्का,
्रकृत्यान्तःपादमव्यपरे' ( ६।१।११५ ) से त्रयो अस्य" मे प्रकृतिभाव, वही बात
"हस्तासो अस्य' मे, जआाजसेरसुक' ( ७।१।५० ) से हस्तासः, 'दीर्घादटि समान-
पादे" ( ८।३।९ ) तथा “आतोऽटि नित्यम्" ( ८।३।३ ) से महान् को अनुनासिक
महां । देखिये--वेदिकी प्रक्रिया के संबद्ध सूत्र भौर उनकी टीका ।
५६० सबदशनसग्रहे-
ह वरथोकरि इसीकी अभिव्यक्ति होती है । दूसरी ओर सुनाई पडनेवाला वैखरी के
पका शाब्द कार्यं ह, यह बाह्य है जौर व्यंजक् भी क्योकि नित्य शब्द को अभि-
व्यक्ति इसी के द्वारा समक्ष जाती है । इसे आगे स्पष्ट करगे । |
इसके सात हाथ है अर्थात् तिडन्त ( क्रिया) के साथ लगने वाली सुबन्त
की सात विभक्तियां इषम है । तीन प्रकारसे बंधा है = तीन स्थानों में, हृदय,
कंड ओर सिर में निबद्धटै। [ व्गंके पंचम वणौ तथा यरलवकेसाथहका
स्थान हृदय मेँ है। अ, कवर्ग, ह ओौर विसं का स्थान कंठदै। मुखके
अन्तर्गत तालु आदि दूसरे स्थानों का संग्रह भीकंठसे हीहोगयाहै। अन्त
मे च्छ, टवर्ग, रषका स्थान सिर (मर्षा) है। इसप्रकार शब्दों के तीन स्थान
ह जहाँ वे टकरा कर अभिव्यक्त होते है]
वृषभ" शब्द के द्वारा प्रसिद्ध ( लौकिक) वृषभ (बेल) का रूपक रला
गया है। क्योकि दोनों ही वरषंण करते ह ( वृष् ) । यहां ( शब्द-पक्ष मे )
वर्षन का अभिप्रायदहै[ व्याकरण शास्र का | ज्ञान प्राप्त करके अनुष्ठान करना
ओर उक्षका फलप्रद होना । "रोरवीति" का अथं है शब्द करता है" । ~/₹ =
शब्द करना ।
यहाँ [ जो "रोरवीति = शब्दं करोति" कहा, उसमें प्रयुक्त | शब्द शब्द के
दवाय इष पूरे प्रपंच (संसार) का अथं लिया गयादहै। [ नित्य शब्दसेही
ह पूरा संसार बना है, वही इसका प्रपंच अर्थात् विस्तार करता है। भतहरि
ने वाक्यपदीय की प्रथम कारिकामें हौ इते स्पष्ट कियादहै जो आगे उदूधृत की
जायगी । |
महान् देव मनुष्यो में प्रवेश करते है । मदान् देव अर्थात् शब्द । मत्यं का
अर्थं है मरणा धमं वालि मनुष्य, उनम ही वह ( शब्द ) प्रवेश करता टै । महान्
देव अर्थात् परम ब्रह्य से समता ( सायुज्य ) का वर्णन किया गया है। ( महा-
भाष्य, प ३)।
विरोष- इस ऋचा की प्रस्तुत व्याख्या का तात्पर्यं यहीदहैकि परब्रह्म
के स्वल्प से युक्त अन्तर्यामी शब्द मनुष्यों मे प्रविष्ट है । व्याक्ररण-शाल्रसे
उत्पन्न शब्दज्ञान रखकर जो प्रयोग किया जायगा तो मनुष्यो के सारे पाप नष्ट
हो जार्येगे ओर वे अर्हकार आदि की प्रन्थियों को तोड़कर अपने अन्तरतम मे
विद्यमान शब्द-ब्रह्म के साथ आत्यन्तिक रूप से संसक्त हो जा्येगे । इस पहेली
कौ तरह प्रतीत होने वाली क्वा की व्याकरणपरक व्याख्यातो पतंजलि ने
कीदहै, यास्क ने ( ? १३।७) इसकी यज्ञपरक व्याख्याकी है जिते सायणने
मो लिया है। राजशेखर ने इका साहित्यिक अथं लिया है । माष्यकार के
पाणिनि-दशनम् ५६१
नामसे उद्धरण देने पर भी माधवाचायने मनमानी की है--अपनी इच्छा से
भाष्य की पंक्तिथों का परिवर्तन करने चले गये है ।
( ६. दाब्द् दी ब्रह्म हे )
जगन्निदानं स्फोटाख्यो निरवयवो नित्यः शब्दो ब्रहमवेति
हरिणामाणि ब्रह्मकाण्ड -
६. अनादिनिधनं बरह्म शब्दतच्वं तदक्षरम् ।
विवर्ततेऽ्भमावेन प्रक्रिया जगतो यतः ॥
( वाक्यप० १।१ ) इति ।
संसार का निदान ( मूल कारण 111111६6 ०९०३९ ), ^स्फोट' के नाम
से प्रसिद्ध तथा अवयवो से रहित जो नित्य शब्द है वह ब्रह्म ही ह। एेसा भरतृ-
हरि ने वाक्यपदीय के ब्रह्मकाण्ड में कहा है-- "आदि ओौर अन्त से रहित,
विकारशृन्य शब्द का तच्व ( 1७8] ४९ ) ही ब्रह्म है- वही संघार की वि्मिन्न
वस्तुओं ( अर्थो ) के रूप में प्रतिमासित होता है तथा उसीसे इस संसार की
सारी प्रक्रियायं होती है" ( वाक्यपदीय १।१ ) ।
विरोष- जिस प्रकार वेदान्तमें संसार कोब्रह्यका विवतं मानते है उसी
प्रकार यहाँ भौ संसार शब्द-रूपी ब्रह्म का विवतं ( मिथ्याप्रतीति ) है। इस ष्ठि
ते अनादि शब्द-ब्रह्म ( जिसे परा वाणी कह सक्ते है ) ही संसारका उपादान
कारणा है। शब्द-ब्रह्म शब्दभाव से तो विवृत्त होता ही है। उसके बादमे वह्
सत् ( 1४\8(९४ ) अर्थो के रूपमे मी विवृत्त होता है । निष्कषं यह हुजा
कि शब्दन्रह्य से शब्द ओौर अथं दोनों की उत्पत्ति होती है, यह पूरा संसार ही
शब्दन्रह्य का रूप है । भतहरि की यह मान्यता शेवागम के अनुसार दै । उन्होने
कहा है--
दाब्दस्य परिणामोऽयमित्याम्नायविदौो विदुः ।
छन्दोभ्य एव प्रथममेतद्धिश्वं यतेत ।॥ ( १।१२० )
कहने का अभिप्राय यह दै कि यह जगत् शब्द का परिणाम ( परिणत हप )
है । संसारमें जो कुछ भी देखते ह वह शब्दब्रह्म का ही विवृत्त रूप याछाया है ।
(£ क. पद्-मेद की संख्या )
नलु नामाख्यातभेदेन पददेविध्यप्रतीतेः कथं चातुर्विध्य-
क्तमिति चेत्-मैवम् । प्रकारान्तरस्य प्रसिद्धत्वात् । तदुक्तं
प्रकीणेके--
५६२ स्वैद्शनसंग्रहे-
७, द्विधा कैरिचत्पदं भिन्नं चतुधा पश्चधापि वा ।
अपोदुधरत्यैव वाक्येभ्यः प्रकृतिप्रत्ययादिवत् ॥ इति ।
अरब प्रश्नहै किंनाम ओर आचख्यातके भेदसे दोप्रकारके षदोंकी
प्रतीति होती है, आप चार प्रकारके पद कहांसे लते? रेसी बात नहींदहै,
उनके दूसरे भेद भी प्रसिद्ध ही है! उसे प्रकीणं-काणएड में कहा है-- "जिस प्रकार
प्रकृति ओर प्रत्यय की कल्पना [ पद से पृथक्की जातीदहै यद्यपिपदमेही
प्रकृति -प्रल्यय दोनों है ], उसी प्रकार वाक्यों से पृथक् करके (अपोद्धृत्य) पदां की
कल्पना करके उसे लोगोंने दो, चारया पाँचभेदोंमे बाद है ।'(वा०प०३।१।१)
विरोप-पदके अर्थंका ज्ञान प्राप्त करनेके लिए शख्रीय टषटिसे षद
से अलग करके हम प्रकृति ओौरं प्रत्यय की कल्पना करते हैँ । प्रकृति का अपना
अथं होता है, प्रत्यय का भी--दोनों का समन्वय करके पदाथंको प्राप्ति होती
है। ठीक उसी तरह वाक्य का अथं जानने के लिएु वाक्य में विद्यमान पदां
की कल्पना वाक्यसे अलग करते हैँ। तब उनके अर्थो पर विचार करके उन्हे
कई भेदो मे बौदते है। विभिन्न मतसे पद के विभिन्न भेदै । पाणिनि
ने “सुतनिडन्तं पदम्" ( १।४।१४ ) कह कर पदों के दोही भेद क्ये ह सुबन्त
( नाम जिसमे उपसग ओर निपात भी है तथा तिडन्त क्रिया })। यास्क तथा
दूसरे लोग पद के चार भेद करते है-- नाम, आख्यात ( क्रिया ), उपसं ओर
निपात । कुच लोग इस सूचीमे कमंप्रवचनीयको भी जोड़ कर पदके पाच
भेद मानते है । करम॑प्रवचनीय एक प्रकारके उपसगं हीर । उपगं क्रिया की
विशेषता प्रकट करते है जब कि कमप्रवचनीय क्रिया के अनुयोगी संबंध को व्यक्त
करता है जैसे, जपमनु प्रावषंत् । यहां जप भौर वर्षा में लक्ष्य-लक्षण का संबंध
है कि जपहोते ही पानी बरसा । जप लक्षण है तथा वर्षा लक्ष्य । इस संबंध का
प्रतियोगी जप है, वर्षा अनुयोगी या धर्मी है। यह सम्बन्ध ईस कर्मप्रवचनीय
भनु' के द्वारा दयोतित होता है ।
भत्ंहरि के वाक्यपदीय में तीन कारड है--( १ ) पदकारण्ड या ब्रह्मकार्ड
( कारिका १५६), जिसमे पद तथा स्फोट के प्रदनों पर विचार हुआ दै।
( २ ) वाक्यकारड ( कारिका ४८६ ) जिसमें वाक्य के स्वरूप पर प्रकाश डाला
गया है । तीसरे काणएड को ( ३ ) प्रकीरणं-काणएड कते ह व्थोकिं इसमे विभिन्न
विषयों की चर्चा हुई है (कारिका १२१८) । तृतीय कार्ड ९४ समदेशो या
विष्यो ( ग0ं०8 ) म विभक्त है जो निम्नलिखित है--१. जातिसु,
२. दव्यसमुदेश, ३. संबन्धसमुरेश्, ४, द्व्यलक्षणसमदेश, ५. गुणसमुदेश,
६. दिक्समुदेश, ७. साधनसमुदेश ( अर्थात् कारको का विश्लेषण ), =` क्रिया-
। न वि ^ ~
पाणिनि-दशेनम् ५६३
समुद्देश, ९. कालसमुद्देश, १०. पुरुषसमृद्देश, १६१. संख्यासमुद्देश, १२. उप
्रहसमुद्देश, १३. लिगसमुद्देश, १४. वृत्तिसमुदूदेश । चौदहवां समृदुदेश पूरे
प्रकीणं कारड का आधा ( कारिका ६२४ ] है । वाक्यपदीय के प्रथम कारड पर
हरिवृषभ की तथा द्वितीय काण्ड पर पण्यराज की प्रकाश टीका दहै, जब कि
तृतीय काण्ड पर भूतिराज के पुत्र हेलाराज ने अपनो प्रकोणं-प्रकाश नामको
टीका लिखो है । वाक्यपदीय व्याकर्ण-गाल के दार्शनिक प्रनों पर विचार
करते के लिए अन्तिम प्रमाण-ग्रन्थ माना जति है ।
क॑प्रवचनीयेन मै पञ्चमेन सह पदस्य पञ्चविधत्वमिति
¢
हेडाराजो व्याख्यातवान् । कमप्रवचनीयास्तु क्रियाविज्ञेषोपज-
नितसंबन्धावच्छेदहेतव इति संबन्धविरोप्योतनद्वारेण क्रिया-
गष्वे ४५ (दे श
विेषद्योतनादुपसर्भष्वेवान्तमेवन्तीत्यमिसन्धाय पद चातुर्विध्यं
भाष्यकारेणोकतं युक्तमिति षिवेक्तव्यम् ।
वचं मेद 'कमभरवचनीय' को अलग गिननेसे पदकेर्पाच भेद दहो जति
है, ेसी याख्या हेलाराज ने [उपर्युक्त कारिका की | की है। किन्तु कमेप्रवचनीय
किसी विशेष क्रिया ( जैत वंशा ) से उतपन्न संबन्ध को व्याप्त करनेवालौ ( जेसे
लक्षय-लक्षण भाव ) सीमा के ज्ञापक्र होते द । [ व्षंणक्रियाके साथजपका
लक्ष्य-लक्षण-भाव से सम्बन्ध है, यह सम्बन्य एक विहेष सीमामें है--इस सीमा
य) सम्बन्ध को बतलाने वाला "अनु" कर्मप्रवचनीय है। यही अभिप्राय है।|
इस प्रकार ये करमंप्रदचनीय एक प्रकार का सम्बन्व ही बतलाते ह अतः किसी
विशेष क्रिया के द्योतक होनेके कारण इनका अन्तर्भाव उपसर्गोमे दही होता
है। [ चरुकि उपसगं किसी क्रिया के द्योतक होति है ओर कमंप्रवचनीय भो क्रिया
क सम्बन्ध का द्योतन करते है अतः उन दोनों को एकं भेद मही मानने)
यही विचार कर भाष्यकारनेषपदके चार ही भेद कटे है जो युक्तियुक्त
है-एेसा समञ्च लेना चाहिए ।
( ७. स्फोर-नैयायिकौ की दका ओर उसका समाधान }
ननु भवता स्फोटात्मा नित्यः शब्द इति निजागद्यते ।
तन्न मृष्यामह । तत्र प्रमाणाभावादिति केचित् । अत्रोच्यते ।
्रत्यक्षमेवात्र प्रमाणम् । गोरित्येकं पदमिति नानावणोतिरिक्ते-
कपदावगतेः सर्वजनीनत्वात् । न ह्यसति बाधके पदालुभवः शक्यो
३८ स सं° #
‰६४ सबवेदशेनसंम्रदे-
मिथ्येति वक्तुम् । पदाथ॑प्रतीत्यन्यथाुपप्यापि र्फोटोऽभ्युप-
गन्तव्यः ।
ञआापलोग बार-बार स्फोटक रूपमे नित्यशब्द है ठेसा कहते है । हम
इसे ठीक नहीं मानते क्योकि इसके लिए कोई प्रमाणा नहीं--यह कु लोगों
( नैयायिकादि ) का कहना है । [ नैयायिक लोग कहते दै कि 'चटमानय' इख
तरह के वाक्यों के उच्चारण केसमयजोध् अ,द् आदि वरां कण्डादि स्थानों में
वायु के संयोग से उत्पन्न होते है, कानों से सुनाई पडते है ओौर तुरतनष्टहो
जति हवे ही शब्द है, उनके अलावे किसी दूसरी चीज को शब्द नहीं कहते ।
चट-वस्तु के बोधक भीयेहीदहै। अतः नैयायिक लोग शब्द को अनित्य मानते
है । वैयाकरणो का कहना है किं यह ` शब्द नहीं है, किन्तु शन्द को व्यंजित
द्वारा जो व्यंग होता है बहौ शब्द द, °
दे वस्तं कौ बोधक होती! यह शव्द नित्य है--न उत्पन्न होता हैन
नष्ठ । वाणी की सर्वोत्तम, अन्तरतम अवस्था-प्रा वाणी- में यह रहता है ।
इसे ही स्फोट कहते है । बाह्य व्वनि या कायं शब्द केवल इसका व्यंजक है
तथा अनर्थक है । इस प्रकार वैयाकरणो के अनुसार “घटमानय ' इत्यादि ध्वनि
का उच्चारण करने से वाचक नित्य शब्द को अभिव्यक्ति होती है जिससे अर्थबोध
होता है|
[ विरोधियों की ] इस उक्ति पर हमारा यह कहना हकि इसे सिद्ध करने
के लिए तो प्रत्यक्ष प्रमाणहीदहै। "गौ" यह एक ही पददहै, इसमें अनेक वर्णो
[के होति हए भौ उन ] के अतिरिक्तं एक पद का ही बोघ सभी लोग करते है।
[ “गौ' मे एकत्व का बोध सभी लोग करते ह। पर यह एकत्व है करटा ?
वर्णोःमे तो नहींदहै, वर्थोकि वे अनेकटहै। इस एकत्व का आधार क
तो अवश्य माननाहैजो वर्णसमूष्चके दारा व्यक्त हो। वही स्फोट है। पद
की एकता का अनुभव सवो को होता द्ै। ] जब तक कोड बाधक प्रमाण
नहीं मिलता तब तक पदोंकी एकता के इस अनुभव को हम मिथ्या नहीं
कहु सकते ।
पदार्थं की प्रतीति ( बोध ) किसी भी दूसरे सधन से सिद्ध नहीं हो सकती
( = एकमात्र उपाय स्फोट-सिद्धान्त ही है), इसलिए भी स्फोटको मान
लेना चाहिए ।
न च वर्ञेभ्य ए ॒तत्परस्ययः प्रादुमेवतीति परीक्षा्षमम् ।
विकल्पासहत्वात् । # वणो; समस्ता व्यस्ता बाथेप्रत्ययं
“
|
पाणिनि-दशेनम् ५६५
जनयन्ति? नाद्यः! वणानां श्षणिक्रानां समूहासंभवात्। नान्त्यः।
व्यस्तवर्गेम्योऽभप्रत्ययासंमवात् । न च व्याससमासाभ्यामन्यः
रकारः समस्तीति । तस्मादर्णीनां वाचकत्वाठुपपततौ यद्भलादथ-
प्रतिपत्तिः स स्फोटः! वणोतिरिक्तो वर्णाभिव्यङ्ग्योऽथेप्रत्यायको
निस्य शचब्दः स्फोट इति तद्विदो वदन्ति ।
"वर्णो से ही पद के अथं कौ प्रतीति उत्पन्न होती है-रेसा कहना भी
यक्तिसंगत नहीं है ( कोटो पर खरा नहीं उतर सकता ) क्योकि निम्न-
लिखित दोनों विकल्य असिद्ध हो जतिहै। ये वणं क्या मिलकर के अर्थकी
प्रतीति कराति है या अलग-अलग होकर ? पहला विकल्प ठोक नहीं हो सकता
वयोकि क्षण भर दही ठहरने वाले ( नश्वर ) वणो का समूह होना असम्भव
है। दूसरा विकल्प भी ठक नहीं क्योकि अलग-अलग वर्णो से [ पूरे पदके |
अर्थं कौ प्रतीति नहीं दहो सकती । [ व्यस्त वर्णो की वाचकता मानने पर कई
समस्या उ्यन्न हो जायेंगी । एक-एक वणं का उच्चारण करने से एक तो
अर्थबोध होता ही नहीं। यदिहोभी तो प्रत्येक वणं को सार्थक मानना पड़ेगा
मौर एक ही वणं से अथं की प्रतीति हो जाने से अन्य वं व्यथं हो जा्ेगे ।
एक पद मँ जितने वणं हों उतने अर्थं भी होगे अतः एक पद एक टी साथ अनेक
र्थो कां बोध कराने लगेगा । अन्त मे सभी वर्णो को पर्यायवाचक भी मानना
पडेगा । |
अलग-अलग बोध कराना या मिलकर बोध कराना, इन दोनों विकल्गे के
अतिरिक्त ओर कोई विकल्प हो नहीं सकता । इसलिए वर्णां कौ वाचकता
असिद्ध हो गयी ( = वणं अर्थंबोध नहीं करा सक्ते ), अतः जिसके बलसे
(कारण ) अथ॑का बोध होता है, वही स्फोट हि। स्फोट के जानने वाले कहते
ह किस्फोट नित्य शब्द है, वर्णो से पृथक् है वरणोकेद्वारा ज भिष्यक्त होता है
ओर अ्थंकी प्रतीति करातादहै। ( स्मरणीयदहैकि ध्वनि अर्थं-प्रतीति नहीं
करा सकती । ध्वनि नित्य शब्द को अभिव्यक्त करती है जो अर्थंबोध कराने के
लिए सदा प्रस्तुत रहता है । ]
|
सकुटति स्फृटीमवत्यस्मादथं इति स्फोटोऽथप्रत्यायक इति
स्कोच्चिन्दथैसयथा निराहुः । तथा चोक्तं भगवता पतञ्जलि-
ना महामाप्ये- “अथ गौरित्यत्र कः शब्दः १ येनोचारितेन
५६६ सबैदशेनसंप्रदे-
साखरा-साङगूल-कडद-खुर-विषाणिनां संप्रत्ययो भवति, स शब्दः"
( महाभा ० १०१ ) इति ।
इसोलिणए, वरणो के दवारा जो स्फुटित या व्यंजित हो वह् स्फोट ( ५. स्फुट )
है अर्थात् वर्णो से अभिव्यंग्य [ शक्ति को स्फोट कहते ह । ] जिससे अथं स्फुटित
या प्रकाशित होता है वह स्फोट अर्थात् अर्थबोधक ( शक्ति ) है । इस तरह
दोनों रूपों मे ( वणोके द्वारा अभि््यंग्य तथा अथं का बोधक--इन दोनों
रूपों मे ) स्फोट" शाब्द के अथं का निवंचन लोग करते हँ । भगवान् पतंजलि
ते महाभाष्यमे एेसाही कहा भी है-- “अच्छा, यह बतलाहये कि "गौ" में
शव्द कौन-सा है ? जिसका उचारण करने से साल्ञा ( गले का लटकता हा
मांस ), पू, ककुद ( पीठ ओर गले के बीच उठा हज मांस), खुर तथा
सींग से युक्त [ पशुविशेष ] का बोघ होता है, वही शब्द दहै ।'” ( पतञ्जलि,
महाभाष्य, पृऽ १)। [ यहाँ स्पष्ट है किं पतज्ञलि अर्थं का बोध करानि वाले
साधन-विहोष को शब्द कहते है जो भौर कु नहीं, नित्य शन्द या स्फोट ही
हे । कैयट ने ठेसी व्याव्या भी की दै।|
विदतं च कैयटेन--वैयाकरणा वणेव्यतिरिक्तस्य पदस्य
वाचकत्वमिच्छन्ति । वर्णानां वाचकत्वे द्वितीयादिवर्णोच्चार-
© [र (~ (~
गानथकयप्रसङ्धादित्यादिना तद्व्यतिरिक्तः स्फोटो नादाभि-
व्यङ्ग्यो वाचको विस्तरेण वाक्यपदीये व्यवस्थापितः इत्यन्तेन
प्रबन्धेन ।
हेयट ने इसका विवरण भी दिया है--'वेयाकरण लोग वं के अतिरिक्त
( वरणो से पृथक् रखकर ) पद की वाचकता मानते है । वर्णो को वाचक मानने
पर [ पहला वशँ तो अरथ॑बोध करा हो देगा इसलिए ] द्वितीय ओर अन्य वणां
का उचारण करना व्यथं ही हो जायगा 1" उनके अतिरिक्त ( पृथक् )
नाद यां ष्वनि से अभिव्यंग्य (स्फोटः है जो [ पदां का ] वाचक है, वाक्यपदीय
मरे उसकी व्यवस्था विस्तारपूवंक की गई दै ।' ( देखिए, महामाध्य, चौखम्बा
सं ° पु १९१ ) |
( ७ क. स्फोट पर अन्य शांका-मीमांसक )
नज स्फोटस्याप्यथप्त्यायकत्वं न घटते 1 विकरपासह-
त्वात् 1 किमभिव्यक्तः स्फोटोऽथं परत्याययत्यनभिव्यक्तो वा ?
न चरमः । सर्वदार्थप्रत्ययरक्षणकारयोत्यादप्रसङ्गात् । स्फोटस्य
पाणिनि-दशेनम् ५६७
` नित्यत्वाभ्युपगमेन निरपेक्षस्य हेतोः सदा सत्वेन कायस्य
विलम्बायोगात् ।
[पूर्वपक्षी कहते है कि ] स्फोटमें भो अर्थंकौ प्रतीति कराने की शक्ति
नहीं मानी जा सकती क्योकि दोनों ही विकल्प इस विषय में असिद्ध हो जाति
ह । क्या स्फोट अभिव्यक्त होकर अथं कराता है या बिना अभिव्यक्त ही हए?
दसरा पक्ष ठीक नहीं हो सकता । [ दूसरे पक्ष का खंडन सरल है अतः पहले
उसे ही तेते है, जैसे सुर ओर कड़ाही बनानि के लिए लुहार पहले सुई हौ बना
लेता है तब कड़ाही बनाता है। ] कारण यह हैज़्िएेसा मानने पर अर्थबोध
हूपौ कायं का उत्पादन सदा ही होता रहेगा क्योकि स्फोट को नित्य मानते
ह, [ अर्थंबोध का | वही कारण है जो अभिव्यक्ति कौ अपेक्षा नहीं रखना--
उसकी सत्ता सदा ही रहेगी, इसलिए [ अर्थंबोध रूपी | कायं के उत्पादन मे
विलम्ब की संभावना दही नहीं । [ अभित्राय यहं हिकरि अर्थप्रतीति को कायं
ओर स्फोट को कारण मानते है । कायकारण का संबन्ध सदा रहता है । चूंकि
अनभिव्यक्त रूपमे ही स्फोट अ्थंबोध करायेगा, अतः अभिव्यक्त होने का प्रश्न
ही नहीं उठता । अतः नित्य स्फोट नित्यल्पसे बराबर अथंबोधदही कराता
रहेगा, विराम उसे कहां ? |
अयैतदयोषपरिजिदीर्षयाऽभिव्यक्तः स्फोटोऽथं प्रत्याययतीति
कृक्ौक्रियते, तथाप्यभिव्यञ्चयन्तो वणोः किंप्रत्येकमभिव्यञ्जयति
संभूय वा ? पश्द्येऽपि वणीनां वाचकत्वपक्च भवता ये दोषा
= ५ ५
भावितास्त एव स्फोटाभिव्यज्जकत्वपक्षे व्यावतेनीयाः । तदुक्त
भद्राचार्येमीं
मांसाश्छोकवातिके-
८, यस्यानवयवः स्फोटो व्यज्यते वणेबुद्धिभिः ।
सोऽपि पर्यलुयोगेन नैकेनापि विभच्यते ॥ इति ।
[ पूवंपक्षी आगे कहते ह कि] अब यदि उक्त दोषसे वचने के लिए आप
( वैयाकरण ) लोग यह पक्षले लं कि अभिव्यक्त ही होने पर स्फोट अथं को
प्रतीति कराता है फिर भी [ हम विकल्प रंगे कि ] अभिव्यक्त करने वलि वर्णं
क्या एक-एक करके स्फोट की अभिव्यक्ति करते है या सब एक साथ मिलकर ?
दोनों ही पक्षो मे; वर्णो को वाचक मानने पर आप ( वैयाकरणो ) ने जो-जो
दोष आरोपित किये दैवे दोष ही स्फोट को अभिन्यंजकं मानने पर, अपि पर ही
उलट दिए जायं तो कोई आपत्ति नहीं । [ यदि वणं एक-एक करके स्फोटकी
५६८ सवेदशेनसंग्रहे-
अभिव्यक्ति करते है तो एेसा देवा नहीं जाता 1 पुनः यदि एक ही वणं से स्फोट
की अभिव्यक्ति हो जाती है तो किसी पद के दूसरे-तीसरे आदि वर्णो का उचारण
ही क्यों किया जायगा ? इसके अलावे, पद मे जितने वशं है उतने स्फोटो को
अभिव्यक्ति एक ही पदसे हो जायगी । दूसरा पक्ष ( वणं मिलकर स्फोट की
अभिव्यक्ति करते है ) भी ठीक नहीं। क्षणिक वर्णो का समूह संभव ही नही
हे- वे इतनी शीघ्रतासे नष्टजोहो जाति हि। अतः स्फोटवादिथो के सिर पर
उन्हीं का शत्र चला दिया जायगा । |
इसे कूमारिल भट ने भी मीमांसा-इलोक-वातिक् मे कहा है-- "जिसका यह्
सिद्धान्त है कि स्फोट अवयवोंसे रहित है तथा वर्णो के ज्ञान से अभिव्यक्त
होता है, वह ( स्फोटवादी वयाकरण ) भी [अपनेही दारा उठाये गये प्रडनों
मे ] एक प्रहन से भी निकल नहीं सक्ता है। [ स्फोटवादी ने अपने विरोधी से
जो-जो प्रन ऊपर क्रिये है उनमे सबके सब अव हम स्फोटवादियों पर ही फक
देते है--एक भी प्रन का उत्तरये दं तोजाने। एक प्रश्न का भी उत्तर इनसे
नहीं दिया जा सकता । यदि स्फोट को अवयवयुक्त मानते तो ये कह सकते ये
कि एक-एक वर्णं से खण्डशः स्फोट को अभिव्यक्ति होती है । परन्तु ये तो स्फोट
को अवयवो से रहित भी मानते है । |
विभक्त्यन्तेष्वेव वर्णेषु “युिडन्तं पदम्! ( पा० घ ९।
४७।१४ ) इति पाणिनिना, "ते विभक्त्यन्ताः पदम् ( न्या° छ
२।२।६० ›) इति गौतमेन च पदसंज्ञाया विहितत्वात्संकेत-
्ररेणालुग्रहवश्ादरणष्वेव पदबुद्धि्विभ्यति । तहिं सर इत्ये-
तस्मिन्पदे यावन्तो वरणास्तावन्त एव रस॒ इत्यत्रापि । एवं
# ॥ 1 ३ [8 ¢
(वनं न्व ्् (नदी दीना' रामो मारो राजा जारेत्यादिष्वथे-
भेद स्यादिति चेत्-न । क्रमभेदेन भेदसंभवात् ।
[पूर्वंपक्षी आगे कहते ह क्रि ] पाणिनि ने सुबन्त ओर तिडन्त ( वणं }
को पद माना है ( १।४।१४ ) तथा गौतम ने विभक्ति से अन्त होने वाले वर्णो
को पद माना है ( २।२।६० }--इस प्रकार दो बडे-बड़े आचायं विभक्त्यन्त
वो को ही पद संज्ञा देते है जतः [ वृदढव्यवहारादि उपायो से | संकेत-प्रहण
करके [ इन वर्णो में उत्तरोत्तर ] सहायक-संबंध मानकर वर्णोःको ही तो पद
कहना पड़ेगा । [ उक्त दो आचार्यो के सूत्रों से ध्वनित होता है कि व्णं-समुदाय
ही पद है--उसके अतिरिक्त स्फोट नाम का कोई पदाथं नहीं है। यह भरत
पाणिनि-दशनम् ५६६
हो सकता है कि वणंतो शोघ्रही नष्ट होने वाले है उनका समूह केसे हो
सकता हे ? परन्तु वृदव्यवहार मादि के धषरारहम वर्णो्मुदाय में संकेत
( ९०0४ 7{;078] १6}&४00 ) का बर्हण करेगे कि अमुक वणंसमूदाय
अमुक वस्तु से सम्बद्ध है। पूरे समुदाय से एक ही अथं को प्रतीति होगी।
अब इन विनाली वर्णो मे उत्तरोत्तर अनुग्रहमाव टौगा--एक वणं दूसरे वर्ण
की सहायता करता चला जायगा मौर उष विद्यमान वरणंसमदाय का
एकात्मक अर्थं मान लेंगे । अतः समू कौ कल्पना से भी पदबोध हो सकता है ।}
[ वैयाकरण बौच में छेडते हैकि] तवतो सर' इस पद में जितने वणां
ह उतने ही "रस" मे भो है; इसी तरह, वन ओर नव, नदौ ओर दीन, राम भर
मार, राजभ्रौरजारमें मी बराबर-बराबर ही वर्णंहै तो अ्थभेदकी प्रतीति
नहीं होगी । [ विरोधी कहते हैकि ] ेसी बातत नही, वर्णो के क्रम मे भेद होगा
तो अंसे भी मेद पडेगा ।
9 मै, -2
तदुक्तं तोतातितः--
९. यावन्तो यादृश्या ये च यदथेपरतिपत्ये ।
वणौ; गरज्ञातसामथ्यौस्ते तथेवावबोधकाः ॥ इति ।
तस्मा्श्चोभयोः समो दोषो न तेनैकश्चोद्यो भवतीति
न्यायाद्रणौनामेव वाचकत्वोपपत्तौ नातिरिक्तस्फोटकरपनाव-
कर्पत इति चेत्-)
[ पूेपक्षी अन्त नें कते ह ]--तौतातित अर्थात् कुमारिल का कहना है
कि जिन वणो की साम्यं ( अर्थबोध करानि की शक्ति ) अच्छी तरह मालूम हो
करिये अमुक अथं कौ प्रतोति करा सकते है, वे वरां चाहे जितनी संख्या मे हो,
जिस किसी प्रकारके हों, वे उसी प्रकारसे अरथंका बोध करति है। [ जिस
अथं का बोध कराने की शक्ति वर्णो में होती है, वे उसी अथं का बोध
करते ह । |
इसलिए "जब दोनों का दोष एक ही तरह का है तो उख दोषसेएक पर
बिगडना ठीक नहीं है' इस न्याय से यह सिद्ध होता है कि वणं ही वाचके
अतः उनसे भिन्न स्फोट की कल्पना करना ठीक नही है। [ यहाँ मीमांसकों का
पूव॑पक्ष समाप्त हुआ । |
विरोष--जवब दो व्यक्तियों मे दोनों का समान दोष हो, दोनो का परिहार
मौएकहीहो, तो वैसे विषय का विचार करते समय एक् व्यक्ति को दूषरे पर
दोषारोपणा नहीं करना चाहिए । इका यह शलोक है-
व
र ब "पक
६०० स्बदशनसंग्रहे-
यश्चोभयोः समो दोषः परिहारोऽपि वा समः।
नेकः पर्यनुयोक्तव्यस्तारगथेविचारणे ॥
( ८. मीमांसक की शंका का उत्तर-स्फोरसिद्धि )
तदेतत्काशङक्ावलम्बनकरपम् । विकल्पानुपपत्तेः । रकि
वर्णमात्रं पदप्रत्ययावलम्बनं बण॑समूहो वा १ नाद्यः । परस्पर
विलक्षणव्णमालायामभिनं निमित्त पुष्येषु विना खत्रं माला-
्रत्ययवदित्येकं पदमिति प्रतिपत्तरनुपपत्तेः। नापि दवितीयः ।
उच्चरितप्रध्वस्तानां वणानां समृहभावासंमवात् ।
[ वैयाकरण लोग उत्तर देते है कि नदी मे इवते हुए व्यक्ति | जसे बहते
हए धास-पूस का शहारा लेते द वसे ही आपका यह् तकं है। इन दोनों की
विकल्पों कौ असिद्धि हो जाती है। क्या अकेला वशं पद कौ प्रतीति कराता है
या वर्णो का समूह ? पहला विकल्प ठीक नहीं क्योकि जैसे फूलों मे विना सूते के
माला की प्रतीति नहीं होती उसी प्रकार एक दूसरे से विलक्षण ( 2९८।1५॥ )
वर्णो की माला होने पर भी अनेक वरणा मे अनुस्यूत होनेवाले किसी एक
अभिन्न निमित्त के बिना "यह एक पद है' एसी प्रतीति नहीं हो सकती । दसरा
विकल्प भी ठीक नहीं है क्योकि उच्चारणा किये जानेके बादनष्हो जानेवाले
वर्णो कासमूह कभीहोदही नहीं सकता । |
तत्र हि समृहव्यपदेशो ये पदाथ एकस्मनप्रदेशे सहावस्थि-
ततया बहवोऽलुभूयन्ते । यथेकस्मन्प्रदेशे सहावस्थिततयायुभूय-
मानेषु धवखदिरपलाशादिषु समृहव्यपदेशो यथा वा गजनरः
तुरगादिषु । न च ते बणौस्तथानुभूयन्ते । उत्पननप्रध्वस्तत्वात् ।
ॐ चैः #
अभिव्यक्तिपकषेऽपि क्रमेणेवाभिव्यक्िः । समृहासभवात् ।
हम "समूह" उसे ही कते है जहां कु पदार्थं एक ही स्थान में साथ-साथ
रहने के कारणा अनेक संख्या मे अनुभूत हों । जसे एक ही स्थान में साथ-साथ
रहने के कारण अनुभूत होनेवाले घव, खदिर ( खेर), पलाश आदि वृक्षो में
“समूह" का प्रयोग होता है अथवा जैसे गज, मनुष्य ओर अश्च आदि [ जीवों के
समूह का प्रयोग करते ह । | वर्णो का अनुभव तोउसलखूपमें होता नहीं।
कारणा यहद करिये उत्पन्न होकर नष्टहो जति है [ अतः एक स्थान मे साथ-
साथ रहने का अवसर इन्दे कहाँ से मिलेगा कि वर्णो का समह होगा ? |
1
पाणिनि-दशनम् ६०१ `
यदि हमारे समान [स्फोट की] अभिष्यक्तिका पक्ष भी लिया जाय तो
वहां भी अभिव्यक्ति [ एक हौ साथ नहीं हो जाती ] रमसे ही होती है । कारण
यह हैक किषी भी दशामें क्षणिक वणौ क] समूह होना संभव नहीं है ।
नापि वर्णेषु काल्पनिकः समूहः कल्पनीयः । परस्पराश्रय
सङ्गात् । एकाथपरत्यायकत्वसिद्धौ तदुपाषिना वर्गेषु पदत्व-
[क 5 [९ [+
तीतिस्तत्सद्धावेकाथपरत्यायकतवसिद्धिरिति । तस्मादर्णाना
` वाचकत्वासंभवात्स्फोटोऽमभ्युपगन्तव्यः ।
आप ( पूर्वपक्षो ) यह् भी नहीं कह सक्ते कि वर्णोमे जौ समूह है वह
काल्पनिक या कृत्रिम है । क्योक्रि एसा मानने पर अन्योन्याश्रय दोष हो जायगा ।
एक तरफ जज आप यह सिद्ध करगे किं [ वर्णोके कृत्रिम समूह से ] एकात्मक
अर्थं को प्रतीति होती है तभी उस उपाधि ( शतं ) के आधार पर वणो में पदत्वं
का बोध होता है । ओर दूसरी ओर वणो मे पदत्व को सिद्धिकरने पर ही यह्
सिद्ध होगा कि उषसे अथंका बोर होता है [ पदत्वप्रतीति ओर अ्थंबोध-दोनों
मे कोन पहले होगा ? एकाथंबोध तथा पदत्व वरण॑समुह में नदींहै, किन्तु स्फोट
मेही दहै। यदिस्फोट नहीं मानते तो इन दोनों को वर्णो मे ही बेठाना होगा--
इससे अन्योन्याश्रय तो होगा ही । | अतः वरां वाचक नहीं हो सक्ते, तो
स्फोट को मानना ही चाहिए ।
(< क. स्फोट पर अन्य आपत्ति ओर समाधान )
ननु स्फोटव्यञ्जकतापक्षेऽपि परागुक्तविकस्पग्रसरेण षट-
इटोप्रभातायितमिति चेत्- तदेतन्मनोराज्यविजम्भणम् । वैष
म्यसभवात् । तथा हि--अभिव्यञ्जकोऽपि प्रथमौ ध्वनिः स्फोट-
मस्फुटममिव्यनक्ते । उत्तरोत्तराभिव्यञ्चकक्रमेण स्फुटं स्फुटतरं
©.
स्ङटतमस् । . यथा स्वाध्यायः सटृत्पल्यमानो नावधार्यते ।
अभ्यासेन तु स्फुटावसायः। यथा वा रजतत्वं प्रथमप्रतीतौ
स्फुट न चकास्ति । चरमे चेतसि यथा दमिव्यज्यते ।
अब ये ( पूर्वपक्षी ) लोग फिर आपत्ति कर सकते है कि यदि स्फोटका
| वो के द्वारा | मभिव्यंग्य होना मान भोले फिर भी तो पहले कहे सये
( प्वेपक्षी के हारा आरोपित, देखिये- ७ क का आरंभ ) विकल्पों के प्रसार के
कारण | बचना चाहते हृए भी आप उनके ही चक्र में पड़ जागे जैसे कोई
६०२ सर्वदशेनसंग्रहे-
गाडीवान रातमें चंगी देने के डरसे दूसरे रस्तेसे रातभर चलता रहे ओर
भूलता-भटकता ] प्रातःकाल चुंगीघर के ही सामने पहुंच जाय [ ओर उसे
चुंगी ( ४०1) ४४ ) चुकानी १३ । |
हमारा कहना है किं यह सब करके अप अपने सनमें पए पकाते रहे
( मन को संतोष देते रहँ )। | इससे क होने का नहीं | क्योकि दोनो में
बहुत बड़ी विषमता है । देखिये--अभिन्यंजकं होने पर भी प्रथम वणं स्फोट
को अभिव्यक्ति अस्पष्ठ रूप में ही करता है । [ जेसे-जेसे वणं भति है वैपे-वेये
वे ] अपने उत्तरोत्तर अभिभ्यंजक क्रम से स्पष्ट स्पष्तर ओर सबसे अधिक स्पष्ठ
हख्पते अंत मे अभिव्यक्त कर देते ह । इसलिए वशं चाहे स्पष्ठषखूपसे स्फोट
करी अभिव्यक्ति करे या अस्पष्रूप से, वह॒ अभिव्यंजक है । |
जिस प्रकार स्वाघ्याय (वेद) एक बार पढ़ने से समञ्ञ में नहीं आता
किन्तु अभ्यास करने से स्फुट होने लगता है । अथवा जिस प्रकार चाँदी प्रथम
प्रतीति में ( पहले-पहल देखने से ) स्पष्ट नहीं होती, न्तु अंत में वही ( वादी)
चित्त मे अपने वास्तविक रूप मं अभिव्यक्त हो जाती है ।
१०, नादेराहितबीजायामन्त्येन ध्वनिना सह ।
आवृत्तिपरिपाकायां बुद्धौ चब्दोऽवधायंते ॥
( वाक्यप० १।८४ )
इति प्रामाणिकोक्तेः । तस्मादस्माच्छब्दादथं प्रतिपद्यामह
इति व्यवदहारवशाद्रणीनामर्थवाचकत्वानुपपततेः । प्रथमे काण्ड
७ 0 भिरभिहितत्वाननिरवयवमथेप्रत्यायकं (= [3 ¢ + $
तत्र भव््धमत्रहराभरभाहतत्वाएज्ञर् १५९ रब्दतच्च
स्फोटाख्यमभ्युपगन्तव्यमिति । एतत्सव परमाथेसंवि्क्षणसत्ता
जातिरेव सर्वेषां शब्दानामर्थं इति प्रतिपादनपरे जातिसयुदेशे
म्रतिपादितम् ।
इसके लिए प्रामाणिक कथन भी है-- अन्तिम ध्वनि (वणं ) के साथ
नादं ( पहले से उच्चारित वणां कौ ध्वनियों ) के द्वारा उस बुद्धि में जिसमें
बोज अर्थात् अभिग्यक्ति के अनुकूल संस्कार को स्थापना हो चुकीटै तथाजो
बुद्धि [ पहले के सभो संस्कारों की ] आवृत्ति के कारण परिपक्व अर्थात् योग्यता-
संपन्न भी हो चुकी है, किसी शब्द का निरधारण ( निश्चय ) होता है'
( वाक्यपदीय १।८४ )। [ बुद्धि में प्रत्येक शब्द का एक संस्कार रहता है जो
शक्तिग्रह ओर आवृत्ति के कारण स्थिर हो जाता है, तभी बृद्धि में योग्यता
पाणिनि-दशनम् ६०३
होती है। जब किसी पदया वाक्य काश्चवणा करते है तब उस पदया वाक्य
के प्रथम वंस ही उक्त संस्कार जागने लगतादहै, या स्फोट स्पष्ट होने लगता
है । अन्तिम वं उच्वरित होते-होते सारे-क-सारे संस्कार उदूबुद्ध हो जति है तथा
अमुक शब्द है" यह् ज्ञान होता है । यही आशय है । ]*
इसलिए, "इस शब्द से हम अथं की प्रतीति करते है" एेसा व्यवहार होने के
कारण यह् षिद्ध नहीं होता किं वणं अथंके वाचक रहै, [प्रत्युत शब्द अथं के
वाचक हो सक्ते है । ] वाक्यपदीय के प्रथम कारडमें आदरणीय भतृंहरिने
इसका वर्णन किया है अतः अवययों से रहित, अथंबोधक शब्दतच्व, जिसका
नाम स्फोटदहै, हमे स्वीकार करना चाहिए । परमाथं ( परम त्व, ब्रह्म } के
पूरज्ञान ( संवित् ) रूपी लक्षण से युक्त जो [ सभी पदार्थो मे विद्यमान | सत्ता
है, वह [ धट, पट आदि संबन्धियों के भेद से घटस्व, पटत्व आदि की | जाति कै
रूपमे है तथा सभी शब्दों ( घट, पटादि ) का अथं भी वही ( सत्ताजाति ) है
इस प्रकार का प्रतिपादन करने वाले जाति-समुद्देश्च ( वाक्यपदीय के तृतीय कांड
का एक खण्ड ) नामक खराड मे भर्तृहरि ने इसे स्पष्ट किया है । [ अब सत्ता को
अथं मानने वाले पक्ष का खंडन पूवंपक्षी करगे । ]
( ९. सत्ता दी शब्दौ का अथं है--पूर्वेपक्च ओर सिद्धान्तपश्च )
यदि सत्तैव सर्वेपां शब्दानामर्भस्तदिं सर्वेषां शब्दानां पयां
यता स्यात् । तथा च चिदपि युगपत्रिचतुरपदग्रयोगायोग
इति महचातुयेमायुष्मतः । तदुक्तम् -
११. पययाणां प्रयोगो हि योगपद्येन नेष्यते ।
पयौयेणैव ते यस्माददन्त्यथं न संहताः ॥ इति ।
तस्मादयं यक्षो न क्षोदक्षम इति चेत्-- ।
[ पूर्वंपक्षी कहते है कि ] यदि सभी शब्दों का अथं सत्ता ( परम सत्ता,
परमार्थं काज्ञान ) हीह तब तो सभी शब्द एक दूसरे के पर्याय हो जारयेँगे । यही
नहीं, आपकी चतुरता धन्य है! आपके मतम रहनेसेतो कहींभी एक साथ
तीन-चार पदों का प्रयोग होगा ही नहीं। [ जब सभी शब्द एक दूसरे के पर्याय
है तवतो एक साथ कई पर्यायोंका प्रयोग नहीं होगा, अतः कई शब्दोंको
> विशेष ज्ञानके लिए पं सूयंनाराया शङ्कौ व्याख्या से युक्तं वाक्य
पदीय देखं । प० ९७-९९ । |
६० सददशनसम्रहे-
एक बार मे प्रयुक्त नहीं किया जा सक्ता । मनुष्य की भाषाही निरथक हः
जायगी । धन्य है भापका सिदान्त ! ] इसे कहा भी है--
(पयायवाचौ शब्दों का प्रयोग एक साथ नहीं करना चाहिए क्योकि ये शब्द
एक-एक करके अथं का बोध कराते ह, एक साथ मिलकर नहीं ।' [ चंद्र, इदु,
शशि आदि शब्द पृथक् वाक्यों मे अपने क्रम से अर्थ-बोष करा सक्ते है किन्तु
यदिणएकही साथ इनका प्रयोग करदं तो वाक्य नहीं बन सकता-- सा हित्य-
शल्रमें तो ठेसा करना पुनरुक्ति-दोष माना जायगा । ] इसलिए यह पक्ष
इतना भी बलयुक्तं नहीं किं हमारे खंडन को संभाल सके ।
तदेतद्गगनरोमन्धकल्पम् । नीललोहितपीतादयुपरञ्जक-
द्रव्यभेदेन स्फटिकमणेरिि संब्न्धिभेदात्सत्तायास्तदात्मना
भेदेन प्रतिपत्तिसिद्धो, गोसत्तादिरूपगोत्वादिभेदनिबन्धनव्यवहा-
रवेलक्षण्योपपत्तेः । तथा चाष्ठवाक्यम्-
१२. स्फटिकं रिमलं द्रव्यं यथा युक्तं एृथक्पृथक् ।
नीरलोहितपीताेस्तदणं मुपलभ्यते ॥ इति ।
| उक्त प्रस्न का उत्तरहै कि] हतो आकाश ( शुन्य ) का रोमन्थ
( जुगाली, पागुर ) करने के समान है । [ पशु चवाये हए पदार्थं को फिर से मुह्
मे छाकर चबाते हँ वही रोमन्थ है। रोमन्थ करने के लिए कुठ ठोस पदार्थं
होना चाहिए । योँ ही आकाशका सेमन्थ नहीं हो सकता । उसी तरह आपलोगों
का यह आक्षेप भी बिल्कुल असंभव है। ] जसे स्वच्छ स्फटिक मशि में उप-
रजक ( रंगनेवाले } द्रव्यो के भेदके कारण नीले, लाल, पीले तथा अन्य रंगों
की प्रतीति होती है उसी तरह संबन्धी के भेदके कारण, सत्ताकी प्रतीति.
उससे संबद्ध वस्तु के स्वरूपभेद के रूपमे होती है । इस तरह “गो' की सत्ता
(वेयक्तिक सत्ता) के रूप में गोत्व आदि [ जाति की जो सत्ता है उसो से विभिन्न
वस्तुओ के ] भेद पर आधारित व्यवहार की विलक्षणता माम पडती है ।
| अभिप्राय यह है कि परमसत्ता ब्रह्म ही चब्दोंका अर्थं है पर शब्दों में अथं
कोलेकरमभेद व्योंहै ? चकि सत्ताके संबन्धी चट, पट आदि द्रव्यो की घट-
सत्ता, पटसत्ता आदि है भौर इन वैयक्तिक सत्ताओंके रूप मे घटत्वजाति,
पटत्वजाति आदि जातियों की सत्ता है इसलिए परमसत्ता ब्रह्य के विंवतंरूप
इन सत्ताओं के चलते शब्दाथं मे भेद पडता है । स्फटिक पर नाना प्रकारके
रंग पडते है । उसी तरह संबन्धियो के भेद से सत्ता पर अनेक अर्थो का आरोपरा
होता है । ]
` =" = न ब्ोक्ो `
पाणिनि-दशेनम् ६०५
ठेसा ही आप्त ( प्रामाणिक ) वाक्य है--"जेते स्फटिक स्वच्छ द्रव्यही है
पृथक्-पृथक् नीले, लाल, पीले रंगोंके पड़नेसे उसके वंको प्राप्तकर लेता
है, [ वैसे ही सत्ता भी विभिन्न संबन्धियों के मेदसे विभिन्न अर्थोको धारण
करलेतीहै।]'
तथा दरिणप्युक्तम्--
१३. संबन्धिभेदात्सत्तेव भिद्यमाना गवादिषु ।
जातिरित्युच्यते तस्यां सर्वे शब्दा व्यवस्थिताः ॥
( वाक्य ३।१।३३ ))
१४. तां प्रातिपदिकाथं च धात्वथं च प्रचक्षते ।
सा नित्या सा महानात्मा तामाहुस्त्वतलादयः ॥
( वाक्यप० ३।१।२३४ ) इति ।
वही भतृंहरि ने भी कहा है--"सम्बन्धी ( घट, पट आदि ) के भेद से सत्ता
( परम सत्ता ) ही गो-गादि केनूप में भिन्न होकर जाति कहलाती है उसी
मे सभी शब्दों की व्यवस्था होती है ।। १३॥
उसी जाति को प्रातिपदिकाथं तथा घात्वथं भी कहते है, वह जाति ( सभी
पदार्थो मे स्थित संविद्षूपी सत्ता ) नित्य है, वही महान् आत्मा ( ब्रह्म ) है,
त्व, तल् आदि भाव-प्रत्यय उसी का पोषण करते हँ ॥ १४ ॥'
विरोष- महासत्ता नाम की एकही जाति है, वही ब्रह्म है, गोत्व,
अश्वत्वादि उसीके विवतंदहै। आश्रयरूपी सम्बन्धी का भेद पड़ने से यह
महासत्ता ही गोत्व आदि जात्तिके रूपमे आतीहै। अभाव को भी महासत्ता
से संबद्ध मानकर पदा्थं कहते हैँ अतः महासत्ता को प्रादिपदिकाथं के रूपमे भी
गृहीत करते है । धातु भी क्रियारूपी व्यक्तियों मे समवेत होने वाली महासत्ता
की अभिव्यक्ति करताहै। रेसी अवस्था में महासत्ता में क्रियारूपी उपाधियों
ॐ कारणा अनेकता आती है! ( देखिये, वाक्यपदीय का संबद्ध स्थल )।
माधवाचायं इसकी व्याख्या अगे करते हैँ ।
आश्रयभूतेः संबन्धिभिभिच्यमाना करिपतभेदा गवाश्वादिषु
सत्तैव महासामान्यमेवे जातिः । गोत्वादिकमपरं सामान्यं
|च न गोस्तेव चं
परमाथतस्ततो भिन्नं न भवति । गोसत्तेव गोत्वं, नापरमन्वयि
प्रतिभासते । एवमश्वसत्ताऽश्वत्वमित्यादि वाच्यम् । एवं च
4
^
^
&०8 सर्वदशेनसंमरहे-
तस्यामेव गवादिमेदभिन्नायां सत्तायां जातो स्वे गोश्ब्दादयो
वाचकत्वेन व्यवस्थिताः ।
आधारकेस्पमेंजो संबन्धी हैँ उनके दवारा भेदक्रिये जाने पर, जो भेद
वस्तुतः कल्पित है वास्तविक नहीं, गो-अश्च आदि में रहनेषाली सत्ता ही महा-
सामान्य ( ऽपाप्पा) &९णप्३ ) या जाति है । गोत्व आदि जो अपर ( नीचे
के ) सामान्य है, वास्तव में उस ( महासामान्य ) से भिन्न नहीं है। गोकी
सत्ता ( सभो गो-व्यक्तियों मे अनुस्यूत सत्ता) ही गोत्व है, इसके अतिरिक्त
कोई दसरा संबन्धो प्रतिभासित नहीं होता । इसी तरह अश्व की सत्ता ही अश्वत्व
है, दसरा कुच नहीं-एेसा कहना चाहिए । इस प्रकार गो आदि ( आधार }
के भेद के कारण भिन्न प्रतीत होने बाली उसी सत्ता अर्थात् जाति मं गो आदि
सभी शब्द वाचकसे रूपमे व्यवस्थित है । [ रामानुज-दर्शनमें भी सभी शब्दों
को परमात्माका ही वाचक माना गया है देखिये--रा० द० अनुच्छेद १२,
पृ० २०६। |
¢ (~ [क [ऋ
प्रातिपदिकाथेश्च सत्तेति प्रसिद्धम् । भाववचनो धातुरिति
= ¢ [क
पक्षे भावः सत्तेवेति धात्वथंः सत्ता भपत्येव । क्रियावचनो
धातुरिति तै < पि . (क त्ये (क हुरने 5 „> वर ^ म्'
धातुरिति पक्षेऽपि (जातिमन्ये क्रियामाहुरनेकन्यक्तिवर्तिनी
इति क्रियासथुदेशे ८ वा० प० ३।८ ) क्रियाया जातिरूपत्व-
^ । ¢
ग्राहपादनाद्वात्वथः सत्ता मदत्यव ।
इस प्रकार प्रातिपदिकार्थं को सत्ता भी कहते हैँ यह तो प्रसिद्धही है। [ अब
धात्वथं को सत्ता कसे कहते है, यह देखें | "वातु वह है जो भाव का वाचक हो"
यदि यह् लक्षणा मानते ह तब तो भाव कै सत्ता होने के कारण धात्वर्थं को सत्ता
करहैगे ही । यदि धातु का दूसरा लक्षण देते किंक्रियाका वाचक घातु है तब
तो (कु लोग अनेकं व्यक्तियों ( 1415104 प818 ) में विद्यमान रहनेवाली क्रिया
को जाति कहते है" इस प्रकार भतहरि ने जो वाक्यपदीय के क्रिया-समुद्देश
(३।८ ) मेंक्रियाको जातिकालरूपमानादहै उसीसे सिद्ध होता है कि घात्वथं
मी सत्ता है । [ सभी पाचक-व्यक्तियों में अवस्थित जो पाचकत्व-जाति है वही `
पचन-क्रिया है, इस प्रकार वह् मी जाति या सत्ता है ही । ]
(तस्य भावस्त्वतरोः ( पा० घ ५।१।११९ ) इति
भावार्थ त्वतलादीनां बिधानात्सत्तावाचित्वं युक्तम् । सा च
पाणिनि-दशेनम् ६०७
सत्ता उदयव्ययवैधुयन्नित्या । सवस्य प्रपञ्चस्य तद्िवतेतया
देशतः कारतो वस्तुतश्च परिच्छेदराहित्यात्सा सत्ता महानात्मेति
व्यपदिश्यत इति कारिकादयाथेः ।
"किसी पदां का भाव-इस अथंमे त्व ओर तल् प्रत्यय होते है! ( षा०
सू= ५।१।११९ ) इस सूत्र केद्वारा भावके अथंमेंहोने बाले त्व, तल् ओर
अन्य प्रत्ययो काभी विधान करनेसे, ये प्रत्यय सत्तावाचकर्है, एेसा कहना
युक्तिसंगत है । उत्पत्ति ओौर विना से रहित होने के कारण यह सत्ता नित्य
है। यह सारा प्रपच (संसार, उसके पदाथ ) उस सत्ता के ही विवतं
{ प्रतिभासित रूप ) है, वह सत्ता देश के परिच्छेद से रहितै (स्थान की
सीमा में नहीं बाधी जा सकती-सर्वंत्र होने के कारण वह व्यापक दहै), काल
की सीमा भी उसमे नहीं (क्योकि नित्यदहै) तथा वस्तुका बंधन भी उष
पर नहीं है [ कि यह सत्ता किंसीएक ही वस्तु मेंहै-यहतो सभी वस्तुओं
का आधार है क्योकि वस्तुओं ओौर सत्ता में अभेद्-सम्बन्ध है }, इसलिए इस
सत्ता को "महान् आत्मा" एसा कह कर पुकारतेहै। [ यह प्रपञ्च महान् या
अनादि हि, सत्ता मेही अवभासित होता है अतः तीन प्रकार के परिच्छेदो
( 1110६08 ) से रहित होने के कारण श्रह्म' केरूपमेंहीहै।] यही
दोनों कारिकाओं ( वा० प° ३।१।३३-३४ ) का अथं है ।
विरोष-- स्मरणीय रहै किं माधवाचायं वाक्यपदीय को पाशिनि-दर्शेन का
आधारग्रन्थ मानते है क्योकि प्रमाण देनेमेंया दानिक तथ्यों को समञ्चाने
मे वे बार-बार उसीका उल्ले्ल करतेरह। वस्तुतः भत्हरि ने (६६० ई० )
महाभाष्य मे विश्णंललित दाशंनिक विचारधाराओं को संकलित करके पारिनि-
व्याकरण कोएक दशन कारूप दे दिया । इनका वाक्यपदीय ही भटोजिदी-
क्षित ( १५७८ ई० ) की कृति--वेयाकरणसिद्ान्तकारिका-- का उपजीव्य था 1
दीक्षित की उक्तं कृति पर कोरडभटु ( १६४० ) ने वेयाकरण-मूषण नाम की
टोका लिखी । नागेश भटर ( १७१४ ) ने व्याकरण के अन्य ग्रन्थों के अतिरिक्त
पारिनि-दर्यन पर अपनी मंजुषायं ( बृहत् , लघु ओौर परमलघु ) प्रस्तुत कीं)
इन सबोने प्रायः निम्नलिखित विषयों पर विचार प्रकट किये थे--स्फोट, शक्ति,
वाक्याथ, धात्वर्थं, लकारार्थ, कारक, प्रातिपदिकार्थं, समासादि की वृत्तियां
आदि। कु वैयाकरणो तथा नैयायिको ने भी इनमें एकाध विषय को लेकर
अपने स्वतंत्र ग्रन्थभी लिखेथे। यह पारिनिदर्चंन की हूपरेखा थी। माघ
वाचायंने सभी विषयों पर 'दर्चन" में विचार नहींक्रिया है। दुःखहै कि
अमी तकभ्ये सभी विचार दुसरी भाषाओं के पाठकों तक नहीं प्ैचे। बंगला
६०८ सबेदशेनसंग्रहे-
मे एक बहुत ही प्रौढ़ ग्रन्थ श्याकरणदर्थेनेर इतिहास ' ( प्रथम खणड ) श्रीगुर-
पद हालदार ने्लिखा है जिमें व्याकरण के व्यावहारिक भौर संढान्तिक
दोनों पक्षों पर सुलक्षे ओर विस्तृत विचार दिये गये हैँ । अंगरेजी में प्रमातचन्द्र
चक्रवर्ती का 21108गुष 9 जितछफााकाः ( व्याकरणा-दर्ेन )
पीएच्० डी की थीसिस है जिसमें कुछ प्रदनो का सामान्य विश्लेषण किया गया
है। डा० कपिलदेव द्विवेदी की थीसिस “अर्थविज्ञान ओौर व्याकरण-दश्॑न' भी
इस दिशा का स्तुत्य प्रयासहै, पर ये सभी ग्रन्थ सामान्य दृष्टिकोण से-
व्याकरण को दन मानकर- नहीं लिखे गये है ।
( १०. द्रन्य को पद्ाथं माननेवालौ का विचार )
© संवि #
द्रव्यपदाथेवादिनोऽपि नये संबि्टक्षणं तच्वमेव सवेशब्दाथं
इति सम्बन्धसयुदेे समथितम्--
* षर
१५. सत्यं वस्त॒ तदाकारेरसत्येरबधायते ।
असत्योपाधिभिः शब्दः सत्यमेवाभिधीयते ॥
( वा° प० ३।२।२ )
| ऊपर जाति को पदां मानने वालोंका विचार दिया गयादहैकरि जाति
सत्ता से भिन्न नहीं है, इसलिए परमा्थ-ज्ञान के रूप में सत्ता ही सभी शब्दोंका
अथं है अब व्यक्ति अर्थात् द्रव्य को पदा्थं मानने वाले लोगोके मतसे भी अर्थं
वही है, यह कहते ह - ] द्रव्य ( = घटादि व्यक्ति) को पदार्थं मानने वालों
के सिद्धान्त के अनुखार भी सभी शब्दों का अथं वहु तच्व ( सत्ता नामक ) हीदहै
जो संवित् अर्थात् निविकल्पक ज्ञान से लक्षित होतादहै। [ घटादि पदार्थो के
व्यक्ति ( [0 एापप्ा) खूपको द्रव्य कहते है। वृद्धके व्यवहारसे जब
दाक्तिग्रह होता है तब गाय लाओ, धोडेको बाधि दो" आदि वाक्योंके द्वारा,
विभिन्न क्रियाओं के विषय के रूप मे अनेवाले व्यक्ति-रूपों के ही द्चन होते है,
जाति के नहीं । अतः इन लोगों के अनुसार जातिसे विशिष्ट व्यक्ति ( द्रव्य }
ही शब्द का अथं है। ]
उक्त तथ्य का समथंन भतहरि ने वाक्यपदीय के संबन्धसमुटेश ( ३।२।२) में
| किय है-'जिस प्रकार सत्य वस्तु का निश्वय उसी के भकार से युक्त असत्य वस्तुओं
के द्वारा किया जाता है, उसी प्रकार असत्य ( द्रव्यात्मक ) उपाधियोंके द्वारा
शब्द भी सत्य का ही निदेश करते है ।' [जैसे किसी व्यक्तिने वास्तविक सिह नहीं
देखा हो, उसे सिह का आकार-प्रकार समक्षाने के लिये सिह का चित्रया मृति
दिखलाते है । यद्यपि चित्र या मूति का सिह सत्य नही, असत्य ही है, परन्तु
पाणिनि-दशेनम् ६०६
उसी से सच्चे सिह का निश्चय करलेते हैकि वह एेसाही होताहै। उसी
प्रकार ये द्रव्य केवल उपाधि्ां रहै, पदा्थं-बोध के सहायक है तथा असत्य है
किन्तु इन्हीं द्रभ्यों के द्वारा शब्द अन्तमें हमे सत्य तक-अर्थात् महासत्ता ही
सब शब्दों का अथं है वहाँ तक-- पहुंचा देता है । ]
विशोष-मतृंहरि ने ठीक एेसी ही भावना इस दलोक मे भी कौ है
उपायाः शिक्ष्यमाणानां बालानामुपलालनाः ।
असत्ये वत्म॑नि स्थित्वा ततः सत्यं समीहते ॥
अर्थात् व्याकरणाशाख्र वास्तव में उपाय ( साधन ) है जैसे सौखने वाले बालकों
के लिए उपलालन ( लाड-प्यार ) का प्रयोग होता है । इस प्रकार असत्य मागं
से होकर कुछ दिनो के बाद बालक सत्य मागं पर पहुंच जाता है । वह् समश्च
लेता है किं उपलालन एक बहाना है, सत्थ तो अध्ययन है । (वाक्म० २।२४०) ।
१६. अध्रुवेण निमित्तेन देवदत्तगृहं यथा ।
गहीतं गृहशब्देन शुद्धमेवाभिधीयते ॥
भाष्यकारेणापि "सिद्धे शब्दार्थसंबन्धे" इत्येतद्ा्तिकव्याख्यानावसरे
द्रव्यं हि नित्यमित्यनेन ग्रन्थेनासत्योपाध्यवच्छिन्नं ब्रह्मत
्रन्यशब्दवाच्यं सवशब्दाथं इति निरुपितम् ।
अध्रुव या अस्थायी निमित्तके द्वारा “यह देवदत्त का धर है टसा ग्रहण
होता है, परन्तु "गृह" शब्द से गुद्ध-गृह का ही बोध होता है ( निमित्तयुक्त गृह
का नहीं) 1" [ अभिप्राय यह है कि किसी व्यक्तिके द्वारा देवदत्त का घर पून
पर दसरा कहता है कि कौए वाला धररामकाहै।. यद्यपि कौमा घर पर
अस्थिर ही है, परन्तु उस निमित्त ( कारण, संकेत ) से देवदत्त के घर का पता
लग जाता है। किन्तु गृह शब्द से काकरहित गृह का "ही बोध होता है जो
लक्ष्य है । उसी तरह गो, घट आदि शब्द से व्यक्ति ( गोग्यक्ति, घटव्यक्ति ) को
आगे रखकर उसी के माध्यम से इन व्यक्तियों ( निमित्तो ) से रहित 'सत्ता' पर
पहंचते है जो सत्य तच्व है । क्रिसी भी दशा मे शव्द सत्ता के ही बोधकं है । |
“सिद्धे शब्दार्थसंबन्धे" ( शब्द, अथं तथा उनका सम्बन्ध सिद्ध है )--इस
वात्तिक (सं° १) के व्याल्यान के समय भाष्यकार ने ग्य चकि नित्य है
यह कहते हए निरूपित किथा है कि असत्य उपाधियों से व्याप्त ब्रह्मतच्व, जो
द्रव्य शब्द केद्वारा अभिहित होता दै, सभी शब्दों का अथं है। [ जब आशंका
कीजातीदहै कि क्या पारिनि ने शब्द, अथं ओौर उनके सम्बन्ध की सृष्टि कीट
या केवल स्मरण किया है तब उत्तर मे उक्त वार्तिक .रखा जाता है । सिद्ध =
३६ स सं
सर्वदशनसंग्रदे-
नित्य । शब्द, अथं ञञौर उनका सम्बन्ध नित्य है उनके ज्ञापन के लिए ही पाणिनि
्रवृत्त हुए है । अथं के विषय में पक्ष हो सक्ते ह --जाति अथै या व्यक्ति ?
दोनों पक्षो मे अर्थं नित्य ही रहता है। जाति को पदार्थं मानने पर तो जाति
सत्ता है, इसलिए वह नित्य हि ही । सत्ता के अतिरिक्त जाति को अलग म।नने-
वालि ( नैयाधिकादि ) भी जाति को नित्य ही मानते ह। यदि द्रव्य को पदार्थं
मान तो पतंजलि ने भाष्य ( १० ७ ) मे कहा है--्रव्यं हि नित्यम् । अब यदि
दव्य से गो, घट आदि पार्थिव द्रव्य का अथंसेगे तबतो ये अनित्य ह अतः
वततंजलि की बात श्ूठी हो जायगी । इसलिए यट ते कहा है करि असत्य उपाधि
से अवच्छिन्न ब्रह्मतच्व ही यहाँ ्रव्यः शब्द से समज्लना चाहिए । जाति, व्यक्ति
दोनों ही पक्षो में परमार्थ-संवित् से लक्षित ब्रह्म कौ सत्ता ही सभी शब्दो का
अथं है। उक्त वातिकसे मादरम होता है किं अथं से युक्तं शब्द भी निव्यही
है। अतः स्फोटकेरूप मने जो नित्य शाब्द है वही वाचक हे, वर्णोकेरूपमे
रहने वालो अनित्य घ्वनि नहीं । जञेसा किं पहले कह चुके है ध्वनि केवल व्यंजक
है जो स्फोट को अभिव्यक्त करती है- वाचकता तो स्फोट शब्द मेहीदहै। अतः
स्फोट सिद्ध हो गया । |
( १९१. जाति ओर भ्यक्ति को पदां माननेवालौ के विचार )
जातिशचव्दाथवाचिनो बाजप्यायनस्य मते गवादयः शब्दा
भिनद्रव्यसमवेतजातिमभिदधति । तस्यामवगाद्यमानायां तस्थ
बन्धाद् द्रव्यमवगम्यते ।. ~. शक्लाद्वः शब्दा गुणसमवेतां
जातिमाचक्षते । गुणे तत्संबन्धासरत्ययः। द्रव्ये सम्बन्धि-
सम्बन्धात् ।
"जाति को ही शब्दां माननेवाले वाजप्यायन के अनुसार, गोः आदि शब्द
मिन्न-भिन्न द्रव्यो मे ( संज्ञाओं या व्यक्तियों मे) समवेत जाति का ही अभिधान
करते ह । जाति मे अवगाहन करने के बाद ( = जाति की प्रतीति होन पर )
उसके सम्बन्धसे द्वव्य का ज्ञान होता है । शुक्ल आदि शब्द गुण से समवेत
जाति का ही अभिधान करते है । उसके साथ सम्बन्ध होने से गृण की प्रतीति
होती है । द्रव्य की प्रतीति तो [ उस प्रकार की जाति के | सम्बन्धी गुण के
सम्बन्ध से होती है ।
विरोष-- वाजप्यायन जाति को वदां मानते ई, व्याडि व्यक्ति को ।
परिनि के मत से दोनों ही पदार्थं है। इन पक्षो का वणन भी यथास्थान प्राप्त
होगा ।
पाणिनि-दशेनम् ६११
शब्दों के चार भेद होते है--जाति, गुण, संज्ञा ओर क्रिया । ये मेद प्वृत्ति-
निमित्त ( शब्दों के व्यवहार के कारणा ) मेँ भेद पड़ने के कारण होते ह। जो
शब्द जाति के व्यवहार का कारण हो वह जाति-शब्द है, आदि-आदि । इनके
उदाहरण गौः, शुक्लः, डित्थः तथा चलः" हैँ । एक ही व्यक्ति "गो" पर ये चारों
शब्द प्रयुक्त होते है । उस व्यक्ति ( 10४११४४] ) गो सें गोत्व ज्ञाति जानकर
"गौः" शब्द का प्रयोग करते है । उसी गो-व्यक्ति में शुक्ल गुण को जानकर
शुक्लः" शब्द का प्रयोग ( प्रवृत्ति) करते है । उसी मे चलन-क्रिया देखकर
चलः, शब्द कौ प्रवृत्ति होती है ओर उसी व्यक्ति की "डित्थ" संज्ञा ( }4879९ )
देख कर “डित्थः' शब्द की प्रवृत्ति भी होती है ।
अब इस पर अनेक मत होगे । प्रवृत्ति का निमित्त जात्यादि ओौरवे
ही उन-उन शब्दो के वाच्य अथंहै। व्यक्ति उसी पर आधित है अतः उसकी
प्रतीति आक्षेप ( एष्णश्छणा ) आदि साषनों से ही होती है । एक यह
मत है जिसके अनुयायी वाजप्यायन ह किन्तु वे यह सानते ह कि चारों प्रवृत्ति
के निमित्त नहीं है किन्तु सभी शब्द जातिके रूपमे हीरहै। दूसरा वहु मत
है जिसमें कहा जाता है कि प्रवृत्तिनिमित्त अनेक व्यक्तियों ८ 1707910८५]8 )
म अनुगमन करता है अतः केवल उनका उपलक्षण ( संकेतमात्र ) है, व्यक्ति
ही वाच्यां है। तीसरे मत में प्रवृत्ति-निमित्तसे विशिष्ट व्यक्ति को वाच्यार्थं
मानते ह ।
वाजप्यायन के मत का विदलेषण करे-अथं केवल जाति ही है। अनेक
गो-व्यक्तियो में समवेत ( 1116167४ नित्य रूप से संबद्ध ) गोत्वजाति ही
"गो" शब्द का प्रवृत्तिनिमित्त है । वह ( जाति ) ही उसका वाच्यां है । घटादि
मे वतंमान जो शुक्ल गण है उसमें भी शुक्लत्वजाति है जो “शुक्ल' शब्द का
प्रवृत्तिनिमित्त है । वह गुक्लत्व ( जाति ) ही शुक्ल" शब्द का वाच्यार्थं है।
शक्ल" शब्द से शुक्ल-गुण कौ प्रतीति उसी जाति के संबन्ध से होती है । शुक्ल
गुण से विशिष्ट घटादि द्रव्य की प्रतीति ( = उजले घडे का ज्ञान ) शुक्ल" शब्द
से होती है अर्थात् शुक्लत्व जाति" के सम्बन्धी “शुक्ल' गुणा के सम्बन्ध से होती
है ( द्रव्ये सम्बन्धिषंबन्धात् ) ।
उसी प्रकार अनेक (चलन! क्रियाओं मे विद्यमान चलनत्व जाति "चल शब्द
का प्रवृत्ति-निमित्त है ओर वह जाति ही उसका वाच्याथं है। "चल" शब्द ते
चलन क्रिया कौ प्रतीति उपर्युक्त ( चलनत्व ) जाति के संव॑धसे ही होती है ।
क्रिया के आधारके रूपमे देवदत्त आदि ( देवदत्तः चलति- वाक्ये ) का
बोष उस जाति कौ सम्बन्धी क्रिया के संबन्वसे ही होता है। "डित्थ" नाम का
"भ-का = क
६१२ सर्वदशेनसंग्रहे-
पशु यद्यपि एक ही ह परन्तु शशव, यौवन आदि अवस्थाओं के भेदसे उस प्रकार
क्रे अनेक व्यक्तियों में विद्यमान डत्थत्व जाति ही “डित्थ शब्द का प्रवृत्तिनिमित्त
हे, वही उसका वाच्याथं है । व्यक्ति का बोध डत्थत्व के आश्य या अधारः
के खूप में होवा है। इस प्रकार वाजप्यायन के मत से जाति ही वाच्यां है ।
स्ञा्व्दानामुरपततिप्रभृत्या विना च्छेशवकोमारयोवना-
दयवस्थादिभेदेऽपि स एवायमित्यभिनप्रत्ययवलास्सद्ध देवदत्त-
क [क [> [र नशे,
त्वादिजातिरमभ्युपमन्तन्या । क्रियास्वपि जातिरालक्ष्यत । सव
धातुवाच्या । पचतीत्यादावनुृ्प्रत्ययस्य प्रादुमोवात् ।
संज्ञा-शब्दों (101€ 7 81168) में उत्पत्ति से लेकर विनाश पय॑न्त दोराव,
कौमार, यौवन आदि अवस्थाओं का मेद पड़ने पर भी, "यह वही है--ईइस तरह
क्रे अभेद की प्रतीति होती है जिससे देवदत्तत्वादि जाति सिद्ध होती है । क्रियाओं
मे भी जाति की दही प्रतीति होती है ओौरउसे ही धातु नाम् से पकारतं ह ।
"पचति" इत्यादि क्रियाओं मे सभी म क्रिया के अनुवृत्त होने की प्रतीति होती है
( जितने लोग पाक कर रहे हँ उन सबों मेँ "चति" का ही अनुवतंन होता है) ।
द्रव्यपदा्भवादिव्याडनये शब्दस्य व्यक्तिरेवाभिधेयतया
प्रतिभासते 1 जातिस्त्पलक्षणतयेति नानन्त्यादिदोपावकाशः ।
द्रव्य ( व्यक्ति) को पदाथ मानने वाले व्याडि-आचायं के मत से अभिधेय
क्के रूप मे शब्द का व्यक्ति ही प्रतिभासित होता है [जाति नही । जाति तो केवलं
उपलक्षण या सेकेत के रूपमे परतिभासित होती है अतः व्यक्ति के आनन्त्य
आदि का दोष इस पर नहीं लग सकता । [ हेसी शंका हो सकती है कि अनंत
गो.ग्यक्ति होने के कारणा गो" शब्द का अर्थं जानना कठिन है । किन्तु उत्तर
यह होगा किं गोसवः जाति से सभी .गो-व्यक्तियो का ज्ञान हो जायगा । रेसी
दशां मे गोत्व-जाति गोव्यक्ति का उपलक्षरो है, वाच्यां नहीं । |
( १२. पाणिनि के मत से पदा्थ-जाति-व्यक्ति दोनौ दै)
[५ ¢ $ ॥ [क
पाणिन्याचार्यस्योभयं संमतम् । यतो जातिपदाथेमभ्युप-
गम्य (जात्याख्यायामेकस्मिन्बहुवचनमन्यतरस्याम् ( पा० घू०
१।२।५८ ) इत्यादिव्यवहारः । द्रव्यपदाथेमङ्गत्य (सरूपा-
णानेकरेष एकविमक्तो' ८ पा० घ १।२।६४ ) इत्यादिः ।
~ (पििकिन््य "
४ > च क चै
३ । ~> क = ग
च अ) ~" ~ शशक
र +.
र ५
पाणिनि-दशेनम् ६१३
व्याकरणस्य स्ैपाषदत्ान्मतदयाम्बुपगमे न कशचिद्िरोधः।
तस्माद्द्वयं सत्यं परं ब्रह्मत स्वशब्दार्थं इति स्थितम् ।
भचायं पाणिनि को [शब्दाथं रूप मँ जाति ओर द्रव्य याव्यक्ति| दोनोंही
मन्यहै। इसका कारणा यह दहैक्रि जाति को पदाथं मानकर उन्होने "जात्या.
स्यायाम्-* ( अर्थात् जाति का वरान करने पर एकवचन शब्द विकल्प से
बहृवेचन होता है-पा० सु° १।२।५८ ) इत्यादि मुत्रोका प्रयोग क्रिया है।
| ऊपर के सूत्र के उदाहूरण में ब्राह्मणः पूज्यः ओर ब्राह्यणा पूज्याः देते है
जिनका अरथंहैकरि ब्राह्मण जाति पञ्य है। यहां ब्रह्मण शब्द का अथं ध
ब्रह्मरात्व जाति । अतः पाणिनि को जाति पदाथं मान्य हैः। | द्रभ्य को
पदाथं मानकर पाणिनि ने सरूपाणामू--' ( अर्थात् एक समान बिभक्तिमें
रहने वले जितने सरूप शाब्द हैँ उनमें एक ही शब्द बच रहता है- पा० मू
१।९।६४ ) इत्यादि लिखा है । | उदाहरण है-- रामच रामदच रामौ । यदि
यह सूत्र नहीं होता तो "वटदच पट्च घटपटौ कौ तरह दन्दरसमाप मेँ यहां
भी 'रामरामौ' होता। व्यक्ति अनेक होते है इसलिए उनके अनुसार कई
राम" शब्दों का प्रयोग एक ठी साथ होता--उते रोकने के लिए यह एकशेष-
विधायक सूत्र है । किसी भी दशाम व्य्ति को पदाथं मानतेका श्रेय इस मुत्र
कोप्राप्तहै।|
व्ाकरण-शास्र सभी सभासदों के लिए समान है अतः दोनों मतो को मान
लेने में कोई विरोध का प्रशन ही नहीं उठता । | न्यक्रिरण सभो लोगों के मतों
पर ध्यान रखता है, जनतांत्रिक है अतः सभी मतोंको माना जा सकता है ।
ह, उनमें परस्पर विरोध न हो । ] इष प्रकार यह सिद्ध हअ क्रि अद्ैत, सत्य
तथा परम ( सर्वोच्च ) ब्रह्मतच्व ही सभी श्यो काअर्थंहै [ चाहे वहु जाति
पक्ष हो या व्यक्ति-पक्ष। ज।ति-पक्च तें गोत्वादि जातियों को ब्रह्मकौ सत्ता से
प्रथक् मानतेही नहीं। व्यक्ति ( द्रव्य }- पक्षम अत्य > पक्तिकी उपाधि के
दवारा सत्य ब्रह्मत्व का प्रतिपादन होता है। ] ¦
तदुक्तम् ( वा० प० ३।३।८७ )-
^७. तस्माच्छक्तिविभागेन सत्यः सर्वः सदात्म ।
एकोऽथः शब्दवाच्यत्वे बहुरूपः प्रकादाते । । इति ।
सत्यस्वरूपमपि हरिणोक्तं सम्बन्धसणुदेशे (७२ )--
८. यत्र दरष्टा च दृश्यं च दशनं चाविकर्पितम् ।
६१४ | स्बेदशेनसंग्रदे-
=, © [
तस्यैवार्भस्य सत्यत्वमाहुस्त्रय्यन्तवेदिनः ॥ ईति ।
द्रव्यस्देशेऽपि ( वा° प° २।२१५ )--
१९. विकारापगमे सत्यं सुबणं इण्डले यथा ।
विकारापममो यत्र तामाहुः प्रकृतिं पराम् ॥ इति ।
ठेसा ही कहा गया है--'इसलिए शक्ति ( शब्दां बोध करानेवाली शक्ति )
का विभाग करनेसे जव शब्द के वाच्यत्व की अवस्था आती दहै तब वही
एकात्मक अथं जो सत्य, सवेव्यापक तथा सदर है, बहुत च्पों मे प्रकाशितहो जाता
है ।' [ विभिन्न शब्दों की सामथ्यंका विभाजन करने षर वे शब्द वाच्या्थंका बोध
कराते ह किन्तु ये सारे अथं उस एकाल्मक सत्य बरह्मसत्ता के ही आाभास है। |
मतृंहरि ने सम्बन्ध-समुटेश मेँ अथं के सत्यस्वलूप का वर्णन भी क्रियाहै-
श्रयी ( वेद } के अन्त ( वेदान्त ) को जाननेवालो का कहना है कि जहा द्रष्टा
( देखनेवाला ), दशय ( वस्तु ) तथा दर्शन ( क्रिया }-इन तीनों की कल्पना
नहीं रहती है, उसी [ आत्मारूपौ एकात्मकं ] अथं को सत्य कहते ह ॥१८॥'
दरव्यसमृदेश मे भी वे कहते है--*जो विकार की अवस्था आने पर भी सच्चाही
बना रहे जैसे कुरडल बन जाने पर भी स्वा कौ सत्ता रहती है, तथा जिसमे
विकार का आना जाना होता रहे उसे ही परम प्रकृति कहते ह ॥ १९ ॥)'
( १३. अद्रेत ब्रह्मत्व की सिद्धि )
अभ्युपगताद्वितीयत्वनिवाहाय वाच्यवाचकयोरविभागः
प्रद्ितः ( वा० पर ३।२।१६ )--
२०. वाच्या सा सर्वशब्दानां शब्दाच न पृथक्ततः ।
अपृथकतवेऽपि संबन्धस्तयोर्जीवात्मनोरिव ॥ इति ।
तत्तदु पाधिपर्किल्पितभेदबहुलतया व्यवहारस्याविद्यामात्र-
कर्यितत्वेन प्रतिनियताकारोपधीयमानरूपेदं ब्रह्मत्व सवे-
शव्द विषयः। अभेदे च पारमार्थिके संबृतिवशाद् व्यवहारदश्चायां
स्वप्तावस्थावद्चचावचः प्रपश्चो बिषतेत इति कारिकाथेः |
ऊपर सिद्ध किये गये अद्वैत-तच्व के निर्वाह के लिए वाच्य ( ब्रह्मसत्ता )
ओर वाचक ( स्फोट ) मे अभेद भौ दिबल्लायां गया है-- "वह ( ब्रह्मसत्ता )
सभी शब्दों का वाच्य है, वह उस ( नित्य स्फोट-खूपी ) शब्द से पृथक् नहीं है ।
पृथक् न होने पर भौ उन दोनों का संबन्ध जोव ओर परमात्मा कौ तरह है
पाणिनि-दशेनम् ६१५
[ यद्यपि ब्रह्मसत्ता गौर स्फोट एक ही हैँ पर कल्पना के कारण उन दोनोंका
पारस्परिक संबन्ध प्रतिमासित होता है । जोव भौर परमात्मा एक ही ह परन्तु
कल्पना से ही व्यवहारदशा में उन दोनो मे नियाम्य-नियामक-भाव का संवन्ध
प्रतिभासित होता है। उधी प्रकार स्फोट ओर ब्रह्मषत्ता का संबन्ध है जो
काल्पनिक है । |
ब्रह्मत्व ही समी शब्दों का विषय ( वाच्य ) है; उस ( ब्रह्मतच्व ) में
प्रत्येक वस्तु के निश्चित अकार के अनुसारसरूपके भेदं का आरोपण होता ह
किन्तु यह उन वस्तुओं को उपाधियो ( (0741४078 ) के द्वारा कल्पित अदो
के बाहुल्य के कारण तथा व्यवहारदशा को केवल अविद्या मानलेनेके कारण
। होता है। दकि अभेद पारमार्थिक ( वास्तविक } है अतः वृति ( आवरण,
| । कल्पना ) के कारण, व्यवहारदशा में, स्वप्नावस्था की तरह, नाना प्रकार के
४ प्रपंच ( विस्तारपूणं वस्तुं ) भ्रम से दिखलाई पडते हैँ। यही उक्त कारिका
9 ( वक्य० ३।२।१६ ) का अथं है ।
तदाहूर्वेदान्तवादनिपुणाः-
२१. यथा स्वप्नप्रपश्चोऽयं मयि मायाबरिजम्भितः ।
एवं जाग्रतप्रपञ्वोऽपि मयि मायाविजुम्मितः ॥ इति ।
तदित्थं कूटस्थे परस्मिन्ब्रह्मणि सचिदानन्दरूपे प्रत्यगमि-
& ` ननेऽवगतेऽनाद्यविद्यानिच्त्तो तादग््र्मा्मनावस्थानरक्षणं निःभ-
| यसं सेत्स्यति ।
00 उसे वेदान्त-मत के विशेषज्ञो ने ध्यक्त किया है-- जैसे यह् स्वप्न का प्रपंच
मेरे अन्दरकी मायाकी. वृद्धिकेकारणदहै वेसे ही यह जागृतावस्था का प्रपंच
भी मेरे अन्दरकी माया कीवृद्धि.केकारण हीहै। [ जागृतावस्थाके स्तर
से हम स्वप्न की बातों को मिथ्या मानते वेषे ही पारमार्थिक दश्चाके स्तर
से जागृतावस्था को चीजों को भी मिथ्या ही कहना चाहिरए् । ]'
तो इस प्रकार कूटस्थ, परमब्रह्य जो सच्चिदानन्द के रूपमे तथा जीव
( प्रत्यक् ) से अभिन्न, उन जान लेने पर अनादिकाल से चली अनेवाली
अविद्या की निवृत्तिहो जाती है तथा उस निःश्रेयस की प्राप्ति होती है जिषे
साधक ब्रह्मके रूप मे अवस्थितदहोजाताहै।
( १४. व्याकरण से मोक्षप्रा्षि )
“शब्दब्रह्मणि निष्णातः परं ब्रह्माधिगच्छति' ( महाभारत;
स्वदशेनसंम्रहे-
| ० प० अ० २७० ) इत्यभियुक्तोक्तेः । तथा च शब्दाचुशा-
सनन्चा्वस्य निःश्रेयससाधनव्वं सिद्धम् । तदुक्तम् -
२२. तद् द्वारमपवर्भस्य बाडमलानां चिकित्सितम् ।
प॒वित्रं सर्वविद्यानामधिविद्ं प्रचक्षते ॥
( वाक्यपदीयम् १।१४ ) इति ।
तथा-
२३. इदमाद्यं पदस्थानं सिद्धिसोपानपवेणाम् ।
इयं सा मोक्षमाणानामजिह्या राजपद्वतिः ॥
( वाक्य १।१६ ) इति ।
तस्माद् व्याकरणन्चाखं परमपुरुपाथेसाधनतयाऽध्येतव्यमिति
©
सिद्धम् ।
इति श्रीमत्सायणमाधवीये सरवदशेनसंग्रे पाणिनिदश्ेनम् ॥
---‰=--
बडे लोगों का भी कहना है करि शब्दन्रह्य मे प्रवीण होकर पुरुष परब्रह्म
{ मोक्ष, ब्रह्मसायुज्य ) कौ प्राप्ति करता है। ( महाभारत, शान्तिपवं अध्याय
२७० ) । इस तरह शब्दानुशासन ( व्याकरण ) शार मोक्ष का साधन है यहु
सिद्ध होता है। वही कहा भी है--'वह् ( व्याकरण-शाख्र ) अपवगं का साघन
है, [ पाप को उत्पन्न करने वाले अपशब्द रूपी | वाणी के मलोंकी चिकित्सा
करने वाला है, सभी विद्याओं में पवित्र है तथा सभी विद्याओं मे इसकी पू है"
{ वावय० १।१४ )। [ वकि सभी शाखं मँ अथं शब्दों से ही लिया जाता रे
ओर शब्द का संस्कार व्याकरणा के अधीन है अतः सों को प्रकाशित करने
वाला व्याकरण हीदहै।] उसी तरह--'यह ( व्याकरण ) सिद्धि के सोपान-
खण्डों मे पहला सोपान है--मोक्ष प्रात्र करने वालो के लिए तौ यहं सीधी सडक
ही है।' ( वही, १।१६ )।
अतः परम पृरुषाथं ( मोक्ष) के उपाय के सूपमे व्याकरण शल्क
अष्ययन करना चाहिए--यह सिद्ध हुआ ।
इस प्रकार सायण-माधव के सवंदर्थनसंग्रह मे पाणिनि -दशन समाप्त हुंजा ।
इति बालब विनोमाश ङ्कुरेण रचितायां सवेदश्चनसं ग्रहस्य प्रकाशाख्यायां
व्याख्यायां पाणिनि दश्चंनमवसितम ॥
~= --
= ५9 लः ~
८ १४ ) सांख्य-द्शनम्
तत्त्वद्वयं स पुरुषः प्रकृतिरदितीया
धत्ते गुणानपि च सत्वरजस्तमांसि ।
सव जगच्चलति तत्परिणामरूपं
तत्साख्यकारमिह तं कपिलं नमाभि।।- ऋषिः |
( १. सांख्य-दशेन के तत्व )
अथ सांख्येराख्याते परिणामवादे परिपन्थिनि जागरूके
कथंकारं विवतेवादः आदरणीयो भवेत् । एष हि तेपामाघोषः ।
संक्षेपेण हि सांख्यशाखरे चतस्रो विधाः संभाव्यन्ते । किदर्भ
प्रकृतिरेव, कथिद्धिङृतिगप्रकृतिथ, कथिद्धिकृ तिरेव, कशिद नु भय इति ।
सांल्य. दार्शनिकों का कहा हुभा परिणामवाद है, इस विरोधी सिद्धान्त के
जगे रहने पर भौ [ पाणिनि-दश्च॑न का] विवतंवाद केसे सम्मानित हो सकता
है ?--उन स्यो का यही नारा है । संप में सांख्य-शास्र मे [कहे गये पदार्थो
के | चार प्रकार हो सक्ते हं--कृ पदां केवल प्रकृति (मूल खूप है ), कुछ
प्रकृति भौर विकृति दोनों ह, कुच केवल विकृति ही है ओौर कुछ पदाथं दोनों
मे से कुच भी नहीं ( = पुरूष ) ।
विदोष-जव सत्तायुक्त ( €४18{611४ ) द्रव्य एक अवस्था को छोडकर
द्सरी अवस्था में प्रवेश करता तब इस क्रिया को परिणाम या विका
( €श्णुप्0) ) कहते है, सांख्यो का मत है कि प्रकृति-आदि तत्व अपने.
अपने कायं के रूपमे परिणत होतेदहैँ। कायं कीसत्ताकारणकेरूपमेंहिजो
निमित्त कारणके व्प्रापारसे अभिव्यक्त हो जाता है। इसे सत्काय॑वाद कहते
है) इसी के आधार परये लोग परिणामवाद भी मानते है। इसमेंकारणकी
अवस्था तथा कार्याविस्था, दोनों दशाओं में द्रव्य सत्तायुक्त ही रहता है । विकार,
परिणाम, विकास, अभिव्यक्ति, सत्कायं--ये एका्थंक शब्द है, इनमें किसी वाद
से सांख्य काही बोध होता है। विवतंवाद् परिणामवाद का उलटा है। जब
द्रव्य अपना पहला रूप न छोडे किन्तु किसी भिन्न असत् रूप में दिखलाई पड़े तो
इसे विवतं कहते है जेसे रस्सी (मूल रूप ) का साप के रूप में दिलाई पड़ना ।
६१८ स्वैदशनसंग्रहे-
इषम वास्तविक परिवतंन नहीं होता किन्तु भ्रान्ति मे वैसा रूपान्तर केवल प्रतीत
होता है। वैयाकरण तथा अद्वैत वेदान्ती लोग विवर्तवाद मानते है । उनका
कहना ब्रह्म अधिष्ठान ( आधार, मूल तच्व ) ह, यह सम्पूणं संसार उसौ ब्रह्म का
विवतं है- भ्रान्ति से प्रतीत होताः है कि यह जगत् ब्रह्म से पृथक् है, यहाँ नाना
प्रकार की सत्ता्ये ह आदि। वैयाकरण शब्दतच्व को हीन्रह्य कहते है, यह
दूसरी बात है । वेदान्तसार में सदानन्द ने दोनों वादों का भन्तर बहुत संक्षि
ओौर सुन्दर खूप मे स्पष्ट क्रिया है
सत सवतोऽन्यथा प्रथा विकार इत्युदीरितः ।
अतसर्वतोऽन्यथा प्रथा विवतं इत्युदीरितः ॥
तस्व के साथ (वास्तवमें) द्रे रूपमे सम्षना विकारदहै, तच्वके
विना (भ्रमसे) दूखरे खूप में समञ्लना विवर्तं कहलाता है ।
( २. प्रकृति का अथे )
तत्र केवला प्रकृतिः प्रधानपदेन बेदनीया मूलप्रकृतिः ।
नासावन्यस्य कस्यचिद् विकृतिः । प्रकरोतीति प्रकृतिरिति
व्युत्पत्या सखरजस्तमोगुणानां साम्यावस्थाया अभिधानात् ।
तदुक्तं--“मृलप्रकृतिरविकृतिः" ( सां का० २, इति । मरु .
चासौ प्रकृतिश्च मूलग्रकृतिः ।
महददेः कायकसापस्यासो मूरं न स्वस्य प्रधानस्य
मूृलान्त॑रमस्ति । अनवस्थापातात् । न च बीजाङकुरवदनवस्था-
दोषो न भवतीति वाच्यम् । प्रमाणाभावादिति भावः ।
इनत केवल प्रकृति का अथं है शरान" के नामसे पुकारी जातेवाली मूल-
प्रकृति । यह किसी भी दूसरे पदाथं की विङृति ( विकार) नहींदहै। जो प्रहृष्ट
पसे ( तच्वों का उत्पादन करते हए ) कायं करे (प्र + ~/ क़) वही प्रकृति
ह- इस प्रकार की व्युत्पत्ति ( निर्वचन ) से सत्वगुण, रजोगुण ओर तमोगुण
को साम्यावस्था का बोध होता है" कहा भी है--मूल-परकृति बिना विकृति केही
है" (सां० का ३)) वह इसलिए मूल प्रकृति कहलाती है कि वह मूल भौ
है ओर प्रकृति ( उत्पादक ) भी ।
महत् आदि कायं-समूह का मूल ( ००४ ) वही प्रकृति हौ है किन्तु इस
प्रधान काकोई दूसरा मूल (कारण ) नहीं। [य दि इस प्रधान के भी कारण
सांख्य-दशैनम् ६१६
कौ खोज करगे तो ] अनवस्था-दोष होगा । [ प्रकृति का कारण खोजने पर
उसकारणकाभी कोई दूसरा कारण होगा-इस कारण-ष्युङ्खलाका कहीं
अन्त नहं होगा, इषलिए कहीं पर ठहरना आवश्यक है । मूलप्रकृति को ही
अंतिम कारण मान लेने से अनवस्था-दीष नहीं लगेगा । ]
| "बीज ओौर अंकरुरमें जिस प्रकार अनवस्था-दोष नहीं लगता उसी प्रकार यहां
ध भी नहीं होगा'--एेसा नहीं कहना चाहिए क्योकि इसके लिए कोई प्रमाणा नहीं
॥. मिलता, यही अभिप्राय है। [ बीज काकारण अंक्रुर ह किन्तु अंकुरका कारण
र दूसरा ही बीज है, वह बीज नहीं । उस बीजका कारण भी दसरा ही अंकुर है,
। वह् अंकुर नहीं । इस प्रकार अनवस्था होने पर भी रेष नहीं होता क्योकि प्रत्येक
की गति में अन्तर है । उसी प्रकार यहाँ भी अनवस्था दोषके रूप में नहीं होनी
चाहिए । इसका उत्तर यह है कि जहाँ प्रत्यक्षादि प्रमाणसे दो पदार्थो में परस्पर
4 कायंकारण-भाव सिद्धहो जाता है वहा “उन दोनों पदार्थो मे कौन प्रथम है"
इस प्रकार की जिज्ञासा होने पर प्रवाह को अनादि मान लेने से अनवस्था-दोष
- नहीं लगता । बीजांकुरन्याय इसे ही कहते है । प्रस्तुत स्थल में श्रधानया
प्रकृति का अमुक कारणहै' इस तरह का प्रमाण कहीं नहीं मिलता । इसलिए
कायं-कारण-माव अप्रामाणिक है ओौर अनवस्था-दोष हो ही जायया । ]
विरोष- प्रकृति मे दो शब्दै प्र ओर कृत्ति। प्रका अथं है प्रकषं।
दूसरे तच्व क। आरम्भ करना प्रकषंहै। जिसकारण से दूसरा तस्व उत्पन्न
होता है उसे प्रकृति कहते ह । मिटरी के घडे में पृथिवौ से किसी दूसरे तत्त्व की
| उत्पत्ति नहीं होती, न मिह्रीही कोई दूसरा तत्व (ध्डेके रूपमे) उत्पन्न
करती फिरभी मिह को घडेकी प्रकृति कहते हैँ। यहाँ प्रकृति का अथं
उपादान-कारण समक्चते है ओौर टे व्यवहार लोकम चलतादहै। परंतु
शासनीय दृष्टि से तच्वान्तर को आरंभ करने वाली ही प्रकृति होती है । प्रकृति से
इत पदार्थो का बोध होता है- प्रधान ( मूल प्रकृति ), महत्, अहंकार ओर पाच
तन्मात्र । इनमे प्रथम पांच केवलया शुद्ध प्रकृति है पिचछली सात प्रकृतियां
समय पर विकृतिं भी हो जाती है वरयोकि ये मूल-प्रकृति से उत्पन्न होती है ।
इनका वर्णान पीछे मिलेगा । अमी मूल श्रकृति का वर्णन करे ।
मूलप्रकृति का दूसरा नाम प्रघान भी ह । तीनों गुणों ( सस्व, रजस् ओर
तमस् ) के रूपमे यह प्रधान रहताहं। प्रधान की स्थितिमें ये तीनों गण
बिल्कुल बराबर-बराबर रहते हे । इसीलिए उन तीनों को पहचानना कठिन हो
जाता है किं अमुक सत्व हं ओौर अमुक रजस् । इसलिए वहां ( मूल-श्रकृति में )
तीन तत्वों का प्रयोग न होकर एक तच्छकाही व्यवहार चलतादहै। ये तीनों
| सबदशेनसंम्रहे-
गुण द्रव्य हैँ बयोकि न केवल महत् आदि तच्वों के उपादान कारण हे, अपितु
संयोग गौर विभाग के आश्रय भी हँ । पुरुष के भोग के लिए ये साधन दहं तथा
गौणा रूप में है, इसीलिए इन्दं गुण कहा जाता है । रेखा नहीं समज्ञना चाहिए
किये प्रकृति के धमं ( (2०९1; ४168 ) है । प्रकृति इन गुणो से पृथक् नही है-
प्रकृति का अथं है तीनों गुणों की साम्यावस्था ओर तीनों गुणो को साम्यावस्था
का अथं हे प्रकृति । दोनों में स्वरूप का संबन्ध है । सांख्य-प्रवचन-सूत्र (६।३९)
म लिखा है- सत्वदीनामतद्धर्मत्वं तद्र पत्वात्। रकृत के गुण है" एसा
व्यवहार "वन के वृक्ष" की तरह ही ओौपचारिक ( 1011108] ) दै ।*
पुरुष के संयोगसे गुणों मे वैषम्य आता है। इस दशा में प्रत्येक गुण
पहचानने योग्य हो जाता है। यह एक प्रकार का परिणाम है जिसमें लुलव,
प्रकाश आदि फल लगते है । प्रकृति की अपेक्षा वेषम्यावस्था के तीनों गुण
पृथक् हो जति है । कुच सांख्यो ने तो इनकी भो गणना करके अपने तत्त्वों कौ
संख्या अद्टाईस पहंचा दी है । सच्व आदि गुरो के कुछ अपने स्वभाव भीँ जो
इस प्रकार है
सस्वं लघु प्रकाशकमिष्टमुपष्टम्मकं चलं च रजः ।
गुरु वरणकमेव तमः प्रदीपवच्चार्थतो वृत्तिः ॥
( सखां० का० १३) ।
सत्वगुण हल्का ओौर इसीलिए प्रकाशक माना जाता है, रजोगुण चंचल
तथा इसीलिए उत्तेजक ( उपष्ठम्भक ) है, तमोगुण भारी अतएव अवरोधक
( नियामक ) है--एक ही प्रयोजन कौ सिद्धिके लिएये तीनों मिलकर काम
करते है जैसे दीपक में अग्नि बत्ती ओर तेलक विरोधी है फिर भी तीनों
मिलकर वस्तुओं के प्रकाशन का कायं करते है ।
सस्व हल्का होने के कारण अपने कायं--इन्दियो--मे विषय-प्रहण को
पटुता उत्पन्न करता है । इसके प्रकाशक होने के कारण इन्द्रियां अपने-अपने
विषयों का प्रकाशन कर लेती दै । रजस् स्वभावतः चंचल है। सत्व ओर
# गीता ( १४।५) में जो कहा है क्रि--'सच्वं रजस्तम इति गुणाः प्रकृति-
संभवाः ।' यहाँ गुण का अथं प्रकृति के स्वल्प के रूपमे गृहीत गुणा नहीं है,
किन्तु इन गणो के काय॑ के ख्पमें जो वैषम्यावस्था से युक्त सतव आदि हैँ उन्हीं
का बोध इससे होताहै। ये गुण ही महत् आदिके कारण है । यदि प्रकृति के
स्वरूप वाले गुणों का अथं होत। तो प्रकृति से उत्पन्न होना संमव ही नहीं
था--ये गुण नित्य है। इस प्रकार गुणश्चब्द के विभिन्न अथं प्रयुक्त होते
रहे है ।
साख्य-दशेनम् ६२१
तमस् स्वभावतः निष्क्रिय हैँ अतः अपने आप प्रवृत्त नहीं होते । प्रवृत्ति प्रदान
करने का धमं ही "उपष्टम्भक' है। तमस् गुरु है जिससे इशषके प्रकर्षं के कारा
सत्व ओर रजस् बैध जाते है, आगे चल नहीं पाते । यही उसका आआवरक या
अवरोधक धमं है ।
स्वके धर्मो मे सुख, प्रसाद, प्रकाश आदि हैँ । रजस् के धर्मं दुःख, काष्टुष्य
प्रवृत्ति आदि हँ। तमस् के धमं मोह, आवरण, स्तम्भन आदिरहै। घमं ओौर
धर्मी मे अभेद मानकर सत्त्वं को सुखात्मक, रजस् को दुःखात्मकं तथा तमस् को
मोहात्मक भी कहते हैँ । विशेष ज्ञान के लिए तत््वक्ोमुदौ ( वाचस्पति भिश्च )
या प्रवचनसूत्र भाष्य ( विज्ञानभिक्षु ) के संगत स्थल देखे ।
(३. परति ओर विकृति से युक्त त्व )
विदृतयङ्च प्रकृतयइच महदहकारतन्मात्राणि । तदप्युक्तं
(महदाद्याः प्रकृतिविङ्तयः सप्र (सां० का० २) इति।
अस्या्थः- प्रङृतयश्च ता बिकृतयश्चेति प्रकृतिविकृतयः सप्त
महदादीनि तानि । तत्रान्तःकरणादिपदवेदनीयं महत्त्व महं-
कारस्य प्रकृतिः । मूरग्रकृतेस्तु विरतिः
एवमहंकारतचखमभिमानापरनामधेयं महतो विकृतिः ।
प्रकृतिश्च तदेबाहंकारतखं तामसं सतपश्चतन्मात्राणां दष्मामिधा-
नाम् । तदेव साचिकं सत्प्रकृतिरेकादगेन्द्रियाणां बुद्धीन्दरियाणां
चश्चुःश्रोत्रघाणरसनात्वगाख्यानां धर्मन्द्रियाणां वाक्पाणिपाद्
पायूपस्थाख्यानाञ्चभयात्मकस्य मनसश्च । रजसस्तूभयत्र क्रियो
त्पादनद्वारेण कारणत्वमस्तीति न वेयथ्यम् ।
महत्, अहंकार ओर पाँच तन्मात्र (रूप, रस, गन्ध, स्पर्चं ओौर शब्द
तन्मात्र )- ये एसे तच्व हैँ जो विकृति ( मल प्रकृति के विकार ) ओौर प्रकृति
( दूसरे तत्वों के उत्पादक ) भी हैँ । यह भी सांच्यकारिकाके उसी प्रसंगमें
कहा है-- "महत् आदि सात त्व प्रकृति-विकृति दोनों है" ( सां० का० ३ ) ।
इसका यह अथं है- जो प्रकृतियां भी ह तथा विकृतिया भी, उन्हे प्रकृतिविकृति
कहते है जो महत् आदि सात तत्व हैँ । उनमें अन्तःकरण आदि शब्दों के
दवारा बोधित होनेवाला महत्-तच्व है जो अहंकार नामक अगले तत्तव की प्रकृति
है किन्तु स्वयं वह मूल-प्रकृति की विकृति ( गप ४९ ) है ।
६२२ स्वेदशेनसंग्रहे-
| इसी तरह अहंकार -त त्त्व, जिसका दूसरा नाम अभिमनः" मौ है, महत्तस्व
। की विकृति ( कायं ) है, जब कि वही अहंकार-तत्व, तमोगुण से युक्त होने पर,
सुक्ष्म" नामक पाँच तन्मात्रं कौ प्रकृति ( कारण 1५९०1०४ ) बन जाता है ।
वही, सत्त्वगुण के प्रकषं से, ग्यारह इन्द्रियों की अर्थात् आंख, कान, नाक,
जीभ, चमडा--इन र्णच ज्ञानेद्धियों की; वचन, पाणि, पाद, पायु ( मलद्ार )
| ओर उपस्थ ( जननेन्दरिय }--इन कर्मेन्दियों कौ तथा उभयात्मक ( ज्ञानेन्दिय-
। कर्मेन्द्रिय ) मन की भी, प्रकृति है। रजोगुण तो दोनों अवस्थाओं में कायं
| उत्पन्न करने के चलते अपने-आप कारण है, उसे व्यथं न समरे ।
| विकोष-- प्रकृति के नाम से सांख्य-द्चंन मे आठ तत्त्व विहित ह । उनमें
॥ मूल-प्रकृति या प्रधान का वर्णन ऊपरहो चुका है। प्रस्तुत संद्भंमें बाकी
तत्त्वों का वर्णन किया जा रहा है। दूसरा तत्व बुद्धि दहै जिसे महत् भी कहते
ह। इसमें घमं ज्ञान, वैराग्य तथा रेषयं नाम के प्रहृष्ट गुण रहते है । महत्
( बुद्धि-सामान्य ) मूलप्रकृति से ही उन्न होता है। प्रधान की तरह यहमभी
त्रिगुणात्मक है। किन्तु सत्त्वांश की प्रधानता रहती है। फिर मी कभी-कभी
रजस् ओर तमस् भी प्रकट होति है । प्रत्येक जीव मे अपनौ-अपनी उपाधियों से
युक्त होकर यह बुद्धितत्त्वं पृथक् पृथक् रहता ह । ब्रह्मा, विष्णु, महश्च कौ
बुद्धि मँ क्रमशः रजस , सतव ओर तमस् का आविर्भाव होता है। कु
बद्धितत्त्वों मे रजस् ओर तमस् का आविर्भाव होने से स्व तिरोहित हौ जाता
| 2, महत् होने पर भी अमहत् के समान अधमं, अज्ञान, अवैराग्य तथा अनेश्वयं
।| से युक्त होते है --इस प्रकार की उपाचियों से युक्त होने पर शुद्र तथा पुरायहीन
| जीव धर्माचरण में प्रवृत्तन होकर अधमं करते दिखलाई पडते है ।
महत्तत्व को माधवाचायं 'अन्त.ःकरण' भी कहते ह । यह शब्द बड़ा
भ्रामक है वयोकि इससे बुद्धि, अहंकार ओौर मन तीनोंका बोध होता है ।
अन्तःकरण.रूपी वृक्ष का अंकुर महत्तत्व ही है । निश्चय करने वाल। अन्तःकरण
| बुद्धि है, अभिमान करने वाला अन्तःकरण अहंकार है तथा संकल्प करने
| वाला अन्त.करण मन है । यही इन तीनों में अन्तर है ।
सामान्य से विशेष कौ उत्पत्ति होती है । महत्त्व सामान्य बुद्धि का बोधक
३, इससे विशेष बुद्धि उत्पन्न होती है । विशेष वृद्धि मे "अहम्" ( मै) ओर
"इदम्" ( यह ) का बोध सम्मिलित है “इदम् का बोध अहम्" के बोध पर
निंर ३ इषलिए महत् से तृतीय तत्तव अर्थात् अहंकार-तत्तव की उत्पत्ति पहले
होती है । तीनों गुण इसे भी बाधते है, अतः सात्विक, राजस, ओर तामस के
भेद से अहंकार के तीन मेद ह । सास्विक को वैकारिक, राजस को तैजस तथा
। ध =
सांख्य-दशेनम् ६२३
तामस को भूतादि भी कहते है । जहां रजस् ओर तमस् को दबाकर सत्त्वगुण
उत्कट होता है वहां सात्विक अहंकार कहलाता है । वह तैजस-अंश से युक्त
होकर प्रवृति दिखलानेवाली ग्यारह इन्द्रियों को उत्पन्न करता है । यही कारण
है कि इन्द्रियों को उत्पत्ति को सास्विक या तैजस दोनों नाम से पुकारते है । जहां
` सत्त्व ओौर रजस् को दबाकर तमोगुण उत्कट होता है उसे तामस अहंकार कट्ते
है। यह भी तेजत-अंश के साथ मिलकर प्रवृत्ति-धमं वाले पाच तन्मात्रो को
उत्पन्न करता है । इक्रौलिए पांच तन्मात्रो की उत्पत्ति को तामस या तैजस
कहते हैँ ।
पाच तन्मात्रो से शब्दतन्मात्र, स्पशतन्मात्र, रूपतन्मात्र, रसतन्मात्र ओर
गन्धतन्मात्र का ओध होता है। शब्द आदि जो विश्ञेष.रहित गुण है इन्हींमें
रहने वाले पांच सूक्ष्म भूतो ( तत्वों ९0061४8 ) को तन्मात्र ( अप४घ्९
९1668 }) कहते हैँ । शब्द से केवल शब्द ( विशेष से रहित शब्द ) का
बोध होने के कारण इसे शब्द-तन्मात्र ( शब्द ओर केवल उतना ही ) कहते
है । इसी प्रकार अन्य तन्मात्र भीर । शब्दके विरोष भी होतेह जैसे उदात्त
अनुदात्त, निषाद, ऋषभ आदि । स्प के विशेषो ( [1103 ) सें शीतत्व,
उष्णात्व, मूदृत्व आदि है । रूप में नीलत्व, शुक्लत्व आदि विष ह । रस मे
मचुरत्व, अम्लत्व आदि ओौर गन्ध में सुरमित्व ओर असुरभित्वे- ये विशेष ह ।
सांख्यतत्तवविवेचन में कहा भी है-
शब्दतन्मात्रमिव्येतच्छ्द एवोपलभ्यते ।
न तूदात्तनिषादादिभेदस्तस्योपलभ्यते ॥
ये तन्मात्र क्रमशः आकान्ञ ( शब्दतन्मात्र ), वायु ( स्पंत० )}, अमि ( रूपत० ),
जल ( रसत° ) भौर पृथिवी ( गन्धत ० ) को उत्पत्ति करते है जो पञ्च महाभूत
कहलाते हैँ ।
ये आह प्रकृतिर्या, ग्यारह इन्द्रियां, पांच महाभूत -सब मिलकर चौबीस ,
तत्तव है । पचीसवां तत्तव पुरुष है । वह जीवात्मा ही है, कोई सर्व॑ ईशर नहीं । `
यह पुरुष भौ प्रत्येक शरीर में भिन्न-भित्न है नहीं तो सुख, दुःख, मोह, जन्म,
मरण, मोक्ष की व्यवस्था नहीं हो सकती । इसलिए सांख्य-प्रव चन-सूत्र में
( ६।४५ ) कहा गया है-जन्मादिग्यवस्थातः पुरुषबहूत्वभ् । वह जीवात्मा
अनादि, सूक्ष्म, चेतन, सवंगत, निगुण, कूटस्थ, नित्य, द्रष्टा, भोक्ता भौर क्षेत्रविद्
( प्रकृति को जानने वाला ) है । इतना होने पर भी सांख्य मँ ईश्वर नहीं माना
जाता जिससे कभी-कभी इसे निरीश्वर स्छंख्य भी कहते है । इसकी तुलना नें
योग-दशेन को सेश्वर सांख्य कहते है । |
६२४ सवंदशेनसंग्रहे-
यह् स्मरणीय है कि वैशेषिको के द्वारा कहे गये सात षदार्थोका अन्तर्भाव
इन्हीं पचीस तत्वों मे होता है । पृथिवी आदि नौ द्रव्यो मे पृथिवी, जल, असि,
वायु, आकाश ओौर मन कातो इन्हीं शब्दों के दवारा उल्लेख हुआ है । आत्मा
पुरुष है । दिशा ओर काल आकाञ्च के अन्तगंत है । गुण, कर्म॑ ओर सामान्य
| तो द्रभ्यकेदही अन्तगतं क्योकि धमं ओर धर्मी अभिन्न ह 1 विशेष ओर
| समवाय का तो कोई उपयोग ही नहीं इसलिए उन स्वीकार नहीं क्रिया जाता ।
| अभाव एक प्रकारका भावहीदहै। चटकाप्रागमावमिद्रीहीहै, वटध्वंस का
अर्थं ३ पूटे टुकड़े, घट का अत्यं ताभाव केवल आधार को ही कहते है, पटादि
चट का अन्योन्याभाव है ।
करा किकः क क -- र ~न
॥
नकन --- ~
तदुक्तमीश्वरद्ष्णेन--
१. अभिमानोऽदङकारस्तस्मा् द्विविधः प्रवर्तते सगः ।
| एकादज्चकरणगणस्तन्मात्रापश्चक्रं चेव ॥
| २. साखिक एकादश्चकः प्रवतेते वेकृतादहंकारात् ।
भूतादेस्तन्मात्रः स तामसस्तेजसादुभयम् ॥
| ३, बुद्धीन्द्रियाणि चक्षुःश्रोत्रघ्राणरसनत्वगाख्यानि ।
| वाक्पाणिपादपायुपस्थाः करमन्द्रियाण्याहुः ॥
| ४, उभयात्मकमत्र मनः संकरपकमिन्दरियं च साधम्योत् ॥
| ` ( सां० का० २४-२७ ) इति ।
विवृतं च तच्वकोौघुद्यामाचायेवाचस्पतिभिः ।
जैसा क्रि ईशवरकृष्ण ने [ सांख्यकारिका में ] कटा है--अभिमान की
भावना# को अहंकार.तत् कहते है । इससे दो प्रकारके ही कायं ( सृष्टि }
उत्पन्न होते है, एक दो ग्यारह इन्दियो ( करणो ) का समुदाय ओौर दूसरा पाँच
| | तन्मात्रं ( तन्मात्राओं ) का ।॥ २४॥ [ सांख्यकारिका मे पाठ है-एकादश-
| कुश्च गराः तम्मात्रपञ्चकश्चैव । वाचस्पति ने भी यही षठ रला है । ] “तदस्य
| | परिमाणम्! के अथं में पाणिनिसूत्र ( ५।१।२२ ) अर्थात् संख्याया अतिशदन्तायाः
‰ वाचस्पति कहते है--“जो अलोचित ओर विचारित विषय ह, उसकः
| | नविकार ह, श यह काम करने म समयं ह, थे विषय मेरे ही लिष है, भेर
| सिवा इनका कोई अधिकारी नहीं दै" (इसलिए म हँ" -ये असाधारण व्यापार
| होने के कारणा अभिमान या अहंकार है ।
सांख्य-दशंनम् ६२५
कन्" से कन् प्रत्यय होने से एक्रादशकः ओर पञ्चकः शञ्द बनेहै। पाच |
ज्ञानेन्द्रिय, पांच कर्मेन्द्रियं तथा मन- ये ग्यारह इन्दियां है जिन्है प्रकाशक |
कहते है । शब्दतन्मात्र आदि पाँच तन्मात्रो का समुदाय जड़ है । अब पृद्धाजा
सक्ता हैकरि अहंकारतो एकरूपकाहोहै ठेते कारण से परस्पर विलक्षण
कायं अर्थात् जड ओौर प्रकागक, दोनों को उत्पत्ति वे होती है? इसका उत्तर
हि भगे की कारिका मे दिया जाता है-- ]
4 "वेकृत ( साक, सत्त्वगुण के प्रकषं से युक्त ) अहंकार से ग्यारह इन्दि
9. का सात्विक गणा उत्पन्न होता है ओर भूतादि ( = तामस ) अहंकारसे
1 तन्मात्राएं होती है जो तामस है । तेजस.या राजस अहंक।र से दोनों ही उत्यन्न |
च होते हैँ ।॥ २५॥ [ प्रकाशक तथा लघु होने के कारणं इन्द्रियां सात्त्विकं है . 1
ठ सत्व में प्रकाश ओर लाघव रहते ह । तन्मात्रा तमोगुण-प्रधान हैँ क्योकि ॑
: उनमें गुरुत्व ( स्थिरता ) ओर आवरक-गुण है । अहंकार यद्यपि एक ही है किन्तु |
0 गुणो के उद्धव तथा अभिभवके कारण विभिन्न कायं करता है। स स्वगुण
। ओर तमोगुरासे सारे कायं उत्पन्न होने पर भी रजोगुण की आवश्यकता
इसलिए होती हैकि ये दोनों गण स्वयं निष्किय है, समथ होने पर भी
अपना-अपना कायं तब तक नहीं कर सकते जव तक रजोगुण ( जो चंचल है) |
ॐ इन्दं कायं में प्रवृत्तन करदे। अतः राजस अहंकार उक्त दोनों अहंकारो में
2 क्रिया उत्पन्न करके सहायता करता है, वह व्यथं नहीं है। अब सात्विक गा
का वर्णन करते हए बाह्येन्दियों - ज्ञानेन्धियो _ का वर्णन प्रस्तुत करते द ]
ज्ञान (बुद्धि) की इन्द्रियां पांच आंख, कान, नाक, जीभ ओर
। । चमडा। पाच कमेद्धियां वाक्, पाशि, पाद, पायु ( गुदा ) तथा उपस्थ
44 ( जननेन्रिय ) है ।॥ २६॥ [ इन्द्र = आत्मा । उसका लिग या जञापकर=इन्दिय ।
4 इन्धियों की प्रवृत्तिसे ही आत्मा का अनुमान होता है। सात्विकं अहंकार के
| कायं में इन्द्रिय शब्द योगल्ढ हो गया है, अतः अहंकार मे अतिव्याप्ति नहीं
| होती । वाचस्पति ने सांख्यकारिका के आधार पर सात्विक अहुकार से
ग्यारह इद्धियों की उत्पत्ति मानी है । उधर विज्ञानभिश्चु केवल ग्थारहुवीं इन्द्रिय
मनकोही सात्विक मानते है । उनके मत से दसो इन्दि्यां राजस है। अब मन
का वरान करते हैँ -- |
यहां मन दोनों प्रकारकी इन्द्रिय है। यहु संकल्प करने वाला है तथा
अन्य इन्द्रियों के सजातीय होने के कारणा इसे “इन्दिय' कहते हँ । [मनसे
जब इन्दियों का संबन्ध होता है तब इन्धा बाह्य पदार्थो का सामान्य ज्ञान
ग्रहण करती हैँ । उसके बाद मन उन्हरं ठीक-टीक रूपे पहचानता है कि यह्
४० स० सं
ना
रेखा है, वह ठेषाः। संकल्प इते ही कहते ह । इसमे विशेष्य ओौर विशेषण का
संबन्ध देखकर विचार होता है। मन कर्मेन्द्ियो ओर ज्ञानेन्धियों, दोनों को
सहायत्ता करता है \ }'
|| इन सों का विवरण आचायं वाचस्पति मिध्रने सांख्य-तच्व-कोमुदी
|| ( २४.२७) मे दिया है \
| चिक्चेष--यह ध्येय है कि माघवाचायं अन्य दर्थनो मे मूल-सूत्रों तथा
उनकी व्याद्याभो को सहायता लेते है । उद्धरणदेनेमे वे सबसे प्राचीन उप.
|| लब्ध तथा प्रामाणिक ग्रन्थ का आश्रय तेते ह । किन्तु सांख्य -दथैन के विवेचन
| मेवे ईश्वरशृष्ण को सांख्यः कारिका की ही सहायता लेते है । इसका कारण
यह है किं उनके अनुार वांख्यकारिका ही प्राचीनतम प्रामाणिक पृस्तक थो ।
||| वौख्य-द्ैन के इतिहास में कपिल आदि ऋषि है अवश्य, किन्तु इनके नामस
| || जो सांख्य-सूत्र प्रचलित है वह प्रामाणिक नदीं । बाद के किसी विद्वान् ने उनके
| नाम से सांष्य-सूत्र ओर सांख्यसमापदूत् ( तत्वसमास ) कौ रचना कीथी।
| ॥| १५०० ई० से पूवं इन दोनों मे से किसी प्रन्थ का उल्लेख तक नहीं मिलता ।
$ृ्चरकृष्णा से पहले के आचार्यो मे कपिल, आसुरि ओर पंचशिल क्रमशः
गुर-शिष्य थे । परन्तु ट्नके ग्रन्थों का पता नहीं । कितने लोगं तो इनकी एेति-
हासिकता में मी संदेह करते है । एक दूरे आचायं वाषंगरय ने षष्ितर्त्र लिखा
था जिसका उल्लेख सांख्यकारिका मे मिलता हे। सांख्य-दशेन मे सबसे अधिक
प्रामाणिक ईश्वरकृष्णा ये जिन्होनि साँल्यकारिका लिली । इसमे आर्यां छन्द मे
७२ कारिकां है जो साख्य के विषय मे स्पष्ट ओर निश्चित सिद्धान्त देती ह ।
वस्तुतः सांख्य-दक्ष॑न कहने से लांख्य-कारिक्राका ही बोध होता है। इसर्के
समय के विषय में पर्याप्त मतभेद ह फिर भी १००-२०० ई० के बीचमे यह
६! कभी-न.कमी लिखी गई थी। बहुत से आचार्यो ने इस पर वत्ति, भाष्य ओौर
|. | टीकाएं लिखी थीं । इने वाचस्पति मिश्च ( ८५० ई० ) की तस्वकौमुदी बहुत
| प्रसिद्ध है । इनके पारिडत्य के अनुकूल ही यह टीका अच्यन्त प्रामाणिक भी दै।
|| सोलहवीं शताब्दी से सांख्यसूच्र ओर तच्वसमास पर टीकायें भिलने
| ।-॥ लगती है । विज्ञान-मिशचु ( १५५० ई° ) ते सूत्र पर भाष्य लिखकर स्वतन्त्र रूप
से सांख्यसारविवेक नामक ग्रंथ लिखा । नागेशाभटु ने भी सूत्रों पर वृत्ति
लिखकर अपना हाथ अजमाया था ( १७२५ )। तत्त्वसमास के टीकाकारो में
आवागसोल ( १५७५ ई० ) जौर विभानन्द यृ्य ह । भावागणेश ने स्वतन्त्र
पसे भी सांख्यसार, सांव्यपरिभाषा ओर सांख्यतन्प्रदीपिका--ये तीन
ग्रन्थ लिखे थे ।
सांख्य-दशनम् ६२७
( ४. केवल विकृति के रूप मे वतमान तत्व )
केवला विकृतिस्तु बियदादीनि पञ्च महाभूतानि, एकादज्ञ-
न्द्रियाणि च। तदुक्त-षोडशकस्तु विकारः ( सां° का० ३)
इति । षोडशसंख्यावच्छिन्नो गणः पोडशको विकार एव, न
्रकृतिरित्यथेः । यद्यपि पृथिव्यादयो गोधटादीनां प्रकृतिस्त-
थापि न ते प्रथिव्यादिभ्यस्तचखान्तरमिति न प्रकृतिः । तखान्त-
रोषपादानत्वं चेह ्रकृतित्वमभिमतम् । गोषटादीनां स्थृलतेन्द्रि
यग्रा्यत्वथोः समानत्वेन तचखान्तरत्वाभावः ।
केवल विकृति के रूप में विद्यमान तत्त्वों मे आकाश ( वियत् ) आदि पाच
महाभूत तथा ग्यारह इन्धियाँ है । जेसा कि कहा भी है-- "सोलह तत्वों का
समदाय केवल कायं (विकार) हीदहै' (सां० का० ३) "वोडशकः का अथं है
सोलह संख्या से परिमित गणा ( समदाय ), जो केवल कायं ही है, प्रकृति अर्थात्
कारण नहीं । यद्यपि पृथिवी आदि तत्व गौ, घट, वृक्ष आदि कै कारणा हीह
किन्तु ये पदां पृथिवी आदि से तत्त्वमें पृथक् नहीं है यही कारण हैकि
पृथिवी आदि को कारण ( प्रकृति ) नहीं मानते। अपने से भिन्न तकत्वका
उपादान कारण बननेवाली वस्तु ही यहाँ पर प्रकृतिः शब्द से अभिप्रेत है,
गो, घट आदि पदाथं पृथिवौ आदिसे पृथक् नहींहै, [ यह वात इसी से सिदध
हो जातीहैकि गौ, घट आदि] उसी प्रकार स्थूल ओौर इन्दियग्राह्य है, जिस
प्रकार पृथिवी ।
तत्र शब्दस्पशेरूपरसगन्धतन्मातरेभ्यः पूर्पूर्वघ्मभूतसहि-
तेभ्यः पञ्च महाभूतानि त्ियदादीनि क्रमेणेकदित्रिचतुष्पश्चगुणानि
जायन्ते । इन्द्रियसृष्िस्तु प्रगेषोक्ता । तदुक्तम्-
५. प्रकृतेमेहांस्ततोऽदंकारस्तस्माद्रणश्च षोडशकः ।
तस्मादपि पोडशकात्पश्चम्यः पञ्च भूतानि ॥
| ( सां० का० २२) इति)
उनमें शब्द, स्पशं, रूप, रस ओर गन्ध का प्रत्येक तन्मात्र अपने पूवं के
तन्मात्र ( सूषष्म भूत ) से युक्त होकर आकाशादि पांच महामूतों को उतपन्न
करता है-- जिनमें करमशः एक, दो, तीन, चार गौर पाँच गुण रहते हैँ । [शब्द-
=> = न कण 9 प मा
६२८ सबेदशैनसंग्रहे-
तन्मात्र से शब्द ( एक ) गुणा वाला आकरा उत्पन्न होता है। शब्दतन्माच्र
से युक्त स्पक्च॑तन्मात्र से शब्द-स्पशं ( दो ) गुणों वाली वायु उत्पन्न होती है ।
शाब्द ओर स्पदतन्मात्रो से युक्त रूपतन्मात्र से शबग्द-स्पर-रूप ( तीन ) गुणो
वाला तेजस् उतपन्न होता है । शब्द, स्पशं ओर रूपतन्मात्रं से युक्त रसतन्मात
से जञल उत्पन्न होता है जिसमें शब्द, स्पशं, रूप ओर रस-- ये चार गुण रहते
है। अन्त में शब्द, स्पद, रूप ओर रसतन्मात्रं से युक्त गन्धतन्मात् से पृथिवी
उत्पन्न होती हे जिसमें शब्द, स्पश, खूप, रस ओौर गन्ध--ये पांच गुण रहते
ह । ( वाचस्पतिमिश्र ) | |
इद््ियो की सृष्टितो पहले ही कह दी गई है। [ इसके सार-रूपमें
सांख्यकारिका मे ] कहा गया है--श्रकृति से महत्-तत्त्व, उससे अहंकार,
उससे सोलह तक्वो का समुदाय ( पाच तन्मात्र गौर ग्यारह इन्द्रियां ), इस
सोलह [ के अन्दर | के पांच तन्मातरोंसे पाच महाभूत | उत्पन्न होते ह ]'
( सां० का० २२)
( ५. भ्रकृति-विकृति से रदित पुरुष-तच्व )
# |च १
अनुभयात्मकः पुरुषः । तदुक्तं --न प्रकृतिनं विकृतिः
परुषः, ८ सां० का० ३) इति । पुरुषस्तु करूटस्थनित्योऽपरि-
णामी न कस्यचितपरकृतिनौपि विकृतिः कस्यचिदित्यथेः \
पुरुष दोनों मे कु भी नदीं है । कहा है--ुरुष न तो प्रकृति (कारण)
ही है ओर न विकृति ( कायं ) ही" ( सांर का० ३)। पुरुष क्रुटस्य ( अचल,
निधिकार ), नित्य तथा परिणाम ( विकास ) से रहित है-इसीलिएएन तो
वह किसी काकारणदहै, न किसी का कायं ।
विरोष- सभी मनुष्यों मे जो चेतन-तत्त्व है वही पुरुष हे। यह् शुद्ध
तैतन्यस्वरूप है, कुद कायं नहीं कर सकता है । प्रकृति के साथ संपृक्त हीने
के कारणा यह् बन्धन मे पड़ा रहता है, जित समय भ्रकृति ओर पुरुष का विवेक
हो जाता है, उसी समय मोक्ष की प्राति होती है। सांख्य में पुरूषो की बहुलता
सिद्ध की जाती है। यदि बहुलता नहीं होती तो एक पुरुष के सुखी, दुःलो,
मूढ, वदध या मुक्त हो जानेसे सभी पुरुष वैसे ही हो जति । एक् पृष क मरने
पर सभी मरते, जन्म लेने पर सों का जन्म होता आदि । पुरुषों को मुक्त करने
के हौ लिए प्रकृति संसारके रंगमंच पर नृत्य करती है। प्रकृति-पुख्ष के
सम्बन्ध का वरन आगे करेगे । अभी प्रमाणों का वर्णन करते ह।
सांख्य-दशेनम् ६२६
( ६. सांख्य-प्रमाण-मीमांसा )
एतत्पञ्चविं शतितच्वसाधकत्वेन प्रमाणत्रयमभिमतम् । तद्-
क्तम्--
६. दृष्टमलुमानमाक्षवचनं च सवप्रमाणसिद्धतवात् ।
्रिषिध प्रमाणमिषटं प्रमेयसिद्धिः प्रमाणाद्धि ॥
( सां० का० ४) इति।
इन पचीस तत्त्वों को सिद्ध करने वाले तीन प्रमाण सांद्य-दर्चनमे माने
जातेहै। वेभीइसरूपमें कहे गयेरहै- प्रत्यक्ष ( ट्ट ), अनुमान भौर शब्द
प्रमाणमें ही सभो प्रमाणो के अन्तभूंतहोजनेसे तीन प्रमाण हौ मान्य ह।
चूक्रिप्रमाणमे ही प्रमेय की सिद्धि होती है [ अतः पहले प्रमाणो का ही वंन
करके वाद में प्रमेयो का प्रतिपादन क्रिया जायगा । ]' (सां० का० ४ ) ।
विरोष--सांख्य-दर्चन मे तीन प्रमाणोंको मान्यता मिलती है। अन्य
प्रमाणो को ( उपमान, अर्थापत्ति, अनुपलब्धि आदि ) को इन्हीं तीनों मेँ अन्तत
कर लियाजाताहै। ईश्वरकृष्णाने पचवीं* कारिका में इन तीनों प्रमारो के
लक्षण दिये हैँ जिनकी व्याख्या वाचस्पति मिश्च ने विस्तृत्त रूपसेकीदहै।
( १ ) प्रत्यक ( दष्ट )--ट््टका लक्षण देने में 'प्रतिविषयाध्यवसाय
शाब्द का प्रयोग किथा गया है। पृथिवी आदि ओौर सुखादि विषय ह क्योकि
ये विषयौ ( बृद्धि) को बाँधलेतेहैँ(वि+./सि), अपने आकार में रंगकर
उस वुद्धि को भौ तद्रूप बना देते है । हमारेज्ञान का विषय न बननेवाले सूक्ष्म
तन्मात्र आदि भी योगियों भौर ज्ञानियोंके विषय बन जातिदह। जो प्रत्येक
विषय में प्रवृत्त होता. हो उसे 'प्रतिविषय' कहते ह अर्थात् विषय से संबद्ध इन्द्रिय
ही प्रतिविष्य है। इस ( इन्द्रिय ) पर आधित जो अध्यवसाय ( बुद्धिव्यापार
याज्ञान ) है उसेही दृष्ट कहतेहै। दूषरे शब्दों मे, विषयों के. साथ संबद
| इन्द्रिय कै हारा किये गये निश्चयातेमक ज्ञान को प्रत्यक्ष कहते ह ।
1 ( २) अनुमान प्रत्यक्ष के बाद अनुमान आता है क्योकि यह प्रत्यक्ष पर
| जाध्रित है। लिग ( व्याप्य } जौर लिगी ( व्थापक ) के ज्ञान से उत्पन्न होनेवाला
प्रमाण अनुमान दहै। शंक्रित तथा निश्चित दोनों प्रकार की उपाधियों का
# प्रतिविषयाध्यवसायो दृष्टं त्रिविधमनुमानमाख्यातम् ।
तत्लङ्गलिङ्जिपूवंकमापश्रुतिराप्तवचनं तु ॥ ( सां०का० ५)।
{ देखिए-- सवंदश्नसंग्रहः, प° १९ ( उपाचि }), तथा प० १२
। ( उपाबि-मेद ) ।
६१० स्बदशेनसंग्रहे-
निराकरण हो जाने पर वस्तु के स्वभाव से ही जिसका साहचयं सम्बन्ध हो वहं
व्याप्य होता है । जिसके साथ वह सम्बन्ध हो उसे व्यापक कहते है । घूम व्याप्य
है, अग्नि व्यापक । इस ज्ञान के बाद जो ज्ञान होगा अनुमान कहलायगा । धूम
( लिग ) पर्वत ( पक्ष ) में उसके घमं के रूप मे विद्यमान है--यह पक्षधमंता
काज्ञान है। तो, व्याप्य ओर व्यापक का व्यापिन्ञान तथा लिंग ( व्याप्य } के
वक्षवमंता-जञान से उत्पन्न ज्ञान अनुमान-प्रमाण है । स्याय-दर्शन के अनुमान-
मेदो को यहाँ भी स्वीकृत किया गया है जो तीन है--पूरव॑वत्, शेषवत् ओर
घामान्यतोदृष्ट । किन्तु वाचस्पति ने पहले अनुमान के दो मेद किये है--वीत
( अन्वयविषिसे व्याप्ति के दवारा प्रवृत्त ) ओर अवीत ( व्यतिरेकग्याति से
प्रवृत्त ) अवीत को शेषवत् कहते है। किसी वस्तु की जर्हा-जहां षंमावना हो,
उन सभी स्थानों मे वस्तु का निषेध करके अंतमे ओर कोई उपायन देखकर
बचे हुए स्थान में ही वस्तु काज्ञान प्राप्त करना दोषवत् है। वीतके दो भेद
६ पूर्ववत् ओर सामान्यतो । जब किसी वस्तु का विशिष्ठ रूप पहले प्रत्यक्ष
कर लिया गया हो भौर उसके आधार पर उसके सामान्य रूप से युक्त विशेष का
ज्ञान किया जाय तो उसे पूर्ववत् कहते है । रसोईघर मं विशिष्ठ रूप में वह
देखकर धूम के द्वारा वह्भित्व से अवच्छिन्न ( व्याप्त, युक्तं ) विशेष रूप अर्थात्
परवेतीय व्ल का ज्ञान करना पूववत् अनुमान है । इस प्रकार वद्धित्वसामान्य
विज्ञेव' का अनुमान हुजा । सःमान्यतोदष्र अनुमान का विषय ेसी साम्य
वस्तु है जिघका विशेष रूप पहले देखा नहीं गया हो \ जेसे--इन्द्रिय-विषयक
अनुमान । रूपादि का ज्ञान क्रिया हे, इष ( लिग ) से इन्द्रियों का अनुमान होता
ह क्योकि क्रिया किसी साधन ५ करण = साधन, इन्द्रिय ) से हौ उत्पन्न होती `
है। ( विशेष विवरण के लिए त° कौ० देखें ) ।
( ३ ) आप्तवचन ( शब्द } अनुमान के बाद आप्तवचन या शब्द प्रमाण
इसलिए रखते है कि अनुमान के हारा ही बालक को "शक्ति" अर्थात् शब्दार्थं
संबन्ध का ज्ञान होता है ओर शब्दाथं के संबन्ध का ज्ञान होने पर ही शाब्दबोध
(शब्दके अथंका साक्षात्कार ) होता है! अतः अनुमान शब्दप्रमाणका
परम्परया ( परोक्षरूपसे ) कारण ह। आप्तवचन का अथंहै आपत ( प्रकृ
या उचित ) श्चुति अर्थात् वाक्य से उत्पन्न वाक्यार्थज्ञान । यह वाक्याथंज्ञान
जो स्वतंत्र रूपसे प्रमाणा होता है, अपौरुषेय वेदवाक्यों से# उत्पन्न होने से,
स
+ साद्य ओर मीमांसा दर्शनों में ईश्वर को स्वीकार नहीं करते । अतः
करिसो विशेष पुरुष ( ईर ) के बनाये न रहने से वेद को अपौरुषेय मानते
है । सांख्यसूत्र ( ५।४६ ) मे कहा हैन पौरूषेयत्वं तत्कर्तुः पुरषस्याभावातु )
( बालरामोदासीन कौ विद्रत्तोषिणी टीका--त° कौ० पर । )
सांख्य-दशेनम् ६३१
श्रम, प्रमादादि पुरुषदोषोंसे रहित होने के कारणा युक्तदै। वेदके वाक्यतो
प्रमाणरहैही, वेदमूलक स्प्ृति, इतिहास, पुराण के वाक्यों से उत्पन्न ज्ञान भी
युक्त होता है । "आप्र शब्द से युक्त या उचित श्रुतियों (आगमो) काहौ बोध
होता है। नहींतो जेन, बौद आदिके विवार जो आगम जैसे लगतेर्हैवेभीः
प्रमाणही दहो जार्येगे। ।
वाचस्पति ने इसके बाद उपमान, अर्थापत्ति, अभाव, संभव तथा रेतिद्य
प्रमाणोंको (जो विभिन्न दर्धनोंमें स्वीकृत) इन्हींके अन्दर सिद्ध क्रियाः
है । कोई प्रत्यक्ष मे, कोई अनुमान में ओर कोई आगम मे अन्तभूंत हो जाति है।
स्मरणीय हैकि छहों द्यंनों पर टीका करने वाले आचायं बिल्कुल तटस्थ
होकर इसकी विवेचना करते है । इसके बाद की कारिकामें (छठी कारिकामें)
बतलाया गया है कि सामान्यतोदृष्ट अनुमान से अतीन्द्रिय पदार्थो कौ सिद्धि होती
है। किन्तुजो पदार्थं परोक्षरहै कि इससे भीसिद्ध नहो सके तव उनकी सिद्धि
आगम-प्रमाणसे होतीदहै। बात यहदहैकरि बहत दृर होने या समीप होने से,
इन्द्रियो के घातया मनकी अस्थिरता होने से, सृक्ष्मताके कारणा या बीच में
रुकावट पड़ जानेसे, क्रिसी वस्तु से अभिभूत {दव्र) हो जानेसे या समान
वस्तु मेमिल जानेसे कोई पदाथं दिखलाई नहीं पडता ( कारिका ७) इस
आधार पर यह नही सोचं करि पदार्थं है ही नहीं व्याख्यानतो विच्चेषप्रतिषत्तिनं
हि सन्देहादलक्षणम् ।
( ७. काये-कारण-सम्बन्ध पर विभिन्न मत )
इह कार्यकारणभावे चतुधौ विप्रतिपत्तिः प्रसरति । असतः
सज्ञायत इति सौगताः संगिरन्ते । नेयायिकादयः सतोऽसज्जा-
¢ ¢ ॐ
यत॒ इति। वेदान्तिनः सतो विवतंः कायजातं न बस्तु
सदिति । सांख्याः पुनः सतः सज्जायत इति ।
यहाँ पर कायं ओर कारण के परस्पर सम्बन्ध को लेकर चार प्रकारके
विभिन्न मतवादर्है। बौ ( शृन्यवादी ) कहते ह कि असत् ( }\०0-€18-
॥९71# ) से सत् पदां कौ उत्पत्ति होती है । नैयायिक ( वेरेषिक भी ) आदि
कहते है क्रि सत् पदां (कारण ) से असत् कायं उन्न होता है । वेदान्तियों
(अद्रैत ) की मान्यतादै क्रि सत् कारण से विवतं ( कल्पित ) कायं उत्पन्न होता
है गौर सारे कार्यो की वास्तविकं सत्ता नहीं रहती । लेकिन साद्यवाले कहते
{कि सत् कारणा से सत् कायं ही उत्पन्न होता है,
न्ना
ऋषि
, ~ ~ - ---- - `= ल-त ~ - यि कन
~~~ ~~~ =-=
६३२ सवेदर्शनसं्रहे-
विरोष- प्रमाणो के द्वारा उक्त पचीष तत्वों कौ सिद्धि करनी पडतो है।
उन तच्वों में प्रथम तत्तव॒ जो प्रधान या प्रकृति है उसकी सिद्धिके लिए अनु-
मान ही एक साधन है। उस विषय में किये गये अनुमान का उपजीव्य सत्का-
यवाद का सांषब्योक्त षिडान्तदही हो सकता है। प्रकृति तत्तव के भीतर वे
सारे विकार निहितं है जिनकी उत्पत्ति प्रकृति से होती है, चाहे वह॒ उत्पत्ति
सीषेहो यापरम्परा सेहो। इस विषय मे मतभेद प्रदशित करते ह जिनके
खरडन के बाद अपने सत्कायंवाद का पोषणा करगे ।
( १) बौद का पक्ष है कि कारणवस्तु से काय॑वस्तु तमी उत्पन्न होती है
जब कारणवस्तु असत् अर्थात् विनष्ट हो जाय । जब तक पूर्वं वस्तु सत् या विद्य
मान है तबतकं कोई चीज उससे उत्पन्न ही नहीं हो सकती । बीज का नाश हीने
पर ही अंकुर उत्यन्न होता है, मिद का पिड़ मिट जाने पर ही घट उत्पन्न होता
है । बौद लोग सभी भावात्मक ( 12081 ४;९€ ) वस्तुओं कौ क्षणिक मानते है।
का्यके क्षणामे कारणा तथा कारणा-क्षण में कायं नहीं रहता । पूरव॑क्षणिक
| वस्तु के विनाश के बाद हौ उत्तरक्षणिक वस्तु आती है-अतः विनष्ट (असत्)
| कारण ही सत् ( विद्यमान ) कायं को उत्पन्न करतादै। सत् का यहां अर्थ है
क्षणाभर खडा रहना, तीनों कालों में अबाधित होना नहीं ।
| ( २ ) नैयायिक ओौर वेशेषिक असत्कार्यवाद का सिद्धान्त मानते है । इनके
अनुसार परमाणु आदि ( कारण ) इचणुकादि कायं पहले से दिद्यमान नहीं
{ असत् ) रहते ह, उनसे ये सत् ( विद्यमान } दचणुकादि-कायं बिल्कुल नवीन
रूप में उत्पन्न होते है । मिद्री मे घट असत् है नहीं तोदोनोंका एकहीनाम
होता या फिर दोनों पर्याय माने जाते । दोनों को हम अलग-अलग देखते है ।
बौद्धो के अनुसार जहाँ कारण-वस्तु ही अविद्यमान ( विनष्ट ) होती है तब कार्यो-
त्पत्ति होती है, न्याय के अनुसार कारण-वस्तु विध्यमान ही रहती है । हाँ, उसमें
कायं नवीन रहता है ।
(३) अद्रैत-वेदान्त के अनुसार एकमात्र ब्रह्म ही सत् ( विमान ) है,
जगत् के अन्य समी रूप अज्ञानवश उसमें उसी प्रकार कल्पित या आरोपित ह
ससे सीपोमे चाँदीया रस्सीमें साप । जिस प्रकार सीपी का वास्तविक ज्ञान हो
जाने पर उसमे आरोपित चांदी की पूरव॑प्रतीति मिथ्याया श्रमपूणं लगती है,
उसी प्रकार तच्वज्ञानके द्वारा मायाका बन्धन (आवरण ) हट जाने पर
| पारमार्थिक तत्तव - ब्रह्म- में ज्ञानावस्था के पूवं प्रतीत होनेव!ला समस्त जगत्
| श्रान्त लगता है, असत् ( वस्तुतः मिथ्या, पारमाथिक दृष्टि से असत् } लगता है ।
फलतः कारण (ब्रह्य) सत् है किन्तु कायं ( जगत् ) मूलकारण ब्रह्म का विवतं
।
।
।
4
॥
।
|
सांस्य-दशनम् ६३३
{ मिथ्यात्मक रूपान्तर 1]1प९०८क शाक कषप्५1 ) ह, परिणाम ( वास्तविक
रूपान्तर ) नहीं । विवतं होने के कारण इसकी ( कायं की ) पारमार्थिक सत्ता
नहीं, आभासिक्र या व्यावहारिक सत्ताहीहै। न्यायमं वस्तु का पारमार्थिक
रूपान्तर मानते हँ, सांख्य के साथ भी यही वात है परन्तु वेदान्तमें वस्तु का
आभासिक रूपान्तर या विवतं माना जाताहै।
(४) सांख्य के अनुसार सत् कारणसे ही कायं उत्पन होता है ओर वहे
कायं भी सत् ही रहता है--कारण-व्यापार के पूर्वं अव्यक्त रूप मे विद्यमान कार्य
ही कारणव्यापार के पश्चात् व्यक्त रूप म उत्पनन होता है। द्ध से उत्पन्न
होनेवाल। दधि कारणव्यापारके पूर्वं भी दूध में अव्यक्त रूपमे विद्यमान है ।
प्रकृति से उत्पन्न होनेवाले महत्, अहंकार आदि तच्व उस ( प्रकृति ) में अव्यक्त
रूपमे रहते है। इस मत को सत्कायंवाद कहते हँ । इमे कारणा से कायं की
उत्पत्ति का यही अथं है कि कोई अव्यक्त पदाथ व्यक्त हो जाता है। स्मरणीय है
कि सांख्य ओर न्याय के अनुसार कायं एक तथ्य ( ९९] ) है जब कि वेदान्त
मे कायं मिथ्या है, विवतं है ।
अवे सांख्य के अतिरिक्त अन्य मतो के खरडन का उपक्रम करते हए सत्का-
यवाद की सिद्धि की जायगी ओौर उस्षके लिए विभिन्न तकं दिये जा्थँगे ।
( ७ क. काय-कारण-भाव के मतौ का खंडन )
तत्रासतः सज्ञायत इति न प्रामाणिकः पश्चः । असतो निर
पाख्यस्य शशबिषाणवत्कारणत्वानुपपत्तेः । त॒च्छातच्छयोस्ता-
दातम्यानुपपत्तिश्च ।
उन मतो मे असत् से सत् उत्पन्न होता है" यह पक्ष प्रामाणिक नहीं है ।
भसत् का वंन नहीं हो सकता, यह खरहै की सींग की तरह [ सत्ताहीन ] ह
उमे कारण ही नहीं बताया जा सकता । दूसरे, तुच्छ ( स्वहपहीन ) ओर अतुच्छ
( स्वरूपयुक्त ) पदार्थो मँ तादात्म्य-संबन्ध भी तो नहीं होता है । [ तात्पयं यह्
है करि एक तो असत् पदां कारण नहीं हो सकता क्योक्रि जिषकी सत्ता ही नही,
वह कायत्पादन क्या करेगा ? दूसरे, सत् ओर असत् का संबन्ध होना असंभव
है वयो्रि असत् पदाथं है स्वरूपहीन ओर सत् पदाथंका कुट स्वरूप होता है ।
पूवक्षणमें होने वाला घटाभाव ही उत्तर क्षण मे होने वले घटका उपादान
कारण है सा बौद लोग कहते ह। अभाव या असत् स्वरूपहीन होने के
कारण अपने परवर्ती भावया सत् के साथ तादालम्य संबन्ध नहीं रख सकता ।
|
६३४ सबेदशनसंग्रहे-
जब तादाप्म्यही नहीं रहेगा तो उपादान ओर उपादेय का संबन्ध नहींहो
सकता । इसलिए बौद्धो का सिद्धान्त अमान्य है । |
नापि सतोऽसज्ञायते । कारकव्यापारात्प्रागसतः श्चशविषा-
णवस्सत्तासंबन्धलक्षणोत्पच्युपपत्तेः । न हि नीरं निपुणतमे-
नापि पीतं कतं पायते । ननु सखास्खे धटस्य धमोविति
चेत्-तद चार । असति धर्मिणि तद्धयं इति व्यपदेश्चानुपपस्या
धर्मिणः सखापत्तेः ।
सत् से असत् की उत्पत्ति का [ न्याय-सिद्धान्त ] भी प्रामाणिक नहींही है)
कायं को उत्पन्न करनेवाले पदार्थं कौ क्रिया ( कारकव्यापार } के पहले जिसका
अस्तित्व ही नहीं है उसकी उत्पत्ति खरहे की सींग की तरह ही असंभव है क्योकि
उत्पत्ति का अथं है सत्ता से सम्बन्ध रहना । [ दो सत्तायुक्त पदार्थो का ही संबंध
हो सकता है ओौर सत्ता के साथ सम्बन्ध होने पर ही उत्पत्ति होती है । यह
आज तक सुना नहीं गया कि खरहेकीसींग या वन्घ्यापुत्र का सम्बन्ध किसी
सतायुक्त पदाथ के साथ हुथा है--असत् ओर सत् का सम्बन्धहो ही नहीं
सकता । पहले से असत् घटादि-कायं का सम्बन्ध सत्ता से नहीं हो सकता इसलिए .
घटादि-कायं कौ उत्पत्ति ( = सत्ता से सबन्ध } नहीं मानी जा सकती । | सबसे
निपुणा व्यक्ति भी नीले को पौला नहीं कर सकते । [ नील मेँ पीत की सत्ता नहीं
है--पीत वहां भसत् है जब कि कार्यरूपमें सत् है। तो जब नीले मे पीला नहीं
है तो नीला रंग कभी पीला नहीं होगा-असत् पीत कभी भी सत् पीत नहीं बन
सकता । पहले से असत् घट कुम्भकार के व्यापारसे भी सत् नहींकियाजा
सकता । असत् जौर सत् मे परस्पर विरोध है--वे कायं-कारण भाव नहीं रख
सकते । | |
अब यदि ये ( नेयायिक ) कट कि सत्ता ओौर असत्ता, घटके येदोधमं
है [ अर्थात् जसे वलयत्व धमं से विभूषित स्वणं स्वणंकार के व्यापार ( क्रिया)
से कुरडलत्व-धमं से युक्त हो जातादहै वसे ही यहाँ असत्तव-धमं से विशिष्ट घट
कुम्भकारादिके व्यापार से स्व-धमंसे युक्त हो जायगा], तौ हम यह् करटैगे
कि यह कहना उन्दँ शोभा नहीं देता । धर्मी (घट ) के नहीं रहने पर हम यह्
नहीं कह सकते कि यह ( असत् ) उस ( घट } का धमं है। नहीं तो वर्मी (षट)
की सत्ता माननी पडेगौ ( = धट की नित्यता स्वीकार करनी पडेगी ) । [आशय
यह है क्रि यदि असत्त्व घट का धमं माना जाय तो घमं ( असच्व ) धर्मा ( घट )
के विना नहीं रह सकता-- यह् भी मानना पडेगा । तो असर्व-धमं के समय
११ १. ४
[व क ० ` = 4 अ
_
सांख्य-दशेनम् ६३५
धर्मी ( घट ) की सत्ता माननी पड़ेगौ, अतः घट की सत्ता रहेगी ही । यही नही,
इसके फल स्वरूप घट नित्य हो जायगा क्योकि जव असतु काल मे भी धट है
तब तो वह नित्यहीनदहै?]
विशोष--यहां पर दोही मतोँका खंडन किया गया ह विवतंवाद का
खंडन बाद मेँ करेगे । अव अपने सत्कायंवाद का सिद्धान्त प्रस्तुत करते है ।
( <. सत्कायंवाद की सिद्धि )
तस्मात्कारकन्यापारात्प्रागपि कायं सदेव । सतरचाभिव्य-
क्तरुपपद्यते । यथा पीडनेन तिलेषु तैलस्य, दोहनेन सौरभेयी
त [९ |च चै
पयसः । असतः कारणे किमपि निदशनं न दश्यते । किंच
कार्येण कारणं सम्बद्धं तज्जनकमसम्बद्धं वा । प्रथमे कार्यस्य
सत्वमायातम् । सतोरेव सम्बन्ध इति नियमात् । चरमे सर्व
कायजातं सवंस्माज्जायेत । असम्बद्धतवागरिशेषात् ।
इसलिए यह सिद्ध हुआ कि कारक (कर्त, हेतु, कारणा ) के व्यापार के
पूवं भी कायं की सत्तारहती हीदहै। [ तब कुम्भकार आदि की आवश्यकता
क्यों ? | हां, इतना अवश्य है कि पहले से विद्यमान ( सत् ) कायं की केवल
अभिव्यक्ति होती है [ जिसमे निमित्त कारण कौ अपेक्षा रहती है । | उदाहरण
के लिए जेसे-पीसने (परे) पररतिलों सेतेल कीया दहने पर गायों से
दरव कौ [ अभिव्यक्ति होती है। तिलोंमें तेल या गायों दूष पहले से है
पर अभिव्यक्ति के लिए = के व्यापार की या दोहनग्यापार की अपेक्षाहै।
केवल अमिव्यंजक होनेकेकारणमो येव्याधार कारण हुए । | असत् वस्तु
( जेसे न्याय-दष्टि से कारणावस्था मं घट) की उत्पत्ति ( दरडादि ) सिद्ध
करनेवाला कोई दृष्टान्त भी नहीं मिलता । [ दृष्टान्त वैसा ही हे सकता हैजो
दोनों वादियों को स्वीकार हो। नैयायिक यदि घट का उदाहरण दैक्ति
असत् घट का कारण दर्डादि हतो यह सम्भव नहीं । उधर सांख्य वाले
घट को पहले से कारणरूप मे भी वतमान ही स्वीकार करते हि आजतक
कभी किसी ने असत् को उत्पन्न होते या अभिव्यक्त होते भी नहीं देखा करि
दृष्टान्त दे सकं । ]
इसके अतिरिक्त कारण-वस्तु काय॑-वस्तु को उससे यातो संबद्ध होकर
उत्पन्न करती है या फिर असंबद्ध ही होकर ( तीसरा विकल्प सम्भव नहीं ) ।
संबद्ध होकर उत्पन्न करने से तो कायं की सत्ता (कारण मं कायं का रहना )
क अः == +
> == च त्व ५
~ नः + । ने
चकर क्र, “
कैव ।
0 च
(ब
1 |
ष्ये च
६३8 सर्वदशनसंग्रहे- `
ही सिद्धहो जाती है क्योकि दो सत् वस्तुओं काही सम्बन्ध होने का नियम
ह । यदि असम्बद्ध होकर उत्पन्न करती है तो कोई भी कायं क्रिष्षी मी कारण
से उत्पन्न होने लगे क्योकि असंबद्धा तो सबोंमे बराबरही रहेगी [धट
से मद्री को यदि असम्बन्धहै तोपटसे भी तो उसे असम्बन्व हीहै। तो,
मिट घट ओर षट दोनों को उत्पन्न कर सकेगी । अतः असंबद्ध होकर कारण
कायं को उत्पन्न नहीं कर सकता । असंबद्ध असंबद्ध से नहीं उत्पन्न होता,
संबद्ध पदाथं ही संबद्ध को उत्पन्न कर सक्ता है- तिल से ही तेल होगा, पाषाण
से नहीं । |
तदाख्यायि सांख्याचार्यः-
७, असचान्नास्ति सम्बन्धः कारणे; स्वसङ्गिभिः ।
असम्बद्धस्य चोत्पत्तिमिच्छतो न व्यवस्थितिः ॥ इति ।
इसे सांख्य के आचार्यो ने कहा दै-[उत्पत्ति के पूवं कायं को | असत् मानने
पर स्ख के संग मे रहने वाले [ सच्व धमं से युक्त | कारणों ( मिदटौ आदि )
से इसका संबन्ध नहं हो सकता । [ भिद से घड़ा बनता है; मिटटी कारण है,
चड़ा कायं । यहाँ कारणा वस्तु विद्यमान ( सत् ) है, किन्तु काय॑वस्तु अविद्यमान
( असत् ) है क्योकि उत्पत्ति के पूवं कायं रहता ही नहीं, यह न्यायमत है!
अतः सत् ( कारण ) ओर ज॑सत् कायं का संबन्ध होना कमी संभव नहीं । ] अब
यदि [ कारण से | असंबद्ध ( कायं ) की उत्पत्ति मानी जाय तो | अमुक कारण
से अमुक कायं उत्पन्न होता है --इस तरह क ] व्यवस्था नहीं रहेगौ । [ निद्र
से कपड़ा, जल से धड़ा, ईख से नमक आदि तैदा होने लगेगे । किसी कारणसे
कोई भी कायं उत्पन्न होने लगेगा । |
अयेवभुच्येत--असंबद्धमपि तत्तदेव जनयति यत्र यच्छ-
यदश्नो # ३ संगच्छते
क्तम् । शक्तिश्च कार्यददोनोननेयेति । तन्न संगच्छते । तिरेगपु
[ (म # क
तैजननश्क्तिरित्यत्र तंलस्पास्ते संबद्भत्वासंबद्धत्वविकरपेन
तच्छक्तिरिति निरूपणायोगात् । कार्यक्ारणयोरभेदाच कारणा-
तपृथकार्यस्य स्छं न भवति ।
यदि रेखा उत्तर दिया जाय कि असंबद्ध होने पर भौ कोई ( कारण ) उसो
काथं को उत्पन्न करता है जो कारण जिसने उतपन्न करने मं समर्थं ( शक्त (818-
क तत्तवकौमुदी मे पाठ "असच्वे नास्ति" है । अथं ४ कोई भेद नहीं पड़ता ४४
अस्वे" से साध्यता प्रकट होती है, असत्त्वात्" से सिद्धता ।
सांख्य-दशेनम ` ६३७
01९ ) है [ जैसे तन्तु पट को उत्पन्न करने मे समथं ३ _ मिह घट को।] किसी
पदाथं को शक्ति का अनुमान उसके कायं को देखकर करना चाहिए । [मिटीकी
शक्ति का अनुमान घट देवकर होता है कि वह घटोत्पादन कै लिए समथंहै। |
लेकिन यह युक्रित ठीक नहीं हो सकनी । 'तिलों मे तेल उत्पन्न करने की
शक्ति है इस प्रकार [ असत्कायंवाद के अनुसार तिलो भे | तेल की सत्ता
| न मानने पर यह निश्चित नहीं कर सकते कि [ तेल भौर उसे उत्पन्न करते
॥- की शविति के परस्पर | सबद होने या अंब होने से भी उसे वह॒ शक्रित
हैही। [ अभिप्राय यहदहै सांख्य दाशंनिक नैयायिको से कठते है क्रि आपकी `
बात मान ली, कायं देखक्रर हम किसौ पदाथ की रक्तिका अनुमान कर तग,
तिल में तेल उत्पन्न करने की शक्ति है । परन्तु यहे बतलाइये क्रि प्ले ते वि्-
# मान शक्तिजो तिलमेंहै वह कार्योत्पत्ति के पूवं तेल से सम्बद्ध हैया नहीं?
- यदि है तो तैल की सत्ता उत्पत्ति के पूवं भो दहै, सत्कायंवादकी ही सिद्धि होगी ।
यदि सम्बद्ध नहीं ह तो कैसे निरूपणा करेगे कि यह तैल को उत्पन्न करनेवग्ली
शक्ति है ? दोनों दशाओं मे गये । ] दूसरे, कायं ओर कारणा में अद नहीं होता,
इसलिए कारण से अलग कार्यं कौ सत्ता नहीं होती । [ कार्यकारण में अभेद
होने के कारणा सत्ता एक ही रहती है, दो सत्ताए नहीं रहतीं । अतः: का्यौत्त्ति
के पूवं यदिकारण की सत्ताहैतो कायं को सत्ता भी अवश्य ही रहेगी । ]
(१ ¢ #ै तदेवं
पटस्तन्तुभ्यो न भिद्यते । तद्रमत्वात् । न यदेवं, न तदेवं
© तहिं ॐ
यथा गोरः । तद्धमेशचच पटः। तस्मानार्थान्तरम् । तदि प्रत्येकं
© रिति + ¢
त एव प्रावरणकायं युरिति चेन्न । संस्थानभेदेनाविरभतपट-
। को ११०३
4 भावानां आव्रणाथक्रियाकारित्वोपपत्तेः। यथा हि कृम॑स्या-
| ङ्गानि इमंशरीरे निविशमानानि तिरोभवन्ति, निःसरन्ति चा-
| विभवन्ति; एवं कारणस्य तन्त्वादेः पटादयो विशेषा निःसरन्तं
आविभेवन्त उत्पद्यन्त इत्युच्यन्ते । निवरिशमानास्तिरोभवन्तो
विनश्यन्तीत्युच्यन्ते ।
ध [कायं का कारण से अभेद सिद्ध करने के लिएये प्रमाण ह ] पट तन्तुओं
{६ से भिन्न नहींहै क्योकि वह तन्तुओं की अवस्था-विशेष (धमं) है। जो ेसा
,2 ( किसी वस्तु से अभिन्न ) नहीं दहै, वह उसका धमं मीनहींहै जैसे गौसे
ब अश्व । [गौ से अश्च अभिन्न नहीं है अर्थावु भिन्न है, इसलिए गौ की अवस्था-
विशेष अश्व नहींहै। वह उससे पृथक् है । ] यहां पर पट तन्तुभओं का धमं
१ ( अवस्था-विशेष ) है अतः भिन्न नहीं है ।
६३८ सबेदशेनसंग्रहे-
[ अब इसमे शंका उठती हैकि] तत्र तो अर्थात् तन्तु ओर षट मे अभेद
मान लेने षर प्रत्येक तन्तु ही आवरण का कायं करता (जो काम कपडे का है
वही काम सूतोसे भौ चलता )। यह् शंका ठीक नहीं वयोकि उन सूतोंके
संस्थान ( विशेष रूप से सजाये गये रूप ) मे अन्तर रहने के कारण | जब्र उन
सूतो से ] पट-कूष का आविर्भाव ( अभिव्यक्ति 1187; {8908४६0 ) हो जाता
ह तभी ये आच्छादन-रूपी कायं के सम्पादन मे समथ होति ह । [ पट ओर तन्तु
त्रं संस्थान या सजावट का अन्तर टै । जब ये तन्तु विशेष रूप से सजा दिये
जाति है तभी षट का आविर्भाव होता टै जो आच्छादन के कामम आतादहै।]
जसे कए के अंग उसके शरीर मे प्रवेश करने पर तिरोहित कहलाते है ओर
निकलने पर आविभूत कहलति ह वैसे ही सूत आदि कारणो से वल दि
विज्ञेष प ( कायं ) निकलने या आविभूत होने पर “उत्यन्न होरहैहैः
ठेषा कहलाति है; प्रवेश करने परया तिरोहित हो जाने पर नष्टहो रहे ह
ठेसा कहते दै ।* |
न पुनरसताघु्पत्तिः सतां वा विनाशः । यथोक्तं भगव-
द्वीतायाम्-
नासतो विद्यते भावो नाभावो विद्यते सतः ।
( गी ° २।१६ ) इति ।
ततश्च कायीनुमानात्तस्रधानसिद्धिः । तदुक्तम्--
८. असदकरणादुपादानग्रहणात्सवेसंभवामावात् ।
शक्तस्य श॒क्यकरणात्कारणमावाच सत्कायम् ॥
( सां० का० ९ ) इति ।
इसके अतिरिक्त, असत् वस्तु की उत्पत्ति या सत् वस्तु का विनाश भी नहीं
होता। जैसा कि मगवदरीता ने कहा है-- "असत् का अस्तित्व नहीं होता तथा
सत् का अभाव नहीं होता' ( गीता २।१६ )। इस प्रकार कायं के द्वारा अनुमान
करके इन वस्तुओं के मूलकारण प्रधान या प्रकृति की सिद्धिकी जा सकती है ।
उपे कहा है-
* तुलनीय--यदा संहरते चायं कूर्मोऽङ्गानीव सवशः ।
इन्दरियाणीन्रियार्थेम्यास्तस्य प्रज्ञा प्रतिष्ठिता ॥ ( गी° २।५८ )
र
न 1. + 0
सांख्य-दशेनम् ६३६
| कारण में | कायं विद्यमान है क्योक्रि( १) असत् को कायंके रूपमे
परिणत नहीं क्रिया जा सकता, ( २ } {कायं की उत्पत्ति क लिए] उसके उपादान
कारण ( जेसे घट का मिहो, प्टकासुत) का ग्रहृण अवश्य करना पड़ता है
अर्थात् कायं अपने उपादान कारण से नियमपूर्वकं संब रहता है । [ यदि कायं
पहले से ही भकतु हो तो उपक्रा संबन्ध नहींहो सक्ता ], (३) सभो कायं
सभौ कारणों से उत्पन्न नहीं होतेह [ किसी विशेष कारणा से विशेष कायं
उत्पन्न होता है, यदि कायं कारण से अपवद्ध रहता तो ठेसा संभव नहीं था ।
(४) जो कारण जिस कार्यं को उत्पन्न करनेमें शक्तया समथ है, उससे उसी
कायं को उत्पत्ति होती है [मिहरीमे कल्पित शक्तिविरोष यदि घटसे संबद्ध है
तो घटकोहौ उत्पन्न करेगा | ओर (५) कयं कारणात्मक अर्थात् उसी के
स्वरूप का होता है ( =करायं ओर कारण अभिन्न होति है )।' (सां० का० ९) ।
( ८ क. विवतेंवाद् का खंडन )
नापि सतो ब्र्मतखस्य विवतेः प्रपश्चः। बाधानुपलम्भात् ।
अधिष्ठानारोप्ययोश्चिज्ञडयोः कलधोतद्यक्त्यादिवत्साषूप्याभावे-
नारोपासंभवाच ।
आप यहु भो नहीं कह सकते कि यह् प्रपंच ( संसार) उस सत् ब्रह्मतत्त्व
का विवतं अर्थात् कल्पित खूप है । कारण यह है कि [जेस यह चाँदी नहीं,
सीपी है शान्ति नष्ठ होने पर रसे वाक्यसे चाँदीका विरोध या बाध किया
जाता है उस प्रकार यह संसार नहीं है" एेसा ] विरोध व्यवहारमे नहीं मिलता ।
चेतन ओर जड जो क्रमशः आधार ( अधिष्ठान, ब्रह्य) तथा आधेय ( प्रपंच)
है, उनमें चांदी भौर सीपीकी तरहक समानतान होनेसे परस्पर आरोप
नहीं हो सकता । [ सोपी ओौर चांदी में तो एकषू्पताहै कि दोनों हौ उजले
है, परन्तु भला ब्रह्य ( चेतन ) भौर संसार (जड) में क्रिस पदां को लेकर
एकरूपता हो सकती है । आरोप का हेतु कोई सारूप्य न होने से ब्रह्म पर प्रपंच
का आरोप संभव नहीं है । 'कलधौतशुकत्यादि के समान' यह वेधम्यं का हृष्टन्त
है क्योकि ब्रह्मप्रपंच के परस्पर सम्बन्ध के विरुद है-जेसे कलधौत ( चांदी)
जौर शुक्ति ( सीपी ) मे समताहै वसे ब्रह्म ओौरप्रपंच में नहीं। यदि कलधौत
का अथं स्वं लिथाजायतो साधमम्यंकाही दृष्टान्त हो नायगा-जैमे स्वं
{ पीला ) ओर सीपी ( उजली ) में समषूपता न होने से परस्परारोप नहीं होता
वेसे ही ब्रह्म मौर प्रपंचमें मी समरूपतान होने से भारोष नहीं होगा । ]
६४० सर्बेदशनसंग्रहे- `
( ९. प्रधान या प्रकृति की सिद्धि )
ततश्च सुखदुःखमोहात्मकस्य प्रपञ्चस्य तथाविधकारणमव-
धारणीयम् । तथा च प्रयोगः-- विमतं भावजातं सुखदुःखमो-
हात्मककारणकं तदन्वितत्वात् । यधेनान्वीयते तत्तत्कारणकः
| यथा रुचकादिकं सुबणान्वितं सुबणेकारणकम् । तथा चेदं,
| तस्मात्तथेति ।
इसके बाद सुख, दुःख ओर मोह से वने हए इस संसार का वैसा ही कारण
विचारना चाहिए । इसके लिए [ परार्थानुमान का | यह प्रयोग होगा--
( १ ) प्रतिज्ञा-ये सभी प्रस्तुत पदार्थं सुख, दुःख ओर मोहसे बने
किसी कारण से उत्पन्न हए हैँ ।
(२ ) हेतु--क्योकरि ये उनसे ( सुखदुःख -मोह से ) संयुक्त ह ।
| ( ३ ) उदाहरण ओर ब्याक्षि--जो जिससे संयुक्त रहता है वह् उसी
। कारण से निकलत। है। जैसे स्वर्णपात्र स्वणंसंयुक्त दै भौर स्वं उका
| कारण दै,
| ( ४ ) उपनय--यह (प्रस्तुत पदाथ) भो वेसा (सृखदुख मोदसे
।॥ संयुक्त ) दै ।
| ( ५ ) निगमन--इसलिए यह ( संसार ) भी वेसा ( सुख, दुःख ओर मोह
4 ॥ से बने किसी कारण से उत्पन्न ) है ।
[ संसार का सुख दुःख मोह से बना कारण ही प्रकृति या प्रधान दहै। इसी
अनुमान से उसका परता लगता है । |
| तत्र जगत्कारणे येयं सुखात्मकता तत्सखं, या दुःखात्मकता
3 | तद्रजः, या च मोहामकता तत्तम इति त्रिगुणात्मककारण-
ह सिद्धिः । तथा हि- प्रत्येकं भावास्त्रगुण्यवन्तोऽचुभूयन्ते । यथा
। १
+ विमत, विवादाघ्यासित आदि शब्दों का प्रयोग पक्ष (11001 (लप)
| | | के विशेषणा के रूप मे किया है । इसका अथं है-- सन्दिग्ध यां जिस पर वाद
| | विवाद चल रहा है वह विषय । अंगरेजी में इसे 17) पृप्टठा कर्टैगे जसे --
| । विमतं वस्तु = पृण 10 पृप्ट्डघणा, मैने प्रस्तुत" शब्द रखा है जो
| । । उपयुक्त है ।
सांख्य-दशेनम् ६४१
मत्रदारेषु सत्यवत्यां मेत्रस्य सुखमाविरस्ति । तं प्रति सखगुण-
्ादुभोवात् । तत्सपत्नीनां दुःखम् । ताः प्रति रजोगुणप्राुर्भा-
वात् । तामलभमानस्य चत्रस्य मोहो भवति । तं प्रति तमो-
गुणसगरदधवात् ।
यहा पर संसार कै कारण ( प्रकृति ) मँ जो सुख का तत्व है वह् सत्त्वगुरा
है, दुःख का तत्तत रजोगुणा ओौर मोहका तत्त्व त मोगुण । ईस प्रकार
व्रिगुणात्मक कारण ( = जगत्कारण ) की सिद्धि होती है। वह इस रूप मे
होती है-संसार के समी भावों ( पदार्थो ) में तीनों गुणों को सत्ता का अनुभव
होता है। जेते मेत्र की अनेक पत्नियों मे सत्यवती नामक पत्नीसे मैत्रको
युख को श्रि होती है कयोकि मत्र के प्रति सत्त्वगुणाका प्रादुर्भाव होता है ।
| उसी सत्यवती से ] उकी सपतिनियों ( 7€]10४-ज१९७ )को दुःख है
कयोक्रि उनके प्रति रजोगुण का प्रादुर्भाव होताहै। उसे न प्राप्त करने बाले
( प्राति कौ इच्छा न रलनेवाले ) वेत्र को उससे मोह ( उदासीनता का भाव )
है क्योकि उस चैत्रके प्रति तमोगुण का प्रादुर्भाव होता है। [ एक ही पदार्थ--
सत्यवती में तीनों गुणों कौ सिद्धि होती है। इसी प्रकार सभी पदार्थोचे
सुख, दुःख ओर मोह की प्राप्ति होती है । ]
एवमन्यदपि घटादिकं ठभ्यमानं सुखं करोति । परैरप-
हियमाणं दुःखाकरोति । उदासीनस्योपेक्षाविषयत्वेनोपतिष्टते ।
उपेक्षाविषयत्वं नाम मोहः । मुह वैचित्ये इत्यस्माद्धातोमोंह-
शब्दनिष्पत्तः । उपेक्षणीयेषु चित्तव्यनुदयात् । तस्मात्सर्वं
भावजातं सुखदुःखमोहार्मकं त्रिगुणप्रधानकारणकमवगम्यते ।
इसी तरह घट आदि दूसरे पदां भौ मिल जाने पर सुख देते है, दूसरों
के द्वाराचुरालिये जाने परदुःखदेते हँ किन्तु तटस्थ व्यक्तिके लिए उक्षा
का विषय बन जाते दहै । उपेक्षाका विषय बन जानाही मोह है। मह-धातु
का अर्थं होता है चित्त से रहित होना {( = चित्त की वृत्तयो का शृन्थवत् हो
जाना )। इसधातुसे ही मोह" शब्द बनता है। उपेक्षणीय वस्तुओं के प्रति
चित्त की वृत्ति उगती ही नहीं । इसलिए सभी पदार्थं सुख, दुःख तथा मोह के
बने हुए टै । वे तीन गुणोंसे बने हए प्रधान ( प्रकृति ) रूपी कारण से उत्पन्न
है यह माल्म होहाहै।
४१ स० सं°
९४२ सर्बदशनसं्रहे-
तथा च श्ेताश्चतरोपनिषदि भूयते--
| > ९, अजामेकां रोहितजचङ्कङष्णां
| बहीः प्रजाः सुजमानां सरूपाः ।
॥ अजो देको जुषमाणोऽलुशेत
| जहात्येनां अक्तमोगामजोऽन्यः ॥
|||. ( श्रे ४।५ ) इति।
॥.3।। (+>
| . अत्र लोहितशचङ्दरष्ण शब्दाः रज्ञकतवग्रकाश्चकत्वावरकतवसः-
|| = ` धभ्यत् रजःसलतमोगुणत्रयप्रतिपादनपराः ।
ढवेताश्वतर उपनिषद् कौ श्रुति भी यही कहती है-"( सल्पाः ) समान रूप
दाली ( बह्वीः ) बहुत सी ( प्रजाः ) संतानो को ( सृजमानाम् ) उत्पन्न करने
चाली ( एकाष् ) एक लोहितशुङ्ककृष्णाम् ) लाल उजली ओर काली ( अजां )
| मूलप्रकृति की ( जुषमारा^ ) सेवा करते हए ( एकः ) एक दूसरा ( अजः )
| अजन्मा पुरुष ( अनुशेते ) पीचे-पीदे चलता है । ( अन्यः ) वहं दूसर। ( अजः)
अजन्मा पुरूष ( एनाम् ) इसका ( मुक्तमोगां ) मग कर लेने पर ( जहाति )
छोड देता दै ।' ( श्वेताश्वतर उपनिषद् ४।५ ) ।
| यहाँ लोहित, गुक्ल तथा ‰~| शरद क्रमकः रजोगण, सत्वगुण ओर तमो-
| गुण-- ईन तीन गुणो का प्रतिपादन करते है क्योकि इन शब्दों से करमशः गने
बालि, प्रकाशित करने वालि तथा ठकं देने वालि धर्मो कौ समानता है ।
विरोष--दवेताश्वतर उपनिषद् को उक्त श्रुति को सांख्य मे बड़ा महच
देते ह बयोकि यहीं साख्य-दक्न के बीज प्राच होते ह । वकरा-बकरी का रूपक
| | देकर अध्याटम-विद्या का उपदेश देते वाले इलोक में सांख्य दर्शन अपने तचो से
|| विद्यमान रै। सूल प्रकृति ओर पुरूष क्रमशः अजा ओर अज है क्योक्रि दोनो
| ॥ अजन्मा ह \ तीन गुणोको ही रहति कहते है । इन गुणों को आलंकारिक
(3. | आषा मे लोहित, शुक्ल ओर कृष्ण कहा दै । लाल रंग साड़ी आदि को रग देता
ह, पदाथ मे सहनेवाला रजोगण मी प्कषकों को रंग देता हे। इस प्रकार लाल
रंग ओर रजोगुण मे रजकत्व धमं साघार्ण ( (०फणण) ) है इसलिए लोहित
से रजोगुण का बोघ होता ह \ उजले पदाथ जसे सूयं आदि प्रकाशक होते है,
उधर सर्वगुण भो प्रकारक हे \ बस, प्रकाशकत्व का धमं समान होने से शुक्ल
शब्द सर्वगुण का बोधक हज! \ काले पदार्थं जैसे मेव आदि सूर्यादि के आवरक
( डेकने एवते } टै , तमोगुण भी अआवरकं हौ हे, अतः इष्ण र्द का अथै
॥ 0 „ ~, +. (च
क "च ऋ ' ` ऋ क अका "क का श वा भति णीत 4 ्
= क नि = =» >» क पि ॥ "7 च+
1
2 भाण न: ।
साख्य-दशेनम् ६४३
` तमोगुण ही है । प्रकृति को जहां लोहितशुक्लकृष्णा" कहा है, वहां उसका अर्थं
त्रिगुणात्मिका" है ।
यह त्रिगुणात्मिका प्रकृति अपने ही अनुरूप ( त्रिगुणात्मक ) बहुत से
पदार्थाकी सृष्टिकरतीहै। पदार्थोको प्रजा कटा गया है । बड़ पुरुष इसी ्
प्रेति की सेवा मे लगा रहता है । प्रकृति के कार्यो को ( बुद्धि, मन आदि को )
अपना हौ समञ्च कर प्रकृति के साथ-साथ संसारमें घूमता रहता है। दूसरा
मुक्तं परुष इस प्रकृति को छोड़ देता है क्योकि वह प्रकृति का पुरुष से पाथंक्य
-जान लेता है । वह मुक्त पुरुष एक बार प्रकृति का भोग कर चूका है इसलिए
प्रकृति उसके लिए 'युक्तभोगा" है । र
इस मंत्र में पूर्वि प्रकृति के लिए हि, उत्तराधं में पुरुष का वर्णन है जिसमें
बद ओर मुक्त दोनों तरह के पुरुषों का वंन हुआ है । दो प्रकार के पुरुष भी
मानना सांख्यो के बहु ुरुषवाद का परिचायक है । वाचस्पति ने अपनी ततव.
कौमुदी का आरंभ इसी मंत्र की संगति बैठाकर किया है ।#
( १०. प्रधान की निरपेक्षता )
नन्वचेतनं प्रधानं चेतनानधिष्ितं महदादिकरय न व्याप्रि-
यते । अतः केनचिच्चेतनेनाधिष्टात्रा भवितव्यम् । तथा च
सार्थं १ ¢ ¢ #
वोथंदशी परमेऽवरः स्वीकतेव्यः स्यादिति चेत्--तदसंगतम् ।
अचेतनस्यापि प्रधानस्य प्रयोजनवशेन प्रवरुपपत्तेः ।
यह शंका होती है कि अचेतन प्रधान { प्रकृति ) किसी चेतन की सहायता
लिए विना महत् आदि कार्यो को उत्पन्न करने काकाम नहीं कर॒ सकती ।
[ बिना चालकके मोटर गाड़ी नहीं दौडजातौ। हृष्ट आधारपरहीतो अट्ट
की सिद्धि होती है । बिना {चितन कर्ताकौ सहायता लिए अचेतन वु ध
मी काम नहीं करेगी । | इसलिए [ प्रकृति के इस व्यापार के पीदे | किसी चेतन
अधिष्ठाता (कर्ता) का रहना जलूरीरहै। रेसी दामे सभी पदार्थौ को देखने
वाले परमेइवर को मानना पडेगा ।
यहं शंका ठीक नहीं है क्थोक्रि यद्यपि प्रधान अचेतन है फिर भी क्रिसी विरेष
प्रयोजन से वह प्रवृत्त होता है [ ओर अपने व्यापार में लगता है ||
* जजामेकां लोहितयुक्लङ्ृष्णां बह्वीः प्रजाः सृजमानां नमामः ।
अजाये तां जुषमाणा भजन्ते जहत्येनां मृक्तमोगां नुमस्तान् ॥
( त° कौ ° मंगल,६१ )
क 1 -> ॐ च ४ ४ भ
नि सा ~
६४४ सर्वदशेनसंम्रहे-
दृ चाचेतनं चेतनानथिष्टितं पुरुषाय प्रवतेमानं यथा
वस्सविवरद्य्थमचेतनं क्षीरं परवर्तते, यथा च जलमचेतनं लोको-
ॐ मो
पकाराय प्रवर्तते, तथा प्रकृतिरचेतनापि पुरुषविमोक्षाय प्रव
तस्यति । तदुक्तम्-
१०. वत्सविवृद्धिनिमित क्षीरस्य यथा प्रवृततिरज्ञस्य ।
पुरुषविमोक्ष निमित्तं तथा प्रवृत्तिः प्रधानस्य ॥
( सां० का० ५७ ) इति ।
यही देखते भी है कि अचेतन पदार्थं चेतन कौ सहायता लिये ही बिना
मनुष्यो की अर्थसिद्धि के लिए प्रवृत्त होता ह । जैसे बच्चे के पालन-पोषण के निए
अचेतन दूध प्रवृत्त है( माके स्तन में चला आता ह) ओौर जेसे अचेतन जल
संसार के उपकार के लिए प्रवृत्त होता है उसी प्रकार प्रकृति अचेतन होने पर
भी पुरुष के मोक्ष के लिये प्रवृत्त होगी, | इसमे आश्चयं क्यों करते है ? | यहं
कहा भी है- जैसे बे के पालन-पोषण के लिए (क प्रयोजन से) अज्ञ
अर्थात् अचेतन दूष की भी प्रवृत्ति ( क्रिया ) देखी जाती हे उसी प्रकार पुरुष की
मुक्ति के लिए प्रधान या प्रकृति कौ प्रवृत्ति होती है ।' ( सां० का० ५७ )।
विरोष-- यहां लोग पू सकते दै करि प्रधान कौ प्रवृत्ति से पुरुष का मोक्ष
कैसे होता? मोक्ष का अथं दहै दुःख की निवृत्ति। दुःख की निवृत्ति तभी दहो
सकती है जव पुरूष भौर प्रकृति के भेद का ज्ञान हो जाय । प्रकृति अत्यन्त
क्ष्म होने के कारण दुगंम है, इसलिए पुरुष को उससे अपने भेदका ज्ञान
प्रात करना टेढी खीर दहै । जव प्रकृति कार्योत्पादन मे लगती है तब उसके
बड़े-बड़े भौतिक कार्थं स्थूल रूप से दिखलाई पडते हि। पुरुष आषानीसे उन
पदार्थौ से अपना भेद कर लेता है। फिर वह उन स्थूल कारयां के कारण सूक्ष्म
तच्वोसे भी भेद कर लेता है । अन्त में सूक्ष्मतम प्रकृति से भो पा्थक्य का ज्ञान
उते हो जाता ह । जैसे मरन्धती नामक सूक्ष्म तारे को दिखलाने के लिए स्थूल
तारों को दिखलाते-दिखलाते ध्यान केन्द्रित हो जाने पर अरुन्धती को दिखला
देते ह वैसे ही पुरुष को भी प्रकृति का ज्ञान होता है ।
( १० क. परमेश्वर प्रवतेक नदीं ह)
यस्तु परमेदवरः करुणया प्रवतेकः” इति परभेश्वरास्तित-
वादिनां डिण्डिमः स गर्भ्ावेण गतः । विकरपालुपपततः । स कि
१ स्रोत वीकिनतातिककल मे
व क अ" शा (जीरः ~ दि ण
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सांख्य-दशेनम् ६४५
सृष्टः प्राकप्रवतेते सषटयुत्तरकालं वा ? आये शरीराद्यभावेन
दुःखायुत्पत्तो जीवानां दुःखप्रदाणेच्छानुपपत्तिः । दहितीये परस्प-
राश्रयप्रसङ्खः । करुणया घुष्टः सृष्टया च कारुण्यमिति ।
परमेश्वर की सत्ता माननेवाले लोग ( नैयायिक आदि ) जौ यह हिढोरा
पीटते द कि परमेदवर दथाके कारण संसार कौ [ रचना करने मे] प्रवृत्त होता
है, दहतो गरभ॑पातके समान नष्टहो गया । कारणयहटै कि इष दशामें
इस पर उठाये गये विकल्पों का खंडन हो जाता है । क्या वह सृष्टि क पहले प्रवृत्त
होता हैया सृष्टि के बाद ? पहला विकल्प इसलिए ठीक नहीं कि शरीर आदि
के अभाव मे दुःख की उत्पत्ति नहीं होगी, [दुःख शरीरमें हौ होता है, जीवो
काउससमय शरीरदही नहींदहै] अतः जीवोंमें दुःख को हटनेकी इच्छा
( करुणा ) नहीं मानी जा सकती [ ओौर केवल्य या मोक्ष नहीं होगा । | यदि
दसरा विकल्प मानते हैँ कि सृष्टि के बाद कर्णा से ईश्वर प्रवृत्त होताटहै तब तो
अन्योन्याश्रयदोष ही हो जायगा । करुणा से सृष्टि होती है (आपका अपना
सिद्धान्त ) ओौर सृष्टि होने पर करुणा होती है ( प्रसंगकाआ जाना )।
( १९. प्रकृति-पुरुष का संबन्ध )
तस्मादचेतनास्यापि चेतनानधिष्ठितस्य प्रधानस्य महदा-
दिरूपेण परिणामः पुरुषाथंप्रयुक्तः प्रधान पुरुपसंयोगनिमित्तः ।
यथा निव्योपारस्याप्ययस्कान्तस्य संनिधानेन व्यापारस्तथा
निव्यापारस्य पुरुषस्य संनिधानेन प्रधानब्यापारो युज्यते ।
प्रकृति पुरुपसंबन्धश्च पडङ्ग्वन्धवत् परस्परपेक्षानिवन्धनः ।
प्रकृतिरहिं भोग्यतया भोक्तारं पुरुषमपेक्षते । पुरुषोऽपि भेद ग्रहाद्
बद्विच्छायापच्या तद्रतं दुःखत्रयं बारयमाणः केवस्यमपेश्षते ।
तटप्रद्रृेतिपुरुषनिवन्धनं न च तदन्तरेण युक्तमिति कैवस्याथं
पुरुषः प्रधानमपेक्षते ।
इसलिए अचेतन होने पर भी तथा किसी चेतन सत्ता का आश्रयनं लेने
पर भी प्रधान का परिणाम ( विक्रार ) महत् आदि कार्योके रूपमे होता है
जो पर्ष के लामके लिए उपयोगी एवं प्रधान ओौर पुरुष के संयोग के लिए
हीहोताहै। जेसे निष्क्रिय चुम्बकके भी संपकंमे आनेसे लोहिमें क्रिया
~= <~ 5.3
सा
3 इर ति कि न क ~ =
॥
॥
|, +
ह १॥
7
६४६ सवेदशेन संभ्रदे-
उत्पन्न होती है उसी प्रकार निष्क्रिय परुष के संपकं से प्रधान में क्रिया उत्पन्न
, होना युक्तियुक्त है ।
्रकृति-पुरुष का संबन्ध अंधे ओौर लंगड़े की तरह परस्पर अपक्षा पर
निर्भर करता है । च्ंकि प्रकृति स्वयं भोग्य है इसलिए भोक्ता पुरुष की अपेक्षा
रखती है। पुरुष भी, भेद का ज्ञान नहीं रहने से तथा [ अपने ऊपर | बरद्धि
का प्रतिबिम्ब पड़ जाने से, बुद्धिगत तीनों दुःखोंको हटति हुए मोक्ष चाहता
है। [ बुद्धि प्रकृति का एक परिणाम है किन्तु जब इसको छाया पुरुष पर १३
जाती है तब उससे अपना अंतर न जान कर वह पुरुष बुद्धि में उत्पन्न सुख
दुःख आदि को अपना सुख, दुःख ही समन्नने लगता है । अतः उनके निवारण
के लिए उसे मोक्ष की अपेक्षा रहती है । ] यह मोक्ष ( केवल्य } प्रकृति ओौर
पुरुष [ के भेद-ज्ञान | पर निर्भर करता है, उसके बिना यह नहीं हौ सकता
इसलिए कैवल्य की प्राप्ति के लिए पुरुष [ भेदज्ञान के लिए भेद के प्रतियोगी |
प्रधान की अपेक्षा रखता है ।
यथा खलु कौचित्पङ्ग्बन्धौ पथि सार्थेन गच्छन्तो दवङ-
तादुपप्लवात्परिव्यक्तसार्थौ मन्दमन्दमितस्ततः परिभ्रमन्तो भया-
कलौ देववश्चात्संयोगमुपगच्छेताम् । तत्र चान्धेन पङ्कः स्कन्ध-
मारोपितः । ततः पड्गुदरितेन मार्गेणान्धः समीहितं स्थानं
प्राप्नोति, पड्गुरपि स्कन्धाधिरूटः । तथा परस्परापेक्षप्रधान-
पुरुषनिबन्धनः सगः । यथोक्तम्
११. पुरुषस्य दशनां कैवल्यार्थं तथा प्रधानस्य ।
पङ्ग्बन्धवदुभयोरपि संबन्धस्तत्कृतः समः ॥
( सां० का० २१) इति।
जैसे कोई अंधा ओौर लंगड़ा राह में किसी दल के साथजारहेये। किसो
दैवी उपद्रवसे दलसे उनका साथ चट गया 1 वे बेचारे डर के मारे इधर-
उधर धूम रहे थे कि दैवयोग से उनका मिलन आपस मे हीहो गया। अब
अन्धे ने लैँगडे को अपने कन्धे पर चढ़ा लिया । तब लंगडे के दिखलाये रास्ते
पर चलते-चलते अन्धा अपने अभीष्ट स्थान पर पहुंच गया । लंगड़ा भी कन्घे
पर चढे-ही-चढे [ आसानी से वहाँ रुच गया |।
उसी प्रकार परस्पर अपेक्षा रखने वाले प्रधान मौर पुरुष के कारण सृष्ट
( सगं ) चलती है । जैखा कि कहा है--[ प्रवान अपने कर्मा को | दिखलाने के
सांख्य-दशनम् ६४७
लिए पुरुष की अपेक्षा रखता है मौर उसी तरह [ पुरुष अपने ] कैवल्य या
मोक्ष की प्राति के लिए प्रधान की अपेक्षा करता है--इस तरह दोनों का संबन्ध
पगु भौर अंधके समान है जिससे सृष्टि उत्पन्न होती है ।' [ पगु को गतिशक्ति
नहीं है वह॒ अपने स्थान पर जाने के लिए गतिमान् व्यक्ति की अपेक्षा रखता
है तो अंधा मिलता है। उधर अंधा रष्टिशक्तिसे रहितै तो उसे दृष्टिमान्
लगड की सहायता मिलती है। दोनों का परस्पर संयोग हो जाताहै। यहाँ
पुरुष निष्क्रिय होने के कारणा पंगु के समान दहै, प्रधान अचेतन होने के कारणा
अंघेकीतरहहि। लंगडेके संबन्धसे अंधा मार्गं मे चल षड़तादहै, वेसेही
पुरुष के संबन्ध से प्रधान प्रवृत्त होता है! अंषेके संबन्ध से पंगु अभीष्ट
स्थान पर पहचता है वेसे ही प्रधान के संबन्ध से पुरूष विवेकज्ञान के द्वारा मोक्ष
पातादहै। | (सां° का० २१)।
विक्ोष- सांख्य के प्रकृति-पुरुष-संबन्ध मे जो अंधा-लंगड़ा की उपमा दी
गई है उसकी घोर आलोचना हृरद है। प्रायः लोगोँने संकेत कियाद किं अधा
ओौर लंगड़ा दोनोंही चेतन है आपसमें साथ चलने के लिए समन्ता कर
सकते है। यह दूसरी बात है कि वे एक-एक इन्द्रिय से रहित है । प्रकृति भौर
पुरुष मे कोई धमं समान नहीं, एक जड है, दुसरा चेतन । दोनों मे समन्ञौता वैसे
हो सकता है ? |
( १२. प्रकृति की निचत्ति- प्रलय )
नच पुरुषाथेनिबन्धना भवतु प्रकृतेः प्रवृत्तिः । निष्त्तिस्तु
कथमुपपद्यत इति चेत्-उच्यते । यथा मत्रा दृष्टदोषा स्वैरिणी
पुनभेतारं नोवैति, यथा वा कृतप्रयोजना नतकी निवतेते तथा
प्रकरतिरपि । यथोक्तम्-
१२. रङ्गस्य दशंपित्वा निवतते नतकी यथा नृत्यात् ।
पुरुषस्य तथात्मानं प्रकार्य षिनिवतेते प्रकृतिः ॥
( सां० का० ५९ ) इति ।
एतच्च निरीश्वरसां ख्यज्ञाद्धप्रवतेककपिलादिमतालुसारिणां
मतमुपन्यस्तम् ॥ |
इति श्रीमत्सायणमाधवीये सर्वैदशेनसंग्रहे सां ख्यदशेनम् ॥
न
६४८ सबवेदशनसं्रहे-
अ = 7 1 ~
` अब शंका होती है कि प्रधान की प्रवृत्ति भलेहीपुरुषके कामकेलिए हो,
पर उसकी निवृत्ति कैसे होगी ? इसका उत्तर है कि जेषे पति के दवारा दोष देख
लिये जने पर स्वेच्छाचारिणौ खरी फिर अपने पति के पास लौटकर नहीं
आती अथवा जैसे अपना काम समातत कर लेने पर नतकी चलो जातीहैवेसेही
प्रकृति भी [ पुरूष को अपना कायंसमूह या परिणाम दिख।कर निवृत्त हो जाती
है।] नैसा कहा गथा है--'दशंक-मंडली को [ नृत्य | दिखाकर जेसे कोई
नर्तकी अपने नृत्यसे अलगहोजातीदहैवेसे ही पुरुष को अपना स्वरूप ( स्थूल
परिणाम ) दिखला कर प्रकृति भी निवृत्त हो जाती है।' (सां० का० ५९॥।
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निरीश्वर सांख्यशाखर के प्रवतंक कपिर अ।दि आचार्पा का मत माननेवाले
लोगों का यह सिद्धान्त यहां उपस्थित किया गया है ।
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इस प्रकार श्रीसायणामाधव के सवंदर्नसंग्रह में सांख्य द्यन समाप्त हुजा ।
इति बालकविनोमा शङ्करेण रचितायां सवंद्नसं ग्रहस्य प्रकाशाद्यायां
व्याख्यायां सांस्यदश्ंनमवस्षितप् ॥\
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( १५ ) पातञ्जर-दशेनम्
चित्तस्य व्ृत्तिमनुरुभ्य सुसाघनाभि-
जीवः समाधिमधिगच्छति यन्मतेन ।
योगास्तथा वसुमिता अधियोगशाख्ं
येनाश्रिता मम पतञ्जलये नमोऽस्मै ॥ - ऋषिः
( १. योगसूत्र की विषय-वस्तु )
सांप्रतं सेश्वरसांख्यप्रवतेकपतञ्जलिप्रसृतिपुनिमतमनवर्तमः-
नानां सतगुपन्यस्यते । तत्र सांख्यश्रबचनापरनामधेयं योगश्चाखं
पतञ्जरिप्रणीतं पादचतुष्टयात्मकम् । तत्र प्रथमे पदे (अथ
योगाचुल्ञासनम्' ( यो० घ १।१ ) इति योगशाखभरतिज्ञा
विधाय 'योगधित्तवृत्तिनिरोधः' ( यो० चू १।२ ) इत्यादिना
योगलक्षणमभिधाय समाधि सप्रपञ्चं निरदिक्षद्भगवान्पतञ्जलिः ।
अब सेदवर साख्य-दरांन के प्रवतक पतंजलि आदि (= हिरण्यगभे, याज्ञ-
वल्वय आदि ) मुनियोंके मतका अनुसरण करने वालेलोगोंके सिद्धान्तोंकी
व्याख्या को जाती दहै । [ कपिल के द्वारा प्रतिपादित सांख्य-दशन को निरीदवर-
सस्य कहा गया है क्योकि वे अपने दशन मे ईदवर नामक कोई पदार्थं स्वीकार
नहीं करते । योगशा मे सभी विषयों पर सांख्य से सहमत होते हृए भी ईड्वर
के विषय में विमति है। ये लोग पुरुषविशेष के रूपमे ईदवर को भी स्वीकार
करते है । इसीलिए सेदवर सांख्य के नाम से यह दर्शन प्रसिद्धटहै। सांख्य ओर
योग अन्य पक्षों पर सहमत होने से समानतंत्र भी कहलाते हवे एक दूसरे
के पुरक हैं । सिद्धान्तो की विवेचना सांख्यमेंहूर्ईहै जव करि व्यावहारिक पक्ष
का विचार योगमें हा है । {पतंजलि ही इसके उपलब्ध प्रवतैक माने जाते हैँ
क्योकि इनका योगसूत्र बहुत प्रसिद्ध है। इनके पूवं भीकृछयोगीहो गयेथे
किन्तु उनके ग्रंथोंका प्रचारन होनेसे माधवाचायं उन श्रभृति' शब्दके
अंतगंत रखते हें । |
तो, योगासन मे, जिसका दूसरा नाम सांख्यप्रवचन' भी है तथा जिसकी
रचना पतंजलि नेकीदहै, चार पाद (समाधि, साधन, विभूति, कैवल्य ) है ।
६५० सवेदशनसं्रहे-
उनमें प्रथम पाद में अथ योगानुशासनम्" ( अव योग का विर्डेषण होगा, यो
सू° १।१ )-इस सूत्रम योगश्ाख्र की प्रतिज्ञा देकर भगवान् पतंजलिने
योगरिचत्तवृत्तिनिरोधः ' ( चित्त की वृत्तियों को रोकदेनाही योगदहै-यो०
सू० १।२)- इस सूत्रके दारायोग का लक्षण बतला कर, विस्तारपवंक
समाधि ( (0प्ल्लावप्ठः ) का निदंश कियादहै। [ अथ' शब्द स्वरूप
से तो मंगल-बोधक है, किन्तु अथं है उखका अधिकार अर्थात् आरंभ ।
अनुशासन = विवेचना करके बोध कराना । समाधि = सम्यक् रूप से आधान
( चित्त की अवस्थिति )।* योगज्लाख्रमें समाधि के दोभेद दव्िगयेर्है-
संप्रज्ञात ओर असंप्रज्ञात । संशय, विपर्ययादि से पृथक् होकर ( खम् ) अच्छी
तरह (प्र) ध्येयका स्वरूप जिसमें ज्ञातहो वही संप्रज्ञात है। असंप्रज्ञात
समाधिमें ध्यान करने वाटे तथा ध्येयं ईदवर दोनों का भेद मिट जाता है । |
द्वितीये तपःस्वाध्यायेश्वर्रणिधानानि क्रियायोगः' (पात°
यो० घू० २।१ ) इत्यादिना व्युत्थितचित्तस्य क्रियायोगं यमा-
दीनि च पश्च बदहिरङ्खानि साधनानि । ठतीये “देशवन्धधित्तस्य
धारण।' ( पत ० यो० प्र० ३।१ ) इत्यादिना धरणध्यानस-
माधित्रेयमन्तरङ् संयमयदवाच्यं तदवान्तरफलं षिभूतिजातम् ।
दितीय पाद मे--^तप, स्वध्याय ओर ईदइवर-प्रणिधान ( ईदवर में सारे
कामों को अपण करदेना) ही क्रियायोग दहै (यो सू २।१)})-इस प्रकार
के सूत्रोंसे, जिस व्यक्ति का चित्त अभी समाधियुक्तं नहीं हुआ दहै, उसके किए
व्यावहारिक योग अर्थात् यम आदि पाच बहिरंग साधनों का निदेश कियादहै।
तृतीय पाद में चित्त को एक स्थानमेंर्बाधदेनाही धारणा है' (यो सु° ३।१)
इत्यादि सूत्रोंसे धारणा, ध्यान ओर समाधि, इन तीन अंतरंग साधनों का
[ निदेश क्रिया है| जिन्हं समष्टि-ल्प मे संयमः भी कहते है तथा इनके जो
गौण फल विभिन्न विभूतियों ( अतिमानव शक्तियों) केरूपमें प्राप्त होते दै,
उनका निदेश भी किया गया दहै) |
विरोष-- क्रियात्मक ( व्यावहारिक) योगमेये तीन चीजं आती रै--
तप, स्वाध्याय ओर ईदवर का प्रणिधान 1 इन्द हम योगका साधन कट्
सक्ते हँ । तप के अन्तगंत ब्रह्मचर्यं, गुरुसेवा, सत्यभाषण, मौनग्रहण, अपने
# तुलनीय--इमं गुणसमाहा रमनात्मत्वेन पयतः ।
अन्तःशीतलता यस्य समाधिरिति कथ्यते ॥ ( योर वा० )
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पातञ्जल-दशेनम् ६५१
आश्रमधमं का पालन, दनो का सहन, भिताहार आदि व्रत आते हैँ । इनके
। ध ८: पालन में शरीर को सुखाना नहीं है, अन्यथा शरीर के क्षीणदहोजनेसेयोगमें
व्याघात पडेगा 1 स्वाध्याय का अथं है प्रणव, श्रीसूक्त, रदरसुक्त, ब्रह्मविदा
आदिका पारायण करना। फलकी कामना न करते हूए, कृत कर्मोको
परम गरु ईदवर को सौँप देना देश्वर-प्रणिधान है । इस क्रियायोग से समाधि
की भावना तथा क्लेशो (अविद्या, अस्मिता, राग, देष, अभिनिवेश) का
दुव॑लीकरण होता है! इन क्रियायोगो का वणन द्वितीयपाद के प्रथम सूत्रसे
आरंभे करके २ष्वें सूत्र तक हुआदहै। शेष सूत्रोमे अष्टाग योग के पाँच
अंगो-यम, नियम, आसन, प्राणायाम ओर प्रत्याहार--का वणेनदहै। ये
पाच अंग योग ( चित्तवृत्ति-निरोध ) के बाह्य साधन है। इनका वर्णन पथक्-
पृथक् कर ।
( १) यम-अदहिसा, सत्य, अस्तेय, ब्रह्मचयं ओर अपरिग्रह को यम
कहते । ये सावभौम त्रत दहै तथा इन्टँं जाति, देश, काल ओर आचार
( परपरा ) की सीमामे नहीं बांधा जा सकता । प्राणी मात्र को, कटींभी, कभी
भी, किसीकेकिएभीमें नहीं मारूगा-यही सावभौम व्रत हज । प्राण-वियोग
केक्िएजो व्यापार कर, वह हिसा है ओर इसके विशु अहिंसा होती है।
वाणी ओौर मनसे वस्तुका यथार्थं निरूपण करना सत्य है । दूसरों के द्रव्यो
का हरण नहीं करना अस्तेय है । जननेन्दरिय का नियंत्रण करना व्रह्मचयं दै ।
भोग के साधनके रूपमे जो वस्तु हों उन्ट स्वीकार न करना अपरिग्रह दै ।
( २ ) नियम- रोच, सन्तोष, तप, स्वाध्याय ओौर ईहवर का प्रणिधान
करना ( कर्मापिंण करना )-- ये पांच नियम हैँ । पवित्र रहना शौच है । शरीर
या मन से प्रवित्र रहा जा सकता है । मिरी जल आदिसे शरीर की बाह्य शुदि
होगी तथा पंचगव्य आदि खाने से आन्तरिक शुद्धि! अच्छी-अच्छी भावना
करके राग, द्वेषादि मानसिक मलों कोधो देना मानस गुचितादहै। तृष्णान
होना संतोष है । दूसरे नियमो का वणेन पहले ही कर चुके हैँ ।
(३) आसन-जिस रूप में साधक स्थिरता से (देरतक) तथा
सुखपूर्वेक बेठ सके, वही आसन है । पद्मासन, सिद्धासन आदि प्रसिद्ध है जिनमें
हाथ-पैर आदि शारीरिक अवयवो को एकं विक्ञेष प्रकार से रखा जाता है।
आसन स्थिर हो जाने पर शीत, उष्ण आदि से पीडा नहीं होती है ।
(६) प्राणायाम आसन स्थिर हो जाने पर इवास ( नासिका के छेदों
से वायुका अन्दर जाना) ओर प्रसवा (वायुका बाहर आना), दोनोंकी
गति का निरोध कर देना प्राणायाम है। वायु जहाँहै वहीं रह जाय जिससे
६५२ सवेदशनसंम्रदे-
चित्त भी स्थिर हो जाय । सा चित्त शब्दादि विषयों के साथ संबद्ध नहींहो
सकता । परिणाम यह होगा कि श्चोत्रादि इन्दं भी विषयों से विमुख
हो जायेगी ।
( ५ ) प्रत्याहार- इन्द्रियों का अपने विषयों से विमुख होकर चित्तके
स्वरूप का अनुकरण करना प्रत्याहार कहकलाता है । इन्द्रियों को रोकने वाला
चित्त ही है । चित्तके रक जानेसेये इन्दियां भी निश दहो जाती ह ।
ये पचो उपाय योग के बहिरंग साधन हँ क्योकि चित्त को स्थिर करने कै
बाद क्रमशः समाधि तक पहुंचा जा सकता है । धारणा, ध्यान ओौर समाधि
चकि समाधि के स्वरूप की निष्पत्ति करते हैँ अतः अंतरंग साधन कहलाते है
जिनका वर्णन तृतीय पाद ( विभूतिपाद) में हुदहै। समाधिकोही योग
कहते हँ । यह योग-रूपी वृक्ष चित्तरूपी वेत मे यम-नियम के द्वारा बीज प्राप्त
करता है, आसन-प्राणायाम से अंकररित होता है, प्रत्याहार के द्वारा इसमें फूल
लगते है ओर अंतमे धारणा आदि अंतरंग साधनोंके द्वारा फलवान् होता
है । इन तीन साधनों का वणन भी करं ।
( ६ ) धारणा-नाभिचक्र, हृदय, नासिका आदि स्थानों में चित्तको
एकाग्र ( @ग!(ला) १५४९ ) करलेना धारणा है। देश कोई भी हो--मूति
हो या अपना ही शरीर, किन्तु चित्त की एकाग्रता होनी चाहिए ।
( ७ ) ध्यान--धारणामें किसी देशमे चित्तकी वृत्ति ( प्रत्यय ) एक
स्थान पर स्थिर की जाती है--अवब वह वृत्ति इस प्रकारसे समान प्रवाह के
दारा लगातार उगती रहे कि दूसरी कोई वृत्ति बीचमें न आये, तब उसे ध्यान
कहते हैँ ( तत्र प्रत्ययेकतानता ध्यानम् ३।२ ) ।
( = ) समाधि-यह ध्यान जब केवल ध्येय वस्तु के आकारमेहौ जाय,
न ध्यान रहे न ध्याता, तब उसे समाधि कहते हैँ। ध्यानावस्था मे ध्यान
क्रिया, ध्यान करने वाे तथा ध्येय वस्तु की भी प्रतीति होती टै किन्तु अभ्यास
बढ़ाने पर तीनों जब एकाकार होकर ध्येय के स्वरूपमें ही प्रतीत होने ल्ग तब
उस अवस्था का नाम समाधिदहो जाता है ।
इन तीनों अन्तर ङ्ख साधनों का सम्मिलित नाम संयम है जिसके दो फ
है- मुख्य फर योग ही दै, किन्तु गौण फल है नाना प्रकार की विभूतियां जैसे--
भूत-भविष्यत् की बातों का ज्ञान, पञ्ु-पक्षी आदि की बोली समन्नने की शक्ति,
दूसरे जन्म की बातोंकाज्ञान, दूसरेके मनकी वातोंको जानने की शक्ति,
अन्तर्धान हो जाने की शक्ति आदि। इन सबों का वर्णन विभूतिपादें
किया गाया है।
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पातञ्जल-दशनम् ६५३
चतुर्थे जन्मोषधिमन्त्रतपःसमाधिजाः सिद्धयः! (पात यो०
घर ४।१ ) इत्यादिना सिद्विपश्चकग्रपश्चनपुरस्सरं परमं प्रयोजनं
र, श्चरविरतिता म्राचीनान्येव 1
केवस्यम् । प्रधानादीनि पञ्चर्विंशतितस्वानि प्राचीनान्येव संम-
तानि । पडर्वशस्तु परमेश्वरः क्ठेशाकमं परिपाकाशयेरपरामृष्टः
परुषः स्वेच्छया निमोणकायमधिष्ठाय लौकिक्ैदिकसंग्रदायप्रब-
तकः संसाराङ्ारे तप्यमानानां प्राणभृतामनुग्राहकशच ।
चतुथं पाद मे -- “जन्म, ओषधि, मन्त्र, तप ओर समाधि से उत्पन्न होने
वाली सिद्धियाँ है" (यो० सु० ४।१ ) इत्यादि सूत्रोंके द्वारा पाँच प्रकार की
सिद्धियों का विस्तार करते हए परम लक्ष्य कैवल्य का निर्देश पतंजलि ने किया
है । [ साधनकेभेदसे सिद्धियोंके पाँच भेद क्यिगयेदहैँ। जो सिद्धियां जन्म
से ही प्राप्त रहती हँ उन्हे जन्मज कहते है जेसे पक्षियों के उडने की सिद्धिया
देवताओं की सिद्धि। कुछ सिद्धि्यां ओौषधियों के सेवनसे प्राप्त होती हैँ
जेसे पारा आदि का सेवन करके शरीर में विलक्षण परिणाम उत्पन्न करना ।
मंत्रसेहोने वारी सिद्धियों में इष्टदेव की ` प्राप्ति प्रधानदहै। तपके प्रभाव से
भो अशुद्धि दुर होकर शरीर ओौर इन्द्रियों की सिद्धि होती है। समाधि से उत्पन्न `
होने वारी सिद्धियों का वणन विभूतियों के रूपमे निर्दि है । अणिमादि, अजरत्व,
अमरत्व, आकाशगमन आदि मृख्य सिद्धियां हैँ । उक्त अष्ठांग योगसे योगकी
प्राप्ति होती है, तब प्रकृतिपुरुष का भेद साक्षात्कारके रूपमे मिलता है ।
पुरुष का ज्ञान हो जाने पर मोक्षकी प्राप्ति होतीटहै-मोक्षका अथंटहै दुःख
का आत्यन्तिकं विना । इन सवों का निरूपण चतुथं पाद मेँ हुञा है । |
प्रधान आदि पचीस तत्व तो पहले-जेसे ( सांख्य-दशंन के अनुसार ) ही
यहां भी स्वीकृत हैँ । हा, छब्बीसर्वां तत्तव परमेदवर है नो क्टेश ( अविद्यादि )
कमं, विपाक तथा आशय से अस्पृष्ट ( अद्कूता ) रहने वाला पुरूष ही है (द°
यो० सु° १।२४ }। अपनी इच्छा से ही वह शरीरोंका निर्माण करके छौकिक
ओर वेदिक संप्रदायो का प्रवतंन करते हृए, संसार की दावामनि में जलने वाले
जीवो पर अनुग्रह भी करता दटै। | सांख्य-दर्शन के सारे सिद्धान्तो को मानने
पर भी पातंजल-दशंन की एक विशेषता है कि इसमे ईदवर की सत्ता मानी
जाती है । ईहवर का लक्षण पतंजलि इस रूप में देते ह क्लेरक्मं विपाकाशयै र-
परामृष्टः पुरुषविशेष ईइव र" ( १।२४ ) 1 अविद्यया आदि वलो का वर्णन आगे
करगे । ये चित्त में रहकर त्रिगुणात्मक संसार को दृढ करते हुए परिताप उत्पन्न
करते हैँ जिसके कारण वलेश॒ कहलाते हँ । निषिद्ध ओौर विहित दो प्रकार के
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६५४ सबदशनसंम्रहे-
कमं होते है जनह दूरे शब्दों मे धमं ओर अधमं कहते है । कमं के फल विपाक
कटे जाते है जो जन्म, आयु ओर भोगके रूपमे तीन ह । जो मन मे अवस्थित
रहते हँ ( आज्ञेरते ) वे आशय अ्थातु संस्कार है । इन सब मानवीय विशेषताओं
ते ईदवर तीनों कालं मे अद्रूता रहता है । सांख्य-दशंन के जीवों ( पुरुषो ) को
ये दोष व्याप्त करज्ते है किन्तु ई्टवर इनसे परे है। ईश्वर अपनी इच्छासे
एक या एक साथ ही अनेक रीर वना सकता है--इसे निमाणकाय कहते
ह । इदवर संप्रदाय का प्रवतंन तथा जीवों पर अनुग्रह करता है- ये दोनो छिग
ईदवर का अनुमान कराने में सहायक होते हँ अर्थात् ईश्वर अनूमेयभीदटै।
( २. मोश्च के विषय में रोका ओर उसका समाधान )
ननु पुष्करपलाश्चवन्िरपस्य तस्य॒तप्यभावः कथमुपपद्यते
येन परमेशवरोऽलुग्राहकतया कक्षक्रियत इति चेत्-उच्यते ।
तापकस्य रजसः समेव तप्यं बुद्धयात्मना परिणतमिति सचे
परितप्यमाने तदारोपवशेन तदभेदावगाहिपुरूषोऽपि तप्यत
इत्युच्यते तदुक्तमाचर्येः--
१. सखं तप्यं बुद्विभविन वृत्तं
भावा ये वा राजसास्तापकास्ते ।
तप्यामेदग्रादिणी तामसौ या
वृत्तिस्तस्यां तप्य इत्युक्तं आत्मा ॥ इति ।
अब प्रन हो सकता है कि कमलके पत्तेकी तरह निरुप ( किसी सेभी
असंबद्ध ) जीव ताप का विषय ( तप्य ) कैसे बन सकता है जिसके चलते उसपर
अनुग्रह करने के किए ( उसे मुक्त करने के किए ) आपको परमेदव र की सत्ता
माननी पडती है ? उसका उत्तर दिया जाता है-- जो स्वगुण बृद्धिके रूपमे
परिणत ( विकसित ) होता दहै वही तप्त किया जाता है ओर उसे तप्त करने
वाला है रजोगुण । इस प्रकार सत्त्व के परितप्त होने पर, उसी ( बुद्धितत्तव )
पर अपना आरोपण करके, उसके साथ अभेद संबन्ध समञ्चन वाला पुरुष भी
संतप्त हो रहा है, एेखा रोग कहते हैँ । | आशय यहं है--जीव स्वयंनतो
तप्त होता है न दूसरे को तप्त ही करता है । कितु बुद्धिगत सत्त्वांश तप्त होता
है ओर रजोगण का अंश तप्त करता है। एक तप्य हे दूसरा तापकं । चकि
बुद्धि प्रधान का परिणाम है तथा प्रधान में तीन गुण ह अतः वे तीनों गुण बुद्धि
के रूपमे भी परिणत होते है । जीव स्वयं तो तप्य नहीं हो सकता क्योकि वह्
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ख 4 + भव १5 9/७ ।
पातञ्जल-दशेनम् ६५५
क्रिया से रहित है तथा परिणाम भी उसमें नहीं होता । अतः क्रिया से उत्पन्न
फलो के आश्रय-- कमं की संभावना उसमें है टी नहीं । बुद्धि के संतप्त होने पर
मूढ रोग समञ्षते हैँ कि प्रतिविम्बके रूपमे उसी की तरह का पुरुष भी अनुतप्त
हो रहा दै 1 यद्यपि वुद्धि ओर जीवमें भेद है किन्तुवेवबुद्धिके धर्मो को अपने
ऊपर आरोपित करदेतेैँ। विद्रानोंकौ टृष्टिसे भी पुरुष पर भोक्ता होने कां
प्रतिबिम्ब तो पडताहीदहै। अतः वृद्धिगतदुःखको ही हटाने के लिए प्रयत्न
किया जाता है। |
ेसा ही आचार्यो ने कहा है-- बुद्धि के रूप मे परिणत होने वाला ( प्रधान
के विकार के रूपमे स्थित बुद्धि) सत्त्व ही तप्यहोतादहै। जो पदार्थं रजोगण
से संबद्ध वेही तापक हैँ। तप्य ( अर्थात् बुद्धिगत स्वांश ) के साथ अभेद
ग्रहण करने वाली जो तामसी ( अज्ञानमूलक ) मनोवृत्ति है उसी पर [ अभेदका
आरोपण करने से| आत्मा अर्थात् जीव ही तप्य है, एेसा प्रयोग किया जाता है ।'
| सारांश यह टै किबुद्धिके गुणों के तप्य, तापक होनेसे उन गृणोंका जीव
पर आरोप करके कहा जाता है कि जीव ही संतप्त हो रहाटहै।]
पश्चरिखेनप्युक्तम्--अपरिणामिनी हि भोक्तृशषक्तिरपरति-
संक्रमा च परिणामिन्यर्थे प्रतिसंक्रान्तेव तद्डृत्तिमनुपततीति ।
भोक्तशक्तिरिति चिच्छक्तिरुच्यते । सा चात्मैव । परिणाभिन्यर्थे
युद्धितचे प्रतिसंक्रान्तेव प्रतिबिम्बितेव तद्वृत्तिमनुपततीति बुद्धौ
परतििम्बिता सा चिच्छक्तिबुद्विच्छायापस्या वुद्धिबृत्यनुकार-
वतीति भावः ।
पंचशिखाचा्यं ने भी कहा है-- “भोक्ता की शक्ति ( वृद्धि-शक्ति धारण करने
वाला पुरूष } स्वयं परिणत या विकृत नहीं हो सकती, इसका प्रतिसंक्रमण्
( विकार उत्पन्न करने के किए दूसरी वस्तु से तयोग ) भी नहीं हो सकता--
फिर भी परिणत हो सकने वाली वस्तुओं पर मानों प्रतिबिम्बित होती है तथा
उसकी वृत्तियों ( धर्मा ) का अनुसरण भी करती है ।' (योऽ सू° २।२० पर
व्यास भाष्य में उद्धृत) । भोक्ता की शक्ति को ही चित् शक्ति कतै है । वह ओर
कोई नही, आत्मा ही है । आत्मा ही परिणत होने वाखी वस्तु-वुद्धितत््व-पर
प्रतिसंक्रान्त अर्थात् प्रतिबिम्बित-सी होती है तथा उसकी वृत्तियो का अनुसरण भी
करती है । इस प्रकार बृद्धि म वह चिच्छक्ति ( आत्मा ) प्रतिबिम्बित होती है,
उस पर् बुद्धि का प्रतिबिम्ब पड़ता है तथा बुद्धिकी वृत्तियों का अनुकरण भी वह
करने ख्गतीदहै [ जो धमं बुद्धि के होते हैँ उन आत्मा अपने धमं समञ्चने कगती
६५६ सवेदशेनसंग्रहे-
है । यहीकारणदहै कि बुद्धि का सत्त्वांश तप्त होता है ओौर आत्मा अपने को
तप्त समञ्चती है । रजोगुणांश तप्त करता है ओर आत्मां अपने को ही तापक
समञ्चती है। तमोगुण तो यह नाटक ही दिखाता दहै। बुद्धि ओर आत्माका
अभेद हो जने से आत्मा को ज्ञानी कहने कगते है ओौर बुद्धि को चेतन कटने
लगते हैँ । पर वस्तुतः दोनो पृथक् हैं ।
तथा शुद्धोऽपि पुरुषः प्रत्ययं बोद्रमनुपश्यति, तमनुपर्यन्न-
तदात्मापि तदात्मक इव प्रतिभासत इति । इत्थं तप्यमानस्य
च 0 गिक ~ ^~
पुरुषस्यादर-नरन्तये-दीधेकालानुबन्धि-यम-नियमादयष्रङ्गयागानु-
ए्रानेन परमेश्वरप्रणिधानेन च सखपुरुषान्यताख्यातावनुपणवायां
जातायामविद्यादयः पञ्च क्लेशाः समूलकाषं कषिता भवन्ति ।
ङशलाङ्शलाथ्च कमाशयाः समूलघातं इताः भवन्ति । ततश्च
(> अ ति. ॥ केवस्यमिति
पुरुषस्य निरयस्य केवल्येनावस्थानं केवस्यमिति सिद्धम् ।
इस तरह, यद्यपि पुरुष ( आत्मा ) शुद्ध या निकेप है, किन्तु बुद्धिगत
( विषयों का आकार ग्रहण करने के रूप में ) प्रत्ययो ( विचारों, 1५९४8 ) का
अनुकरण करता है । उन विचारोंका अनुकरण करते हुए, यद्यपि उसके
स्वरूप का नहीं है ( = बुद्धि के सरूप नहीं दै) तथापि बुद्धि के रूपमे ही प्रतिभासितं
होता है। जो पुरुष इस ल्पमें संतप्तहो रहा है उसे, आदर (तप, श्रद्धा
आदि ) के साथ, निरन्तर दीघंकाल तक चलने वाके यम-नियमादि अष्टांग
योग का अनुष्ठान करने से तथा परमेश्वर के प्रति अपने सभी कर्माका अपंण
कर देने से, सत्त्व ( बुद्धिगुण ) ओौर पुरुष की अन्यता-ख्याति ( भेदज्ञान ), सभी
विघ्न-बाधाओं से रहित होकर उत्पन्न होती है तथा उसी समय अविद्या आदि
पाचों क्लेश मूलसे ही उखड जाते हैँ । [ समूलकाषम्- समू शब्द के उपपद
मे होने से ./ कष् + णमुल् ( पा० मू° ३।४।३४ )। उसके बाद कष् धातुका
ही अनुप्रयोग |।
इसके साथ-साथ पुण्य ओर पाप ( कुशल-अकुशकर ) के रूपमे जो कर्मों
के भाण्डारदहैँवेभीजडसे नष कर दिये जातेरहैँ। [क्लेशा का मूल दहै संस्कार,
तो संस्कारोंके साथ क्लेश, ओर कर्माशयभी नष्टहो जाते दहै । समूल शब्द
उपपद मे है,../ ठन् + णमुल्--( पा० सू° ३।४।३६ ) । | इसके बाद निरुप
( शुद्ध ) पुरुष अकेला ( केवल रूप में ) अवस्थित होता है, इसे ही कवल्य
कहते है- यह सिद्ध हु । [ जिस संबंध के चलते एक संबंधी के धमं दूसरे
[0
+`
5. `
॥ ॐ ति
+
१
मनै
11:
11 ब
8 । ॥
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न ।
- अ की पो =
कक ~ = = न क न =-= अका + क १ दा अ ^ कीनि अ न ~ ~ =
पातञ्जल-दरानम् ६५७
संबन्धी में कटै जतिदहै वहक्ेपदहै। जव पुरुष उष प्रकारके संबंध से मुक्त
हो जाता है प्रकृति से प्रथक् रूपमेँ अवस्थित होता है, वही तो मोक्ष है । ]
(३. प्रथम सूत्र की व्याख्या--“अथः शाब्द का अर्थं).
तत्र अथ योगानुश्चासनम्' ८ पा० यो० प्रू १।१ ) इति
प्रथमश्त्रेण प्रक्षावसपरव्रस्यङ्खं षिषयप्रयोजनसंबन्धाधिकारिर्य-
मयुबन्धचतुष्टयं प्रतिपाद्यते ।
अत्राथशचब्दोऽधिकाराथंः स्थीक्रियते । अथश्ब्दास्याने-
काथत्मे संभवति #
त्वे संभवति कथमारम्भाथेत्वपक्षे पक्षपातः संभवेत् ?
` अथशब्दस्य मङ्गलाचनेकाथत्वं नामलिङ्गानुशासनेनावुशिष्टं-
मङ्गलानन्तरारम्भग्रक्नकारत्स्येष्वथो अथ ॥ ( अमरको०
३।२।२४६ ) इति। अत्र प्रश्चकात्स्यंयोरसंभवेऽपि आनन्तय-
मङ्गलपूवप्रकृतापेक्षारम्भरश्चणानां चतुणामथौनां सस्मवादारम्मा-
थेत्वालुपपत्तिरिति चेत्-- ।
अब योग का विश्लेषण होगा' (योऽ सु° ११) इस प्रथम सूत्रकेदारा
विचाररील व्यक्तियों की प्रवृत्ति के अंग के रूपमे विषय ( 90)९८४-
10867 ), प्रयोजन ( 100 ), संबंध ( 12614001 ) ओर अधिकारी
( ०811160 [€507 ) रूपी चार अनुबन्धो का प्रतिपादन किया जाता
है। | प्रस्तुत स्थम अनुबंध एक पारिभाषिक शब्दटै। सभी गास्नोंके
आरभमें इन चार अनुत्रधों पर विचार किया जाता है--वह शास्र चाहे
व्याकरण दहो या वेदान्त, आयुर्वेद हो या ज्योतिष । शाख्रमें जिस पदा्थका
प्रतिपादन करना हो उसे विषय कहते दैँ। किसी राख का प्रतिपाद्य विषय
क्या है ? उसके प्रतिपादन का क्या फल ( प्रयोजन ) है? उस शास्र के विषय,
फल ओर अधिकारियों में क्या संबन्ध है ? उस राख के अध्ययन का अधिकार
किन-किन व्यक्तियों कोटहै? इन सब बातो की जानकारी जब तक नहीं होती
तब तक लोगो की प्रवृत्ति उस शाख की ओर नहीं होगी । अनुबन्ध-चतुष्टय के
ज्ञान के अनन्तर ही लोग किसी शासनम प्रवृत्ति दिखा सकते हैँ । लोकिकं व्यवहार
मे भी किसी वस्तु की ओर हम तभी अभिमुख होते हैँ जब जानते है कि वह
क्या है, उससे क्या लाभ है, उसके अधिकारी कोन $ ? इत्यादि । |
२ स० संर
|
|
१.६
-
| 9
६५८ सबेदशनसंग्रहे-
उक्त सूत्र मे “अथः शब्द अधिकार ( आरंभ ) के अर्थमें स्वीकृत होता
है। यहाँ एक शंका हो सकती है किं जब अथ शब्द के अनेक अथं हो सकते
है तब क्याकारणदहैकि अपलोग यहाँ आरंभ के अथं पर ही पक्षपात कर
रहे हँ ? नामलिगानुशासन ( अर्थात् अमरकोश ) मे अथ' शब्द के मंगल आदि
अनेक अथं दिये है-- "अथो ओौर अथ, ये दोनों शब्द मंगल ( १8116 ०प8-
71688 ), अनन्तर ( {४९४ ), आरभ ( अधिकार 1{3€्छाण010 ), प्रन
( @पश$ ) तथा पूणता ( &1] }--इन अर्थो में होते है" ( अमरकोश
३।३।२४६ )। [ अथ शब्द मंगल का वाचक तो नहीं होता, उसका साधन
भले ही हो सकता है। अमरकोश मेंएेसे शब्दों का भी संग्रह है जो किसी अथं
के वाचकं नहींहै-जेसे, तु, हि, च, स्म, ह आदि शब्दों का पदपूरण अर्थं
देना। इन शब्दों का पदपूरण वाच्याथं नहीं है, अपितु वे पदपूरण के साधन |
मात्रहं। ठीक वैसे ही अथ शव्द का वाच्याथं मंगल नहीं है,--अथ का प्रयोग
देखकर हम कह सक्ते हैँ कि यहाँ अथ से मंगल की सिद्धिदहोतीहै। अथ के
दूसरे अर्थो के ये उदाहरण हैँ । अनन्तर ( बाद के अथं में )-- स्नानं कृत्वाथ
भुञ्जीत । आरम्भ--अथ योगानुशासनम् । प्रन--अथ वकु समर्थोऽसि ( क्या
तुम बोल सकते हो ) ? पूणंता--अथ धातून् ब्रूमः । |
माना करि प्रन ओर पूर्णताका अथं यहां नहीं हो सकता [ कर्योकिन
पतंजलि किसी से कुछ पूना ही चाहते ह ओरन पूरे योगशास्र का प्रतिपादन
हो रहा है, एेसा कहनेमें ही कोई अभिप्राय छिपादहै]। फिरभीचार अर्थो
कौ संभावना तो हो सकती है अर्थात् अनन्तर, मंगलबोधक, पूवं मे हुई
बातों की अपेक्षा करने वालाया आरंभका अथं? तो, केवल आरंभ के अर्थं
की संभावना मानकर [ आपने अन्य तीन अर्थो का अधिकार क्यों छीन लिया ?|
केवल एक अथं तो असिद्ध टै । ह ~
सैवं मंस्थाः । विकस्पासहत्वात् । आनन्तयमथशचब्दाथं इति
पञ्चे यतः इतधिदानन्तय पूरववृत्तशमाद्साधारणात्कारणादानन्तयं
बरा १ न्रथमः। “न दि कश्चिक्षणमपि जातु तिषठत्यकमडत्'
८ गी० ३।५ ) इति न्यायेन सर्वो जन्त॒रवश्य किचित्टरृत्वा
दिचित्करोव्येवेति तस्याभिधानमन्तरेणापि प्राप्ततया तदथोथ-
शब्दश्रयोगेयथ्यप्रसक्तेः ।
न चरमः । शमा्यनन्तरं योगस्य प्रवृत्तावपि तस्यानुशा-
सनप्रबृच्य ुबन्धत्वेनोपात्ततया शब्दतः प्राधान्याभावात् ।
पातज्ञल-दशेनम् ` ६५६
| उक्त शंका का उत्तर देते हुए कहते हँ कि ] एेसा मत सोचिये क्योकि
निम्न विकल्पों की कसौटी पर यह कसा नहीं जा सकता । यदि “अथ' शब्द
का वाच्यार्थं “अनन्तर होना" मानते तो इसकाक्या अथंदहै-क्या जिस
किसी भी चीज के बाद होना या [ योगाभ्यास के | पूवम किये गये शम आदि
असाधारण कारणों के बाद होना ? [ शमादि = शम, दम, उपरति, तितिक्षा,
श्रद्धा, समाधान । शम का अथं है मन का निग्रह करना, दम = बा्योन्द्रियो का
निग्रह, उपरति = संन्यास, तितिक्षा = सहिष्णुता, शद्धा = गुर आदि के वाक्यादि
पर विश्वास । समाधान = चित्त की एकाग्रता 1 येयोगके असाधारण कारण
है । क्या इनके पर्चात् योगानुशासन करते हैँ ? |
इनमे पहला विकल्प ठीक नहींहै। गीतामे एकपक्ति है- कोई भी
पदां बिना कमं कयि हृए एक क्षण भी ठहर नहीं सकता" ( गीता ३।५ )-
इस नियम से यह तो सहज-सिद्ध बात है कि कोई भी व्यक्ति कुछ करने के बाद
कुछ करता ही है तो उसका नाम नचञेने पर भी उसकी प्राप्तितोहो ही जाती,
अतः उसी सिद्ध बात के लिए “अथ' शब्द का प्रयोग करना व्यथं है।
दूसरा विकल्प भी ग्राह्य नहीं है । यद्यपि शमादि कारणोकेबादही योगं
की प्रवृत्ति होतीटहै फिरभी [ अथ योगानुशासनम्" सूत्र मे] यह योग
अनुशासन की प्रवृत्ति पर ही निर्भर करतादै, एेसा ही दिखाया गया है; अतः
शब्द की टषटिसे योगकी प्रधानता नहीं ही रहती। [ योगानुशासनं एक
सामासिक पद है तथा तत्पुरुष समास है जिसमें उत्तरपद अर्थात् “अनुशासन
प्रधान दै। योग तो अनुशासन के अधीन दै, उसका उपादान विशेषण के रूप में
हआ है। तो, अथ' शब्द का संबन्धं प्रधान शब्द अर्थात् अनुगासन ( शास्र)
के साथ होगा न कि अप्रधान शब्द योगके साथ । अथ'केद्रारा “लमादिके
बाद" अथं नहीं किया जा सक्ता क्योकि शमादि के बाद का संबन्धं योगके
साथ है ओर अथः का संबन्ध अनुशासन के साथ । दूसरे शब्दों मे, शमादि के
बाद योग भले ही होता है पर उनसे योगानुश्ासन की उत्पत्ति नहीं हौ सकती । |
©
न च शब्दतः प्रधानभूतस्यालु शासनस्य शमाद्यानन्तयंमथ-
शब्दार्थः कं न स्यादिति वदितव्यम् । अनुशष।सनमिति हि
शाखरमाह । अनुरिष्यते व्याख्यायते लक्षणमेदोपायफलसहितो
योगो येन तद नुश्षासनमिति व्युत्पत्तेः ।
आप एेखा नहीं कह सकते कि शब्द की हृष्टि से (= समासमं ) जो प्रधान
शब्द अनुज्ञासन है, उसे ही शमादि के बाद मानकर अथ' शब्द का अथं क्यों
६६० सबेदशनसंमहे-
न कर ऊ \ रेखा इसकिए नहीं कट सकते क्योकि अनुशासन का अर्थं शास्र है 1
उसकी व्युत्पत्ति ( निर्वचन ) यह दै-- जिससे योग अनुशिष्ट ( अनु + ^/ शास् }
हो अर्थात् लक्षण, भेद, उपाय ओर फल के साय जिसके द्वारा योग की व्याख्या
की जाय वही अनुशासन दै। [ उदाहरण के किए “योगदिचत्तवृत्तिनि रोधः
( यो० सू° १।२ )मेयोगका लक्षण दिया गयादै, 'वितकंविचार०' आदि
( १।१७ ) सूत्रों मे संप्रज्ञातादि योग-भेदौ का वणन हआ है) साधनपादमें
योग के लिए उपाय भी दिखलाये गये है । कैवल्यपाद मे योग के फल ( मोक्ष)
का निरूपण हु दहै । |
अनुशासनस्य॒च तचज्ञानचिख्यापयिषानन्तरभावित्वेन
शमदमादयानन्तय नियमाभावात् । जिज्ञासाज्ञानयोस्तु श्षमाद्यानन्त-
यमाम्नायते--^तस्माच्छान्तो दान्त उपरतस्तितिक्चः समाहितो
भृत्वात्मन्येवात्मानं पर्येत्, ( ° उ० ४।४।२३ ) इत्यादिना ।
नापि तज्ञानचिख्यापयिषानन्तयंमथशब्दाथेः । तस्य संभवेऽपि
्रोतप्रतिपिप्रबर्योरजुपयोगेनानभिधेयत्वात् ।
[ अब यह प्रन हो सकता टै कि अनुशासन का अर्थं शास्र होता दै तो ठीक
है परम्तु इससे अथ' शब्द के अथं शमादि के बाद-पर क्या प्रभाव पड़ता
है ? इसीके उत्तर मे कहते है-- ] यह अनुशासन च्ँकिं "तत्त्वज्ञान का वणन
करने की इच्छा" के अनन्तर उत्पन्न होता दै, शम-दम आदि के अनन्तर होने का
तो इसका नियम है ही नहीं। [ जौ चीज अनुशासन कं पहले नियम से आती
होगी, उसीका अथं अथ शब्द के द्वारा प्रकट हो सकता है। चकि अनुशासन
सूत्रकार के द्वारा किया जाता दै अतः सुत्रकार की इच्छाकं बादही उन्हे
शाख की रचना करने की प्रवृत्ति हृई होगी । शमादि साधनों के बाद प्रवृत्ति
नहीं हई । अतः योगानुशासन दामादि कं बाद नहीं होता । ] शमादि कें
परचात् तो जिज्ञासा ओर ज्ञान उत्पन्न होते ह, यह श्रुतयो मे भी कहा दे
(दसकिए शमयुक्त, दमयुक्त, उपरत होकर, तितिक्षा किए हए ओर समाधान
( विश्वाख ) से युक्त होकर पुरुष अत्मा मे ही आत्मा को देख खकता है!
( वृ ० ४।४।२३ ) ! [ शान्त = अन्तःकरण की तृष्णा से रहित । दान्त =
बाहयेन्द्रियों पर् संयम रखकर । उपरत = सभी इच्छाओं से मुक्त होकर ।
तितिक्चु = जीवन की रक्षा करते हुए ठंड, गर्मी आदि विषमो को सहने वाला ।
समाहित = केवल आत्मा मे ही चित्त की स्थापना करकं । |
पातज्ञल-दशनम् ` ६६१
[ अब एक ओरं प्रन होगा कि शमादि के बाद' अथं हममभलेही नहीं
टं किन्तु अनुशासन के पूवं नियमतः जो शख्रकार की तत्वप्रकाशनेच्छा आती
है--उसे ही ( उसके वाद होना ) “अथ का अथं क्यों नहीं मान रे? इस पर
उत्तर देते है-- ] (अथ' शब्द का अर्थं तत्वज्ञान का प्रकाशन करने की इच्छा
के परचात्' भी नहीं है । कारण यह है कि यदि एसा संभव होतो भी शास्रकार
ने जिस इच्छा के बाद शास्र का निर्माण किया उसंका ज्ञान | न तो श्रोताओं के
योगविषयक ज्ञान के किए ही उपयोगी होगा ओर न उनकी योगविषयकं प्रवृत्ति
केही चिएु ) (ज्ञान या प्रवृत्ति दोनोंमेंसे किंसी का कारण वह नहीं हो सकता)
अतः उसके आनन्तयं ( बाद होना ) का कथन निष्फल होने के कारण वणेन
करने योग्य भी नहीं दहै [ये बातें सूत्रकार की तत्वज्ञानप्रकाद्यनेच्छा को
अनुशासन कै पूवं नियमतः होना मानकर ही कटी गई है, किन्तु वास्तव मं यह
प्रकाशनेच्छा पूवंवर्ती हो नहीं सकती--इसे ही आगे स्पष्ट करते हैँ । |
तवापि निःश्रेयसहेतुतय। योगानुशासनं प्रमितं नवा?
आधये तद मवेऽपि उपादेयत्वं भवेत् । द्वितीये तद्भावेऽपि हेयत्वं
स्थात् । प्रमितं चास्य निःश्रेयसनिदानत्वम् ।
अध्यात्मयोगाधिगमेन देवं
मत्वा धीरो हषं्ोको जहाति ।
( का० २।१२ ) इति श्रुतेः ।
समाधावचला बुद्धिस्तदा योगमवाप्स्यसि । (गी ०२।५३)
इति स्मृतेश्च ।
आप लोगोंके पक्षमेंभी यह प्रन हो सकतादटै कि योगानुशासन को
निःश्रेयस ( मोक्ष ) के कारणके रूपमे आप स्वीकार करतेहैँयानहीं? यदि
पहला विकल्प च्तेहै [कि योगशाख्र मोक्ष का कारणदहै] तब तो उसके
( = तत्त्वज्ञान कै प्रकाशन की इच्छा के ) अभावमें भी योगशा की उपादेयता
रहेगी ही । [ योगशास्न से यदि मोक्ष मिले तो ज्ञान-प्रकाशन की इच्छान होने
पर भी इसे लिखना ही पडेगा । | अब यदि योगानुशासन को मोक्षका हेतु
सिद्ध नहीं कर सकते हँ तो | तत्वज्ञान के प्रकारान की इच्छा | होने पर भी यह्
योगानुश्ासन त्याज्य हीहौ जायगा | फल यह् हु किं तथाकथित तत्व-
भ्रकारनेच्छा ओर योगानुशासन में पूर्वापर संबन्ध नदीं है क्योकि इसमें व्यभिचार
( 1008186९ ) देखते हैँ । | ॑
६६२ सवदशनसम्रहे-
[ दूसरे विकल्प के साथ दसरा दोष हूंढते ह] यह योगानुशासन (योग के
दवारा ) निश्रेयख काकारण है, यह् बिल्कुल निरिचत है । इसके किए श्रुति का
प्रमाण है-- "अध्यात्मयोग ( आत्मा मे चित्त को लगाना, निदिध्यासन, (.००१९-
7078० ) की प्राप्ति होने पर आत्मा ( देव ) का साक्षात्कार करके ज्ञानी
( धीर ) पुरुष हषं ओौर योक दोनों का त्याग कर देते है' ( = मुक्त हो जते
है )। [ काठक० २।१२ ) । इसके लिए स्मृति-प्रमाण भी है-- जब तुम्ारी
वुद्धि समाधिं की अवस्था मे आत्मामें स्थिर हो जायगी तब तुम योग ( योगफल
अर्थात् आत्मसाक्षात्कार ) प्राप्त करोगे ।' ( गी° २।५३ ) । [ इन दोनों प्रमाणो
से यह सिद्ध होता दहै कि योग मोक्षकाकारणदहै। शाख्रकारों को तत्त्वज्ञान के
प्रकाशन की इच्छाहो या नहीं योगानुशासन कियाही जायगा । अतः उक्त
प्रकाशनेच्छा नियमतः योगानुशासन की पूवंवतिनी नहीं हो सकती । |
विरोष- जहाँ अथ' शब्द का अर्थं आनन्तयं ( बादमेंहोना) चेते रहै
वहाँ निरिचत रूपसे कोई काम पहलेहो चुका रहता है-भ्ेही उस काम
का प्रतिपादन नहीं हा हो ओर न उसके प्रतिपादन की आवद्यकता ही समन्ली
गई हो । “लानं कृत्वाथ गतः' वाक्य में गमनक्रिया का प्रतिपादन ल्लान के बाद
हआ है, ज्ञान गमन के पूवंहुभादहै। भले ही उस प्रतिपादन का उपयोग कुछ
नहोओौरनही नियमतः स्नान ओर गमनकी पूर्वापरता देखी जाय--फिरः
भी “अथः शब्द 'स्ञान के अनन्तर" काही बोध करातादहै। यदि अथ शब्द
का प्रयोग हो ओर किसी भी पूवं क्रिया का उज्ञेव नहीं हभ हो तो भी योग्यता
के बल से निर्णय करना ही होता है कि उसके पूवं क्या हुआ था । एसी अवस्था
मे जो क्रिया निरन्तर साथ दे उसी की पूवंवृत्तता ({2"1011#$) माननी चाहिए ।
अत एव शिष्यप्रश्षतपश्चरणरसायनोपयोगाच्यानन्तयं परा-
कृतम् । अथातो ब्रह्मजिज्ञासा ( ब घ० १।१।१ ) इत्यत्र तु
अनधिकायंत्वेनाधिकारा्थत्वं [क् १
ब्रहमजिज्ञासाय। त्वेनाधिकाराथेतं परित्यज्य साधन-
चतुष्टयसंपत्तिषिशिष्टाधिकारिसमपेणाय शमदमादिवाक्यविहिता-
कः 4 9 निरटङ्क
च्छमादेरानन्तयमथशचब्दाथं इति शंकराचार्य |
इसक्िए, शिष्य का प्रदन, तपर्चर्या या रसायन का उपयोग ( शरीर में
शक्ति छाने के लिए) आदि के अनन्तर ( योगानुशासन होगा | यह पक्ष
( अथ' शब्द को अनन्तर के अथंमेंकलेना ) खंडित हो गया । | जो लोग अथ
का अथं अनन्तर करते है वे लोग अपनी पुष्टिके लिए बहृतसे कायंल्ते हं।
प्रन है कि तब योगानुशासन कसि कायंके बाद किया गया? कुछ शास्र
पातञ्चल-दशेनम् ६६३
शिष्यो के द्वारा प्रदन कयि जाने के बाद शाल्रकारों की प्रवृत्ति से उत्पन्न होते
है, जैसे-पाशुपतशास्र । कुछ शास्र तपस्या के बाद ज्ञानोत्पत्ति होने पर लवि
जात है, जैसे--पाणिनि का व्याकरण । कुछ शाख्र पारदादि के संयोग से बने
हए रसायनों का सेवन करने के बाद तत्त्वसाक्षात्कार होने पर लिखे जाते हैँ ।
गुरु कीआज्ञासेया लोगों पर दया करनेके किए भी शाख लिखे जाते हैँ । इन
उपायों से शाख्रकार शास्र की रचना करने के लिए प्रवृत्त होते हैँ । किन्तु इनमें
से कोई भी कायं योगानुश्ासन के पूवं मेँ नियमपूवेक नहीं माना जा सकता ।
जो मति तत्तवप्रकाशनेच्छा की टै, वहीतो इनसबों कीभीदहै। अतः अथः
का अथं “अनन्तर होना' नहीं चिया जा सकता । |
वेदान्तसूव्र के प्रथम सूत्र-- अथातो ब्रह्मजिज्ञासा" ( इसचिए अव ब्रह्य
की जिज्ञासा करनी चाहिए ), इसमे [ अथ शब्द का अथं अधिकार ( आरम्भ )
नहीं हो सकता क्योकि | ब्रह्म कौ जिज्ञासा ( जानने की इच्छा) का आरंभ
नहीं किया जा सकता अतः “अधिकार' अर्थंको छोड कर, चार साधनो की
संपत्ति से युक्त अधिकारी को समपित करने के लिए, शमदमादि वाक्य
( = “शान्तो दान्तः०' ) में विहित होने के कारण, दंकराचायं ने अथ' शब्द का
अर्थं शमादि छहों पदार्थो के बाद' एेखा क्ियादै। | इच्छा का आरभ नहीं
होता अतः शंकराचायं ने अथ का अथं "वाद' ही किया है। अब प्रश्न हुआ
किं किसके वाद ? शंकराचाययं अधिकारी चूननेमें बडी रुचि दिखलाते ह । वह
अधिकारी, जिसे ब्रह्मसूत्र सौप सकं । अतः अथ" से अधिकारी बननेके बाद
अथंक्तेद। पर अधिकारीटहै कौन? चान्तो दान्तः वाक्य इसके लिए तो
प्रस्तुत हो है । बस, अथ' का अथं हुआ--शम, दम, उपरति, तितिक्षा ओर
समाधान से युक्त होने पर ब्रह्म की जिज्ञासा होती है । |
विरोष- उक्त चार साधनोंके नाम शंकरने इस प्रकार गिनाये है
( १) नित्य ओर अनित्य वस्तुभों मे विवेक करना, (२) पिक ओर
आमुष्मिक भोग सामग्न्यो से वैराग्य, (३) दाम, दमादि साधन-संपत्ति तथा
( ४ ) मुमृष्च होना ( १।१।१ का भाष्य )। वे आगे कहते है--तस्मादथशब्देन
यथोक्तसाधनसंपत्त्यानन्तयं मुपदिश्यते । ( वहीं ) ।
(३ क. “अथ' दाद् मंगल का द्योतक भी नहीं )
अथ मा नाम भूदानन्त्यार्थोऽथशब्दः । मङ्गलाथेः कि न
स्यात् ? मङ्गलस्य वाक्यार्थे समन्वयामावात् । अगर्हितामीश-
वा्चिमङ्गलम् । अभीष्टं च युखाव्रिदुःखपरिहाररूपतये्टम् ।
६8६४ | सबेदशेनसंम्रहे-
योगानुश्चासनस्य च सुखटदुःखनिघ्रस्योरन्यतरत्वामावान मङ्गरता ।
तथा च योगानुशासनं मङ्गलमिति न संपनीपद्यते ।
अच्छा, अनन्तर होना" के अर्थं में अथ' शब्द भले ही न रहे ठेकिन इसे
मंगलाथंक क्यों नहीं मानते ? इसलिए नहीं मानते हँ कि मंगल के साथ वाक्य
के अर्थं का संबन्ध नहीं हो सकता । अगहित ( अनिद्य ) तथा अभीष्ट वस्तु की
प्राप्ति करना मंगल है) अभीष्ट वस्तु वही दहै जिसकी कामना लोग सुख की
प्राप्ति या दुःख की निवृत्तिके रूपमे करं। योगानुशासन न तो सुख टै ( सुख-
जनक भ्ठेहीदहै), ओर न दुःख की निवृत्ति को योगानुशासन कहते है । अतः
यह मंगल नहीं है । इस प्रकार योगानुश्ासन मंगल है, यह अथंसिद्धहोही
नहीं सकता । ( संपनीपद्यते = सप् + ../ पद् + यड् = पुनः पुनः संपद्यते, भृशं
संपद्यते ) ।
विरोध जैसा करि अपर कह चुके है मंग अथ' शाब्द का वाच्यार्थं
नहीं है--केवल उसे अथः लाब्द प्रकट कर सकता है । योगानुश्ञाखन स्वतः मंगल
नहीं है यह सिद्ध कर ही चरके है । अव इस प्रन का विद्टेषण आगे करगे ।
| ह |
म्रदङ्ष्वनेरिवाथशचब्दश्रवणस्य कायेतया मङ्गलस्य वाच्यत्व-
लक्ष्यत्वयोरसंभवाच । यथाथिकार्थां वाक्यार्थे न निविक्षते
¢ (~ (~ ¢ [क
तथा कार्यमपि न निविशेत । अपदाथेत्वाविशेषात् । पदाथ
एव वाक्यार्थे समन्वीयते । अन्यथा शब्द्रमाणकानां चाब्दी
¢ [क वे
दयाकाह्भा शब्देनैव पूयेत इति द्राभङ्गः कृतो भवेत् ।
जिस प्रकार मंगल मृदंग ( ढोक } की ध्वनि [का कायं] है उसी प्रकार
वह अथः शब्द के श्रवण (या उच्चारण ) काभीकायं हीह । अतः मंगलन
तो [अथ का] वाच्यार्थं हो सकता ओर न ही लक्ष्याथं । [ अथ चब्द का उच्चारण
करनेसे मंगल की उत्पत्ति होती दहै, अथ शब्द का वहु वाच्याथं नहीं । यदि
वाच्यां नहींहै तो लक्ष्याथं भी नहीं क्योकि लक्ष्याथं वाच्याथं से ही संबद्ध
रहता है । ] जिस प्रकार अर्थापत्ति से उत्पन्न अथं वाक्याथं के साथ अन्वित
नहीं हो सकता उसी प्रकार [ मंगल का यह् | का्यं-जथं भी वाक्याथं मं नहींजा
सकता । कारण यह है किदोनोंमें एक तरहसेहीपदके अथंका तिरस्कार
होता है । वाक्यार्थं से संबन्ध उसी काहो सकता है जो पद का अपना अथंहो।
यदि एेखा नहीं होता तो वैयाकरणो ( शब्द को प्रम।ण मानने वले) के उस
नियम कार्भग होता जिसमे यह कटा जाताहै करि शाब्दी ( शब्द से संबद्ध)
#
कै 0 = + मि > 0. (३
=-= न~ कै । - ।
> व्ण ताश पद्ध (्क्यकव्य.ग्न र
पातञ्जल-दशेनम् ६६५
आकांक्षा शब्द से ही पूणं हो सकती टै । [ कोई शब्द जब किसी वाक्य के अर्थं
को प्रकादित करनेमें असमथंहो तथा क्रिसी दूसरे शब्द की अपेक्षारखे तो
उसे शाब्दी आकांक्षा कहते हैँ--इसकी पूति दाब्द से ही हो सकती है, किसी
दूसरे साधन से नहीं । यदि अर्थापत्ति के अर्थंको या कायंरूप अथं ( जसे अथ
का अथं मंगल ) को वाक्यार्थं से मानने लगगे तो शाब्दी आकांक्षा की पूति
दाब्दसेन होकर आधथिकाथं या कार्यार्थसे भी होने लगेगी किन्तु वास्तव में
तो शब्दार्थं से होती है । अतः उक्त नियम खंडित हो जायगा । |
विशोष-- देवदत्त दिन में नहीं खाता, पर मोटा है' इस वाक्यम "रात्रि
भजन" अर्थापत्ति से प्राप्त अथं है, वाक्यसे एेसा अथं हमे मिल नहीं सकता ।
इसे आधथिकाथं कहते हैँ । “अथ' का जो “मंगल' अर्थं करते हँ वह कायं अथं
है-जेसे राम का वाच्यार्थं व्यक्ति विशेष होता दै वसे “अथ = मंगल" नहीं होता,
मंगल “अथः के उच्चारण से उत्पन्न होता दहै, कायं दहै। स्वभावतः ये दोनों
अ्थं पदार्थं नहीं है, इसलिए वाक्याथं करने मे इनका कोई महत्त्व नहीं । फलतः
अथ योगानुशासनम्" में अथका अथं मंगललेने से योगानुशासन के साथ
उसका कोई सम्बन्ध नहीं होगा । केवल “योगानुशासनम्” कहने से वाक्य अपूणं
रह जाता जिसकी पूति अथ' से होती है । अव यदि अथ को भी मंगलोत्पादक
मान ठेगे तब तो वाक्य अपूणं का अपणं ही रह जायगा ।
नु प्रारिप्सितप्रबन्धपरिसमाप्तिपरिपन्थिप्रत्युहन्युहमरशम-
नाय चिष्टाचारपरिपालनाय च शाखरारम्भे मङ्गलाचरणमवुष्टेयम् ।
(मङ्गलादीनि मङ्गलमध्यानि मङ्गलान्तानि च शाखाणि प्रथन्ते,
आयुष्मतपुरुषकाणि बीरपुरूषकाणि च भवन्ति" ( पात ° माप्य
आद्वि० ३) इत्यभियुक्तोक्तेः । भवति च मङ्गलार्थाऽथक्ञब्दः--
२. ओंकारश्चाथशचब्दश् दवावेतो ब्रह्मणः पुरा । |
कृण्टं भिचा विनिर्यातौ तस्मान्माङ्गलिकावुभो ॥
इतिस्परतिसम्भवात् । तथा च शरद्धिरादं च्" ( पा घ० १।१।१ )
इत्यादौ ब्रद्धयादिशब्दबदथष्दो मङ्गलाथः स्यादिति चेत्-- ।
[ पू “पक्षी लोग फिर भी अथः को मंगलाथंक मानते हुए कह सक्ते टं - |
जिस प्रबन्धं का आरम्भ करने की इच्छा है (प्रारिप्वित) उसकी समीचीन समाप्ति
के खमय तक रुकावट डालने वाले ( परिपन्थिन् ) विव्नों के समूह के विनाश के
६६६ सबेदशनसंग्रहे-
किए तथा शिष्टाचार का परिपालन करनेके लिए भी शाख्रके आरम्भ में मंगला-
चरण का अनुष्ठान करना चाहिए । अभियुक्त ( आप्त ) पुरुषों का भी यही कहना
है-- "जिन शाख्त्रोके आदिमे, मध्यमे तथा अंतमे मंगलहोता है वे शास्र
प्रसिद्ध हो जाते है । उनके अध्येता आयुष्मान् तथा वीर (शास्राथं मे अपराजित)
होते दै ।' ( महाभाष्य, आहिक ३, पा० सु° १।१।१ पर } ।
मंगर के अर्थं मे अथ' शब्द होता श्री है--'ओम् ओर अथ शब्द ये दोनो
प्राचीन कालमेब्रह्माके कंठको छेद कर बाहर निकले (= ब्रह्मा की इच्छा
के बिना निकले ), इसलिए ये दोनों मांगकल्िकि कहलाये ।' एेसा स्मृति से चला
आर्हा है। इसलिए वृद्धिरादेच्" ( पाणिनि का प्रथम सूत्र ) में वृद्धि-आदि
शब्द की तरह अथ' शब्द भी मंगर के अथंमेंहो सकता दै ।
मेवं भाष्ष्ठिः । अथाौन्तराभिधानाय प्रयुक्तस्याथश्ब्दस्य
वीण वेण्वादिष्वनिवत् श्रवणमात्रेण मङ्गरफलत्वोपपत्तेः। अथाथा-
न्तररम्भवाक्यार्थधीफरकस्याथब्दस्य कथमन्यफलकतेति
चेन्न । अन्याथं नीयमानोदङ्कम्भोपलम्भवत्तत्संभवात् । न च
स्पृतिव्याकोपः । माद्धछिकाविति मङ्गप्रयोजनत्वविवक्षया
प्रभते: ।
[ उक्त शंका का उत्तर इस प्रकार है-- | एेसा मत किये 1 `अथ शब्द
किसी दूसरे अथं के प्रकाशन के किए प्रयुक्तं हुआ है; वीणा, वेणु ( सुरी )
आदि की ध्वनि की तरह केवल इसके श्रवण करने से ही मंगरात्मक फल की
सिद्धि होती है [ वृद्धिरारैच्' में वृद्धिका अर्थं मंगल नहीं है, वृद्धि तो पाणिनि-
व्याकरण की एक संज्ञा है । संज्ञा का बोधक होने पर भी इस शब्द के उच्चारण
या श्रवण से मंगल की सिद्धि होती दहै। उसी प्रकार अथ' शब्द का अथं दूसरा
कुछ है किन्तु इसके श्रवण से मंगलाचरण होता ही है । अतः एेसे शब्दो से दो-
दो प्रयोजन सिद्ध होते हैँ । |
[ इस उत्तर पर भी कोई पृ सक्ता है कि | मंगलाथं के अतिरिक्त, आरभे
[ आदि अर्थो ] का बोध (धी) वक्याथंमे कराने वलि अथ' शब्द से दूसरे
फल ( अर्थं ) कैसे उत्पन्न हो सकते हैँ ? ( यह केसे सम्भव है कि अथः से आरंभ
का वाच्यार्थं भी निकठे ओर मंगल भी व्यक्त हो?) एेसा नहीं सोचना चाहिए ।
जिस प्रकार दूसरे कामसेले जाये जाने वाले पानीसे भरे धड़े कोदेखनेसे
[ यात्रा पर निकले हृए व्यक्ति का शुभे शकुन होता है | उसी प्रकार यह भी
क ष्क
पातञ्जल-दशेनम् ६६७
संभव है) एेखा मानने पर भी उक्त स्मृति ( तस्मान्माङ्गलिकावुभौ) का
खंडन नहीं होता । "माङ्गलिक" कहने का अथं [ यह नहीं है कि ओम् ओौर अथ
का वाच्यार्थं ही मंगल है प्रत्युत | इसका लक्ष्य मंगल टै' इसी विवक्षा से उक्त
राब्द प्रयुक्त किया गया है 1
विज्ञेष--अब अथ शब्द के पूवंप्रकृत की अपेक्षा रखना' अथेका खंडन
करके अंत में आरभ अथं में इसकी सिद्धि करगे ।
( ४. अथः का अथं आरम्भ या अधिकार )
[३ ¢
नापि पूवभ्रकृतापेक्षोऽथशब्दः । फलत आनन्तयाग्यति
रेफेण म्रा गुक्तदृषणानुपङ्गात् । किमयमथशब्दोऽधिकारार्थोऽथा-
नन्त्याथं इत्यादिबिमशेवाक्ये पक्षान्तरोयन्यासे तत्सम्भवेऽपि
प्रकृते तदसम्भवाच ।
ेसी बात भी नहीं है कि अथ" शब्द से पहलेसे प्रस्तुत वस्तु की अपेक्षा
रखी जाय । [ योग्यता के वक से शम-दमादि या शिष्य का प्रन या प्रकाशनेच्छा
आदिके रूपमे कुछ न कुछ पूवंप्रकृत वस्तु स्वीकार करनी पड़ेगी | फलतः
यह अथं आनन्त्यं अथं से भिन्न नहीं है जो-जो दोष उस अर्थं को स्वीकार करने
पर लगाये जाते हवे यहाँभी प्राप्त हो जायँगे। यह अथ-शब्द क्या अधिकार
के अर्थमे होता टै या आनन्तयं के अथंमें? इस प्रकारके विम ( विभिन्न
मत् ) के बोधक वाक्यम दूसरे पक्की स्थापना करने पर ये अथं ( आनन्तयं
ओर अधिकार ) सम्भव भी हैँ किन्तु प्रस्तुत अथं लेने पर तो वह् ( पक्षान्तर कौ
स्थापना ) सम्भव ही नहीं [ क्योकि कोई भी पूवेप्रकृत वस्तु नहीं मिलती है।
नित्य रूप से साकांक्ष न रहने के कारण कोई अथं पहले से नहीं मान सकते ! |
तस्मात्पारिरेष्यादधिकारपदवेदनीयप्रारम्भार्थोऽथशब्द इति
विेषो भाष्यते । यथा अथष ज्योतिरथेष विध्ज्योतिः' इत्यत्रा-
विते ©
थशब्दः क्रतुविशेषग्रारम्भाथंः परिग्रहीतः, यथा चं अथ शब्दालु-
सनम् ( पात० भ।० १।१ ) इत्यत्राथशचब्दो व्याकरणसशाक्षा-
धिकाराथेस्तदरत् ।
इसक्ए अब परिशेष-नियम से ( कोई दूसरा विकल्प न मिलने से ) अथ
दाब्द का अथं प्रारम्भ है जिसे अधिकार शब्दके द्वारा भी समञ्ते है--भाष्य-
कार ( व्यास) ने इसे स्पष्ट क्रियादै। जैसे--अव ( अथ) यह् ज्योति-यज्ञ है,
-~-------~~-~---~----- ष
= - सवेदशनसंम्रहे-
अब यह विदव ज्योति-यज्ञ है" ( ताण्ड्य ब्राह्मण १६।८।१, १६।१०।१ )-- यहां
पर प्रयुक्त अथ' शब्द विशेष क्रतु (यज्ञ) को प्रारम्भ करने के अर्थमें लिया गयां
है । उसी प्रकार जैसे अव ( अथ ) शब्दानुशासन होता है" ( महाभाष्य का
प्रथम वाक्य })-- यहां भी अथः शब्द व्याकरण-शाख्रके आरम्भके अ्थंमें
आयाहैवेसे ही | प्रस्तुत प्रसंग में भी समजले । |
तदभाषि व्यासभाष्ये योगघ्र्रविबरणपरे अथेव्ययमधिका-
राथः प्रयुज्यते इति । तद् व्याचख्यो वाचस्पतिः । तदित्थम्-
अषुष्याथशचब्दस्याधिकाराथेत्वपक्षे शास्रेण प्रस्त्यमानस्य योग-
स्यापवतेनात्समस्तश्ञाख्चतात्पयोयव्याख्यानेन शिष्यस्य सुखाव-
बोधब्रवृत्तिभेवतीत्यथञचब्दस्याधिकाराथंत्वश्चपपनम् ।
योगसूत्र का विवरण ( व्याख्या }) करनेवाले व्यासभाष्य मे भी कहा गया
दै कि अथ" शब्द अधिकारके अथंमे प्रयुक्त हआ है। [ व्यास की इस पक्ति
की | व्याख्या वाचस्पति ने [ अपनी तच्ववेशारदी टीकामे ] कीदटै। वह इस
प्रकार है--इस अथ शब्दको अधिकारके थमे लेलेने पर ाख्रकेद्रारा
्रस्तुत क्रये जानेवाले योग का प्रतिपादन (उपवत॑न ) करना सम्भव है ।
प्रे शास्र के तात्पर्यार्थं की व्याख्या करने से शिष्य मेँ सरलता से समञ्चने की
परवृत्ति होगी, इसलिए अथ" शब्द अधिकार के अर्थं मे हआ है, यह सिद्ध हुआ ।
| हम ऊपर देख चुके है कि अथ' का अथं 'आनन्तर्य' लेने पर इसका उपयोग
नतोश्रोताके बोधके क्एिहै ओौर न उसकी प्रवृत्तिके लिए। ेसी बात
अधिकार" अर्थल्ने पर नहीं होती । योगयाख्र का आरम्भहो रहा है जिसमें
सभी शास्त्रों के तात्पर्याथं की विवृति हुई है- इख शाख की सहायता से इसका
बोध आसानी से श्रोताओंको हो जायगा । यही नहीं, सामान्य ज्ञान हो जाने पर
विरेषतः गाख्रावलोकन की प्रवृत्ति भी होगी । इसकिए अथ का यही अथं सवंथा
समीचीन है । |
नदु॒द्िरण्यगर्माो योगस्य वक्ता नान्यः परातनः इति
याज्ञवरक्यस्मृतेः पतञ्जलिः कथं योगस्य छासितेति--अद्धा ।
अतएव तत्र तत्र पुराणादौ विशिष्य योगस्य विप्रकीणेतया
दग्रोदयाथेत्वं मन्यमानेन भगवता कृषासिन्धुना फएणिपतिना सारं
सजिधृश्चुणादुश्चासनमारब्धं न त॒ साक्षाच्छासनम् । यदायमथ-
"न" नज न 4 जअ
पातञ्जल-दशेनम् ६६६
शब्दोऽधिकाराथेस्तदेवं वाक्याथ सम्पद्यते--योगाुञचासनं
शाख्रमधिकृतं वेदितव्यमिति । तस्मादयमथज्ञब्दोऽधिकार-
द्योतको मङ्गलाथेश्रे ति सिद्धम् ।
अव प्रम्न हो सकता है कि योगके वक्ता हिरण्यगर्भ है, कोई दूसरे पुरातन
ऋषि नही" .एेसा याज्ञवल्क्य-स्मृति में कहा गया है तो पतंजलिको योगका
ास्रकार क्यों मानते दै ? ठीक है इसीलिए तो, जहाँ-तहांँ पुराण आदि मेँ योग
की विवेचना विशिष्टरूप से [ एक स्थान पर नहीं होकर | बिखरी हई होने
के कारण, समञ्जन मे कठिन जानकर, कृपा के सागर भगवान् रेषनाग [ के
अवतार पतंजलि | ने, उस योग का सारांश ग्रहण करने की इच्छा से अनुशासन
( प्रथम प्रकाशन के परचात् उसका संकलन ) किया दै, साक्षात् गासन ( नये
रास्त्र की रचना ) नहीं । [ पुराणो मे प्रसंग के अनुसार जहां-तहां योग के खंडों
काही वर्णन मिल्ताहै। उदाहरणाथं विष्णुपुराण ( ६।७), गरुडपुराण
( अध्याय १४ तथा ४९ ), माकंण्डेय पुराण ( अध्याय ३९ ) तथा लिङ्गपुराण
(अध्याय ९) म योग का प्रतिपादन हुआ है, पर कहीं पूणं वणन नहीं । इसीलिए
उन सभी स्थानोंका सार ग्रहण करके पतंजलि ने योगशास्त्र छिखा-- प्रथम
शासन नहीं है, यह अनु-गाखन है । |
यह् अथः शब्द जब अधिकारके अथंमें लिया जाता दहै तब वाक्यार्थं इस
तरह सम्पन्न होता है- योगानुशासन नाम के शास्त्रकाआरम्भेहो गया, रेखा
समज्ञे । इसकिए अथ शब्द अधिकार का चोतक है ओर मङ्खल का प्रयोजन
रखता है-- यह सिद्ध हुआ ।
(८. योग के चार अनुबन्ध )
तत्र॒ शाखे व्युत्पाद्यमानतया योगः ससाधनः सफलो
बिषयः । तद्च्युत्पादनमवान्तरफलम् । व्युत्पादितस्य योगस्य
कंवल्यं परमप्रयोजनम् । शाखयोगयोः प्रतिपाच्प्रतिपादकमभाव-
लक्षणः संबन्धः । योगस्य केवस्यस्य च साध्यसाधनभावलक्षणः
सबन्धः । स च श्रेत्यादिग्रसिद्ध इति प्रागेवावादिषम् । मोक्षम-
पक्षमाणा एवाधिकारिण इत्यथेसिद्धम् ।
इस शास्र में व्युत्पादित ( प्रतिपादित ) होने के कारण, साधनों ओौर फलों
के सहित योग ( चित्तवृत्ति का निरोध ) ही इसका विषय है । योग का प्रति-
पादन करना गौण फल ( प्रयोजन ) है जब क्रि प्रतिपादित किये गयेयोगका
६७० सवेदशेनसंमहे-
परम प्रयोजन केवल्य ( मोक्ष ) है । शाख ओौर योग के बीच मे एक प्रतिपादक
है दूसरा प्रतिपाद्य-- यही संबन्ध है 1 योग ओौर कैवल्य के बीच में एक साधन
है दूसरा साध्य, एसा संबन्ध है । में पहले ही कह चुका हं कि यह ( संबन्ध )
श्रति, स्मृति आदि मे प्रसिद्धटहै। यहतो अंसे ही सिद्ध है कि इसके
अधिक्ारीवे हीलोगरहैँ जो मोक्ष की अपेक्षा करते हैँ। [ यदि अथ' शब्द
का अथं आनन्तयं होता तो शमादि साधनों से युक्त पुरुषों को अधिकारी मानना
पडता । किन्तु यहाँ योग का फल मोक्ष को स्वीकार करके--'अध्यात्मयोगाधि-
गमेन' के आधार पर-मोक्ष के इच्छुक व्यक्ति को अधिकारी मानते दै । अब
यह दिखाते हैँ कि अथातो ब्रह्मजिज्ञासा" मे अधिकारीकी सिद्धि अथंसेदही
क्यों नहीं होती, अलग से अधिकारी का निरूपण करनेकी क्या आवश्यकता टै ?
न च अथातो ब्रह्मजिज्ञास।!' ( ब० सरू° १।१।१ ) इत्या-
दावधिकारिणोऽ्थतः सिद्धिराशङ्कनीया । तत्राथद्चब्देनानन्त्या-
भिधानप्रणाडिकयाऽधिकारिसमपणसिद्धो अथिकत्वशङ्गनुदयात् ।
अत॒ एवोक्त प्रतिप्राप्े प्रकरणादीनामनवकश्च इति ।
अस्याथेः- यत्र हि भ्रत्यार्थो न भ्यते तत्रेव प्रकरणादयोऽथं
समपेयन्ति नेतरत्र } यत्र तु शब्दादेबाथेस्योपलम्भस्तत्र नेतरस्य
संभवः ।
एेसा संदेह नहीं करना चादिए कि अथातो ब्रह्मजिज्ञासा" (ब्र सू° १।१।१)
मे भी अधिकारी की सिद्धिअथं सेही हो जायगी। [| शंका करने वालों का
तात्पयं है कि इस सूत्रम भी अथ'का अथं अधिकारदही क्यों न मानकं?
तब श्रुति प्रमाण के रूप में मिक जायगी- तमेवं विद्वानमृत इह भवति ( इवेता °
३।८ ) जिससे ब्रह्मज्ञान का फल मोक्ष मान लगे । फलतः मोक्ष का इच्छुक पुरुष
अधिकारीहै, यहं अथंसे ही सिद्ध हो जायगा । इसका उत्तर देते है । | वहां
परं प्रयुक्तं अथ" शब्द से आनन्तयं-अथं का बोध होता है तथा यह् सिद्ध होता
है कि | सिद्धान्तो या अर्थो का | समपंण ( ¶1811311188107) ) एक निदिचत
परम्परासे ही अधिकारियों को होता है, अतः उस अथं को अथतः सिद्ध करने
कीशंकाही नहीं उठती। [ जब किंसी बात की सिद्धिसीषधे हीया परम्परा
सेहो सकती हो तो अथस सिद्ध करने की बात नहीं उठती । |
इसीलिए कहा गया टहै--| निङ्चयात्मक प्रमाण के रूप में | जब श्रुति
प्राप्त हौ रही हो तो प्रकरण आदि का अवकाश वहाँ नहीं रहता" ( तुलनीय-
पातञ्जल-दशनम् ६७१
बर° सू० ३।३।४९ ) । इखका अथं यह है-- जहां श्रुति ( शब्द ) से अथं प्राप्त
नहो वहीं परं प्रकरण आदि प्रमाण अथके प्रकारन या निर्णय मे सहायता
करते ह, अन्यत्र नहीं । जहां गब्दसे ही अथं की प्राप्तिहो जाय वहाँ दूसरे
साधन की संभावना भी नहीं होती ।
सीघरबोधिन्या श्रुत्या विनियोगस्य बोधनेन निराकाङ्खतये-
तरेषामनवद्ाात् । किं च श्रुत्या बोधितेऽ्थं तद्विरुद्राथं
प्रकरणादि समपैयति, अविरुदं बा १ न प्रथमः । विरुदराथं
बोधकस्य तस्य बाधितत्वात् । न चरमः। बेयथ्योत् । तदाह--
शरतिलिङ्गवाक्यप्रकरणस्थानसमाख्यानां समवाये पारदौबेस्य-
मथविग्रकषीत्' ( जे° घच० ३।३।१४ ) इति ।
[ जब किंसी यज्ञम किसी मंत्र के | विनियोग का बोध उसश्नुति-प्रमाण
से होता दै जो तुरत बोध करानेमें समर्थटहै तब ओर किसी की आकांक्षा
न रहने के कारण दृसरे प्रमाणो की प्राप्ति नहीं होती । | अथातो ब्रह्मजिज्ञासा"
मरे अथ का अर्थं अधिकारठेकेने से किसके द्वारा ब्रह्मकी जिज्ञासा की जाय ?'
ट्स प्रकार अधिकारी की आकांक्षा होती है, मोक्ष के वाक्यों को देखकर
उनसे कैसे मोक्ष उत्पन्न होता है, उस प्रकार साधन की आकाक्षा होती है । यह
आकांक्षा ही श्रकरण' केनामसे पुकारी जाती है) प्रकरण के बल सेही
"अथातो ब्रह्मजिज्ञासा" मे मोक्ष के वाक्यों के साथ इसकी संगति अनुमान से
बेठायी जाती है अर्थात् ब्रह्मजिज्ञासा मोक्ष का साधन है' एेसा अर्थं प्रतीत
होता है । उस लिग से मुमृष्चु व्यक्ति को श्रय की जिज्ञासा करनी चाहिए एसा
दब्द मालूम होता है। इस प्रकार प्रकरण के बाद वाक्य ओर तब लिगि ओर
उसके अनन्तर शब्द--इस रूप मे अधिकारी की प्राप्ति बहुत विलम्ब से होती
हे । यदि दूसरी ओर, अथ का अथं 'आनन्तयं' छं तब तो अथ शब्द के अर्थं
केवल से (श्रुतिसे) ही अधिकारीकी प्रतीति हो जाती दहै कि साधन-
चतुष्टय से संपन्न व्यक्ति ही अधिकारी हो सकता है । अभिप्राय यहद कि
योगसूत्र के “अथ' ओर ब्रह्यसूत्र के 'अथ' के पृथक्-पृथक् अथं क्योकि दोनोंकी
परिस्थितियां भिन्न-भिन्न दै । |
इसके अतिरिक्तं यह पृचछा जाय कि भ्रुतिसे अथं-बोध होने पर प्रकरण
आदि से उसके ( श्रुति के अर्थं के ) विरुद्ध अरथंकी प्रतीति होती टै या अविरुद्ध
अर्थं की ? विरुद अर्थं प्रतीति तो नहीं हो सकती क्योकि जो विष्द्ध अथं का बोध
करावेगा वह प्रकरणादि बाधित ( खंडित ) हो जायगा । यदि अविष्ढध अथंकी
५ [आ 2 त त त 7
प 1 द थ 9 -कवः क
^) न
६७२ सबेदशेनसंप्रहे-
प्रतीति होती हो तब तो वह व्यर्थही हो जायगा । इसे कहा भी दै श्रुति, छखिगि,
वाक्य, प्रकरण, स्थान ओर समाख्या, इनका एक स्थान पर संघं उत्पन्न होने
पर क्रम में पी आनेवाला प्रमाण दुबल पड़ता है क्योकि उसमे अथं बहुत दूर
पड़ जाता है" ( मी सु° ३।३।१४ ) 1
३. बाधिकेव श्रुतिर्नित्यं समाख्या बाध्यते सदा ।
मध्यमानां तु बाध्यत्वं बाधकत्वमपेक्चया ॥ इति च ।
तस्माद्विषयादिमखत् बह्मविचारकशास्रवदयोगानुशान-
मारम्भणीयमिति स्थितम् |
[ उक्त छह प्रमाणो में बाध्यबाधक संबन्ध का निर्णय इस प्रकार है-- 1
श्रति केवल बाधक बन सकती है, ( बाध्य नहीं क्योकि इसके पहठे कोई प्रमाण
नहीं होता )। समाख्या केवल बाध्य बन सकती है, ( बाधक नही, क्योकि
इसके बाद कोई प्रमाण नहीं होता )। बीच के प्रमाण [ अपने पूवं कमके
प्रमाणो के साथ संघं होने पर ] अपेक्षासे बाध्य होतेहैँया [ अपने बादके
क्रमक प्रमाणो के साथ संघं होने पर | बाधक भी होते हैं।
इस प्रकार इस | परे विवेचन | के पश्चातु यह सिद्ध हआ कि विषय
आदि अनुबन्धो से युक्त होने के कारण, ब्रह्म का विचार करनेवाले ( वेदान्त );
शाख कौ तरह, योगानुशासन ( योगासन ) का भी आरम्भ करना चाहिए ।
( ६. योग ओर शाख म सम्बन्ध )
नयु व्यत्पाद्यमानतया योग एवात्र प्रस्तुतो न शाद्लमिति
चेत्-सत्यम् । प्रतिपाद्यतया योगः प्राधान्येन प्रस्तुतः । स
च तद्विषयेण श्ाघ्ेण प्रतिपाद्यत इति तत्प्रतिपादने करणं
व ¢ ० © ^
खाक्ञेम् । करणगाचरश्च कतेव्यापारा न कमगाचरतामाचरति |
| अभी भी कोई शंका कर सक्ता है किं | उत्पन्न करने की वस्तुतो
योग दहै अतः योगदही यहां पर प्रस्तुतदहैन कि शाख्र। [ उत्तरम करगे
करि | बात ठीक है । प्रतिपाद्य होने के कारण प्रधानकरूपसे योग ही प्रस्तुत दहो
रहा है लेकिन उसका प्रतिपादन योग-विषयक शाल्रसे होता है, अतः योग
के प्रतिपादनमे करण ( साधन ) का काम शाख्रही करतादटै। यह सामान्य
नियम दहै कि कर्ताका व्यापार (क्रिया) करणसे ही अधिक सम्बन्ध रता दहै
कमं से नहीं ।
पातञ्खलन्दशेनम् ६७३
यथा छेतुर्दबद्स्य व्यापारभूतमुद्मननिपातादिकम॑कर-
णभूतपरञुगोचरं न कमेभूतवृक्षादिोचरम् । तथा च वक्तुः
पतञ्रलेः प्रयचनव्यापारपेक्षया योगविषयस्याधिकृतता करणस्य
शालस्य । अभिधानव्यापारपिक्षया तु योगस्यैवेति विभागः \
ततश्च योगश्ाखरस्यारम्भः संभावनां भजते ।
जैसे वृक्ष को काटनेवाले देवदत्त का व्यापार अर्थाच [ कुल्हाड़ी | ऊपर
उठाना, गिराना आदि कायं ( क्रिया ) परशु ( कुल्हाड़ी ) रूपी करण से
सबद्ध हे, वृक्षादिरूपी कमंसे नहीं । उसी प्रकार यहां पर वक्ता पतंजलि
का प्रवचनल्पी व्यापार (क्रिया) हो रहाहै। जिसका विषय योगहै एसे
क पग-स्वल्प शास्र काही आरम्भ उस व्यापार के द्वारा अपेक्षित है ।
। पतज्जलिः योगं शाल्ेण प्रवक्ति इस वाक्य से ही मादरमहो जायगा कि
कौन किस कारक मेह इसीलिए कमं की अपेक्षा करण की प्रधानता होने
के कारण, राल्रका ही सम्बन्धं पतंजलि के प्रवचन सेदहै, न कि योग
का। | पतंजलि काव्यापार यदि | प्रवचन करना न होकर | अभिधान
करनाहो तबतो योग का आरम्भ मानं यही विभाजन-रेखा है । तब
योगगाखर के आरम्भ की सम्भावना हो सकती है ।
(७. योग का लक्षण ओर समाधि )
अत्र चानुशासनीयो योगचित्तवृत्तिनिरोध इत्युच्यते । ननु
संयोगार्थतया 0 [क युजेर्निष्पन्न)
युजिर्योग इति संयोगाथेतया परिपठिताद् योग-
शब्दः संयोगवचन एव स्यान तु निरोधवचनः । अत एवोक्तं
याज्ञवस्क्येन-
संयोगो योग इत्युक्तो जीबात्मपरमातमनोः । इति ।
यहां यह कहना है किं जिस योग॒ का अनुशासन करना अभीष्ट है उसका
लक्षण है, चित्त की वृत्तियों का निरोध । अव प्रदन हो सकता है कि ^. /युज् =
योग करना" इख प्रकार संयोग के अथं पड़े गये युज्-धातु से बना हजा योग ब्द
संयोग का वाचक हो सकता है निरोध का वाचक नहीं । इसीलिए याज्ञवल्क्य ने
कहा है-- “जीवात्मा जौर परमात्मा के संयोग को ही योग कहा गया है ।'
३ स० सं°
।॥। < € संभ्े
| &ऽ४ सबदशनसंग्रहे-
। ए ¢ र #
| तदेतद्वातेम् \ जीवपरयोः संयोगे कारणस्यान्यतरकमोदेर-
||| संभवात् । अजसंयोगस्य कणभक्षक्षचरणादिभिः प्रतिक्षेपाच ।
मीमांसकमतानुसरेण तदज्खीकारेऽपि नित्यसिद्धस्य तस्य साध्य-
[मनेकाथस्वेन ४
त्वाभावेन चाखवेफल्यापत्तेश्च । धात्नामनेकाथेत्वेन युजः समा-
6 -्
ध्यथेस्बोपपत्तेधथ । तदुक्तम्-
४, निपाताश्चोपसगाश्च धातवश्चेति ते त्रयः )
| अनेका्थाः स्मरताः सर्वे पाटस्तेषां निदशेनम् ॥ इति ।
| [ उक्तं शंका ] निस्सार है क्योकि जीवात्मा ओर परमात्माके संयोग के
[|| लिए, कारण के रूपम उन दोनोंमेसे किंसीमे भीक्रिया आदिका होना
असंभव है । [नतो जीवात्मा ही चछ सकता है न परमात्मा, जतः दोनों का
संयोग ही नहीं होगा । संयोग होने के तीन प्रकार है-( १ ) दो संयोगी पदार्थो
में किसी एक की क्रिया से उत्पन्न संयोग, जेसे- पक्षी के बैठने से वृक्ष ओर पक्षी
| का संयोग । ( २ ) दोनों पदार्थो की क्रिया से उत्प संयोग--दो पहक्वानो का
| संयोग, ( ३ ) संयोग से उत्पन्न संयोग जेसे- दाथ ओर वृक्षके संयोगसे शरीर
।६॥ ओर वृक्ष का संयोग । यह भेद काल्पनिक है । जीव ओर परमात्मा भे कोई भी
॥ | ऊद सम्भव नहीं क्योकि वे विभु,
१ [ अव यदि आपरोग दोनों के संयोग को नित्य मानकर उक्त कठिनाई से
।॥ वच जाना चाहते ह तो हम करगे कि | नित्य संयोग को तो कणाद ओर गौतम
। आदि ऋषियोंनेही नहीं मानादै। [ संयोग कौ नित्यता संयोगी पदार्थो की
नित्यता पर भी निर्भर करतीदहै। इष दृष्टिसे घट ओरपटकाया घट ओर
आकारा का संयोग नित्य नहीं है । दोनो संयोगियों के {नित्य होने पर भी संयोग
की अनित्यता देखते हं । दो परमाणु नित्य हँ पर उनका संयोग तो अनित्य है ।
वास्तव मे संयोग एक क्रिया है जिसकी उत्पत्ति होती है, विना होता दै दो
संयोगियो मे एक के विभ्र रहने पर भी स्थान काभेदतोहोगाही ओर संयोग
कौ. उत्पत्ति नये प्रकार से होती रटेगी--अतः संयोग कायं ही बना रहेगा । दोनों
संयोगियों के विश्रु होने पर संयोग नित्य होगा किन्तु एेसे संयोगसे कामही
क्या होगा ? कायं भी नित्य ही रहेगा । उस संयोग के किए चेष्टा ही क्यों होगी ?
ठेसे सम्बन्ध को समवाय कहते ह । संयोग सदा अनित्य रहता है । |
मी्मासकों के मतानुखार यदि नित्य संयोग स्वीकार करं तो भी इस ( नित्य
संयोग ) का कोई साध्य ( प्रयोजन, लक्षय ) नहीं मिल सकता । ( यदि जीवात्मा
पातज्जल-दशेनम् ६५५
परमात्मा में संयोग नित्य हो तो यह हमारा लक्षय नहीं बन सकता क्योकि वह
पहले से ही सिद्ध है इसके लिए प्रयत की आवद्यकता नहीं । | अतः योगलास्तर
की प्रक्रियायेंभी व्यथंहो जायंगो। [ इससे बचने का उपाय यह् है किं ] धातु
अनेकार्थक होते हँ ओर इसीलिए युज्-धातु को समाधि के अर्थम भी सिद्ध किया
जा खकता है । यही कहा है-- "निपात, उपसगं ओर धातु, ये तीनों अनेकार्थं
माने गये है, उनके पाठो मे जो उदाहरण मिल्तेहैँ[वे ही इसके प्रमाण हैं । |
अत एव केचन युजि समाधावपि पठन्ति--धुज समाधौ
(पा० धातुपार, दि० ७१, आत्मने०) इति । नापि याज्ञवल्क्य-
वचनव्याकोपः । तत्रस्थस्यापि योगशब्दस्य समाध्यथत्वात् ।
५. समाधिः समतावस्था जीवात्मपरमातमनोः ।
ब्रह्मण्येव स्थितियां सा समाधिः प्रत्यगात्मनः ॥
इति तेनोक्तत्वाच्च । तदुक्तं भगवता व्यासेन ( योग भा०
१।१ ) योगः समाधिरिति ।
इसीलिए कुछ लोग ( पाणिनि आदि ) युज्-धातु का अथं समाधि भी मानते
है ओौर तदनुसार उनके धातुपाठ मे मिलता भी है-- युज समाधौ" ( दिवादि
७१, आत्मनेपद )। याज्ञवल्क्य की बात का भी इससे खंडन नहीं होता,
याज्ञवल्क्य के उप्यक्त वाक्य मे भी योग-शब्द समाधि के अथमेहीदटै। | जीव
ओर परमात्मा का संयोग अर्थात् सम्यक् योग = साम्यावस्था ही योग ( = समाधि)
कहकाता दहै । बुद्धि आदि कल्पित उपाधियों से युक्त धर्मा को छोडकर
स्वाभाविक अनासक्तिके रूपमे जीव की, परमात्मा की तरह, अवस्थिति हो
जाने को साम्यावस्था कहते हैँ । इसी का प्रतिपादन “निर्जन: परमं साम्य-
मुपेति" ( मं° ३।१।३ ) इत्यादि श्रृतियों में हा है, यही मुक्ति है । |
याज्ञवल्क्य स्वयं कहते है "जीवात्मा ओर परमात्मा कौ साम्यावस्था
समाधि है। जीवात्मा की जब स्थिति ब्रह्ममेंहो जाय वही समाधिदै ।'
इसे व्यास ने भी भाष्य ( योगभाष्य २।१) में कहादहै-योग समाधिको ही
कहते टै ।
( ७ क. योग का अथं समाधि-आपत्ति )
नन्येवमष्टाङ्योगे चरमस्याङ्गस्य समाधित्वभुक्तं पतञ्जलिना
पात० यो० घ्र २।२९ )--यमनियमासनप्राणायामप्रस्याहार
६७६ सर्बेदशेनसंग्रदे-
धारणाध्यानसमाधयोऽष्टावङ्गानि योगस्य' इति । न चाङ्गी
स
< ष्य, ५ ©
एवाङ्गतां गन्तुपुस्सहते । उपकार्यापकारकमावस्य दशेपूणमास-
्रयाजादौ भिन्नायतनत्वेनात्यन्तभेदात् । अतः समाधिरपि न
योगशब्दार्थो युज्यत इति चेत्-- ।
ङ्स प्रकार एक शंका हो सकती है । एेसा होने पर योग के आठ अंगोमे
अंतिम अंग को जो पतञ्जलि ने समाधिं कहा दहै, इसका क्या उत्तर होगा ?'
संबद्ध सूत्र यह है--यम, नियम, आसन, प्राणायाम, प्रत्याहार, धारणा, ध्यान
ओर समाधि, ये योग के आठ अंग है ( योगसूत्र २।२९ ) । अंगी ( योग ) ग
नहीं बन सकता । [ यदि योग का अथं समाधि लेते ह तब तो योग या समाधि
ही अंगी है जिखके आठ अंग हैँ । पुनः समाधिं को एक अंग भी मानते हैँ अतः
उपकारकं ओर उपकायं एक ही मानना पडता है जो संभव नहीं । फर यह
होगा कि चित्तवृत्तिनिरोध वाले सूत्र तथा प्रस्तुत “यमनियम°' सूत्र मे विरोध
होगा । योम भौर समाधि में अन्तर करना ही पड़ेगा -एक अंगी ( उपकायं }
है, दूसरा अंग ( उपकारक ) । |
दश्धूणंमास ( उपकायं, अंगी ) तथा प्रयाज ( उपकारक, अग ) के संबन्ध
की तरह उपकरायं ओर उपकारक का संबन्ध, दोनों के आश्रय भिन्न रहनेके
कारण, आत्यन्तिक भेद की अपेक्षा रखता है । इसलिएश्योग शाब्द का समाधि
अर्थं रखना युक्तियुक्त नहीं दै
(~ त्राभिधि ए ¢ [> ५
तन्न युज्यते । व्युत्पत्तिमात्राभिधित्सया (तदेवाथमात्रनिभासं
स्वरूपशल्यमिव समाधिः” ( पात० यो० ० ३।३ ) इति निर-
पितचरमाङ्गवाचकेन समाधिशब्देनाङ्गिनो योगस्याभेदविवक्षया
व्यपदेश ् © ©
व्यपदेश्नोपपत्तेः । न च व्युत्पत्तिवलादेव सवत्रश्ब्दः प्रबतेते ।
तथात्वे गच्छतीति गौरिति व्युत्प्तेस्तिष्ठनगौनं स्यात् । गच्छ
देवदत्तश्च गोः स्यात्
[ उक्त शंका का समाधान-- ] यह तकं ठीक नहीं है 1 केवल व्युत्पत्ति
( प्रकृति ओौर प्रत्यय से उत्पन्न अवयवा ) जनित अर्थं कहने को इच्छा से ही-
"उस ध्यान में ही जब केवल दद्य अर्थं की प्रतीति होती है तथा जो अपने किसी
भीरूपसे शून्यहो जातादटै तब उसे समाधि कहते है" ( यो° सु° ३।३ )--
इस सूत्र में निरूपित अन्तिम अङ्ख के वाचकं समाधि शब्द से अङ्खी योग-शब्द
का अभेद बतलाने के किए ही व्यास ने वैसा ( योगः खमाधिः ) कठा हे । [ व्यास
पातञ्जल-दशेनम् ६७७
ने अपने भाष्य में योग का व्युत्पत्तिजन्य अर्थं ही समाधि को बतलाया है । व्या-
हारिक अर्थं॒जिसे प्रवृत्तिनिमित्त भी कहते है" तो कुछ दूसरा ही है- चित्तवृत्ति
का निरोध । व्युत्त्तिजन्य अथं भी कृ देना हौ था, इसीलिए समाधि का पीछा
करिया गया । पिसी बात नहीं कि समाधिहीयोगका खदा के लिए अथंदहै।
वयुत्पत्तिजन्य अर्थं का जो अधिकार है वही इसे भी प्राप्त है । |
तेसा नहीं सोचना चादिए कि शब्द की परवृत्ति ( व्यवहार ) सब जगह
व्युत्पत्ति के बल से ही होती है । यदि पेखा हृजा करता तब तो ' जानेवाली वस्तु
को गौ (./ गम्) कहते है" अतः इस व्युत्पत्ति के अनुखार गौ कभी भी स्थिर नहीं
हो सकती 1 उधर यदि देवदत्त नाम का कोई व्यक्ति चलायमान होता तो उसे
भी गौ ही कहते । [ इसीलिए योग शब्द की व्युत्पत्ति से उत्पन्न अथं ही इसका
वरमा्थं या व्यवहा राथ (प्रवृत्तिनिमित्त) नहीं दै । योगिक शब्दो के साथ पेसी बात
भले ही हो क्योकि वहाँ अवयवो का अथं ही प्रवृत्तिनिमित्त होता है । योगदूढ या
रूढ शब्दों मे तो व्युत्पत्तिनिमित्त की अपेक्षा प्रवृत्तिनिमित्तही प्रधान रहता है 1 उसी
के अनुसार शाब्द का प्रयोग होता है । गो' शब्द का प्रवृत्तिनिमित्त (व्यवहा राथ)
है गोत्व", जबकि व्युत्पत्तिजन्य अर्थं ठे गमन क्रिया का आधार! गो' शब्द का
व्यवहार व्युत्पत्तिजन्य अथे के अनुसार नहीं होता । उसी तरह "योग' शब्द का
व्यवहार भी प्रवृत्तिनिमित्त के अनुसार ही होता हं क्योकि यह् रूढ शाब्द है ।
योग का अर्थं 'खमाचि' तो व्युत्यत्तिनिमित्त ( 12€1181156 068 पाह ) होने
के कारण गोणदहै।|
( ७ ख. योग का व्यावहारिक अर्थ - चित्तवृत्तिनिरोध )
प्रवृत्तिनिमित्त च प्रागुक्तमेव--चित्तद्ृत्तिनिरोध इति ।
तदुक्त--“योगधित्तशृ्तिनिरोधः' ( पात. यो. छ. १।२ , इति ।
ननु वृत्तीनां निरोधशरे्योगोऽभिमतस्तासां ज्ञानत्वेनात्माश्र
यतया तन्निरोधोऽपि प्रध्वंसपदवेदनीयस्तदाश्रयो भवेत् ।
प्रागमावश्रष्वंसयोः प्रतियोगिसमानाश्रयत्वनियमात् । ततश्च--
(उपयन्नपयन्धमीं विकरोति हि धर्मिणम्' इति न्यायेनात्मनः
कौटस्थ्यं विहन्येतेति चेत्-- ।
योग॒ का प्रवृत्तिनिमित्त ( 1188986 ) तो पहले ही बतलाया गया कि
चित्तवृत्ति का निरोध दै। सूत्रकारने कटा भी टै--'चित्तकी वृत्तियों का
&७८ सबदशनसंप्रहे-
निरोधदहो जाना योग दहै" (यो० सू० १।२)। [ वृत्तियां पाच रह-प्रमाण,
विपर्यय, विकल्प, निद्रा तथा स्मृति (योऽ सु १।६)1 अज्ञात वस्तुका
निदचय कराने वाटी वृत्ति प्रमाण है । विपयंय = मिथ्याज्ञान । वास्तविकता से.
दूर तथा काल्पनिक प्रतीति को विकल्प कहते है जैसे यह ब्राह्मण सूर्यं है, खरे
की सींग आदि । इनका निरोध हो जानादहीयोग दै) |
अब एक शंका होती है कि यदि आपवृत्तियोंके निरोध (विनाश) को
योग मानतेदैतोये वृत्तया, ज्ञान होने के कारण, आत्मा पर आधित होंगी
ओर इनका निरोध अर्थात् प्रध्वंस ( विनाश ) भी उसी आत्मा पर आश्रित हौ
` जायेगा) प्रागभाव ओर प्रध्वंघाभाव अपने प्रतियोगी के आधार पर ही निर्भर
करते है । [ जिस वस्तु का अभावहोताटहै वह अभाव का प्रतियोगी होता
है । यदि घटका प्रागभाव या प्रध्वंसाभावहैतो अभाव धर्मी हा ओर षट
प्रतियोगी । ये धर्मी ओरं प्रतियोगी दोनों एक ही आधार पर निर्भर करते है ।
यह नियम दै 1 |
उसके बाद--^धमं के आगमन या विनाश से धर्मी में विकृति उत्पन्न होती
हे", इख नियमसे आत्मा की कृटस्थता ही समाप्त हो जायगी । | कट =
मूलस्वरूप । उसमें अवस्थित रहना कृटस्थता है । आत्मा इटस्व है अर्थात्
इसमे कभी विकृति नहीं होती । यदि वृक्तियाँ आत्मनिष्ठ हैँ तो उनका विनाश
( प्रध्वंसाभाव ) भी आतमनिष्ठ ही होगा। वृत्तिर्या आत्माके धमं । यदि
इनका विनाश होता हैतो आत्मा मे विकृति उत्पन्न होती है क्योकि धमं के
आगम या विना से धर्मी विकृत होता दहै। इसलिए वृत्तियो के विनाश के
समय आत्मा मे विकार होगा ओर उसकी कूटस्थता नहीं रह सकेगी । |
विरोष--'उपयन्नपयन्धर्मोः का न्याय बहुत प्रसिद्धै तथा दो उल्लेख
इसके मिलते ह । एक तो सिद्धान्तबिन्दु ( वेदान्त का ग्रंथ, रचयिता-- मधुसुदन
सरस्वती, १५६० ई० ) की टीका न्यायरल्ावली ( रचयिता-्रह्मनन्द
सरस्वती, समय-१६५० ई० ) मे; दूसरे, सूतसंहिता के शिव माहात्म्यखंड के
आरभमें विद्यारण्य को टीकामे।
तदपि न घटते । निरोधप्रतियोगिभूतानां प्रमाणविपयय-
विक्पनिद्ासृतिसवरूपाणां वृत्तीनामन्तःकरणाद्यपरपयांयचित्त-
धमत्वाङ्गीकारात् । क् टस्थनित्या चिच्छक्तिरपरिणामिनी विज्ञा- `
नधमाश्रयो भवितुं नाहत्येव । |
न च चितिशक्तेरपरिणामित्वमसिद्धमिति मन्तव्यम् |
पातञ्जल-दशेनम् ६५६
।चितिशचक्तिरपरिणामिनी सदा ज्ञातत्वात् न यदेवं न तदेवं
यथा चित्तादि" इत्या्ुमानसंभवात् ।
उप्यक्त शंका करना भी ठीक नहीं दै । निरोधया विनाश के प्रतियोगी के
रूप में वृत्तया प्रमाण, विपर्यय, विकल्प, निद्रा ओर स्मृति- स्वीकृत की गई
है ( अर्थात् इन वृत्तियों का ही निरोध होता है )। ये वृत्त्या अन्तःकरण अदि
( = बुद्धि, चित्त, अन्तःकरण ) के नाम से पकारे जाने वाले चित्तके ही धर्मं
मानी गई है । [ ज्ञान, चित्त का ही परिणाम है। बुद्धि की वृत्तिम विषयों काः
आकार आ जाना ज्ञान है ओर विषयों के आकार से उपरक्त बुद्धि की वृक्तिका
प्रतिबिम्ब चित्-शक्ति पर पड़ता है । जसे जल में प्रतिबिम्बित होने की सामथ्ये,
रूप से युक्त स्थूल द्रव्य में है उसी प्रकार पुख्ष में प्रतिबिम्बित होने को सामथ्ये,
वृत्ति से युक्त चित्तमे ही है । उस समय वृद्धि की वृत्तियों से भेद-प्रहण न कर
सक्ते के कारण उस प्रकार की बुद्धि की वृत्तियोंसे अभिन्न रूपमेंचितिशक्ति
वस्तुओं का अनुभव करती है । फलतः ज्ञान वास्तव में बृद्धि का धमं है, आत्मा
का नहीं । आत्मा की कंटस्थता पर कोई प्रभाव नहीं पडता । |
[ नैयायिकादि जो ज्ञान को आत्मा के धमं मानते हैँ उनका उत्तर यहं है--|
चित्-रक्ति ( चैतन्य या आत्मा ) कूटस्थ (मूल रूप में स्थित }, नित्य तथा
परिणाम ( परिवत॑न, विकृति ) से रदित है, वह विज्ञान-धमं का आश्रय नहीं
हीहो सकतीदै। [ज्ञान का अथंहै विषयके आकारके सहश अकारमें
परिणत होना 1 आत्मा अपरिणामी दै अतः ज्ञान का आश्रय वह नहींहो
सकती है । |
एेसा नहीं समञ्नना चाहिए कि चितिशक्ति (आत्मा) का अपरिणामी
होना असिद्ध है । [ चितिशक्ति को अपरिणामी माननेके क्एि | इसप्रकार के
अनुमान की संभावना है--
( १ ) चितिशक्ति अपरिणामी है । ( प्रतिज्ञा )
(२) क्योकि यह सदा ज्ञाता के रूपमे रहती है । ( हेतु )
(३) जो ठेसा ( अपरिणामी ) नहीं है वह् वैसा ( ज्ञाता ) भी नही,
जैसे चित्त आदि । ( व्यतिरेक दृष्टान्त }
विदोष--चित्-शक्ति का विषय है वृत्ति से युक्त चित्त। चित्त के विषय
घटादि पदाथ दहै। ये घटादि चित्-गक्तिके सीधे विषय नहीं, परपरासेहो
सकते है । .चितुशक्ति > चित्त > धटादि 1 घटादि पदार्थो का ज्ञान तभी हो
सकता है जब इन्दरिय-संयोग, प्रकार आदि साधन विद्यमान हों। यदि साधन
॥
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९८८ सदनं
हीनरँतो ये विद्यमान रहने पर भी अज्ञात पदार्थं ही रङग । यह तो हुआ
चित्त ओर घटादि का संबन्ध । चित् शक्ति ओर चित्त मे ठेसा संबन्ध नहीं है ।
एेसा नहीं होता किं चित्तवृत्ति विद्यमान होने पर भी अज्ञात रहै । वृत्ति में अज्ञात
सत्ता हो नहीं सकती । नहीं तो विद्यमान रहने पर भी चित्तवृत्ति की अज्ञात
अवस्था में निम्नलिखित संशय होते ही रहते-- भं सुखी नहीं या मेँ दुःखी नही'
इत्यादि । इसलिए चित्तवृत्ति खद्। ज्ञात रहती है ओौर चित्-गक्ति जिस समय चित्त-
वृत्ति का साक्षात्कार करती है उस समय अपरिणामी ही रहती है । यदि चित्त
की तरह ही चित्-शक्ति में भी परिणाम मानेगे तवतो दकि परिणाम कायं है,
` इसक्एु कभी होगा कभी नहीं, फलतः चित्तवृत्ति सदा ज्ञात नहीं हो सकेगी ।
अवज्ञान की प्रक्रिया पर भी विचार करकं। विषयों का ज्ञान जब चित्त
वृत्तिकेद्राराहोता है तब विषय अपने आकार का समर्पण चित्तवृत्ति में कर
देते हैँ । किन्तु जब चित्तवृत्ति का ज्ञान चित्-गक्तिके द्वारा होता है तब वृत्ति
चित्-शक्तिमे केवल प्रतिविम्वितही होती दै। जब बुद्धि की वृत्ति विद्यमान
रहेगी तब प्रतिबिम्बन क्रिया अनिवायं है । अतएव आत्मा ( चितु-दक्ति) ज्ञाता
केरूपमें सदा अवस्थित रहती रै। निष्कषं यह् है किं चित्तवृत्ति सदा ज्ञात
होती रहती टै ओर चितु-शक्ति सदा ज्ञाता बनी रहती है । अतः चित्-शक्ति
अपरिणामी ही रहती है । अगे इसे मूर मेही स्पष्ट करेगे 1
उपयुक्त अनुमान में दृष्टान्त व्यतिरेक-विधि का दिया गया है क्योकि अन्वय.
विधिमें मिलना ही संभव नहीं था।
तथा यद्यसौ पुरुषः परिणामी स्यात्तदा परिणामस्य कादा-
चित्कत्वात्तासां चित्तवृत्तीनां सदा ज्ञातत्वं नोपपद्येत । चिद्रू-
न, [8 9 - {५ ®
पस्य पुरुषस्य सदबाधिष्टात्रस्वेनावस्थितस्य यदन्तरङ्गं निमेलं
सस्व तस्यापि सदेव स्थितत्वात् । येन येनार्थेनोपरक्तं मवति
च, ~ >
तस्य दर्यस्य सदव वचच्छायाप्यां भानोपपरसा पुरुषस्य
निःसङ्गत्वं संभवति ।
एसी स्थिति मे यदि वह पुरुष (आत्मा) परिणामी होता तो चकि
परिणाम कभी-कभी हआ करता है, इसलिए चित्त की वृत्तियाँ मी सदा ज्ञात
नहीं हो सकतीं । चित्-रक्तिके ल्पमेजो पुरुषै वह अविष्ठाताके रूपमें
सदा ही उवस्थित रहता है। उसके अंतरंग में निमंल सत्ताकी मी स्थिति
सदा रहती है । जिस-जिस अथं ( वस्तु) के साय [ चित्त ] उपरक्त होता है
पातञ्जल-दशंनम् ६८१
उस हरय वस्तु की छाया चित्-शक्ति ( आत्मा ) पर पड़ती है तथा प्रतीति होती
है-- इस प्रकार पुरुष की निःसंगता संभव है ।
ततश्च सिद्धं तस्य सदा ज्ञातरत्वमिति न कदाचित्परिणामि-
त्वशङ्कावतरति । चित्त पुनर्यन ष्रिषयेणोपरक्तं भवति स विषयो
ज्ञातः, येनोपरक्तं न भवति तदज्ञातमिति वस्तुनोऽयस्कान्तमणि-
करपस्य॒ज्ञानाज्ञानकारणमृतोपरागानुपरागधर्मित्वादयःसधर्मकं
चित्तं परिणामीत्युच्यते ।
इस प्रकार यह सिद्ध हृभा कि परुष ( आत्मा ) सदा ज्ञाता बना रहता है,
इसलिए उसके परिणामी ( परिव्तंनश्षील ) होने की चछंका कभौ नहीं उठ सकती ।
अव चित्त को यह दशाह क्रि वह जिस विषय से उपरक्त ( संबद्ध) होता है,
वही विषय ज्ञात होता है । जिससे उसका उपराग नहीं वह अज्ञात ही रहता
है ) वस्तु अयस्कान्त मणि ( चुम्बक }1907166 ) की तरह होती हे तथा चित्त
लोहे की तरह है। ज्ञान का कारण उपराग ( संबंध ) है तथा अज्ञान का
कारणा उपरागन होनाहै। ये ( उपराग ओौर अनुपराग ) चित्तके धमं
इपोलिए उसे ( चित्त को ) परिणामी कहते है । [ चुम्बक क्रियाशील ] नहीं है
किन्तु वह॒ आङ कर सकता है । विषय भी क्रियाहीन हीह किन्तु लोहि के
समान क्रियाशील चित्त को अपनी बोर आक्रृष्ट करके ( इन्द्रियो के द्वारा ) अपने
आकार को तरहका आकार स्मित करते है। आकारका समपंरा ही
उपराग कहलाता है । उपराग होने पर विषयों का ज्ञान होता, न होने पर
नहीं । उपराग धमं है जो चित्त के परिणामी होने पर ही संमव है, अतः चित्त
का परिणामी होना सिद्ध होता है।
विदोष-- प्रस्तुत स्थल भारतीय मनोविज्ञान के अध्ययन के लिए अदन्त ही
उपादेय है । चित्त की वृत्तियों का विश्लेषण योग मे हौ हआ है ।
( ८. चित्त ओर विषयौ का संवन्ध )
नु चित्तस्येन्द्रियाणां चाहंकारिकाणां सवेगतत्वात् स्व॑-
विषयेरस्ति सदा संबन्धः । तथा च सर्वेषां सर्वदा सर्वत्र ज्ञानं
प्रसज्येतेति चेत्--न । सवेगतत्वेऽपि चित्तं यत्र शरीरे इ्ति-
मत्, तेन शरीरेण सह संबन्धो येषां विषयाणां, तेष्वेवास्य ज्ञानं
भवति, नेतरेष--इत्यतिग्रसङ्गाभावात् । अत एवायस्कान्तमणि-
&८२ सवेदशेनसंग्रहे-
कर्पा विषया अयःसधर्मकं चित्तमिन्दरियप्रणालिकयाऽभिसंबध्यो-
परञ्जयन्तीद्युक्तम् ।
अब यहाँ पर शंका हो सकती है किं अहंकार से उत्पन्न होने वाली इन्द्रियां
तथा चित्त स्व॑व्यापक है अतः सभी विषयों के साथ इनका सदा संबन्ध होता
हे । इस प्रकार तो सभी समय, सभी जगह, सभी चीजों का ज्ञान होने लगेगा ।
[ तात्पयं यह है कि चित्त ओौर इन्द्ियोंको विग्र माना जाता है। यदि चित्त
को विभ्रुन मानकर अणु मानेंगे तो एक बार मे अनेक विषयों के साथ संबन्ध
नहीं हो सकेगा तथा एकाग्रता माननी पड़ेगी । जब एकाग्रता पहले से ही सिद्ध
है तब योगदाख मे एकाग्रता के उपदेश की विधि व्यर्थंही हो जायगी । इसीलिए
चित्त को विभ्रु मानते दहै । दूसरे, यदि मन विरु नहींहोतातो सुगंधित जल
पने मे य। बडे-बड़े पए खानेमे एक साथ ही जोदो इन्द्रियों के दवारा अनुभूति
होती है ( सुगंध-नाक, जल-जीम; बडे बडे--आंल, पुए-जीभ ) वह नहीं हो
सकती । योगी लोग जो एक ही साथ अदिल पदार्थो का साक्षात्कार कर लेते
है वह भी संभव नहीं हो पाता। योगियों का यह साक्षात्कार लौकिक प्रत्यक्ष
ही है, अलौकिक नहीं । योगके द्वाराज्ञान के प्रतिबन्धक कारणा भर दुर कर
दिये जाति है, नहीं तो यह साक्षात्कार सामान्यद्ष्टिसेही होता है। इद्दिर्यो
को भी इसीलिए विभ कहा गयाहै। यदिये विश्रु नहींहोतींतो योगी लोग
देशान्तर मे स्थित पदार्थो का साक्षात्कार वैसे करते ? यह दूषरी बात दहैक्रि
इन्द्रियां अपनी वृत्तियों का लाम नि्दिष्टस्थान षपरही करतीहै। स्थानोंके
आधार पर इन्द्रियों को अणु कह देते पर यह कहना केवल ओौपाधिक
( (20कोप्जाश् ) है । इद्ियां साल्वक अहंकार से उत्पन्न होती है ओर
अहंकार व्यापक है अतः इन्द्रियो को विभु मानने में कोई अङ्चन भी नहीं है ।
फल यह होगा कि मन ( चित्त ) ओर इन्दो के व्यापक होने के कारण समी
विषयों का संनिकषं सदा होता रहेगा । चाहे योगी हो या अयोगी, सदाही
ज्ञान होता रहेगा । |
[ इस शंका का उत्तरदहैकि | एेसी बात नहींहै। सर्वव्यापक होने पर
भी चित्त जिस शरीर में वृत्तिसे युक्तं (= विषय के आकार में परिणत)
होता है उस शरीर के साथ जिन विषयों का सम्बन्ध होता है उन्हीं ( विषयों )
केसाथदही उस शरीर का ज्ञान-सम्बन्ध होता, दूसरों के साथ नही इष
प्रकार अतिप्रसक्ति नहीं हो सकती । इसीलिए ( चित्त का परिणाम शरीर मे
हो होता है अन्यत्र नही, इसलिए ) चुंबक की तरह विषय लोह-सहश चित्त
3 १८६ ४
पातञ्ञल-दशेनम् ६८३
को इद्द्रियरूपी प्रणाली ( पराध्यम ) से संबद्ध करके उपरक्त करते है, ठेसा कहा
गया है । ( देखिये- व्यासभाष्य *४।१७ ) ।
तस्मान्चित्तस्य धमां वृत्तयो नात्मनः । तथा च श्रतिः-
कामः संकस्पो विचिकित्सा शद्धाशरद्धा ध्रतिरधरतिहीधींमीरित्यि-
तत्सवं मन एव" ( ° १।५।३ ) इति । चिच्छक्तेरपरिणा-
मित्वं॒प्श्चशिखाचार्येराख्यायि--अपरिणामिनी भोक्तशक्ति-
रिति । पञ्जलिनापि-'सदा ज्ञाताधित्तवृत्तयस्ततप्रभोः पुरुष-
स्यापरिणामित्वात्' ( पात° यो० च ४।१८ ) इति । चित्त-
परिणामित्वेऽ्नुमानड्च्यते-- चित्तं परिणामि ज्ञाताज्ञातविषय-
त्वात् शरोत्रादिवदिति ।
इसलिए वृत्तियां चित्त के धमं है, अत्मा के नहीं। इसके लिए श्रुति
भी प्रमाण है-- "काम ( इच्छा), संकल्प ( यह नील है इस प्रकार का
ज्ञान ), सन्देह ( विचिकित्सा ), श्रद्धा ( आस्तिक वृद्धि ), अश्रद्धा, वेयं, अवेयं,
ललना, बुद्धि(या ज्ञान) भौर भय, ये सभी मन ( 110) दही दहै।"
( बृहदाररयकोपनिषद्, १।५।३ ) 1 पंचरिख आचायं ने चित्-शक्ति ( आत्मा )
का अपरिणामी होना बतलाया भी है--भोक्तृशक्ति ( अर्थात् आत्मा ) अपरि-
णामीहै' ( यो० सू० २।२० के भाष्य मेंव्यास हारा उदुधुत )। पतंजलि ने
भी कहा है--"{ चित्-शक्ति के विषय के रूप मे ] चितवृ्तिर्यां सदा ज्ञात रहती
है, [ चित्त के विषयभूत घटादि पदार्थो की तरह ज्ञात ओर अज्ञात दोनोंही
नहीं रहतीं ], कारण यह दहैकिं उनका भोक्ता पुरुष परिणामी नहींहै'
( यो० सू० ४।१८ )। चित्त को परिणामी माननेके लिएतो अनुमान दिया
जाता है-
( १) चित्त परिणामी है। ( प्रतिज्ञा )
( २ ) क्योकि इसके विषय--घटादि- ज्ञात भी है, अज्ञात भी । (हेतु) `
(३) जिस प्रकार धरोत्र आदि इन्धियां ह । ( दृष्टान्त )
( ८ क. परिणाम के तीन भेद् )
परिणामश्च त्रिविधः प्रसिद्धो ध्मेलक्षणावस्थाभेदात् ।
नीला्यालोचनं धमेपरिणाम
धमिणधित्तस्य नीलाद्यालोचनं ; । यथा कनकस्य
व ककय # वाक
--म- 0 4 -> - ~~ =
६८४ सबवैदशंनसंम्रहे-
कटकमुञ्टकेयुरादि । धमेस्य वतत॑मानत्वादिरक्षणपरिणामः ।
नीलाद्यारोचनस्य स्फुटत्वादिरवस्थापरिणामः । कटकादेस्तु
नवपुराणस्वादिरवस्थापरिणामः । एवमन्यत्रापि यथासंभवं
परिणामत्रितयमूहनीयम् । तथा च प्रमाणादिदृत्तीनां चित्तम
त्वात्तन्निरोधोऽपि तदाश्रय एषेति न रकिचिदयुपपन्नम् ।
परिणाम तीन प्रकार का प्रसिद्ध है-धमंपरिणाम, लक्षणपरिणाम
ओर अवस्थापरिणाम । जब धर्मी अर्थात् चित्त नीलादि का साक्षात्कार ( नोल
के आकार में चित्तवृत्ति का परिणाम ) करता है तब उसे धमपरिणाम
कहते ह जेसे कनक के [ धममपरिणाम कटक ( कंगन ), कुण्डल, केयूर आदि
है। [ अबस्थितधर्मी मे एक धमं का तिरोभाव होने पर दूसरे धमं का
आगमन होना धम-परिणाम है। चित्तके धमं इसकी अनेक वृत्तियां है जो
विषयों के आकार में रहती है । नील का साक्षात्कार करने पर जो नीलाकार `
वृत्ति रहती है उसका तिरोधान होने पर दूसरे विषयों का साक्षात्कार करने पर
उस दुसरे आकार की वृत्ति काप्रादुर्माव होतादहै। कनक में कंगन के धमं
का तिरोभाव हो जाने पर मुकुटके धमं का आगमनहोताहै। भिहरी मे पिड
का धमं लुप्त होने पर घट-घमं आता है आदि-आदि। योगशा भी सांख्य
की तरह सत्काय॑वाद को मान्यता देता है इसलिए इन धर्मोका विनाश्या
उत्पत्ति नहीं मान सकते । सभी धमं सदा वतंमान रहते है । यही कारण है
कि धर्मो का तिरोभाव ओर आविर्भाव कहते है--विनाश्च ओर उत्पत्ति
नहीं । ]
धमं का वतमान होना आदि लक्षणपरिणामदहै। [जेसे धर्मी स्वरूप
से सदा विद्यमान रहने पर भी विभिन्न धर्मो से युक्त होता है उसी प्रकारं प्रत्येक
धमं सदा विद्यमान रहने पर भौ भविष्यत् , वतमान ओर भूतके छ्पमें
विभिन्न लक्षणो से युक्त होता है। यही धमं का लक्षणपरिणाम है। एक
लक्षण छोडकर धमं ॒दूसरे लक्षण से युक्त हो जातादहै। धमंके समान हीये
लक्षण भी तिरोभूत या आविर्भत होते है अतः सत्कायंवाद की रक्षा हौ
जाती दहै।]
नीलादि का साक्षात्कार करनेमें स्फुट होना आदि अवस्थापरिणाम
है, कंगन आदि मे नया, पुराना आदि होना ही अवस्थापरिणाम है1 [ नील
का साक्षात्कार वर्तमान के लक्षणपरिणाममें होने पर भी अवस्थाके भेदसे
तारतम्य रख सकता है । को साक्षात्कार स्फुट हो सकता है कोई स्पफुटेतर,
पातञ्जल-दशेनम् ६८५
कोई अस्फुट तो कोई अस्फुटतर । उसी प्रकार कनक के धमं कटक मे भी
तारतम्य हो सकता है--कोई नवीन, तो कोई प्राचीन आदि) यह अवस्था-
परिणाम क्षण-शछषणमे होता है। अवस्थित लक्षण ही जब्र एक अवस्था
छोडकर दूसरी अवस्था में प्रवेश करता है तभी यह परिणाम होता है । |
हस प्रकार टूसरे स्थानों मे भी यथाव तीनों परिणामों का अन्वेषण कर
लेना चाहिए । इसी तरह प्रमाण आदि वृत्तियां ( यो सू° १।६ ) चकि चित्त
के धर्मं है इसलिए इन वृत्तियों का निरोध भी चित्त परही आचरित है--अतणएव
यँ पर कोई बात असमंजस मे डालने वाली नही है ।
(९. योग का अथं वृत्तिनिरोध लेने पर आपत्ति )
ननु वृत्तिनिरोधो योग इत्यङ्गीकारे सुपप्त्यादो किपषमृदाः
दिचि्तदृ्तीनां निरोधसंभवाद् योगतभ्रसङ्गः । न चेतचुज्यते ।
धिप्ता्यवस्थासु शप्रहाणादेरसंभवान्निःश्रेयसपरिपन्थित्वा्च ।
तथा हि--शिष्तं नाम तेषु तेषु विषयेषु क्षिप्यमाणमस्थिरं चित्त-
च्यते । तमःसथूद्रे मग्नं निद्रावृत्तिभावितं मूढमिति गीयते ।
किप्रादिशिष्टं चित्तं विक्षिप्रमिति गीयते ।
अब यहाँ पर एक शंका है कि जब आप योगका अथं वृत्तिका निरोध
होना स्वीकार करगे तो सुषुपत्ि आदि दशाओं मे क्षिप, मूढ तथा दूसरौ चित्त-
वृत्तियों का निरोध तो होता ही है, अतः उन दशाओं को भी योग ही मान
लेना पडेगा [ जिससे योग के उक्त लक्षण में अतित्याप्ति-दोष उत्पन्न हो जायगा ।
चित्त की पाच अवस्थाय है क्षिप्त, मूढ, विक्षिप्त, एकाग्र तथा निरुद्ध । सुषुति
( 80५ 8च्शु) ) की दशामें क्षिपत ओौर विक्षिप्त वृत्तियां नहीं रहतीं ।
उसी तरह जागृति की दशा मे मूढ वृत्ति नहीं रहती है। बद्धजीवमें एकाग्र
तथा निरुद्ध वृत्तियों का अभाव या निरोध सदेव बना रहताहै। तोक्या
वृत्तियों के निरोधके कारण इन दशओंको भीहमयोगही कहं देगे ?
वत्तिनिरो का अथं आप कुछ वृत्तियों काही निरोधलेते है, सभी वृत्तियो का
नहीं । यदि एसा नहींहोतोयोगके रूपमे मानी गयी संप्रज्ञात समाधिमें
अव्यापि होगी क्योकि उसमे आत्मविषयक सात्विक वृत्ति का निरोध तो नहींही
होता है । |
पुनः, उक्त दशाओं को योग मानना युक्तियुक्त मौ नहीं है । क्षिप्त आदि
अवस्याओं मे कलेश कौ आत्यन्तिक निवृत्ति ( प्रहाण ) असंमवतोदहै ही,
----- --- ~क ० -6 क केक क क
€&८६ सवेदशेनसंग्रहे-
साथ-साथ वे दायं मोक्ष का विरोध भी करने वाली ह । वह इस प्रकार है--
द्वित वह चित्त है जो विभिन्न विषयों मं प्रवृत्त होने पर अस्थिर ( चंचलं )
है। [ रजोगण के आधिक्यके कारण यह चित्त बहिमुंख होकर विषयों पे
ररित होता है। दैत्यों ओर दानवो मे रेखा चित्त सदा ही साथ रहता है । ]
तमोगुण के समुद्र मे इवा हुआ तथा निद्रावृत्ति से युक्त चित्त को मृद कहते है ।
[ एसे चित्तमें कत्य ओर अकृत्य का विचार नं हीं रहता तथा यह क्रोधादि
दण से भरा रहता दै । राक्षसो ओौर पिज्चाचों में प्रायः सदैव रेखा चित्त
रहता है । ]
जो चित्त क्षिप्तसे विशिष्टहो उसे विश्षित्त कहते है । [ इस चित्त में
सत्त्वगुण का उद्रेक होता टै तथा यह दुःख के साधनों को त्याग कर सुख के
साघक विषयो -जेसे शब्द आदि मेँ प्रवृत्त होता है। देवताओं मे पेसा चित्त
सदा ही रहा करता है। यह चित्त किसी विशेष विषय के अनुसार कभी-कभी
छ समय के लिए स्थिरमभी होजताहै। योंयह भी चंचल ही है। इसी
विशेष का वंन अब गीताके प्रमाणा से करेगे तथा इतकी स्वाभाविक.
च॑चलता का उल्लेख योगसूत्र के आधार पर ही करने जा रहे है। |
विञेषो नाम-
चञ्चलं हि मनः कृष्ण प्रमाथि बलवद् इदम् ( गी ° ६।३४ )
इति न्यायेनास्थिरस्यापि मनसः कदाचित्कसथद्भूतविषय-
ययं #ै [ क व॑ ~ #
स्थेयसंमवेन स्थेयम् । अस्थिरत्वं च स्वामाविकं व्याध्याचयनु-
शयजनितं वा । तदाह--“व्याधिस्त्यानसंश्यग्रमादालस्याविर-
तिभ्रान्तिदशेनारब्धभूमिकत्वानवस्थितत्वानि चित्तविकषेपास्तेऽ-
न्तरायाः ।' ( पात ० यो० घरू° १।३० ) इति ।
| अपर कहा गया है कि क्षित से विक्षिप्त में विशेषता होती है। | अब उस
विशेषता का अथंदहैस्थिरता। €है कृष्ण! मन बडा चंचल है, यह प्रमाथी
{शरीर ओर इन्दियों में क्षोभ उत्पन्न करनेवाला ) है, बलवान् ( जिसका
निवारणा अभिप्रेत विषयसे किसी तरहभी न हो सके ) तथा दढ ( विषय-
वासना रूपी दुगं मेँ रहने के कारण अभेद्य ) भी है।' ( गी° ६।३४ ) इस
नियमसे, विषयों को कभी-कभी स्थिर करना संभव होने के कारण, मनको,
अस्थिर होने पर भी, स्थिर किया जा सकता है। ( विक्षिप्त मे यही विशेषता
है)1 मनकी अस्थिरताया तो स्वाभाविक है या व्याधि-आदि अनुशयो
{ अनुबन्धो, पूरवंकृत कर्मो के फलों ) से उत्पन्न होती है । इसे कहा है- “्याषि
पातञ्जल-दशनम् ६८७
( 310०९88 ), स्त्यान ( 1शप्णः), संशय ( [0प्छ४), प्रमाद
{ (8&16€1€8811€88 ), आलस्य ( 14211688 ), अविरति ( ५५९०
० ०४९८8 ), श्रान्तिदर्शन ( 1107060 [९१८९0०7 ), अलन्धभूमि-
कत्व ( 81116 {0 8६४४४17 80106© 8४86 ) ओर अनवस्थितत्वं ( 17)8-
180111४ ), ये चित्त के विक्षेप ( अस्थिर बनाने वले) है अतःयेयोगके
अन्तराय ( बाधक } ह ।' ( यो० सू० १।३० )। [ इन अन्तरायो का वर्णान
अलग-अलग मी कररहेरहै। उसके साथ ही पुर्ंपक्ष का उपसंहार किया
जायगा । |
तत्र दोपत्रयवेषम्यनिमित्तो ज्वरादिव्याधिः। चित्तस्याक-
मेण्यत्वं स्त्यानम् । विरुद्रकोचिद्ियावगाहि ज्ञानं संशयः । समा-
पधस्रावनानाममावन प्रमादः; । श॒रीरवाकचित्तगुरुत्वादप्रवृत्तिरा-
लस्यम् । विषयाभिलाषोऽविरतिः । अतरिमस्तद्बुद्विभ्रीन्तिदरे-
नम् । इतधिन्निमित्तात्समाधिभूमेरलाभोऽलन्धभूमिकत्वम् ।
लब्धायामपि तस्यां चित्तस्याग्रतिष्ठाऽनवस्थितत्वमित्यथंः
तस्मान्न वृत्तिनिरोधो योगपक्षनिक्षेपमहंतीति चेत्-- ।
उनमें तीन दोषों ( वात, पित्त, कफ ) की विषमता से उत्पनन ज्वरादिको
व्याधि कहते है । चित्त का अकर्मण्य ( योगानृष्ठान के असमथं ) होना स्त्यान
है। दो विरोधी विकल्पों के साथ सम्बद्धज्ञान संदाय दहै। समाधि के साधनों
कौ भावना ( प्राप्ति के लिए यत्न ) न करना प्रमाद है। शरीर, वाणी या मन
के भारी होने से क्रिसी काम में प्रवृत्तिन होना आलस्यरहै। [ कफ आदिकी
बृद्धिसे शरीर भारीहोजाताहै। तामस पदार्थोके सेवनसे वाणी मीभारी
हो जाती है तथा तमोगुण के उद्रेकं से चित्त भारी हो जाता है । ] विषयों की
अभिलाषा रखन। अविरति है। एक वस्तुमे दूसरी वस्तुका ज्ञान कर लेना
श्रान्तिददोन है । किसी भी कारण से समाधिभूमि ( मधुमती आदि किसी भूमि)
को न पा सक्ना अलब्धभूमिकत्व कहलाता है । [ मधुमतो आदि भूमियों का
वरान इसी दर्शन में आगे करगे । ] समाधि-मूभि को पा लेने पर भी उसमे चित्त
का प्रतिष्ठित न होना अनवस्थितत्व है । यही सूत्र का अर्थं है।
इसलिए ( क्षिप्तादि अवस्थाओं मे वृत्ति का निरोध होने ¶रभी योग के फल
कैल्पमें प्राप्त क्लेशहानिसे निःश्रेयस-प्राप्ति नहो सकने के कारण ) वृत्ति
निरोध को हम योग का लक्षण नहीं मान सकते ।
|
|
|
हप सबेदशेनसम्रदे-
( ९ क. समाघान )
मैवं बोचः । हेयभूतक्षप्रा्यवस्थात्रये त्तिनिरोधस्य योग-
त्वासंभवेऽप्युपादेययोरेकाग्रनिरुद्रावस्थयोन्रेत्तिनिरोधस्य योगत्व-
संमवात् । एकतानं चित्तमेकाग्रषुच्यते । निरुद्रसकलवृत्तिकं
संस्कारमात्ररेषं चित्तं निरुद्रमिति मण्यते ।
रेखा मत कहो । क्षिप्त आदि तीन अवस्थायं त्याज्य ह अतः उनके विचार
से [ उनमे अतिव्याति होनेके भसे वृत्तियों के विरोध को योगमभ्लेहौीन
माने किन्तु जहाँ तक एकाग्र ओौर निरु इन दोनों उपादेय अवस्थाओंका
सम्बन्ध है, वृत्ति-निरोध को योग मानना हौ पडेगा । [ वास्तवमें क्िप्तादि
अवस्थाओं मे भी एकाध वृत्ति का निरोध हो जाने से हमे उन अवस्थाओंमें योग
के लक्षणा कौ अतिव्याप्ति नहीं समञ्चनी चाहिए । योग के लक्षण में जो चित्तः
वत्ति-निरोध आया है उसका अथं है- द्रष्टा को अपने स्वरूप मे आत्यन्तिक रूप
ते अवस्थित करा देनेवाला चित्तवृत्तिनिरोध या क्लेश, ` कर्मादि का विनाश्चक
चित्तवृत्तिनिरोध । एेसी बात नहीं करि एक वृत्ति का निरोध हो जाने सेयोगदहो
गया ओर इस लक्षणा पर दूसरी अवस्था कोमीहम योग कह दं । क्षिप्त, मूढ
या विक्षिप्त अवस्था मे किसी वृत्ति का निरोध हो जाता है सही, परन्तुन तो
उख निरो से द्रष्टा अपने स्वरूप में अवस्थित ही हो सकता है गौरनदही वह ..
निरोध क्लेश आदि का विरोधी है। |
[ स्वगुण से भर जाने पर ] जब चित्त किसी एक वस्तु मे स्थिर हो जाता
है तब उसे पकाग्र अवस्था कहते हैँ । जव चित्त कौ सारी वृत्तिथां सुक जायं,
केवल संस्कार भरहीशेष रहे तो उसे निरुद्ध चित्त कहते है। [ये दोनों
अवस्था योगके लिए उपादेय है अतः इनके विचार से योग चित्तवृत्ति का
निरोधतोदटैही।]
( १०. समाधि का निरूपण--इसके भेद )
स च समाधिदिविधः- संपरज्ञातासंपरजञातभेदात् । तत्रेकाग्र-
चेतसि यः प्रमाणादिचृत्तीनां बाद्यविषयाणां निरोधः स संप्रज्ञातः
समाधिः । सम्यक् ्रज्ञायतेऽस्मिन् प्रतेरविविक्ततया ध्येयमिति
व्युत्पत्तेः । स चतुविधः । सवितकोदिभेदात् । समाधिनोम
भवना । सा च भाव्यस्य बिषयान्तरपरिहारेण चेतसि पुनः
पुननिवेश्ञनम् ।
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पातञ्जल-दशंनम् ८६
[ योग के पर्याय के रूपमे प्रसिद्ध | यहसमाधि दो प्रकार की है-संपरज्ञात्त
(जिसमे ज्ञान सण हो ) ओौर असंप्रज्ञात ( जिसमे स्पष्टज्ञान भीन रहे )। जब
एकाग्र अवस्था में आये हए चित्त में बाह्य विषय अर्थात् प्रमाणा आदि वृत्तियों
कानिरोधहो जाय तन उसे संग्रज्ञात समाधि कहते है । इसकी व्युत्पत्ति
( निर्वचन ) दै कि जिसमें श्रेय वस्तु प्रकृति से पृथक् रूप मे अच्छी तरह प्रज्ञात
हो । इसके चार भेद है -सवितकं आदि ( = सविचार, सानन्द तथा सास्मित) ।
समाधि एक तरह की भावना है ओर इसका अभिप्राय है माव्य वस्तु ( जिस
वस्तु का चिन्तन हो रहा वह वस्तु) को दूसरे विषयों से बवाकर चित्ते
बार-बार बेडाना । [ स्मरणीय दकि सभी विषयोंका निरोव हो जाने परमौ
स्रज्ञात समाधि में आत्मविषयक सासविक प्रमाणवृृत्ति रहती ही है । |
भाव्यं च दिविधम्-देधरस्तखानि च । तान्यपि द्विवि
धानि जडाजडभेदात् । जडानि प्रक़ृतिमहदहंकारादीनि चतुर्वि-
शतिः । अजडः पुरुषः । तत्र तदा प्रथिव्यादीनि स्थलानि विषय
त्ेनादाय पूवोपरायुसंधानेन शब्दारथोच्छेखसंमेदेन च भावना
प्रबतते स॒ समाधिः सवितकंः । यदा तन्मा्ान्तःकरणलक्षणं
0 ©
छर्म ॒विषयमालम्ब्य देशादयवच्छेदेन भावना प्रवर्तते तदा
सबिचारः ।
भाव्य वस्तुकेभीदोभेदरहै--ईश्वर भौर तत््वसमूह् तच्वसमूह दो प्रकार
के है जड़ ओौर अजड । प्रकृति, महत्, अहंकार आदि चौती जड पदार्थं हैँ ।
पुरुष ( जीवात्मा } अजड है ।
( १) सवितकं समाधि वह है जवर इन भाग्य वस्तुं भ से प्रथिवी
अदि स्थूल पदार्थो को विषयके रूपमे लेकर, पुत्रं भौर अपरके क्रमक ,
अनुसंधान करते हुए तथा शब्द भौर उनके अथ॑ के उल्लेख कौ एकता दिखाते
हए कोई भावना प्रवृत्त होती है । [ वितकं = स्थूल वस्तुओं का साक्षात्कार ।
इस साक्षात्कार कौ उत्पत्ति उस भावना से होती है जिसमे "पहले सामान्य तव
विशेष" या "पहले धर्मी तब धमः इस प्रकार पूर्वापर का क्रम खोजा जाता है ।
शरीर ओर इन्द्रियम जो गण दोष पहले से सुने गये हँ उन्हींमे यहक्रम
खोजते हैँ । यदि कोई विशेष पठलेसे सुने नहीं गयेहों, तबमी कोई बात
नहीं --योग-बल से भावनाके बिना भी साक्षात्कार हो जायगा । योगसूत्रे
कहा गया है तत्र शब्दारथज्ञानविकल्पैः संकीर्णा सवितकां ( १।४२ ) अर्थात्
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६६० सवंदशनसंग्रदे-
शब्द, अथं ओर ज्ञान के भेदोंसे मिली हुई ( तीनों भिन्न पदार्थो की निशे
अभेद.प्रतीति हो ) सवितकं समापत्ति होती है । सवितकं मे शब्द, अथं ओर
ज्ञान कामेद बना ही रहता टै कि यह गौ शब्द है, उका यह् अथं है तथा उन
दोनों को प्रकाशित करने वाला एक ज्ञान है। इसमे स्थूल पदार्थो का ही ग्रहण
होता है । |
(२) सविचार वह समाधि है जब्र तन्मात्र ( रूप, रस आदि ) तथा
अन्तःकरण, इन सूक्ष्म पदार्थो को विषय बनाकर देश, काल भादि ( =निमित्त)
के विचार से मिलकर भावना उत्पन्न हुई हो । [ देश, काल भौर कार्य-कारण का
अनुभव रखते हुए सूक्ष्म तन्मात्रो मे शब्दादि भेदो से भिधित समापत्ति सविचार
हि। का्यं-कारण का अनुभव इस रूपमे होता है- सूक्ष्म पृथिवी का कारण
है गन्धतन्मात्र प्रधान पांच तन्मात्र, इत्यादि । |
विन्लेष- स्थूल पदार्थं विषण्क साक्षत्कार के सवितकं ओौर निवितकं दो
भद है जवकर सविचार ओर निविचार सृकष्म-पदाथंविषयक साक्षात्कार के भेद
ह । विशेष विवरण के लिए देख -योगसूत्र ( १।४२-४४ ) ।
यदा रजस्तमोलेशानुविद्धं चित्त भाव्यते तदा सुखप्रका-
जमयस्य सखस्योद्रेकात्सानन्दः । यदा रजस्तमोठेज्ञान-
[ऋ च ॥) © 1
भिभूतं श्द्धं स्वमारम्बनीषरत्य या प्रवतेते भावना तदा तस्व
` सखस्य न्यग्भावाचितिनशक्तेरद्रेकाच सत्तामात्रावशेषत्वेन सारिमतः
५ (~ 0
समाधिः । तदुक्तं पतञ्जलिना--वितकषिचारानन्दास्मितारूपा-
नुगमात्संपरज्ञातः ( पात० यो० छर० १।१७ ) इति ।
(३ ) जब रजोगुण भौर तमोगुण के लेशमात्र अंश से युक्तं चित्त की
भावना की जाती है तब सुख ओर प्रकाल से निमित सर्व का उद्रेक होता
है-यही सानन्द समाधि है। [ इस अवस्था में सत्व प्रबल रहता है ओौर
चिति.शक्ति दबी हई रहती है। जिस प्रकार काल्पनिक राज्य में विचरण
करते हुए ( 128 तष्टा या दिवास्वप्न देखते हुए ) मनुष्य को आनन्द
आता है वही आनन्द इस समाधिम भी है। दुःख ओर मोह लेशम।तर रहते ह,
सुख ( सत्व ) प्रचुर मात्रामें रहता है । |
(४ ) जव रजोगुण ओौर तमोगुणा का लेश भी न रहै, वैसे शुध सच्वगुण
पर आधारित होकर भावना उत्पन्न हो तब उस स्वके भी दब जाने से तथा
विति-शक्ति के उद्रेक से केवल सत्ता का ही बचा रह जाना सास्मित समाधि
पात्तञ्जल-दशनम् ६६१
है। [ इस समाधिम ईश्वरस्वरूप तथा जीवस्वरूप दोनोंकोजडसे पृथक्
करके देवते है । "अहमस्मि" केवल यही अकार बचा रहता है। पहले
जीवात्मा के विषय की अस्मिता होतौ है । उसके बाद उससे भी सूक्ष्म अस्मिता
परमात्मा के विषयमे होती है । यही चित्त की अंतिम भूमिदहै। इसके बाद
कोई ज्ञेय विषय रहता ही नहीं । |
पतंजलि ने इसे कहा है--"वितकं, विचार, आनंद ओौर अस्मिता नामक
स्वल्पो के संबंधसे [ जो चित्त की वृत्तियों का निरोध होता है वह | सप्रज्ञात
समाधि होती है" ( यो. सू° १।१७)।
विरोष-माधवाचायं ने योगसूत्र १।१७ की भोजवृक्ति से उपयुक्त पेक्तियां
ली है । चित्त की उपयुक्त चार भूमियों (३8४९९९8) को क्रमशः मधुमती, मधुप्रतीका,
विशोका तथा संस्कारशेषा कहते ह । अब असंप्रज्ञात समाधि का निरूपण करते हैँ ।
सर्वदृत्तिविरोधे त्वसंप्रञातः समाधिः । ननु सवेवृत्तिनि-
रोधो योग॒ इत्युक्ते संप्रज्ञते व्यापिने स्यात् । तत्र सचप्रधा-
नायाः सखपृरुषान्यताख्यातिलक्षणाया वृत्तेरनिरोधादिति चेत्-
तदेतद्वा्तम् । छशकर्मविपाकाशयपरिपन्थिचित्तवृत्तिनिरोधो
योग इत्यङ्गीकारात् ।
कितु जब सभो वृत्तियों का निरोध हो जाता है तव समाधि असंधक्ञात
कहलाती है । यहाँ पर एक प्रहन हो सकता है कि जब आप सभी वृत्तियो का
निरोध होना योग है" एेसा कहते, है तब तो संप्रज्ञात समाधि ( जिसमें कछ ही
वृत्तियो का निरोध होता है, अहंकार रह ही जाता है) इस लक्षरा के अन्दर नहीं
आ सकेगी । उस { संप्रज्ञात समाधि) में सत्त्व ओौर पुरुष की पृथक् प्रतीति
का निदेश करने वालो सच्वप्रधान [ प्रमाण ] वृत्तिका तो निरोधनहींही
हो पाता। किन्तु यह प्ररन बिल्कुल निस्सार है क्योकि क्लेश, कमं, विपाक
ओौर आशयके विरोधीके रूप में चित्त-वृत्ति-निरोध को हम योग मानते है।
[ निरोध का अथं सभी वृत्तियों का निरोध ही नहीं है प्रत्युत जिससे क्लेशादि
का विनाश दहो। संप्रज्ञात समाधिमे भी क्लेशादिका निरोध होता है अतः
वहां भी चित्तवृत्ति-निरोध तो हुआ ही । |
( ११. पांच प्रकार के क्लेरा--अविद्या पर आपत्ति )
क्लेशाः पुनः पञ्चधा प्रसिद्धाः--अविद्यास्मितारागद्रेषः-
भिनिवेशाः क्लेश्चाः ( पात० यो० ० २।३ ) इति ।
६६२ सबेदशेनसंम्रदे-
नन्वविचेत्यत्र॒फिमाश्रीयते १ पूर्वपदाथंप्राधान्यममधिकं
| वतंत इतिवत् । उत्तरपदाथप्राधान्यं वा राजपुरुष इतिवत् ।
॥& अन्यपदाथप्राधान्यं बा अमक्षिको देच इतिवत् ।
।
त
क्लेश पाच प्रकारके प्रसि है--'अविद्या (एक वस्तु को दूसरे ल्पमें
| ॑ समञ्लना ), अस्मिता ( चित्त ओर पुरुष को एक समञ्चना }, राग ( विषयो की
॥ | अभिलाषा ), द्वेष ( क्रोध ) तथा अभिनिवेश ( देह आदि से कभी वियोगन हो,
| 1.1 | इस प्रकार की मनोभावना }-ये क्लेश है" ( यो° सु° २।३ ) ।
| ॥ अवप्रश्हैकि अविद्या" शब्दम किस समास का अवलम्बन लेते है?
| 'अमक्षिकं वतंते" ( मव्खियों का अभावहो गया) इस समासको तरह क्या
| |. पू्व॑पदाथं को प्रधानता ( अन्ययीभाव समास ) मानते ह ? [ (अव्ययं विभक्ति"
( [|| ( पा० सु० २।१।६ ) से अभाव के अथं में मक्षिकाणामभावः' करने से
। | | 'अमक्षिकम्' बनता है । उसी तरह "विद्यायाः अभावः अविद्या" बनता होगा ।
| अव्ययीभाव समासत में पूर्व॑पदाथं की प्रधानता होती है। ] अथवा राजपुरुषः"
| कौ तरह उत्तर पदाथं कौ प्रधानता ( तत्पुरुष समास) मानते है ? [ नन् तद्पुरुष
| 1 समासं मे इसका अर्थं होग- किसी वस्तुके अभाव से विश्लिष्ट विद्या ॥
|| राजपुरुषः = राजा के संबन्ध से युक्त पुरुष । उत्तरषदा्थं अर्थात् पुरुष प्रधान
| है । ] अथवा “अमक्षिको देशः ( वह देश जहां मक्खियां नहीं है) कीतरह
॥ अन्य पदार्थं कौ प्रधानता ( बहुव्रीहि समास ) मानते है ? [ न मक्षिका यस्मिन्
॥. अमक्षिको देः । यहां अन्य पदाथं अर्थात् देश की प्रधानता है। उसी तरह्
| | अविद्यमाना विद्या यस्याः सा अविद्या बुद्धिः" यह् अर्थंहो जायगा । |
| तत्र न पूर्वः । पूवंपदार्थप्रधानत्वेऽविद्यायां प्रसज्यप्रतिषे-
|| धोपपत्तौ क्ठेशादिकारकत्वानुपपत्तः । अविद्याश्ब्दस्य खीलिङ्ग-
॥ त्वाभावापत्तेध । न दवितीयः। कस्यचिदभावेन विशिष्टाया
| | विधायाः क्लेश्चादिपरिपन्थित्वेन तद्वीजत्वाचुपपत्तेः ।
| । पहला विकल्प [ कि यह अव्ययीभाव समास है | नहीं माना जा सकता)
1 | अविद्या" शब्दमे पूरवंपदा्थं की प्रधानता मानने पर प्रसज्य-प्रतिषेध की सिद्धि
| होमी । [ प्राति के साथ ` प्रतिषेध होना प्रसज्यप्रतिषेव ह । जेसे--“भब्राह्यणः'
।
। | | कह्ने से ब्राह्मण के अभाव की प्राप्ति होती है। अविद्या" मे विद्या की प्राक्त
| ` होक्रर उसका अभाव प्रतीतं होगा । विद्या के सदश किसी भावात्मक ( {` 081-
(~| ४१८ ) पदाथ की प्राप्ति होनी चाहिए । किन्तु एेसी बात यहां नहीं । केवल
पातञ्जल-दशनम् ६६३
अभावहीतोप्रतौत होता है! विद्याका अभाव | क्लेश आदि को उत्पन्न नहीं
1 ४ कर सकता [ किन्तु अविद्या क्लेशादि उत्पन्न करती है । ] दूसरे, अब्ययीभाव
समासमं अविद्या" शब्द स्रीलिग नहीं रह सकता । [ अव्ययीभावश्च" ( पा०
सु २।४।१८ } सूत्र के अनुसार अव्ययीभाव समास केवल क्लीबलिग ही
होते दहै।]
[ तत्पुरुष समास-- नन माननेवाला ] दूसरा विकल्प भी ठीक नहीं ही है ।
यदि क्रिसीके अमाव से विशिष्ट ( (88616186 ) विद्या को अविद्या
कहते हैँ ( = यदि राग, द्वेष, शोक, मोह आदिमे से किसोएकके अभावसे
युक्त ज्ञान ही अवि्या है) तो एेसी भविद्या क्लेशादि का विनाञ्च ही करेगी, उनका
बीज ( उत्पादक ) नहीं हो सकती । [ इस समास में अविद्या = विद्या । ओर
विद्या क्लेशादि को नष्ठ ही करेगी, उत्यत् नहीं । |
न तृतीयः । ननोऽस्त्यथानां ब्रहव्रीहिवा चोत्तरपदलो-
पञ्चेति वृत्तिकारवचनानुसारेणाविद्यमाना विद्या यस्याः सा
अधिद्या बुद्धिरिति समासाथसिद्धौ तस्या अविद्यायाः क्लेश्ादिवी-
जत्वानुपपत्तेः । षिवेकख्यातिपूवंकसर्ववरत्तिनिरोधसंपनायास्त-
स्याः तथात्वश्रसङ्गाच्च ।
[ अविद्ा ये बहुत्रीहि समास की भावना करने वाला ] तीसरा विकल्प भी
ठीक नहीं है । वात्तिक के रचयिता ( कात्यायन ) का कहना है कि नज. ( अ,
अन् ) के बाद होना" ( अस्ति, विद्यमान, वतमान ) के दाचक शब्दों का किसी
दूसरे पद के साथ बहृव्रीहि समास होता है ओर [पूवं पद में प्रयुक्त शब्दों-मे
से | उत्तर पद का वैकल्पिक लोप भौ होता है । [जैसे - अधनः" में अविद्यमानं
घनं यस्यसः" विग्रह करते है, अ + विद्यमान ( लोपप्राप्त )। विद्यमान ओर धन
का समास हुआ है। ] तदनुसार, अविद्यमान है विद्या जिसकी वह अविद्या
बुद्धि है । जब इस रूप मे समास के अर्थं की सिद्धि करेगे तो वह अविद्या [केवल
विद्यारहित बुद्धि होनेके कारण, कोई भावात्मक षदा्थंन होने के कारण |
क्लेश जादि का कारण नहीं बन सकती ।
[ यदि कोई पृ कि विद्याभावकोक्लेशका हेतु मानलं तोक्या दोष
है ? तो उसका उत्तर यह् है] वह बुद्धिही क्लेश आदिका कारण बन
जायगी जो विवेक-ज्ञान ( प्रकृति भौर पुरुष के भेद का दछन ) कर लेने के बाद
बुद्धि की सभी वृत्तियों के निरोध से संपन्न हुई है ।
६६४ सबेदशंनसंभरहे-
उक्तं चास्मितादीनां क्लेशानामविद्यानिदानतम्-
(अविद्या कषत्रमुत्तरेषां प्रसुप्रतनुविच्छितोदाराणाम्! ( पात ° यो०
घरू° २।४ ) इति । तत्र प्रसुपत्वं प्रबोधसहकायभावेनानमि-
व्यक्तिः । तनुत्वं प्रतिपक्षभावनया शिथिरीकरणम् । विच्छिन्नं
बलवता क्छेरोनाभिभवः। उदारत्वं सहकारिसंनिधिवशात्काय-
कारित्वम् |
सूत्रकार ने अस्मिता आदि दूसरे क्लेशो को अवि्यामूलक ही माना दै--
"बाद कै प्रसुप्त, तनु, विच्छिन्न ओर उदार क्लेशो का क्षेत्र ( आधार ) अविद्या
ही है" ( यो° सू० २।४ ) । [ पांच क्लेशो मे अविद्या को छोडकर शेव अस्मिता,
राग, द्वेष ओर अभिनिवेश ये चार बचते है। इन चारो मे भौ प्रत्येक के प्रसुप्ादि
चार-चार भेद ह । इन सभी मेदो गौर अवान्तर भेदो की उत्पत्ति अविद्यासे ही
होती है। मणिप्रभा के अनुसार विदेह प्रकृति मे लीन योगियों के क्लेश प्रसुप्त
रहते है--विवेकन्ञान न हो सकने के कारण क्लेश दग्ध नहीं हए है मौरवे
दाक्ति ( 706" ) के रूप में अवस्थित है जिससे अन्त मे फिर उठ सकते है ।
क्रियायोगियों के क्लेश तनु होते है । विषय का सेवन करनेवाले पुरुषों के क्लेश
विच्छिन्न ओर उदारभीदहोतेदै। रामको जिस वस्तु मे राग (विषयाभिलाषा)
है उसमे द्वेष विच्छिन्न हो जातादहै, राग उदार रहता दहै! जहाँ क्रोध उदार
रहता है, वहां राग विच्छत्न हो जाता है। |
उनमे भ्रस्त क्लेश उसे कहते है जो प्रबोध (जागृत ) करने वाले
सहकारी के अभाव मे अभिव्यक्त नहीं हा है। [ये क्लेश चित्तभूमिमेंहैं
पर जगनेवाला न होने से अपना कायं नहीं करते दहै । इस प्रकारके क्लेश
बालकों तथा प्रकृतिलय योगियो मे होते ह । ] तनु क्लेश वह् है जो विरुद
( व्लेशनादाक ] वस्तु को भावना (ध्यान ) से शिथिल कर दिया गयाहो
[ जैसे उन योगियों का क्लेश, जिनमें थोड़ी वासना वचो हुई हो |। क्लेश तब
विच्छिन्न होता है जब किसी दसरे अधिक बलवान् क्लेशके ही दारा परास्त
कर दिया गया हो [ जैसे द्वेष कौ अवस्था में राग विच्छिन्नहो जातादहै भौर
राग की अवस्थामेंद्रेष। ये दोनों चरंकरि एक दूसरे के विरोधी ह इसलिए एक
ही साथ नहीं रह सकते । ] उदार क्लेश वह है जिसमे सहकारी के सामीप्य के
करण कायं उत्पन्न करने की शक्ति हो जाय [ लैसे बद्ध जीवों मेंरागयाद्वेषया
क्रिस क्लेश का अधिक होना । ]
[दा क काक = 1 स क ज
[ए च र कक
पातञ्जल-दशेनम् ६६५
तदुक्तं वाचस्पतिमिश्रेण व्यास माष्यव्याख्यायाम्--
६. प्रसशरास्तचरीनानां तन्ववस्थाश्च योगिनाम् ।
विच्छिन्नोदाररूपाश्च क्ठेशञा विषयसङ्गिनाम् ॥
( तच्ववै° २।४ ) इति।
इन्ढवस्सत्त्रपदा्थदयानवगमादुमयपदाथे्रघानतवं नाशङ्कि- `
॥ तम्। तस्मात्प्षतरयेऽपि क्टेशादिनिदानत्वमविदयायाः प्रसिद्ध
हीयेतेति चेत्- ।
इसे वाचस्पति मिध ने व्यासभाष्य की [ तच्ववेशारदी ] व्याख्या में कहा
भ है--"तच्व मे जो लीन है उनके क्लेश प्रसुप्त रेते है, योगियों के क्लेश तनु-
॥ | अवस्था में रहते ह तथा विषयसेवी पुरषो के कलेश विच्छिन्न ओर उदार रूपमे
्
8 रहते ह ।' ( त० वे ० २।४ )
ह: दनद समास की तरह [ अविद्या-शव्दमेंः] दो स्वतंत्र पदाथं न रहनेके
कारणा उभय पदार्थं की प्रधानता ( इनदर समास होने) कौ भी शंका नहीं करनी
र चाहिए । इषलिए तीनों प्रकार से विग्रह करने पर अविद्या का वह प्रसिद्ध
8 गुण जो क्लेश आदि का उत्पादन करना है, वही खंडित होता है ।
0 ( १९ क. आपत्ति का समाधान )
9 तदपि न शोभनं विभाति । पयुदासञक्तिमा्रित्याविधा-
शब्देन विद्याविरुद्रस्य विपययज्ञानस्यामिधानमिति बदरी
कारात् । तदाह--
4 ७. नामधात्वथेयोगे तु नेव नञ प्रतिषेधकः ।
| वदत्यत्राह्मणाधमौवन्यमात्रविरोधिनौ ॥ इति ।
८, बृद्प्रयोगगम्यो हि शब्दाथेः सवं एव नः ।
तेन यत्र प्रयुक्तो यो न तस्मादपनीयते ॥ इति ।
वह् भी अच्छा नहीं लगता क्योकि पयुंदास-शक्ति का सहारा लेकर
अविद्या" शब्द के हारा, विद्या के विरुद्ध रहने वाले विपयंयज्ञान ( मिथ्याज्ञान }
का अथं पुराने लोग स्वीकार करते ह । [ निषेध की दो दशाये है प्रसज्य भौर
पयदास । प्रसञ्यप्रतिषेष में निषेव कौ प्रधानता रहतौ है जेसे -अमक्षिकं वतते
= यहाँ मकखी तक नहीं है, न पठति, आदि । पर्युदास-प्रतिषेध मे भावात्मक
६६६ सवेदशनसंग्रहे-
पदां कौ प्रधानता होती है । इषसे सहश वस्तु का ग्रहण होता है--अग्राह्मणो
धावति, कटने पर, श्राह्यण के सदश कोई दूषरा व्यक्ति दौड़ रहा ह यहु
भावात्मक ( 2081४156 ) अर्थं होता है। “अविद्या का अथं भी "विद्या का
अभाव" ( प्रसज्य ) न होकर मिथ्याज्ञान ( पयुदास ) है। ेसा ही अथं प्राचीन
आचार्योनेकियाहै।
` इसे कहा है- न॑म (संज्ञा) ओर धातु के अथं से संबद्ध होने पर
नन् निषेध नहीं करता । [ लिड् आदि प्रत्ययो के अथं से संयुक्त होने पर ही
यह् निषेधक धोता है। इमे प्रसज्य" कहते है प्रसज्यप्रतिवेधोयं क्रियया सट
यत्र नन् । जहां नन् निषेध नहीं करता वहां बह पयुदास अर्थात् भेद का निदेश
करता है। ] "अब्राह्मण" शब्द में नब केवल अन्य ( ब्राह्मणभिन्न पूरुष )
कातथा *अधमं' शाब्द में | घमंके | विरोधी अथं का निदेश करता हे।
(८) हम लोगोंको सारा शब्दां वृद्ध ( प्राचीन) पृरुषोंके प्रभोग से जानना
चाहिए । वृद्ध ने किसी हाब्द का प्रयोग जिस अथंमें क्रिथाहै बहु शब्द उस
अथं से पृथक् नहीं किया जाता ।
वाचस्पतिमिश्ररप्युक्तं--रोकाधीनावधारणो हि शब्दार्थयो
संबन्धः । लोके चोत्तरपदाथप्रधानस्यापि नन उन्तरपदाभियेयो
पमदकस्य तद्विरुद्रतया तत्र ॒तत्रोपलब्धेरिहापि तिरु
ग्रवृत्तिरिति
वाचस्पति मिधने भोक्हाहै (त° वे २।५)-- शब्द ओौर उसके अथं
का संबन्ध लोक-प्रयोग के आधार परे ही निधित क्रिया जाता है। लौकिक
प्रयोग में [ तत्पुरुष समास में | यद्यपि उत्तर पदाथं कौ प्रधानता रहती है कि
नञ् तत्पुरुष तो उत्तर पद के अथं ( अभिषेय ) का उपमदंन ( अर्थात् पयुदास
भेद ) करके उस ( उत्तर पदके अथं) के विष्द्धलस्पमें, सर्वत्र पाया जाता
3 चट स 1 ~ न - व
=-= १ ,>=----- -------- ~ -~ -------- -- ।
व
|
|
|
|
|
|
|
|
|
{ है। इसलिए यहाँ ( अविद्या" शब्द मे ) भो [ नन् अपने उत्तरपदाथं- चिद्या
| | के | विषश्द्ध ही प्रवृत्त हो सकता है।' [ अविद्या=विद्या के विरुद~¬>
1 मिथ्याज्ञान । ]
{7
एतदेवामिग्रत्योक्तम्--“अनित्याञ्चुचिदुःखानात्मसु नित्य-
श॒चिसुखात्मख्यातिरविद्या ( पा० यो० सू° २।५ ) इति ।
अतर्िमस्तद्बुद्धिवरिंपयेय इत्युक्तं भवति। तदयथा-अनित्ये
घटादौ नित्यत्वाभिमानः । अञ्चुचौ कायादौ श्चुचितप्रत्ययः ।
ह ° -# श ~ क्क का कय
, = क क
+
पातञ्जल-दशेनम् ६६७
९, स्थानाद्बीजादु पष्टम्भानिष्यन्दाननिधनादपि ।
कायमाधेयश्चोचत्वात्पण्डिता ह्यश्ुचि विदुः ॥ इति ।
इसी अभिप्राय से कहा गया है -- अनित्य, अशुचि, दुःख ओौर अनात्मा में
करमशः नित्य, शुचि, सुख ओौर आत्मा का ज्ञान करना अविद्या हैः ( पात°
यो° सु° २।५ )। जहाँ कोई वस्तु नहींहै, वहां उस्र वस्तु का ज्ञान होना
विपयंय है- यही कहने का अभिप्राय है ( देखिये योऽ ू० १।८)। [ अविद्या
केैये चार अवान्तर भेद बतलाये जा रहे है--अनित्य में नित्यका ज्ञान,
अपवित्र मे पवित्रका, दुःखमेंसुखका तथा अनात्मामे आत्माका। इसका
उलटा भी संभव है- नित्य म अनित्य का आदि। वस्तुतः ये उपलक्षण है।
इसी से पापमें पुर काज्ञन आदिभी अविद्या हीरहै। अविद्या को विपयंय
भी कहते है क्योकि दोनों मे ही मिथ्याज्ञान होता है।
वह ( अविद्या ) इस प्रकार है- घटादि अनित्य पदार्थो के नित्य होने
का विशवास रखना, शरीर आदि अपवित्र पदार्थो को पवित्र समश्चना । [ अपवित्र
पदार्थो की सूची इस तरह है-- स्यान के कारण ( मूत्रादिसे युक्त माताके
उदर से उत्पन्न होना), बीज (शुक ओर रक्त रूपी उपादान कारण ) के
कारण, पोषक पदाथं ( भक्त अन्न ओर पीत रसादि) के कारण, निःसृत
पदाथं ( ९६९९107, पसीना, मल, मूत्रादि ) के कारण तथा मूच्युहोने के
कारण पंडित लोग शरीर को अपवित्र कहते है ओौर इसीलिए [ स्नानादि के
हारा | शरीरमें शौच ( पवित्रता) का आधान करतेदहैँ।' [ये कारण रसे
हैजो वेदपाघ्ियोंके शरीर को भी अपवित्र करते ह अतः शौच का प्रयोग लोग
करते है । |
'परिणामतापसंस्कारदुःखेगणवृच्यविरोधाच दुःखमेव सवं
विवेकिनः" (पात०्यो० घछू० २।१५) इति न्यायेन दुःखे सक्च-
न्दनवनितादौ सखत्वारोपः। अनात्मनि देहादावात्मवुद्धिः ।
तदुक्तम् -
१०. अनात्मनि च देहादावातमबुद्विस्तु -देदिनाम् ।
अविद्या तत्कृतो बन्धस्तन्नाज्ञो मोक्ष उच्यते ॥ इति ।
# यो० सू° मे 'वृत्तिविरोधाच' पाठ है। अभ्यंकर ने मूलस्थ पाठ रखकर
संगति बेठायी है ।
(~=
क ता
> ॐ । कन ~~ ककि च व == = क =
व हि ` ऊ छ १ वे
~ ~ ~ ~ कः
६६८ सबेदशनसंग्रहे-
कि परिणाम-दुःख, तापनदुःख ओौर संस्कार-दुःख बना रहता टै भोर
साथ-साथ [ सत्वादि तीन ] गणो की वृत्ति बिना विरोधके स्व॑र होती है
इसलिए विवेकलील पुरुषों के लिए सब कृ दुव ही दुःखहै' (यो० सूर
२।१५ )। [ सामान्य व्यवहारमेंजो सुखद पदाथंहँ विवेकी के लिएवे
दुःखद है क्योकि वह उन्हें विष भिले हए स्वादिष्ठ अन्न के समान समञ्लता है ।
जो सुख ऊपरसे मिल रहाटै वह तीन प्रकारके दुःखोंका कारणबननजा
सकता है । सुख का उपमोग करने से इन्द्रियां थक जातौ ह जिससे अंतमे
दुःख उत्पन्न होता है जिसे परिणाम-दुःख कहते है । सुखोपभोग के समय
| दूसरों को अधिक मात्रा मे सुल का उपभोग करते देख कर ई््याहोती टै इसे
8 । तापदुःख कहते है । सुखमोग के संस्कार चित्त पर पड़ जाते है, हम उनका
स्मरणा करके उन्हें पाने का प्रयत्न करते है। उसके साधन यदि नहीं मिले तो
॥ | | दुःव होता है जिसे संस्कारदुःख कदते है। यही नही, स्वादि गणो की
॥ ., वृत्तियां ( = सुख, दुःख भौर मोह ) किसी तरह का विरोध क्रये बिना ही आपस
||, | मे मिलती है । इसलिए, सुख के साधन के रूप में स्वीकृत पदाथं ( वस्तु ) में
| रजोगण की वृत्ति (दुःख ) रहेगी ही । दोनों मेँ कोई विरोध तो है नहीं ।
| इसलिए विवेकी पुरुष मोग के सभी साधनों को दुःख ही समज्षते ह । |
|
।
कक ®
इष नियम से [ अविद्याके कारण | लोग माला, चंदन, वेश्या आदि
वस्तुतः दुःखद षदार्थोमें सुख का आरोप करते है। [ यह अविद्या है, |
फिर, देहादि जो आत्मा नहीं है, उपे आत्मा समञ्लना [ भी अविद्याहीदहै |,
8 इसे कहा है-- "देह मादि आत्मा नहीं ह किन्तु उन्हें देहधारौ लोग जब आत्मा
॥ समक्चते है तो यही अविद्या है। इसी के कारण संसार का बंधन होता है ओौर
। उसका नाच मोक्ष कहलाता है ॥ १० ॥'
एवमियमविद्या चतुष्पदा भवति । नन्वेतेषु अविद्याविेषेषु
[क ( ॥ ¢
४ किचिदनुगतं सामान्यलक्षणं वणनीयम् । अन्यथा विशेषस्या-
५ ` सिद्धेः । तथा चोक्तं भटराचार्येः--
११. सामान्यलक्षणं मुक्त्वा विशेषस्येव लक्षणम् ।
न ज्ञक्यं केवलं वक्त॒मतोऽप्यस्य न वाच्यता ॥ इति ।
तदपि न वाच्यम् । अतरिमस्तद्बुद्धिरिति सामान्यलक्षणाभि-
धानेन द्तोत्तरत्वात् ।
| । ¦ इस प्रकार यह् अविद्या चारप्रकारकीहै। अब कोई पूछ सकता हैकि
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पातञ्जल-दशनम् ६६६
अविद्या के इन भेदों मे अनुगत ( विमान ) कोई सामान्य लक्षण दँ [ जिसे
अविद्या का लक्षण हम जान सकं ]। यदि ठेसा नहीं करेगे तो अविद्या के भेदों
कीही सिद्धिनहींहोगी। जेसाकि [ कमारिल] भटरने कहा है- सामान्य
लक्षण को छोडकर केवल विशेष (भेदो ) का ही निरूपणा कर देना संभव नहीं
है, इसलिए यहां पर [ अविद्या के] भेदों का वर्णन भी नहीं किया जां
सकता । ११॥'
ेसी शंका नहीं करनी चाहिए क्योकि [ अविद्या का] सामान्य लक्षण भी
दिया गया है-- जहां वस्तु नहीं है, वहाँ पर उसका ज्ञान कर लेना [अविद्या है] ।
इस लक्षण के द्वारा उत्तर मिल जाताहै।
( १२. अस्मिता, राग ओर द्वेष )
सछपुरूषयोरहमस्मीर्येकताभिमानोऽस्मिता । तदप्युक्त--
¢
ग्दशेनश्चक्त्योरेकात्मतेवास्मिता' ( पात० यो० स्रू° २।६ )
[३ मृतिपूव
इति । सुखाभिज्ञस्य सखुखानुस्परतिपूवेकः सुखसाधनेषु ठष्णारूपो
गरा रागः । दुःखाभिज्ञस्य तदनुस्पृतिपुरस्सरं तत्साधनेषु निचर-
तिर्ेषः। तदुक्त-- सुखानुशयी रागः" (पात यो० घ° २।9),
"टुःखाचुश्चयी दवेषः! ( पात० यो० घ २।८ ) इति ।
सतव ( चित्त, बुद्धि ) ओर पुरुष ( अत्मा ) के बीच मेह ( अहमस्मि)
इस रूप मे एकता का बोध करना अस्मितादहै। इसे मो कहा है-'दकशक्ति
( द्रष्टा, पुरुष, आत्मा ) ओर दशैनशक्ति ( बृद्धि, करणा ) दोनों मे एकाकारता
जैसा मान लेना अस्मिता है' ( यो सु० २।६ )। [ अनात्मा को आत्मा मानने
वाली अविद्या अस्मिता ( शग) ) उत्पन्न करती है। अविद्या ओरं
अस्मितामें कुछ अन्तर है। अविद्याकी अवस्थामें बुद्धि आदिमे सामान्य
रूप से अहं" की भावना रहती है किन्तु उसमें कहीं मेद भी रहता है, अभेद
भी । परन्तु अस्मिता मेँ आत्यन्तिक्र ( 1261166४ ) रूप से अभेद हो जाता है ।
एकता का भ्रम पृणंलरूपसे रहताहैकि मँ ईश्वरह, मँ भोगी हँ इत्यादि ।
पुरुष अपरिणामी है, बुद्धि परिणामी । दोनों शक्तियां ( मोक्ता ओौर भोग्य )
बिल्कुल पृथक् है । परन्तु दोनों का अभेद ग्रहण कर लेने पर आपसी धर्मो का
अध्यास होता है जिससे भोग ( 11101618 ) होता है । ]
जो पुरुष सुख से अभिज्ञ है वह सुख का स्मरणा करके सुख के साधनों की
प्राप्ति के लिए तृष्णा करता है-- उसकी उक्तं प्रतीक्षा ही राग है। [ गधंः =
७०० सबेदशेनसंग्रहे-
प्रतीक्षा, तृष्णा, आशा, </ गृध् । तुल० "मा गृषः कस्य स्विद् धनम्" ( ईशो०
१।१)]। दुःख से परिचित पुरुष दुःख का स्मरणा करके जव दुःख के साघनों
से निवृत्त होता है वही द्वेष है । ेसा ही पतंजलि ने कहा है--"घुख मे निवास
करनेवाला ( अनुशयी ) राग है" ( यो° सु २।७ ) तथा दुःख में निवास
करनेवाला द्वेष है" ( यो सु°० २।८)।
( १२. “अनुशयी' शब्द् की सिद्धि मे व्याकरण का योग )
करिमत्रालु्यिशषब्दे ताच्छीस्यार्थं णिनिरिनिवा मत्वथीयोऽ-
भिमतः ? नाद्यः (सुप्यजातौ णिनिस्ताच्छीच्ये' ( पाणिनि
घ ३।२।७८ ) इत्यत्र सुपीति वतमाने पुनः सुव्यरहणस्योपस-
` गेनिवृ्यथेत्वेन सोपसगाद्धातोणिनेरुत्पत्तेः। यथाकचित्
तदङ्खीकारेऽपि अचो ञ्णिति! ( पाणि ख० ७।२।११५ ) इति
वद्विप्रसक्तावतिश्षाय्यादिपदवत् अनुश्लायिपदस्य प्रयोगप्रसङ्गात् ।
यहां पर प्रन है कि "अनुशयिन् शब्द को सिद्धि केसे होती है क्या
ताच्छील्य के अर्थं में ( सुख मनुरेते, तच्छीलः सुखानुशयी ) शिनि प्रत्यय हओ
है ( अनु + / शीडः + शिनि ) अथवा मतुप् ( वहु उसका है-सः अस्य
अस्ति) के अथंमें (सुख का अनुशय अर्थात् संबन्ध; वह जिसके पास है-
सुखानुशयी ) इनि प्रत्यय हआ. है ( अनुराय + इनि--अत इनिठनौ, पा०
सू° ५।२।११५ ) ?
इनमें पहला विकल्प ( णिनि मानने वाला } ठीक नहीं । कारण यह हैक
“सुप्यजातौ शिनिस्ताच्छील्ये" ( पा० सू ३।२।७८ ) अर्थात् "वह उसका शील या
आादतदहै इस अ्थंमें जातिवाचकको छोडकर किसी भी सुबन्त शब्द के
उपपद में ( पूवं मे ) रहने पर धातु से शिनि प्रत्यय होता है [ जैसे उष्णं भुङक्ते,
तच्छीलः उष्णभोजी = जिसे बरावर गर्मागमं भोजन की आदतदहै। जो कभी-
कभी गमं भोजन करता है उसे उष्णभोजी नहीं क्ँगे । | पहले से [ सुपि स्थः'
( ३।२।४ ) सूत्र से अनुवृत्त ] 'सुपि' शब्द के वतंमान रहने पर भी प्रस्तुत सूत्र
मे जो 'सुपि' ज्ब्द पुनः लिया गया है उसक्रा अमिप्राय यही टै क्रि उससे “उपक्तगं
उपपद" की निवृत्ति हो, अतः उपसर्गसहित धातु मे णिनि प्रत्यय कौं प्राप्ति नहीं
हो सकती । [ 'सुपि स्थः' (३।२।४) से 'पुपि' शब्द की अनुवृत्ति आगे के सूरो मे
होती है। उन सूत्रों मे अलग से 'सुपि' कहने की आवश्यकता नहीं है । यदि किसी
सूत्र (जेसे--सुप्यजातौ ०' में) 'सुपि' कहा गया तो कोई विशेष कार्ण है । वह
पातञ्जल-दशेनम् ७०१
कारणक्याहै? बात यह है करि “सत्सूद्धिषद्ुहदुहयुजविदभिदच्छिदजिनीराजामुप-
सर्गेऽपि क्रिय" (३।२।६१) इस लम्बे सूत्र से एक नया प्रकरण आरम्म हो गया--
कि इस सूत्र में गिनाये गये धातुओं से सुबन्त के उपपद में होने पर तो प्रत्यय होते ही
है (सुपि स्थः' से सुपि" की अनुवृत्ति करके) साथ-साथ उपसगं के उपपद में रहने
पर भी प्रत्यय होते है । "सुप्यजातौ" में इसी उपसगं को निवृत्ति करने कै लिए
“सूपि' का पुनः प्रयोग हा है । ( ३।२।६१) से “सुपि उपसगे" दोनों की अनुवृत्ति
होने लगी थी--दोनों की निवृत्ति साथ-साथ की गई ओर अभीष्र सुपि" का प्रयोगं
क्रिया गया है । फलतः “अनु + शी + शिनि" नहीं हो सकता । सोपसर्गंक धातु
से शिनि प्रत्यय नहीं होता । |
यदि क्रिसी प्रकार इस शिनि को स्वीकार भी करं* तो भी "अचो ल्णिति
अर्थात् जित् या शित् (जिस प्रत्ययमेंञ यार् का अनुबन्ध लगा हो) प्रत्यय के
होने पर उसके पूवं के स्वरवणं ( अच् ) को वृद्धिहो (पा० सुऽ ७।२।११५ )
इस सूत्र से वृद्धि की प्रापि होगी ओौर "अतिलायिन्' आदि शब्दों की "अनुशायिन्
( अनुशायी )* शब्द का ही प्रयोग होता । [ अनु + ./ शी + शिनि = वृद्धि होने
से, अनुद + इन् = आयादेश, अनुशायिन् । ताखयं यह है कि शिनि प्रत्यय से
अनुशयी" नहीं हो सकता । |
न द्वितीयः । एकाक्षरात्कृतो जतेः सप्तम्यां च नतौ
स्मरतो" इति तत्प्रतिषेधात् । अत्र चानुश्षयज्ब्दस्याजन्तत्वेन रद
न्तत्वात् । तस्मादनुशचयिश्ब्दो दुरुपपाद इति चेत्- नैतद्
भद्रम् । भावानवबोधात् । प्रायिकामिग्रायमिदं वचनम् ।
द्वितीय विकल्प ( इनि प्रत्यय तद्धित का मानं तो) भी ठीक नहीं। कारण
यह है किं निम्नलिखित कारिकाके द्वारा इका निषेव किया गया है--
दोनों प्रत्यग्र ( इनि = इन् तथा ठन् = इक; उदाहुरण-दरडी, दरिडकः }
एकाक्षर शब्द के बाद, कृदन्त शब्द के बाद, जातिवाचक शब्दके बाद तथा
सप्तमी के अथ॑में नहीं होतेह [ यह कारिका कारिका (५।२१।१५) मे
# “सुपि स्थः" में सुप् का अथं उपसगंहीन सुप् ( केवल ) है, 'सत्ुद्धिष०' मे
उपसगं का पृथक् विधान है । यदि सुपिस्थः'से सुपि लतितो “अनुशायी'
अदि शब्दों मे शिनि प्रत्यय नहीं होता । उपसगं से भी णिनि प्रत्यय दहो अतः
पूनः सुपि कहा है । उपसं होने पर शिनि होता भी दै--अनुयायिवगंः ( रघु
२।४ ), विसारि सवतः ( माघ १।२ }, अनुजीविभिः ( क्रिरा० १।४) आदि ।
यह् व्याष्या भाष्यसं मत है ।
=
मा
~,
।
४ ५ कवक वो भे ~> = ष = 3 + +
त
> ऋ किरि
७०२ सवेदर्शनसंप्रहे -
उद्धृत है तथा वहाँ उसकी व्याख्या भी को गई है। मतुप् के अर्थंमें होने वाले
इन् ओर ठन् प्रत्ययो का वहां निषेध किया गया है । एकाक्षर शब्द से-स्ववान् ।
खवान् । कृदन्त से- कारकवान् । जाति से--व्याघ्रवान् । सिंहवान् । सप्तमी
के अथं मे--( दर्डाः अस्थां सन्ति इति }) दण्डवती शाला ।] चक्रिं अनुश्चय
शब्द कृदन्त ( अनु + शी + अच्-*ए२रच्” ३।३।५६ ) है क्योकि अच् प्रत्यय
से बना है [ अतः उसमें इनि प्रत्यय नहीं हो सकता । ] इसलिए अनुशयी'
शाब्द की उगपत्ति कठिन है । [ अनुशायी या अनुशयवान् बनाने में कोई आपत्ति
नहीं है । ]
किन्तु इस तरह संदेह करना उचित नहीं है क्योकि अप लोग कारिका कां
भाव नहीं समन्ते हैँ । यह कारिकास्य वाक्य श्रायः ठे्राहोता है इसी
अभिप्राय से दियागया है।
अत एवोक्तं वृत्तिकारेण--इतिकरणो विवक्षार्थः सर्वत्राभि-
संबध्यते इति । तेन कचिद् भवति-कायीं कार्थिकस्तण्डली
तण्डुलिकः इति । तथा च कृ दन्ताज्ातेश्च प्रतिषेधस्य प्रायिक-
त्वम् । अनुशयशचब्दस्य कृदन्ततया इनेरुपपत्तिरिति सिद्धम् ।
इसलिए ही काशिकावृत्ति के रचयिता ( जयादित्य ) ने कहा है --“ [ तद-
स्यास्त्यस्मिन्निति मतुप् (१० सूु० ५।२।९४) में" ] इति शब्द विवक्षा का निर्देशक
है ओर बाद के सभी सूर्रोंमे लगाया जाता है। [ विवक्षा लौकिक प्रयोग के
अनुसार प्रत्ययो का विधान ]। इसलिए कहीं-कहीं होते ह कायं ( क़ +-ण्यत्
कृदन्त प्रत्यय }) + इनि = कायिन् । कायं + ठन् = कायिक । तरडूल ( जाति ) +
इनि = तण्डुलिन् । तण्डूल + ठन् = तण्डुलिक ।' इससे पता लगता है कृदन्त
ओौर जातिवाचक से यहु निषेध प्रायिक ( वैकल्पिक, विवक्षाघीन ) है । अनुशय
शब्द कृदन्त है अतः इससे इनि प्रत्यय हो सकता है-- यह सिद्ध हुजा ।
( १४. अभिनिवेदा का निरूपण )
पूवंजन्माुभूतमरणदुःखाजुभववासनावलात्सवंस्य प्राणभर-
न्मात्रस्या कृमेरा च विदुषः संजायमानः शरीरविषयदेमेम
वियोगो मा भूदिति प्रत्यहं निमित्तं बिना प्रबतेमानो भयरूपोऽ-
भिनिवेश्चः पश्चमः क्रेशः। मा न भूवं हि भूयासमिति प्राथ
नायाः प्रत्यात्ममनुभवसिद्वत्वात् । तदाह-- स्वरसवाही बिदुषो-
पातञ्जल-दशनम् ७०३
॥ | ऽपि तथा सदोऽभिनिवेशः, ( पात यो" च» २।९ ) इति ।
ते चाविद्यादयः पञ्च सांसारिकिविविधदुःखोपहारहेतुत्ेन पुरं
क्लिर्नन्तीति क्छेशाः प्रसिद्धाः ।
पूवं जन्म मँ अनुभूत मृप्युके दुःखके अनुभव कौ वासना ( संस्कार,
10]00689०ा ) के कारण समी प्राणधारियों में- चाहे वे कमिहों या
विद्वान्- सबं मेँ उत्पन्न होने वाला, शरीर, विषय आदिसे मेरा वियोगन
हो' इस तरह बिनाकारणके भयके रूपमे प्रवृत्त होने वाला पांचर्वां क्लेश
अभिनिवेशा है । भँ कभी अतीत का विषय न बन जा किन्तु सदा रह इस
तरह की प्रार्थना प्रत्येक परुष करता है जो अनुभव से सिद्ध है। इसे पतंजलि
ने कहाहै--[ मरनेका भयजो हर एक प्राणी में | स्वभावतः बहु रहा है
भोर विद्वानों के लिए भी वेसा ही प्रसि (रू) है [जैसा मूरवोके लिए]
वह अभिनिवेश नाम का क्लेश है" ( पा० यो० सू० २।९ )।
अविद्या आदि ये रचो क्लेश विविध सांसारिक दुःखों की प्राति ( उपहार )
कराने के कारण पुरूष को कष्ट देते है ( </ क्लिश् ) तथा प्रसिद्ध हैँ ।
( १५. कमे, विपाक ओर आशय ) |
कमणि विदहितप्रतिषिद्ररूपाणि उयोतिष्टोमन्रहमहत्यादीनि ।
विपाकाः कमंरुलानि जात्यायुर्भोगाः । आ फलविपाकाचित्तभूमो
यैर इत्याशयः धमोधमंसंस्काराः । तत्परिपन्थिचित्तवृचतिनिरोधो
योगः । निरोधो नाभावमात्रमभिमतम् । तस्य तच्छतेन भाव.
रूपसाक्षात्कारजननक्षमत्वासंभवात्। किंतु तदाश्रयो सधुमती-
| मधुप्रतीका-विशोका-संस्कारशेषाग्यपदेश्यधित्तस्यावस्थाविरेषः ।
& निरुष्यन्तेऽरन्मप्रमाणाधाश्ित्तवृत्तय इति व्युत्पत्तेरुपपत्तेः ।
कमे विहित भौर प्रतिषिद्धके रूपमे [दोप्रकारके हैते ] ज्योति.
ष्टोम ( विहित कमं } तथा ब्रह्महत्या ( प्रतिषिद्ध कमं ) आदि। कमं के फलों
कौ विपाक कहतेर्है। वे ह--जाति (जन्म), आयु ( जीवन का समय )
तथा भोग ( सुख, दुःख ओर मोह उत्पन्न करनेवाले साधनों का प्रयोग )। फल
के पूरंतः परिणत होने के समय तक जो चित्तंकी भूमि मे अवस्थित रहते
है ( ./ओो ) वे आदाय है अर्थात् धमं ओर अधमं के संस्कार ।
चित्तवृत्ति का बहु निरोध जो इन क्लेशो का विरोधो है । वही, योग है निरोध
।
(
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।
शक श्ण् न ~ #) 1
ॐ सवेदशेनसंग्रहे-
का यहाँ पर केवल अभाव अथं ही नहीं लिया गया है क्योकि [ केवल अभाव
अ्थंजेनेसे तो] निरोध स्वरूपहीन हो जायगा तथा वह् भावा्मक ({208115९)
साक्ञात्कार ( न्ध्येय का साक्षात्कार ) उत्पन्न करनेमे असमं हो जायगा ।
इसीलिए निरोध से चित्त की उन अवस्थाओंका अथंलेतेहैजो उस (अभाव)
पर आधित है तथा मधुमती, मधुप्रतीका, विशोका ओर संस्कारशेषाकेनाम
से पुकारी जती है । "जिसमे प्रमाणादि चित्तवृत्तियां निरुद्ध कर दी जाती रै
वह निरोध है'--इस व्युत्पत्ति ( निश्क्ति) से भी यही बात सिद्ध होती है ।
विरोष--संप्रज्ञात समाधि के चार अवान्तर भेद हम देख चुके)
सवितकं समाधि में चित्त की जो अवस्था होती दै उते मश्वुमती कहते टै।
सविचार समाधि में चित्त की अवस्था मधुप्रतीका, सानन्दमें विशोक्ा
तथा सास्मितमें संस्कारशोषा कहलाती है। ये अवस्थाय चकि भावलूप
( 209१९ ) हँ अतः ष्येय का साक्षात्कार आसानी से हो सकता है ।
( १६. चृत्तिनिरोध के उपाय--अभ्यास ओर वैराग्य )
“अभ्यासवेराग्याभ्यां वृत्तिनिरोधः । तत्र स्थितो यत्नोऽ-
भ्यासः ॥' ( पात० यो० सू° १।१२-१३ )} उृत्तिरहितस्य
चित्तस्य स्वरूपनिष्ठः प्रश्ान्तवाहितारूपः परिणामविशेषः
स्थितिः । तं निमित्तीकृत्य यत्तः पुनः पुनस्तथात्वेन चेतसि
निवेश ‡ ~ (>, हन्ति $ (9 =. #
निवेश्चनमभ्यासः । ।चमेणि द्री पिनं इन्ति' इतिवत् निमित्तार्थयं
सप्तमीत्युक्तं भवति ।
अभ्यास ( {६616786 ) ओौर वैराग्य ( 1)1370888107 ) कै दवारा वृत्तियों
का निरोध होता दहै । [ तुलनौय--अभ्यासवेराग्याभ्यां तत्निरोधः ( यो° सू°
१।१२ ) । चित्त एक नदी की तरह है जिसका प्रवाह स्वभावतः विषयों की ओर
जातादहै। विषयों में दोष देखने से जो वैराग्य होता है उसीसे चित्तकीधारा
कती है । सुक जाने पर विवेक-द्यन का अभ्यास करनेसे वह धारा विवेक
मागं कीओर अभिमुखहो जाती है। इसी उपायद्रयसे ध्येय वस्तु के आकार
की वृत्ति का प्रवाह स्थिर तथा ष्ठ होता दहै। ] “इनमें से चित्त की स्थिति के
विषय में यत्न करना अभ्यास है।* ( यो० सु° १।१३ ) । जो चित्त [ राजस
तथा तामस ] वृत्तियों से रहितदहो गयादहै वह जब अपनेरूपमे अवस्थित
हो शान्त होकर बहता है ( प्रश्लान्तवाही ) तब एसे परिणाम ( अवस्थान )
को स्थिति कहते है । उस परिणाम को निमित्त मानकर ( उसकी प्राप्ति के
न क " ऋ ` # =
28
प्क " ` क क्क `" कक को
क 1 | ~ शकय क =
पातञ्जल-दशनम् ७०९
लिए ) यत्न क्रिया जाताटै अर्थात् उस षूपमें हौ चित्तमें बार-बार कैठाया
जाता है यही अभ्यास है। [ स्थितौ" शब्द मे | यहाँ सप्तमी विभक्ति "चमंि
द्वीपिनं हन्ति" ( चम्डेके लिए बाधको मारते) इसकी तरह [ = निमित्ता-
त्कमंयोगे' २।३।३ से ] निमित्त के अथं में हुई है- यही कहना है ।
्ानुशवविकव्रिषयव्रिदष्णस्य वशीकारसंज्ञा वैराग्यम्"
( पात° यो° घर १।१५ ) । रेहिकपारत्रिकविषयादौ. दोषद-
दोनान्निरभिलापस्य “ममेते विषया वदयाः' (नाहमेतेषां बयः"
इति विमर्शो बेराग्यमित्युक्तं मवति ।
दृष्ट विषयों ( स्री, अन्न, जल आदि) तथाअ नुश्चविक् विषयों (वेदोंमें
बतलाये गये स्वगं भादि) से तृष्णाहटा लेने वाले व्यक्ति जब [ विषयों को
अपने | वशमेंकरलेनेका बोध करते है तव उसे वैराग्य कहते है" ( यो०
मु १।१५ ) । देहिक भौर पारलौकिक दोनों तरह के विषयों मे दोष ( विनाश्च,
परिताप, सातिशय, अमुया आदि ) देख लेने के बाद जिस ॒व्यक्तिमें [ उन्हे
प्राप्त करने की | लालसा नष्टहो गई हो तथा जब वहं ये विषय मेरेहीवशमें
है" ओर 'मैँ इनके वश में नहीं ह, इस प्रकार का विचार करने लगे वहु दशा
वैराग्य कहलाती ह !
विशोष-वेराग्य कौ चार संज्ञाय है--यतमान-संज्ञा ( रागादि के पाकं के
लिए यत्न करना }, व्यतिरेकंज्ञा ( पके हृए ओर पकाये जाते हुए कषायो मे
भेद करना ), एकैन्द्रिय-संज्ञा ( पके इए कषायो का मन में उत्सुकता के रूप में
रहना ) तथा वशीकारंज्ञा ( लौकिक तथा अलोक्रिक विषयों की उक्षा कर
देना )। इस प्रकार दोनों उपायों से चित्त की वृत्तियों का विरोध होता है । अब
अभ्यास ओौर वेराग्य की सिद्धि कंसे हो? इसके लिए क्रियायोग बतलाति है ।
(८ १७. समाधिप्राप्ति के लिए क्रियायोग )
समाधिपरिषन्धिक्लेशतनूकरणा्थं च समाधिलामार्थ प्रथमं
करियायोगविधानपरेण योगिना भवितव्यम् ।क्रियायोगसंपादनेऽ-
भ्यासवेराग्ययोः संभवात् ! तदुक्तं मगवता--
१२. आरुरक्षो्ुनेरयोगं कर्म कारणसरच्यते।
योगारूढस्य तस्येव शमः कारणग्ुच्यते ॥ |
( गी ° ६।२ ) इति ।
४५ स० संर
७०६ सवंदशेनसंमहे-
समाधिके मागंमेंशत्रु को तरह् रुकावट डालने वाले क्लेशो को क्षोण
करने ( उनकी कायंकरी शक्ति को समाप करने ) के लिए तथा समाधिकी ्रा्नि
के लिए, सबसे पहले योगी को क्रियायोग \ {2१५८९५1 ९००८९०४० )
के विधान के अनुसार चलना चाहिए । क्रियायोग संपन्न होने पर ही
अभ्यास ओर वैराग्य संमवहं। इसे भगवान् कृष्ण ने ही कहा है - "जो मनि
योग ( चित्तवृत्तिनिरोध ) पर आरोहण करने कौ इच्छा रवते है उनके लिए
कमं ( क्रियायोग ) ही साधन बतलाया गया हे। यदि वही मनि योगारूढ हो
गया हो तब [ उसके ज्ञान के परिपाक के लिए] शम (सभी कर्मो से सन्यास
लेना ) ही कारण कहा गथा है ।" ( गी० ६।३ ) ।
विद्रोष-गीता मे कृष्णा ने इसके बाद ही योगाद् मनि का लक्षण
दिया है-
यदा हि नेन्द्रियार्थेषु न कमंस्वनुषजते ।
सर्वसंकल्पसंन्यासी योगाखूढस्तदोच्यते ।॥ ( गी° ६।४ ) ।
अर्थात् जब पुरूष न तो इन्द्रियों के विषयों मे ओर न कमो मे ही आसक्त होता है,
जब वह सभी संकल्पो से संन्यास ने लेता ह तभी योगाद् कहलाता है ।
क्रियायोगश्चोपदिष्टः पतञ्जलिना --^तपःस्वाध्यायेश्वरप्रणि-
धानानि क्रियायोगः ( पात यो° घ २।१ , इति । तपः-
स्वरूपं निरूपितं याज्ञवस्क्येन-
१३. विधिनोक्तेन मार्भण कृच्छ्रचान्द्रायणादिभिः ।
शरीरशोषणं प्ाहुस्तपसां तप उत्तमम् ॥ इति ।
प्रणवमायत्रीप्र्ृतीनां मन्त्राणामध्ययनं स्वाध्यायः ।
क्रियायोग का उपदेश भी पतंजलि ने किया है--तप, स्वाध्याय ओर ईश्वर-
प्रणिधान ( परमेश्वरम समो कर्मो को अर्पित कर देना) ये क्रियायोग है
( यो सूर २।१)। तपका स्वषूप याज्ञवल्क्य ने इस प्रकार निश्चित किया
है--'विधिवाक्यों के कथन के अनु्तार कच्छ, चान्द्रायण आदि व्रतो के द्वारा
जो श्षरीरका शोषण किथाजातादहै उसे ही तपस्याओं मे सर्वोत्तमं तप माना
गया है!" प्रणव ( कार), गायत्री आदि मन्त्रों का अच्ययन ( पारायण )
करना स्वाध्याय दै । |
विरोष- च्छ एक त्रत है जिसके कई भेद ह । उनमें प्राजापत्य नाम
का कृच्च बारह दिनों में संपन्न होता है। प्रथम तीन दिनों तक प्रातःकाल
पातञ्जल-दशनम् ७०७
भोजन करे, फिर तीन दिनों तक सायंकाल भोजन करे, उसके बाद तीन दिनों
तक विनामागि जोम्लिखाले ओर अन्तमें तीन दिनों तक कुद्धन खाये।
( मनु° ११।२११ ) । चादद्रायणा ब्रत चन्द्र कौ गतिविधि से एक महीने मे
संपन्न होता है । शुक्लपक्न की प्रतिपद् को मोर के अरडे के बराबर एक ग्रासं
( कवल ) लाय, द्वितोया को दो--इस क्रमसे बढ़त जायं ओौर पूशिमाके
दिन पन्द्रह ग्रास खाये । फिर कष्ण पक्ष की प्रतिपद् को चौदह ग्रास, द्वितीया
को तेरह --इस क्रम से घटाते.वटति अमावस्या को बिल्कुल उपवासं करं ।
इसे यवमध्य चान्द्रायण कहते है क्योकि यव के दाने के समान इसमें भोजन
को मात्रा बीच में अधिक दो जाती है । जव कृष्णपक्ष की प्रतिपद् से आरम्भ
करके पणिमा तक करते है तो उसमे बीच मे उपवा का दिन पडता है।
स्मरणीय हैक्रि कृष्णपक्ष मे भोजन कम करते जाना है शुक्लपक्ष मेँ बढ़ाते
जानाहै। इस तरह के दूसरे चान्द्रायण को पिपीलिकामध्य चान्द्राधसा कहते है
करथोकि चीटीके बीचका भाग जैसे पतलाहोताह, वैते ही भोजन कौ मात्रा
बीच में कम करनी हि।
मंत्र शब्द का अथं है जिसके मनन करनेसे त्राणा ( रक्षा ) हो । कल्पूत्रो
में मंत्रो की अगम्य शौर अचित्य रक्तिका वणन है। तुलसीदास ने भौ कहा है ।
मंत्र महामनि विषय ब्याल के ।
मेदत कठिन कुंक भाल के॥ ( रा० च मा० १।३१।५ ) ।
अब्र योगशाल्र कौ एक अलग गावा-- मंव्रशाल्र- का विवरण प्रस्तुत करते हँ ।
( १८. मंत्र ओर उनका विवेचन )
ते च मन्त्रा दविषिधाः-वेदिकास्तान्तिकाध । वैदिकाश्च
दविवरिधाः-- प्रगीताः अप्रगीता्च। तत्र प्रगीताः सामानि।
अप्रगीता द्विविधाः--छन्दोवद्ास्तद्विरक्षणाश । तत्र प्रथमा
दिती + ^~ # ¢ क यत्राथेषे
ऋचः, तीया यजूषि । तदुक्तं जेमिनिना--तिषामग्यत्राथेवरोन
पादव्यवस्था । गीतिषु सामाख्या । शेषे यजुःशब्दः ( जै
घ २।१।३३-२५ ) इतिं
ये म॑तरदो प्रकारके वेदिक ओौर त्रिक । वैदिक मंत्रोंकेभीदोभेद
है-प्रगीत ( गेय ) तथा अप्रीत (गेय) । प्रगीत मन्त्रो मे साम अति है तथा
भप्रगीतके दोभेदहँ--चन्दोंमे बधे हुए तथा छन्दो से भिन्न । छन्दो ते दंव
हुए वेदिक मंत्र ऋवाये हँ ओौर छन्दो ते भिन्न यजुष् । इसे जेमिनि ने [ मीमांसा-
सूत २।१।३३-३५ मे ] कहा है-- "इन मंत्रों मे ऋक् वेह दै जहां [ वाक्यम |
अथं के अनुसार चरणों कौ व्यवस्था होती है । मीतियों ( गान के प्रकारो ) मे
साम नाम दिया जाता है। अवरिष्ट मन्त्रो मे ( जहां न पादव्यवस्था हैन
ड गान ही ) यजुः शब्द का प्रयोग होता है ।'
8 ५ = वनि
&॥ तन््रेष कामिककारणप्रपश्चाच्यागमेषु ये य तास्ते ता-
[4.1 । पुनमेन्त्रास्तरिवि 9 9
। न्व्रिकाः । ते नत्रास्रिविधाः-सरीपुंनपुंसकभेदात् । तदाह--
8॥ १४. स्रीपुंनपुंसकत्वेन त्रिविधा मन्त्रजातयः ।
ह्वीमन्त्रा वहविजायान्ता नमोऽन्ताः स्युनेपुंसकाः ॥
|सस्त €,
१५. शेषाः पुमांसस्ते शस्ताः सिद्धा वर्यादिकमेणि ॥ इति ।
तंत्रों ( शाखो ) में अर्थात् कामिक, कारण, प्रपंच आदि आगमो में जिन-
जिन मन्त्रोंका वंन दैवे तात्रिक मन्त्र है। ये तांत्रिक मंत्र भी तीन भक्रार के
| । है--स्नीलिग, पुज्ञिग तथा नपुंसकलिग । उसे कहा हे--“खी, पूरुष ओर नपुंसक
|| | होने के कारण मन्त्रो को तीन जातिया ह । जिनके अंत में स्वाहा' ( अभ्निकी
1३|| पल्ली ) शब्द रहे वे स््रीलिग है, जिनके अंत मे नमः" शब्द है वे नपुंसक है तथा
अवरिष्ट मंत्र पुरुष है, ये हौ सवसे मच्छ है ओर वय आदि कर्मो मे सिद्धि-
प्राप्त है ।''
३। विद्ोष--मागम शब्द का अक्षराथं इस प्रकार टै--
|| आगतं पञ्चवक्त्रात्तु गतं च गिरिजानने ।
¢| मतं च वासुदेवस्य तस्मादागममुच्यते ।\
(॥ अगम का लक्षणा तंत्रं मेँ इस प्रकार दिया गया टै-
|| | ृष्टिश्च प्रलयदचैव देवतानां तथा्च॑नम् ।
। ॥।
| |. ° सबेदशेनसंभरे-
|
।
।
> वे [२ १४ (; = अ व क
21 + क; ह
` जख
३, ५ क;
॥ |. चाघनं चैव सर्वेषां पुरश्चरणमेव च ॥।
॥). वटक्मसाधनं चैव ध्यानयोगदचतुविधः ।
सप्तभिलंक्षरोर्यक्तमागमं तद्दुबुवाः ॥\
स्तम्भनकमे, विद्रेषकमं, उच्चाटनकमं तथा मारणकमं , 1 शारदातिलक का
| । | | योगज्लास्त्र में मन्व के छह कर्मो का वर्णन भी है-शान्तिकमं, वरयकमं,
|
।
इलोक टहै-
1 शान्तिवदयस्तम्मनानि विद्ेषोच्चाटने तथा ।
| | मारणान्तानि हसन्ति षट्कर्माणि मनीषिखः \
| ब्रह्मवैवतंपुराण ( प्र° अ० ६७ ) मे अग्निकी पन्नी स्वाहाका उल्लेख
है- कृति की कला से सभी शक्तियों के खूप मे अस्मि कौ दाहिका शक्ति अपनी
+ ~ ~ ५ > ग द
- य `
॥ कै
। + ^ # 1
॥
।
|
4
| 1
पातञ्जल-दशंनम् ७०६
कामना करनेवाली उत्पन्न हुई । प्रीष्पकाल में दोपहर के सूयंको प्रभाकोभी
अभिभूत कर देनेवालौ वह स्वाहा-सुन्दरी अग्नि की पल्ली हुई ।"
(१८ क. म्रौ के दस संस्कार )
जननादिसंस्काराभावेऽपि निरस्तसमस्तदोषत्वेन सिद्विदेतु-
त्वात् सिद्धत्वम् । स च संस्कारो दशविधः कथितः शारदा-
तिरुके--
१६. मन्त्राणां दन्न कथ्यन्ते संस्काराः सिद्विदायिनः।
निदोषितां प्रयान्त्या ते मन्त्राः साधु संसृतः ॥
ऊपर मंत्रों को सिद्ध होना कहाहै। यह इसलिए करि वे जनन आदि
संस्कारो के अभावमें भी सभी दोषों से रहित है तथा सिद्धि प्रदान करते ह।
शारदातिलकमें संस्कारके इन दस भेदोंका वर्णान हआ है--मंतरोंके दस
` सिद्धिदाता संस्कार कै जते है । अच्छी तरह से संस्कृत ( संस्कारयुक्त ) कर
द्यि जाने परये मंत्र शषीघ्रही निर्दोषहो जाते हैँ ।॥ १६॥'
१७. जननं जीवनं चेव ताडनं बोधनं तथा ।
अभिषेकोऽथ विमलीकरणाप्यायने पुनः ॥
१८. तपेणं दीपनं गुि्दशेता मन्तरसंस्करियाः
मन्त्राणां मातकायन्त्रादुद्धारो जननं स्मृतम् ॥
१९. प्रणवान्तरितान्छृत्वा मन््रवणाञ्जपेतसुधीः ।
मन्त्राणेसंख्यया तद्वि जीवनं संप्रचक्षते ॥
| ये संस्कार है-- | जनन, जीवन, ताडन, बोधन, अभिषेक, विमलीकरण,
अआप्यायन, तपण, दीपन, गोपन-ये दस संस्कार मंत्रोंकेह। मातृकायंत्र
{ अक्षरो काबना हुआ यंत्र) से मंत्रोंका उद्धार करना जनन (36९९6४४९)
सस्कार माना गयाहं॥ १७-१८॥ मंत्र के अक्षरों को प्रणव ( ॐकार)
से धेर कर ( बीचमें प्रणव रखकर) म॑ंत्रके वर्णो की संख्या के जितना जप
करना चाहिए -- इसे ही जीवन ( ४1812 ) कहते है ॥ १९ ॥ [ किसी
मंत्र में जितने वणं (अशं) हों जपकी संख्या भी उतनी ही होगी नेसे-
नमः शिवायः इसमंत्रमे पाँच वाह तो इसका जयपमभी पाँचबारही करना
है। प्रत्येक अक्षरके बाद प्रणव देना है-ञन ॐमःञ््डिञ््वाञ््य
ॐ इस तरह पाच वार जप करं तो मंत्र का जीवन संस्कार हो जायगा । ]
सर्वदशनसंमदे-
वि्चेष - मातृकायंत्र वणो का बना हुमा एक यंव ( १९९ ) है
जिसमे अक्षरों का न्यास या स्थापन होता है। मंत्र की प्राप्ति के लिए प्रत्येक
तांचिक को यह् यंत्र बनाना पड़ता है। यह् चतुभज होता दै। शक्तिमत के
उद्धार के लिए कुंकुम से, विष्णुमंत्रोढार मे चंदन से तथा शिवमंत्र के उद्धारमें
जस्म से स्वरणं आदिके पात्र में बनाते है; कसे लेकरम तक के पाच वर्गो
करो मशः पूवं, आग्नेय, दक्षिण, नेत्य, पश्चिम मे तथा मन्तः वर्णो को
वायव्य में, उष्म वर्णो को उत्तर ते ओरल, क्ष को ईशान कोणामे लिखे ।
हसौ यंत्र से मंत्र के अक्षरो की भावना कर ।
२०. मन्तरव्णान्समारिख्य ताडयेचन्दनाभ्भसरा ।
प्रत्येकं वायुबीजेन ताडनं तदुदाहृतम् ॥
विलि द, करवीरजं
२१. विलिख्य मन्त्रवणास्तु प्रन ¦ ।
(. यातेहेन्यात्तद्रोधनं ॥
मन्त्राकषरेण संख्यातेह स्मृतम् ॥
स्वतन्त्रोक्तविधा © +
२२. स्वतन्त्रोक्तविधानेन मन्त्री सन्त्राणेसंख्यया ।
अशत्थपद्रमन्त्रमभिषिशवेदश्द्धये ॥
संचिन्त्य ञ (३ ^~ £
२३. संचिन्त्य मनसा मन्त्रं ज्योतिमेनत्रेण निदेहेत् ।
मन्त्रे मलत्रयं मन्त्री विमरीकरणं हि तत् ॥
मंत्र के वर्णो को लिखकर चन्दन-जल से उसे मारना चाहिए ओर हर
एक बार वायुबीज (यं) का उच्चारण करते रै-इसेही ताडन संस्कार
( 80 ) कहते है ॥२०॥ मंत्र के वर्णोः को लिखकर करवीर ( कनेर )
के पूलोंसे मंत्रके अक्षरोंकी जितनी संख्या हो उतने बार मारना चाहिए-
दये बोधन ( ^ 861 ) मानते है ॥ २१॥ मपने तंत्र में कटे गये
विधान ऊ अनुसार मंत्र-साघक्को मत्र के वर्णो की संख्याके जितने बार
पीपल क पततो से मंत्र का अभिषेक ( ़णण)ण६ ) युद्धि के लिए करना
चाहिए ।॥ २२॥ मनमें मत्र का चितन करते हुए मत्र-साधक को, ञ्योति मेतत्र
के द्वारा, मंत्र में विद्यमान तीनों मलों को जला देना चाहिए-यदही विमलीकरण
( एप ४० ) ह ।॥ २३॥ [ये तीन मल ह--मायिक, कामण ओर
आनग्य ( अनवीनता, वृद्धता }। ये मल मं्रोके लिग के अनुसार रहते है,
सीलिग मंन मे मायिकः, पंल्लिग में कामण मौर नपसक मं आनव्य । ]
€ ।
२४. तारव्योमामनिमयुयुग्ज्योतिमे्र उदाहतः ।
ङशोदकेन जप्तेन प्रत्यणं प्रोक्षणं मनोः ॥
"च षक्र प न्न न ४
पातञ्चल-दशनम् ७११
२५. बारिवीजेन वषिधिवदेतदाप्यायनं मतम् ।
॥ च् ¢ $ ॥
मन्त्रेण वारिणा मन्त्रे तपेणं तपणं स्प्रतम् ॥
२६. तारमायारमायोगो मनोदीपनग्ुव्यते ।
जप्यमानस्य मन्त्रस्य गोपनं त्वप्रकाञ्चनम् ॥
तार (ॐ }, व्योम (ह्), अश्नि (र), मनु (गौ) [ तथा अनुस्वार ) से युक्त
होने पर (= ॐ ह्वीं ) ज्योतिर्मन्वर बनता है । विधिपूवंक जपे गये (जपत)
वारिबीज (=वं) के द्वारा मन्त्रके (मनोः) प्रत्येक वणं पर कुशसे जल
चिडकना ( कुशोदकेन प्रोक्षणम् ) आप्यायन ( एष्टा) ४ ) संस्कार है ।
सत्रयुक्त जल से मंत्र में तपंण करना ( जल छोड़ना ) तपण ( 8१७7९ )
संस्कार है ॥ २४-२५॥ तार (ॐ), मायाबीज ( हीं ) ओर लक्ष्मीबीज
(श्री) से मन्त्र (मनु) को संयुक्त करना दीपन ( []|पण.०४५7द् )
कहलाता है । जित मंत्रका जपकलनादै, उसे प्रकाशित नहीं करता गोपन
संस्कार ( (00९81113 ) है ॥ २६ +
२७, संस्कारा दश्रमन्त्राणां सदेतन्त्रेषु मोपिताः ।
यत्कृत्वा संप्रदायेन मन्त्री वाञ्छितमर्नुते ॥
२८. रुद्रकीरितविच्छिननसुप्रशप्तादयोऽपि च।
मन्त्रदोषाः प्रणश्यन्ति संस्कारेरेभिरुत्तमेः ॥ इति ।
तदलमकाण्डताण्डवकरपेन तन्त्रहस्योद्घोषणेन ।
“मन्त्रो के ये द संस्कार सभी तन्त्रो में छिपाये गये है । संप्रदाय-ज्ञानपु्वंक
( गुर-शिष्य-परम्परा से जानकर } जो मन्व.साधक इन्दं संपादित करता है वह
मपने अभीष्ट फल कौ प्रापि करता है ।॥ २७॥ रद्ध ( आदि, मध्यया अन्त में
लं लं से युक्त ), कीलित, विच्छिन्न, सुत, शप्तादि सारे मन्व्रदोष इन उत्तम
संस्कारोंसेनष्टहो जाते रहै" । २८ ॥*
# तुलनीग्र--आदि मध्यावसानेषु मूबीजद्रनदलाञ्छितः ।
रुदढमन््रः स॒ विज्ञेयो भुक्तिमृक्तिविरवजितः ॥ १॥
माया नमामि च पदं नास्ति यस्मिन्स कीलितः ।
मनोयंस्यादिमध्यान्तेष्वानिलं बीजमुच्यते ॥ २॥
संयुक्तं वा वियुक्त वा स्वराक्रान्तं त्रिधा पुनः।
चतुर्धां पञ्चधा वाथ स मन्वरिछन्नसंज्ञकः ॥ ३॥
त्रिवर्णा हंसहीनो यः सुषुप्तः समुदाहूतः ॥
भूबोज=लं । शपत=किसी के हारा जिसकी शक्ति नष्ट हो गई हो ।
५१ ५ ० व्कच 1 ॥
॥ न= ~ । ~~ ^~ ^ ५.१ 4४५
1 रि सम य गासि च
|
७१२ सवेदशेनसंम्रहे-
तो अकाएड ( असमय मे ) त।एडव-नृत्य कौ तरह यह पर तन्वशाल्र के
रहस्य का व्याख्यान क्यों करं ? [ अपने प्रस्तुत प्रसंग पर चलं । ]
( १९. ई्वर्रणिधान ओर क्रियायोग का उपसंहार )
$उवरप्रणिधानं नामामिदहितानामनभिहितानां च सवासां
4 © ५
क्रियाणां परमेश्वरे परमगुरौ फलानपेक्षया समपणम् । यत्रद्-
युक्तम् - ॐ:
२९, कामतोऽकामतो वापि यत्करामि चभाद्मम् ।
तत्सर्वं त्वयि विन्यस्तं त्वत्प्युक्तः करोम्यहम् ॥इति।
विहित या अविहित ( वैदिक या लौक्रिकं )-- समो प्रकार के कर्मोको परम
गुरु परमेश्वरमें, फल की आशा बिना रवे हृए ही, समपित कर देना ईश्वर-
प्रणिधान कहलाता है ¦ इसलिए यह कहा गया है -- किसी कामनासे या बिना
किसी कामनाके जो शुभया अशुभ कमं मेँ कर रहा ह, वह सव तुम्हें ( ईश्वर )
को समपित करदेरहाहं क्योकितुम्हारे दारा ही प्रेरित होकर वे कमं
करता हूं }'
क्रियाफलसंन्यासोऽपि भक्तिविशेषापरपयोयं प्रणिधानमेव ।
कलानभिसंधानेन कमेकरणात् । तथा च गीयते गीतासु
भगवता-
© ~
३०, कमेण्येवाधिक्ारस्ते मा एटेषु कदाचन ।
न फलदेतुभ् © (^~
मा कर्मफरदेतुभूमो ते सङ्गोऽस्त्वकमणि ॥
( गी २।४७ ) इति ।
फलाभिसंयेरुपघातकत्वममिदितं भगवद्धि नीललकण्डभारती-
श्रीचरणः-
३१. अपि प्रयलसंपन्नं कामेनोपहतं तपः ।
न तटये महेशस्य खलीटमिव पायसम् ॥ इति ।
क्रियाफल से संन्यास लेना (फल की आशा न रखते हुए कमं करना ) भी
प्रणिधान ही है जिसे एक प्रकार की भक्ति भो कहते है । इसमे फल को आकक्षा
नहीं रखते हृए कमं क्रिया जाता है । भगवान् कृष्ण ने गीता मे साहो कहा
पातञ्जल-दशेनम् ७१३
है--हि अजुन, तुम्हारा अधिकार केवल कमं करने का है फल पाने का अधिकार
कभी नहीं है । कर्म-फल कौ कामना से तुम कमं मत करो ओर कमन करनेमें
भी तुम अपनी खचि मत दिखलाओ ॥ ३० ॥' ( गी° २।४७ )।
[ इसके अतिरिक्त | भगवान् श्रीचरण नोलकरठ भारती जी ने कहा है कि
आकांक्षा रना हानिकारक भी है-- तपस्या यदि प्रयलपवेक भी कौ गई हो
किन्तु किसी कामना से उपहत ( संयुक्त ) हो तो महेश्वर उससे संतुष्ठ नहीं होते
जेसे कृत्ते के द्वारा चाटा गया दूष [ तृष्टिकारक नहीं होता ] ॥ ३१ ॥'
(२०. क्रिया ही योग हे--श्ुद्धा सारोपा लक्षणा )
सा च तपःस्वाध्यायेश्वरप्रणिधानात्मिका क्रिया योगसाधन-
त्वाद्योग इति शद्धसारोपलक्षणात्रच्याश्रयणेन निरूप्यते,
यथायुषैतमिति ।
` शद्धसारोपालक्षणा नाम लक्षणाप्रभेदः । भुख्यार्थबाधतद्यो-
गाभ्यामथान्तरपरतिपादनं लक्षणा । सा द्विविधा--रूदिभूला
प्रयोजनमूला च । तदुक्तं काव्यप्रकाले-
३२. युख्याथवाधे तदयोगे रूदितोऽथ प्रयोजनात् ।
अन्योऽथा रक्ष्यते यत्सा रक्षणारोपिता क्रिया ॥
( का० प्र० २।९ ) इति ।
तप, स्वाध्याय ओौर ईश्वरप्रणिधान के रूपमे जोक्रियादहै वहुयोगका
साधन है, इसलिए उसे योग भी कहते है । रेसा निरूपणा तभी हो सकता है
जब शुद्धा सारोपा लक्षणावृत्ति की सहायतां लें । जैसे इस उदाहरण में - “आयुः
घृतम्" मे आयुशब्द से “आयु का साधन" यह लक्षित होता है, वैसे ही-^तपः
स्वाघ्यायेश्व रप्रणिधानानि क्रियायोगः" ( योऽ सू० २।१) में योग शब्दसे “योग
का साधन' लक्षित होता है । |
शुद्धा सारोपा लक्षणा लक्षणा वृत्ति का एक अवान्तर मेदहै। [शुद्धा
लक्षणा गौरी से भिन्न होती है। जो लक्षणा सादृश्य संबंध के आधार परह
उये गोणी कहते ई जेसे-- यह राजा सिह है । यहाँ वीरता, क्रूरता आदि
गरो कै कारण सिह के सहश लगने वाले राजा में पिह शब्द का प्रयोग हज
है। जिस लक्षणा का आधार सादृश्य के अतिरिक्त कोई दूसरा संबंध हौ उसे
श्युद्धा कहते है । प्रस्तुत प्रसंग में योग शब्द योग के साधन के अर्थं मे प्रयुक्त
न
७१४ | सवेदशेनसंग्रहे- ९
हे । यहाँ लक्षणा कायंकारण-माव रूपी संबन्ध पर आधारित है। इसलिए शुद्धा
लक्षणा है। सारोपा का भेद साध्यवसाना लक्षणा से होता है। विषय ओौर
विषयी मे मेद करते हृए दोनों का उल्लेख करना आरोष है । जहां एेषा आरोप
हो वह सारोपा लक्षणा होती है जेसे प्रस्तुत प्रमं योग विषयौ है क्योकि
यही आरोप्य है, आरोप का विषय है तप आदि क्रियाय । क्रिया ओौर योग दोनों
का उल्लेख हआ है । फिर भी भेद बना हुआ दै । आयु ची दैषमे भी आयुका
साधन घौ है- इस तरह मेद बना हुआ है । "राजा सिह है" यहाँ भो सारोषा ही
ह वयोकि दोनों मे भेद बना हु है। दूसरी ओर यदि राजा का उचारण
करके "यह सिंह' एसा कहें तो यह साध्यवसाना लक्षणा हई । साध्यवसाना
नं केवल विषयी काही उत्तरे होता है- विषयी का वाचकं शञ्द विषयवाचक
शब्द को निगल जाता है। |
लक्षणा वह वृत्ति है जिसमे मुख्य अथं का बाध ( वाक्यके देष पदोंके
साथ अन्वयन हो सकना }) तथा उसके संबन्ध (योग ) के दारा दूसरे अथं
का प्रतिपादन हो। इसके दो भेद है-रूढिमूलक तथा प्रयोजनमूलक । इसे
काण्यत्रकाश मे कहा है--जहां मुल्य अथं ( एणा }/1ल€वण79 ) के
साथ अन्वयन हो सके किन्तु उससे संबद्ध अथं का अन्वयदहो, रूढिया प्रयोजन
के कारण जहां पर दसरा अथं लक्षित हो वह लक्षणा अर्थात् शब्द की आरोपित
क्रिया है ( काव्यप्रकाश, २।९ } ।
विरोष-'गङ्कायां घोषः' एक वाक्य है जिसमे "गंगा" शब्द का मख्य अर्थं
है- एक नदी का जल' । किन्तु बाधित हो जाता है--जल में घोष ( ग्वालों
की बस्ती) नहीं रह सकता । इस प्रकार वाक्य मे "गंगा" के मुख्य अथंका
अन्वय होना असंभव है, इसे हौ वाध कहते है। अब उस मुख्यां का योग
( संबन्ध ) तट के साय ह । अतः गंगा का मुख्पाथं जल' बाधित होकर अपने
से संबद्ध एक दूसरे अथं "तट" का बोध करा देता है--यही बोध लक्षणा हे ।
यद्यपि लक्षणा मुख्य वृत्ति नहीं है तथापि किसी प्रयोजन से इसकी सहायता लेते
ह । "गङ्कखायां चोषः" मे ही यदि लक्षणा को छोड़कर मृख्याथं तट शब्द काही
प्रयोग कर ३--"गद्खातटे घोषः' करं तो इस वाक्यसे गंगाके तीर पर स्थित
चोष मे शीतलता ओर पवित्रता कौ प्रतीति सामान्य रूप से हो तो जायगी,
परन्तु इन गुणो के अतिशय ८ ५९५९10७6 ) का बोष नहीं होगा । जव
"गामं घोष है" कहते है तथा तीरका बोध गंगासे ही करलेतर्है, तोशीतलता
ओर पवित्रता के अतिशयका भी बोध होता टै। जो चीज गंगामें ही रहेगी
वह् कितनी शीतल ओर पवित्र होगौ । इती गुणातिशय के बोघ के लिए (्रयोजन
र ७१५
से ) "गङ्गायां वोषः' कहा गया है । इते भ्रयोजनमूलक लक्षणा कहते है ।
कभी-कभी लक्षणा त्रिना किसी प्रयोजन के ही लौकिक प्रसिद्धि (रूढि) के
आधार पर हीदे देते । इसे रूढिमूलक लक्षणा कहते है जैसे--कमंणि
कुशलः" । कुशल शब्द का मुख्य अथं है--कुंश लाने वाला । लेकिन इस मुख्यार्थं
का अन्वय उक्त वाक्य में नहीं हो सकता । अतः उसे संयुक्त अथं की कल्पना
होगी । लोमे कुशलः शब्द निपुणके भथंबेंरूढहोगयाहै। लक्षणासे
उसका यही अर्थं लेंगे । कमंणि कुशलः = कमणि निपुणः । दोनों का अथं एकं
ही है, कुछ अधिक अथं की प्रतीति नहीं होती । इसलिए रूढिमूलक है । प्रयोजन-
मूलक लक्षणा मे अधिक अर्थंकी प्रतीति होती है-गंगामे घोष ओर गंगाततट
पर घोष दोनों एकं नहीं हँ । जो विशेषता पहले वक्यमें है वह प्रयोजन है।
रूढिप्रूलक लक्षणा अभिधा के समान ही होती है ।
लक्षणा एक व्यापार है जो शब्द का नहीं होता, मुख्य अथंका ही होता
है। अथंकेद्वारा शब्द पर यह् व्यापार केवल आरोपित होता है। इसीलिए
कहते है कि गंया-शन्द लक्षणा (या अथं) के द्वारा तीर का बोध कराता है ।
यच्छब्देन लक्ष्यत ॒इत्याख्याते गुणीभूतं प्रतिपादनमात्र
पराभ्ररयत । सा लक्षणेति प्रतिनिर्दिशयमानापेक्षया तच्छब्दस्य
# च, ग्रे, तिनिर्दि
खीलिङ्गत्वोपपत्तिः । तदुक्तं केयटेः- निरदिंरयमानगप्रतिनिर्दि-
सयमानयोरेक्यमापादयन्ति सवेनामानि पर्यायेण । तत्तलिङ्गमु-
पाददत इति ।
| काव्यप्रकाश को उप्यक्त कारिका की दुसरी पक्ति मे विद्यमान ] यत्'
रब्द कै द्वारा "लक्ष्यते" ( लक्षित होता है ) इस आच्यात-पद (क्रिया भल)
मे गौणरूप से रहने पर भी प्रतिपादन अर्थं का बोध होता है। [ नैयायिकं का
मत है कि जसे "पाचक" शब्द में प्रत्यय ( रवुल् ) के अथं की प्रधानता है वैसे
ही पचतिः, "च्यते" आदि क्रियापदं में भी प्रत्यय ( तिप् , त आदि) के अर्थक
ही प्रधानता होती है। धात्वथं प्रत्ययाथं का विरोषण है। "लक्ष्यते यह क्रिया-
पद है जिसँ लक्ष्-धातु का अथं है प्रतिपादन" । यह घात्वथं प्रत्ययां का
विशेषण होने के कारण गौरा हो गया है किन्तु यत्" शब्द के द्वारा इसी गौशां
्रतिपदन' काबोधहोताहै, उषसे विरिष्ट प्रत्ययाथं का बोध नहीं कराता।
प्रतिपादित अथं को लक्षणा नहीं कहते है, प्रतिपादन ही लक्षणा है । यह दूसरा
प्रशन है कि वैयाकरण लोग क्रियापद में प्रकृत्यथं ( धात्वथं ) की ही प्रधानता
मानते हँ तथा उस मत से "प्रतिपादन" अथं गौरा नहीं होगा 1 ]
५ च ङ्ध , १ ५ ^" =क-+---* +~ र
॥॥ ४ जै
|| क कयि कमयन अक
#॥
स =
त
॥
४
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१.३ 0
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चि,
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'
७१६ सवेदशेनसंप्रहे-
[ अब यह कहा जा सकता है कि धत्-तत्' शब्दों मे एक ही अर्थं बदले
का नियम ह। यदि "यत्" के हारा प्रतिपादन का अ्थंबोघ होता है तो 'तत्'
केद्वाराभी वही काम होना बाहिए-- फलतः 'तत् लक्षणा कहना चाहिए
सा लक्षणाः ( ख्रीलिग ) नहीं । इसका उत्तर देते है-- ] "सा लक्षणा" ( वहं
लक्षणा है ) यहाँ पर विधेय (प्रतिनिदिश्यमान, {60168७6 ) के अनुसार
तत् शब्द की सख्रीलिग के रूपम्मे सिद्धि होत) हे। [ सा" उदेश्य है लक्षणा'
विचेय । दोनों एक ही लिग मे रहेगे, अतः "तत्" का खरी-ल्प सा रला गया है।]
इसे कौयट ने [ महाभाष्य के प्रथम आधिक के आरंममें शब्द के स्वल्प
विचार वाले अंश की टीका करते हुए ] कहा है--“उदश्य ओर विधेव दोनों में
एकता का प्रद्थेन करने वाले सर्वनाम ( यत्, तत्, किमू आदि ) प्याय अर्थात्
विकल्प (पारी-पारी) से किसी लिग का ग्रहण करते है । [ महाभाष्य मे वाक्य है-
अथ गौरित्यत्र कः शब्दः ? कि यत्तत्सास्नाला ङ्गलकङूदखु रविषारयथंरूप स शब्दः । (
दूसरी पंक्ति की व्याख्यामें ही कैयट का उक्त कथन है। जब यत् भौर तत् का
संबन्ध नित्य ह तब यत् को नपुंसकलिग मे ओौर तत् को पं्लिग में (सः) लिखना
कहां तक ठीक है ? विधेय "शब्दः" है अतः उदेश्य (तत्) पंज्ञिग में ही रखा गया
हे । यद्यपि तत् शब्द उदेश्य ( यत् ) का परामश करता है किन्तु यह् कोई
जलरी नहीं कि वह उदेश्य के लिग के अनुसार चले । विषेय ( शब्दः ) के लिग
के अनुसार चलने पर भी कोई हानि नहीं । इसीलिए नागेश ने भी उदाहरण
दिया है-शत्यं हि यत्सा प्रकृति जलस्य । अन्य उदाहरण--"योऽसौ पृत्रः स
रनम्" अथवा “योऽपघतौ पुत्रः तद्रू" । उसी प्रकार -- यत् लक्षयते सा लक्षणा' । |
तत्र कर्मणि इक्चलः इत्यादि रूदिक्षणाया उदाहरणम् ।
ङा तीति व्यत्पस्या दभौदानकतरि यौगिकं कुशरपदं विवे-
चकत्वसारूप्यातपरवीणे प्रवतमानमनादिवृदधन्यवहारपरम्परादुपा-
तित्वेन ¢
तेन अभिधानवत्प्रयोजनमनपेक्ष्य प्रवतंते । तदाद--
निरूढा लक्षणाः काथित्सामथ्यादभिधानवत् । (त °वा०) इति ।
उनमें कमं में कुशल है" इत्यादि रूढि लक्षणा के उदाहरण दै। [ कुशल
दाब्द की 1 व्युत्पत्ति होती है-कुंश + ~/ ला ( कृश लाने वाला }। इससे यहं
यौगिक "कुशल शब्द दभं (कुश) लानेवाले के अथं में (मुख्य अथं में) रहकर भी,
विबेचक ( योग्य, विवेको ) होने के साधम्यं के कारण श्रवीण' के अथं मे प्रवृत्त
होता है । [ कुश लाने मे बडे विवेक कौ आव्यकता है--उसे देखना पड़ता है
कौन कुश है, कौन सामान्य घास । निपुण व्यक्ति भी विवेकी होता है । दोनों मेँ
+ 9
~ डनी
>
+ +) 4 + ~ 3.4
१=#. म र
१, ^ ' ऋ `
व ध प ८ 4 1]
4, + ,
~ कती + त
। # ५4 “५ चेका क च
` ऋक त 7 =
पःतञ्जल-दशेनम् ७१७
विवेक का घम समान है इसलिए कुशल का अथं निपुण हो गया । ] इस अथं की
वत्ति, बिना किसी प्रयोजन को अवेक्षा रखे ही, होती है । अनादि काल से वृद्ध-
व्यवहार कौ परपरा में पड़े रहने के कारण [ यह अथं ] अभिधान ( वाच्यार्थं
प्रकट करने वालौ शक्ति या अभिधा ) कै समान [लूढृहोजातादहै।] इसे ही
[ कुमारिल ने तन्व्रवातिक में | कहा है 'ढिमूलक लक्षणायें प्रायः ( काधित् )
प्रसिद्धि के कारण अभिधान ( वाच्यां ) कीतरहदहीहो जाती है ।'
तस्मादरूदिलक्षणायाः प्रयोजनापिक्षा नास्ति । यपि प्रयुक्तः
शब्दः प्रथमं प्रख्याथं प्रतिपादयति, तेनार्थनाथाीन्तरं लक्ष्यत
¢ # ~
इत्यथधर्मोऽयं लक्षणा, तथापि तत्प्रतिपादफे शब्दे समासेपितः
सञ्ञब्दग्यापारः इति व्यपदिश्यते । एतदेवामिप्रेत्योक्त- टक्च-
णारोपिता क्रियेति ।
इसलिए रूढिलक्षणा को प्रयोजन की अपेक्षा नहो रहती । यद्यपि यह ठीक
है करि प्रयुक्त होने बाला शब्द पहले मुख्य अथं का प्रतिपादन करता है भौर
उसी मुख्यार्थं से यह दूसरा अथं लक्षित होता है इसलिए अथं का यहु धमम॑ही
लक्षणा है [ शब्द का नहीं]; फिर भी चक्रि मुख्याथं के प्रतिपादक शब्द पर
ही इसका आरोप होता है अतः यह शब्द काही व्यापार है- रेषा [ आलंकारिक
विधि से | कहते है । इसी अभिप्राय मे कहा गया है "लक्षणा" शब्द का वह्
व्यापार है जो आरोपित क्रिया जातादहै। [ रूढिपृलक लक्षा कौ विवेचना
करने के बाद अब प्रयोजनमुलक लक्षणा के भेदो तथा उनमें प्रत्येक के उदाहरण
का उत्लेख करते हैँ । ]
( २० क. प्रयोजनमूलक लक्षणा )
प्रयोजनलक्षणा त॒ षड्विधा- उपादानलक्षणा रक्षण-
लक्षणा गोणसारोषा गौणसाध्यवसाना शद्धसारोपा ज॒द्धसाध्य-
वसाना चेति । इन्ताः प्रविशन्ति, मश्चाः को्चन्ति, गोवाहीकः,
गोरयम् , आयुध्रेतम्, आयुरेषेदम्-- इति यथाक्रमञुदाहरणानि
द्रष्टव्यानि ।
परयोजनमूलक लक्षणा के छह भेद है जिनके उदाहरण भी करमशः देख
लिये जायंँ--
७१८ सबेदर्शनसंग्रहे-
( १ ) उपादानलक्षण।( ( [लप{१€ 10८8६ )-- कुन्ताः
प्रविशन्ति" अर्थात् माला धारणा क्रिये हृए् पुरूष अति हँ । [ यहाँ पर मुख्य अथं
को वाक्य के साथ अन्वित करनेके लिए ही दूसरे अथं का ग्रहृण किया जाता
है। अपने अ्थंका विना परित्याग क्रिये हए ही दूसरे अथं का ग्रहण करना
उपादान कहलाता है । कुन्त का मुख्यार्थं है भाला ( 1.81106 ), अब भालों में
प्रवेश करने की शक्ति नहीं है इसलिए वाक्य मे अन्वय करने के लिए तत्संयुक्त
परार्थं कुन्तघारी पुरुष--का ग्रहण किया गया है । इस लक्ष्यां मे कृन्त का
भी ब्रहण हुआ है, उपे छोडा नहीं गया ह । ]
( २ ) लक्षणलक्षणा {174५९४१४९ [0४ गा)--मन्चाः क्रोयान्तिः
अर्थात् मंच पर बेठे हुए पुरुष चिल्लाते ह । [ शब्दाथं अपने से सम्बद्ध अथं की
सिद्धि अर्थात् वाक्य में अन्वय करने के लिए अपना ही ( मख्याथं } का त्याग कर
देता है। लक्षण -स्वाथंको त्याग कर परां को लक्षित करना। मंचको
अपना अथं यहां छोड़ देना पडता है । पुरुष चिल्लाते ह, मंच नहीं । मंच से
विशिष्ट पुरुष नहीं चित्ला सक्ते है । लक्षणा के यै दोनों मेद शुद्धा लक्षणा ह,
गौणी नहीं । गौरी मे सादृश्य-सम्बन्ध का आधार रहता है, शुद्धा मे सादृश्य से
भिन्न सम्बन्धो का आघार लिया जातादहै। |]
(३) गोणसारोपा ( (>५९11१€१् 8प[0€1फ[00€0४ 1०169.
ध0ा }--गौर्वाहीकः' अर्थात् यह पंजाबी बेल है। [ आरोप = विषय ओर
विषयो दोनों का अभेदषूपमे उपन्यास । जहां विषय ओर विषयी दोनों
शब्दशः स्पष्टां वही सारोपाहै। उक्त उदाहरणमें गौ शब्द से, बृद्धि की
मंदता आदि गणो का सार्य देखकर, जड-अथं लक्षित होता है । विषयी का
निर्देश गौ" शब्दसे हुआदहै, आरोपके विषय का "वाहीक" शब्दके द्वारा
निर्देश हुआ है । ]
(४ ) गौणसाध्यवसाना ( (१110९ 10७प७८९]) ९९ [णता
08107 }-- गौरयम्' अर्थात् यह बेल है । [ सादृदय संबंध के आधार पर ही
आरोप्यमाण विषयी ( गौ ) आरोपित विषय को निगल गयाहै। विषयकी
सत्ता केवल “अयम्” (सर्वनाम) के ह्वार) प्रकटहै, वाहीक" बिल्कुल
विलीन हो गया । |
( ५) शुद्धसारोपा ( २०९ 8प[)611701]0006् ४ {१५५8४00 )--
आयुश्ेतम्' अर्थात् घी ही आयु है। [ साहृद्येतर संबंध के आधार पर ( शुद्धा )
विषयी ओर विषय का पृथक् उज्ञेख रहता है । आयु ओर घी मे साहश्य संबंव
नहीं है, कायं-कारण-संबंध है । ये दोनों क्रमशः विषयी ओर विषय है दोनों
पातञ्जल-दशनम् ७१६
का पृथक् उपन्यास भी हुआ है । घी आयुका साधन है। प्रस्तुत योग के प्रसंग
मे यही लक्षणा है । | |
( ६ ) शुद्धसाध्यवसाना ( ८९ [11108प8[06९४१९ 1त्; 8 -
४0 )--आयुरेवेदम्' यह आयु हीदहै। [ साहश्येतर संबंध के आधार पर
( शुद्धा ) विषयौ जब्र विषय को अन्तभुत कर ले वही शुद्धा-- साध्यवसाना है ।
आयु ( विषयौ ) धौ ( विषय }) को निगल गया है ओौर सत्ता मात्र उशकी बची
है--इदम्' । इष तरह ये छह भेद है । |
तट्क्तम्--
©
३३. स्वसिद्धये पराक्षेपः पराथं स्वसमर्पणम् ।
॥ ॥ र,
उपादानं लक्षणं चेत्युक्ता शुद्धेव सा द्विधा ॥
३४. सारोपाऽन्या तु यत्रोक्तो विषयी विषयस्तथा ।
विषय्यन्तःकृतेऽन्यस्मिन्सा स्यात्साध्यवसानिका ॥
३५. मेदाविमो च॒ सादश्यात्संबन्धान्तरतस्तथा ।
गौणो शद्धो च विज्ञेयो तक्षणा तेन प्डविधा ॥
( का० प्र २।१०-१२ ) इति ।
तदलं काव्यमीमांसाममेनिर्मन्थनेन ।
इसे कहा गया है--अपनी ( मुख्यार्थं की ) सिद्धि ( वाक्य में अन्वय ) करने
के लिए परार्थं का ग्रहण करना तथा परार्थं के लिए अपना (मृद्याथं का) त्याग
कर देना क्रमशः उपादनलक्षणा ओौर लक्षणलक्षणा है-- इस तरह शुद्धा लक्षणा दो
प्रकार की है ॥३३॥ दूसरी (गौणी) लक्षणा में वह सारोपा है जहाँ विषयी ओर
विषय दोनों अभिहित (शब्द के द्वारा प्रतिपादित) हों । किन्तु जब विषयीके द्वारा
दसरा ( =विषय ) अन्तभूत कर लिया जाय (अषपनेमें मिलालिया जाथ) तो
वह सःव्यवसाना होती है ॥ ३४ ॥ ये दोनों भेद साटरय-संबन्व के कारण होते
हैया सादृश्येतर संबन्ध के कारण होते है तो उन्हे क्रमशः गौण (साह्य संबन्ध)
ओर शुद्ध ( सादृश्येतर संबन्ध ) समक्ञना चाहिए-इसलिए लक्षणा छह प्रकार
की हुई ॥ ३५ ॥' ( काग्यप्रकाश २।१०-१२ ) ।
काव्यशा्र के अभिप्राय की अधिक छान-बीन करनेसेहमेक्यालाभहै?
(२९. योग के आठ अंग--यम ओर नियम )
स च योगो यमादिभेदवश्चादषटाङ्ग इति निरदिंष्टः। तत्र यमा
७२० सवेदशेनसंग्रहे-
अरिसादयः। तदाह पतञ्जलिः-“अर्दिसासत्यास्तेयत्रह्मचयापरि-
ग्रहा यमाः” ( पात० यो० घू° २।३० ) इति । नियमाः जोचा-
दयः । तदप्याह--क्ौचसन्तोषतपःस्वाध्यायेश्वरप्रणिधानानि
नियमाः" ( पात० यो० चू० २।३२ ) इति ।
यमादि भेदो के कारण उक्त योग आठ अंगोसे युक्त टै, एेषा निदश्च किया
गया है । उन योगों मेँ अहिसा आदि को यम कहते है जैसा पतंजलि ने कटाहै-
'अहिसा, सत्य, अस्तेय, ब्रह्मचयं ओर अपरिग्रह यम है" ( यो सू° २।३० } ।
शौच आदि नियम है। उन्दँ मी कहा है-- शौच, संतोष, तप, स्वाध्याय ओर
ईश्वरप्रणिधान, ये नियम है" ( यो० सुर २।३३ } ।
एते च यमनियमां विष्णुपुराणे द्िताः-
य
२३६. ब्रह्मचयमर्हिसां च सत्यास्तेयापरिग्रहान् ।
सेवेत योगी निष्कामो योग्यतां स्वं मनो नयन् ॥
३७. स्वाध्यायो चसंतोषतपांसि नियतात्मवान् ।
ङुवीत ब्रह्मणि तथा परस्मिन्प्रवणं मनः ॥
३८. एते यमाः सनियमाः पञ्च पञ्च प्रकीतिताः ।
विशिष्टफएरदाः कामे निष्कामाणां विषुक्तिदाः ॥
( वि° पु० ६।७।३६-३८ ) इति ।
विष्णुषुराण मे इन यमो ओौर नियमों का भ्रद्न क्रिया गया है--अपने
मन को [ आत्मा का चिन्तन करने के] समं बनाति हुए, निष्काम-माव से
( फल की कामना न करते हुए ), योगी ब्रह्मचयं, अहिसा, सत्य, अस्तेय ओर
अपरिग्रह का सेवन ( पालन ) करे ॥ ३६ ॥ अपने मन का निग्रह करके ( निय
तात्मवान् ) पोगी स्वाध्याय, शौच, सन्तोष तथा तप करे भौर उसी प्रकार
परब्रह्म मे मन को आसक्त (प्रवण) कर दे (अर्थात् ईश्वरप्रणिधान करे ) ॥२३७॥
नियमों के साथ-साथये यमर्पाच-्पाच की संख्याम बतलाये गये है । सकाम
भाव से करने पर ये विशेष फल देते ह, यदि निष्काम भावसे करं तो विमुक्ति
देते है ॥ ३८ ॥" ( विष्णुपुराण, ६।७।३६-३८ ) ।
( २१ क. आसन ओर प्राणायाम )
स्थिरसुखमासनं ( पात० यो० घ २।४६ ) पञ्चासन-
पातञ्जल-दशनम् | ७२१
भद्रासन-वीरासन-स्वस्तिकासन-दण्डकासन-सोपाश्रय-पर्यङ््-कौश्च
निषदनोषटनिषदन-समसंस्थानमेदादशविधम् ।
३९. पादाङ्ष्ठौ निवध्नीयाद्रस्ताम्यां व्युत्रमेण तु ।
उ्बोरुपरि विप्रेन्द्र कृत्वा पादतङे उमे ॥
पद्मासनं भवेदेतत्सर्वेषाममिपूजितम् ।
इत्यादिना याज्ञवल्क्यः पद्मासनादिस्वरूपं निरूपितवान् । तत्सवं
तत एवावगन्तव्यम् ।
“जो स्थिर ओर सुखदायी हो वह॒ आसन है" ( यो° सू० २।४६ ) । इशक
दस भेद है-
( १ ) पञ्चासन-[ दाहिने पैर को बायीं जंघाके ऊपर तथा बाय पैरको
दाहिनी जंघा के ऊपर जमाकर रवने से पद्मासन बनतांहै। यदि बाय ओर
दाहिने हाथों को पीठकीओरसे ले जाकर उनकी उगलियोंसे क्रमशः दायें
मौर बायं पेरोके अंगों को भी पकड़ लं तो इसे बद्ध पद्याघन कहते ह । किन्तु
इसे याज्ञवल्क्य पद्मासन ही मानते है । |
( २) भद्रासन-[ सीमनी रेखा (लिगसे गुदा की ओर जानेवाली
रेखा ) के बगल में अंडकोश के नीचे दोनों पैरो की एडि्यां जुटा दें तथा दोनों
हाथो से परों को पकडे रहँ । यह भद्रासन सभी रोगों का नाश करता है। |
(३ ) वीरासन--[ एक पर को मोडकर दुसरे पैर को उसी प्रकार मोड़
कर एक कौ जेधा पर दूसरे को रख दे । सामान्य रूपसे बैठने के लिए यह् अच्छा
असन है। |] |
( ४ ) स्वस्तिकासन-[ चुटना ओर जंघा के बीच में पेरोंके तलवोंको
रखना ही स्वस्तिकासन है । शरीर को वीरासन की तरह सीधा रखें । ]
( ५) दण्डकासन-[ भूमि में जंघा ओर चुटना सटाकर पैरों को
फेला दं। दोनों वैरोंके अजँगूढे ओर धृष्टिं ( गुल्फ ) सटी हों। यह् दशड-
कासन है । |
( ६ ) सोपाश्रय-[ योगष्ट ( योगाभ्यास के लिए कपड़ा) के साथ
बेठना । |
( ७ ) पयेङ्क--[ बाहो को घुटने को ओर फेलाकर सो जाना । ]
( = ) कचनिषद्न--[ बैठे हुए करौच पक्षी के समान बैठ जाना । |
( ९ ) उषटूनिषद्न-[ बेटे हृए ऊंट की तरह बैठना । दोनों वैरो को पीछे
४& स० सं
७२२ सर्वदशनसंमरहे-
की ओर मोडकर धचुटने के बल खड़ा हो जाय) पेट के ऊपर से षीचे कीओर
मुक कर दोनों हार्थो से भूमि मे स्थित वेरो को पकड़ने, |
( १० ) समसंस्थान-- | चुटनों के ऊपर हाथ रखकर सिद्धासन या
वालथी लगा सँ । शरीर, सिर शौर गदंन एक सीध में रहे । |
याज्ञवल्क्य ने पद्मासन आदि का स्वल्प निरूपित किया है --"दोनों हाथों
को व्युककरम करके उनसे, जंघाओं के ऊषर रखे गये वैरो के अँगुढो को, पकड लं ।
हे ब्राह्मणाशरेठ, यह सवो के द्वारा पूजित पद्यसिन ह ।' अवशिष्ट आसन वहींसे
जान लं ।
विरोष--निषदन, संस्थान ओौर आसन तीनों पर्यायवाची शब्द ह ।
आसनो का योगशाख मे बडा महत्वपूणं स्थान है । हमारे सामान्य जीवन
मे भीये इषल्िर उपयोगी दकि अनेक रोगो का ज्ञमन, चित्त की एकाग्रता,
शरीर का आसेग्य, दीर्घायु-्राप्नि आदि बहृत से लाभ इनसे होते ह । यदि ठीक
से संप्रदायपूर्व॑क आसन क्रिये जायं तो कु ही दिनों में इनसे अदुगरुत चमत्कार
देवा जा सकता है । उपयुक्त आसन तो केवल उदाहरण ह सेकडों आसनो
का वणन शाखो मे है।
तस्मिननासनस्थेये सति प्राणायामः प्रतिष्ठितो भवति ।
त॒ च श्रास्रशवासयोर्तिविच्छेदस्वरूपः । तत्र॒ शासो नाम
ब्राह्मस्य वायोरन्तरानयनम् । प्रधासः पुनः कोषस्य वहिनिः-
सारणम् । तयोरुभयोरपि संचरणामावः प्राणायामः ।
ननु नेदं प्राणायामसामान्यलक्षणम् । तद्विशेषेषु रेचकपूर-
कड्कम्भकप्रकरेषु तदनुगतेरयोगादिति चेत्- नेष दोषः । सबे-
त्रापि श्वासप्रश्वासगतिविन्लेदसंभवात् ।
इस श्रकार जव आसन की स्थिरता संपन्न ( बैठने का अभ्यास ) हो जाय
तब प्राणायाम प्रतिष्ठित होता है । प्राणायाम का अथं है श्वास ओर प्रश्वास
की गति को विच्छिन्न ( रुद्ध) कर देना । उनमें श्वास बाहरी वायुको भीतर
लानेिक्षीक्रियाको कहतेह। कोष्ठ ( शरीर, विशेषतः उदर | मे स्थित वायु
को बाहर निकालना प्रश्वास कहलाता है । उन दोनों का संचरण न होनादही
प्राणायाम है।
यहाँ पर शंका हो सकती है किं यह तो प्राणायाम का सामन्य लक्ष नहीं
इथ क्योकि यह लक्षण प्राणायाम के भेदो- रेचक, पूरक, कुम्भक-- मे अनुगत
( &ाल्धण€ ) नहीं हो सकता । [ कुम्भक मे भले ही गति का अभावो
पातञ्जल-दशेनम् ७२३
किन्तु रेचक ओौर पूरकमें तो करमशः वायु को निकालने ओर उसे भोतरं लाने
की क्रियाओं मे गति रहती ही है । ]
| इसका उत्तर है कि ] यह दोष नहीं है। सभी मेदो में श्वास ओर प्रक्षा
को गतितो विच्छिन्न होतीहीहै। [अव तीनों मेदो के लक्षण तथा उनमें
श्रणायाम के लक्षण की संगति दिखायी जायगी । ]
तथा हि-कोष्ठयस्य वायोबेहि्निःसरणं रेचकः प्राणायामो
यः प्रशवासत्वेन प्रागुक्तः । बाह्यस्य बायोरन्तधारणं पूरको यः
श्ासरूपः । अन्तःस्तम्भदृत्तिः कुम्भकः । यस्मिञ्ञलमिव म्भे
निश्चरुतया प्राणाख्यो वायुरवस्थाप्यते । तत्र सर्वत्र श्वासप्रधा-
सदयगतिविच्छेदोऽस्त्येवेति नास्ति शङ्ावकाशः । तदुक्तं-
तस्मिन्सति शवासप्रधासयोगेतिविच्छेदः प्राणायामः ( पात°
यो० घर« २।४९ ) इति ।
इसे एेसे देखं-कोष्ठस्थित वायु का बाहर निकलना स्चक प्राणायाम है
जिसे प्रश्वासके रूप में पहले कहा गया है । बाहरी वायुका भीतर प्रवेश कराना
पूरक है जिसे श्वास भी कह सक्तेहै। वायुकोभीतरही स्तम्भित करने की
क्रिया कुम्भक है। इस प्राणायाममें घडेमें रे हए जल कौ तरह निश्चल
रूप से प्राणवायु अवस्थित कौजातीहै। तो उन सों में श्वासप्रश्वास दोनों की
गति में रुकावट हो्तीहीदहै, अतः द्यंकाका कोई अवसर ही नहीं है । [ रेचक
या पूरक मे क्रिसीएकं तरफकी ही गति रहती है, अतः श्वासप्रश्वास दोनों की
गति तो नहीं रहती । इसके अलावे गतिविच्छेद का अर्थं स्वाभाविक गति का
विच्छेद समञ्लना चाहिए । रेचक या पूरक में वायु अपनी स्वाभाविक गतिसे
नहीं चलती । देश या काल की गति की अपेक्षा अधिक गति रहती ही ह ।
वास्तव में रेचक वह है जिसमे प्रवास यारेचनके द्वारा वायु की गतिका
विच्छेद करे । उसी तरह श्वास यापूरणके द्वारावायुकी गतिमें व्यवधान
डालना पूरक प्राणायाम है । करम्भकमेंतो दोनों ओर से गति का अभाव रहता
है, उसमे तो कच्च कहना ही नहीं । ]
यही कहा गया है-- “उस ( आसन की स्थिरता ) के संपत्न हो जाने पर
श्वास ओर प्रवास की गति का विच्छेद कर देना प्राणायाम है" (यो० सू° २।४९)।
( २२. वायुतत्व का निरूपण )
स च वायुः र्योदयमारभ्य साधेषटिकादयं षटीयन्त्रस्थित-
७२४ सवेदशेनसंग्रदे-
घटभ्रमणन्यायेन एकैकस्यां नाञ्यां भवति । एवं सत्यहनि्ं
श्वासप्रधासयोः षटुश्चताधिकंकर्वश्चतिसहस्राणि जायन्ते । अत
एवोक्तं मन्त्रसमर्पणरहस्यवेदिभिरजपामन्तरषमपणे--
४०. षट्शतानि गणेशाय षटसहस्ं स्वयं ।
विष्णवे षटूसदसं च षटसहस्ं पिनाकिने ॥
४१. सहस्रमेकं गुरवे सहं परमात्मने ।
सहस्मात्मने चैवमपेयामि कृतं जपम् ॥ इति ।
जिस प्रकार घटीयंत्र ( रंहट ) मे घट ( लोहे की बालटिया ) धमते है उसो
तरह वह वायु भी सूर्योदय से आरंभ करके ढाई-ढाई घडी ( ढाई घड़ी-१ घंटा )
तक प्रत्येक नाडी ( इडा, पिगला ) मे रहती है । [ प्राणियों कौ दाहिनी नाडी
( दाहिनी नासिका कौ सांस ) पिगला कहलाती है, बायीं नाड़ी डड़ादै।
दोनों के बीच में सुषुम्णा बहती है। वायु-संचार २३ धड़ो( = १ घंटे) तक
प्गिलाके द्वारा होतादै, फिर २ घडी इडाके दवारा वायु चलती है, फिर
पिगला ओौर इडा--यही क्रम है, |
इस प्रकार वायु के चलने से दिनरात मे इक्षीस हजार छह सो (२१६००)
्वासप्रधवास होति है। [ दिन-रात मे ६० घड़ियाँ ( घटी या दशड } होती है ।
एक घटी में ६० पल होते है ( = दिनरात मे ६० > ६० = ३६०० पल ) ।
एक पल में ६ बार श्वास-प्रवास लेते हैँ अतः दिनरात में ३६०० “ ६=२१६००
बार श्वास-प्रधवास होता है।|
इसीलिए मन््र-समपंणा का रहस्य जाननेवाले लोग अज्ञपामं्न" के समपंण
के विषयमे कहते है- "मै इस किये हृए जप में से ६०० मन्त्र गरेश को, ¦
६००० जहा को, ६००० विष्णु को, ६००० शिव को, १००० गुरु को, १०००
परमात्मा को तथा १००० आत्मा को अर्पित कर रहा ह ।। ४०-४१ ॥'
तथा नाडीसंचारणदश्चायां बायोः संचरणे परथिव्यादीनि
# श्ास-प्रश्चास के रूपमे स्वभावतः जपा जाने वाला मन्त्र अजपामन्त्र है ।
दूसरे मन्त्रों की तरह इसे जपते नहीं इसलिए इसे अजपा कहते है । श्वास ओौर
्शवास में हंसः कौ मन्त्र-भावना की जाती है। स्वभावतः इसे २१६०० बार
प्रतिदिन जपते हँ । इसे ही उलटने ¶र "सोऽहम् ' कहते है। इस जप का विभाजन
करके गरोशादि देवताओं को अपण करते है । दः -
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पातञ्जल-दशेनम् ७२५
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तत्वानि वणविशेषवश्ातपुरषाथाभिलापुकः पुरूपैरवगन्तव्यानि ।
तदुक्तमभियुक्तः-
४२. साधं षटीद्रयं नाञ्योरेकेकार्कोदयादरहेत् ।
अरषट्रघटीभ्रान्तिन्यायो नाञ्योः पुनः पुनः ॥
निश्वासो नेव
४३. श॒तानि तत्र जायन्ते चछ्कासयोनेव ।
~ अ, म |
खखषट्कद्विकः संख्याहोरात्रे सकले पुनः ॥
| जिस प्रकार वायु की स्वाभाविक गति के कारणा प्रत्येक श्वास-प्ररवास में
"हंसः" मन्त्र कौ भावना से अजपाजप की सिद्धिहोती दहै] उसी प्रकार वायुके
संचार से नाड्यां का संचारण होने के समय, पुरुषाथं कौ अभिलाषा करने वाले
पुरुषां को, [पीत आदि | विशिष्ट वर्णो से [ युक्त बिन्दुओं के द्वारा ], पृथिवी आदि
तत्त्वो काज्ञान प्राप्त करना चाहिषए्। [ पृथिवी आदि तच्व पुरुषाथं है । इनका
ज्ञान अन्तर 'दष्टिसेहो सक्तादहै) शरीरमें कुछ बिन्दु ह जिनके वर्णोकी
कल्पना की गईहै-उन्हींसेये तत्व भलो-माति ज्ञात होते ह ।|
इसे प्रामाणिक व्यक्तियों ने कहा है--'{[ इडा ओौर पिगला ] इन दोनों
नाड्यो मे प्रत्येक नाडोसे सूर्योदियसे आरंभ करके ढारई-ढाई घटियों तक
[ प्राणवायु का ] वहन होता है । अरघटु-षटो ( कुएं के रट } के श्रमण कौ
तरहये दोनों नाड्यां बार-बार [ बहतीदहै।] इस क्रियासे ढाई टीमें
९०० निश्वा् ओर उच्छवास होते है । पूरे दिन-रातमे तो २१६०० ( ख~०,
ख=०, षट् = ६, क=१, द्वि=२, अङ्कस्य वामा गतिः' से. उलटने पर
२१६०० ) संख्या हो जाती है ॥ ४२-४३ ॥
४४. पटर््िशद्गुरुणोनां या वेरा भणने भेत् ।
सा बेला मरुतो नाज्यन्तरे संचरतो भवेत् ॥
४५. प्रत्येकं पञ्च तत्वानि नाञ्योश्च वहमानयोः।
वहन्त्यहर्निश्चं॑तानि ज्ञातव्यानि यतात्मभिः ॥
४६. ऊध्वं वदह्विरधस्तोयं तिरश्रीनः समीरणः
भूमिरधेषुटे व्योम सवंगं प्रवहेत्पुनः ॥
४७, वायोवंहवेरपां पृथ्व्या व्यो्नस्तच्चं वहेक्रमात् । `
वहन्त्योरुमयोनोच्योज्ञोतव्योऽयं क्रमः सदा ॥
७२६ सवेदशेनसं्रहे-
छत्तीस दीघं वर्णो ( आ, ई, ऊ जसे वणं ) के उच्चारण मे जितना समय
लगता है उतना ही समय वायु को नाडीमें धूमनेमें लगतादहै। [इसे ही प्रण॒
मी कहते है। ६ प्राण=१ पल । ६० पल= १ घटी। एक षटीमे ३६०
श्वासोच्छवास या प्राण होते है । | ॥ ४४ ।॥ इन बहने वाली नाडयो में प्रत्येक
के पाँच तत्तव होते है जो दिन-रात बहते रहते है, इन योगी ही जान सकते
है ।॥ ४५॥ [ये नाड्यां अपने अन्तर में स्थित सूक्ष्म पृथिवी आदि तच्वों मे
से किसी एक के अंशसे ही चलती । जब जो तत्त्व बहता है तब कहते है
कि उस अमुक तत्व से नाड़ी चल रहीहै। इसेयोगसे ही जान सकते है।
अब नाडयो मे बहने वाले पाचों त्वो का स्थान बतलाति है] अन्नि-तत्त
ऊपर बहता है, जल-तस्व नीचे की ओर; वायु-तत्तव तिरा बहता है, परथिवो-
तत्व अधं पुट ( कोष्ठ ) मे तथा आकाशतत्त्वं चारों तरफ बहता है ।॥ ४६ ॥
[ अब इनके बहने का क्रम बतलाते ह | दोनों बहनेवाली नाडियों का यह्
क्रम सदा जानना चाहिए कि क्रमशः वायु, अनि, जल, परथिवी ओर आकाश के
तरव बहते है ।॥ ४७ ॥
४८, पृथ्व्याः पलानि पंचाज्ञच्चत्वारिंशत्तथाम्भसः ।
अग्नेस्तिशत्पुनवायोर्विंशतिनेभसो दश्च ॥
४९. प्रवाहकारसंख्येयं हतस्तत्र प्रदश्येे ।
तोयं ©
पृथ्वी पञ्चगुणा तोयं चतुगुणमथानलः ॥
५०. त्रिगुणो द्विगुणो वायुर्वियदेकंगुणं भवेत् ।
गुणं प्रति दश ॒पठान्युव्यां पश्चाशञदित्यतः ॥
केकहानिस्त धिते
५१. एककहानिस्तोयादेस्तथा पञ्च गुणाः क्षितेः ।
गन्धो रसर्च रूपं च स्पशः शब्दः क्रमादमी ॥
पृथ्वी-तत्तव पचास पलों तक बहता है, जल-ततत्व चालीस पलों तक,
अग्नि-तत्त्व तीस पलों तक, वायु तच्व बीस पलों तक तथा आकाञ्च-तचर्व दस
पलो तक बहता है । [ इनके बहने का क्रम पहले के नेषा ही है--पहले वायु-
तत्व, फिर अग्नितच्व आदि । ]* ॥। ४८ ॥ प्रवाह के काल ( समय ) की संख्या
( परिमाणा ) इस तरह बतलाई गई है । अब इसका कारण बतलावे--पृथ्वी
पाच गणो कीट, जल चार गुणोंका है; अचिके तीन गण, वायुके दो गुण भौर
व ~ ~ = === = = =-= ञ्य
| ॥।
।
। |
१ ||
न केन्कृन्कन् ~
क न क य किः
= ।। = = =-= कः 2 कक्कर
# कुल मिलाकर १५० पल होते ह अर्थात् ये पाचों तत्तव १-१ घंटेके क्रम
से आते हँ ( २॥ घडी ) ।
भक
क~ गना
क ~ -- य
\ क कनक क ~ =
छ ~ जकन ~
¢ ` क पा प
पके ` `
(=
पातञ्जल-दशेनम् ७२७
आकाशमें केवल एक गुण ही है । [ देिए--इसी ग्रन्थ का सांख्यदशन -- "तत्र
शब्दस्पशंरूपरसगन्धतन्मात्रेम्णः पृ्॑पूवसृक्ष्ममूतसहितेम्यः पञ्च महाभूतानि विय-
दादीनि करमेणौकदवित्रिचतुष्पंचगुणानि जःयन्ते । ( पृ ६२७ ) । |
प्रत्येक गुण में दस पल होते है--इसलिए पृथ्वी में पचास पल मने गयेर्है।
॥ ५० ॥ इसके बाद जलादि से एक-एक गण कौ कमी होती जाती है । पृथ्व
के पांच गुणों में गन्ध, रस, रूप, स्पशं ओौर शब्द है । इनमें मी करमशः [ एक.
एक घटते जाते है -जल में गन्ध नहीं ( ४ गुण ), अन्तिमे गन्ध भौर रख नहीं
( ३ गण ), वायु मे गन्ध, रस मौर रूप नहीं ( २ गुण } तथा आकाश मेँ केवल
शब्द गुण ही है । | ॥ ५१ ॥
५२. तच्वाभ्यां भूजलाभ्यां स्याच्छान्तिः काये फलोन्तिः।
दीप्रास्थिराव्युहवृत्तिस्तेजोवाय्वम्ब्ेषु च ॥
५३. प्रथ्व्यप्नेजोमरुद्व्योमतखानां चिद्वमरुच्यते ।
आधे स्थेयं स्वचित्तस्य शेत्ये कामोद्धवो भवेत् ॥
५४. तृतीये कोपसंतापो चतुर्थे चश्चलात्मता ।
पश्चमे शन्यतेव स्यादथ वाधमेवासना ॥
५५. श्चुत्योरङ्गषठको मध्याङ्कस्यो नासापुटदये ।
सुकिण्योः प्रान्त्यकोपान्त्याङ्खरी शेषे दगन्तयोः ॥
पृथ्वीततत्व तथा जलतत्त्व से ( इनके वहने पर ) क्रमशः शान्ति ओौर
[ आरम्भ क्रिये गये | कायं में फल की अधिकता मिलती है। अग्नितच्व के
बहने पर ¡ चित्तवृत्ति ] दीप्त होती है, वायुतत्व में अस्थिरता ओर आकाशतच्व
के बहुने पर चित्तवृत्ति अन्यूह ( वियोग ) के रूपमे हो जातीदहै। ५२॥ अब
हम पृथ्वी जल, अभ्नि, वायु ओर आकाशतत्तव के चिल्ल कहते है--प्रथम
( पृथ्वी ) तत्तव मे चित्त कौ स्थिरता मालूम पडती है । दूसरे ( जल ) तच्व को
शीतलता के कारण इच्छायं उत्पन्न होती है ।॥ ५३ ॥ तीसरे तच्व में क्रोध
संताप उत्पन्न होते है, चौथे ( वायु) में चंचलता का अनुभव होता है।
पांचवें (आकाश ) तच्वमें या तो शृन्यता या अघमं की भावना उत्पन्न
होती है ।॥ ५४ ॥
[ अब एक विशिष्ट मृद्राके द्वारा शून्यको देखने कौ विधिका निरूपण
करते है-- ] दोनों कानों के छेद को अगो से वंद करदं, मध्यमा अंगुलियों
को नासिकाके छदं पर रखदै, दोनों ओष्ठं पर कनिष्ठा ( प्रान्त्यक ) ओर
स 3 "=
७रप सबेदशनसंग्रदे-
अनामिका ( उपान्त्य ) अंगुलियों को रख दं तथा बाकी बची हई ( तर्जनी )
अंगुलियों को आंखों पर रख द ॥ ५५ ॥
५६. न्यस्यान्तःस्थपरथिव्यादितच्वन्ञानं भषेत््रमात् ।
पीतश्ेतारुणरयामर्विन्दुभिनिरुपाधि खम् ॥ इत्यादिना ।
यथावद्वायुतशवमवगम्य तन्नियमने विधीयमाने विवेकन्ञाना-
बरणकर्मक्षयो भवति । तपो न परं प्राणायामादिति ।
५७. दह्यन्ते ध्मायमानानां धातूनां हि यथा मलाः ।
प्राणायामस्तु दह्यन्ते तद्रदिन्द्रियजा मलाः ॥ इति च ।
¶[ उपयुक्त विधि से अंगृलियों को ] रलकर अन्तर में स्थित पृथिवी आदि
तत्त्वों का ज्ञान क्रमशः होता है। इसके वाद पीत, श्वेत, अर्ण, तथा इयाम
बिन्दुओं से उपाधिहीन अआकाश-तत्वका दर्च॑न होता है । [दोनों हाथो कौ अंगुलियों
से बाहरी दवाय को वंद करके अन्तर्ष्टिसे देखने पर बिन्दु दिखाई पड़ता है।
पतवर का बिन्दु दिखलाई पड़ने पर समभ कि पृथ्वीतत्व बह रहा दै। सवेत |
बिन्दु दिखलाई पड़ने पर जलतच्व, अरुण बिन्दु होने पर अस्नि-ततत्व तथा इप्राम
बिन्दु होने पर वाधुतच्व समक्षं । किसी भी व्णंसे रहित केवल घेरा भर
दिखलाई दे तो आकाश तच्व समभ । इसीलिए आकाश को उषाधिहौन अर्थात्
वणंँरहित कहा यया है ] ॥ ५६ ॥
उक्तं रीति से वायुतत्तव को यथार्थंरूप मे जानकर, उपे नियंत्रित +रने को
जो विधियां बतलाई गई है [ उनके द्वारा =प्राणायामसे वायुका निरोष करने
से ] विवेकन्ञान को आवृत करने वाले कर्मोँका नाशहो जातादहै। [ कमं =
कमं से उत्पन्न पुराय तथा कमंके कारणषूप अविद्या आदि क्लेश्च । ये क्टेश
महामोह से भरे हए शब्दादि विषयों कौ सहायता से विवेकज्ञान स्वभाव वाले
बुद्धि-तच्व को आच्छादित कर देते हैँ । इसीमे संसार में आने-जाने का सिलसिला
चलता है। बुद्धि सांसारिक व्यापारमें लगी रहतीदहै। प्राणायाम का अभ्यास
करनेसेये क्लेश दुर्बल हो जति तथा अपना कायं नहीं कर सक्ते--क्षण-
क्षणा क्षीण होते जाते है। इसलिए प्राणायाम को तप कहा गया है । यही नहीं,
चान्द्रायण आदि तपोंसे तो पापकमंही क्षीण होतादहै। प्राणायाम से उनके
मूल क्लेशो का भी नाश्चहोजाताहै। इसलिए ] प्राणायाम से बढ़कर कोई
तप नहीं है।
“जिस प्रकार आग मे जलाये जानेवाले धातुओं ( सोना, चाँदी आदि)का
पातञ्ञल-दशनम् ७२६
मल जल जाता है, उसी प्रकार प्राणायाम से इन्द्रियों से उत्पन्न होनेवाले मल
नष्ट हो जाति है ।॥ ५७॥'
( २३. प्रत्याहार का निरूपण )
तदेवं यमादिभिः संस्छृतमनस्कस्य योगिनः संयमाय प्रत्या-
© रादीनार्मिं [५ + ०
हारः कतेव्यः । चश्रुरादीनामिन्द्रियाणां प्रतिनियतरजञ्जनीयकोप-
नीयमोहनीय प्रबणलप्रहाणेन अधिकृतस्वरूपग्रवणचित्ताजुकारः
प्रत्याहारः । इनद्दियाणि विषयेभ्यः प्रतीपमादहियन्तेऽस्मिन्निति
व्युत्पत्तेः ।
इस प्रकार यमादिके द्वारा अपने अन्तःकरण को पवित्र करकेयोगी को
संयम कै लिए प्रत्याहार का प्रयोग करना चाहिए । [योग के आठ अङ्खोँमें
अन्तिम तीनों अन्तरङ्ख साघन है। उन्हँं संयम भी कहते ह। संयम की रिद्धि
प्रत्याहार के बिना नहीं होती । इसलिए प्रत्याहार कौ सिद्धि पहले करं । ] चश्च
आदि इन्द्रियों की अपने-अपने साथ निश्चित रागोत्पादक, कोपोत्पादक तथा
मोहोत्पादकर विषयों मे जो आसक्ति ( प्रवणात्व ) होती है उसका नाश करके,
निर्विकार आत्माके स्वल्पमें लीन चित्त का अनुकरण [ यदि इन्द्रियां करने
लें तो बह ] प्रत्याहार कहलाता है । [ इन्द्रियां अपने-अपने विषर्यो के साथ
निश्चित रहती है । कुविपय किसी के लिए रंजनीय या रागोत्पादक होते है, कुच
कोपोत्पादक ओौर कु मोहप्रद हैँ । इन विषयों मे इन्द्रियां आसक्त रहती है । बद्-
जीवों मे इन्द्रियां विषयों के अनुरोध से चलती हँ ओौर चित्त इन्द्रियों के अनुरोध से
चलता है । प्रत्याहार में इन्द्रियां ही चित्त के अनुरोध से चलने लगती है । चित्त
जव निरोध कीओर लगा दिया जातादहै तो बिना किकी विशेष प्रयत्नके ही
इन्द्रियो का निरोध दहो जाता है । यही चित्तका अनुकरण या प्रत्याहार कहलाता
है । ] इसको व्युत्पत्ति है किं इसमें इन्द्रियां विषयों के विरुद्ध ( प्रतीप ) खींच ली
जाती हैँ (आ+ हू )। [ प्रति = प्रतीप, अआ + ./ ह । |
नञ तदा चित्तमभिनिविश्षते नेन्द्रियाणि । तेषां बाद्यविषय-
त्वेन सामथ्यामावात् । अतः कथं चित्तानुकारः । अद्धा । अत
एव वस्तुतस्तस्यासंमवमभिसंधाय साददयाथमिवश्ब्दं चकार
घत्रकारः--स्वविषयासंप्रयोगे चित्तस्वरूपानुकार इवेन्द्रियाणां
प्रत्याहारः' (पात० यो० घ्रू° २।५४) इति । सादृश्यं च चित्ता-
चुकारनिमित्त विषयासंप्रयोगः ।
७२० सबेदशेनसंग्रहे-
अब एक शंकाहोतीहै करि उस दशाम तो [ नि्विक्रार आत्मा के स्वरूप
| मे ] चित्त ही प्रवेश करता है, इन्दि नहीं, क्योकि इन्द्रियों का विषय बाद्य-
| जगत् से संबद्धहै, अतः आत्मा में उनकी सामथ्यं ( शक्ति, अधिक्रार ) नहीं
। हो सकती । फिर वे चित्त की प्रकृति मेँ अपने को कैसे मिला सकेगी ? ठोक
| | कहते है । इसीलिए तो वास्तव मे उसकी असंभावना की संभावना करके सूत्रकार
। | ने सादृश्या क "इव" शब्द का प्रयोग क्रिया है [ जिससे यह प्रकट होत। है कि
इन्द्रियां चित्त की प्रकृति मे अपने को मिला नहीं लेतीं प्रत्युत चित्त मे मिलान
६ (| पर जेसी दशा हो सकती है वेसी बन जाती है |--इन्दियों का अपने विषयों
¶। के साथ संबन्ध न होने पर चित्त के स्वरूप का अनुकरण-जैसा करना प्रत्याद्यार
| ३ । है ( यो० सु° २।५४ })। [ जो व्यक्ति अपनी इन्द्रियो को नहीं जीत सका है,
बद्ध है, उसकी इन्द्रां मी विषयोपभोग के समय चित्तका अनुकरण करती है--
उसमें अत्तिव्याति रोकने के लिए 'स्वविषयासंप्रयोगे' का प्रथोग किया गया है । |
| [ जब दो वस्तुओं मे तुलना होती है तब किसी धमं के आधार पर ही।
|| अतः यहां भी कुच साटरय-घमं होना चाहिए । ] अपने विषयों से संबन्ध न होना
| | ही यहाँ पर साददथ-घमं है । उसके कारण चित्त का अनुकरण ( उसकी प्रकृति
| मे अपने को भिलाना ) होता है,
।
||| यदा चित्तं निरुध्यते तदा चक्रादीनां निरोधे प्रयलान्तरं
| नापेक्षणीयम् । यथा मधुकरराजं मधुमक्षिका अनुवतेन्ते तथेन्द्र
याणि चित्तमिति । तदुक्तं विष्णुपुराणे--
॥॥| ५८. शब्दादिष्वनुरक्तानि निग्हयक्षाणि योगवित् ।
(||| ङयाचित्तानुकारीणि प्रत्याहारपरायणः ॥
(|| ५९. वश्यता परमा तेन जायतेऽतिचलात्मनाम् ।
| इन्द्रियाणामवश्यैस्तेनं योगी योगसाधकः ॥
| ( षि पु० ६।७।४२-४४ ) इति ।
॥। । जब चित्त ( मूल ) ही निषश्दहो जाता है तब चक्षु आदि इन्द्रियों के निरोध
4 ॥ के लिए अलग से प्रयत्न करने की आवर्यकता नहीं पड़ती । जेते मधुकर-पति
| के पीछे-पीठे मधुमक्लिणं चलती है उसी तरह चित्त के पीपी इन्द्रियां
॥॥ चलती हैँ । इसे विष्णुपुराण मे कहा है--"योगी शब्दादि विषयों मे अनुरक्त
1 ॥ इन्द्रियों ( अक्ष = इन्द्रिय ) का निग्रह करके, प्रत्याहार में निरत होकर, उन्हे
| । | | चित्त कौ अनुकारी (चित्त के स्वभाव में अपने को मिला दैनेवाली) बना दे ॥५८॥
१ 9०४ १ च ऋ क वका ता) 7 मा र क ` प
पातञ्जल-दशनम् ७३१
अत्यन्त चंचल स्वरूप वाली इन्द्रियों का भी इसके बाद परम वशीकरण हो
जाता है । [ तुलनीय--'ततः परमा वश्यतेन्द्रियाणाम्' ( यो सू° २।५५ ) ! |
यदि ये इद्धया वश में नहींहौ स्कीं तो उनसे योगी योग का साघक नहं बन
सकता । ५९ ॥' ( विष्णुपुराण-६।७।४२-४४ ) ।
( २३ क. धारणा ओर ध्यान )
नाभिचक्रहृदयपुण्डरीकनासाग्रादावाध्यात्मिके दिरण्यगम-
वासवगप्रजापतिग्रभृतिके बाह्ये वा देशे चित्तस्य विषयान्तरपरि
हारेण स्थिरीकरणं धारणा । तदाह--देशचवन्धशित्तस्य धारणा!
( पा० यो० चू० ३।१ , इति । पौराणिकाश्च--
६०, प्राणायामेन पवनं प्रत्याहारेण चेन्द्रियम् ।
वश्ीढरत्य ततः इयाचित्तस्थानं शुभाश्रये ॥
८ वि° पु० ६।७।४७५ ) इति ।
नाभिचक्र, हृदय-कमल, नासिका का अग्रभाग आदि शरीरके भीतर के
| ( आघ्यारिमिक ) स्थानों में अथवा {हिरण्यगभं ( विष्णु ), इन्द्र, प्रजापति आदि
[ की मूतियों में अर्थात् ] बाह्य स्थानों मेँ अपने चित्त को, दूसरे विषयो से उसे
वचाते हुए, टढ ( स्थिर ) करदेना धारणा है । इसे कहा है-- "चित्त को एक
स्थान पर टद् करना धारणा है" ( योऽ सू° ३।१ )। पौराणिक लोग भी कहते
है--्राणायामके द्वारा वायुको ओर प्रत्याहारके द्वारा इन्द्रियोंको वशमें
करने के बाद किसी अच्छे आधार (नाभि आदि) मे चित्तको स्थिर करना
चाहिए ।' ( विष्णुपुराण, ६।७।४५ ) ।#
तस्मिन्देशे ध्येयावलम्बनस्य प्रत्ययस्य विसदृश्प्रस्यय-
प्रहाणेन प्रवाहो ध्यानम् । तदुक्त-^तत्र प्रत्ययेकतानता ध्यानम्!
< पात० यो० ° ३।२ ) इति । अन्यरप्यक्तम्-
६१. तद्रूपग्रत्ययेकाग्रया संततिशान्यनिःस्परहा ।
तद्धयानं प्रथमेरङ्गः षडभिर्निष्याद्यते तृप ॥
( बि° पु° ६।७।८९ ) इति ।
म्रसङ्गाचरममङ्क प्रागेव प्रत्यपीपदाम ।
# तुल ०--ह्पुरडरीके नाभ्यां वां मूध्नि पवंत मस्तके ।
एवमादिग्रदेशेषु वारणा चित्तबन्धनम् ॥
७१२ सबेदशेनसंग्रहे-
उक्त स्थानों मे विद्यमान व्ये ( प्रसन्नमुख, चतुभज विष्णु आदि) के
आकार मे परिणत ज्ञान ( प्रत्यय }) का, असहश ज्ञानो का त्याग पू्वंक, प्रवाहित
होना ध्यान है। [ स्मरणीय दहै कि प्रत्याहार में चित्तका स्थिरीकरण होता है
ओर ध्यान सें स्थिर किये गये चित्त को उसी दिशा में प्रवाहित होने दिया जाता
है ¦ ] इसे कहा गया ; है-"उसमें ( धारण होने पर ) ज्ञान का एकं प्रकार क
बनां रहना ध्यान है" ( यो° सू° ३।२ ) ।
दूसरों ने भी कहा दहै-'उस (ध्येय )केल्प कै ज्ञान मे एक हीतरहसे
रहने वाला तथा दूसरे विषयों के व्यवधान से रदित [ ज्ञान का | प्रवाहं ध्यान
हि। है राजन् ! वह प्रथम छह अंगो के हारा निष्पन्न होता है ।* ( वि° पुर
६।७।८९ ) [ यह वाक्य खारिडक्य नामकं राजा को कहा गया है। |
अन्तिम अंग ( समाधि) कोतो प्रसंगवश हम लोगों ने पहले ही ( "योगा-
नुशासन' के निर्वंचन-करम में ) प्रतिपादित कर दिया है ( देखिये, पृष्ठ ६७२ ) ।
विरोष-यहां अष्टांगयोग का विवरण समाप्तहो रहा है। अब इन अंगों
के प्रभोग से प्राप्त होने वाली सिद्धयो का वर्णान करके कौवल्य ( मोक्ष ) खूपी
परम पुरुषार्थं का निरूपण होगा ।
( २७. योग से प्रास्त होने वाली सिद्धियां )
तदनेन योगाङ्गानुष्ठानेनादरनैरन्तयेदीषेकालसेवितेन समा-
चिप्रतिपशषक्लेरप्रश्षयेऽभ्यासवैराग्यवश्ान्मधुमत्यादिसिद्विलामो
भवति ।
अथ किमेवमकस्मादस्मानतिविकटाभिरत्यन्ताप्रसिद्धाभिः
कणीदमौडलाटमाषामिभींषयते ` भवान् १ न हि वयं भवन्तं
भीषयामहे । कि त॒ मधुमत्यादिपदाथेव्युत्पादनेन तोषयामः ।
ततश्वाङुतोभयेन भवता श्रुयतामवधानेन ।
तो, योगके अंगोंके इसश्रकार अनुष्ठान से जिसका सेवन या पालन
जादरपू्व॑क (श्रद्धा सहित ), व्यवधान-रहित तथा दीर्घकाल तक किया गया हो-
समाधि के विरोधी केशों का नाश हो जानि पर; अभ्यास भौर वैराग्य के बल
से, मधुमती आदि सिद्धियों का लाम होता है ।
[ इन मधुमती आदि नये शब्दों को सुन कर कोई पूता है-- | हम लोगों
को हन विकट ( भयप्रद ) ओौर अत्यन्त अप्रसिद्ध कर्णाटक ( उत्कल का दक्षिणी
भाग ), गौड़ ( बंगाल का पूर्वी माग) तथा लाट ( गुजरात का एकं भाग ) की
्
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र #
४
आ,
कः
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-4 | ` क
` क
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पातञ्जल-दशेनम् ७३३
भाषाओं से आप अकस्मात् डराने क्यों लगे ? [ हमारा उत्तर यह है-- ] हम
भापक्रो डरा नहीं रहे है । बल्कि मधुमती आदि शब्दों के अथंकी व्युत्पत्ति
( विश्लेषण }) करके आपको संतुष्ट ही कररहैहँ। सो, आप निर्भय होकर व्यान
से सूनं ।
( २४ क. मधुमती-सिद्धि )
तत्र मधुमती नामाम्यासवेराग्यादिवश्चादपास्तरजस्तमोरेश्च- `
सुखप्रकाश्ञमयसखभावनया अनवद्यवेशारद्यविद्योतनरूपक्रतंभर-
्रज्ञाख्या समाधिसिद्धिः । तदुक्तम्- ऋतंभरा तत्र प्रज्ञा
( पात० यो० घ्रू° १।४८ ) । ऋतं सत्यं भिमतिं कदाचिदपि
न विषयेयेणाच्छादयते । तत्र स्थितौ दाय सति द्वितीयस्य
योगिनः सा प्रज्ञा भवतीत्यर्थः ।
उनमें मधुमती वह समाधि-सिद्धि है जिसमे अभ्यास ओौर वैराग्य आदि के
कारणा रजस् ओर तमस् का लेश ( थोड़ा अंश ) भीन बचा हो, तथा सुखमय
ओर प्रकाशमय स्व ( बुद्धिसच्व ) की भावना ( ज्ञान ) से स्वच्छ स्थितिप्रवाह
( अनवद्य वेशार् ) प्रकाशित होता है जिसे दूसरे शब्दों मे ऋतंभरा प्रज्ञा भी
कहते ह । कहा गया है- “उस अवस्था मे ऋतंभरा ( सत्य का भरणा करने
वाली ) प्रज्ञा (ज्ञान ) रहता है' (योऽ मूु० १।४८ })। ऋत अर्थात् सत्य का
जो भरण-पोषणा करे, कभी भी विपर्यय ( विरोधी ) ज्ञान से आच्छादित न हो
सके । उस अवस्थामे ( तत्र ) = स्थिति में स्थिरता आ जाने पर, द्वितीय
प्रकारके योगी ( मघुभूमिक ) लोगों की यह प्रज्ञा होती है। यही अथं ह)
[ ऋतंभरा प्रज्ञा मघुभूमिक योगियों को प्राप्त होती है । ]
चत्वारः खल योगिनः प्रसिद्धाः प्राथमकल्पिको मधुमूमिकः
्रज्ञाञ्योतिरतिक्रान्तभावनीयश्चेति । तत्राभ्यासी प्रवृत्तमात्र-
ञ्योतिः प्रथमः। न त्वनेन परचित्तादिगोचरज्ञानरूपं ज्योतिर्बश्ी-
छृतमित्युक्तं भवति । ऋतंभरम्रज्ञो द्वितीयः । भूतेन्दरियजयी
ततीयः । परवेराग्यसंपननश्रतुथेः ।
योगियों के चार भेद प्रसिद्ध है--( १) प्राथमकल्पिक, ( २) मधुभूमिक,
( ३ ) प्रज्ञाज्योति गौर ( ४) अतिक्रान्तभावनीय । उनमें प्रथम अर्थात् प्राथम-
कलटप्रक योगी वह है जो अभ्याषमें लगा दहो तथा जिसका ज्ञान भभी केवल
७३४ सबेदशनसंग्रहे-
्रवृत्त हुआ है ( परिपक्त नही जान वशम नहीं हृजा है अतः वहु दृसरोंके
चित्त का ज्ञान नहीं पा सकता ) । कहना यह है किं उस योगी ने दूषरों के चित्त
आदिमे चरित ज्ञान रूपी ज्योतिको वशमें नहींकियादहै। द्वितीय अर्थात्
मधुभूमिक पोगी वह है जिसको प्रज्ञा ऋतंभरा हे । [ इसने जीवों तथा इन्द्रियों
पर विजय प्रप्त नहं की है परन्तु जीतने की इच्छा करता है-इमे ह। मधुमतो
नाम कौ योगसिद्धि कहते ह । | तृतीय अर्थात् शज्ञाञ्योति योगी वह टे जिसने
सभी भृतो ( 36:०8 ) तथा इन्द्रियो पर॒ विजय प्रात कर लीदहौ। अन्तमें
अतिक्रान्तभावनीय योगी उसे कहते ह जो परम वेराग्य से युक्त है। [ यह
योगी सभो प्रकार की भावनाय किये हुए है-अव इसके लिए कोई चीज
भवनीय ( ज्ञेय ) नहीं । यह जीवन्मुक्त ह । जो सभौ भावनीय पदार्थो को सोमा
पार करं चुक्रा है वह अतिक्रान्तभावनीय हें । |
( २४ ख. अन्य सिद्धिं -मधुप्रतीक!, विशोका, सस्कारदोषा )
मनोजवित्वादयो मधुप्रतीकसिद्धयः। तदुक्तं--'मनोज-
तित्वं षरिकरणमावः प्रधानजयर्च' ( पात० यो० घू° ३।४८ )
इति । मनोजवित्वं नाम कायस्य मनोवदनुत्तमो गतिकाभः ।
विकरणभावः कायनिरपेक्षाणामिन्द्रियाणामभिमतदेश्चकारुविषया-
वेशचव्र्तिामः । प्रधानजयः प्रदृतिविकारेषु सर्वेषु वशित्वम् ।
एतार्च सिद्धयः करणपश्चकरूपजयाततृतीयस्य योगिनः
¢ देशो
्रादुभेवन्ति । यथा मधुनः एकदेश्लोऽपि स्वदते तथा प्रत्येकमेव
ताः सिद्धयः स्वदन्त इति मधुप्रतीकाः ।
मधुप्रतीका सिद्धि - मन के समान वेगवानु ( मनोजवी) हो जाना
आदि सिद्धिं मधुप्रतीक के अन्तर्गत । इन्दं कहा गण है "भन के समान
वेगवान् होना, इन्द्रियो से रहित हो जाना तथा प्रकृति पर विजय पाना' ( यो
सु ३।४८ } । मन के समान वेगवान् होने का अर्थहै शरीरकामन की तरह
अत्युत्तम ( न उत्तमः यस्मात् ) गति को प्राप्ति करना। विकर्ण-भाव का अर्थं
है शरीर की अपेक्षा रखेही बिना इन्दरियोका अभीष्ट देश ओौर काल में स्थित.
विषयो से सम्बन्ध-ज्ञान पा लेना । प्रधानजय का अथं है प्रकृति के जितने विकार
संसारमें ह उन सबोंको वमे कर लेना ।
ये सिद्धियाँ [पांच ज्ञानेन्द्रिय के पाच ग्रहण आदि ] रूपो की विजय कर लेने
से तृतीय कोटि के योगी ( भ्रज्ञाञ्योति ) में प्रादुर्भूत होती है । [ इन्द्रियों के पाच
पातञ्जल-दशेनम् ७३५
रूप ह ग्रहण, स्वरूप, अस्मिता, अन्वय भौर अर्थवस्व । निश्चय, अभिमान,
संकल्प, दशंन, श्रवण आदि वृत्तियाँं ग्रहणा के अन्तगंत हैँ । ग्यारह इन्द्रियां
स्वरूप हैँ । वृद्धि ओौर अहंकार को अस्मिता कहते है । कारणा का ज्ञान करना
अन्वय है जैसे चटमें मिटटी का। इन्द्रियों की प्रकृतिकै ल्प जो गुणा है उनसे
पुरुषाथं-सिद्धि की जो शक्ति है वही अथंवत्तव है । इन्द्रियों के इन रूपों की विजय
प्राप्र करलेनेसे ही प्रकृति आदि पर विजय होती है। केवल इन्धियों की विजय
से प्रकृति आदि पर अधिकार नहीं हो सकता ¦ ] जैसे मधुकाकोई् भी भाग
स्वाद में अच्छा होता है उसी प्रकार इन सिद्धियों में प्रत्येक का स्वाद अच्छा ही
होता है--इसीलिए इनं मधुप्रतीक ( 39100] ०{ 100९ ) कहा गया है ।
सवेभावाधिषठातत्वादिरूपा विश्लोका सिद्धिः । तदाह-
सखपुरुषान्यताख्यातिमात्रस्य स्वेभावाधिष्ठातरत्वं सर्वज्ञत्वं च
( पात° यो° सू° ३।४९ ) इति । सर्वेषां व्यवसायाव्यवसा-
यात्मकानां गुणपरिणामरूपाणां भावानां स्वामिवदाक्रमणं
सवेभावाधिषात॒त्वम् । तेषामेव शान्तोदिताव्यपदेश्यधमित्वेन
स्थितानां विवेकज्ञानं स्व्ञातृत्वम् । तदुक्तं - (विशोका वा
ज्योतिष्मती" ( पात० यो° सु ° १।३६ ) इति ।
विद्ोकः सिद्धि-सभी भावों (सत् पदार्थौ ) का स्वामी बन जाना
आदिके रूपमे प्राप्त योगसिद्धि विज्लोकाहै। इसे कहा है केवल चित्त ओर
पुरुष का भेद जानने से ही र्भी भावों पर आधिपत्य ओर सवंज्ञता भी प्राप्त
होती है" (यो० सू० ३।४९ ) । व्यवसायात्मक ( प्रकाशात्मकं भाव अर्थात्
इन्द्रियां ओर अव्यसायात्मक ( जड पदार्थं इन्द्रियों के विषय शब्द्रादि, उनके
आश्रय पृथिवी आदि) भाव जो तीनों गुरो के परिणाम (विकार) द उनके
ऊपर स्वामी के समान अविकार रखना ( आक्रमण ) 'सभी भावों का आधिपत्य"
कहलाता है । इन्हीं भावो का, जो शान्त ( भूत ), उदित ( वरतंमान ) ओर
अव्यपदेश्य ( भविष्यत् ) धर्मो से युक्त होकर अवस्थित है, विवेक ज्ञान होना
सवज्ञता है । [ उपर्युक्त भावों में शान्त आदि धमं रहते ह, यदि उन भावोंका
ज्ञान धमं से भिन्नस्पमेंहो गया तो 'सवंज्ञता' मिल गर्ई। कुच घर्मं शान्त है
अर्थात् मपना व्यापार करके अतीत के कषेत्रम चले गयेरहै। कुच धर्मो का
व्यापार अभी चल रहा है ये उदित रहै। कुच ध्मरेसे है जिनका व्यापार अभी
आरम्भ नहीं हआ है, शक्तिके रूपमे जो अवस्थित ह, जिनके विषय में कु
मी कहना--उनका नाम ( व्यपदेश ) लेना भी सम्भव नहीं है। इन तीनों
७३६ सबेदशेनसंग्रहे-
धर्मो से धर्मी काभेद करके ज्ञान पाना विवेकज्ञान है। तात्पयं यहदटैकि समी
वस्तुओं ओर उनके धर्माः का अलग-अलग ज्ञान पाना 'सर्वज्ञता' है । |
उसे कहा है--अथवा शोक से रहित ज्योतिष्मती ( योगज साक्षात्कार के
रूप मे अन्तःकरण की वृत्ति ) [ मन मे स्थिरता उत्पन्न करती है--यो° सु
१।३६ ] । (यह सिद्धि अतिक्रान्तभावनीय नामक चतुथं योगी को प्राप्र होती है ।)
सर्ववृत्तिप्रत्यस्तमये परं बेराग्यमाभितस्य जात्यादिवीजानां
क्लेशानां निरोधसमर्थो निबींजः समाधिरसंग्रज्ञातपदवेदनीयः
संकारशेषताव्यपदेहयधित्तस्यावस्थाविश्ेषः। तदुक्तं-'विरामग्रत्य-
याभ्यासपूः संस्कारशेषोऽन्यः" (पात ° यो० सु ° १।१८) इति ।
एवं च सवतो विरज्यमानस्य तस्य पुरुषधोरेयस्य क्लेशबीजानि
निदंग्धश्चालिबीजकरपानि प्रसवसामथ्यविषरुराणि मनसा साध
प्रत्यस्तं गच्छन्ति ।
सभी वृत्तयो के नष्ट हो जाने पर, जो योगी परम वेराग्य से युक्त हो गया है
उसे बीज ( वस्तु-जञान ) से रहित समाधि मिलती है जो जाति [भायु, भोग के |
बीजक रूप मे विद्यमान क्लेशोंको रोकनेमें समथंहै। इस समाधिको
असंप्रज्ञात" शब्द के द्वारा भी जानते है ओौर यह 'सस्कारदरोषताः के नामस
पुकारी जाने वाली चित्त कौ एक अवस्था है । [ असंप्रज्ञात समाधि का लक्षण
करते हृए ] यह कहा गया है--विराम-प्रत्यय का अभ्यास करने के बाद
[ जब एसा वृत्ति-निरोध हो कि केवल | संस्कार ही शेष रह जाय तब उसे
असंप्रज्ञात ( संप्रज्ञात से भिन्न, दूसरा ) समाधि कहते ह ।' ( योऽ सू° १।१८ }
[ तत्वज्ञान की जहां पर सीमा हो, वह विरामःप्रत्यय है । ज्ञान मे एक अलबुद्धि
उत्पन्न होती है कि अब वृत्तिका विराम हो जाय। इस अवस्थामें वृत्तिका
संस्कार शेष रहता है जिससे वह फिर से उठ सके । वृत्ति स्वयं नहीं रहती ।
मोक्ष की दशा में तो चित्त का अत्यन्त ही विलयन हो जाता है। |
इस प्रकार जो पुरुष श्रेष्ठ ( योगी ) सभी तरफ से विरक्त हो जाता है उसके
बीज जले हुए धान के बीजों की तरह हो जाति है, वे पनः उत्पादन की शक्तिसे
रहित होकर मन ( चित्त) के साथही साथ समाप्तहोजतेह। [ चित्तकी
वृत्तियां नष्ट हो जाती है, उनके साथ ही क्लेश के बीज भी । |
( २५. केवस्य की प्रात्ति- प्रकृति ओर पुरुष को )
तदेतेषु प्रलीनेषु निरुपशुवविवेकख्यातिपरिपाकवसात् कायं-
पातज्जल-दशेनम् ७३७
कारणात्मकानां प्रधाने लयः, चितिशक्तिः खरूपप्रतिष्ठा पन.
द्िसत्वामिसंबन्धव्िधुरा वा कंवस्यं लमत इति सिद्धम् । इयौ च
© ॐ (1
य॒क्तिरुक्ता पतञ्जलिना-- ुरुषाथशन्यानां गुणानां प्रतिप्रसवः
क्ट, = (अ
कवल्य स्वरूपप्रतिष्ठा वा चितिशक्तेः' (पात० यो सु° ४।२३४)
इति । न चारिमिन्सत्यपि कस्मान्न जायते जन्तुरिति बदित-
च्यम् । कारणाभावात्कायामाव इति प्रमाणसिद्धं नियोगानु-
योगयोरयोगात् ।
तो, इन सों के ( क्लेशवबीज कर्माशयो के ) प्रलीन हो जाने पर ( अपने-
अपने कारणों मे विलीन हो जाने पर ), उपद्रवो से रहित | प्रकृति-पुरुष में ]
भेदज्ञान के द के कारण, कायं भौर कारके रूपमे विद्यमान सभी
पदार्था काश्रक्ति भें लयहो जाने से [ प्रकृति को कैवल्य मिलता है । | इसके
अतिरिक्त, चितिशक्ति ( आत्मा ) जब अपने स्वल्प में प्रतिष्ठित हो जाती है
तथा फ़िर से बुद्धितत्तव के साथ संबन्ध नहीं हो पाता तो उसे ( पुरूष को ) भी
केवल्य मिलता है, यह सिद्ध हुआ ।
पतंजलि ने दोनो प्रकार की मक्तियोंका वरान क्रिया है--ुरुषाथं से
श्य हो गये गृणोँका अपने कारणमे लीन हो जाना ( प्रतिप्रसव = जहाँ से
अये वहीं चला जाना ) अथवा चितिशक्ति का अपने स्वरूप में प्रतिष्ठित हो
जाना केवल्य है ।* (यो० भु° ४।३४ )। [ गुणों की प्रवृत्ति पुरुषों के भोग
या अपवगं के लिए होतीहै जो परुषां है। इन्हीं पुरुषार्थो के लिए स्वादि
गुण विभिन्न रूपों में परिणत होते है । पुर्ष को परम पुरुषार्थं मिल गयां
तोये गुणा कृतार्थं हो जाते ह तथा अपने मूल रूप--प्रवान या प्रकृति- में
विलीन हो जाते हैँ । तब अकेली प्रकृति बच जाती है इसे प्रति का कैवल्य
( अकेला हो जाना }) कहते हँ । दूसरी ओर, बुद्धितत्त्व से संबन्ध न रहने के
कारण जब पुरुष केवल चितिशक्तिके रूपमे प्रतिष्ठित हो जाता है तब उसे
पुरुष का केवल्य कहते ह । सांस्य-दशन मे स्वकृत दो तत्त्वों को योगभी
मानता है अतः दोनों का अलग-अलग दौवल्य माना गया है। कैवल्य कोई
एेसी चीज तो है नहीं किं केवल चेतन को ही मिले । केवल्य का अथं है अकेला
हो जाना, अपनी सारी दुकान समेट लेना । ]
देसी शंका नहीं करनी चाहिए क्रि कैवल्य हो जाने पर भौ प्राणी का जन्म
क्यो नहीं होगा । यह बात तो प्रमाणो से सिदध हे कि कारण ( क्लेशबीज ) के
४५७ सं० सं० ।
७३८ सवेदशनसप्रहे-
अभाव से कायं ( जन्म, मरणादि ) का अभाव होता है। इस सिद्ध बात के लिए
न तो नियोग ( विधि, अग्रवं वस्तु का बोधक ) संमवहै न अदुयोग ( प्रन )
ही। [जो बात सभी जानते है उसके लिए विधि नहीं दी जाती। कैवल्य पाने
के बाद जन्म नहीं होता--यह बात भी वैसी ही है, कहने की आवश्यकता नहीं ।
प्रन भी अज्ञात वस्तु के निएही क्रिया जाता है। प्रस्तुत वस्तु को जानने के
लिए प्रन करना भी व्यथं हे । ]
अपरथा कारणाभावेऽपि कायेसम्भवे मणिवेधादयोऽन्धा-
दिभ्यो भवेयुः । तथा चाजुपपन्नाथैतायामाभाणको रोकिक
उपपन्ना्थों भवेत् । तथा च श्ुतिः--“अन्धो मणिमविन्दत् ।
तमनङ्गुिरावयत् । अग्रीवः प्त्यगुश्चत् । तमजिह्वा असर्चत'
( तै० आ० १।११।५ ) । अविन्ददविध्यत । आवयद् ग्रहीत-
वान् । प्रव्युश्चत् पिनद्रवान् । असश्चताभ्य पूजयत्, स्तुतवा-
निति यावत् ।
यदिरेसानहोओौर कारणक न रहने परमो कार्यं होने लगे ( वलेशबीज
न रहने पर भी जन्म-मरण होने लगे ) तो अन्धे भी मिमे छेद करने लग
जारयेगे [ वयोकि अवलोकन का कारण अर्थात् आलो के न रहने पर भी उसका
कायं मणिवेध आदि संभव हो सकेगा ! | असंभव वस्तु का उदाहरण देने के
। ॥ लिए दिया गया यह लौकिक दृष्टान्त भी संभव हो जायगा । जैसा कि श्रुति में
॥ ॥| कहा है-- "किसी अन्धेने मणिका वेव ( छेद ) किया किसी अंगुलिरहित
॥|| व्यक्ति ने उसे पकडा ( उत प्रथित क्रिया ) । किसौ भ्रीवाहीन व्यक्ति ने उसे पहना
॥ ॥ || ओर किसी जिह्वाहीन ने उक्त प्रदंसा की ।' (तैत्तिरीय आररुयक, १।११।५) ।
| | अविन्दत् = वेध किया । आवयत् = पकड़ा ( गथा ) । प्रत्यमुञ्चत् = पना ।
| | | असदचत = प्रशंसा की, स्तुति की । | वास्तव मे कोई पुरुष ओंलों से मि
१॥।| देखकर, उसे उगलियों से पकड़कर, गले में पहन कर जीभ से प्रशंसा करता है ।
| | चिदाकार आत्मा उन अंगोंसे रहित होकर भी उन सारे व्यापारो को करती है
| जोकि इसकी शक्ति अचिन्त्य है । यही उष श्रुति का अथं है । यहाँ चिदात्मा की
॥। प्रचंसा है कि यह् असंभव कायं भी करतो हि। यदिकारण न रहने पर भी कायं
| होता तो यहाँ प्रशंसा का अवकाश नहीं था । यहाँ पर माघवाचायं इसे बिल्कुल
| || भोत्तिकवादी अथं मेंलेतेहै।|
पातञ्जल-दशेनम् ७३६
( २५ क. योगशाख के चार पश्च )
एवं च चिकित्साशाख्रवद् योगशास्त्रं चतु्यहम् । यथा
चिकित्साशास्र रोगो रोगहेतुरारोग्यं मेषजमिति, तथेदमपि संसारः
संसारहैत्मोक्षो मोक्षोपाय इति । तत्र दुःखमयः संसारो हेयः ।
परधानपुरुप्योः संयोगो हेयभोगहेतुः । तस्यात्यन्तिकी निवृत्ति
हीनम् । तदुपायः सम्यण्दर्नम् । एवमन्यदपि शाद्ं यथासंभवं
चतुव्यहमहनीयमिति सर्वमवदातम् ।
इति श्रीमत्सायणमाधवीये स्ेददोनसंग्रहे पातञ्जलदर्बनम् ॥
-न्क०००-
इस प्रकार चिकित्साशाखर की तरह योगशा के चार पक्ष ( 4806613 )
ह । जसे रोग, रोग के कारण, आरोग्य मौर ओौषधि, इन चारों पक्षों को मिलाकर
चिक्रित्साशास्त्र कहलाता है उती प्रकार योगश्चाल्न भी संसार, संसार क कारण,
मोक्ष ओौर मोक्ष के उपाय को मिलाने से बनता है ।
उनम दुःखो से निर्ित संसार हिय है। प्रकृति | वद्धि ) ओौर पुरूष का
संयोग इस हेय (संसार )के भोग का कारणहै। [ बृद्धि ओर पुरूष का
संयोग होने से अविद्या संसारका निर्माण करती है। ] उसमे सदा के लिए
बच जाना मुक्ति है। उसका उपाय है सम्यक् दशन ( अर्थात् प्रकृति ओरं
परुष के भेदका ज्ञान )। इसी तरह दूसरे शास्रं को भी यथासंभव चतुर्भ्य
सिद्ध कर सक्ते है सब कृ स्पष्ट ही तो है ।
विरोष--योग के चतृब्युह की तुलना बुद्धके चार आयंसत्योंसेकी जा
सकती है । जिन प्रतियों मे शांकरदर्च॑न नहीं मिलता उनमें यहाँ पर यह लिखा
हेज। मिलता है--“इतः परं सवंदशनशिरोमणिभरूतं शांकरदशेनमन्यत्रलिखितमि-
व्यत्रोपेक्ितमिति' । वास्तवे यह लिपिकार की करनी है । इसका विवेचन
भूमिका में किया गया है ।
इस प्रकार सायण-माधव के सवंदर्शन-संग्रह मे पातंजल-दर्थन समाप्त हभ ।
इति बालकविनोमाश ङ्कुरेण रचितायां सर्वंद्शनसंग्रहस्य प्रकारा-
ख्यायां व्याख्यायां पातज्ञलदशंनमवसितम् ॥
न्तन
| || (१६) शांकसर.दशन्
६ || ब्रहैव सञ्जगदिदं तु विवतरूपं
। || मयेशशक्तिरखिलं जगदातनोति )
¶। जीवोऽपि भाति प्रथगत्र तये चेको-
11|| ऽदरेताभितं खलु नमाम्यथ शंकरं तम् ।- ऋषिः ।
|| ( १, परिणामवाद्-खण्डन--प्रृति कौ सिद्धि अजुमान से असंभव )
सोऽयं परिणामवादः प्रामाणिकगहेणमहेति । न चेतनं
प्रधानं चेतनानधिष्ठितं प्रवसते । सुबणौदौ रुचकाचयुपादाने हेमः
` कारादिचेतनाधिष्ठानोपलम्भेन नित्यत्वसाधकडढृतकत्ववत्सुख-
॥| | दुःखमोहात्मनान्वितत्वादेः साधनस्य साभ्यविपयंयव्याप्रतया
॥ विरुद्रत्वात् ।
| | [ साख्य-योग दर्शनों मे माना गया ] यह परिणामवाद का सिद्धान्त प्रमारो
| | | || की टृष्ठि से निन्दनीय ( खरडनीय ) है । अचेतन प्रकृति ( प्रधान ) विना किंस
| || चेतन सत्ता का आश्रय लिये हुए प्रवृत्त नहीं हौ सकती । स्वर्णादि से जो कंगन
| | | जादि बनाने के लिए उपादान ( 118९1181 ) कारण है, [ इन आभूषणों का
| निर्माण करने के समय ] स्वणंकार आदि चेतन आघार प्राप्त होते है । "सुख,
। दुख ओर मोहके रूप से युक्तं होना" आदि# जोसाधनके रूपमे प्रस्तुत किया
गया है उसकी व्याप्ति तो साध्यके विरुद्ध स्थानोमें भी है। [ यहाँ सांख्यो के
अनुसार साध्य है- चेतन सत्ता का बिना सहारा लिये हुए ही प्रकृति का सुख,
दुःख ओर मोहात्मक पदार्थो का कारणं होना । इसका उलटा है-- चेतन सत्ता
का सहारा लेकर सुख, दुःख ओौर मोहात्मक पदार्थो का कारण बनना । उपयुक्त
साधन ( हेतु ) अर्थात् सुख, दुःख ओर मोह से युक्त होना" इसी साध्य-विपयंय
से व्याप्त होता है। दूसरे शब्दों मे--सुखादि से युक्त वही होगा जो चेतन
का सहारा लेकर सुखादि से युक्त पदार्थोक्ा कारण बन सकता है। यदि
~~~
# देखिए, सांख्यदशंन--'ततश्च सुखदुःखमोहारमकस्य भ्रषञ्चस्य तथाविधका-
रणमवधारणीयम् तथा च प्रयोगः-विमतं भावजातम् ` , इत्यादि ॥
। || ( पृ ६४० )।
~ ० ८4 क
$ # ` ककन च # जच
शांकर-दशेनम् ७४१
सावन सान्पाभावसे व्याप्तहो तो विरुद्धहेतु नामका हेत्वाभास होता है । |
अतः यहां पर उसो प्रकारका विरुढदहतु है जिस तरह क्रिषी वस्तु को नित्य
सिद्ध करने के लिएहेनु दं रि यह उत्पन्न होती है" । [ उत्पन्न होने से तो कोई
वस्तु अनित्य ( साष्यामाव ) ही सिद्धहो जायगौ, नित्य नहीं । उसी तरह सांख्यो
के दवारा, यह सिद्ध करनेके लिए कि प्रकृति चेतन कौ सहायता नहीं लेते हृए भी
सुखादि से युक्त पदार्थो को उत्पन्न करती है, दिया गया साधन ठोक उलटी चीज
की ही सिद्धि कर देगा। |]
स्वरूपासिद्त्वाच । आन्तराः खखमी सुखदुःखमोहा बादये-
भ्यशवन्दनादिम्यो विभिननप्रत्ययवेदनीयेभ्यो व्यतिरिक्ता अध्य-
क्षमीक्ष्यन्ते। यथमी सुखादिस्वभावा भवेगुस्तदा देमन्तेऽपि
चन्दनः सुखः स्यात् । न हि चन्दन; कदाचिदचन्दनः। तथा
०१ इङकमपङ्ः उुखो भवेत् । न यसो कदाचिदङ्ङकम-
पङ इति ।
इसके अतिरिक्त उक्त साधन स्वरूपासिद्ध भोहै। ये सुख, दुःख ओौर मोह
आन्तरिक भाव ( अन्तरिन्दरिय मन केद्वाराज्ञेय ) ह जब कि चन्दनादि पदार्थं
बाह्य भाव ( च्यु, श्रोत्र जादि बाहरौ इन्द्रियों से ्राह्य ) है अतःये (चन्दनादि)
दूसरे प्रत्ययो (साधनो ) के रूपमे ज्ञेय होते ह तथा सुखादि उनसे अलग रहकर
इन्दियो के ऊपर दिखलाई पड़ते है। [ स्वल्पासिद्ध वह हेतु हैजो पक्ष मे
न रदे जेसे--शब्द एक गुण है क्योकि यह चाध्ुष है । यहां चाक्षुषत्व-हेतु पक्ष
( शब्द } में नहीं रहता है । उसी प्रकार चन्दनादि पदार्थो ( पक्ष ) में सुख, दुःख
ओर मोह का अन्वय ( हेतु ) रखते है जो असिद्ध है । सुखादि आन्तर भाव है
चन्दनादि बाह्य भाव । दोनों में एकता नहीं है अर्थात् एक ही ( अन्तर या
बाह्य } प्रत्यय से दोनों का बोध नहीं होता । सुख ओौर विषय विभिन्न प्रत्ययं
से ज्ञेय ह अतः दोनोंकाएकं ही स्वभाव नहीं हो सकता । दोनों को एक मान
लेने पर दोष भी होता है । |
यदि चन्दनादि कास्वमावही सुखादि होता तो हेमन्त काल में मी चन्दन
सुख ही देता। एेसा तो नहीं होता कि चन्दन कभी अ-चन्दन हो जाता ह।
[ स्वभाव का अथं निरन्तर सम्बन्ध होना ही है। यदि सुख चन्दन का स्वभाव
हैतो कभी दुटना नहीं चाहिए । तव क्या कारण है कि शीतकाल में वह् सुखद
नहं होता ? अवदय ही चन्दन सुख-स्वभाव नहीं है । ] उसी प्रकार ग्रीष्मकाल
ध्र सबेदशनसंग्रहे-
मे भौ कुकुम-लेप से सुख मिलता । रेस बात तो नहीं होती कि कभी-कभी
कुकुम का लेप अपना स्वभाव ( सुख ) छोड़कर अक्रुकुम-लेष हो जाता है ।
एवं कण्टकः क्रमेरकस्येव मनुष्यादीनामपि प्राणभृतां
सुखः स्यात् । न ह्यसो कोधित्परत्येव कण्टक इति । तस्माच.
न्दनङड्कुमादयो विरोषाः कालविशेषादपेक्षया सुखादिहेतवो
नतु सुखादिस्वमावा इति रमणीयम् । तस्माद्वेतुरसिद्ध इति
सिद्धम् ।
इसी प्रकार काटा जैसे ऊंट को सुख देता है उसी प्रकार मनुष्यादि प्राणियों
को भी सुख देने लगता । एेषी बात नहीं है कि कृ लोगों के लिए ही बहु काट
( दुःखद ) है । इसलिए चंदन, कुंकुम आदि पदाथं ( विशेष } किसी विशेष काल
आदिमे (उन पर निर्भर करके ही) सुख, दुःख, मोह उत्पन्न करते है, एसी
बात नहीं कि उनका स्वभाव ही सुखादि है--यह जानना चाहिए । इसलिए
यह सिद्ध हआ कि उक्त हेतु ( सुलादि-उत्पादक होना ) अविद्ध है । [ तात्पयं यह
है किं प्रकृति को सुखादि के रूपमे सांख्य लोग तभी सिद्ध करते है जब संसार
के पदार्थो को सुखादि-उत्पादक मान । लेकिन हम ऊपर सिद्ध कर चुके कि कोर
भौ पदाथं स्वभावतः सुखात्मक, दुःखात्मक या मोहात्मक नहीं है । परिस्थितियां
उसे वैसा बना देती है । अतः प्रकृति को सिद्ध करने वाले अनुमानमें हेतुही
असिद्ध ( {10070९९५ ) है । अब प्रधान के लिए द्यि गये श्रुतिप्रमाण का
भी खंडन करते है । |
( २ क. भरति के लिप श्रुति-परमाण भी नहीं दै )
नापि श्वुतिः प्रधानकारणत्ववादे प्रमाणम् । यतः-- यदग्ने
रोहित ^ रूपं तेजसस्तद्रूपं यच्छुक्लं तदपां यल्ृष्णं तदन्नस्य
( छान्दोभ्य ° ६।४।१ ) इति च्छान्दोग्यन्ञाखायां तेजोऽवन्ना-
त्मिकायाः प्रकरतेरोहित्चङ्कङृष्णरूपाणि समाम्नातानि तान्येवात्र
प्रत्यभिज्ञायन्ते। तत्र॒ भौतप्रत्यभिज्ञायाः प्राबस्याष्छोहितादि-
शब्दानां सुख्याथसंभवाचच तेजोऽवन्नार्मिका जरायुजाण्डजस्वेद-
जोद्धिज्चतुष्टयस्य भूतग्रामस्य प्रकृतिरवसीयते ।
प्रधान ( प्रकृति ) को [ जगत् का ] कारण बत्तलाने वाले सिद्धान्त [की
ष्टि ] के लिए श्रुति भी प्रमाणा नहीं हो सकती । कारणा यह है कि छान्दोग्य
शांकर-दशेनम् ७३
राखा मे--अभिकाजोलालसूपदटहै वहतेजको रूप, उजला रूप जल कां
ओौर कालारूप अन्न का है" (छां० ६।४।१)--इस प्रकार तेज, जल ओौर अन्न रूपी
प्रकृति के लाल, उजला ओौर काला, ये तीन रूप दिये गये हैः वे तीनोंलू्पही
यहाँ ( = 'अजामेकाम्' धे ४५ में ) भी प्रत्यभिज्ञा ( 1९८०7४० ) से
जाने जाते ह ( = वही अथं यहांभीहै)। यहाँ पर एक तो वैदिक प्रत्यभिज्ञा
( ऊपर के अनुसार ) प्रबल है, दूसरे लोहित आदि शब्दों मे मुख्यां ग्रहण
करना संभव भीदहै। [ सांख्यमे लोहित आदि शब्दोंका मुख्याथंन लेकर
लक्षणा से, रजकत्व आदि धर्मो की समानता देखकर इनका अथं रजस् , स्व,
तमस् ( तीन गुण) के ूपमेंकियागयादहै। परंतु शंकराचायं ईनक्रा खंडन
करके कहते ह किं जब मुख्य अथं लेना संभवहो है, तब लक्षणा क्योलें? |
इसलिए इस श्रुति ( छां० ६।४।१ ) का अथं यही हुआ करि तेज, जल मौर अन्न
रूपी प्रकृति ही जरायुज ( गर्भाशचय से उत्पन्न ), अणडज ( पक्षौ, सपं, मद्धली
आदि ), स्वेदज ( पसीने या गर्मी से उत्पन्न--कीडे, मच्छ, खटमल मादि )}
तथा उद्धिन ( पृथ्वी को फाड़कर निकलनैवाले -पेड़-पौषे ), इन चारों प्रकार
के जीवसमूह् का कारणा है ।
यद्यपि तेजोऽबन्नानां प्रकरृतेजोतत्वेन योगवृच्या न जायत
इत्यजत्वं न सिध्यति, तथापि रूटिवृच्यावगतमजात्वभुक्तप्रकृती
संखावबोधाय प्रकटप्यते । यथा (अघो वादित्यो देवमधु!
( छान्दोग्य० ३।१।१ ) इत्यादिवाक्येनादित्यस्य मघुत्वं परिक-
रप्यते, तथा तेजोऽन्नात्मिका भ्रकृतिरेवाजेति । अतोऽजामेका-
मित्यादिका श्रुतिरपि न प्रधानप्रतिपादिका ।
चक्रि तेज, जल ओर अन्न प्रकृति से उत्पन्न हृए है इसलिए यद्यपि इन्द
“न जन्म लेनेवाला' कहकर यौगिक संज्ञा ( वृत्ति) के रूपमे अजा नहीं कह
सकते, तथापि रूढि-संज्ञा के रूपमे उस प्रकृतिको अजा ( बकरी ) इसलिए
कहते है कि आसानीसे समन्षमेंआ जाये। [ उपर्युक्त श्रुतिमें "अजा शब्द
आयादहै। अजाके दो प्रकारके अथं हो सकते है । एक तो रूढिवृत्ति
( (0९७)#100 ) से बकरी के अथं मे, दुसरा योगल्डि से (न जन्म लेनेवालो
प्रकृति" के अथ॑मे, जो पुरुषके अलावे दूसरा तत्तव है ( सांख्य मे )। शांकर
दर्शन में 'अजा'को केवल रूढि-अथं मेही लेते है जिससे "बकरी" अथंही
निष्पन्न होता है। बकरीके अथं मे अजा-शब्द रूपक के द्वारा प्रमेयका
आसानी से बोध करातादहै। "यह ब्राह्मण सूयं है जैसे इस रूपक~वाक्य में
७४४ सबेदशेनसंम्रहे-
बराह्मणम वतमान तेजस्विता का प्रतिपादन करना अभीष्ट है तथा सूर्यं के
रूपक से प्रकट हो जाती है, उी प्रकार अजा ( बकरी ) का बहुत से एक तरह
के बच्चे उत्पन्न करने कां ल्पकलेनेसे यहज्ञात होता है क्रि तेज, जल भौर
अन्न से बनी हृई भूतप्रकृति भौ बहुत से सलूप विकारो को उत्पन्न करती है। |
जैसे-- "वह आदित्य देवताओं का मधुरैः (छ° ३।१।१) इसमे तथा अन्य
वाक्यों मे आदित्यके मधु ( मोहक-देवमोहक ) होने की कल्यना कौ गदं है
वषे ही तेज, जल ओर अन्नसे निर्मित प्रकृति ही अजादहै। [ अच्निमे दी गई
आहति आदित्य के पास उपस्थित होती है। इस नियम से अध्चिमें द्यि गये
सोम, घृत, दूध आदि द्रव्यो कौ आहति किरणों के दवाराःरसकेखूपमें आदित्य
के पास पुचती है । जैसे मवुकर एलो से रस लेकर मवु का संचय करते ह वेसे
ही मंत्ररूपी मधुक्रर वेदों में कटे गये कममंरूपी एलो पे, द्रव्यो से निष्पन्न अम्रृत,
क्रिरणों के दवारा सूर्थमंडलमेले आति । इस आदित्यामृत को देखक्रर देवता
तृप्र होति है। यही कारण है क्रि आदित्य को मधु कहा गया हे । ]
इसलिए “अ जामेक्ाम्' ( खे ० ४।५ ) इत्यादि श्रुति मी प्रवान ( प्रकृति }
का प्रतिपादन करनेवाली नहीं है ।
विरोष--'अजा' का अथं अजन्मा न लेकर ककरो (छाग ) लेने से शंकर
को मोका मिल नाता है कि प्रकृति को एकं प्रथक् तत्व स्वीकार न करके टश्य-
मान जगत् में व्यावहारिक वस्तु मान लेंगे । यदि प्रकृति अजा ( अजन्मा ) होती
तो ब्रह्म की तरह ही इसकी स्वतंत्र सत्ता माननी पडती । इस प्रकार सांख्य-दन
प्रकृति की सिद्धिके जिए दी गई श्रुति का दूसरा अथं लेकर श्रुतिःप्रमाणसे
भी प्रकृति की सिद्धि नहीं होने दी गई। शांकर-दर्चन मे प्रकृति संसार को कहते
हजो पारमार्थिक दष्टिसे तिथ्या दहै।
(१ ख. सांख्य-द्दोन के द्रन्त का खण्डन )
यदवादि निदश्ेनं पू्ववादिना-क्षीरादिकमचेतनं चेतना-
नथिष्ठितमेव बत्सविव्द्धयरथं प्रततंत इति । नैतद्रमणीयम् । बुद्धि
वरिशेषश्चालिनः परमेश्वरस्य तत्राप्यधिष्टातरृत्वाभ्युपगमात् । न च
परमेधरस्य करुणया प्रवृ्यङ्धीकारे प्रागुक्तषिकरपावसरः । सृष्टेः
प्राङ् प्राणिनां दुःखसंबन्धासंमवेऽपि तन्निदानादृष्टसंबन्धसंभवेन
तत्प्रहाणेच्छया प्रब्रखुपपत्तेः ।
[ उक्त प्रकृति की सिद्धि के लिए ] पूर्वंपक्षी ( साद्य )ने जो उदाहरण दिया
त क क" क कक
|
।
शांकर-दशनम् ७४५
है कि दूध आदि अचेतन होने पर भी तथा चेतन का बिना सहारा लिये ही बच्चे
के पोषा के लिए [ माताकेस्तनमें | उतर आति ह, वह उदाहरण ठीक नहीं
है। कारण यह दहैकरि एक प्रकार की बुद्धि लिये हृए परमेश्वर वहाँ मी अधिष्ठाता
( आधार) के रूप में मानना ही पड़ता है ।
यदि "कर्णा ( दया }) के कारणां ईश्वर की प्रवृत्ति होती है' एसा माने तो
आपकर द्वारा आरोपित विकल्पों को अवसर नहीं मिलता । [ सांख्य-दर्न मेँ ईश्वर
की करुणया प्रवृत्ति" की हंसी उड़ाई गई है ।* उसमे कहा गया है कि यदि करुणा
से ईश्वर की प्रवृत्ति मानते हतो दो विकल्प है, उनमें कोई तो ठीक होता। पर
दोनों ही परास्तहो जाते है। वे विकल्प है (१) परमेश्वर पृष्ट के पूवं
ही करुणा से प्रवृत्त होता है, (२) परमेश्वर सृष्टिके बाद कष्णासे प्रवृत्त
होता है । शंकराचा्यं इस “करुणाया प्रवृत्ति" को मानते हैँ । इसलिए कहते हैँ कि
आपके आरोपित विकल्प नहीं लग सकंगे । |
गृष्टि के पुवं यद्यपि प्राणियों का सम्बन्ध दुःख से नहीं है [ जिनं दूर करने
के लिए ईश्वर मे करुणा उत्पन्न होगी | तथापि दुःखो के निदान (कारण रूप )
अदृष्ट के साथ तो सम्बन्ध होना सम्भव है। बस, उसी [ अदृष्ट ] को नष्ट करने
की इच्छा से [ ईदवर की | प्रवृत्ति सिद्धकी जा सकती 2। [ सांख्य मे उक्त
विकल्पों में प्रथम के साथ यह् भापत्तिथीकि वृष्टि के पूवे तो जीवों मे शरीर ट
नहीं ओर दुःख शरीर पर ही निर्भर करता है। अतः जीर्वां मेँ जवेदुःखही
नहीं है तो ईश्वर में दुःख-हरणा की इच्छा ही क्यों उत्पन्न होगी ? इसी का उत्तर
शंकरने दियादहै।]
पि च पुरुषारथप्यक्ता प्रधानग्रवृत्तिरित्युक्तं तद्विवेक्तव्यम् ।
कि प्रधानं केवलं भोगार्थं प्रतते विं बा केवलमोक्षाथेमाहो-
सिदुमयार्थम् १ न तावदाद्यः करपोऽवकल्पते । अनाधेयाति-
रयस्य दूटस्थनित्यस्य पुरुषस्य ताचिकमभोगासंमवात् ।
अनिर्मोक्षप्रसङ्ाच्च । येन हि प्रयोजनेन प्रधानं प्रवर्तितं तदनेन
विधातव्यम् । भोगेन चेतत्परवर्तितमिति तमेव बिदध्यान्न
मोक्षमिति ।
# देखिये--सां० द०-यस्तु परमेश्वरः करुणया प्रवतंकः इति परमेश्वरा-
स्तित्ववादिनां डिरिडिम; स गभ॑ल्ञावेण गतः । विकल्पानुपपत्तेः । स॒ कि पृष्टः
श्राक्प्रवतेते सृष्टचुत्तरकालं वा ? ( पृ ६४४ } ।
५४६ स्वेदशेनसंगरदे-
इसके अतिरिक्त आपने ( सांख्य-दाशंनिकों ने ) जो कहा है कि पुरुष के काम
के लिए प्रधान की प्रवृत्ति होती है, उसका विइलेषणा ( स्पष्नीकरण ) कीजिये ।
क्या प्रधान केवल भोग के लिए प्रवृत्त होता है या केवल मोक्ष के लिए या दोनों
कामों के लिए?
पहला विकरप ठीक नहीं माना जा सकता क्योकि जो पुरूष अतिशयन
(सूखप्रानि, दुःखनिरोध आदि के अतिशय) से रहित है तथा जो कूटस्थ (निविकार)
एवं नित्य भी है उसका तात्विक भोग ( प्रकृतिके द्वारा परिणत तत््वोंका
भोग ) असंमवदहै। दूसरे, एेसा होने से पुरुष को मोक्ष-प्रात्ति का कभी अवसर
ही नहीं मिलेगा । प्रधान जिस कामके लिए प्रवृत्त हुआ है वही कामतो वह्
करेगा न ? यदि प्रधान [ पृरुषके] भोगके लिए प्रवृत्त हुआ है तो वही
विहित होगा, मोक्ष नहीं [ वयोकि पुरुष के मोक्ष के लिए तो प्रधान प्रवृत्त हअ
ही नहीं है। ]
नापि द्वितीयः । चिद्धातोर्नित्यश्चद्वबुद्रमुक्तस्वभावतया
कर्मानुभववासनानामसंभवेन प्रधानग्रवृत्ेः प्रागपि युक्ततया तदथं
रबृत्यलुपपततेः। शब्दाधुपभोगाथेमप्रबत्ततवेन प्रधानस्य तदज-
नकत्वगप्रसङ्घाच । नापि तृतीयः । प्रागुक्तदृषणलङ्कनारद्धितत्वात् ।
रत्तिस्वभावायाः प्रकृतेरोदासीन्यायोगाचच ।
दूसरा विकर्प भौ ठीक नहीं है क्योकि चेतन ( पुरुष ) का स्वभाव ह
नित्य रूप से शुद्ध, बुद्ध ( जागृत ) ओर “मुक्त' रहना । कर्मो के अनुभव की छाप
( वासना ) उस पर नहीं पड़ सकती । वह प्रधान की प्रवृत्ति के पहले भी मुक्त
ही है अतः [ पुरुषके मोक्षके लिए] प्रधान का प्रवृत्त होना असिद्ध है।
[ पुष विशुद्ध है अतः कर्मानुमव कौ वासनाये उस पर नहीं पड़ सकतीं ।
अनादि बासनाओं का आधार प्रकृति है । मूक्ति ( स्वप मे अवस्थिति ) तो
पुरुष को पहले से ही प्राप्रहै। अतः फिर मुक्ति कै लिए प्रकृति क्यों प्रयत
करेगी ? इसके अतिरिक्त [ जब पुरुष के मोक्ष के लिए ही प्रकृति प्रवृत्त होगी
तब तो ] शब्दादि के उपभोग के लिए उसकौ प्रवृत्ति नहीं होगी अतः प्रवान को
शब्दादि का उत्पादक भी नहीं माना जा सकता ।
तीखरा विकस्पभी ठीक नहीं है क्योकि पूर्वोक्त दोषों को परिधिसेषपार
* अतिशय = ए८९]1€0 ९९8, विशेषताये, सद्गुण ।
= 54१ 0
^ # 1.
(*
4
2
नः
कः
॥
क).
५. ५
शांकर-दशेनम् ७७
हो ही. नहीं सकते । [ यदि प्रकृति की प्रवृत्ति पुरुष के भोग ओर मोक्ष दोनों के
लिए हतो भोग ओौर मोक्ष दोनों मे अलग-अलग लगाये गये दोष इस विकल्प में
भी लग जायेंगे । पुरुष क्रुटस्थ, नित्य तथा अतिशय -रहित है-- वह तत्त्वो का
भोग नहीं कर सकता । दूसरे, पुरुष स्वतः मुक्त है अतः प्रधान कौ प्रवृत्ति मोक्ष
के लिये भी नहीं हो सकती। जब दोनों कामों के लिए प्रकृति कौ प्रवृत्ति का
पथक-पृथक् खरडन हो जाता ह तब दोनों कामों के लिए एक साथ भी प्रकृति
की प्रवृत्ति नहीं हो सकेगी । ] इसके अतिरिक्त यह भी बात है किं भ्रकृति को
उदासीन माना नहीं जा सकता । वास्तव में प्रवृत्त होना उसका स्वभाव ही है ।
[ प्रवृत्ति=कायं के रूप में परिण(म । परिणाम चचलतासे ही होता है। जब
पुरुष को मोक्ष प्राप्त हो जायगा तब प्रकृति को उदासीन मानना पड़ेगा लेकिन
प्रकृति किसी भी दक्षा मे उदासीन नहींहो सकती । फलतः मोक्ष नाम की
कोई चीज रहेगी ही नहीं । |
नलु सत्छपुरुषान्यताख्यातिः पुरुषाः । तस्यां जातायां
सा निवतेते कृतका्यत्वादिति चेत्--तदसमञ्जसम् । अचेतनाया;
्कृतेरविचायं कार्यकारित्वायोगात् । यथेयं कृतेऽपि शब्दादयुप-
रम्भे तदर्थं पुनः प्रवतंते एवमत्रापि पुनः प्रवर्तेत । स्वभाव-
स्यानपायात् ।
यहाँ पर सांख्य वाले कह सकते हैँ कि सत्व भौर पुरुष को अलग-अलग खूप
मे समक्षना पुरुषां ( पुरुष का लक्ष्य ) है । जव [ पुरषाथं की प्राप्ति या सत्व
ओर पुरुष के बीच | भेदज्ञान हो जाता है तब प्रकृति अपना कायं समाप्त करके
निवृत्त ही हो जायगी । यह सिद्धान्त भी संगत नहीं है । प्रकृति अचेतन है
इसलिए विचार करके वह काम नहीं कर सकती [ किं निवृत्त हो जाय ओर
वत्त हो जाय 1 ] जिस तरह यह प्रकृति शब्दादि की पराप्निकरलेने पर भी
शब्दादि के लिए ही पुनः प्रवृत्त होती है, उसी तरह यहां भी उसको पुनः परवृत्ति
हो सकेगी । अपना स्वभाव तो द्टता नहीं । [ सत्व ओौर पुरुष का भेदज्ञान
हो जाना प्रकृति के जीवन मे कोई महतत्वपूणं स्थान नहीं रखता । उसके बाद
प्रकृति इस तरह निवृत्त होगी कि पुनः कायं नहीं कर सकेगी, रेस कोई बात
नहीं । अचेतन प्रकृति अपने काम मे लगी है-परिस्थितियों के वश मे वह निवृत्त
` होती है गौर प्रवृत्त भी होती है । निवृत्त होने के बाद उसकी परवृत्ति फिर हो
सकती है । प्रवृत्ति तो उसका स्वभाव है । |
+$ <
किंच सा प्रदृतिविवेकख्यातिवश्चादुच्छिद्यते न वा
उच्छेदे सर्वस्य संप्रति संसारोऽस्तमियात् । अनुच्छेदे न कस्य-
चिन्मोक्षः ।
ननु प्रधानाभेदेऽपि तत्ततपुरूषविषेकख्यातिलक्षणाविद्यासद्-
सनिबन्धनौ बन्धमोक्षावुपपयेयातामिति चेत्--हन्त ति
कृतं प्रकरत्या । अतरिदयासदसद्धावाम्यामेव तदुपपत्तेः ।
इघके अतिरिक्त भो हमारा ( अद्वैत वेदांतियों का ) एक प्ररत है कि विवेक-
ज्ञान होने के बाद प्रकृति का नाश होता हैया नहीं? यदि नाशहोताहै तो सों
काहोगा, पूरा संसारही नष्टहौ जायगा । [ प्रत्येक जीव मे अलग-अलग प्रकृति
नहीं है। जीवों के लिए एकहौ प्रधान है। यदि यहं प्रधान नष्हो जाय
तो विवेकज्ञान का प्रन ही नहीं उठेगा-सब के साथ जीव मुक्त हो
जायैगे । ] यदि प्रधान का नाश नहीं होता है तो किसी को मोक्ष मिल ही नहीं
सकेगा ।
[ अब अपने प्रतिपाद्य विषय पर पहंचने का उपक्रम हो रहा है । वह विषय
ह प्रकृति-तस्व का खण्डन करके संसार की व्याख्या करने के लिए अविद्या का
प्रतिपादन करना । ये सांख्य वले कह सक्ते है किं | यदि हम प्रधान को
[ प्रध्येक पुरुष मे ] भिन्न-मिन्नन भी मानें फिर भी प्रस्येक पुरुष में अविवेक-
ज्ञान ( विवेकज्ञान का अभाव } के रूप मे जो अविद्या है उसके हीने पर निर्भर
करने वाले बन्धन ( ००५९९६९ ) कौ तथा न होने पर निर्भर करनेवाले मोक्ष
(€) ९880) की सिद्धि तो हो ही जाती हे। हे महाराज ! तब आप प्रकृति को
लेकर अपना सिर क्यों पीट रहे है, उसे छोड दीजिये । [ प्रकृति को बिना
मानेही ) अविद्याके होने ओर न होने से ही उन दोनों ( बन्धन-मोक्ष ) की
सिद्धि हो जायगी । [ प्रकृति से जो काम होता है उसे अविद्याकेद्वारा ही सिद्ध
करना चंकराचायं का लक्ष्य है हां, अविद्या को अपेक्षा जहाँ पर प्रकृति मे गुणों
का आधिक्य है, उन गुणों का खण्डन कर देते है । जैसे ्रहृति पृषष के मोक्ष के
लिए कार्यरूप मँ परिणत होती है, अविद्यान हीं । इसलिए प्रकृति के ईस कायं
का खरडन ही कर दिया गया । |
विद्रोष यहा प्रकृति ओौर अविद्या की तुलना दो विभिन्न दशनो के ष्टि
कोणों से करनी आवश्यक दै । प्रकृति सा्य-योग में स्वीकृत है, अविद्या वेदान्त
( अदैत ) मे । इस रूपरेखा से कु स्पष्टीकरण सम्मव है-
१. ~
| प्रकृति
(१) प्रङृति एक स्वतंत्र तत्व है ।
(२) प्रकृति त्रिगुणात्मक है
(३) प्रकृति अचेतन है ।
(४) प्रकृति भावात्मक (2081४९९) है}
(५) प्रकृति संसार के प्रपंचो को उत्पन्न
करती है।
(६) प्रकृति के कायं सत् (९६]) ह ।
(७) पुर्ष को मोक्ष दिलाने के लिए
प्रकृति इतने कायं उत्पन्न करती
है ( परिणत होती है ) ।
(८) प्रकृति कायं पूरा करके स्वयं निवृत्त
हो जाती है
(९) प्रकृति के कार्यो का पुरुष साक्षी है ।
(१०) प्रकृति मे कोई शक्ति वस्तुको
चिपाने के लिए नहीं है ।
(११) प्रकृति स्वतंत्र तत्तव॒ होने के
करण अनादिहै।
(१२) भ्रकृति के कायं परिणामवाद पर
आधारित है ।
(१३) पुरुष को मृक्ति प्रकृति-पुरुष में
भेदकेज्ञानसे होती है,
(१४) प्रकृति सभी जीवों कै लिए एक
ही दहै,
७४६
अविद्या
(१) अविद्या एक स्वतंत्र तत्तव नहीं,
ब्रह्म की शक्ति है। |
(२) अविद्या भी त्रिगुणात्मक है। `
(३) अविद्या भी अचेतन है ।
(४) अविद्याया बावरणा ओर विक्षेप
शक्तियों काली माथा भावात्मक
हीदै।
(५) अविद्या मी संसारके प्रपंबोंको
उत्पन्न करती है ।
(६) अविद्या के कायं व्यावहारिक दृष्टि
से सतु भले ही हों पारमार्थिक
दृष्टि से भिथ्या हैँ |
(७) अविद्या बंधन मे डालने वाले कार्यो
को उत्पन्न करती हे ।
(८) जीव को अविद्या के नाश के लिए
प्रयत्न करना पड़ता है ।
(९) अविद्या के कार्योँका ्रह्यया
जीव साक्षी नहीं होता।
(१०) अविद्या में आवरण ओौर विक्षेप
नामको दो शक्तियाँ ह ।
(११) अविद्या स्वतंत्र तत्त्व न होने पर
भी अनादि है।
(१८) अविद्याके कायं विवततंवाद पर
आधारित हैँ ।
(१३) जीव को मुक्ति अविद्या के नाश
से ब्रह्म का शुद्धरूपमे ज्ञानसे
होती है ।
(१४) अविद्या सभी जीवों मे अलग-
अलग है ।
यहां केवल कु भेदो को हौ स्थापित करने की चेष्टा की गर है। बिदानों
को उन दर्थनों मे दिये गये विचारों से अधिक तथ्य भी मिल सकेगे ।
७५५० सवेदशनसं्रहे-
नन्वविदयापक्षऽप्येष दोपः प्रादुःष्यादिति चेत्-तदेतत्म-
त्यवस्थानमस्थाने । न हि वयं प्रधानवदविधां सर्वेषु जीवेष्वेका-
माचक्ष्महे येनेवमुपालभ्येमहि । अपि तियं प्रतिजीवं भिद्यते ।
तेन यस्येव जीवस्य विध्योत्पद्यते तस्यैवाविद्या सभुच्छिघयते
नान्यस्य । भिन्नायतनयोर्विरोधामावात् ।
अतो न समस्तसंसारोच्छेदग्रसङ्गदोषः । तस्मात्परिणामः
स्वीकतंव्यश्च विवतंवाद
परित्यक्तव्यः । स्वीकतव्यश्च षिवतेवादः ।
अब यदि कोई पूर्वंपक्षी कहे कि अविद्याको स्वीकार करने मेंभीतो
[ प्रकृति के ऊपर लगया गया ] उक्त दोष आ ही जायगा, तो हमारा उत्तर हि
क्रि यहाँ पर उसका विचार करना ठीक नहीं। [ अविद्यामें दोष लगाना
ठीक नहीं । | हम लोग प्रधान की तरह ही अविद्या को सभी जीवों में
एक ही नहीं मानते, जिसके कारण आपलोग हम पर इस तरह उपालभ
( उलाहना, दोषारोपणा ) कौ वर्षा कर रहे है। अपितु अविद्या सभी
जीवों में भिन्न-भिन्नटहै। [ जिस जीव की अविद्या नष्ट हई वह अपने स्वरूप
अर्थात् ब्रह्म में लीन हो गया । | इसलिए जिस जीव की विद्या ( ज्ञान ) उत्पन्न
होती है, उसी जीव की अविद्या नष्ट होतीहै, दूसरे जीव की नहीं। इन दोनों
{ जीवों की अविद्याओं } का आधार भिन्न-मिन्न है, इषलिए विरोध की संभावना
नहीं । [ एक जीव की अविद्या दूसरे जीव की अविद्या से अलग है। यदि दोनों
एक ही रहती तो एक कौ अविद्याके नष्टहोने पर दूसरेकी अविद्या भी नष
हो जाती- दूसरे कीटही क्यो, पूरे संसारके जीव की अविद्या नष्ठहोती ओर
सभी लोग ही साथ मुक्त हो जाते । यह संसार चलता ही कैसे ? प्रकृति एक होने
के कारण ये दोष लगते है पर अविद्या में एसी कोई बात नहीं।]
अतः पूरे संसार के उच्छेद ( समाति) का प्रसंग जायगा ही नहीं, यह् दोष
[ अविद्या मानने षर] नहीं हो सकेगा । फलतः परिणामवाद त्याज्य है।
हमारा विततंवाद ही मानना चाहिए । [ वस्तु जिस समय अपनी पहली अवस्था
छोडकर दूसरी अवस्था में आ जाती है तब उसे परिणाम कहते है जेसे-द्ध का
दही में परिणाम । समी लोगों के लिए परिणाम एक ही रहता है । सभी लोग
दूध का परिणाम दही में देखेगे । प्रकृति का परिणाम कार्यो के रूपमे होता है
जिसे सभी जीव एक ही तरह से समञ्षते हैँ । यही कारणदहैकिएक जीवके
मुक्त होने पर सभी जीवों के मुक्त होने का प्रसंग आ जाताहै। विवतं मे रेसी
बात नहीं हो सकती । वस्तु जब अपनी पहली अवस्था का त्यागक्रियि ही बिना
>
ह प = क
४ ॥
शांकर-दशनम् ७४५१
दूसरी अवस्था के रूप मं केवल प्रतीत होती है तब उसे विते कहते है जसे
सीषी म रजत की प्रतीति ( भान, ष्टा€ा)शे0ा) ) । साधन के भेद से प्रत्येक
जीव की प्रतीति अलग-अलग होती है। अतः एक की प्रतीति के निवारणसे
सों की प्रतीति दूर हो जायगी-एेसौ बात नहीं । ||
नलु जीवजडयोः सारूप्याभावेन चिष्टिवतत्वं प्रपञ्चस्य न
संपरिपद्यत इति प्रागवादिष्मेति चेत् नेतत्साधु । न हि सार-
प्यनिबन्धनाः स्वे विभ्रमा इति व्या्चिरस्ति । असरूपादपिं
कामादेः कान्तालिङ्गनादिष्विव स्वप्नविभ्रमस्योपलम्भात् । कि
च कादाचित्के विभ्रमे सारूप्यापेकषा नानाद्यविद्यानिबन्धने
प्रपञ्चे ।
[पूर्वपक्षी फिर शंका कर सकते है क्रि] जैसाफि हम पहले ही कह चुके
ह. -जीव ओर जड़ ( संसार ) से समषूपता न होने के कारण यह प्रपञ्च चित्
( जीव ) का विवतं नहीं माना जा सकता । [ सामान्यतः बह देखा जाता है कि
जव क्रिसी वस्तु की दूसरे रूप में मिध्याप्रतीति होती ह तो दोनों समरूपता होनी
चाहिए । सीपी कौ प्रतीति रजत के रूप म होती है क्योकि दोनों उजले है, ठोस
छ आदि। सीपी की प्रतीति लौहकेरूपमें क्यो नहीं होती ? यदि संसार को जीव
( ब्रह्मा ) का विवतं मानते हतो दोनों में समरूपता होनी चार्हिए परन्तु बह नि
काँ ? एक जड दै, दूसरा चेतन । मतः जगत् कोचित् का विवतं मानना गलत
ह । इस पर शंकर के अनुयायी कहने है कि ] यह सोचना ठीक नहीं । पेसी कोई
व्याप्ति (निश्चित नियम, अविनाभाव सम्बन्ध) नहींदटैकि समो विश्रम समरूपता
के आधारपरही होतेह । काम आदि की वृत्तिर्या यद्यपि असरूप [ ख्पसे
ही हीन है, सषूपता-असरूपता तो बाद कौ चीज है] फिर भी स्वप्न मे कान्ता
का आलिगन करने के नैषा भ्रमहोजातादहै। [कामका अथं है तीव्र अभि-
लाषाकं रूपमे चित्तका चंचल होना। कामका अधिक घ्यान करनेसे स्वप्न
रे कान्तालिगन का भ्रम होता है। जागृतावस्थामें भी हो सकता है यदि
भावना बहत प्रबल हो जाय । स्पष्ट किकामका ही विवतं कान्तालिगन है ।
किन्तु काम-वृत्ति स्वयं तो नीरूप है--अतः रूपरहित का भी विवतं होता है ।
आकाश्च रूपरहित है पर नीलापन आदि काज्चम होता है । उसी तरह जीव ओर्
संसार क्णो बात है। क्रिमी तरह का साम्य दिखाकर तो समलूपरता दिखाई जा
सकती है । वास्तव में यह प्ररन मनोविज्ञान का है। दो प्रकार कौ मिथ्या प्रतीति
होती दै--साधार ओौर निराघार । साघार मिथ्याप्रतीति श्रम ( 111४5107
७५२ सर्वदशेनसंग्रहे-
है जि्मे किो वस्तु की एक अवस्था दूसरी अवस्थाके रूपमे या सीपी चांदी
क रूप म जो दिखलाई पडती ह वह भ्रम है। यहां रस्सी या सीप कौ सत्ता है
जो सारूप्य तथा मानसिक क्रियाओं के कारण बदली दिखाई पड़ती है । निरा-
वार मिथ्या प्रतीति विश्रम ( 9] प्ल०8्० ) है जिसमें किसी भौ बाहरी
वस्तु की सत्तान होने पर भी केवल मानसिक क्रियाओं ( भावना) के कारण
किसी वस्तु की प्रतीति हो जाती दहै । कभी-कभी अपने कमरे मे जगी अवस्थामें
भी हमें किसी व्यक्ति की उपस्थिति का भान हो जाता है । स्वप्न देखना, भूत-
प्रेत देखना आदि एेसी ही क्रियाय है । जहां तक भ्रम का सम्बन्ध है समरूपता
होती है, किन्तु विश्रम के लिए समरूपता नहीं, मावना चाहिए । |
दूसरी बात यह है कि कभी-कभी होने वाले विश्रममें हमें समल्पताकौ
आवद्यकता भले ही पडे, भनादि-काल से चली आनेवाली अविद्या पर निभेर
करते वालि प्रपच (संसार) के विषय मे हमें एसे ( सारूप्य ) की की
अवश्यकता ही नहीं ।
पवाचस्पतिः--
१. विवरतस्त प्रपश्चोऽयं ब्रह्मणोऽपरिणामिनः ।
अनादिवासनोद्भूतो न सारूप्यमपेक्षते ॥ इति ।
तदेतत्सर्वं बेदान्तशाख्चपरिशरमश्षालिनां सुगमं सुघटं च ।
हसे आचायं वाचस्पतिमिश्च ने कहा है-- "यह प्रपंच ( संसार }) तो अपरि-
णामी ब्रह्म का विवतं है तथा अनादि वासना ( छाप, अविद्या ) से उत्पन्न होने
के कारण समरूपता की आवर्यकता ही नहीं है ।' यह सव कुछ वेदान्त-शाख
मे परिश्रम करने वाले लोगों के लिए सुगम तथा मान्य है ।
( २. वेदान्त सूत्र की विषय-वस्तु ,
तच्च वेदान्तसाख्चं चतुरक्षणम् । भगवता बादरायणेन
परणीतस्य बेदान्तशचाखस्य प्रत्यग््ह्मैक्यं विषय इति शंकराचायाः
्रत्यपीपदन् । तत्र प्रथमे समन्वयाध्याये सर्वेषां वेदान्तानां
ब्रह्मणि तात्पर्येण पर्यवसानम् । द्वितीयेऽविरोधाध्याये सांख्या-
दितकविरोधनिराकरणम्। ठतीये साधनाध्यये व्रहमवि्यासाधनम्।
चतुर्थे फएङाध्याये विद्याफलम् ।
वह॒ वेदान्तशास्त्र चार अध्यायो मे ह । [ प्रत्येक अध्याय का एक-एक
ऋ 1. == -‰ 2 + + क~ 7 ++
[= 44)
शांकर दशेनम् ७४३
प्रतिपाद्य विषय या लक्षण होने के कारण इसे चतुलंक्षणी कहते हँ । ] शंकरा-
चायं ने प्रतिपादित किया है कि भगवान् बादरायण के द्वारा रचित इस वेदान्त-
शास्र का विषय प्रत्यक् ( जीवात्मा ) भौर ब्रह्म की एकता का प्रदर्शन करना
है । प्रथम अष्याय को समन्वयाध्याय कहते ह जिसमे सिद्ध कियागया हैकरि
सारे वेदान्त ( उपनिषद् ) वाक्यों का तात्पयं ब्रह्मम ही समीहित है । दितीय
अध्याय भविरोधाध्याय कहलाता है जिसमे सांख्य आदि द्ंनों के तर्को
उत्पन्न विरोध का निराकरण किया गया है। तृतीय अध्याय साधनाघ्याय है
जिसमें ब्रह्मविद्या को सिद्धि कौ गई है। चतुर्थं अध्याय को फलाध्याय कहते रह
निमे ब्रह्मविद्या का फल निष्ट है ।
तत्र प्रत्यध्यायं पादचतुष्टयम् । तत्र प्रथमस्याध्यायस्य
प्रथमे पादे स्पष्व्रहमलिङ्खं वाक्यजातं मीमांस्यते । द्वितीयेऽस्पषट-
बह्मलिङ्गमुपास्यव्रिषयम् । तृतीये तादशं ज्ञेयविषयम् । चतुर्थेऽ-
व्यक्ताजापदादि संदिग्धं पदजातमिति ।
अवरिरोधस्य द्वितीयस्य प्रथमे सांख्ययोगकणादादि स्यृति-
विरोधपरिहारः । द्वितीये सांख्यादिमतानां दुष्टत्वम् । तृतीये
पञ्चमहाभूतश्चुतीनां जीवश्रतीनां च परस्परविरोधपरिहारः।
चतुथं िङ्खशरीरश्रुतीनां विरोधपरिहारः ।
उनमें प्रत्येक अध्याय में चार-चार पादह । प्रथम अध्याय के प्रथम पाद
मे स्पष्टलूप से ( प्रत्यक्षतः ) ब्रह्म को बतलाने वाले वाक्यों की मीमांसा हुई है ।
द्वितीय पादमं ब्रह्म का स्पष्ट निदश्च न करनेवाले उपासना-विषयक वाक्यों की
मीमांसा है। तृतीय पाद में उसी तरह के ( ब्रह्मका स्पष्ट निर्देश न करनेवाले
लेय-विषयक वाक्ोंकी [ समीक्षा है] ओौर चतुथं पाद म “अच्यक्तः "अजा"
आदि संदिग्ध शब्दों कौ समीक्षा हुई है। [ एक श्रुति है -- "महतः परमव्यक्तम्”
( का० १।३।११ )। दूसरी है--अजामेकाम्" ( इवे ० ४।५ ) । इनमें अव्यक्त,
अजा आदि शन्द संदिग्ध हैँ कि सांख्य-द्शंन की प्रकृति का प्रतिपादन तो ये शब्द
नहीं करते हैँ ? ] ॑
अविरोध का निदेश करनेवाले द्वितीय अध्याय के प्रथम पादमें सांख्य,
योग ओर वेशेषिक आदि स्मृतियों ( दर्चानों ) के द्वारा किये जानेवाते विरोघ का
परिहार क्रिया गया है । द्वितीय पाद में सांख्यादि दशनो के मतों कौ दोषात्मकता
दिललाई गई है । तृतीय पादमें पांच महाभूतो का वरन करनेवाली श्रुत्ियों
४८ सः संर
७४४ सर्वदशेनसंब्रह-
जञौर जोव-विषथक श्रुतिवाक्यों के परस्पर विरोध का निवारण किया गया है)
चतुथं पादमें लिङ्खशरीर का वंन करनेवाली श्रुतियों के विरोध का परिहार
क्रिया गया है। [ लिङ्गशरीर = पाच ज्ञानेन्दर्या, पाच करमेद्धिर्या, पाँच प्राण
(वायु), मन तथा बुद्धि- इन सतरह वदार्थो का संघात लिङ्गशरीर
कहलाता है । ]
तृतीयस्य प्रथमे जीवस्य परलोकगमनागमनविचार पुरस्सर
वैराग्यम् । द्वितीये ल्व॑पदतत्पदा्ैषरिश्लोधनम् । ठतीये सगुण-
~ 3, @ 4 ©
विद्यासु गुणोपसंहारः । चतुय नि्णन्रह्मविद्याया बहिरङ्गान्तरः
ङ्गाश्रमयज्ञशमादिसाधनम् ।
` चतुर्थस्य प्रथमे ब्रहमाक्षात्कारेण जीवतः पापपुण्यक्लेश्च-
= © द्वितीये ्
बेधुयेलक्षणा युक्तिः । द्वितीये मरणोत्करमणप्रकारः । ठतीये
© षि भ €
सगणन्रह्मोपासकस्योत्तरमागेः । चतु निगेणसगुणव्रह्मषिदो
विदेहकवस्यत्रहमलोकावस्थानानि । तदित्थं ब्रह्मविचार"
© $
ध्यायपादाथसग्रहः ।
तृतीय अध्याय के प्रथम पाद मे जीव के परलोक जानेया न जानिके
भ्रन पर विचार करके ्रैराग्य का प्रतिपादन क्रिया गया हे। द्वितीय पादमें
( "तत्वमसि" ( छां ६।८।७ ) महावाक्य के ] त्वम् ओौर "तत्" पदौ के अथंका
अनुशीलन क्रिया गया है । तृतीय पादमं सगुण ज्ञान के विषयमे गणोका
उपसंहार ( अर्थात् अन्यत्र प्रतिपादित गुणों का संकलन ) किया गया है। [जो
लोग व्यावहारिक दष्टिसे सगण ङी उपासना करते है । उनके दृष्टिकोण से
उपास्य के गुणो का यहां पर संग्रह किया गया है। ] चतुथं पादमं निर्गण ब्रह्य
की विद्या (ज्ञान) प्राप्त करने के लिये बहिरंग ओर अन्तरग साधनों जेसे
आध्रम, यज्ञ ( बहिरंग ) तथा राम (अंतरंग ) आदि का निरूपण हुजा है ।
चतुथं अध्यायके प्रथम पादमं यह् बतलाया गथा है कि ब्रह्मका
साक्षात्कार करलेने से जीति जी ही व्यक्ति को वह मृक्ति (जीवन्मुक्ति) मिलती है
जिसमे पाप, धुर्य ओौर क्लेश का सरवंथा विनाक्च हो जाता है । द्वितीय पादमे
मरण ओर ऊपर उठने ( स्वगंगमन } के प्रन पर विचार किया गया दहै,
तृतीय पाद मे सगुण ब्रह्म कौ उपासना करते वाले पुरुष के मरणोत्तर मागंका
वरणंन किया गया है । चतुथं पाद में निर्ण ब्रह्मवे्ा ओौर सगुण ब्रह्मवेत्ता कौ
मदाः विदेहमुक्ति ओर ब्रह्मलोक में अवस्थिति का निरूपण हुभा है ।
4 ७४५
इस प्रकार ब्रह्म-विचार-शाखर ( वेदान्तसूत्र ) के अध्यायो ओर पादोंमें
दशित विषयों का संग्रह किया गया ।
विद्ोष- प्रत्येक पाद मे अधिकरण ( 110}))५ ) तथा प्रत्येक अधिकरण
मे सूत्र है। नीचे भ्रव्येक पादके अधिकरणों भौर सूत्रोंकी संख्या दीजा
रहो है--
अध्याय पाद् अधिकरण सूत्र
प्रथम १ ११ २३१
५ २ ७ ३२
५ ३ १४ = ४३ १३५
99 र ८ २९.
द्वितीय : १३ | ३७
+ २ ८ | ४५
५ ३ ५७। 9 ५३१५०
1) 1 ९। २२
तृतीय १ ६ २७
१ २ ठ | ४१
† ३ ३६“ ६६ १८६
नै र्ट १७ ५२
चतुथं १ १४ भ
# २ ११। २१
४ ३ ६| ˆ १६००
8, 1 ७9 २ २ |
१९२ ५५६
ब्रह्मसूत्र ( वेदान्तसूत्र ) पर विभिन्न दार्शनिको ने टीका करके अपने विशिष्ठ
मार्गो का+ प्रवतंन करिया है। रामानुज का विशिष्टाद्वैत तथा परंपरज्ञ का द्वैत
हम देख ही चके हैँ । फिर भी शंकराचायं के भाष्य के समक्ष कोई मी समोचीन
नहीं लगता । विभिन्न भाष्यकारो मे मतभेद होने के कारणा बादरायण का मूल
अभिप्राय क्या था, यह कहना कठिन हो गया है । यहाँ पर विषयारंभ के पूष
शांकर-द्ंन का संक्षिप्त इतिहास प्रस्तुत करना असंगत नहीं होगा ।
जैसा कि स्वाभाविक है हम वेदों से ही भारतीय वाङ्मय की उत्पत्ति मानते
हं । वेदान्त के विषयमे भी वही बातहै। ऋण्वेद के सक्तो मे ही माया भौर
बरह्म के सम्बन्ध की सूचनाय मिलती दै । फिर भी वास्तविक वेदान्त वेद के
अन्तिम भाग--उपनिषदों से शुरू होता है जहां जीव भौर ब्रह्म के विषय मे
+ देविये ~ प° बलदेव उपाध्याय, भारतीय दर्शन, पु ४०१।
| ७५६ सर्वेदशेनसंग्रदे-
| | | ` विशिष्ठ कल्पना की गई ह । संख्या मे अनेक होने पर भी शंकराचायं ने केवल
१ ग्यारह उपनिषदों को मान्यता दी है। वेदान्त से उपनिषदों का ही बोध मुख्य
| ॑ रूप से होता है । उपनिषदों का सारांश भगवदगीता मे बा गया है। इसलिए
| उसे भी वेदान्त के अन्तग॑त ही रखते हैँ । उपनिषद् ओौर गीता मे बिखर हुए
| | विचारोंको बादरायण ने अपने ब्रह्मपूत्रमे शंखलाबद्ध किया । इस प्रकार
| वेदान्त क तीन प्रस्थान ग्रन्थ कहलाते ह--उपनिषद्, गीता भौर ब्रह्मसूत्र ।
| शंकराचाययं ने तीनों पर व्याख्या लिखकर अदैतमत का प्रवतंन किया ।
॥| शंकराचायं ( ७८८-८२० ई० ) ने ब्रह्मसूत्र पर शारीरकभाष्य लिला
जिसने अटरैत वेदान्त की पताका फहरा दी । शंकराचायं केरल प्रान्त के नम्बर
दरी ब्राह्यणये तथा गौडपाद के शिष्य श्री गोविन्दभगवत्पाद के शिष्य थे ।
स्मरणीय है कि गौडपाद ने मांडूक्य-कारिका लिखी थौ जो मायावाद का प्रथम
| शाख ग्रन्थ है । शंकर ने इसपर भी टीका लिखी थी । ३२ वर्षोंको अल्प अयु
| मेभी शंकरका यश्च अश्ु्णाहै। इनका गद्य अपने दंग का अद्वितीय हे ।
| | इन्होने संपूणं भारत का भ्रमण करके वेदान्त मत कौ प्रतिष्ठा को तथा कट
| स्थानं पर मों कौ स्थापना की । शंकर के समकालिक मण्डनमिश्च ये जिन्होने
मीमांसा में बहुत यज प्राप्त क्रिया था परन्तु शेकरके ही भ्रमावसे ये वेदान्त
मत सें दीक्षित हो गये। इन्होने ब्रह्मसिद्धि नामक ग्रन्थ लिखा जिस षर
वाचस्पतिमिश्र ने ब्रह्मत त्वसमीक्ना, चित्पुख ( १२२५ ई० } ने अभिप्रायप्रका-
शिका ओर आनन्दपू्णं ने भावशुद्धि नाम से टोकायं की थीं। मर्डन ने वेदान्ती
| होने पर अपना नाम सूरेश्वराचायं रखा था । शंकर के एक क्िष्य पद्मपादाचायं
| ये जिन्होने शारीरकभाष्य पर पञ्चपादिका वृत्ति लिखी जिसमे केवल चतु.सूत्र
| का विवेचन है । पंचपादिका पर करई टीकायें लिली गई जिनमें प्रकाशात्मयति
| | ( १२०० ई० ) कौ विवरण टीका प्रसिद्ध है । इसके नाम पर विवरणप्रस्थान
॑ | ( 15818108 86700] ) ही बन गया । विवरण कौ दो टीकायं है--अखंडा-
| नेद सरस्वती ( १५०० ६० ) कृत तच्वदीपन तथा विद्यारण्य ( १३५० ई० )}
| कृत विवरणप्रमेयसंग्रह । |
| सरेशवराचायं के शिष्य सवंजञाटममुनि ( ९०० ई० ) ने सक्षेपशारीरक
नामक एक पद्यबद्ध व्याख्याग्रन्थ लिखा । वाचस्पतिमिश्र (८५० ई० ) ने
श।रीरकभाष्य पर अपनी सुप्रसिद्धं भामती नाम की टीका लिली जो भाष्य के
| बाद अद्धितीय ग्रन्थ है । इसकी दो सुप्रसिद्ध टीकाये दहै--अमलानन्द ( १२५० )
| कौ कल्पत टीका ओर अप्पयदीक्षित ( १५५० ई० ) की परिमल टीका ।
| | ` महाकवि श्रीहषं ( ११५० ई० ) का खण्डनखण्डखाद्य वेदान्त का नैयायिक
नन्रल्कनप्र=्-- `
१
(1
॥
ई
|
शांकर-दशेनम् ७५७
विधिसे विहलेषण करने वाला ग्रन्थदहै। चित्पुखाचायं ( १२२५ ई० })ने `
सुरेदवर की नेष्करम्यसिद्धि पर, ब्रह्मसिद्धि पर तथा शारीरकभाष्य पर टीकां
लिखकर एक स्वतन्त्र ग्रन्थ प्रत्यक्तसर्वदीपिका ( चित्सुखी ) के नाम से लिखा।
प्रस्तुत सवंदशंनसंग्रह के रचयिता माधवाचायं सन्यस्त होकर विद्यारण्य के नाम
से प्रसि हृए गौर उन्होने अपनी स्वतन्त्र कृति पंचदशी नाम से दी।
शांकर-ददंन के अन्य ग्रन्थों मे आनन्दबोध का न्यायमकरंद्, मधुसूदन सरस्वती
की अद्धेतसिद्धि तथा सिद्धान्तविन्दु, अप्पय दीक्षित का सिद्धान्त-
लेशसग्रह, धमंराजाघ्वरीन््र की वेदान्तपरिभाषा एवं सदानन्द का वेद्ान्त-
सार प्रसिद्धै,
(२३. ब्रह्म की जिक्ञासा-प्रथम अधिकरण )
तत्र प्रथममधिकरणमथातो ब्रह्मजिज्ञासा (ज. घ्. १।१।१ )
इति ब्रह्ममीमांसारम्भोपपादनपरम् । अधिकरणं च पश्चावयवं
प्रसिद्धम् । ते च विषयादयः पश्चावयवा निरूप्यन्ते । (आत्मा
वारे द्रष्टव्यः ( बृह ° २।४।५ ) इत्येतद्वाक्यं विषयः । जक्ष
जिज्ञासितव्यं न वेति संदेहः । जिज्ञास्यत्वव्यापकयोः संदेदप्रयो-
जनयोः संमवासंमवाभ्याप् ।
उस ( ब्रह्मसूत्र ) मे पहला अधिकरण ( "011८ ) है-- अथातो ब्रह्मजि-
ज्ञासा' ( अब इसलिए ब्रह्म की जिज्ञासा होती है-त्र° सू° १।१।१ ) जिसमें
ब्रह्ममीमांसा ( वेदान्तश्चाख्र ) के आरंभ का प्रतिपादन किया गया है । अधिकरण
मे पाच खणड होते है, यह प्रसिद्ध ही है [ = विषय, संशय, पूवंपक्ष, उत्तरपक्ष
तथा संगति ( या निणंय ) । देखिये-जेमिनिदश्चन । ] भब विषय आदि उन
यांच अवयवो ( 01878 ) का निरूपण किया जाता है ।
' आत्मा का दर्लन करना चाहिए" ( ब्रूहदारण्यक ° २।४।५ }--यह वाक्य
विषय है । ब्रह्म कौ जिज्ञासा करनी चाहिए या नही--यहे संदेह है । जिज्ञासा
के लिए सन्देह भौर प्रयोजन दोनों ही भावश्यक है । [ किसी पक्ष मं इन दोनों के
रहने से जिज्ञासा ] संभव रहै, कभी [ अकेले के रहने से ] असम्भव भी हो सकतो
है । [ सन्देह वहीं होता है जहां किसी की सम्भावना ओर असं मावना दोनों हो ।
जिज्ञासा के साथ भी यही बात है, कहीं तो जिज्ञासा संभव है कहीं असंभव मी ।
कारण यह है कि शिसीकी जिज्ञासा तभी हो सकती है जब उसके विषय में सन्देह
भी हो गौर जिज्ञासा का प्रयोजन (फल) मी मिले । जिस अथं के विषय मं सन्देह
ॐ
|
|
|
-५ ५८ सर्वदशनसंग्रहे-
नहीं है, वस्तु पूं निशित है, उसमें प्रयोजन रहने पर भी उसकी जिज्ञासा नहीं
` होती वयोकरि वह वस्तु तो ज्ञात ही ॐ । उसी तरह जहां जिज्ञासा का फल कु
नहीं हो वह॒ वस्तु सन्दिग्च होने पर भी जिज्ञासा नहीं होती वयोकि वह ज्ञान
निरथंक हो जायगा । इसलिए जहां दोनों नही होगे वहां जिज्ञासा नहीं होगी ।
जहां दोनों होगे वहां जिज्ञासा हो सकेगी \ दो पक्षो के होने से ही सन्देह हो गया ।]
( ४. आत्मा की जिज्ञासा असंभव-सन्देह की असंभावना )
तत्र॒ कस्येदं जिज्ञास्यत्वमवगम्यते १ अहमदुभवगम्यस्य
९
भ्रुतिगम्यस्य वा १ नाद्यः । सवेजनीनेनाहमनुभवेन इदमास्पद्-
देहादिभ्यो विवेकेनात्मनः स्पष्टं॑प्रतिभासमानत्वात् । नड
# मित्यादिदेदधमेसामाना ¢ ~ ~
स्थृरोऽदहं कृशोऽहमित्यादिदेहधमसामानाधिकरण्याजुमवात् अध्य
स्तात्मभावदेहालम्बनोऽयमहंकार इति चेन्न । बाल्या्यवस्थासु
मिन्नपरिमाणतया वदरामरकादिवत्यरस्परभेदेन शरीरस्य प्रत्य-
भिज्ञानाुपपत्तेः । ४
आप किसे जिज्ञास्य समदते ह --*अहपम्' ( मे ) इस अनुभव से ज्ञेय
( आत्मा ) को या श्रुति के द्वारा ज्ञेय ( अत्मा ) को ? पहला विकल्प तो ठीक
नहीं ही है। "अहम्" का अनुभव सवंजनीन रूप से प्रसिद्ध दै, देह आदिकां
अनुभव इदम्' ( यह--111110 €ाऽण ) शब्द से होता है। तो, देहादिसे
आत्मा स्पष्टतः अलग प्रतीत होती है। [ संदेह ही नहीं है तो जिज्ञासा क्यों
होगी ? अनिश्चित वस्तु की ही जिज्ञासा होती है । |
[ आत्मा की जिज्ञासा असंभव मानने वाले ूर्दपक्षी कहते ह कि ] यहाँ पर
कुछ लोग शंका कर सक्ते है कि आपका यह "अह् कहना तो शरीर पर
आत्मा का आरोपणा करने से ही संभव है करयोकि जब कहते ह कि “मं मोदा ह
नँ पतला हू", तो भ्माकोभी शरीरके घमो का आधार बना देते है।
[ मोटा, पतला होना ` शगर के धमं है। शरीर जड दहै, किन्तु उक्त वाक्योमें
आत्म पर जड के धर्मो क} आरोपण किया गया है--अहम् ( आत्मा के लिए
सवनाम ) भौर स्थूलः (देहके लिए विशेषण ) दोनों को समानाधिकरण
बनाकर चेतन पर जड़ के धर्मो क! आरोपण हुआ है । इसलिए देह से अतिरिक्त
आत्मा नाम की कोई वस्तु अनुभव-पथ में नही भाती। यही कारण हैकि
आत्मा कौ जिज्ञासा करनी चाद्दिए जिससे आत्मा ओौर देह का भेद स्पष्ट हो ।
इस शंका के उत्तरमें पूर्वंपक्षी कहते है कि ] उक्त शंका ठीक नहीं । [ यदि
शांकरदशेनम् ७४६
शरीर ओर आत्मा मे भेद नहीं होता ] तो, बाल्य, युवा आदि अवष्थाओंमें
शरीर का परिमाणा भिन्न-मिन्न रहता है इसलिए जसे बेर ओर ओआंवलेमें
परस्पर भेद होता है उसी तरह शरीर की [ विभिन्न अवस्थाओं में परस्पर भेद
होने के कारण "मैने युवावस्था मे सुख भोगा, 'वचपन में मेँ वेलता था! आदिक |
प्रत्यभिज्ञा नहीं हो सकेगी । [ इन अवस्थाओं मे शरोर एक ही नहीं रहता--
यह तो स्पष्ट है । साथ-साथ यह भी स्पष्ट क्रि समी अवस्थाओं में अनुभवकर्ता
र एक ही रहता है । अतः देह ( बदलने वालो ) ओर आत्मा ( न बदलने वालो }
4 दोनों चँ भेदतोहैही। ईकिभेद स्पष्ट टै अतः आत्मा की जिज्ञासा व्यथं दहै।]
¦ अथोच्येत--यथा पीटुपाकपक्षे पिटरपाकपक्षे वा काल-
भेदेनैकस्मिन् वस्तुनि पाकजमेदो युज्यते तथेकस्मिञ्शरीरामिषे
वस्तुनि कारुमेदेन परिमाणमेदः । अत एव लोकिकाः शरीर-
मात्मनः सकाञशादभिननं प्रतिपद्यमानाः प्रस्यभिजानते चेति।
न तद्धदरम् । मणिमन्त्रौषधादयपायभेदेन भूमिकाधानवत् नाना-
विधान्देहान् प्रतिपद्यमानस्याहमारम्बनस्य भिन्नस्यात्मनः शरीः
राद्धेदेन भासमानत्वात् ।
[ पूर्वपक्षिणो को अभो भी खटका लगाहीहै। वे सोचते ह किं उक्त शंका
की सफाई भोदैदीजा सकती है] अबवे ( पूर्व॑पक्षियों पर शंका करने वाले
लोग ) कह सकते है कि जसे पीलुपाक-पक्ष ( परमाणु को उत्पत्ति या ना
मैशेषिकदर्चन मे स्वीकृत ) मे या पिठरपाकपक्ष ( पूरे पिरड कौ उत्पत्ति या
नादा- न्यायद्न में स्वीकृत ) मे कालका भेदहोनेसे एकही वस्तु मे पाकज
( तेज या अञ्चि से उत्पन्न ) भेद हो सकता है ( देखिये, भौररूव्य-दर्चन }, उसौ
प्रकार शरीर नामक वस्तुमे,जोएकहीरहै, समयकेभेदके कारण परिमाण
कामद हो सकता है। [ परिमाणगत भेदका स्पष्टीकरण इसलिए किया गया
कि परिमारामें भेद होने पर भी देह को एक ही समज्ञा जाय-इसलिए देह ही
"अहृम्' प्रतीति का विषय है। जड़ भौर चेतनम समानाधिकरणताहै ही
अतः गात्मा की जिज्ञासा करनी चाहिए कि भेद स्पष्ट हो । | इसलिए तो लोका-
यत-मत ( चार्वाक ) के लोग शरीर को आत्मासे पृथक् नहीं समञ्षते ओर
[ विभिन्न अवस्थाओं में पृथक् परिमाणसे युक्त होनेपर भी शरीरको |
प्रत्यभिज्ञा से एक ही जानते है ।
हमारा ( पूर्वपक्षियों का ) कहना है कि यह ठीक नहीं । मणि, मंत्र, ओषधि
आदि उपायों का प्रयोग करके [ जैसे कोई व्यक्ति कभी हाथो, कमी बाध, कभी
हनि ~ ~ ¬
७६० स्बेदशनसम्रहे-
राक्षस भौर कभी मनुष्य बनकर ] विभिन्न भूमिकाओं ( {०16 ) का ग्रहण
करतादहै, वेसेही नाना प्रकारके शरीरोंमे जा-जा कर "अहम्" शब्द पर
अवलंबित ( 126])€00लाो४, 8१५९०} € ० ) आत्मा जौ भिन्न ( शरीर से )
है, वह शरीर से भिन्न रूपमे प्रतोत होती है। [ चकि आत्मा शरीर से भिन्न
लगती है अतः ब्रह्म की जिज्ञासा नहीं करनी चाहिए । ]
विशेष-आत्मा की जिज्ञासा नहीं करनी चाहिए, यह पूर्वपक्ष बहुत दूर
तक जा रहादहै। इसके दो खंडर । एकमेंतो संदेह की असंभावना दिखाकर
अने प्रतिपाद्य का निरूपण करते है, द्सरे में प्रयोज्ञन की असंभावना दिखायंगे।
संदेह की असंभावना दिखाने में पूव॑पक्षी भौ विरोधी दल से भिंडा हुमा है,
पूव॑पक्षी शरीर ओौर अत्माकोस्पष्टरूप से पृथक् मानकर संदेह का अवसरही
नहीं रहने देता जब कि इसके विरोधी दोनों मँ अभेदके प्रद्चनमेंलगेहैकि
स्पष्टीकरण के लिण आत्माकी जिज्ञासा होनी ही चाहिए, नहीं तो जड़ ओर
चेतन की पारस्परिक संभृष्टि ( 21136 ) से सदेह बना ही रहेगा ।
अब पूर्वंपक्षी अपने पक्षकी पृष्टिमे आत्मा ओर शरीरका मेद ओौर
अधिकं स्पष्ठ करता है।
अतएव चश्चुरादीनामप्यहमालम्बनत्वमश्चक्यशङ्कम् ।
“नान्यद स्मरत्यन्यः' ( न्या० इसु > १।१५ ) इति न्यायेन
चक्ुरादौ नष्टेऽपि रूपादिप्रतिसंधानानुपपत्तेः ¦ नाप्यन्तःकरण-
स्याहमालम्बनत्वमास्थेयम् । अयमेव भेदो भेदहेतुषो यद्िरुद्र-
धमोध्यासः कारणमेदश्ेति न्यायेन कर्ैकरणभूतयोरात्मान्तः-
करणयो स्तक्षवासिवत्संभेदासंभवात् ।
इसीलिए ( अर्थात् जेसे शरीर से आत्मा भिन्न है उसी तरह इन्दरर्थो से
आत्माके भिन्न होनेके कारण ) चक्षु आदि इन्द्रियों मे "अहम्" की प्रतीति
होती है-रेसी शंका भी नहींकी जा सकती। यह नियमदहैकि एक आदमी
के देखे पदां कास्मरण दसरा आदमी नहीं कर सक्ता (न्या० कु° ११५},
इस लिए चक्षु आदि इन्द्रियोके नष्टहो जाने पर भी रूपादि विषयों का अनु-
चिन्तन (नष्ठद्रव्य को प्राप्त करनेके लिए व्यापार = प्रतिसंधान ) करना
संभव नहीं है ।
इसके अतिरिक्त, अन्तःकरण (मन) कोमी अहम्" का आधार नहीं
मानना चाहिए । जो विरुद्ध धर्मो का अघ्यास्र ( मारोषण ) है वही भेदै ओर
जो कारणों कामद है वही भेद-हेतु होता है-इस नियम से कर्ता ओर करण
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शांकर-दशनम् ७६१
केरूपमे जो क्रमशः आत्मा गौर अन्तःकरण है उन दोनोंमें तादात्म्य
(कपष संभेद ) होना उसी प्रकार असंमव है जिस प्रकार बदृई् ( तक्ष )
ओौर उसके वसूले ( वासि ) मे । [ जिस प्रकार बहर्द ओर बसूले मे तादात्भ्य
नहीं हो सकता क्योकि बहृई कर्ता है ओौर बसूला करण, कर्ता ओर करण मे
तादात्म्य नहीं होता । उसी प्रकार आत्मा ओर मन मेँ भी तादात्म्य नहीं होगा
क्योकि दोनों मे भेद है--दोनों मे एक पर कतूंधमं का आरोपण है ( आत्मा =
कर्ताहै), दूसरे पर ( मन पर ) करण-घमं का आरोपण है । विष्दध धमो का
भारोपण होने से दोनोंमे भेद है-जब भेदही स्पष्टहै तब जिज्ञासा क्यों
करगे ? ]
यद्यभेद् एव नाद्रियते तहिं ^्थृलोऽदं, कृशोऽहं, दृष्णोऽ-
हम्! इत्यादि संख्यानसुत्सन्संकथं स्यात् । न स्यात् । एवं
रोके शाखे चोभयथा शब्दप्रयोगदर्ाने भुख्यार्थत्वाुपपततौ
-मवाः करोरान्ति' इत्यादिवदौपचारिकत्वेनोपपत्तेः ।
[ ¶वपक्षियो कौ उक्त अभेद-स्थापना पर शंका होती है-- ] यदि आप
अभेद मानते ही नहीं्हैतो नै मोटा है, भे पत्लाहु, नै काला हः इत्यादि
का जो सम्यक् ज्ञान है उसकी जड़ तो मिट जायगी । [ कोई ्हीं कटेगा कि
ये अनुभव हमे नहीं होते। सबोंको मानना पड़ेगा कि मोटा, पतला, काला,
गोरा का अनुमव सवोंको होताहै। यदि अत्मा ओर शरीरमे भेद ही है,
अभेद कभी नहीं तो ये वाक्य तेकते ह? ] उत्तरमें कंग कि टेसी बात
नहीं । इस प्रकार लौकिक या शाच्रीय वाक्यों मे, कहीं भी जव शष्द-प्रयोग हो
ओर मुख्य अभ संगत नहीं हो रहा हो तो “मंच चिज्ञाते है" इत्यादि वाक्यों की
तरह लाक्षणिक मानकर तो उन वाक्यों की सिद्धिहो सकती है। कारण यह्
है कि शब्दों का प्रयोग दोनों प्रकार से ( मृष्थ वृत्ति ओर गौणा वत्तिसे भी)
होते देखा जाता है। [ जिस प्रकार "मंच विज्ञाते है" इस वाक्य मे अचेतन
मंचो पर चेतन के धमं "चिल्लाने" काआरोप करते ह तब मुख्य वृत्ति से अर्थं
नहीं लगता ओर निदान लक्षणावृत्ति ( गौरा वृत्ति ) को सहायता छेनी पडती
है। उसी प्रकार भैण आत्मा पर शरीर के धमं मोटा, पतला आदि का आरोप
गौरा वृत्ति से होता है । से व्यवहार ( वाक्यप्रयोग ) असंमव नहीं है, उपपत्ति
( 10द0181807 ) से युक्त है । ]
न द्वितीयः । अहमञ्ुभवगम्यस्येव श्रुतिगम्यत्वात् । “सत्यं
४ च,
ज्ञानमनन्त ब्रह्म! ( तं° २।१।१ ) इत्यादिशरुतिभ्यो हि बरह्माव-
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७६२ सवैदशेनसंग्रहे-
गम्यते । ब्रह्मभावश्च “अहमात्मा ब्रह्म ( बर ° २।५।१९ ), 'तख-
मसि! (छा ६1८19) इत्यादिशरतिष्वहंमरत्ययगम्यस्येव बोध्यते ।
तथा चेदमलमानं सम्ठचि--विमतमजिज्ञास्यम् › असंदिग्ध-
त्वात् } करतलामरकवत् ।
दूसरा विकल्प [ किं श्रुति से ज्ञेय आत्मा कौ जिज्ञासा होती है] भी ठीक
नहीं । जो आत्मा "अहम्" के अनुभव से ज्ञेय है वही ध्रुतिसे ज्ञेय हो सकती हें ।
ब्रहम सत्य है, ज्ञान मौर अनन्त है" ( तै० २।१।१ ) इत्यादि श्वतियों से ब्रह्य
का ज्ञान होता है ओौर भँ आत्मा ह, श्रहय ह" ( बृ २।५।१९ ), "वह वुम्हीं हो"
( छं० ६।८।७ ) इत्यादि श्वुतियों मं "अहम्' कौ प्रतौति ( अनुभव ) से ज्ञेय
को ही ब्रह्म माना गया है । इस तरह निम्नोक्तं अनुमान की सूचना मिलती े--
( १) विवादास्पद ( आत्मा ) अजिज्ञास्य है ( प्रतिज्ञा )।
८ २ ) क्योकि इसके विषय मे कोई सन्देह नहीं है ( हेतु )।
( ३) जिस प्रकार हाथ मे विद्यमान आमलक-फल ( उदाहरण } ।
विदोष--यदि "अहम्" के अनुभव से गम्य (1९०९६०1९) तथा सांसारिक
सुखदुःख का भोग करनेवाला जीव हौ ब्रहम होता तो भी इन श्रुतयो मे विरोध
की आशा नहीं हो सकती -- "निष्फलं निष्क्रियं शान्तम्" ( शवे ° ६।१९ ), अप्राणो
ह्यमनाः" ( मं° २।१।२, ), सदेव सौम्येदमग्र आसौत् ( छा० ६।२।१ ) आदि ।
इन सवो मे सांसारिक सुख-दुःख, क्रियाओं आदि से आत्मा को पृथक् दिखाने कौ
चेष्टा कौ गई है । ब्रह्म के लक्षण इनमें नहीं है । वास्तव मेये श्रुतिर्यां जौव की
प्रशसा करने के लिए अर्थवादके खूपमें प्रस्तुत रहै । इस प्रकार संदेहामाव मे
आत्मा की जिज्ञासा नहीं होगी-पह कहा गया । भव प्रयोजन को असंभावना दिखा
कर वही बात सिद्ध करगे । इस प्रकार यह लम्बा पूर्वेपक्न कृ दूर तक चलेगा ।
(४ क. आत्मा की जिज्ञासा असंभव- प्रयोजन का अभाव )
तथा फलं न फलभावमीक्षते । पुरूपैरथ्येत इति व्युत्पस्या
(क प # $ # ६ |च
निःशेषदुःखोपद्यमलक्षितं परमानन्देकरसं च पूरूपाथेशब्दस्याथः
०६० चह, भ, श, 9 _ = ७ यैहिकरः
सकलपुरूषधोरेःप्रप्स्यते नेतत्सांसारिक सुखजातम् । तस्याहकसय
पारलोकिकस्य च सातिश्चयतया च सदक्षतया च ्रक्षावदह्धिरथ्य-
मानत्वानुपपत्तेः । यत्तत्परिपन्थि दुःखजातं तजिहास्यते । तचा-
प्रपयोयसंसार @
विद्या एव । कर्तत्वादिसकलानथेकरत्वादविद्यायाः ।
शांकर-दशेनम् ७६३
उसी प्रकार [ आत्मा की जिज्ञासा का कोई प्रयोजन या फल भी नहीं ह]
जिते फल आप लोग सम्लते है वास्तव मे वह् फल (प्रयोजन) हो ही नहीं सकता ।
[ अब जिसे आप लोग फल समन्लते है उसका हम उल्लेख करते है -- |
रुषो के द्वारा जिसकी कामना ( </अथ-धातु } की जाय"--यही ब्युसपत्ति है,
इससे सभी अच्छे-अच्छे लोग पुरुषार्थं शब्द का अथं वहु फल लेते ह जिसे सभी
दुःलोका शमन हो जाय तथा परमानन्दकाही एकमात्र रस मिलता रहे ।
इस सांसारिकं सुख-समूह का अ्थंवे लोग [ परुषा्थंसे कमी ] नहीं लेते ।
मुख चाहे हिक हो या पारलौक्रिक--उसमे अतिशयता ( एक से बढ़कर दसरा
मुख होना, तःरतम्य, ७8080 ) तथा सादृश्य ( उसकी तरह का दूसरा
सुख होना, 701) होने के कारण बुद्धिमान् लोग उसकी कामनां
कभी नहीं कर सकते । [ सली सुखो मे तारतम्य लगा हू है । नौकरी पाने
का सुल राज्य पाने के सुख से घोटा है । राज्यसुख स्वर्गुख के सामने कुच भ
नहीं । इससे लगता है कि स्वगंकासुखभी किसीकी अपेक्षा छोदाहीहै।
सुख के समन दूसरा सुख भी भिलता है । इसीलिए विद्वान् लोग निरतिकश्चय तथा
निरुपम आनंद की कामना करते है जिसमें तनिकभी दुःख की संभावना
नहीं रहे । | |
जो कु भी [ उस परमानंदका] विरोधो दुःखसमृहु है उसे छोडने की
कामनाकीजाती है । वह दुःखसमृह गौर कुछ नहीं, यह संसार ही है जिसका
दसरा नाम अविद्या भीहे। कारण यह हैकि अविद्या ही कतत्व आदि सभी
अनर्थो को उत्पन्न करती है, [ अविद्याके कारण ही प्राणी अथं में अनर्थं ओौर
अनथं में अथं की कल्पना करता दहै। वह वास्तवमे किसी वस्तु का उत्पादक
नहीं है, अविद्या के चलते हौ वस्तुओं की उत्पत्ति केवल प्रतीत होतो है परन्तु
पुरुष अपने को ही कर्ता समञ्लने लगताहै। यह सब अविद्याके कारण
होता है । ]
समित्येकीकरणे वतेते । सम्भेदादौ तथा चोपलम्भात् ।
तथा चात्मानं देहेनैकीड्त्य स्वगेनरकमागयोः सरति येन पुरुषः
स संसारोऽवि्याशब्दाथेः । तन्निवृत्तिः फः फलवतामभिमतम् ।
तथा कथितम्-
अविद्यास्तमयो मोक्षः सा च बन्ध उदाहतः । इति ।
| संसार-शब्द में | सम्" उपगं एकीकरण ( {1100810 ) के अर्थं में
है जेसे संभेद; [ संगम ] आदि शब्दो में पाया जाता है। इस प्रकार आत्मा को
७६४ सवेदशेनसंग्रहे-
देह से एक मानकर स्वर्गं ओर नरक के मार्गो पर पुरुष जिसके द्वारा चलता है
{ सरति ) वही संसार है जो अविद्या शब्द का अथं है। इस संसार कौ निवृत्ति ही
[ आत्मजिज्ञासा का ] फल है, ठेसा फलवादी ( वेदान्ती ) लोग मानते है । जेसा
कहा भी है--अविद्या का अस्तंगत होना मोक्ष है ओर अविद्या ही बन्धन मानी
गयी है ।'
विशरोष-इन दो परिच्छेदं मे पवंपक्षियों ने ब्रह्मजिज्ञासा का सम्भावित
( {0881016 ) प्रयोजन उद्धृत किया है जो वेदान्तियों की ही मान्यता है । अब
वे पूर्वपक्षी यह दिखलायेगे कि वास्तवमें यह प्रयोजनदहै ही नहीं । उसके
प्रदशेन के बाद कहीं इस लम्बे पूरवंपक्ष का अन्त होगा ।
तच काशचङुञ्चावलम्बनकरपम् । आत्मयाथात्म्यानुभवेन सह
वतेमानस्य संसारस्य रूपरसवद्विरोधाभावेन निवत्य॑निवतंक-
भावात् । ननु सहालुवतंमानो बोधः संसारं मा बाधिष्ट । सहावतं-
मानस्तु बोधः प्रकाशस्तमोवद्वाधिष्यत इति वचेत्--तदेतद्रिक्त
वचः । अहमनुभवादन्यस्यात्मज्ञानस्य मूषिकविषाणायमा-
नत्वात् ।
[ अत्मजिज्ञासा के लिए "संसार की निवृत्ति" को प्रयोजन के रूप मं रखना |
ठीक वेसाहीरहि जेसे इबने वाला आदमी काशया कुश के पौषे को पकड कर
बचना चाहे । आत्माके यथाथं अनुभवके साथ यह संसार चलतादहै।
[ प्राणी को आत्माका जान संसारमें रहकरही होतादहै ज्ञेसे उसे आन्तर
सुख आदिका ज्ञान होताहै।] नेसे रूप-रस आदि का बोध [ इसी संसारमें
रहकर होता है वैसे ही आत्मा का यथार्थज्ञान भी यहींसेहोगा। दोनों के
बीच | कोई विरो नहींहै। इसलिए [ संसार भौर आत्मज्ञान के बीच |
निवत्यं ( संसार ) ओर निवतंक ( आतमन्ञान ) का संबंध नहीं हो सकता।
[ यदि रूप-रसादि के ज्ञानसे संषार की निवृत्ति नहीं होती तो आत्मज्ञान से
भी नहीं होगी-दोनों की ज्ञान-विधि में कोई अन्तर नहींदहै।|
दाका-मान लिया कि संसार के साथ अनुवर्तितं होने वाला [ = अहम्'
केरूपमें | आपमज्ञान संसार की निवृत्ति भले हीन करे किन्तु साथ-साथ
आवतित होने वाला ( = शुद्ध अद्वितीय आत्मा के स्वरूपका ) ज्ञान तो संसार
की निवृत्ति कर सकेगा जेसे प्रकाश अन्धकारको हटा देता है ? उत्तर-यह
तकं बिल्कुल खोखंला है । अहम् के अनुभष के अतिरिक्त किसी आत्माका ज्ञान
होना चै की सींग की तरह ही असंभवदहै।
शांकर-दशेनम् ७६५
नन्वन्योऽयमनुभवः पामराणां मा स्म भवन्नाम । वेदान्त-
वचननिचयपयीलोचनक्षमाणां परीक्षकाणां संभवत्येवेत्यपि न
वक्तव्यम् । अवाधितानुभवविरोधेन वेदान्तवाक्यानां प्रावप्लव-
नादिवाक्यकःस्पत्वात् । न द्यागमाः परःशतं षटं पटयितुमु-
त्सहन्ते ।
इस पर आप लोग ( वेदान्ती ) कह सकते हैँ करि [ अहम् के सामान्य
अनुभव से | यह अनुभव भिन्न है [ तथा "सदेव सौम्येदमग्र आसीत्" ( छां°
६।२।१ ) इत्यादि श्रुतिवाक्यं से शुद्ध अद्वितीय आत्मा के स्वल्प का अनुभव
होता ह 1 ] यह अनुभव मूर्खो को भले ही न हो किन्तु जो परीक्षक ( बुद्धिमान्
पुरुष ) वेदान्त के वाक्यों कौ पर्यालोचना मे समर्थं है उन्ंतो हो सकतारै?
किन्तु हम करेगे कि एेसा मी कहना नहीं चाहिए । हमारा अनुमव [ कि अहम्
ओर इदम् मे पाथंक्य है यह ] अबाधित है ( प्रमाण है), उसका विरोध करने के
कारणा वेदान्त के वाक्य भी “पत्थर तरते है" इस वाक्य की तरह [ अप्रामाणिक
ह । हमारा अनुभव कहता है कि आत्मा ओौर जड़ दो पदां है। दसरी ओर
इस अनुभव का विरोध “सदेव सौम्य०' आदि से होता है जिसमें एक तच्व--
अद्वितीय आदमा का ही प्रतिपादन है। जो वाक्य हमारे अनुभव के विरुद है वह
प्रमाण नहीं है । आप लोग आगमो की अचिन्त्य शक्ति मं विश्वास रखते हँ कितु]
सौसे ऊपर आगम मिलकर भी किसी साधारण घटको पटके रूपमे परिणत
नहीं कर सकते ।
न चाध्ययनविधिव्याकोपः। गुरुमतानुसारेण हंरडादि-
वाक्यवत् जपमात्रोपयोगित्वेनाचायेमतानुसारेण वा "यजमानः
न
प्रस्तरः" ८ तै० त्रा २।३।९ ) इत्यादिवाक्यवत् स्तावकत्वेन
ेदान्तसिद्वान्तस्याध्येतव्यत्वसम्भवात् । तथा च प्रयोगः--
विवादास्पदं ब्रह्म विचायंपदं न भवत्यफलत्वात्काकदन्तवदिति ।
[ हमारे पक्ष को मानने पर भी ] अघ्ययन-विषि ( 'स्वाध्यायोऽध्येतव्यः' ते°
आ० २।१५- यह विधि ) की प्रवृत्ति में रुकावट उत्पन्न नहीं होगी । | शंकाकार
के कहने का तात्पयं यह है कि अध्ययन का उपयोग इसी में है किं अथंज्ञान प्राप्त
करके कमं मे उसका उपयोग करे । जो वाक्य असम्भव अथं का निदेश करते है
उनका तौ उपयोग ही नहीं हो सकेगा । जेसी किं आप पूवंपक्षियों की मान्यता है
ये वाक्य असम्भव अर्थो का प्रतिपादन करते है । इसलिए उनका अध्ययन तो
७६६ सवंदशनसंग्रहे-
निरर्थक हो जायगा । एेसी अवस्था में स्वाघ्यायोऽष्येतव्यः' की विधि व्यर्थंहो
जायगी । पर पूर्वंपक्षी कहते हैँ कि एेसी समस्या नहीं होगी ।| गुरुमत के अनुसार
हुं फट्” आदि वाक्यों की तरह [ उक्त श्रुति-वाक्यो का | उपयोग केवल जप् के
लिएदहीहै। दूसरी ओर आकायं ( कुमारिल ) के मतके अनुसार यजमान
पत्थर हि ( तै° ब्रा० ३।३।९ ) इत्यादि वाक्यों कौ तरह [ उक्त श्रुतिवाक्यों
का] उपयोग विधि-वाक्यों कौ केवल स्तुति करने भरके लिए है--अतः
वेदान्त ( उपनिषद् ) के वाक्यों को तो हम भी अध्येतव्य मानतेहीदहै।
इसीलिए तो हम अपना अनुमान देते है--
( १) विवादास्पद (प्रस्तुत ) ब्रह्य विचारका विषय नहींहो सकता ।
( प्रतिज्ञा }
( २ ) क्योकि इसके विचार का कोई फल नहीं है। ( हेतु )
(३) जैसे कौएके दांतों का। ( उदाहरण)
विरोष- हम जानते है करि मीमांसा-द्यंनकी दो शालायं ह--गुरुमत
ओर भाद्रमत । गुरुमत के अनुसार अध्ययन-विधि अपूवं विधि नहीं है । प्रत्युत
अध्यापन-विधि का ही अनुवाद है। अध्यापन-विधिमें केवल पाठकीदही प्राति
होती है, अर्थंबोध की नहीं । इलिए विधि की आवद्यकता के अनुसार सवत्र
अर्थज्ञान की आवदयकता नहीं है । यदि अथं सम्भव दहै तो उसका ग्रहण करं ।
यदि सम्भव नहीं तो उसे त्याग दं । इनका उपयोग “हुं फट्" आदि अर्थंहौन मन्त्रो
की तरह केवल जप के लिए है।
॥
1
+
त
॥
॥ । ॥
भाद्र-मत के अनुसार अघ्ययन-विधि को प्रवृत्ति अ्थज्ञानरूपी टृष्फल के
लिए होती है। अर्थं सर्वत्र है। जहाँ वेदों मे वाच्याथं संभव नहीं वहाँ पर
"यजमानः प्रस्तरः" की तरह अर्थवाद मानकर लक्षणा से अर्थंबोध करते हुए उन
वाक्यों में स्तुति मानते है । इसलिए किसी भी दशा में--जप के लिए या स्तुति
के लिए श्रुतिवाक्यों का उपयोग रहेगा ही । ब्रह्म के प्रतिपादक वेदवक्यकाया
तो जप ( {९४8४071 ) के लिए उपयोग है या जीव की प्रशस्ति के बोध
के लिए । जीव यज्ञादि का कर्ताया उपास्य देवता हो सकता है । स्पष्टतः यह
मीमांसकों कौ ओरसे वेदान्तवाक्यों का तात्पयं-निरूपण ( 10601618.
107 ) है।
काक-दन्त पर एक लोकोक्ति दी गद है-
काकस्य कति वा न्ता मेषस्यारडं कियत्पलम् ।
का वार्ता सिन्धुसौवीरेष्वेषा मूखंविचारणा ॥
इसमे असंभव तथा अनर्गल वातो का संकलन किया गया है ।
= = "जार. = ~ क - ==
कच ~ -. => ~ -- --
= क
" = ` मि से च
- शां कर-दशनम् ७६७
तदाहुराचायाः--
। ८ +
ए २ त्मनः सिद्धेस्तस्यंव ब्रह्मभावतः।
तज्जञानान्पुक्तय भावाच्च जिज्ञासा नावकट्पते ॥ इति ।
न च भेदेनाध्यस्तदेहादि निवृत्तिः फरमित्यफलत्वहेतरपिद्र
इति वेदितव्यम् । भेदग्रहो हि व्यापकनिदृच्या व्याप्यनिधृत्तिरिति
न्यायेन भेदाग्रहपरिपन्थिनं भेदसंस्कारमपेक्षते । अनाकलितिकल-
` धौतस्य शुक्तिशके तत्समारोपानुपरम्भात् ।
आचार्यो ने इसे कहा भीदहै-- (१) चरंकि अहम्" की प्रतीतिसे अत्मा
की सिद्धिहो जाती है, (२) वही आत्माब्रह्मकेरूपमेंतिद्धहै, (३) उस
आत्मा को जानने से मुक्ति होने को नहीं है--इसलिए ब्रह्म की जिज्ञासा करनी
चाहिए, ेषा प्रदन नहीं दिख लाई पडता । [ इस इलोक में पूरवंपक्न का उपसंहार.
सा लगता है यद्यपि अभी इसके कु खणड बाकी ही है । |]
[ वेदान्ती लोग कह सकते हैँ कि अद्वितीय ब्रह्मे] भिन्न लूपमेंजो
देहादि पदार्थो का आरोपण होता है ( प्रतीति होती है), उसकी निवृत्ति ही
[ ब्रह्मजिज्ञासा का ] फल है, अतः उपयुक्त अनुमान में दिया गया हेतु "क्योकि
इसके विचार का कोई फल नहीं है'- असिद्ध है । किन्तु [ पूर्वंपक्षी कहते है कि |
एेसा नहीं समञ्लना चाहिए ।
व्यापक की निवृत्ति से व्याप्य की निवृत्ति होती है इस नियमसे भेदका
ग्रहण ( & [0९९16७10 0 011816९6 ) मेद के अग्रहण ( अज्ञान ) के
विरोधी भेदसंस्कार की अपेक्षा रखता है । [ उपयुक्त न्याय से ही धूम अग्निकी
अपेक्षा रता है । अगि व्यापक है ओौर धूम व्याप्य । यदि अभिनहोतो
धमकी प्राति ही नहीं होगी । उसी तरह मेदग्रह या भेदाघ्यास भेद के संस्कार
की अपेक्षा करता है । यदि भेदसंस्कार (व्यापक )न होतो मेदाव्यास होगा
ही नहीं । मेदसषस्कार भेद के अग्रह का नाश करके भेदाध्यास उत्पन्न करता है ।]
रजत का संस्कार बिना रहे हुए शुक्ति ( सीपी ) के टुकड़े पर उसके आरोपण
को संभावना नहींहै। [ जिस समय कहते ह कि यह रजत है तो रजत का
संस्कार उत्पन्न होकर रजत के अज्ञान का नाश्च करके सीपी पर, अथथा्थंरूपमें
ही सही, पर रजत कीं प्रतीति करा देता है । रजतं का संस्कार यदि उत्पन्न नहीं
होगा तो रजत की प्रतीति भी नहीं होगी । इसे आगे बढ़ाते है । |
संस्कारश्च प्रमितिमाकाद्कति। अननुभूते संस्काराजुदयात्। न
नि
७८ सबेदशेनसंम्रदे-
च भ्रान्तिरूपोऽनुभवस्तत्करणमिति भणितव्यम् । ्रान्तेरभ्रान्ति-
ूर्वकत्वेन क्चितप्रमितेरवश्याभ्युपगमयितव्यत्वात् । प्रयोग
विमतावात्मानामानौ भेदेन प्रमितावभेदायोग्यत्वात् । तमः-
प्रकाश्चवत् ।
उपर्युक्त संस्कार यथाथं अनुभव ( प्रमिति ५१९] €इ 06116766 } की
अवेक्षा रखता है वयोकि जिस वस्तु का अनुभव ही नहीं किया गया है उसका
संस्कार भी नहीं जागृत हो सकता । [ यद्यपि कहीं-कहीं अयथा्थं अनुभव सेभो
संस्कार कौ उत्पत्ति देखते है तथापि वह अनुभव मी किसी संस्कारकेही वाद
होगा--अतः कहीं न कहीं यथाथं अनुभव कौ आवरयकता पडी [ही होगी ।
इसलिये यहाँ भी मेदसंस्कार को उत्पन्न करने वाला पहला भेदान मव यथाथंही
मानन) पडेगा । दकि यह ॒भेदानुमव यथाथ है इसलिए ब्रह्म का विचारया
जिज्ञासा करने से भी उसकी निवृत्ति सम्भव नहीं है । ब्रह्मविचार करना निष्फल
हो गया अतः हमारे अनुमान मे जो 'निष्फल' हेतु दिया गया था वह असि
नहीं है । इसे आगे स्पष्ट कर रहे ह|]
| ठेसा नहीं कहा जा सकता कि रान्ति के रूप मे होनेवाला ( = अयथार्थ }
| अनुभव ही संस्कार की उत्पत्ति का साधन है ( संस्कार को उत्पत्ति कहीं-कहीं
| अयथाथं अनुभव से होती ठे, यह कहना ढीक नहीं = इसका भी उत्तर दे सकते
| ह) । भ्रान्ति के पूवंमें मी अश्रान्त ( यथाथं अनुभव ) रहेगी ही--अतः कहीं
| न कहीं प्रमिति ( यथां अनुभव ) को आवर्यक रूप से स्वीकार करनाही
| पडेगा । इसके लिए अनुमान भी है--
| | ( १ ) विवादास्पद ये दोनों आत्मा ओर अनात्मा भिन्न हशूपमे ज्ञात
॥ होती ह । ( प्रतिज्ञा )
( २) क्योकि ये अभेद के यीग्य नहीं है । ( हेतु )
| (३ ) जसे अन्धकार ओर प्रकाश [अभेद के योग्य नहीं है] । ( उदाहरण )'
न चात्मानात्मनोरभेदायोग्यत्वलक्षणो देत्रसिद्ध॒ इति
शङ्कनीयम् । विकल्पासहत्वात् । तथा हि--अनात्मात्मपरिशेषः
स्यादातमानात्मपरिरेषो वा १ आधे ुक्तिदशायामिय परिटर्यमानं
जगदस्तमियात् । द्वितीये जगदान्ध्यं प्रसज्येत ।
अपर जो "आत्मा ओौर अनात्मा में अभेद ( एकरूपता ) की अयोग्यता के
रूपमे हेतु दिया गया है वह असिद्ध है, एसी शंका नहीं करं । कारण यहीः
=
कि) = क क ग्व
न्द, 8198 भ , [अ 0 ~ कन
=
£+“
शांकर-दशंनन ७६६
है क्रि नीचे दिये गये विकल्पों मे किसी को सहना इसके लिए (शंका के लिए)
कठिन है । वे विकल्प ह--क्या अनामा आत्मा का परिशेष (अंग) हैया
आत्मा ही अनात्माका परिशेष (अंग) है? [जोलोग शंका करतेदहैकि
मात्मा भौर अनात्मा में जो अभेद की अयोग्यता है वह अघिद्ध है-- उनसे यह
पूछे कि यदि उन दोनों मे अभेदकी योग्यता तोवे अभिन्न होगे--एक का
लय दूसरे में होगा, जसे जल में नमक कालय होता है। अब कहं करि किसमें
किंसका लय होताहै? आत्मामें अनात्माकाया अनात्मा आत्माका?
दूसरे शाब्दं मे, केवल आत्मा ही अवशिष्ट रहती है या अनात्मा ? ] यदि आत्मां
ही अवशिष्ट रहती है तो जेसी बात मुक्तिकी दशामे होती है उसी तरह यह्
हडयमान जगत् समाप्त हो जायगा । [ मृक्तिकी दशा में केवल आत्मा ही ब्चत्ती
है, संसार की निवृत्ति हो जाती है । यही दशा सदा रहती । | यदि अनात्मा ही
अवशिष्ट रहती है तो समूचा संसार [जड हो जाने के कारण] अंघा हो जायगा ।
तमःप्रकाश्चवद्धिरुद्रस्षभावत्वाच्च दण्टश्ययोरारमानात्मनोर-
भेदायोग्यत्वमवधेयम् । ततश्चा्थाध्यासानुपपत्तौ तत्पूवंकस्य
ज्ञानाध्यासस्यासं मवेन ब्रह्मणो विचायेत्वासंभवाहिचारातिमिका
चतुरुक्षणशारीरकमीमांसा नारम्भणीयेति पूर्वपक्े प्राप्ते सिद्वा
न्ताऽभिधीयते-
| उपयुक्त विकल्पो को न सहने के अतिरिक्त) अन्धकार भौर प्रकाश की
तरह परस्पर विरुद्ध स्वभाव होने के कारणा भी, टक् ओर दृश्य में अर्थात् आत्मा
मौर अनात्मा में अभेद (तद्रूपता) होने की अयोग्यता है, यह मानना हौ पडेगा
इसलिए [ अत्मा पर | वस्तुओं के अध्यास (311€-100008;400) की
सिद्धि नहीं होती । [ आत्मा गौर जड में ताद्रूप्य की योग्यता ही नहीं कि एक
पर दसरे का अध्यास हो । | यही नहीं, उसके आधार पर [ आत्मामं जो प्रपंच-
विषयकं लौक्रिक | ज्ञान है उसका अध्यास भी संभव नदहीं। अतः ब्रह्म विचार
के योग्यै ही नहीं । फलतः विचारके रूपमे जो चार अध्यायों वाली शारीरक-
मीमांसा ( ब्रह्मसूत्र ) बनायी गई है, उसका आरम्भ नहीं करना चाहिए ।
इस पूवंपक्ष के आने पर अबहम सिद्धान्त का वर्णन करते है ।
विरोष-अधिकरण मे तीसरा अंग पूर्वपक्ष होता है। ब्रह्मजिज्ञासा-
अधिकरण ( प्रथम सूत्र ) का पूर्वपक्न बहुत दूर तकर निरूपित हुआ । इसमे दो
मख्य बातं थीं- ब्रह्मजिज्ञासा के लिए संदेह क? अभाव ओौर उसके लिए प्रयोजन
का अभाव । दोनों क्षो पर वादी-प्रतिवादीके तर्काका उत्थापन करते हृए
४६ स° सं
७७० स्वदशेनसंग्रदे-
विचार किया गया है। इस प्रसंग में वेदान्त कै दृष्टिकोण पर भो काफी प्रकाश
चडता है । अब उत्तरपक्ष का विचार करते कि ब्रह्मजिज्ञासाका आरंभ
करना चाहिए ।
( ५. ब्रह्म-जिज्ञासा का आरम्भ संभव-उत्तरपक्च )
अहंपदाधिगम्यादन्यदातमतच्वं नास्तीति न वक्तव्यम् ।
निरस्तसमस्तोपाधिकस्यात्मतच्चस्य श्रुत्यादिषु प्रसिद्धत्वात् । न
च तेपायुपचरिता्थैता । उपक्रमोषसंहारादिषड्विधतात्पयणिङ्ग-
वत्तया तत्वं बोधयताधुपचरिताथंतवानुपपततेः । लिङ्गषट्कं च
पूवीचायदेरितम्-
३, उपक्रमोपसंहारावभ्यासोऽपूेता फलम् ।
अर्भवादोपपत्ती च लिङ्गं तात्पयनिणेये ॥ इति ।
एेसा नहीं कहना चाहिए कि "अहम्" शब्द के दारा जिखका ज्ञान होता दै
उसके अतिरिक्त आत्मानाम का कोई तत नहीं । वास्तव में आत्मां उससे
भिन्न है जो श्रुति में प्रसिद्ध है।|
जिसकी सारी उपाध्रियां नष हो गई है वह आत्मतत्त्व श्रुति आदि में प्रसिद्ध
है । [ अहम" की प्रतीति से ज्ञेय जो जीवात्मा है वह सोपाधिक है, इसीलिए तो
"अहम्" के रूपमे प्रतीत होती है । अहंभाव आदि समी धर्मं ओौपाधिकरहै।
"सदेव सौोम्य०' आदि श्रुतिवावयों मे जो प्रसिद्ध है वह् निरुपाधिक आत्मतच्व है
तथा ब्रहमाके रूपमे है--जीवो ब्रहौव नापरः", निरुपाधि जीव या जात्म ब्रह्म
ही है। इसीलिए उसका निर्चय करने के लिए ब्रह्मजिज्ञासा करनी आवरयक
हे । | उन श्रुतिवाक्यों को उपचार ( लाक्षणिक, गौर, अर्थवाद / के अथंमें
लेना ( = जीवात्मा की प्रशंसा के रूप में मानना | उचित नहीं है । उपक्रम,
उपसंहार आदि छह प्रकार के लिग ( साधन) हैजो तात्पथं का निर्णय करते
है, इसलिए उनसे जब तत्तव ( निरूपाचि, अद्वितीय तथा शुद्ध ब्रह्म) का बोध
करो तो उन श्रुतिवावयों मे उपचार-अर्थं असिद्ध हो जायगा ।
पहने के आचार्यो ने इन छह प्रकार के लिगोंका निर्देश कियाहै--
“उपक्रम, उपसंहार, अभ्यास, अपूता, फल, अर्थवाद ओर उपपत्ति-ये तात्पयं
कानिणंय करने के लिए लिग ( साधन) है।' [ यद्यपि इन्दे जागे समज्ञाया
गया ह, पर संक्षेप में इनका अथं देख तं । किसी प्रकरण में जिस विषयका
प्रतिपादन करना है उसका उल्लेख प्रकरण के आदि मे करना उपक्रम
(एप्र.०तपरल्् ०) है, प्रकरण के अन्त मे करना उपसंहार (071५5101).
शांकर-दशेनम् ७७१
है। ये दोनों भिल करके तात्पयं-निशंय के साधनं बनते हैँ । उपक्रम ओर
उपसंहार में किसी विषय का प्रतिपादन देखकर परे प्रकरण का प्रतिपाद्य विषय
समज् मे आता है तथा उस प्रकरण के क्रिसी वाक्य का तात्पयं भी उस संदभंमें
लग जातादहै। प्रकरणाके प्रतिपाद्य विषय का प्रतिपादन यदि प्रकरणमेंही
बीच मे बार-बार करं तो वह अभ्यासं ( 1र९ृ€४ धं ) कहलाता है ।
तात्पयं के निरूपणा मे इशषसे भी काफी सहायता मिलती है । जब प्रकरणा का
प्रतिपाद्य विषय क्िषीभी दरसरेप्रमाणसे ज्ञात न हो तो उसे अपूता
( (्मप्शर्ला1688 ) कहते ह । प्रकरण मे जहा-तहां सुनाई पड़ने वाला
प्रयोजन फल ( 2010086 ) है । प्रकरण के प्रतिपाद्य विषय कौ प्रशंषा
करना अथंवाद् ( एपा०९४ ) है । जिससे प्रकरण के प्रतिपाद्य विषय की
सिद्धि हो तथा जो जह-तहां सुनाई पडे वह युक्ति उपपत्ति ( {21007 ) है ।
प्रकरणा का तात्पयं इन्हीं छह लिगो से निर्णीत होता है । |
विशोष--इन छह लिगों ऊ बल पर शंकराचायं छान्दोग्योपनिषद् के
निष्ट अंश के प्रकरणा को ब्रह्मपरक मानते हैँ । यह उदाहरण मात्र है । विशेष
विवरण के लिए उक्त उपनिषद् का छठा प्रपाठक देखना अनिवायं है ।
(५ क. उपक्रम आदि लिगौ के उद्ाहरण--आत्मा कौ सिद्धि ).
तत्र “सदेव सोम्येदमग्र आसीत्" ( छा० ६।२।१ ) इत्युप-
क्रमः । “देतदात्म्यमिदं सवं तत्सत्यं स आत्मा, तमसि धेत-
केतो, ( छा ६।८-१६ ) इत्युपसंहारः । तयोर्हमविषयत्वेन
एेकरूप्यमेकलिङ्गम् । असष्रत् (तत्वमसि ( ६।८-१६ ) इत्य
क्तिरभ्यासः । मानान्तरागस्यत्वमपूेत्वम् । एकविज्ञानेन स्व-
विज्ञानं फलम् ।
उनमें है सोम्य ] सबसे पहले यह सत् ही थाः ( छां० ६।२।१ ) यह उप-
क्रम है [ दकि छ्ांदोग्योपनिषद् के षष्ठ प्रपाठक में प्रकरण के आदिमेंहीदहै
तथा निरूपाचिक केवल सत् के रूपें विद्यमान, अद्वितीय ब्रह्म का प्रतिपादन
करता है । | थह सज कुद्ध उसके रूप में ही है, वह सत्य है, वह आत्मा है ओर
हे वेतकेतो ! वह तुम ही हो" ( छां ६।८-१६ तक प्रत्येक खंड के अन्त मे नौ
बार }--यह उपषंहार है। ये दोनों लिङ्ख ब्रह्य के विषयमे होने के कारण एक
रूप एक ही प्रकारके लिङ्खह। वह तुमही हो" रेसा अनेकं बार कहना
अभ्यास है । [ च्छे अध्याय या प्रपाठकमे सेनो बार कहा गया है । प्रत्येक
खंड का उपसंहार करते हृए् तत्वमसि" कहा गया है । |
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७७य् स्बेदशेनसंग्रहे-
दूसरे प्रमाणा से बज्ञेय होना अपूवैता है । [ अद्वितीय आत्मा को ८.५4
प्रमाणो से मी जान सकते है । परन्तु उसका प्रद्ैन नहीं हज है, =
ओपनिषद पुरुष को पूछता हू! ( बृ° २।५। २६ ) इत्यादि वाक्य ज
करते है कि उस पुरुष का ज्ञान उपनिषद् के अतिरिक्त कि भी दूस ४
से नहीं हो सकता । | उसी प्रसंग मे, एक के जानने से सबोंका ज्ञान ध त
ठेखा कहा गया है [ जसे, येनाश्रुतं श्रुत भवति (छं ° ६।१।३) तथ अ!
यही फल है ।
सृष्िस्थितिप्रलयग्रवेशनियमनानि पश्चाथवादाः } गदा(द-
रि च, ०१ # निः यशु
दृष्टान्ता उपपत्तयः । तस्मदेतंरिङगवे दान्तानां पच द्रबुद्रयक्त
¦ स्वभावव्रह्मात्मपरत्वं निशऽ्चेतव्यम् । तदित्थमौपनिषदस्यात्म-
त्वस्याहमनुभवेऽनवभासमानखात्तस्याजुभवस्याध्यस्तार त्मविषय
त्वं # क । | | £
क ), स्थिति ( 5७१९०५१0 ), र ( त ५
{07 ), प्रवेक ( “1४18110 \ तथा नियमन ( (७८४० १२ {
के विषय में दिये गये ] पाच अर्थवाद है \ [ यद्यपि ब्रह सत्, निर व स
है किन्तु सगुण का आरोप करके उसकी कतिपय शक्तियो की 2 र्जा ४ ५
न हई ३ । वह अर्थवाद है। तदेक्षत बहु स्यां भ्रजाथेयेति तत्ते जोऽपुजत ध
६।२।६ ) मे अद्वितीय ब्रह्म से सृष्ि का व्णंन किया गया है 1 | = ४
सौम्येमाः सर्वाः प्रजाः सदायतनाः सत्प्रतिष्ठाः" ( छां ६।८।४ ) नण ~ ।
जर नियमन दोनों का वन दै । "तेजः परस्या देवतायाम्" ( छां ° ६। न
ञं च्रलय का निरूपण है । “इमास्तिललो देवता अनेन त र
नामल्पे व्याकरवाणि" ( छां ° ६।३।२ )--इ्मे प्रवेद न ध £ ५ श
प्रकार श्रति में निरूपित पृष्ट आदि क्रियाभों के द्वारा ब्रह्य क ट्
मृत्तिका आदि के दृष्टान्त उपपत्ति है । [मिवत वस्तु र ७ ष
उक्त प्रसंगमे पिटीका उदाहस्सय दिया गयादहै किं केवल ॐ: +
तेने से मिद्ध के बने सभी पदार्थो का ज्ञान हो जाता है ५ 4
खिलौना, घडा, सुराही आदि- केवल वाणी के खेल ह । विभिन्न प
जानि के कारण ये विभिन्न पदाथं नही है--सत्य तो केवल 6 भ
प्रकार सारे पदार्थोके नाम अर खूप भ्रम, वाणी के विका ५,
केवल ब्रह्म है । उसी के अध्यस्त रूप ये पदां है। युक्ति ही ध
देलिये _ “यथा सौम्यैकेन मूत्पिरडेन सवं मृरुमयं विज्ञात स्याद्वाचारम्भणं
[क्व = र १ 4
शांकर-दशनम् ७७
नामधेयं मृत्तिकेत्येव सत्यम् ।' ( छां ० ६।१।४ ) } इस प्रकार विभिन्न उपनिषदों
मे मीखहलिङ्खोका निरूपणा हज है। इसके स्पष्ट विवरण के लिए वेदान्त-
सार देखं । |
इस प्रकार इन लिगोंसे यह निश्चय कर लेना चाहिए क्रि सभी उपनिषदों
( वेदान्तो } का तात्पयं नित्य, शुद्ध, बुद्ध ओर मुक्तं स्वभाव वाले ब्रह्मको
आत्मल्प मे दिखाना है। तो, इस तरह उपनिषदों में प्रतिपादित जो आत्मतत्व
है वह अहम्" के अनुभव में प्रतीत नहीं होता। [ हमारा अहम् का अनुभवः
जात्मा नहीं है । आत्मा शुद्ध वहो है जो उपनिषदों में प्रतिपादित है। | इसलिए
यह सामान्य अनुभव अध्यस्त { आरोपित ) आत्मा के विषमे, यह सिद्ध
हा । [ आत्मत्व का आरोप देहादि पर होतादहै। उसी से संबद्ध प्रतीति
हमें "अहम्" के खूप में होती है, शुद्ध आतमा को नहीं । यह आरोपण भ्रममूलक
है। जेते ्चादीके रूपमे सीपी प्रतीत (अवभासित) होती है, उसी तरह
आत्मा के रूपमे देह प्रतीत होती है। कुछ लोग॒कह् सक्ते है किं "अहम्" के
अनूमव में निविशेष ब्रह्मका अवभास भलेहीन हो किन्तु जीवात्मा की प्रतीति
तो होती होगो । वैशेषिक-दशेन में ब्रह्म से भिन्न जीवात्मा स्वकृत भी है जो
प्रन्येक शरीर के लिए भिन्न-भिन्न है ओर विश्चेषणयुक्त है। इसलिए "अहम्" का
अनुभव आरोपित आत्मत्व से युक्त देहादि के विषय में होता है। परन्तु यह
कहना युक्ति-युक्त इसलिए नहीं है क्रि ब्रह्मसे भिन्न जीवात्मा के लिए कोर
श्रमाण ही नहीं।|
( ६. अत्मा का अध्यास-वेरोषिक-मत की परीक्चा )
कणभक्षाक्षचरणादिकक्षीकृतस्यारमनो भानाभावादहमनु-
भवस्याध्यस्तात्मविषयत्वमेषितव्यम् । न तावदहमुभवः सवं-
गतत्वमात्मनोऽवगमयितुमिषटे । अहमिहास्मि सदने जानान इति
प्रादेशिकल्वग्रहणात् । न चेदं देहस्य प्रादेशिकत्वं प्रतिभासत
इति वेदितव्यम्! अहमित्युेखायोगत् ।
कणाद या गौतम आदि के द्वारा स्वीकृत जो अत्मा है उसको भी प्रतोति
{ अहम्" के अनुभव से ] नहीं होती है अतः "अहभ्" के बनुमव को अध्यस्त
आत्मा का दही विषय समक्ना चाहिए । [ अब यहु दिखलाते है कि न्याय-
वेरेषिक मे स्वीकृत अत्मा का प्रतिभास क्यों नहीं होता-- | यह “अहम्'
का अनुभव भात्मा के विभुत्वं का बोध नहीं करा सकता। [ स्मरणीय है
कि वंरोविक-द्छन में अ।त्माको विभु मानते । "अहम्" के अनुभव में विभ्रुत्व
वि
७७४ सर्व॑दशेनसंमरहे-
काकहींलेश भी नहींहै। अतः वैशेषिको के द्वारा संमत आत्मा मो “महम्
के रूप मे प्रतिभासित नहीं होती 1 | कारण यहं है कि शर यहाँ परघरमें
जाननेवाला ह" इस वाक्य मे | अहम्" अनुभव वाली आत्मा की | प्रादेशिकता
का बोध होता है [उसकी विभुता का नही] । यहाँ पर शरीर की प्रादेशिकता का
बोध नहीं होता है बयोकि (अहप्" के रूपमे शरीरका उश्चेख नहीं किया जाता है \
वि्ञोष-- रँ यहाँ पर घर मे जाननेवाला हि इस वाक्य मे तीन खरएड
है। मै" श्ब्दसे आत्माकी प्रतीति होती है, "धर" से प्रादेशिकता की जो
विभुता कौ उलटी है, जाननेवाला' त ज्ञाताकी। ये तीनों धमं एककेही
प्रतीत होते है। किन्तु इस वाक्य म वर्णन किंसका है? क्याशरीरका?
नहीं, क्योकि शरीर न तो आत्मा ही है ओरनज्ञाताही। तो क्या जत्मा क
वणन है ? वह नहीं, क्योकि आत्मा वैशेषिको के अनुसार प्रादेशिक नही, विभ हि ।
फल यह होगा कि रेसे वाक्यों करी सिद्धि,व्यवहारमे अनिपर भी नहीं हो सकेगी ।
यदि यह उत्तर दिया जाय कि धर मे यद्यपि विभु आत्मा की संभावना
नहीं हो सकती किन्तु आत्मा का एक माग तो चरमे रह सकता है इसलिए
उस रूप मे यह प्रतीति हो सकी है--तो इसका भी प्रतयुत्तर होगा करि जब
आमा के भाग इस तरह होने लगेगे तो धर में रहनेवाले व्यक्ति को मौ "वन मे
हं" एेसी प्रतीति हो सकेगी । इसलिए अध्यास से ही उक्त प्रतीति कौ सिद्धि
करनी चाहिए ।
कुद लोग फिर कहते ह कि उक्त प्रतीति तो आहायं आरोपसे भी सिद्धहो
सकती है । बाधज्ञान होने पर भीजो आरोप किया जाता है वह आहायं
आसेप कहलाता है लैसते- यह आदमी सिह है। यहां पर आरोपके समय
बाधज्ञान है ही कि यह मादमी वास्तवमे सिह नहीं है। प्रस्तुत प्रसंग मे
| आरोप दो प्रकार का संमव है-(१) अत्माकेषे मौःकाशरीर पर आरोप
ओौर (२) शरीरके धर्मो का आत्मा पर आरोप । अब इन पक्षो का क्रमशः
विचार करतेर्है। `
ननु यथा राज्ञः सवेप्रयोजनविधातरि भृत्ये (ममात्मा
भद्रसेन” इत्युपचारः, तददात्मवचनस्याहंश्चब्दस्य देह उपचार
इति चेत्- मेवं वोचः । अचरितात्मभावस्य देहादेः स्वसमाना-
कतिशिसापूत्रकादिवज्जञातत्वायोगात् । न च ्ञातृत्वमप्युपचरि-
तम् ५ प्रयोक्तुः स्वपरतिपततिग्रकारके प्रयोगे प्रतिपत्त्वोपचारा-
नुपपत्तेः
शांकर-दशेनम् ।
[ आत्मा के धर्मो का शरीर पर आरोप-इस पक्षको लेकर शंका हो रही
है । यदि एसा कट कि ] जेते किषीराजाके सभी काम करनेवाले नौकरको
वह राजा ओपचारिक ( लाक्षणिक ) खूपसे कहता है करि यहु भद्रसेन मेरी
अत्मादहै, उसी प्रकार आत्माके वाचक अहम्" शब्द का देह पर उपचार
(आरोप) होतादहै। [राजा का आरोप नौकर पर=आत्मा का आरोप देह पर । ]
इसके उत्तरपरे हम करगे क्रि एेखा मत कहो) आत्माके धर्मोका आरोप
( उपचार ) हो जाने पर भी शरीर उसीतरह ज्ञाता नहीं बन सकता जिस प्रकार
दारीर के समान अकार वाली पाषाण-प्रतिमा [ अचेतन होने के कारणा ज्ञाता
नहीं बन सक्ती । इसलिए "अहमिह अस्मि सदने जानानः" इस वाक्यम
"जानानः" ( जाननेवाला ) शब्द की सिद्धिनदींहो सक्ती । |
एेसा भी नहीं कहू सकते कि [जसे शरीर पर आत्मा की कल्पना हुई है वसे
ही] उसका ज्ञाता होना भौ कल्पित ( उपचरित ) है। ज्ञाता के अपनेज्ञान के
प्रकाशकं प्रयोग मे ज्ञातृत्वं का उपचार ({ कल्पना ) नहींहो सकता। [ ज्ञाता
अपने ज्ञान कै प्रकाशन के लिए अपने ज्ञान के अनुसार वाक्यो का प्रयोग करता
है-- वह चाहे मुख्य वृत्तिसे करे या गौण वृत्तिसे, लेकिन ज्ञाता ही इसे कर
सकता है दूषरा नहीं । जब वह ज्ञाता गौणवृत्ति से प्रयोग करना चाहता है तब
वह् एेसे धमं की कल्पना करता है जो कहीं पर अविद्यमान भी हो सकता है।
फलतः ज्ञाता, कल्पना करनेवाला ओर प्रयोग करनेवाला-ये तीनोषएकही
है। *अहं' से उसीका बोध होता है । यदि अह" सेदेह काही बोध करं जिस
पर ज्ञातृत्व की कल्पना की गईहो तो वह देह अपने हौ अन्तगंत रहने वाके
्ञातृत्व की कल्पना करने वाली भी केसे हो जायगी ? दूसरे, जिस देह पर ज्ञातृत्व
कल्पित हो वह वास्तव मेंतो ज्ञाता है नहीं--क्थोकरि ज्ञातृत्वं कल्पित है-
इसलिए वह प्रयोक्ता भी नहीं बन सकती । कल्पित वस्तु से वास्तव में कोई
सचमुच क्रा काम नहीं ले सकते । कल्पित अग्नि से कोई जल नहीं सकता ओौर
न कल्पित सिह किसी कोखा सकताहै। देह पर आत्माके धर्मो का आरोप
होने से देह आत्माकी तरह ज्ञाता, प्रयोक्ता ओर कल्पक नहीं बन सकती ।
भारोप कुठ ओौर है, वास्तविकता कु ओर । |
अथ देहधमः प्रादेशिकत्वमात्मन्युपचर्येत तदा देहारमनो-
भेदेन भवितव्यम् । प्रसिद्धभेदे माणवके सिहशब्दवत्सांप्रतिक-
गोणत्वे तिरोहितभेदेन सपेपादौ रसे तैरश्चब्दवनिरूटगौणते
वा गोणग्रुख्ययोर्भैदाध्यवसायस्य नियतत्वात् ।
[ शरीर का आरोप आत्मा पर, इस पक्ष पर विचार करनेके लिए शंका
4 ॐ ५६ 6२ जन क ॐ ङ १.८३
= ॐ = भ-का ~
न्न म 11
॥॥ | ।
| ॥॥
१8)
{` |
॥|
॥ |
॥ ॥ (1
|| 10
«७६ सवदशनसग्रहे-
करते है । वे कहते ह कि ] अव यदि शरीरके धमं अर्थात् प्रादश्िकत्व ( किषी
एक स्थान मे होना--जेमे घरमे) का आरोप आत्मा पर ओपचारिक रूपमे
करे ठो शरीर भौर आत्मामें मेदहोणादही। जहाँमेद स्षष्टहो वहं पर
माणवक पर सिह शब्दके आरोपको तरह सांप्रतिक ( कभी-कभी प्रयुक्त)
गौणता होने पर अथवा जहां भेद अस्पष्ट हो वहाँ पर सरसों आदिके रस पर
शब्द के आरोप की तरह निरूढ ( परपरा से प्रयुक्त ) गौशता होने पर गौण
जौर मुख्य अर्थो में मेदज्ञान निधित होता है। [ कहने का अथं यह है-- जहां
बुदधिपूर्वक एक के धमं का दूसरे पर आरोप करते हँ वहाँ पर पहले दोनो का
भिन्न रूपमे ज्ञान होना आवहयक है। “वहो मारावकः' वाक्य में सहसे
माणावक का भेद प्रसिद्धटै। करता आदि गणोंको देखकर मारवक्र पर सिह
का आरोप हृभा है। यहाँ पर गौणता सांप्रतिक ( 0५९88101 8॥ ) है, निरूढ
( (008180४ ) नहीं । माणवक पर सिंह का आरोप तो कभी-कभी ही होता
है। जब गौण होने पर भी शब्द प्रयोगया प्रसिद्धिके कारणा षडु शब्दके
संमान सदा प्रयुक्त होता है तो उसे निरूढ गौणता कहते दँ । तेल का अथं है
तिल का रस जो मृख्य अथं दहै । अव्र गौणा्पसे तैल का प्रयोग दृखरे बीजों के
रसो पर भी होता है जैसे--सार्षपः तैलः (सरसोंका तैल )। एेसा प्रयोगं
ख्ढ़ हो गया है इसलिए इसे निरूढ गौणता कहते है । स्मरणीय है क्रि सरसों
ओर तिलके तेलो में भेद विद्यमान रहने पर भी तिरोहित हो गयादै। "तैलः
शब्द की गौणाताकी प्रतीति भी भेदज्ञान वालोंकोहीहो सकती टै क्योक्रि
इस तरह करा प्रयोग बिल्कुलष्ठ हो गयादहै। क्रिसीभी दामे, आहायं
आरोप की स्थितिमें, आरोप्यमाण ओर आरोपके विषयका मेदज्ञान होना
आवरयक है । जहाँ मी गौणता है वहाँ भेदज्ञानं भौ होगा। आत्मा देहुसे
भिन्नरूप में प्रतीत नहीं होती इसलिए यहां आहायं आरोप से गौणी वृत्तिका
सहारा नहीं लिया जा सकता है । ]
अथ मम श्षरीरमिति भेदभानसंभवाट्रौणत्वं मन्येथाः,
तदयुक्तम् । अ्हंशब्दार्थ॑स्य देहादिभ्यो निष्डृष्यासाधारणधम-
वच्वेन प्रतिभासमानत्वाभावाद् । अपरथा रोकायतिकमतं
नोदयमासादयेत् । मम ॒शरीरमित्युक्तिस्तु राहोः शिरः" इतिः
बदोपचारिकी ।
[ वेदान्ती लोग पूर्व॑पक्षी का उत्तरदेरहे ह । ] यदि आप लोग (पूर्वंपक्षी)
ममं शरीरम् (मेरा शरीर ) इस वाक्य मे मेदज्ञान की संभावना रखते हृए
शांक्र-दशनम् ७८७
( आहायं आरोपसे ही) गौणत्ता मानते है तो यहु भी ठीक नहीं। देहादिसे
बिल्कुल अलग हटकर असाधारण धम॑से युक्त पदार्थके रूपमे “अह्म् शब्द
का अथं प्रतीत नहीं होता । [ मम शरीरम्" में देहादिको ही आत्माके रूपमे
समक्षते हैँ । यदि ञात्माको देहादिसे पृथक् करके असाधारण धमं से युक्त
पदा्थंके रूप में उसका अनुभव हौ करते तो ठेसे अनुभव के विरुद्ध ] लोकाय-
` तिक-मत [ किं देह ही आहमा है | उत्पन्न नहीं हो सकता था ।
[ जब देह मे आत्मा कौ प्रतीति होतीदहैतो “मम शरीरम्" वाक्यमें स्पष्ट
प्रतीत होने वाला मेद कहाँ रहेगा ? इसी षर उत्तरदेते कि] "मेरा शरीर
इस तरह की युक्ति ( {९ [07638109 ) ओौपचारिक् ( लाक्षणिक } है । ( यद्यपि
आत्मा ओर देह मेँ अभेद कौ प्रतीति होती दहै फिर भी किसी तरहुमेदकी
कल्पना करके इसका निर्वाह कर लं ] जैसे राहोः शिरः" ( राहुकास्िर ) इस
वाक्यमें करते हैँ। [ राहुहीसिरहै भौरसिरही राहु, फिर भी अन्य प्राणियों
की तरह राह के शरीर की कल्पना करके उसके शरीर के इस विशेष भाग स्षिर
कावोधकरतेदहँ। वैसेही "ममश्ञरीरम्' मे करं ]
विरोष-आत्मा ओौर शरीर को एक मानने बाले वेदान्ती है जो यह
इसलिए स्वीकार करते हैँ कि इस श्रमज्ञान को हटाने के लिए ब्रह्मजिज्ञासा को
भ'दश्यकता सिद्ध करं । अ।त्मा जौर शरीरमें भेद मानने वाले पूर्वपक्षीहैजो
इसलिए मानते है कि दोनोंमें स्पष्ट प्रतीत होने वाला भेद रहने के कारण
ब्रह्मजिज्ञासा की निरर्थकता सिद्ध करं। यद्यपि अभी शकर की ओर से उत्तर-
पक्ष चल रहा है परतु जहां-तहां समस्याओं के रूपमे पूवंपक्षके दर्शन भी हने
हो रहे है । अव शंकराचायंकी तरफसे आत्मा भौर श्चरीर की अभेद-प्रतीति
का साधक प्रमाणा दिया जा रहाहै। स्मरणीयरहै करि यहु केवल प्रतीति है,
वास्तविकता या परमां नहीं ।
मम शरीरमिति ब्रुवाणेनापि कस्त्वमिति पृष्टेन वक्षस्थलन्व-
स्तहस्तेन भृङ्गग्राहिकयाऽयमहमिति प्रतिवचनस्य दीयमानत्वेन
देहात्मप्रत्ययस्य सकलानुभवसिद्धत्वात् । तदुक्तम्--
४, देहात्मप्रत्ययो यद्रसपममाणतेन कर्षितः ।
लोकिकं तद्दवेदं प्रमाणं त्वात्मनिश्वयात् ॥ इति ।
तथा च व्यापकस्य मेदभानस्य निवत्तेव्याप्यस्य गौणत्-
स्य निवृत्तिरिति निरवद्यम् ।
मेरा शरीर" एेसा कहने वाले पुरुष से भी जब यह् पृचछा जताहैकितुम
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०० स्दर्सनसमदे
कौन हो [ यहतो तुम्हाराश्रीरहुभा], तो वहु अपने वक्षस्थल पर हाय
रख कर, ग्युङ्ग-ग्राहिका न्याय से ( = पशुओं को सींग पकड-पकड कर उनका
| निदेश करना कि यह एेसा है), यही उत्तरदेता हैकि मेँ यहह। इत तरह
| सवो के अनुभव से यही बात सिद्ध होती दहै क्रि देह आत्मा है, यह प्रतीति
|
| होती ही है। इसे कहा भी है--जिस प्रकार अत्मा के रूपमे देहु की प्रतीति
| ( ^ {एप्€ोल€ऽ० ) प्रामाणिक मानी जाती है उसी प्रकार लौकिक प्रमाण
तभी तक है जव तक आत्मा का निश्चय (साक्षत्कार ) नहींहो जाता ।'
| | [ आत्मसाक्षात्कार हो जने पर, लौकिक या व्यावहारिक जगत् मे प्रमाण
। | के रूपमे प्रतीत होने वाले पदाथं, मिथ्या हौ जाते है- केवल ब्रह्य या म्मा
| की ही सत्ता रह जाती है । ]
॥ इसलिए इस व्यापक मेदज्ञान के भिट जाने से उस्र [ भेदज्ञानं |के दवारा
| व्याप्य गौणता की भी निवृत्ति हो जाती है, यह बिल्कुल स्पष्ट हि। [ ऊपर
| दिखा चुके ह कि गौरता ( व्याप्य ) ओर भेदज्ञान ( व्यापक ) मे व्याति संबंध
| | है। जहा. जहाँ गौणता है वहा-वहां भेदज्ञान रहता है । व्यापक की निवृत्ति से
॥ | व्याप्य कौ निवृत्ति भी हो जायगी । ] |
| विद्ञेष- भेद ( पूर्वंपक्षी ) ओर अभेद ( वेदान्ती } का क्गड़ा अभी कहां
| समापहृज दहै? पूरवंपक्षियों का जखाड़ा अभो यथापूर्वं लगा हुं है। शकरा-
| चायं जी उन अच्छी तरह पीस देने को विता भे लगे है । पूर्वपक्षी भेदसिद्ध क
| लिए दूसरा तकं देते है ।
( ६ क. आत्मा के अध्यास की पुनः सिद्धि-भेद् का खण्डन )
नन्वभिज्ञया मेदसिद्धिमो संभूनाम । प्रत्यभिज्ञया तु सोऽ-
हमि्येव॑रूपया तत्सिद्धिः सम्मविष्यतीति चेत्-न । विकसपा-
| सत्वात् । किमियं प्रत्यभिज्ञा पामराणां स्यात् परीक्षकाणां
वा १ नाद्यः । देहव्यतिरिक्ताःमेक्यमवगाहमानायाः प्रत्यभि
॥ || ज्ञाया अनुदयात् । प्रत्युत श्यामस्य लोदहित्यवत्कारणविशेषाद-
ल्पस्यापि महापरिमाणत्वमविरुद्रमलुभवतां तददेह एव तस्याः
। एक शका कौ जाती है कि मान लियाकरि [ भें स्थूलह' इक्र प्रतीति के
|
।
। ` विषुदहोने के कारण भेरा शरीर'--इस ] अभिज्ञा या ज्ञान से [ जीव भौर
॥| शरीर के बीच ] द की सिद्धि नदीं होती है। किन्तु "बह मेह" ( सोऽहम् )
शांकर-दशेनम् ७७६
इस प्रकार की प्रत्यभिज्ञा ( 18€00111007 } से तो उस्र भेदकी सिद्धि
संभव है? [सः = परमात्मा, अहम् = जीवात्मा । उन दोनों की एकता तभी
सम्भव है जबर आत्मा को देह से भिन्न मानं । यदि देह ही आत्मा होती तौ वह्
कभी भी परमात्मा नहीं बन सकती थी । तो, देह ओर आत्मा मे भेद है, अतः
अहम्" की प्रतीति को गौणा कहा जा सकता है । ]
[ पू्ंपक्षियों को इस शंका पर शंकर कहते ह कि ] एेसी बात नहीं है ।
नीचे दिये गये विकल्पों मेँ क्रिसी को सहने कौ क्षमता उक्ततकंमे नहींहै,
अच्छा, यह प्रत्याभिज्ञा बया मूर्खो को होती दरौ या परीक्षकं ( विद्वानों) को ? |
मूर्खो को तो वह॒ प्रत्यभिज्ञा नहींहो सकती जिसमे देह से भिन्न आत्मा
की [ परमात्मा से | एकता प्रतिभासित हो। [मूलं लोग देह से भिन्न
जीवात्मा कौ प्रतीति नहीं कर सकते । किन्तु प्रत्यभिज्ञा में देहभिन्न जीवात्मा
कौ परमत्मासे एकता प्रतीत होती है अतः मुखं उस ज्ञान से वचित है।
अब शंकराचायं अपने ठढंगसे "सोऽहम्" की व्याख्या करते दिखलाई पडते
है । ] बल्कि किसी विशेष कारणसे जसे काला पदार्थं लालहो जाता है
उसौ तरह छोटी वस्तु भी बहुत बड़ा परिमाणा (आकार ) धारण कर लेती दै,
जिसका विरोध नहीं किया जा सकता । इस तरह का अनुभव करनेवाले लोगों
को तो देह ( देहरूपी जीवात्मा } मेँ प्रत्यभिज्ञा हो सकती है । [ अभिप्राय यह् है
क्रि अग्नि-संयोग से काला घड़ालालहो जाता है, मिद्रो.-जल आदिके संयोगे
छोटा बीज बड़ा वृक्ष वन जातादहै। वैसे ही देहरूषी जीवात्मा भी कारणा विशेष
से परमात्मा बन जाती है। रेसी संभावना के द्वारा "सोऽहम्" प्रत्यभिज्ञा हो ही
सकती है । अतः सोऽहम्" को सिद्धि के लिए देह ओर आत्मा मे भेद करने कौ
कोई आवश्यकता नहीं है । जीवात्मा (देहह्पी भी) स्वाभाविक गति से परमात्मा
बन जातौ है यदि कारण वतंमान हों भेद ज्ञान कौ कहीं अपेक्षा नहीं है। ]
न दवितीयः । व्यवहारसमये पामरसाम्यानतिरेकात् । अप-
रोकषश्रमस्य परोक्ज्ञानव्रिनादयत्वालुपपत्तेश्च । यदुक्तं भगवता
भाष्यकारेण --पञ्वादिभिरहचाबिरेषात्' (ब ° घ्र° १।१।१ भा०)
इति । भामतीकारेरप्युक्तं- शाखचिन्तकाः स्वस्वेवं विचारयन्ति,
| न प्रतिपत्तार इति । तथा चातमगोचरस्याध्यासात्मरूपत्वं सुस्थम् ।
विद्वानों को भी वहु प्रत्यभिज्ञा नहीं हो सकती क्योकि व्यवहार के समय
विद्वान् मी मूर्खा की तरह ही [ सामान्य धमं से युक्त रहते हं । जो विद्वान् श्रवण
ओर मनन में कुशल है, किन्तु जिन्होंने आत्मतत्व का साक्षात्कार नहीं किया है
न, ^ 0 अनि + च ॥ चे ¶ जे
(न न -/.~ ~ २
$ = , क ~
च शनसंम्रहे (+
७० सबदशनसं्रहे-
वे आगम ओौर उपपत्ति के द्वारा जीवात्मा कोदेह्, इन्द्रियं आदि से भिन्न समञ्च
लेते ह । किन्तु जहां तक प्रमाणा ओौर प्रमेय के प्रयोग का प्रन है वे सामान्य
जीवों की तरह है। जैसे देह को आत्माके रूप में समज्ञकर अहुंभावसे युक्त होकर
दूसरे प्राणी व्यवहार करते वेतेहौ येभीकरतेदहैँ। यदि प्रत्यभिज्ञाकी
सत्ता मानें तो दूसरे लोगों की तरह उनका व्यवहार नहीं रह षायेगा । दूसरी
ओर जिन परीक्षकों ने त्व का साक्षा्कार भीकर लिया है उनमें तो ज्ञाता, जेय
ओर ज्ञान की त्रिपुटी ही नहींहै- उस पर आधारित मेदसिद्धितो दूरकी बात है ।|
दूसरी बात यह् है कि अपरोक्ष (प्रत्यक्ष) में होने वाला भ्रमं परोक्ष-ज्ञान से
नष्ट नहींहो सकंता। [ रस्सीमेकिसीको सापका श्रम प्रप्यक्ष रूपसेहौ
र्हादहै। यदिरउसे कँ कि इस स्थान पर सपोंका होना संभव नहींहै,
तो परोक्षज्ञान से संबद्ध इस वाक्यसे भ्रम की निवृत्ति नहीं हो सक्तौ ।
आफवाक्यसे भ्रमकाज्ञान हो जा सकता है, पर निवृत्ति नहीं । निवृत्ति तो "यह्
साप है" इस प्रत्यक्ष अनुभवसे ही संभव है । उसी तरह हमे भ्रम देह आत्मा को
लेकर है, उसकी निवृत्ति के लिए "सोऽहम्" की प्रत्यभिज्ञा दे रहे है जो परोक्षज्ञान
है। तो भ्रम की निवृत्ति केसे हो सकती है।]
इसीलिए भगवान् भाष्यकार ( यंकराचायं) ने कहा है--[ शाल्नवितक
होने पर भी ब्रह्मका साक्षात्कार बिना हुए विद्वान् व्यवहार-दश्चामें ] पशुओं
मे भिन्न नहीं है ।' [ चंकराचायं ने भाष्यके आरंभे ही अध्यास का निरूपण
करते समय इसका निरूपण किया है । व्यावहारिक दशामे पञ्च ओर शाखज्न
के व्यवहार में कोई अंतर नहीं । उन्होनि लिखादहैकि हाथमे डंडा उठाये हए
किसी व्यक्ति को देखकर पु हट जाता है, वही पु जब किसीके हाथमे हरी
घास देखता है तो उसकी ओर प्रवृत्त हो जातादहै। वेसेही शाखज्ञ पुरुष भी
अपने शरोर के नाशक, हाथ में शसन लिए बलवान् पुरुष को देखकर भाग खड़े
होते है, अन्य पुरुषों के प्रति प्रवृत्त होते है अतः इनका प्रमाण-प्रमेय आदि
व्यवहार पञुभों के समान हीह । जब तक ब्रह्य कासाक्षात्कार नहीं हता उनका
मोहं दूर नहीं होता । |
भामतीकार ( वाचस्पति मिश्च) ने भी कहा है--'शाख्रचितक ( ब्रह्म
साक्षात्कार-हीन किन्तु श्रवण ओर मननसे युक्त) लोग ही इस तरह का
विचार ( पशुवत् व्यवहार ) करते, आत्माका साक्षात्कार कर लेने वाले
( प्रतिपत्तारः ) लोग नहीं ।' इस प्रकार यह सृस्थिर ( सिद्ध ) हो गया कि हम
जो आत्माके रूपमे प्रतीत होता है, वह वस्तुतः आमा के अध्यास ( शरीर
पर आत्मा का अध्यास )केरूपमेंहै।
-शांकरदशनम् ` ७८१
विरोष-अभी तक न्याय-वैशेषिक के मत में स्वीकृत आत्मा का खण्डन
करके आत्मा की अध्यासलूपता सिद्ध कर रहेये। अब जेन-मत कौ आत्मा
पर विचार करते हँ । जेन लोग आत्मा (जोव) को विश्रु नहीं मानते किन्तु
उसक्रा परिमाणा शरीर के तुल्य है, यही मानते हैँ । सी दशा में "अहमिहास्मि
सदने जानानः" इस तरह की प्रतीति न्याय' वैशेषिक मे भले ही गौण॒रूप से मानी
जाय कि आत्मा के विभ्रुहोने के कारण प्रदेशिकता का आरोप उसं पर कसे
हो, परन्तु यहाँ तो कोई वैसी बात नहीं--जितना बड़ा जीव उतना बड़ा शरीरः;
जहां शरीर वहां जीव । अतः प्रादेशिकता का प्रन सहल हो जाता है। अवं
टस पक्ष का विश्लेषण ओौर खंडन करने के लिए शंकर स्नदहो गये
(६ ख. जेनमत मे स्वीङृत जीव पर विचार )
न चार्हतमतानुसारेणाह्ररययप्रामाण्यायात्मनो देदपरिमाः
णत्वमङ्खीकरणीयमिति साप्रतम् । मध्यमपरिमाणस्य सावयव
त्वेन देहादिवदनित्यत्वे इतहानाकृताम्यागमप्रसङ्गात् । अथेत-
दोषपरिजिहीषेया “अवयवसमुदायः आत्मा! इत्यम्युपगम्येत
तदा वक्तव्यम् । क प्रत्येकमवयवानां चेतन्यं संघातस्य वा !
नाद्य; । बहूनां चेतनानामहमहमिकया प्रधानभावमचुभ-
ह्र ^ विरुद्रि [क
वतामेकमत्याभावेन समसमयं विरुदरदिकक्रियतया शरीरस्यापि
विशरणनिष्करियत्वयोरन्यतरापातात् ।
आप लोग ( पूव॑पक्षी ) [ अपनी युक्ति कीरक्षाके लिए | अहम् की
प्रतीति की प्रामाणिकता के लिए जैन-मत के अनुसार “आत्मा शरीर के परिमाण
की है" एसा नहीं स्वीकार कर सकते है । मघ्यम परिमाणवालौ वस्तु (जोन
सर्वाधिक परिमारा रखे ओर न न्यूनतम ही ) अवयवो से युक्त होती है फलतः
[आत्माको ] शरीर आदि की तरह हौ अनित्य मानना पड़ेगा । उसका
परिणाम यह होगा कि किये गये कमं का नाश ओौर न किये गये फलक प्राति
होने लगेगी । [ यदि आत्मा अनित्य है तो उत्पत्ति-विनाश-शील है । जिस आत्मा
ने किसी शरीर से संबद्ध होकर कोई काम क्रिया वह उ्मेन भिलकर दूषरी
आतमा को मिल जायगा क्योकि फल पाने तक तो वह आतमा बदल ही जायगी ।
दूसरी आत्मा को जिसने वैसा काम नहीं करिया था, वह फल मिल जायगा 1 |
अश्च यदि इस दोषसे बचने की इच्छासे आप यह सिद्ध कर दकि
७२ सवेदशंनसंग्रहे-
अवयवो का समुदाय आत्मा है, तब हमारे इन विकल्पों का उत्तर दे - [ आत्मा
मे चैतन्य होता है। | तो चैतन्य प्रत्येक अवयवमें हैया अवयवोंके समूहमे?
पहला विकल्प तो ठीक नहीं है वरयोकि टेसी दशा मे बहुत से चेतन
ह्य जा्यंगे, वे तू-तू मेम करते हए प्रधानता प्राप्त करनेके लिए लड़ने
लगेंगे--उनमें एक मति तो रहेगी ही नहीं, इसलिए एक ही समयमे वे विरुद्ध
दिशाओं की क्रिया करने लगेगे। साथ-साथ शरीर पर भौ विपत्ति पड़ेगी किं ]
यातो बहु विदी्णं ( द्रुकडःटुक्डे) हो जायगा या निष्क्रिय ही हो जायगा--
दोनोंमेंसे एक दश्ातो उसकीहो ही जायगी । [यदि आत्मा चेतन अवयवोंका
समूह है तो सभी अवयवों की सामथ्यं समान होगी भले ही उनका स्वमाव भिन्न-
भिन्न होगा । आपस मे विमति होना अनिवायं है। एक पूवं कीओर जायगा
दूसरा पश्चिमकीओर। ये गतिर्यां एकही शरीरमेंहोगी। एकहीशरीरदो
विरुद्ध दिशाओं मे नहीं जा सकेगा-दोनों भोर कौ खीचतान से देहु फट जायगी ।
यदि दोनों दिशाओं में समान गतिहुई तो दोनोंमेंसे किसौ तरफ देह नहीं
ज! सकेगी । निदान उसे क्रियारहित होना पड़ेगा । |
द्वितीयेऽपि संधातापत्तिः 9 शरीरोपाधिकी स्वाभाविकी
यादच्छिकी वा १ नाद्यः । एकस्मिन्नवयवे छिने चिदात्मनोऽ-
प्यवबयवश्छन्न इत्यचेतनत्वापातात् । न द्वितीयः । अनेकेषामव-
यवानामन्योन्यसाहिप्यनियमादशेनात् । न दृतीयः । संश्वेषव-
दिष्छेषस्यापि यादच्छिकत्वेन सुखेन बसतामकस्मादचेतनत्व-
प्रसङ्खात् ।
यदि दूसरी ओर यह कहते हैँ कि समूह में ही चेतनता है तो प्रशन है कि
अवयवो का यह संघात केसे होता है? क्या [ सिद्ध] शरीरको घ्यानमें रख
केर यह संघात होता है या स्वभावतः हीहोतादहै या मनमनिढ्ङ्कसे होता
है? [ पहले विकल्पका अथंहैक्रि शरीरके जितने अवयव ह उतने आत्मा
के भीरहै। शरीर द्धकि एक है इसलिए आत्मा भमी शरीरके अनुसार ही संहत
रूपमे है। दूसरा विकल्प बतलाता है किं सभी अवयव प्रकृतिसे ही आपसमें
मिले हृए है । इसमें नियमहै। तीसरा विकल्प बिना क्रिसी नियम के मनमाने
टंग से अवयवो का संघात बतलाता है । जब इच्छा हुई भिले, न हुई न मिले। |
इनमे पहला विकस्प इसलिए ठीक नहीं है करि यदि शरीर का एक अयवय
कट जाताहै तोअत्माका भी वह् भवयव कट जायगा । इसलिए जीव पर
अचेतनता का आरोपहो जायगा । [ जीव चेतन दहै, अवयवो का समूह है।
शांकर-दशेनम् ७८३
एक अवयव के नष्टहोने पर समूह का ही उच्छेद होगा-जीव का विनाश
होगा, उसे शरीर की तरह ही अचेतन मानना पडेगा । यदि संघात को स्वामा-
विक यां यादृच्छिक मानेगे तो यह दोष नहीं आ सकेगा क्योकि शगीर के अवयवो
से आत्मा के अवयवों का कोई उच्छेदात्मक् संबंध नहीं रहेगा । ]
दूसरा विक्रस्प इसलिए ठीक नहीं है कि अनेक अवथव एक दूसरे से सदा
एक तरह से ही मिले ररहगे, एेसा कोई नियम नहीं देखा जाता । [ यदि अवयवों
मे संरलेष होना स्वाभाविक होतातो चूंकि वस्तु भपने स्वभावसे कभी च्युत
नहीं होती इसलिए छोटा अवयव भी कभी पृथक् नहीं होता । सभी अवयव एक
रूपमे ही परस्पर मिले हुए रहते । परन्तु वे जेन ही यह नहीं मानेगे।
बचपन आदि अवस्थाओंके भेदके यादक्तरे जन्ममें शरीरके भेदसे जीव
उतनाहौीबडाहोजातादहै इसे वे स्वीकार करते है--अतः अवयवो का संश्लेष
बदलता रहता है । जीव बढता-घटता है । |
तीसरा विकद्प मी स्वीकायं नहीं है क्योक्रि यदि मनमाने ढंग से संश्लेष
( (0णप९४०० ) होता है तो इसी तरह विह्लेष ( {2)18]प706101 ) मौ
तो होगा । इसलिए सुख से ( निशित ) १३ हुए जीव अकस्मात् अचेतन हो
जा्यँगे [ जब कि उनका विरलेष होगा । जब सब कुद मनमानाहीदहै तोक्या
पता करि कव विद्लेष हो जाय-- अवयवो का संघात टट जाय, इसलिए जीव पर
अचेतनता की आपत्ति कभौ भी आ सक्ती है । परन्तु वास्तव में जीवको चेतन
सदा मानना चाहिए । |
न चाणुषरिमाणत्वमात्मनः शङ्कनीयम् । स्थृलोऽदम्'
दीर्घोऽहम्' इति प्रत्ययानुपपत्तेः ।
[ अब पूवंपक्षी सोचते कि आत्माको अणु के परिमाणमें मानकर हम
प्रादेशिकता की सिद्धि करं सकते है । पर शंकर इष सिद्धान्त कोहीकाटदेते है ।
वे कहते है कि ] आत्मा अणु के परिमाणा में ( ^ ५००५ ) है रेस शंका नहीं
करनी चाहिए । [ उसे स्वीकार करनेसे आपको लाभ भलेहीही कि इसको
प्रादेशिकता की सिद्धिकर लं ] परन्तु मोटा, “मै लंबा हू" ठेसी प्रतौतियों
कौ सिद्धि ( ह]7क्ष8४०ा) } नहीं कौ जा सकती ।
( ७. विज्ञानवादी बौद्धौ का खण्डन-- विज्ञान आत्मा )
न च विज्ञानात्मभाषिणां नेष दोषः । बिचुद्रसावयवत्वा-
भावादिति गणनीयम् । यः सुषुप्तः सोऽदं जागमींति स्थिरगोच-
विन क
७8 सर्वदशे रसंमहे-
रस्याहमुस्टेखस्य श्षणमङ्गतज्ञानगोचरत्वे अतसिमस्तददधिप-
मिथ्याध्यासस्य तदबस्थानात् ।
रेषा नहीं समभ कि विज्ञान को आत्मा माननेवलि [ बौदधोंके | मतम
यह दोष नहीं लगता । ( विज्ञानवादी लोग विज्ञान कोही आत्मा मानतेदहै।
उसकी प्रतीति भी 'अहप्' के रूपमे ही होती है। किन्तु यहाँ 'अहम्' देहादि के
आक्रारमे रहता क्योकिज्ञान सकार दै। रेस स्थितिमें जीवात्माका
प्रादेशिक होना या स्थूल होना--सब कु सिद्धदहो जायगा । कोई बात असिद्ध
नहीं रहेगी । शरीर के अवयवो के कट जाने से इसके कटने का प्रसंग भी नहीं
तरमा) कारणा यह ह विज्ञान प्रत्येक क्षण म बदलता रहता है । जब्र जेस
शरीर मिला--तब तैसा विज्ञान हो गया।] वह जानना चाहिए कि विज्ञान
मे विशुद्ध अवयव नहीं रहते । [ शरीर मूतं परमाणुओंका संघातटै जबकि
विज्ञान ( आन्तरिक पदाथं ) स्कन्धो का संघात है । यह काल्पनिक है इसलिए
दसके अवयव अलग से सिद्ध नहीं है । विशुद्ध का अभिप्रायहै दूसरे अवयवो से
पृथक् रहकर उत्पन्न होना। अव बतलायेगे क्रि विज्ञानवादियों के मतमेभी
"अहम्" की प्रतीति मुरुय नदीं है । |
. "जो सोया था, वही मैँ जाग रहा हैः इष वाक्यमें अह् का उल्लेख स्थिर
भाव ( ए्रिप्ध्प ) के रूपमहो रहा है! दूसरी ओर विज्ञानक्षण भरमेहो
नष हो जानेवाला है । इसलिए मिथ्या अध्या तो उसमे अवस्थित मानना पडेगा
ही । यह अध्यास एक वस्तु में दूसरी वस्तुके बोधके रूपमे है। [{ अस्थिर
विज्ञान नें स्थिर आत्मा की प्राति के कारण अघ्यास अनिवायं है।]
तदनेन कृश्लोऽदं ृष्णोऽहमित्यादीनां प्रख्यानानां बुद्धया
सरूपताख्यानेनौपचारिकलवं प्रत्याख्यातम् । तद्व्यापकमेदभा-
नासंभवस्य प्रागेव प्रपञ्चितत्वात् । तथा च प्रयोगः विमतं
शाखं विषयग्रयोजनसदितम्, आविद्यकबन्धनिवतेकतवात्सुपरोत्थि-
तबोधवत् ।
तो, इसी के द्वारा, "न पतलाह “मे काला हः आदि प्रतीतियोंकोजो
बुद्धि के सरूप कहने से भौपचारिक मानते है--वह भी खंडित हो गया।
[ स्मरणीय है कि विज्ञानवादी विज्ञान के अतिरिक्तं ओर कोई तत्तव नहीं
मानते । बुद्धि ही ग्राह्य ओौर प्राहक के आकरारमें होकर अपने सूप आकार
वाले घट आदि बाह्य पदार्थो कौ कल्पना अपने से भिन्नरूप मे करती ह!
शांकर-दशनम् ७८५
इससे "मँ स्थुल हू" आदि प्रतीतियों मँ "अहम्, कौ भ्रति ओौपचारिक है ।
परन्तु इक तकं से उसका भी खंडन हो गया । क्योकि | हम पहले ही इसे स्पष्ट
कर आये करि उस्र ( ओपचारिकता ) का व्यापक भेदज्ञान होना संभव नहीं
ह) इसी दशन मे इसी प्रसंग मे अभी-अभी कहा गया है कि ओपचारिक होने
के लिए भेदज्ञान अनिवायं है। परन्तु ये विज्ञानवादी बौद्ध यहाँ पर भेदज्ञान
स्वीकार करेगे ही नहीं क्योकि वे विज्ञान के अतिरिक्तं क्रिस भी वास्तविक पदार्थ
की सत्ता नहीं मानते । |
[ अभी तक यह सिद्ध कर रहे थे कि अहम्, की प्रतीति आत्मा के अध्यास
का विषय है । अब यह बतलाते है कि उक्त अध्यास की निवृत्ति करने वाले तथा
आत्मा जैसा संदिग्ध विषय होने के कारणा वेदान्तशाखर का आरंभ करं । उसीके
लिए अनुमान दे रेह । ] अनुमान पेता है -
( १) प्रस्तुत शाख विषय ओौर प्रयोजन से युक्त है । ( प्रतिज्ञा)
( २ ) क्योकि यह अविद्यामूलक वन्वन कौ निवृत्ति करता है । (देतु )
(३) जिस प्रकार सो कर उठने पर बोध होता है । ( उदाहरण )
[ अब दृष्टान्त का स्पष्टीकरण होगा । |
यथा स्वञ्जावस्थायां मायापरिकिलिितयोषादिकरतवन्धनिवते-
कस्य सनोस्थितयोधस्य सन्दिरमध्ये सुखेन शय्यायामवतिष्टमानो
देहो बिषयः । तस्य सुप्तबमोधेनानिश्यात् । स्वस्मायाविजम्भि-
तानर्थनिव्रृत्तिः प्रयोजनम् । एवं मननादिजन्यपरोक्षज्ञानद्रारेण
आध्यासिककर्ैत्वभोक्तत्वाद्यनथेनिपेधकस्य शाखस्य सचिदा-
नन्देकरसं प्रत्यगात्मभूतं ब्रह्म बिषयः । तस्याहमनुमवेनानिश्व-
यात् । अध्यासनिचृत्तिः प्रयोजनम् । |
सते स्वघ्रकी अवस्थामें क्रिसीखरीके द्वारा मायासे कलित बंवन हो
जाय तो उसकी निवृत्ति सोकर उठने पर जो बोध होता है उसी से संमव है ।
[ इस अवस्था मे बोघ का ] विषय है वह शरीर जो किसी कोठरौमें सल से
बिद्धावन पर लेटा हआ है । उसी देहके विषयमे सोये हुए व्यक्तिका ज्ञान निर्णय
नहीं कर पारहाटहै [ ओौर जागने पर उसीका बोध निचित हो जाता है । 1
स्वप्न की माया से उत्पन्न ( विजम्मितत = व्याप्त ) अनथं का निवारण करना ही
इस [ बोध ] का प्रयोजन है ।
ठीक इसी तरह मननादि से उद्पन्न परोक्ष-ज्ञान के द्वारा, अध्याससे
५० स० सं०
७८६ सबेदशेनसंग्रहे-
| उत्पन्न कतुंत्व, भोक्तृत्व आदि अनर्थो का निवारण शास्र ( वेदान्त-शासत्र ) से
| होता है । उस शाख का विषय ब्रह्मटै जो [ ओौर कोई नहीं, | यह प्रत्यगात्मा
| | याजीवदही है तथा जिसका एकमात्र रस (आस्वादन, अनुभूति ) सत्, चित्
॥ ओौर आनन्द है। इसी आत्मा के विषय में अहम्" के अनुमवके द्वारा निश्चय
॥ नहीं किया जा सकता । अध्यास ( ऽणुश0]009 ० }) की निवृत्ति ही
||4 शाख कां प्रयोजन है ।
तथा चाफरत्वादिति हेतुरसिद्ध इति सिद्धम् । तदुक्तम्-
५५. श्रु तिगम्यात्मतखं तु नाहवुद्धयावगम्यते ।
|| अपि खे कामतो मोहा नात्मन्यस्तविपयेये ॥ इति ।
॥. इतोऽयमसंदिग्धत्वादिति हेतुरप्यसिद्ध इति सिद्धम् ।
॥| इस प्रकार, [ पू्वंपक्षीने जो श्रह्म की जिज्ञासा नहीं करनी चाहिए इसकी
सिद्धि के लिए ] "कयोकिं उसका कोई फल नहीं" आदि दतु दिया था वह असिद्ध
है [ वयोर ब्रह्मजिज्ञासा का फल ( प्रयोजन ) हम दिखला चुके ह । | इसे कटा
है--'जो आत्मतचव एकमात्र श्रुति के हारा जाना जा सकता है वह "अहम्
की बुद्धि ( ज्ञान, प्रतीति ) से ज्ञात नहीं हो सकता । [ अहम् की प्रतीति अध्यास
वरं आधारित है जिसमे अहंकार ( 2० ) ओर आत्मा ( 80५1 ) का
तादात्म्य कर दिया गया है । आत्मा यद्यपि अप्रत्यक्ष है फिर भमी आकाश की
तरह उसमें मोह की संभावना होती ही है । आत्मा मिथ्याज्ञान से रहित होने पर
मोह से ग्रस्त नहीं होती । इसे ही कहते ह । ] जिस प्रकार यदृच्छा से आकाश
|| पर [ रूपादि का अध्यास करते ह परन्तु वास्तव में वह वेसा नहीं । ] विपयंय के
| ||| नष हो जाने पर आत्मा में मोह नहीं होता ।'
इसके बाद [ पूर्वपक्षी ने जो आत्मा की अजिज्ञास्यता सिद्ध करने के लिए ]
"वयोकि वह संदिग्ध नहीं है" यह हेतु दिया धा वहं भी असिद्ध है, यह सि हुजा ।
( ८. आत्मा के विषय मे सन्देह )
।
।
|
॥|| यद्यपि सर्व प्राणी प्रत्यगात्मास्तित्वं प्तयेत्यहमस्मीति ।
॥| न हि कश्चिदपि नाहमस्मीति विप्रतिपद्यते । प्रत्यगात्मेव ब्रह्म
|| (तखमसि, ( छा० ६।८।७ ) इति सामानाधिकरण्यात् । तस्मा-
| दात्मतखमसंदिग्धं सिद्धम् । तथापि धमं प्रति विप्रतिपन्ना
| बहुविधा इति न्यायेन विशेषप्रतिपत्तिरुपपद्यत एव ।
यद्यपि सभी प्राणी जीवात्मा के अस्तित्व कौ प्रतीति करते हैकिमेँ हं)
| शांकर-दशेनम् ७८७
किसी को भी इस तरह की विप्रतिपत्ति नहींहोगीकरि मेँ नहीं हूं। जीवात्मा ही
बरह्म है क्योकि वह नुम हो" ( छा० ६।८।७ ) इस वाक्य मेंदोनों को समा-
नाधिकरणा दिवाया गया है । इसलिए आत्मतच्व बिल्कुल असंदिग्ध है--यह
सिद्ध हुआ ।
किर भी यह नियमदहैक्रि क्षो वस्तुके धमंको लेकर बहुत तरह के
विवाद चलते रहते ह । इक नियम से तो विश्ञेष की प्रतिपत्ति ( प्रतिपादन )
हमे करनी ही है।
विरोष-आत्मा धर्मी है जिसके धमं के विषयमे नानाप्रकार के विवाद
है। भव यहाँ पर आत्मा के विषय में विभिन्न दाशनिकोंके विचासेंका संग्रह
क्रियाजारहादटै।
तथा हि-चेतन्यषिशिष्टं देहमात्मेति छोकायता मन्यन्ते ।
इन्द्रियाण्यत्मेत्यन्ये । अन्तःकरणमात्मेत्यपरे । क्षणभङ्गुरं संतन्य-
मानं विज्ञानमात्मेति बोद्धा बुध्यन्ते । देहपरिमाण आत्मेति
= [8 ¢
ज॑ना जिनाः प्रतिजानते । कतेतादिविश्िष्टः परमेश्वरद्धिनो
जीवात्मेति नेयापिकादयो बणेयन्ति । द्रव्यबोधस्वभावमात्मे-
त्याचायौः परिचक्षते ।
वे [ विवाद | इस प्रकार है- लोकायत ( चार्वाक ) मत वाले मानते है कि
चैतन्य से युक्त देह ही आत्मा है। इनमें ही कु लोग इन्द्रियों को ओौर कु
लोग मन ( अन्तःकरण ) को अत्मा मानतेदहै। संतान ( 8961168 ) से युक्त
गौर क्षणर्भगुर विज्ञान ही आत्माहै, बौद्धोका बोध इस तरहकाहै। जिन
( विजयी ) जनों की प्रतिज्ञा ( 12101208;607 ) है कि देह का परिमाण
( [1ा€ा)ऽं०ा) ) ही आत्मा है । नैयायिक आदि वंन करते हैँ कि जीवात्मा
परमेश्वर से भिन्न है तथा कतंत्व आदि से युक्त है ।
आचायं ( कमारिलमभट्र ) कहते है कि द्रव्यका स्वभाव ( अज्ञान स्वल्प)
भौर बोधका स्वभाव (ज्ञान स्वल्प) आत्मा है [ उनका कहना यह है कि
(आत्मानन्दमयः' ( ते २।५।१ ) मेँ 'आनन्दमय' शब्द से आनन्द कौ प्रचुरता
का बोध होता है, साथ-साथ उसके विरोधी अंश (=द्रव्थांश) कामी, थोड़ा
ही सहो, अस्तित्व मालुम पड़ता है । सोकर उठने पर कितने आदमी कहते है
क्रिमे सुखसे सोया रहा, कुछ स्वप्न मेँ जान नहीं सका । यह दशा सुपु
की थौ । यदि इस दशामें प्रकाश नहो होता तो रेखा कहना कभी संभव नहीं
था कि सुपुत्ि में कु बोध नहीं रहता है । इसलिए अत्मा प्रकाश का अंश
७८ सषेदशनसंग्रहे-
सिद्ध होता है। साथ-साथ बोध का अभाव रहता है इसलिए अप्रकाशां श अर्थाद्
द्रव्या भी उस ( सुषुत्िकी) दशामेंहै। इसौलिएये लोग आत्मा को द्रव्य
स्वभाव जोर ज्ञानस्वभाव मानते है। ] |
( केवलं तति ॥ स
भोक्तंव केवलं न कर्तेति सांख्याः संगिरन्ते । चिद्रूपः
कततवादिरहितः परस्मादभिनः प्रत्यगातमेत्यौपनिषदा भाषन्ते ।
एवं त्रसिद्रे धर्मिणि विशेषतो विप्रतिपत्तौ तद्विरोषसंशषयो युज्यते ।
तथा च संदेहसंभवाजिज्ञास्यत्वं बरह्मणः सिद्धम् ।
# © ८ द्विचारात्मकं $
तदित्थं ब्रह्मणो बिचायेत्वसंभवेन तद्विचारात्मकं ब्ममीमा-
साज्ञाञ्चमारम्भणीयमिति युक्तम् । जन्माध्स्य यतः! ( बर घू°
र
१।१।२ ) इत्यादि सवस्य शासरस्यैतद्विचारापे्षत्वात् शाचप्रथमा-
ध्यायसंगतमिदमधिकरणम् ।
सांख्य लोग कहते है किं आत्मा ( पुरुष ) केवल भोक्ता है, कर्ता नहीं ।
उपनिषदों के अध्येताओों का कथन है क्रि जीवात्मा चित्के क्पमे, कतंत्वादि
विज्ञेषणो से रहित तथा परमात्मा से अभिन्न है। इस प्रकार धर्मी ( आत्मा)
प्रसिद्ध ह परन्तु उसके विकेषणों ( गुणों ) को लेकर विवाद है 1 इसलिए आत्मा
के विशेष ( धमं, गुण ) के विषय में संशय होना युक्तिसंगत ही दै। ओौर जबं
सदेह होना संमव है तो ब्रहम का जिज्ञासा का विषय होना भी सिद्ध हे)
अब चकि ब्रह्य विचारणीय हो सकता है इसलिए उसका विचार करने वाले
ब्रह्ममीमांसा शास्र का आरंभ करना चाहिए, यह उचित है । [ इस प्रकार यह
उत्तर-पश्च हृभा । | "जिससे इस संसारके जन्म आदि होतेह (ब्र सूर
१।१।२ ) यहाँ से आरंभ करके यह् समूचा शाख इसी ब्रह्म के विचारमें लगा
हआ है इसलिए शाख के प्रथमाघ्याय ( समन्वय से संबद्ध अष्याय ) के साथ
यह अधिकरण संगत है । [ यह संगति हुई । ]
विश्चेष-- इस प्रकार उदाहरण के लिए प्रथम सूत्र से संब ब्रह्मजिज्ञासा-
अधिकरश का विस्तृत विर्लेषण किया गया । वास्तव मे इसमें अधिक स्थान
तो पूर्वंक्ष ओर उत्तरपक्ष ने ही षेर लिया जिसमें अवान्तर पक्षों ओर विषयोंका
भी यथास्थान समावेश कर दिया गयाहै। इससे लाभ यह हा कि दर्थनके
मूलभूत सिद्धान्तो से परिचय हो गया । वे विषय है--आत्मा (ब्रह्म) तथा अध्यास ।
( ९. ब्रह्म कौ सिद्धि के लिए आगम प्रमाण )
नन्वित्थंभूते ब्रह्मणि किं प्रमाणं प्र्यक्षमनुमानमागमो वा !
शांकर-दशेनम् ७८६
न कदाचित्तत्र परत्यक्षं भ्रमते । अतीन्द्रियत्वात् । नाप्यनुमानम् ।
व्याप्तस्य लिङ्गस्यामाधात् । नाप्यागमः । "यतो वाचो निवर्वन्ते
द, दे ~
( तं° २।१।१ ) इति श्रत्येवागमगम्यत्वनिपेधात् । उपमानादि-
कमराक्यशङ्कम् । नियत विषयत्वात् तस्माद् ब्रह्मणि प्रमाणं न
संभवतीति चेत्-- । |
द।का-- यह पूचा जा सकता है क्रि उपयुक्त ब्रह्म के लिए प्रमाण क्या है-
अ्यक्ष, अचूमान या आगम? कभीमभी प्रत्यक्षको तो प्रमाण नहींही मन
सकते । वयो कि ब्रह्म इन्द्ियातीत है [ओर प्रत्यक्ष की प्राति इन्दियों की पटच वाले
पदार्थो मेही होती है] । अनुमान भी नहीं लग सकता वयोकि [ ब्रह्म से ] ग्या
किंसी भी लिग ( साधन ) की संभावना नहीं है । आगम प्रमाण भी नहीं लगेगा
वर्योकरि जहाँ से बाणी लौट आती है" ( ते° २।१।१ ) आदि श्रुतिके द्वारः ही,
ब्रह्म आगम से ज्ञेय है, इसका निषेध क्रिया गया है ।
उपमान आदि को शंका तक नहींकीजा सकती क्योकि इनका विषय
` { प्रयोगक्षेत्र, व 18016101) ) बिल्कुल सौमित है। इसलिए ब्रह्म के लिए
कोई भी प्रमाणा संभव नहीं है)
मेवं वोचः । प्त्यक्षा्यसंभवेऽपि आगमस्य सच्छात् । तो
वाचो निवतेन्ते इति वाग्गोचरत्वनिषेधात्कथमेतदिति चेत्-
भरतिरेव निषेधति बेदान्तवेधत्वं ब्रह्मणः श्रुतिरेव विधत्ते । न हि
वेदगप्रतिपादितेऽ्थऽजुपपन्ने वैदिकानां बुद्धिः खिद्यते । अपि त॒
तदुपपादनमागेमेव विचारयति । तस्मादुभयमपि प्रतिपादनीयम् ।
समाधान-एेसा न कहँ । यद्यपि [ ब्रह्म की सिद्धि के लिए †] प्रत्यक्षादि
भ्रमा संभव नहीं है किन्तु आगम की तो सत्ताहै। यदि आप कहं कियतो
वाचो निवर्तन्ते ( जहाँ से वाणी लौट आती है )' इसमें ब्रह्म के वाणी के गोचर
( वाणी से ज्ञेय, प्रकादय ) होने का निषेध किया गया है, तो हम उत्तर दगे कि
श्रुति ही ब्रह्म के वेदान्तो ( उपनिषदों ) के द्वारा ज्ञेय होने का निषेध भौ करती
है ओौरश्वृति ही विधान भी करती है । [ परन्तु इससे घवराना नहीं है । |
वेद म प्रतिपादित अथं जब असिद्ध होता है तब उससे वैदिकों की बुद्धि
खिन्न नहीं होती, बल्कि उस अथं कौ सिद्धिका रास्ता खोजती है। इसलिए
दोनों प्रकार को श्रुतियों का प्रतिपादन ( साधन ) करना चाहिए ।
विषयत्वनिषेधकानि वाक्यानि वाक्यजन्यवृ्तिव्यक्तस्फुरण-
|
| || ७६० सवेदशेनसंमहे-
॥.
।
॥ । लक्षणफलासंमवविवकषया प्रवृत्तानि । विष्यत्ववोधकानि तु इतत
| जन्यावरणमङ्गलक्षणफलसंभव विवक्षया । तदुक्तं भगवद्धिः-
। ६, अनाधेयफलत्वेन भतेत्रह् न गोचरः
प्रमेयं प्रमितो तु स्यादात्माकारसमपंणात् ॥ इति ।
७9. न प्रकाश्यं प्रमाणेन प्रकाञ्चो ब्रह्मणः स्वयम् ।
| तज्जन्याव्रृतिभङ्गत्वास्प्रमेयमिति गीयते ॥ इति च ।
॥ [ अब सभी प्रकारके श्रुति-वाक्यों में एकवाक्यता काप्रदर्चन करनेका
| | || प्रयास करते है] श्रुतियों में जो वाक्य ब्रह्म कोज्ञान का विषय नहीं मानते
॥ , वे इस विचार से प्रवृत्त हुए हैँ किं उन वाक्यों से उत्पन्न वृत्ति ( ज्ञान ) से व्यक्त
| ॥ होनेवाला स्फुरण (ज्ञान में अपने आकार का समपंणा ) रूपी फल प्राप्त होना
॥ | असम्भव है। दूसरी ओरजो वाक्य ब्रह्मयको ज्ञान का विषय मानतेहँवे इस
|
|
।
|. विचार से प्रवृत्त होते हैँ कि उक्त वृत्ति ( वाक्यजन्य ज्ञान ) से उत्पन्न भावरण-
॥| | भंग ( अज्ञान-नाश्च ) रूपी फल प्राप्र होना संभव है। [ जब किसी प्रकारका
|| ज्ञान होता है तो उसके दो फल है--अवरण्ंग ओौर स्फुरण । प्रक्रिया यह्
॥ है किं अन्तःकरण बुद्धि केरूपमें आकर, अपने अन्तगंत चिदाभास को लेकर
| किसी विषय को व्याप्त करता है। बृद्धिकी व्यात्तिसे अज्ञान का नाश ( आव-
|| रणर्भंग ) होता है तथा चिदाभास की व्याप्तिसे विषय ( घटादि) का स्फुरण
(प्रकाशन) होता है । बुद्धि अचेतन होने के कारण स्वयं घटादि का प्रकाशन नहीं
कर सकती । घटादि ज्ञानकी यहो विधिहै।* भव ऊपर कहा गया है कि श्रुतियां
ब्रह्म की ज्ञानगोचरता का विधान भी करती, निषेध भी, निषेध इसलिए
करती है किस्फुरण अर्थात् ज्ञानमेंब्रह्म के आकार का सम्पण सम्भव नहीं
है । अज्ञान का नाक्च होने पर आत्मा अपने आप स्फुरित होती है। यही कारण
¦ है, स्फुरण वाय से उत्पन्न ज्ञान का फल नहीं हो सकता । चिदाभास की व्याप्ति
|| से आत्मा का स्फुरण नहीं होता । इसलिए यतो वाचो निवतंनते' आदि वाक्य `
है । दूसरी ओर, कुछ वाक्यो में ब्रह्य को ज्ञानगोचर माना गया है । वह इसलिए
कि ज्ञान का पहला फल जो अज्ञाननाश रहै, वह॒ तो सम्भवदटै न ? अज्ञान-नाश
बुद्धि कौ व्याप्निसे ही होता है इसलिए उसकी सम्भावना में कोई आपत्ति नहीं ।
फलतः दोनों प्रकार की श्रुतियों का समन्वय ( {९८००} 8 ४00 ) होता है ।
# देखिये- पंचदशी, ( ७।९१ )
बुद्धितत्स्थचिदाभासौ द्वावपि व्याप्नुतो घटम् ।
तत्राज्ञानं धिया नश्येदाभासेन घटः स्फुरेत् ॥
शांकर-द शेनम् ७६१
इसे बडे-बडे आचार्यो ने कहा है-श्रह्य श्रुति का विषय इसलिए नहीं
बन सकता क्योकि [ ब्रह्म पर स्फुरण ूपी ] फल का आरोपण ( उत्पादन )
[ श्रुति ] नहीं कर.सकती । [ ब्रह्म तो स्वयं स्फुरित होता है । श्रुति उस पर
स्फ़रणरूपी फल का उत्पादन नहीं कर सकती । ब्रह्म | प्रमेय तमी हो सकता है
जब वह ज्ञान पर अपने आकारका समपंणा करे। [जैसे घटका स्फुरण,
चिदाभास के द्वारा, अपने आकारका समपंणज्ञान पर करनेसे होतादै,
उस प्रकारसे ब्रह्मका स्फुरण नहीं होता । ब्रह्म अज्ञान-नाशके बाद स्वयं
प्रकाशित होता दहै।]॥ ६ ॥
"ब्रह्य प्रमाणा से प्रकाशित नहीं होता क्योकि उसका प्रकाश अपने आप
होता है। [ सत्य इतना ही है कि प्रमाणसे | आवृति ( अज्ञान, मावरण )
का नाश होता है [ ओर आवरणभंगसे ब्रह्मका स्फुरणं होता है] इसलिए
ब्रह्म प्रमेय कहलाता है ।॥ ७ ॥'
विरोष- जिस स्थान पर ब्रह्मकोज्ञेय कहा गया है वहां यह समकर
अज्ञान-नाश की संभावना की दृष्टि से विचार किया गया है क्योकि अज्ञान-नाश
भीज्ञानहीहि। जहाँ पर ब्रह्म को अज्ञेय कहागवना है वहाँ यह समज्ञे करि
स्फुरण की असंभावनाका दृष्टिकोण है । स्फुरण ज्ञान का अंतिम फल है । स्फुरण
की असंभावना का अथंहैकि किसी प्रमाणके इरा स्फुरण नहीं होना।
वस्तुस्थिति के अनुसार ब्रह्मा का स्फुरण अपने आप होतादहै। इसप्रकार
शंकराचायं ने षारिडत्य का प्रदर्थ॑न तथा अपनी अतुल मेधाशक्ति का परिचय
देते हृए श्रुति पर आरोपित ब्रह्मशास्रीय विग्रतिपत्तियों का निराकरण किया है ।
( ९. सिद्ध अथं का बोधक होने से वेद अप्रमाण-पूवपक्च )
नु स्यादेष मनोरथो यदि सिद्धेऽ्थं वेदस्य प्रामाण्यं
सिध्येत् । संगतिग्रहणायत्ततवात् प्रामाण्यनिरचयस्य । संगति-
ग्रहणस्य च वबृद्धव्यवहारायत्तत्वात् । वद्धन्यवहारस्य च रोके
कारयेकनियतत्वात् । न ह्यस्ति संभवः शब्दानां कार्यऽथे संगति-
ग्रहः सिद्धाथाभिधायकतवं तत्र वा प्रामाण्यमिति ।
न हि तुरङ्त्वे गरहीतसंगतिकं तुरङ्गपदं गोत्वमाचष्टे तत्र
वा प्रामाण्यं भजते । तस्मात्कार्यग्हीतसंगतिकानां शब्दानां कायं
एव प्रामाण्यम् ।
[ मीमांसकों कीओरसे शंकाहो रहीटै कि आपका] यह मनोरथ
म
र
७६२ सबेदशनसंम्रहे-
( समन्वय करने वाला ) तभी पणं हो सक्ता है यदि सिद्ध अथं ( ह १-
8160 (प्र ) का प्रतिपादन करने पर भी वेदकी प्रामाणिकता सिद्ध
हो जाय। कारण यहं है क्रि प्रामाशिकता का निश्चयं संगति (श
ओर अथं का सम्बन्ध ) के ग्रहण करने पर नि्भ॑रहैँ। [ जब तक शब्दार्थं
सम्बन्ध न समभे तब तक क्रिसरी वाक्य को प्रमाण नहीं मान सक्ते। |
संगति का ग्रहण भी वृद्ध व्यवहारपर निभंर करतादहै। लौकिकं दहष्टिसे
वृद्ध व्यवहार एकमात्र कायंसे ही सम्बद्ध रहतादहै। [ कायं = जिषे करना
चाहिए, कतंग्य । बालक पहठले-पहल बुद्धब्यबहार से ही राक्ति-प्रहण करता
है। व्यवहारका अधं है गामानय (याय लाओ) - इस प्रकार के विधि-
चाक्यों के सुननेकेबादजोगायलाने क रूपमे प्रतीत होता है। गाय लाना
एक कायं है कोक विधि बतलाने वाला प्रत्यय ( लोट् ) उसमे लगा है, उसके
सूननेसे कर्त॑व्यकौी भावना होती है। इस प्रकार बालक कायं रूपी जनयन
( 31112 ) के साथ नी-धातु की संगति काग्रहण करतादहै। ^रामने
रावण को मारा' यह वाक्य सिद्धहै अतः किसी व्यवहार की प्रतीति इसमे नहीं
होगी । एसे वाक्यो से बालक शक्तिग्रह नहीं कर सकता । उसी तरह जिस
शब्दसे कायंका बोध नहीं होता त्तथा जो सिद्ध अथं का प्रतिपादक हरेते
शब्द से शक्तिग्रहण नहीं होता-तो उक्त सिद्ध अथं मेंप्रयुक्तं शब्द प्रामाणिक
नहीं हो सकता । इसलिए सिद्ध ब्रह्य के बोधक "सत्यं ज्ञानमनन्तं ब्रह्य"
( त° २।१।१ ) इत्यादि वावयों को प्रमाश नहीं मान सकते । ] `
कायं ( कतव्य }) के अथंमें दाब्दो को संगति का ग्रहण करना सम्भव नहीं
है इसलिए उन्हें सिद्ध अथं का बोधक नहीं मान सकते ओरन उस अथंमें उन्हें
प्रामाणिक ही मान सकते है ।
तुरंगत्व के रूपमे जिसकी संगतिका ग्रहण किया गया है वह् तुरंग
{ घोड़ा ) शब्द गोत्व का बोधक नहीं हो सकता ओर न उस अर्थम प्रामाणिक
ही माना जा सकता । इसलिए यह् निष्कषं निकला करि जिन शब्दों की संगति
कायं के अथं गृहीत की गई है उनकी प्रामाणिकता कायं ( साध्य, कत्य ) के
ङ्पमेहीहोतीहै, [ सिद्ध अर्थ॑मे नहीं। साध्य अथं में संकेतग्रह होने से साध्य
अथंहीप्रामारिक होगा । सिद्ध अथंमें संकेतग्रह होता ही नही, अतः उसमें
भ्रामारिकता मानना ठीक नहीं । मीमांसक केवल विधिवाक्यों को जिनमें साष्य
का निर्देश रहता है, प्रामाणिक मानते ह । ]
नु रुखविकासादिलिङ्गाद् दषंहेतं प्रसिद्धाथेमनुमाय यत्र
शब्दस्य संगतिग्रहो यथा पुत्रस्ते जात इत्यादिषु, तत्रावश्यं
[1 ~ अव 39 कु ~ ~= 5 न ज
शांकर-दशनम् ७६३
कायमन्तरेणैव शब्दस्य सिद्धेऽर्थे प्रामाण्यमाश्रीयत इति चेत्--
न। पूत्रजन्मवदेव प्रियासुखप्रसवादेरनेकस्य हषहेतोरुपस्थीय-
मानत्वेन परिशेषावधारणानुपपत्तेः । पुत्रस्ते जात इत्यादिषु
सिद्राथपरेषु प्रयोगेषु दवारं दवारमित्यादिवत्का्याध्वाहारेण प्रयो
गोपपत्तेश्च ।
दि कटहीं-कहों सिद्ध वाक्य से भी शक्तिग्रह होताहै, इस आश्यसे शंका करते
ई] अब कोई यह कह सकताहै कि जैसे तुम्दं पुत्र हृजादहै, इसप्रकार के
वाक्यो मे मुख-विकास आदि साधनों को देख कर हषं के कारण का, जौ प्रसिद्ध
तथ्य है, अनुमान करके जहाँ शब्द की संगति का ग्रहण करते है वहाँ तो कायं
( साध्य, कर्तव्य ) न रहने पर भी, सिद्ध अर्थम शब्द कीप्रामािकता मानते
है । [ शंकाकायह आशयदहै--रामने मोहन को लघ्य करके एक वाक्य कहा
किं तुम्हं पत्र हज दहै। यह वाक्य किसी कतव्य का तो निर्देश करता नहींह,
सिद्ध वाक्य है । इसे सुनकर, मोहन का मुख प्रसन्न हो गया। इस लिङ्स राम
निदचय करता है कितुम्हँ पुत्र हु्रा है, इस वाक्य का अथं है-पृत्र का जन्म
होना । शब्दों का अथंरामकोलग गयः संगति का ग्रहृण हो गया। एेसा
नहीं सोचं कि किसी दूसरे कारण से-जेसे परीक्षामें प्रथम होने, नौकरी पाने
जादिसे--रामका मुख प्रसन्न है, एसी दशा में पुत्रके जन्मकाही अथं केसे लेते
है? एेसी बात नहीं है क्योकि रामने मोहन की भार्यां को आसन्न-प्रसवाके रूप
मे देखा था । इससे उसने पुत्रस्ते जातः' वाक्य का अथं 'पुत्रजन्म' ही निरदिचत
किया । निष्कं यह निकला कि सिद्ध वाक्योंमें भी शक्तिग्रह होता है अतः वे
भी प्रमाण है । यहु वेदान्तियों कौ ओरसे मीमांसकों को उत्तर दिया गयादहै।]
[ अब मीमांसक इस अवान्तर पक्ष का उत्तरदेरहेरहै।] एेसी बात नहीं
है। कारण यहहै किं जिस प्रकार पृत्रजन्म को हषंका कारण मानकर
[ "त्रस्ते जातः वाक्य का अथं निङ्चय करते ह, उसी प्रकार पत्ती का सुखं
से प्रसव होना आदि भी [ हषं के कारण हो सकते है उन हटा कर ] परिशेष
के नियमसे [ पुत्रके जन्म का | निर्चय करना संभव नहींटहै। [ पूत्रजन्म को
हषं का कारण तभी मानाजा सकता है जब हषं के दूसरे कारण असम्भव हो
जायं तथा केवल पुत्रजन्म हौ कारणों की श्यंखला में बचा रहे । एसो बात नहीं
करि हषं के प्रसव सम्बन्धीही दूसरे कारणनहों। कन्या उत्पन्न होने षर भी
सुख से प्रसव हो जाने परया अच्छे लगन में प्रस्नव होने पर भी हषं हो सकता
है। दूसरी बात यह दहैकि पुत्रस्ते जातः' भी सिद्धवाक्य नहींहै। वक्ताके
तात्पयं से "तुम जानो' इस विधिबोधक शब्द का अध्याहार किया जा सकता है ।]
क
र
¶
॥ । 1
1 ।
॥।
५ वजा ~ 1 =
भ णक क क 9
न्च २
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1 1 न
७६४ स्बंदशनसंम्रहे-
पुत्रस्ते जातः' इत्यादि सिद्ध अथं का बोध कराने वलि प्रयोगोंमे दारं
दारम्" ( = द्वारं पिषेहि, दरवाजा लगाओ ) इत्यादि वाक्यों कौ तरह कायं
( विधिबोधक शब्द } का अध्याहार करके प्रयोग कौ सिद्धिकौी जा सकती है ।
[ किसी वाक्य मे विधि मुख्य है, उसके बोधक पदों का अध्याहार करना सर्वथा
उचित है। तास्पयं रहने पर तो विधि.बोधक पदों का अध्याहार करना
आवश्यक ही है । अब वेदान्त-वाव्यों पर आरोपण होगा कि वे शार ही नहीं
है। शाख में विधि ओौर निषेध दो हौ बातं रहती है-एेसा करो, एेषा
मत करो । |
मे + ¢
शाख्रत्वप्रसिद्धया च न वेदान्तानां सिद्धाथेपरत्वम् । प्रवृत्ति-
निवृत्तिपराणामेव वाक्यानां जाखत्वप्रसिद्धेः । तदुक्तं भद्राचारयंः-
८, प्रवृत्तिवां निवत्तिवों नित्येन कृतकेन वा ।
पुंसां येनोपदिश्येत तच्छाच्लमभिधीयते ॥ इति ।
जिस तरह शान की प्रसिद्धिहै उस तरहसे तो वेदान्त-वाक्यों को सिद्ध
अथं से संबद्ध मानना ही नहीं चाहिए । जो वाक्य प्रवृत्ति या निवृत्ति का उपदेश
करतेहैवे शाख्रकेरूपमें प्रसिद्धहोतेदहै। इसे कुमारिल भदटुने कहा है-
"नित्य ( वेद ) या कृतक ( अनित्य सूत्र आदि) शब्दके द्वारा पुरुषों को प्रवृत्ति
या निवृत्ति का जो उपदेश करता है वही शास्र कहलाता है।' [ शस्त्रके रूप
मे वेदान्त-वाक्यों की प्रसिद्धि है- इसलिए वे सिद्ध अथं अर्थात् ब्रह्यके प्रतिपादक
नहीं हो सकते । यदि आप कहं क्षि सिद्ध ब्रह्म का प्रतिपादन करते है वयोकि
“सत्यं ज्ञानमनन्तं ब्रह्म" आदि वाक्य इसके साक्षी है, तो किर ये वाक्य शास्वही
नहीं है क्योक्रि न तो इन वाक्यों से प्रवृत्ति का ही बोध होता है भौर न निवृत्ति
काही । इस प्रकार आगम कोब्रह्यके प्रमाणके रूपमे रखना भूल है । |
त चैतेषां स्वरूपपरले प्रयोजनमस्ति । शरतवेदान्ताथस्यापि
पुंसः सांसारिकधमीणामनिवृत्तेः । तस्माद्रेदान्तानामप्यात्मा
ज्ञातव्य इति समाम्नातेन विधिनेकवाक्यतामाभित्य कायेपरतेवा-
श्रयणीयेति सिद्धम् । ततःच केवटसिद्भरूपे ब्रह्मणि वेदान्तानां
प्रामाण्यं न सिध्यतीति चेत् ।
[ पूरवैपश्च का उपसंहार करते हए मीमांसक कहते है करि | इन वेदान्त-
वाक्यों का [ विधि से सम्बन्धं न रहनेके कारण ] अपने रूपके बोधके लिए
कोई प्रयोजन ( उपयोग ) नहीं है । वेदान्त ( उपनिषदों ) के वक्यं का अर्थं
शांकर-दशेनम् ७६५
सुनलेनेके बाद भी पुरुष से सांसारिक धर्मों की निवृत्ति नहींही होती है।
। इघलिए वेदान्त-वाक्यों मे भी "आत्मा ज्ञेय है ( जानना चाहिए) इस प्रकार के
समाम्नात ( कथित ) विधिसे एकवाक्यता दिखा कर उन वाक्यों कोकायं
( कतंग्य, विधि ) से ही सम्बद्ध माना जाय, [ सिदध ब्रह्म का प्रतिपादक नहीं|
यह् सिद्धदहो गया।
इसलिए निष्कषं यह निकला कि केवल सिद्ध ( साघ्य नहीं) केरूपमें ब्रह्म
के विषय मे वेदान्त-वाक्य प्रामारिक नहीं हौ सक्ते ।
(९ क. सिद्ध अथे मे शब्दौ की व्युत्पत्ति--उत्तरपश्च )
अत्र प्रतिविधीयते । न ताबस्सिद्धे व्युतपच्यसिद्धिः । प्रागु-
ज्नीतया नीत्या "पुत्रस्ते जातः! इति बाक्यास्सिद्भपरादपि व्युत्प-
िसिद्रेः। न च परिशिषावधारणानुपपत्तिः । प्रियासुखग्रसवा-
देरपि संभवादिति भणितव्यम् । पुत्रपदाङ्कितपटग्रदशेनवस्प्रिया-
सुखप्रसवादिषचकाभावात् ।
अब हम उसका प्रव्युत्तर देते ह । पहले ( तावत् ) यह समञ्चं कि सिद्ध अर्थं
मे शब्दों कौ व्युत्पत्ति नहीं हो सकती है, यह बात नहीं है। जिस नियमका
उन्नयन ( प्रकाशन ) पहले ही किया गया है, उसोसे पुत्रस्ते जातः" इस सिदध
` वाक्य से भी व्युत्पत्ति की सिद्धि होती है। यह भी नहीं सोचना चाहिए क्कि
[ त्रस्ते जातः' का अथं करनेमें | परिशेषके द्वारा [पुत्रजन्म का अथं] निणंय
करना संभव नहीं है । आपने इसक्रा ( परिशेष का निरय न हो सकने का )
कारणा बतलाया हैक पल्ली को सुख से प्रसवहो जाना आदि भी कारणके रूप
म सम्भव हो सकते ह । परन्तु यह् इसलिए सम्भव नहीं है क्योकि पुत्र शब्द से
अंकित वस्त्र का प्रद्ेन करनेवाले [ संदेशवाहक ] के द्वारा पत्नी को सुखसे
प्रसव होने आदि की सुचना नहीं मिलती । [ यह कारण एकमात्र पुत्रजन्म में
ही केन्द्रित है। हषंका कारण इसीलिए पृत्रजन्म ही है। इसके फलस्वरूप
सिद्ध वाक्य से भी शक्ति ( व्युत्पत्ति) का प्रहण होता है। कहना यह है किं
मोहन ने राम के पुत्र की उत्पत्ति का प्रत्यक्ष अनुभव किया । वह पूत्रशब्द से
युक्त कुंकुम से अंकित पट दिखानेवाले संदेशवाहक को लेकर राम के पास
गया । यह् किसी अज्ञात प्रथा कीओर निर्देश दहै। मोहननेरामसेक्हा-
बडे भाग्यवान् हो राम, तुमह पुत्र हुआ दहै। रमतो सुनतेहो हष से भर गया।
उसके दोनों कपोल प्रफुल्ल हो गये, आंखे खिल उदटीं । मोहन उसके हर्षातिरेक को
देखकर अनुमान करता है कि पत्र की उत्पत्ति हौ इसके हषं का कारण है । यद्यपि
७६६ | सवेदशेनसंग्रहे-
सुख से प्रसव भी हुआ है पर वह केवल होने से ही ह्ष॑हेतु नहीं हो सकता । यदि
ठेसा नहीं होता तो गामानय वाक्य को सुनकर प्रवृत्त होनेवाले व्यक्ति का छतर,
ता आदि धारण करना आदि विद्यमान होने से उसमें भी शक्तिप्रहण हो.
जाता । फलतः परिशेष का नियम लगाना संभवदहैजो कारणों कीश्ृह्धला से
पुत्रजन्म को निकाल कर खड़ा करतादहै तथा सिद्ध वाक्यमें मी शक्तिग्रह की
सिद्धि करता है।]
ुत्रजन्मेव तत्छचकमिति चेत्- प्रथमग्रतीतपत्रजन्मपरि-
रि, =
त्यागे कारणाभावात् । पूत्रजननस्येवाधिकानन्दहेतुत्वाच ।
$ क ( ५
ुतरोत्पत्तिषिपत्तिभ्यां नापरं सुखदुःखयोः ।
इति विद्यमानत्वात् । तथा चाचकथचित्सुखाचायः--
९. दृष्टचत्रसुतोत्प्तेस्तत्पदाङ्कितवाससा ।
वाताहारेण यातस्य परिशेषविनिधितेः ॥
( चित्सुखी, प° ८८ ) इति ।
यदि आप कटं किं [ प्रिया को सुखसे प्रसव होने आदि का | सूचक पुत्रका
जन्म ही है [ तथा इस आधार पर दूसरे कारणों की संभावना हो सक्ती टै जौ
हषं के कारण बनकर क्तिग्रहमे बाधा पहुंचा सक्ते दहै, तो हमारा उत्तर है
कि एेसी अवस्थामें यह मान्यहैकि पूत्रका जन्म तो पहले प्रतीत हो चुका
है जिसे आप कारण मान रहेरहै--इसी के, ऊपर दूसरे कारण आधारित दहै)
दूसरे कारणों को तभी स्वीकृत किया जा सकता है जव इस प्रथम प्रतीत होने
वलिकारणको त्यागदं। किन्तु | इस प्रथम प्रतीत होनेवाले ( हषंकारण )
पुत्रजन्म को त्याग कर [ दूसरे कारणों को मान्यता देने का | कोई कारण नहीं
दिखलाई पडता ।
[ पुत्र का जन्म न केवल सबसे पहले प्रतीत होता है प्रत्युत | वहं पृत्रजन्म
ही सबसे अधिक आनन्द काकारणहोतादै। इसकी पृष्ट के किए यह् रखोकाधं
विद्यमान दहै-- पत्र की उत्पत्ति से बढुकर न कोई सुख है ओौर उसकी विपत्ति
से बढ़कर कोई दुःख भी नहीं ।'
एेसा ही चित्सुखाचायं ने कहा है--'जिसने चेत्र के पुत्र की उत्पत्ति देखी दै
वह् ( देवदत्त ) पत्र शन्द से अंकित वस्र ल्य हए संवादवाहक के साथ [ चेत
के पाख | जातादहै इसीसे वह [ पूत्रजन्मही चैत्रके हषंका कारण है-- |
इख परिदोष का निश्चय कर ठता है ।' ( चित्सुखी, पृ° ८८ ) ।
शांकर-दशेनम् ७६७
यदुक्तं शसिद्धाथेपरेषु कायाध्याहारः' इति तदयुक्तम् ।
यख्याथेविषयतया सिद्धेऽपि प्रयोगसिद्धावध्याहाराडुपपततेः ।
-यदुक्तं शाञ्त्वभ्रसिद्धया च न स्वरूपपरत्वम्" इति तदप्ययुक्तम्।
हितश्चासनादपि शाख्रत्वोपपत्तेः । न च प्रयोजनाभावः । श्र॒त-
मतबेदान्तजन्याद्वितीया्मविज्ञनाम्यासेन संसारनिदानावि्ानि-
वृत्युपलक्ितव्रह्मात्मतालक्षणपरमपरुषाथंसिद्धिः |
ऊपर आपने पूर्वपक्ष से यह जोकहादटै किं सिद्ध अथंका प्रतिपादन करने
वले वाक्यों मे कयं ( विधिबोधक ) ब्द का अध्याहार करं, तो यह समीचीन
नहींदहै। कारण यहदहैकि जो वाक्य सिद्ध अथंका प्रतिपादन करता है उसमें
भी मुख्य अथं की वाचकता मानकर प्रयोग की सिद्धिकी जा सकती है [ =
वाक्य भी प्रयोगमें मृख्याथंका बोध करा सकते है|, अतः अध्याहार उपपन्न
( 4०३४१६१ ) नहीं है ।
आपने फिर यह कहा है कि शास्र की प्रसिद्धिके दृष्टिकोण से [ ये वेदान्त
वाक्य | अपने स्वल्पया अथेका प्रतिपादन तक करनेमें असमर्थ, यहभी
असंगत दै क्योकि [ उक्त लक्षण के अतिरिक्त | जो हित ( कल्याण ) का शासन
( प्रतिपादन ) करता है वह भी शास्र कहलाता है । [ इसकिए कल्याण के साधक
ब्रह्म-प्रतिपादक वाक्य गाख्र है । |
जाप इसकी तनिक चितान करंकि [स्वरूप का प्रतिपादन करनेमें]
कोई प्रयोजन नहीं । वेदान्त के वाक्यों का श्रवण ओौर मनन कर लेने पर उससे
अद्ितीय ( 2101816 ) आत्मा के विज्ञान का अभ्यास किया जा सकता है ।
इसके बाद विद्या (ज्ञान) का उदय होनेसे संसारके निदान (कारण)
अविद्या की निवृत्ति होती है तथा इसीके उपलक्षण के रूपमे ब्रह्ममयहो जाना
परम पुरषाथं ( 3 प्रा) 000प0 ) है जिषखकी प्राप्ति होती है । [ अतः
रालर-वाक्यो के मुख्या्थं-बोध का उपयोग तो है ही । ]
न चात्र बिधिः संभवति । विकल्पासहत्वात् । तथा दहि-
कि शब्दज्ञानं विधेय फं बा भावनात्मकमाहोस्ित्साकषात्कार-
रूपम् ?
नाद्यः । बिदितपदाथसंगतिकस्याधीतश्चब्दन्यायतस्यान्त-
रेणापि बिधि शब्दादेबोपपत्तेः। नापि द्वितीयः । भावनाया
७६८ स्ेदशेनसंमरहे-
से
्ञानप्रकर्षहेतमावस्यान्वयव्यतिरेकसिद्धतया प्राप्षतवेनािधेय-
त्वात् । अग्राप्रापकस्येव विधित्वाज्गीकारात् ।
यहाँ पर (= ब्रह्म का प्रतिपादन करने वाटे वेदान्तवाक्यों मे) विधि की
संभावना ही नहीं क्योकि नीचे दिये विकल्पों को सहने की शक्ति ही इसमें
नहीं है । वे विकल्प है क्या शाब्दज्ञान ( सूने गये शब्दो से उत्पन्न ज्ञान ) का
विधान किया जाताहै या भावना का विधान होता हैया साक्षात्कार का
विधान करते रहै?
पहला विकल्प [ कि गाब्दज्ञान ही विधेय है] ठीक नहींहै क्योकि जो
व्यक्ति शब्द ओर उसके अर्थं की संगति ( संबंध ) जान चुक्राटै तथा जिसने
शब्दशा्र ( व्याकरण ) तथा न्यायतत्व ( मीमांसाशास ) का अध्ययन समाप्त
` करच्ियादहै वहतो विधि के बिनाभी केवल सुने गये ज्ञब्द से ही शाब्दज्ञान
पा सकता है, [ इसके पृथक् विधान की अपेक्षा नहीं है । |
दूसरा विकल्प [ किं भावना विधेय है] भी ठीक नहीं क्योकि भावना
( पुनः पुनः चितन करना, निदिध्यासन ) कारण है ज्ञान के प्रकषं का जिसकी
सिद्धि अन्वय ओर व्यतिरेकसे होती है। इसलिए अपने आप प्राप्त होने के
कारण भावना विधेय नहींहै। आपभी उसे ही विधि मानतेरजो अत्राप्त
वस्तु की प्राप्ति कराये । [ अभिप्राय यह है--असि के संनिकषं से शीतपीडा कर
निवृत्ति होती है, उसका संनिक षन होने से शीतपीडा निवृत्त नहीं होती इस
प्रकार अन्वय ओौर व्यतिरेक से अग्नि के संनिकषं को शीत के विनाश का कारण
जानचज्ते ह! उसे बताने के किए ेखा विधान ( {1 पा८४०० ) नहीं देखा
जाता कि कीत के विनाश के किए अग्निका सेवन करना चािए। जो किसी
पमे ज्ञात हो जाय उसे बतानेके किए विधि नहीं होती। वही दशा
्ञानप्रकषं ( कायं ) ओर भावना (कारण) कीदटै। भावना होने से ज्ञानातिरय
होता है, नहीं होने से ज्ञानातिशय का अभाव देखते है । इस प्रकार भावना को
लोग पहले से ही जानच्ते है । यही कारण है कि इसके किए विधि की अपेक्षा
नहीं है । विधि के बिना भी भावना प्राप्त है। |
तृतीये साक्षात्कारः किं ब्रह्मस्वरूप फं बान्तःकरणपरि-
णामभेदः १ नाद्यः । तस्य ॒नित्यत्वेनाविधेयत्वात् । नापि
द्वितीयः । आनन्दसाक्षात्काररूपतया फरत्वेनाबिधेयत्वात् ।
तीसरे विकल्पमे भी प्रन है किनब्रह्मके स्वरूपम साक्षात्कार विधेयटै
यामन के षरिणामके एक विशेष भेदके रूपमे? पला विकरप इसलिए
शांकर-दशेनम् ७६६
ठीक नहीं है किब्रह्मका स्वरूप नित्य है अतः वह विधान के योग्य नहींहै।
[ जिसका करना संभव है वही विधेय होता है । जिसकी सत्ता कभी नहीं होती
(जैसे खरहेकीसींग)याजोनित्यरूपसेसत् हो ( जसे ब्रह्म कास्वरूप) तो
ये दोनों ही कभी भी करणीय नहीं हो सकते । इसकिए इनका विधान संभव नहीं ।
असत् तो कारको के व्यापार के बाद भी सत्ता धारण नहीं कर सकता ओर सत्
पहटे से ही सिद्ध रहने के कारण कारकों के व्यापार की अपेक्षा नहीं रखता । |
दसरा विक्रर्प भी ठीक नहीं क्योकि आनन्द का साक्षात्कार तो इसका फल
है अतः वह विधेय नहीं । [स्मरणीय दहै किं फल को लक्ष्य करके उसके उपाय
का विधान किया जातादै जसे स्वगं के उटेश्यसे याग का विधान । स्वयं फल
काही विधान नहीं होतादै। आनंद तो अंतःकरण का परिणाम है उसका
साक्षात्कार ही तो फल है जिसके विधान की अपेक्षा नहीं है । |
तस्माज्ज्ञ'तव्य इत्यादीनामविधायकत्वात् “अहं कृत्यतचश्व'
(८ पाणि० घरू° ३।३।१६९ ) इति कत्यप्रत्ययानामहार्थे विधा-
नादरहथतेव व्याख्येया । तथा च सर्वेषां वेदान्तवाक्यानामुप-
क्रमोपसंहारादिषडबरिधतात्पयपितत्वात् नित्यञचुद्रवुद्ध ुक्तस्वभाव-
ब्रह्माटमपरत्वमास्थेयम् ।
इसलिए ज्ञातव्यः" इत्यादि शब्द विधान करनेवाके नहीं है । पाणिनिने
“अहे कृत्यतृचर्च' ( पा० सू० ३।३।१६९ अर्थातु योग्यता के अथं में कृत्य ओर
तृच प्रत्यय भी होते दै )--इस सूत्र मे अहं ( योग्यता ) के अथं में कृत्य प्रत्ययो
( तव्यत्, तव्य, अनीयर, ण्यतु, क्यप् ) का विधान किया है। अतः इन शब्दों
की अर्हता या योग्यताके अर्थमेंही व्याख्या करनी चाहिए । [ फकतः
ज्ञातव्य का अथं है ज्ञान के योग्य, द्रष्टव्य = देखने के योग्य । |
इस प्रकार दकि सारे वेदान्तवाक्य उपक्रम, उपसंहार 'आदि छह प्रकार
के तात्पर्य-निर्णायक लिगोंसे युक्त दै, अतः ये सब-के-सव नित्य, शुद्ध, बुद्ध
ओौर मुक्तं स्वभाव वलि ब्रह्मया आत्माका ही प्रतिपादन करते है-एेसा
मानना चाहिए ।
वि्चेष--इस तरह जो प्रन चल रहाथाकि ब्रह्यकी सिद्धिके लिए
प्रमाण क्या है, उसका समुचित उत्तर दे दिया गया किं आगमी ब्रह्मकी
सिद्धिकेक्िए प्रमाणदहै। एकलरूपसे यहाँ इसकी भी विवेचनाहो गर्दकिं
शालो का विषय ब्रह्म है) ऊपर कहा था कि गास्रकाप्रयोज्ञनमभीरहै, जो
है--अध्यास की निवृत्ति । अब उसकी विवेचना करगे ।
् सबेदशनसंग्रहे-
( १०. अध्यास का निरूपण-प्रपंच का विवतं रूप दोना )
निष्परदेश्चे परमाणो प्रदेश्दृत्तित्वेनाभिमतस्य संयोगस्य
दुरुपपादनतया तनिबन्धनस्य दवणुकस्यासिद्धौ दयणुकादि-
रम्भवादासंभवादचे प्रकृतेमहदादिसूपेण [क [क
क्रमेण आरम्भवादासभवादचेतनायाः प्रक्रतेमहदादिरूपेण परिणा-
मवादासंमवाच, ख्यातिवाधान्यथानुपपस्यानिवं चनीयः प्रपश्च-
क [१ ए
शिद्धिवते इति सिद्धम् । स्वरूपापरित्यागेन सूपान्तरापत्तिर्वियतं
इति सत्यमिथ्याख्यावभास इति । अवभासोऽध्यास इति पयायः ।
अवयवो में वृत्ति होने पर संयोग उत्पन्न होता है, इसे सभी मानते दहै! यह
संयोग अवयवो ( प्रदेश ) से रहित परमाणुमे सिद्ध करना कठिन दहै, इसकिए
उस ( संयोग ) पर ही आधारित ( निबन्धन ) इचणुक की भी सिद्धि नहींहो
सकती । फलतः द्चणुक आदि के क्रम से उत्पत्ति मानने वाला अआरभवाद
( न्याय-वेशेषिक से संमत सिद्धान्त ) की सिद्धि असंभव टै । इसी प्रकार अचेतन
प्रकृति की परिणति ( विकास ) महत् आदि तच्वोंके क्रमसे मानने वाला
परिणामवाद ( सांख्यमत ) भी असंभव है । [ आरंभवाद या परिणामवाद के
अयुक्त हो जाने पर यह संसार असत् ही न मान कं क्योकि इसकी प्रतीति होती
है। एेसाभीन करं कि प्रपंचं प्रतीत होता है अतः किसी तरह इन दोनों
सिद्धान्तो का ही निर्वाह करके, प्रपंच सत्य है, यही मान लं । कारण कि ज्ञानियो
की दृष्टि से इस प्रतीतिमें बाधं ( प्रतिरोध ) उत्पन्न होता है। यदि यह संसार
सत्य होता तो इसकी प्रतीति में प्रतिरोध नहीं होता । | प्रतीतिके बाध की
सिद्धि किसी भी दूसरे उपायसे नहींहो सकने के कारण, विवश होकर इस
अनिव॑चनीय ( 1९8[011५891९ ) प्रपंच क्रो चितु या आत्मा का विवतं मानते
है यह सिद्ध हआ । ( अनिर्वचनीय = जिसका वाध ज्ञान से संभव है । |
अपने रूप का परित्याग कयि बिना ही दूसरे रूपका आपादन करना
विवर्तं है। इसे सत्य ओर मिथ्या नाम का अवभाख कहते हँ । [ आत्मा सत्य
है तथा अहंकार आदि प्रपंच मिथ्या । अहंकारादि अनात्म-पदाथं पर आत्मा
के स्वरूप का अध्यास नहीं होता बल्कि आत्माके संसगंका ही अध्यास होता
है । किन्तु आत्मा पर अहंकार आदि अनात्म-पदाथं जो मिथ्या है, उनका स्वरूप
भी अध्यस्त होता है। सीपीमे रजत का अध्यासभीरणेसाही टै जिसमें सीपी
अपने रूप का त्याग किये बिना ही रजत के रूपमे बदल जाती दहै) | अवभास
ओर अध्यास, ये दोनों पर्याय ( 9०४४7) ) है ।
शांकर-दशनम् ८०१
( १० क. अध्यास के भेद्- दो पकार से )
स चाध्यासो द्विषिधः-अर्थाध्यासो ज्ञानाध्यासघ्रेति।
तदुक्तम्-- ¦
१०. प्रमाणदोषसस्कारजन्मान्यस्य परात्मता ।
तद्वश्वाध्यास इति हि दयमिष्टं मनीषिभिः ॥ इति ।
यह अध्या दो प्रकारका है--अर्थाध्यास तथा ज्ञानाध्यास [ सीपी पर
मिथ्या रजत का अध्यास होना अर्थाध्यास दै । यह वही भ्रम है जिसमें मिथ्या
का आधार कोई पदाथ रहता है । एक अथं ( वस्तु ) का दूसरे पर आरोप होना
अथाध्यास ( 30९०० ज ०४९८८ ) है । जब मिथ्याज्ञान
का आत्मा पर आरोप होता है तब उसे ज्ञानाध्यास ( ऽप€पण](भध्ल
५1 }70164्6 ) कहते हैँ । | इसे कहा गया दै--श्रमाण ( नेत्र आदि );
दोष ( दूरी आदि ) तथा संस्कार ( रजत के पूर्वानुभव से आत्मा मे उत्पन्न
संस्कार ), इन तीनों से उत्पन्न होनेवाली, एक वस्तु की जो द्सरे रूप मे प्रतीति
है, वहं तथा उसका ज्ञान--ये दोनों अध्यासदटै, यह मनीषियों को अभीष्
है ।॥। १०) [ प्रस्तुत स्थल में अन्यथा-प्रतीति के तीन कारण दिये गयेदह।
प्रमाण, दोष ओर संस्कार से ही मिथ्याख्याति होती दै । |
पुनरपि द्विविधोऽध्यासः । निरुपाधिकसोपाधिकमेदात् ।
तदप्युक्तम्--
११. दोपेण कमणा वापि क्षोभिताज्ञानसंभवः ।
त्विद्याविरोधी च अ्रमोऽयं निरुपाधिकः ॥
१२. उपाधिसनिधिप्रा्क्षोभाविचाविजुम्मितम् ।
उपाध्यपगमापोद्यमाहुः सोपाधिकं भ्रमम् ॥ इति ।
अध्यास पुनः दो प्रकार का है-- निरुपाधिक ओर सोपाधिक । इसे भी कहा
है-दोषसेयाकमंसे संचालित अविद्या ( अज्ञान ) से जो उत्पन्न होता है
तथा तत्त्वज्ञान का विरोधी होता है वह भ्रम निरुपाधिक ( आत्मा पर अहंकार
का अध्यास करने वाला } है । [ इदं रजतम्" वाक्य में इदम् का अंश उपहित
नहीं हआ है । उस पर रजत के संस्कार के साथ वतमान अविद्याके द्वारा
रजत का अध्यास होता है। उसी प्रकार अविद्याके द्वारा ही अनुपहित चित्
रूपी आत्मा पर अहंकार का अध्यास होता है । ]॥ ११॥ उपाधि के सामीप्य
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८०२ सर्व॑दशेनसंम्रहे-
से जब अविद्या मेँ क्षोभ ( संचालन, क्रिया ) उत्पन्न होता है तब उस अविद्यासे
ही उत्पन्न भ्रम को सोपाधिकं कहते हँ जो उपाधि के विनाशसे स्वयंभीनष्टहो
जाता है। [ जब एकात्मकं ब्रह्य पर, उसके उपहित हौ जाने पर, जीव ओर
ङ्दवर के रूप में भेद की प्रतीति हो तो उसे सोपाधिकं भ्रम कहते हैँ । | ॥१२॥'
तत्र स्वरूपेण कस्पिताहमाचध्यासो निरुपाधिकः । तद-
र ५ ¶् ॥ =
१३. नीलिमेब वियत्येषा श्रान्त्या ब्रह्मणि ससृतिः ।
घटय्योमेव भोक्तायं भ्रान्तो भेदेन न स्वतः ॥ इति ।
अत एव भाष्यकारः श्क्तिका रजतवदवभासत एकश्न्द्रः सा्-
तीयवदिति' निदश्षनद्वयषदाजहार । शिष्टं शाञ्च एव स्पष्टमिति
विस्तरभियोपरम्यते । एवं च दृण्टश्यौ दावेव पदाथोविति
वेदान्तिनां सिद्धान्त इति सवेमवबदातम् ।
उनमें स्वरूप से कल्पित “अहम्' आदि का | आत्मा पर ] अध्यास होना
निस्पाधिक है । उसे भी कहा है-- "जिस प्रकार आकाश मे नीलापन का श्रमे
उसी तरह भ्रान्ति से यह संसार भी ब्रह्य मे प्रतिभासित होता दै । | जकार सत्य
है नीलिमा भ्रम, वैसे टी ब्रह्म सत्य है प्रपंच भ्रम । जेसे भ्रम के कारण आकाश
से भिन्न ] धट के आकाश को समन्ते वसे ही यह भोक्ता ( जीव ) [ । अपने
को ब्रह्मसे ] भिन्न समञ्चकर श्रान्त होता है जबकि स्वरूप से एेसी भिन्नता
नहीं है ।॥ १३॥।" [ उक्त शलोक में दोनों प्रक्रार के अध्यासोंका वणन द,
आत्मा पर अहंकारादि का अध्यास होना निरुपाधिक श्रम है) निरुपाधिक भ्रम
उसे कहते ह जो अधिष्ठान ( आत्मा ) के ज्ञान से निवृत्त हो जाय अथवा जिसका
निरूपण उपाधि के निरूपण के अधीन न हो । एक ब्रह्म मँ जीव ओर ईइ्वर के
मेद की प्रतीति होना सोपाधिक अध्यास है। सोपाधिक श्रम की निवृत्ति अविष्टान
के ज्ञान से नहीं होती क्योकि इसमे उपाधि गी है । इसका निरूपण त क्र
निङूषण पर आधारित है । शंकराचायं ने ब्रह्मसूत्र-भाष्य के आरंभमें दोनों के
उदाहरण दिये है--इसे बतकाते है । |
इसी किए भाष्यकारने दो दृष्टान्तो का उद्धरण दिया दै सीपी चांदी की
माति प्रतीत होती है ( निरुपाधिक ) ओौर एक चंद्रमा दो चद्रमाजो की तरह
दिखलाई पडता है ( सोपाधिक ) ।* अवरिष्ट बातं तो शास्रमेदी स्पष्ट हुई
ॐ, अतः विस्तार होने के भय से हम उपरत होते है । इस प्रकार वेदान्तियो का
शांकर-दशेनम् ८०३
सिद्धान्त है कि क् ( आत्मा ) ओौर दृश्य ( प्रपंच ) ये दो पदाथं ही है, इस तरह
सब कु स्पष्ट हू ।
(१६. अभ्यास का मीमांसकोौ के द्वारा खंडन--लंबा पूर्वपक्च )
अत्र प्रभाकरः--श्ुक्तिका रजतवदबभासत इति दृष्टान्तो
नेष्टः । रजत प्रत्ययस्य श्ुक्तिकारम्बनत्वालुपपत्तेः । तथा हि-
इदं रजतमिति प्रतीतौ श॒क्तेरालम्बनत्वं पुरोदेशसत्तामात्रेणावल-
म्ब्यते, कारणत्वेन, भासमानत्वेन वा १ नाद्यः । परोषतिनां
लोष्टादीनामप्यालम्बनत्वभ्रसङ्गात् ।
इस प्रसंग में प्रभाकर का कहना है किंसीपी रजतके रूपमे प्रतीत होती
है, शंकराचायं का यह दृष्टान्त ठीक नहीं है । रजत का ज्ञान सीपीके विषयमें
हो जाय, एेसा संभव नहींदहै। [पटके विषयमे क्भीभीघटका ज्ञान नहीं
हो सकता है । जो विषय है उसीका ज्ञान होगा, दुसरे का नहीं । | इसे इस रूप
मे देखं-- इदं रजतम्" इस प्रतीति मे [ चाँदीके ज्ञानको | सीपीके विषयमे
क्यों मानते है ? क्या उसकी सत्ता सामने है इसीलिए या वह सीपी कारण के
रूपमे है इसलिए या केवल प्रतीत होती है इसलिए ?
( १) यदि आप प्रथम विकल्पके अनुसार | र्चादीके ज्ञान को सीपी-
विषयक इसलिए मानते है, कि सीपी की सत्ता ही सामनेहै तो यह् कल्प | ठीक
नहीं है क्योकि तब तो पत्थर आदि कोभी, जो सामने पड़े है, विषय (आटंबन)
बनाया जा सकता है। [ सामने केवलसीपीही तो नहीं दै जिसकी प्रतीति
्चादीकेरूपमें हो जायगी । पत्थर, भिद्री आदि सारे पदाथं सामने पड़दटं।
इन्टँ रजतन्ञान का विषय क्यों नहीं बनाते ? इससे पता च्गतादटै कि सीपी
विषय हो ओर प्रतीति रजतकीहो, यह कभीभी संभव नहीं। अब दूसरे
पक्ष को उठति है । |
विश्चेष--यहाँ से अख्यातिवादी मीमांसकं का मत दियाजा रहाहै। इसे
संक्षेप मे समञ्च के) सीपी भें जो इदं रजतम्" का ज्ञान होता है यह श्रम नही, .
बल्कि यथाथ ज्ञान है। वस्तुतः इसमे दो ज्ञान ह । "इदम्" प्रत्यक्षज्ञान है ओर `
रजतम्" स्मरणात्मक ज्ञान है जो पहले से देखे गये रजत के संस्कार के उदुबोध
के कारण होता है। इदम्" ( यह ) के द्वारा सामने वतमान द्रन्यमात्र का बोध
होता है। दोष के कारण उसमे अवस्थित सीपी का ग्रहण नहीं होता । तो,
द्रव्यमात्र का ग्रहृण हो जाने पर, रजत के साह्य के कारण, उसके संस्कार का `
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८०४ सवेदशेनसं्रदे-
उदूबोध करके, वह् द्रव्य रजत की स्मृति को उत्पन्न कर देता है। यह स्मृति
ग्रहण का स्वभाव ल्ियि हुए रहती है। दोषके कारण केवर ग्रहण मे ही
अवस्थित रहती है । इस प्रकार प्रत्यक्ात्मक तथा स्मरणात्मक दोनों ज्ञानो में
चिषय या स्वरूपकी टृषटिसे भेदग्रहणन कर सकने के कारण, ये दोनों ज्ञान,
वास्तव मेँ भिन्न रहने पर भी, इदं रजतम्" वाक्य में अभेद का व्यवहार चरति
है। चाँदी का इच्छुक व्यक्ति वहां इसलिए प्रवृत्त होता है कि यह चाँदी नहीं
है" इस रूपमे भेद का ज्ञान उसे नहीं है । यही अख्यानतिवाद् है ।
अथ कलधौतबोधकरणसंस्कारोद्रोधकारणत्वेन तदूदारा
रजतज्ञानकारणत्वादालम्बनतवं मन्यसे, तदपि न संगच्छते ।
चक्षरादीनामपि कारणत्वेन विषयत्वापातात् ।
अथ भासमानतया षिषयत्व मिष्यते, तदप्यश्चिष्टम् । रजत-
नि्मीसस्य शुक्तिकालम्बनत्वाडुपपत्तेः । यस्मिन्विज्ञाने यदवभः-
सते तत्तदाम्बनम् । अत्र च करधोतानुभवः शुक्तिकालम्बनल-
करपनायां विरुध्यते ।
(२) अब यदि आप यह ककि चांदी ( कलधौत ) का बोध कराने
बलि संस्कारके जाग जाने के कारणस्वरूप उसके दवारा ही रजत के ज्ञान
काकारण होनिसे सीपीको हम विषय मानवे हतो यहं मत भौ संगत नहीं है ।
[ रजत के ज्ञानके | कारण तो चक्चुआदि भीहो सक्ते रहै, तो क्या अप
उन्हे भी विषय माननेकोतैयार हैँ? [ रजत का स्मरणात्मक ज्ञान उसके
संस्कार के उद्बोध से उत्पन्न होता है । सीपी चंकि उक्त संस्कार को जगातीहै
इसलिए रजतज्ञान का कारण सीपी है--सीपी विषय है ओर रजत का ज्ञान
होता है । परन्तु यदि कारणों को विषय मानते चरे तो रजतज्ञान के विषयों का
पहाड खडा हो जायगा- नेत्र आदि भीतोकारणरै। |
(३) अब यदि यह् करं कि प्रतीत होती है इसीलिए उसे विषय मानते है
तो यह भी युक्तिसंगत नहीं दै । र्चादी कौ प्रतीति सीपी पर निभैर करे, यह्
संभव नहीं । जिसके ज्ञानमें जो प्रतीत होता है वही उसका विषय (आरुबन) है ।
यहाँ पर यदि सीपी को विषय मानकर चाँंदीका अनुभव करं तो यह नियम
के विषुदधहोगा। [ सीपीको विषय मानेगे तो सीपीका हौ अनुभव होगा,
चाँदी का नहीं । फलतः सीपी को विषय मानने पर चांदी की अनुभूति नहीं
होगी- यह् निदिचत हुआ । | |
शांकर-दशनम् ८०५
तथा चाचकथन्न्यायवीथ्यां शालिकनाथः
१४. अत्र रमो य एवार्थं यस्यां संविदि भासते ।
वेद्यः स॒ एव नान्यद्वि वेद्यव्रे्यत्वलक्षणम् ॥
१५. इदं रजतमित्यत्र॒ रजतं त्ववभासते ।
तदेव तेन वेद्यं स्यान्न तु शुक्तिरबेदनात् ॥
न्स
१६. तेनान्यस्थान्यथा भाखः प्रत्येव पराहतः।
अन्यस्मिन्भासमाने हि न परं भासते यतः ॥
( प्रक० प० ४।२३-२५ ) इति ।
इसे न्यायवीथी ( = प्रकरणपंचिका का चतुथं प्रकरण-प्रभाकरमतके
अनुसार ग्रंथ ) मे शालिकनाथ ( मीमांसक, समय--७९० ई०, कृति्या--दाबर-
भाष्य-व्याख्या, प्रकरणपंचिका ) ने कहा है-- हम यहां कहते हँ कि जिस
विज्ञान में जो पदार्थं प्रतीत होता दहै वही उस ज्ञान का विषय ( अर्थात् वेद्य)
होता है। वेद्य या अवेद्य होने का लक्षण किसी दूसरे मे नहीं होता टै ॥ १४॥
यहु चादीहै' इसमें चांदीकी ही प्रतीति होती है। अतः इस प्रतीति का विषय
चांदी ही बन सक्ती दहै, सीपी नहीं क्योकि सीपी की प्रतीतितो नहींहो रही
है । १५1 इस प्रकार एक पदा्थंका दूसरे रूप मे प्रतीत होना उस प्रतीति
(ज्ञान )केद्रारा ही खंडित हो गया । क्योकि जब एकं पदाथं भासित ( प्रतीत )
हो रहा है तब दूखरा पदा्थभी भासित नहीं हो सकता ॥ १६॥ ( प्रकरण
पंचिका ४।२३-२५ )।
विशोष- इन सभी श्लोकों का मुख्य अथं यही है कि जिसकी प्रतीति होती
है, वही विषय है। घट की प्रतीतिहोरहीदटै तो ज्ञेयघटहीदहै, पट नहीं।
चांदी की प्रतीति होने पर विषयभी चादीहीदहै, सीपी नहीं। यदिसीपीकी
प्रतीति हो तो भले ही सीपी को विषय मान सकते हैँ ।
( ११ क. मिथ्याज्ञानं के लिए कारण-सामप्री का अभाव )
किं च मिथ्यज्ञानोत्पत्तो सामग्री न समस्ति । # केवला-
नीद्दरियादीनि दोषदूषितानि वा १ नाद्यः। तेषां समीचीनज्ञा-
नजननसामर््योपलम्भात् । अन्यथा समीचीनं रजतज्ञानं न
कदाचिदुदयमासादयेत् । न द्वितीयः । दोषाणामोत्सभिककाय-
प्रसवश्चक्तिग्र तिवन्धमात्रप्रभावत्वात् ।
== ज + (दन्द
८०६ सबेदशेनसंप्रदे-
इसके अतिरिक्त यह भी बात है किं मिथ्याज्ञान की उत्पत्ति के किए कारण-
सामग्री भीनहींदहै। प्रन दहैकि क्या एकमात्र इन्दियाँही कारणं या दोषों
से दूषित इन्द्रियां कारण ह ? पहला विकल्प तो ठीक नहीं हो खकता क्योकि
इन्द्रियों मे सम्यक् ( (0176४ ) ज्ञान उत्पन्न करने कौ सामथ्यं देखी जाती हे ।
यदि एेसा नहीं होता तो चाँदी का ठीक ज्ञान कभी उत्पन्न हो ही नहीं सकता था
दूसरा विकल्प भी ठीक नहीं है क्योकि दोष कार्योत्पादन की स्वाभाविक
( ओत्गिक ) शक्तिका ही प्रतिबन्ध भर कर सकते ह, [ उसमें किसी अपूवं
दक्ति का उत्पादन नहीं कर सकते । |
न हि दृष्टं कुटजबीजं बयाङ्ककरं जनयितुमीष्टे । न वा तेल-
कलुषितं शाणिबीजमश्ारयङ्करजननायालम् । फं तु स्वकायं
न करोति ।
ननु दावदहनदग्धस्य वेत्रचीजस्य कदलीकाण्डजनकतं
दृष्टमिति चेत्-तन्न स्थाने । दग्धस्यावेत्रवीजतवेन दोषाणां
वरिपरीतकरा्यकाग्नवं ८८8 $
क प्रत्यनुदाहरणात् ।
[अब अपने कथन की पष्टिके लिए दृष्टान्त देते है-- ] दोष से दूषित
केवडे का बीज बड़के पेड का अंकुर नहीं उत्पन्न कर सकता 1 अथवा तेल से
कट़षित धान का बीज धान से भिन्न किसी पौषे के अंकुर का. उत्पादन करने
मे समथ नहीं है । [ दूसरे के अंकुर का उत्पादन तो दूर रहा | वह अपना कायं
भी नहीं करता । [ फल यह हुआ कि दोषयुक्त होने से भी इन्द्रियां मिथ्याज्ञान
का उत्पादन नहीं कर सकतीं । दोषों के रहने से ज्ञानोत्पादन का कायंबंददहो
सकता है । ेसा नहीं कि एक ज्ञान को छिपाकर दूसरा मिथ्याज्ञान ये दोष
उत्पन्न कर द 1 |
अबएकरंकाटहैकि दावाभ्निसे जले हुए बेतके बीजमें कटे का काण्ड
( धड़ ) उत्पन्न करने की शक्ति देखी जाती दै उसका क्या उत्तर दगे ? वास्तव
मे यह शंका युक्तियुक्त नहीं है । कारण यह है कि जर जाने पर तो वह बेत का
बीज रहा नहीं (बत का उत्यादन करने की सामथ्यं उसमे रही नहीं )1
इसकिए दोष विपरीत कायं उत्पन्न कराने की शक्ति रखते है'--इसका
उदाहरण तो हुआ ही नहीं । | बात यह है कि दोषों के कारण विपरीत कायं-
जैसे सीपीमे रजत का ज्ञान उत्पन्न करने के जैसा कायं-उत्यन्न होने का
उदाहरण तभी संभव था जब जे हए वेतः के बीज मे बेत को उत्पत
शांकर-दशनम् दण्डः
करने की सामथ्यं रहती, फिर भी वह बेत उत्पन्न न करके केठे की धड़
उत्पन्न करता । | |
न च भस्मकदोषदूषितस्य केकषेयस्याञु्क्षणेः बह्ज्नपचन-
सामर्थ्य दृष्टमिव्ये्टव्यम् । अरितपीताद्याहारपरिणतो जाटरस्य
जातवेदसः शक्तत्वात् । तदुक्तम्--
¢ , र [+
१५. अयथाथेस्य बौधस्य नोत्पत्तावास्त कारणम् ।
[क $ धृ्क्तिषिधातता
दोषाधेन्न हि दोषाणां का्थश्क्तिटि ॥
[क ¢ [नर व
१८. भस्मकादिषु कायस्य विधातादेव दोषता ।
अग्नेहिं रसनिष्पत्तिः कायं जटरवतिनः ॥
( प्रक ० प० ४।७३-५४ ) इति ।
[ आप अपने कथन की पृष्टिके किए | यह उदाहरण भी नहीं दे सकते कि
भस्मक-दोष ( अधिक अन्न पचानेवाला रोग ) से दूषित होने पर जठराग्नि
( कौक्षेयक = जठर-संवबंधी, कुक्षि = पेट, आगुशुक्षणि = अग्नि ) मे बहुत अर्धिक
अन्न पचाने की शक्ति देखी जाती है ( अर्थात् दूषित अग्नि मे अन्न पचनि की
सामथ्यं है ) । खाये-पीये गये आहार की परिणति (परिपाक, रक्तादि का निर्माण)
मे जठराग्नि अपने आप ही समर्थं होती है। [ आहार अधिको जानेसे अग्नि
मे जो मंदता उत्पन्न होती है उसे भस्मक-रोग रोक देतादै, मंदता आने नहीं
देता । किन्तु साथ-साथ रक्तादि रसो के निर्माणमेंभी प्रतिबंध खग जाता है। |
इसे कहा गया है--अयथा्थं ( मिथ्या ) ज्ञान (जसे सीपी में चांदी का ज्ञान)
की उत्पत्ति के किए कोई कारण ही नहीं मिरुता । यदि दोषों को कारण मानं
तो यह युक्त नहीं क्योकि वे दोष कार्योत्पादन की शक्तिमें केवल प्रतिबंध कर
सकते हैँ [ अपूर्वं शक्ति का उत्पादन नहीं । | । १७ ॥ भस्मक आदि रोगोको
जो आप दोष मानते है वह केवल इसलिए कि वे [ रुधिरोत्पादन ख्पी | कायं
करे प्रतिवंधक है क्योकि जठरवर्ती अभ्निका रसनिष्पादन् करना तो स्वाभाविक
कायं ही दै ।॥ १८ ॥° ( प्रकरणपंचिका ४।७३-७४ ) ।
( १९१ ख. असत् अथे का ज्ञान नदीं हेता )
अपि चासत्यप्यर्थ ज्ञानप्रादुमावाभ्युपगमे समीचीनस्थठेऽपि
ज्ञानानां स्वगोचरव्यभिचारशङ्काङ्रसंभवेन निरङ्शो व्यवहारो
टुप्यते । तदाह-
~ "न का क
८०८ सवंदशेनसंग्रहे-
१९. यदि चार्थं परित्यज्य काचिद् बुद्धिः प्रकाश्चते ।
व्यचिचारवति स्वार्थे कथं विश्वासकारणम् ॥
( प्रक० प० ७।६६& ) इति ।
इसके अतिरिक्त यह आपत्ति भी होगी कि यदि आप असत् या अविद्यमान
वस्तु के विषय में ज्ञान की उत्पत्ति मानेगे ( =चांदीकेन रहने पर भी दी
का ज्ञान मानेगे ) तो जहां ठीक ( (५१९५४ ) ज्ञान होता है उस स्थल मे भो
ज्ञान अपने विषय ( गोचर ) से व्यभिचरित होने लगेगा ( अर्थात विषय न
रहने पर भी ज्ञान की उत्पत्ति होने ल्गेगी )। एेसी शंका के अंकुर के उत्पत्त
होने से संसारमें निरंकुश ( निःशंक ) व्यवहार का बिल्कुक अभाव ही हो
जायगा । [ यह अभिप्राय है कि यदि प्रमाण माने जाने वि व्यक्ति भी चांदी
दिवाकर कट कि यह र्चादीहै तोशंकाहो सकतीटै कि यह आप्तज्ञान कभी
विषयाभावमे भीतोहो सकतादै! फलतः चांदी का नि्चयन हो सकने से
उसकी ओर लोगों की प्रवृत्ति ही नहीं होगी । सारा ज्ञान शंकायुक्त हो जायगा
ओर सभी व्यवहार नष्ट हो जायेंगे । परंतु वस्तुस्थिति कृ दूसरी ही है । सभी
व्यवहार निशित ज्ञानके बाददहीहोते दहै । |
इसे कहा है-- यदि कोई ज्ञान वस्तु को अपेक्षा रखे बिना ही प्रकाशित
हो तो वह ज्ञान जब अपने विषय को ठेकर ही व्यभिचारित (1८81६४6) ६)
होता है तो कैसे विश्वसनीय हो सकता है ?' [ चाँदी न होने पर भी यदि उसका
ज्ञान हो जाय तो वह व्यभिचारी है, नियम का पालन नहीं करता-- ज्ञान किसी
विषयकाही होता है यह नियम दै। वहं विषय-विहीन ज्ञान अपने विषयरूप
पदाथं की सत्ता का बोध कैसे करायेगा ? निष्कषं यह निकला कि अविद्यमान
रजत प्रत्यक्ष ज्ञानं का विषय नहीं है, वह वस्तुतः स्मरण ज्ञान है। अतः इदं
रजतम्" मे प्रत्यक्ष ओर स्मरण इन दोनों ज्ञानं को स्वीकार करं यह मीमांसकं
का सृुञ्चाव ओर मान्यतादटै। |
( १९१ ग. प्रहण ओर स्मरण का विश्लेषण )
ननु रजतगोचरेकविशिष्टज्ञानानङ्गीकारे विशिष्टव्यवहारो न
सिध्येत् । अतस्तस्सिद्ध येऽपि विपयंयोऽङ्गीकायं इति चेन्न ।
इदं रजतमिति ग्रहणस्मरणामिधस्य बोध्यस्य व्यवहारकारण-
त्वाङ्गीकारात् । ययेवमिदं शक्तिकाशकलं तद्रजतमित्यतोऽपि
विशिष्टव्यवहारः स्यादिति । तन्न ।
शांकर-दशेनम् ८०६
अबये वेदान्ती कह सकते है किं जब तकं आप रजत के विषय मे एक
बिदिष्ट ( प्रत्यक्ष ) ज्ञान नहीं स्वीकार करते तब तक | इदं रजतम्" के रूपमें
आपका ] यह विशिष्ट व्यवहार सिद्ध नहीं होने काटै। [ अभिप्राय यहदहैकि
उक्त वाक्य का प्रयोग तभी खफल होगा जब उसका प्रयोग करने वाले व्यक्ति को
करिसी न किसी रूप में रजत का प्रत्यक्ष हो रहा है । बिना रजत-परत्यक्ष के कौन
मूलं "ददं रजतम्" कटेगा ? किन्तु वस्तुतः तो रजत वहां है नहीं | इसकिए उसकी
सिद्धि के लिए भी विपर्यय ( मिथ्याज्ञान, भ्रम ) आपको मानना ही पड़ेगा ।
हमारा उत्तर है किं एेसी बात नहीं । उक्त व्यवहार ( "इदं रजतम्' वाक्य
का व्यवहार ) का कारण हम “इदं रजतम्" मे विद्यमान ग्रहण ( प्रत्यक्ष-- इदं"
शब्द मे ) तथा. स्मरण ( "रजतम्" में ) इन दो ज्ञानो को मानते द ।
[ अव वेदान्ती एक आपत्ति इस उत्तर पर भी करते है | यदि एेसी बात
होती [ किदो प्रकारके ज्ञानो से इदं रजतम्' का व्यवहार चलता है | तो यह्
सीपी का टुकड़ा है, वह चांदी टै" इस तरह के वक्योंसे भी विशिष्ठ व्यवहार
होने लगता । [ स्थिति यह है कि जहां वास्तवमें दोज्ञान होते है जैसे सीपी
काज्ञान सीपीके रूपमे ओर उसके आधारपर ही चांदीका स्मरण, वहां
ज्ञानो के पार्थक्यके कारण इदं रजतम्'के रूपमे विशिष्ट व्यवहार नहींहो
सकता क्योकि इस वाक्यसे ज्ञान की एकता प्रकट होती है । यदिदोज्ञानों को
उक्त व्यवहार का कारण मानते तो “इदं रजतम्" तथा “इदं शुक्तिकाशकल,
तद्रजतम्' इन दोनों व्यवहारो मे कोई अन्तर नहीं रह जायेगा ! पर स्वयं
विचार करं, कितना अन्तर दोनोँमेंहै?।
मीमांसक कहते है कि एेसी बात नहीं है। [ इसका कारण अनेके लम्बे
वाक्यमेंदे रहेरहै।|
तत्रेदमिति पुरोधतिदरव्पमात्रग्रदणस्य दोपदूषितचश्चुजेन्यत्े-
नानाकलितश्चुक्तित्वादिविशेषितंस्य सामान्यमात्रग्रहणरूपत्वाद् ,
रजतमिति ज्ञानस्यासंनिहितषिषयस्य सयोगलिङ्खादयप्रद्ूततया
सदरश्चावभोधितसंस्कारमत्रप्रभवत्वेन परिेषप्रप्तस्म्रतिभावस्य
दोषेतुकतया गरदीत-तततांरग्र मोषाद् ग्रहणमात्रत्वोपपत्तेः ।
उस ( वाक्य ) मे इदम् शब्द सामने में विद्यमान केवल द्रव्यकाही
ग्रहण करता है ( कौन द्रव्य दै-- यह पता नहीं, केवल (कु द्रव्य है" यही ग्रहण
हआ दहै )। दोषयुक्त ओं से उसका प्रत्यक्ष होने के कारण उक्त ज्ञान
( दरव्य-ग्रहण ) मे शुक्तित्व आदि विशेषणो ( 28५१९818 ) का ब्रहण
चव न्क कि रकरः ~~ ~~ --~ => >>
कन क 1 ककम ध
८१० स्वेदशेनसंम्रहे-
नहीं हो सका (=यह नहीं जन स्केकि जिस द्रव्यको देखादहै वह सीपी
है )। अतः [ इदम्'के द्वारा सीपी का] ग्रहण सामान्य रूप से किया
गया है ।#
"रजतम्? शब्द [का प्रयोग सूचित करतारहै कि उसके | ज्ञान का
विषय ( ्चादी ) समक्षम नहींदै। वहं ( रजतज्ञान ) न तो संप्रयोग ( विषये-
न्दरियसंनिकषं अर्थात् प्रत्यक्ष ) से उत्पन्न हो सकता है, न क्गि ( साधन अर्थात
अनुमान ) से ओर न किसी दूसरे प्रमाणसे ही। सहश वस्तुको देखने से
जो संस्कार जगा है, उसीसे यह ( रजतज्ञान ) उत्पन्न हुआ है इसलिए परिशेष
( अन्तमें बचे हुए होने ) के कारण उसे हम स्मरणात्मकं ज्ञान मानते दहै ।
[ स्मृतिकाकारण यहरटै किं रजत के सहश वस्तु को देखने से रजत का
जो संस्कार मानस-पटल पर बेठादै वह् जागृत हो जातादहै। केवर इसीसे
रजत का ज्ञान उत्पन्न होता दै! | दोष के कारण, उस शब्दम जो रजत
का तत्त्वां गया है उसे त्याग देना ( प्रमोष ) पडता है जिससे
उसकी ( रजतज्ञान की ) सिद्धि केवल ग्रहण ( ^ ]"€})€0810 ) के रूप
मेही दहो सकती है। [ रजतज्ञान से कोई काम नहींलिया जा सकता क्योकि
यह ज्ञान दोष से युक्त दै । अतः उसकी उपयोगिता केवल ग्रहण के अथमेही
है । ज्ञान हआ दै पर उपयोग नहीं । |
तदप्युक्तम्
२०. नन्वत्र रजताभासः कथमेष घटिष्यते ।
उच्यते शुक्तिशचकलं शीतं भेदवजितम् ॥
२१. शुक्तिकाया विशेषा ये रजताद्धेदहेतवः ।
ते न ज्ञता अभिभवाजञ्ज्ञाता सामान्यरूपता ॥
२२. अनन्तरं च रजतस्पृतिजाता तयापि च ।
= पात्तित्यंशपरामशेविवर्जितम् © (~
मनोदोषात्तदिः ॥
२३. रजतं विषयीङत्य नेव शक्तेर्विंवेचितम् ।
स्मृत्यातो रजताभास उपपन्नो भविष्यति ॥
( प्रक० प० ४।२६-२९ )
# तुलना कर-निरु्त--१।१, अदः इति सत्त्वानामुपदेशः' ( यह, वह'
आदि शब्दों से वस्तुओं का सामान्यखूप में ग्रहण होता है ।
[15 ४८ {ॐ १९९ ॐ/ ५
ता +१५ 1.4
` शांकर-दशेनम् ८११
इसे भी [ शालिकनाथ ने ] कहा है प्रश्न-[ यह तो कटिये कि [ रजत
के अभाव मे | यह रजतज्ञान उत्पन्न होना कैसे सम्भव है ? उत्तर--बतलाते
है, सीपी के टुकडे का ग्रहण भेदो ( विशेषो, 18१४।५1९१8 } से रहित होकर
किया जाता है । २० ॥ सीपी में जो विशेष गुण हँ जिनसे उसका पाथंक्य रजत
से स्पष्ट रूपमे जानाजा सकतादहै, वे अभिभूत ( ^)१6८८९त }) होने के
कारण ज्ञात नहीं होते । [ इन्द्रियों का दोष इतना प्रबल हौ जाताहै कि वह
सीपीके गुणों को प्रकटहोने देता ही नहीं जिससेनतोहम सीपीका सीपी
के रूपे ज्ञान कर सक्तेओरनदही सीपीओरर्चादीका भेद कर सकते\
(इदं रजतम्" के व्यवहार के समय इतना ही पता रहता है, इदं = कोई द्रव्य
जिसके विशेष गुण अज्ञात दै । | तो, उस समय द्रव्य कौ सामान्य रूपता ही
ज्ञात होती दै । २१॥ |
(उसके बाद रजत की स्मृति उत्पन्न होती है । उस स्मृति से भी, मानसिक
दोष के कारण तत्त्वां के ज्ञान ( परामश्चं) से यन्य तथा सीपीसे विवेचित
( अलग किये गये ), रजत को विषय नहीं बनाया जाता--इस प्रकार रजतज्ञान
की सिद्धिकी जायगी । [ दोनों श्लोकों का अन्वय एक साथ ही दहै-- तयापि
स्मृत्या मनो“ ` “"विर्वाजतं शुक्तेविवेचितं रजतं नेव विषयीकृत्य ( व्यवस्था-
पितम् ) । ] ॥ २२-२३ ॥ ( प्रकरणपंचिका, ४।२६-२९ ) ।
२४. न ह्यसंनिहितं तावत्प्रत्यक्षं रजतं भवेत् ।
लिङ्खा्यभावाचयान्यस्य प्रमाणस्य न गोचरः ॥
२५. पर्शिषास्स्मरतिरिति निश्चयो जायते पुनः ।
( प्रक० प० ४।२१-३२) इति ।
"पहले तो यही देखें कि रजत सामने में है नहीं, अतः वह प्रत्यक्न नहीं हो
सकता । लिगं ( 11401 +€) ) आदि न होनेसे वह अन्य प्रमाणो
( अनुमान आदि ) का विषय भी नहीं बन सकता ॥ २४ ॥ इसलिए परिदशोषतः
( ओर कोई साधन नहीं होने के कारण अन्त मँ ) यही निचय करना पडता है
कि रजतज्ञान स्मृति ही है ।॥ २५ ॥' ( प्रकरणपंचिका, ४।३१-३२ ) ।
विशोष-इस प्रकार ग्रहण ओर स्मरण से “इदं रजतम्" की सिद्धिकी
गई । अब इस पक्ष पर वेदान्ती पुनः प्रहार करने का विचार कर रहै हैं।
( ११९ घ. प्रहण ओर स्मरण मे अभेद् या सारूप्य )
किमिदमेकेकः वि [
नलु किमिदमेकंकं व्यवहारकारणमुत संभूय ए न प्रथमः ।
८१२ सवेदशेनसंग्रहे-
देशभेदेन प्रवृत्तिप्रसङ्गात् । न चरमः । श्रयत्नायोगपद्याज्जञाना-
यौगप्यात्- ८ ै० घर ३।२।३ ) इत्यादिना ज्ञानयोगपच्-
निषेधात् । अतो ज्ञानदयं हेतुरित्युक्तं वच इति चेत्- मेषं
बोचः । अविनस्यतोः सहावस्थाननिषेधेऽपि भिनश्यदविनश्यतोः
सहावस्थानस्यानिषिद्रत्वेन निरन्तरोत्पन्नयोस्तदुपषत्तेः ।
[ वेदान्ती हमारे पक्ष पर आक्षेप करते है-- ] अच्छा, यह तो बतलाये
कि आपका यह ( ग्रहण ओर स्मरण ) दोनों प्थक्-पृथक् [ “इदं रजतम्" के |
व्यवहारकाकारणदहैया दोनों मिलकर एकं ही साथ ? इनमे पहला विकल्प
संभव नहीं है क्योकि उस स्थिति में देश ( 14५6 ) के भेद से भी प्रवृत्ति
होने लगेगी । [ इदम्" का प्रत्यक्ष हा है तो उसकी प्रवृत्ति वैसे ही पदार्थं की
ओर होगी । स्मरण से उत्पन्न होनेवाटी प्रवृत्ति नियमतः वेसी ही नहीं होती ।
दूसरे एक-एक प्रकार के ज्ञान से भी प्रवृत्ति होने का प्रसंग हो जायगा । प्रवृत्ति-
भेद हो जायगा । |
दूसरा विकल्प भी ठीक नहीं है क्योकि [ कणादने यह लिखकर कि |
“प्रयत्ने एक ही साथ न हो सकने से तथा ज्ञानों की उत्पत्ति एक साथ न होने के
कारण [मनएकहीदटै ]- (व° सू० ३।२।३), ज्ञानोंके एक साथहोने का
निषेध किया है । [ कणाद के वैशेषिक-दशंन मे सूत्र इख रूप मे दै-- प्रयललायौग-
पद्याज्ज्ञानायोगपद्याच्चैकम् । इसमें कहा गया है किं एक शरीर मे मन एक ही
रहता है । यदिएकही शरीरमें करई मनहोतेतो बहुत से प्रयत्न या ज्ञान
साथ-साथ होने लगते । दो विभिन्न अवयव एक दूसरे से विशुद्ध प्रयत्न एक ही
साथ उत्पन्न करते । उसी तरह दो इन्द्रियों से दो ज्ञान एक ही साथ उत्पन्न हो
सकते । लेकिन एेखा होता कहां है ? इसलिए शरीर में एक ही मन सिद्ध होता
है । हमारा तात्पयं इख सूत्रसे इतना हीदैकिं दोज्ञान एक साथ मिलकर
कायं नहीं कर सकते । |
इसलिए [ पूवंपक्ष के अवान्तर पक्ष का निष्कषं निकला कि |दो ज्ञान
( ग्रहण + स्मरण ) कारण के रूप में होगे, यह् कहना युक्तिसंगत नहीं है ।
अब हमारा उत्तर है किणेसा मत कहो । यद्यपि दो अविनाशी ( स्थायी )
ज्ञान एक साथ नहीं रह सकते तथापि एक विनाल्ी ओर दूसरे अविनाशी, इन
दोनों ज्ञानं के एक साथ होने का तो निषेध नहीं न किया गया है ? इसलिए विना
व्यवधान (1०१९1९५) के उत्पन्न होने बलिज्ञानों का एकं साथ रहना (सहा व स्थान)
सिद्ध हो सकता है । [ यदि एक ज्ञान प्रथम क्षण मे उत्पन्न होता है ओर दूसरा
" "५ ण
द चद =
7 च क -4
# १ [क ॥
` प
हि
शांकर-दशेनम् ८१३
द्वितीय क्षण को छोडकर ( व्यवधान देकर ) तृतीय क्षण में उत्पन्न हो तव तो
दोनों कौ सहावस्थिति कभी संभव हीनहींदटै। हां यदि वे दोनों क्रमशः प्रथम
ओर द्वितीय क्षणो मे उत्न्न हों जिससे कोई व्यवधान न पड़े तो तृतीय क्षण मे
एक साथ कायं कर सकते है । ज्ञान प्रम क्षण मे उत्पन्न होता है, द्वितीय क्षण
मे अवस्थित रहता दै ओौर तृतीय क्षण में नष्ट हो जाता है । प्रस्तुत प्रसंग में
ग्रहण प्रथम क्षण में उत्पन्न हुंजा ओौर स्मरण द्वितीय क्षणमें। तृतीयक्षण में
ग्रहण विनाशावस्था मे जा रहाट जव किं स्मरण उस समय अविना-
शावस्था मे दै। इसलिए तृतीय क्षण मे इदं रजतम् का ज्ञान उत्पत
होता है । |
~ 5
ननु रजतज्ञानाद् रजताथ रजते प्रवतेतां नाम । पौरस्त्य
वस्तुनि कथं प्रवृत्तिः स्यादिति चेत्--न । स्वरूपतो विषयतश्चा-
गरहीतमेदयोः ग्रहणस्मरणयोः संनिहितरजतगोचरज्ञानसासूप्येण
वस्तुतः परस्परं विभिबयोरप्यभेदोचितसामानाधिकरण्यव्यपदेशच-
हेतुत्वोपपत्तेः ।
[ अब पुनः शंका है-- ] मान लिया कि रजत का ज्ञान हो जाने से रजत
की इच्छा करनेवाला व्यक्ति रजत की ओर प्रवृत्त हो जायगा । किन्तु सामने
न विद्यमान वस्तु मे उसकी प्रवृत्ति केसे होगी ? [प्रन है कि यदि रजत के
स्मरण से व्यक्ति की प्रवृत्ति होती ह तो स्मरण जिस रजतका हुदै उसी
की ओर शरवृत्ति होगी । धर म अपनी पेटी मे उने वादी देखी हो ओौर उसी
कास्मरण हृ हो तो उसी चाँदीकी ओर व्यक्ति प्रवृत्त होगा, न किं सामने
मे स्थित वस्तु की ओर । |
किन्तु बात एेसी नहीं दै । ग्रहण ओर स्मरण इन दोनोंके भेदका ज्ञान
( &एष्वलण्ञजा ) न तो स्वरूप के आधार पर हमा है, न विषय के
आधार पर ही। इसक्एि ये संनिहित ( सामने वतमान ) रजत के विषयमे
उत्पन्न ज्ञान के समरूप है । वास्तवमे ये दोनों एक दूसरे से भिन्न ह तथापि
[ किन्हीं दो पदार्थो में | अभेद कौ सिद्धि के लिए उचित जो समानाधिकरण का
नियम ( 1. 0 1 ) होता है, उसी से उक्तं ( इदं रजतम्' )
व्यवहार का कारण समन्ञा जा सकता हे । [ सामने मे विद्यमान रजत का
ज्ञान आंखों के संपकंमें आने वाले रजत का प्रत्यक्ष ओर यथाथंज्ञान है।
जसे इदं रजतम् वाक्य ददंता तथा रजतता इन दोनो मे समानाधिकरण का
व्यवहा र उत्पन्न करके उसी कै द्वारा प्रवृत्ति भी उत्पन्न करता दै, उसी प्रकार
८१४ स्बेदशनसंग्रहे-
उयन्ञान की सलू्पताके कारण ये दोनों ज्ञान भी समानाधिकरण का व्यवहार
ओर प्रवृत्ति उतपन्न करेगे । अव बतलाते दह कि संनिहित रजत कै ज्ञान से ्रहण-
स्मरणात्मक ज्ञान की सरूपता केसे है ? |
ग्रहणस्मरणयोः संनिदहितरजतज्ञानसारूप्यं कथम् १ यथा
चैतत्तथा नि्चम्यताम् । संनिहितरजतगोचरं हि विज्ञानमिदम्-
करजतांशयोरसंसर्म नावगाहते । तयोः संस्तवेन असंसगस्य
वाभावात् । नापि स्वगतं भेदम् । एकज्ञनत्वात् । एवं ग्रहण-
स्मरणे अपि दोषवशाद्वि्यमानमपीदमंश्रजतांशयोरसंसगं भेदं
नावगाहेत इति । मेदाग्रहणमेषर सारूप्यम् ।
वामने मे विद्यमान रजत के ज्ञानके साथ ग्रहण ओर स्मरण की
समरूपता कैसे होती है? जैसे होती दै, वह सुनो सामने में विद्यमान
( संनिहित ) रजत के विषयमे जो विशिष्ट ज्ञान ( सामान्य स्पसे होने वाले
जानों की अवेक्षा भिचर ज्ञान, {0106१6४ {0४ 116 पञ फक्त ण
[70 }€4@8 होता है वहं इदम्" के अंश ओर रजत के अशमे भेदः
( असंग ) का ग्रहण नहीं करता । कारणं यह है कि ये दोनों अंश एक दूसरे
से मिले हृए टै अतः भेद हो ही नहीं सकता । [ दोनों ज्ञानों कौ सरूपता भेद
का ग्रहणन कर सकने के कारण है । जहाँ पर सच्चे रजत का प्रत्यक्ष करते
ह वहं पर तो इदम्" ओर रजत के अंशो मे कोई भेद ही नहींटहै क्योकि वे
एक दूसरे से संशृष्ट अर्थात् मिले हृए है । व्हा का ज्ञान असंसगं ( भेद ) का
विषय नहीं है । इसलिए वहाँ भेद का ग्रहण नहीं करते । |
[सच्चे रजत का ज्ञान करने के खमय इदम् ' ओौर "रजतम्" में| स्वगत भेद
का भी ग्रहण नहीं करते क्योकि दोनो एक ही ज्ञान रहै । [ अवान्तर भेदहोनेसे
स्वगत मेद किया जाता है । सच्चे रजत का ज्ञान होने मे "इदम् ओर "रजतम्"
दोनो इय तरह मिलते है कि अवान्तर-भेद का स्थान ही नहीं। |
उसी प्रकारः ग्रहण ओर स्मरण, ये दोनों ज्ञान भी दोष ( मानसिक दोष ) के
कारण, “इदम्! के अंश तथा रजत के अंश मे असंसगं अर्थात् भेद विद्यमान
रहने पर भी उखका ग्रहण नहीं करते । ओर भेदका ्रहणन करनाहीतो
समरूपता है 1 [ दोनों ज्ञानों के स्थानम तो एकता ही नही है-- क्योकि ज्ञान
दो ह । असंसगं ओर अवान्तरभेद की संभावना है । परंतु दोष के कारण उसका
ग्रहण नदीं हो पाता । विरोधका स्फुरण होनेसे ही असंसगंया भेद का ग्रहण
होता है । जसे सीपी ओर दीम भेदै वैसे ही तत् ओर इदम् में भीभेदहै।
शांकर-दशेनम् ८१५
ए अत्यक्ष में यद्यपि इदम प्रतीत होता है तथापि उससे विरुद्ध रहने वाला तदंश
^ स्मरणम दोष के कारण प्रतीत नहीं होता । वैसे ही स्मरण मे यद्यपि रजतां
^ विषय बनतादहै तथापि दोषकेही कारण उसका विरोधी शुक्तित्व प्रत्यक्ष में
विषय नहीं बन पाता। इस प्रकार विरोध कास्फुरण नहींहो सकनेके कारण
स्वरूप या विषय से विद्यमान रहने पर भी भेद ग्रहण नहीं होता । स्वरूपसे
विद्यमान रहने पर भी भेदका ग्रहण नहीं करना--"तत्" के शू्पमेंजो
परोक्षांश है उसकी प्रतीति दोष के कारणस्मरणके रूपमे नहीं होती। विषय
से विद्यमान रहने पर भी भेद का ग्रहण नहीं करना--दोष के कारण शुक्तित्व
की प्रतीति प्रत्यक्षके रूपमे नहीं होती इसलिए । |
तदुक्तं गुरुमतानुसारिभिः-
२६. प्रहणस्मरणे चेमे पिवेकानवभासिनी ।
सम्यग्रजतबोधाच भिने यद्यपि तच्वतः ॥
२७. तथापि भिम नामाते भेदाग्रहसमस्वतः ।
र
सम्यग्रजतबोधस्तु समक्षेकाथंगोचरः ॥
२८. ततो भिने अबुद्ध्वा च प्रहणस्मरणे इमे ।
समानेनेव रूपेण केवरं मन्यते जनः ॥
२९. अपरोक्षावभासेन समानाथंग्रहेण च ।
अवेटक्षण्यसंवित्तिरिति # (क क त्समर्थिता
अवेलक्षण्यसवित्तिरिति तावः ॥
[+ 0
३०. व्यवहारोऽपि तत्तुल्यस्तत एव प्रवतेते ।
( प्रक० प० ४।३३-३७ ) इति ।
एवमग्ृहीतविवेकमापनसंनिहितरूप्यज्ञानसारुप्य प्रहणस्मरणद्रय-
मयथाव्यवहारहेतुरिति सिद्धम् ।
इसे गुरुमत का अनुसरण करने वालों ने कहा है-- थे दोनों ग्रहण ओर
स्मरण भेद के साथ प्रतीत नहीं होते । सच्चे रजत का जैसा बोध होता है यचयपि
उससे ये वास्तव मे भिन्न है ॥२६॥। तथापि भिन्न-जेसे लगते नहीं हैँ क्योकि दोनों
प्रकारके बोधोंमें भेद का ग्रहण न होने की समता है । सच्चे रजतकाबोधतो
सामने में विद्यमान एक ही वस्तु के विषयमे होता है 1 २७॥ रोग इस ग्रहण
ओर स्मरण को उससे भिन्न रूपमे न समञ्च कर केवल समान रूपमे ही समह्नते
है । [ ग्रहण-स्मरणातमक ज्ञान भी सम्यक् रजत के ज्ञान कौ तरह ही समज्ञा
८१६ सबेदशेनसंग्रहे-
। ` जातादहै। यच्चपि यह लोगोंका मानसिक दोषदहै कि दोनोंमें अन्तर नहीं
कर पाते । ] ॥ २८ ॥ प्रत्यक्ष ( अपरोक्ष ) में प्रतीति होने के कारण तथा एक
समान ही वस्तु का ग्रहण करने के कारण दोनो मे अभेद-संवित्ति ( 14710 *16-
१९० ग तला ) का समर्थन होता है । उसके समान व्यवहार भी होता
है तथा उससे लोगों की प्रवृत्ति भी सिद्ध ( ५०७10९१ ) होती है । २९-३० ॥
( प्रकरणपंचिका ४।३३-३७ ) ।
इस प्रकार इस अयथाव्यवहार (असामान्य या विशिष्ठ व्यवहार) काकारण
8 ग्रहण ओर स्मरण इन दोनों को मानते हँ जिनमें परस्पर भेद का ग्रहण नहीं
॥- होता तथा जिन्हें समक्ष में विद्यमान रूप्य ( चांदी) के ज्ञान की समहूपता मिल
| चुकी है-यह सिद्ध हो गया ।
| ( ११ ङ. "पीतःशङ्खः के व्यवहार का समथेन )
: यद्येवमयथाव्यवहारो प्रहणस्मरणजन्यस्तदिं पीतः शह्वः"
| इत्यादौ स न सिद्धः, तत्र तयोरमावादिति चेत्--न । अग्ी-
| । प्राप्रसमीचीनसंसगज्ञानसारूप्यत्वे
| तविवेकयोः 7नसारुप्यत्वे ग्रहणयोरेव व्यव-
। हारसंपादकत्वोपपत्तेः । नयनरद्मिवर्तिनः पित्तदरव्यस्य पीतिमा
दोषवज्चाद् द्रव्यरहितो गृह्यते । शह्वोऽप्यकटितश्ुक्टगुण ; स्व
् ् = € (~ @ ¢ स. = 4
रूपता ग्रद्यत । तदनयोगणगुणिनोः संसगेयोग्ययोरसंसगोग्रह-
१ [क् भ,
सारूप्यात्पीततपनीयपिण्डग्रत्ययवेलक्षण्याद् व्यवहार उपपद्यते ।
॑ [ पुनः एक शंका हो रही ` है--] यदि हम यह मानभी लकि यह
| असामान्य व्यवहार ग्रहण तथा स्मरण से उत्पन्न होता है तथापि शंख पीला
है" इस [ असामान्य प्रयोग | मेतो वह् सिद्ध नहींहोता? कारण यह हैकि
इस प्रयोग मे दोनों का अभाव देखते हैँ । [ ग्रहण की सत्ता होने पर भी स्मरण
की सत्ता नहीं रहती । पीतत्व का अंश स्मरण का विषय नहीं हो खकता क्योकि
उसके संस्कार को जगाने वाली कोई चीज नहीं है। इसकिए मीमांसकं के
अनुसार "पीला शंख' का प्रयोग असंभव हो जायगा । हम | वेदान्ती इसे मिथ्या-
ज्ञान कह कर आसानी से चका सक्ते हैँ । |
[ मीमांसक कहते दै कि | एेसी बात नहीं है । [ यद्यपि यहां पर ग्रहण
ओर स्मरण नहीं है तथापि | व्यवहार केप्रयोजकके रूप मेदो ग्रहणोंकी
ही सिद्धि होती है। इन दोनों ग्रहणो के बीच भेद का ज्ञान नहीं होता तथा
ये समीचीन ( ठीकं (0160४ ) संसगं के ज्ञान की तरह ही हैँ । | पीत शंख
+
र
+ |
.
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म.
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| *#
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4 ५2. ष
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क म् १ ८ ,#4
= १4. ्
^ प - ८ - ११)
शांकर-दशेनम् ८१७
। ` भेदो प्र्क्षजञान हीह जिन हम ग्रहण कहते दै । एक प्रत्यक्ष है वीत, दूसरा
है शंख । इन दोनो ग्रहणात्मक ज्ञानो मे वस्तुतः जो परस्परभेद, दोषके
| 4 कारण उसकी प्रतीति नहीं होती । |
नत्रकिरणों मे अवस्थित पित्तदरव्य की पीतिमा का ग्रहण होता है परन्तु
दोषवश हम पित्त द्रव्य का ग्रहणं उसमे नहीं कर पाते, [ पीत शंख काज्ञान `
पित्त के दोषसे होता है। पित्त आंखों की किरणोंमे रहने वाखा षीलेर्ग
का एक सूक्ष्म द्रव्य दै। जव ओंखोंकी किरणे शवसे संबद्ध होती है तब
दोषवश पित्तद्रव्यका ग्रहण न होकर केवल उसमे स्थित पीत गुणकाही
ग्रहण होता है । यह हज पीतका प्रत्यक्ष अर्थात् पित्तद्रव्य के पीलेपन का
ग्रहण करते हैँ । अब शंख का प्रत्यक्ष देखे। | शाख का केवल स्वरूपही
गृहीत होता टै उसके युक्ल गृण का ग्रहण नहीं होता । [ पीत कै प्रत्यक्षमें
केवल गृण का ग्रहण हुञा, शंख के प्रत्यक्ष मे केवर गुणी का । ये दोनों प्रत्यक्ष
सम्यक् संसर्गज्ञान के समरूप है । समीचीन संसगंज्ञान का अर्थ॑दहै स्वणं आदिमे
वस्तुतः विद्यमान रहने वाले पीत गुण के संबंध का ज्ञान । |
तो, इन दोनों मे अर्थात् गण ओर गुणी मे, जो संसगं के सर्वथा योग्य है,
भेद का ग्रहणन हो सकने की समानता है तथा पीठे स्वणं ( तपनीय ) के पिंड
की प्रतीति की समरूपता के कारण उक्त व्यवहार चर्ताहै। [( १) मद
ग्रहण न हो सकने की तुलना--पीत के प्रत्यक्ष में दोषवश द्रव्य का ग्रहण
` नहीं होता है, उधर शंख के प्रत्यक्ष में दोषवश गुण का ग्रहण नदीं हो रहा है ।
इसे इस सूत्र द्वारा समन्ञं--
| पीत + ( पित्त ) ।
( दवेत ) + रख ।
= पीत + शंख । |
कोष्टमे द्यि गये दरव्यया गुण का ग्रहण नहींदहोरहा है। (२)
समीचीन संसग.ज्ञान से तुलना-स्वणं वास्तव में पीला है। यहाँ गुण
ओर द्रव्य दोनों का प्रत्यक्ष होतादहै। साथ ही दोनों के शुद्ध सम्बन्धं काभी
` श्रत्यक्षहोता है। इसी प्रत्यक्ष के समान उक्तं पीत दांख का प्रत्यक्षद्रयात्मक
ज्ञान भीदहै। इसीसे व्यवहार चलता है ! असंगति नहीं है । |
यथोक्तम्-- `
३१. पीतशचद्धावबोधे हि पित्तस्येन्द्रियवर्तिनः ।
` ` पीतिमा ग्यते द्रव्यरहिंतो दोषतस्तथा ॥
५२ स० सं
८१८ सवेदशेनसंग्रहे-
३२. शद्खस्येन्द्रियदोषेण शुक्लिमा न च गद्यते ।
केवल द्रव्यमात्रं तु प्रथते रूपवजितम् ॥
३३. गुणे द्रव्यव्यपेश्े च द्रव्ये च गुणकङ्खिणि ।
भासमाने तयोबुद्धिरसम्बन्धं न बुध्यते ॥
३४. सत्यपीतावभासेन समे भते मती इमे ।
व्यवहारोऽपि तत्तुल्य एवमत्रापि युज्यते ॥
( प्रक० प० ४।४८-५१ ) इति ।
जैसा कि कहा गयां है-- "पीत शंखके ज्ञान मे [ चक्षु] इन्द्रि में
विद्यमान पित्तका द्रव्यांश छोडकर दोषके कारणं केवल पीतत्व का ग्रहण
होता है ॥ ३१। उधर इन्द्रििके हीदोष के कारण शंख के शुक्लत्वं का
ग्रहण नहीं होता । रूपके अंश को छोडकर केवल द्रव्य का अंश ही उसमें
प्रतीत होता है ॥ ३२ ॥
गुण को द्रव्य ( अपने आश्रयदाता द्रव्य ) की अपेक्षाहै तो द्रव्य भी गुण
( अपने आश्रित गुण ) की आकाक्षा रखता है । ये दोनों जब इस रूप में प्रतीत
होने कगते है [ तो दोनों मे वस्तुतः सम्बन्ध नहीं रहने पर भी उख | असम्बन्ध
को उन दोनोंकी बुद्धि (ज्ञान ) नहीं समञ्च पाती ( = विषय नहीं बना
सकती ) ॥ ३३ ॥ ये दोनों ज्ञान सचमुच के पीत-गुण की प्रतीति की तरह् प्रति-
भासित होते है । इसलिए दोनों का व्यवहार ( = पीत स्वणं ओर पीत शंख )
समान ही रहता है । ऊपर की तरह यह व्यवहार भी युक्तियुक्त है ॥ ३४ ॥'
{ प्रकरण पंचिका ४।४८-५१ } ।
( १२. नेदं रजतम् की सिद्धि-मीमांसक-मत )
नन्विदं रजतमिति भ्रान्तिज्ञानानभ्युपगमे रजतप्रसक्तेरस-
क क क
च्वाननेदं रजतमिति निषेधः कथं कलधोतामावं बोधयतीति चेत्-
च
नेष दोषः । मेदाग्रहप्रसञ्जितस्य शक्तो रजतव्यवहारस्य निषेध-
स्वीकारेण कल्पनाराधवसद्धावात् ।
[ वेदान्ती कोग फिर शंका करते हँ | कि यदि आप इदं रजतम्" में ्रान्ति-
ज्ञान नहीं मानेगे तो रजतकी प्राप्ति का अभाव रहेगा ( वास्तवमें चाँदीतो
वहां है नहीं ) इसलिए "यह चाँदी नहीं है" इस प्रकार का निषेध चाँदी के अभाव
का बोध केसे करायेगा ? [ निषेध किसी वस्तु की प्राप्ति होने पर ही काम देता
शांकर-दशेनम् ८१६
दै । किसी स्थान पर पानी की प्रसक्ति होने पर ही कह सकते हँ कि यहाँ पानी
नहीं दै । जहाँ चाँदी है ही नहीं, वहाँ पर चाँदी नहीं है" वाक्य अन्यावहारिक
हो जायगा 1 |
[ मीमांसक कहते है कि | इनमे तनिक भी दोष नहींहै। सीपीमें भेद
ग्रहण न हो सक्नेके कारण वहां रजत का व्यवहार किया गयादहै उसी
{ व्यवहार ) का निषेध यहाँ स्वीकार किया गया है, जिसमें कल्पना का लाघव
भी होता है। [ तात्पयं यह दै कि "यह चाँदी नहीं" का अथं है-- यह चांदी के
व्यवहार के योग्य नहीं है!" यदि हम रजतका निषेधमभी मानल्तेतोभी
उसका अर्थं रजत के व्यवहार का निषेध ही होता। इस प्रकार दोनों स्थितियों
में एक ही बात सिद्ध होती है । इसकिए नेदं रजतम्" का अथं लाघव से (रजत
के व्यवहार का निषेध" ही रखे । इसके अतिरिक्त रजत के निषेध की कल्पना
क्यो करं ? |
तदुक्तं पञ्िकम्रकरणे--
€
३५. मिथ्याभावोऽपि तत्तुल्यव्यवहारम्रवतेनात् ।
रजतव्यवहारांश्े विसंवादयंतो नरात् ॥
३६. बाधकम्रत्ययस्यापि बाधकत्वमतो मतम् ।
प्रसज्यमानरजतव्यवहार नवारणात् ॥
( प्रक० प० ४।३८-३९ ) इति ।
तदनेन प्राचीनयोज्ञानयोः सत्यत्वे कथं भ्रमत्वसिद्धिरिति शङ्का
पराकृता । अवथाव्पवहारप्रवतेकत्वेन तदुपपत्तेः ।
इसे प्रकरण पंचिका मे कहा गया है-- “उस ( अनुभवजन्य व्यवहार ) के
तुल्य व्यवहार का प्रवतंन करने पर भी रजतके व्यवहारके अंशमें मिथ्याभाव
( 913८५) हो सकता है क्योकि रजत को लेकर ही ये ( वेदान्ती ) लोग
विवाद करते हँ । [ तात्पयं यह है कि ददं रजतम्" मे, वेदान्ती लोग रजत को
भले ही मिथ्या सिद्ध करं क्योकि व्यवहार का प्रवतंक होने पर भी उसमें
विवाद खड़ा हो खक्ता है परंतु "इदम्" पर तो कोई आपत्ति नहीं टै ।
मिथ्यावादी भी इदं" को मिथ्या नहीं कहते । क्योकि इसमें कोई बाधक प्रमाण
नहीं है। बाधकं प्रतीति की दशाम भी इदमंश की अनुवृत्तिहोतीहीटै।
नेदं रजतम्" मे ] जो बाधक की प्रतीति होती है उसकी बाधक्ता भी इसीलिए
मानी जाती है कि प्राप्त ( प्रसज्यमान ) रजत के व्यवहार का उससे निषेध
ष '
[> 7;
क यवका कक
सनता आतान दाका न क साः न ना ततम तिनि त जत ण धयः 12
र - ह
८२० सबेदशेनसंग्रहे-
हो ।॥ ३६ ॥ ( प्रकरणं पंचिका, ४।३८-३९ )। [ इन शलोको मे कहना यही ॑
है-- इदम्" सदा प्रमाणं है । श्रान्तिं केवर स्मृति के रूपमे होने वाले रजत की
है जिसमें विवाद है। वेदान्ती लोग बाधक की प्रतीति के अधीन मिथ्याज्ञान को
मानते हैँ । जिसका बाध ( प्रतिरोध ) किसीसे हो गया वह मिथ्या है । इदम्
के अनुभव का बाधक कोर नहींदहै। अतः यहु मिथ्या नहीं! अव रजतांश
कोलकं बाधाहोरहीदै जिसे बाधान कहकर निषेध कटं । निषेध किसका ?
रजतव्यवहार काया रजत का? हम कहते हैँ रजत के व्यवहार काही । किसी
भी दशामेतो हमे व्यवहार ही करनादहै। मिथ्याको केकर लड़ने वालेसे कँ कि
बाधया निषेध व्यवहारकाही होता दै ओर हमारी बातही रह जातीदै। |
तो, इसके साथ ही साथ उसशंकाका निराकरण कर दिया गया कि जब
दोनों प्राचीन ज्ञान सत्य हतो भ्रमदहोने की बात केसे चलती है। उखश्रमकी
सिद्धि असामान्य व्यवहारके प्रवतकके रूपमेंहोतीदहै। [ प्रभाकर के सामने
समस्यादहै किं सभी ज्ञान जब सत्य ह तब लोग श्रम" शब्दसे किसवस्तुका
बोध करते है? जिन स्थलों मे (जैसे सीपी को चांदी मानने में ) प्रवृत्ति निष्फल
हो जाय उन्हें हम भ्रम कहा करते हैँ । ओर बाध ? रजत के व्यवहार कां निषेध
होने पर उसे बाध कहते हैँ ( जैसे नेदं रजतम्" मे ) । यह कहने से शंकराचायं
संतुष्ट होनेवाठे नहीं ह 1 |
( १२ क. प्रभाकर-मत से अभाव का खंडन)
किं च नेदं रजतमिति बाधकावबोधो न(भावमवगाहते ।
मावव्यतिरेकेणाभावस्य दग्रंहणत्ात् । यदेवम् , अङ्ग नास्तीपिं
प्रत्ययस्य किमाठम्बनम् ? अपरथा माहाभानिकपक्षालुप्रवेश
इति चेत्- मेवं भाष्ष्ठाः।
अभावस्य धर्मिप्रतियोगिनिरूपणाधीननिरुष्यत्वेऽवश्याभ्यु-
पगमनीये द्ये प्रतियोगिन्यद्श्ये वा स्म्यमाणेऽधिकरणमात्र-
बुद्धेरेव नास्तीति" व्यवहारोपपत्तावतिरिक्ताभावकर्पनायां प्रमा-
णाभावात् ।
इसके अतिरिक्त "यह रजत नहीं है यह बाधक का ज्ञान अभावकेखरूपमें
नहींदै। कारण यहदहैकिभाव के अतिरिक्त अभावनामकी वस्तु का ग्रहण
करना ही कठिन है ।#
# देखिए, रामानुजदशंन, प्र १९०-९१।
, ् शांकर-दशेनम् ८२१
[ इस पर वेदान्ती लोगं शंका करते है | हे महोदय ! यदिणेसी बात दहै
# तो हमे बतलाद्ये कि नहीं है" इस प्रतीति ( ‰[ष्छशाअला ) का आधार
् र क्या? यदि ेचा नहीं कर सके ( =आधारके विना भी प्रतीति मानते)
तो माध्यमिक ( शुन्यवादी) बौद्धोंके पक्षम आपजारहे्है। [ये बौद्ध सारे
व्यवहारो को आकम्बनरहित मानते ह। | इस पर हम कगे किं पेसा मत
कहो । [ इसका कारण अगे बतला रहे हैँ । |
अभाव का निरूपण धर्मी ओर प्रतियोगी के निरूपण के ही अधीन रहता
है। [ धरातरुमे घट नहींहै--यहां घटाभाव का ज्ञानहो रहा है जिसमें
धरातल धर्मा है ओर घट प्रतियोगौ । दोनोंके ज्ञान के पश्चातु ही घटाभाव
काज्ञान हो सकता दै। | जिखकी सिद्धि करना आवश्यक टै वह् प्रतियोगी
( घट ) दृश्य हो या अदृश्य हो किन्तु उसका स्मरण क्ियाजारहादहै। एेसा
होने पर मात्र आधार का ज्ञान रहनेसे ही नहींदहै' इस व्यवहार की सिद्धि
हो जायगी । अतः अल्गसे अभाव की कल्पना करने के लिए कोईप्रमाणही
नहीं है। [ धर्मी की कल्पना से अधिक अच्छी कल्पना धमकी हीहोतीटहै।
अतः अभाव किसी अधिकरणका एक धमंदटै तथा केवल भूतलके रूपमेंरहै।
इसी से "घटो नास्तिका व्यवहार चल्ताहै। धट नहीं दहै = भूतल का शुद्ध
ज्ञान \ केवर भूतल का ज्ञान घटादि प्रतियोगीके न रहनेपरही संभवदहै।
हा, प्रतियोगी कास्मरणतोकरनाहीहै। भूतल का ज्ञान रहने से घट नहीं
है" का ज्ञान हो जायया । |
तदुक्तमगरतयकलायाम्-
३७. अत्रोच्यते द्यी संबिदस्तुनो भूतलादिनः ।
एका संसृष्टविषया तन्मत्रविषया परा ॥
३८, तन्मात्रषिषया वापि द्वयी साथ निगद्यते ।
प्रतियोमिन्यद्स्ये च द्ये च प्रतियोगिनि ॥
३९. तत्र तन्मात्रधीर्येयं स्मृते च प्रतियोगिनि ।
नास्तित्वं सेव भूभागे घटादिप्रतियोगिनः ॥
( प्रक० प० ६।३७-३९ ) इति ।
इसे अख्तकला ( प्रकरण पंचिकाके छे प्रकरणका नाम} में कहा
गया है--"इस दशरन में भूतर आदि वस्तुमेदोप्रकार काज्ञान माना गया
डै। एक कातो संगृष्ट विषय होता है (जैसे भूतल घटसे युक्तदै)) दूसरे
८२२ सर्बदशेनसंम्रहे-
प्रकारके ज्ञान का विषय केवल वह वस्तु ही टै ( जसे केवल भूतल का ज्ञान )
॥ ३७ ।। अब वह॒ तन्मात्र विषयक ज्ञान भीदोप्रकार का कहा जाता है-
एक तो प्रतियोगी के अदृश्य हो जाने पर ओर दूसरा प्रतियोगी के हर्य ही
रहने पर । ३८ ॥ उनमें जो यह तन्मात्र विषयक बुद्धि है जब प्रतियोगी के
स्मरण के साथ उत्पन्न होती है तब उसे ही भूतल में चटादि प्रतियोगी का
अभाव मानते्है। (केवल भूतल के स्वरूप का ज्ञान घट के स्मरण के साथ
होतो उसे ही अभाव कहते हैँ । स्पष्टतः अभाव भावल्प ही है) 1 ( प्रकरण
पंचिका, ६।३७-३९ ) ।
अत एव प्राभाकरमतानुसारिभिः प्रमाणपारायणे प्रत्यक्षा-
दीनि पञ्चैव प्रमाणानि प्रपञ्ितानि । नन्वेवमभावस्यामवि
नकारस्य वैय््यमापदेत । अनुश्चासनिरोधश्चापतदिति चेत्-
तदेतद्वार्तम् । एकोनपश्चाशद्र्णानां मध्ये कस्यापि वणेस्यामावा-
्त्वादर्षनेन वर्णस्य सतो नकारस्य तदथेत्वानुपपततेः ।
इसीलिए प्रभाकर-मत का अनुसरण करनेवाठे [ शालिकनाथ ने अपनी
ग्रकरणपंचिका के पांचवें प्रकरण अर्थात् ] प्रमाण-पारायण में प्रत्यक्षादि पाच
प्रमाणो काही निरूपण कियादै) [ये प्रमाण है प्रत्यक्ष, अनुमान, उपमान,
शब्द, ओर अर्थापत्ति । छठा प्रमाण अनुपलब्धि टै जिसे भाटर-मीमासकं मानते
ह । प्रभाकर इसे नहीं मानते । अनुपलब्धि केवल अभाव काही ग्रहण करती
है किन्तु प्रभाकर-मत म भाव के अतिरिक्त अभाव नाम की को वस्तुही
नहीं है । इसलिए उसके ग्रहण के लिए पृथक् प्रमाण की क्या आवश्यकता है ? ।
अब समस्या होगी कि जब इस प्रकार अभाव की सत्ता नहीं मानते हँ
तो नकार व्यथं हो जायगा । [ न = नहीं, यह अन्यय है। इसका क्या उत्तर
होगा ?] यही नही, पाणिनि के अनुशासन का भी विरोध हौ जायगा ।
[ पाणिनि ने नञ्! ( २।२।६ ) सूत्र मरे उत्तर पद के साथ तत्पुरुष समास होने
का विधान किया है- इसका विरोध होगा । क्योकि यदि नञ. निरथंकटैतो
उत्तर पद के साथ केसे मिक सकेगा ? इस प्रकार अभाव न मानने पर न'का
चमर्थन करने का प्रन उठ खड़ा हो जाता है । |
किन्तुये तकं व्यथंके द। उनचास वर्णो के बीच कोई भी वणं अभाव
के अर्थं मे नहीं मिलता ( देखा जाता ) है । इरिषए वर्णं होने के कारण नकार
भो उस ( अभाव ) के अथं मे सिद्ध नहीं होता । [ यह विवेचन अनुमान के
रूप में है जिखका पूणं रूप एेखा हो सकता है--
दावा क्कन्य =
शांकर-दशनम् ८२३
( १) न-कार अभावा्थंक नहीं है । ( प्रतिज्ञा )
(२) क्योकि यह वणं है । ( हतु )
(३ ) जैसे अकार आदि दूसरे वणं द ( उदाहरण )
उनचाख वर्णो की संख्या इस तरह प्ण होती दै-- १६ स्वर्, २५ स्पशं वणं,
+ अंतःस्थ तथा ४ ऊष्म वणं । |
न चेवमलुशासनविरोधः । तदन्य-तदभाव-तद्विरुष्वर्थस्
मैवम स्यात् । तथा हि- चेतनानां मध्ये कथन
कस्यचिन्मित्रं, कथन कस्यचिदुदासीनः तथैवाचेतनानामपि ।
[सीनो [क ©
तदन्यपदेन तद्द नकाराय; । षिरुद्रपदेन शचुनेकाराथेः \
तदभावपदेन मित्रं नकाराथेः ।
अभाव न माननेसे पाणिनि के ] अनुशासन का भी विरोध नहीं होता ।
` [नन् से मुख्यतः थे तीन अर्थं प्रतीत होति ईै-- ] तदन्य ( ˆ "से भिन्न ), तदभाव
( “का अभाव ) तथा तद्विरुढ ( `" से विरुद ) 1 इन अर्थो मे अनुशासन का
उपयुक्त विधि से अथं हो सकता है । देखिए-- चेतन पदार्थो के बीच कोई किसी
काशात्रु टै, कोई किसी का मित्र, तो कोई किसी से उदासीन ही है) यही दशा
अचेतन पदार्थो की भीहै। तदन्य शन सते नकार का अथं समञ्चं उससे
उदासीन । विरश्दध शब्दस नकार का जन रात्र है। तदभाव शब्द से नकार
का अथे मित्रै) | इस प्रकार दूसरे अर्थो मे नकार के अर्थोकी व्याख्या
की जाती दटै।।
तथा चात्राह्मणपद एवेतत्रयं प्रतीयते--ु्र इत्युदासीनो,
यवन इति शतुः, श्चत्रिय इति मित्रम् । एव सर्वत्र नमप्रयोग-
स्थे दरषटव्यमिति न कथिदभावो भावव्यतिरिक्तः सम्भवति ।
तस्मादुक्तया रीत्या भ्रमप्रसिद्या षिवादाघ्यासिताः भ्रत्यया
य॒था्थौः, प्रत्ययत्वात् , दण्डीति प्रत्ययवदिति सिद्धम् ।
इस प्रकार “अन्राह्मण' शाब्द मे ही उक्त तीनों की प्रतीति होती दै- शूद्रके
प्रति [ नकाराथं | उदासीन दै, यवन के प्रति दान्रु ओर क्षत्रिय के प्रति मित्र
हे । [ तात्पयं यह हुआ किं अब्राह्मण गन्द मे यदिअःका अथंतदन्यल्गेतो
शूद्र अथं होगा । यदि विरुद अर्थं मे "अ" मानं तो अब्राह्मण = यवन । अन्त मे
यदि अभाव अथक तो अत्राह्यणका अर्थं क्षत्रिय होगा । ] इसी तरह नन् का
भकृकृरहकिः [णये २ = ~
१११.
जन्म नयु न कज उन
॥
पा क
ह च १ ।
प्र व शश्व ~ ~
त; क {7} कलस ककन ऋ रु" (करक
८२ सबेदशेनसंम्रहे-
प्रयोग होने वाले सभी स्थानों में देवना चाहिए । अतः भाव के अतिरिक्त
अभाव नाम का कोई पदाथ मिलना संभव नहींहै।
इसलिए उपयुक्त रीति से भ्रम की सिद्धि कर ख [ = “इदं रजतम्" में ग्रहण
ओौरस्मरणके रूपमे दोज्ञान रहने पर भी वास्तविकं व्यवहार होने पर
प्रवृत्ति कै विसंवादित ( निष्फल } हो जाने से कुछ रोग ्रमका व्यवहार करते
हे, वस्तुतः तो वहु है नहीं । इसके बाद अनुमान होता है-- |
( १) विवादास्पद प्रतीतियां यथाथं ( 1२681 ) है प्रतिज्ञा ।
( २) क्योकि ये प्रतीतियां है--हेतु ।
(३) जैसे दण्डी (दण्ड धारण करने वाला) की प्रतीति होती है-
उदाहरण । यह् सिद्ध होता दै,
विदोष-यहाँपर मीमांसकं ने अपने ठंबे पूर्वंपक्च का अन्त किया)
उनका लक्षय यही था कि मिथ्याज्ञान का खंडन करं । मिथ्याज्ञान के रूपमे
वेदान्त में स्वीकृत सभी प्रतीतियोंको वे सत्य ओर यथार्थं मानते है । इदं रजतम्"
या "पीतः शङ्कुः कोई भी उदाहरण उन्डं अपनी मान्यतासे हटा नहीं सका । अब
शंकराचार्य अपने प्रबल तर्को के चपेटों से प्रभाकर-मत का मस्तक चूणं करगे ।
( १३. मिथ्याज्ञान की सत्ता है- शंकर का उत्तरपक्ष )
तदपरे न क्षमन्ते । इह खड निखिसप्रेक्षावान् समीहित-
कं क ¢ ¢
तत्साधनयोरन्यतरग्रवेदने प्रबतंते । न च रजतमथेयमानस्य
शुक्तिकाश्चकलज्ञानं तदरूपमनुभावयितु प्रभवति । शुक्तिकाश्चकरस्य
समीहिततत्साधनयोरन्यतरभावाभावात् । नापि रजतस्मरणं
पुरोवर्तिनि प्रवृत्तिकारणम् । तस्यादुभवपारतन्व्यतयाऽनुभवदेश
एव प्रवेतकःतवात् ।
दस मत को दूषरे लोग सहं नहीं पाते । यह् निशित दहै कि समी विवेकशील
मनुष्य अभीष्ट वस्तु या उसक्तीप्रातिके साधन इन दोनोंमेसे क्रिसीएक्रके
ज्ञानमें ही प्रवृत्त होते । रेषा नहीं देवा जता क्रि जो व्यक्ति रजत का
इच्छुक है उसे सीपीके दटुक्डे का ज्ञान उस ( रजतके) रूप का अनुभव करा
दे। [सीपीके टुक्डेमें रजत की सत्ता नहींहै। इदम्" के ख्पमेंसीपीका
टकंडाज्ञात है किन्तु रजत चाहने वाले व्यक्तिको न तो उसमे अपनी अभीष्ट
वस्तुकाही स्वरूप मादरम होता न उसके साधनकाही । क्योकि | सौपीकां
टुकड़ा उस व्यक्तिकानतो अभीष्हीहो सकतान अभीष्ट-प्रा्तिका साधनदही।
शांकर-दशनम् ८२५
इसके अतिरिक्त रजत का स्मरण [जोये मीमां क मानते] सामनेमें
विद्यमान पदाथं मे प्रवृत्ति उत्पन्न नहीं कर सकता वयोर स्मरण अनुभव के
अधीन रहता है, इसलिए वह॒ ( रजतस्मरण ) अनुभव के स्थान में ( जहां
पर चाँदी देखो थी ओर जिसका स्मरणा कर रहे है वहीं) प्रवृत्ति को उत्पन्न
कर सकता है । [ स्मरण अनुभव पर ही निर्भर करता है । जिस स्थान का, जिस
ख्पकाओर जिस वस्तु क। अनुभव होगा--उसके अनुरूपही स्मरण मी
हो सकेगा । जिस स्थान पर चाँदी देखी थी, प्रवृत्ति उसी स्थान की ओर होगी-
अन्यत्र नहीं । सामने की सीपी पर प्रवृत्ति सिद्ध नहीं होती । |
नापि भेदाग्रह व्यवहारकारणम् । ग्रहणनिबन्धनत्वाच्चे-
तनव्यवहारस्य । नलु न वयमेकस्य कारणत्वं ब्रूमहे येनेव-
परपालभ्येमहि। पिः खग्दीतविवेकस्य ज्ञानढयस्य प्राप्रसमीचीन-
परःस्थितरजतज्ञानसारूप्यस्ेत्यनुक्तोपालम्भोऽयमिति चेत्--
तदप्ययुक्तम् । विकर्पासहत्वात् । तथा हि-समीचीनरजताव-
मात्तसारूप्यं भासमानं प्रवतेकं सत्तामात्रेण वा !
आप यह भी नहीं कह सकते [ जेसा ऊपर कहा है ] किमेदकाग्रहणन
करना ही [ “इदं रजतम्* आदि विशिष्ट ] व्यवहारो काकारण है। चेतन के
सारे व्यवहार ग्रहण ( ज्ञान, प्रतीति ) पर चलते है [ ओर अप कहते हैक
ग्रहृण न होने से व्यवहार चलता है? |
[ अपनी रक्षा के लिए कदाचित् आप कटेंगे -- | हमलोग एक-एक को लेकर
तो ( केवल इदम्" के ग्रहण को या केवल रजत के स्मरणको) कारण नहीं
मान रहे दह कि आप (वेदान्ती) हमे इस तरह खरी-खोटी सुना रहे है । बल्कि
हम तो उन दोनों ज्ञानों को जिनमें मेद की प्रतीति नहीं होती तथा जिनमें सच्चे
जौर संनिहित रजत के ज्ञान के साथ समरूपता ह, उन्द ही [ कारण मानते
ह], अतः हमारा मत उलाहना ( उपालंम ) देने योग्य नही हे ।
हम (वेदान्ती) कैगे कि यह भी युक्तसंगत नहीं है क्योक्रि नीचे दिये विकल्पों
को सहने की दाक्ति इसमें नहीं है । वे विकल्प है--[ आप कहते ह कि उक्तं दोनों
ज्ञानो मे (ग्रहण + स्मरण या दो ग्रहण ही) सच्चे रजतके ज्ञानसे साद्य है उसी
घार््य से व्यक्ति प्रवृत्त होता हतो ] वह सच्चे रजत कौ प्रतीतिसे सादृश्य
होना क्या केवल ज्ञान रहनेते ही प्रवृत्तिका कारण होता है या वस्तुतः
विद्यमान रहकर प्रवृत्ति उत्पन्न करता है ? [ अब प्रथम विकल्पमें दो विकल्प
करते है। |
८२६ सवेदशेनसं्रदे-
आये विकस्पे मेदाग्रहापरपयोयस्य सारूप्यस्य समीचीन-
संनिभे इमे ज्ञाने इति विशेषाकारेण ग्रद्यमाणस्य प्रवृत्तिकार
णत्व, क्रि वानयोरेव स्वरूपतो विषयतइच मिथो भेदाग्रहो
विद्यत इति सामान्याकारेण ग्रह्यमाणस्य सारूप्यस्य !
पहले विकल्प मे [ दो विकल्प ह] ( १) सारूप्य को दूसरे शब्दों में
द का ग्रहणा न करना" भो कहते है । धे दोनों ज्ञान सच्ची चाद के ज्ञान के
समान है" इस प्रकार विरोष आकार मे गृहीत सारूप्य प्रवृत्ति उत्पन्न करता
है। (२) इन दोनोंज्ञानों मे ही स्वप ओौर विषय को लेकर भेदाग्रह
( सारूप्य ) है- इस प्रकार सामान्य आक्रार मेँ गृहीत सारूप्य प्रवृत्ति उत्पन्न
करता है। [्रूकिज्ञान दो प्रकारका होता है इसलिए ज्ञात सादृश्य वाले
विकल्प के दो खण्ड हो रहे है । वैशेषिक आदि कहते है कि जिस धमं के कारण
साटश्य होता है--उस धमं ओौर सादृश्य मे तादात्म्य है, वह धमं ही सादृश्य
है। उस धमं का यह रूपहै- मुख ( उपमेय ) ओौर चन्दर ( उपमान) मे
सौन्दयं ( धमं ) समान है। यह कमो विशेषाकार मे ज्ञात होता है। कभी-कभी
सामान्य रूप मे ही- जैसे यह धमं अमुक पदाथ मे है। प्रस्तुत प्रसंग मे देखते
है कि भेदाग्रह समान धमं है। जसे सच्चौरचादीकेज्ञानमें भेद का ग्रहण नही
होता वैसे ही ज्ञानद्वय से युक्त प्रतीतिमे भोभेद ग्रहण नहींहो पाता । इस
रूप में भेदाग्रह का ज्ञान प्रवृत्त करता है या इन दोनों ज्ञानों के पारस्परिक भेद
का ग्रहणा नहींहोने से ही हम प्रवृत्त होतेह? संक्षेप में यह कँ कि सच्चे
रजत के ज्ञान से तुलना करने पर भेदाग्रह ज्ञान प्रवतंक होता हैया अपने ही
दोनों ज्ञानों में भेदाग्रह होने से प्रवृत्ति होती है ? |
नाद्यः । समीचीनज्ञानवत्तत्संनिभज्ञानस्य तदुचितव्यवहा-
¢ गोसि
रप्रबतेकत्वानुपपत्तेः । न खलु नेमो गवय इत्यवभासो
भिनं = ¢
गवाथिनं गवये प्रवतेयति ।
न द्वितीयः । व्याहतत्वात् । न खल्वनाकलितभेदस्यानयो-
रिति, अनयोरिति ग्रहे भेदाग्रह इति च प्रतिपत्तिभेवति । अतः
परिशेषात्सत्तामात्रेण भेदाग्रहरूपस्य सारूप्यस्य व्यव्हारकारणत्व-
¢
मङ्गीकतेन्यम् । |
इनमे पहला विकल्प ठीक नहीं है क्योकि जसे समीचीन ज्ञान ( सजो चीज
क ह
शांकर दशनम् ८२७
का ज्ञान ) [ अपने उचित व्यवहार की ओर लोगों को प्रवृत्त करता है उसी
तरह से समीचीन ज्ञान ] की तुलना करने वाला ( 3101187 ) ज्ञान ( “इदं
रजतम्" का ) उस सम्यक् ज्ञानको तरह व्यवहारो में लोगों को प्रवृत्त नहीं
कर सकता । गौ के समान गवय होता है" यह प्रतीति गौ चाहने वालि व्यक्ति
को गवय की ओर प्रवृत्त नहीं करती। [ विद्यमान वस्तु के साथ अविद्यमान
वस्तु के साद्य का ज्ञान होने से भी अविद्यमान वस्तु की ओरं प्रवृत्ति
नहीं होती । |
दूसरा विकल्प इसलिए ठीक नहीं कि इसमे व्याघात (प्रतिरोध ) होता है ।
जिसमे भद का ग्रहणा ही नहीं किया गया है ( = ग्रहण ओर स्मरणमे),
उसमे “हन दोनों मे इस तरह की प्रतीति नहीं हो सकती ओौर न "अनयोः'
( इन दोनों मे )-एेसा लेने से भेदाग्रह की ही प्रतीति हो सकती । | एक ओर
कह रे करि भेदका ग्रहण नहीं होता अर्थात् ज्ञान एकदै, दूसरी भर
द्विवचन शब्द का प्रयोग भी कर रहे है । यह भ्याघात* नहीं तोक्याहै?]
इसलिए अव अवरिष्ट बचे दूसरे विकल्प को लं अर्थात् विद्यमान होने के
कारण ( सत्तामात्र से ) भेदाग्रह रूपी सादृश्य को व्यवहार का कार्ण मानं ।
[ जैसे इन्द्रिय स्वयम् अज्ञात होने पर भी ज्ञान उत्पन्न करती है अथवा पासमें
वड़ो आग अज्ञात होने पर दाहक होती है उसी तरह इन दोनो ग्रहण-स्मरणात्मक
ज्ञानो में वस्ततः विद्यमान भेदाग्रह ( सादृद्य ) ज्ञात न होने पर भी व्यवहार या
परवृत्ति की उत्पत्ति कर सकता है । मीमांसकों ने एषा ही माना भीटहै। इसपर
भी विचार करते है। |
एवमेवास्त्विति चेत् - तहिं इदमिह संप्रधायम् । किमयं
भेदाग्रहः समारोपोत्पादनक्रमेण व्यवहारकारणमस्तु, उतासुत्पा-
दितासोष एव स्वयमिति । न च द्वितीयः पक्ष एव श्रेयान् ।
तावतैव व्यवहारोत्पत्तावारोपस्य गौरव-दोषदुष्टत्वादिति मन्त-
व्यम् । बिशिष्टव्यवदहारस्य विशिषटज्ञानपूर्वकत्वनियमेनाज्ञानपूषे-
कत्वानुपपत्तेः ।
यदि मीमांसक उपयुक्त रूप म विकल्प को ही स्वीकार करं तो उरन्े यह
स्पष्ठ करना चाहिए कि यह भेदाग्रह समारोप की उत्पत्तिके क्रमसे व्यवहार
का प्रयोजकं है या बिना आरोप की उत्पत्ति किये स्वयं ही व्यवहार को चलाता
राक के
+ 83€1{-(20४18010४्0) ( व्याघात ) ।
। ~ 14 उधर श/ १ भिताः जनतः त ज १
1 = = = च न्नर " ग क नत्या शवक, २९ कप्त स्त
चत इनक, + कै
चक ^ चयं के १ | भै „1
।
परत सबेदशनसग्रहे-
है? [ सीपी पर रजतके स्वरूपका आरोप भेदाग्रहुके ही कारण होता है।
यही आरोप व्यवहार या प्रवृत्ति उत्पन्न करताहै, इसलिए आरोपके क्रमसे
भेदाग्रह ग्यवहारादिका कारण रहै, एेसा मानते है। दूसरा विकल्प है कि भेदाग्रह
रजतके स्वष्पको सीपी पर विना आरोपित क्रियेही व्यवहार का प्रवर्तन
करता है, |
दूसरा पक्ष ही कोई अधिक अच्छा नहीं है क्योकि यदि उतनेसे ही भ्यवहार
की सिद्धिहोती हि तो आरोप को इस विवादमेले आना कल्पनागौरव के दोष
से दूषित हो जायगा । यह समञ्च । यह नियमदहैकिं विशिष्ट व्यवहार विशिष्ट
ज्ञानकेबादही हो सकतादहै, इसलिए अज्ञान ( भेदाग्रह) कै बाद [ विशिष्ट
व्यवहार की ] सिद्धि नहां होती । [ जैसे पुरुष में दण्ड की विशिष्टता जानकर
ही यह् व्यवहार होताहै कि यह दर्डीदहैवेसेही सामने के पदां में रजतत्व
की विशिष्टता जानकर ही "यह चांदी है" एषा व्यवहार करगे । अज्ञान से यहं
व्यवहार कभी संभव नहीं । भेद-ज्ञाननहोनाही अज्ञान है। यदि अज्ञान दही
व्यवहार का कारण होता तोसरामनेके पदार्थं के सेनिकषंके पूवंभीतो वहं
सुलमदहीथातो वैसा व्यवहार क्यो नहीं हज, अथवा प्रवृत्ति वयों नहीं हई ?
इसलिए चेतन के व्यवहार का कारणज्ञानही है, अज्ञान नहीं। |
विशोष-- सत्तामात्र वाले विकल्पों में दूसरे को तो काट दिया गया किन्तु
पहले को शंकर स्वयं स्वीकार करेगे । तदनुखार आरोपपू्वंक भेदाग्रह के कारण
ही रजत की प्रतीति होती है।
( १३ क. रजत क्रा सीपी पर आरोप)
नन्वयं व्यवहारो नाज्ञानपूवेक इत्यनाकलितपराभिसंधिः
स्वसिद्धान्तसिद्धाथोद् यदि करिचच्छङ्केत, स प्रतिवक्तव्यः ।
शुक्तिकाषिषयस्य ग्रहणस्यासमीहितविषयत्वेन रजताथि-
प्रवृत्तिहेतुत्वासंभधादन्वयव्यतिरेकाभ्यां रजतज्ञानस्य समीहित-
विषयत्वेन प्रवरृ्तिहेतुत्वसंभवाच्चेदमथाभिसंभिननग्रहविविक्तस्यापि
रजतस्मरणस्य कारणत्वं वक्तव्यम् ।
यदि कोई ( मीमांसक ) अपने सिद्धान्त के सिद्ध अर्थं के अनुसार दका करे
ओर "यह् व्यवहार (सीपीमें दीका व्यवहार) अज्ञानपूवंक नहीं दहै इष
रूपमे जो दूसरों ( वेदान्तियो ) की अभिसंधि ( धारणा, 1०14 ) है उत्का
व्यानन रेतो उसे इस प्रकार उत्तरदेनाहोगा। [ये मीमांसक आरोप कौ
च ॥
शांकर-दशनम् ८२६.
आवश्यकता की सिद्धि करने वाले वेदान्त के गूढ अभिप्राय को नहीं समक्षते ।
इसलिए एेसा कहते है 1 |
सीपीके विषयका जो ग्रहणा है वह अभीष्ट विषय नहीं है इसलिए रजत
के इच्छुक व्यक्ति मे वह प्रवृत्ति उत्पन्न नहं कर सकता । दूसरी ओर अन्वय-
व्यतिरेक से, रजत ज्ञान अभीष्र विषय होने के कारण प्रवृत्ति उत्पन्न कर सकता
है। इन दोनों कारणों से, “इदम्' अथं से सयुक्त उसके प्रत्यक्नानुभव से पृथक्
होने पर भौ रजतके स्मरणकोहौ कारण मानना चाहिए । [इष्वस्तुका
ज्ञान होने पर प्रवृत्ति होती है उसके अभाव में नहीं-- इस प्रकार अन्वय ओौर
व्यतिरेक के द्वारा निणैयहोतादहै करि रजत काज्ञान ही प्रवृत्ति का कारण है)
लेकिन स्मरणात्मक रजत-ज्ञान को प्रवृत्ति-कारण कहन! सम्भव नहींहै। ज्ञान
ओर इच्छा का विषय समान होने पर भी, इच्छा ओर प्रवृत्ति का समान विषय
नहीं रह पायेगा । इच्छा का विषय (इष्ट ) रजत भलेहीहो परन्तु वह् प्रवृत्ति
का विषय नहींदहै। कारण यह है कि प्रवृत्ति इदम्" के अथंकी ओर अभिमुख
हो रही है। तो यहाँ पर जिसकी बोर प्रवृत्ति है वही वस्तु ज्ञान या इच्छाका
विषय बन जाती है--ईइसे क्रिसी तरह सिद्धकरनाही है । यह इदमु" का अर्थं,
जो प्रवृत्ति का विषय बना हुआ है, उसको सिद्धि तब तक नहीं होगी जब तक
इच्छा के विषय--रजत--का आरोप नहींमानेगे। इसेही आगे समञ्ञा
रहे ह 1]
तच्च वक्तं न शक्यते । जानाति इच्छति ततः प्रवतत
इति न्यायेन ज्ञानेच्छाग्रबृत्तीनां समानविषयत्वेन भाव्यम् । तथा
चेदंकारास्पदामियुखप्रवृततस्य रजताथिनस्तदिच्छानिवन्धनम् ।
अन्यथा अन्यदिच्छनन्यद् व्यवहरतीति व्याहन्येत । तथा च
यदीदंकारास्पदं ` रजतावभासगोचरतां नाचरेत्कथं रजताथीं
तदिच्छेत् । यद्यरजतत्वाग्रहणादिति ब्रुयात् रजतत्वाग्रहात्कस्मादयं
नोपेक्षेतेति ।
किन्तु यह कहा नहीं जा सकता [कि स्मरणामक रजत-ज्ञान प्रवृत्ति
उत्पन्न करता ह |। एक नियम है किं मनुष्य क्रिस वस्तुको जानता है, तब
उसकी इच्छा करता है भौर अन्त मे उसके लिए प्रवृत्त होता है--इससे स्पष्ट है
कि ज्ञान, इच्छा ओर प्रवृत्तिका विषयएक ही वस्तु रहनी चाहिए । उसके
अनुसार, जो रजतार्थी "इदम्" शब्द के द्वारा प्रतीत वस्तु की जोर प्रवृत्त हुमा है
उसकी इच्छा भी उसी ( "इद्" शब्द के द्वारो प्रतीत वस्तु) पर ` भधारित
८३० सबदशेनसंग्रहे-
ह। यदि पेखा नहीं होगा तो दृ्षरी वस्तु की इच्छाहो ओर व्यवहार दूषरी
वस्तु का करं -एेसा व्याघात होने को सम्भावना होगी ।
ेसी स्थिति में यदि "इदम् शाब्द का प्रतीति-विषय र्जत-ज्ञान को विषय
नहीं बनाता ( = “इदभू' से रजत का जन नहीं होता ) तो रजतार्थी उसकी
इच्छा कैसे करेगा? यदिये उत्तरदेकि [ सामनेमें विद्यमान वस्तु | रजत से
भिन्न है, एेसा ग्रहण नहीं होता [ इसीलिए रजतार्थी उसकी इच्छा करेगा ] तो
हम करगे किं | उन्हीं मीमांसकं के मत से | चूँकि संनिहित वस्तु का रजत के
ह्पमें ग्रहण नहीं किया गया है इसलिए उसकी उपेक्षा वह व्यों नहीं करेगा ?
[ रजत के रूपमे ग्रहण न होने से उधर प्रवृत्ति ही नहीं होगी- यह उत्तर दिया
जा सकता है । उपेक्षा = प्रवृत्ति नहीं होना । |
युगपतद्धव-मेदाग्रहामेदाग्रह-निबन्धनाम्याुपादानेपिक्षा
भ्यां पुरतः पृष्ठतश्चाटृष्यमाणः पुरूषो दोलायमानतया रूप्यारोप-
मन्तरेणोपादानपक्ष एव॒ न व्यवस्थाप्यत इत्यनिच्छताऽप्यच्छ-
मतिना समारोपः समाश्रयणीयः ।
यथाह --भेदाग्रहादिदंकारास्पदे रजतत्वमारोप्य तज्ञातीय-
स्थोपकारहेतुमावमनुस्मृत्य तज्ञातीयत्वेनास्यापि तदजुमाय
€ [क
तदथीं प्रयतेत इति प्रथमः पक्षः प्रशस्यः । |
दससे एक ही साथ ( अपप] £811€08} $ ) रजत के भेद का अज्ञान
ओर रजत के अभेदका [ दोनों उत्पन्न होगे जिन ] पर आधारित उपादान
( प्रवृत्ति ) ओर उपेक्षा ( अश्रवृत्ति ) के द्वारा पुरूष रजतार्थी ) अगे-पीचचे
कौ ओर खिचने लगेगा । [ उपर्युक्त दोनों अज्ञान एक ही साथ विद्यमान रगे ।
अपना-अपना कायं वे एक ही साथ करेगे । लेकिन प्रवृत्त ओौर अग्रवृत्ति दोनों
एक ही साथ संभव नहीं होती । | वह मनुष्य किकतंव्यवि मूढ ( (011086५ )
होने से तब तक प्रवृत्ति के पक्ष मे समक्षा नहीं जा सकता जब तक हम रजत का
सीपी पर आरोप नहीं मानले । [ रजत का आरोप मानलेनेसे व्यक्ति की
प्रवृत्ति उस आरोपित रजत की ओर सरलता से सिद्धो जायेगी । ] इष तरह
आप जैसे स्वच्छ बुद्धि के व्यक्ति को, इच्छा न रहते हृए भौ समारोप ( 170.
501 } मान ही लेना चाहिए ।
जला कि कहा है- भेद के अज्ञान के कारणा इदम्" शब्द के दारा प्रति-
पादित वस्तु पर रजतत्व का आसोष करके, उस जातिवाले ( रजत ) पदा्थं को
शांकर-दशनम् ८३१
उपकार का कारण ( 13€€0९2 ) स्मरण करके, उसी जातिकाहोने के
कारण इस ( आरोपित रजत ) के उपकारका कारण होने का अनुमान करके
उसकी कामना से पुरुष प्रवृत्त होता है। इसलिए पहला पक्ष ( अर्थात् आरोप
उत्पन्न करके मेदाज्ञान व्यवहार का कारणा बनता है) मानना अच्छा है।
विरोष--अनुमान का रूप इस तरह कारैः
( १) सामने में विद्यमान पदां उपकारक है ¦ ( प्रतिज्ञा )
( २) क्योकि यह रजत है । ( हेतु )
( ३ ) जैसे पहले के अनुभव का रजत । ( उदाहरण )
यहाँ स्मरणीय है कि जबतक हम रजत को आरोपित न मानं तबतक् पक्ष में
हेतु की सत्ता नहीं हो सकती । पक्ष है पुरोवर्ती पदां, हेतु है रजतत्व ।
न च तरस्थरजतस्मरणपक्षेऽपि देतोग्रदीतत्वेनायं मागः
समान इति वाच्यम् । रजतत्वस्य हेतोः पक्षधमेत्वाभावात् । न
च पक्षधर्मताया अभावेऽपि व्याश्निबलाद्रमकत्वं शङ्कयम् । व्या-
प्तिपक्षधमतावच्लिङ्गस्यैव गमकत्वाङ्गीकारात् ।
आप ठेसा भी नहीं कह सकते कि तटस्थ ( पहले से अनुभूत तथा अनारो-
पित ) रजत कास्मरणा मानने वलेपक्षमेंभीतोदहेतुका ग्रहण करलेनेसे
यह मार्गं एक तरहकाहीदहै। [ क्॑काका यही आशयदहै कि रजत का स्मरण
करनेसे आरोपके बिना भीदहेतु का ज्ञान होने के कारण अनुमान करना
आसान है । हेतु "रजतत्व" उसमें दिया जा सकता है । परन्तु शंका इसलिए ठोक
नहीं है ] क्योकि “रजतत्व को हेतु जो बनायेगे वह ( हेतु ) पक्ष ( = 'इदम्' का
अथं) का धमं नहीं रखता । [ पूर्वंपक्षी आरोप को तो स्वीकार नहीं कर रहा है
इसलिए “ददम्' के द्वारा अभिहित वस्तु में रजतत्व हेतु कौ वृत्ति नहीं होगी ।
"इदम्" को तो ग्रहण मानते है, रजत को स्मरण । ]
उत्तर मे आप यह नहीं कह सकते कि पक्ष धमता ( 11001 €)136,
हेत ओर पक्ष का सम्बन्ध बतलाने वाला वाक्य) के बिना भी केवल व्याप्ति
( 1189101 16086, हेतु ओर साध्य का सम्बन्ध बतलाने वाला वाक्य )
बलसे हम हेतु को ज्ञापक मान लेंगे । यह स्वीकृत सिद्धान्त है किग्यापि भौर
पक्षधम॑ता से युक्त लिग ( साधन, 1114016 (€) ) ही ज्ञापक हो सकना
है [ अतः हेतु कौ पक्ष में वृत्ति होना परम आवश्यक है, नही तो अनुमान होगा
ही नहीं ।
तदाहुः शञबरस्वामिनः--ज्ञातसंबन्धस्येव पुंसो लिङ्गविचिष्ट-
७ आहाः - कच्छाद् सकः, र ऋः केक निरज 79 [7 १1 - क 4 4 + „+ # १
८३२ सबेदशनसंम्रहे-
धर्म्येकदेशचदर्चनाष्लिङ्गिविशिष्टधरम्येकदेशवुद्धिरदमानमिति । आ-
चार्योऽप्यवोचत्--
७०, सर एष् चोभयात्मा यो गम्ये गमक इष्यते ।
असिद्रेनेकदेलेन गम्यासिद्धेने बोधकः ॥ इति ।
इते शाबर स्वामी कहते ह --जो व्यक्ति [ साधन ओर साष्य-जेमे धूम
ओर अभिका ] सम्बन्ध जानता है वह जब लिग ( साधन--धरुम } से विशिष्ट
धर्मी ( जैमे पव॑त, जंगल आदि जहां मौ ध्रूमहो) का एक् भाग देखकर लिपी
( साध्य --असि ) से विशिष्ट धर्मो ( परवत ) के एक माग का बोध करताटहैतो
वही अनुमान है।' [ साधनयुक्त धर्मीको देख कर उसकी साध्ययुक्तता का ज्ञान
करना अनुमान द । कोई नई चीज शबर ने नहीं कटी है । |
हमारे आचायंनेभी कहा है--गम्य (साध्य )में जौ ज्ञापक्र ( गमक =
साधन, हेतु, लिग ) लिया जाता है वह॒ उभयात्मक ( अर्थात् व्याप्नि-विशिष् भौर
पक् में स्थित भी) होता है । यदि उसका एक भाग भी असिद्ध हौ गया (जसे हेतु
व्यानियुक्त होने पर भी पक्षनिष्ठन होया पक्षनिष्ठहोने पर भी व्यारिमान् न
रहे ) तो गम्य ( साध्य ) की सिद्धि नहीं हौ सकती इसलिए वैसाहितु साघ्यका
बोधकं नहीं हो सकता ॥ ४० ॥'
( १४. आरोप के विषय में शाका-समाघान )
नज मवत्प्चेऽपि पुरःस्थितस्येद्मथेस्य परमाथतो रजतत्वं
नास्तीति न रजतत्वं धर्म्यकदेश इति चेन्न । पक्षानुरूपो
~ ~ # न्यायेनाञुमिः द
बलिरिति न्यायेनादुमित्यामासानुगुणस्यंकदे शस्य विद्यमानत्वात् ।
तथा च प्रयोगः--
विवादाध्यासितं रजतज्ञानं पुरोवतिविषयं रजताथिनस्तत्र
नियमेन प्रवतंकत्वात् । यदुक्तसाधनं तदुक्तसाध्यम् , यथोभय-
वादिसंमतं सत्यरजतज्ञानम् ।
विवादपदं शक्तिशकरं रजतज्ञानविषयोऽव्यवधानेन
रजताथिप्रवृत्तिविषयत्वाद्रजतपदसमानाधिकरणपदान्तरवाच्यत्वा-
दरा बस्तुरजतवत् ।
कोई शंका कर सकता है करि आपकर पक्ष ( सौपी पर रजत का आरोप
-वाला पक्ष) मेभीतो सामनेमे विद्यमान "इदम्' का अथं ( प्रतीत वस्तु )
तः.
शांकर-दशेनम् ८३३
वास्तव मे रजत नहीं है इसलिए “रजतत्व' [ हेतु जो आपने ऊपर दिया है वह् ]
धर्मी ( पवंतादि ) का एक भाग नहीं बन सकता ।
परंतु एेसी बात नहींहै) "यक्ष के अनुसार बलि दी जातीहै' इस नियम
से अनुमानके द्वारा यह ज्ञात होता हैक धर्मी का एक भाग प्रतीति के अनुरूप
ही [ अवास्तविकल्पमें | विद्यमानदहै। [धर्मी का एक भाग = रजतत्व
"इदम्" के द्वारा प्रतीत वस्तु मे साघ्य अर्थात् उपकारकता वस्तुतः तो नहीं है,
कु देर तक प्रतीत होती है । साष्य यदि अवास्तविक है तो उसके साधन को
क्यापड़ाहैकि वहु वास्तविक बनने जाय ? अवास्तविक साध्य का साधन-
रजतत्व-- भी यदि अवास्तविक होजायतो क्याहानि है? उपकारकत्व की
जेसी प्रतीति, कैसी ही रजतत्व की । जैसे को तेसा ! |
इसके लिये अनुमान-प्रयोग (017) 07 106160९6} इस खूपमें होगा--
(१) विवादास्पद रजतज्ञान सामने में विद्यमान विषय से युक्त है। (प्रतिज्ञा)
(२) क्योकि रजतार्थी उसकी ओर नियम से प्रवृत्त होते हैँ । ( हेतु )
(३) जिसका सावन उस तरह है, उसका साष्य भी वैसा ही होगा जैवे
दोनों वादियों के वारा स्वीकृत सच्चे रजत का ज्ञान । ( व्याप्ति + उदाहरण )
[ इस अनुमान से यह् सिद्ध हुआ कि रजतविषयक ज्ञान पुरोवर्ती पदाथंविषयक
है । अतः रजत ओौर पुरोवर्ती पदाथं में तादात्म्य की सिद्धिहो जाती है। अवं
दूसरे अनुमान से यहिद्धकर रहेरहकि सीपीका द्ुकंडार्ादीके ज्ञानका
विषय है अतएव सीपी ओर चांँदीमें तादत्म्यदहै। इन दोनों तादा्म्यों कौ
उपपत्ति आरोपसे ही होती है । यह दूसरा अनुमान लं-- |
(१) विवादास्पद सीपी का टुकड़ा चांदीके ज्ञान का विषय है। (प्रतिज्ञा)
(२) क्योकि रजतार्थी की प्रवृत्ति बिना व्यवधान के उसी ओर होती है
क्योकि रजत शब्द के समानाधिकरण दूसरे पद ( "इदम्" ) का वह् ( सीपीकां
टुकड़ा ) वाच्य है । ( हेतु )
(३) जसे वास्तविक चाँदी होती है । ( उदाहरणा )
( १४ क. मीमांसकौ के तकां का उत्तर )
यदुक्तं रजतज्ञानस्य श्यक्तिकाम्बनत्वेऽनुभवविरोध इति
तदप्ययुक्तम् । विकस्पासहत्वात् । तथा हि- तत्र किं रजता-
कारप्रतीतिं प्रति शुक्तेरालम्बनत्वेऽनुभवविरोध उद्भाव्यते
इदमंशस्य वा ?
३ स० सं
८३४ ` सर्वदशेनसंम्रदे-
नाद्य; । अनङ्गीकारपराहतत्वात् । न द्वितीयः । इदंतानिः
यतदेश्चाधिकरणस्य चाकचिक्यविशिष्टस्य वस्तुतो रजनज्ञानार-
स्यनत्वमनवलम्बमानस्य भवत एवाजुभवविरोधात् । इदं रजत-
मिति सामानाधिकरण्येन परोवतिन्यङ्कलिनिरदेशपूवेकएुपादाना-
दिव्यवहारदशेनाच ।
आपकहते ह कि रजत का ज्ञान यदि सीप पर आधारित हो जाय तो अनुभव
का विरोध होगा । किन्तु यह बात युक्तिसंगत नहीं है क्योकि किसी भौ निम्नोक्त
विकल्प को सहने की शक्ति इसमे नही है। विकल्प ये है :--आप अनुभव का
विरोध कहा पर मानते दह? भ्ण रजत क्रे आकार की प्रतीति सीपी पर
आधारित होती है तब, या “इदम् अदा पर आधारित होती है तब ? [ सभी
लोगों का यह अनुभवहैकिर्वांदी की प्रतीति पुरोवर्ती पदाथं पर निर्भर करती
है। फिर भी अनुभव-विरोष माननेवाले कहते है कि पुरोवर्ती पदाथं सौपौ कै
ख्पमें चाँदीकी प्रतीति का भाधार है, इसीसे अनुमव का विरोध होता है ।
अथवा “इदम् अंश्च के रूपमे वह धार होगा । अब दोनों का खंडन करते है ।|
( १ ) पुरोवर्ती पदां सीप के रूप मे रजतज्ञान का आधार नहीं हो सकता
कोक इसे हम स्वीकार नटीं करते । अतः यह खंडित हो गया [ कि इसमे
अनुभव का विरोध होगा । हम इस रूप मे रजत का आरोप मानते न हीं, जिसते
अनुभवविरोध की उक्त प्रक्रिया हमपर लागू नहींहो सकती । इसमे सफाई देने
का स्थानही नहींहै। ह, | यदि अनुभव-विरोध आप "इदम्" के अंश पर
आधारित रजतज्ञान मे मानें तो सफाई दे]
(२) यह दूसरा विकल्प ठीक नहीं क्योकि जिस वस्तु का अधारः "इदम्!
अंश से नियत ( पुरोवर्ती ) स्थानहीहै तथाजो ( वस्तु ) चाकचिक्य ( जग-
मगाहट ) से युक्त ह उसे रजत के ज्ञान का आधारन मानने से आपकी उक्ति
ही अनुभव का विरोध करती है । [ आपका कथन गलत है । जिसकी आखं
दूषित हँ वह व्यक्ति सामने में पड़ी चोज को देखकर उसकी जगमगाहट से अपने
अंतःकरण मे उसकी वृत्ति बढाता है । द्रव्य का निरचय तो नहीं हो सकता--
सोषीके रूपे अंतःकरण की वृत्ति नहीं जगी है। जगीदहैतो दम्! के रूप
सं, अतः दम्" के रूप में पुरोवर्ती पदाथं पर आधारित रजतज्ञान अनुभवसिद्ध
। यदि कोई नहीं मानता तौ वही अनुभव के विरुजा रहा है । ] दूसरे,
“इदं रजतम्" इस प्रकार समानाधिकरण होने के कारण पुरोवर्ती पदां में
शांकर-दशेनम् ८३५
अँगुली का निर्देश करके भी प्रवृत्ति आदि व्यवहार देखे जाते ह। [ कोई अंगुली
दिखाकर कहता है कि यह चाँदी है, तो उसे लेने के लिए हम चल पड़ते है । |]
यच्चोक्तमू--दोषाणामौत्सभिककायंप्रसवशक्ति प्रतिबन्धक -
तया विपरीतकारित्वं नास्तीति । तदप्ययुक्तम् । दावदग्धवेत्र-
बीजादौ तथा दनात् । न च दग्धस्य वेत्रशीजत्वं नास्तीति
मन्तव्यम्। श्यामस्य घटस्य रक्ततामात्रेण घटत्वनिबत्तिप्रसङ्गात् ।
ननु धटोऽयं बटोऽयमित्यनुद्त्तयोः प्रत्ययप्रयोगयोः
सद्धावाद् घटत्वस्य सद्भाव इति चेत्--न । अत्रापीदं वेत्रबीज-
मिति तयोः; समानत्वात् ।
आपने यह मी कहाथा कि दोष का्ेतादन को स्वाभाविक रक्तिका
केवल भ्रतिबन्ध कर सकते ह ( देखिये --अनु ° ११ क ) अतः ये विपरोत कायं
उत्पन्न नहीं कर सकते ( अर्थात् दोष केवल आवरण करने मे समथंहै विक्षेपमें
नहीं )। यह भी ठीक नहीं है क्योकि दावाग्नि से जले हुए बीज मे वह् शक्ति
( विपरीत-कार्योत्पादन की ) देखते है । भाप यह न सोचें ( जेसा कि उक्तं स्थल
पर हमारी शंका का उत्तर देते हृए किया था ) फं जल जाने पर वह बत का
बीज रहा ही नहीं । एेसा यदि होता तो काले ( कच्चे ) घडे में पकने पर यदि
लाल्लौ आने लगती तो बस इतनेसे ही वह घट-संज्ञा से रहित हो जाता ।
[ इससे सिद्ध हु क्रि परिणाम होने के कारणा स्वाभाविक धमं को हानि नहीं
होती । बत का बीज जलने पर भी बेंतकाबीजहीदहै। अतः वह विपरीत
कायं उत्पन्न करने में समथं हैही।|
अब यह शंकाकी जा सकती है कि [ उपयुक्त घट के उदाहरण मं ¦ यह
( कच्चा ) भी घट है, वह (पका ) भी षट ही है-- यहां [ घटविषयक | प्रतीति
मौर व्यवहार दोनों ही अनुवृत्त अर्थात् पहले की तरह होते है। दोनो के
विद्यमान रहने से वहा घटत्व ही विद्यमान है [ जिसे कच्चे भौर पक्के धड़ मे
"वट' शब्द का ही व्यवहार होता है । वह बात यहाँ पर लागू नहीं है । | परन्तु
यह चछंका इसलिए ठीक नहीं कि यहाँ पर भी दोनों स्थितियों में वह बत का बीज
एक समान हीदहै।
तथा भस्मकदोषदषितस्य जाटरामेबेहन्नपचनसामथ्यं
द्यते । न च बहन्नपचनसामथ्यं जाठरस्येव जातवेदसो न
भस्मकव्याधेरिति वक्तुं युक्तम् । तस्य मन्दमर्पपचनसामर्थ्येऽपि
८३६६ ` स्बेदशेनसंग्रदे-
सहसा महत्पचनस्य भस्मकव्याधिसाहायकमन्तरेणालु पपत्तेः ।
अन्यथा सर्वेषां तथापत्तेः ।
उसी प्रकार भस्मक-दोष से दूषित जठराग्नि मे बहुत-सा अन पचाने को
सामथ्यं देखते ह । यह कहना ठीक नही है कि बहृत-सा अन्न पचाने कौ सामथ्यं
केवल जठराग्नि में ही है, भस्मक-रोग में नहीं । उस ( जठराग्नि ) में धीरे-धीरे
थोडा-सा अन्न पचाने की सामथ्यं होने पर भी अकस्मात् अ धिक-से अधिक अन्न
पचानि की शक्ति तब तक सिद्ध नहीं होती जब तक भस्मक-रोगषूपो दोष को
सहायता नले ली जाय । यदि रेखा नहींहो तो सभी जठराग्नियों ) के साथ
यह बात होने लगेगी [ किं वे अधिक-से-अधिक भन्न पचाने लगेगी - चाहे भस्मक
रोग रहेयान रहे । परन्तु एसा नहीं देखते । इससे यहं सिद्ध हुजा कि दोषों का
आविर्भाव हो जाने पर क्रिया विपरीत भी होती है । ]
दि च ज्ञानानां यथाथव्यवहारकारणत्वेऽपि दोषवश्चादय-
था्भव्यवहारकारणत्वमङ्गक्वाणो भवानेव पयुयोज्यो भवति ।
तदुक्तं माप्ये--“य्चोभयोः समानो दोषो चयोतते तत्र कडचोयो
भवतीति! । अत्राप्युक्तम्-
४१, यश्चोभयोः समो दोषः परिदरोऽपि वा समः ।
नदे टगथेिचारणे [क
नैकः प्यनयोक्तव्यस्त। ॥ इति 1
इसके अतिरिक्त जब आप ( मीमांसक ) यह स्वीकार करने लगते हकं
ज्ञान यथाथं व्यवहार का कारण होने पर भी दोष के कारणा अयथाथं व्यव-
हार कै प्रयोजक हतो अपनेही त्कोसे आप स्वयं पकंडे जाति है । | यहं
आशय है--मीमांसकों के अनुसार पुरोवर्ती पदार्थं का प्रत्यक्ष ( इदम् ) ओर
रजत का स्मरण ( रजतम् ), ये दोनों ज्ञान सच्चे हैकिन्तु दोषके कारण एक
हौ ज्ञान से उत्पन्न जसा व्यवहार जो करते है वह असत्य है । इसका अथ है कि
आप स्वयं स्वीकार करते है कि दोष यथाथं व्यवहार के विपरीत अयथार्थ
व्यवहार के खूप में कायं उत्पन्न करते है । धन्य है मीमांसक जी, स्वयं तो दोषां
रे विपरीत कार्योत्पादन-शक्ति मानते है ओर हम पर लाञ्छन लगाते कि
आप एसा मानते है । दोनों तो एक ही तरह के दोषसे युक्त दै। कौन किसे
दोषी घोषित करे ? ]
इसे भाष्य मेँ कहा है--'दोनो मे जब समान दोषं दिवलाई पड रहा है
तो उसमे किसे लांछनीय समभे? यहां मी कहा गया है-'( ४१ ) जब दोनो
शांकर-दशेनम् ८३७
प्ल मँ एक समान दोष हो ` भौर उसका परिहार ( निराकरण) भीषए्कही
समानहो तो वैसे पदार्थंके विवेचन मे किसी एक् पर लांछन लगाना ठीक
नहीं है।'
तथापि मामकस्यानुमानस्य फं दषणं दत्तमासीत् १ यद्य
नुमानदृषणं विना न परितुष्यति, हन्त, कालात्ययापदिष्टता ।
ष्णवत्मीयष्णत्वालुमानवत् । एतावन्तं कालं यदिदं रजत
मित्यभादसो शक्तिरिति प्रत्यक्षेण प्राचीनप्रत्ययस्यायथाथेत्वं
्रेदयता यथारभैत्वाजुमानंस्यापहतविषयत्वाद् बाध्यत्वसंमवात् ।
किर भी हमारे ( मीमांसकं के ) द्वारा दिये गये अनुमान मे#* अपने क्या
दोष लगाया ? [ वेदान्ती कहते है किं ] अच्छी बात, महोदय, यदि अनुमान में
दोव दिषाये बिना आप संतुष्ट नहींहो रहे है तो सुनिये--आपके अनुमान में
कालात्ययापदष्ट या बाधित हेत्वाभास है। वह वैसा ही अनुमान है जैसे
अभ्नि को अनुष्ण सिद्ध करने के लिए अनुमान दिया जाय । [ असि अनुष्ण है
क्योकि यह द्रव्य है जैसे जल । यह अनुमान प्रत्यक्ष प्रमाण से ही बाधित
होता है । ]
इस समय तक जो पदार्थं रजत के रूपमे प्रतीत होता रहा है बह सीपौ
है-- इस तरह प्रत्यक्ष प्रमाण ही प्राचीन प्रतीति कौ अयथार्थता सिद्ध करता
ह। यथार्थता सिद्ध करने वाले अनुमान का विषय अपहृत हो जाता है (र्चादी
सीपी बन जाती है ) । 8सलिए वह् ब्य तो है ही।
चोक्तं स्वगोचरव्यभिचारे सवोनाश्वासगप्रसङ्ग इति । तद्-
संपि ५ चित्स वादिः ¢
सांप्रतम् । संषिदा क्रचित्संवादिव्यवहारजनकत्वेऽपि न सवत्र
तच्छङ्कया प्रवृद्युच्छेद इति, तथा तावकेऽपि मते तथा मामकेऽ-
प्यसौ -पन्था न वारिति इति समानयोगक्षेमत्वात् ।
। = = [ऋत धिविषे ॐ 9 ¢
तोतातितमतमवलम्ब्य विधिविवेकः व्याङ्वोणेराचायवाच-
स्पतिमित््नोधकतवेन स्वतःश्ामाण्यं न ्यभिचारेणेति न्यायकणि-
कायां अरत्यपादि । तस्मादविश्वासशङ्का अनवकारं लभते ।
जापने यह कहा किं यदि [ ज्ञान में | अपने विषयका व्यभिचार सानं
प वरिवादस्पद प्रतीतिं यथां है, क्योकि वे प्रतीतियां है जैसे दण्डी कौ
प्रतीति । देखिये-- अनु° १२क का अंत । |
८३८ सबेदशेनसं्रदे-
( विषय के यथाथंन होने पर भौ उसका ज्ञान स्वीकार करे ओौर विषयसे
व्यभिचरित होनेवाला ज्ञान मानें ) तो सभी व्यक्तियों की प्रवृत्ति ( माइवासन,
विश्वास ) रुक जायगी । पर एेसी बात नही हि। ज्ञान से कहीं-कहीं संवादी
( व्यभिचरित, यथार्थं के साथ अयथाथं ) व्यवहारं की उत्पत्ति होती है फिर
भी सब जगह वैस्ाहीहोने की कासे प्रवृत्ति का बिल्कुल नाश ही नहींदहो
जाता । जिस तरह आपके मतमें एेसा होने पर भी प्रवृत्ति नहीं सकती, उसी
तरह हमरे मत में भी | व्यभिचरित होने पर भी मागं नहीं बन्द होता | वयोकिं
हम दोनों के योगक्षेम ( संपाद्य विषय भौर प्रणाली ) समान दही रहै । [ वेदान्ती
लोग विषय के यथार्थंरूपमें नहोने पर भी ज्ञान मानते हृए विषय का
व्यभिचार ग्रहण करते ह । मीमांसक लोग व्यवहारः के यथार्थंन होने पर
भीज्ञान को उस व्यवहार का प्रयोजक मानते ह भौर ज्ञान मे व्यवहार का
उयमभिचार मानते है । दोनों को अविश्वास तो ह ही--यह दोष दोनों मेंदै।
कोड् गंगा मे तैरते समय दव गया तो कोई भी गंगा में नहीं तैरेणा, रेसी बात
नहीं देखते । अतः कहीं पर ठ्यभिचार पाकर प्रवृत्ति सवत्र रुक ही नहीं जाती--
यह हम दोनों वादी मानते है।]
तौतातित ( कुमारिल भटर) के मत का अनुसरण करके विधियो कौ
विवेचना करते हए चायं वाचस्पति मिश्र ने न्यायकणिका में प्रतिपादन
किया दहै कि [ अपूवं अथंका) बोधकरहोनेके कारण विधि को अपने आपमें
प्रामाणिक मानतेहैन कि [ फल का ] व्यभिचार होने के कारण । [ जहाँ पर
वाचस्पति ने इसका प्रतिपादन किया है उसका विषय कुछ इस प्रकार का
है--चार्वाकपक्षी शंका करते हैक वेदम विहित पुत्रकाम इष्टि संपन्न कर लेने
पर भी कहीं-कहीं पत्र की उत्पत्ति नहीं देखते अतः फल का व्यभिचार
( 10८्ग७ं$लप८ु ) देवकर संबद्ध विधि को अप्रामाणिक मानें। इसौ पर
वाचस्पति का कहना है करि विधि स्वतः प्रमाणा है क्योकि अपूवं विधिदहै-
हसक प्रतिपादित अथं की प्रापि किसी दूसरे साधन से नहीं होती । फेल के
उ्यभिचार से इसके प्रामाण्य पर कोई प्रभाव नहीं पड़ता । |
इसलिए अविश्वास ( अनाश्वास ) को शंकाका कोई स्थान ही नहीं ।
( १५. माध्यमिक बोद्धौ का खण्डन --श्रमविचार )
नज माध्यमिकमतावलम्बनेन रजतादिविश्रमालम्बनमसदिति
चेत्--तदुक्तम् । असतोऽपरोक्षप्रतिभासायोग्यत्वात् । तदुपा-
दित्सया प्रवरृच्युपपततेशच ।
धक
|: २१. न्न ज
क री ® र = ¶
|.
> च क ह!
ई १।
५ ४१ ॥
वै. 4
ज क श
च + ॐ. | [*
# +" धे । #। शि क, = ह कः
40 0 1
ए ज 4 4 9 च ग र क
शांकर-दशेनम् ८३६
नलु विज्ञानमेव वासनादिस्वकारणासामथ्यसादितच्टान्त-
सिद्धस्वमावविरेषमसतप्काश्चनसमथेनषुपजातम् । असत््रकाशन-
शक्तिरविद्या संवृतिरिति पयौयाः । तस्मादविद्यावश्चादसन्तो
भान्तीति चेत्-तदपि वक्तुमरक्यम् ।
माध्यमिक-मत का अवलंबन लेने पर यह शंकाहो सकती है किं रजत
आदिके विश्रम का आधार (सीपी) ही असत् है। [ माष्यमिक बोडों
( पपा 11) 8४8 ) के मत से सभी पदाथं शून्य है अतः सीप भी तो असत् ही
है। ] इस का उत्तर तो दे दिया गया है कि एक तो, असत् अपरोक्ष ( प्रत्यक्ष )
मँ प्रतीत हो नहीं सकता [ जबकि सीपी मे रजत का श्रम प्रतीत होता है];
दूसरे, [ उक्तं भ्रम के आधार पर जो रजत-ग्रहण कौ प्रवृत्ति लोगों मे देखते है |
उसके ग्रहण की इच्छा से लोगों मे वह प्रवृत्ति नहीं हो सकेगी ।
[ अव ये शन्यवादी माध्यमिक लोग करगे कि वासना असत् के प्रकाशन
की शक्ति रखती है- असत् होने पर मी सत् की तरह प्रकाशित होती है।
उसका यह प्रकाशन अनादि कालसे चला आ रहा है। वह वासना ही असत्
विज्ञान कोसत् के रूपमे प्रकाशित करती है। जिस तरह वह स्वयं प्रकाशित
होती है उसी तरह विज्ञान मे भी असत्-प्रकाशन की शक्ति दे देती है। स्वप्न
के दृष्टान्त से हम जान लेते ह कि विज्ञान मे असत्-प्रकाशन की शक्ति है। नेसे
स्वप्नावस्था मे असत् पदार्थो का प्रकाशन होतादै उसी तरह विज्ञान भी
असत्-पदार्थो का प्रकाशन करता है ¦ इसे ही कहते ह-- ] यह शंका हो सकती
ह करि वासना आदि अपने कारणों कीशक्तिते प्राप्त तथा | स्वप्न के | दृष्टान्त
से सिद्ध एक विेष स्वभाव विज्ञान को मिलता है भौर वह है--असत् पदार्थो
के प्रकाशन की क्षमता। उसे असत् के प्रकाशन की शक्ति करट, अविद्या कर
या संवृत्ति ( (0९९816४ ) कठँ, [ कोई अन्तर नहीं क्योकि | तीनों
पर्याय ही ह । इसीलिए अविद्याके कारण ही असत् पदाथं प्रतीत होते है ।
यदिये (बौद्ध) रसा कतो हम कहे कि इस प्रकार कहना भी भंमव है!
[ कारण अगे दगे। |
शक्यस्य दुरनिरूप्यत्वात् । किमत्र शक्यं कायं ज्ञाप्यं वा १
नाद्यः । असतः कारणत्वानुपपत्तेः । न द्वितीयः । शक्यस्य
कारणतेनाङ्गीकृतत्वात् । ज्ञानादन्यस्य ज्ञानस्यानुपटन्धेश्च ।
उपलब्धौ वा तस्यापि ज्ञाप्यत्वेन ज्ञापकान्तरपेश्षायामनवस्था-
पत्ते ।
ष्णि रै
८४० सबदशनसंग्रहे-
शक्य ( घटादि) पदां का निरूपणा करना ही कठिन है। [ भसत्-
प्रकाशन की शक्ति जिसमे है वह विज्ञान शाक्त कहलाता है । वह विज्ञान अपनी
शक्ति से जिन-जिन पदार्थो का प्रकाशन करता है वे दाक्य दहै जेसे--घट, पट,
वृक्ष आदि । | क्या यहाँ पर शक्य पदाथं कायं ( {00 प्९॥, उत्पन्न पदां )
है [ दण्डादि का कायं जैसे चट है वैसा ] या ज्ञाप्य [ उत्पन्न ज्ञान का विषय--
जेषे दीपादिकाज्ञाप्य घट है वेसा | है?
पहला विकल्प तो होगा ही नहीं क्योकि असत् वस्तु ( विज्ञान भी तो असत्
ही है- सर्वं शृन्यम् ! ) घटादि ( शक्य कायं ) कां कारण नहीं बन सकत ।
दसरा विकत्प [ क्रि शक्यज्ञाप्यटहै] भी ठीक नहीं क्योकि शक्य पदां
कोकारणके रूपमे स्वीकार नहीं करिया जा सकता। [ यदि श्ञक्य घटादि
पदां ज्ञाप्यहैँतो विज्ञान इनका ज्ञापकदटहै। ज्ञापक ओर ज्ञाप्यमें सीधा
संबंध है नहीं। जैसे दीपक ( ज्ञापक ) घट आदि का ज्ञान उत्पन्न करता है
वैसे ही विज्ञान घटादिका ज्ञान उत्पन्न करतादहै।) तो, शक्य ( घट) कारण
नहीं हो सका। | दूसरे एक ज्ञान ( विज्ञान से उत्पन्न विज्ञान ) से भिन्न
दूसरा (घटके विषयमे) ज्ञान पाया नहीं जाता । यदि आप [ हठपूर्वंक |
कहँ करं पायादही जाताहै तो ज्ञाप्य होनेके कारण [ इस दुसरे ज्ञान--
चट विषयक ज्ञान को | भी दूसरे ज्ञापक की अपेक्षा होगी ओर अन्त में अनवस्था-
दोष ही हाथ लगेगा । [ तात्पर्यं यह है कि आप एक विज्ञान से घट ज्ञान ( दूसरा
ज्ञान ) मानते है । इस द्वितीय ज्ञान का शक्य ( अर्थात् घटादि पदाथ ) कायं
नहींदहै, ज्ञाप्यदहीदहै। जबज्ञाप्य है तब इस द्वितीय ज्ञान का भी कोई ज्ञापक
होगा ही । ज्ञापक = ज्ञानोत्पादक । अतः इस द्वितीय ज्ञान से तृतीय ज्ञान कौ
(~: मानं-- उसका भी कोई ज्ञापक होगा, फिर उसका ज्ञाप्य । यह् स्थिति
अनन्त काल तक चलेगी । |
अथेतदोषपरिजिहीषेया चिज्ञानं सदरूपमेवासतः प्रकाश्चकमिति
कक्षीक्रियत इति चेत्--अत्र देवानांप्रियः प्रष्टव्यः पुनः । असौ
सदसतोः सम्बन्धो निरूप्यनिरूपकभावोऽविनाभावो वा ?
नाद्यः । अस्तत उपकाराधारत्वायोमेनानुपङ्कततया निरूप्य-
तवालुपपत्तेः । न चरमः । धृमधूमध्वजयोरिव तदुत्पत्तिक्ष णस्य,
श्िलपावृक्षयोखि तादात्म्यलक्षणस्य वा, अबिनाभावनिदानस्य
सदसतोरसंभवात् । तस्माद्विज्ञानमेवाससप्रकाशकम्--इत्यसदा-
दिनामयमससपराप इत्यारोप्यमाणं नासत् ।
शां कर-दशेनम् ८४१
अब यदि उक्त ( अनवस्था) दोष का परिहारकरने कौ इच्छासे ये
स्वीकार करे कि विज्ञान सत् के रूपमेंहोते हुए भी असत् का प्रकाशक टै तो
उस मूर्वाधिराज से पूना चाहिए । [ यह प्रवयुत्तर जौ दोष के परिहारके रूप
मे दियाजारहादहै वहन तो पृणंतः माघ्यमिक-मत की ओरसे दियाजा
रहा है क्योकि माध्यमिक-मत मे विज्ञान को भी असत् मानते जब कि यहाँ
विज्ञान को सद्रूप माना गयादहै। न यह प्रत्युत्तरं पूरणंतः विज्ञानवादियों कौ
ञओरसे दिया गया है क्योकि वे बाह्य घटादि पदार्थो को ज्ञानस्वरू7 मानते है
ओर यहाँ वैसा किया नहीं गया है। अतः शंका करने वाले "आधा तीतर आधा
बटेर' या अधंजरतीय ( आधा बृढा आवा जवान ) के न्याय से प्रद्यत्तर देते हैँ ।
यही कारण है क्रि माधवाचायं उनके लिए देवानां प्रियः" ( मूं ) का प्रयोग
करते है । ] अच्छा कहिये--सत् ओर असत् के बीच उप्ुक्त संबन्ध किंस रूप
मटै, निरूप्य तथा निरूपक के रूप में या अविनाभाव ( [7९818016 1९18
00 ) के रूपमे?
इनमे पहला विकल्प ठीक नहीं है वयोकरि असत् पदार्थं ( घट आदि }) उपकार
( सामथ्यं विशेष, अतिशय ) का आधार नहीं हो सकता ओर जब तक उसमें
निरूपक ( विज्ञान ) के द्वारा अतिशय का आधान ( = उसे उपकृत ) नहीं
किया जाता तव तक यहु निरूप्य बन ही नहीं सकता । [ चूंकि असत् वस्तु
किसी का आश्रय नहीं हो सकती अतः उसमें सामथ्यं का आधान करना संभव
ही नहींदहै।।
दसरा विकल्प [ कि व्याप्तिके बलसे विज्ञान घटादि का ज्ञापक्र है| भो
ठीक नहीं क्योकि [ बौद्धो के द्वारा स्वीकृत अविनाभाव के दोही करणै
तदुत्पत्ति ओौर तादात्म्य । | उनमें सत् ( विज्ञान ) भौर असत् ( घटादि) के
बीच, नतो धूम ओर अग्नि की तरह तदूत्पत्ति ( 18088] 1618107 )
से उत्पन्न व्याप्ति (अविनाभाव )संभवदहै, नही शिंशपा भौर वृक्ष को तरह
तादात्म्य { 1.8 0 वशा ) से उत्पन्न व्याति । ( देखिये, बौद-दलंन,
अनु° १ ) । |
इसलिए, "विज्ञान ही असतु पदार्थं का प्रकारक है" यह् असद्वादियों
का असत् प्रलाप ( 141९ ५६४ ) है) इस प्रकार आरोप्यमाण वस्तु असत्
नहीं होती ।
विद्चेष- शृन्यवादी बौद्धो का िढन्त असत्छ्यातिवाद् कहल।ता है
जिसमें आरोप्यमाण वस्तु को असत् कहते है । शंकराचायं आरोप को चमया
मिथ्या भले ही कहते है, असत् नहीं । असत् का अथं है तीनों काल मे बाधितः
८४२ सवेदशेनसंग्रहे-
पदाथं जैसे वल््यापुत्र, शशश्यंग आदि । मीर्मांसकों के सिद्धान्त का नाम
अख्यातिवाद् है जिसमे भ्रमज्ञान नहीं मानते। नैयायिक लोग अन्यथा-
ख्यातिवाद् मानते है जिसके अनुसार एक वस्तु कौ प्रतीति दुसरे रूप मे होती
है । वेदान्तियों का सिद्धान्त अनिर्वचनीयख्यातिवाद् है जिसमे वस्तु को सत्,
असत् या उभयात्मक रूप मेँ व्यक्त करना असंभव है। यह् स्मरणीय है कि
लंकर सत्ता के तीन रूप मानते है - पारमाथिक, व्यावहारिक ओौर प्रातिभासिक ।
अनिवंचनोयता पारमार्थिक दृष्टिकोण से ही हो सकती है । व्यावहारिक टृष्ठिसे
वरे सभी प्रतीतियां ठीक ह जिनसे हम दैनिक कायं करते है । पारमार्थिक
््टिसेये श्रमरहै, केवलब्रह्म ही सत्य है। प्रातिभासिक हृष्टि से सीपौ पर.
रजत का आरोपमी सत् है किन्तु व्यावहारिक दशाम वह॒ श्रम है। ऊपर को
सत्ता की दृष्टि से नीचे कौ सत्तावाल्ी वस्तु श्रम होती है ।
सत् का ही किसी पर आरोप होता है, असत् का नहीं । शश पर श्र्ञं का
आरोप करते ह वयोकरि श्ुङ्ख की अन्यत्र सत्ता संभव है । परन्तु अब शश्च
का किसी पर आरोप नहीं करगे व्योक्रि इसकी सत्ता कहीं नहीं है ।
( १५ क. विज्ञानवादियौ का खण्डन-श्रमविचार )
ननु विन्ञानवादिनयानुसारेण प्रतीयमानं रजतं ज्ञानात्मकम् ।
तत्र च युक्तिरभिधीयते--यद्यथानुभूयते तत्तथा । अन्यथात्व
० ॐ ¢
त॒ बलवद्वाधकोपनिपातादास्थीयत इत्युभयवादिसंमतोऽथेः । तत्र
च नेदं रजतमिति निपिद्ेदंभावं रजतमथीदान्तरज्ञानरूपमवति-
एते । न चेदंतया निपेधे सति अनिदंतया च बहिरपि व्यवस्थो-
पपत्तेः कुतः संविदाकारतेति वाच्यम् । व्यवदितस्यापरोक्षतवानुप-
©
पत्तावपरोक्षस्य विज्ञानस्य कश्षीकसैव्यत्वात् । तथा च प्रयोगः-
विवादपदं विज्ञानाकारः, संप्रयोगमन्तरेणापरोश्षत्वात्, विज्ञान-
वदिति ।
[ विज्ञानवादी पूर्यक्षी के रूप में कह रहे है] विज्ञानवदियों के सिद्धान्त
के अनुसार, प्रतीत होनेवाला रजत ज्ञानात्मक है । इसक्रे लिए युक्ति ( ^10प-
0611४ ) दी जाती है--जिसका जेसा अनुमव होता है वह पदाथं वैसाही ३)
उसका दूसरे रूप में होना तो किसी बलवान् बाधक के उपादान ( {770त९-
षण ) से ही सिद्ध होतादहै, यह बात दोनों वादियों को ( विज्ञानवादी भौर
वेदान्तीको भी ) मान्य है । [ किसी को पानी गर्म लगा तो यह उष्णता जल की
शाकर-दशेनम् ८४३
नहीं है, अग्निकी ही है--यह सिद्ध होता है। अन्वय-व्यतिरेक से जलम
बीतलता ओर अगि मे उष्णता की सिदधिहोतीदहै। जहां इस तरह का कोई
बाधक नहो वहाँ तो अनुभव के अनुसार ही वस्तु का निय करना चाहिए । |
"नेदं रजतम्" मे जो रजत शब्द ह उसे "इदम्" के अथं से निषिद्ध कर दिया
गया है । [ नन् का अर्थं है निषेव ! उसका संबंध इदं के साथ है, रजत के साथ
नहीं अर्थात् रजतः का इदं भाव से कोई मतलब नहीं रहा । रजत है ही, परन्तु
“नेदम्” कहने से उसके बाहर दिखाई देने की बात स्क गई । इस तरह | अभ
से ही सिद्ध हृभा किं वह॒ ( रजत ) आन्तरिक ज्ञान (या विज्ञान) केरूपमें
अवस्थित है। ेसा नहीं कहना चाहिए कि इदम्" के रूपमे निषेषहो जाने
से नेदम्" के रूपमे बहिजंगत्मेंभीततो रजत के होने कौ व्यवस्था सिद्धकी
जा सकती है, फिर आप इसे केवल संविद् या विज्ञान के आकारमें ही केसे
मानते है ?४
ठेस इसलिए नहीं कटे क्योकि [ नेदं कहने से रजत को बाह्य-जगत् में
व्यवस्थित करने के समय आपत्ति होगी किं रजत तो | ग्यवहित या दूर हो गया,
वह अपरोक्ष ( प्रत्यक्षं) के रूपमे नहीं माना जा सकता इसलिए उसे प्रत्यक्ष
( आन्तर रूप से ) विज्ञान ही मानना पड़ेगा । इसके लिए अनुमान का प्रयोग
भी रै-
(१) विवादास्पद (प्रस्तुत रजत ) विज्ञान के आकार में है । ( प्रतिज्ञा )
(२) क्योकि बाह्येन्दियों के संनिकषं से रहित होकर यह प्रत्यक्ष है । (हेतु )
(३) जैसे विज्ञान होता है । ( उदाहरण )
तदनुपपन्नम्। विकल्पासहत्वात् । बाधकोऽवबोधः किं साक्षा-
जज्ञानाकारतां बोधयत्यथाद्रा १ नाद्यः । नेदं रजतमिति प्रत्ययस्य
रजतविवेकमात्रगोचरस्य ज्ञानाभेदगोचरतायामनुभवविरोधात् ।
नेदं रजतमिति रजतस्य पुरोवर्तित्वप्रतिषेधो ज्ञानाकारतां
करपयतीति चेत्--तदेतदरर्तम् । प्रसक्त प्रतिपेधात्मनो बाधका-
वबोधस्य तत्रैव सच्वातप्रतिपेधोपपत्तेः । विज्ञानाकारत्वसाधनम-
# जो चाँदी यहाँ परनहींहै तोकहींघरमेपेटीमें रखीतोदहो सकती
है ? यहाँ नहीं होने से बिल्कुल आन्तर विज्ञानम हौ है, इसका क्या प्रमाण ?
कहीं भी बाह्य जगत् में हो सक्ती टै ।
111 सबेदशेनसंम्रहे-
प्यविज्ञानाकारे बिष्ट साक्षिप्रत्यक्षे भावरूपाज्ञाने वतेत इति
सव्यभिचारः।
[ अब वेदान्ती उत्तर देते हैकि ] उक्त कथन असिद्ध दहै। कारण यहदहै.
कि निम्न विकल्पों को यह् सह नहीं सकता । यह जो बाधक ज्ञान है वह क्या
सीधेहीज्ञानके माकारका बोध कराताहै या तात्प्यंके द्वारा ? पहला
विकल्प तो ग्राह्य नहीं हो सकता क्योकि "यह रजत नहीं है" यह ( बाधक )
प्रतीति केवल रजत के भेदसेही संबन्ध रखतीहै। यदि उसे रजतके ज्ञान
के अभेद ( स्वरूप ) के. विषय में मानगे तो हमारे अनुभव के विरुढ होगा
अब यदि आप यह करटकं "यह् रजत नहींदहै' यह वाक्य जो रजत के
पुरोवर्ती ( सामने } होने का निषेध करता है, वहीज्ञानके आकारका बोध
कराता है *( = तात्पयं से इसका बोध हो), तो हम कर्हैगे कि यह् व्यथंहै।
बाधक ज्ञान प्राप्त वस्तु का निषेव करता है [ अप्रसक्त वस्तु का विधान नहीं।|
बाघक ज्ञान कौ सत्ता वहीं (सामने कास्थान ) पर रहै अतः प्रतिषेध की सिद्धि
हो जातीहै। [ यहाँ पर दोषके कारण कल्पित प्रतीयमान रजत प्राप्त है।
उसका प्रतिषेध समक्षहीटहै। अतः इस प्रतिषेध कै वास्तविक होने के कारण
आन्तर ( विज्ञानरूप ) रजत की सिद्धि तात्पयं से नहीं होती । संनिहित न होने
पर भी नहींहीहोतीदै।]
[ रजत को आप विज्ञानवादियोंने "वबहिरिन्द्रिय के संनिकषंके बिनादही
प्रत्यक्ष है" एेसा हेतु देकर विज्ञानाकार सिद्धकरने की वेष्टाकी है। वह
सव्यभिचार हेतु है क्योकि इसकी वृत्ति [ व्यभिचारपूवंकं ] उस भावात्मक अज्ञान
महै जो विज्ञानकार नहीं दहै, [संसार का मूलकारण होने से] बाहर
अवस्थित है तथा [ बाह्येन्द्रिय संनिकषंके बिनाभी] चैँअज्ञहूः के रूप
जिसका प्रत्यक्ष होता है। [ ऊपर के विज्ञानवादियों के अनुमान मे साध्य--
विज्ञानाकारत्व--था। उसका अभाव भावात्मक अज्ञानमे है। उक्त अनुमान
के हेतु की वृत्ति इसमे भी है । साध्याभाव में वृत्ति रहने से हेतु सव्यभिचार है ।|
( १५ ख. नेयायिकौ की अन्यथाख्याति का खण्डन )
नन्वन्यथाख्यातिवादिमतानुसारेण रजतस्य देश्ञान्तरसच्वेन
भाव्यम् । अन्यथा तस्य प्रतिपेधप्रतियोगित्वानु पपत्तेः । न हि
करिचत्रक्षावाञ्छशविषाणं प्रतिषेदं प्रभवति । तदुक्तम्-
४२. व्यावत्यो भाववत्तेव भाविकी हि विशेष्यता ।
| शोकर-दशनम् ८४
अभावाविरहात्मत्वं वस्तुनः प्रतियोगिता ॥
( न्या० ० ३।२ ) इति ।
तथा च तस्य देश्चान्तरसत्वमाश्रयणीयमिति चेत्-तदपि न
प्रमाणयपद्धतिमध्यास्ते। असतः संसगस्येव कलधौतस्य निवेधप्रति-
योगिखोपपत्तेः । |
[ बौद्धो की सहायता के लिए नैयायिक लोग आ धमके । "वह रजत नहीं
है" इसमें प्रतिषेध ही स्पष्ट है । तात्पयं ( अथं) से आन्तरिक विज्ञान के आकार
मे रजत की सिद्धि नहीं हुई, न सही । जो रजत पासमे नहीं. घर की पेटी
आदि में है उसकी सिद्धि तो तात्पयं के हारा हो सकती है- प्रतिषेध रहे तो भी
क्या आपत्ति है ? उनका पक्ष है-] अन्यथाख्याति का सिद्धान्त मानने वालों
के अनुसार रजत को सत्ता दुसरे स्थान मेंतो माननोही चाहिए । यदिदएेसा
नहीं कस्गे तो वह प्रतिषेध का प्रतियोगी नहीं हो स्केगा। कोरईभी एसा
वृद्धिमान् व्यक्ति नहीं होगा जो "खरहे को सींग ( असम्भव बस्तु ) का प्रतिषेध
करनेमें समर्थहो) [ इसप्रकार जो रजत पास में नहीं है उसकी सत्ता दूसरी
जगह है । एक वस्तु की प्रतीति दूरे रूपमे हो, यही अन्यथाख्याति है। यह
तभी सम्भव है जबर दूसरा पदार्थं ( रजत ) सत् हो, अत्यन्त असत् नहीं क्योकि
उसकी प्रतीति हो नहीं सकती । || |
इसे कहा दै--व्यावल्यं ( प्रतियोगो--घटाभाव) का [भूतल में]
परमार्थतः ( भाविकी ) अभाव-युक्त होना ही विशेष्य होना है। उसी प्रकार
[ घट के | अभाव के अभाव के रूपमेंजो पारमार्थिक वस्तुहो जाय तो वही
उसका विशेषण होना ( प्रतियोगिता ) है ।' ( न्यायक्रुसुमांजलि, ३।२ ) ।
[ व्याख्या-खरहे की सींग आत्यन्तिकं रूप से असत् है, सीपी में रजत
की प्रतीति माभासित है । अतः ये अवास्तविक रहै, पारमा्पिक नहीं । इस इलोक
मे यह बतलाया गया है किं अवास्तविकं षदाथंमेंन तो विशेष्य बनने की शक्ति
है न विशेषण ( प्रतियोगी )। सम्बन्ध के दो दल होते है प्रतियोगी (विशेषण)
ओौर अनुयोगी ( विशेष्य ) । जब हम कहते ह कि भूतल धट से युक्त है ( घटवत्
भूतलम् ) तो स्पष्टतः 'घट' विशेषण ( प्रतियोगी ) है ओर भूतल विशेष्य
( अनुयोगी ) । "घटवत्" कहने पर घटाभाव की व्यावृत्ति ( ्लप्ञणा) )
भूतल से होती है अतः घटाभाव व्यावत्यं हुजा । अब व्यावतंक की खोज करं ।
व्यावत्यं का विरोधी ही ग्यावततंक होता है। तो, घटाभाव का व्यावतंक होगा--
घटाभाव का मभाव ( अर्थात् घट )। व्याव््यं ( घटाभाव ) के अभावसे युक्त
[1 सनाया 9
त
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॥ 9)
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८४६ सर्वदशेनसंम्रद-
होना या घट से युक्त होना भूतल में पारमाधिक श्प से सिद्ध है, अतः भूतल
विशेष्य है । दूसरी ओर, अभाव के भभावके रूपमेंहोना अर्थात् घटके रूप
नै होना दिललाई पडता है जो पारमार्थिक ( 1368! ) वस्तु का गण है ।
अतः चटहूपता प्रतियोगिता ( विरोषणत। ) है अर्थात् घट विशेषण है । इससे
सिद्ध होता है कि नेदं रजतम्" में पारमार्थिरु रजत ही प्रतिवेध का प्रतियोगी
( विशेषण ) हो सकता है, आभासिक रजत नहीं । |
इसलिए, नैयायिको के अनुषार, उस ( रजत ) की सत्ता दूसरे स्थान पर
माननी पडेमी । [ शंकर-मत वाले कहते है कि ] यह उक्ति प्रमाण-मागं मे नहीं
आती योक जैसे अविद्यमान संसगं का निषेध ( जैसे-रूप ओर रस के संसगं
का निवेध, “रूपं न रससंयुक्तम्" मे कल्पित संसगं का निषेव ) किया जाता है वैसे
ही कल्पित रजत को भी निषेव का प्रतियोगी ( विशेषण ) बनाया जा सक्ता
है। [ एेसी बात नहीं क्रि केवल सत् वस्तु का ही निषेध होक्ता है । असत् वस्तु
की भौ यदि कल्पना की गई हो तो उसका निषेध क्यों नहीं हो सकता ? |
( १६. शद् रजतम्, मे ज्ञान की एकता--शंका ओर समाधान )
नन्विदं रजतमिति ज्ञानमेकमनेकं वा १ न ताबदाद्यः।
अपसिद्वान्तापत्तेरसम्भवाच्च । तथा दहि--शक्तीदमशन्दरियसंप्र-
योगादिदमाकारान्तःपरिणामरूपमेकं ज्ञानं जायते । न चतत्र
कलधौतं विषयभावमाकस्पयितुयुतसहते । असंग्रयुक्तत्वात्तस्य
सरवज्गत्वापत्ते
विषयत्वाङ्गीकारे ¦ ।
अव दकाहो रही दहै कि रजत का यह ज्ञान एक है या अनेक ? एकात्मक
तो नहीं ही है क्योकि इसमे अपसिद्धान्त ( सिद्धान्त का भंग ) होता है [ अद्वैत
वेदान्ती अज्ञान का द्वैत स्वीकार करते है- देखिए आगे ]। इसके अतिरिक्त
रेसा करना सम्भव भी नहीं । कारण यहदहै किसोपीकेरूपमें जो इदमश र
यह इन्द्रियों के साथ संबद्ध है भतः "इदम्" के आकार में अन्तःकरण का परिणाम
उत्पन्न होता है जो एक ही ज्ञान है। [ इसी परिणामको वृत्तिया ज्ञान भी
कहते है । ] इस ज्ञान का विषय रजत नहीं बन सकता वयोकिं रजतत्व का
संनिकषं इन्द्रिय से नहीं हआ है । फिर यदि [ संनिहित न होने पर भी रजत को |
ज्ञान का विषय मान लेंगे तो ज्ञाता ( प्रत्यक्ष करने वाले ) को सवंज्ञ मानना
पडेगा । [ सामने न रहने पर भी किसी वस्तु को जान लेना ही तो सवं्ञता है!
न च चक्षुरन्वयव्यतिरेकादुषिधायितया तज्ज्ञानस्य तज्ञ
शांकर-दशेनम् ८४
न्यत्वं वाच्यम् । इदमंशज्ञानोत्पत्तो तदुपक्षयोपपत्तेः । न चापि
संस्काराद्रजतज्ञानस्य जन्म । स्मृतित्वापत्तः । अथेन्दरियदोषस्य
तत्करणत्वम् । तदप्ययुक्तम् । स्वातन्त्रयेण तस्य ज्ञानहेतुत्वानु-
पपत्तेः । न हि ग्रहणस्मरणाभ्यामन्यः प्रकारः समस्ति । तस्मा-
दिदमंश्चरजततादात्म्यविषयकमेकं विज्ञानं न घटते । नाप्यनेकम्
अख्यातिमतापत्तेरिति चेत्-- ।
आप एेसा भी नहीं कह सक्ते कि चक्षु के साथ, उस ( रजत के ) ज्ञान को,
अन्वय ओर व्यतिरेक के हारा अनुविधान (अपेक्षा) दिखाकर, च्चुसेही
उत्पन्न मान लें । [ च्यु के साथ संनिकषं होने पर रजतज्ञान होता है अन्वय ।
संनिकषं नहीं होने पर रजतज्ञान भी नहीं होता--व्यतिरेक । अतः चक्षुसे
से ही रजत ज्ञान हुआ है, पर पूपक्षी कहते है किणेसी बात नहीं | क्योकि
'इदम्' अंश के ज्ञान की उत्पत्ति में चक्षु की अनुपयोगिता कौ सिद्धि हो जायगी ।
[ चक्षु का उपयोग वास्तवमें इदमंश के ज्ञानमेंदहै क्योकि उसी के साथ चश्च
का संनिकषं हो रहा है। रजतकेज्ञान के साथ संबंध माननेसे तो इदमंशका
त्याग करना पडेगा । इसका दूसरा पाठ है-तदपेक्षायाः उपपत्तेः अर्थात् इदमंश
के ज्ञानमेही चक्षु को आवश्यकता सिद्ध होती, रजतके ज्ञान में नहीं|
फेसा भी नहीं कह सकते कि संस्कार ( 11111)1688101 ) से रजत-ज्ञान कौ
उत्पत्ति होती है क्योकि वेसी दशाम उसे स्मृतिके रूप में मानना पड़ेगा । अब
यदि करै क्रि इन्दरिय-दोष की सहायता से एेसा होता है तो यह भी उचित नहीं
क्योकि यह ( इन्द्रियदोष ) स्वतंत्रतासे ज्ञान का कारण नहीं बन सकता।
[ किसी व्यक्तिमें जो दोष है वहु उस व्यक्ति के साथ रहकर ही दूसरे को दूषित
कर सकता है, बिना व्यक्ति के नहीं) वैसे ही इन्दियोंका दोष भी इन्दरियोंके
दवारा ही किसी कायं का कारण हो सकेगा--स्वतंत्ररूपसे नहीं । |
ग्रहण ८( इन्द्रियजन्य ) ओर स्मरणा ( संस्कारजन्य ) के अतिरिक्त ज्ञान का
कोई प्रकार ( जैसे दोषजन्य आदि ) होना संभव ही नहीं । इसलिए किसी भी
तरह इदमंश ओर रजत के तादात्म्य के विषय में एकात्मकं ( जण्ण )
ज्ञान होना संभव ही नहीं है । अनेकात्मक ज्ञान भी नहीं हो सकता वयोकरि वह
अख्यातिवाद ( दे° ऊपर } के दोषों कोले अवेगा।
उच्यते--प्रथमं दोषकटषितेन चश्षुषेदंतामात्रविषयान्तः-
करणब्र्तिरुत्पद्यते । अनन्तरं तया वृच्या चेतन्यावरणाभिभवे
तेत सबेदशेनसंग्रहे-
सति तच्चैतन्यमभिव्यज्यते । प्चादिदमं्चेतन्यनिष्ठा अविद्या
रागादिदोषकषिता करुधौताकारेण परिणमते । इदमाकारान्तः-
करणपरिणामावच्छिन्नचैतन्यनिष्ठा करुधोतगोचरपरिणामसस्का-
रसचिवा करधोतज्ञानाभासाकारेण परिणमते ।
इसका उन्तर दिया जाता है । पहले दोष से दूषित नेत्रके द्वारा केवल
'इदंभाव' के विषयमे ही अन्तःकरण की वृत्ति उत्पन्न होती है [ क्योकि -उस
समथ दोषवश सामने कीचोजको सीपीकेरूपमें समज्ञ नहींपति |। उसके
बाद वह वृत्ति चैतन्य के आवरणा ( इदंभाव से युक्त चैतन्य के भरकाशन को
रोकनेवाला आवरण ) को हटा देती है तथा वह चैतन्य अभिव्यक्त हो जाता
है। [इदमकेरूपमे चैतन्य की अभिव्यक्ति होती है। दृक्ति-अंशके रूपमे
चैतन्य व्यक्त नहीं होता क्योकि दोषवश उस चैतन्य के आवरण का निस्सार
नहीं हृभा हे । जिस चैतन्य का आवरण नष्ट होता है उसी चैतन्य की अभिव्यक्ति
होती है । स्मरणीय है कि "इदम्" अंश से युक्त चैतन्य का सीपील्पमे प्रतीत न
होना तथा इसीलिए सीपी के आकार की वृत्ति ( ज्ञान ) पर अवभासित
( {€€९४९५ ) न होना ही अविद्या दहै]
इसके बाद इदमंद के चैतन्य मे अवस्थित अविद्या जो रागादि दोषो के
कारण दूषित हो गई है, वह रजत के आकार में परिणत हो जाती है। इदम्”
के आकार मे स्थित अन्तःकरण ( बुद्धि) के परिणाम से अवच्छिन्न ( बेधे हृए )
चैतन्य में रहने वाली [ अविद्या ] रजतविषयकं परिणाम ( वृत्ति ) के संस्कार
के साथ मिलकर रजतज्ञान के आमास (वृत्ति) के रूप मेँ परिणत होती है।[ दो
प्रकार की अविद्या है-( १) "इदम्" अंश से युक्त चैतन्य मे रहनेवाली अविद्या
रजत के उद्रोधित संस्कार की सहायता से रजत कै आकार मे परिणत होती है ।
( २ ) वृत्ति से अवच्छिन्न चेतन्य मे रहनेवाली अविद्या रजत का ग्रहण करनेवाली
वृत्ति के संस्कार के साथ रहकर वृत्तिषूप में परिणत होती है। अब इन दोनों
परिणामों कौ अगली विधियो पर प्रकाश डालते है। स्मरणीयहैकिये दोनों
परिणाम ही क्रमशः अर्थाष्यास ओौर ज्ञानाध्यास कहलाति है।।
तौ च रजतध्ृत्तिपरिणामौ स्वाधिष्ठानेन साक्षिचेतन्येना-
व्यवधानेन भास्येते। तथा च सदृत्तिकाया अविद्यायाः साकषि-
मास्यत्वाभ्युपगमे वृत्यन्तरवे्यत्वाभावान्नानवस्था ।
यचप्यन्तःकरणव््तिरविद्यावृत्तिश्चेति दे इमे ज्ञाने, तथापि
-शांकर-दशेनम ८४६
बिषयाधीनं फलम् । ज्ञातो घट इति विषयावच्छितन्नतया
फलप्रतीतेः। तद्विषयश्च सत्यमिथ्याभूतयोरिदमंश्रजतांशयोरन्यो-
न्यात्मकतया एकत्वमापन्नः । तस्माद्विषयावच्छिन्नफलस्याप्येक-
त्वाञ्ज्ञानेक्यपचयेते ।
ये दोनों-रजतपरिणामं ओर वृत्तिपरिणाम--अपने-अपने अधिष्ठान
( आधार ) स्वरूप साक्षिचेतन्य ( प्रमाणके चेतन्य ) के हारा, बिना किंसी
तरह की रकावट के प्रतीत होति है। इस प्रकार वृत्ति से युक्त अविद्या को साक्षी
( द्रष्टा, प्रमाता) के द्वारा प्रतीत होने वाली सिद्ध कर देने पर यहस्पष्टही
जाताहैकि यह दूसरी वृत्तिके द्वाराज्ञेय नहींहै, अतः अनवस्था-दोष नहीं
लगता । [ अनवस्था की संमावना इसलिए थी क्रि जैसे विषयके आकार से
युक्त अंतःकरण की वृत्ति से विषय की प्रतीति होतीदहै वेसे ही उक्त वृत्तिका
अवभास ( प्रतीति ) भी तो उसी वृत्तिका आकारवाली अन्तःकरण की दूसरी
वृत्ति से ही होगा-इस तरह हम बढते चले जायं गे । किन्तु अविद्या अकेले नही,
वृत्ति के साथसाक्षीके द्वारा प्रतीत होती है। इसलिए दूसरी वृत्ति से ज्ञेय होने
का प्रशन उठता ही नहीं। |
यद्यपि अन्तःकरण की वृत्ति ( 'इदम्'के अकरारमें) तथा अविद्याकौ
वृत्ति ( रजत के आकारमें ) के रूपमेंयेदोज्ञान है फिर भी फल तो विषय कै
अधीन ही रहता है ? जब हम कहते ह कि वट का ज्ञान हो गया" तो विषय
( घट ) से सभ्बद्ध होकर ही फल की प्रतीतिहो रहीदहै। [यदि व्ृत्ति कोही
ज्ञान कहते है तो दो वृत्तियों से ज्ञानो का दवविष्य प्रकट होता ही है। किन्तु इदं
रजतम्" में "एक ज्ञान" का व्यवहार, फल की एकता के कारण ओौपचारिक रूप
सेहोतादहै। ज्ञान वृत्तिके ख्पमेंरहै। उसका फलदटहै विषय का अवभास
( प्रतीति ) । यह फल विषय के अनुसार दही प्राप्त होता है-जेसा विषय होगा
वेसी ही प्रतीति होगी । तो यहाँ पर विषय व्या है? उसका विषय वास्तविक
( €] ) इदमंल तथा मिथ्या रजतांश, इन दोनो अंशो के अन्योन्यात्मक होने
के कारण एकाकार ( 3)00प)8 ) हो गया है । यदि विषय एक है तो विषय
से ही व्याप्त फलभीषएकही होगा; अतः ज्ञान.( फल ) की एकता का उपचार
( व्यवहार ) होता है। [ ज्ञान एक है-यह सिद्ध हा । |
तड्क्तम्
४३. शुक्तीदमंशचेतन्यस्थिताविद्या बिजुम्भते ।
रागादिदोषसंस्कारसचिवा रजतात्मना ॥
४ स ० सं°
८५० सवेदशेनसं्रदे-
७४, इदमाकारवृत्यक्तचेतन्यस्था तथाविधा ।
| विवतेते
(^ विवर्तते तद्रजतज्ञानाभासात्मनाप्यसो ॥
४८, सत्यमिथ्यात्मनोरेक्यादेकस्तद्विषयो मतः ।
र च, चयते
तदायत्तफरेकत्वाज्ज्ञानेस्यमुपचयते ॥ इति । ५
| पञश्चपादिकायामपि “फरेक्याज्जानेक्यमुपचयते!--इत्य-
| भिग्रायेण “सा चैकमेव ज्ञानमेकफरं जनयति,, इत्युक्तम् ।
॑ उसे कहा गया है--'सीषी मेँ स्थित इदम्" अंश के चैतन्य मे रहनेवाली
| अविद्या राग आदि दोषों के संस्कार के साथ-साथ रजत के रूप में परिणत होती
ह ॥। ४३ ॥ उसी प्रकार इदम्" के आकार की वृत्ति से अवच्छिन्न ( अक्त =
अज्ञ +क्त) चैतन्य में रहने वाली अविद्या भी उस रजत-ज्ञान की प्रतीति
च
| ( आभास, वृत्ति ) के रूप मं विवतित होती है ॥ ४४॥ सत्य ओर मिथ्या के
| रूपमे दोनों के एकारमक रहने से उसका विषय मी एक ही माना गया है ।
| उस ( विषय ) के अधीन रहनेवाला फल भो एक है, अतः ज्ञान की एकता कही
जाती है । ४५॥'
पंचपादिका ( शारीरक-माष्य के चतुःसूत्री-माग की पद्यपादाचायं-विरचित
ञ्याख्या ) में भी फल की एकता के कारण ज्ञान की एकता भी मानी जाती
ह' इस अभिप्राय से कहा गया है कि वह अविद्या एक फल वाले एक दी ज्ञान
को उत्पन्न करती है ।
( १७. चरिविध सत्ता तथा अनिवेचनीयख्याति )
नलु दक्तिकामस्तके भाव्यमानस्य करधोतस्य तत्रैव सत्य-
त्वाभ्युपगमे नेदं रजतमिति निषेधः; कथं प्रभवेदिति चेन ।
प्रातिमासिकसत्यतरेऽपि व्यावहारिकसत्यत्वाभवेन प्रतिपन्नोपाधौ
| प्रतियोगित्वसंभवात् । तदुक्तं पश्चपादिकाविव्रणे ( ए° ३१ )-
त्रिविधं स्वम् । परमा्भसं बरह्मणः । अथेक्रियासामथ्यं सचं
| मायोपाधिकमाका्चादेः । अविद्योपाधिकं सतं रजतादेरिति ।
अब प्रश्न हो सकता है किसीषी के सिर पर (स्थानें) विभावित
{ -# [९767५९५ ) रजत कोतो हम केवल उसी स्थान पर ही स्त्य
मानेंगे ( = जहाँ आरोप होगा, चांदी केवल वहीं पर वास्तविकं होगी, अन्यत्र
।
| :
2 ~ ` ।
|
॥
शांकर-दशेनम् ८५१
तो नहीं ) फिर यह रजत नहीं है" इसमें निषेव का क्या उत्तर होगा ? ( कौन-
चांदी सच्ची है-मारोपित या निषिद्ध?)
देसी बात नहीं है । प्राति मासिक दृष्टि से सत्यता (^.]08"60४ 1€8]) धप)
होने पर भी उसमें व्यावहारिक सत्यता (2866108] [२९४ ) का अमाव
है इसीलिए सोपाधिक स्थानों मँ प्रतियोगी होने की संभावना रहती है । [सीप
कै स्थान पर ही नेदं रजतम्" में निषेध की प्रतीति होती है यद्यपि रजत वहाँ
पर रजत-निषेध का प्रतियोगी नहीं है । वहां पर वास्तवमें चाँदी रहे तब तो
रजत प्रतियोगी होगा-- रजत की अवस्थिति तो अविद्याके परिणामके कारण
कुछ देरके लि? है। निषेध उसे कहते है जिसमे यह प्रतीति हो कि यह् कभी
एेसा नहीं होता-काल का प्रभाव भी निषेध पर नहीं १डता । हँ, जब रजत
को व्यावहारिक रृष्टिसे ( उपाधि के साथ--व्यावहारिकं रजत के रूपमे)
देखंगे तो उस विशेष सत्ता ( व्यावहारिक सत्ता ) के विचार से रजत निषेव का
प्रतियोगी हो सकता है अर्थात् रजत का निषेध संभव है किन्तु व्यवहार-दशा में
ही । प्रातिभासिक-दशा में वह संभव नहीं । ]
इसे पंचपादिका के विवरण [ रच०-श्रीप्रकाशातमयति ) में कहा गया है--
“सत्ता तीन प्रकार की है। ब्रह्म कौ पारमार्थिक सत्ता ( 187080671061118]
26811 ) रहती है । माया की उपाधि से युक्त आकाशादि पदार्थो की सत्ता
सार्थक क्रियाओंके संपादन (व्यवहार) में हीहै। [इसे ही भ्यावहारिक
सत्ता कहते ह । ] अविद्या की उपाधि से युक्त ( प्रातिभासिक ) सत्ता [ सीपी में
प्रतीत | रजत आदिकीदहै।
अन्यत्राप्युक्तम्-
४६. कालत्रये ज्ञातरकले प्रतीतिसमये तथा ।
वाधामावात्पदाथानां सचछत्रेविध्यमिष्यते ॥
४७. ताचिकं बरह्मणः सखं व्योमादेव्यावहार्किम् ।
रुप्यादेरथेजातस्य प्रातिभासिकमिष्यते ॥ इति ।
इसरी जगह भौ कहा गया है-- तीनों कालों ( भूत, वत॑मान ओर भविष्य )
मे, व्यवहार-दशा में तथा प्रतीतिके समय भौ पदार्थोके ज्ञान का प्रतिरोध
( 1 €]<्०0० ) न हो इसलिए उनको तीन प्रकार की सत्तां मानी जाती
है ॥ ४६॥ ` ब्रह्म की सत्ता तासविक ( पारमाधथिक ) है, आकाशादि की
व्यावहारिक तथा रजत आदि पदार्थो की प्रातिभासिक सत्ता मानी जाती
दै ॥ ४७ ॥' |
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८५२ | सबेदशेनसंग्रहे-
४८, लौकिकेन प्रमाणेन यद्वाध्यं लौकिकेऽवधो ।
तत्प्रातिभासिकं सं बाध्यं सत्येव मातरि ॥
५९. वैदिकेन प्रमाणेन यद्वाध्यं वैदिकेऽवधो । `
तदृव्यावहारिकं सं बाध्यं मात्रा सदैव तत् ॥ इति च ।
लौकिक अवधि ( व्यवहार-दक्ञा ) मँ जो वस्तु लौकिक प्रमाणो ( प्रत्यक्ष,
अनुमान, उपमान, अर्थापत्ति ओर अनुपलन्वि ) से बाधित ( ९०४९१ }) हो
जाय उते प्रातिभासिक स्व ( पदाथ, सत्ता ) कहते है--इस सच के बाधित
हनि पर भी ज्ञाता ( अनुभव करने वाला ) रहता ही है ॥ ४८ ॥ वेदिक
अवधि ( परमाथ-दशा ) मे जो वस्तु वेदिक प्रमाण ( आगम) से बाधित हो
जाय, उसे ( आकाज्ञ, पथु, पक्षी आदि को ) व्यवहारिक सरव कहते है इस
सव के बाधित होने के समयज्ञाताका भौ साथ-साथ ही बाघ (‰€]€५10प)
हो जाता है।॥ ४९॥' | जाकालादि पदार्थो कौ सत्ता व्यावहारिक है कंधोकि
व्यवहार-दश्षामें तो इनका बाध नहीं होता किन्तु 'तच्वमसि" आदि श्रुतियों से जब
आत्मा की एकता का साक्षात्कार करते है उस समय उसका बाधि हो जाता
है--उस दशा मे तो दैत ( 12०81] ) का तनिक मी आभास नहीं मिलता ।
यहाँ तक कि ज्ञाता का ज्ञातृत्व भौ उत समय प्रतीत नहीं होता, उसका भो
बाध हो जात। है। बाधनप्रतीति का अभाव,न कि निवेष्य के रूपमे प्रतीति 1|
ततः ख्यातिबाधान्यथानुपपत्या भ्रान्तिगोचरस्य माया-
क [र © ४
मयस्य रजतादेः सदसद्विलक्षणत्यलक्षणमनिवं चनीयत्व सिद्धम् ।
¢
तदबोचचित्युखाचायः--
५०, प्रत्येकं सदसच्वाम्यां विचारपद्वीं न यत् ।
गाहते तदनिवाच्यमाहूर्वदान्तवादिनः ॥
( चिस्सुखी, प ७९ ) इति ।
इसलिए ख्याति ( प्रतीति ) के बाघ की सिद्धि किसी भो दूसरे उपायसेनं
हो सकने के कारण, भ्रान्ति का विषय जो यह मायामय ( 11) प्ण् )
रजत आदि है इसे सत् तथा भसत् से विलक्षणा ( भिन्न ) रूप में अनिर्वचनीय ही
सिद्ध किया जा सकता है । [ सौपी में प्रतीत रजत इसलिए सत् नहीं है कि नेदं
रजतम्” ( निषेध ) की सिद्धि नहीं होगी । व्यावहारिक दशा में तो उसका बाध
सम्भव हैन ? असत् भी नहीं है क्योकि वैसा होने से इस प्रतीति ( प्रातिभासिक
ही सही ) काक्या उत्तर होगा? इसे ख्याति का विषय ओौर बाध का विषय
शांकर-दशनम् ८४३
दोनों तभी मान सकते है जब अनिव॑चनीय ( 10१९९676 ) माने--
अनिवंचनीय सत् ओर असत् से विलक्षण होता है। इसीलिए इसे मायाका
परिणाम या मायामय माना है।
इसे चित्धुखाचायं ने कहा है--सत् या असत् , इनमें प्रत्येकके द्वारा
{[यासमूहके द्वाराभी] जोविचारके योग्यन दहो सके उसे वेदान्ती लोग
अनिर्वचनीय कहते है ॥ ५० ॥' ( चि० प° ७९ ) ।
( १८. माया ओर अविद्या कौ समानता )
नज्॒मायाविद्योः स्वाश्रयाव्यामोहेतुत्व-तदभावाभ्यां
भेदस्य जागसूकत्वेनाविचामयत्ये वक्तव्ये मायामयतवोक्तिरारो-
[कद् वंचनीयत्व
प्यस्यायुक्तेति चेत्- तदयुक्तम् । अनिवेचनीयत्वतचखामासप्र-
तिबन्धकत्वादिलक्षणजातस्य मायाविद्ययोः समानत्वात् ।
पर्न है कि माया ओर अविद्यामें भेद जागृत दहै क्योकि उनमें मायातो
तो अपने आश्रय ( कर्ता, दरष्टा) को व्यामोह (श्रम) में नहीं डालती, [ कर्ता
को इच्छा का अनुसरण करती है, उल्लंघन नहीं । ] दूरी भोर अविद्या उससे
भिन्न है। [ सीपो-चाँदी में र्चादी का उपादान-कारण अविदाही है क्योकि
वादी देखने वाले की ्रान्तिके कारण व्यामोहतो हैही। द्रष्टाकीइच्छासे
वह नहीं चलती वयोकि द्रष्टाकी इच्छा रहै या नहीं-अविद्यासे चांदी की
श्रतीति हो ही जायगी । ] इसलिए आरोप्य वस्तु (र्वादी) को अप अविया-
मय कटे, मायामय कट्ना असंगत है ।
[ इसका उत्तर है करि ] यह प्रह्न ही असंगत दहै। माया भौर बवदा
दोनों समानल्प से अनिर्वचनीय रहै तथा तस्व की प्रतीतिं के प्रतिबन्धक
आदि हैँ।
किं चा्रयश्चब्देन द्रष्टोच्यते कती वा ? नाचः । मन््ोषधा-
दिनिमित्तमायादरिनस्तस्य व्यामोहदशेनात्। न हितीयः ।
[क त, च (न
विष्णोः स्वाभितमाययेव रामावतारे सोहितस्वेन तत्र मायावित्व-
स्याप्रयोजकत्वात् । बाधनिश्वयमन्त्रादिग्रतीकारबोधयोरेव प्रयोज-
कत्वात् । अपरथा पडग्बन्धवत्कतापि व्यायुद्येत ।
[ वेदान्ती आगे पृते है कि आपने जो ऊपर मायाको अपने आश्य के
व्यामोह का अहेतु माना है, उसमें | आश्रय शब्द से क्या अथं लेते है-
८५४ -
[ माया के परिणामरूप वृक्ष, पशु आदिको] जो देखता है वह मायाश्रय है
याजो माया का निर्माण करतां है वह मायाश्रय है?
ष्ातो मायाका आश्रय नहीं हो सकता बर्योकि [ तांत्रिक लोगों के
दास प्रयुक्त ] मन्त्रों या ओौषधियों के योग से बनी माया ( घोड़ा, हाथी, रुपयों
करौ वर्षा आदि इन्द्रजाल ) को देखनेवाला व्यक्ति व्यामोह मेँ षड जाताही
ह। [ तब तो आपने जो पूरव॑पक्ष के आसनसे घोषणाकी दहै कि माया व्यामोह
उत्पन्न नहीं करती, उस उक्ति का क्या होगा ? |
कता भी मायाका आश्रय नहींहो सकता क्योकि विष्णु भगवान् ( जो
मायाके कर्ता) अपने ही बाश्नयमें रहनेवाली माया केद्वारा मोहित हए
ये ( व्यामोह मे पडे ये ) इसलिए | अपने ऊपर आधित व्यामोह के अभाव
मेही कोई] मायावी (माया का रचयिता ) होगा, एसी बात नहीं है
( =मायाका निर्माता होने पर भी व्यामोह मे कोई पड़ सक्ता दै),
[ तात्पयं यह है करि माया के कर्ता ओौर दरष्टा दोनों को व्यामोह होता है इसलिए
जिस प्रकार अविद्या व्यामोह उत्पन्न करती है, माया भौ व्यामोह उत्पन्न
करती ही दै) दोनो मे इस हृष्टि से कोई भेद नहीं। तो, व्यामोह के निवारण
क प्रयोजक अर्थात् कारण कौन-से है ? |
[ व्यामोह के अमाव के ] प्रयोजक दो है] मायाया अविद्याका द्रष्टा
थां प्रयोक्ता जो भीहो | वह वबाघकरा निश्चय कर सके तथा मंत्र आदि का
प्रतीकार ( &€१९३8॥ ) जनता हो। यदि एेसा नहीं हृं तोअंघेया
लँगडे की तरह माया के निमाता को भी व्यामोह हो जायगा) | अंधाया
लँगड़ा अपने अंगसे रहित होने के कारण अपना कामन हीं कर सकता-
अंथा देख नहीं सकता, लेंगड़ा चल नहीं सकता । वैसे ही मायाकार भी बाध-
निश्चय करने मे असमथं होने से तथा मंवर-प्रतीकार से अनभिज्ञ होने से अपना
कायं व्यामोह-निवारण-- नहीं कर सकता । जैसे द्रष्टा मोहित होता है वेसे
ही कर्ता भी मोहित हो जायगा । हौ, उन दोनों मे इतना अंतर अवश्य हैकि
ष्ठा को (माया काप्रपच देखकर मोहित होने वाले को ) व्यामोह-नाश का
अवसर कभी-कभी मिलता है, कता को प्रायः मिला करता ३1 रामावतार में
व्यामोह का कारण था, प्रतिकारका ज्ञान न होना-- किसी प्रकार सिद्ध कर
दं । माया-श्रयोक्ता या इन्द्रजाल दिानेवाला ( 1180४ ) प्रतीकार भी
जानता है अतः मोहित नहीं टोता । ब्रह्य भी माया का रचयिता है--प्रतोक्रार-
ज्ञान होने से स्वयं प्रभावित नहीं होता । फल यह हृभा कि माया ओर अविद्या
होनों मे व्यामोह होता है ! प्रतिकार जाननेवाले न तो अविद्या से मोहित होते
=.
शांकर-दशेनम् ८५५
हैन मायास्े।, अतः व्यामोह के दटि-कोण से माया ओर अविद्यामे
मेद नीं दे, साम्य ही हे । |
न चेच्छानुविधानानलुविधानाभ्यां तयोर्भद इति भणित-
व्यम् । मायास्थले मणिमन्त्रौपधादिग्रयोगवदविद्यास्थरेऽपि
्िचन्धकेशोण्डकादिविभ्रमनिमिताङ्कुल्यवष्टम्भादावपि स्वातन्त्यो-
पलम्भात् । अत एव तत्र तत्र रतिस्पृतिमाष्यादिषु मायावि्
योरमेदेन व्यवहारः संगच्छते । क्रचिद्िकषेषप्राधान्येनावरणप्राधा-
नयेन च मायाविदययोर्भदे तद्वयवहारो न विरुभ्यते। तदुक्तम्
५५१. माय विध्िपद्ञानमीशेच्छावश्चवतिं बा ।
अविद्याच्छादयत्तच्वं स्वातन्त्यानुविधायि वा ॥ इति ।
आप ( पूव॑पक्षी ) एसा भी नहीं कह सकते कि माया ओर अविद्या में भेद
इसलिए है कि माया कर्ता की इच्छा का अनुसरण करती है ओौर अविद्या उसका
अनुसरण नहीं करती । जिस प्रकार माता के स्थानों मे मणि ( 11९९10
]+ 7१6) समस ), मंत्र, ओषध आदि का प्रयोग [ स्वतंत्र रूप मे] होता है,
तरसे ही अविद्या (10181166) के स्थानोंमेंभमीदोवंद्रमाके ज्मया केश के
अरम या मकड़जाल होने के भ्रमके कारण रूपमे, अगली से आंखो को स्तन्ध
करना आदि हम पाति ह जिसे कर्ता अपनी इच्छा पूवक करता है। । अंगुली
यदि आंखों के नीचे के भागमें घरसादी जाय तो हमें एक ही जगह दो चीजें
दिलाई देने लर्गेगी--यहां देखते है कि कर्ता अपनी इच्छासे हीतो अविद्या
उन्न कर रहा है । “फिर यह कंसे कहते ह कि माया हो इच्छासे उत्पन्नकी
जाती है; अविद्या नहीं ? |
इसीलिए श्रुति, स्मृति तथा आष्यग्न्थो मे जहा -तहां माया जौर अविद्या
को अभिन्न ( एकरूप ) मानते हुए व्यवहार किया गया है।* कहीं-कहीं, मायामे
~
+ माया ओर अविद्या के भेदको पूर्वपक्षी इसलिए ले रहा हैकि माया
से वह एेन्दरिजालिको का इन्द्रजाल (1 8210) समज्ञता है ओर अविद्या से सीपी-
चाँदी आदि का श्रम । शंकर दोनों को एकरूप ही मानतेर्है।
# श्चुति मे जैसे--भूयदचान्ते विश्वमायानिवृत्तिः ( सम्पक् ज्ञान से माया
अर्थात् अविद्या की निवृत्ति ) । स्पत म, जेसे--
तरत्यावद्यां विततां हदि यरिमन्निवेरिति ।
योगी मायामनेयाय तस्मे विद्यात्मने नमः ॥
आष्य में - अविद्या माया अविद्यात्मिका मायाश्चक्तिः, इत्यादि ।
८५६ सबेदशेनसंत्रह-
विक्षेप की प्रधानता के कारण या अविद्यामें आवरणकी प्रमूखता देखकर, माया
ओर अविद्यामें जोमेद करते है उससे इस व्यवहार का विरोध नहीं होता ।
{बात यह् है कि अज्ञान की दो शक्तियाँ है- आवरण ( दक देना (००९९४ ।.-
7060 ) तथा विक्षेप ( रप-परिवतंन 1151070 }) । सीपीर्वादी के
टष्ठान्त मेँ आवरण-शक्ति सीपी के स्वरूप को देक देती है, विक्षेपशक्ति उसे चांदी
के रूपमे विकृत कर देती टै यह तो साधारण अज्ञान की बात है । अनादि
अज्ञान कै द्वारा ब्रह्म के स्वरूप का, सत् होने ५२ भी, आवरणा कर दिया जता
है ओर जगत् का प्रदक्लंन, असत् ( परमाथंतः, नहीं तो मिथ्या) होने पर भी,
किया जाता है। अविद्या = आवरण-प्रधान । माया = विक्ञेप-प्रधान । यह् केवल
लोक-प्रसिद्धिकीबात है। वास्तव मे दोनों एक ह।|
इसे कहा गया है-- "विक्षेप -शक्ति से युक्त अज्ञान जो ईश्वरकी इच्छा के
अधीन है वह भमायादहै। जो अज्ञान तच्वको ढँक दे ( अआवरण-शक्ति से युक्त
हो ) अथवा स्वतन्त्रता की अपेक्षा करे वह अविद्या है।'
( १८ क. अविद्या की सत्ता के लिए प्रमाण )
नन्वविद्यासद्धावे कि प्रमाणम् १? अहमज्ञो मामन्यं चन
जानामीति, प्रत्यकषप्रतिभास एव । ननु ज्ञानाभावविषयोऽयं नाभि-
परेतमथं गमयतीति चेत्-न तावदनुपरुच्धिवादिनश्रोदयमेतत् ।
परोक्षप्रतिभासहेतुरवात्तस्याः । अयमपि परोक्षप्रतिभास एवेति
¢
चेत्-न तावद्िङ्गशब्दानुपपद्यमानाथजन्यः । ज्ञातकरणत्वा-
तेषाम् । न चेतत्सामग्रीकाले ज्ञातमस्ति । अनुभूयते वा ।
अव कोई पृछ पकताहिकि इस अविद्या की सत्ता सिद्ध करनेके लिए
प्रमाण व्याह? हम उत्तर दंगे कि इसमेतो प्रतीति ही प्रमाण है-- मे अज्ञ
ह, अषनेकोया दूसरे को नहीं जानता'। [ इस वाक्य मे आत्मा पर आश्रित
उस अविद्या-रक्ति की अनुभूति होती दहै जो बाहरी-भीतरी षदार्थोमे व्याप्त है
ओर जडात्मक है। यह अज्ञान ज्ञानाभाव के खूपमें नहींहै। भावात्मक
८ 2०४१९ ) कार्यो का उपादानकारण होने से यह भावात्मक है। |
कोई शंका कर सकतादटहैकि यहतो ज्ञानाभाव का विषय दहै, आपके
( वेदान्तियों के ) अभीष्ट अथंकी सिद्धि नहीं कर स्केगा। [ आशययहदैकि
इस अविद्या या अन्नान से भाप संसार कौ सिद्धि नहीं कर सकते। संसारतो
प्रकृति, परमाणु भादिसे बनाहै] परन्तु ठेसी बात नहीं है, अनुपलब्धि
शांकर-दशेनम् ८५७
(पिभ -68)8६6९९) को प्रमाणा मानने वाले ( भाद्र मौमासक ओर वेदान्ती ).
लोग रेखा नहीं करेगे कयोक्रि अनुपलब्धि तो परोक्ष करी प्रतीति करनेवाली होती
है, [ प्रत्यक्ष की नहीं। “भूतल में घट नहीं है'--इस तरह घटाभाव का ज्ञान
अनुपलब्वि-्रमाण से होता है । यह परोक्ष ज्ञान है, प्रत्यक्ष नहीं । जो लोग
अनुपलब्धि नहीं मानते, वे अनुमानादि के द्वारा अभाव कौ प्रतीति करते है,
प्रत्यक्ष के द्वारा नहीं। किसीभी दश्ामें अभाव की प्रतीति प्रत्यक्ष से नहीं
होती । चकि भँ अज्ञ है" यह प्रत्यक्ष अनुभव है अतः इसे अभाव के शब्दों में
( 10 धल 0 7011-6815061166 ) व्यक्तं नहा किया जा सक्ता । |
अब यदि आपकर क्रि यह मी परोक्ष अनुमवही क्योंन मनि जय?
तो हम करटैगे कि लिग ( अनुमान का कारण ), शब्द (आगम काकारण ) या
अन्यथानुपपत्ति ( अर्थापत्ति का कारण ) से इक्त अनुभव को उत्पत्ति नहीं होती ।
कारणा यह है कि इन सबोंमे [अर्थ] ज्ञातहोने परी दूषरोंका बोध होता
है। [ यह आशय है--यदि आप लोग “अहमज्ञः इस ज्ञान को परोक्ष मानते
हतो यह अनुमान आदि क्रिसी प्रमाण से उत्पन्न होगा । इस अनुभव की सिद्धि
न तो अनुमानसेहोती दहै, न शब्द से ओर न अर्थापत्ति से--अनुपलन्धि का
अधिकार भी पीछे समाप्त हो जायगा । इनमें क्रमशः लिग, शब्द तथा अनुपपन्न
होने वाला अथं स्वयं ज्ञात होने पर ही द्रे अथं का बोधक हो सकता है।
चुम ( लिग) यदि रहे भीकरन्तु ज्ञातनहो तोअग्तिका अनुमान नहींकरा
सकता । शब्द भी जब तकज्ञातन हौ तव तक उससे शाब्दबोध नहीं होता
बहरे को शाब्दबोध नहीं होता । अर्थापत्ति मे भी, दिनमेंन खाने वाले देवदत्त
की स्थूलता ज्ञात रहने पर ही उसके रात्रिभोजन का ज्ञान कराती है । अहमज्ञः"
तो यह सब कृच नहीं है । ] इसके अनुभव के समय वेसा ( लिगादि ) कछ ज्ञात
नहीं है ओौर न वतंमानकालमें ही उसका अनुभव हो रहा है । [अतः इन प्रमाणां
के अधीन तो अहमज्ञः" नहीं ही है । भब अनुपलब्धि की खबर लेते ह । ]
अनुपरृढ्ध्या जन्यत इति चेत्-न तावदियमज्ञाता कार-
णम् । ्रतयक्षेतरस्य ज्ञातकरणत्वनियमात् । नापि ज्ञातेव
कारणम् । अनुपलन्ध्यनवस्थानात् । न च यथा परेषामभाव-
गरणे योग्यायुपरब्धिः सहकारिणी तथा नः करणमिति
शङ्कयम् । ज्ञानकरण इव सहकारिण ज्ञातत्वनियमाभावत् ।
अस्तु वा तथा ज्ञेयाभावग्रहणि करणम् । ज्ञानाभावग्रहणे करणं
न भवत्येवेति वक्ष्यते ।
८४८ सवेदशेनसं्रदे-
यह कहा जा सकता है कि [ अहमज्ञः" में विद्यमान ज्ञानाभाव |] अनुष-
लब्धि से उत्पन्न होगा [ जसे भूतले घटो नास्ति" में घटाभाव का ज्ञान होता
है]। तो हम उत्तरदगे कि यह ( अनुपलब्धि) भी बिना ज्ञात हुए प्रमाण
( करण ) नहीं बन सकती । [ जब तक घट की अनुपलब्धि ज्ञातन हो तब तक
घटाभाव जान लेना सम्भव नहीं है। स्मरणीय है करि अनुपलन्धि को जानने के
लिए ही यह प्रमाण स्वीकार किया गया है। |
यह नियम है कि प्रव्यक्ष से भिन्न क्रिसीभी प्रमाण का कारण (साधन) ज्ञात
ही रहना चाहिए । दूसरी ओर यह भी जान लं किं केवल ज्ञात होनेसे हौ यह
[24 के रूपमे नहींआ सकती क्योकि तब अनुपलब्धि की अनवस्था हो
जायगी । [ यदि घटानुपलब्धि ज्ञात होने पर ही घटाभाव का कारण बनती
है तो कहिए किं धटानुपलव्धि का ज्ञान ही कंसे हुमा ? घट की उपलब्धिका
अभाव ही घटादुपलन्धि है। उस घटोपलब्धि के अभाव का ज्ञान भी अनुपलब्धि
से ही होगा अर्थात् “उपलब्धि की अनुपलब्धि" से उपलब्धि का अभाव ज्ञात
होता दहै। इस क्रम से बदृते जाने में कहीं भन्त नहीं । | |
आप देसी शंका नहीं कर सकते कि जैसे दूसरे ( नेयायिकादि) लोग
[ अनुपलब्धि प्रमाण नहीं मानकर ] अभाव का प्रत्यक्ष मानते है तथा योग्य
( ९० शला४ ) अनुपलन्धि को सहकारी मानते है उसी प्रकार हम भी
अनुपलब्धि को ज्ञान का कारण ( प्रमाण ) साने । [ नैयायिक लोग अनुपलब्धि
मानते है, पर पृथक् प्रमाण रूपमे नहीं; केवल प्रत्यक्ष के सहायक के रूपमे,
घटाभाव प्रव्यक्ष-प्रमारा से ज्ञात होता है। योग्यानुपलब्वि सहायता करती है ।
योग्य अनुपलब्धि = यदि घट होता तो अवश्य दिखलाई पडता । तो, इनके मत
से अनुपलब्धि ज्ञात रहै या अज्ञात-- सहायक ही होती है. इस तरह अनवस्था
से बच जातेटहै। वेसेये भी कहते किं हम अनुष्लन्वि को प्रमाण ( पृथक् }
मानते हुए भी अनवस्था से बचालं। | एेसा इसलिए नहीं होगा कि सहकारी
होने पर ज्ञात होने का नियम नहींहै, परन्तु पृथक् ज्ञान-साधन ( प्रमाण,
80७९ ० »8114 ]7०५1९१९€) होने पर तो उसे [ज्ञात रहना ही पड़ेगा ।]
यदि वैसा हो भी (अनुपलब्धि छठा प्रमाण रहै--अज्ञात या ज्ञात किसी
भी दशामे प्रमाणहो) तोभीवहज्ञेयके अभावका बोध करानेके लिए
प्रमाण है, ज्ञान के अमाव का बोध कराने के लिए वह् प्रमाणा नहीं है इसे हम
अगे करेगे । [ इस स्थान तक यह सिद्धकियाजा रहाथा किं अनुपलब्धि से
भी अहमज्ञः" का बोध नहीं होता । फलतः (अहमन्ञः' प्रत्यक्ष अनुभव का
विषय दहै । |
: ८५६
( १८ ख. "अहमज्ञ का भरस्यक् अलुभव ओर नेयायिक-खण्डन )
्रत्यक्षाभाववादे त॒ प्रत्यक्षेण तावद्धमप्रतियोणिन्ञानयोः
सतोरात्मनि ज्ञानमात्राभावग्रहणं न त्रयात् । घटवति भूते
घटाभावस्येव ज्ञानमात्राभावस्य ग्रहीतुमश्षक्यत्वात्। तयोरसतोस्तु
सुतराम् । कारणाभावात् । अतोऽपि योग्यादुपरन्ध्या वा फल-
रिङ्गायमावेन वात्मनि ज्ञानमात्राभावग्रहणं दुलभमिति परमतेऽ
प्ययं न्यायः समानः । तदेवमात्मनि प्रत्यक्षेण वान्येन वा
ज्ञानमात्राभावस्य ्रहणमश्चक्यमिति स्थितम् ।
[ नैयायिक आदि अनुपलब्धि को पृथक् प्रमाण नहीं मानते । उनके अनुसार
अभाव प्रत्यक्ष है। परन्तु अहमज्ञः" इस प्रत्यक्ष को वै हमारी तरह ही
( देकखिये-- १८ क० का आरम्भ ) नहीं मानते, प्रत्युत ज्ञानाभाव के खू्पमें
मानते है । उनकी परीक्षा करं--|
त्र्यक्ष को अभाव मानने वाले सिद्धान्त मे [ दो पक्ष है--महमन्ः मे क्या
जान-सामान्य का अभाव प्रत्यक्षीकृत हो रहादैया ज्ञान-विशेष का अभाव ?
पहला विकल्प लेते है करि] प्रत्यक्षके दारा तो धर्मी (=ज्ञानामाव का
धर्मी आत्मा ) ओर प्रतियोगी ( = ज्ञानाभाव का प्रतियोग ज्ञान ) का ज्ञान यदि
सत् के रूप मे सिद्धै, तो अत्मामें ज्ञान-सामान्य काजभाव गृहीत होता है,
ठेसा न कहँ । कारण यह है क्रि जसे घटयुक्त भूतल मं घटाभाव का प्रण करते
( = "भूतले घटो नास्ति" वाक्य मे), उस तरह [ आत्मा में | ज्ञान-सामान्य
के अभाव का ग्रहण करना असंभव है। [ शरतले घटो नास्ति" मे घटाभाव का
प्रत्यक्ष होता है। यहाँ भूतल धटामाव का घर्मी है क्योकि घटाभाव-घमं उषी
काहै। घटाभावका प्रतियोगी घट है क्योकि इसी का अभाव है। प्रत्यक्ष
के द्वारा दोनों की सत्ता जानते है। तब घटाभाव का प्रत्यक्ष होता है। अव
इसी उदाहरण का विनियोग ( ^ ए9]० 00 ) प्रस्तुत अहमज्ञः १२ करे ।
द्सरे शब्दों मे “मयि ज्ञानं नास्ति" कह । तो, ज्ञानाभाव का प्रत्यक्ष हो रहा
है जिसका धर्मी है "महम्" ( मात्मा ) ओौर प्रतियोगी हे ज्ञान" । स्मरणीय है
कि यहाँज्ञानसे ज्ञानसामान्यका अ्थंले रहे दहै । यदि धर्मी ओरं प्रतियोगी
दोनों का ज्ञान विद्यमान हो ( दोनों का प्रत्यक्षहो चुकाहो--जात्माका ओर
ज्ञान का) तो भो यह ग्रहण करना असंभव हैकि आत्मामं ज्ञानसामान्य का
अभाव ह । ज्ञान क प्रत्यक्ष हो जाने पर उसके अभाव का प्रत्यक्ष कंसे ? |
= 9 नका ॥ * - > ~
छ ----+-------------------~न~-----------~---- छ क र ~ - +
- = = --- ------ न न
क ए 1 का 0 - ् ~
म क ~ => । न र ॥, गि
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ककण =-= -
न क साया 1 ध यु न
~ ऋण मः -- -- र = - + कर
कनि स= ष्
2
यिनि म
८६० सवेदशेनसंमहे-
दूसरी ओर, यदिये दोनों (धर्मो का ज्ञान ओर प्रतियोगी का ज्ञान )
विद्यमान नहीं रहै तब तो [ अहमज्ञः" में ज्ञानाभाव का प्रत्यक्ष मानना |
ओर भी असंभव है क्योकि कारणका ही अभाव हौ जायगा। [ अभाव के
ज्ञान के लिए धर्मी (आधार) ओर प्रतियोगी का ज्ञान कारणल्पहै। किन्तु
आप पूर्वंपक्षी लोग इहं मान नहीं रहै है) अतः कारण के अभाव में कायं
उत्पन्न होगा ही नहीं । } इसलिए भी योग्य अनुपलब्धि के कारणया फलके
रूपमे लिग आदि का अभावहोने से आत्मामे ज्ञान-पामान्य के अभावका
ग्रहण करना असंभव है । इसलिए दूसरों ( अनुपलन्वि को प्रमाणा मानने वाले
मादर मीमांसकों ) के मतसे भी हमारा नियम मिलता-जुलता है। [ ऊपर दिखा
चुके है कि धर्मी ओर प्रतियोगीका ज्ञान रहे या नहींरहे-- दोनों ही अवस्थाओंमें
ज्ञानसामान्य का अभाव ग्रहण करना असंभव है । इसलिए भी न तो अनुपलन्धि
से ज्ञानसामान्य के अभावका ग्रहण होता दहै ओौरन ही अनुमान से । अनुमान
की संभावना थो-- ज्ञान का सवत्र व्यवहार फलकेरूप मेंहोता है, यही लिग
है । बह लिग यहां नहीं मिलता, इसलिए अदर्शन" हेतु के द्वारा ज्ञानाभाव का
अनुमान संभवथा । |
तो, इस प्रकार यह सिद्ध हो गया करि प्रत्यक्ष से या किसी दूसरे प्रमाणसे
आत्ममें ज्ञानमात्र का अभाव ग्रहण करना असंभव है) अब 'अहमनजः' में
ज्ञानविशेष का अभाव वाला विकल्प लेते हैँ । ]
|
| नु ज्ञानविशेषाभावः प्रत्यक्षेण ग्रद्यताम् । न तवत्स्म-
। रणामाः । अभवग्रहणे प्रतियोगिस्मरणस्य कारणत्वात् ।
जनी [कन
नाप्यनुभवाभावः । तस्यावजनीयत्वात् । नन्वात्मनि षटानुभ-
वाभावः प्रत्यश्चविषयस्तहिं अहमज्ञः" इति ज्ञानसामान्यव चनो
तनी
जानातिज्ञोनविशेषेऽलुमवे रक्षणया वतेनीयः । रक्षणा च
+ वतते
सम्बन्धेऽलुपपत्तो च सत्यां वतते ।
[ पूर्वंपक्षी कहते है कि यदि "अहमज्ञः" में प्रत्यक्ष के द्वारा जानसामान्य का
अभाव सिद्ध नहीं हृजा तो | प्रत्यक्षसे ज्ञान विशेष का अभाव लीजिये । [अच्छा
तो ज्ञनविशेष अथं क्यादहै? स्मरण नया अनुभव? | उक्त प्रत्यक्ष की
स्मरण का अभाव ( अहमज्ञः स्मरण-ल्पी ज्ञान के अभावसे युक्त हु; इस
ल्पमें) तो नहीं मान सकते क्योक्रि अभावकेज्ञानमे [ प्रतियोगी का ज्ञान |
कारण होतादहै ओौर यहाँ प्रतियोगी है स्मरण । [ इसलिए स्मरणा का ज्ञान
॥॥ होना चाहिए । ज्ञान स्मरणात्मक ही है तो उसमे स्मरणाभाव केसे संभव है ? ]
न-सवया - -----=-~--- न ~ न-- --
त
शांकर-दशेनम् ८६१
उक्त प्रत्यक्ष अनुभव का अभाव भी नहीं क्योकि [ ज्ञानांभावसे संबद्ध
ज्ञान अनुभव के रूपमे है अतः ] अनुभव तो अनिवायंही है ( उसका अमाव
केसे मानेंगे?)
अव पुनः शंका होतीहै कि मात्मामें घटके अनुभवका अभाव यदि
प्रत्यक्ष का विषय ( {7९५०९ [४७०।९ ) है तो ` अहमज्ञः" ज्ञानसामान्य के वाचक
ज्ञा-धातु ( जानना ) को लक्षा *(101९8.0) शक्ति के द्वारा ज्ञान ( आत्म-
स्वरूप }-विशेष से संबद्ध अनुमव के अथं में समन्षना चाहिए । लक्षणा वृत्ति का
तब ग्रहण करते है जब सम्बन्ध की उपपत्ति (¡0511068 10) नहीं हो रही हो ।
संबन्धस्तावदनुभवत्व्ञानत्वयोरेकव्यक्तिसमावेश्ञो व्याप्य-
व्यापकभावो वा विद्यत एव । अनुपपत्ति तु न पश्यामः । नन्व-
लुभवाभावे प्रत्यक्षस्य प्रमेयलाभस्तेनैव तस्याथवत्ता सिध्यति ।
सत्यम् । प्रयोजनमेतन्नाुपपत्तिः । अन्योन्याश्रयात् ।
यहाँ पर सम्बन्ध यहीदटै किं अनुभव होना भौर ज्ञान होना, दोनों कां
समावेकश्च एक ही [ घट-प्रव्यक्ष रूपी ] व्यक्ति मे होता है तथा दोनों के बीच
व्याप्य ( अनुभव होना ) ओर व्यापक ( ज्ञान होना ) का सम्बन्वभीहेही।
इसमे असिद्धि की आशंका हम नहीं देखते । [अथं यह है कि "गंगा में घोष" कहने
से गंगा-शब्द का शवयार्थं (वाच्याथं) जो गंगा है उसका सम्बन्ध लक्ष्यां ( तट )
के साथ आश्रयके माध्यमसेटहै। गंगाओरतीरमें संयोग विद्यमान है। यह्
विवरण तभी होगा जब पदार्थं को जाति मानं। यदि व्यक्ति मानगे तो मुख्यार्थं
भौर लक्ष्याथं में ( = प्रवाह भौर तट में ) सीधे ही संयोग-सम्बन्व मानना पडेगा ।
उसी प्रकार यहाँ ज्ञा-धातु के वाच्याथं ( ज्ञान ) ओर लक्ष्यां ( विशेष अनुभव )
मे सामानापिक्ररणय-सम्बन्ध है । घट-प्रत्यक्ष की एक ही व्यक्ति ( 100एातप्रा
णण) ) मेवे दोनों है । व्याप्य-व्यापक का सम्बन्ध तो है ही । किन्तु जिस तरह
गंगा-शब्द के शक्यार्थ ( प्रवाह ) में घोष की स्थिति असम्भव है वेसी बात यहाँ
नहीं है-- ज्ञान भौर अनुभव दोनों सहयोगी दहै । ]
अब शंका होती दहै कि अनुभव ( लक्ष्यार्थं) के अभाव में [ प्रव्यक्षके द्वारा
कुद भी बोधित न हो सकने के कारण | प्रत्यक्ष की सफलता के लिए प्रमेयका
प्रदर्शन अवद्य करं वयोकि इसी ( प्रमेय ) से उस प्रत्यक्ष की साथंकता सिद्ध
होती है। [ प्रमेय अनुभवविशेष के अभावके रूपमे कहा जा सकता है यदि
लक्षणा स्वीकार कर लं । अतः लक्षणा तोआपको माननी ही प्डेगी।] `
वेदान्ती उत्तर देते हैँ किं तुम सच कहते हो । पर यह प्रयोजन लक्षणा को
८६२ सवेदशनसंग्रहे-
अनुपपन्न होने से नहीं बचा सकता क्योकि अन्योन्याश्रय-दोष हो जायगा । प्रत्यक्ष
की सफलता से लक्षणा की भौर लक्षणा से प्रत्यक्ष की सफलता की सिद्धि होती
है। भव लक्षणाके मूलमें जो असिद्धिटै उसे दूसरे रूपमे प्रकट करते है ।
वहमज्ञ इत्यत्र नञ् आत्मनि ज्ञानमात्राभावं न ब्रते ।
ज्ञानवति तस्मिन् तदभावात् । नाप्यनुभवाभावम् । ज्ञानोक्ते-
स्तदनभिधायकत्वात् । नेरथंक्यं च न युक्तमित्यनयंवायुपपच्या
लक्षणेति चेत्--उक्तक्षणणेवाविद्या तदर्थोऽस्तु ।
संदेह इति चेन्न । असमत्वात्कोटिद्रयस्य । अन्यत्र हि
प्रतियोगिनिवृत्तिनेनथेः । अत्र तु प्रतियोगिव्याप्यनिडृत्तिरिति ।
भब फिर शाकाटोती है कि "अहमज्ञः" इस अनुभव में नन् ( ९८९01),
अभाव ) आत्मामे ज्ञान-सामान्य का अभाव प्रकट नहीं करता क्योकि आमा
जञानयुक्त है, उसमे [ ज्ञानमात्रका अभाव] नहीं हो सकता । न वहु नन्
ज्ञान-विशेष अर्थात् अनुमवके अभावकोही प्रकट करता है क्योकि जब शान"
( ../ ज्ञा ) कहते है तो ज्ञ।न-विशेष का अथं प्रकट होता ही नहीं । [ कसो गाँव
मे कोई व्याकरणाचायंन दहो तो इसका अथं यह नहींकि वह गाव अविद्रानु
है, जब करि उस गाव मे बडे.बडे पंडित हों। उसी प्रकार, यदि ज्ञान-विशेष न
हो तो ज्ञान ही नही, ठेसा नहीं करगे । | उक्त वाक्य को निरथक भी नहो कहा
जा सकता [ क्योकि उन्मत्त व्यक्ति का वाक्य है नहीं । | इसीलिए अनुपपत्ति होने
के कारण ( अहमज्ञः" यह् ज्ञान किस प्रकारकाहै, यह निणंयन हो सकने के
कारण ) लक्षणावृत्ति से इसकी सिद्धि माने ।
हमारा उक्तरहैकि आपनन् का अर्थं उपयुक्त लक्षण से युक्त अविद्या
ही क्यों नहीं मान लेते ? [ लक्षणा को स्वीकार करने के लिए आपचारों ओर
से जो अनुपपत्ति का स्तूप खडा करर ओर कहते है करि इखसज्ञान का
निरूपणा करना उसंमव है--इसी अनिर्वंचनीयता को तो अविद्या कहते है ।
इसे ही हम अभाव का अथंक्योन मान लं ? अनुपपत्ति दिखानेके बाद लक्षणा
मानने का कष्ट क्यों कर रहै? |]
[ नैयायिकादि फिर रोका करते दहैकिं मान लिया, अनुपपत्ति ही भविद्या
है जो अनिर्वचनीय है, भावशूप है आदि । पर नज. का अथं भी वहीहै, यह
कैसे संमवदहै? अभावभौ तोन. का अर्थंहो सकतादहै? इस प्रकार |
संदेह बना ही रहता है । हमारा उत्तर है कि संदेह इसलिए नहीं होगा क्योकि
दोनों कोटिया ( पक्ष ) बराबर नहीं ह । [ न्याय-दर्थनमें हम देव चुके कि
शांकर-दशंनम् ` ८६३
संदेह दोनों पक्षों के समानहोने पर ही होता है कोई प्रबल ओर कोई
दरबल हो गया तो संदेह मिट जायगा । अब दिखायेगे क्रि दोनों कोटियाँ केसे
असमान दहै। |]
दूसरे स्थानों पर नन प्रतियोगी कौ निवृत्तिके अथंमें होतादहै | जेसे
“अधटं भूतलम्" मे अघट के नन् से प्रतियोगी (घट) कौ निवृत्ति समञ्ली जातौ द ॥|
किन्तु यहां पर ( अहमज्ञः" में) इसका अथं है, प्रतियोगी (ज्ञान )के द्वारा
व्याप्य ( अनुभव ) की निवृत्ति ( ५ ९8४01 )। [ इस तरह आप लोगों
को लक्षणा का आश्वय लेना पडता है तो अभावकापक्षतोदु्बंलहो ही गया ।
नम् का अथं यदि अविद्या--अनिर्वंचनीयता--मानेगे तो यह कोटि प्रबलही
रहेगी । ऊपर हम लक्षणा-पक्ष ओर अविद्या-पक्ष की समता दिखा चुके है । अभी
ओौर भो करटगे । ]
जानातिसमभिव्याहतस्य नञः कचिदुक्तलक्षणाविदयाविषय-
त्वसिद्विमन्तरेण न संदेह इत्यवरयंभावेन सेव जानातिसमभिव्या-
हृतस्य नजः सवत्र तद्विषयत्वमवगमयति। विम्पति ज्ञानाभाव-
कोव्यन्तरमिति क संदेहावकाशः ? तदेवं लक्षणाहेत्वमावेऽखुभवा-
भावोऽप्यात्मनि न प्रत्यक्षेण गद्यत इति परिशेषादुक्तलक्षणा
अविद्यैव “अज्ञः इति प्रतिभासस्य विषय इति स्थितम् ।
जब तक ./ ज्ञा ( जानना) घातु के साथ उच्चरित नन् को कहींपरभी
उक्त ( अनिवंचनीय ) लक्षण ( 0181} ) वाली अविद्या का विषय सिद्ध नहीं
कर देते, तब तक संदेह की स्थापना नही कर सकते । [ जो लोग उक्त संदेह को
प्रस्तुत करते है उन्हं अविद्या माननी पडती है तथा नञ. को अविद्या के भथंमें
लेना पडता है ॥ यह तथ्य है । ] च्रंकि यह मानना बहुत आवश्यक है--इसलिए
वही अविद्या ज्ञा-धातु के साथ उच्चरित नन् को अविद्या-विषयक ही बोधित
करती है । [ अविद्या का अथं शीघ्र ही बुद्धग्राह्यहो जातादहै। | ज्ञानामाव के
रूप में उक्त प्रत्यक्ष को माननेवाली कोटि लुप्त हो जातीदहै। तो, अब्र संदेहका
अवकाश्च ही कहांपरहै?
तो, इस प्रकार लक्षणा मानने का कारण ( अनुपपत्ति को संभावना) न
रहने से, अनुभव का अभाव [ जिसे आप लक्षणासे सिद्धकरनेजारहेषे |,
वह् भी प्रत्यक्ष-रूपमे आत्मामें गृहीत नहींहो रहा है। अब शेष बची है
अविद्या, जिसका लक्षणा ऊपर [ अनिवंचनीयके रूपमे ] दिया गयादहै। वहं
अविद्या ही अज्ञः" इस शब्द में प्रतीति का विषय दहै। यह सिद्ध हु ।
८६४ स्वदशेनसप्रदे-
( १९. दूसरी विधि से “अहमज्ञः” के द्वारा अविद्या की सिद्धि )
अस्तु वा ज्ञानाभावगप्रतिमासः । अयमभावश्च प्रतियोगी
यत्र निषिध्यते न ततः तखान्तरमन्यदधिकरणमावात् । मा
भूदन्यभावत्वमन्यामावत्व तु स्यात्। नलु तदपि विरुढरम् ।
सत्यं, सति भेदे । स च प्रमाणात् । तच्च सति प्रतियोग्यभा-
वाधिकरणतस्तचान्तरे । नलु घटवति भूतले षटाभावमितिव्य-
बहती स्यातामिति चेत्--मा भूतामेते प्रतियोगिना सहाचुभू-
यमानेऽधिकरणे ।
अच्छा, मान लिया कि [ अहमज्ञः" में | ज्ञानाभाव का ही प्रत्यक्ष हो
रहा है। लेकिन यह अभाव तो उस तच्च से भिन्न तस्व नहीं जिसमे
प्रतियोगी का निषेध किया जाता है अर्थात् बह तस्व आधार ( अधिकरण ) के
स्वप से भिन्न नहीं है । [ इस प्रकार अभाव को आधारतेमक् सिद्ध करनेका
प्रयास कियाजारहाटहै।]
[ नैयायिक लोग फिर शका करते है कि भुतल कौ अपेक्षा धटामाव ] एक
माव ( 709 ध्ेर€ 6णणिष्फठ ) के खूप मे भिन्न भले हीन रहे किन्तु अमावके
ह्पननेतो भिन्न अव्दयहीहै। [ इसप्रकार अमाव कौ सत्ता अधिकरण से
पृथक् रूपमे है, अतः "अहमज्ञः" मं नज. का अथं अभावदहीहै।] वे जगे
कहते है कि यह भीतो आपके ( वेदान्तियों के ) सिद्धान्त से विरुढ हो गया
[ क्योकि आप अहमज्ञः" मे भावरूप अज्ञान का प्रत्यक्ष मानते है ओर इधर
अधिकरण से अभाव को पृथक् सिद्ध कर दिया गया है । |
वेदान्ती उत्तर देते ह कि ठीक कहते हो किन्तु [ अधिकरण भौर अमाव म]
भेद सिद्ध हो जाय तब तो ? ओर भेद की सिद्धि होगी प्रमाण से ही (= अभाव-
विषयकं प्रत्यक्षादि से) वह प्रमाण भी तमी काम दे सक्रता है जब प्रतियोगी
(घट ) के अभावके आधार ( भूतल ) से उसे भिन्न त्व माने । [ परन्तु यह
होता नहीं । मेदसि के बाद प्रमाण मिन्नासिद्धि-विषयक होता है भौर वेसा
होने परदही प्रमाण भेदकौ सिद्धि करता है--इस प्रकार अन्योन्याश्रय-दोष से
तो वह ग्रस्त है । अतः अभाव भिन्न तच्वके रूपमे सिदध नहीं होता । |
जब पुनः शंका होगी क्रि घट से युक्त भूतल ते भी घटाभाव काज्ञान ओर
चटामाव का व्यवहार होने लगेगा । | यदि आप अमाव को भावात्मक मानते
हतोये दायें होगी ही। | हमारा उत्तर हिकि प्रतियोगी के साथ जिस
अधिकरण ( आधार ) का अनुभव हो रहा है उसमें तोये ज्ञान गओौर व्यवहार
शांकर-दशेनम् ` ८६५
नहीं हो सकते । [ जहाँ प्रतियोगी ( विरोधी ) साक्षात् रहे वहां ये भले ही नहीं
रहँ किन्तु जब प्रतियोगी का स्मरण होने पर अधिकरण का अनुभवहोरहा
हो तब तो इनका ग्रहण होगा ही ( = ज्ञान ओर व्यवहार दोनों होगा) इसे
ही आगे बतला रहे है-- |
प्रतियोगिस्मरणे सत्युभूयमानेऽधिकरणे तु स्याताम् ।
एवमयप्युपपत्तो न॒ तखान्तरविषयत्वं करप्यम् । काऽनुपपत्ति-
रिति चेद्ठाधकाभावस्तावदुक्त एव । बाधकं तु कर्पनागोरवमेव ।
तथा हि-तखान्तरत्वं तावदेकं करप्यम् । तस्यापरोक्षत्वाये-
न्द्रियसंनिकषंः कस्प्यः ।
किन्तु प्रतियोगी का स्मरणा करने पर जिस अधिकरण का अनुमव किया
जाता है उषमेतोवे दोनों ( ज्ञान + व्यवहार) हौ ही सकरतेटै। इसप्रकार
भी [अभावका ज्ञान होने पर जो नहीं है का व्यवहार होता है उसकी]
सिद्धि हो जाने पर अभाव को किसी दूसरे तच्वमें नहीं लेना चाहिए । अब
यदि पूर कि इसमें अनुपपत्ति क्या है [ जो आप एेसा कह रहे है ? ] भरे, हमने
तो पहले ही कह दियाहैकरि बाघकन होने के कारणही एमा हुभा है।
कल्पना का गौरव ( एक के बदले करई बातों को मानना) ही यहाँ पर बाधक
है। [ बाधकःसे बचने के लिए ही हम अविद्याके द्वारा उक्त प्रत्यक्ष की सिद्धि
करते है । यदिरेसान करं तो एक के बदले कई चौजों को मानना पड़ेगा । |
देखिये-- पहले तो एक भिन्न तच्व ( अभाव ) को कल्पना करनी पडेगी ।
उसके अपरोक्षत्व ( प्रत्यक्ष मानने ) के लिए इन्दरियसंनिकषं को कल्पना करनी
पड़ेगी ।
स च संयोगादिनं भवतीति संयुक्तेविशेषणत्वादिः कर्य
इत्यतो बरथ्क्तलशक्षणस्याधिकरणस्य व्यवहारविषयेऽङ्गीकारः
सति चैवं ज्ञानाभावेनापि प्रतियोगिस्छरतो सत्यामनुभुयमानम-
धिक्ररणं ज्ञतेव। सच न केवलमन्तःकरणम् । जडत्वात् ।
नापि केवल आत्मैव । अपरिणामित्वाद्शुणत्वाचच । अत उभयो-
रमेदाध्यासः । आत्माध्यासशोक्तरक्षणाविद्यत्मेति--आयातम-
िद्यायामेबाहमज्ञ इति प्रतिभासः प्रमाणमिति ।
‰ स संर
| ८६8 सबेदशैनसंग्रहे-
| उसके बाद, चक्रि वहु इन्द्रिय-संनिकषं संयोगादि के ल्पमे नहीं हो सकता
( =चष्ुके संयोग से घटाभाव को देखा नहीं जा सकत! ), इसलिए संयुक्त
वस्तु ( भूतल ) के साथ विशेषण-विशेष्य की भौ कल्पना करनी पड़गी । | धटा-
भाव से युक्त भूतल है- इसमे भूतल चक्षु से संयुक्त है ओौर घटाभाव विशेषण
केरूपमेंहै। भूतल मे घटाभाव है-- यहाँ चक्षुसे संयुक्त भूतल मे घटाभाव
| विजेष्य के रूप मे है । इसी तरह की कल्पनाये करनी पड़गी । |]
इस [ बार-बार की कल्पना ] से तो कहीं अच्छा है उपयुक्त लक्षण
| { प्रतियोगी का स्मरण होने पर जिसको अनुभूति होती है) से युक्त अधिकरण
को व्यवहारके रूपमे मानें। [ तो, अभाव का अनुभव = प्रतियोगी के स्मरण
। के साथ अधिकरण का अनुभव । अभाव = अधिकरण । ] एेसा होने पर
ज्ञानभावके द्वारा भी जब प्रतियोगी का स्मरण होता दहै तो जिस अधिकरण
| का अनुमव कियाजा रहा है वहज्ञाताहीहै। [ अहमज्ञः" मेंज्ञान के अभाव
| की अनुभूति जिस अधिकरणमेंहो रही है वह अधिकरण ही ज्ञाता ( अध्यस्त
| आत्मा ) है। | वह ज्ञाता न तो केवल अन्तःकरण ( मन ) है क्योंकि मन जड़
॥ होता [भौर ज्ञाता को चेतन होना आव्यक है । | वहं केवल आत्मा भी
नहीं ह व्रयोकि अत्मामें नतो परिणाम ( परिवतंन ) होता है ओर न उसमें
कोई गुणा ही रहते ह । |
| इसलिए [ उस ज्ञाता पर आत्मा ओौर अन्तःकरण ] दोनों के अभेद
( साहदय } का अध्यास ( उपलाणण्नप्ठा ) होता है। भव, भात्मा
॥ का अध्यास चकि उपयुक्त लक्षणों से युक्त अविद्या के रूपमे ही होता है, अतः
| अविद्या में ही अहमज्ञः" इस के लिए प्रत्यक्ष प्रमाणा पर पटंचते है ।
। ( २०. अनुमान से अविद्या की सिद्धि )
अनुमानं च-बिवादपदं प्रमाणज्ञानं स्वभ्रागभावव्यतिरि-
। क्सविषयावरणस्वनिवत्यस्वदेशगतवस्तन्तरपूव॑कमग्रकाचिताथे-
प्रकाशकत्वात् । अन्धकारे प्रथमोत्पन्नप्रदीपप्रभावदिति ।
वस्तुपू्वकमित्युक्त आमवस्तुपूवेकतेनाथोन्तरता । तदथं
वस््वन्तरेति । तथापि विषयभूते वस्त्वन्तरेऽथोन्तरता । तदथं
स्वदेश्चगतेति । अद्ष्टादिकं प्रत्यादेष्टुं स्वनिवर्त्येति ।
[ अविद्या की सिद्धि के लिए ] अनुमानं भी होता है-
( १ ) विवादास्पद ( प्रस्तुत ) प्रमाणज्ञान रसे वस्त्वन्तर ( दूसरी वस्तु
शांकर-दशेनम् ८६७
अर्थात् अविद्या) कै बाद होता है जो ( वर्स्वन्तर ) अपने प्रागभाव
से व्यतिरिक्त ( 12106161 ) हो, अपने विषय का आवरणरूप
हो, अपने ही द्वारा निवृत्तहो सक्रताहो तथा अपने हौस्थान
से संबद्ध ( स्वदेकश्षगत ) हो । ( प्रतिज्ञा )
( २) क्योकि वह॒ अप्रकाशित पदाथं का प्रकाशक है। ( हेतु )
(३) जसे अन्धकार में पहले.पहल उत्पन्न दीपक की प्रभा होती हे।
( उदाहरण }.
[ प्रतिज्ञा के वाक्यमें वस्त्वन्तरके चार विशेषण दिये गये ह। सबोंमें स्व
शब्द लगा है जिससे प्रमाराज्ञान का बोध होता है। वह वस्त्वन्तर वास्तव में
अविद्याही है। उसके बिना कोई भी वेसा नहीं बन सकता । इस अनुमान से
अविद्या की सिद्धि होती है क्योकि अयं घटः इस प्रमारज्ञानके स्थान में
प्रमाणज्ञान के पहले अविद्या रहती है । किन्तु, चूंकि वह भी प्रमाणाज्ञान की
अपेक्षा रखती है इसलिए वस्त्वन्तर कहलाती है । प्रमाणज्ञान के आश्रय
अर्थात् अत्मा मे रहने से स्थदेशागत कहलाती है। प्रमाणज्ञान से ही उसका
विनाज् होता है इसीलिए वह स्वनिवत्यं है । प्रमाणज्ञान का विषय अर्थात्
घटका आवरण करती है इसीलिए स्वविषयावरण है) अविद्या प्रमाण-
ज्ञान के प्रागभावसे भिन्न रूपमे स्वीकृत की जाती है इसलिए स्वप्रागभाव-
व्यतिरिक्त है) इन विरोषणों से विभूषित वस्त्वन्तर यदि अविद्या के अलावे
कोई दूसरी हो तो बतलावं ! इस साघ्यांशके किसी टुकडेको छोड़ देने पर
अविद्या की सिद्धि में बाधा पहुंचेगी । उसका निरूपण अब करते हैँ । ]
( १) यदि केवल धस्तु के पश्चातु ( वस्तुपूवंकम् ) इतना ही कहते तो
[ प्रमाणज्ञान का आश्रय स्वरूप ] आत्मा खूपी वस्तु केबाददहोने के कारण
[ वहु आत्मा अविद्या से | पृथक् पदां हो जायगी । इसीलिए वस्त्वन्तर
शब्द का प्रयोग किया गया है । ['वस्त्वन्तर' का प्रयोग करने से आला
प्रमाराज्ञान से पृथक् वस्तु सिद्ध नहीं होती वयोकि वस्त्वन्तर =अपनेसेया
स्वाश्रय से भिन्न । |
(२) अब यदि इसी प्रकार केवल वस्त्वन्तर को विषय ( साध्य) के
रूपमेँ रखे तो [ प्रमाराज्ञान के विषय जो घट आदि वस्तु हवे अविद्याकी
अपेक्षा | भिन्न पदाथं हो जार्थेगी । इसीलिए स्वदेशागत शब्द लगाया गया
है। [ अपने प्रमाराज्ञान का आधार आत्मा है, उसमें स्थित घटादि नहीं । |
(३) अष ( धमं ओौर अधमं) आदि (= सुखादि आत्मगत ) पदार्थौ
की व्यावृत्ति ( एएनृप्ञग) ) के लिए स्वनिवत्यं शब्द प्रयुक्त हुञा है ।
ककन > @ तिन
॥
|
५
\
|
#
क~
व १
- =-= =
~ ६८ सर्बदशनसंग्रहे € ~ ह =
[ स्वदेक्षगत कहने से | तो आत्मा के अन्दर के तारे पदार्थं -- घमं, अधमं, सुख,
दुःख, इच्छा आदि-- भी चले आयगे । इसीलिए स्वनिवत्यं लगाया गया हैक
अविद्या से केवल प्रमाणज्ञान के द्वारा निवत्यं वस्तु काही बोध हो । |
उत्तरज्ञाननिवत्यं प्रथमज्ञानं निवर्वयितं स्वविषयावरणेति ।
प्रागभावं प्रतिक्षपतु स्वप्रागमावव्यतिरिक्तेति । स्वभ्रागभावर `
तिरिक्तपू्वकमिः्युक्ते विषयेणाथौन्तरतः } तदर्थं विएयावरणेति \
ताद्शमन्धकारं व्यासेद्धु स्वनिवर््यैति । विषयगतामज्ञानतां
निराकर्वं स्वदेश्षगतेति । मिथ्याज्ञानमपोदितुं वस्त्वन्तरेति ।
धारावाहिकविज्ञाने व्यभिचारं व्यासेदधुम प्रकाक्ितेति ।
( ४ ) उत्तर क्षण के ज्ञान से पूवंक्षण के ज्ञान की निवृत्ति होती दै इस
[ प्रकार के स्वनिवत्यं ज्ञान ] को व्यावृत्ति के लिए स्वविषयावर्ण चः
लगाया हे [ जिसे अविद्या का लक्षणा भरकः होता है क्रि वह अपने विषय
चट का आवरण स्वयं करती है--उसमं ूर्वावर ज्ञान का प्रन नही है । |
( ५) [ उक्त प्रकार क प्रमाणज्ञान में प्रागभाव है ही- इषीलिए प्रागभाव
कोद्र करने के लिए स्व प्रागभावन्यतिरिक्त रन्द का प्रयोग हा है ।
[ इस प्रकार अमी तक्र अंतिम विशेषण से प्रथम विशेषण कौ ओर जाते
हए उन सब करी सार्थकता दिखा रहै थे । अब श्रवम् विशेषण् से आरम्भ करके
अंतिम विक्ञेषण की भओरभा रहे ह। इस प्रकार विशेषणो को सार्थकता पर
अली-माति विचार करके ही अनुमान करे द्राराअविद्याकी सिद्धिकीजा रही ह । |
( १) यदि केवल इतना कहते कि श्रमाणज्ञान अपने प्रागमाव से भिन्न
वस्त्वन्तर के बाद उत्पन्न होता है तो बह प्रमाणाज्ञान अपने विषय ( घट-पटादि }
से ही पथक् पदार्थं हो जाता । इस प्रसंग को रोक्रने के लिए विषयावरण शब्द
का प्रयोग किया गया है [ जिससे प्रमाणाज्ञान् ञौर विषयों का ठेक्य सिद्धहोता
है! विषय का आवरण है अर्थात् स्वयं विषयो के रूपमे है । |
(२) [ अब प्रशन ह कि अन्धकार भी तो विषय का आवरणा करता हे
तोक्याइसे ही प्रमाणक्ञान करेगे ? नही, } एेसे ही स्वविषयावरण करनेवाले
अन्धकार का निषेध करने कै लिए स्वनिवस्यै शब्द लगाया है । [अंघकार स्वनि-
व्यं नहीं है, प्रमाणज्ञान है । ] अंवकार कौ निवृत्ति प्रकाश से होती है, प्रमाण-
ज्ञान से नहीं । | |
( ३ ) विषय-निष्ट अज्ञातता.को दूर करने के लिए स्वदेशषगत | |
शांकर-दशेनम् ८६६
लग् है । [ घटादि विषयों में अज्ञातता है, उक्ता निराकरण भौ प्रमाणज्ञान से
ही होता है परन्तु वह अन्ञातता प्रमगणज्ञान मे अवस्थित तो नहीं है।]
( ४ ) मिथ्याज्ञान का निराकरण करने के लिए वस्त्वन्तर शब्द का प्रयोग
किया गयादहै। [सीपोमेजोचाँदीके रूपमे ज्ञान होता है वह् (सौपीके ज्ञान
रूपी ) प्रमाएाज्ञान के प्रागभाव से भिन्न होता है; इस प्रमारज्ञान ( शुक्तिल्व-
प्रकारक ) से अपने विषय ( सीपी } का आवरण मी निवृत्त हो जातादहै तथा
यह ज्ञान आत्मनिष्ठ ( सीपी के जान के आध्चष ज्म मरे स्थित) भीदहै फिर
भो वह प्रमाणन्ञान वस्त्वन्तर नहीं है कथोकि ज्ञान है--ओौर यहां ज्ञान को
वस्त्वन्तर मानते है।|
( ५) धारावाहिक विज्ञान (ज्ञान-षंतान 38168 0 701९१९८ )
चं उभिचार रोकने के लि९ अध्रकाशित का प्रयोग हज है। [ धारावाहिक्
विज्ञान मे ब्रथम ज्ञान अन्ञनपूवंक होता दहै। उस प्रथम ज्ञान से अज्ञान कौ
निवृत्ति होती है ओर विषय का प्रकाशन होता है। अब तो प्रकाशित वस्तुका
ही प्रकाशन आरम्म होने लगता है, अप्रकाशित का नहीं । केवलं इसी गुणा का
अभाव धारावाहिक विज्ञान मेँ है, अन्यथा ओर सब समान है।]
[ अब दृष्टान्त को सार्थकता परं प्रकाश डालते है।1]
न यैप्रतिरोधाय
मध्यवतिप्रदीपग्रमायां साध्यसाधनैधुयंप्रतिरोधाय प्रथमो-
त्यन्नविर्ेषणम् । सौरालोकव्याप्देशस्थप्रदीपप्रमाग्रतिक्षेपायान्ध-
करिति । न च ज्ञानसाधके प्रमाणे व्यभिचारः शङ्कनीयः ।
विप्रतिपन्नं प्रत्यसलनिढत्तिमात्रस्य प्रमाणढृत्यत्वात् । तदुक्तं
देवताधिकरणे करपतरुकारः --अनुमानादिभिरस्वनिव्तिः
क्रियत इति ।
मध्यवर्ती ( प्रथमक्षण जौर अन्तिमक्षण के बीच की) प्रदीपप्रमामें
साध्य.साधन का अभाव रोकने के लिए् श्रथम उत्पन्नः यह् विजेषण् लगाधा
गया है) [दीपकी प्रमा क्षण-क्षण मे बदलती रहती है । उपयुक्त अनुमान
न प्रथम उत्पन्न दीपप्रभा का दृष्टान्त दिया यया है अर्थात् अन्धकार से भरे
स्थान मेँ प्रथम क्षण की दीपप्रभा । यहाँ पर उपर्युक्त लक्षणों से युक्त वस्त्वन्तर
अन्धकार है, तो “अन्धकारके बाद होना' साध्य जा) अप्रकाशित का
प्रकाशन' हेत है। यहस्पष्टहैकि मध्यवर्ती प्रभा उक्त वस्त्वन्तर के बाद नहीं
होती क्योकि अन्वकार क निवृत्ति प्रथम क्षण कीप्रमासेही हो जाती है ।
मध्यवर्ती प्रभा अप्रकादित वस्तु का प्रकाशन भी नहीं करती क्योकि यह काम
८७9 सबेदशंनसंमदे-
भोतोप्रथमक्षण वाली प्रभादही करती है । इसलिए मध्यवर्ती प्रभा में साघ्य-
साधन का अभावटहै ओर वहु टृष्टन्तके रूपमे नहीं दी जा सकती। दृष्टान्त
की साथंकता के लिए श्रथम उत्पन्न" विशेषण लगाया गया है । ]
(| तरह सूयं के आलोकसे व्याप्त स्थानोंमें स्थित प्रदीप कीप्रभाकौ
व्यावृत्ति ( एलो प्रश० ) करने के लिए अन्धकार" शब्द का प्रयोग हुआ
है) [ दिनमेंसूयंका प्रकाश फैलाहो भौर यदि दीप की प्रमा प्रथम क्षण
मे उत्पनन हुई भी हो, फिर भी वह (प्रमानतो हेतुहीहो सकतीहै ओर
न साध्य ही। इसलिए वेसी दीप-प्रभा दृष्टान्त के रूपमे नहीं आ सकती ।
अन्धकार को हटाने वाली प्रभा ही ृष्टान्त हो सकती है । ]
उक्त प्रदीप-प्रभा का व्यभिचार ज्ञानसाघक प्रमाणम होगा, एसी शंका
न कर वयोकि प्रमाणा का काम केवल इतना ही है कि किसी वस्तु के अस्तित्व
के विषय में विवाद करने वाले व्यक्ति को उसके असत्ता-विषयक सन्देह को भिटा
द । [ व्यभिचार ( असहचार ) की संभावना इसलिए थी कि सभी प्रमाणतो
ज्ञान के साधक है । प्रत्यक्ष ज्ञान की साधक इन्द्रियों को प्रत्यक्ष प्रमाणा कहते है ।
अनुमिति का साधक लिग-परामन्चं अनुमान है। शाब्द ज्ञान का साधक शब्द भौ
प्माणदहै। सो,ये प्रमाणा हतु सेतो युक्त है क्कि अप्रकाशित अर्थंका
प्रकाशन करते है किन्तु साध्य यहां नहीं है क्योकि उक्त वस्त्वन्तरके बादये
नही होते । व्यभिचार की शंकाका निवारण करते दकि प्रमाण उक्त वस्तु के
प्रकाशक नहीं हैँ । प्रमाणो से उत्पन्न ज्ञान ही वस्तुभओोंका प्रकाशन कर
सकता है । ]
इसे देवताधिकरणा में कल्पतरु के रचयिता ( अमलानन्द ) ने कहा है-
अनुमानादि प्रमाणो के द्वारा असत्ता को निवृत्ति करते है ( अर्थात् प्रमाण वस्तु
की सत्ता को लेकर विवाद करनेवाले व्यक्ति में सन्देह मिटा देते है कि यह असत्
है । सत्ता की सिद्धिफिरज्ञान से होती है।)
नयु साधनविकरो दृष्टान्त इति चेन्न । प्रकालचब्देन तमो
विरोध्याकारस्य विवक्षितत्वात् । तदुक्तं विवरणविवरणे सह-
जसवज्ञविष्णुभरोपाध्यायेः- न चात्र पक्षदृष्टन्तयोरेकप्रकाज्ञ-
रूपानन्वयः शङ्कनीयः । तमोषिरोध्याकारो दहि प्रकाञ्चशब्द-
वाच्यः । तेनाकारेणेक्युभयत्रास्ति इति ।
नरेन्द्रगिरिभ्रीचरणेस्त्वित्थयुक्तम्- अग्रकाशितप्रकाशव्यव-
हारहेतुत्वं हेत्वथेः। तस्य चोभयत्रानगतत्वान्नासिद्भयादिसिति ॥
शांकर-दशनम् ८७१
अव यदि कोई कहे क्रि अ।पका दृष्टान्त ( प्रभा) साधन से रहितै
[ वयोर प्रभा स्वयं तो अथंका प्रकाशन नहीं करती । अथै-प्रकाशनज्ञानही
करता है । अथे-प्रकाशन = अ्थं'का स्फुरित होना । प्रभा केवल अन्धकार हटकर
इन्द्रियों की सहायता करती है। तो, अर्थ-प्रकाशक न होनेके कारण प्रभा साधन-
रहित है --वह दृष्टान्त नहीं बन सकती । यदि आप ज्ञानस्फुरणा के सहायकं
को भी प्रकाशकों कीषश्रेणीमेकेते है, तो इन्द्रियों का क्था अपराध दहै? उन्दँभी
प्रकाशक मानें । ] तो हम करटैगे किसी बात नहीं है क्योंकि श्रकाश' शब्द
काअर्थं [ हम अथंस्फूरण न लेकर | केवल अन्धकारक विरोधीकेरूपमेंलेते
ह। [ अन्तःकरण की वृत्ति आन्तरिक अन्धकार दूर करतीहै, प्रभा बाहरी
अन्धकार दूर करती है । विषय कास्पुरण तो दूसरे रूपमे होतादहैजो हम देख
हीचुके है
बुद्धितस्स्थचिदाभासो द्वावपि व्याप्चुतो घटम् ।
तचाज्ञानं धिया नश्येदाभासेन घटः स्फुरेत् ॥।
( पञ्चदशी ७1९१ )
इन्द्रियों की बात आपने उठाई है। वे अन्तःकरण को मार्गं दिखाकर
सहायता करती है, अन्धकार को दूर नहीं करतीं । इसलिए वे प्रकाशक नहीं है ।|
इसे विवरण का विवरण ( टीका ) करते हुए जन्मजात-सरवंज्ञ श्री विष्णु-
भट उपाघ्याय ने कहा है--'यहाँ ( उक्त अनुमान में ), पक्ष मौर दृष्टान्त दोनों
एक प्रकार-से प्रकाशक नहीं है अतः उन दोनों मे सम्बन्ध नहीं होगा, एेसी
शंका न करें । प्रकाश का अर्थं अन्धकार का नाशक ही यहां पर लिया गया
है। इस रूप मे दोनों ( पक्ष-्रमाणन्ञान, दृष्टान्तपरमा ) मे एकता तो है ही ।'
नरेन्द्रगिरि श्रीचरणने तोटेसे कहा है-- अप्रकाशित पदाथं को प्रकाशमें
लाने का व्यवहारदेतु काथं है जो प्रकाश ओर ज्ञान दोनों में अनुगत
( (2000007 } है 1 इसलिए असिद्धि आदि की कल्पना न करं ।
( २१. शाब्द्-प्रमाण से अविद्या कौ सिद्धि )
रुते । “भूय्रान्ते विश्वमायानिडृततिः' ( श्वे° १।१० )
इत्यादिका श्रुतिः ।
५२. तरत्यविद्यां विततां हृदि यस्मिनिवेशिते ।
योगी मायाममेयाय तस्मे विद्यात्मने नमः ॥ इति च ।
एतेनेतलरत्युक्तं यदुक्तं भास्करेण क्षपणकचरणं प्रमाणज्ञ-
` ८७२ सर्वंदशेनसंम्रहे-
रणे, भेदामिदबादिनां मावरूपमज्ञानं नास्ति कफ तु ज्ञाना-
भव! इति ।
[ अविद्या की सिद्धिके लिए] श्रुति-प्रमाणमीदहै। शनः अन्तमं संसार
रूपी माया (यासारी माया) की निवृत्ति हो जाती है" (श्वे १।१० )--
इस तरह की श्रुति है। यह भी [ स्मृति-वाक्य केङूपमें ] है-'हदय में जिष
{ ब्रह्य) के निविष्ट कर व्थि जाने पर योगी फेली हुई अविद्याया मायाको
पार कर जाते है वसे अमेय ( अज्ञेय ) ज्ञानस्वह्प ब्रह्म को नमस्कार है ।'
इन तर्कोसे ही भास्कराचायं कीउस उक्तिका खण्डन हो गया जिसे
उन्होने बौद्ध-संमत प्रमाणो का विवेचन करते हुए (?) स्पष्ट क्यार कि
मेदाभेदवादियों के यहाँ अज्ञान भःवल्प नहीं है, किन्तु ज्ञानाभाव दै ।
तथा च भास्कप्रणीतक्ञारीरकमीमांसामाष्यग्रन्थः । यदेव
¢ नै चिदे ३
पररूपादशेनं सेवाविद्येति । भावरूपाज्ञानानम्युपगमे जीवेश्रा-
दिविभागाजुपपत्तेः। न च भाविकः परमात्मर्नोऽशो जीव इति
वाच्यम् । निष्करं निष्क्रियं चान्तं निरवद्यं निरञ्जनम्" ( उवे
६।१९ ) इत्यादिश्चुतिषिरोधात् ।
भास्कराचायं के द्वारा रचित शारीरकमीमांसा ( ब्रह्मसूत्र )के भाष्यका
यही कथन है । पररूप का जो दिखलाई न पड़ना है, वही अविद्या है ।
पर अब हमारा ( अद्वैतवेदान्तियों का) यहु कहना है कि भावरूप अज्ञान
यदि स्वीकार नहीं करे तो जीव ओर ई्वरके विभाग की सिद्धि नहीं होगी ।
लेकिन आप सान समन्न लें करि सचमुच ( भाविक = 1९8], सत्य } जीव
परमात्मा का अंशहीरहै क्योकि वेसा मानने से इस धरृति-वाक्यकरा विरोध
होगा-{ वह् ब्रह्य ] कलाओं या अंशोंसे रहितदहै, क्रिया रहितै, शान्त
{ परिणामरहित ) है,* [ रागादि ] दोषों से शृन्य है तथा अंजन ( धमं-अधमं
आदि) सेभीभिन्न है) (धे० ६।१९)।
( २२. शाक्त-सम्प्रदाय मे माया-राक्ति )
केचन शक्ताः शक्ति मायाशब्दाथेभूतां जगत्कारणत्वेनाङ्गी-
कृतां सत्यामभ्युपेत्य मतुलिङ्कगदाखेटविधारिणी महालक्ष्मी
स्तस्याः प्रथमावतार इति वणेयन्ति । सा च कालरात्रिः सर-
* शान्त = बुभुक्षा, पिपासा, लोक, मोह, जरा, मृत्यु-इन छह ऊमियां से
रहित ।
~
(1 ४
शांकर-दशेनम् ८७३
स्वतीति दे शक्ती उत्पाद्य बरह्माणं पुरुषं भियं च चिययुत्पाद्-
दयामास । स्वयं मिथुनं जनयित्वा स्वसुते अप्याह-अहमिव
युवामपि मिथुनद्ुत्पादयतमिति ।
त्रिमंह ॥ क $ ॐ
ततः काररात्रिमहादेवं पुरुषं स्वरां स्ियं च जनयामास ।
सरस्वती च विष्णु पुरुषं गोरीं च च्ियञ्ुदपादयत् ।
कुं लोग अर्थात् शाक्त संप्रदाय वाले "माया" शब्द का अर्थं शक्ति (£ 6€-
18} ६104 105 8४९१1०३ [0९४ ) समञ्षते है जिसे जगत् के कारण के
रूप स्वीकृत किया गया है तथा जो सत्स्वषूपा है। उसे मान करके येलोग
मातुलतिग ( एक फल ), गदा ओौर चमं धारण करने वाली महालक्ष्मीका
उक्षके प्रथम अवतारके रूपमे वरण॑न करते ।
उस ( महालक्ष्मी ) ने कालरा ओर खरस्वती नामक दो शक्तियों को
उत्पन्न करके पुरुष के रूपमेँ ( 88 ०८ पष ) ब्रह्माको ओरसखरीके रूप
मेश्री (लक्ष्मी) को उत्पन्न किया। [ महालक्ष्मी ने | स्वयम् एक जोड
{ ब्रह्मा +श्री ) को उत्पन्न करके अपनी पृत्रियों से कहा -मेरेही समान तुम
दोनों भी जोड़ा उत्पन्न करती जाओ। तब कालरत्रिने एक पुरुष अर्थात्
महादेव को ओर एक स्री वर्थात् स्वरा को उत्पन्न किया । उधर सरस्वती ने
भी एक पुरुष - विष्णु को ओौर एक ्री- गोरी को उत्पन्न किया ।
ततश्वादि्विवाहमकरोदकारयच्च । एवं ब्रह्मणे स्वरा,
विष्णवे भियं, शिवाय गौरीं दा चक्तियुक्तानां तेषां ृष्टिस्थि-
तिसंहाराख्यानि कमीणि प्रत्यपादयदिति । तदेतन्मतं शरुत्यादि-
मूटम्रमाणविधुरतया स्पोतय्षामात्रपरिकर्पितमिति स्वरूपव्या-
क्रियैव निराक्रियेत्युपेक्षणीयम् । ततश्वानिवेचनी यानाद्विचा-
लसितः प्रत्यगात्मनि प्रतीयमानः प्रमत्त्वादिग्रपश्च इत्यलम-
तिप्रसङ्गेन ।
तब पहली ( महालक्ष्मी ) ने विवाह क्रिया भौर करायाभी। तदनुसार
ब्रह्मा को स्वर।, विष्णु को श्री तथा शिव को गौरी समर्पित करके उन शक्तियुक्त
कर दिया तथा उन क्रमशः सृष्टि, स्थिति ओौर संहार नामक कमं बतला दिया ।
[ अद्रेत वेदान्ती क्ते हैकि] यह मततो श्रुति आदि प्रमाणो पर
आधारिन नहीं है । अपनी उत्प्रेक्षा से ही यह कल्पित हुजा है अतः इसका ससे
८७४ सबदशनसंग्रहे-
बड़ा खंडन यही है कि यह अपने आपही अपने रूपका विदलेषणा करता है
[ प्रमाणो के आधार पर नहीं । | अतएव यह त्याज्य मत है ।
तो इस प्रकार ज्ञात, ज्ञेय आदि का यह् प्रपंच, जो प्रत्यगात्मा (जीवात्मा)
मं प्रतीत होता है, अनादि अविद्यासे युक्त है । जब अधिक व्या बढ़ाये ?
विशोष--यह आश्चयं है कि सायण-माधव ने एकं अवैदिक संप्रदाय सवो
का वर्णन तो अपने दशन संग्रह में किया है, पर उस संप्रदाय से अन्यूनतर महत्व
वाले शाक्तसंप्रदाय का केवल उल्लेख करके ही छोड दिया । वास्तव में शाक्त-
संप्रदाय ओर तांत्रिक मत एक दिन अपने यौवन के आकराश्मेंये। दोनों के
अपने-अपने सिद्धान्त थे । नाना प्रकारक क्रियाओं ओर विधियोंसे ये मत अत्यन्त
चमत्कारपुरां थे । प्रत्येक प्रतीक का एक अर्थं था जिनं हम आज अ्रमवश भूल
बेटे हैँ । यहां उनका विवेचन समीचीन नहीं है । रैवो कौ तरह शाक्तं के मी
आगम ह जिन्होने कुछ विदेशी पंडितो को भी आङ्ष्ट किया दहै । दुःखटैकि
आज अआगमकेज्ञातातो दुग, उन पर विश्वास करने वालोंका भी अभावहो
गया है ।
( २३. संसार अविद्या-कट्पित है-रांका-समाघान )
नलु किमथ प्रमातृत्वादीनामाविद्यकत्वं निगद्यते । ब्रहम-
¢
ज्ञानेन निवतेनाय जीवस्य ब्रह्मभावाय वा १ नं प्रथमः। लाख
प्रामाण्यादेव सत्यस्यापि ज्ञानेन निचृततेरुपपत्तेः। उपलम्भाच् ।
तथा हि-
सेतु दष्टा विभुच्येत ब्रह्महा बह्महत्यया ।
डः ~ दोपद्निन
त्यादिना पाप सनीस्रस्यते । षिषय रागो दन्दद्यते ।
त्ष्यध्यानेन विषं ज्म्यते । एवं कतेत्वादिबन्धः परमाधिकोऽपि
त्वज्ञानेन निवर्स्येत ।
शका-- ज्ञाता होना आदि भावों को आप अविद्याकल्पित ( मिथ्या ) क्यों
मानते है ? क्या इसलिए कर ब्रह्यजञान से उसकी निवृत्ति हो सके ? [ स्मरणीय दहै
कि मिथ्या वस्तुकी ही निवृत्तिज्ञान से होती है, सच्ची वस्तु की नहीं । इषलिए
भरपच को संभवतः सत्य नहीं मानते होगे । ] या इसलिए मानते है कि जीव
को ब्रह्मत्व की प्रात्तिहो? [ यदि जीव में जञातृत्व आदि धमं सत्य होते तो जीव
को विशेषसहित मानना पड़ता ओर वैसी स्थिति मे निधिरेष ब्रह्म के साथ
तादात्म्य नहं दो सकता । यो गुदध जोव भौर बरह्म का तादात्म्य हो जाता है । |
# ४
शाकर-द्शनम् ८५७५
इनमे पहला विकल्प तो ठीक नहीं है क्योकि शास््नोके प्रमाणसे ही यह्
सिद्ध हैकिज्ञान से [न केवल मिथ्या वस्तुकी, प्रव्युत] सत्य पदाथं कौ भी निवृत्ति
होती है । [ मंडकोपनिषद् ( ३।२।९ ) के इस वाक्य में बतलाया है कि ब्रह्मज्ञान
से ब्रह्मत्व की प्राप्ति होती है-ज्रह्म वेद ब्रहमौव मवति । अब यह ब्रह्मत्व तभी
होता है जब जीव की उपाधियो ( ४४९५० 8] पृप्शा0५९न0ण08 ) का नाञ्च
हो जाय ।*# तो, जीव की मन-बुद्धि आदि उपाधियों के वास्तविक होने पर भी
तो प्रमारूप ब्रह्मज्ञान से उनकी ( सत्य उपाधियों की ) निवृत्ति हो सकती ।
उपाधिना के पहले जीव ब्रह्मत्व पा नहीं सकता । ] दूसरी बात यह हैकि
देसी बातों की प्राप्ति भी होती है जैसे--श्राह्यण का हत्यारा व्यक्ति | रामचन्द्र
के रामेश्वर ] पल को देखकर ब्रह्महत्या से विभक्त हो जाता है।' इन पापों के
जस्त होने का वर्णन है । विषयों में दोष देख लेने से राग ( अनुरक्त, आसक्ति,
&{801761४ ) का दहन ( नाश ) होता है ओौर गरुड़ जो ( तक्षं )के
व्यान से विष उतर जाताहि। [ये सारे कायं सत्य ( ।९४] ) है, मिथ्या
नहीं । इनकी निवृत्ति तो ज्ञानसे ही होती है।|
तो, इसी प्रकार कतूंस्व, ज्ञातृत्वादि बन्धन [ जो जीवों मे लगे है यदिवे|
सत्य भी हों ( माने जाये ) तो क्या आपत्ति है ? तत्त्वज्ञान से उनकी निवृत्ति
हो जायगी । [ इसलिए ब्रह्मज्ञान से निवृत्ति होने के लिए बन्धो < ००५९९ )
को मिथ्या मानने की आवदयकता नहीं । सत्य मानने पर भी कायं मे अन्तर
नहीं पडेगा । |
न चरमः। ओपाधिकस्य जीवभावस्योपाधिनिव्र्या निवृत्तो
ब्रहममावसंभवात् । तस्माद्रन्धस्याव्रिद्यकत्ववाचोयुक्तिः सावद्येति
द,
चेत्- नेतदनवदयम् । सत्यस्यात्मवज्जाननिवःत्येतवाजुपपत्तेः ।
| बन्धस्य मिथ्यात्वमन्तरेण शाख्प्रामाण्यादपि तदपिद्धे् ।
| शाख्रमपि-
| ९ >
लोकावगतसामथ्यंः श॒ब्दो वेदेऽपि बोधकः ।
इति न्यायेन लोकावलोक्रितां पदश्चक्ति पदाथंयोग्यतां चोररीहृत्य
प्रचरतीति ।
| # तुल ०--आत्मोपनिषद् ( १।१६ )--
घटे नष्टे यथा व्योम व्योमेव भवति स्वयम् ।
तथैवोपाधिविलये ब्रह्मैव ब्रहावित्स्वयम् ॥
9
न सवेदशेनसंमरदे-
दूसरा विकल्प मी ठीक नहीं क्कि उपाधियों कौ निवृत्ति के बाद ओौपाधिक
जीवत्व की निवृत्ति होने पर तो ब्रह्मत्व कौ प्राति सम्भवहीहै। इसलिए बन्ध
- { कतृत्व, ज्ञातृत्व आदि सम्बन्ध-भाव ) को अविद्या-कल्पित कहने की बात दोषों
से भरीहुईदै।
समाधान-- आपका दोषारोपणा मी दोषरहित नहीं है ( = आपका कहना
गलत ह । जिस प्रकार [ सत्य ] आत्मा की निवृत्ति ज्ञानसे होती है उस तरह
[ मन आदि पदार्थो को | सत्य मानने से उनकी निवृत्ति ज्ञान केदारा नहीं हो
सकती । [ उपाधियों को मिथ्या सिद्ध करने के ही अभिप्रायसे शाख उपाधि कौ
निवृत्ति का प्रतिपादन करते है । यही कहते ह । ] बन्धो ( (२०९1\06801003 )
को बिना मिथ्या माने, शास्त्रोंके प्रमाणा से मौ उसकी असिद्धिही होती दै।
[ जहां पर शाखो मे युक्तिसे विरुद्ध अरथंकी प्रतीति हौ वहाँ युक्तिषंगत अथं
कोही शाख का तात्पयं मानना चाहिए । |
“जिस शाब्द की सामथ्यं ( ब्दाथ-बोध की शक्ति } लोक व्यवहार से अवगत
हो चुकी है वह ( शब्द ) वेद मे भी बोधक होता दै" इस नियम से शाल भी
लोक व्यवहार से सिद्ध पद की शाक्तिं ओौर पदार्थव्रोध की योग्यता को स्वौकार
करके ही अर्थबोध कराता है। | शास्र के वाक्यों का तात्पर्यं लोक्रिक युक्तियों
से ही ग्रहण करं । |
अपरथा (आदित्यो युपः' ( ते > ब्रा° २।१।५ ) “यजमानः
प्रस्तरः ( तै० सं १।७४ ) इत्यादिवाक्यस्तोमस्य यथा-
के # भ, (~
रतेऽथे प्रामाण्यापत्तेः वेदिक्याः क्रियायाः समक्षक्षयितया
पारत्रिकफरकरणत्वान्यथानुपपस्या अपूाङ्गीकरणादुपपत्तिश ।
यदिरेसान हो तो "आदित्य यज्ञस्तम्भ है' ( ते° ब्रा° २।१।५ ) यजमान
पत्थर है" ( तँ ० सं १।७।४ ) दस तरह के वाक्य-समूहों की प्रामाणिकता हमें
उन्हीं अर्थो मे माननी पड़ेगी जिनका बोध इनके अन्दर के शब्द कराते है।
[ संभाव्य अधमे ही श्रुति भी प्रामाणिक होती है। प्रथम वाक्य का यथाश्रुत
अथं है आदित्य गौर दटे का तादात्म्य ! किन्तु इस अथं मेतो श्रुति
प्रामाणिक नहीं हो सकती-- लौकिक व्यवहार इसका विरोध करेगा । भादित्य
के साय सादृश्य भलेहीहै क्योकरि यूपमे आदित्य के गुण--तेज, चमक
आदि-है। दसी अथंमे येश्रुतिवाक्य प्रमाण हो सकते है। यजमान भी
पत्थर के समान कष्टसहिष्णु है । |
[ ज्योतिष्टोम-याग आदि ] वैदिक क्रियाय देखते-ही-देखते नष्ट हो जानेवाली
शांकर-दशेनम् ८७७
ह इसलिए पारलौक्रिक फल ( स्वगं की प्राप्न } उत्पन्न करने की असिद्धि दूखरे
प्रकारसे ( का्-कारण-माव के दष्टकणसे) भो हो जाती रै। { आज्ञय
यह है कि उ्योतिष्टोम-याग एक क्रिया है जिसका नाश अत्यन्त शीच्रतामे हो
जाताहै। किन्तु वेदों में इसका फल दिया गया है--स्वगंग्राप्ति। क्या स्वर्ग-
प्राति तक वह याग अपना फलदेने के लिए वैठा रहेगा ? किसी भी दशाम
द्र रहने के कारणा कायं-कारण-सम्बन्ध की स्थिति नहींहो पाती। यदि अप
कहूं किं अपूवं या अहृष्ट के कारण क्रिया का फल सुरक्षित रहेगा तो हमारा
उत्तर है कि ] अपूव को स्वीकार करने के लिए भो कोई प्रमाण नहीं ।
लोके च श्॒क्तिव्यक्तितस्वाभिव्यक्तावपनीयमानस्यारोषिः
तस्य मिथ्याख््टौ तद्दृष्टान्ताबषटम्भेनास्मतत्वसाक्षास्कारविधा-
पनोचयस्यावि्यकस्य बन्धस्य मिथ्यात्वानुमानंसंमवात् । विमतं
मिथ्या, अथिष्ठानतचज्ञाननिवत्यत्वात् › श॒क्तिकारूप्यवदिति ।
तो, लोकिकं व्यवहार में जब सीपी का व्यक्तिगत ( {7} रप ) तत्तव
प्रकाशित होता है तब उसके द्वारा, दुर हटाने के योग्य आरोपित पदार्थं ( चाँदी)
के मिथ्या होन की दृष्टि मिलती हे, उसी दृष्टान्त पर आध।रित होने कै कारण,
आत्मतत्व के साक्षात्कार रूपी ज्ञान के हारा दूर हटाने योग्य जो यह अविद्या-
कल्पित बन्धे है उसके मिथ्या होने का अनुमान किया जा सकता है। [ सीपीके
तत्व कौ अभिव्यक्ति होने पर आरोपित रजत कौ मिथ्यादृष्टि नष्ट होती हि। वेसे
ही आत्मत्व के साक्षात्कार से इस कतुत्वादि बन्ध का नाश होता है। यदि
सीषी में रजत की प्रतीति मिथ्या है तो आत्मतच्वमें प्रपंचकी प्रतीतिभी `
मिथ्या हो है। अब उक्त अनुमान का स्वल्प दिखलाते है --|
( १) प्रस्तुत ( बन्ध ) मिथ्या है । ( प्रतिज्ञा )
( २ ) क्योकि आवारभूत ( अत्मा ) के तच्वज्ञान से इसकी निवृत्त होती
है । ( हेतु )
(३) जैसे सीपी ओौर चाँदी कौ भ्रान्ति होती है । ( उदाहरण )
न च (विमतं सत्यं भासमानत्वात्! इति प्रति प्रयोगे समान-
बरतया बाधप्रतिरोधः । प्रतिरोधभियाऽन्यतरदोषत्वसंभवादिति
वदितव्यम् । मरूमरीचिकोदकादो सब्यभिचारात् । अबाधितत्वेन
विननेपणान्न दोष इति चेत्-मेवं भाषिष्ठाः । विशेषणासिद्धेः ।
ठेसा न समञ्चं कि प्रस्तुत विषय ( ्रपंच ) सत्य है वरयोकि प्रतीत होता
८७८ सबेदशेनसंग्रहे-
है--इस तरह के विरोधी अनुमान ( (0 पालाः-8एप0 €, ) मे समान बल
होनेके कारणा बाध (संसार को मिथ्या मानकर आत्मतत्त्व के द्वारा उसको
निवृत्ति मानना ) के सिद्धान्त का खण्डन हो जायगा । क्योकि प्रति रोध (00.
8101) )} के भय से [ बचने के लिए | किसी एकं में दोष की संभावना दिखानी
होगी । [ पूर्वंपक्षी कहता है कि हमने एक विरोधी अनुमान दिया जिसमे प्रपंच
का साध्य है सत्यता ओर दूसरी ओर आपकासाध्यहै मिथ्यात्व । दोनों के
साच्य विरोधी है, दोनों दोहैतु भीदेरहेह। मान लियाकरि एक दहेतु सत् है,
दूसरा असत् । किन्तु जब तक आप किसी एक हेतु मे दोष दिखाकर दूसरे को
प्रबल सिद्ध नहीं करते तब तक कोई भी हेतु अपने साध्यको सिद्ध नहीं कर
सकेगा । बतलादये, हमारे हेतु में क्या दोष है ? सुनिये-]
मरुभूमि में मरीचि ( सूयं किरणों ) से उत्पन्न ( }11"9€ ) जल आदि में
व्यभिचार होगा [ अर्थात् मृगमरीचिका मेँ जल नो प्रतीत होता है पर वह सत्य
नहीं है । अतः प्रतीत होने के कारण कोई वस्तु सत्यहो, एेसी बातत नहीं ।
वह् हेतु ध्यभिचरित होता है । |
[ पूर्वंपक्षी फिर कहता है--] हम उक्तठेतु मे अबाधित होन पर" एसा
विशेषण लगा देते ह ( अर्थात्--कयोक्रि अबाधित होने पर प्रतीति होती है'-
पूरा हेतु) तो दोष नहीं होगा [ क्योक्रि मृगमरीचिका प्रतीत तो होती है, पर
इसकी निवृत्ति भी तो होती है? दूसरी ओर प्रपंच की प्रतीति इश्च तरह की होती
ह करि उसकी निवृत्ति ( बाध) नहो स्के । ] किन्तु एेसा मत किये । आपके
दिये गये विशेषण की ही सिद्धि नहींहो सकेगी। [ प्रपंच भासित होता है
ओौर बाधित नहीं होता हो, ठेस बात नहीं । अब केसे बाधित होता है, इसे
दिखाते है। |
तत्रेदं भवान्पृष्टो व्याचष्टाम् । कतिपयपुरुषकतिपयकाला
बाधितत्वं हेतुविशेषणं क्रियते सर्वेथा बाल्वेधुयेम् वा? न
प्रथमः)
५३. यत्नेनानुमितोऽप्यथेः ङशेरसुमातभिः ।
अभियुक्ततरेरन्येरन्यथेबोपपाद्यते ॥
( वाक्यपदीय ° १।३४ )
इति न्यायेन त्रिचतुरप्रतिपत्तप्रतिपादितस्यापि प्रतिपत्रन्त-
रेण प्रकारान्तरथुररीकृत्य प्रतिपादनात् ।
शांकर-दशेनम् ८७६
इष विषय मे हम आपसे जो पूते है, उसका उत्तर दीजिये । उक्त हेत
{ भासमानत्व } का विशेषण ( अबाधित ) जो आपने दिया है, उसका क्या अर्थं
है? कु व्यक्तियों के लिए या कुछ निदिवत समयमे बाधन होना? या सब
प्रकार से बाध-~रहित होना ?
पहला विकल्प तो नहीं होगा क्योकि यह नियम है--'जिस वस्तु का
अनुमान प्रयत्नपू्वंक भी किया गया हो किन्तु दूसरे लोगो के द्वारा, जौ अनुमान
करने से कशल ह एवं अधिक योग्य प्रतिवादी ( अभियुक्त = 1180४61४ )
है, वह वस्तु दूसरेही रूप नै सिद्धकी जाती दहै!" ( वाक्यपदीय, १।३४)--
इस नियम से जिस वस्तु का प्रतिपादन तीन-चार ( कतिपय ) प्रतिपादको ने
मले ही किया हो किन्तु दूसरे प्रतिपादको के द्वारा दूसरे प्रकार से उसकी सिद्धि
हो सकती है । [ तात्पयं यह हा क्रि कु समथ में ओौर कुछ व्यक्तियों के
लिए अबाधित न होनेसे काम नहीं बनता । दूसरे समय मे ओर दूषरे व्यक्तियों
के लिए तो उसका बाघ संभव है। ज्ञानियोंकी दृष्टिसे अत्मा पर् अध्यस्त
व्रपंच का बाधदहो सकता दहै। इमे आगमःप्रमाण से ही जानते है ।]
~ ¢ ॐ, © ज्ञ््यत्वात्
नापि चरमः। सवथा वाधवधुयस्यास |
यचचेवं, हन्त, तरिं ज्ञानात्मनोऽपि सत्यत्वं नावगम्यत इति
ॐ, $ @ #ि
चेत्-मेवं मंस्थाः । (तत्सत्यं स॒ आत्मा ( छा > ६।८।७ )
इत्यागमसंवादगतेः । न च प्रपञ्चेऽप्ययं न्याय इति मन्तव्यम् ।
तादश्नस्यागमस्यादुपलम्भात् । परत्युतादितीयत्वं श्रावयन्त्याः
रतेः प्रपश्चमिथ्यात्व एव पक्षपातात् ।
दूसरा विकल्प भी ठीक नहीं है कपोकि हमलोग सरव॑ज्ञ नहीं है इसलिए
किसी का सब तरह से बाघरहित होना हमलोग जान नहीं सकते ।
[ अब पूवंपक्षौ अपना खरएडन देख कर घबरा जति ह ओौर वेदान्तियों से
प्ते ह कि ] यदि एेसौ बात है तब त्तो ज्ञानस्वरूप आत्मा कौ सत्यता मौ
नहीं ही जानी जा सकती ह? [ ज्ञानस्वरूप आत्मा क्रिसी भी अवस्थामें
बाधित नहीं होगी, इसका पता हम असर्व्ञो को कैसे हो सकता है? ] हम
करगे कि एसा मत समञ्लो । आगम के संवाद ( समन्वय ) से उसको प्रामाणि-
कता मालूम होती है--'वह सत्य है, वह आत्मा है" ( छां° ६।८।७ ) ।
[ हमारे प्रमाणा को देखकर संभवतः भाप कट उ्धेगे कि ] प्रपंच ( संसार )
की सस्यता के लिए भो यही न्याय ( 78109 ) क्यो न लगाया जाय?
म किक > न ~
"कक कङ्कणानि न = -केनकिरनककिनका 7 = " = ऋण =-= न ववा क्कः
छ = च्छि 3९ 1 हित
चि;
नीर
---------~ --
नक्त न
~ स्बेदशनसंग्रहे-
पर रेषा समञ्लना भूक है । उसकी सत्यता के लिए कोई आगम | श्रति-वात्रय }
है ही नहीं । उलट, जिक्र समय श्रुति अद्वितीय तत्व ( जेसे--सदेव सौम्येदमग्र
आसीत् , एकमेवाद्वितीयम्- छां ° ६।२।१ }) का प्रतिपादन करतीदहै तोप्रपंच
को मिथ्या सिद्ध करने की ओर ही उसक्रा पक्षपात रहता है ।
विद्धोष-प्रपंच का मिथ्या होना या आत्मा की सत्यताके लिए अनुमा
नादि लौकिक प्रमाणा सहायकं भले हों निर्णायक नहीं हो सक्ते । निरय क रने
का कामश्ुतिसे टी संमवदहै। श्रुतियां सव॑ ईृश्वरके निःधासकेख्पमेरहै।
उनकी प्रामाणिकता हमे माननी ही होगी ।
नज करपनामात्रशरीरस्य पध्-सपक्ष-विक्षादेः स्वेसुरुम-
तेन जयपराजयव्यवस्थया कथं कथा प्रथेत १ कोत्र कथंता
“एवं तरिचतुरज्ञानजन्मनो नाधिका सतिः # ( शोर बा
१।१।२ सूत्रे ) इति न्यायेन त्रिचतुरकक्ष्यािश्रान्तस्य तत्तदा-
भासल्षणानाटिङ्कितस्य दृषणभूषणादेस्तत्र कथाङ्गत्वाङ्गीकारात् ।
अब शंका हो सकती है करि पक्ष, विपक्ष, सपक्ष आदि करना सबों के लिए
संभव हो गया क्योकि केवल कल्पना के सहारे तो यह सब करना है; तो, जय
यां पराजय कौ व्यवस्था ( निर्णय) करनेके लिए कथा, {218८ पञ }
क्रो क्या आवदयकता रह गयी ? [ कहने का तात्पयं यह् हैकि वाक्यपदीय कौ
उपरक्त कारिका से तो तकं कौ अप्रतिष्ठा हो जाती है--वादी ओौर प्रतिवादी
दोनों ही अपनी-अपनी इच्छा से अपने अभीष्ट को सिद्धि के लिए अदान देगे ।
तो, न किसी की पराजय होगी भौर न विजय! तो तच्वका निर्णय केसे
होगा कि तथ्यक्याहै? |
[ उत्तर देते है-- | इसमें "कसेः की स्थिति ही नही आवेगी । [ कुमारिल
का कहना है कि] इसलूपमें( तच्वका निरय करने के समय ) बुद्धि तीन-
चार ज्ञानोंको जन्मदेने के बाद आगे नहीं बढ सकती । इस नियमसे, जो
बाधक ( दूषणा ) या साघक ( भूषण ) ज्ञान होगा वह तीन-चार कोटियोंमे ही
विश्रान्त ( समाप्त ) हो जायगा तथा वह अभास ( हित्वाभासादि } के लक्षणो से
पृथक् रहेगा । एसे ज्ञान कोहम कथा का अंगस्वीकारकर लेगे । [तच्वका निर्णय
करने वाला ज्ञान तीन चार कोटियों तक चलता ह, उसके बाद नहीं । एेषा
ज्ञान ही कथा है। जो जल्प ओौर वितर्डा के रूप ने ज्ञान होता है, आमासयुक्त
है उसे तो तकंसे कुछ लेना-देना है ही नहीं अतः विश्रान्त होता हौ नहीं)
उसे हम कर्थाग नहीं कह सकते । | |
-शांकर-दशेनम् ८८१
अत एवोक्तं खण्डनकरेण--व्यावहारिकीं प्रमाणसत्ता-
मादाय बिचारारम्भः' (ख ख० खा०) प° ७४) इति।
न च मेदग्ाहिभिः ग्रमाणैरदरतशरुतेजषन्यतेति शङ्कवम् । ब्रह्मणि
पारमा्थिकसत्यत्वेन तदावेदिकायास्त्छवेदनलक्षणप्रामाण्वावः
रतेव्यौवहारिकम्रमाणमावाना प्रत्यक्षादीनां च॒ विभिन्नविषय-
तया परस्परं बाध्यवाधकभावासंभवात् ।
इसीलिए तो खण्डनखण्डखाद्य के रचयिता [ श्रीहषं | ने कहा है-
“विचर ( ब्रह्मविषयक, प्रमासाविषयक आदि }) का आरम्भ व्यावहारिक प्रमाण
सत्ता को आधार मानकर होता है ।' ( प० ४४) ।
एसा नहीं सोचना चाहिए कि भेद ८ {){6.60७6 ) का बोध कराने
वालि प्रमाणो के द्वारा उद्रैव कौ प्रतिपादक श्रुतिो की गौणता ( जघन्पता )}
सिढध हो जायगी । [ भेद = जीव ओर ईदवर मे, जीवो मे परस्पर भेदया जड
पदाथ का मेद । इनका अनुभव व्यवहारदशा ने होता है। तो, श्रीहषं कौ
उक्ति के अनुसार, न्ट प्रामाणिक मानकर कहं अद्ैत-श्रुति ( एकमेवाद्वितीयपर )
कहीं गौण न हो जाय । | बात रेसी हकरं ब्रह्म मे पारमार्थिक सत्यता होने से,
उका आवेदन ( एर]०७ 60) ) करने वाली श्रुति, जिषका लक्षण ओर
प्रामार्य आवेदन करना ही है, उसके कारण [ उक्त ब्रह्म को पारमार्थिक सत्ता
मे ओर ] व्यावहारिक सत्ता ( प्रमाण-माव ) या प्रत्यक्षादि से, परस्पर बाघ्य-
बाघक का सम्बन्ध नहीं हो सकता वयोकि [ उन दोनों सत्ताओं के ] विषय भिन्न-
भिन्न है । [ पारमार्थिक सत्ता बरह्म के लिए है ओर व्यावहारिक सत्ता प्रत्यक्षादि
के लिए । दोनो अपने-अपने क्षेत्र ने सत्य ह। जैसे व्यावहारिक सीप की
सत्यता ओौर प्राति मासिक रजत की सत्यता में कोई अन्तर नहीं, उसी प्रकार
श्रुतयुक्त ब्रह्म के अदत कौ पारमार्थिक सत्यता में ओर द्रत-प्रतीति की
व्यावहारिकः सत्यता में कोई विरोध नहीं । ।
तदप्युक्तं तेनेव--
५४. तददधैतश्रतेस्तावद्वाधः प्रत्यक्षतः शतः ।
नालुमानादि तं कर्तं तवापि क्षमते मते ॥
( ख० १।२० )
५५, धीधना बाधनायास्यास्तदा रज्ञां प्रयच्छथ ।
५६ स० सं०
सपर् सर्वदशनसंग्रदे-
प्तं चिन्तामणिं पाणिलब्धमन्धौ यदीच्छथ ॥
( ख. १।२४ ) इति ।
तस्मा्तच्ञानेन निवर्तनायास्य बन्धस्याज्ञानकटिपतत्वमङ्गी-
कर्तव्यम् । यत उक्तं--यतो ज्ञानमन्ञानस्य निवतेकमिति ।
येह बात भी उसी (श्रीह, खण्डनकार ) ने कही ह- “इसलिए अद्वैत-
प्रतिपादक श्रुति के प्रत्यक्ष प्रमाणसे बाध ( 00009०० ) होने की बात
समाप्त हो गयी । अनुमान आदि प्रमाण तो उसे ( श्रतिबाध ) करने में तुम्हारे
( मीमांसकों के ) मतम भी असमथंही है। [ श्चेति कौ अपेक्षा लिग (अनुमान)
दरवल होता ह-दे° प° ५१४ । ] ॥ ५४ ॥ हे बुद्धिमान् पुरुषो ! [ मदवैत-
प्रतिपादक ] इस श्रुति के बाधके लिए अपनी बुद्धि तुम उसी समय खचं कर
सकते हो जब हाथ मे आयो हुई चिन्तामणि को तुम समुद्र मे फंकने की इच्छा
करो । अभिप्राय यह है कि अद्रैत-जैसा सन्दर सिद्धान्त हाथमे ह ओौर उसे
काटने के लिए नाना प्रकारके प्रयास कर रहै हो, यह ठीक नहीं । | ॥ ५५ ॥
इसलिए तत्वज्ञान के द्वारा इसकी निवृत्ति करने के लिए बन्ध को अज्ञान
कल्थित मानना ही चाहिए । वयोकि कहा भी है-चंकि ज्ञान ही अज्ञान का
निवत॑क है ।
विहोष- नैषधीयचरित के प्रसिद्ध रचयिता महाकवि श्रीहषं के खरडन-
खरडलादय से लिये गये इन इलोकों मे अनुप्रास की छटा देखने ही योग्य है।
सब कुच होने पर भी वे मूलतः कवि थे । देखें -- क्षतः क्षतः”, “मते मते"
( पादान्त-यमक )। 'घीधना बाधना', मणि पाणि", 'लन्धमन्धौ' । एकर तो
अनुष्टुप्-छन्द, दूसरे दशन का गर॑य--उसमे इतने चमत्कारी शब्दों की योजना !
( २७. प्रपंच की सत्यता का खण्डन--सत्य की निन्रुत्ति नहीं )
यदुक्त-- सत्यस्यापि दुरितस्य सेतदशेनेन निवृत्तिरुपल-
भ्यत इति'-- तदयुक्तम् । बिहितक्रियाजुष्ठानेन जनितस्य धमं-
स्याधर्मनिवरतकल्वधरौग्यात् । “धमेण पापमपलुदन्ति' ( म ना
२२।१ > इति श्तेः । प्रमाणवस्तुषरतन्तरश्चारिन्या दश्नक्रिया-
याश्रोदितपुरुषप्रयत्नतन्त्रत्वामावेन वरिधानासंमवात् ।
रं पक्षियो ते जो कहा है कि सचमुच के ( 681 ) पापका नाश सेतु
( रामेश्वर-पूल ) के देखने से हो जाता है, वह संगत नहीं है । विहित क्रियाओं
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शांकर-दशेनम् ८८३
के अनुष्ठान से उत्यन्न होनेवाला घमं अधमं की निवृत्ति करता है--यह बिल्कुल
निशित ( द्युव} है। इसकी पृष्ट केलिए श्ुति-प्रमाणभी है- ्वमंसे पाप
का नाश करते है" ( महानारायण० २२।१)। [ इससे यह निष्कषं निकला
करि पापका नाशक धमं है, ज्ञान नहीं । अब दिखाते है कि दशैन-क्रिया विहित
हैया नहीं?]| दचन-क्रिया प्रमाणा ओौर विषय के अधीन रहती है, प्रेरित
पुरुष कै प्रयत्नो के अधीन वह नहीं रहती; इसलिए उसका विधान किया जाना
असंभवे)
विशेष--यज्ञादि कमं मुख्यतः मनुष्यों के प्रयज्ञो पर निर्भर करते है,
इसीलिए उनका विधान करना संभव है 1 ज्ञान प्रमाणो ओौर विषयों पर निर्भर
करता है, अतः उसे विहित नहीं किया जा सकता । इसीलिए उक्त श्लोकार्धं
( सेवुं हृष्टा प्रमुच्येत° ) सेतु-दर्चन कौ विधि नहीं है प्रत्युत उसमें सेतुस्नान की
श्रशंसा की गई है--उसके लिखने का यही अभिप्राय है।
ब्रह्महत्यां प्रमुच्येत तस्मिन्स्नात्वा महोदधौ ।
इत्यादिस्मृतिविहित ब्रह्म चयाङ्गसदित-दरतरदेशगमनसाध्य-
ब्रहमहनननिब्रृत्तिफरक-सेतुस्नानप्रशंसाथत्वात् । यस्य हि दशेन-
मात्रेणेव दुरितोपशमः किमुत खानेन ? अन्यथा दूरगमनानर्क्यं
प्रसजेत् । तत्र॒ खरादीनामप्यनथेनिवृत्तिरापतेत् । अन्धस्य
न् स्यास्च।
उस स्थान पर समुद्रम स्नान करने से व्यक्ति ब्रह्महत्या से छूट जाता है'-
इस प्रकार स्पृतियो में विहित, ब्रह्म बयं रूपी अंग के साथ अधिक दूरस्थ देश में
जाने से संपन्न होनेवाले सेतु स्नान कौ प्रशंसा कौ गई है जिस ( सेतु स्नान ) से
बरह्महत्या कौ निवृत्ति के रूपमे फल मिलता है । जिसे केवल देखने से हौ पापोँका
रमन होताहै, स्ननकीतो बातही क्या? यदि एेसा नहीं होता तो दूर जाने
का परिश्रम व्यथंहो जाता । दूसरे [सेतु के पांस रहनेवाले] गधे आदि जानवरों
के अनर्थो को भी निवृत्तिहो जाती। [वेतो आसानी से सेतु देख सकते है,
स्नान भीकरस्क्तेहँ। फलतो उसे ही मिलता है जो दुर से श्रद्धापुव॑क, कष्ठ
सहते हए तीर्थयात्रा करके वहाँ प्ुचता है । ] अन्त में यह भी आपत्ति होगी कि
अन्धोंको तो उक्त फल नहीं मिलेगा [ क्योकि उन्है आंख ही नहीं किं दर्शन
कर सके । |
म॒चु- -
५६. अग्निचित्कपिला राजा सती भिुर्महोदधिः ।
पम स्वदशेनसंमदे-
दृष्टमात्राः पुनन्त्येते तस्मात्पश्येत नित्यशः ॥
क्चिदशेनक्रिया विधानं [क
इति या अपि विधानं द्रीदृश्यत इति चेत्-
चे, # ग्निचिदाद्यधेपरि
सैवं वोचः । तत्राप्यनयंवानुपपच्या अग्निचिदाद्यर्थपरिचयोदावेव
तात्पयौवधारणात् ।
श्रांका- निम्नलिखित वाक्य नेतो दक्शन-क्रियाका भी विधान देखते है--
'अन्नि का चयन करने वाला यजमान, कपिला गौ, राजा, सती खरी, भिष्चुक
-( परमहंस ) ओर महासागरः, ये दिखलाई पडते हौ पवित्र कर देते है । अतः
इनं प्रतिदिन देखना चाहिए ॥ ५९ ॥' [ इसका अभिप्राय है कि करी -कहीं
द्शन-क्रिया का भी विधान होता दै, |
समाधान-रेषा मत कहो । वहाँ पर भी इस तरहं की असिद्धि दिखाकर
अभ्निचेता ( यजमान ) आदि योग्य पदाथो की परिचर्या करने का ही तात्पयं
निरूपित किया जाता है ।
यच्चोक्तं विषयदोषदर्नात् रागो दन्दद्यत इति । तत्र
विषयदोषदरेनेन विरो 1
विषयदोपदशेनेन धमूतानमभिरतिसंजकैराग्ैकमराद भोवाद्र-
९ >
गनिवृत्तौ तददशेनमात्रमिति न व्यभिचारः
¢ (~ ¢ ¶~ #
यदपि ताक्ष्येध्यानादिना षिषाद् सत्य विनहयतीति ।
तन्न शिष्यते । तत्रापि मन्त्रप्रयोगादिक्रियाया एव विषाद्यपनो-
दकत्वात् । ध्यानस्य प्रमातवाभावाच ।
ऊपर पूवंपक्षीने जो यह कहाथा करि विषयों में दोष देखलेनेपरराग
नष्ट हो जति, वहाँ तात्पयं यह है कि विषयों म दोष देख लेने से उनके
( विषयों के) विरोधी एक एसे, वैराग्य की उत्पत्ति होती है जिसका नाम
अनभिरति ( {2९१५०061 ) है। उसके बाद राग की निवृत्ति हो जाती
ह, अतः व्यभिचारका प्रहन ही नहीं उठना क्योकि वास्तव मे राग केवल
दृष्टिगोचर नहीं होता है, [ गौर कोई बात नहीं है । |
उन लोगों ते फिर कहा है कि ताक्ष्यं ( गरड } के ध्यान आदि से सचमुच
का विष उतर जाता है। यह बात ठीक नहीं जगती । यहाँ मी मंत्र-पयोग आदि
क्रियाय ही विषका हरण करती है दूसरी बात यह है कि ध्यान यथार्थं
अनुभव कारूपले नहीं सकता । [ पूवंपक्षियों का कहना है कि ज्ञान-विक्ेष जो
यथार्थं अनुमवके रूपमे है वही सत्य वस्तु का विनाशक है । अब उसमे गरुड
शांकर-दशेनम् ८८५
के ध्यान से विषनाश का उदाहरण देना युक्तिसंगत नहीं है। ध्यान काञर्थंहै
अविच्छिन्न स्मृति का प्रवाह । उसमें अनुभव तो है नहीं, यथार्थं अनुभव तो दूर
कौबातदहै.। |
यदवादि---ओपाधिकस्य जीवभावस्योपाधिनिषृच्यानिवृत्तौ
= (^ दे, #
बरह्मभावोपपत्तेने तदथेमथेवेतथ्यकथनमिति । तदपि काशङकश्ाव-
लम्बनकर्पम् । विकरपासहत्वात् । मु पाधेः सत्यत्वमभित्रेत्य
मिथ्यात्वं वा ? न प्रथमः । प्रमाणाभावात् । नापरः। इष्टा-
पत्तः । तस्मादाविद्यको भेद इति श्रतावद्ितीयत्वोपपत्तयेऽ-
भिधीयते, न तु व्यसनितया ।
पूर्वपक्षी ने यह मोकहाथा किं जीवत्वं उपाधि-युक्त है, जब उपाधियों की
निवृत्ति हो जाती है तो उस निवृत्तिके बाद ब्रह्मत्व कीसिद्धिहो ही जायमी ।
उसके लिए ( ब्रह्मत्व-सिद्धि के लिए ) अर्थो ( ज्ञातृत्वादि प्रपच, 0016५18 } को
मिथ्या बनाने की क्या आवश्यकता है ?
यह शंका भी [ इवते हुए व्यक्तिकी | काश या कुश-घासके सहारे पार
होजानेकी आशामात्रहीरहै। कारण यहहै किं निम्नलिखित विकल्पों को
यह सह नहीं सकता ! क्या उपाधियों को सत्य मानते हए आप युक्ति दे रहे है
या मिथ्या मानते हृए ? उपाचियों को सत्य मानक्रर युक्ति नहीं दे सकते क्योकि
इसके लिए कोई प्रमाण ही नहींहै) उन्हें मिथ्या मानकर भी नहीं चल सकते
क्योकि उसमें तो हमारे पक्ष की पृष्ट होगी ।
इसलिए हमलोग जो भेद को अविद्या-कल्पित मान रहे ह वहु इसलिए कि
श्रुति ( सदेवः" " `" एकमेवाद्वितीयम्, छां ६।२।१ ) में प्रतिपादित अदेत- तत्व
की सिद्धिहो। यह न समञ्चिये कि हमलोगों को [ अटैत-वाद का ] व्यसन ( धुन,
ए€्पत)९€ ) लगा हुमा है ।
( २५५. आत्मज्ञान से अविदया-नादा- राजपुत्र का दृष्टान्त )
यदि वस्तुतः सर्वोपद्रवरहितमात्मतं तहिं कथंकारं देहादि-
रूपं कारागारं कारंकारं पुनः पुनस्तत्र प्रविशति । तदतिषस्गु ।
अविद्याया अनादित्वेन दत्तोत्तरत्वात् । अतो निव्रुपाय एवा-
न्वेषणीयः प्रेक्षावता । न तु विस्मयः कतेग्यः । ततश्च त्म-
स्यादिविद्यया तदविद्यानिच्ृत्तो निरतिश्चयानन्दात्मलामरूपपरम-
८८६ स्वेदशनसंप्रहे-
रपार्थः सेत्स्यति । तथा चापस्तम्बस्मृतिः- आत्मलामान् ।
विद्यत इति ।
शाङ्का-यदि आत्म-तततव॒वास्तव मे सभी उपद्रवं से रहित है तो बह
किसलिए शरीरादिके ख्पमे कारागार की उत्पत्ति बार-बार करके उसमें
प्रवेश करता रहता है ?
उन्तर-- यह पृखना बिल्कुल व्यथं है। जिष समय हमने अविद्या को
अनादि मान लिया उसी क्षण इसका उत्तर दे दिया गया । भव आपको
[ शद्काओं केफेरेमे न पड कर ] उस अविद्या की निवृत्ति का मार्गं खोजना
चाहिए, आप बुद्धिमान् न ह ? विस्मय ( व्यथं की शंका, आश्चयं ) नहीं करना
चाहिए ।*#
तो "तत्वमसि" ( छा० उ० ६।८।७ ) आदि के ज्ञान (विद्या) से उक्त
अविद्या कौ निवृत्ति हो जाने पर निरतिशय ( 108 €४8।४९५॥ ) आनन्द
( 81188 ) से युक्त भात्म-साक्षात्कार ( 8९168118 007) ) के रूप में
परम पुरुषार्थं ( उप्पो।एा 0) ) की सिद्धिहो जायगी । इसे भाप
स्तम्ब-स्मृति में कड़ा गया है--आतम-लाम ( साक्षात्कार, आत्मा ओर ब्रह्य की
एकता ) से बहकर कोर वस्तु नहीं ।
नन्वसौ नित्यलन्धः । न हि स्वयमेव स्वस्यालन्धो भवति ।
सत्यम् । किं स्वनादिमायासंब- धातक्षीतेदकवत्समुदाचारइृत्तितां
शावरादिभिगील्यात्स्वसुतं वर्धितो क
न लभते । तथा च यथा मभिबील्यार्स्वसुतेः सह बधितो
राजपुत्स्तज्ञातीयमात्मानमवगच्छनवन्धुभियं एवंभूतो राज्ञा स॒
त्वमसीति बोधिते स्वरूपे ठन्धस्वरूप इव भवति तथा वेश्या-
स्थानीययाऽनाध्विद्यया स्वभावान्तरं नीत आत्मा मातस्थानी-
यया तच्वमसीत्यादिकया श्रुत्या स्वभावं नीयते ।
ंका--वह आत्मा तो नित्यूष से ( एष्टप8)7 ) नन्व ही दै)
[ आप "आत्मलाभ होने पर' बयो कहते ह ? ] कोई चीज अपने-जाप अपनेही
लिए अलम्य नहीं होती ( = आत्मा के लिए ही आत्मा क्या दलम है ? वह तो
आत्मा हो है)! समाधान--सच कहते हो लेकिन वह ( आत्मा ) अनादि
मायाकेसंबंधसे दूध ओर पानीके समान इस तरह बुली-मिली है कि दोनों
प त नगवा व्वा
# तुलनीय--बौढ-दरंन, प ५९।
शांकर-दशनम् ८८७
की स्पष्ठ वृत्तियों ( रूपो ) को प्रतीति होती ही नहीं। [ बुद्धि-आदि माया के
कायं ठै किन्तु आत्मा उन्दं अपना समन्लती है, उनसे पृथक् होकर अपने स्वल्प
की प्रतीति नहीं करती । उधर मायाकी प्रतीति भी मायाके रूपमे नहीं होती।|
उसी प्रकार, जैसे शवर-आदि [ जंगलो जातियों | ने जिस राजकुमार को
अपने बच्चों के साथ बचपन से ही पाला-पोसा है, वह राजकुमार अनेको मी
उसी जाति का समक्षने लगता दै । किन्तु जब उसक्रे साथ उसे बोध करति
क्रि जो इस तरह के [लक्षण] राजा मे ह वह तुमही हो (= राजा के लक्षणो से
युक्त तुम राजकुमार हो), तो अषनेरूप ( ७५९०७ ) का बोध हो जनेसे
वह् वस्तुस्थिति समक्न जाता है (अपने लूपको पालेता है )। उसी तरह
वेदया-स्वरूप अनादि अविद्याके द्वारा जो आत्मा दूसरे स्वभावमें ले जाई
गई है वह ( आत्मा) माता के ठल्य "तत्वमसि" आदि श्रुति के द्वारा फिर
से अपने स्वभाव में पहवा दी जाती है ।
एतदाहस्रैविचव्द्राः-- |
५.७. नीचानां वसतौ तदीयतनर्यैः सारथं॑चिरं बधित--
स्तज्ञातीयमत्रैति राजतनयः स्वात्मानमप्यज्जसा ।
संवदे महादादिभिः सह वरसेस्तदर्धवेत्पूरुषः
स्वात्मानं सखदःखजारककितं मिध्येव धिद्न्यते ॥
इते तीनों वेदों के ज्ञानमें पारंगत लोगोंने कहा है--नीचों के निवास-
स्थानम, उन्हींकेपूत्रोंके साथ बहुत दिनों तक पाला-पोसा गया राजकुमार
( ?211116€ ) अपने को भी बहत लीच्चता से उन्हीं की जाति वाला व्यक्ति
समन्चता है । उसी तरह लोगो की बोल-चाल में (1) 6णपपण 81187166),
महत्-आदि तच््वों के साथ रहने वाला पुष ५ जीवात्मा ) अपने को सुखदुःख
के समूहसे धिरा हुआ मानता ह, ठेस कहते ह । धिक्षार ! बह तो मिथ्या है
॥ ५७ ॥ [ इसमें अविद्या का निरूपणा किया गया है । |
८८. दाता भोगकरः समग्रविभवो यः शासिता दुष्टतां ।
राजा स त्वमसीति रक्षितगुखाच्रत्वा यथावत्स तु ।
राजीभूय जयार्थमेव यतते तद्वतपुमान्बोधितः
रत्या तच्वमसीत्यपास्य दुरित ब्रह्मैव संपद्यते ॥
~ सर्वदशनसंग्रहे-
आात्मरसाक्ाच्कार--जो राजा दानी, भोग करनेवाला, सभी संपत्तियों
से युक्त तथा दुष्कमं करतेवालों को दणड देनेवाला होता है वह तुम दही हो' इस
रकार अपने रक्षक के मखे यथार्थं बातें सुनकर वह ( राजकुमार ) राजा
बनकर विजय के लिए प्रयत्न करता ह; ठीक इसी तरह वह परुष ( जीवात्मा )
आओ "तच्वमसि' ( छा० उ० ६।८।७ ) आदि श्रुति के द्वारा अपने मिथ्याभाव
( दुरित ) को त्याग का ब्रह्य ही बन जाता है ॥\ ५८ ॥
एतेनैतत्पत्युक्तं यदुक्तं परेः-- कि दरयोस्तादात्म्यमेकस्य
वा १ नाद्यः। अद्धैतभङ्गपरसङ्गात् । न द्वितीयः । असंभवात्!
इति । तत्र । अविदयापरिकल्पितमेदनिवृत्तिपरत्वेन तच्चमस्यादि-
तादातम्यवादप्रामाण्योपपत्तेः । तो च पर्वनुयोगपरिहारावग्रा-
हिषातां मनीषिभिः ।
५९. न द्रयोरस्ति तादात्म्यं न चैकस्याद्यत्वतः ।
अप्रामाण्यं श्रतेरेवं नारोपध्वंसमात्रतः ॥ इति ।
इसी तकं के द्वारा इसका उत्तर भौ रो गया, जो विरोधि्यो ने एेसौ दका
की है-' [अत्मा भौर ब्रह्मका तादात्म्य कहने से आप क्या स मञ्षते ह?
दो पदार्थो का तादात्म्य ( [तिला ) या एकं ही पदाथंका? दो पदार्थो
करा तादात्म्य नहीं मान सकते क्योकि [ "दो कहने से --भले ही वहु एकाकार
ही बयो न हो जाय ] अद्रेत-सिदधान्त का ही खंडन हो जायगा । दूसरी ओर एक
वस्तु का तादत्म्यि हो ही नहीं सकता ।'
समाधान--रेसी बात नहीं है । अविद्या कै द्वारा कटि्पित भेद की निवृत्ति
हो जाने का सिद्धान्त मानने से, "तत्त्वमसि" आदिके द्वारा तादात्म्य-शब्द की
सदधि हो सकती है ।
विद्धानों ने उक्त पयंनुयोग ( भ्रस्न, (20९४ ) तथा परिहार ( ६९०५९ },
दोनो का वर्णन किया है--“अद्रय-तर ब होने के कारण न तोदोमेंही तादात्म्य
हो सकता ओौरन एकमेंटी। केवल आरोप ओर उसके ष्वंससे श्रुति को
अप्रामाणिक नहीं कहा जा सकता ॥ ५० ॥}*
( २६. ्रथम सूज का उपसंहार ओर अुबन्ध )
ततश्च तच्वमसीति तचंपदाथेश्रवणमननमावनाबलथेवा
# €
शांकर-दशंनम् ८८६
साक्षात्कारेणाना्यविदयानिवृत्तौ सच्चिदानन्देकरसत्रह्मावि भावः
संपत्स्यत इति ब्रह्मणो जिज्ञास्यत्वं प्रथमधत्रोक्तं युक्तम् ।
६०, अक्ञातं बिषयो ब्रह्म ज्ञातं तच्च प्रयोजनम् ।
ुधक्षरधिकारी स्यास्संबन्धः शक्तितः श्रुतेः ॥ इति ।
उसके बाद, "तत्वमसि" वाक्य मे तत् (ब्रह्म) भौर त्वम् ( जीवात्मा)
चदोंसे अथंका श्चव्रण, मनन ओर भावना ( {601४९०0 ) के कारण
सुप्रतिष्ठित साक्षात्कार से, अनादि काल से चली अनिवाली अविद्या को निवृत्ति
हो जातीदहै। तब एकमात्र सत् ( (प्प) }), चित् { (01086101) 688 )
ओर आनन्द ( 131:98 ) के दारा आस्वादित ब्रह्म का आविर्भाव ( साक्षात्कार )
संपन्न हो जायगा--इस प्रथम सूत्रम जोब्रह्मको जिज्ञासाका विषय माना
गया है, वह युक्तियुक्त है ।
असरवन्ध-- जिज्ञासा का विषय ब्रह्म अज्ञात है उसेज्ञात करनादहै,
यही भ्रयोजन है! मोक्ष कौ इच्छा रखनेवाला व्यक्ति अधिकारी है ओर श्रुति
की [ पदाथंबोधिका ] शक्ति से संबन्ध है ॥ ६० ॥'
( २६ क. चतुस्सूत्री के अन्य सूज --स्वरूप ओर तटस्थ लक्षण )
(जन्माद्यस्य यतः) ( त्र° घरू° १।१।२ ) इति द्वितीयश्तर
ब्रह्म स्वरूपलक्षणतटस्थलक्चणाभ्यां न्यरूपि । तत्र स्वरूपान्तग-
तते सति व्यावर्तकं स्वरूपरक्षणं “सत्यं ज्ञानमनन्तं ब्रह्म ( त°
२।१।१ ) इत्यादिवेदान्तेः प्रतिपादितम् । तस्य सत्यज्ञाना-
द्ात्मकस्वरूपान्तर्मतत्वे सति व्यावतेकत्वात् । तटस्थलक्षणं
ध्यतो वा इमानि (तं० २।१) इत्यादीनि वाक्यानि निरूपयन्ति
जगज्जन्मादिक्रारणसेन । तदुक्तं विवरणे--
६१. जगज्ञन्मस्थितिध्वंसा यतः सिध्यन्ति कारणात् ।
तस्स्वरूपतटस्थाम्यां रक्षणाभ्यां प्रदश्येते ॥ इति ।
- 'जिससे इस ( संसार ) के जन्मादि होते दै" ( ब्र° सू° १।१।२ ) इस दरे
सूत्रम स्वह्प-लक्षण ओौर तटस्थ-लक्षणके दवारा ब्रह्मका निरूपण किया गयाहै।
स्वरूप के अन्तर्गत रह कर जो [ लक्षण किसी दस्तु को दूसरी वस्तुओों
चे | अलग करता है वह स्वूपलक्षण॒ ( ‰.५४५९] 126 ण ) है
८६० सर्वदशनसंग्रहे-
जिसका प्रतिपादन निम्नलिखित उपनिषद्-वाक्यों मे हा है--श्रह्य सत्य, ज्ञान
मौर अनन्त है" ( तै० २।१।१ ) । यह लक्षण ब्रह्म को सत्य, ज्ञान आदिके
हप में स्वहूप के अन्दर ही रखता है तथा दूसरों से पृथक् करता है । तरस्थ-
लक्षण ( 8९18] [शीण ठप ) का निरूपणा "यतो वा इमानि! (जिससे
ये सारे पदाथ उत्पन्न हुए ) आदि वाक्य करते है कि यह ब्रह्य संसार का कारणा
है। इसे विवरणामें [ द्वितीय सूत्रके आरंभे ही | कहा गया है--' जिस
कारणास्वरूप ब्रह्म से जगत् का जन्म, स्थिति बौर ध्वंस, ये सिद्ध होति है उर्तका
प्रदर्शन स्वरूप-लक्षणा ओर तटस्थ-लक्षण के द्वारा किया जाता है ।'
विरोष- स्वरूपलक्षण से वस्तु के स्वरूप का पता लगता जबकि
तटस्थलक्षणा लक्षय वस्तु से बाहर रहता है । दोनों लक्षण व्यावृत्ति करते है,
पाथं के व्यवहार के प्रवतंक होति ह। चन््मामें प्रकाश होना स्वरूपलक्षण
है, उते उससे पृथक् नहीं कर सकते । राम का तिलक लगाना, मुकूट पहरना
आदि तटस्थलक्षणा है क्योकि यद्यपि यह दृश्य कभी-कमो ही होता है किन्तु
इसके द्वारा रामको दूसरे व्यक्तियों से पृथक् तो करिया जा सक्ता है ? नाटक
मे नटजो भीम की भूमिका (०1९) म उत्तरता है तो भीम बनना उसका
तटस्थलक्षण है क्योकि यद्यपि इसके द्वारा उसे दूसरे पात्रों से पृथक् किया जाता
है, परन्तु यह उसका स्वरूप तो हि नहीं। नटके रूपमे उसे पहचानना स्वल्प
लक्षण है। ब्रह्मम इन लक्षणों के निरूपण मे यहं ध्यान रखना है कि किस
प्रकारके ब्रह्मका लक्षण कर रहे दै। शुद्ध ब्रह्म का स्वूपलक्षण है-- सत्य,
ज्ञान ओर आनंद । जगत् के जन्मादिका कारण होना गुद्धजब्रह्म का तटस्न-
लक्षण ह क्योकि ब्रह्य माया से विशिष्ट होने पर ही यह काम करता है। माया-
विशिषं ब्रह्म के लिए यह तटस्थलक्षण नहीं, स्वरूपलक्षण हो जाता है ।
{शाद्योनित्वात्' ( ° घ १।१।३ ) इति तृतीयघत्र
प्रथमवर्णकेन पष्टीसमासमाभित्य सवेजञतवं प्रत्यपादि । दितीयव-
केन वद्ु्ीदिसमासमभ्युपगम्य ब्रह्मणो वेदान्तम्रमाणतं
प्रत्यज्ञायि ।
'शाल्र का मूल या शाख्रपूलक होने के कारण | ब्रह्य सर्व॑ज्ञ है |'--इस
तृतीय सूत्र में पहली रीतिसेतो [ शंकराचायं ने ] षष्ठो तद्परुष समास लेकर
( = शाख का मूल, वेदों का उत्पादक ) ब्रह्म के सवंज्ञ होने का प्रतिपादन किया
है) दूसरी रीति से बहुत्रीहि समास लेकर ( = शाख या वेद ही जिसका
प्रमाणा या योनि है ) ब्रह्म को उपनिषद् के प्रमाणो से ही ज्ञेय माना है।
शांकर-दशेनम् ८६१
€तत्त॒ समन्वयात्" ( ° घ १।१।४ ) इति चतुर्थे त्र
प्रथमवणेकेन वेदान्तानां ब्रह्मणि तात्पयं प्रत्यपादि । द्वितीय-
वणकेन वेदान्तानां प्रतिपत्तिविधिशेषतया ब्रहमप्रतिपादकत्वं
प्रत्यक्षेऽपि । दिङ्मात्रमत्र प्रदर्ितम् । शिष्टं शाख एव स्पष्टमिति
सकलं समञ्जसम् ॥
इति श्रीमत्सायणमाधवीये सवेदशनसंग्रहे सकलदशेन-
शिरोऽलंकाररतं श्रीमच्छांकरदशेनं समाप्तम् ॥
क
उस ( शास्र ) का तो तात्पयं समन्वय ( {\€५०7161118.॥107 ) से लगता
है--इस चौथे सूत्र मे प्रथम रीति से उपनिषदू-वाक्यों का तात्पयं ब्रह्म में है,
यह प्रतिपादित हु है। दूसरी रीतिसे यह दिश्वाया गया है किं उपनिषद्-
वाक्य ज्ञान-विधि के अवशिष्टभागके ख्पमे ( = उपासना आदि विधियोंके
विषयके रूपमे नहीं, मुख्य रूप से ) प्रत्यक्ष मे भी ब्रह्म का प्रतिपादन करते
ह। यहाँतो हमने केवल दिकश्षा-निर्देश क्रिया है। अवशिष्ट भाग शालरमें ही
स्पष्टहोचुकादहै, तो सब कुदटीक रहै)
इस प्रकार श्रीमान् सायण-माधव के सवंद्लंनसंग्रह गे सभी दशंनों के
सिर पर विराजमान अलंकार-रत्न श्रीशांकर-दश॑न समाप्त हुआ ।
यह सवं दशंनसंग्रह॒ भी समाप्त हो गया ।
। इति बालकविनोमाशङ्कुरेण रचितायां सवंदशेनसंप्रहस्य प्रकाशाख्यायां
व्याख्यायां शांकरदर्चनमवसितम् ॥
रम्ये चन्द्रकराशभ्रपक्चसुमिते श्रीवेक्रमे वत्सरे
वेशाखे धवल्ञे दले निदि मयाश्टम्यां दिने मङ्गले ।
काश्यां द् शेनसंग्रहस्य विदिता व्याख्या समाति चिता
्रीव्ये सास्तु शिवस्य दिव्यवपुषो दीनात्मनीना कृति; ॥
॥ श्रीरस्तु ॥
त जि ति ति तं
> © © %
समाप्तोऽयं सबेदश्चेनसंग्रहः ।
परिशिष्ट-१
परसुख दान-ग्रन्थो की सुची
ग्रन्थ रचयिता विषय समय
अकाण्डताण्डव (परिभषेन्दु-
शोखर की वृत्ति) हरिनाथ द्विवेदी व्याकरण १७८० ई~
अकुतोभया ( माध्यमिक-
कारिका की वृत्ति ) नागाज्ञंन बौद्ध-दशेन १५०
अजडग्रमातृसिद्धि उत्पलाचायं प्रत्यभिज्ञा ९१०
अद्रेतचन्द्रिका ( भेदधि-
कार की टीका नृसिंह दीकछिति अद्वेतवेदान्त १६००
अद्रेतचिन्तामणि रङ्गोजीभट 9) १६२.
अद्रेतदीपिका नृसिहाश्रम ^ १५५०
अद्रेतदीपिकाविवरण नारायणाश्रम » १५६०
\- सद्ा नन्द् 9 9१
अद्ेतनिणंयसंग्रह रामचन्द्र 9१ १५६५५
9 अ ११ 9१ ११
अदेतवरह्मसिदधि सदानन्द १, १,५६०
अदतमकरन्द् रुचमीधर ११ १३२०
अद्रेतमकरन्द् की टीका पूर्णानन्दतीथं २, ~
अद्रेतरल लचमणाराध्य विशिष्टद्रेतवेदान्त -
अद्रुतरलदीपिका (अद्रतरत् की टीका) अच्चिहोत्रभट + ` -=
अद्तरल्नरक्षण मधुसूदनसरस्वती अद्ेतवेदान्त १५६०
अद्रुतरहस्य रामचन्द्र १ १५५६५
अद्वेतसिद्धि मधुसूदनसरस्वती » १५६०
अद्रेतसिद्धिटीका विद्टकेश उपाध्याय १) १८००
अद्रेतसिद्धिसिद्धान्तसार
( अद्रेतसिद्धितात्पयं ) सदानन्द् व्यास 9 ४
अद्ेतानुभूति गो विन्दपाद् १) ७4०
अद्रेतासरतवर्षिणी सदाशिवानन्दसरस्वती नः
अद्वेतामोद वासुदेवजाखरी अभ्यकर » १९२०
अध्यात्मकल्पद्वुम मुनिसुन्दर मीमांसा १४२
अध्यार्मकचन -- द्वेतवेदान्त +
अनुभवदीपिका ( अपरोक्ञा-
लुभव की टीका ) चण्टेश्वर अद्रेतवेदान्त न
८६४ सबेदशेनसंमरदे-
ग्रन्थ रचयता विषय
अनुभूतिप्रकाञ्च माधवाचार्य अद्रतवेदान्त
अन्वया्थंप्रकाशिका ( सं्ेप-
शारीरक की टीका) रामतीथं #
अपरोक्तानुभव शंकराचायं 9
अपरोन्ञानुभव की टीका नित्यानन्दानु चर %
अपरोक्तानुभूति माधवाचायं ध
अभिधमंपिटक शाक्यमुनि वौद्ध-द्शेन
अभिधर्मंकोहा की टीका वसुमित्र 9१
+ गुणमित्र (गुणमति,
अभिधमंकोशबग्याख्या यशोमित्र %
अभिध्ममहाविभाषाश्चाख
( ज्ञानप्रस्थान की टीका ) अश्वघोष १
अभिनवचन्द्रिका ( तस्व्रका-
शिका की टीका ) सत्यनाथयति द्वेतवेदान्त
अभिनवतकंताण्डव # 9
अभिनवाद्धृत ( प्रमाणपद्धति
की टीका ) १ 1.
अभेदाखण्ड चन्द्रमा आत्मदेवपञ्ञानन अद्वेतवेदान्त १७२०
अतसति ( प्रक्रियाकौमुदी की
व्याख्या ) वारणावते व्याकरण --
अभ्बाकत्रीं ( परिभषेन्दुशोखर
की रीका ---- ५ १८००
१ » (वाक्यपदीय की टीका) रघुनाथज्ञाखी ११ १९६०
अर्थदीपिका ( वेदान्तपरिभाषा की
टीका ) शिवदत्त अद्रेतवषद् १८१०
अर्थश्चाछिनी ( धमंसंग्रहणी की
टीका ) बद्धघोष बौद्ध.दशंन ४००
अथंसग्रह ल्टौगा्तिभास्कर मीमांसा १६४०
अर्थसंग्रह की टीका अज्ञंनमिश्च » १६७०
११ शिवयोगी १ १६७५
अवदानकल्पलूता सतेमेन्द्र बौद्ध-दशंन १०८०
जवदानङ्ातक नन्दीश्वर ?१ १७०
अष्टशती (आप्तमीमांसा की टीका) अकलङ्कदेव जेन-दशशन ७५०
अष्टसाहस्री ८ प्रज्ञापारमिता कौ
टीका ) - बौद्ध-दशेन --
अष्टसाहस्री ( आक्तमीमांसारंकार ) विद्यानन्द जेन-दशंन ८००
2
र
मन्थ
अहिवुंधन्यसंहिता
आगमप्रामाण्य
आग्नेय
आचाराङ्गसूत्र
आचाराङ्गसूत्र की टीका
आत्मतस्वविवेक
आत्मतच्वविवेक की टीका
११9
9१
आत्मबोध
आत्माचुज्ञासन
आत्मानुश्ासन की टीका
आदे
आदे ( महाभाष्य की टीका )
परमुखदशेनग्रन्थाः
रचयिता
यामुनाचार्य
महावीर
शीखाङ््
उदयन
मथुरानाथ
वधमान
हरिदासमिश्र
शंकराचायं
गुणभद्र
प्रभाचन्द्र
आदृंकार
खचमणसूरि
आक्षपरीक्ता (आक्षमीमांसा की टीका) चिद्यानन्दि
आप्तमीमांसा `
आप्तमीमांसाख्कार
आप्तमीमांसावरृत्ति
आरम्भसिद्धि
आम्बनपरीक्ता ( सटीक )
समन्तभद्र
विद्यानन्दि
वसुनन्दी
उदयप्रभदेव
दिङ्नाग
आल्टोक (शाखदीपिका की व्याख्या) कमलाकर
आवश्यकसूत्र
आवश्यकसूत्र की टीका
इन्द्रद्यस्नश्चुति
ईंडशावास्यदीपिका
ईंशावास्यभाव्य
9१
इंशावास्यरहस्य
99
ईश्वर प्रव्यभिज्ञाहृदय
ईश्वरसिद्धि
उज्ज्वला ( तकंभाष्य की टीका )
उत्तरतन्त्र
उत्तराध्ययनसूत्र
उद्ाल्कश्चति
महावीरस्वामी
तिलकाचायं
शंकरानन्द
उञ्वट, आनन्द्भटर
८६४
विषय समय
विशिष्टाद्वैत
विशिष्टाद्रतवेदान्त --
११ १०८६०
द्वेतवेदान्त
दरतवेदान्त
ई० पूर १२००
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जन-दशन त
५ ९६०
न्याय-दर्शंन ९८४
99 ५११८०
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जन-दशंन ९००
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व्याकरण 8
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मीमांसा ९५५९०
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4 ९२.९५०
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अद्रतवेदान्त १३२५
अनन्ताचायं, नारायण व
ब्रह्मानन्दसरस्वती
रामचन्द्र
क्तेमराज
उत्पलाचायं
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असङ्ग
प्रव्यभिज्ञा-द्ंन १०२५
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बौद्ध-दशंन ३२०
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८६६ सवेदशेनसंम्रहे-
ग्रन्थ
उद् द्योत ( महाभाष्यप्रदीप
की टीका)
उदुद्योत ( कौस्तुभ की व्याख्या )
उपक्रमपराक्रम ( मेदधिक्रार
की टीका)
उपदेशचिन्तामणि
उपदेशसाहस्री
उपदेशसाहस्री की टीका
9
उपनिषद्धाष्य
उपनिषद्धाष्य की टीका
उपनिषद् भाष्य
उपनिषद् भाष्यविवरण
उपनिषद् भाष्य
उपनिषद्वृत्ति
उपनिषद् व्याख्या
उपन्यास (श्रीभाष्य की टीका )
उपस्कार ( कणादसूत्र की वृत्ति )
उपाधिखण्डन
उपासनाध्ययन
उपासनाधभ्ययन की टीका
ऋग्भाष्य
ऋजुविमला ( ब्रहती कौ व्याख्या
कणाद्रहस्य ( कणादसूत्रभाष्य
की टीका)
कणादसूत्र
कणादसूत्रभाष्य
कणादसूत्र की वृत्ति
=-=
कमस्श्ुति
करणागम
कपूरवातिक ( शाखदीपिका की
व्याख्या )
रचयिता
नागेद
बालम्भट्ध
अप्पयदीक्तित
जयशरोखर
ङाङ्कराचायं
आनन्द्राम
रामतीथं
शङ्कराचायं
आनन्दगिरि
आनन्दतीथं
व्यासतीर्थं
रङ्गरामानुज
कूरनारायण
राघवेन्द्रयति
चण्डमारुतमहाचायं
शाकरमिश्र
£
आनन्दतीथं
समन्तभद्र
प्रभाचन्द्र
आनन्दतीर्थ
शालिकनाथ
शकरमिश्र
कणाद्
प्रशस्तपाद
नागेश
चन्द्रकान्त
जयनारायण
भरद्राज
आनन्दतीथं
मृगेन्द्र
सोमेश्वर
विषय समय
ञ्याकरण ९७१४
9१ १७१०
अ
अद्रेतवेदान्त १६६०
जेन-दशंन १५००.
अद्भतवेदान्त ८००
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9१ ८ १०.
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विशिष्टाद्रतवेदान्त १११०
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्रेतवेदान्त ११७०
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जेन-दशेन ८२५
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मीमांसा ७९०
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वेशोषिक ४५०.
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शंव-दशन --
मीमांसा १९५००.
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प्रमुखद शेनघ्रन्थाः
८६५
समय
११७०
१७.49
१२.५०
जेन-द्षन २०० ई० पू०
ग्रन्थ रचयिता विषय
कमनिणंय आनन्दतीर्थ द्वेतवेदान्त
कला ( रघुमञ्जृषा को टीका ) वालुभदटर व्याकरण
कलपतर ( भामती की टीका) अमलानन्द् अद्भेतवेदान्त
कल्पलता ८ प्रौढमनोरमान्याख्या ) कृष्णमिश्र व्याकरण
कल्पसूत्र भद्रबाहु
कल्पसूत्र की टीका ( सुबोधिनी) -- %
» (कल्पावलोकिनी ) - %
कामधेनु बोपदेव व्याकरण
कामिकागम खगेन्द्र दोव-दर्शन
काला्चिरंद्रो पनिषद् -- १
कारोत्तरोपनिषद् - १
काशिका ( श्छोकवारतिक की
व्याख्या ) सुचरित मिश्र मीमांसा
काञ्ञिका ( पाणिनिसूत्र की वृत्ति ) जयादिस्य ओर वामन व्याकरण
काशिकावृत्तिसार वासुदेव १
कापायणश्चति वासुदेव द्ेतवेदान्त
किरणप्रकाह्च ( वाक्यपदीय की
व्याख्या ) हेाराज व्याकरण
किरणागम मृगेन्द्र दोव-दर्शन
किरणावली (कणादसूत्र भाष्य टीका) उदयन वेशेषिक
किरणावटीग्रकाश्च वधमान +
किरणावरीभास्कर पद्मनाभ 9
कुङ्कमविकादा (न्यास की व्याख्या) शिवभट व्याकरण
कुञ्चिका (लघुमञ्ृषा की टीका) कृष्णमिश्र »»
कुसुमाज्जरि ( सूत्र की वृत्ति) गागाभह मीमांसा
कमं पुराण (पूर्वाधं ५२) - पाश्यपत-द्शंन
कृष्णाद्तमहाणंव आनन्दतीर्थ द्रेतवेदान्त
कृष्णा्तमहाणंव की टीका व्यासतीथं १,
करष्णालद्भार (सिद्धान्तटेश की टीका) अच्युतङ्कष्णानदतीथं अद्वेतवेदान्त
केयरप्रकाश्च (भाष्यप्रदीप की टीका) नीखकण्ठ व्याकरण
कैवल्यदी पिका (सुक्ताफल की टीका) हेमाद्रि अद्वेतवेदान्त
कैवल्योपनिषदहीपिका ङंकरानन्द् »
कौटरग्यश्चुति -- देतवेदान्त
कौुदी (तकभाषा की टीका) दिनकर न्याय-दहन
कौमं -- दवेतवेदान्त
कौरिकश्चति - »
कोषीरवश्रति न्न %
५७ स सं०
१६७०
८७०
९८४
¶ १.५०
¶ ७.49
१९५.२०
११७०
१२६०
१६९६०
५६४०
५२७०
१३२१९
॥ 1.1.41
सय ` स्वेदशनसंग्रहे-
ग्रन्थ रचयिता बिषय समय
क्रियासार (बरह्मसृत्रभाष्यतात्पये) नीलकण्ठ रोवदर्शन १६५०
खण्डनखण्डखाद्य श्रीहर्षं अद्रतवेदान्त ११९०
खण्डनखण्डखाद्य की टीका चिरसुख ११ १२२५
% ` रघुनाथ ११ --
+ जोकर मिश्र १ --
गणकारिका हरदत्त पाशुपत --
गणपाठ पाणिनि व्याकरण ५०० ई० पू०
गणरत्नमहोदधि (गणपाठ टीका) वधमान » ११४०
गण्डभ्यूह - बौद्ध दलेन न
गदा ( परिभाषेन्दुशेखर की टीका) बारुभद व्याकरण १७५०
गदाधरी ( तत्वदीधिति की टीका) गदाधर न्याय-द्दांन १५५६०
गन्धहस्तिमहाभाष्य ८ तच्वाथंसूत्र
की टीका) समन्तभद्र जेन-दर्शन ६००
गाथाषष्टिसहस्र पञ्चशिखाचायं सांख्य-द्ञेन --
गारुड = देतवेदान्त -
गीता दीका अभिनवगु् अदधैतवेदान्त १०००
१ रामकण्ट प्रत्यभिज्ञा ९५०
१, शंकरानन्द अद्रतवेदान्त १३२५
गीतातात्पयंनिणय आनन्दतीर्थ द्वेतवेदान्त ५९१७०
गीताभाष्य शंकराचायं अद्रेत-वेदान्त ८९०
गीताभाष्य की दीका आनन्दगिरि 9 ८२५
गीताभाष्य रामानुज विशिष्टादवेतवेदांद १०५०
१ आनन्दतीर्थ दरेतवेदान्त ११७०
+ विष्णुस्वामी + ~~
गीतार्थसंग्रह याञुनाचायं विशिष्टादरेतवेदान्त ५०४०
गृढभाववृ्ति (कौमुदी की व्याख्या) राम चन्द्र शेष व्याकरण १५६०
गृूढा्थतत्वालोक ( गृढाथंदीपिका
की टीका) बच्चा रामां अद्धत-वेदान्त --
गृढार्थदीपिका ( गीता की टीका ) मधुसूदन ५ ` १५६०
गूढार्थ॑दीपिका (योगसूत्र की वृत्ति) नारायणभिच्ख यो ग-द्शंन १६००
गृढा्थदीपिनी ( सूत्र की वृत्ति) सदाशिव मिश्र व्याकरण १६७०
गृढारथप्रकाश ( शेखर की टीका ) वासुदेव श्ाख्ी व्याकरण १८९०
गौडव्रह्मानन्दी ( अद्रेतसिद्धि की
टीका ) ब्रह्मानन्द १ --
गौतमसूत्र की वृत्ति जयन्त न्याय-दहंन ८८०
गौपवनश्चुति न देत-वेदान्त --
चण्डमारुत (शतदूषणी की टीका) चण्डमारुतमहाचायं विशिष्टादरेतवेदान्त १४१०
रचयिता
ग्रन्थ
चतुरश्रति
चतुन्थी ( अद्रेतसिद्धि की टीका ) अनन्तशाख्री
चचततुबदशिखा
चन्द्रकला ( लघुशब्देन्दुशञेखर की
व्याख्या ) मेरवमिश्
चन्द्रिका जयतीर्थं
# व्यासतीर्थं
% ( तंकसंम्रह की टीका ) सुक्न्द्भट
( नेऽकम्यसिद्धि की टीका ) ज्ञानोत्तममिश्र
" ( सांस्यकारिकामाष्य की
टीका ) नारायणतीरथं
चिच्चन्द्रिका ( परिभाषेन्दुशोखर की
टीका ) विष्णुभद्
चित्तविशुद्धिप्रकरण आयंदेव
चिदस्थिमाला ( लघुश्ञब्देन्दुशेखर
की व्याख्या ) बारुभटर
चिन्नभदटरी ( तकंभाषा टीका ) चिन्न भटर
चिन्ञभट्ी की टीका वेङ्कटाचायं
छाया (भाष्यप्रदीपोद् द्योत की टीका) बारुंभदट
छाया ( योगसूत्र की चृतति) नागेश
जयतीथंग्रन्थ की टीका व्यासतीर्थं
जयधवला --
जयसंहिता ---
जागदीश्शी ( तत्वदीधिति की
टिप्पणी ) जगदीश
जागदीशी की टीका शंकरमिश्र
जीवन्मुक्तिप्रक्रिया सदानन्द
जीचन्सुक्तिविवेक माधवाचार्य
जमिनिसूत्र सेमिनि
जंमिनिसृत्र की बृत्ति उपवर्ष
१ हरि
१ मतंमित्र
++ भवदास
१? प्रभाकर
55 वाचस्पतिमिश्च
9 वेङ्कटाचायं
प्रमुखदशेनभरन्थाः
८६६
विषय समय
च
द्रत-वेदान्त -
अष्ट्रत-वेदान्त --
द्रेत-वेदान्त --
व्याकरण १७८०
द्ेत-वेदान्त १९७०
(= १२६०
वशोषिक १७१५
(
अदरत-वेदान्त --
साख्य ९१६००
व्याकरण ¶ ८४०
बौद्ध-दशंन २००
च्याक्ररण ९७.५०
न्याय -दकश्णंन १३५०
9 [
व्याकरण १७६० `
यो ग-दश्षंन १७२५
देत-वेदान्त १२६०
जेन-दशंन ९००
विशिष्टाद्रेत वेदान्त -
न्याय-दृ्ंन ५५९०
न्याय-द्र्शंन १६२५
च,
अद्रेत-वेदान्त १५६०
>, १ ३.५०
मीमांसा ५०० इं० पू०
9१ चै० १)
99 १०० 9१
| ----
^, ---
१9 ७७१
99 ८९१०
9१ १३६०
६०9 सबेदशेनसंग्रदे-
८--अन्थ रचयिता
जेमिनिसूत्र की वृत्ति वज्ञभाचायं
श भ्रीनिवासाध्वरि
११. कर विन्दस्वामी
१, लौगाक्िभास्कर
१ नागे |
समिनीयन्यायमालाविस्तर ¦
माधवाचाय
ज्ञानदोपिका श्रीपति
ज्ञान प्रस्थान कात्यायनीपुत्र
ज्ञानप्रस्थान की टीका अश्वघोष
्ानरत्नावली =
क्ञानसागरी (आवश्यकसूत्र की टीका) ्ानसागर
ज्ञानाणव शुभचन्द्र
ज्ञानार्णव की टीका नयविरास
ज्ञानो दयसारसग्रह
ज्यो तिष्प्रदीपिका (सूत्र की कृत्ति) खच्मणसूरि
उयोर्स्ना ८ कघुशब्देन्दुशोखर कौ
व्याख्या ) उदयंकर
ज्योरस्ना ( परमल्बुमजूषा कौ
व्याख्या ) काटिकाप्रसादं शङ्ख
इुपरीका (शाबरभाष्यवातिक) कमा रिभ मीमांसा ७६०
तस्वचन्द्र ( प्रक्नियाकौमुदी की जयन्त
व्याख्या ) ( मधुसूदन-पुत्र ) व्याकरण १५८०
तस्वचिन्तामणि गोश्च उपाध्याय न्यायदशेन ११७५
तश्वचिन्तामणि की टीका पच्तेश्चर + भत
"१ वधमान 9 १२२५
॥ वासुदेवसावंभोम » १२७५
तश्वत्रय रोकाचायं विशिष्टाद्रेतवेदांत १२८०
तस्वत्रयचुलुक नैनाराचायं » १४१५
१, श्री निवासाचायं 9» १७८०
तच्वत्रयचुटुक संग्रह कुमारवेदान्ताचायं » १४२०
तच्वनत्रयनिरूपण वरद्! चायं 9 ११२०
१ वरदनायक +» १६१०
तरवत्रयभाष्य वरवर १ --
तच्वन्नरयविवरण कुष्णपाद् ५ --
तस्वदीधिति ( तस्वचिन्तामणि
की टीका ) रघुनाथ न्यायदशेन १३००
& # १६
प्रमुखदशनमरन्थाः ६०१ ॥ (|
ग्रन्थ रच [यता [विषय समय | ¦ |
तरवदीपन (पञ्चपादिकाविवरण) अखंडानंदसरस्वती अद्भेतवेदान्त १५८० 47
तच्वदीपन स्वप्रकाशयति ॥ १३२० . #।॥
तत्वनिरूपण रम्यजामातृसुनि विश्िष्टादवेतवेदांत १४१० ॥
तच्वप्रकाडा भोजराज रोव १०६०
तच्वप्रकाशञ की टीका अधोरशिवाचायं ११५० 81
तरवग्रका्िका ( ब्रह्सूत्रभाष्य ५
की रीका ) सत्यनाथयति पूणभ्रज् १८०० |
तच्वध्रवो धिनी (तक॑भाषा की टीका) गणेशदीक्ित न्यायदृ्शंन - 61
तच्चवोधिनी ८ सिद्धान्तकौमुदी |
की व्याख्या ) ज्ञानेन्द्रसरस्वती व्याकरण १६७० 0
तच्वबो धिनी ( संकेपश्ारीरक ४.१।
ङी रीका) नृसिहाश्रम अद्रेतवेदान्त १५.५० ४६८
तत्वमज्ञरी राघवेन्द्रतीर्थं देतवेदान्त - (२
तत्वसुक्ताकलाप वेङ्कटनाथ ४1
(१२६०-९३६८) विशिष्टाद्वेतवेदांत १६२० 114
तच्वसुक्ताकरापकान्ति नेनाराचायं » १७१५ 101
तच्वसुक्ताकलाप की टीका वेङ्कटनाथ १ १३२० (|
तच्वविवेक (सिद्धांत विन्दु की टीका) पूर्णानन्दतीथं अद्रंतवेदान्त -- ॥|
तस्वबिवेक आनन्द तीथं दवेतवेदान्त १९७० ध
तच्वविवेक की टीका यदुपति १ १८०० 101
तच्वर्मैशारदी ( योगसुत्रभाष्य |.
की टीका ) वाचस्पति मिश्र योग ८४१ (1
तस्वरोखर लोकाचायं विशिष्टद्रेतवेद्ात १२८० 11
तस्वसंख्यान आनन्दतीर्थ देतवेदान्त १३७० 9
तत्वसंख्यान की टीका यदुपति ++ १८०० म
तच्वसंग्रह शान्तरक्तित बौदध-दशेन ७२० १
# नारायणसुनि ` विशिष्ट दवेतवेदांत ५४१५ 1)
१३ पं रोवदंन न | 19
तत्वसमाससृत्र कपि साँस्यदृश्ेन - # ॥ ।
तच्वसमाससूत्र की वृत्ति विभानन्द् १ -- 1
तच्वसार -- विशिष्टद्रेतवेदांत - । 1
तत्वसार् की टीका वीरराघव % १४०० ५/1
-तर्वादकष ( परिभाषेन्दुशेखर 1 |
की टीका ) वासुदेवशाख्री व्याकरण १८९० ॥ ॥\
तत्वानु सधान महादेवसरस्वती अद्रेतवेदान्त १७०० 2 /
तच्वानुसंधान की टीका शुकाचायं » १७६० ५
६०२ सबेदशेनसंग्रहे-
ग्रन्थ रचयिता विषय
तच्वाथंचिन्तामणि ( शिवसूत्र
की वृत्ति ) कल्चर प्रत्यभिज्ञा
तरवां की टीका व्याख्यारुङ्कार
( तच्वार्थाधिगमसूत्र की टीका ) अकलङ्कदेव जेन
तत्तवार्थ॑दीपिका ( तच्वार्थाधिगम-
सूत्र की टीका) श्रतसागर १
तत्वाथंसार अशतचन्द्र १
तच्वार्थसारदीपिका सकलकीरतिं १
तस्वार्थाधिगमसूत्र उमास्वाति %
तच्वार्थाधिगम की टीका विद्ुधसेन ५
99 सिद्धसेनगणि 99
तच्वारोक ( तच्दचिन्तामणि
की टीका ) जयदेवमिश्च न्यायदृर्शन `
तवालोक की टीका हरिदास मिश्र %
तच्वालोकरहस्य (तच्वचिन्तमणि
की टीका) मथुरानाथ १
त्वोपप्ल्वसिह अनितकेशकम्बकि चार्वाक
तच्वोद्योत आनन्द तीथं ्वेतवेदान्त
तथागतगुद्यक -- बौदधदश्ेन
तन्त्ररत्न पार्थसारथिमिश्र मीमांसा
तन्त्रवा्तिक कुमारिलभट १
तन्त्रवार्तिक की टीका मण्डनमिश् ११
99 कवीन्द 99
तन्त्रवार्तिक की रीका पालभट ०
५, कमलाकर ।
तन्त्रसार अभिनवगु् भ्त्यभिज्ञा
तन्त्रसार-संग्रह आनन्दतीथं देतवेदान्त
तन्त्राखोक अभिनवगुप्त 99
तन्त्रालोक की टीका जयरथ १
तरङ्गिणी (तक॑संग्रह की टीका) विन्ध्यश्वरीप्रसाद वेशेषिक
तकंकारिका जीवराज न्यायदशंन
तकंकौसुदी लौगाक्तिभास्कर वेशोषिक
तकंकौमुदी की टीका मो हनभद »
तकञ्वाला भावविवेक बौद्धद्दांन
तकंताण्डव व्यासतीर्थं द्वेतवेदान्त
तक॑ताण्डव की टीका
राघवेन्द्रती्थं
तकंदीपिका (तकसंग्रह की टीका ) अन्नंभट
व ' = अ कक क = चका = "+ =| १ कन्व र चा चण,
क ¶. `
7 १ च, > ` र ^, , र ~
परमुखदशेनग्रन्थाः
म्रन्थ रचयिता
तकंदीपिकाप्रकाश नीलकण्ठ
तकंप्रकार ( न्यायसिद्धान्त-
मञ्ञरी की टीका ) श्रीकण्ठ
तक भाषा केरावमिश्र
तकं भाषा की टीका गंगाधरभद्र् -
9१ गुड्भट्
99 न्ारायममट्र्
9 रामलिङ्
ॐ माधवदेव
१9 मुरारि
9) सिद्धचन्द्र
१) माधवम
तकंभाषाप्रकाड गोवधंन `
तकंभाषाविवरण शुभविजय
तकंमञ्री जीवराज
तकरहस्यदीपिका गुणरत्न
तकवार्तिक --
तकंवार्तिक की टीका श्ान्त्याचायं
तकंसम्रह अन्नभट
तकंसंग्रह की टीका मुरारि
तर्काम्रत जगदीश
तास्प्यदीपिका ( बेदा्थ॑सम्रह
की टीका ) सुदश्न
तात्पयंदीपिका (रहस्यमय की टीका) वीरराघव
तात्पयंदीपिका की टीका वीरराघवदास
२ अिस्वामी
ताव्पयंसंग्रह (शछारीरभाष्य की टीका) रामचन्द्रतीथं
तार्किंकरक्ता वरदाचायं
ताकिंकरन्ता की टीका ज्तानपूणं
तेत्तिरीयोपनिषदहीपिका डांकरानन्द
१ माधवाचायं
त्रिपथगा (परिभषेन्दुशेखरकीटीका) राघवाचायं
त्रिपिटक शाक्यमुनि
त्रिरोचनी (मुक्तावली की टीका) त्रिरोचन
त्रिशिखा (परिभाषेन्दुशेखर कीटीका) रुचमीनृसिह
त्रिषष्टिशलाकापुरुषचरित हेमचन्द्र
द्पंणा ( कौस्तुभ की व्याख्या ) हरिवल्लभ
विषय
वेरोषिक
न्यायद्शंन
चार्वाक
जेनदर्छन
वेशेषिक
न्यायदशंन
विशिष्टाद्रेतवेदांत
अहेतवे 9१
दान्त
न्यायदश्चंन
^,
।
अद्धतवेदान्त
9
व्याकरण
६०३
समय
१८३०
१,५३५५
१२.५०
१४७६०
१६.५१
१७१०
१७४०
१७.७०
१९.१.७०
१६१०
१४.९०
१६९०
¶७१०
१५९०
१२२०
१४६००
१४४७०
९१५९१२०
१०.६९०
१३२१
१३५०
१८१०
बोद्धदशन ४०० ई० पूण
वेदोषिक
व्याकरण
[~ *५
जेनदर्शंन
व्याकरण +
१७६९१
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6 सबेदशेनसंबहे-
ग्रन्थ रचयिता बिषय समय
दषपणा ( तकंभाषा की टीका) भास्कर न्यायद् शेन ~ `
दर्शनसमुच्यरूपतकञ्वाला भावविवेक बौद्धदशंन ६००
दशपदार्थीं ज्ञान चन्दर वेरोषिक ६००
दशभूमीश्वर -- बौद्धदशेन --
दशश्छोकी “ शांकराचायं अद्ेतवेदान्त ८००
दिनकरी ( सुक्तावरी की टीका ) महादेवं भौर दिनकर वैशेषिक १६९०
दिनकरी की टीका रामर्द्र १9 १७००
दिव्यावदान - बौद्धदर्षन त
दीधिति ( सूत्र की वृत्ति) राघवानन्द् मीमांसा १६००
दीपप्रभा (वाररच-संग्रह की टीका) नारायण व्याकरण --
दीपिका (ब्रह्मसूत्र की वृत्ति) कंकरानन्द् अद्ेतवेदान्त १३२५
दुर्गपद् (नन्दिसूत्र की व्याख्या) चन्द्रसूरि जेनदहांन 9१६०
दु घेटबरत्ति शारणदेव व्याकरण ११७०
दुघंटार्थप्रका्च (महाभारत-तात्पय- |
निणंय की टीका) सभ्याभिनवयति द्वेतवेदान्त --
इग्दश्य विवेक विश्वेश्वर अद्भैतवेदान्त १३२०
देवागमस्तोत्र समन्तभद्र जेनदर्शन ६००
दोषोद्धरण ( परिभाषेन्दुशेखर
की रीका) मन्तुदेव व्याकरण १७६०
दरव्यप्रकाशिका भगीरथमेघ न्यायदक्षंन १५५७०
द्वादशानुपरेत्ता कुन्द्कुन्द् जेनदरौन २५
धसंरत्नवृत्ति शान्तिसूरि % १२२०
धमंरत्नाकर जयसेन १ --
धर्म॑स्कन्ध शारिपुत्र बोद्धदर्ञन -
धर्मात आशाधर जेनदशशन ११७५
धात्तुकाय पूणं बौदधदशंन -
धाठुपाट पाणिनि व्याकरण ५०० ० पू०
धातुप्रकाड ( धातुपाठ की टीका ) बलराम + जै
धातुप्रदीप ( धातुपाठ की टीका) रकित 9 --
धातुरत्नमाला देधदत्त रसेश्चर १७५०
धातुवृत्ति ( धातुपाठ की टीका) माधव व्याकरण १३.९०
नन्दिसूत्र देवर्धिं जेन-दशन -
नयनग्रकाशिका (श्रीमाघ्यकी
` टीका) मेघनादारि विश्लिष्टाद्रेतवेदान्त -
नयनप्रसादिनी ( प्रस्यक्त्वप्रदी- |
` पिका की्टीका ) ` भ्रस्यक्स्वरूप अद्भंत-वेदान्त = ५५००
प्रमुखदशेनभ्रन्थाः ६०५
ग्रन्थ रचयता बिषय समय
नयप्रदीप यशो विजय जेन-द्षन १५००
नयोचयोत ( मा्ृदीपिका की टीका ) नारायणम मीमांसा --
नयो पदेशग्रकरण जय दिजय जेन-दृ्शंन १४९५०
नवतत्त्व -- + के
नवतत्व की टीका सोमसुन्द्र 9 १8११
नारायणतन्त्र --- दंत-वेदान्त =
नियमसार कुन्दकुन्द् जैनदेन २५
निष्कण्टक ( सप्तपदार्थी की टीका ) मलिनाथ वेलतेषिक १३५०
» ८ तार्किकरक्तषाकी टीका) ” न्याय-द्ंन »#
नेष्कम्यंसिद्धि सुरेश्वराचायं अद्रेत-वेदान्त ८२
न्यायकणिका ( विधिविवेक की
टीका ) दाचस्पतिमिश्न मीमांसा ८४१
न्यायकन्दली ( कणादसृत्र भाष्य
की टीका ) श्रीधर वरोषिक ९९१
न्यायकलिका जयन्त न्याय-दकंन ८८०
न्यायकल्परता जयतीथं द्वेतवेदान्त - | ॥
( ११९३१२६८ ) ॥ । |
न्यायकुसुमाञ्जलि उदयनाचायं न्यायदशंन ९८४ |:
| न्यायकुसुमान्नलि की टोका चचन्द्रनारायण २१ न 4
॥ वरदराज % १४०० 1.14
% वामध्वज » - ( |
स्यायकौमुदी ( तार्किकरक्ता की †
टीका ) विनायकभट » क ॥
न्यायचन्द्रिका ( माषापरिच्छेद् की ६
टीका ) नारायणतीर्थं वेशो षिक १६.९० ।
न्याय तात्पयं दीपिका ( न्यायसार ॥
की टीका) जयसिंह न्याय-दक्ञंन १ !1
न्यायतात्पयं मण्डन शोकरमिश्र १) ` १४२५ ८
न्यायदीप ( न्यायसूत्रेभाष्य कौ । ।
टीका) मित्रेमिश्र 99 ९.८० । 1
न्यायद्वारशान नागार्जुन बौ दध-दर्न १२५ । ॥
न्यायनिवन्ध प्रकाश (- न्यायवातिक- |
तास्पयंपरिशद्धिः की टीका ) वधमान १ १२२५ | |
न्यायनिर्णय (करीर भाष्य की टीका) आनन्दगिरि अद्धेत-वेदान्त ८२५ ५
न्यायनिर्णय (तकसंग्रह की टीका) - वरदो षिक भ
न्यायपरिशद्धि वेङ्कटनाथ विशिष्टद्भेतवेदुन्त १३२०
ङ सबेदशनसं्रे-
ग्रन्थ रचयिता विषय
न्यायप्रदीप ( तकंभाषाकोटीका) - न्यायदशेन
न्यायप्रवेश्च विङ्नाग बौद्ध-दशन
न्यायविन्दु ( सूत्रवृत्ति ) बालंभट्ट मीमांसा
न्यायविन्दु ध्म॑कीतिं बौद्ध-दरन
न्यायबिन्दु की टीका धर्मोत्तरं . ५;
१ मज्ञवाक्याचायं १
११ चिनीतदेव ११
+ शान्तमद् १9
न्यायबोधिनी (तकसं की दीका) गोवधेन वेशेषिक
न्यायभूषण भासवंज्ञ न्याय-दशेन
9१ वासुदेवकाश्मीरिक +
न्यायमकरन्द आनन्द्बोध अद्रतवेदान्त
न्यायमकरन्द् कौ टीका चित्सुख १.
न्यायमञ्जरी (गौत मसूत्र की वृत्ति) जयन्त न्याय-दृशेन
न्यायमञ्जरी % चार्वाक
न्यायमालाविस्तर माधवाचायं मीमांसा
न्यायमालाविस्तर (सृत्र की इत्ति) सोमेश्वर १
छन्तणावरी की
‹ = [ शाङ्गधर वेशेषिक
न्यायमुक्तावल अप्पयदीक्षित अद्रतवेदान्त
न्यायरस्न रघुनाथश्षाखी पवते न्याय-दशेन
न्यायरत्नमारा ( तन्त्रवातिक कौ
व्याख्या ) पार्थसारथिमिश्न मीमांसा
न्यायरस्नाकर (- श्छोकवातिक की
व्याख्या ) पार्थसारथिमिश्र »
न्यायरत्नावी वेङ्कटनाथ वििष्टद्रेतवेदान्त
न्यायरत्नावली ( न्यायसिद्धान्त
मञ्जरी की टीका ) वासुदेव न्याय-दृशेन
० 8 ब्ह्मानन्दसरस्वती अद्रे तवेदान्त
न्यायलीलावती बल भन्यायाचा्यं वेशेषिक
न्यायवार्तिकतास्पयं -- न्याय-दश्ेन
न्यायवार्तिकतारपयं की टीका वाचस्पतिमिन्न »
न्यायवार्तिकतार्पयंपरिशद्धि उदयनाचायं %
स्यायविरास (तकंभाषा की टीका) विश्वनाथ %
न्यायविवरण आनन्दतीर्थ दवेतवेदान्त
न्यायविवरण ( कृष्णाखतमह-
णव की दीका ) तम्मणाचायं ,
समय
८०.
१७.१०
६२५
८9
११६०
१२२५
&& 9
६&०
१३.५०.
११,९००
१६७०
५.८०
१८६०
प्रमुखदशेनम्रन्थाः
ग्रन्थ
न्यायवृत्ति
न्यायसार
न्यायसार (न्यायपरिशुद्धि की टीका) श्रीनिवासाचायं विशिषटद्रेतवेदांत
न्यायसिद्धाञ्जन
न्यायसिद्ाञ्जन की टीका
9१
न्यायसिद्धान्तदीषप
न्यायचिद्धान्तमञ्जरी
9१
9१
न्यायसिद्धान्तमज्ञरी की टीका
99
9१
न्यायचिद्धान्तमज्ञरीसार
न्यायसिद्धान्तमाला
न्यायसिद्धान्ताञ्जन
न्यायसुधा ( राणक, तन्त्रवार्तिक
की व्याख्या )
न्यायसुधा
न्यायसुधा की टीका
न्यायसूचीनिबन्ध
न्यायसूत्र
न्यायसूत्रभाष्य
न्यायसूत्रभाष्य की दीका
न्यायसूत्रभाष्यवा्तिक
न्यायसूत्रविवरण
न्यायसूत्र की वृत्ति
न्यायसूत्रोद्धार
न्यायानुसार
रचयिता विषय
अभयतिलक न्याय-दशन
भा स्वत्त 9
माधवदेव १
वेङ्टनाथ
(१२६७-१३६८) %
रङ्गरामानुज 9
क्रष्णतातायं %
शाराधर न्याय-दरान
चूडामणि »
जानकीनाथमभट्राचायं
श्रीनिवास ११
कृष्णवागीड +
नरिखो चनदेव 9
लौ गाक्तिभास्कर ५
यादव %
जयराम २
वागीश विशिष्टाद्ेतवेदान्त
सोमेश्वर मीमांसा
जयतीथं
( ११९३-१२६८ ) द्वेतवेदान्त
यदुपति +
वाचस्पति मिश्र न्याय-द्शंन
अत्तषपाद् 29
वात्स्यायन ०
विश्वनाथ ११
उद्द्योतकर ११
राधामोहन 9
चन्द्रनारायण २)
विश्वनाथ 9
नागेश
सुङ्न्द्दास =
वाचस्पतिमिश्न १,
असङ्गभद्र बौ द्ध-दशान
६०८ सबेदशेनसंम्रदे-
ग्रन्थ रचयिता विषय समय
न्यायालङ्कार श्रीकण्ड न्याय-द्छेन १०००
न्यायारोकसिद्धि चन्द्रगोमि बौद्ध-ददंन ६३५
न्यायावतार सिद्धसेनदिवाकर जेन-दरोन ४५०
न्यायावतार की रीका चन्द्रप्रभ सैन-दश्शंन ~
न्यास (काशिका को व्याख्या ) जिनेन्द्रबद्धि
। ( न्यासकार ) व्याकरण ८७५
स्यासतिलक वेङ्कटनाथ विशिश्ाद्वेतवेदान्त १३२०
| न्यासतिरूक की टीका कुमारवेदान्ताचायं १ १४२०
| पञ्चददी माधवाचायं अद्रैत.वेदान्त १३५०
पञ्चदशी की टीका रामक्रष्ण ११ १३७ *
99 सदानन्द 199 १५५६०
9 अच्युतराय » १८०१०
पड्पादिका (शारीर भाष्य की टीका) पद्मपादाचायं १ ८५५
पञ्चपादिका की टीका आनन्दपूणं १ १६००
१ ११ विद्यासागर ११ ध ।
पड्धपादिका-द्पंण अमलानन्द् 9 १२५०
पञ्चपादिका-विवरण प्रकाज्ञाव्मञुनि % १२००
पञ्चरात्र ८ नारद ) = विशिष्टद्रेतवेदान्त -
पञ्चरात्ररक्ता वेङ्टनाथ ११ १३२०
पञ्चाथंविद्या पशुपति पाश्युपत --
पञ्चाथंसूत्र नकुटीज् » -
पञ्चाथंसूत्र भाष्य राश्ीकर भट १ --
पञ्चार्थसूत्र भाष्य दीपिका - १ --
पड्धास्तिकाय ऊन्दकुन्द् जेन-दकशशंन २५
पञ्चारितिकाय की टीका अभ्रतचन्द्र ४) ९०५५
पदस्य ( तक॑सं्रह की टोका ) चन्द्रास वैोषिक --
पदचन्द्रिका कुष्णदोष व्याकरण ९५२०
पददीपिका (पञ्चपादिका की टीका) ध्म॑राजाध्वरीन्द्र अद्वेतवेदान्त १६००
पदपच्िका ( न्यायसार की टीका ) वासुदेव काश्मीरिक न्यायद्रन ---
पदमञ्जरी अनन्त ११ --
पदमञ्जरी ( काशिका की व्याख्या ) हरदत्त व्याकरण ८७५
पदव्यवस्थासूत्रकारिका विमल्कीर्तिं जेन-दक्शंन १६५०
पदार्थकौसुदी; वेदेश तीयं देतवेदान्त ~
पदार्थंखण्डन (पदार्थतस्वनिरूपण) रघुनाथभट न्यायदृ्ंन १३००
पदाथचन्द्रिका मित्रमिश्न ४१ ९५८०
पदार्थचन्द्रिका ( सक्षपदार्थी कौ 8 र
टीका ) । शाङ्गधर वेरोषिक १६७०
ग्रन्थ
पदार्थतस्वनिरूपण
पदा्थधमंस्रह ( भाष्य )
पदाथमाला
पदार्थंसंग्रह
पदाथंसंग्रह की टीका
परमलघुमज्ञषा
परमाव्मप्रकाड
परमार्मप्रकाङा की रीका
परमाथंसक्चति
परमाधंसार ( सटीक )
परमार्थसार
परमाथंसार की टीका
परमाश्रुति
पर त्रिशिकाविवरण
परिभाषाप्रकाड्य
परिभाषाप्रदीपाचि
परिभाषाभास्कर
परिभाषावृत्ति
99
परिभाषावृत्ति की टीका
परिभाषेन्दुरोखर
परिमल ( कलपतर की टीका )
परिशिष्टपवं,
परीन्ञा ( परिभाषेन्दुशेखर
की टीका)
परीक्ता ( वेयाकरणभूषण-
सार की टीका )
परीत्तामुख
११
परी्तामुखलघु की वृत्ति
प्रमुखदशेनग्रन्थाः
रचयिता
रघुनाथशिरोमणि
प्रशस्तपाद
लोगाज्तिभास्कर
पद्मनाभ
अनन्त
नागरा
श्री योगीन्द्र
लघुपद्मनन्दी
वसुबन्धु
आदिरेष
अभिनवगुक्ष
योगराज
अभिनवगुक्च
विष्णुराम
उदयश्ंकर
कुप्पुशाखी
व्याडि
सीरदेव
नीटकण्ठदी जित
शोषा द्विश॒द्धि
नागेश
अप्पयदीक्तित
हेमचन्द्र
इन्द्रापति
मेरव
माणिक््यनन्दी
वीरानन्द्
अनन्तवीयं
पाठकी (परिभाषेन्दुशेखर की टीका) पाठक
पाठकी ( रघुश्चब्देन्दुशेखर
की व्याख्या )
पाणिनीयदीपिका
पुरुषाथसिद्धथपाय
नीलकण्ठ
असरतचन्द्र
॑ &०&
विषय समय
न
वंशेषिक --
9१ [1
न्यायदृशंन १६२५
द्रतवेदान्त ज
9 [1
वणा १७१
जेनदर्शन र
^ १३.५०
वौदध.दशंन ३२०
अद्भतवेदान्त न
प्रत्यभिज्ञा-दरांन १०००
39 १०.१५०
न,
दरेतवेदान्त -
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ज्याकरण १७६०
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व्याकरण १७९५
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६१० सवंदशेनसंम्रहे-
न्थ रचयिता
पौच्रायणश्चुति ~
पौध्करसंहिता -
पौप्करागम पुष्कर
पौभष्यायणश्चुति -
भ्रकरणपञ्चिका शालिकनाथ
प्रकरणपाद् वसुमित्र
प्रस्यभिज्ञा
प्रकाश ८ जाखदीपिका की व्याख्या ) शंकरम
प्रकाश्च ( चन्द्रिका की टीका ) राघवेन्द्रतीथं
प्रकाश ( यतीन्द्रमतदीपिका वासुदेव शाखी
की टीका ) अभ्यंकर
प्रका (न्यायङुसुमाञ्जलि की टीका) वधमान
प्रकाश ( त्कभाषा की टीका) चेतन्यभट
प्रकाल ( तच्वचिन्तामणि की टीका )तकचूडामणि
प्रकाञ्च ( मुक्तावली की टीका) बालकृष्ण भह
प्रकाशिका ( सूत्र की घृत्ति ) रामकृष्ण
प्रका्धिका ( श्रीभाष्य की टीका) रचमणसूरि
प्रकाशिका (तार्किंकरत्ता की टीका) चृसिहरक्छर
परकादिका ( तकंभाषा की टीका ) कौण्डिण्यदीक्तित
१9 9१ बलभद्र
प्रकाशिका ( वाक्याचरृत्ति की टीका ) विश्वेश्वर
प्रक्रियाकौमुदी ८ सूत्र की वृत्ति) रामचन्द्र
प्रक्रियाकौमुदी की व्याख्या रामभद्र
99 9 रोषक्रश्ण
प्र्ञसिशाख मौद्गलायन
प्रज्ञापारमिता की टीका वसुबन्धु
प्रज्ञापारमितासूत्र शाक्यमुनि
प्रज्ञापारमिता ( शतसादचिका ) -
प्रज्ञा प्रदीप भावविवेक
प्रत्यक्तत्वदीपिका चित्सुख
प्रत्यभिज्ञाकारिका ( प्रस्यभिक्तासूत्र,
शिवदृश्टिसंकेप ) उत्पलाचायं
प्रव्यमिज्ञाविमश्चिनी ( रघुचरत्ति प्रव्य-
भिन्ञाचत्ति की टीका ) अभिनवगुष्च
प्रव्यभित्ाविच्रृति ( प्रत्यभिक्ञासूत्र
की टीका ) उत्पलाचायं
विषय समय
[।
दतवेदान्त -
विशिष्टद्ेतवेदान्त -
जोव-दर्लन भ
म, बरदान्त
द्रत --
मीमांसा ७९०
बौद्ध-दश्न ज
मीमांसा ¶ ७००
च,
दे तवेदान्त --
विश्िष्टाद्भेतवेदान्त १९११
॥*५
न्यायदर्शान १२२५
न्यायदशेन --
वंशोषिक --
मीमांसा १५५००
विशिष्टाद्रेतवेदान्त -
न्याय-द्रांन --
9१ ~ -- न
च
अद्धतवेदान्त १३२०
ञ्याकरण १४२०
99 १४६०
११ १५६०
बौद्ध ---
१५ ३००
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9१ ग्म
99 &० 9
अद्भेतवेदान्त ५२२५
प्रत्यभिज्ञा ९१०
9१ १०००
` ॐ ६१०
परमुखदशनग्रन्थाः
मन्थ रचयिता
परत्यभित्ाविचृति विमर्दिनी ८ बृहती
की चत्ति) अभिनवगुप्त
प्रत्यभिज्ञा की वत्ति ( प्रत्यभिज्ञान
सूत्र की टीका) उस्पलाचायं
मरदीप ( महाभाष्य की टीका) कैयट
दीपिका (आचाराङ्गसूत्र की टीका) जिनहंस
प्रपञ्चमिध्यात्वखण्डन आनन्दतीर्थ
प्पन्नाखत ( रामानुजाचायं चरित ) अनन्त
प्रबन्धचिन्तामणि मेरुतुङ्गः
प्रभा ( शाखदीपिका की व्याख्या ) बालभट
प्रभा ( कौस्तुभ की व्याल्या) राघवाचार्य
प्रभा (न्याय सिद्धान्तदीप की दीका) रोषानन्त
प्रभा ( तकंसंग्रह की टीका ) हनुमान्
प्रभावती (भाट्ृ-दीपिका की टीका) शंभुभट
प्रमाणचिन्तामणि हेमचन्द्र
प्रमाणनयतचालोकालंकार देवसूरि
ग्रमाणपद्धति जयतीर्थं
( ११९३-१२६८ )
ग्रमाणपद्धति-टीका सत्यनाथ यत्ति
प्रमाणपरीत्ता विद्यानन्द
प्रमाणलन्ञण आनन्दतीर्थ
प्रमाणवातिंक ( प्रमाणसञुच्चय
टीका ) ध्मकीतिं
प्रमाणाखभ्रवेश दिङनागाचारयं
ग्रमाणसमु्चय (सटीक) ॥
प्रनेयकमलमार्तण्ड प्रभाचन्द्र
प्रमेयरत्नमाला माणिक्यनन्दी
ग्रयोगरत्नमाला पुरुषो त्तम
ग्रबचनपरीक्ता धमंसागर
ग्रचचनसार कुन्द कुन्द
ग्रवचनसार की टीका अगरतचन्द्र
ग्रश्नोत्तरमाला अमो घवषं
प्रसन्नपदा ( माध्यमिक कारिका
की वृत्ति) चन्दकीतिं
प्रसाद् ((्रक्रियाकौमुदी की व्याख्या) विद्रल
म्रसादिनी ( तकंभाषा की टीका ) वारीश
म्रस्थानभेद
विषय
प्रत्यभिज्ञा
9१
व्याकरण
र, ७
जन-दशंन
च
द्रेतवेदान्त
विशिष्टाद्ेतवेदान्त
जन-ददांन
मीमांसा
व्याकरण
न्याय-दंन
[१
वंशो षिक
मीमांसा
च ©
जेन-दशंन
१
द्रेतवेदान्त
, £
जन-दुल्न
च
दरतवेदान्त
शै
बौद्ध-दर्शन
99
षै
न €
जन-दर्शन
१
व्याकरण
जेन
99
9११
बौद्ध-दुर्शन
व्याकरण
न्याय-दर्ञन
मधुसूदनसरस्वती अद्रेतवेदान्त
५१९१०
९५१००
९५९६०
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६१२ सवेदशेनसंमरदे-
ग्रन्थ रचयिता
प्रौढमनोरमा ( सिद्धान्तकौमुदी
की व्याख्या ) भटरोजीदीक्तित
प्रौढमनोरमाखण्डन चक्रपाणि
फक्किका (तकंसंग्रह की रीका) ्माकल्याण
बाखचयबोधिका
५
बालबोधिनी (आत्मबोध की टीका) नारायणतीथं
बारमनोरमा (कौमुदी की भ्याख्या) अनन्त
विन्दुशीकर (सिद्धान्तरेश की टीका) गंगाधर सरस्वती अद्वेतवेदान्त = १६५५
विषय समय
उ्याकरण ११.१.७८
वैशेषिक =
रसेश्वर --
अद्रतवेदान्त १६००
व्याकरण १६६०
बिन्दुसंदीपन (सिद्धान्त बिन्दु की
टीका पुरुषो त्तम सरस्वती १६२५
जु चरित अश्वघोष वबौद्ध-दंन १२०
बरहच्चन्द्रिका (अद्वैतसिद्धि की टीका) ब्रह्मानन्द् सरस्वती अद्वेत-वेदान्त = १५६५
दृहच्छब्देनदुशेखर ( कौसुदी की
व्याख्या ) नागेश व्याकरण १७१४
बहती ( शाबरभाष्य की व्याख्या ) प्रभाकर मीमांसा ७७५
बृहनत्तन्त्र ~ देत-वेदान्त क
ब्रहस्संहिता ~ % न
जहदारण्यकभाष्य बार्तिक सुरेश्वराचा्यं अद्वेत-वेदान्त ८२५
बरहदारण्यकभाष्य की व्याख्या रघृत्तमयति दवेत-वेदान्त ~
बृह इर्पणा ८ वेयाकरणभूषणसार
की टीका) मन्तुदेव व्याकरण १७६०
जहन्मज्षा नागेश 9१ १७१४
ल्हस्पतिसुत्र जहस्पति चार्वाक ~
बोधिचर्यावतार शान्तिदेव बौद्ध-दशांन ६५०
बोधिस्वयो गाचारचतुःशतक आयंदेव बौद-द्ंन ३००
बो धिसस्वावदानकर्पलता सतेमेन्द्र १ १०८०
बरह्मतकं - द्रेत-वेदान्त --
ब्ह्मविद्याभरण ( शारीरभाव्य की
टीका ) अद्धतानन्दं सरस्वती अद्भेत-वेदान्त १२२५
ब्रह्मसूत्र व्यास (बादरायण) वेदान्त -
बरह्मसृत्रतात्पयंविवरण भैरवतिलक अद्वेत-वेदान्त १७६०
बरह्मसूत्रभाष्य द्रमिडाचार्य विशिष्टाद्ेतवेदान्त -
+ रामायुजाचायं » (१०१९११३९) -
ब्रह्मसूत्रभाष्य ( जयती्थं व्यासतीथं
राघवेन्द्रतीथं कृत टीका सहित ) आनन्द तीथं
विष्णुस्वामी
ब्रह्मसूत्रभाष्य
द्वेत-बेदान्त = -११७०
न
अद्भंत-वेद्ान्त -
प्रमुखदशेनभ्रन्थाः
ग्रन्थ रचयिता
बरह्मसूत्रभाग्य श्रीकण्ठशिवाचायं
र रांकराचायं
बरह्मसत्रच््ति बौधायन
ॐ वाक्यकार
ब्रह्मसृत्रायुव्याख्यान विद्याधीश्
बरह्माखतववषिणी (ब्रह्मसूत्र की वृत्ति) रामानन्दसरस्वती
भगवद्रीता व्यास
भगवद्धीता की टीका रामकण्ट
9 शंकरानन्द
५, अभिनवगुप्त
भगवद्रीताभाष्य रामानुज
४, शंकराचायं
भवानन्दी ( तच्वदीधिति की दीका ) भवानन्दं
भागवततात्पयंनि्णय आनन्दतीर्थ
भागवततात्पयंनिणंय की टीका जनार्दनम
५ वेङ्करङ्ष्ण
भाटचिन्तामणि गागाभट
भाट्रदिनकर ( शाखदीपिका की
व्याख्या ) भट्रदिनकर
भाद्रदीपिका ( सूत्र की चृतति) खण्डदेव
भाटभाषाप्रकारा --
भाटभाषाप्रका्िका नारायणभट
भाट्रसग्रह राघवानन्द
भामती ( शारीरभाष्य की टीका ) वाचस्पतिमिश्
भारतभावदीप ( गीता की टीका ) नीरकण्ठ
भाल्ल्वेयश्चति स
मावचृडामणि विद्याकण्ट
भावदीप ( कौस्तुभ की व्याख्या ) कृष्णमिश्र
राघवेन्द्रतीथं
भावदीपिका (गीताभाष्य की टीका) श्रीनिवासतीथं
भावदीपिका ( न्याय सि द्धान्तमंजरी
की टीका) श्रीकरष्ण
भावप्रकारा (बह्मसूत्रभाष्यकी टीका) नरहरि
भावेप्रकाड (शब्दरत्न की व्याख्या) बालम
भावप्रकाशिका ( ब्रह्मसूत्रभाष्य
की टीका) भगवत्तीथं
भावप्रकाशिका (तकंभाषा की टीका) गोपीनाथटाङर
८ स सं
॥ 4, 9
६१३
.विषय समय
राव १३१५०
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अद्रत-वेदान्त ८१०
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99 १०००.
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अद्रत-वेदान्त ८००
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मीमांसा १५५५०
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सोवे-दरशन ८७०
व्याकरण १७६०
च,
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99 ९ २३ © ¢
न्याय-दृक्षन १७८०
(१
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च्यकरण १७५१०.
रेत वेदान्त भ
न्याय-दर्लन न
६१४ सवेदशेनसंग्रहे-
ग्रन्थ रचयिता
आवप्रकाशिका(आत्मवोध की टीका) बोधेन्द्र
भावविलासिनी सुरोत्तमतीथं
आवार्थदीपिका (तकंभाषा की टीका) गौरीकान्त
आषापरिच्छेद विश्चवनाथपञ्चानन
आष्यवारतिंक (शकरभाप्यताष्पयं) नारायगसरस्वती
आाष्यवृत्ति (आवश्यकसूत्र की टीका) हेमचन्द्र
आष्यसूक्ति ( कणादसूत्रनान्य
की टीका) जगदीश
भाष्योत्कषदी पिका धनपति
आस्करोद्या ( तकदीपिका-
प्रकारा की टीका) लचमीनृसिह
भूषण (भगवद् गीताभाष्य कौ टीका) भगवानदास
मेदधिक्छार नृसिहाश्रम
मेदोज्ीवन वादिराज
११ व्यासतीर्थं
सैमी (परिभाषेन्दुशेखर की टीका). भीमभ
सैरवी ( परिभाषन्दुशोेखर की टीका) भैरव
उपेन्द्र
मकरन्द ( पदमञ्जरी की व्याख्या ) रङ्गनाथ
मकरन्द (न्यायकुसुमाञ्जलि की टीका) रुचिदत्
मञ्जरी ( कट्पसूत्र की टीका ) सहजकीतिं
मणिप्रभा ( योगसूत्र की वृत्ति ) रामाबन्दसरस्वती
मणिप्रभा (दशाचयष्टोपनिषद् की टीका )अमरदास
मणिप्रभा (वेदान्तपरिभाषा की टीका) अमरदास
मतोन्मजा ( वैयाकरणभूषण
की टीका वनमाली
मथुरानाथी (तस्वदीधिति की टीका) मथुरानाथ
मधुवादिनी ( शिवसूत्र कौ वृत्ति ) कर्कट
मध्यकौसुदी ( पाणिनिसूत्र कौ
व्याख्या ) वरदराज
मध्यकौमुदी की व्याख्या जयकृपष्णमौनि
मध्यमकावतार नागाजैन
मध्वविजय -
सध्वविजय की टीका वेदाङ्गतीथं
मध्वसिद्धान्तसार ( पदाथंसंग्रह
की टीका) अनन्त
जगन्नाथ
विषय
क,
अद्रतवेदान्त
च.
दरत-वेद्ान्त
न्याय-दद्ंन
वेशोषिक
अद्रुतवेदान्त
सन-दरान
वैरोपिक
अद्रेत-वेदान्त
वेशोषिक
विशिष्टादरेतवेदान्त
अद्ंतवेदान्त
च,
देत-वेदान्त
क
व्याकरण
# ^ 1
रसेश्चर
व्याकरण
न्याय-दुशोन
जेन-दशन
योग-द्ेन
अद्वेत-वेदान्त
व्याकरण,
न्याय-दशन
प्रत्यभिक्ता
व्याकरण
१
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१६७०
९५१८०
८१५
१६२०
¶७००
१९१०
१९६५०
क क
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(4 प्रसुखदशेनभ्न्थाः ६११ †
| म्रन्थ रचयिता विषय समय |
|: -मनोरमाखण्डन चक्रपाणिरोष व्याकरण १६४० ।॥
| मन्दसुबो धिनी (महाभारततास्पय- ||
“६ निर्णय की टीका) चरद्राज दरेत-वेदान्त ५. ।||
1 मयूख (तत्वचिन्तामणि की टीका) शंकरमिश्र न्याय-दरशन १४२५ ॥)
4 मयुखमाख्िका ( ज्ञाखदीपिका ॥
८. की टीका ) सोमनाथ मीमांसा १५४०
८ महाभारतताव्पर्यनिर्णय आनन्दतीर्थ देत-वेदान्त ११७०
महाभारततात्पयंनिणंय की टीका जनार्दनभट ॐ) १३२० |
| + + वादिराज ११ ~ |
| 9 99 विद्टर्सूनु ११ = ॥
| महाभारतपाज्ञरात्र -- विकशिष्टद्वेतवेदांत - ||
4 महाभाष्य पतञ्जलि व्याकरण ई० पू० १५० \॥
| 8 महाभाष्य टीका हरि ( भतहरि ) ५ ७०० ॥
महाभाष्य की टीका रामकृष्णानन्द् व्याकरण क । | |
। + 99 शिवरामेन्द्र ल्याकरण -- ||
| महाभाष्यप्रदीप केयर १ ११०० ।
महायानप्रवेश स्थिरमति बौद्ध-दर्शन २५० |
महायानश्रद्धोत्पाद्जश्ाख अश्वघोष ११ १२० \॥
महायानसंपरिग्रहकाख असङ्ग + २२० |
महायानसूत्रालंकार » 9 र |
महावराहपुराण -- द्ेतवेदान्त - | |
महावस्तु -> बोद्ध-दशेन - । | ।
महाविभाषा ( ज्ञानग्रस्थानशाख ) कात्यायनीपुत्र ५ षः 91.
महावीरचरित हेमचन्द्र जेन-दर्शनः ११२५ 1
। महोपनिषद् जा द्वेत-वेदान्त ल्ल. ` ॥
| माठरवृ्ति माटराचायं सांख्य ५०० ॥
माटरश्रुति - देत-वेदान्त ५ ॥
माण्डव्यश्चति -- १ -~ 0
माण्डूक्यकारिका गौडपाद् अद्रेत-वेदान्त ७५० || |
माण्डूक्यकारिकाभाष्य राकराचायं ११ ८१० 0
माध्यमकारंकार शान्तरक्तित बौद्ध-द्रान ७२० १४
माध्यमकावतार चन्द्रकीतिं » ५५० ॥
माध्यमिककारिका ( चन्द्रकी तिङृत- | |
भरसन्नपदादीकासहिता ) नागाङ्खन ५ १५० +
माध्यमिककारिकाभाष्य आयंदेव 1 ३५०. | |
10||
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च रप थे चिः ~कं +
क -आािनकानयानाि कत = =
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|
६{६
ग्रन्थ
माध्यमिककारिकाब्रत्ति
( आङकुतोभया )
मायावादखण्डन
मागपरिशुद्धि
स्बंदशेनसंग्रहे-
रचयिता
आयेदेव
कुमारजीव
बुद्धपालित
आनन्दतीर्थ
यशो विजय
मितभ्रकाशिका (श्रीभाष्य की टीका) परकालः
मितभाषिणी ( न्यायसूत्र की वृत्ति ) महादेवभद्
मितभाषिणी (सक्तपदार्थीं की टीका) माधवसरस्वती
मितवृत्यथंसंग्रह ( सूत्र की वृत्ति) उदयन
मिताक्तरा ( छन्दोग्यन्रहदारण्यक
की चृतति नित्यानन्द
मिताक्तरा ( बह्यसूत्र की वृत्ति) अन्ञंभद्
मीमांसानय विवेक सूत्र की बृत्ति) भवनाथ
मीमां सानुक्रमणी मण्डनमिश्र
मीमांसान्यायभ्रकाञ् आपदेव
मीमांसान्यायप्रकाश्च की टीका अनन्तदेव
मीमांसापरिभाषा कृष्णयञ्वा
मीमांसाबारग्रकाडा डाकरभट
मुक्ताफल बोपदेव
मुक्तावरी (भाषापरिच्छेद् की टीका) विश्वनाथपञ्ञानन
मुक्तावली की टीका कल्याण
% विन्ध्येश्वरीप्रसाद्
मूलमध्यमकारिका नागाज्ञंन
मूलमध्यमवृत्ति बुद्धपालित
यतिधमंसमुच्चय याद्वप्रकाश
यतीन्द्रमतदीपिका श्रीनिवासखदास
यस्याचार खषघुपद्यनन्दी
युक्तिमल्धिका वादिराज
युक्व्यनुश्चासन समन्तभद्र
यो गचन्द्रिका ( योगसूत्र की कृत्ति ) अनन्तभट
यो गशाख ( अध्यास्मोपनिषद् ) हेमचन्द्र
योगसूत्र पतज्ञलि
यो गसूत्रभाष्य व्यास
योगसूत्रलघुत्ृत्ति =, नागेश
योगसूत्र की वृत्ति ज्तानानन्द्
विषय समय
बौद्ध-दश्शन १५०
99 २३८०
9१ ९१००
द्ेतवेदान्त
। ११७०
जेन-दर्शन १५५९० ०
विशिष्टाद्वैत वेदान्त १३९०
न्याय-दशंन १५२०
वेरोषिक १३.५०
व्याकरण ९८४
अद्धेत वेदान्त ~
9१ १,१००
मीमांसा १३६०
99 २.५
१) १६३०
9१ १६७०
११ १७००
अद्वैत वेदान्त ११८०
वेशेषिक १६३४
+ --
+ #। "णं
बौ द-दक्न १५०
११ ०99
विलिष्टाद्ैत वेदान्त १०६०
१ € >
जन-दशन १३५५०
=,
दवेत-बेदान्त -
११ &००
योग-दरंन --
जेन-द॒र्शन ११२५
यो ग-दरशंन ---
9१ १७१४
++ । ----
| ॥
प्रमुखदशेनग्रन्थाः ६१७ 1
।॥
8 ग्रन्थ रचयिता विषय समय |
; योगसूत्र की वृत्ति ब्रृधभोज यो ग-दंन &०० । ।
। 4 ११ विज्ञानभिच्ख ॐ १५५० |
॥: ५ भावागणेश # १५७५ ॥ |
4 | ११ भवदेव ॐ १६३० | ॥
1 १ महादेवभद्र त 9 , |
। ब्न्दावनाचार्यं ५ ~~ ॥
1 ५ सदाशिवभट % -- ॥
५ 9 अरूणाचल 59 ~ | |
योगसूत्रवृत्तिसंग्रह उदयंकर » १७२५ । ॥ |
योगाचारभूमिशाख असङ्ग बौदध-दर्शन ३२० \॥
। योगावली ( तकभाषा की टीका ) नागेश न्याय-लशाख् १७१४ ॑ |
॥ सतत्र वसुबन्धु वौद-दसन = ३३० ॥
| रलप्रभा ( शांकरभाष्य की टीका ) गोविन्दानन्द् अद्वेत-वेदान्त = १५७० | ।॥
भ रलेप्रभारिप्पणी केशवानन्दस्वामी १ न › ॥
१ रन्नाणंव (सिद्धान्तकौमुदी की व्याख्या)ृष्णमिश्र व्याकरण १७५० ॥ |
। रयणसार कुन्दकुन्द् जेन-दर्न ` २५ (॥॥
रसकोतुक मनज्ञारि रसेश्वर-दशंन १६०४ ॥
रसचिन्तामणि मदनान्तदेवसूरि +, न 0
रसनक्त्रमालिका मथनसिह # १७०८ 8
रसपद्धति महादेव ४ -- | |
योधर » १२६० १
| रसमञ्जरी शालिनाथः ++ १६५७ | ।
| रसयुक्तावली वेधनृपसून » ~ 1॥
रसरलप्रदीप -- ५ -- 1)
रसरल्समुच्चय वाग्भराचार्यं 9 १२७५ | +
रसरलाकर नागार्जन १ ४०० ॥
रसराजरचमी विष्णुदेव ॥ -- \14
रससार गोविन्दाचायं १ १४०० |
रसहृदय गो विन्दभगवत्पादाचायं » ७८० #/
रसार्भव र „ ~ ॥
रसेन्द्रचिन्तामणि रामचन्द्र - # . १७३५ १
रसेन्द्रचूडामणि सोमदेव » = ` 1१
रसेश्वरसिद्धान्त 99 99 वन | |
| रहस्यत्रय रामानुज ॥ |
(१०१९-११३९) विशिषटाद्वेतवेदान्त १०८० 111
५ अभ्रगोस्वामी र १४१५ (|
६१८ स्बदशेनसंग्रहे-
ग्रन्थ रचयिता विषय
| रहस्य त्रयचुलुक ( रहस्यत्रय
की टीका ) वेङ्कटनाथ वि० वे°
रहस्यत्रय की रीका | अध्चिस्वामी ५)
रहस्यत्रयसार वेदान्ताचायं »
राजमार्तण्ड ( योगसूत्र की वृत्ति ) भोजराज यो ग-दृशंन
राजवार्तिंकं ( तस्वार्थाधिगमसुूत्र
की टीका ) -- जेन-दशन
राणक सोमेश्वर विशिष्टाद्रेतवेदान्त १५००
रामानुजसिद्धान्तसार वरदाचायं + ११२०
रावणभाष्य ( कणादसूत्र भाष्य ) --- वेरोषिक ५९५०.
रुद्रयामल -- रसेश्वरदश्चंन -
रौद्री ( मुक्ावली की टीका ) रुदर वेरोषिक १६५०.
खच्तणमाङा रिवादित्य 9? १०५५०
रन्तषणसग्रह रस्नेश व्याकरण -
ख्तणावरी उद्यन वेशोषिक ९८४
रघुकौसुदी ( सूत्र की व्याख्या ) वरद्राज व्याकरण १६२०
मुदी की व्याख्या जयक्रष्णमौनी १ १७००.
रघुचन्द्रिका (अद्वैतसिद्धि की टीका) ब्रह्मानन्दसरस्वती अद्भेत-वेदान्त १५६५५
धुद्णा ( वेयाकरणभूषणसार
की टीका) मन्तुदेव व्याकरण १७६०
लघुन्यास (शब्दानुशासन की टीका) देवेन्द्र जेन-दशंन १२७१
लघुभूषणकान्ति (वैयाकरणमभूषण-
सार की टीका ) हरिवर्लभ व्याकरण १७००.
लघुमज्षा नागेदा 9 १७१४
रुघुमज्जषा की टीका राजारामदीक्षित ११ १७६०
रुघुविमर्िनी अभिनवगुप्त प्रस्यभिक्ञा ¶०००.
रघुशबदेन्दुशेखर ८ कोमुदी की
व्याख्या ) नागे व्याकरण १७१४.
धुशब्देन्दुशोखर की व्याख्या = राजाराम ») १७६०
कद्धावतार शाक्यमुनि बौद्ध-दशन --
खुलत विस्तर वसुबन्धु ११ ३००.
रासकी (भगवदगीता की टीका) राजानकलास॒क प्रस्यभिज्ञा --
लीरावती (कणादसूत्रभाष्य की टीका)श्रीवत्साचा्य वशेषिक १०२५.
लोकप्रकाश्च विनयविजय जन-दुर्शान १६५२
वंशी (परमलघुमञ्जषा की टीका) वंशीधरमिश्च व्याकरण १९५०
वच्रसू ची अश्वघोष बौद्ध-दशंन १२०
ग्रन्थ
वधंमानेन्दु ( न्यायनिवन्धप्रका्च
की टीका)
वाक्यपदीय ( महाभाग्य की
दाशंनिक व्याख्या )
वाक्यपदीय व्याख्या
वाक्यचत्ति
वाक्यश्चुति (अपरोक्तानुभव की टीका) विशेश्वर
वाक्याथंचनिद्रिका ( न्यायसुधा
की टीका )
वादावली
वादित्रयखण्डन
वायवीय संहिता
वारसरूचसंग्रह ( सुत्र की वृत्ति )
वातिंकपाठ
वासवी ( भगवद् गीता की टीका ) वसुगुक्च
विश्कारिकाप्रकरण
विकाश्च (न्यायकुसुमाञ्जलि की टीका) गोपीनाथ मौनी
विचाररत्नसम्रह
विज्ञानकाय
विद्भन्मनोरञ्जनी ( वेदान्तसार
की टीका )
विद्न्मनोहरा ( सूत्र की वृत्ति)
विधिरसायन
विधिविवेक
विमशिनी ( शिवत्ञानवबोध-सूत्रवृत्ति
की व्याख्या )
विवरण ( न्यायङुसुमाञ्जलि
की टीका)
विवरण ( भाव्यप्रदीप की टीका) नारायण
99 9१
विवरण ( खघुशब्देन्दुरोखर की
व्याख्या )
विधरण की रीका
विवरणपज्ञिका या न्यास
( कारिका की व्याख्या )
परमुखदशेनन्थाः
हरि ( भवृहरि ) व्याकरण ६६६
| हेलराजओौरपुण्यराज व्याकरण ` य
वाक्यवृत्ति (तकसंग्रह की टीका ) मेरशाख्री
६१६
विषय समय
न्याय-श्ाख --
त्रा
षिक १८०८
अद्रत-वेदान्त ८१०
9१ १३२०
देतवेदान्त च
१ ११९३-१२६८
विशिष्टद्वेतवेदांत १३२०
पाशुपत रोव-दशन -
व्याकरण --
9१ 2०० दै पू
प्रत्यभिक्ञादशेन ८२०
बौद्ध-दरान ३००.
न्याय-दश्चंन -
[१ ५
जेन-दरान १६००
बौद्ध-दशंन ~
अद्रेतवेदान्त १६२५
मीमांसा ---
99 १९.५३०.
99 ८२९१
जेव-दर्शान १०२०
न्यायदरंन ---
व्याकरण "कें
व्याकरग =>
व्याकरण १८१०
अद्रतवेदान्त --
उ्याक्रण ९४०
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६२० स्वदशेनसंग्रदे-
ग्रन्थ रचयिता विषय समय
विववरणभावप्रकािका सृसिहसुनि अद्रैतवेदान्त = १५००
विवरणप्रमेयसम्रह माधवाचार्य + १३५०
विवृति ( श्रीभाष्य की टीका ) वासुदेवशाखी
अभ्यंकर विशिषटद्रेतवेदान्त १९१६
विवेक ८ न्यायङुसुमाञ्जरिः
की टीका ) गुणानंद् न्यायदश्ेन --
विवेक-चूडामणि शंकराचायं अद्रतवेदान्त ८१०
वितरेकविलास जिनदत्तसूरि जेन-द्शंन १२२०
विश्िष्टद्रेतसंग्रह रामक्ब्ण विशिष्टद्रेतवेदान्त -
विश्द्धिमागं बुद्धघोष वौदधदशंन ४००
विशेषावश्यकभाष्य ( आवश्यक
सूत्र की टीका ) जिनभद्र्तमाश्रमण जेन-दशंन --
विश्वरूपनिबन्ध विश्वरूप व्याकरण १५२०
विषमपदतात्पयं लघुसमन्तभद्र जेन-दक्लंन १७४०
विषमी ( कौस्तुभ की व्याख्या ) नागदा व्याकरण १७१४
विषमी ( टधुशब्देनदुशेखर की |
उयाख्या ) राघवाचोरयं ११ १८२०
ष रङ्गराज विशिष्टादवेत वेदान्त १३.५०
विष्णुतच्वनिणेय आनन्दतीथं दरेतवेदान्त ११७०
विष्णुपुराण की टीका नाथसुनि वि०वे° --
चीतरागस्तृति हेमचन्द्र जेनदशंन ११२५
दीतरागस्तुति की रीका प्रभानन्द जेनदश्लन १३६२०
वेदान्तकल्परूतिका मधुसूदनसरस्वती अद्वैतवेदान्त = ५५६०
वेदान्तकौमुदी अद्रयारण्यसुनि ५ १५८०
वेदान्तचिन्तामणि शुद्धानन्दसरस्वती ५ १३२०
वेदान्ततच्वसार विचेन्द्र सरस्वती » १७००
वेदान्तदीप ( ब्रह्मसूत्र की वृत्ति ) रामानुज विलिष्ादरेतवेदान्त १०८०
वेदान्तपरिभाषा धर्मराजाध्वरीन्द्र अद्रेतवेदान्त ५५६०
वेदान्तपरिभाषा की दीका रामक्रष्णाध्वरीन्द्र १» १६००
११ 9१ धनपति 9१ ९८००
वेदान्तमुक्तावरी ग्रकाश्चानन्द् १, १५६५
५, ब्रह्मानन्दसरस्वती ११ १५६५
वेदान्तमुक्तावरी को टीका रामसुब्रह्मम्य ++ ==
वेदान्तरक्ता नारायणसुनि ` विशिष्टद्वेतवेदान्त १४१५
वेदान्तवचनभूषण ( शांकर स्वयं प्रकाशानन्द्-
च.
भाष्य की टीका ) सरस्वती अद्भंतवेदान्त -
परमुखदशेनभन्थाः ६२१
ग्रन्थ रचयिता विषय समय
वेदान्तसार ( ब्रह्मसूत्र की वृत्ति ) रामानुज विशिष्टाद्रेतवेदान्त ५०८०
॥ ३ वेदान्तसार सदानन्द अद्रेतवेदान्त १५६०
। क वेदान्तसार की टीका चरृसिहसरस्वती १ १८७०
| 4 वेदार्थसंग्रह रामानुज विशिष्टाद्रेतवेदान्त १०८०
| वैयाकरणभूषण कोण्डभटट व्याकरण १६४०
वेयाकरणभूषणसार कोण्डभद् व्याकरण १६४०
| वेयाकरणभूषणसार-दीका महानन्द् % १८२०
| वैयाकरणसर्वस्व ( सूत्र की वृत्ति ) धरणीधर क =
। वेयाकरसिद्धान्तरललाकर रामङ्कष्ण ५ १६७०
वेयाकरणसिद्धान्तरहस्य ( कौमुदी
की व्याख्या ) नीलकण्ठ १ १६६०
११ 99 वासुदेव 99 ---
वैयासिकन्यायमारा माधवाचायं अद्भेतवेदान्त १३५०
व्याकरणग्रकाञ्च ( न्यासव्याख्या ) महामिश्च व्याकरण --
॥ व्याकरणसुधामहानिधि ( सूत्र
| कीचत्ति ) विश्वेश्वर २ १६५०
् स्योमवती ( कणादसूत्र भाष्य की
4 टीका ) व्योमशिवाचा्यं वैशेषिक ` ९८०
ष शोकरपादभूषण रघुनाथश्चासरी पर्वते अद्वेतवेदान्त = १८५०
रांभुपद्धति दां भुदेव रोव दशान १५५०
शतदूषणी मुद्ल्सूरि विशिष्टावेतवेदान्त -
शतशाख नागार्ज॑न बौद्धददंन १५०
। शब्दकोस्तुभ ८ सूत्र की व्याख्या ) भट्रोजिदीक्तिति व्याकरण १५७८
शब्दभूषण ८ सूत्र की वृत्ति ) नारायण % हि
6 शब्द्रल् ( मनोरमा की व्याख्या ) हरिदीक्षित ५ १६५०
[ राब्द्रल्नदी प (शब्दरत्न की व्याख्या) कस्याणदीप १ --
त रब्दसुधा अनन्तभटट 9 --
॑ शब्दानुशासन हेमचन्द्र जन-द्दान ५१२१
शब्दाग्रत ( सृत्रविवरण ) विग्रराजेन्द् व्याकरण ~~
शंकरी ( परिभाषेन्दुशेखर की |
। दीक ) राकरभट व्याकरण १७६०
(1. श्ाकल्यसंहितापरिशिष्ट -- देत वेदान्त ~~
9 शाबरभाष्य शबरस्वामी मीमांसा १०० ई० पू
| 9 शावरभाष्यवातिक वार्तिककार » ज
शाब्दनिणंय प्रकाशात्ममुनि अद्रेतवेदान्त ५२००
शखारीरभाप्य शंकराचायं ह ८९०
~ „+
६२२ सवदशनसंग्रहे-
ग्रन्थ रचयिता विषय समय
| शारीरभाव्यरीका गोपारानंद् अद्रेतवेदान्त -
११ १ विश्चरेद् 9 ---
शाखदीपिका पार्थसारथिमिश्र मीमांसा ९००
श्ञाखदीपिका की व्याख्या नारायण % १५८०
| रित्ता-समुच्चय शान्तिदेव बौद्ध-दहोन ६५०
| शिवज्ञानवोधसूत्र की वृत्ति निगमक्ानदेकिक दोव-दञ्ञेन --
| शिवदृष्टि सोमानंदं ग्रस्यभिन्ञा-दरशंन ८८०
| शिवदि की वृत्ति ११ 9) व]
| शिवदष्टिसूत्र की वृत्ति उदयाकरस् नु % ++
शिवदश्टयारो चन (शिवदृषटि की वृत्ति) अभिनवगुघ २ १०००
शिवपुराण » पाशुपत रोव -
| क्िवसूत्र चसुगु् प्रत्यभित्ता ८१०.
| शिवसूत्र रीका नरेश्वर ५१ --
। शिवस् त्रवातिक ` भास्कर ५ १०२०
| शिवसूत्रविमश्चिनी क्तेमराज १ १०२५
| श्िवा्कमणिदीपिका ( ब्रह्मसूत्रभाष्य
की टीका) अप्पयदीदित शेव-दशंन १५३०
शिशवो धिनी (सप्तपदा की टीका) सेरवेन्द्र मरैरोषिक-दशंन ---
ज्िष्यहिता(आवश्यकसूत्रकी टीका) हरिभद्र जेन-दर्शन ९००
हो वसर्वस्वसार विद्यापति ठक्कुर शोव-दशेन १३२१
डोव सिद्धान्तदीपिका शाम्भुदेव 9 १५५१०
श्रीभाष्य ( ब्रह्मसूत्रभाव्य ) रामानुज विश्षिष्ाद्रेतवेदांत १०६०
श्रीभाव्य कौ टीका रामानन्द + र
+ सुन्द्रराज दीक्ित १) --
श्रतग्रकाशिका (श्रीभाष्य की टीका) सुदशन # १२२०
श्रतभ्रकाशिका की टीका रङ्गरामानुज % -
9४ वरद विष्णु 9) ~~
# श्रीनिवासभास्कर १, --
्रतभ्रदीपिका (श्रीभाष्य की टीका) सुदशंन १ १२२०
श्रव्यन्तसुरद्रुम पुरुषो त्तमभ्रसाद् व -
शको कवार्तिक (तस्वा्थाधिगमसूत्र +
की टीका) विद्यानंद् जेन-दर्लन ८००
्वोकवा्तिकं (शाबरभाष्य वार्तिक) कुमारिरूभद मीमांसा ७६०
षटुप्रश्नो पनिषद् भाष्य की टीका
विवरण मङ्कारुधर्मा चायं देतवेदान्त -
षडदश नविचार मेरुतुङ्गः जेन-दक्षन १३००
( ॥
4
क
श
# ^
प्रसुखदशेनम्रन्थाः
व्याकरण ३०० ई० पू°
ग्रन्थ रचयिता विषय
षडदशंनसमुचय राजरोखर जेन-दर्शन
9) मलधारिराजशेखर »
षडदशंनसमुच्चय हरिभद्र »
षडदशेनससुच्चय की टीका गुणरत्न 9
षष्टितन्त्र वाषंगण्य (१) सांख्य-दशंन
षोडशपदाथीं गणेकदास नेयायिक
संक्ञेपभाष्य आनंदतीर्थं देतवेदान्त
सं्ेपरारीरक सर्वज्ञाव्ममुनि अद्वेतवेदान्त
संक्तेपशारीरक की टीका पुरुषोत्तम सोमयाजी *
संगीतपर्याय | शारिपुत्र बौदध-दशौन
संग्रह व्याडि
संतानान्तरसिद्धि धमंकीतिं बौोद्ध-दुरशंन
संदेहदोहावटी जयसागर जेन-दर्शन
संमतितर्कसूत्र सिद्धसेनदिवाकर ण
संयक्ताभिधमंशाख - बौदध-दर्शन
सक्रिया ८ मेदधिक्छार की टीका ) नारायणाश्रम अद्वेत वेदान्त
सस्प्रक्रियाव्याकरति < प्रक्रियाकौमुदी
की व्याख्या ) विश्वकर्मां व्याकरण
सद्ाचारस्मृति आनंदतीर्थ दरेतवेदान्त
सदाशिवभट्री ( रघुश्ब्देन्दुदोखर
की व्याख्या ) सदाशिवम् धुरे व्याकरण
सद्धमंपुण्डरीक शाक्यमुनि बौद्ध-दर्शंन
सद्धर्मपुण्डरीक की टीका वसुबन्धु बोद्धदशांन
सप्तदशभूमिसूत्र असङ्ग १,
सप्तपदार्थीं शिवादित्य वेरोषिक-दर्शन
सक्तपदार्थीं की टीका जिनवधंन सूरि वेरोषिक-द्र्शन
99 बरुभद 9)
५ अनन्त ४
ॐ भाव विद्येश्वर %
११ रोषानन्त ५,
ू हरि र
% सिद्ध चन्द्र »
सक्तभङ्ीतरङ्गिणी विमल्दास जेन-द्श॑न
समयप्रदीप असङ्भद्र बौड-दरशन
समयप्रदीपिका ++ व
समयसार जन-दशन
ङन्वङ्न्द्
६२५५
१४००
५९०
१९.१६०
११७०
१७९०
३००
३२०
१०५६०
१४१.
१५.५०
१,५.७०
१६०८
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६२४ सर्वदशंनसंग्रहे-
ग्रन्थ रचयिता
समयसार की टीका अस्रतचन्द्र
११ बालचन्द्र
1] प्रभाचन्द्रदेव
११ सानन्द
समयसारप्रश्छत कुन्दकुन्द्
समाधिराज --
सरला ( कौुदी की ध्याख्या ) तारानाथ
सर्वार्थसिद्धि ( तस्वाथांधिगम
की टीका ) पूज्यपाद
सर्वोपकारिणी ( समाससूत्र की
व्याख्या ) विभानन्द
सांख्यकारिका ईश्वरक्ष्ण
सांख्यकारिका की टीका कुलमुनि
9 कुष्णमिश्च
भवदेव
१ योगानंद
साख्यकारिका-भाष्य
साख्यकारिका की वृत्ति ( माठर
की वृत्ति ) मारराचायं
साँख्यकोमुदी रामक्रष्ण
सांख्यतच्वकौसुदी वाचस्पतिमिश्र
सांख्यतच्वकौञुदी की टीका ज्ञानानंद्
99 श्रीककष्ण
५ भारतीयति
५ नारायणतीथं
५, वं्षीधर
% स्वप्नेश्चर
सांख्यतच्वप्रदीप कविपति
साँख्यतस्वभ्रदीपिका भावागणे्ञा
सांख्यतत्वयाथाध्यं दीपन ( सांख्य
समाससूत्र की टीका ) +
सांख्यतच्व विरास रघुनाथ
साख्यत्व विवेचन सीमानन्द्
सांख्यपरिभाषा भावारणेश
सांख्यसमाससन्र (तच्वसमासस् त्र) कपिल (१)
सांख्यसार
भावागणे्
विषय
> £
जेनदश्ंन
9१9
9१9
बौद्ध-दरन
व्याकरण
जेन-दशेन
साँख्य-दौन
समय
९०
९१२०
१२७.
१७२०.
२.
प्रमुखदशनम्रन्थाः
विषय
सांख्य-दशन
रसेश्चर-दशंन
६९५
समय
१५२९.१०
१५५५०
१५५००.
१७१ द्द
¶.७००.
विशिष्टद्रेतवेदान्त -
अद्वेतवेदान्त
१३९०
१५६०
विशिष्टाद्वेतवेदान्त -
नेयायिक-दर्लन
व्याकरण
† #।
99
/ |
9
प ५
जन-ददान
व्याकरण
मीमांसा
वैशेषिक
अद्धेत-वेदान्त
भ्नन्थ रचयिता
सांस्यसारविवेक विज्ञानभिद्
सांख्यसूत्र कपिरु(?)
सांख्यसूत्रभाष्य विक्तानभिज्ञ
१) सांख्याचायं
सांख्यसूत्रविवरणग योगानंद
सांख्यसूत्रविवरण कृष्णमिश्र
सांख्यसूत्र की वृत्ति अनिरुद्ध
93 9१ स्ानाश्चत
५ 9 नागेश
99 +) रामचन्द्र
सांख्यसु त्रबत्ति की टीका महादेवानंद् सरस्वती
साकारसिद्धि --
सासवतसंहिता --
सारप्रकाशिका ( रहस्यत्रयसार की
की टीका) परकाल
सारसंग्रहदीपिका मधुसूदनसरस्वती
सारास्वादिनी ( रहस्यत्रयसार की
टीका) गोपाख्देशिक
सार्वभौमनिरक्ति वासुदेव सावभौम
सिद्धान्तकौमुदी (सूत्र की भ्याख्या) भदटरोजिदीकित
सिद्धान्तकौमुदी की व्याख्या इन्दर दत्त
9) % लचमीनसिह
99 ---ॐ विश्चेश्वरतीथं
9 99 वासुदेव
सिद्धान्तचन्द्रिका रामचन्द्राश्रम
१ रामभद्राश्रम
सिद्धान्तचन्द्रिका ( शाखदीपिका
की व्याख्या ) रामङ्कष्ण
सिद्धान्तचन्द्रोदय ( तकसंग्रह
की टीका) कृष्णधूजंरि
सिद्धान्तदीप ( संक्तेप-शारीरक
की टीका ) विश्वेद्
सिद्धान्तबिन्दु (द्शश्छोकी की टीका) मधुसूदन सरस्वती
सिद्धान्तबिन्दु टीका सच्चिदानन्द
सिद्धान्तरेह् अप्पयदीक्तित
सिद्धान्तरेश की टीका धममंय्यदीक्ित
१४७
१९१७८
१७६१५
१५१६०.
१५८०
१६००.
ज क
कीति =. च
ग्रन्थ
िदधान्तखेश-टीका
सिद्धित्रय
सुखावतीग्यूह
सुबोधिनी ( सिद्धान्तचन्दिका की
टीका )
सुबोधिनी ( सूत्र की वृत्ति )
६२६ सर्वदशेनसंग्रहे-
रचयिता
रामचन्द्र
विश्वनाथतीथं
यामुनाचायं
शाक्यमुनि `
सदानन्दं
शाकरभट
नीलकण्ठदेवक्ञ
दामोद्रमद्
५ (कौमुदी की व्याख्या ) कृष्णमौनी
५ (बेदांतसार की टीका ) दयाशंकर
११ ११
५ (गीताकी टीका )
नृसिहसरस्वती
श्रीधर
सुरकल्पतर (तकंदीपिका की टीका) श्रीनिवास
सुवणंप्रभास
सुद्ृल्टेख
सूत्र
सूत्रपाठ
सूत्रपिरक
सूत्रवातिक
सूत्रवार्तिकपाठ
सूत्र की वृत्ति
9१
नागाज्ैन
बृहस्पति
जेमिनि
पाणिनि
शाक्यमुनि
व्याघ्रभूति
वररुचि
उपवषं
हरि
करविन्द् स्वामी
प्रभाकर
भतृमित्र
भवदास
वाचस्पति मिश्र
वेङ्कटाचायं
श्रीनिवासाध्वरि
वल्लभाचायं
लौ गाक्तिभास्कर
नागेक्ष
कुणि
विष्टर
शिवरामेन्द्र
विषय समय
अद्रेत-वेदान्त १७३०
विश्िष्टाद्वेतवेदान्त १०४०
बौद्ध-दरन -
जेन-द्छंन -
मीमांसा ९७००
99 ध ७9
व्याकरण १७००
अद्धेत-वेदान्त = १७६०
99 ¶ ८७०
र ड
वेरोषिक -
दौद्ध-दरशन -
११ ९९५१०
चावांक ---
मीमांसा --
व्याकरण ५०० ई० पू०
बौद्ध-दशंन श्ै99 ११
च्याकरण कि
9१ 2३००
मीमांसा ४००
१9 4००
99 ~
9१ ७७
१9 प
9 |
99 ८७१
99 ९३६०
99 ने
99 १,५२.५
39 ९६४०
9१ १७१४
व्याकरण „+
99 ७&9
॥
परमुखदशेनग्रन्थाः ६२७ |
॥ क रचयिता बिषय समय ॥
| सूत्रवृत्ति सीरदेव व्याकरण १२००
99 अन्ञभट 99 ९६९० | ।
9 रामचन्द्रभटटरतारे ४ १७११० |
(॥ सूत्रवरत्ति की टीका जयन्त ५ स |
1 सूत्रालंकार अश्वघोष बौद्ध-दर्शन १२० ॥
4 सेश्वरमीमांसा ( सूत्र की वृत्ति) वेदान्तदेशिक मीमांसा १३५० |
सौपर्णश्ुति ~~ द्ेतवेदान्त जः ॥
= सौरभेयागम ~ रोव-द्शन ् |
9 स्तोत्रावली उत्पलाचायं प्रत्यभिक्ा ९१० |
# स्नेहपूतिं ( बेदाथंसंग्रह की टीका ) राममिश्न विशिष्ाद्रेतवेदान्त - | |
( स्पन्दकारिका कल्ञट प्रत्यभिज्ञा ८५५४ ॥
: स्पन्दनिर्णय त्ेमराज ५ १०२५ ॑ ।
† स्पन्द्प्रदी पिका (स्पन्दकारिका ॥
की टीका ) उस्परवेष्णव » = ।|
स्पन्दविवृति रामकण्ठ % , ९५० |
स्पन्दवृत्ति ( स्पन्द सवंस्व, स्पन्द्- ॥
कारिका की टीका) कल्लट % ८५४ |,
स्पन्दसदोह ( स्पन्दकारिका +
की टीका) क्ेमराज १ १०२५ ॥॥
स्पन्दसूत्रवातिंक ( स्पन्द्कारिका |.
की टीका) भास्कर | ५ १०२० ||
स्पन्दत वसुगुष्ठ ११ ८२० |
स्फोटसिद्धिन्यायविचार - व्याकरण -- | ।
। स्याद्वादमञ्जरी (बीतरागस्तुति |
॥ की टीका) मह्ञिषेण जेन-दर्शान १२९२ ॥|'
स्याद्भाद्रव्नाकर ( वीतरागस्तुति ह
# की टीका) देवसरि + ११४० ॥
पि स्वाधिष्ठानप्रमेद् आयंदेव बौद्ध-द्रन ३०० |
हनुमदीया ( तच्वचिन्तामणि ॥॥
की टीका) हनुमान् न्याय-दक्शंन -- भ
इस्तवबल आर्यदेव बौद्ध-दशेन ३०० ॥
१
#
५
॥/
॥
>
|
|
परिरिष्ट-२
रमुख दाशेनिक ओर उनकी कतिया
१ अकलङ्कदेव -७५० ! जेन--. तत्वार्थाधिगमसूत्र की रीका ( तत््वाथवातिकाक्कार
२. आप्रमीमांसा की रीका ( अष्टशाती ) ।
२ अक्षपाद -( गौतम ) २०० ई० पू) न्याय सूत्र ।
३ अखण्डानन्दसखरस्वती -- १५८० अदधतवेदान्त--१. विवरण की टीका (तत्त्वदीपन),
२. ्रहमसत्रदत्ति ( ऋजुप्रकाशिका ), २. सक्तिसोपान, ४. अद्वेतरलकोडा ।
+ अघोरदहिवाचायं -- ११५० । दोव--तत्वप्रकाश कौ रीका ।
५ अच्युतकृष्णानन्दतीथं --१ 1 अ० वे सिडान्तकेशा कौ टीका ( छृष्णाङंकार ) ।
६ अच्युतराय मोडक --१८०० । अ ० वै०- पदी कौ टीका ।
७ अद्भयारण्युनि--१५८० । अ० वे०-वेदान्तकोसुदी ।
८ अद्वेतानन्द्सरस्वती-- १२२५ । अ० वै०-१. शारीरमाष्य कौं टीका ( ब्रह्मविं्या-
भरण ), २. आत्मबोध की रीका ( आध्यात्मचन्द्रिका ) । ।
९ अनन्त--११५० । विण वे०--१. प्रपन्नारत ( रामानुजचरित ), २. ब्रह्मलक्षण-
निरूपण ।
१० अनन्त--( पद्चनामपुत्र ) १। दै ०--गदाथंसग्रह् कौ टीका ( मध्वसिद्धान्तसार ) ,
१९ अनन्त--१५७० ! न्याय-रपदमज्ञरो । वे०--सष्ठपदार्थी कौ रीका ।
१२ अनन्त--१६६० । व्या०--सिडान्तकौसुदी की व्याख्या \
१३ अनन्तङ्कष्णशाखी -१९४० । अ० वे०--रतभूषणी तथा अन्य ग्रथ ।
१४ अनन्तदेव -१६७० । मी०-- मीमां सन्यायप्रकाड कौ वृत्ति ।
१५ अनन्तभद्ट--१ 1 व्या०--रब्दसुधा । योग--योगचन्दरिक ।
१६ अनन्तवीर्य-- ६४१९ । जैन--परीक्षासुख की टीका ( रघुदृत्ति ) ।
१७ अनिरुद्ध--१५०० । सांख्य--ूत्रवृत्ति ।
१८ अन्नंभट- १६९० । वै ०-- तकसं ग्रह ओर उसकी टीका ( प्रायः २० टीकाये ) *
व्या ०--अष्टाध्यायौसत्रवृत्ति ।
१९ अन्नंभट्-- १५०० । अ० वे ०--सूत्रवृत्ति ( मिताक्षरा ) ।
२० अष्पयदीकित--१५३०-८० । रौव-डशिवाकमणिदीपिका । मीमांसा--विधिरसयन )
अ० वे०--२. कस्पतर् की टीका ( परिमल ), २. सिद्धान्तरेश, ३. न्यायमुक्तावलौ ।
२१ अभयतिङक-- १०५० । न्या०--न्यायवृत्ति ।
+ तव॑संग्रह के यीकाकार--अन्नंमट् ( दीपिका ), नीरकण्ठ ( १८३० दीपिकाप्रकाञ्च ),
लक्ष्मीनृसिंह ( १८५० दीपिकाप्रकाश को टीका ) श्रीनिवास ८ तकेदीपिका की रीका)
गोव्ैन ८ न्यायवोधिनौ ), कष्णधूजेटि, चन्द्रस्, विन्ध्येश्वसीप्रस।द, क्षमाकस्याण,
हनुमान् , युरारि ( १७१० ), सुहन्दभ ८ ६७६५ ), मेरु्चाख्ली ( १८३० ) आदि \
दाशंनिकास्तत्करतयश्च ^ +
दाशनिकास्तत्कृतयश्च ६२६
२२ अभिनवगुक्त-१०००। प्रत्य ०--२. प्रत्यभिजञावृत्ति कौ टीका ( मिमद्चिनी )--लघु
ओर इत् । २. रिवदृष्टि की वृत्ति (आोचन), ३, पर त्रिंशिकाविवरण, ४, तन्त्रालेक,
+. तन्त्रसार, ६. तन्त्रवटधानिका, ७, प्रमाथ॑सार, ८, बोधपञ्चदशिका ।
२९ अमरदास -१। अ० वे०--१. देशादि आठ उपनिषदो की इत्तिया ( मणिप्रभा ),
२. वेदान्तपरिभाषा की रिखामणि-रीका प्र वृत्ति ( मणिप्रभा ) | ` >
२४ अमरानन्द्- १२५० । अ० वे०-भामती कौ रीका ( करस्पतर् ) ।
२५ अश्तचन्द्र्-- ९०५ । जेन--?. प्रवचनसार कौ रीका ( अध्यात्मतरंगिणी ), २. पत्र
स्तिकाय की रीका, ३. समयसार की दीका ( आत्मख्याति ) 1. ४, तच्वाथ॑सार, ५.
पुरुषाथंसिद्ध्युपाय । |
२६ अमोघवषं--८५० । जेन प्रशनोत्तरमाला ।
२७ अरुणाचर--? । योगसूव्रदृत्ति ( योग ) ।
२८ अज्ञंनमिश्र--१६७० । अथ॑संग्रह कौ रका ( मीमांसा )
२९ अश्वघोष--१२० । वौद--९. ज्ञानप्रस्थानरीका ( = मह।विभाषा की. टीका), २.
सूत्रालकार, २. वज्जतूची, ४. महायानश्रद्योत्पादद्चाख, ५. बुदधचरित ।
२० असङ्ग--२२० । वौ ०--१. योगाचारभूमिद्यास्त, २. सक्तदशभूमिसूत्र, ३. महायानसू-
वाकार, ४. महायानसंपरियदश्।ख, ५. उन्तरतन्त्र । |
३९१९ असंगभद्-२२० । बौ ०-- १. समयग्रदीप, २. न्यायानुसार )
२२ आत्मदेवपञ्चानन -- १७२० ! अ० वे ०--अभेदाखण्डचन्द्रम। । .
२२३ आनन्द्गिरि--८२५ । अ० वे०--१, शांकर भाष्यग्याख्या, २. गीताभाष्यरीका ।
२४ आनन्द्तीथं-( मध्व, पूणप्रश्च )--११२०-११९९ । दरेत०--१. उपनिषद्भाष्य, रः
संक्षेपभाव्य, ३. ब्रहमसूत्रमाध्य, ४. गीताभाष्य, ५, प्रमाणलक्षण, ६. कथारक्षण, ७.
उपाधिखेण्डन, <. मायावादखण्डन, ९. प्रपचभिथ्यात्वखण्डन, १०. तत्त्वसंख्यान, ११.
तत्त्वविवेक, १२. तत्वो्ोत, १३. कर्मनिर्णय, १४, विष्णुतत्वनिणैय, १५. ऋग्भाष्य,
१६. न्याय॒िवरण, १७. कृष्णा सृतमहाणैव, १८. तन्त्रसारसंगरह, १ ९, सदाचारस्मृति,
९०. महाभारततात्पयनिणेय, २१. भागवततात्पयंनिर्णैय, २२. गौतातात्पयंनि्ंय ।
२५ आनन्दुपू्ण १६०० । अ० वे०--प॑चपादिका कौ यका । ‰
२६ आनन्द्बोध-- १२०० १।अ० वे०-न्यायमकरन्द ।
२७ आपदेव-- १६२० । मीमांसा- मामां सान्यायप्रकाञ्च ।
२८ आयदेव - २५० । वौद--२. मूलमाध्यमिककारिकाभाष्य, २, बोधिसत्त्वयोगाचार च-
तःरातकः ३. स्वाधिष्ठानप्रमेद, ४. चित्तद्ुद्धिप्रकरण, ५. हस्तवर ।
३९ इंश्वरङृष्ण-१००-२०० । सांख्य--सांख्यकारिका । -
४० उत्पलवेष्णव --९७०। प्रत्यभिज्ञा-स्पन्द्कारिका की टीका ( स्यन्दभ्रदीपिका ) ।
४१ उत्पलाचायं -९१० । प्रत्य ०--१. रिवदृष्टि की वृत्ति, २. प्रत्यभि टीका, ३.
प्रत्यभिन्ञाविवरण, ४. सिद्धित्रयी, ५. दिवस्तोत्रावलि । ज
४२ उद्यकर-- १७२० । -व्याकरण--१. लघुराग्देन्दुशेखर की व्याख्या ( ज्योत्ला ), २.
परिभाषाप्रदीपाचि। योग--योगसूत्रवृत्ति ।
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६३? सबेदशेनसंमदे-
४२ उद्यन -९८४ । न्याय-- १. न्यायवातिकतात्पयं की रीका ( परिशुद्धि ) । २. आस्मि °
तच्वविवेक ( बौद्धयिक्कार ) । ३. न्यायकुसु नाञ्जलि* । वैशे०-- १. प्रशस्तपाद के पदाथ-
धरम॑संग्रह कौ टीका ( किरणावली ) ।
४४ उदुयप्रभदेव--!। जैन--आरंभसिदि ।
४५ उद्याक्रसूनु--{ । प्रत्य° --श्िवदुषटिसुत्रदत्ति ।
४६ उद्योतकर -६३५ । न्या०--न्यायवातिक ( वत्स्यायनभध्य पर ) 1
४७ उपमन्यु--१८३० । व्या०--कारिकारौका ( तत्वविमर्धिनी ) ।
४८ उपव --२०० ३० १० । मीमांसा--मीमांसासूत्रवत्ति ।
४९ उमास्वाति ( मी ) --५° । जेन--तत्वा्थधिगमसूत्र ।
५० कणाद् - १०० दे पूण | वे०-- सूत्र ।
५९१ कपिल --! । सांख्य--१. सूत्र ( अप्रा ), २. तत्वसमास ( १ ) ।
५२ कमलाकर - १५९० । मी०--तन्त्रवाततिकव्याख्या ।
५३ कल्याणमन्ञ--? । व्याकरण--शब्दरलन्राख्या ।
५४ कर्याणरक्तित -! । बौद्ध-दश्वरमङ्गकारिका !
५५ कञ्च --८५४ । प्रत्य -- दिवसुत्रृत्ति ८ तच्वाथैचिन्तामणि चा मधुवाहिनी ) ।
५६ कविपति -! । सांख्य--सांख्यतत्वप्रदीप ।
५७ कात्यायन --( वररुचि )-२०० ई० १० व्याकरण--सूत्रवातिक ।
५८ कात्यायनीपुत्र -? । बोड--अभिधमंशञानप्रस्थानसत् ( महाविभाषा )।
५९ कुन्द ङ्न्द्-( पद्मनन्दि, टलाचार्य, वक्रग्रीव )- २५ । स्ैन--१. प्रवचनसार, २.
पंचास्तिकायसमयसार, ३. द्रादश्ानुप्रे्षा, ४. रयणसतार, +. समयप्राशृत ।
६० कष्पुक्ञासख्री -- १७५० । व्याकरण--परिभाषामास्कर ।
६१ कुभारजीव --२८० । बौद्ध मूलमाध्यभिककारिका-इत्ति ।
६२ कुमारवेदान्ताचायं -१४२० \ वि वे०--१. न्यायतिलकं की टीका, २, त्वत्र
न्ुलकं की टीका ।
६३ ऊमारिरभट-9६० । मी०--रवरमा = की रीका ( श्लोकवातिक, तन्त्रवातिक
इप्रीका )
६४ कूरनारायण - ५३८० । वि० वे ०--उपनिषद् वृत्ति ।
६५ कृष्णं भट -- १। अ० वे० --विवरण की दका ।
६६ कृष्णताताचायं - १४५० । मि वे० - न्यायसिद्धाज्ञन की रीका ।
&७ कृष्णदेव --६२० । बौड--मध्यमप्रतीत्यसरसुत्पाद ।
६८ कष्णघूजैटि - ?। वै०-तकसंगरद कौ टीका ( सिद्धान्तचनद्रोदय ) ।
६९ ष्णमिश्च -१७०० । व्या०-- १. शब्दवौस्त॒म की व्याख्या ( भावदरीष १» २. मनो-
रमा-टीका ( कल्पता ), ३. रधुमंजूषा की टीका ५ कुद्धिका )। सां०--१. साख्य-
“= शाला स्ासताः रसालाशवनिकन व्याख्या, २. सांख्यसूत्रविवरण ।
त
१. ( ४३ ) न्यायकरुसुमांजलि के टीकाकार--वधैमान ( १२२५ )› रचिद् ( १२९५ ),
वरदराज ८ १४०० ), वामध्वज, युणनन्द, नोपीनाथमौनि; जयरामः चन्द्रनारायण ।
आत्मतत्वयिवेक के टकाकार-- वधमान, मथुरानाथ (१५८०), हरिदासमिश्च (१५९ ०) 1
दाशंनिकास्तत्कृतयश्च ६३१
७० कृष्णमौनि १७०० । व्य(०--सिद्धान्तकौमुदी की ज्याख्या ( उबोधिनी ) ।
७६ कृष्णयञ्वा-- ? । मीमांसा-मीमांसापरिभाषा ।
५२ कृष्णशेष -- १५२० । व्याकरण पदचन्द्रिका ।
७३ केशवमिश्र --१२५० । न्याय तकभाषा (प्रायः २५ टौकारओं से सम्मानित ) ५
७४ केयट ११०० । व्या०-महामाष्य कौ व्याख्या ( प्रदीप )।
७५ कोण्डभट - १६४० । व्या०--१,. वैयाकरणभूषण, २. भूषणसार ( प्रायः ८ टीका )।
७६ क्तेमेन्द्र --१०८०। बौ ०--वोधिसत्सावदानकल्पलता ।
७७ खण्डदेव-- १६७० । मी०-सूत्रवृत्ति ( भाट्दौपिका। )
७८ {९७५ । अ० वे०-सिद्ान्तलेश की टीका ( बिन्दु शीकर )।
७९ गङ्ख पाध्याय-- ११७५ । न्याय-तत््वचिन्तामणि ( नव्यन्यांय का प्रवत॑कृ ) ।
<° गणेशदास- १५७० । न्याय-षोडद्रापदार्थीं । &,
< गदाधर -- १६५० । न्याय-तत्वदीधिति की रीका (गदाधरी) । व्याकरण--१. कारक-
निणेय, २. उपसर्गविचार ।
<२ गुणभद्र--९०० । जेन--आत्म।नुशासन ।
< गुणमति--२७० । वौद्ध--अभिधरमनेष की रीका ।
<४ गुणरत्न--१४०० । तकरहस्यदीपिका (= षड्दरानसमुच्चय की टीका ) ।
८५ गोपार्देशिक-- ? । वि० वे० -रहस्यत्रयसार की टीका ।
<& गोविंदभगवत्पाद् --७८० । रसेश्वर--रसहृदय । अ० वे०--अद्रेतानुभूति ।
<७ गोविदाचायं - १४०० । रसे०-रससार ।
<< गोविदानन्द् - १५७० । अ० व° --शारौरभाष्य की रत्नप्रभा-टीका ।
<९ गोडवादाचार्य- ७५० । रोव-- १. शक्तिसूत्र, २. सुभगोदय । साख्य - कारिकमाभ्य ।
अ० वे०-माण्डूक्यकारिका ।
९० गौतम--२० अक्षपाद ।
५१ चक्रपाणिरोष-- १६४० । व्या० -मनोरमाखण्डन ।
५२ चण्डमारतमहाचायं १४१० । वि० वे०--१, श्रीमाष्य-रीका, २.शतदूषणी-रीका ।
९३ चण्डेश्वर - ?। अ० वे०--अपरोक्षानुभव की रीका ¦
१४ चतुखंज-- ? । रपे०-रसहदय कौ रीका ।
९५ चन्द्रकान्त-- १८८० । वे कणादसूतरवृत्त ¦
९& चन्द्रकीतिं-५५० । बौड- १, मूलमभ्यमकारिका वृत्ति ( प्रसन्नपदा ), २. माध्यम-
कावतार ।
९७ चन्द्रगोमि--६२५। बौद्ध--न्यायालोकसिद्धि ।
१- ( ७३ ) तकमाषा की टीका क्िखने वाले चित्रभट्र ( १३५०), वैकराचारय
रामङ्गि ( १४६० ), गोव्॑न ( १५७० ) सुरारि ( १६१०), शुभविजय ( १६१० ),
विश्वनाथ ( १६३४), भौरीकान्त ( १६५० ), माधवदेव ( १६५५ ), सिद्धचन्द्र ( १७४० ),
साभवभट् ( १७७० ), गणेशदीक्षित ८ १७८० ), वागीदा, केँडिन्यदीक्षित, बलभद्र, गुड्भद्,
गोपीनाधमौनि, भास्कर, गोपीनाथटक्कुर, चैतन्यभद्, नागे ( १७१४ ); दिनकर, गंगाधर-
अट्, नारायण आदि ।
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६३२ ` सर्वदशेनसंग्रदे- `
९८ चन्द्रप्रभ--११०० । जैन--न्यायावतार कौ टीका ।
९९ चन्द्रसूरि--११९६० । जैन--नन्दिसूतर की व्याख्या ( दुगेषद ) ।
१०० चित्सुखाचायं-- १२२५ । अ° वे०--१. खण्डनखण्डखाद्य की टीक› २. ्रत्यक्तच्व-
प्ररीपिका ( चित्सुखी ), ३. नैष्कम्य॑सिद्धि की टोका, ४. शारीरकभाष्य टीका, ५. ब्रह्म-
सिद्धि की टीका ।
१०१ चृडामणि-- १ । न्याय-न्यायसिदधान्तमर ।
१०२ जगदीक्ा--१५९० । न्याय--तच्वदीषिति पर रिष्पणी ( जागदीश्ौ ) ।
१०३ जगन्नाथ --१६५० । व्या०--मनोरमाकुचमर्दिनी ।
१०४ जनाद॑नभट्र--१२२० । दवै त--मागवततात्पयैनिणेय कौ टीका । |
१०५ जय्ष्णमौनि ( कृष्णमौनि )--१७००। व्या०--१. लघुकौमुदी व्याख्या, २.
मध्यकौमुदी व्याख्या, २. सिद्धान्तकौमुदी व्याख्या ( छबोषिनी ) ।
१०६ जयतीर्थ--११९२-१२६८ । देत--१. आनन्दतीर्थ के ग्रथ कौ रीकार्ये, २. चन्द्रिका,
३. प्रमाणपद्धति, ४. वादावली । |
१०७ जयदेवमिश्र -- १२७८ । न्याय-तच््वचिन्तामणि कौ टीका (८ तत््वालोक ) ।
१०८ जयनारायण--? । वै०--कणादसूत्रवत्ति ।
१०९ जयन्त --८८० । न्याय--१. न्यायमंजरी ( न्यायसूत्र की वत्ति 9 २. न्यायकलिका \:
११० जयन्त -- १५८० । व्याकरण-- प्रक्रियाकौमुदी की व्याख्या ( तच्वचन्द्र ) ।
११९ जयरथ-- ११७० । व्रत्य०--तंत्राोक की रीका ।
११२ जयराम-? । न्याय-. कुसुमांजलि कौ रीका, २. न्यायसिद्धान्तमाला ।
११३ जय विज्ञय -- १४५० । जैन--नयोपदेशप्रकरण ।
११४ जयशेखर--१५०८ । जैन--उपदेशचिन्तामणि ।
११५ जयसागर--१४०० जैन-संदेहदोदावलि ।
११६ जयसिह-? ! न्याय--न्यायसाररौका ( तात्पयंदीपिका ) ।
११७ जयसेन--१ । जेन-धमरलाकर ।
११८ जयसो म-- १६०० । सैन- विचाररलंसंग्रह ।
११९ जयादिस्य ओर वामन--८७० । व्याकरण--अष्टाध्यायौ टीका ( कादिका )
१२० जानकीनाथ भट्धाचायं-१२०० । न्याय ~ न्यायसिद्धान्तमंजरी (प्रायः ८ रकाय)
१२१ जिनदत्तसूरि-१२२० । जेन-- विवेकविखास ।
१२२ जिनभद्--६०० । जेन--भवदयकसूत्र-नियुक्तिभाष्य ।
१२३ जिनवधनसूरि-- १४१५ । वै०--स्षपदाथीं ( शिवादित्यलिखित ) की रकां ।
१२ जिनहंस--१५५० । जैन--आचाराङ्गसूत्र की रीका ( प्रदीपिका ) 1
१२५ जिनेन्द्रबुद्धि--९४० । व्याकरण- कारिका कौ व्याख्या (बिवरणपंचिका या न्यास) ।
१२६ जीवराज--१४५० । न्याय-- १. तककारिका, २. तकंमंजरी ।
१२७ जेमिनि--६०० ३० पू० । मीमांसा- मीमांसासूत्र ( दशलक्षणी , ।
१२८ ज्ञानचंद्र-१७२० । जेन--समयसार कौ टीका ।
१२९ ज्ञानचंद्र-- १३५० । जेन--र ल्ञाकरावतारिका की रीका ( पंजिका ) ।
१२० ज्ञानचंद्र-६०० । वै ०--दशपदारथीं ।
दाशेनिकास्तत्कृतयश्च ६३३
२३१ क्ञानपूणं -? । न्याय--तारकिकरक्षा की टीका
९९२ ानसागर-- १३८० । जेन--आवदयकसूत्र की टीका ( ज्ञानसागसी ) ।
९२२ क्तानानन्द् -? । सांख्य-सांख्यतत्त्वकौमुदी की टीका । योग--योगसूत्र की वृत्ति ।
९२४ नात --? । सांख्य- सांख्यसूतरवत्ति ।
२३५ ज्ञनेन्द्रसरस्वती --१६४० । व्यां० - सिद्धान्तकौमुदी की व्याख्या ( तत्वगोधिनी )
२३६ ज्ानोत्तममिश्र--?। ० वे०--१. इष्टसिद्धि की टीका, २. नैष्केम्यंसिद्धि की रीका
( चन्द्रिका ) ।
२२७ टंकाचायं--? । वि° वे०--त्रहमसत्र की वृत्ति ।
१३८ तम्मणाचायं -? । दै त-कृष्णारृत-महाणैव की रीका ( न्यायविवरण )।
१३९ तकचूडामणि-! । न्याय-तस्वचिन्तामणि की टीका ( प्रकाश )।
५४० तारानाथ? । व्या०--सिद्धान्तकौञुदी की व्याख्या ( सरला ) ।
१४१ तिरकाचायं - १२४० । ज०--आवर्यकसूतर की रीका ।
१४२ त्रिलोचन --१। ठै०-मुक्तावली रीका ( त्रिखोचनी ) ।
१४३ दयाशंकर-- १७६० । अ० वे०- वेदान्तसार की टीका ८ बोधिनी )।
१४४ दामोद्रभट -? । मी°-सूत्रदृत्ति ( सुबोधिनी ) ।
१४५ दिङ्नाग --४०० । बौदध--१. प्रमाणसमुद्धय, २. आलम्बनपरीक्षा, ३. न्यायप्रवेश,
४. प्रमाणश्ञाखप्रवेश, ५. नयोद्धार, &. नयमुख ।
१४६ दिनकर --१६९० । न्या०-तकौमाषा कौ रीका ( कौमुदी )। महादेव के साथ
मिलकर --सुक्तावली की टीका ( दिनकरौ ) ।
२४७ देवदेम --? । बौद- विज्ञानकाय ।
१४८ दोवदत्त--१७५० । रसे०--धातुरल्ञमाला ।
१४९ देवनन्दी (जिनेन्दरबुद्धि, पूज्यपाद )-७००। तत्त्वाथांभिगमसूत्र की टीका(सर्वाथैसिद्धि)।
१५० देवद्धिगणि-- ४३२० । नेन--नन्दिसूत्र ।
१५१ देवसूरि -११४० । जेन --१. प्रमाणनय-तत्वालोका लंकार २. उसकी रीका ( स्या-
द।दरलाकर् )। ।
१५२ देवेन्द्र -१२७१। जेन--शब्दानुशासन टीका ( लघुन्यास ) ।
२५२ देवेन्द्रगणि--१०६० । जेन--उत्तराध्ययनसूत्रदीका ।
१५४ देवेश्वर -८२५ । दे०-मण्डनमिश्र ।
५५५ इमिडाचायं -?। भि° वे०-- ब्रह्मसूत्र माष्य ।
१५६ धनपति- १८०० । अ० वे०--१. गीता की दीका, ३, वेदान्तपरिभाषा की रीका
( अथेदीपिका ) ।
५७ धरणीधर -? । व्याकर ण--पाणिनिसूत्रृत्ति ( वैयाकरणसर्वस्व ) ।
२५८ धमंकी्ति- ६३५ । वौड--२. प्रमाणसमुच्चय कौ रीका ( प्रमाणवातिक ), २. संता-
नान्तरसिद्धिः ३. न्यायविन्दु, ४. प्रमाणविनिश्चय, ५. देतुबिन्दु, ६. संबन्धपरीक्षा,
७. चोदनाकरण ।
२५९ ध्मेययदीक्तित--१६००। अ० वे०- सिद्धान्ते की रीका ।
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१६० ध्मराजाष्वरीन्द्र--१५७० । अ० वे०--१. पञ्चपादिका टीका ( पददीपिकां ) २.
वेदान्तपरिभाषा ।
१६१ धम॑सागर --१५७२ । जे ०--प्रवचनपरीक्षा !
१६२ धर्मोत्तर--८५० बौ ०--न्यायबिन्दु की टीका ।
१६३ नकुटीश--( लकु )--{ । पा --पञ्चाथंसूत्र ( पञ्चाध्यायी ) ।
१६४ नन्दिकेश्वर --? । शेव--नन्दिकेश्वरकारिका ।
१६५ नरहरि--? । दरैत--ब्ह्मसूत्रमा्य कौ टीका ( भावप्रकाश ) ।
१६६ नरेश्वर --? । रोव--रिवसुत्र कौ रीका ।
१६७ नागाज्ञुन- १५०! बौढ--१. मूलमध्यमकारिका, २. ख॒हल्लेख, ३ शतसाः
४, माध्यमकावतार, ५. धमंसंग्रह ।
१६८ नागार्जुन --४०० । रसे०--रसरत्नाकर ।
१६९ नागे - १७१४ । न्याय--२. न्यायसूतरदृत्ति, २. तकंमाषा की टीका ! वै०-कणा-
दसूत्र की वृत्ति । मी°--जेमिनिसूत्रदृत्ति । व्याकरण -- ९. प्रदीप की दीका (उदयोत),
२. श्ब्दवौस्तुम की व्याख्या ( विषमी ), ३. शब्देन्दुरेखर के दो संस्करण ( गरदत्
ओर लघु ), ४. परिभाषेन्दुशेखर, ५. वैयाकरणसिद्धान्तमन्जूषा के तीन संस्करण
बृहत् , लघु ओर परम लघु ) । भ्यो --सूत्रवृत्ति ( रघुदृत्ति ) ओर द्याया ।
१७० नाथसुनि--?) वि० वे०-- विष्णुपुराण कौ टीका ।
१७१ नारायण--१५८० । मी०-शाल्लदीपिका कौ व्याख्या ।
१७२ नारायण--? । व्या ०-- १. प्रदीप की टीका ( विवरण ), २. सृत्रवृत्ति (रशब्दभूषण))
१७२३ नारायणकण्ड-- १००० ! रौव-- ग्रंथ अज्ञात ।
१७४ नारायणतौ्थं--१६५० । वैरेषिक--माषापरिच्छेद की टीका ( न्यायचन्द्रिकः ) ।
सांख्य--१. सांख्यकारिका पर गौडपाद-भाष्य की रीका ( चद्िका ), २. साख्यतत्व-
कौमुदी की टीका । अ० वे०-- आत्मबोध की टीका ( बालबोधिनी ) ।
१७५ नारायणभह--? ! मी ०--सूत्र कौ वृत्ति ( नयोधोत ), २. माट्माषाप्रकादिका
१७६ नारायणमिन्च--१६०० । यो०-- योगसूत्र की वृत्ति ( गूढाथेदीपिका ) ।
१७७ नारायणमुनि-- १४१५ । वि” वे०--१. वेदान्तरक्षा, २. तत्सम ।
१७८ नारायणसरस्वती- १६०० । अ० वे° -ज्ञारीरभाष्य की टीका ( भाष्यवातिक ) ।
1
१. (१६९) लघुशब्देन्दुशचेखर के टीकाकार -उदयकर् ( १७२० ज्योत्स्ना ), बाक्मद्ु
( १७५० चिदस्थिमाला ), राजाराम ( १७६० „, मैरवमिश्र ( १७८० चन्द्रकला )»
सदारिवभट्ध ( १७९० ), पाठक ( १७९५ ), भास्कर शाखी ( १८१० विवरण ), राघवाचायं
( १८२० विषमी ), वादेवञशचाख्नी ( १८९० गूढार्थप्रकाश्च ) ।
परिभविन्दुदेखर के रीकाकार-बालभटर ( गदा ); इन्दिरापति ( १७६० परीक्षा ).
मन्तुदेव ( १७६० दोषोद्धरण ); भीमभट्र ( १७६० नैमी ), शंकर भट ( १७६० शांकरी )»
लक्ष्मीनरसिंह ( १७६५ त्रिरिखा ), हरि नाधद्विवेदी (१७८० अकाण्डताण्डव), भैरव (भैरवी),
पाठक, एक अज्ञात रेखक ( अम्बाकत्री, १८०० ), राघवाचायं (१८१० त्रिपथगा), विष्णुम
( १८४०, चिचन्द्रिका ), वासुदेवद्याख्ली ( १८९०, तस्वादशं ); तात्याशाख्री (६८९७, भूति)»
जयदेवमिश्र ८ १९२० १ विजया ) ।
दाशेनिकास्तत्छरतयश्च ६३५
१७९ नारायणाश्रम - १५६० । अ० वे०--१. मेदधिक्ार की टीका ( सक्रिया }, २.
अद्रेतदीपिकाविवरण ।
१८० निगमक्ञानदेशिक--? । रौव--रिवक्ञानगोध सूत्र की वृत्ति ।
१८१ निस्यनाथ-- ५३०० । रसेश्वर-रसरल्ाकर ।
१८२ नित्यानन्द्-? । अ० वे०--छ्ान्दोग्य ओर बृहदारण्यक की वृत्तियोँ ( मिताक्षरा ) ¦
१८३ नीलकण्ठ --१६५० । दौव--ब्रहमसूत्रमाष्य की टीका का तात्पयं ( क्रियासार ) ।
१८४ नीलकण्ठट-- १८३० । वै०-तकंदीपिका-प्रकाश्च । |
१८५ नीखकण्ठ - १६४० । व्याकरण--१. प्रदीप की टीक्रा ( कैयरप्रका्च ), २. सिद्धान्त-
कौमुदी की व्याख्या ( वैयाकरणसिद्धान्तरदहस्य ), ३. पाणिनीयदीपिका ।
१८६ नीरुकण्ठदेव्ञ- १७५० । मो०--सूतरवृत्ति ( सुबोधिनी ) ।
१८७ चृखिहदीक्तित-१६०० । अ० वे०-मेदपिक्ार की टका ।
१८८ नरसिहसमुनि-- १५०० \ अ० बे०--विवरणमभावप्रकारिका ।
१८९ नृसिंहसरस्वती-- १८७० । अ० वे०- वेदान्तसार की रीका ।
१९९ नृसिहाश्रम -१५५० । अ० वे ०--१. संकषेपदारीरक की टीका ( तत्त्वबोधिनी ), २.
मेदधिक्कार, ३. अद्रैतदीपिका ।
१९१ नेमिचन्द्र -१००० । जेन--१. £व्यसंग्रह, २. गोम्मटसार, ३. क्षपणकसार ।
१९२ नेनाराचा्यं--१४१५ । वि० वे०--१. तत््मुक्ताकलाप की टीका ( कान्ति ),
२. तच्त्रयनुलुक, ३. रहस्यत्रयचुलुक । |
१९३ पन्ञधरमिश्चर-( पक्षेश्वर )-- ? । न्या०-तत्वचिन्तामणि की रीका ।
१९४ पतज्ञटि- १५० इई ० पूवं । व्या०--महामाष्य । यौ०--योगसुत्र ।*
१९५ पद्मनन्दि--२४ । । दे० कुन्दकुन्द ।
१९६ पद्यनाभ-- ? । न्याय-- वधमान के न्यायनिवन्धप्रकाशच की रीका [ न्यायसूत्र--
भाष्य ( वात्स्यायन )-वात्तिक ( उद्योतकर )-तात्पयंरीका ( वाचस्पति )-परि-
शुद्धि ( उदयन )--न्यायनिबन्धप्रकाद्च ( वधमान )-वधंमानेन्द् ( पद्मनाभ )। ]
वे०--किरणावली की रीका ( भास्कर ) । दरैत-प्रदाथंसंग्रह ।
१९७ पद्मपाद्--८५५ । शेव--प्रपञ्रसार-टीका । अ० वे०--शारीरभाष्य की टीका ।
१९८ परकार-- १३९० । वि० वे०--१. श्रीभाष्यरीका ( भितप्रकाञचिका ), २. रहस्य-
त्रयसर की दीका ( सारप्रकाशचिका ) ।
१९८ परशराम - १ । शोव--वि्ाकस्पसूतर ।
२०० पशुपति - ? । पाश्चुपत-पऋ।थेविद्य। ।
२०१ पाठक-- १७९५ । व्याकरण-१. लघुदचब्देन्दुशेखर की व्याख्या, २. परिभवेन्दुशेखर
कौ व्याख्या ।
१. ( १९४ ) योगसूत्र के टीकाकार--व्यास ( १०० ), वृद्धभोज ( ६०० ), भोजराज
( १०२१ ), विज्ञानभिश्चु ( १५५० ), भावागगे्च ८ १५७५ ), रामानन्द सरस्वती (१६००),
नारायणभिश्चु ( १६०० ), भवदेव ( १६३० ), उदयंकर ( १७२५ ), नगिश्च ( १७२५ ),
अनन्तभट्, अरुणाचल, ज्ञानानन्द, सदारिवभट, महादेवभट, वृन्दावन ।
३९ सबेदशेनसंम्रहे- ईः
२०२ पाणिनि -५०० ई० प° व्याकरण--अष्टाध्यायीसूत्रपाठ ।
२०३ पार्थसारथिमिश्र --९००) मी०--२. श्चेकवातिक की व्याख्यां ८ न्यायरलाकर ),
तन्त्रवार्तिक की व्याख्या, ( न्यायरत्नमाला ), ३. मीमांसासूत्र कौ वृत्ति, ४. दाख-
दीपिका, ५. तन्त्ररत्न ।
२०४ पुञ्जराज -( पुण्यराज )-- ? व्या०-- वाक्यपदीय कौ व्याख्यां ( किरणप्रकाशच ) ।
२०५ पुरुषोत्तम -१३०० । व्या०- प्रयोगरलमाटा ।
२०६पुरुषोत्तमभ्रसाद् - १। विण वे०--शरुत्यन्तसुरद्रुम ।
२०७ पुरुषो त्तमसरस्वती -- १६२५ अ० वे०-सिद्धान्तविन्दुरीका ।
२०८ पुरुषोत्तमसोमयाजी -- ? अ० वे ०--सक्षेपश्चारीरक कौ रीका ।
२०९ पुष्कर ( मृगेन्द्र )-- ? । दौव--१. कामिकागम, २, करणागम, ३. सोरभेयागम,
-४. पौष्करागम, ५, किरणागम ।
२१० पूज्यपाद ( देवनन्दि, जिनेन्द्रबुद्धि )--७०० । जै०--त० सु° की टीका ( स्वाथं-
सिद्धि) । |
२११ पूर्ण--? । बौद्ध-धातुकाय ।
१२ पृणंप्रज्ञ -दे ° आनन्दतोथं ।
२१३ पूर्णानन्दती्थं -? । अ० वे०--सिद्धान्तबिन्दु की रीका ( तक्त्वविवेक ) ।
२१४ प्रकाशात्मुनि - १२००) अ० वे०--. पंचपादिकाविवरण, २. शाब्दनिणैय ।
२१५ भ्रकाल्ानन्द्--१५६५ ! अ० वे०--वेदान्तसिद्धान्तमुक्तावली ।
२१६ श्रव्यक्स्वरूप - १५०० । अ० वे०--चित्सुखी कौ रीका ।
२१७ प्रभाकर -७७५ । मीमांसा- सूत्र कौ व्याख्या ।
२१८ प्रभाचन्द्र -८८५ । जेन-- १. उपासनाध्ययन की दीका, २. परीक्षामुख की टीका
( प्रमेयकमल्मातेण्ड ) ।
२१९ प्रभाचन्द्र --१३०० । जेन-- १. आत्मनुश्चासन की टीका, २. समयक्तार् की रीका ।
२२० प्रभानन्द् -१३२० ¦ जन--वीतरागस्तुति की रीका ।
२२१ भ्र्ञस्तपाद् -४५० । वै ० -कणादसूत्रभाष्य ( पदाथषम॑संग्रह ) ।
२२२ बच्वाहामां -?। अ० वे०- गीता की गृढाथदीपिक। ( लेखक-मधुसृदन ) की रीका ।
२२२ बरूभद्र्-- १५५० । वे०-सप्तपदार्थी कौ रीका ।
२२४ बादरायण -( व्यास )-- १०० ई० पू ? । वेदान्त-- ब्रह्मस्त्र ।
१. (२०३ ) शखदीपिका की टदीकार्ये--सिद्धान्तचन्द्रिका ( रामकृष्ण १५०० )
कपरवातिक ( सोमेश्वर १५०० ), मयूखमालिका ( सोमनाथ १५४० ), नारायण की व्याख्या
{ १५८० ), आलोक ( कमलाकर १५९० ), भाददिनकर ( १६०० ), प्रका ( शकरभटु
१७०० ), प्रभा ( बारभट्र १७५० ) ।
२. (२२९) पदार्थधमं संग्रह के दीकाकार--व्यो मश्िवाचायं ( ९८० व्योमवती ), उदयन
( ९८४ किरणावली ), श्रीधर ( ९९१ न्यायकन्दली ), श्रीवत्साचायं ( १०२५ लोकवती ),
शोकरमिश्र ( १४२५ कणादर हस्य ), जगदीश ( १५९० भाध्यसूक्ति )
नक म + ‰। २१ क + > |
= # । भन ५4
॥
"+ नगक + + नम कि ~
दाशनिकास्वत्छृतयश्च ६३७
२२५ बारम् ( वेचनाथ पाययुण्डे }-१७५०। मी०--सूतरवत्ति ( न्यायविन्दु ) ।
न्याकरण--१. उच्योत. की टीका ( छाया ), २. शब्दकौस्तुभ की व्याख्या ( उदयोत ),
२. शब्दरत्न की व्याख्या ( भावप्रकाश ), ४. ल्ुशचन्दैन्दुशेखर की व्याख्या ( चिद-
स्थिमाला ), ५. परि० की टीका ( गदा ), ६. लधुमन्जूषा कौ टीका ( कला ) ।
२२६ बालकृष्णभट--१ । वै०-- मुक्तावली रीका ८ ग्रकादा )।
२२७ बालचन्द्र - ११२० । जैन-समयसार कौ रीका ।
२२८ ुद्धघोष--४०० । बौद्ध-विद्युद्धिमागं ।
२२९ जुद्धपालित -४०० । बौ०--मूलमध्यमकारिका की वृत्ति ।
२३० बृहस्पति! । चर्वांक-सूत्र । |
२२१ बोधेन्द्र--? । अ० वे०--आत्मवोध की रीका ( भावप्रकाशिका ) ।
२३२ बोपदेव--११८० । अ० वे०-मुक्ताफल । व्याकरण- कामधेनु ।
२३३ बौधायन--३०० १० १० । वेदान्त बरह्मसूदत्ति । मौ --सूत्रवृत्ति ¦
२२४ ब्रह्मानन्दसरस्वती-- १५६५ । अ० वे०--१. इईंशावास्यरहस्य, २. सिद्धान्तविन्दु
का टीका ( न्यायरल्लावली ), ३. अद्रैतसिद्धि की व्याख्या; ४, वेदान्तमुक्तावली ।
२२५ भगवत्तीथं --? । दैत--ब्रहमसूत्रमाष्य की टीका ( मावगप्रकाशिका ) ।
२३६ भगीरथमेव -१५७० । न्याय द्रव्यप्रका दधिका ।
२२७ भटृदिनकर १६०० । मीमांसा-- शा्लदीपिका की व्याख्या ( मादट्रदिनकर ) ।
२३८ भटरोजिदीक्तिति--१५७८ । व्याकरण--१. शब्दकौस्तुभ ८ सूत्र "की रीका ¦ क
सिदधान्तकरजुदी, ३. प्रौढमनोरमा ( सि० मकौ की व्याख्या ) ।* अ० वे०--१.
तत्त्वकोस्तुभ, २. अद्रैतकौस्तुभ ।
२९९ भदन्त! । बोद्ध. परजञापारमितासूत्र, २. तथागतयुद्यसूत्र, ३. महायानसूत्र,
४“ कङ्कावतार सूत्र, ५. रुकितविस्तरसूत्र, ६. जच्छेदिका, ७. खुखावतीव्यूह, <.
सद्धमपुण्डरीक महाविभाषा, ९. संयुक्ताभिशाज । |
२४० भङ्रबाहु २०० ई० पू० । जेन--१. कटपसूत्र, २. दस नियक्ति-मन्थ ।
२४१ भरद्वाज --? । वै० -कणाद । ।
२४२ अतृंमिन्न -!। क ।
२४२ भवदास-? । मी०- स । |
२४४ भवदेव -- १६२० । मी०--तत्रवातिकव्याख्या ( तौतातिततिलक ) । सां०-सांख्य-
कारिकावृत्ति । यो०-- योगसूत्र की वृत्ति ।
२४५ भवनाथ -- १३६० । मी०-मीमांसानयभ्रिवेक ( सूत्रवृत्ति ) ।
२४६ भवानन्द् - १६०० । न्याय-तत्वदीधिति की रीका ।
१२३८ ) सिान्तकरौसुदो की जन्य यके जीर शीकाकार--त्वमोषिनी ( शने
सरस्वती १६४० ), सुबोधिनी ( कृष्णमोनि १७०० ), वासुदरेवदीक्षित की बालमनोरमा
( १६६० ) नीलकण्ठ का वैयाकरणसिद्ान्तरहस्य ८ १६६०), रामकृष्ण का वैयाकरण.
सिद्धान्तरलाकर ( १६७० ), नागेद ( १७१४ ) के राब्देन्दुशेखर ८ ल्घु ओर श्हत् ),
कृष्णमिश्र का रलणेव ( १७५० ), लक्ष्मीनृसिंह ८ १७६५ ), इन्द्रदत्त, विश्वश्वरती्थ,
तारानाथ ( सरला )।
६३८ सर्बदशेनसंग्रहे-
२४७ भारतीयति- १४०० । सांख्य--सांख्यतत्त्वकमुदी की व्याख्या 1
२४८ भावविवेक -६०० । बौद-- १. मूलमध्यमकारिका की वृत्ति (्रज्ञाप्रदीप), २. तकं-
ज्वाला ( दशेनसंग्रह ), ३. मध्यमहृदयकारिका )
२४९ भावागणेक - १५७५ । सांख्य--१. सांख्य समासत की टीका, २. सांख्यसार,
३. सांख्यपरिभाषा, ४, सांख्यतच्वप्रदीपिका ।
२५० भासर्वज्ञ--९७५ । पाञुपत- नकुली शयोगपारायण । न्याय- न्यायसार ।
२५१ भास्कर - १०२० । प्रत्य ०-- दिवसूत्रवातिक ।
२५२ आस्करराय-१५९० । रोव-- १. नित्याषोडरिकाणैव-सेतु, २. मावनौपनिषद्-
भाष्य, ३. श्रोसुक्तभाष्य, ४. कौलोपनिषद् भाष्य, ५. वरिवस्यारहस्य, &* लङ्ता-
सहस भाष्य, ७. गुष्ठवती ( सप्तश्चती की रीका ) । |
२५३ भास्करशाखी -१८१० ! व्याकरण- ल्द की व्याख्या ।
२५४ भोजराज --१०६० । शेव--तत््वप्रका । यो०--योगसुत्रवृत्ति ( राजमातेण्ड )
२५५ स्ैरवतिरुक-- १७६० । अ० वे०--रदमसूत्रतास्मयविवरण !
२५६. सैरवमिश्र- १७८० ! व्याकरण-- ९. लघुद्ा° कौ व्याख्या ( चन्द्रकंखा ); २. परि-
भषिन्दुेखर की टीका ( भैरवी ), ३. ्रेयाकरणभूषणसार की टीका ( परीक्षा ) ।
२५७ मङ्गरूधर्माचायं - ! दरेत--षटप्ररनोपनिषद्-म्यरीका विवरण ।
२५८ मण्डनमिश्र -( विश्वरूप, देवेश्वर, सुरेदवराचायं )--८२५। मीमांसा--१* तन्त्र
वातिक व्याख्या, २. मीमांसानुक्रमणी, २. विधिषिवेकं ( वाचस्पतिङृत न्यायकणिका
ते सम्मानित )। अ० वे०--९. बृहदारण्यकभाष्यवातिक,) २. तैत्तिरीयोपनिषद्.
माध्य, वातिक, नष्कम्यसिद्धि ।
२५९ मथनसिह -- ५७०८ । रसे०--रसनक्षत्रमाछिकि ।
२६० मथुरानाथ- १५८० । न्याय-- ^“ आ[त्मतच्वविवेक की रीका, २. तत्वदीधिति को
दकाय ( तवालोकरदस्य, मथुरानाधी ) ।
२६१९ मदनान्तदेवसूरि -- १ रसे --रसचिन्तामणि ।
२६२ मधुसूदनसरस्वती -- १५६० । अ० वे०- १. संक्षेपश्चारीरक की टीका ( सारसग्रह-
दीपिका ), २. दशचश्लोकी-टीका ( सिदधान्तबिन्दु ) १ ३. प्रस्थानमेद, ४. अद्रैतरल-
रक्षण, ५. वेदान्तकस्परुतिका, &. अद्वैतसिद्धि, ७. इश्वरप्रतिपत्तिप्रकाश, <. भक्ति-
रसायन ।
२६३ मध्यमन्दिर-दे° आनन्दतीथ ।
२६४ मन्तुदेव --१७६० । व्या० --त्रैयाकरणभूषणसार की टीका (लघु ओर बृहत दपेणा) ॥
२६५ मरधारिराजशेखर--१३४८। जेन-- १. द्रभ्यसंग्रद,२. षड्दशेनसमुचय (की टीका ?)।
२६६ मलख्यगिरि--१२५० । ज्ैन--उपाङ्गमरन्धो की टीका ।
२६७ मज्ञवाक्याचायं - ११६० । बौद्ध न्यायबिन्दु की रीका ।
। सर मारि 1४1 व ~ ~ मज्ञारि- १६०४ । रसे०--रसकौतुक ।
९: जडन्तविन्दु के टीकाकार पुरुषोत्तम सरस्वती, ब्रह्मानन्द सरस्वती, पूणा नन्दतीथे
( तत्वविवेक ), सच्चिदानन्द, वासुदेवश्चाख्ी अभ्यंकर ( १९२६ )।
दाशंनिकास्तत्करतयश्च ६३६
२६९ मच्चिनाथ-- १३५० । न्याय--ताकिकरक्षा की टीका ( निष्कण्टक ) । वै०- सप्त-
पदार्थं की टीका ( निष्कण्टक ) ।
मह्ञिषेण-- १२९२ । जेन--स्याद्वादमञ्री ( वीतरागस्तुति कौ रीका )।
२७१ महादेव -- १६९० । दे दिनकर ।
२७२ महादेवभट्- १५३०) न्या०--न्यायसुत्रवत्ति (मितभाषिणी) । यो” --योगसुत्रवत्ति +
२७३ महादेवसरस्वती -- १७०० । सांख्य--पूत्रवृत्तिरीका । अ० वे०-तत्वानुसंधान ।
२७४ महानन्द् - १८२० । व्या०- वे याकर णभूषणसार की टीका ।
७५ महामिश्च - ?। व्या०-कारिकान्यास की व्याख्या ( व्याकरणप्रकाद ) |
२७६ महेन्द्रसुनि-- ?। जेन--ज्ञनोदयसारसंयह ।
२७७ माट्राचाय--१०० । सां०-- सांख्यकारिका की वृत्ति ।
२७८ माणिक्यनन्दी--<००। जैन--१. आप्तपरीक्षारीका (पराक्षामुख), २. प्रमेयरल्ञमाला \
२७९ माधवदेव-१६५५ । न्याय--१. न्यायसार, २. तर्क॑माषा कौ टीकां ।
२८० माधवाचाय ( विद्यारण्य )--१३५० । मीमांसा- जैमिनीयन्यायमाला विस्तर ।
व्याक०--धातुदृत्ति। अ० वे०--१. इहदारण्यकभाष्यवार्तिकसार, २. तैत्तिरीयोप-
निषद् दीपिका, ३. विवरणप्रमेयसंग्रह, ४. वेयासिकन्यायमाला, ५. जीवन्मुक्तिविवेक,
&. पञ्चदशो । दश्न-सवदश्चनसंग्रह ।
२८१ मानतुंग--&०० । जैन-- भक्तामरस्तोत्र ।
२८२ मित्रमिश्र -१५८० । न्याय--१. सुत्रभष्यरीका (न्यायदीप), २. पदाथ॑चन्द्िका ।
२८३ मुद्ररुसूरि- १। वि° वे०--रातदूषणी ( वेदान्तदेशिक १ ) ।
२८४ मुनिसुन्द्र-- १४२५ । जेन--अध्यात्मकस्पद्रम ।
२८५ श्रगेन्द्र-दे° पुष्कर ।
२८६ मेरुतुग --१३०० । जेन--१. षड्दशंनविचार, २. प्रवन्धचिन्तामणि ।
२८७ मोहनभट-- १ । वे०-तकंकौमुदी की रीका ।
२८८ मौद्लायन-- १ ! बौ०--प्रशपिरा ख ।
२८९ यदुपति--१८००। दैत--१. न्यावञ्ुधारीका, २. तच्ववरिवेकरीका, ३. तच्व-
संख्यानटीका ।
९० यश्ोधर-- १२६० । रसे०-रसप्रकाशसुधाकर ।
२९१ यश्लोमित्र--३४० । बोद्ध--अभिधमंकोष की रीका ( स्फुटार्था ) ।
२९२ यशो विज प्र-- १५०० । जेन--१. मा्गपरिज्युदि, २. नयप्रदीप ।
२९३ यज्ोविजय--१६८० । जेन--१. अध्यात्मपरीक्षा, २. ज्ञानबिन्दु, ३, नयप्रदीप, ४.
ज्ञानसार, ५. अध्यात्मसार ।
२९४ याज्ञवल्क्य १। योग--१. योगयाज्ञवदश्य, २. याज्ञवल्क्योपनिषद् , ३. इठ-
प्रदीपिका, ४. योगानु्चास्न, ५. राजयोग ।
२९५ यादृवप्रक।(श-- १२६० वि० वे०--यत्िधमंसमुज्चय ।
२९६ यामुनाचायं-- १०४० । प° वे०--१. आगमप्रामाण्य, २. ्िद्धित्रय, ३. गीता
संग्रह, ४. स्तोत्ररल्न ।
२९७ योगराज--१०५० । प्रत्य०--प्रमाथंसार-ैका ।
क ~~~
-------
2४० ` संदशेनसंम्रदे-
२९८ योगानन्द्-- ? 1 सां०-- सांख्यकारिकाटीका ।
२९९ रक्लिति-- ? । व्या०--ब्ातुपाठ की रीका ( धातुप्रदौप ) 1
२०० रधुनाथ- १३००1 न्याय--१. तर्वचिन्तामणि की टीका ( तत््वदीषिति ),
२. पदार्थखण्डन ।
३०१ रघुनाथ--१८०० । सांख्य-- सांख्यतत्त्वविलास ।
३०२ रघुनाथश्चाख्री--१८६० । न्याय-गदाधरी-टीका ( न्यायरत्न ) ।
३०३ रघुनाथश्चाखरी--१९६० 1 व्या०--बाज्यपदीय-टीका ( अम्बक ) ।
२०४ रघूत्तमयति--! । दैत--१. जयतीथं की टीकां की व्याख्या, २. आनन्दतीर्थ
के बृहदारण्यकमाष्य कौ व्याख्या ।
२०५ रङ्गनाथ--? । व्याकरण-पदमज्ञरी ( दरदत्त ) कौ व्याख्या ( मकरन्द ) ।
३०६ रङ्गराज-- २३५० । पि ० वे०--विषयवाक्यदीपिका ।
३०७ रङ्गरामानुज--१२०० । वि० वे०--२. श्ुतभरकािका को टीका, २. न्यायसिद्धाज्जन
कमी टीका, ३. उपनिषद्भाष्य ‹
२०८ रङ्गोजिभट--१६२५ । अ० वे०-अद्रैतचिन्तामणि ।
३२०९ रल्नप्रम--११८१ । जैन--त्याद्वादर त्न।कर की वृत्ति ( अवतारिका ) ।
२१० रल्नेश्ष--? । व्या०--रक्षणसंग्रह ।
२११ रम्यजामातृमुनि-- १४४० । वि० वे ०-निरूपण ।
२१२ रम्यदेव--? । अ० वे०--ष्टसिद्धिरीका ।
३१३ राधवाचार्य--१८२० व्या०--२. रब्दवौस्तुमव्याख्या ( प्रभा ), २. लष्ुश० कौ
व्याख्या ( विषमी ), ३. परिमां० की व्याख्या ( त्रिपथगा )
२१४ राघवानन्द्-१६०० । मी०- माद्रस्ंग्रह ।
२१५ राघवेन्द्रतीर्थ - ? । देत--१. तक॑ताण्डवटीका, २. न्यायकदपलूताटीका ( भावदीप
३. वादावलीयैका ( भावदीपिका ), ४. चन्द्रिकारीका ( प्रकाश ) ५. उपनिषद्-
व्याख्या, ६. संक्षेपभाष्यविवृति ( तच्वमज्गरी ) । कः
२१६ राजानकलासक--? । प्रत्यभिज्ञा--गीता-टीका ( रासकी )।
२१७ राजारामदी ङित-- १७६० । व्या०-रघुमन्जूषा-टौका ।
३१८ राधामोहन--: । न्याय--न्यायसूत्रविवरण ।
३१९ रामकण्ट--९५० । प्रत्य ०--१. स्पन्दकारिका टीका (विदृतति), २. भगवद्रीता-टीका ।
| ३२० रामङृष्ण--?। षि वे०--विद्िष्टादवेतसं्रह् । `
। ३२१ रामङृष्ण--१५०० \ मीमांसः--६. शालदीपिका व्याख्या, २. मीमांसासुत्वृत्त
| ( प्रकाचिकां )
३२२ रामङ्कष्ण- १२७५ । अ० वे०-प्द्रदशी की टीका ।
। ३२३ रामकृष्णाध्वरीन्द्र--१६०० 1. अ० वे०--वेदान्तपरिभाषा कौ रीका (शिखामणि ) 1
| ३२४ राम्ृष्णानन्द्--? । व्याकरणमहाभाष्य की टीका ।
३२५ रामचन्द्र--१७३५ । रसे०-रपेन्दरचिन्तामणि ।
३२६ रामचन्द्--९४२० । व्या०- प्रक्रियाकौमुदी ।
३२७ रामचन्द्र--? । सां०--सांख्यस् त्रवृ्ति ।
२२८ रामचन्द्र--१७२३०\ अ० वे०-सिद्धान्तलेशच कौ टीका ।
दाशेनिकास्तत्कृतयश्च ६४९
३२९ रामचन्द्र--१५६५ । अ० वे०--१. अद्वैतप्रकाड, २. अद्रैतरहस्य, ३. अद्ैत-
निणेयसंग्रह - । |
२२० रामचन्द्रशेष--१५६० । व्या०--परक्रियाकोमुदी कौ टीका ८ गूढभाव वृत्ति ) ।
३३१ रामचन्द्राश्रम-? । जेन-सिदधान्तचन्द्रिका ।
३३२ रामतीथं--१६२५ ) भ० वे०--. संकषेपशारीरक कौ टीका ( अन्वयाथ॑प्रकादिका )+
२. उपदेशसाहश्लीरीका, ३. वेदान्तसारटीका ( पिद्रन्मनोरज्ञनी ) ।
३३२ रामरुद्र--१७०० । वै ०-दिनकरी की दीका । |
३३४ रामसुब्रह्मण्य--१५८० । अ ° वे०-वेदान्तमुक्तावरी कौ टीका । -
३३५ रामानन्दसरस्वती--१६०० । योग--पुत्रवृत्ति ( मणिप्रभा ) । अ० वै --सतरवृत्तिः
( ब्रह्मामृतवषिणी ) । | कः
२२६ रामानुजाचायं-( १०१९- ११३९ ) । वि० वे०--. श्रीमाष्य ( बरहमूतर पर )१,
२. वेदान्तदीप, ३. वेदान्तसार, ४. वेदाथंसंग्रह, ५. गीताभाष्य, &. रहस्यत्रय ।
३३७ रामेश्वर--? । रोव--वि्ाकद्पसुत्रवृत्ति ( सौभाग्योदय ) ।
२३८ राशीकरभट--३५० । पाशु०-पव्राथसुत्रभाष्य ।
३३९ रद्र--१६५० । वे ०--मुक्तावलीरीका ( रौद्री ) ।
३४० लछचमणसरि--? । मी ०--सूत्रृत्ति । व्या०--मदाभाष्यरीका ( आद ) ।
३४१ लच्मणाराध्य-? । वि ० वे०-अद्रैतरत्न ।
३४२ कचमीधर--१३२० । शेव--सौन्दयेलदरी की टीका । अ° वे०--अद्रैतमकर न्द ।
२४२३ खघुपद्मनन्दी-- १३५० । जेन--१. परमात्मप्रकाञ्च की टीका, २. यत्याचार ।
२४४ रघुसमन्तभद्र--११४० । जेन--अष्टसदस्री की टीका ( विषमपदतात्पयं ) ।
३४५ रोकाचाये--१२८० ! वि० वे ०-तत्वत्रय, २. तत्त्वहेखर् ।
३४६ लौगाक्तिभास्कर--१६२५ । न्य य--१. न्यायसिद्धान्तमन्ञरीरीका, २. प्दाथ॑माला +
वै ०--तकेकौमुदी । मीमांसा--. जैमिनिसूत्रवृत्ति, २. अर्थसंग्रह ।
२४७ वंहीधर-? । सांख्य-तत्वकौमुदी टीका ।
२४८ वंश्चीधरमिश्र- १९५० । व्याकरण-परमलघुमंजूषा की टीका ( वंश्ची ) ।
२४९ वनमाली--१६७० । व्या०--वेयाकरणभूषणदीका ८ मतोन्मञ्जा ) ।
३५० वरद्नायक--१६१० ) वि ° वे०-तच्वत्रयनिरूपण ।
२५१ वरदराज--? । द्रैत- महाभारततात्पयेनिणेयरीका ।
३२५२ वरदराज--१६२० । व्याक०--१. लघुकोसुदी, २. मध्यकौमुदी ।
३५३ वरदाचायं--११२० । वि वे०--१. रामानुजसिद्धान्तसार, २. तच््त्रयनिरूपण ।
२५४ वधंमान--१२२५ । न्याय--१. परिश्ुदधिटीका ८ न्यायनिवन्धप्रकाश ), २. न्यायङ्क-
सुमांजलिटीका ( प्रकाद्च ), ३२. आत्मतत्वतिवेक की टीका । |
३५५ वधंमान--११५० । वै ०-किरणावलीप्रकाशच । व्या०--गणपाठ्टीका ( गणरत्न-
महोदधि ) !
१. ( ३३६ ) टीकाकार-सुदशेन ( शतिप्रकारिका १२२० ), रामानन्द, प्रकाल
( भितप्रकारिका १३९०); चण्डमारुतमहाचायं ( उपन्यास १४१० ), लक्ष्मणसूरि
८ प्रकरिका ), मेषनादारि, खन्दरराजदीक्षित, वाुदेवद्याज्ञी अभ्यंकर ।
४२ सवेदशेनसंम्रहे-
२५६ वज्ञभन्यायाचायं--११५० । वे०--न्यायलीलावती ।
२५७ वल्लभाचायं -- ८५२५ । मी°--सुत्र$ृ्तिव्याख्या । |
३५८ वसुगुक्च-८२० प्रत्य° दो०--शिवसुञ्च । ~
३५९ वसुनन्दि-- १२०० । जैन-- अष्टसदस्री टीका ( आ्तमौमांसावृ्ति )
२६० वसुबन्धु ( असंग के भाई ;--३२० । बौदध--?. विशकारिकाप्रकएणः, ९. परमाथ
सप्तति, ३. अभिधमेकोष, ४. सद्धम॑पुण्डरीक, ५. प्रक्ञपारमिता, &* रत्नत्रय, ७.
मध्यान्तविभागसृत्नमाष्य । ॑
२६१ वसुमिन्न-३५० । बौ०--१. अभिधमेकोष की टीका, २. प्रकरणपद ।
३६२ वागीद्--? । वि० वे०--न्यायसिद्धाज्जन ।
३६३ वाग्भटाचार्य--१२७५ । रसे०--एसरत्नसमुचय । |
३६५ वाचस्पतिमिश्च--८४१ । न्याय--१. न्यायवातिकतात्पयंदीका, २. न्यायसू चीनिवध,
३. न्यायसूत्रोद्धार । मौमांसा--१. मीमांसासूत्रबृत्ति, २. विधिविवेकरीका ( न्याय-
कणिका ) । सांख्य--सांख्यतत्वकौसुदी ( सांख्यकारिका की टीका ) योग--त्यास्माष्य
की टीका ( तत्ववैशारदी )। अ० वे०--१. भामती (शारीरभाष्य कौ टीका) २. बरह्म
सिद्धि की रीका ।
२६५ वात्स्यायन--३०० ! न्याय--पत्रभाष्य ।
२६६ वादिराज-- ? । दरैत--१. मदहाभारततात्पयंनिणेयगीका, २. मेदोऽ्नीवन, ३. युक्ति
मचिका।
२६७ वार्षगण्य--१०० । साख्य--पटितन्तर ।
२६८ बासुदेव--१६६० । व्याकरण--१. काशिकावृ्तिसार ( टीका ), २. सिद्यान्तकौमुदी
की व्याख्या ( बालमनोरमा ) ।
३६९ वासुदेव काश्मीरिक-- ए । न्या०--न्यायभूषण ।
३७० वासुदेवश्षाख्री अभ्यंकर--(१८६२-१९४२) । दशेन--सवेदशेनसंग्रह कौ व्याख्या
( दशनांक्ुर ) । वि० बे०--१. श्रीभाष्यरीका ( विदृति ), २. यतीन्दरमतदीपिका की
टीका (प्रका) । व्याक०--१. लघुशब्देन्दु ० की व्याख्या (गृूढाथप्रकाद्च), २. परिभा०
की टीका ( तच्वादद्चं ) । अ० वे०--१- अद्वैतामोद, २. कायपरिशयुद्धि ।
२७१ वासुदेवसार्व॑भौम--१२७५ ! न्या ०--१. तत््वचिन्तामणि की टीका, २. सावंभौम-
निरुक्ति (१)।
३७२ विजञयसिह--११२० । जेन--कल्पसुत्र की टीका ( कलपावलोकिनी ) ।
२७२३ विक्ञानभिन्ञ--१५५० । सांख्य--१. सांख्यसुत्रमध्य, २. सांख्यसारविवेकं । योग--
योगसत्रवृत्ति ।
२७४ विद्टलट--१५०० । व्याकरण-- प्रक्रियाकौमुदी की व्याख्या ( प्रसाद् ) ।
३७५ विद्रेशोपाध्याय--? । अ० वे०-- प्रदैतसिदधि की व्याख्या ।
३७६ विद्याकण्ठ--८७० । पाश्ु०-भावचूडामणि ।
३७७ विद्याधीश--? । दवेत--. ब्रह्मसत्रालुव्याख्यान, २. न्यायसुधा की टीका ।
२७८ विद्यानन्दि--८००। जे०--१. तच््ार्थाधिगमस्त्र की रीका, २. आ्तमीमांसा
टीका, ३. आप्तपरीक्षा, ४ प्रमाणपरीक्षा, ५. तत्वाथाल्कार ।
दाशेनिकास्तत्कृतयश्च ६४३
२७९ विद्यापतिटक्कुर--१२२१। दो°-रौवसरवस्वसार ।
२८० विद्यारण्य--२० माधवाचायं ।
२८१ विच्येन्द्रसरस्वती-- १७००, अ० वे०--वेदान्ततत्वसार ।
३८२ विनयविजय--१६५२ । जेन--लोकम्रकाद्य ।
२८२ विनायकभट्--? । न्या०-पाकिंकरक्षा की टीका ( न्यायकौुदी ) ।
३८४ बिनीतदेव-- 9०० बौ०- न्यायबिन्दुरीकः 1
२८५ विन्ध्येश्वरीश्रसाद्--? । वैशे०--?. सुक्तावलीरीका, २. तकंसंग्रहरीका ।
२८६ विप्रराजेन्द्र--? । व्याकरण--सुत्रविवरण ८ शब्दाशरृत ) ।
२८७ विभानन्द्--?। सां०--१. तत्वसमाससृत्रवत्ति, २. समाससृवव्याख्या ( सर्वो-
पकारिणी ) ।
३८८ विमर्कीर्ति-- १६५० । जै०-पदव्यवस्थासत्रकारिका ।
३८९ विमरूदास-- ? । जे०--सप्तभङ्गितः ङ्गिणी ।
३९० विमुक्तात्मा ( मण्डनमिश्र )--८२० । अ० वे०--१. ब्रह्मसिद्धि, २. इष्टसिद्धि ।
३९१ विश्वकर्मा--? । व्या०-प्रक्रियाकौसुदी की व्याख्या ।
२९२ विश्वनाथ--१६३४ । न्या०--१. न्यायसुत्रभाष्यरीका, २. न्यायस॒त्रवृत्ति, ३.
तकेभाषा की रीका ( न्यायविलास ) । वैदो०--१. भाषापरिच्छेद ओर २. मुक्तावली ।
३९३ विश्वनाथतीथं-? । अ° वे०-सिद्धान्तलेश की रीका ।
३९४ विश्वरूप-- १५०० ! व्याक०--विश्वरूपनिबन्ध ।
३९५ विश्ववेद्--? । अ० वे०--१. द्ारीर भाष्यटीका, २. संक्षेपदयारीरकदीका (सिद्धातदोप)।
३९६ विश्वेश्वर-- १६५० । व्या०--सुत्रवृत्ति ( व्याकरणसुधामहानिषधि ) ।
३९७ विश्वेश्वर-- १३२० । अ० वे०--वाक्यवृत्तिरीका ( प्रकारिका ) ।
३९८ विष्णुदेव--? । रसेश्वर--प्सराजलक्ष्मी ।
३९९ विष्णुराम--? ) व्याकरण-प्ररिभाषाप्रकाद्च ।
४४० विष्णुस्वामी--? । दे ०-- १. ब्ह्मसुत्रमाभ्य, २. गीताभाष्य ।
४०१ वीरराघव--१४०० । वि० वे०-हस्यत्रयरीका ( तात्पयंदौपिका ) ।
४०२ वीरराघवदास--१४४० । बि° वे०--तात्पयंदीपिका रीका ।
४०३ वेंकटकृष्ण--? । द्वै --भागवततात्पयंनिणेयरीका ।
४०४ वेंकटनाथ ( वेदान्तदेशिक )--१२६७-१३६८। वि° वे०--१. रहस्यत्रयरीका
( चुलुक ), २. न्यायसिद्धाज्जन, ३. पञ्चरात्ररक्षा, ४. तत्त्वसुक्ताकलाप, ५. न्यायतिलक,
६. न्यायरल्लावली, ७. न्यायपरिद्युदधि, <. वादित्रयखण्डन, ९. तत्त्वमुक्ताकलाप की
टीका । मी०-सुत्रवृत्ति । ।
४०५ वेदाङ्गतीथ-? देत-मध्वविजय कौ रीका ।
४०६ वेदान्ताचायं- ११०० । वि० वे०-रहस्यत्रय की रीका ।
४०७ वेदेशती्थं -? । दरैत-प्रदा्थकौसुदी ( तत्वोचोतरीका की रीका ) ।
४०८ वेदेशभिद्ध--? । देत-- छान्दोग्यो पनिषद् भाष्य की टीका ( पदा्ैकौमुदी ) 1
४०९ वद्यनृपसूनु-? । रसे०-एसमुक्तावली ।
४१० व्याघ्रभूति-! । व्वा०--पूबत्रवृत्ति ।
६४४ _ ` स्वेदशनसग्रहे- `
५११ व्याडि--२०० ई० १० । व्या०--र. संग्रह, २. परिभाषादृत्ति ।
५१२ भ्यास--१०० \ यो०--पुत्रमध्य । अ० वे०--१. भगवद्रीता, २. ब्रह्मसुत ।
५१३ व्यासतीर्थं --१२६० । दैत--१. जयती के रधो की टौकाये ( तकंताण्डव आदि )»
२. चन्द्रिका, ३. कृष्णागृतमदाणेव की टीका» ४. उपनिषद्-भार््यो का विवरण).
५, मेदोउजी वन । |
५१४ व्योमशिवाचार्य॑--९८०। वै०--प्रशस्तपाद के पदाथंधम संग्रह् की टीका (न्यो मवती) }
४१५ कोकरभह--१७०० । मी०--१- शाखदीपिका क व्याख्या { प्रकाद्च ), २. मीमांसा-
बाङप्रकादय, २. सुबोधिनी । | नैः =
५१६ ज्ञकरमिश्र--१४२५ । न्याय--१. न्यायतात्ययेमण्डन ( न्यायनिबन्धप्रकांश कौ
टीकां ), २. जागदीशी की टीका, ३. ततत्वदीधिति की टीका । व ०--९. पदाथेषमे-
संग्रह की टीका, २. उपस्कार ( सूत्रवृत्ति )। भ० वे०--खण्डनखण्डखाच की रीका)
४१७ क्षंकराचा्यं --८०० । दोव--१. सौन्दर्यलहरी, २. प्रपञ्चसार, ३. लक्ितात्रिराती-
भाष्य । अ० वे०--१- दस उपनिषदो के भाष्य, २. चारीरकमीमांसिामाष्य, ३...
गीताभाष्य, ४. आत्मबोध, ५. अपरोक्षानुमव, ६. वाक्यवृत्ति, ७. दराश्चेकी, <.
उपदेशसादखी, ९. विवेकचूडामणि ।
५१८ जंकरानन्द--१३२'९ 1 अ० वे०-९. कैवस्योपनिषद्-वृत्ति ( दीपिका ), २. इेरा-
वास्यदीपिका, २. त° उ० दीपिका, ४. गीता की टीका ।
४१९ शंभुदेव--१५५० । दोव--१. सौवसिद्धान्तदीपिका, २. शमुपद्धति ।
५२० जंमुभट-१६९० । मी०--खण्डदेवकरृत साट्रदीपिका की टीका ( प्रभावती ) ।
४२१ शबरस्वामी--१०० ई पृ । मी०-मीमांसासत्रभाष्य )
&२२ इारणदेव--११७० ! व्या०-दुधेटवृत्ति ।
४२३ शाक्ाधर--? । न्याय--न्यायसिद्धान्तमश्जरी की टीका ( न्यायसिद्धान्तदीप ) 1
४२४ श्ाक्यञुनि-- ५५० ई० प° । वौद्ध--( वचर्नो का संग्रह ) १. सुत्तपिटक, २. अभि-
धम्मपिट, ३. विनयपिटक ( त्रिपिटक ) ।
४२५ श्ञान्तभद्र--८०० ! बौ°--न्यायविन्दुटीकां ।
२६ ज्ञान्तरक्तित--७२० । बौ०--. माध्यमकालंकार, २. तत्वसंग्रं ।
५२७ श्ान्तिदेव--६५० । बौ०--१. रिक्षासमुचय, २. बोधिचयांवतार ।
४२८ शान्तिसृरि-- १२२० । जे ०--षमेर त्नवृत्ति ।
४२९ ज्ञान्स्याचायं--१०५० । जै०--उत्तराध्ययनसुत्रीका ।
४३० ज्ञारिपुत्र-? । बौढ--१. धमैस्कन्ध, २. संगीतपयांय ।
५२१ श्ाङ्गेधर--१६७० । वै०--१. उदयनकृत रक्षणावली की टीकां ( न्यायमुक्तावली ५
२. सप्तपदाथी की टीका ( पदाथेचन्द्रिका ) |
४२२ ज्ञाल्िकनाथ--७९० ! मी ०--१. प्रभाकर कृत बहती की व्याख्या ऋजुविमला ),.
२. प्रकरणप्चिका ।
४३३ शालिनाथ-- १६५७ । रसे०-रसमज्ञरी ।
४२४ शिवदत्त-१८१० । अ० वे०-- वेदान्तपरिभाषा कौ टीका ( अ्थैदीपिका ) ।
४३५ शिवमट--? । व्याकरण--न्यास (कारिका की टीका) को व्याख्या (कुंऊमविकास) ५
दाशेनिकास्तत्करतयश्च ६४८
४३६ शिवयोगी--१६७५ । मी०--अर्थसंग्रह की रीका ।
४२७ शिवरामेन्द--? । व्या०--१. महामाध्य कौ रीका, २. सृत्रवृ्ति ।
४३८ शिवादित्य-१०५० । वै ०--१. सप्तपदा, २. लक्षणमाला ।
४२९ श्ञीलाङ्क--९६० । जे०--१. आचारा ङ्गसूत्रीका, २. सुतरकृताज्गटीका ।
४४० शुकाचा्यं--? । अ० वे०- तत्वानुसंधानव्याख्या ।
४४१ शुद्धानन्द् सरस्वती-- १३२० । अ० वे०-वेदान्तचिन्तामणि ।
४४२ होषकरष्ण--१५४० ( भद्नोजिदौश्षित के यु ) । व्या० -- प्रक्रियाकौमुदी की व्याख्या ।
४४३ दोषाद्विश॒द्धि--? । व्य(०-सीरदेवक्ृत परिभाषावृत्ति की टीका । ।
४४४ शोषानन्त--१६०८ । न्याय--न्यायसिदधान्तदीप की टीका ( प्रभा )। वै --सप्तप-
दार्थ की रीका ।
४४५ श्रीकण्ट--१००० । न्याय-- न्यायाल्कार ।
४४६ श्रीकण्ठ -- १५३५ । न्याय--न्यायसिद्धान्तमज्ञरी की टीका ८ तर्वमरकादा ) ।
४४७ श्रीकण्ठशिवाचायं -- १२५० । दैत- ्रहमसुत्रभाष्य ।
४४८ श्रीकृष्ण -- १७८० । न्याय--न्यायसिद्धान्तमज्ञरी कौ रीक। ( भावदीपिका ) ।
४४९ श्रीधर --९९१ । वे ०--पदाथधम॑संग्रह की टीका ( न्यायकन्दली )।
४५० श्रीधर-?। अ० वे०-भगवद्वीता की रीका ( खबोधिनी ) ।
४५१ श्रीजिवास--? । न्याय--२. न्यायसिद्धान्तमज्ञरी, २. तकेदीपिका की टीका ( सुरक-
स्पत ) ।
४५२ श्रीनिवासतीथं--२३००। द्ैत--१. गीतामाष्य की टीका ( मावदीपिका ),
२. आनन्दतीथ, जयती्थं ओर व्यासतीर्थं के मथो की टीकाये ।
४५३ श्रीनिवासदास-- ?। पि० वे०- यतीन्द्रमतदीपिकः। ।
४५४ श्रीनिवासभास्कर-- १। वि० वे०--श्रीमाष्य की टीका)
४५५ श्रीनिवासाचायं-- १४८० वि० वे०--१, न्यायपरिद्युद्धि की टीका, २. रहस्य-
त्रयस । ।
४५६ श्रीनिवासाध्वरि-- १ । मी०--सुत्रवृत्ति ।
४५७ श्रीपति-- १२५० । व्या०-- ज्ञानदीपिका ।
४५८ श्रीयोगीन्द्र -- ? । जै०-प्रमात्मप्रकादा ।
५५९ श्रीवत्साचायं - १०२५ । वै०--पदाथधम॑संग्रह की टीका ( लीलावती ) ।
५६० श्रीहषं--११५० । अ० वे०--खण्डनखण्डखाच ( इस प्र चित्सुख, शंकरमिध ओर
रघुनाथ ने टीका लिखी है ।')
४६१ श्ुतसागर-- १५०० । जे०--तत्वाथांषिगमस्त्र की टीका ।
४६२ संघभद्र-२८० । बौद्ध--अभिधमैकोष की टीका ( न्यायानुसार ) ।
४६२ सकरूकीति-- १४६४ । जेन- तत्वार्थसार-दीपिका ।
४६४ सच्चिदानन्द -- १। अ० वे०-सिद्धान्तविन्दु की टीका ।
४६५ सत्यनाथयति-- १८०० । देत--१. ब्रह्सूत्रभाष्य की टीका ( त्छप्रकािका ),
२. अभिनवतकेताण्डव, २. तत्वप्रकादाटीका ८ अभिनवचन्दरिका ), ४. प्रमाणपडति
की टीका ( अभिनवामृत ) ।
&< स० सं
६४६ स्वदशेनसंग्रदे-
४६६ खदानन्द् - १५६० । अ० वे०--१. पन्नदद्यौ-टीका, २, अद्वेतदीपिका-रीका, ३.
अद्रेतब्रह्मसिदधि, ४. जीवन्मुक्तिप्रक्रिया, ५. वेदान्तसार, £. अद्रैतदीपिका ( स्वग्रंथ ) ।
४६७ सदानन्द -! । जेन-सिद्ान्तचन्द्रिका कौ टीका ( सुबोधिनी ) ।
४६८ सदानन्द्ग्यास--? । अ० वे०--अद्वैतसिदधिसंक्षेप ।
४६९ सदाशिवमिश्च --१६७० । व्या ० -सूत्रदत्ति ८ गृूढर्थदीपिनी )
४७० सदाशिवानन्दसरस्वती - । अ० वे सूत्रृत्ति ( अद्वैतासृतवषिणी ) ।
+७१ सम्याभिनवयति--? । द्वैत मद्।मारततात्पयेनिणैय-टीका ( दुघंया्॑प्रकाश्च ) ।
५७२ समन्तभद्र --६०० । जन-- ९. आप्तमीमांसा ( देवागमस्तोत्र ), २. युक्त्यनुद्धासनः
३. उपासनाध्ययन, ४. त° सू° की टीका ( गन्धदस्तिमदामाध्य ) ।
५७३ सर्वजञात्ममुनि --९०० । अ० वे०- संकषपशारीरक ( शारीरकभाष्य का सारांश ) ।
४७४ सहजकीतिं १६३० 1 जे०--कल्पसत्रमज्जरो ।
४७५ सांख्याचायं --? । सां०-- साख्यसत्रनाच्य ।
४७६ विद्धचन्द--१७४० । न्या०--१. तकंमाषारीकाः २. सष्ठपदा्थीं की रीका ।
५७७ सिद्धसेनगणि--५२५ । जै०--तच्चार्था° कौ रीका ।
५७८ सिद्धसेनदिवाकर--४५० । जे०--१. न्यायावतार, २. संमतितकसूत्र, ३, कर्याण-
मन्दिरस्तोत्र ।
८७९ सीमानन्द्--? । सां०--सांख्यतत्वविवे चन ।
४८० सीरदेव -१२०० । व्या०--१. सूत्रवत्ति, २. परिभाष वृत्ति ।
५८१ सुचरितमिश्न--१६७० ! मी°--शोकवातिक की व्याख्या ( काशिका ) ।
४८२ सुद्॑न--१२२०। वि” वे०--१. वेदाथसंग्रह की टीका ( तात्ययेदौषिका ), २.
श्रीभाष्यरीका ( श्रतप्रकादिका ), ३. श्रीभाष्य की रीका ( श्रुतप्रदीपिकां ) ।
४८३ सुन्दरराजदीक्तिति--? । वि० वे०-- श्रीभाष्य कौ टीका ।
४८४ सुरेश्वराचायं-दे० मण्डनमिश्र ।
४८५ सुरोत्तमतीरथं -! । दरैत--युक्तिमछिका-टीका ( भावविलासिनी ) ।
५८६ सोमनाथ--१५४० । मी०--दाखदीपिका की व्याख्या ( मयूखमाखिकिा ) ।
४८७ सोमशंभु--१०७० । दोव--अन्थ अज्ञात ।
४८८ सोमसुन्द्र-- १४०० । जे०-- वततव की टीका ।
४८९ सोमानन्द् -८८० । प्रत्य ०--१. शिवदु्टि, २. दिवदृष्टि की वृत्ति ।
५९० सोनेश्वर--१५००। मी०--१. शाखदीपिका की व्याख्या ( कपूरवातिक ), २.
सूत्रवृत्ति ( न्यायमालाविस्तर ) ।
४९१ सोमेश्वरसूरि-- ११०३ । पाशु मन्थ अज्ञात ।
४९२ स्थिरमति--२७० । वौ ०--अभिषमेकोष की व्याख्या ।
४९३ स्वप्नेश्वर--? । सां०--सांख्यतत्वकौमुदी की टीका ।
४९४ स्वयंप्रकाद्रानन्दसरस्वती--?। अ ० वे०--शारीरभा्य रीका (वेदान्तवन्दनभूषण)।
४९५ हनुमान्--! । न्या-- तत्वचिन्तामणि की टीका ( हलमदीया ) २. तकसंग्रह की
टीका ( प्रभा) ) |
४९६ हरदत्त-? । पाड ०- गणकारिका ।
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दाशेनिकास्तत्करतयश्च ६४७
४१७ हरदत्त--<७५ । व्या०-कािका की व्याख्या ( पदमञ्जरी ) ।
४९८ हरि ( मवृहरि )-६६० । व्या०--१. महाभाष्य दीका ( सेतु ) २. वाक्यपदीय ।
५९९ हरि--१०० ३० १० । मी०-- सूत्रवृत्ति ।
५०० हरिद्ासमिश्च--१५९० 1 न्या०--१. आत्मतरवविवेक की टीका, २, तत्वालोकं
कौ रीका।
५०१ हरिदीकित- १६५० । व्या ०-- प्रौढमनोरमा की व्याख्या ( शब्दरल )।
५०२ हरिनाथद्विवेदी--१७८० । व्या ० --परिमावन्दुदेखरं की टीका ( अकाण्डताण्डव ) 1
५०३ हरिभद्र--९०० । जैन--१. आवय कसूत्र कौ टीका ( रिष्यहिता ), २. नन्दिसूत्र
को व्याख्या, ३. अनेकान्तजयपताका, ४. षडद ॑नसमुचय ( ददौनसंग्रह ) ।
५०४ हरिवल्ञभ --१७००)।व्या०--१. शव्दकौस्तुभव्याख्या, वैयाकरणभूषणसार की टीका ।
५०५ हेमचन्द्र --११२५ । जे०--१. आवदयकसुत्रभाष्यवृत्ति, २. अध्यात्मोपनिषद् (योग-
शाल) र. प्रमाणमीमांसा, ४, प्रमाणचिन्तामणि, ५. वीतरागस्तुति, ६. तरिषषटि-
रालाकापुरुषचरितः, ७. शब्दानुशासन, ८. महावीरचरित, ९. परिशिष्टपवं ।
५०६ हेलाराज--? । व्या०--वाक्यपदीय की टीका ।
५०७ हेमाद्वि--१२७० । अ० वे०--ुक्ताफल्रीका ( कैवस्यदीपिका ) ।
2
।
|
|
परिरिष्ट-२
सर्वद्छ नसंग्रह् में उद्िखित ग्रन्थ ओर भ्रन्थकार
अत्तचरण ५५& &७७ ७७३
अन्तपाद् २३५५५
अधोरशिवाचायं ३३८
[ अथवंसंहिता ५७४ |]
अनन्तवीयं १७२
अभिनवगुप्चाचायं २६२ ३७४
अभियुक्त १६५ ७२५
अहत् १०४ ११९ 4४०
आग्नेयपुराण २६४
आचार्य १७५ ३१९ ३८२ ५५२ ६४
७६&६७ ७८७ ८३२
आद्कार ३०
आनन्दतीर्थ २४६ २९४
आपस्तम्ब ८८६
आ्ठनिश्चयारुकार ११९
[ ईशावास्योपनिषद् २३० |
ईश्वरक्रुष्ण ६२४
[ ईश्वरप्रस्य भिन्ञाविमशं ३७४ |
उत्पखाचायं ३५६
उद्यनाचार्य ४५४ ५०७ ५५५७ ५५६
५६८
उदयाकरसूजु ३६०
उमास्वातिवाचकाचाय १६१
[ऋक संहिता २९६ ५४५ ५७४ ५८ ८]
कणभत्तञ ५६ ३९४ &७७ ७७३
कपिर ६४८
कल्पतर्कार ८६९
| कारको पनिषद् १८७ २०० २३६
३६२ ६६१ |
कणाद ४४३
कात्यायन "+<७
कालिदास ५४३
काव्यप्रकाश ७५३
[ काव्यप्रकाश ७१९ |
काशिकादृरत्त ५७७
केयट ५९६ ७१५
कौमं २९१
खण्डनकार ८८१
[ खण्डनखण्डखाद्य ८८१ |
गणकारिका २९९ ३००
गर्भ॑श्रीकान्तमिश्र ३८७
गरुडपुराण २८८
गुरु ५३४ ५५४८ ७६५ ८१५
गो विन्दभगवस्पादाचायं ३७८ ३८२े
गौतम ५९८
चार्वाक ३ २४ ४९७
चिस्सुखाचायं ७९६ ८५२
[ चित्सुखी १८९ ७९६ ८५२ |
छान्दोग्य ७४२
[ छान्दोग्योपनिषद् १८७ १९९ २००
२०२ २२३ २३४ २४६ २७४ २८०
७४२ ७४३ ७६२ ७७१ ७८६ ८७९ |
जिनदत्तसूरि १७७
जन ३३३ ७९१
जेमिनि ७०७
[ जेमिनिसूत्र ५२१ ५२२ ५२६ ६७१
७०७ |
ज्ञान-रत्नावरी ३४६
त्तानश्री ५५
ज्ञानाधिकार २६१
तस्वकौमुदी ६२४
तच्वप्रकाक् २३४ ३३६ ३२३८ ३४३
तच्वसुत्तावली २०७ २०८ २१८
तत्वविवेक २४७
[ तच्वविवेक ५२]
भ ० किरी यत
1
+
निर्दिष्टा लेखका मन्थाश्च ६४६
तत्वसग्रह ३२३८ पद्यनन्दी १४३
तच्वाथंसंग्रहाधिकार ३७० परमागमसार १३६
तत्वार्थसूत्र १३६ १५३ १५४ १५८ परमश्चुति २७३
१५९ १६० १६१ परीच्तक ३४९
तथागत ३४ ९० पाञ्चरात्ररहस्य २३१
[ तन्त्रवार्तिक ७१६ ] पाणिनि ५३४ ५४९ ६१२
[ पाणिनिसूत्र ५३४ ५४९ ५७५ ५७६
ताकिंकरक्ता २८४
{ ैत्तिरीयत्राह्मण २९१ ५३२ ७६५ | ८४ ९८ ६०६ ६१२ ६६५
८७६ | ७०० ७९९ |
[ पातज्ञरमहाभाष्य ५७३ ५८१ ५८५
५८९ ५९५ ६६५ ६६७ |
[ पातज्ञल्योगसूत्र ६४९ ६३५० ६५२
| तैत्तिरीयसंहिता ५१० ८७६ |
[ तेत्तिरीयारण्यकं २६४ ५२८ ५३७
७३८ |
& 4७ & ७ ७७६ &७७ ६८३ &८&
[ तैत्तिरीयोपनिषद् २४२ २६४ ३९० ६९० ६९१ ६९४ ६९६ ६९७ ६९९
७६१ ७८९ ८८९ ] ७०३ ७०४ ७०५ ७०६ ७२० ७२३
तौतातित १२० ५९९ ८३७ ५० ७३१ ७३३ ७३४ ७३५ ७३६
ध्मंकीतिं &७ ९२५
नकुलीश ३१० पाश्चपतश्चाख २९७ २९९ ३१० ३१९
नरेन्द्रगिरिभरीचरण ८५० | पूणप्रत्त २९४
् नामलिङ्गाचुश्ासन ६५७ पूर्वाचार्यं ७७०
| पौराणिक ७३१
नारायणकण्ड ३४२
नारायणश्चति २७२
नीलकण्टभारती ७१३
प्रकरणविवरणपञ्जक ३४९
[ प्रकरणपञ्चिका ८०५ ८०७ ८०८ ८१०
सैयायिक ४३० ४३८ ५५७ ६३१ ७८७ | ८११ ८१५ ८१८ ८१९ ८२१ |
` न्यायकणिका ८३७ । प्रबोधसिद्धि २८४
न्यायकुसुमाञ्जलि ४५४ ५६८ प्रभाकर १८९ ४३८ ८०३ ८२२
| न्यायङसुमाज्जि २७ ३८ ७५५६ | ्रभाकरयुर् *+७०
५०७ ५६३ ७६० ८४५ | । प्रभाचन्द्र ११८
न्यायनिर्मांणवेधा २८३ प्रमाणवातिक रे
[ न्यायचिन्दु २६] प्रमेयकमलरूमातेण्ड ११८
न्यायभूषणकार ५५५ । म्रश्षस्तपाद् ५9
[ न्यायसूत्र २२१ २८४ ४४९ ४५४ | [ प्रश्नो पनिषद् १९९ |
॥
॥ ४८८ ४९१ ५९८ | | फणिपति ६६८
॥ पक्तिस्वामी ४८७ | बहुदेवत्य २३६
| पञ्चपादिका ८५० । बादरायण ७५२
पञ्चपादिकाविवरण ८५० बुद्ध ३५ ८८ ९०
।
~ पञ्चशिख ६५५ ब्रहत्संहिता २९३
। पञ्चाथभाष्यदीपिका ३०९ । [ ब्रहदारण्यकोपनिषद् ४ १९९ २०५
पञ्चिकाप्रकरण ८१९ | २३० २३४ २३६ २९१ &६० ६८३
पतञ्जलि ५७३ ५९९ ६४९ ७५७ ७६२ |]
।
६५०
बृहस्पति ३ ७ २२ ३२६
बोधायन २२८
बोधिचित्तविवरण ९००
बौद्ध २६ ३५ ३३३
दौद्धनय १०१
ब्रह्ममीमां साविवरण २४६
बरह्यसुत्रवृत्ति २२८
भगवद्धीता ६३८ ७१२
[ भगवद्धीता २२० २२७ २३७ २३८
२६६ २७१ ६५५८ &&१ & ८६ ७०५ ]
भगवान् २७० ७०५ ७१२ ७९०
भट १८९ ४३८
भट्रस्वंक्त ४९८
अद्ाचायं ५०९ ५६९ ५९७ ६९८ ७९४
भतहरि ६०२
[ भागवत ३८७ |
भामतीकार ७७९
माज्ञवेयश्रुति २७२
आष्यकारं ५८९ ५९३ ६०९ ८०२
भाष्य ८५५
भास्कर ८७१ ८७२
भोजराज ३२३१
मध्यमन्दिर २९४
मनु ॥ 41
महानारायणो पनिषद् ८८२
महाभारततास्पर्यनिणंय २६२
[ महाभारततास्पयंनिणयं २९५ |
~ ( दे° पात महा० )
महावराहपुराण २७१
महोपनिषद् २७७
[ माण्डूक्यकारिका २६७ |
माध्यमिक ६३ ६४ ४९२ ८३८
मानमनोहर ५8
मार्तीमाघव ५५8७
माहेश्वर २९७ ३२० ३४७ ३७
मीमांसश्छोकवातिक ५९७
[ मुण्डकोपनिषद् २२० २२१ २२९
२३६ २३९ २६६ | `
याज्ञवल्क्य & ७३ ६७ ७०६ ७२१
सर्बदशेनसंग्रहे-
यासुनञुनि २४०
योगदेव १३६
रसहृदय ३७८ ३८४
[ रसहृदय ३८९ |
रसार्णव ३७६ ३८३ ३८८
रसेश्वरसिद्धान्त ३७९ ३८५
रामकाण्ड ३०४
रामानुज १८६ २४६
रामेश्वर ३८२
रा्ीकरभाष्य ३१४
कङ्कावतार ६५
कछोकगाथा ३
रोकायत ३
वधमान ५७९
वसुगुस्ताचायं ३६८
[ वाक्यपदीय ५८५ ५९१ ५९२ ६०२
६०३ &०४ &०५ ६०६ ६०८ ६१२३.
६१४ ६१६ ८७८ |
वाक्यपदीय "५७७ ५५९६
वागीश्वर ५४
वाचकाचायं १४४
वाचस्पति ६२४ ६९५ ६९६ ७५२ ८३७
वाजप्यायन ६4०
वार्तिक ६०९
विज्ञानवाद. ८४२
विद्यानन्द् १६१
विवरण ८८९
विवरणविवरण ८७०
विच्ति ५५४९
विवेकविरास १०५
विष्णुतच्वनिणेय २५३
[ विष्णुतस्वनिणेय २९२ |
विष्णुपुराण २७२ ७२० ७३०
[ विष्णुपुराण २०० ७३१ |
वीतरागस्तुति ११२ १३३ १७६
वृत्ति ५४९
वृत्तिकार २२८ ७०२
वेङ्कटनाथ २१८
वेद्ान्तवादनिपुण ६१५
वेदान्ती ४३८ ६३१
वेदा्थंसं्रह २०८
वे भाषिक ९४
[वेशेषिकसूत्र २२० ३९४ ४४३ ८१२]
व्याडि ६१२
व्यास १८६ ६७५
व्यासभाष्य ६७५
व्यासभाष्यव्यास्या ६९५
[व्याससूत्र २२८ २४० २४२ २४३ २६६
२८८ २९० २९१ २९३ ६६२ ६७०
७4७ ७८८ ८८९ ८९० ८९१ |
शांकरकिंकर ५०७
शंकराचायं ६६२ ७५२
इहाबरस्वामी १२५ ८२१
४ शाक्त ८७२
॥ शारदातिरक ७०९
शारीरकमीमां साभाष्य ७७९
शालिकनाथ ८०५
शिवदृष्टि ३५४
शिवसूत्र ३६३
(¢ श्रीधराचायं ४३८
(५ श्रीमस्करण ३३१ ३४५
| श्रीमत्कालोत्तर ३४०
¢ श्रीमस्पौप्कर ३३०
| श्रीमस्सौरमेय ३४५
8 -
ॐ ध हन । ष अ.
& [ श्छोकवार्तिंक "५४३ ८८० |
( कोष्टाकरित तियो का माधव ने प्रत्यक्षतः नाम नहीं खिया है 1 )
|
निदिष्टा ज्ेखका भन्थाश्च
श्वेताश्चतरो पनिषद् ६४२
[ श्वेताश्वतरो पनिषद् २०० २२० २२१
३८७ |
सप्रदायवित् ३१८
सवंत ३८२ ४८७ ( भासर्व्॑ञ )
सांख्य ३२३४ ४९७ ५७ ६३१
[सांख्यकारिका २५५ ६१८ ६२१ ६२७
२८ ६२९ ६३८ ६४४ ६४६ ६७७]
सांख्यप्रवचन ६४९
सांख्याचायं ६२३६
साकारसिद्धि ३८६
सिद्धगुर् ३२६
। चिद्धसेनवाक्यकार ११२
सूत्रकार ३१३ ४४९ ४५७
सोमश्च ३३७
सोमानन्दनाथ २५४ ३६१
सौगत ५१.५७ ६३१
| सौत्रान्तिक ९३
| स्कन्दपुराण २९० २९२
|
स्याद्रादमज्ञरी १७५
स्याद्वादी १८३
। स्वरूपसम्बोधन १४८
हरदत्ताचा्यं ३००
| हरि ५७७ ५९१ ६१३
|
श्री मन्म्गेन्द्र ३२७ ३२९ ३३४ २४२ |
। हैखाराज ५९३
हेमचन्द्रसूरि ११९
हेमचन्द्राचायं १६४
-"ट 5
परिरिष्ट-४
सवैदरशनसंग्रह की उद्धरण-सुची
उद्खरण द० प° | उद्धरण द्० पर
अ । अत्र चत्वारि ५ १०
अ इ्युक्तो हरिः ५... | अत्र व्रमो ९६ ८०५
अक्ताः चकरा १२ ५३२ | अत्रायं पुरुषः ` १९९
अक्रमानन्द् ८ ३६१ | अत्रोच्यते द्वयी ` $& ८२१
अक्षतश्च खबुद्रावी २ ३८१५ | अथ गौरित्यत्र ५३ ५५९५५
अचिचित्कपिखा ५६ ८८२ | अथ तद्रचने & १२२
अश्मिरुष्णो $ २१ | अथ पर्काषिणो १३ ५८७
अच्चिहोत्रं त्रयो ५१ ७ | अथ योगानुशासनम् १५ ६७९
अचिहोतच्र त्रयो ११ २२ 9१ + ६५७
अभ्रिं रस १६ ८०७ | अथ यो वेदेदं 9 १९९
अभ्नेखिशात्पुनः ९५ ७२६ । अथ शब्दस्त्वतः ५ २८९
अभ्रीवः प्रत्यमुद्खत् „ ७३८ | अथ शब्दानुशासनम् ५३ ५
अङ्कनं नाम ५ २६५ । ५, ९५ ६६७
अङ्नालिङ्गना १ १० | अथातः पच ६ २९९
अवो न्णिति १.१ ७०० | अथातः शब्द च्व २८८
अजडारमा निषेधं ८ ३६० अथातो धमेजिज्ञासा ५२ ५२9
अजामेकां (8 4 4०. ~ ~>%9
अजामेकां १६ ७४३ अथातो ब्रह्मजिज्ञासा = ४ २२८
। 9१ 9 १ २८८
अजो नित्यः छ ० =
अजो ह्येको १४ ६४२ | ‡
+ । ११ ६७०
अज्ञात विषयो ~ १६ ८८९ | ् ५६ क
क ६ ३०२ | अथेत्ययमधिकारार्थः १५ ` ६६८
इ मे ५ २६५. |
शती वन . अथष अ्योति 9 ` ६8६७
त ध अद्यापि न निवतन्ते ३ १६८
। अधिकायानुगुण्येन २२५
अतच्वमिति ५ २७४ अध्यात्मयोगा १५ ६६१
अतक्चतयून ११ २६४ । अध्येतव्य १२ ५३७
अतिदृरात्सामीप्यात् ५ २५५ | अध्रुवेण निमित्तेन ५३ ६०९
अतो निरभिरप्यास्ते 4 ६ अनन्तर च १६ ८१०
अतोन्यो मन्थ ५ २९२ | अनन्तरश्चव ७ ३३६
अतोऽस्मि रोके » २७० । अनन्यलभ्यः ५ २९२
उद्धरण द्०
अनयोमंलनम् ९
अनवच्छन्नसद्धावं ७
अजनवद्यम्रत ३
अनारमनि च १५
अनादानमदत्तस्य ३
अनादिद्धेषिणो ५
अनादिनिधनं १३
अनादि भावरूपं ४
अनादिवासनो १६
अनादेरागमस्याथों ३
अनाधेयफलत्वेन १६
अनित्यस्वानु १२
अनित्या शुचि ९५
अनुकखेन तककेण ११
अनुविद्य विजानाति र
अनुस्नाननिर्माल्य &
अनृतेन हि 9
अनेकान्तं जगत् १,
अनेकान्तात्मकं ३
अनेकार्थः स्मृताः ९५५
अन्तरायस्तथा द
अन्तर्यामी जीवसंस्थो ४
अन्त्यं प्रत्यक १
अन्त्यावाच्यविवक्तायां ३
अन्ध तमः ४
अन्धो मणि ९५
अन्यत्र वतंमानस्य २
अन्यथा नोपपद्येत ३
अन्यस्मिन्भास १६
अन्योन्यपत् र
अन्यो ऽथो च्यते १५
अन्वर्थित्वात् ५
अन्वाहायं च १२
अपद्यतां ग (पा०मे०) ३
अपरिणामिनी ९५५
अपरोक्तावभासेन १६
अपहतपाप्मा ४
उद्धरणसूचिः
पु
२३७९
२२२
१६४
&९७
१४१
२६२
५५९१
१८९
७५२
७९०
५५९१२
६९६
५१०६
२३४
२१३
१९९
१८१
१७९
६७४
१७७
२२६
२१८
१७२
२३०
७३८
५4८
१२२
८ ०५२
१७६
७१३ |
२८४ |
“५२२
१६४
६.५
उद्धरण
अपि खे कामतो
अपि प्रयस्न
अप्रथक्त्वेपि
अपेन्ताबुद्धि
[२१
अपोद् त्यव
अप्रकाशित
अप्रत्यक्तोप
अप्राप्ते शाख
| अप्रामाण्यं श्रते
१२२ |
अप्रामाण्यद्वया
अभावविरहा
अभिमानोऽहङ्कारः
अभियुक्ततरेरन्येः
अभिषेकोऽथ
अश्रकस्तव
अयथार्थस्य
अयमेव भेदो
। अयस्कान्तमणि
अरघटघरी
अघो पासनया
अथंवादो पत्ती
अथंवादो पपत्ती
अर्थानुपायं
अ्थान्ययथात्व
अथीं समर्थो
अर्थेन घटयस्येनां
अर्थो ज्ञानाचितो
अधंजरतीयन्याय
| अहं कृत्यतृचश्च
अविद्यया ल्यु
अविद्यां कमं
अविद्या तेत्र
अविद्याच्छादय
अविद्या तत्क्रतो
६८३ अविद्यास्तमयो
८ १५
अविद्यास्मिता
२२३ ' अविनाभावनियमो
१६
१५५
१३
१०
१३
१६
१६
१२
#
१४
१६
१५
१६
98
१५
१५५
१8६
१.५
१६
१५
६५३
७८ &
७१२
&१४
४२३
५५९२
& ७9
&७
२२५
८८ &
६६
८ ९.५
६२४
८७८
७०६
२७९
७६०
६८१
७२५
२२६
७७०
२९३
५०१
५६९
"३०
१०२
&२
७९९
२३०
२३१
६९४
८५५१५
६९७
७६३
६९१
२६
------ ~= ~ ङ
च + न
६५४
उद्धरण
अविभागोऽपि
अवेद्यवेद्काकारा
अवंलन्तण्यसंवित्ति
अव्याक्चसाधनो यः
अश्युभः पापस्य
अश्वस्थपन्लवंः
अश्वस्यात्र
अष्टक मत्तया
अष्टवर्षं ब्राह्मण
अष्टादश्षसस्कारा
असंबद्धस्य चोरपत्ति
असस्वान्नास्ति
अस्यो पाधि
असदकरणात्
असवंजञप्रणीतात्त
असाधारण्येन
असिद्धे नैक
असौ वादिस्यो
अहंधियास्मनः
जह स्थूलः
अहमात्मा बह्य
अहिसासत्या
अहिंसा सूत्रता
ज
आकार वांस्स्वं
आकारसहिता
आगमादेः प्रमाणस्वे
आगमेनानुमानेन
आतोनुपसगे कः
आत्मलाभाल्न परं
आत्मात्मीयस्व
आत्मा यदि भवेत्
आत्मा वा अरे
9१ १9 9१
ना वन्यत
आत्मेत्येवोपासीत
आद्ावपेक्ञा
११
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स्वदशंनसंमहे-
प
७१
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१२२
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१०२
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३९४
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८८ &
१०२
३३२
२२४
२२६
७७9
२३४५
७४२३
मि
र य
उद्धरण
आदाविन्द्रिय
आदितस्तिख
आदित्यो यूप इति
आदित्यो यूपः
आद्यः समा्षः
आद्याननुगृद्य
आद्यावाच्यविवक्त
आये स्थय
आद्यो ज्ञानदश्शंना
आनन्तर्याधिकारे
आभासत्वे तु
आयतनं विद्यानां
॥
आरुर्ोसुने
आद्रंस्वं च घनस्वं
आर्यसत्याख्य
आलोच्य भाषण
आविद्धङरा
आविर्भवन्ति
आवरत्तिपरि
आश्रयः सर्वधर्माणां
आसनादीनि संगरह्य
आसन्नं ब्रह्मणः
आखवः खोतसो
आखवो भव
आह नित्यपरोक्तं री
ठ
द्
इतिकरणो
इति गुह्यतमम्
इति धनश्ञरीर
इति पाणिनिसूत्राणां
इतीयमाहंती
इत्थं तथा घट
इदं ज्ञानमुपाश्रित्य
इदं प्रत्ययफलम्
इदं रजतमिस्यत्र
„९७ 2 न ७ ५ ९५ ~ ©
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प्रम
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२७१
२३७८
५१७९
१६५५.
२६४
२६६
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८ ०१२.
न 1 नः "न्कल
व: च, क ९.२ * ओट मै भ
उद्धरण
इद् चस्तुबलायातं
इदमाकारन्रस्यक्त
इदमाद्य पद्
इन्द्रियाणाम्
इमाः कुटेवाक
इयं सा मोक्ञ
इह भोग्यभोग
ईंश्तत्पुरुषा
इश्वरः पति
ईश्वरप्रेरितो
ईश्वरश्चिद् चिच्चेति
ईश्वरश्चिदिति
उ
उक्तोपासनया
उच्यते शुक्ति
उकव्कषं तु तद्
उत्तमः पुरुष
उत्तरोत्तरमूतींना
उत्पत्तिस्थिति
उत्पाद्ब्यय
उस्पादाद्रा तथा
उत्प्रह्ेत हि
उत्सन्नकमं
उपक्रमोपसहारा
4, 9१
उपदेशस्य सत्यत्वं
उप देशोऽपि बुद्धस्य
उपनीयतुयः
उपमानेन सर्वज्ञं
उपयन्नपयन्धमों
उपादानं रक्षणम्
उपादेय परं
उपादेयञ्रुपा
उपाध्यपगमा
उपासकानुरोधेन
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न्य
उद्धरण
उपेच्य सा्ञात्
उभयपरिकर्मित
उभयप्राप्तौ
उभयात्मक
उरुक्रमस्य
ऊ
उध्वंवहि
ऊध्वांशिनो
ऊर्वोपरि
च्छ
ऋग्यजुःसामा
ऋचः सामानि
ऋत पिबन्तौ
ऋतम्भरा तत्र
ए
एक एव रुद्रो
एकः शब्दः स
एकदेशविशिष्टोऽर्थो
एकनेत्र
एकमनुसधित्सतोऽपरं
(^ 9१
एकमेवेदं शाखं
एकवार प्रमाणेन
एकस्थाननि
एकाकिनी प्रतिज्ञा
एकान्तरात्क्रतो
एकादरकरण
एका संसृष्ट
एकेकहानि
एकोऽर्थः शाब्दः
एकोऽसौ रसः
एको ्यनेकलशक्ति
एतदाख्याहि
एतद् इद्ध्वा
एतया वा दरिद्राणां
एतेऽन्ये बहवः
एते यमाः स
६५६ सबेदशेनसंग्रहे-
उद्धरण द्० घु० | उद्धरण द° पृ०
एवं गुणाः समानाः ४ २३१ | कर्प्यस्तु विधि १२ ५२६
एवं जाम्रस्प्पञ्चोऽपि १३ ६१५ | कश्चार्थस्तु ५ २८८
एवं त्रिचतुर १६ ८८० | कस्माद् भूयो ५ २४
एवं ह्यहरहः ४ २३१ | कांश्चिदनुगृद्य ७ ३७१
एवमर्थापत्तिरपि ३ १२३ | कामः सङ्कल्पो ९१५ ६८३
एवमुक्तो नारदेन ५ २८९ | कामतोऽकामतो वापि १५ ७५२
| एष चानन्त ८ ३६४ | कायमाधेय १५ ६९७
| एष प्रमाता ८ ३६९ | कायवाञ्जनः कमयोगः ३ ९५८
। शएषहिद्रष् ४८ १९९ | कायं किमत्र ६ १३४
र | 4 २ २६
मिदं कायस्यासम्भ - > ६४
+ १९ ५७" | कालत्रये ज्ातृकाे १६ ८५१
काशकुशावलम्बनकल्पम् ३ १०७
भोङ्कारश्चाय + ६९५ | कालकुशावरम्बनकल्पम् ५६ ८८५
ओं काश्यादिसवं ९ ३८८
ओौपशमिकन्तायिकौ ३२ १४४ | किंतु मोहवशात् ८ ३६०
क किण्वादिभ्यः समेतेभ्यः $ 4१०
कण्टकाद्विव्यथा ५ ५० | कीर्तितं तदृहिसादि ३ ५४०
कण्डं मिवा १५ ६६५ | कुणपः कामिनी ॥ ६५
कथंचिदासाय न कुयांचित्तानु १५ ७३०
- । कुर्वीति ब्रह्मणि १५५ ७२०
छ, १ कुशोदकेन जप्तेन १५ ७१०
क 1 कुसुमे बीजपूरादेः ३ १०७
करणेन नास्ति ८ ३५४ ञ्य १
| करामलकवत् ९ ३७ ५ क 2
| : कमण्डलुः र १०
| भ ॥ षः इतिमेण सवसत्येन क
। भ ख केचिद् विशेषेणेव १३ ५७७
^. केदारादीनि ९ ३८८
क वतिते ० २२६ | केनेदं चित्रितं प
कत्तकमणोः कति १२ ५७६ | केवल दभ्यमात्र १६ ८१८
कमणि च १३ ५७५ | केवलां संविदम् २ १०२
कमण्यण् १३६ ५८४ | केषां चिव्पुण्यदशां ९ ३८९
कमेण्येवाधि ५५ ५५२ | को ह्यन्यः पुण्डरीकाक्चात् ५२ = ५४
कर्मयोगेण देवेशि द ३८० क्रमेणो भयवान्छायां ३ ५७द्द
कर्मादिनिरपेन्तस्तु ६ ३१८ | क्रामणवेधौ ९ ३८२
कलरादिभूमि ७ ३३७ | क्रियते माधवा्येण $ २
कल्पनापोढ २ ९८ | क्रियावानेष 2 २३९
करिपतश्चेन्निवर्तेत ९५ २७० | क्रिया हि विकल्प्यते ४ १८०
उद्धरण द्०
क्लेशक्मविपाकाशय १५
कछचिद्धेदसंघाताभ्याम् ३
त्षणिकाः सवंसस्काराः २
त्तरः सर्वाणि ५
क्ीणाष्टक्मणो ४
त्ीयन्ते चास्य ४.
चेप्तुं चिन्तामणिम् ५६
रव
खखपटकद्विके ~ १५१
ग
गच्छतामिह 4
गत्वा गस्वा निवर्तन्ते
गन्धो रसश्च १५
गम्भीरोत्तानमेदेन र
गभेदुतिबाह्यदुति ९
गलितानल्प ९
गाहते तदनिर्वाच्य १६
गीतिषु सामाख्या १५
गुण प्रति दक्ञ १९५
गुणपयांयवद् द्रव्यं द
गुणडुद्धिदरव्य १०
गुणे दम्यव्यपेन्ञे १६
गुरुभक्तिः प्रसादश्च ६
गुरुजनो
&
गृहीत गृहशब्देन १३
गृह्णीया्निक्िपेद् ३
गेहस्थकरत ¶
गोमयपायसीयन्याय २
गो विन्दभगवत्पादाचायों ९
गौणौ शुद्धौ च १५
ग्रहणस्मरणे १६
ग्राह्यं वस्तुप्रमाणं हि २
आद्य्राहकवेधुर्यात् =
ग्राद्यग्राहक सं वित्ति २
घ
घटन्योमेव १६
घटादि जायते ८
उद्धरणसूचिः
1 ©
६९१
१५३
१०२
२७०
१७८
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७२९१
२४
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३८२
३८४
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२०१
६०९
१६५
₹२४
७८
२८०
७१९
८ १५२
९८
७१
८०२
३९६
जो
उद्धरण
घरीयन्त्रस्थितघरभ्रमण
घटोऽस्तीति न
घातयन्ति हि
च्च
चक्रं विभक्ति
चज्चराद्युक्तविषयं
चञ्चू हि मनः
चतुर्णामपि बौद्धानां
चतुभ्यंः खलु
चतुष्प्रस्थानिका
चत्वारि श्ङ्ाणि
चत्वारि श्ङ्गाः त्रयो
चराणां स्थावराणां च
चर्मोपमश्चेत्
चवंरिः कपिलो
चिदचिद् द्वे परे
चिन्तां प्रकृति
चेतनालन्तषणो
चेतन्यं टक्क्रिया
चेतन्यमात्मा
चोदनालक्षणो
चोदना हि भूतं
चोरापराधात््
चोरापहायौँं
च्युतेहानिः
लि
छन्दांसि जज्ञिरे
ज
जगच्च सृजतस्तस्य
जगच्चित्रं नमस्तस्मे
जगजन्मस्थिति
जगद्व्यापारवजंम्
जननं जीवनम्
जनिकतंरिति
जन्तुरक्ताथं
जन्माद्यस्य यतः
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१५५
१५५
कके जत
५५ ६४ „९ „०
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उद्धरण द्०
जन्माद्यस्य यतः १६
99 ११ ५६
जन्मौषधिमन्त्रतपः १५
जप्यमानस्य मन्त्रस्य ५५
जर्भरी तुफंरी 4
जहाति २
जातिमन्ये क्रिया ५३
जातिरिप्युच्यते १३
जात्याख्यायामेकस्मिन्
जायते तन्निखर्गेण
जिनो देवो
जीवं देवादिशब्दो
जीवमेदो मिथः
जीवस्य परमेक्यं
जीवाजीवाखद
जीवाजीवौ पुण्यपापयुतौ
जीवाजीवौ पुण्यपापे
जीवेश्वरभिदा चैव
& ^ ४ ४ 6 5 «५ ४
र
4
ङ्घ
|
& 9
ज्ञातो यद्यपरं
ज्ञानं क्रियाच
ज्ञानं तपोऽथ
ज्तानं पूर्वापरीभूतं
ज्ञानदशंनचारित्रा
ज्ञानमात्रे बथा
ज्ञानस्यामेदिनो
ज्ञानाद्धिन्नो न
ज्ञानेन्द्रियाणि पञ्चेव
उयो तिष्टोमेन स्वगंकामो ५२
त्
छ ५ ९ र &७ @ & न
तं स्वौपनिषदं ५
तं देहवेध ९
तजन्यावृति १६
सर्बेदशेनसंम्रहे € क ह ^
घुण
७८८
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६०
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९७७
२०७
२७३
|
उद्धरण
ततः कारणतः
ततः स्वाभाविकाः
ततश्च
ततो भिन्न
ततो भूय इव
तत्कमणामनु
तत्तथ्यमपि
तत्त समन्वयात्
१
9१
तश्वविद्याविरोधी च
त्वाभ्यां भूजलास्यां
तच्वार्थं श्रद्धानं
तत्र ज्ञानं स्वतः
तन्न तन्मात्रघी
त्र दरव्यं दश्ावत्
तन्न पतिः रिव
तत्र भ्रष्ययेकतानता
तत्र स्थितौ
तन्राद्यो मरु
तन्नावरौ मण्ड
तस्सत्य ख आमा
तस्सवं स्वयि
तस्स्यास्प्रवृत्ति
द 9
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6 % % ~ & ७ © % ^ ~ ¢ 9
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पृ9
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३४१
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८९
७8
२७८
८ १५५
उद्धरण
तथापि सृच्म
तदृज्ञानमिति
तदद्रेलश्चतेस्तावत्
तदेव तेन वेद्यं
तदेव वासुदेवाख्यं
तदेवाथंमाच्रनिर्भासं
च, ०
तद्क्येन चिना
तदेतत बहु स्याम्
तदेशिनं च
तद् द्वारमपवर्गस्य
तद्धीश्वाध्यास
तद्ध्यानं प्रथमेरङ्गे
तदरुपप्रस्ययेकाम्रया
तद्वद् नु्रहण
तद्भपुः पञ्चभिः
तद्रश्ा एवते
तद्विधानविवन्ञायां
तद्विष्णोः परमं
तद्व्यावहारिकं
तनु रसमयीं
तन्नित्यं विसु
तन्निवत्ताविति
तन्मात्रविषया
तपःस्वाभ्यायेश्वर
तप्याभेदम्ाहिणी
तमद्भुतं बालक
तमस्यन्धे
तसरते भवेन्न
तमेव भान्त
तरति शोक
तरत्यविद्याम्
% ¢^ © 6 9
उद्धरणसूचिः
प°
२७८
१८९
८८ १
१६७
०.४
२३१
२२.
८१०
३९१
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२०२
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७२१
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२२३०
२७९
१७२
२६४
८५२
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२४६
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६५०
७०६
६4४
२८७
२६९२
३२६
३६२
१८७
८ ७१
| उद्धरण
~~~ बब ~~~] ~~~
तपंणं दीपनम्
तज्ञन्धिर्विंवेक
तस्माच्छक्तिविभागेन
तस्माच्छान्तो
तस्मात्त रक्षयेत्पिण्डं
तस्मास्रमेया
तस्मात् सद्वोधकत्वेन
तस्माद् चरतः
तस्मादपि षोडशकात्
तस्मादिदमनवद्यं
तस्माद् गुणेभ्यो
तस्मान्मात्रमिति
तस्मिन्नाधाय
तस्मिन्प्रसन्ने
तस्मिन्सति श्वास
तस्मिन्सतीद्
तस्य प्रसाधन
तस्य भावस्त्वतलौ
तस्यवाथंस्य
तां प्रातिपदिकार्थं च
ताच्िकं ब्रह्मणः
तानिष्ष्ातु
तारमायारमायोगो
तारव्योमाि
तासामहं वरा
तिष्ठासोरेवमिच्छेव
तुषतण्डल
तृतीयः सकलः
तृतीये कोप
तेजो वे घृतं
तेन ज्ञाता
तेन प्रोक्तम्
तेन मायासहखं
| तेन यत्र प्रयुक्तो
तेनान्यस्यान्यथा
ते विभक्त्यन्ताः
तेषां सतत
तेषामप्येक
६५६
६२७
६8
२७०
२८९
२७२
७२३
२६५
३८२
&०६
&१४
६०५
८१५१
३८८
।
।
।
।
।
।
६&०
उद्धरण
तेषासरग्यत्राथंवशेन
तेस्तेरप्युपयाचि
स्याज्यं सुखं
त्रयो वेदस्य
त्रिगुणो द्विगुणो
त्रिधा प्रकल्पयन्
त्रिधा बद्धो
त्रिपदाथं चतुष्पादं
त्रिविधं भ्रमाणमिष्ट
त्रिविधं सच्वं
स्वं पुरा सागरो स्पन्नो
स्वशब्द श्चापरोक्ता्थ
द्
दक्षिणे तु करे
ददव्यखिक _ .
ददामि बद्धियोग
दं नार्स्पश नात्तस्य
दशः
द्यन्ते -ध्यायमानानां
दाता भोगकरः
दिष्यौदरिक
दीच्ताकारि
दीपनगमन
दीक्षास्थिरा
दुःखं संसारिणः
दश्टाचुश्न
दष्टो न चेकदेशोरिति
देवाः केचिन्महेशायाः
६९९
५७८
६९९
७९६
६२९
८८४
७०५५
१२०
३७९
सर्वेदशेनसंम्रहे-
उद्धरण
देवासो येन
देवो मनुष्यो
देशना लोकनाथानां
देशबन्धश्ित्तस्य
देशवन्धशधित्तस्य
देहः स्थौल्यादि
देहस्य नादो
देहास्मप्रव्ययो
दोषाश्चेन्न हि
दोषेण कमणा
द्रव्यं कालः
द्व्यगुणकमनिष्पचि
द्रव्यबुद्धिश्च
द्रभ्याद्रभ्यप्रमेदात्
द्व्याश्रया निगुंणा
द्राक् स्यजेन्िन्द्कं
द्वाविमौ पुरुषौ
द्रा सुपणा
द्विचत्वारिंशत।
हिस्वस्वग्रमिति
द्विव्वाख्यगुण
द्वित्वे च पाकजोस्पत्तौ
द्विखवोदयसमं
द्विधा कैश्चिस्पदं
द्वैतं न विद्यत
ध
|
धर्मश्चेव प्रमादश्च
धर्मस्य तदतद्रुप
धर्मानुवतंनादेव
३०२.
२८४
३४४
१०१
२७२
२८४.
८८२
८८ प
२३.
१२०
उद्धरण
न च ना्ञ प्रयात्येष
न च वि्ञेषण
न चागमविधिः
न चात्र पत्त
५ चानुवदितुम्
9:
नन्वत्र रजताभास
न प्रकाश्य प्रमाणेन
न प्रकृतिं
नमितः सर्वदेवेश्च
न यस्प्रमाद
नयातिनवच
नयानशेषान्
न शक्यं केवलं
न सतः कारणा
न स्वरूपेकता
न स्वगो नापवर्गो वा
न हि कश्चिस््तणमपि
न हि विज्ञातुर्विज्ञातेः
न दयसनिहितम्
नाकमिष्टसुखं
नाजी वञ्ज्ञास्यति
नादेराहित
नानास्मानो
नानावर्णो भवेत्
नानुमानादि
नान्यदष्ट स्मरस्यन्यः
१३
नाप्नुवन्ति महात्मानः
प
नाप्येकव विधा
¢
नामधास्वथं
६१ स० सं
ॐ ८ 6 6
न ४ ८४
उद्धरणसुचिः
प
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२८१
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२३२
७६०
२२७
५५५
६९५
उद्धरण
नायमात्मा ्रवचनेन
नायमात्मा बल
नारायण सदा
नारायणोऽसौ
नावेदविन्मनुते
नासतो विद्यते
नास्तित्वं सेव
नास्तीत्यपि न
निःसीमस्वेन ते
नित्यज्ञानाश्रयं
नित्यमनित्यभावात्
निस्यानित्यात्मकं
निपाताश्वोपसर्गाय
निरपादान
निरूढा रक्षणः
निजंरा संमता
निदुःखानन्द्
निर्दोषतां प्रयान्त्या
| निर्वाणस्य प्रदीपस्य
निश्वयास्साधयेदर्थ
निष्कर्षाकूत
निष्क निष्क्रियं
निष्कारणो धर्मः
नीचानां वसतौ
नौखलोहित
नीलिमेव वियव्येषा
चछपञ्चास्यमह
नेकः पयं॑नुयोक्तव्यः
नेकतापि विरूढधाना
नकस्मिन्नसम्भवात्
नेयायिकास्ते
नेव वर्णाश्रमादीनां
„५५
52.5.८८ ~
५ 2. ~ ~.
न्यस्यान्तःस्थप्रथिव्यादि १५
न्यायानामेकनिष्ठानां
प
पत्ती चक्तो
ड
9
६६२
उद्धरण
पड्गवन्धवदुमयोरपि
पञ्चकास्त्वष्ट
पञ्चनवद्वथ
पञ्चमे शून्यतेव
पञ्चवकन्नरित्रनयनं
पञ्चविधं तच्छ्ृत्यं
पञ्चार्थादन्यतो
पञ्चेन्द्रियाणि
पतिः साद्यः
पतिविद्ये तथा
पद्मासन भवेदेतत्
पर आत्मा तदानीं
परमानन्देकरसं
परस्परविरोधे हि
परिच्छेदान्तरा
परिणामताप
परितः पूजनीयानि
परिपक्रमला
परिन्नाट्कामुक
परिदोषास्स्छतिः
परीच्य रोका
परेरप्युपरुच्येत
पयंटति कमं
पर्यायाणां प्रयोगे
पर्यायेणैव
पवित्रं सवं
पद्रावश्िविधाः
पडत्वमूख
पशश्चेन्निहतो
पश्वादिभिश्चा
पादाङ्खष्टौ
पारं गत
पारदो गदितो
पादाजारं समा
, ऊ शिव
पा्चाश्चतुविधाः
पीतश्ङ्काववोधे
पीतश्वेतारण
द् ©
१४
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स्बैदशेनसंग्रहे-
पु उद्धरण
६७६ पीतिमा गृह्यते
२९९ पुंसां येनोप
१६१ पुण्यस्य संवरे
७२७ पुत्रोरपत्तिविपत्ति
३३० | पुनराबृत्तिरदहितः
२३१ पुरः स्थिते भमेयान्धौ
३१९ पुरुषः स
१०१ पुरुषविमोक्त
३०९ पुरुषस्य तथा
३४६ पुरुषस्य दशंनाथं
७२१ पुरुषाथंशूल्यानां
३३२ | पुय्कं नाम
३८९ पुयंष्टकदेह
३८ पूजनाद्रस
७8६
६९७ | पूणंप्रत्स्तृतीयः
१०१ पूर्वं रोहे
३४२ पूर्वं व्यत्यासित
६५ पूरवपूर्वोदित
८११ पूरवेप्रयोगाव्
२२९ पूवंषामति
३६१ | पृथ्वी पञ्चगुणा
३३८ ¦ प्ृथ्व्यप् तेजो
६०३ | प्रश्व्याः पानि
६०२
६१६ | प्रकरणादस
३२७ | प्रकर्प्येत कथं
३०० । प्रकारोक्यात्त
२३ | प्रक्रतिः प्रक्ष
७७९ प्रकृतिप्रत्ययौ
७२१
£
जा
२ | प्रकृतिस्थित्यनुभव
३७६ | ्रक्रतेमंहांस्ततः
३४३ प्रजञिरूपो
३३४ | प्रणवान्तरितः
३४३ | प्रतिमादिकम
८१७ | प्रतियोगिन्यद
७२८ । प्रत्यक्तं च परोक्त
+© + +> कि. । ~+ +> भ
ध % न ~ छ न ~ ६५ ~ ॐ 9
र षः + ५ ० © 9 € % ७ © € षः
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९४०
ती
पु ५ ६६३
उद्धरण द° प° | उद्धरण द° 4.
प्रत्यक्तमनुमानं च २ १०२ | प्रासादस्योपरिस्थानां 9 २४
भ्र्यभिज्ञा यदा १२ ५५३ | प्राहुरेषाम ३ १७८
प्रयेकं पञ्च १५ ७२५ | प्रियं पथ्यं वचः ३२ १४१
। 5 म्रव्येकं वायु १५ ७१० | प्रिया वाचंयम ३ १६४
ध भ्रव्येकं सद्सवा १६ ८५२ फ्
ः प्रथमं छन्दसा १३ ५८५ | फलं तत्रेव ३ १०६
ए प्रथमं परतः १२ ५५७ न
ध व क ५ बद्धः खेचरतां ९ ३८०
क बद्धान्दछेषा ७ ३४२
र प्रथानमन्ल ४ १८६ | बन्धमोक्तौ ५ २९०
प्रपञ्चो यदि + २९० | बन्धहेस्वभाव ३ १६७
क श
| प्रमाणस्वाप्रमाणत्वे ४ 9१ बभोगोप न १
। . ` पअमाणदोच 2 बलित्था तद्र ५ २९६
्रभासववी ५ २९१ | बाधकप्रस्यय १६ ८१९
जानमि 48 ४४९ | बाधामावा्पदा १६ . ८५१
म्रमाणवच्वादायातः ३ १०५ | बाधिकेव शतिः १५ &७२
ग्रमाणान्तरवादे ९ ३८५ बाटः षोडश ४ 2३८४
यमाणान्तरसद्धावः २ ३४ बालस्य रक्तता 1 २००
प्रमाणान्तरसामान्य र ३४ बालाग्रश्चत धे २२५
प्रमादाद्रस र् ३८९ बाह्याः प्राणा द १४१
प्रमेयं प्रमितौ १६ ७९० | वीजाङ्करन्याय ६ १३५
। प्रयल्लायौगपद्य १६. ` ८१२. बुद्धिपौरुषहीनानां जीविका १ २२
प्रयोजनंतु यः १२ ५५३ बुद्धिपौरुषहीनानां जीविके १ ७
भ्रयोजनमनु ११ ५०९ बुद्धि्म॑नस्स्व ७ ३४०
र ग्रखयाकटेषु ५ २३८ | बुद्धीन्द्रियाणि १४ ६२४
प्रवाहकाल १५ ७२६ . बुद्ध्या विविच्य २ ६५
प्रवृत्तिर्वा निवृत्तिर्वा १६ ७९४ ब्रहस्पतिरिन्द्राय १३ ५८२ |
प्रवेशः कमं ३ ५७८ बौद्धानां सुगतो २ १०१ ॑
प्रसज्यमानरजत १६ ८१९ ब्रह्मचयंम्हिं १५ ७२० |
प्रसन्नात्मा हरि ४ २३१ | ब्रह्मण्येव १५ ६७५
प्रसुक्षास्ततच्वलीनानां १५ ६९५ ब्रह्म वेद् ५ = |
प्राणायामेन पवनं १५ ७३० ब्रह्महस्यां पमुच्येत १६. ८८३
प्राणायामस्तु ५५ ७२८ व्रह्मा शिवः ५ -२७८
प्राप्यते येन ९ ३८८ | भ
भ्रारभ्यन्ते ५ २८८ | भक्तिरुच्मी ८ ३५६
श्राञ्रृतीशो बलं ७ ३४३, भण्डेस्तद्रत् ५ २४
क "काः का पावकात ` क क्क
६६४
उद्धरण
भस्मकादिषु
भस्मन! त्रिषवणं
भस्मीभूतस्य
^,
भागो जीवः
भारताध्ययनं
भारताभ्ययनसवे
भावनाभिभावितानि
भावानिच्छावदा
भावान्तरमभावो
भावान्तराद्भावो
भावो यथा तथा
भासमाने तयो
भिह्पादप्रसारण
भिद्यते हृद्य
भिद्यन्ते बहूधा
भिन्नकारं कथं
भिन्नाः हि देश
भुङ्के न केवरी
अुवनानामुपा
भूतादेस्तन्मानत्रः
भूमिमंध्यपुटे
भूयश्चान्ते
सेदश्च आन्ति
मेदाविमौ च
भेदेन मन्द्
भ युगमध्य
म
मङ्गखादीनि
मङ्गलानन्तरा
मणिग्रभाविषय
मतदहि ज्ञानि
सतिश्ुतावधि
मध्यमानां तु
मनोजविस्वं
मनो दो षात्त
मनोबुद्धिरिति
त => „2
९ क) 6 ५८
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० ४ .-@ -& -& %& < ~
सवेदशंनसंग्रदे-
प्र
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१८९
१८९
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८१८
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२३६
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¶००७
५७८
२२३
६२४
७२५
८७१
७१
७१९
२७८
२३८९
६६५
६९७
९९
२७०
१३७
६७२
७३४
८१०
१०१
उद्धरण
मनो वाद्छाय
मन्त्रदोषा
मन्त्रवर्णान्समालिख्य
मन्त्रांश्च करो
मन्त्रात्तरेण
मन्त्राणां दश
मन्त्राणां मातं
मन्त्रायुवेद्
मन्त्राणंसंस्य
मन्त्रेण चारिणा
मन्त्रे मर्त्यं
मम देहरसो
मम देहोऽयम्
मल मायाकमं
मलयुक्तस्तत्रा
मलाद्यसम्भवा
महदाद्याः
महामायेत्यविदयेति
महात्रतानि
महेश्वरो यथा
मांसानां खादनं
मा कमफल
मानाधीना मेय
मामुपेत्य पुनः
मायां तु प्रक्रतिं
मायामान्रमि
माया वि्तिपदक्तान
मायेच्युक्ता
माग॑श्ेत्यस्य
मितिः सभ्यक्परि
मिथश्च जड
मिथ्यान्ञानमधमं
मिथ्यादक्लना
मिथ्याभावोऽपि
मूक्तात्मानोऽपि शिवाः
मुक्तानां चाश्रयो
मुक्तास्तु शेषिणि
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१५५
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दप्मेष्वै
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२२१
उद्धरण
मुक्तास्ते रस
सक्तौ सा च काना
मुख्यं च सवं
सुख्याथंबाधे
मुनयो बाल
सुनियंदज्न
खख॒ज्रधि
मुह चिच्ये
मूर्छितो हरति
मूलप्रकृति
मूखरामायणं
शतानां प्रेत
खृतानामपि
त्योः स मस्यु
मेयं साधारणं
[
मेवाङ्वण्यो
य
या आत्मनि तिष्टन्नाव्मनो
य आत्मनि तिष्ठन्
य आत्मनीति
य एतं ब्ह्मरोक
यः स्यात्प्रावरणा
यन्ञानुरूपो बिः
यच्चानुकूल
यजमानः प्रस्तरः
यञ्जरया
यतो वा इमानि
9
यतो वाचो
यत्त्वा संग्रदायेन
यत्नाद्यदुत्सजेत्
यत्नेनानुमितो
यत्र द्रष्टाच
यत्राप्यतिकयो
यत्रासौ वर्त॑ते
` यत्सत्तत्ततणिकं
[ ते ह १।|
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जन्ते
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उद्धरणसूचिः
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~ 2१
उद्धरण
यथाज्ञो जीव
यथाणिमाच
यथा न्यः समु
यथानादिर्मल
यथा पत्ती च
यथायथार्थां
यथा रोहे
यथावस्थित
। यथा सोम्यैकेन
न्ष
यथास्थितार्थं
यथा स्वप्नप्रपञ्चोऽयं
यद्रे रोहितम्
यद्न्तक्ेय
यद्सर्स्वपि
यदाचरमव
यदातदान
यदाश्रित्येव
यदि गच्छेस्परं
यदि चार्धं
यदेव परख्पा
यद् ग्रहे यद्पेक्तं
यद्यनादि न
यमनियमा
यमथंमधिक्त्य
यमेवैष वृणुते
यश्चोभयोः समो
११
यस्मात््रमतीतो
यस्मिन्नेव हि
यस्य त्रीण्युदितानि
यस्य न स्खलिता
यस्यं प्रसादा
यस्यानवयवः
प
यस्यंतानिन
ॐ 4
या चेषां प्रति
यातविवेको
यावजीवं सुखं
यावज्ीवेस्सुखं
|
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[1 [च| कति कनके भमि [ ५। कके अम
५ ० $ 6 @ ० ~ ~ ~ @& छ 6 € छ ॐ & ७५ 5 0 ^ 17
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१९
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२६१
३८४
रे
६६६ ` स्वंदशनसंग्रहे-
उद्धरण द° प° | उद्धरण द० परण
यावन्तो यादृशाः १३ ५९९ | रूप्यादेरथं १६ ८५१
युगपत्तद्धि ३ १७२ ल
युज समा ` ++ &७+ | लक्तणे दृश्यते ९ ३८१
युजिर्योगे स १५ ६७२ | लक्तणारोपिता १५ ७१७
ये ९ ३७८ | लच्मीरक्षर ५ २७८
| येन रूपेण २ ५३६९ | रुञ्धानन्त ३ १७८
(1 । येनाङ्किता, ५ २६३२ | लभ्यमाने फले १२ ५५३१
यनव जात १ १ | लाभा मला २९९
। योगः समाधिः 9 ९७\ | लिङ्गा्यमावा १६ ८११
| यो गश्चित्तवुत्ति १५ ६४९ | लुद्चिताः ३ १७८
४ १५ ९७७ | लेशादृष्टिनिमि ११ ४५६
योगारूढस्य १५ ७०५ | लोकसिद्ध १ १०
| योगिनामपि ८ ३६६ | लोकस्यैव तथा ढः डज
| योगी मायाममेयाय १६ ८७१ | छोकातिवाहिते ३ ५६४
(= का वश्व ९ ३८४ | छोकाधीनाव १५ ६९६
चोजयति षरे 9. दः | कोकावरतलामस्यः ४९ ` ४५५
यो धमकी १२ ५७३ | लोहवेधस्त्वया ९ ३८३
यो मामेवम य २७१ | रौकिकं तद्र देवेद १६ ७७७
योऽयं विन्ञान ७ १९९ | लौकिंकव्यवहरेषु १३ ५७९,
यो यजानाति ७ ३२८ | लोकिकेन प्रमाणेन १६ ८.५२
यो रोकत्रय ५ २७० | =
योऽचबोधस्त व दि क
र् | वदतव्यब्राह्यणा १५५ ६९
रत्तोहागम १३ ५८५ वन्द्यास्ते रस (पार मे०) ९ ३७८
रङ्गस्य दशंयित्वा १ ६४७ वर्णाः प्रज्ञात १३ ५९९
रजतं विष १६ ८१० वर्घषातपाभ्यां २ ४४
रजतव्यवहारा १६ ८१९ । वश्ीकङ्रत्य ततः १५ ७३१५
रस ९ द्येवायं ९ ३९० वश्यता परमा १५ ७३०
रसश्च पवन ९ ३८० | वसुधाद्यस्तच्व ७ ३३८
रसाङ्कमेय ९ ३८५ | वस्तुनि ज्ञाय ह; - १८१
रसोवेसः ९ ३९० | वहन्व्यहनिश्ञं १५ ७२५
रागादित्तान २ १०३ | वहन्त्योरुभ १५ ७२५
रागादिदोषसं १६ ८४९ | वाक्पाणिपाद् १४ ६२७
रागादीनां गणो २ १०२ | वाक्येष्वनेका ३ १७२
राजीभूय जयाथ १६ ८८७ | वाचारम्भणं ५ २८१
` रुचिजिनोक्त ३२ १३७ | वाच्यासा सवं १३६ ~. ३4४
रुद्धकीलित १५ ७११ | वायो रामवचो ५ २९५
॥
चः
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च क क क + (न
#॥३,३
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1.13 (६ ` ऋ ५१.
९३ ॥ ‡ =
11
् द्र क 4
ब्दी, ~ > 4
उद्धरण
वायो्वंहे
वारिबीजेन
वार्तांहरेण यातस्य
वासचयां
वासुदेवः परं
वासुदेवः स्वभक्तेषु
विकल्पो वस्तु
विकारापगमे
विकारापगमो
विङ़्तौ व्यक्ति
विगलितसक्त
विच्छिक्नोदार
चिन्तनं वेदना
विज्तानं स्वपरा
विज्ञानघन
विज्ञानाकल
विज्ञाय प्रज्ञा
वितकं विचारा
विद्यां चाचिद्यां
विद्यादिज्ञापितैः
विधिनोक्तेन
दिधेस्तु निय
विनापि विधि
विभक्तलन्षण
विभावोपासने
विमश एव
विरामप्रव्य
विलिख्य मन्त्र
चिवतते तद्रजत
विवतंतेऽ्थभावेन
विवतंस्तु
विशिष्टफलदाः
विशोका वा
विश्वजिन्न्याय
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१५५
उद्धरणसूचिः
पृ० | उद्धरण
७२. विष्णोः प्रज्ञस्ति
७११ | वीतरागजन्मा
७९६ | वृत्तात्कर्माधि
३०१ | बृद्धप्रयोग
बृद्धिरादेच
२२३ देच
२२५ | वेत्ता नवगण
९८ | वेदनमुपासनम्
६१४ | वेदमधीव्य
& पृ ।:. | र # + 3
३४५ | वेदस्याध्ययनं
३८९ | वेदाध्ययन
६९५ | वेदाज्ञो वेदि
१०१ | वेद्यः स एव
१४० | वेदिकेन प्रमा
(र
४ | वेदिकेषु तु
वेंयाकरणा
७ ६
क वैरचण्यं तमो
व्यक्तयस्तासु
३९० ।
। व्यक्ताव्यक्ता
२३० | ष्य ( =
३६९ | व्य क्तलभ्यं तु
व्यभिचारवति
१ व्यवहारोऽपि तत्त
२१ ९ >
य भा ब्य `
न
व्यवहारोऽपि तत्त
५५२६ 3
व्याघाताचवधि
उ्याधिस्व्यान
व्यापकव्यावच्या
व्यावतंयितु
व्याव्याभाव
व्यावहारिकीं
1 व्युहश्चतुविधो
२ व्रीहीञ्ञिहासति
७५२ | श
५ डोंनो देवी
५२६ | शक्तस्य शाक्य
५३१ दाक्तिराधीयते
७१९ । शक्तिरूपेण
७२४ | शक्त्याविष्करणे
२७८ ` शाङ्कस्येन्द्रिय
२२ |
२६२
७१०
१६
२
चरण
२६८
२२१
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५१४३
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८ & १
२२
५१७
६३८
१०७
३७५५
३६०
८१८
६8८ सबेदशनसंमदे-
उद्धरण द° प° | उद्धरण द्° पृ०
शतमष्टाद्च ७ ३४७१ घ
दातानि तत्र ५५ ७२५ | षट्केन युग २ ६९
शबदः सपशसतथा == ० ३४ | षटनिशदगर ~,
शब्दब्रह्मणि ५३ ६१ घरशतानि ९९१ ७२४
शब्दादिष्वनु ४ २० | षडदशाने ९ ३७७
शब्दे ऽनिल्ये सा ९ ५९ | पोडशकस्त॒ 9
शाब्द स्तन्वश्च २०८
हारीरश्षोषणं ११० स
शान्त उपासीत २३८ | स आत्मा ५ २४६
शान्तो दान्त छ २३९ | स आखवः ३ १५८
्ाखचिन्तकाः १६ ` - ७७२ |स एव छव 11 क 9
शाखपूवेके ४३ ५८० | व 4
द्ाखरयो नित्वात् 2 1
| संकषंणो वसुदेवः २२५
> + २५५ | संघो रक्ताम्बर २ १०३
ध १६ ८५० । संचिन्त्य मनसा ` ५५ ७१०
शुक्तिकाया विदोषा ५६ ८१० | संपूज्य ५ २६७
१६ ८४९ | संपूर्णाथंविनिश्चायि ३ १७५
शदधेऽध्वनि शिवः ७ ३३१ | संप्रोक्ता नित्य ४ २१९
शुभः पुण्यस्य ३ ५५८ | संबन्धिभेदात् ९१३ ६०५
शोषाः पुमांस १५ ७०८ । संमानन १२ ५३४
हेषा भवन्ति ७ संयोगो योग ९१५ ६७३
शोषे यजुःकब्दः ५५ ७०७ । संवादे महदा १६ ७८७
न्ोवागमेषु ७ ३४३ | संसारबीजभूतानां ३ ५६६
श्लोको मिथ्या ३ १७७ | संसारस्य परं ` ९ ३७६
शौचसंतोष ९५ ७२० | संस्कारा दशा १५ ७११
~ कात 9 ३४१ | सस्थानक्याद्य ४ २०८
श्रीकण्टश्च ७ ३२६ | खकषायत्वा ३ १२८
श्रीमत्सायणः १ २ सच्चिज्जिस्यनिजा ९. ३८६
श्रीश्ाङ्गंपाणि ५ २ | सजातीया ३ १११
श्रुतिगम्यात्म १६ ७८६ | सत्कमंपुद्रर ३ १७७
शरुतिप्राप्ते १५ ६७० | सच्वं तप्य १५ ६५४
श्रुतिलिङ्ग ५५ ६७१ | सस्व पुरुषान्यता १५ ७३५
श्रुतिसाहाय्य च ५ २९१ | सत्य आत्मा ५, २६६
श्रुतिस्मृतिसहा «५ २९१ | सत्य ज्ञानमनन्तं १६ ७६१
श्रुत्य रङ्कष्ट १५ ७२७ ४ १३...
श्रेयः परं किं ९ ३८७ | सस्यं भिदा ५ २६६.
श्वेताम्बराः ३ १७८ ` सत्यं वस्तु तदा १३ ६०८
ग्रीक
उद्धरण
सत्यः सो अस्य
सत्यपीतावभासेन
सत्यमिध्यात्मनो
स त्यमेनमनु
सदागमेक
सदा ज्ञाता
सदा तद्धाव
सदा शिवात्म
सदेव सोम्येदमग्र
9
सक्तभङ्किनयन्यायः
सक्तभङ्किनयाचे्तो
समनस्केन्द्रिय
समस्तसपव्स
समाधावचला
समाधिः समता
संमानं कुरुते
समानेनैव
स मागं इति
समाश्रिताद् ब्रह्म
सये
सम्यग्दशंनक्ञान
सम्यग्रजतबोधस्तु
सम्यग्रजतबोधाच्च
स यथा शकुनिः
स यथा सैन्धव
स याति नरकं
सरजोहरणा
सरूपाणामेक
सर्गेऽपि नोप
सवंकतृस्वमे
सर्वज्ञः सवं
स्व॑क्तमव
सर्व॑ज्ञसद्शं
सवंजञोक्ततया
सवज्तो जित
सवंज्ञो दृश्य
सवंतश्च यतो
~> ©
ह ॐ ~ ५4 ६५
[1
@ ४ & ७ ^ ९५ @ न 6 ^ 6 न
उद्धरणसूचिः
पृ9
२६६
८१८
८५०
२६६
२९२
&८३
२६१
१८७
७७१
१६९
१७३
५३९
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६६१
& ५५५
उद्धरण
सवंधावद्य
स्वभावेषु मूर्छया
स्वां नश्नु वते
सवंषामिह
सव्येन शङ्कं
स सवविद्ध
२३८
स सर्वव्यव
स स्वग: स्यात्स
सहसखरमात्मने
, सहश्मेक
सह खशीषां
सहो पलम्भ
साक्तात्कारिणि
साङ्ग च सरहस्यं
सा चेकमेव
। साच्िक एकादशकः
३८३
८१५ '
सानित्यासा
। साप्यपेत्ताविहीना
। सामान्यलन्षणं
१०२
२७२
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२६३
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२६६
२६१
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१२२
१२२
१२२
११९
१२०
साधकस्य तु
साध्यव्यापकता
सारोपान्यातु
साधं घटीद्वयं
सा वेरा मरतो
सिद्धे शब्दां
सुखानुशयी
सुदशेनमहा
सुस्षिडन्तम्
सुक्षोऽयं मत्समो
सुप्यजातौ
सूचमे तदनु
सूनरं बृत्ति
सूतरेणेकेन
सृकिकण्योः
सेतु दृष्टा विमु
सेयमान्वीच्तिकी
सेवेत योगी
३३४ । सोऽनादिमुक्त
2, 10. 9
१५
११
१२
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१४
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१२
१.२
१५
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१४०
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२७१
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२२६
३४९
३२०
७२७
८ ७2
८७
७२०
३३४
ह नि = ~ का कनक 7 तत ` क च = ऋ न्प्र क क नित क
६७० | सवदशैनसंम्रहे-
उद्धरण द° प० | उद्धरण द्० श्म
सोऽपि पयनु १३ ५९७ | स्वतन्त्रो भगवान् ५ २४७
सोऽयं परमो ११ ४८७ | स्वपिता यजमानेन १ २३
सौच्म्याद्व्यवधाना ५ २५५ | स्वभक्तं वासुदेवोऽपि ४ २२७
सोऽय सत्योप्य ५ २७० | स्वरसवाही १५. ७०२
सौत्रान्तिकेन २ १०२ | स्वरूपपररूपा ४ १८९
खी पुनपुंसकस्वेन ९५ ७०८ | स्वगंस्थिता इ २४
खीमन्त्रा वहि ९५ ७०८ | स्वविषयासं ९५ ५२९
स्थानाद् बीजा १५ ६९७ स्वसिद्धे परा १५ ७१९
स्पशंर सगन्ध ३ १५३ स्वाङ्गं स्वन्यव ११ ५१०
स्फटिकं विमल ५३ ६०४ स्वातन्त्यपूणं 4 २७३
स्फुरितो ऽप्यस्फुरित ९ ३८४ | स्वातन्न्यशक्ति 4 ` २७८
स्फोटनं पुनः ९. ३८१ स्वाभ्यायज्ञौच १ ७२०
स्मृता सकामा २ १६६ स्वाभ्यायोऽध्येतव्यः १२ ५२२
स््रव्यातो रज वहः ८4९1: - ॐ १२ ५२८
स्यार्पु्॑टक ७ ३३८ स्वेदनमर्दन ९ ३८२
स्यादस्ति स्यात् द 48 ५
स्याद्वादः सर्बथे इ 0
स्याद्वादस्य ३२ १७७ | हसितगीत दः ` ` -244
स्यान्नास्तीति ३२ १७२ | हास्यलोभभय ३ ` 4४२
स्यान्निपातोऽथं २२ १७२ | हिंसा रत्यरती ३ १७७
स्वतन्त्रं पर ५ २४७ | हिरण्यगर्भो १५ ६६८
स्वतन्त्रस्या ७ ३२६ हेतुत्वमेव च र ७९
स्वतन्त्रोक्तवि १५ ७१० | हेयं हि कवं ३ १४७
अ
अक्रतक्मभोग ११३
अङ्रताभ्यागम ४९६
अखंड उपाधि ५६०
अख्यातिवाद ८४२
अञ्चि-पुराण २६४
अधघोरिवाचायं ३२२ ३३९
अकन २६३
अचित् २१७ २२२
अजड २१९
अजयामत्र ७२४
अज्ञान १९० १९५ ४८५
अतदुगुणसंविन्ञान २४१
अतिप्रसंग १०६
अतिशय ४६
अत्यन्ताभाव १८ ४४६
"अथः का अथं ६६७
अद्रेतव्रह्मतत्व ६१४
अद्तवाद् ६४े
अद्रेत-वेदान्त १८७
अद्वैतसिद्धि ७७
अधिक ४८५५
अधिकरण ५२२
अधिकरण-सिद्धान्त ४६५
अधिपति ८१५
अध्ययन-विधि ५२६
अध्यापन-विधि ५३६
अष्यास ८०9
अध्यास केमेद् ८०१
अनयुभाषण ४८५
अनन्तवीयं १७२
अनभिरति ८८४
परिशिष्ट-५
चाञ्दानुक्रमणी
अनवसाद् २३९
अनवस्थादोष 4४ १५
१६ ३० ४ ४७ 9८
४९ ४६८ ६१९
अनित्यसम ४८२
अनिर्वचनीयस्या-
तिवाद
अनुत्पत्तिसम
अनुद्धषं
अयुपरूष्धि
अनुपरुन्धिसम
अनुबन्ध ६७
अनुभववर्ध १६०
अनुमान-प्रमाग ११९
१९. २६१ ३९४
८४रे
७९
२३९
४८२
&&९
१६३
१२०
९९८
६२९
७००
1
१४९
१८६०
अनुह्ायी
अनरृत-दोष
अनेकान्तवाद ११०
¶७०
अनैकान्तिक
अन्तःकरण
अन्तराय
अन्तर्यामी
अन्धकार ४७२
अन्धकार का विवेचन
४३८
अन्यथाख्यातिवाद् ८४२
अन्योन्याभाव ४४५ ४४७
१६२
२२३
अन्योन्याश्रय १६ २५४
२.५८ ४६८
अन्वय-विधि २७ २८
१९२ |
१य०१्द् |
३३९ ।
२२४ |
अन्विताभिधानवाद ५७१५
अपकषंसम ४७७
अपरिग्रहच्त १४२
अपवर्गं ४६२
अपवर्गं के साधन ४८८
अपवाद् ४६९
अपसिद्धान्त ७८६
अपाथंक ४८५
अपूबता ७७१
अपूे-विधि ५२२
अपेक्ञाबुद्धि ४१९ ४२३
२.७
अपौरूषेय ५४६
अप्राक्चकार ४८५
अप्रा्षिखम ७९
अघ्रामाण्य , ५१७
अभव्यजीव ९४८
अभाव १९१
अभाव काखंडन ८२०
अभाव का विवेचन ४४४
अभिधमंकोश्च ८७ ९६
अभिधानन्रत्ति ४७4
अभिनवगुप्त ३५० ३५५१
अभिनिवेश ७०२
अभिहितान्वयवाद् ५७१
अभेदवाद २१७
अभ्यास २३९ ७०४ ७७१
अभ्युपगम सिद्धान्त ४६६
अमनस्क १.१०
अमरकोश ६५५७
अयस्कान्त-मणि ६८१
अरघट्-घटी ७२५
बिकता कः = ` = ~ `
६५२
अचां २२३
अथं ४६१ ४८६
अथंक्रिया ३७१
अथक्रियाकारित्व ३८ ३९
9 ० १ ७९
अथक्रियाकारी ५१०
अर्थवाद १२१ ५५७१ ७७9
अर्थान्तर ४८४
अर्थापत्ति-प्रमाण ५२३
२०१
अर्थापत्तिसम ४८१
अहत् ११९
अवघातविधि ५२६
अवधि १३९
अवयव ७६६
अवण्यंसम ७८
अवस्थापरिणाम ६८४
अविज्ञातारथं ४८४
अवितत्करण ३१२
अवितद्धाषण ३१२
अविधा ९३ १८९ ८४८
८५५६
अविद्या पर आपत्ति ६९१
अविनाभाव १३ ५५ २६
८४१
अविरति १६०
अविरोषसम ४८१
अव्यक्त २१९
अष्टप्रकरण ३२२
अखन्देह् "१८७
असत्ख्यातिवाद ८४१
असमचायिकारण ४०६
असिद्ध या साध्यसम ४७३
अस्तेयत्रत ९४१
अस्मिता ६९९
अहिसाव्रत ५१४१
अहिष्ुध्न्यसंहिता ३२१
आ
आगम ३९४ ५८६
सबेदर्शनसंम्रहे-
आगम-प्रमाण ११
आचार ६&
आ्मक्तान ८८५
आत्मतस्वविवेक ४५२
आत्मत्व का छत्तण ४१५
आत्मा ° ४६० ४८६
आत्माश्रय १६ ४६८
आदानसमिति १६५
आधिदेविक २३४
आधिभौतिक २३४
आध्यात्मिक २३४
आन्वीक्लिकी ४५०
आप्तवचन ६३०
आभासखवाद् ३६२
आयुकमं १६१
आर भवाद ८००
आर्थीभावना ५५२९
आ्यंदेव र
आक्य ३२७ ७०३
आश्रयासिद्धि ७७३
आसन ६५१ ७२०
आरुम्बन ८ ११५५
आलय विज्ञान ८१ ८२ ८३
आवरण १२७
आखव १६५
आहारक १५६
ड्
इन्द्रिय ४६१ ४८६
डे
ईर्यासमिति १६५
ईश्वर का निरूपण २२३
इश्वर १३४ २१७ ३१८
५६०८ ५५१०
इश्वर का कर्तृत्व ५०६
इश्वर की सत्ता ५०१
ईश्वर की सेवा के
नियम २६३
ईश्वरङ्ष्ण &२४
|
ईंश्वर-प्रणिधान ६५१
ईश्वर-सिद्धि ४६०, ५०२
ख
उच्छेदवाद् ६६
उण्ड्ुक ७३ ८५५
उत्कषसम ४७७
उत्पत्ति ५३०
उत्पलाचायं २३५१ ३५६
उत्सगं ४६९
उस्सगं-समिति १६५
उदयनाचायं २८ २९
३९३ ४५२ "५५९ ५६४
उद्वाहरण ५६६
उदेश ३९९ ४५५१
उपकार ४५
उपक्रम ७७०
उपचार-वृत्ति ४७५
उपनय ४३६
उपपत्ति ७७१
। उपपत्तिसम ४८१
उपमान १६ ४५९
। उपमिति १६
उपराग ६८१
उपरून्धिसम ४८१
उपसंहार ७७०
उपस्कार ३९३
उपादान ९३
उपादान-कारण २१३
। उपाधि ५२ १७ १८ १९
५६०
उपासना २२६
उमास्वाति १३७
उम्बेक ५३५
ॐ,
। ऊह ५८६
ए
एपिक्युरस :
एरिस्टिपस ~,
शब्दानुक्रमणी
एषणासमिति १६५ | कृतप्रणाद्च ११३
ओं केवल
जौदयिक १४७ कुयट
ओौदारिक १५६ | कंवल्य
ओपशमिक १४७ | कोण्डभह
ओटङ्य ३९२ | कोश
क ऋ्धन
कणाद ३९३ | क्रिया
कथ) € € ० क्रियापाद
कषाय १६० क्रियायोग
कम॑ ४०० ४०८ ७०३ क्रियाद्ाक्ति
क्के मेद ४१७ | क्ले
कम्रवचनीय ५९२ | कणप्क्रिया
कलपतर ७५६ णिक २६ ४१
कठपना-गौरव ५६६ | चणिकवाद = ५
कल्याण २३९ | णिकवादी
कार ९८ | च्ञायिकः
कान्तिचन्द्र पाण्डेय ३५० किप
कामायनी ३७९ | चमर जि
काययोग १५७ ख
कायव्यूह १८४ | खण्डन-खण्ड-खाद्य
कारण ३०९ ¦ ३९३ ७७
कामण १५६ । ग
कायं का निरूपण ३०७ | गङ्खेश उपाध्याय
कायं-कारण-भाव २२ ३६९ | गवय
कायं-कारण-भाव ३६९ | गुण १५४ १५५
कायंसम ४८२ | गुण के मेद्
कालः १५४ २१९ | गुणस्व ४०३
काका ल्क्षण ४१४. गु्ि
कालातीत या बाधित ४७४ गुर का स्वरूप
काशिकावृत्ति ५७७ ८७ | गुरुमत ५२१
किण्व गो त्र-कमं
किरणावली ३९३ | गौतम ४४९
कुमाररात |
| अ्रहण
कुमारिलभट्ट ५९० ५३५
५५९८ | चक्रक दोष १६
कुराचार ३७७ | चक्रधारण
ङसुमाज्ञखि २९ | चतुरिन्द्रिय
४९६
१३९
५५९६
७३६
&०७
३७८
३१२
२३९
२२३
७०१५२
३६१
&९१
४३०
७४
११४
4.
१४७
&८ ६
३.५१
२०५
८८१
७५३
१६
०9
४१६
०९५
१६४
२९९
७६&
५६२
५२
८०८
४६८
२६५
१५१
(9
क क योक [क 1 ~ == ^ रज्कस् कि
६५२
चतुस्सूत्रो ८८९
चन्द्रकीतिं ६२
चयांपाद् ३२३
चार्वाक ३ ४ रेरेरे
चा्वांक-मत सार २२
चिकिंस्साशाख ७३९
चित् २१७
चिस्सुखाचायं १८९
चोदना १२६
ल
दुद ४७४
ज
जड़ २१९
जल्प ४६९
जन्म ४९०
जयन्तभद् ११३ ४५२
जयरथ ३५५१
जरामरण ९२
जाति ९३ ४७५ ४७६
८० ५६० ६१०
जातिखण्डन नप््े
जीवे १८४ २२० ७८१ |
जीवन्मुक्ति ३७५ ३७६ |
= ३८५
जनमत १७७ ७८१
जन तत्व-मीमांसा १४३
जमिनि ५३५
पि ५६७
्ानरक्ति ३६१
्ानावरण १६१
डेविड द्यम २९.
त
तरस्थङच्षण ८ ९०
तत्वचिन्तामणि ४५३
तत्वज्ञान ४८६
तच्वदीच्तित ४५३
तत्लमसि का जथं २०१
२७३ २७४
६७४ सबदशनसंग्रहे-
तत्वमीमांसा २१६ | दुःखान्त का निरूपण
तत्वमुक्तावली २०७ ३०५
तरव-वेश्ारदी ६९५ | इश्यजगत् ९८
तच्वसमास ६२६ दृष्टान्त ७६३
तच्वार्थाधिगमसुत्र १३७ देहात्मवाद् ९
तदुत्पत्ति २६ ३० | दोष ४६१ ४८६ ४८९
तद्गुणसंविज्ञान २४१ | दन्य ४००
तनु-क्टेश ६९४ द्रम्य को पदां मानने
तन्त्रवार्तिक ५१३५५ वाले &०८
तन्मात्र ६२३ | द्रव्यत्व ०३ ४०४
तप॒ ` ६५० ७०६ | द्वित्व की उत्पत्ति ४१९
तमोगुण ६२५ | द्विस्व संख्या २३
तकं ४६७ ¦ द्रीन्द्रिय १५१
तकंवागीश ४५३ द्वेष ६९९
तकंविद्या ४५० | द्वैत का प्रतिपादन २६७
तकंसंम्रह ३९३ | द्वै तवाद् के त्व २४७
तात्पयंटीका ४५५२ ध
तात्पयंरृत्ति ४७५ | धमं ३९६
तात्पर्य चायं 9२ | धर्मकीर्ति ६८ ४५२
तादार्म्य २६ ३१ | धमंपरिणाम ६८४
तिमिर ७३ | धमंपाल ६८
तृष्णा ९३ | धममेदबादी २५२ २५७
सत्तिरीय उपनिषद् २६४ | धर्मी ह
तेजस १५& | धारणा ६५२ ७३१
तौतातित 44 | ध्यान ६५२ ७३१
त्रस ५५० | धवन्यात्मक शब्द् ५५५
त्रिक-दशेन ३४९ ॥
बरीन्दिय < + | नरक ९
त्रेयम्बक-दश्न ३५० ¢
नागाज्ञेन ६२ ४५२
द् नागेश ६०७
दशापदार्थीं ३९३ | नाद् ५५२
द्ंनावरण १६१ | नानात्व-निषेध २१५
दिक्का रक्षण ७१५ | नामकरण २६३ २६५
दिगम्बर १७९ | नाम कमं १६१
दिङ्नाग ६८ ४५२ | नामधेय ५२१ ५७१
दुःख ३६ ७४ ८८ ४७६२ | नारदपुराण २६४
४९० | नारायणकण्ठ ३४३
दुःखान्त ३९१ | निगमन ५१ ४६६
निग्हस्थान ४८३
नित्य १३४
नित्यविभूति २१९
नित्यसम ४८२
निमित्त कारण ०६
नियति ३६८
नियम ६५१ ७१९
नियम-विधि ५२२
नियामक स्वभाव २७
निरनुयोज्यानुयोग ४८५
निरपेक्त ईश्वर ३१५
निरर्थक ७८४
निराकार ज्ञान ११६
निरीश्वर सांख्य ६२३ ६४८
निरोध ८८
निर्गणवाद् २१५
निजंरा १६६
निर्णय ४६९
निविकल्पक ९७ ९८ २५१
निर्विशेष ब्रह्य २११
निश्चित अप्रामाण्य ५६६
निषेध १२१
नीतिशतक ३७९
नीखादिक्तण ०
नेदं रजतम् ८१८
नैमित्तिक कारण ७
न्यायकणिका ८३८
न्यायकुसुमांजलि ४५२
४५५६
न्यायनिन्दु २६ ४५२
न्यायभूषण ५५६
न्यायमञ्जरी ११४ ४५२
न्यायरलावरी &७८
न्यायनल्ाख्ज 5४९ ४८७
ल्यायसार ४५२
न्यायचिद्धान्तसुक्तावली
३९३
न्यायसूत्र २५६
न्यून ४८५
प
पक्त ९२
पक्तधमंता ११
पञ्चकारणी २०
पञ्चदशी २७८ ७५७
पञ्चेन्द्रिय १५१
पति ३२२ ३२३
पद्-मेद ५९१
पदाथ ३२२०
पदा्थधमंसग्रह २३९३
पदार्थो की संख्या ७०१
पद्यनन्दी १६८
परतः प्रामाण्यवाद् ५५८
परमाणु ३६७ ४३३
परमात्मा २०६
परमेश्वर २
परार्थानुमान १५
परिणाम ६८३ ७५०
परिणामवाद &१७ ७४०
€०9
परिसंख्या-विधि ५२४
परीक्ता ३९९ ४५५१
पयं नुयोञ्योपेक्तण ४८५
पर्याय १५५
पश्य ३२२ ३३२
पाञ्चरात्ररहस्य २३१
पारद ३७५ ३७६
पारद्-ल्िग ३८८
पारिणामिक ९१४८
पार्थसारथिमिश्र ५३५
पारा ३२२
पाशुपत-सून्र २९९
पिररपाकप्रक्छिया ४२९
पीतः शङ्कुः ८१६
पीटपाकमप्रक्रिया ४२९
शुण्यराज ५९३
खुद्ख १.५३
पुनरुक्तदोष ८ ४८५
वा त
। पुरष-तर्व ६२८
पुरुष-सृक्त ५५४५
पुरूषाथं ३८९
पुयंष्टक ३३९
पूणं प्रज्ञ-द्न २९४
पूर्ववत् अनुमान ६३०
पृथिवीकाय १५१ .
पौरुषेय-सिद्धि १४५
प्रकरण ५५१६
प्रकरणसम ( सल्परति-
प्त ) ४७२ ४८०
प्रकीणे-काण्ड ५९२
प्रक्रति ६१८
प्रकृति ओर अविद्या ७४८
प्रकृति पुरुष का
सम्बन्ध ६५५
प्रक्रति-प्र्यय ५७२
प्रकरृतिबन्ध १६० ५६२
१६३
परच्छुन्नवोद &४
प्रतिज्ञा ४६६
प्रतिन्ञान्तर ४८३
प्रतिज्ञाविरोध ४८३
प्रतिज्ञासंन्यास ४८४
प्रतिज्ञाहानि ४८३
प्रतितन्त्र-सिद्धान्त ७५५
४६५
ग्रतिदृष्टान्तसम ४७९
प्रतिपदपाठ ५१८२ ^९८द
प्रतिबन्धि-कल्पना ४६८
प्रतियोगी २५८
शब्दानुक्रमणी
ग्रतीत्यसमुर्पाद् ९१ धर
प्रच्यक्तप्रमाण १२० ४५७
६२९
प्रत्यगारमा ३६९
प्रत्यनुमान १९७
प्रत्यभिज्ञा २३४९ ३५८
३७४ ५४५
प्रव्यभिन्ञान ५१०
~, ~^ ~ ~ कियो = ििरिकिदेिसयि ~न ए [क न पि
क |
६७५
प्रत्ययवाद् ३६४
प्रत्ययो पनिबन्धन ८९
ग्रत्याहार् &५२ ७२९
्रदेशबन्ध ५९६० ५६२
१६४
प्रधान ६१९ &४३
प्रधान या प्रद्रति की
सिद्धि ६9
प्रध्वंसाभाव ४४६
भ्रपञ्च € ८ र
ग्रपञ्च की सत्यता २१२
प्रभाकर गुर १९० ५३६
५१४८
प्रभाकर-मत ५३९ ८२०
प्रभाचन्द्र ११९
प्रमाण ३४ ४५९ ४५७
ग्रमाण-वार्तिक २६ ४५२
प्रमाणशाख ४५०
प्रमाणाभास ३४
प्रमाद १६०
प्रमेयकमलमातंण्ड ५१९
प्रयोजन २६४ ७६३
प्रयोज्य ३६४
प्रख्य २१५ &४७
भ्रख्याककल ३३६९ ३२८
प्रवृत्ति ४६१ ४८६ ४८९
प्रवृत्तिनिमित्त &७७
प्रबृत्तिविज्ञान ८१ 4२
प्रशस्तपाद २९३
प्रसंगविपयंय ५३
प्रसंगसम ४७९
प्रसंगानुमान ५२
प्रसुक्च केश ६९४
प्रागभाव ४४६
प्राणायाम &५१ ७२०
७२२
प्रातिपदिकाथं &०६
प्राचि ५३०
म्रा्चिसम ७८
६५६ स्बदशनसंग्रहे-
। प्रामाण्य ५५७ ५६१ | भागवत २२१ | माण्डव्य-ऋषि २५२
। | ५६८ | भाद्मत १२१ ५२२ ७६६ | माण्डूक्य-कारिका २६७
॥ प्रामाण्यवाद् ५५७ | भारद्वाज उद्योतकर ४५२ „ २६९ ७५६
| प्रेव्यभाव ४६२ ४८६ | भावना ३९४ ५२९ | माधवाचाय ५६९ ५६६
। फ भावना-चतुष्टय ३५ | माध्यमिक ३६ ६६
| फट ४६२ ७१७ | भाषा-परिच्छेद् ३९३ ४२७ माध्यमिककारिका ३६
| ब भाषा-समिति १६५ | माया २६७ ३४५.
| क ३८१ | मास्व ४५२ | माया ओर अविद्या ८५२
| ध ड ॑
| जग्ध १५९ १६८ जा क ० 4 5
। बन्धन ४४ |
| बन्धन ॐ कारण १५९ | भेदसस्कार ७६६ | मारुती-माधव ५४७
बहुव्रीहि समास ५७५ मेदसिद्धि २४७ २४९ | मिथ्या का खण्डन २८३
| मिस रमे २७७ मिथ्याज्ञान ४८९ ८२४
५
वादयारथप्र्यत्चस्ववाद् ९४ मेदामेदवाद् २१६ | मिभ्यादशन १५९
वाद्यार्थशल्यस्ववाद् ६९ भोजराज ३३१ | मिथ्यारोपणं ५५३
मिश्र १७७.
विन्दु फ मीमांसा ५१३
बुद्धपाकित ६२ | मण्डन मिश्र ५३५ ७५६ ९
| मीमांसा-दृशान का
बुद्धि १४६ | मतानुक्ता ४८५ | उपसंहार न
| बद् दभ्यसंग्रह ९५५ | मति १३८ २१९ |
। सुत २२६ ३८४७ ३८५५
॥ ब्रह्य ३८९ | मतिक्तान १४० ५,
| ब्रह्मकाण्ड ५९१ ५९२ मथुरानाथ ७५ प ¢
॥ र | र मुरारि मिश्र ५३६
| ब्रह्य का खत्तण २४० । मधुप्रतीका ६९१ ७०४ ७३४
भूद् &८ ६.
२९० म्.
व मधुमती ६९१ ७०४ ७३३ मृदित पारद ३८१
| ब्रह्य के विषय मन ४६१ ४८६ | अगमरीचिका =
| प्रमाण २७२ | मनःपर्याय १३९ | ऊत पारद ३८१
ब्रह्यचयन्रत १४१ | मनस्स्व का खत्षण ४१५ जैत्रेयना
| निल थ ६८
| ब्रह्म जन्षासा २३२ । मनोयोग १५७ | सनो =
| ब्रह्मसिद्धि ७५६ चथ
| द्य मन्त्र १२१ ३३० ५७१ 2
| अक 9 ०० | मोक्तका स्वरूप ४९२
ब्रह्माण्डपुराण २६४ | मन्त्रो ॐ दस सस्कार ७०९ मोक्ञ-माि ३१८
भक्ति २३०७ | महत्त्व ६२२ | मोहनीय रमं १६१
निणय
भजन २६३ २६५ | महाभारत तास्पयं निणय
| भवृहरि २७९ २६८ प ।
| भव ९३ | महाविभाषा ९६ | यम् क,
| भवभंग ११३ | महासत्ता ६०५ | यज्ञोमित्र 1
| भव्यजीव १४८ | महेश्वर ३६२ | या्वर्क्य १२
भस्मकनदोष ८३६ | महोदय ( मोक ) ७४ । यासुनाचायं २४०
योगं ६६ ३०९
योगं का अथं ६८५
योग के आर अंग ७१९
यो गपाद् ३२३
योगराज २५१
योगराख ७३९
योगसूत्र ६४९
योगाचार ३६ ३७ ६७
र्
र्ता ५९८६
रघुनाथ भटराचा्यं ४५३
रजोगुण ६२५
रस ३८२
रसहद्य ३७९
रसाणव ३७६ ३८३
रसेश्वर-सिद्धान्त ३८०
रग ६९९
रामकण्ठ ३२१
रामकराण्ड ३४०
रामानुजाचायं ५३६
राहोः शिरः ९
रूप २१५
रूपकातिज्ञयोक्ति २२१
रूपस्कन्ध ८७
ल
लच्तण ३९९ ४५१
खनच्षणपरिणाम ६८४
लन्तषण ७१३
लच्मणरुक्ष २५१
लङ्कावतार-सुत्र &५
लिङ्ग १२ ५१५
लोकायत ४
त
वरदराज ३५५१
वण्यंसम ७७
वसुबन्धु 8८ ८७ ९६
वाक्य ५१६
वाक्यकाण्ड ५१९२
६२ स० सं
शब्दानुक्रमणी
वाक्यपदीय १५
वाग्योग
वाचस्पति मिश्र
५१३५ ६२४
वाजप्यायन ६१०
वारस्यायन ४५२
वाद्
वादशाख
वायुतत्व ७२३
वासना
वासुदेव सावभौम
विकल्पसम
विकार ५३०
विक्षि
विन्तेप
विजातीय
विज्ञान
विज्ञानवाद
विज्ञानवाद
विल्ञानस्कन्ध
विज्ञानाकल
विधि १२१ ३१०
विपाक
विभव २२३
विभागजविभाग
विमं
विमोक
विरुद ७२
विवरण
विवतं २१३
विवतंवाद् ६१७
विवेक
विवेकचूडामणि
विशेष ४०१ ४०८
विशोका ६९५
विश्वजित् न्याय
विश्वनाथ
५१९१
५५९६२
७२
७२
६११
11.
७६९
४९१०
७२८
८
७५५३
७८
&१८
&८&
2८९१
२७८
९३
&७
७८३
८७
२२३५
५१७१
७०३
२२४
४२३१
०४२३७
२६४
२२८
१५०६
७६
७.५१
६२३९
२३८
&४
१८
७३४
५५२७
३९३
६७७
विषय ५२१
विष्णुतच्वनिणंय २५४
विष्णुपुराण २७३
वरत्तिनिरोध ७०४
वेदना ९३
वेदनास्कन्ध ८७
वेदनीयकमं १६१
वेदान्तदेशिक २०८
वेदान्त-सूत्र ७५रे
वेक्रियिक १५६
वेजास्य ४६९
वैधम्यंसम ४७६
वेभाषिक ३६ ३७
केराग्य ७०४
बेशोषिक ३९२ ७७६३
वेशेषिक-सूत्र ३९६
वेष्णव-दुर्छंन २९७
व्यक्ति ६१०
व्यतिरेक-विधि २७ २८
व्यभिचार २७ ३५
व्याकरण ५५७२
व्याकरण के प्रयोजन ५८५
व्याकरण से मोक्तप्राप्ति
2१५
ज्याघात २८ ४६८ ५४८
व्याघात-दोष &
व्याडि &१० ६१२
व्याप्ति ११
व्याप्तिज्ञान १३ १४
व्याप्यत्वासिद्धि १८ ४७३
व्यावहारिक सत्ता ६६
व्युत्पत्तिनिमित्त . ६७७
व्युर्पत्तिवाद् ४५२
व्यूह २२२ २२३
31
राकरमिश्च ३९३ ४५३
शांकराचायं ७५६
शक्ति ३४५ ४०३
शक्तिग्रह १५
क)
६८
शक्तिवाद् ७५३
शबरस्वामी ५५३५
ङाब्द ४५५९
चाब्द्-प्रमाण १२०
चाढ्दब्रह्य &१६
शाब्दशाक्ति ५१७४
शाब्दशक्तिप्रकाश्िका ४५३
इाब्द्ानित्यत्व १५५०
शब्दानुशासन "१७३ "५७४
शरीर ४६० ४८६
द्ारीर की निव्यता ३८६
चाक्त-सम्प्रदाय ८७२
शान्तरक्ित ` ६२
द्ान्तिदेव ६२
शाब्दबोध ५५७४
शाब्दी भावना २९
.शाश्वतवाद् &&
जाखे का समन्वय २७३
। त ३९३
हिवदृष्टि ३५४
शिवसंहिता ३२१
शून्य ३६ ६४ ७9
शून्य की भावना ६२
शून्यवाद ३६ ६४
श्ेगारण ३१२
रोषरक्षणा षष्टी ५७८
दोषवत् अनुमान ६३०
जोवागम ३२१
जोवागमसिद्धान्त ३२०
श्रीकण्ठ ३२१
श्रीभाष्य २२८
श्रतक्ञान १३८
श्रुति ५१९५
श्रुतिप्रमाण १९९ २०१
२६६
श्लोक वार्तिक ५३५ ५९८
श्वेताम्बर १७९
सबेदशेनसंम्रहे #
-
ष
षडायतन , ९३
षडदशंन-समुच्चय ४
षष्टितन्त्र &२६&
स
सग ९१६८
संगति ५५२१ ७८८
सग्रह १६९
संघभद्र ९६
संज्ञास्कन्ध ८७
संदिग्ध अप्रामाण्य ५६६
संप्रज्ञात समाधि &८९
संबंधसमुदेश्य ६०८
सवर १६४
सज्य ४६३, ५२१
संश्यवाद् .२९
सङ्ञयसम ४८०
संसर्गाभाव ६४५
ससार ४९२० ४९१
ससारी १५०
सस्कार ९३ ५३०
संस्कारशोषा ६९१ ७०४
७३४
सस्कारस्कन्ध ८७
सकर जीव ३२६ २४१
सजातीय २४७८
सस्कायंवाद् ६३५
सत्ता ६०३ &०६ ८५०
स्वगुण ६२५
सत्प्रतिपक्ष ५०९५
सत्य जगत् ९८
सत्यव्रत १४१
सक्तभङ्खीनय १६९ १८३
समनन्तर ८५
समनस्क १५०
श्वेताश्वतर उपनिषद् | समवाय ४०१ ४०९ ४१८
६४२ | समवायिकारण ४०
सखमाल्या ५११७
समाधि ६५२ &७५
समाधि का निरूपण ६८८
समाधिप्रा्षि ७०५
समानतन्त्र ३९२
समानाधिकरण ३२
समानाभिहार २९५५
समावतंन ३३
समिति १६४
सम्यक्चारित्र १४०
सम्यक् ज्ञान १३७
सम्यक् दश्लंन १३५ १३६
सवगं १२३४
सवंज्ञ १३५
क +
सवंतन्त्र सिद्धान्त ४६५
सवं सिद्धान्त संग्रह ७७
सर्वास्तिवादी ९५
सविकल्पक ९८ २९१५
सविचार ६९०
सवितकंसमाधि ६८९
सव्यभिचार ४७० ५४७
सहकारी ४५ ८५
सहोपलम्भ-नियम ७५
सांख्यकारिका २५६ ६२१
६२६
सां ख्यदद्ेन ७४४
सांख्यदशंन के तरव ६१७
सांख्य-प्रमाण-मीमांसा
&२९
सांख्य-प्रवचन ६४९
सांख्य-प्रवचन-सूत्र &२०
साकारन्तानवाद् ११७
सादृश्य ४०३
साधन-चतुष्टय ६६३
साधम्यंसम ४७६
साध्य १२
साध्यसम ४७८
सानन्द समाधि &९°
क ` १ नि * व ॥ क §
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सामान्य का खण्डन ५६
सामान्यतोदृष्ट ६३०
सारस्वत इष्टि ५८२
सावयवत्व के पौँच
विकल्प १२९
सास्मित समाधि ६९०
सिद्धान्त ४६५ ५२१
५२८
सिद्धान्तचिन्दु = ६७८
सुभटदत्त ३.५१
सुरेश्वराचायं ७५६
सूच्म २२३ २२४
सृष्टि २१५
सेश्वर-सांख्य ६२३ ६४९
सोमानन्द् ` ३५१
सौत्रान्तिक ३६ ३७ ९४
शब्दानुक्रमणी ६७६
स्कन्ध ८७ | स्वरूप-मेद वादी २५२ २५७
स्थविरवादी ९५ स्वरूपलच्षण ८८९
स्थान +१७ | स्वरूप-सम्बोधन १४८
स्थावर . १५० स्वरूपासिद्ध “रे ४७३
स्थितिबन्ध १६० १६२ १६३ | गस
"अ २४६ |-स्वखकषण ७४
स्वचश्च १३४
स्पन्दन |
८ २३ | स्वान्याय ६५५१ ७०६
स्प ९३
कोति ५ द स्वार्थानुमान १५
स्फोटचिद्धि &० |*। ह्
स्मरण €०& ।
स्यृतिभङ्ग क हरिव्रषभ ५९द्
हेतु ४६६
स्याद्वाद १०९ ११० |
१७१ १७७ देतूपनिवन्धन ९० ९१
स्याद्वादमंजरी १७५५ हेत्वन्तर ४८४
स्वगत-भेद २७८ ¦ हेत्वाभास ५२ ४७० ४८६
स्वतः प्रामाण्य ५५८ ५६५ हैमचन्द्रसूरि ११९ १६५
५६७ । हेखाराज ५९३
-नछःक्न्=
१०
९९
१०७
१५४
१७८
१८७
२०१
२३४
२१८
३६१
२३८७
४६३
२८
५४
६०२
६.७७
८३२
८६९२९
२७
१६
१३
२२
१६
२०
८
० ^
२९
२५
२०
२०५
२६
१९
७
खएद्धिपच्र
अशुद्ध
तदेन्मनो
पक्ष
६:
त्वपरा
सरोज
इत्मादि
आपादान
आत्म
१०
रूषिता
श्रुति
वालक
व्याप्ति
प्राणत्वे
स्वध्याय
उक्चरित
भतहरि
धर्मो
व्यचिचार
पक्षा-
लणणे-
2३
तदेतन्मनो
साध्य
३
स्वपरा
सरजो
इत्यादि
आपादन
आत्मे
९
रूपिता
. श्रुतिः
बालक
हघ्नान्त
प्रमाणत्वे
स्वाध्याय
उच्चरित
भतहरि
धर्मो
व्यभिचार
यक्षा-
लक्षणे
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